धूप का जंगल, नंगे पाँवों, इक बंजारा करता क्या
रेत के दरिया, रेत के झरने, प्यास का मारा करता क्या
सब उसके आँगन में अपनी राम कहानी कहते थे
बोल नहीं सकता था कुछ भी घर चौबारा करता क्या
टूट गये जब बंधन सारे और किनारे छूट गये
बीच भँवर में मैंने उसका नाम पुकारा करता क्या
ग़ज़ल क्या है ? इस सवाल का जवाब हमें हमारे आज के शायर जनाब "
अंसार कम्बरी"साहब की किताब "
कह देना", जिसका जिक्र हम करने जा रहे हैं , में कुछ इसतरह से मिलता है "
ग़ज़ल जब फ़ारस की वादियों में वजूद में आयी तब का वक्त प्रगतिशील नहीं रहा होगा।उस समय के हालात को देखते हुए कहा जा सकता है कि घोड़ों की हिनहिनाहट और तलवारों की झनझनाहट के बीच अपने मेहबूब से बात करने के लिए जो तरीका अपनाया गया उसको ग़ज़ल नाम दिया गया।ग़ज़ल ने तपते रेगिस्तानों में महबूब से बात कर ठंडक का एहसास कराया , चिलचिलाती धूप में जुल्फ़ों की छाँव सी राहत दी ,साक़ी बनकर सूखे होंठों की प्यास बुझाई, मुहब्बत के नग्मों की खुशबू बिखेरी और दिलों को सुकून पहुँचाया।
ये रेत का सफ़र है तुम तय न कर सकोगे
चलने का अगर तुमको अभ्यास नहीं होगा
सहरा हो, समंदर हो, इंसान हो, पत्थर हो
कोई भी इस जहाँ में बिन प्यास नहीं होगा
आये जो ग़म का मौसम, मायूस हो न जाना
पतझर अगर न होगा, मधुमास नहीं होगा
हालात बदलने के साथ-साथ ग़ज़ल के रंग भी बदलते चले गए और ज़बान भी बदलती गयी। यहाँ तक कि जैसी जरुरत वैसी बात वैसी ज़बान। ग़ज़ल दरअसल कोई नाम नहीं बल्कि बातचीत का सलीका है। इसे ज़िंदा रखने के लिए ज़बानों की नहीं सलीके को बचाये रखने की जरुरत है। ग़ज़ल कहने वालों की आज कोई कमी नहीं है लेकिन सलीके से ग़ज़ल कहने वाले बहुत कम लोग हैं। उन्हीं मुठ्ठी भर लोगों में से एक हैं 3 नवम्बर 1950 को कानपुर में पैदा हुए, जनाब अंसार कम्बरी साहब.
सारे मकान शहर में हों कांच के अगर
पहुंचे न हाथ फिर कोई पत्थर के आसपास
मीठी नदी बुझा न सकी जब हमारी प्यास
फिर जा के क्या करेंगे समंदर के आसपास
दुनिया में जो शुरू हुई महलों की दास्ताँ
आखिर वो ख़त्म हो गयी खण्डहर के आसपास
श्री हरी लाल 'मिलन'साहब किताब की भूमिका में अंसार साहब की शायरी के बारे में लिखते हैं कि "नवीनतम प्रयोग, आधुनिक बिम्ब विधान, यथार्थ की स्पष्टवादिता, सरल-सरस-सहज-संगमी भाषा एवं प्रत्यक्ष-समय-बोध कम्बरी की ग़ज़लों की विशेषता है "किताब के अंदरूनी फ्लैप पर मनु भारद्वाज'मनु'साहब ने लिखा है कि "अंसार साहब की फ़िक्र का दायरा इतना बड़ा है कि कहीं किसी एक रंग या सोच तक उसे सीमित रखना मुश्किल है। इस ग़ज़ल संग्रह की ग़ज़लों को पढ़ने के बाद 'मिलन'और 'मनु'साहब के ये वक्तव्य अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं लगते।
