किताबों की दुनिया -113
कितने झुरमुट कट गए बांसों के , किसको है पता इक सुरीली-सी, मधुर-सी, बांसुरी के वास्ते रतजगे, बैचेनियां, आवारगी और बेबसी इश्क ने क्या क्या चुना है पेशगी के वास्ते झूठ की दुनिया है ये, अहले-सुखन ! लेकिन...
View Articleकिताबों की दुनिया - 114
"मोती मानुष चून"ये तीन शब्द पढ़ते ही हमें रहीम दास जी के दोहे "रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून , पानी गये न ऊबरे मोती मानुष चून "का स्मरण हो आता है और ये स्वाभाविक भी है क्यों कि हमने अब तक इन तीन...
View Articleकिताबों की दुनिया -115
बात 1952 की है , तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले में कांग्रेस द्वारा आयोजित एक चुनाव अभियान के तहत होने वाले कार्यक्रम में आने वाले थे. नेहरू जी के आगमन पर युवा...
View Articleकिताबों की दुनिया -116
नहीं चुनी मैंने वो ज़मीन जो वतन ठहरी नहीं चुना मैंने वो घर जो खानदान बना नहीं चुना मैंने वो मजहब जो मुझे बख्शा गया नहीं चुनी मैंने वो ज़बान जिसमें माँ ने बोलना सिखाया और अब मैं इन सबके लिए तैयार हूँ...
View Articleकिताबों की दुनिया -117
मुझे ये ज़िन्दगी अपनी तरफ़ कुछ यूँ बुलाती है किसी मेले में कुल्फी जैसे बच्चों को लुभाती है क़बीलों की रिवायत , बंदिशें , तफ़रीक़ नस्लों की मुहब्बत इन झमेलों में पड़े तो हार जाती है तफ़रीक़ : भेदभाव किसी...
View Articleकिताबों की दुनिया - 118
वहाँ हैं त्याग की बातें, इधर हैं मोक्ष के चर्चे ये दुनिया धन की दीवानी इधर भी है उधर भी है हुई आबाद गलियाँ, हट गया कर्फ्यू , मिली राहत मगर कुछ कुछ पशेमानी इधर भी है उधर भी है हमारे और उनके बीच यूँ तो...
View Articleकिताबों की दुनिया -119
ऐ सखी, साजन के आगे ध्यान रहता है कहाँ तेल चावल में गिरा या सारा आटा दाल में थाप, थिरकन, झाल, ढोलक, स्वाद, सुर, संगत, सहज सौंधी मिटटी की महक है उस बदन-चौपाल में नूर की तख़्ती पे कुदरत की सियाही बूँद भर...
View Articleकिताबों की दुनिया -120
फागुनी बयार चल रही है। इस पोस्ट के आने तक ठण्ड अलविदा कह चुकी है और होली दस्तक दे रही है। फागुन का महीना ही मस्ती भरा होता है तभी तो इस पर हर रचनाकार ने अपनी कलम चलायी है। आज अपनी बात की शुरुआत फागुन...
View Articleकिताबों की दुनिया -121
दहलीज़ मेरे घर की अंधेरों से अट न जाय पागल हवा चराग़ से आकर लिपट न जाय हमसाये चाहते हैं मिरे घर को फूंकना और ये भी चाहते हैं घर उनके लपट न जायपा ही गया मैं इश्क़ के मकतब में दाखिला दुनिया संभल, कि तुझसे...
View Articleकिताबों की दुनिया -122
बहुत पहले की बात है 'दीपक भारतदीप'की लिखी सिंधु -केसरी पत्रिका में एक कविता पढ़ी थी , आज किताबों की दुनिया की इस श्रृंखला में उसी कविता की शुरुआत की इन पंक्तियों से अपनी बात शुरू करते हैं , पूरी कविता...
