आप तस्वीर में न मर जाएँ
चलना फिरना बहुत जरूरी है
ज़िन्दगी में बिना किताबो-क़लम
पढ़ना-लिखना बहुत जरूरी है
याद करना उसे जरूरी नहीं
याद रखना बहुत जरूरी है
मेरा होना पता नहीं चलता
तुमको छूना बहुत जरूरी है
जब कभी भी छोटी बहर में कही ग़ज़लों का जिक्र होगा तो वो जनाब "
विज्ञान व्रत"का नाम लिए बिना मुकम्मल नहीं होगा। छोटी बहर में उन्होंने इतनी ग़ज़लें कही हैं कि आप सोच भी नहीं सकते तभी तो उनके पांच या शायद छै ग़ज़ल संग्रह छप कर चर्चित हो चुके हैं। आप सोचेंगे कि इस श्रृंखला में विज्ञान व्रत जी के ग़ज़ल संग्रह की चर्चा तो पहले हो चुकी है तो फिर आज दोबारा से उनका जिक्र क्यों ? वो इसलिए कि आज के हमारे शायर भी छोटी बहर में ग़ज़ल कहने वाले शायरों की फेहरिश्त में बहुत अहम् मुकाम रखते हैं। जैसा मैं हर बार कहता हूँ कि छोटी बहर में कही ग़ज़ल पढ़ने सुनने में बहुत आसान सी लगती है लेकिन होती नहीं। गागर में सागर भरने के लिए आपके पास अनोखा हुनर होना चाहिए, तभी बात बनेगी , थोड़ी सी चूक हुई और शेर ढेर हुआ।
तिरे नज़दीक आना चाहता हूँ
मैं खुद से दूर जाना चाहता हूँ
तुझे छूना मिरा मक़सद नहीं है
मैं खुद को आज़माना चाहता हूँ
वही तो सोचता रहता हूँ हर दम
मैं तुमको क्या बताना चाहता हूँ
अदाकारी बड़ा दुःख दे रही है
मैं सचमुच मुस्कुराना चाहता हूँ
ज़िला बदायूं के बिसौली क़स्बे के एक नीम सरकारी महकमे में मुलाज़िम ज़नाब अहमद शेर खां उर्फ़ मद्दन खां के यहाँ चार जनवरी 1952 को जिस बेटे का जन्म हुआ उसका नाम रखा गया "ज़मा शेर खान उर्फ़ पुत्तन खान "जो आगे चल कर शायर जनाब "
फ़ेहमी बदायूंनी"के नाम से पहचाने जाने लगे, आज इस श्रृंखला में हम उनके "ऐनीबुक "गाज़ियाबाद द्वारा देवनागरी में बेहद ख़ूबसूरती से प्रकाशित पहले ग़ज़ल संग्रह "
पांचवी सम्त"की बात करेंगे। पेपरबैक में छपे इस संग्रह का आवरण और छपाई बहुत दिलकश है , किताब हाथ में लेते ही इसे पढ़ने की चाहत बलवती हो उठती है।
मिरी वादा-खिलाफ़ी पर वो चुप है
उसे नाराज़ होना चाहिये था
अब उसको याद करके रो रहे हैं
बिछड़ते वक़्त रोना चाहिये था
चला आता यक़ीनन ख़ाब में वो
हमें इक रात सोना चाहिये था
हमारा हाल तुम भी पूछते हो
तुम्हें मालूम होना चाहिये था
किताब की भूमिका में मशहूर शायर और आलोचक जनाब "
मयंक अवस्थी"साहब लिखते हैं कि "
फ़हमी साहब ने छोटी बहर में बेशतर ग़ज़लें कही हैं और लफ्ज़ को बरतने में भी और उसे मआनी देने में भी उनका जवाब नहीं। इनके हर शेर की रूह नूरानी है।ऊला-सानी का रब्त बेहद असरदार है और इनके शेर का जिस्म तो चुराया जा सकता है रूह कतई नहीं। बयान शफ़्फ़ाक़ पानियों जैसा है -किसी बेअदब ग़ैर जरूरी लफ्ज़ का रत्ती भर दख़्ल इनकी शायरी में नहीं हो सकता। इस बुलंद मफ़्हूम के नाख़ुदा ने बेहद आसान लफ़्ज़ों की नाव से गहरे अर्थों के बेशुमार समंदर सर किये हैं। "जब रेतीले हो जाते हैं
पर्वत टीले हो जाते हैं
तोड़े जाते हैं जो शीशे
वो नोकीले हो जाते हैं
फूलों को सुर्खी देने में
पत्ते पीले हो जाते हैं
फ़हमी साहब ने बदायूं से इंटरमीडिएट तक की तालीम 1968 में हासिल की चूँकि उस वक्त बदायूं में कोई डिग्री कॉलेज नहीं था इसलिए तालीम हासिल करने के लिए तालिब-ऐ-इल्मों को बरेली या चंदौसी जाना पड़ता था ,फ़हमी साहब के घर की हालत इस लायक नहीं थी कि वो घर छोड़ कर बाहर जाते लिहाज़ा उन्होंने घर पर किताबें ला कर ग्रेजुएशन की पढाई करने की ठानी। घर पर पढाई चलती रही और इस बीच उन्हें 1970 में यू पी गवर्नमेंट के रेवन्यू महकमे में "चकबंदी लेखपाल"की नौकरी मिल गयी जो उन्हें हुए पीलिया के हमले के बाद ज़्यादा लम्बी नहीं खिंच पायी। इस बीच शादी भी हो गयी और बच्चे भी। बेरोज़गारी के आलम में उन्होंने स्कूली बच्चों के लिए गणित और साइंस विषयों की ट्यूशन लेनी शुरू की। उनके पढ़ाने का अंदाज़ और विषयों पर पकड़ इस कदर लोकप्रिय हुई की उनसे बीएससी और इंजीनियरिंग के छात्र भी ट्यूशन लेने आने लगे और ज़िन्दगी की गाड़ी पटरी पर दौड़ने लगी।
हर कोई रास्ता बताएगा
कोई चल कर नहीं दिखायेगा
जलना-बुझना भी और उड़ना भी
चाँद जुगनू से हार जायेगा
