जो मंज़र आँख पर है ,लम्हा लम्हा
मिरे सीने के अंदर खुल रहा है
कभी खुद मौज साहिल बन गयी है
कभी साहिल, कफ़-ऐ-दरिया हुआ है
कफ़-ऐ-दरिया=नदी की हथेली
पलट कर आएगा बादल की सूरत
इसी खातिर तो दरिया बह रहा है
महकते हैं जहां खुशबू के साये
तसव्वुर भी वहां तस्वीर-सा है
जो "किताबों की दुनिया"के नियमित पाठक हैं उन्हें तो पता है, लेकिन जो कभी कभार भूले भटके पढ़ने आते हैं उन्हें शायद नहीं पता होगा कि इस श्रृंखला में सरहद पार के मकबूल जिन शायरों /शायराओं की ग़ज़ल की किताबों का अब तक जिक्र किया गया है उनके नाम हैं : "नासिर काज़मी","परवीन शाकिर","शाहिदाहसन","शकेब जलाली", "इफ़्तिख़ार आरिफ़", "मुज़फ्फर वारसी", "अशरफ़ गिल","ज़फरइकबाल","इरफ़ाना अज़ीज़","जॉन एलिया",और जनाब "मुनीर नियाज़ी", इसी फेहरिश्त में हम आज एक और शायर की किताब को जोड़ने जा रहे हैं जिनका नाम इन सब से थोड़ा सा कम मकबूल जरूर है क्यूंकि इनकी ग़ज़लों को तब के मशहूर ग़ज़ल गायकों ने अपनी आवाज़ नहीं दी लेकिन जिनकी शायरी का मयार इस फेहरिश्त में आये सभी नामों से उन्नीस नहीं है।
खिले जो फूल उसे क़दमों में रोंदती है क्यों
हवा से कोई तो पूछो कि सरफिरी है क्यों
मलाल यूँ भी रहा यार से बिछुड़ने का
कि उससे कह न सके हम उदास जी है क्यों
अजीब लम्स-ऐ-खुनक है हवा की पोरों में
जो तू नहीं है तो फिर दर्द में कमी है क्यों
लम्स-ऐ-खुनक=ठंडा स्पर्श
आधुनिक उर्दू शायरी को नया रंग रूप प्रदान करने में जिन पाकिस्तानी शायरों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है उनमें हमारी श्रृंखला के आज के शायर जनाब "तौसीफ़ तबस्सुम"का नाम बहुत ऊपर है ,आज हम उनकी किताब "घर की खुशबू"का जिक्र करने जा रहे हैं जिसे डायमंड बुक्स ने सन 2006 में शाया किया था. तौसीफ़ साहब का नाम मैंने सब से पहले सतपाल ख़्याल साहब के ब्लॉग "आज की ग़ज़ल"में सन 2010 में पढ़ा था उसके बाद उनकी ग़ज़लें रेख़्ता की साइट पर पढ़ कर इस किताब को अमेजन से ऑन लाइनमंगवा लिया।
यही हुआ कि हवा ले गयी उड़ा के मुझे
तुझे तो कुछ न मिला ख़ाक में मिला के मुझे
चिराग़ था तो किसी ताक़ ही में बुझ रहता
ये क्या किया कि हवाले किया हवा के मुझे
हो इक अदा तो उसे नाम दूँ तमन्ना का
हज़ार रंग हैं इस शोला-ऐ-हिना के मुझे
बलन्द शाख़ से उलझा था चाँद पिछले पहर
गुज़र गया है कोई ख़्वाब सा दिखा के मुझे
बदायूं उत्तर प्रदेश के सहसवान गाँव में 3 अगस्त 1928 को जन्में तौसीफ साहब ने प्रारंभिक शिक्षा दिल्ली में ग्रहण की और फिर देश विभाजन के बाद 21 सितम्बर 1947 को पाकिस्तान चले गए और वहीँ गोर्डन कालेज रावलपिंडी से एम ऐ. की डिग्री हासिल की। उन्होंने 1857 के ग़दर के वक्त के प्रसिद्ध शायर "मुनीर शिकोहाबादी"की शायरी पर गहरायी से शोध किया और डॉक्टरेट की डिग्री हासिल की। "मुनीर "न सिर्फ शायर थे बल्कि स्वतंत्रता संग्राम के सैनिक भी थे , अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लिखने के कारण उन्हें सात साल की काले पानी की सज़ा भी हुई। "मुनीर"साहब की शायरी पर किये गए उनके शोध ग्रन्थ की बहुत सराहना हुई।
करेगा कोई तो इस तीरा-खाकदाँ से रिहा
बदल ही जाएगी ज़ंजीर खुद से कहता हूँ
तीरा-खाकदाँ =संसार
छुआ तो रह गया पोरों पे लम्स खुशबू का
सो आज तक वही दर्दे-फ़िराक़ सहता हूँ
मिरा लहू मिरा दुश्मन पुकारता है मुझे
मैं अपने आप से सहमा हुआ सा रहता हूँ
