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Channel: नीरज
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किताबों की दुनिया -132

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अमिताभ बच्चन की एक पुरानी फिल्म "नसीब"का ये गाना शायद नयी पीढ़ी ने न सुना हो लेकिन हम जैसे पुराने लोग इसे अब भी कभी कभी गुनगुना लेते हैं "ज़िन्दगी इम्तिहान लेती है...."ये गाना महज़ गाना नहीं एक सच्चाई है , दरअसल सच तो ये है कि ज़िन्दगी हर घड़ी इम्तिहान लेती है और मजे की बात ये है कि ये इम्तिहान सब के लिए एक सा नहीं होता ,किसी को बहुत सरल पेपर मिलता है तो किसी की किस्मत में हमेशा कठिन पेपर ही आता है। सरल पेपर वाले खुश होते हैं और कठिन पेपर वाले इम्तिहान में पास होने के तनाव में रहते हैं। लेकिन... लेकिन.... लेकिन.... कुछ लोग ज़िन्दगी के इम्तिहान में पास फेल की चिंता किये बगैर बैठते हैं और पास या फेल दोनों स्थितियों में प्रसन्न रहते हैं , ज़ाहिर सी बात है ऐसे लोग विरले ही होते हैं।

लोग हमसे पूछते हैं साथ क्या ले जाएंगे 
हाथ ख़ाली आए थे भर कर दुआ ले जाएंगे 

हाँ, बग़ावत भी करेंगे ज़िन्दगी के वास्ते 
इस मुहीम में सर हथेली पर कटा ले जाएंगे

है बहुत कुछ ख़ुल्द में, मुमकिन हुआ तो देखिये 
वापसी में साथ अपने इक ख़ुदा ले जाएंगे 
ख़ुल्द =स्वर्ग 

ख़ुल्द से अपने साथ इक खुदा को ले जाने वाले और ज़िन्दगी के इम्तिहान में पास फेल की चिंता किये बगैर हर स्थिति में मस्त रहने वाले हमारे आज के लाजवाब शायर हैं जनाब 'सुरेश स्वप्निल'साहब, लाजवाब इसलिए क्यूंकि इनकी शायरी मुझे लाजवाब लगी, उन्ही की एक छोटी सी पेपर बैक में "दखल प्रकाशन , पड़पड़ गंज दिल्ली"से छपी ग़ज़ल की किताब "सलीब तय है"की चर्चा आज हम करेंगे।


 मिट गयी तहज़ीब जबसे क़ैस-औ-फ़रहाद की 
रोज करते-तोड़ते हैं लोग वादा इश्क का 

कुछ बहारों की अना तो कुछ गुरुरे-बागबां 
आशिके-गुलशन सजाते हैं जनाज़ा इश्क का 

साफ़ कहिये आपको अब रास हम आते नहीं 
क्या ज़रूरी है किया जाए दिखावा इश्क का 

अगर कहूं कि मैं सुरेश जी को जानता हूँ तो ये बात झूठ होगी, मैं ही क्या मेरे बहुत से परिचित जो दिन रात शायरी ओढ़ते बिछाते हैं भी सुरेश जी के बारे में पूछने पर चुप्पी साध गए। ग़ज़ल के बड़े बड़े मठाधीश भी उनका नाम सुन कर बगलें झांकते नज़र आये , भला हो मेरी आदत का जिसके तहत मैं अनजान शायरों की किताब उठा कर उलटता पलटता हूँ मुझे ये किताब इसी साल के विश्व पुस्तक मेले दिल्ली में दिखाई दी जिसे मैंने उल्टा पलटा और खरीद लिया।।
उन्हें कोई जाने भी कैसे ? अत्यधिक संकोची स्वभाव के सुरेश जी को अपने आपको बेचने की कला शायद आती नहीं, तभी वो कहते हैं की "मुशायरों-कवि सम्मेलनों में लोग न बुलाते हैं, न मैं जाता हूं I "फेसबुक पर उनकी रचनाएँ और विचार जरूर पढ़ने को मिल जाते हैं।

