जो लोग बनारस में रहते हैं वो बनारस का गुणगान क्यों करते हैं ,ये बात अभी हाल ही में संपन्न बनारस यात्रा के बाद ही पता लगी। हालाँकि बनारस में हमारा सामना भीड़, धूल ,गर्मी, उमस ,पसीना ,गन्दगी और प्रदूषण जैसी और उस पर ऊबड़खाबड़ टूटी फूटी जगह जगह खुदी सड़कों पर उछलते कूदते ऑटो ने शरीर में मौजूद सभी अंगों को झुनझुने सा बजा कर कोढ़ में खाज का काम किया लेकिन पता नहीं क्यों मन कर रहा है कि एक बार फिर से वहाँ जाया जाए , वहां क्यों जाया जाय इसका कोई संतोष जनक जवाब नहीं है मेरे पास बस जाया जाए ये मन कर रहा है। कुछ तो है जो आपको अपने मोहपाश में बांध लेता है , कुछ तो है जो हमारे आज के शायर से ये लिखवाता है :
शायरी से मोहब्बत करने वाले मेरे जैसे जिनके बाल सफ़ेद चुके हैं या हो रहे हैं शायद इस मुक्तक से शायर के नाम तक पहुँच जाएँ लेकिन युवा पाठकों के लिए उनका नाम पता करना आसान नहीं होगा क्यूंकि वो फेसबुक या ट्वीटर पर सक्रिय होने की सम्भावना से परे जा चुके हैं। उनकी शायरी को जन-जन तक फैलाने वाला कोई ग्रुप भी किसी सोशल मिडिया पर उपस्थित नहीं है वरना गंगा पर उनकी एक लम्बी रचना की ये पंक्तियाँ आपको याद रहतीं :
सबसे दुखद बात ये है कि जिस शायर ने बनारस में बहने वाली गंगा की ख़ूबसूरती का इस तरह बखान किया है उसी शायर को अपने ही जीवन काल में इसी गंगा के प्रदूषण पर ऐसी बात भी लिखनी पड़ी जिसे लिखते वक्त उसके दिल पर न जाने क्या गुज़री होगी.
हमारे शायर ने गंगा की स्वच्छता की बात आज के सरकारी "स्वच्छता अभियान"के शुरू होने के 25-30 साल पहले ही छेड़ दी थी ,अगर उनकी बात पर तब ध्यान दिया जाता तो आज गंगा का जल निर्मल होता। शायर वही होता है जो अवाम को चेताये झकझोरे सोते से उठाये और ये काम हमारे आज के शायर ने भरपूर किया। प्रदूषण ,फ़िरक़ापरस्ती ,आतंकवाद के साथ साथ उन्होंने समाज की हर बुराई पर कलम चलाई।
हमारे आज के शायर का कविता शायरी की दुनिया में उर्दूमुखी हिंदी और हिंदीमुखी उर्दू के अकेले कवि के रूप में सबसे अधिक जाना हुआ और ग़ज़ल, रुबाई और कविताओं के क्षेत्र में भाषा और रचना की बारीकियों के लिए चर्चित ,नाम है और एक ऐसा नाम जो साहित्यिक दुनिया में भारत का प्रतिनिधित्व कर सकता है। अब चूँकि आज के शायर का मिज़ाज़ ग़ज़ल का है इसलिए उनकी ग़ज़लों के अलग अलग रंगों से आपको रूबरू करवाने का इरादा है ,लिहाज़ा पोस्ट अगर लम्बी हो जाय तो मुझे माफ़ कर दीजियेगा और इसे तभी पढियेगा जब आपके पास फुरसत हो।