आम बोलचाल की शब्दावली से अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्ति देने और उसे साधारण जन की आवाज़ बना देने वाले तौसीफ़ तबस्सुम मुख्यतः ग़ज़ल के शायर हैं। "घर की खुशबू"हिंदी में छपने वाला उनका एक मात्र मजमुआ है जिसमें उनकी लगभग 75 ग़ज़लें और 20 नज़्में संकलित हैं। तौसीफ साहब ने शायरी भारत में रहते हुए शुरू कर दी थी जो उनके पाकिस्तान चले जाने के बाद परवान चढ़ी। 1952 बाद पकिस्तान का शायद ही कोई ऐसा अदबी रिसाला हो जिसमें तौसीफ़ साहब का कलाम न छपा हो।
जो सरबलन्द थे ,उन्हें फेंका है ख़ाक पर
जो ख़ाक पर थे उनको उठा ले गयी हवा
मिटटी से रंग,शाख़ से पत्ते, गुलों से बू
जो भी हवा के साथ गया, ले गयी हवा
पतझड़ में शाख़ शाख़ थी तलवार की तरह
हैरत है कैसे खुद को बचा ले गयी हवा
तौसीफ़ साहब की शायरी रिवायती होते हुए भी बिलकुल अलग हट के है। उनके यहाँ जो दर्शन और प्रतीक मिलते हैं वो और कहीं ढूंढने मुश्किल हैं ,हालाँकि उनका मानना है कि ग़ज़ल लेखन सबसे आसान फन है जो चलते फिरते भी निभाया जा सकता है जबकि नज़्म कहने में ज्यादा वक्त लगता है और अगर कहीं कहानी उपन्यास याने नस्र में कुछः कहना हो तो सबसे ज्यादा वक्त लगता है। उनकी शायरी के बारे में राजस्थान के प्रसिद्ध शायर राजेंद्र स्वर्णकार जी ने सतपाल जी के ब्लॉग पर कमेंट करते हुए बहुत सही लिखा है कि "जनाब तौसीफ़ तबस्सुम के कलाम से रू ब रू होना अपने आप में ज़ियारत जैसा है । उनका कलाम उस्तादाना है और जब तक एक ग़ज़ल को चार पांच बार न पढ़ लिया जाय तब तक तश्नगी-ऐ-सुखन बढ़ती ही रहती है "आईये फिर से उनकी शायरी की और मुड़ें :
आवाज़ों के फेर में कैसे हाल खुलेगा भीतर का
दिल के अंदर हू का आलम, बाहर शोर समंदर का
हू =ईश्वर
बहता दरिया, उड़ता पंछी, दोनों ही सैलानी थे
आँख के रस्ते क़ैद है दिल में इक-इक मंज़र बाहर का
पहली बार सफर पर निकले, घर की खुशबू साथ चली
झुकी मुँडेरें कच्चा रस्ता, रोग बने, रस्ते भर का
"घर की खुशबू"की नज़्मों और ग़ज़लों को हिंदी लिपि में प्रस्तुत करने का सारा श्रेय सुरेश कुमार जी और डायमंड बुक्स को जाता है. सुरेश जी किताब की भूमिका में लिखते हैं कि तौसीफ साहब की शायरी को पढ़ते हुए हमें ऐसा बिलकुल महसूस नहीं होता कि हम किसी दूसरे मुल्क के शायर की रचनाएँ पढ़ रहे हैं। उनकी शायरी में आज भी भारतीय संस्कृति की झलक स्पष्ट दिखाई देती है क्यूंकि भले ही सरहदों ने मुल्क को दो हिस्सों में बाँट दिया हो लेकिन दोनों देशों के नागरिकों खास तौर पर आम इंसान की समस्याएं और हालात लगभग एक जैसे ही हैं तभी हमें वहां की शायरी में भी खुद की आवाज़ सुनाई देती है।
सुनो कवी तौसीफ़ तबस्सुम इस दुःख से क्या पाओगे
सपना लिखते-लिखते आखिर खुद सपना हो जाओगे
हर खिड़की में फूल खिले हैं पीले पीले चेहरों के
कैसी सरसों फूली है, क्या ऐसे में घर जाओगे
इतने रंगों में क्या तुमको एक रंग मन भाया है
भेद ये अपने जी का कैसे औरों को समझाओगे
दिल की बाज़ी हार के रोये हो तो ये भी सुन रक्खो
और अभी तुम प्यार करोगे और अभी पछताओगे
तौसीफ़ साहब ने जो लिखा बहुत पुख्ता और मयारी लिखा। उन्हें उनकी "कोई एक सितारा"किताब पर अल्लामा इक़बाल हिजरा अवार्ड से और उर्दू साहित्य में दिए उनके योगदान के लिए पाकिस्तान के "प्रेजिडेंट अवार्ड "से भी नवाज़ा गया। अगर आप गंभीर शायरी के रसिया हैं तो आपको उनकी हिंदी में छपी ये किताब जरूर पढ़नी चाहिए। उनकी चुनिंदा ग़ज़लों और नज़्मों को आप रेख़्ता की साइट पर भी पढ़ सकते हैं.