वो आज शहंशाह सही, हम भी क्या करें 
होता नहीं है इश्क हमें ताज़दार से 

अल्लाह से कहें कि कहें आईने से हम 
उम्मीद नहीं और किसी ग़म-गुसार से 

आएँगे तिरि ख़ुल्द भी देखेंगे किसी दिन 
फ़ुर्सत कभी मिले जो ग़मे-रोज़गार से 

10 मार्च 1958 को झाँसी उत्तर प्रदेश में जन्में सुरेश साहब को ग़मे-रोज़गार से कभी फ़ुर्सत नहीं मिली ,रोज़ी-रोटी के लिए पहला जतन उन्होंने महज़ 5 (पांच) साल की उम्र में फुटपाथ पर बैठ कर भुट्टे बेचने से किया।सुरेश जी उन लोगों में शुमार रहे जिनको ज़िन्दगी ने इम्तिहान में कभी आसान सवाल नहीं दिए। उनकी क्षमताओं और धैर्य की हर पल परीक्षा ली। थोड़ा होश सँभालने पर कुछ दिन एक बैंक की केंटीन में लोगों को पानी चाय नमकीन बिस्कुट आदि पकड़ाने वाले छोटू की नौकरी की। बारह साल के सुरेश ने अपने से छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने के काम से किसी तरह गुज़ारा किया। इन सब अभावों के बावजूद उनकी आगे पढ़ते रहने की ललक कम नहीं हुई।

हम जरा और झुक गए होते 
अर्श के मोल बिक गए होते 

साथ देते तिरि हुकूमत का 
तो बहुत दूर तक गए होते 

राह की मुश्किलें गिनी होतीं 
सोचते और थक गए होते 

सच में सुरेश जी ने पीछे मुड़ कर देखा ही नहीं ,राह की मुश्किलों को याद भी नहीं रखा और आगे बढ़ते रहे। सोलह साल की उम्र में उन्होंने पत्रकारिता क्षेत्र का दामन थामा और 19 वर्ष की अवस्था में भोपाल के एक निजी विद्यालय में शिक्षक की नौकरी के साथ साथ सब्ज़ी और अखबार भी बेचे। ये सब करते हुए वो लगातार पढ़ते रहे और उन्होंने हिंदी साहित्य में एम्.ऐ के अलावा अर्थ शास्त्र में भी एम्.ऐ किया। जब 20 वर्ष के हुए तो एक बैंक में क्लर्की करना शुरू किया लेकिन उनका मन वहां रमा नहीं , जैसे तैसे लगभग दस साल वहां गुज़ारे और फिर एक दिन बैंक की नौकरी को राम राम बोल कर 1989 में पूना फिल्म इंस्टीट्यूट में निर्देशन का कोर्स करने चले गए।

तहज़ीब तिरे शह्र से कुछ दूर रुक गयी 
मिलते हैं लोग रस्म-अदाई के वास्ते 

अच्छे दिनों से क़ब्ल हमें अक़्ल आ गयी 
कासा मँगा लिया है गदाई के वास्ते 
क़ब्ल=पहले ,कासा=भिक्षा पात्र , गदाई =भिक्षा-वृत्ति 

फ़रमाने-शाह है कि सर-ब-सज्द सब रहें 
वो कत्ल कर रहे हैं भलाई के वास्ते 
सर-ब-सज्द =नतमस्तक 

रिश्वत से मुअज़्जिन की जिन्हें नौकरी मिली 
देते हैं अज़ाँ नेक कमाई के वास्ते 
मुअज़्जिन=अज़ान देने वाला 