जिस प्रकार गौतम बुद्ध को ये ज्ञान हुआ था कि वीणा के तार इतने भी नहीं कसने चाहियें कि वो टूट जाएँ और इतने ढीले भी नहीं छोड़ने चाहियें कि उनमें से संगीत ही न निकले उसी तरह मुझे भी अभी ये ज्ञान हुआ कि पोस्ट में शायर के नाम को इतनी देर तक भी नहीं छुपाना चाहिए कि पाठक को उसका नाम जानने कि रूचि ही ख़तम हो जाय और न इतनी जल्दी बताना चाहिए कि पाठक की जिज्ञासा ही खतम हो जाय। समय आ गया है कि आपको बता दूँ कि हमारे आज के शायर हैं जनाब "नज़ीर बनारसी"जिनकी रचनाओं का संकलन पेपर बैक में राजकमल प्रकाशन, दिल्ली ने "नज़ीर बनारसी की शायरी"के नाम से किया है। इस किताब का प्रकाशन सन 2010 में किया गया था। किताब का संपादन जनाब "मूलचंद सोनकर"साहब ने किया है जो स्वयं भी प्रसिद्ध शायर,कवि,समीक्षक और दलित चिंतक हैं।
नज़ीर बनारसी साहब की पैदाइश बनारस के एक मध्यवर्गीय परिवार में 25 नवम्बर 1909 को हुई। ये परिवार हक़ीमों का परिवार कहलाता था। 'नज़ीर'साहब के पिता, दादा, परदादा सभी हकीम थे। इनके बड़े भाई 'मुहम्मद यासीन'तिब्बिया कॉलेज लखनऊ के पढ़े हुए सुप्रसिद्ध हकीम होने के साथ ही साथ एक अच्छे शायर भी थे। नज़ीर साहब ने रूचि न होते हुए भी जबरदस्ती पढ़ते हुए उस्मानिया तिब्बिया कॉलेज से जैसे तैसे हकीम की डिग्री हासिल की। कहा जाता है कि नज़ीर साहब बहुत पढ़े लिखे नहीं थे, उनके पास किसी डिग्री का दुमछल्ला भी नहीं था उन्होंने जो सीखा अपने घरेलू माहौल से सीखा।
नज़ीर साहब की प्रतिभा विलक्षण थी ,उन्होंने उस वक्त शायरी करनी शुरू की जिस वक्त उन्हें लिखना भी नहीं आता था। बचपन से ही वो श्रोता की हैसियत से शायरी की महफ़िलों में जाने लगे थे ,वहीँ उस्तादों को सुनते सुनते उनमें शेर कहने का सलीका आने लगा जिसे उनके ख़ालाज़ाद भाई 'बेताब'बनारसी ने उस्ताद की हैसियत से और संवारा। अपने शायराना मिज़ाज़ के चलते उन्होंने अपने शेर कहने के हुनर में इतनी महारत हासिल कर ली कि वो बिना किसी पूर्व तैयारी के हाथों हाथ महफिलों में शेर कहने लगे। उनकी एक ग़ज़ल के जरा ये शेर देखें और उनके हिंदी लफ़्ज़ों को बरतने के खूबसूरत ढंग पर दाँतों तले उँगलियाँ दबाएं :
सहज सरल बोधगम्य भाषा नज़ीर साहब की बहुत बड़ी विशेषता है। अगर उर्दू के सभी शायर नज़ीर की बनाई राह पर चलते तो शायद उर्दू को आज ये दिन ना देखने पड़ते। सहज सरल भाषा में शेर कहना आसान नहीं होता तभी अपनी कमज़ोरी को छुपाने के लिए शायर मुश्किल लफ़्ज़ों का इस्तेमाल करते हैं। नज़ीर साहब की सबसे बड़ी खूबी उनकी हिंदी उर्दू की मिलीजुली भाषा है जो सुनने वाले को अपनी सी लगती है.
