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किताबों की दुनिया -120

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फागुनी बयार चल रही है। इस पोस्ट के आने तक ठण्ड अलविदा कह चुकी है और होली दस्तक दे रही है। फागुन का महीना ही मस्ती भरा होता है तभी तो इस पर हर रचनाकार ने अपनी कलम चलायी है। आज अपनी बात की शुरुआत फागुन पर कही एक मुसलसल ग़ज़ल के कुछ शेरों से करते हैं :-

धूप पानी में यूँ उतरती है 
टूटते हैं उसूल फागुन में 

चोर बाहर दिलों के आते हैं 
जुर्म करने क़ुबूल फागुन में 

एक चेहरे के बाद लगते हैं 
सारे चेहरे फ़ुज़ूल फागुन में 

चांदनी रात भर बिछाती है 
बिस्तरों पर बबूल फागुन में 

शेरो शायरी के आशिक इस अनूठी काफ़िया पैमाई पर वाह वाह कर उठे होंगे। फागुन की चांदनी रातों में तनहा रहने वालों का ऐसा बेजोड़ चित्रण बहुत कम दिखाई देता है। हुनर वही होता है जिसमें हज़ारों बात दोहराई गयी बात को बिलकुल अलग ढंग से पेश किया जाय। नयी बात कहना आसान है लेकिन उस से पाठक को मुग्ध कर लेना मुश्किल होता है। इस से पहले कि हम आज के शायर और किताब की चर्चा करें ये शेर आपके सामने रखते हैं

दुनिया ने कसौटी पे, ता उम्र कसा पानी 
बनवास से लौटा तो शोलों पे चला पानी 

हर लफ्ज़ का मानी से, रिश्ता है बहुत गहरा 
हमने तो लिखा बादल और उसने पढ़ा पानी 

हम जब भी मिले उससे, हर बार हुए ताज़ा 
बहते हुए दरिया का, हर पल है नया पानी 

इस मोम के चोले में , धागे का सफर दुनिया 
अपने ही गले लग के रोने की सजा पानी 

बहुत साल पहले मुंबई के लोकप्रिय शायर कवि मित्र 'देव मणि पांडे"जी के ब्लॉग पर जब से ये ग़ज़ल पढ़ी थी तब से इस शायर की किताब को ढूंढने की ठान ली थी और साहब कहाँ कहाँ इसे नहीं तलाशा लेकिन असफलता हाथ लगी , शायर के पास भी इसकी कोई प्रति नहीं बची थी। आखिर जहाँ चाह वहां राह की तर्ज़ पर सन 2014 के दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में वाणी प्रकाशन की स्टाल पर ये मिल ही गयी। आज हम उसी बेमिसाल शायर जनाब "सूर्यभानु गुप्त"जी की किताब "एक हाथ की ताली"का जिक्र करने जा रहे हैं !


हर लम्हा ज़िन्दगी के पसीने से तंग हूँ 
मैं भी किसी कमीज़ के कॉलर का रंग हूँ 

रिश्ते गुज़र रहे हैं लिए दिन में बत्तियां
मैं बीसवीं सदी की अँधेरी सुरंग हूँ 

मांझा कोई यकीन के काबिल नहीं रहा 
तन्हाइयों के पेड़ से अटकी पतंग हूँ 

पद्य प्रेमियों के लिए 144 पृष्ठ की इस किताब में क्या नहीं है ? इस पतली सी किताब में वो सब कुछ है जिसे पाठक पढ़ना चाहते हैं जैसे गीत ,त्रिपदियाँ ,चतुष्पदियां ,हाइकू , दोहे ,मुक्त कवितायेँ और ग़ज़लें ! चूँकि हम अपनी इस श्रृंखला में सिर्फ ग़ज़लों की बात करते हैं इसलिए बाकि की विधाओं में लिखी रचनाएँ पढ़ने के लिए आपको पुस्तक पढ़नी होगी। खुशखबरी ये है कि अब शायद ये पुस्तक वाणी प्रकाशन पर उपलब्ध है। गुप्त जी की कुल जमा 22 ग़ज़लें ही इस किताब में है और सारी की सारी ऐसी कि सभी आप तक पहुँचाने का मन हो रहा है लेकिन ये संभव नहीं इसलिए आप थोड़े को बहुत मान कर संतोष करें

दिल में ऐसे उत्तर गया कोई 
जैसे अपने ही घर गया कोई 

एक रिमझिम में बस , घडी भर की 
दूर तक तर-ब -तर गया कोई 

दिन किसी तरह कट गया लेकिन 
शाम आई तो मर गया कोई 

इतने खाए थे रात से धोखे 
चाँद निकला कि डर गया कोई 

22 सितम्बर, 1940 को नाथूखेड़ा (बिंदकी), जिला : फ़तेहपुर में जन्में सूर्यभानु जी अपना जीवन मुंबई में ही गुज़ार रहे हैं। आपने 12 वर्ष की उम्र से ही कविता लेखन आरम्भ कर दिया था. पिछले 50 वर्षों के बीच विभिन्न काव्य-विधाओं में 600 से अधिक रचनाओं के अतिरिक्त 200 बालोपयोगी कविताएँ प्रमुख प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं । विलक्षण प्रतिभा के इस लेखक की एक मात्र किताब "एक हाथ की ताली"उनके लेखन के आरम्भ से 40 सालों बाद प्रकाशित हुई है। अपने नाम और प्रतिष्ठा के प्रति इतनी घोर उदासीनता बहुत कम देखने सुनने को मिलती है। उनका संत स्वभाव ही शायद इसका मूल कारण रहा है, तभी तो ऐसे अद्भुत शेर कहने वाला शायर अपने समकालीनों की तरह मकबूल नहीं हुआ।