नाम दरिया है जब तलक तेरा
हर समंदर तुझे बुलाएगा
रिवायत से हट कर शायरी करना और बात कहने का नया सलीका ईज़ाद करना फ़हमी साहब की खासियत है।उनके बहुत से शेर मुहावरों की तरह इस्तेमाल किये जा सकते हैं। सब से बढ़िया बात जो उनकी शायरी में नज़र आती है वो ये कि आपको ऐसा एक भी लफ्ज़ उनकी शायरी का हिस्सा नहीं बनता नहीं दिखता जिसका मतलब खोजने के लिए पाठक को लुग़त मतलब डिक्शनरी का सहारा लेना पड़े. लियाकत ज़ाफ़री साहब ने फ़हमी साहब की शायरी के बारे में लिखा है कि "फ़हमी का शेर पहली ही रीडिंग में पकड़ लेता है... फिर सोचने पर मजबूर करता है.... उसके बाद परत दर परत खुलने लगता है ...और फिर जिस पाठक का जो मेयार है उसी के मुताबिक़ उसे मज़ा दे कर आगे निकल जाता है "
जब तलक तू नहीं दिखाई दिया
घर कहीं का कहीं दिखाई दिया
रोज़ चेहरे ने आईने बदले
जो नहीं था नहीं दिखाई दिया
बस ये देखा कि वो परेशां है
फिर हमें कुछ नहीं दिखाई दिया
"नदीम अहमद काविश"साहब ने इस संकलन में फ़हमी साहब की बेजोड़ 90 ग़ज़लें संगृहीत की हैं जो बार बार पढ़ी जाने योग्य हैं। बहुत से शेर तो पढ़ने के साथ ही आपके ज़ेहन में घर कर लेते हैं। लियाक़त ज़ाफ़री साहब ने इस किताब की भूमिका में फ़हमी साहब के लिए बहुत दिलचस्प अंदाज़ में लिखा है कि "
फ़हमी एक ऐसा शायर जिसकी तबई-उम्र का अंदाज़ा उसकी शायरी से कर पाना तक़रीबन ना-मुमकिन है....फ़हमी की उम्र का उसके शेर से कोई लेना देना नहीं ... सिरे से उलट मामला है यहाँ.... आप में से पच्चीस-तीस वालों को ये साठ-सत्तर का कोई तज्रिबेकार बूढा लगेगा और साठ-सत्तर वालों को कोई नटखट रूमानी लौंडा जिसने अभी अभी इ-टीवी उर्दू के मुशायरे पढ़ने शुरू किये हैं....लिख के रख लीजिये हथेली पर
हाथ मलना शिकस्त खाना है
ये जो तिल है तुम्हारे आरिज़ पर
ये मुहाफ़िज़ है या खज़ाना है
आरिज़=गाल , मुहाफ़िज़ =रक्षक
बादलों से दुआ सलाम रखो
हमको मिटटी का घर बनाना है
आप कहते हैं पास तो आओ
ये डराना है या बुलाना है
इस बाकमाल किताब के शेर पढ़वाने का लालच मुझे अब छोड़ना पड़ेगा क्यूंकि अगर सभी शेर यहाँ आपको पढ़वा दिए तो आप किताब मंगवाएंगे नहीं जबकि मेरा मक़सद इस किताब को आपकी किताबों की अलमारी में सजा हुआ देखना है। किताब मंगवाने के लिए आप अमेज़न की शरण में जा सकते हैं या फिर ऐनीबुक के पराग अग्रवाल से
9971698930पर संपर्क करें उन्हीं से आपको फ़हमी साहब का सम्पर्क सूत्र भी मिलेगा ताकि आप इस लाजवाब शायरी के लिए इसके शायर को मुबारकबाद दे सकें। देर मत कीजिये बस कोई सा भी रास्ता अख्तियार कर किताब मंगवा लीजिये उसे इत्मीनान से पढ़िए और फिर मुझे अगर चाहें तो धन्यवाद दीजिये। आखिर में उनकी कुछ और ग़ज़लों के चुनिंदा शेर आपकी खिदमत में पेश कर रुख़सत होता हूँ और निकलता हूँ अगली किताब की तलाश में :
छिपकली ने बचा लिया वरना
रात तन्हाई जान ले लेती
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इक जनाज़े के साथ आया हूँ
मैं किसी क़ब्र से नहीं निकला
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वहां फ़रहाद का ग़म कौन समझे
जहां बारूद पत्थर तोड़ती है
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उसे लेकर जो गाड़ी जा चुकी है
मैं शायद उसके नीचे आ गया हूँ
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बस वही लफ़्ज़ जानलेवा था
ख़त में लिख कर जो उसने काटा था
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शिकार आता है क़दमों में बैठ जाता है
हमारे पास कोई जाल वाल थोड़ी है
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फूल को फूल ही समझते हो
आपसे शायरी नहीं होगी
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तिरे मौज़े यहीं पर रह गए हैं
मैं इनसे अपने दस्ताने बना लूँ
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नमक की रोज़ मालिश कर रहे हैं
हमारे ज़ख़्म वर्जिश कर रहे हैं
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अदालत फ़र्शे-मक़्तल धो रही है
उसूलों की शहादत हो गयी क्या
फ़र्शे-मक़्तल = वध स्थल