तेज तर्रार पत्रकार "भास्कर गुहा नियोगी "अपने ब्लॉग "भड़ास 4 मिडिया "में लिखते हैं कि "नज़ीर की शायरी उनकी कविताएं धरोहर है, हम सबके लिए। संकीर्ण विचारों की घेराबन्दी में लगातार फंसते जा रहे हम सभी के लिए नज़ीर की शायरी अंधरे में टार्च की रोशनी की तरह है, अगर हम हिन्दुस्तान को जानना चाहते है, तो हमे नज़ीर को जानना होगा, समझना होगा कि उम्र की झुर्रियों के बीच इस साधु, सूफी, दरवेश सरीखे शायर ने कैसे हिन्दुस्तान की साझी रवायतों को जिन्दा रखा। उसे पाला-पोसा, सहेजा। अब बारी हमारी है, कि हम उस साझी विरासत को कैसे और कितना आगे ले जा सकते है "
आप इस किताब को हासिल करने का कोई सा भी तरीका सोचें लेकिन मंगवा लें , अब मैं चलता हूँ उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर आपके हवाले करके किसी नयी किताब की तलाश में :
मैं बनारस का निवासी काशी नगरी का फ़क़ीर
हिन्द का शायर हूँ ,शिव की राजधानी का सफ़ीर
लेके अपनी गोद में गंगा ने पाला है मुझे
नाम है मेरा नज़ीर और मेरी नगरी बेनज़ीर
शायरी से मोहब्बत करने वाले मेरे जैसे जिनके बाल सफ़ेद चुके हैं या हो रहे हैं शायद इस मुक्तक से शायर के नाम तक पहुँच जाएँ लेकिन युवा पाठकों के लिए उनका नाम पता करना आसान नहीं होगा क्यूंकि वो फेसबुक या ट्वीटर पर सक्रिय होने की सम्भावना से परे जा चुके हैं। उनकी शायरी को जन-जन तक फैलाने वाला कोई ग्रुप भी किसी सोशल मिडिया पर उपस्थित नहीं है वरना गंगा पर उनकी एक लम्बी रचना की ये पंक्तियाँ आपको याद रहतीं :
मिला है गंगा का जल जो निर्मल ,उतरके उषा नहा रही है
हवा है या रागिनी है कोई ,टहलके वीणा बजा रही है
अँधेरे करते हैं साफ़ रस्ता ,सवारी सूरज की आ रही है
किरण-किरण अब कलश-कलश को सुनहरी माला पिन्हा रही है
हुई है कितनी हसीन घटना नज़र की दुनिया संवर रही है
किरण चढ़ी थी जो बन के माला वो धूप बन कर उतर रही है
सबसे दुखद बात ये है कि जिस शायर ने बनारस में बहने वाली गंगा की ख़ूबसूरती का इस तरह बखान किया है उसी शायर को अपने ही जीवन काल में इसी गंगा के प्रदूषण पर ऐसी बात भी लिखनी पड़ी जिसे लिखते वक्त उसके दिल पर न जाने क्या गुज़री होगी.
डरता हूँ रुक न जाए कविता की बहती धारा
मैली है जबसे गंगा , मैला है मन हमारा
कब्ज़ा है आज इसपर भैंसों की गन्दगी का
स्नान करने वालो जिस पर है हक़ तुम्हारा
किस आईने में देखें मुंह अपना चाँद-तारे
गंगा का सारा जल हो जब गन्दगी का मारा
बूढ़े हैं हम तो जल्दी लग जायेंगे किनारे
सोचो तुम्हीं जवानो क्या फ़र्ज़ है तुम्हारा