अपने घर में ही अजनबी की तरह 
मैं सुराही में इक नदी की तरह 

किस से हारा मैं ये मेरे अंदर 
कौन रहता है ब्रूसली की तरह 

मैंने उसको छुपा के रक्खा है 
ब्लैक आउट में रौशनी की तरह 

बर्फ गिरती है मेरे चेहरे पर 
उसकी यादें हैं जनवरी की तरह 

जिन लोगों ने धर्मयुग पढ़ा है वो सूर्यभानु गुप्त जी को भूल नहीं सकते। धर्मवीर भारती जी ने उनकी बहुत सी ग़ज़लें नियमित रूप से धर्मयुग में प्रकाशित कीं थी , इसके अलावा वो कादंबरी, नवनीत जैसी और भी बहुत सी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपते रहे हैं। दुष्यंत कुमार के ग़ज़ल संग्रह "साये में धूप"से पहले आये "एक हाथ की ताली "की ग़ज़लें अपने नए अनूठे अंदाज़ और ताज़गी से जन जन के दिलों पर राज कर रहीं थीं।आपने उनके काफ़िया पैमाई के नमूने तो ऊपर देखे ही हैं अब पढ़ें ये ग़ज़ल जिसमें उन्होंने रदीफ़ में कमाल किया है :-

खोल से अपने मैं निकलता हूँ 
धान-सा कूटता है सन्नाटा 

एक दिन भीगता है मेले में 
साल भर सूखता है सन्नाटा 

खुद को खुद ही पुकार कर देखो 
किस क़दर गूंजता है सन्नाटा 

खत्म होते ही हर महाभारत 
खैरियत पूछता है सन्नाटा 

मुंबई महानगर में सूर्यभानु गुप्त और जावेद अख़्तर ने साथ-साथ अपना सफ़र शुरु किया था। जावेद को मंज़िलें मिलीं । सूर्यभानु गुप्त को आज भी मंज़िलों की तलाश है। शायर बनना कितना मुश्किल काम हैं, इसे बताने के लिए उनका ही एक शेर देखें :

 जो ग़ालिब आज होते तो समझते 
ग़ज़ल कहने में क्या कठनाइयाँ हैं 

हालाँकि उनकी ढेरों रचनाएँ गुजराती , उर्दू, पंजाबी और अंग्रेजी में अनूदित हो चुकी हैं लेकिन लोकप्रियता के जिस शिखर पर उन्हें होना चाहिए था वो वहां कभी नहीं पहुंचे । इस संत स्वभाव के व्यक्ति को शायद अपने आपको बेचने की कला नहीं आती होगी । ख़ामोशी से अपना काम करने वाले इस बेजोड़ शायर की एक लम्बी ग़ज़ल के ये शेर देखें :

कंघियां टूटती हैं शब्दों की 
साधुओं की जटा है ख़ामोशी 

इक तबस्सुम से पार हों सदियाँ 
गोया मोनालिज़ा है ख़ामोशी 

घर की एक-एक चीज़ रोती है 
बेटियों की विदा है ख़ामोशी 

दोस्तों खुद तलक पहुँचने का 
मुख़्तसर रास्ता है ख़ामोशी 

ढूंढ ली जिसने अपनी कस्तूरी 
उस हिरन की दिशा है ख़ामोशी 

सूर्यभानु जी की ग़ज़लें किसी विशेषता का ठप्पा लगा कर शो रूम में नहीं सजतीं, वो बिना किसी स्कूल विशेष का प्रतिनिधित्व किये अपनी पहचान आप बनाती हैं। ये शायर की दूरदृष्टि और रचना शिल्प ही है जो अस्सी नब्बे के दशक में कही गयी इन ग़ज़लों को आज भी ताज़ा रखे हुए है। भारतीय बाल-कल्याण संस्थान, कानपुर। और परिवार पुरस्कार (1995 ), मुम्बई द्वारा सम्मानित गुप्त की एक ग़ज़ल इन शेरों को पढ़वाते हुए अब हम आपसे विदा लेते हैं।

हमारी दुआ है की गुप्त जी स्वस्थ रहते हुए शतायु हों और यूँ ही अपने अनूठे सृजन से हमें नवाज़ते रहें। जो पाठक उन्हें बधाई देना चाहे वो उन्हें उनके इस पते पर "सूर्यभानु गुप्त, 2, मनकू मेंशन, सदानन्द मोहन जाधव मार्ग, दादर (पूर्व), मुम्बई – 400014, दूरभाष : 022-24137570 "संपर्क कर सकते हैं।

सुबह लगे यूँ प्यारा दिन 
जैसे नाम तुम्हारा दिन 

पेड़ों जैसे लोग कटे 
गुज़रा आरा-आरा दिन 

उम्मीदों ने टाई सा 
देखी शाम , उतारा दिन 

रिश्ते आकर लौट गए 
 हम-सा रहा कुंवारा दिन

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