अगली किताब की तलाश में निकलने से पहले मैं आईये उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाता चलता हूँ :
दिल था पहलू में तो कहते थे तमन्ना क्या है
अब वो आँखों में तलातुम है कि दरिया क्या है
तलातुम :बाढ़
शौक़ कहता है कि हर जिस्म को सिजदा कीजे
आँख कहती है कि तूने अभी देखा क्या है
क्या ये सच है कि खिजाँ में भी चमन खिलता है
मेरे दामन में लहू है तो महकता क्या है
सच कहूं तो आप को तौसीफ़ साहब की चंद ग़ज़लों से शेर पढ़वा कर मुझे तसल्ली नहीं मिली लेकिन अब पूरी की पूरी किताब तो यहाँ पेश नहीं की जा सकती न इसलिए तो सोचा चलो आपको कुछ फुटकर शेर भी पढ़वाता चलूँ , अच्छा लगे तो बताइए जरूर :
सुना है अस्ल-ऐ-गुलिस्तां सिवा-ऐ-ख़ाक नहीं
अगर ये सच है तो खुशबू कहाँ से आती है
अस्ल-ऐ-गुलिस्तां=उपवन का आधार , सिवा-ऐ-ख़ाक =मिटटी के अतिरिक्त
***
याद आएँगी बहुत नींद से बोझिल पलकें
शाम के साथ ये दुःख और घनेरा होगा
***
ज़िन्दगी ख़्वाब के साये में बसर हो जाती
सोचा होता तुझे ,ऐ काश न देखा होता
***
ज़ीस्त तपते हुए सहरा का सफर थी शायद
साया होता तो मुसाफ़िर कहीं ठहरा होता
***
नश्शा-ऐ-कुर्ब से आँखों का गुलाबी होना
खून में उठती हुई लहर से डरना उसका
नश्शा-ऐ-कुर्ब=निकटता का नशा
***
आइना हँसता है,हँसने दो,मिरे चेहरे पर
सैंकड़ों ज़ख्म हैं हाथों से छुपाऊँ कैसे
***
अगर ये होश की दीवार गिर जाये
मज़ा आये तमाशा देखने में
***
बरसे जो खुल के अब्र तो दिल का कँवल खिले
कब तक मिज़ा-मिज़ा पे समन्दर उठाइये
अब्र=बादल, मिज़ा-मिज़ा=पलक-पलक
***
आईना रूठ गया चेहरे से
इस मकाँ में नहीं रहता कोई
***
जो मुझको छोड़ गया इतना बेख़बर तो न था
जो हमसफ़र है, मिरा दर्द जानता ही नहीं
***
जो भी गुज़रनी है आँखों पर काश इक बार गुज़र जाये
सर्द हवा में जुल्म तो ये है पत्ता-पत्ता गिरता है
सच कहूं तो आप को तौसीफ़ साहब की चंद ग़ज़लों से शेर पढ़वा कर मुझे तसल्ली नहीं मिली लेकिन अब पूरी की पूरी किताब तो यहाँ पेश नहीं की जा सकती न इसलिए तो सोचा चलो आपको कुछ फुटकर शेर भी पढ़वाता चलूँ , अच्छा लगे तो बताइए जरूर :
सुना है अस्ल-ऐ-गुलिस्तां सिवा-ऐ-ख़ाक नहीं
अगर ये सच है तो खुशबू कहाँ से आती है
अस्ल-ऐ-गुलिस्तां=उपवन का आधार , सिवा-ऐ-ख़ाक =मिटटी के अतिरिक्त
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याद आएँगी बहुत नींद से बोझिल पलकें
शाम के साथ ये दुःख और घनेरा होगा
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ज़िन्दगी ख़्वाब के साये में बसर हो जाती
सोचा होता तुझे ,ऐ काश न देखा होता
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ज़ीस्त तपते हुए सहरा का सफर थी शायद
साया होता तो मुसाफ़िर कहीं ठहरा होता
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नश्शा-ऐ-कुर्ब से आँखों का गुलाबी होना
खून में उठती हुई लहर से डरना उसका
नश्शा-ऐ-कुर्ब=निकटता का नशा
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आइना हँसता है,हँसने दो,मिरे चेहरे पर
सैंकड़ों ज़ख्म हैं हाथों से छुपाऊँ कैसे
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अगर ये होश की दीवार गिर जाये
मज़ा आये तमाशा देखने में
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बरसे जो खुल के अब्र तो दिल का कँवल खिले
कब तक मिज़ा-मिज़ा पे समन्दर उठाइये
अब्र=बादल, मिज़ा-मिज़ा=पलक-पलक
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आईना रूठ गया चेहरे से
इस मकाँ में नहीं रहता कोई
***
जो मुझको छोड़ गया इतना बेख़बर तो न था
जो हमसफ़र है, मिरा दर्द जानता ही नहीं
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जो भी गुज़रनी है आँखों पर काश इक बार गुज़र जाये
सर्द हवा में जुल्म तो ये है पत्ता-पत्ता गिरता है