हमारे शायर ने गंगा की स्वच्छता की बात आज के सरकारी "स्वच्छता अभियान"के शुरू होने के 25-30 साल पहले ही छेड़ दी थी ,अगर उनकी बात पर तब ध्यान दिया जाता तो आज गंगा का जल निर्मल होता। शायर वही होता है जो अवाम को चेताये झकझोरे सोते से उठाये और ये काम हमारे आज के शायर ने भरपूर किया। प्रदूषण ,फ़िरक़ापरस्ती ,आतंकवाद के साथ साथ उन्होंने समाज की हर बुराई पर कलम चलाई।
बाज़ार के हर शीशे को दर्पण नहीं कहते
बिन प्यार के दीदार को दर्शन नहीं कहते
उपवन से परे पुष्प को उपवन नहीं कहते
गुलशन से अलग फूल को गुलशन नहीं कहते
राहत भी उठाएंगे मुसीबत भी सहेंगे
सब अहद करें आज कि हम एक रहेंगे
हमारे आज के शायर का कविता शायरी की दुनिया में उर्दूमुखी हिंदी और हिंदीमुखी उर्दू के अकेले कवि के रूप में सबसे अधिक जाना हुआ और ग़ज़ल, रुबाई और कविताओं के क्षेत्र में भाषा और रचना की बारीकियों के लिए चर्चित ,नाम है और एक ऐसा नाम जो साहित्यिक दुनिया में भारत का प्रतिनिधित्व कर सकता है। अब चूँकि आज के शायर का मिज़ाज़ ग़ज़ल का है इसलिए उनकी ग़ज़लों के अलग अलग रंगों से आपको रूबरू करवाने का इरादा है ,लिहाज़ा पोस्ट अगर लम्बी हो जाय तो मुझे माफ़ कर दीजियेगा और इसे तभी पढियेगा जब आपके पास फुरसत हो।
मैं हूँ और घर की उदासी है ,सुकूते शाम है
ज़िन्दगी ये है तो आखिर मौत किसका नाम है
सुकूते शाम =सन्नाटा भरी शाम
मेरी हर लग़ज़िश में थे तुम भी बराबर के शरीक़
बन्दा परवर सिर्फ़ बन्दे ही पे क्यों इलज़ाम है
लग़ज़िश =ग़लती
ख़ुशनसीबी ये कि ख़त से ख़ैरियत पूछी गयी
बदनसीबी ये कि ख़त भी दूसरे के नाम है
जिस प्रकार गौतम बुद्ध को ये ज्ञान हुआ था कि वीणा के तार इतने भी नहीं कसने चाहियें कि वो टूट जाएँ और इतने ढीले भी नहीं छोड़ने चाहियें कि उनमें से संगीत ही न निकले उसी तरह मुझे भी अभी ये ज्ञान हुआ कि पोस्ट में शायर के नाम को इतनी देर तक भी नहीं छुपाना चाहिए कि पाठक को उसका नाम जानने कि रूचि ही ख़तम हो जाय और न इतनी जल्दी बताना चाहिए कि पाठक की जिज्ञासा ही खतम हो जाय। समय आ गया है कि आपको बता दूँ कि हमारे आज के शायर हैं जनाब "नज़ीर बनारसी"जिनकी रचनाओं का संकलन पेपर बैक में राजकमल प्रकाशन, दिल्ली ने "नज़ीर बनारसी की शायरी"के नाम से किया है। इस किताब का प्रकाशन सन 2010 में किया गया था। किताब का संपादन जनाब "मूलचंद सोनकर"साहब ने किया है जो स्वयं भी प्रसिद्ध शायर,कवि,समीक्षक और दलित चिंतक हैं।
परदे की तरह मुझको पड़ा रहने दीजिये
उठ जाऊँगा तो साफ़ नज़र आइयेगा आप
दर पर हवा की तरह से दीजेगा दस्तकें
कमरे में आहटों की तरह आइयेगा आप
मेरे लिए बहुत है ये ज़ादे सफ़र 'नज़ीर'