विचारों से वामपंथी,नास्तिक और घोर अराजकतावादी सुरेश साहब ने कुछ समय पूना फिल्म संसथान में फिल्म शोध अधिकारी की नौकरी की अचानक नौकरी शब्द से मोह भांग हो गया। वो अपने बारे में कहते हैं कि "मैं एक बेहद मामूली इंसान हूं, किसी भी आम मज़दूर की तरह I फ़िलहाल, अनुवाद से रोज़ी-रोटी चला रहा हूं। "
लेखन उनका शौक है ,अभिव्यक्ति का माध्यम है । उन्होंने अब तक लगभग 300 कवितायेँ 50 के करीब व्यंग आलेख, कुछ कहानियां और तीन चार नाटक लिखे हैं। उन्होंने पहली ग़ज़ल 1975 में लिखी,बाद में 1996 में उर्दू ग़ज़लगोई की तरफ़ तवज्जो देना शुरू किया . ब्लॉग 'साझा आसमान' 2012 में और 'साझी धरती'उसके कुछ समय बाद लिखना शुरू किया.
"सलीब तय है"उनका पहला ग़ज़ल संग्रह है जिसमें उनकी मुख्य रूप से सन 2013 -14 में लिखी ग़ज़लें संगृहीत हैं।

मुश्किलें दर मुश्किलें आती रहीं 
जिस्म दिल ने कर दिया फ़ौलाद का 

मुफ़लिसी में कर रहा है शायरी 
क्या कलेजा है दिल-बर्बाद का 

वक्त मुंसिफ है, इसे मत छेड़िये 
सर कटेगा एक दिन जल्लाद का 

उनकी शायरी में वामपंथी तेवर बहुत उभर कर सामने आते हैं , व्यवस्था से उनकी सीधी टकराने की प्रवृति पढ़ने वाले को प्रभावित कर जाती है। इस किताब की लगभग 90 ग़ज़लों में से अधिकांश छोटी बहर में हैं और बहुत असरदार हैं. आज के हालात की नुमाइंदगी भी उनकी ग़ज़लें बहुत बेलौस अंदाज़ में करती हैं।

हो बात एक दिन की तो झेल लें जिगर पर 
जुल्मो-सितम ख़ुदा के दस्तूर हो न जाएँ 

सीरत से तरबियत से हैं आदतन लुटेरे 
ये रहनुमा वतन के नासूर हो न जाएँ 

अशआर पर हमारे सरकार की नज़र है 
सच बोल कर किसी दिन मंसूर हो न जाएँ 

जुझारू प्रवृति के सुरेश जी अपने बारे में आगे कहते हैं "अपनी रचनाओं के प्रसार-प्रचार के लिए कुछ नहीं करता I मित्र गण अपने पत्र-पत्रिकाओं में मेरे ब्लॉग्स से रचनाएं चुन कर छाप लेते हैं I सूचना आम तौर पर छपने के बाद मिलती है, कई बार कभी नहीं मिलती I "सुरेश जी विलक्षण प्रतिभा के धनी हैं, कविता, कहानियां, नाटक लिखने के अलावा उन्होंने दर्ज़नो नाटकों का निर्देशन किया है और कइयों में अभिनय भी। अभिनय की कार्य-शालाएं भी उन्होंने आयोजित की हैं.

लगो न शाह के मुँह ,दूर रहो हाकिम से 
ज़रा बताएं कि हम क्या करें सलाहों का

ख़्याल नेक नहीं है तिरि अदालत का 
मिज़ाज ठीक नहीं है मिरे गवाहों का 

कहीं बहार न बादे-सबा, न अच्छे दिन 
फ़रेब है हुज़ूर आपकी निगाहों का 

उनके और उनकी शायरी के बारे में मात्र एक पोस्ट में लिखना संभव नहीं। मेरी आप से गुज़ारिश है कि आप उनकी किताब "दख़ल प्रकाशन से ,08375072473पर फोन करके मंगवाएं या सुरेश जी को मोबाइल न.09425624247 पर बधाई देते हुए इसे आसानी से मंगवाने का रास्ता पूछें।
और अब चलते चलते आप उनकी एक ग़ज़ल के कुछ शेर पढ़ते हुए अगली किताब की खोज में निकलने के लिए मुझे इज़ाज़त दें :-

अपने अंदर बच्चा रह 
गुरबानी सा सच्चा रह 

तूफाँ है पतवार उठा
गिर्दाबों से लड़ता रह
गिर्दाबों =भंवर

जिन्सों की महँगाई में 
खुशफ़हमी-सा सस्ता रह 
जिन्सों=वस्तु 

मुफ़लिस है लाचार नहीं 
सजता और सँवरता रह

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