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Channel: नीरज
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किताबों की दुनिया -154

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मौसम है बहारों का मगर खानये दिल में 
सूखे हुए इक पेड़ की तस्वीर लगी है 

अरमाँ का शजर सूख चला ज़र्द हैं पत्ते 
लगता है कि इस पर भी अमर बेल चढ़ी है 

हम शहरे-तमन्ना में उसे ढूंढ रहे हैं 
आहट है कि तन्हाई के ज़ीने पे खड़ी है 

मात्र तीन चार सौ ग़ज़लों की किताबें पढ़ लेने से कोई शायरी का जानकार नहीं बन जाता लेकिन मैं अपने लिए ये यकीन से कह सकता हूँ कि मैंने "आहट है कि तन्हाई के ज़ीने पे खड़ी है "जैसे बेमिसाल मिसरे बहुत ही कम पढ़े हैं। आप हो सकता हैं मेरी बात से इत्तेफ़ाक़ न रखें लेकिन जो बात मेरे लिए सच है उसे लिखने में गुरेज़ नहीं करूँगा। मेरे ख़्याल से ऐसे मिसरे सोच कर नहीं कहे जा सकते ये सीधे ऊपर से उतरते हैं जिन्हें आमद का मिसरा कहा जा सकता है। ऐसे मिसरे पढ़ने के बाद आप तुरंत आगे नहीं बढ़ सकते। शायरी का सौंदर्य और मिसरे का तिलिस्म आपको ठिठका देता है।

दिल के वीराने में सर सब्ज़ है यादों का शजर 
गर्मियों में भी हरा रहता है पीपल जैसे 

याद इक बीते हुए लम्हें की यूँ आज आई 
संग को तोड़ के फूटे कोई कोपल जैसे 
संग =पत्थर

जिस्म का अब मेरी साँसों से तअल्लुक़ ये है 
डाल कर काँटों पे खींचे कोई आँचल जैसे 

एक एक शेर एक एक मिसरा पढ़ कर आप रुकते हैं सोचते हैं दाद देते हैं फिर से उसे पढ़ते हैं फिर से दाद देते हैं और फिर बामुश्किल आगे बढ़ते हैं और अगला शेर पढ़ कर बेसाख़्ता कह उठते हैं अरे वाह सुभानअल्लाह !!! ऐसा मेरे साथ हुआ जब मैंने हमारी किताबों की दुनिया श्रृंखला की इस कड़ी में शायरा "मलका नसीम"की हिंदी में पहली बार शाया हुई किताब "शहर काग़ज़ का "को पढ़ा। आज हम उसी किताब की बात आपसे करेंगे जिसे मुझे मेरे छोटे भाई समान बेहतरीन शायर जनाब "अखिलेश तिवारी "जी ने ये कहते हुए दी कि भाई साहब अगर आपने मलका नसीम जी को नहीं पढ़ा तो क्या पढ़ा।


हमारी आँख में यूँ इंतज़ार रोशन है 
नदी में जैसे कई दीप झिलमिलाते हैं 

तेरे बग़ैर कुछ ऐसे बिखर गयी हूँ मैं 
कि जैसे साज़ के सब तार टूट जाते हैं 

धुंधलका शाम का छाने लगा है सोचती हूँ मैं
कि इस समय तो परिंद भी लौट आते हैं 

ये ज़िन्दगी वो कड़ी धूप है 'नसीम'जहाँ 
न जाने कितने हरे पेड़ सूख जाते हैं 

इलाहाबाद के संपन्न सैय्यद घराने में 1 जनवरी 1954 को जन्मी मलका नसीम को पढ़ने का बचपन से ही बेहद शौक था। एक टीवी इंटरव्यू के दौरान उन्होंने बताया कि अगर उन्हें बाजार से कुछ सामान लाने भेजा जाता तो वो उस कागज़ को जिसमें सामान लिपटा होता था रास्ते भर पढ़ती आतीं और पढ़ते हुए इतना खो जातीं की उसमें लिपटा सामान कब कहाँ गिर गया उन्हें पता ही नहीं चलता था। लगभग 15-16 साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली ग़ज़ल कही और उस वक्त के मशहूर और मयारी रिसाले "बीसवीं सदी "में बिना किसी को घर में बताये छपने को भेज दी। वो ग़ज़ल छप गयी और उस रिसाले की कॉपी घर पर आ गयी। मलका जी को ग़ज़ल छपने की ख़ुशी तो हुई ही साथ में और आगे लिखना जारी रखने का हौसला भी मिला। घर का माहौल यूँ तो अदबी था लेकिन थोड़ा रूढ़िवादी भी था याने लड़कियों का ग़ज़ल कहना, घर के बाहर मुशायरों या नशिस्तों आदि में सुनाना अच्छा नहीं माना जाता था, लेकिन मलका जी ने लिखना जारी रखा।

पत्ते तो वो भी थे जो गिरे हैं बहार में
इल्ज़ाम मौसमों के हवाओं के सर गए

जैसे थका परिंद ठहर जाए शाख़ पर 
इस तरह अश्क-ए-ग़म सरे मिज़गाँ ठहर गए
मिज़गाँ =पलकें 

