Quantcast
Channel: नीरज
Viewing all articles
Browse latest Browse all 279

किताबों की दुनिया - 137

$
0
0
ब्याह तो मेरा हुआ, पर दे रहा था हर कोई 
मेरे दुश्मन को बधाई रात के बारह बजे 

तब हुआ एहसास मुझको हो गयी बेटी जवान 
कंकरी जब घर पे आयी रात के बारह बजे 

और 

कहा था मैंने गंगाजल का लाया बोतल 'रम'की 
अब ढक्कन क्यों लगा रहा है तू उल्लू के पठ्ठे 

अभी तो तेरे पूज्य पिताजी अस्पताल पहुंचे हैं 
अभी से सर क्यों मुंडा रहा है तू उल्लू के पठ्ठे 

बहुत जल्द अपने भारत से होगी दूर गरीबी 
किसको उल्लू बना रहा है तू उल्लू के पठ्ठे 

सामान्य स्तिथि में, मुझे यकीन है कि, ऊपर पोस्ट किये शेर पढ़ कर आपके चेहरे पर मुस्कान जरूर आयी होगी। ये भी हो सकता है कि आपने सोचा हो कि आज "किताबों की दुनिया"में किसी मज़ाहिया ग़ज़लों की किताब का जिक्र होने वाला है। अफ़सोस ऐसा नहीं है , हमारे आज के शायर हिंदुस्तान के मशहूर हास्य कवि जरूर हैं लेकिन उनकी शायरी संजीदा और कुछ अलग से मिज़ाज़ की है। आज भले युवा पीढ़ी में उनका नाम अधिक जाना पहचाना न हो लेकिन कभी कवि सम्मेलनों में उनकी तूती बोलती थी। उनकी कुछ एक हास्य व्यंग से सरोबार ग़ज़लें अलबत्ता इस किताब में आपको पढ़ने को जरूर मिल सकती हैं ,जिसका जिक्र मैं करने वाला हूँ। शायर और उनकी किताब का नाम बताने से पहले आईये मैं आपको उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाता हूँ : 

हमने मांगी थी ज़रा सी रोशनी घर के लिए 
आपने जलती हुई बस्ती के नज़राने दिए 

ज़िन्दगी खुशबू से अब तक इसलिए महरूम है 
हमने जिस्मों को चमन, रूहों को वीराने दिए 

हाथ में तेज़ाब के फ़ाहे थे मरहम की जगह 
दोस्तों ने कब हमारे ज़ख्म मुरझाने दिए 

गंभीर ग़ज़लें कहने वाले हमारे आज के शायर "माणिक वर्मा "को जब लगा कि अनेक उदगार ऐसे भी हैं जिन्हें उनके मन की बेचैनी और तल्ख़ तजुर्बतों को ग़ज़लों के माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सकता तब उन्होंने अपनी दिशा बदल ली और हास्य सृजन करने लगे। हास्य कविताओं के माध्यम उन्होंने अनेक गंभीर सामाजिक समस्याओं, राजनीति की बुराइयों और इंसांन की कमज़ोरियों को उजागर किया। "किताबों की दुनिया "श्रृंखला में चूँकि सिर्फ ग़ज़लों की बात होती है इसलिए हम उनकी किताब "ग़ज़ल मेरी इबादत है"में प्रकाशित ग़ज़लों की ही बात करेंगे.


सिर्फ दिखने के लिए दिखना कोई दिखना नहीं 
आदमी हो तुम अगर तो आदमी बनकर दिखो 

ज़िन्दगी की शक्ल जिसमें टूटकर बिखरे नहीं 
पत्थरों के शहर में वो आईना बनकर दिखो 

आपको महसूस होगी तब हरिक दिल की जलन 
जब किसी धागे-सा जलकर मोम के भीतर दिखो 

मुझे माणिक जी की ग़ज़ल के बारे में कही ये बात सौ प्रतिशत सही लगती है कि "ग़ज़ल कोशिशों का नाम नहीं है ! ग़ज़ल नाम है उस पके हुए फ़ल का जो पत्थरों की चोट से नहीं अपनी मर्ज़ी से अपने आप टपकता है"माणिक जी की ग़ज़लें पढ़ते वक्त उनकी इस बात का हमें ऐतबार होने लगता है। सहज सरल भाषा में किसी अल्हड़ नदी सा बहाव लिए उनकी ग़ज़लें सीधी दिल में उतर जाती हैं। उनकी ग़ज़लों में मुश्किल लफ़्ज़ों का जमावड़ा और घुमावदार दर्शन आपको ढूंढें नहीं मिलेगा।