वो पूछते हैं लौट के कब आईयेगा आप
ज़ादे सफ़र=सफ़र का सामान
नज़ीर बनारसी साहब की पैदाइश बनारस के एक मध्यवर्गीय परिवार में 25 नवम्बर 1909 को हुई। ये परिवार हक़ीमों का परिवार कहलाता था। 'नज़ीर'साहब के पिता, दादा, परदादा सभी हकीम थे। इनके बड़े भाई 'मुहम्मद यासीन'तिब्बिया कॉलेज लखनऊ के पढ़े हुए सुप्रसिद्ध हकीम होने के साथ ही साथ एक अच्छे शायर भी थे। नज़ीर साहब ने रूचि न होते हुए भी जबरदस्ती पढ़ते हुए उस्मानिया तिब्बिया कॉलेज से जैसे तैसे हकीम की डिग्री हासिल की। कहा जाता है कि नज़ीर साहब बहुत पढ़े लिखे नहीं थे, उनके पास किसी डिग्री का दुमछल्ला भी नहीं था उन्होंने जो सीखा अपने घरेलू माहौल से सीखा।
तिरि मौजूदगी में तेरी दुनिया कौन देखेगा
तुझे मेले में सब देखेंगे मेला कौन देखेगा
अदाए मस्त से बेख़ुद न कीजे सारी महफ़िल को
तमाशाई न होंगे तो तमाशा कौन देखेगा
मुझे बाज़ार की ऊँचाई-नीचाई से क्या मतलब
तिरे सौदे में सस्ता और महँगा कौन देखेगा
तुम्हारी बात की ताईद करता हूँ मगर क़िब्ला
अगर उक़्बा ही सब देखेंगे तो दुनिया कौन देखेगा
उक़्बा =परलोक
'नज़ीर'आती है आने दो सफेदी अपने बालों पर
जवानी तुमने देखी है बुढ़ापा कौन देखेगा
नज़ीर साहब की प्रतिभा विलक्षण थी ,उन्होंने उस वक्त शायरी करनी शुरू की जिस वक्त उन्हें लिखना भी नहीं आता था। बचपन से ही वो श्रोता की हैसियत से शायरी की महफ़िलों में जाने लगे थे ,वहीँ उस्तादों को सुनते सुनते उनमें शेर कहने का सलीका आने लगा जिसे उनके ख़ालाज़ाद भाई 'बेताब'बनारसी ने उस्ताद की हैसियत से और संवारा। अपने शायराना मिज़ाज़ के चलते उन्होंने अपने शेर कहने के हुनर में इतनी महारत हासिल कर ली कि वो बिना किसी पूर्व तैयारी के हाथों हाथ महफिलों में शेर कहने लगे। उनकी एक ग़ज़ल के जरा ये शेर देखें और उनके हिंदी लफ़्ज़ों को बरतने के खूबसूरत ढंग पर दाँतों तले उँगलियाँ दबाएं :
है जो माखनचोर वो नटखट है हृदयचोर भी
इक नज़र में लूट कर पूरी सभा ले जायेगा
अपने दर पर तूने दी है जिसको सोने की जगह
वो तिरि आँखों से नींदें तक उड़ा ले जाएगा
हद से आगे बढ़ के मत दो दान हो या दक्षिणा
वरना तुमको वक्त का रावण उठा ले जायेगा
सहज सरल बोधगम्य भाषा नज़ीर साहब की बहुत बड़ी विशेषता है। अगर उर्दू के सभी शायर नज़ीर की बनाई राह पर चलते तो शायद उर्दू को आज ये दिन ना देखने पड़ते। सहज सरल भाषा में शेर कहना आसान नहीं होता तभी अपनी कमज़ोरी को छुपाने के लिए शायर मुश्किल लफ़्ज़ों का इस्तेमाल करते हैं। नज़ीर साहब की सबसे बड़ी खूबी उनकी हिंदी उर्दू की मिलीजुली भाषा है जो सुनने वाले को अपनी सी लगती है.