आँखों ने तीरगी में बड़ा काम कर दिया 
ग़म की अँधेरी रात में जुगनू बिखर गए 

मात्र 17 साल की उम्र में मलका जी की शादी जयपुर के मुअज़्ज़म अलीसाहब से हो गयी जो खुद उर्दू ज़बान और अदब के दीवाने थे । एक सच्चे जीवन साथी की तरह उन्होंने मलका जी के हुनर को न सिर्फ पहचाना बल्कि उसे और भी निखारने में भरपूर मदद की। मलका जी ने शादी के बाद उर्दू में एम.ऐ. किया, वो हँसते हुए एक इंटव्यू में कहती भी हैं कि मेरी उर्दू मेरे मियां से अच्छी है। मुअज़्ज़म अली साहब, जिन्होंने राजस्थान उर्दू अकेडमी के सचिव पद पर रहते हुए उर्दू अदब की जिस तरह से ख़िदमत की है और कर रहे हैं उसकी जितनी भी तारीफ़ की जाय कम है, ने मलका जी को उड़ने के लिए न सिर्फ पर दिए बल्कि फ़लक नापने का हौसला भी दिया।

सुलगती शाम की दहलीज़ पर जलता दिया रखना 
हमारी याद का ख्वाबों से अपने सिलसिला रखना 

सदा बन कर, घटा बन कर,फ़ज़ा बन कर, सबा बन कर 
न जाने कब मैं आ जाऊँ दरीचा तुम खुला रखना 

न पढ़ लें कोई तहरीरें तुम्हारे ज़र्द चेहरे की 
दरो दीवार घर के शोख़ रंगों से सजा रखना 

जो बहनें मुफ़लिसी से भाइयों पर बोझ बनती हैं 
वो मर जाएँ तो उनके हाथ में शाख़े हिना रखना 

औरत के दर्द को जिस शिद्दत से एक औरत बयां कर सकती है वैसे किसी पुरुष के लिए करना लगभग नामुमकिन सा काम है। मलका जी जब अपने अशआर में औरत का दर्द बयाँ करती हैं तो आप उस दर्द को दुःख को तकलीफ़ को मज़बूरी को धड़कते लफ़्ज़ों से महसूस कर सकते हैं। उन्होंने अपने कलाम से न केवल उर्दू अदब को मालामाल किया है बल्कि जयपुर शहर का नाम भी पूरी दुनिया में रोशन किया है। उज्जैन में अपना पहला मुशायरा सं 1981 में पढ़ने वाली मलका नसीम साहिबा आज तमाम भारत और दुनिया के उन शहरों में जहां उर्दू के दीवाने रहते हैं , में बड़े अदब और अहतराम के साथ मुशायरे में अपना कलाम पढ़ने को बुलाई जाती हैं। उनकी मौज़ूदगी किसी भी मुशायरे की कामयाबी मानी जाती है।

अहले दानिश को इसी बात की हैरानी है 
शहर कागज़ का है शोलों की निगहबानी है 
अहले दानिश : अकलमंद 

इस तरह घेर लिया मुझको ग़मों ने जैसे 
मैं जज़ीरा हूँ मेरे चारों तरफ़ पानी है 

अब किसी और को देखूं भी तो कैसे देखूं 
तेरे ख्वाबों की इन आँखों पे निगहबानी है 

यूँ तो मलका साहिबा ने 26 जनवरी और 15 अगस्त को होने वाले देश के मशहूर लाल किले के मुशायरों में लगातार शिरकत की है लेकिन वो "डी.सी.एम द्वारा आयोजित मुशायरों को इन सब से श्रेष्ठ मानती हैं। पुराने लोग जानते हैं कि डी.सी.एम. मुशायरों में शिरकत करने में शायर अपनी शान समझता था क्यूंकि उस मंच से हलकी फुलकी शायरी कभी नहीं पढ़ी गयी। बहुत पुरानी बात है कि जब मलका साहिबा को पहली बार डी सी एम वालों ने मुशायरे में शिरकत का न्योता भेजा तो लोग विश्वास ही नहीं कर पाए कि जयपुर की एक शायरा इस मुकाम पर भी पहुँच सकती है लेकिन उन्होंने न केवल धमाकेदार शिरकत की बल्कि बाद में मुशायरों में वो मुकाम हासिल किया जिसका ख़्वाब हर शायर देखता है।

ये कौन आया रिदा खुशबुओं की ओढ़े हुए 
मैं जश्ने हिज़्र मनाऊं कि वस्ले यार करूँ
रिदा :कम्बल ,चादर ,हिज़्र :जुदाई