धूप के पौधे लगा कर लोग अपने बाग़ में 
चाहते हैं गुलमुहर की छाँव रमजानी चचा 

ये भटकते पंछी मुझसे पूछते हैं क्या कहूं 
क्यों कटे बरगद के बूढ़े पाँव रमजानी चचा 

आप कहते हैं किसी के पास भी माचिस नहीं 
जल गया फिर कैसे अपना गाँव रमजानी चचा 

माणिक जी को लेखन विरासत में मिला उनके पिता स्व. प्यारे लाल वर्मा हिंदी के अतिरिक्त उर्दू फ़ारसी और अंग्रेजी के विद्वान ही नहीं बल्कि धार्मिक एवं राष्ट्रिय धारा के प्रखर कवि भी थे लेकिन दुर्भाग्य से माणिक जी जब मात्र छै वर्ष के ही थे तभी उनका देहावसान हो गया। खंडवा में जन्में माणिक जी ने शिक्षण के अतिरिक्त उर्दू की शिक्षा सेठ हारून रशीद साहब से और शायरी की मुकम्मल तालीम उस्ताद जेहन खान 'नूर'से हासिल की। बाद के दिनों में जनाब बशीर बद्र साहब ने भी उनकी रहनुमाई की।

प्रतीक्षा क्यों दधीची की करें हम 
हमारे तन में भी तो हड्डियां हैं 

जलाने हैं कई नफ़रत के रावण 
तुम्हारे पास कितनी तीलियाँ हैं 

हज़ारों इन्कलाब आये हैं लेकिन 
अभी तक झोपडी में सिसकियाँ हैं 

माणिक जी की ग़ज़लें हमें कभी कभी दुष्यंत कुमार और अदम गौंडवी साहब जैसी लगती जरूर हैं लेकिन अगर उन्हें समग्र पढ़ें तो पता लगता है कि उनके पास विषयों की अधिकता है और प्रस्तुति करण में मौलिकता है। उनकी ग़ज़लों में हिंदी अपने स्वाभाविक रूप में नज़र आती है और मुहावरों का प्रयोग भी वो अद्भुत ढंग से करते हैं. बशीर बद्र साहब फरमाते हैं कि "माणिक वर्मा जी की ग़ज़लें पुरानी यादों को ताज़ा करती हैं नए ज़माने की खूबसूरत शायराना तजुर्बों से रची बसी होती है और ऐसी ग़ज़ल बन जाती है जो ग़ज़ल हिंदी -उर्दू के सरमाये इज़ाफ़ा करती है

सूरज हुआ फकीर तुम्हारी ऐसी तैसी 
जुगनू को जागीर तुम्हारी ऐसी तैसी 

झूठे आंसू बने तुम्हारे सच्चे मोती 
हम रोयें तो नीर तुम्हारी ऐसी तैसी 

खाक मुहब्बत करें रोटियों के लाले हैं 
कहाँ के रांझा-हीर तुम्हारी ऐसी तैसी 

जनता का है देश मगर तुमने समझा है 
अब्बा की जागीर तुम्हारी ऐसी तैसी 

दरअसल 'ग़ज़ल मेरी इबादत है 'पारम्परिक ग़ज़लों की किताब से इस मायने में अलग है कि इसमें माणिक जी की ग़ज़लों के अलावा हज़लों और एक आध नज़्मों का भी समावेश है। अगर हम हज़लों की बात करें तो उसपर एक अलग से पोस्ट लिखनी होगी। ग़ज़लों में भी वो बहुत चुटीली भाषा का प्रयोग करते हैं। डायमंड बुक्स द्वारा प्रकाशित इस पेपर बैक में छपी इस किताब को आप अमेजन से ऑन लाइन मंगवा सकते हैं वैसे डायमंड बुक्स की किताबें आपको किसी भी अच्छे बुकस्टोर से आसानी से मिल जाएँगी। गूगल ने माणिक जी तक पहुँचने में मेरा सहयोग नहीं दिया वरना मैं उनका नंबर या पोस्टल अड्रेस आप तक जरूर पहुंचा देता ,हाँ अगर किसी पाठक के पास उनका नंबर हो तो मुझे बता दे मैं उसे पोस्ट में जोड़ दूंगा। आप माणिक जी की लगभग 94 ग़ज़लों और 28 के लगभग हज़लों से सजी इस किताब को पढ़ने की जुगत करें और मैं निकलता हूँ अगली किताब की तलाश में , चलते चलते उनकी एक छोटी बहर की ग़ज़ल के ये शेर आप सब के लिए प्रस्तुत हैं :-

हमें दुनिया का नक्शा मत दिखाओ 
हमारा घर कहाँ है , ये बता दो 

गुलामी का असर बच्चों पे होगा 
ये पिंजरे में रखा पंछी उड़ा दो 

गरीबी देन है परमात्मा की 
जो ये पोथी कहे उसको जला दो 

और अब ये पढ़िए सोचिये मुस्कुराइए और इन शेरो को रोजमर्रा की ज़िन्दगी में मुहावरों की तरह इस्तेमाल करिये।

वो तो चस्का लग गया था जाम का 
वरना मैं भी आदमी था काम का 

हैसियत सड़ियल से बैंगन की नहीं 
पूछता है भाव लंगड़े आम का 

मत करे तू इश्क मुझको देख ले 
एक क्विन्टल से हुआ दस ग्राम का 

हुक्म है सरकार का जल्दी भरो 
आज उद्घाटन है मुक्तिधाम का

Viewing all articles
Browse latest Browse all 279

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>