कहीं पे जिस्म कहीं सर दिखाई देता है
गली-गली यही मंज़र दिखाई देता है
दिखा रहे हैं वो प्यासों को ऐसी तस्वीरें
कि जिनमें सिर्फ समन्दर दिखाई देता है
गुनाहगार नहीं हो तो ये बताओ हमें
तुम्हारी आँख में क्यों डर दिखाई देता है
अंसार साहब को शायरी विरासत में मिली। उनके पिता स्व.जब्बार हुसैन रिज़वी साहब अपने जमाने के मशहूर शायर थे. शायरी के फ़न को संवारा उनके उस्ताद स्व.कृष्णानंद चौबे साहब ने जिनसे उनकी पहली मुलाकात सं 1972 में उद्योग निदेशालय,जहाँ दोनों मुलाज़िम थे,के होली उत्सव पर आयोजित काव्य समारोह के दौरान हुई। मुलाकातें बढ़ती गयीं और उनमें एक अटूट रिश्ता कायम हो गया। अंसारी साहब ने अपने उस्ताद चौबे साहब की रहनुमाई में पहला काव्यपाठ डा. सूर्य प्रकाश शुक्ल द्वारा आयोजित कार्यक्रम में किया और फिर उसके बाद मुड़ कर नहीं देखा।
चाँद को देख के उसको भी खिलौना समझूँ
और फिर माँ के लिए एक खिलौना हो जाऊं
मैं तो इक आईना हूँ सच ही कहूंगा लेकिन
तेरे ऐबों के लिए काश मैं परदा हो जाऊं
काँटा कांटे से निकलता है जिस तरह मैं भी
जिसपे मरता हूँ उसी ज़हर से अच्छा हो जाऊं
अम्बरी साहब का लबोलहजा क्यों की उर्दू का था इसलिए हिंदी के काव्य मंचो पर उन्हें अपना प्रभाव जमाने में हिंदी कवियों जैसी लोकप्रियता नहीं मिल रही थी। इसका जिक्र उन्होंने चौबे जी से किया जिन्होंने उन्हें कविता से सम्बंधित बहुमूल्य सुझाव देने शुरू किये। चौबे जी के सानिद्य में उन्होंने कविता की बारीकियां सीखीं और गीत तथा दोहे लिखने लगे जिसे बहुत पसंद किया गया। "अंतस का संगीत "शीर्षक से उनका काव्य संग्रह शिल्पायन प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हो कर लोकप्रिय हो चुका है. कविता और दोहों में महारत हासिल करने के बाद कानपुर शहर के बाहर होने वाले कवि सम्मेलनों में भी आग्रह पूर्वक बुलाया जाने लगा।
कितना संदिग्ध है आपका आचरण
रात इसकी शरण प्रातः उसकी शरण
आप सोते हैं सत्ता की मदिरा पिए
चाहते हैं कि होता रहे जागरण
शब्द हमको मिले अर्थ वो ले गए
न इधर व्याकरण न उधर व्याकरण
आप सूरज को मुठ्ठी में दाबे हुए
कर रहे हैं उजालों का पंजीकरण
कानपुर के बाहर सबसे पहले उन्हें कन्नौज और उसके बाद देवबंद में हुए कविसम्मेलन के मंच पर जिसपर श्री गोपाल दास नीरज , कुंवर बैचैन और जनाब अनवर साबरी जैसे दिग्गज बिराजमान थे ,पढ़ने का मौका मिला। अपने लाजवाब सहज सरल कलाम और खूबसूरत तरन्नुम से उन्हें कामयाबी तो मिली ही साथ ही उनका हौसला भी बढ़ा। उसके बाद तो गुरुजनों शुभचिंतकों एवं मित्रों के सहयोग से वो सब मिला जिसकी अपेक्षा आमतौर पर प्रत्येक रचनाकार करता है। लखीमपुर खीरी के एक कविसम्मेलन में उनकी मुलाकात गोविन्द व्यास जी से हुई जिनके माध्यम से उन्हें अनेक प्रतिष्ठित और देश के बड़े मंचों पर काव्य पाठ का अवसर मिला जैसे "लाल किला ", "दिल्ली दूरदर्शन "सी. पी. सी आदि।