लिए हुए हूँ मैं कश्कोल खाली हाथों में 
अमीरे शहर का अब कितना इंतज़ार करूँ 

जो मुन्तज़िर है किसी का और वो चाहता है 
तमाम उम्र उसी का मैं इंतिज़ार करूँ 

जनाबे फ़ैज़ से सीखा है ये हुनर हमने 
ख़िज़ाँ की रुत में भी गुलशन का कारोबार करूँ 

मलका साहिबा को राजस्थान और उत्तर प्रदेश की उर्दू अकादमियों ने पुरुस्कृत किया है। 3 फरवरी 2017 को मध्य प्रदेश उर्दू अकादमी की तरफ से उन्हें रविंद्र भवन भोपाल में हुए शानदार समारोह में जावेद अख्तर साहब ने सन 2015-16 के लिए प्रसिद्ध "हामिद सय्यद खां "पुरूस्कार से नवाज़ा। उनकी शायरी के बारे में उर्दू अदब के मशहूर लेखक जनाब "अली सरदार जाफरी "साहब ने इस किताब की भूमिका में जो लिखा है उसके बाद और कुछ लिखने को नहीं रह जाता ,वो लिखते हैं कि "मलका नसीम की शायरी में निसवानी लताफत है इंसानी मसाईल का विक़ार -इसके एहसास में शिद्दत है और बयान में सादगी है। तशबीहात तरोताज़ा हैं जिनमें क्लासिक रख-रखाओं के साथ रोज़मर्रा की घरेलू ज़िन्दगी की आंच है। पूरी शायरी पर कुछ खूबसूरत यादों की धनक साया फ़िगन है और शाम की परछाइयाँ एक रोमानी कैफियत पैदा कर रही है। "

पलकें हर शाम सितारों से सजाया न करो 
अपनी आँखों को हंसी ख़्वाब दिखाया न करो

सुब्हा तक साथ न देगी शबे तनहाई में 
शम्मे उम्मीद सरे शाम जलाया न करो 

झिलमिलाती हुई आँखों में गुहर ठहरे हैं 
ये बिखर जायेँगे पलकों को झुकाया न करो 

पिछले तीन दशकों से भी अधिक समय से उर्दू अदब की खिदमद कर रही मलका साहिबा की अब तक आधा दर्ज़न किताबें मन्ज़रे आम पर आ चुकी हैं। "शहर काग़ज़ का"जैसा मैंने पहले बताया उनकी हिंदी में शाया होने वाली पहली किताब है जिसमें उनकी बेहतरीन ग़ज़लें और नज़्में संकलित हैं। इस किताब का इज़रा याने विमोचन 21 फरवरी 2016 को जयपुर में पाकिस्तान के मशहूर शायर जनाब "अब्बास ताबिश "साहब की मौजूदगी में हुआ था। इस किताब को लिटरेरी सर्किल जयपुर ने "जवाहर कला केंद्र जयपुर "की पुस्तक प्रकाशन योजना के अंतर्गत प्रकाशित किया है. किताब की प्राप्ति का रास्ता पूछने के लिए आप जनाब मोअज़्ज़म अली साहब को उनके मोबाईल न 9828016152 पर संपर्क कर सकते हैं। रिवायती शायरी के प्रेमियों के पास ऐसी लाजवाब और मयारी शायरी की दिलकश किताब जरूर होनी चाहिए। अभी तो मैंने मलका साहिबा की नज़्मों की बात आपसे नहीं की क्यूंकि उसके लिए एक अलहदा पोस्ट चाहिए। उनकी नज़्में बेहतरीन हैं और पाठक को बार बार पढ़ने को मज़बूर करती हैं उनके विषयों का विस्तार भी बहुत अधिक है।

शब की तन्हाई मुझसे कहती है 
मेरे शानों पे अपना सर रख दे 

रौशनी क़र्ज़ माँगता है क्यों 
उठ अँधेरा निचोड़ कर रख दे

ख़्वाब की आरज़ू से बेहतर है 
रात की गोद में सहर रख दे 

वो जो परदेश जा रहा है 'नसीम' 
उसकी आँखों में अपना घर रख दे 

अपनी शायरी ही की तरह सीधी, सरल, सलीकेदार, नफ़ासत पसंद, संवेदनशील, पुर ख़ुलूस 'मलका नसीम'साहिबा की शायरी पर जितना लिखा जाय कम ही होगा। उनकी किताब की हर ग़ज़ल यहाँ पेश करने लायक है लेकिन मैं ऐसा कर नहीं सकता , ये काम आपको किताब मंगवा कर खुद ही करना होगा। अभी तो मेरी गुज़ारिश है आप मलका साहिबा को इस बाकमाल शायरी के लिए उनके मोबाईल न. 8290303163पर बात कर भरपूर दाद दें।
आपके लिए अगली किताब की तलाश में निकलने से पहले मैं उनकी एक और ग़ज़ल के ये शेर पेश करता हूँ ,पढ़िए और उन्हें दुआएं दीजिये :

 उसे देखा नहीं सोचा बहुत है 
तसव्वुर में सही चाहा बहुत है 

मुझे छूकर जो पत्थर कर गया था 
वो इस एहसास से पिघला बहुत है 

झुका है जो दरे इन्सानियत पर 
ज़माने में वो सर ऊंचा बहुत है 

तबस्सुम तो लबों तक आ न पाया 
ये काजल आँख में फैला बहुत है

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