View Articleकिताबों की दुनिया -123
अगर इंसान सूरज चाँद आदि पर से नज़र हटा कर गैलेक्सी के बाकी तारों की और नहीं देखता तो कैसे पता चलता कि कुछ तारे चाँद सूरज से कई गुना बड़े और विशाल हैं और जिनके सामने हमारे सूरज चाँद भी बौने लगते हैं इसी...
View Articleकिताबों की दुनिया -124
चलिए "किताबों की दुनिया"श्रृंखला की आज की कड़ी शुरू करने से पहले आपको कुछ फुटकर शेर पढ़वाते हैं जो इस पोस्ट के मिज़ाज़ को बनाए रखने में सहायक होंगें। आपने अगर पहले से ही ये शेर पढ़े हैं तो आपको इस बाकमाल...
View Articleकिताबों की दुनिया -125
सैंकड़ों घर फूंक कर जिसने सजाई महफिलें उस शमां का क्या करूँ ,उस रौशनी का क्या करूँ बेचकर मुस्कान अपनी दर्द के बाजार में खुद दुखी हो कर मिली जो उस ख़ुशी का क्या करूँ है ज़माने की हवा शैतान , पानी दोगला...
View Articleकिताबों की दुनिया -126
आज 'किताबों की दुनिया'श्रृंखला का आगाज़ हिंदुस्तानी ज़बान के लाजवाब शायर स्वर्गीय जनाब 'निदा फ़ाज़ली'साहब की ग़ज़ल के बाबत कही इस बात से करते हैं कि "ग़ज़ल में दर अस्ल 'जो है'का चित्रण नहीं होता , यह हमेशा 'जो...
View Articleहर कोई मुड़ के देखता है मुझे
"किताबों की दुनिया"श्रृंखला फिलहाल कुछ समय के लिए रुकी हुई है जब तक कोई नयी किताब हाथ में आये तब तक आप ख़ाकसार की बहुत ही सीधी, सरल मामूली सी, अर्से बाद हुई इस ग़ज़ल से काम चलाएं, क्या पता पसंद आ जाए , आ...
View Articleकिताबों की दुनिया -127
किताबें कई तरह की होती हैं , कुछ किताबें होती हैं जिनकी तरफ देखने का मन नहीं करता , कुछ को देख कर अनदेखा करने का मन करता है , कुछ को हाथ में लेकर देख कर रख देने का मन करता है, पढ़ कर भूल जाने का मन करता...
View Articleउजाले के दरीचे खुल रहे हैं
इस दिवाली पर गुरुदेव पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर हुए कामयाब तरही मुशायरे में खाकसार ने भी शिरकत की, तरही मिसरा था 'उजाले के दरीचे खुल रहे हैं'. आप सब के लिए यहाँ पेशे खिदमत है वो ही सीधी-सादी सी ग़ज़ल थोड़ी...
View Articleआइना संगसार करना था
बहुत अरसा हुआ ब्लॉग पर किताबों के बारे में कुछ लिखे या कोई ग़ज़ल कहे , कोई कारण नहीं था बस मन ही नहीं हुआ। अब इस उम्र में दिमाग पर जोर डालकर कोई काम करने का मन नहीं करता जब जो सहज भाव से हो जाय वही ठीक...
View Articleकिताबों की दुनिया - 128/1
ये मत भूलो कि ये लम्हात हमको बिछुड़ने के लिए मिलवा रहे हैं तुम्हें चाहेंगे जब छिन जाओगी तुम अभी हम तुमको अरज़ाँ पा रहे हैं अरज़ाँ =सस्ता दलीलों से उसे क़ायल किया था दलीलें दे के अब पछता रहे हैं अजब कुछ...
View Articleकिताबों की दुनिया - 128/2
जॉन एलिया साहब से एक बार जब किसी ने पूछा कि आप इतने बरसों से शायरी कर रहे हैं लेकिन आपका कोई मज्मूआ अब तक शाया क्यों नहीं हुआ तो उन्होंने फ़रमाया :- “अपनी शायरी का जितना मुंकिर* मैं हूं, उतना मुंकिर...
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