घर की देहलीज़ क़दमों से लिपटी रही
और मंज़िल भी हमको बुलाती रही
मौत थी जिस जगह पर वहीँ रह गयी
ज़िन्दगी सिर्फ़ आती-औ-जाती रही
हम तो सोते रहे ख़्वाब की गोद में
नींद रह-रह के हमको जगाती रही
रात भर कम्बरी उनको गिनता रहा
याद उसकी सितारे सजाती रही
उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ द्वारा 1996 के सौहार्द पुरूस्कार एवं समय समय पर देश की अनेकानेक साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा पुरुस्कृत और सम्मानित कम्बरी साहब के श्रोताओं में पूर्व राष्ट्रपति माननीय ज्ञानी जैल सिंह ,पूर्व प्रधान मंत्री मा.वी.पी.सिंह ,मा.अटल बिहारी बाजपेयी, मा. शिवकुमार पाटिल, मा. मदन लाल खुराना, मा.सुश्री गिरिजा व्यास , मा. राजमाता सिंधिया इत्यादि जैसी न जाने कितनी महान विभूतियाँ शामिल हैं। उनके प्रशंसकों की संख्या में रोज बढ़ोतरी होती रहती है क्यूंकि उनकी रचनाएँ क्लिष्ट नहीं हैं और गंगा जमुनी संस्कृति की नुमाइंदगी करती हैं।
खुद को पहचानना हुआ मुश्किल
सामने आ गए जो दर्पण के
नाचने की कला नहीं आती
दोष बतला रहे हैं आँगन के
आप पत्थर के हो गए जब से
थाल सजने लगे हैं पूजन के
"कह देना"कम्बरी साहब का पहला ग़ज़ल संग्रह है जिसमें उनकी 112 ग़ज़लें संगृहीत हैं। इस किताब को 'मांडवी प्रकाशन', 88, रोगनगरान,दिल्ली गेट, ग़ाज़ियाबाद ने सं 2015 में प्रकाशित किया था। 'कह देना'की प्राप्ति के लिए आप मांडवी प्रकाशन को
mandavi.prkashan@gmail.comपर मेल कर के या
9810077830पर फोन करके मंगवा सकते हैं। इन खूबसूरत ग़ज़लों के लिए अगर आप कम्बरी साहब को उनके मोबाईल न.
9450938689पर फोन करके या
ansarqumbari@gmail.comपर मेल करके बधाई देंगे तो यकीनन उन्हें बहुत अच्छा लगेगा। आखिर में कम्बरी साहब की ग़ज़लों के कुछ चुनिंदा शेर आपको पढ़वा कर निकलता हूँ अगली किताब की तलाश में :
आ गया फागुन मेरे कमरे के रौशनदान में
चंद गौरय्यों के जोड़े घर बसाने आ गए
***
मौत के डर से नाहक परेशान हैं
आप ज़िंदा कहाँ हैं जो मर जायेंगे
***
कुछ भी नहीं मिलेगा अगर छोड़ दी ज़मीं
ख़्वाबों का आसमान घड़ी दो घड़ी का है
***
रेत भी प्यासी, खेत भी प्यासे, होंठ भी प्यासे देखे जब
दरिया प्यासों तक जा पहुंचा और समन्दर भूल गया
***
मस्जिद में पुजारी हो तो मंदिर में नमाज़ी
हो किस तरह ये फेर-बदल सोच रहा हूँ
***
क़ातिल है कौन इसका मुझे कुछ पता नहीं
मैं फंस गया हूँ लाश से खंजर निकाल कर
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दीन ही दीन हो और दुनिया न हो
कोई मतलब नहीं ऐसे संन्यास का