तुम हाल पूछते हो इनायत का शुक्रिया
अच्छा अगर नहीं हूँ तो बीमार भी नहीं
जो बेख़ता हों उनको फरिश्तों में दो जगह
इंसान वो नहीं जो ख़तावार भी नहीं
जीने से तंग आ गया हर आदमी मगर
मरने के वास्ते कोई तैयार भी नहीं
तेज तर्रार पत्रकार "भास्कर गुहा नियोगी "अपने ब्लॉग "भड़ास 4 मिडिया "में लिखते हैं कि "नज़ीर की शायरी उनकी कविताएं धरोहर है, हम सबके लिए। संकीर्ण विचारों की घेराबन्दी में लगातार फंसते जा रहे हम सभी के लिए नज़ीर की शायरी अंधरे में टार्च की रोशनी की तरह है, अगर हम हिन्दुस्तान को जानना चाहते है, तो हमे नज़ीर को जानना होगा, समझना होगा कि उम्र की झुर्रियों के बीच इस साधु, सूफी, दरवेश सरीखे शायर ने कैसे हिन्दुस्तान की साझी रवायतों को जिन्दा रखा। उसे पाला-पोसा, सहेजा। अब बारी हमारी है, कि हम उस साझी विरासत को कैसे और कितना आगे ले जा सकते है "
मिरे सर क़र्ज़ है कुछ ज़िन्दगी का
नहीं तो मर चुका होता कभी का
न जाने इस ज़माने के दरिंदे
कहाँ से लाये चेहरा आदमी का
क़ज़ा सर पर है लब पर नाम उनका
यही लम्हा है हासिल ज़िन्दगी का
वहां भी काम आती है मुहब्बत
जहां कोई नहीं होता किसी का
'नज़ीर'आती है बालों पर सफेदी
सवेरा हो रहा है ज़िन्दगी का
23 मार्च 1996 को दुनिया से रुखसत होने वाले नज़ीर साहब के कुल जमा छह काव्य संग्रह "गंगो जमन ", "जवाहर से लाल तक", ग़ुलामी से आज़ादी तक", "चेतना के स्वर", "किताबे ग़ज़ल "और "राष्ट्र की अमानत राष्ट्र के हवाले"मंज़र-ऐ-आम पर आये है , दुःख की बात है कि इन में से हिंदी में शायद ही कोई संग्रह उपलब्ध हो. हमें शुक्रगुज़ार होना चाहिए राजकमल प्रकाशन और सोनकर साहब के संयुक्त प्रयास का जिसकी बदौलत हमें नज़ीर साहब की चुनिंदा 51 लाजवाब ग़ज़लें और 36 नज़्में इस किताब के माध्यम से पढ़ने को मिल रही हैं।
दुनिया है इक पड़ाव मुसाफिर के वास्ते
इक रात सांस लेके चलेंगे यहाँ से हम
आवाज़ गुम है मस्जिदो-मंदिर के शोर में
अब सोचते हैं उनको पुकारें कहाँ से हम
है आये दिन 'नज़ीर'वफ़ा का मुतालबा
तंग आ गए हैं रोज के इस इम्तिहाँ से हम
वफ़ा=निष्ठा , मुतालबा=मांग
इस किताब को आप अमेजन से ऑन लाइन तो मंगवा ही सकते हैं इसके अलावा राजकमल की साइट पर जाकर भी आर्डर कर सकते हैं। आपका कोई मित्र परिचित दिल्ली रहता हो तो वो आपको राजकमल प्रकाशन 1-बी नेताजी सुभाष मार्ग ,नयी दिल्ली से इसे ला कर भी दे सकता है। किताब का मूल्य इतना कम है कि जान कर आप हैरान हुए बिना नहीं रह पाएंगे। यूँ समझिये कि ये वो खज़ाना है जो सिर्फ 'खुल जा सिम सिम "बोलने मात्र से आप को हासिल हो सकता है. इस किताब की सभी रचनाएँ न केवल आज के सन्दर्भ में प्रासंगिक हैं बल्कि भविष्य के सन्दर्भों से भी संवाद करने में सक्षम हैं।आप इस किताब को हासिल करने का कोई सा भी तरीका सोचें लेकिन मंगवा लें , अब मैं चलता हूँ उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर आपके हवाले करके किसी नयी किताब की तलाश में :
जाओ मगर इस आने को एहसाँ नहीं कहते
जो दर्द बढ़ा दे उसे दरमाँ नहीं कहते
दरमाँ=इलाज़
जो रौशनी पहुंचा न सके सबके घरों तक
उस जश्न को हम जश्ने चराग़ाँ नहीं कहते
हर रंग के गुल जिसमें दिखाई नहीं देते
हम ऐसे गुलिस्तां को गुलिस्तां नहीं कहते