जलो जिसके लिए उस तक भी थोड़ी सी तपिश पहुंचे
ये जीना भी कोई जीना है के बस चुपचाप जल जाओ
फ़क़त उसके लिए जीना बहुत अच्छा सही लेकिन
कभी अपने लिए भी सामने उसके मचल जाओ
यहाँ हर रास्ता बस एक ही मंज़िल को जाता है
सो, आँखें बंद करके तुम जिधर चाहो निकल जाओ
हमारे प्यार को तुम प्यार रहने दो तो अच्छा है
ना लाओ अपनी पेशानी पे टेढ़ा सा ये बल, जाओ
कल्पना कीजिये - क्यूंकि शायद इंसान ही ऐसा प्राणी है जो कल्पना कर सकता है और जनाब कल्पना करने में जो आनंद है उसे लफ़्ज़ों में बयां भी तो नहीं किया जा सकता- तो कल्पना कीजिये कि आप अमेरिका के लॉस ऐंजल्स शहर में हैं - देखिये आया न मज़ा कल्पना करने में खास तौर पर उन्हें जिन्होंने अभी तक लॉस एंजल्स देखा नहीं हैं - और फिर आगे देखिये कि वहां के रेडियो स्टेशन के ऑडिशन रुम से एक 23 वर्षीय खूबसूरत बांका नौजवान मुस्कुराते हुए बाहर निकल रहा है, जिसे स्टूडियो के बाहर बैठे उस नौजवान के वालिद की उम्र के बुजुर्गवार शख़्स ने तपाक से उठकर सलाम किया और पूछा कि "बरखुरदार क्या स्टूडियो में आप ही ग़ज़ल पढ़ रहे थे ?"नौजवान ने हैरत से बुजुर्गवार को देखते हुए कहा कि "जी हाँ हुज़ूर , मैं ही पढ़ रहा था -कहें ? कुछ गुस्ताखी हुई ?"बुजुर्गवार हँसते हुए बोले "अरे नहीं नहीं ऐसी कोई बात नहीं ,बरखुरदार मैं तो ये कह रहा था कि क्या आप मुझे इस ग़ज़ल को गाने की इज़ाज़त देंगे ?"ये सुनकर उस नौजवान के चेहरे पर उभर आये ख़ुशी के भावों की कल्पना कीजिये।
तबियत क्या है एक नादान बच्चे की कहानी है
बिखर जाए तो फिर आसां नहीं है उसको बहलाना
दीवानापन नहीं तो और क्या है ये 'दिल-ए-पागल'
कभी पतझड़ में खिल उठना, कभी सावन में कुम्हलाना
ग़ज़ल होती नहीं जादूगरी बे-शक्ल लफ़्ज़ों की
ग़ज़ल है ज़ज़्बा-ऐ-दिल को कबा-ए-सौत पहनाना
कबा-ए-सौत=आवाज़ का लिबास
हमारा क्या है हम तो हर घडी मिलना तुम्हें चाहें
कभी हाँ दिल तुम्हारा खुद कहे तो जान, आ जाना
अब कल्पना करना छोड़िये और जहाँ हैं वहीँ रह कर आगे पढ़िए जो हकीकत है और हक़ीक़त ये है कि वो बुजुर्गवार जिनका जिक्र ऊपर किया जा रहा था कोई और नहीं ग़ज़ल गायकी के उस्ताद-ए-मौतरम जनाब मेहदी हसन साहब थे और जिस युवा शायर से ,जो अपनी ग़ज़ल पढ़ कर स्टूडियो से निकल रहा था , वो थे जनाब "
फ़रहत शहज़ाद"साहब जिनकी किताब "
कहना उसे"की बात आज हम करने जा रहे हैं। ये पहली छोटी सी मुलाक़ात आगे जा कर क्या गुल खिलाने वाली है इसका एहसास दोनों में से किसी को नहीं था। हमारी ज़िन्दगी में कोई पल ऐसा जरूर आता है जिससे ज़िन्दगी का रुख़ ही बदल जाता है। फ़रहत शहज़ाद साहब की ज़िन्दगी का रुख़ बदलने वाला पल यही था। मेहदी हसन साहब ने उनकी 9 ग़ज़लों गा कर "कहना उसे "के नाम से अल्बम निकाला जो बहुत लोकप्रिय हुआ। इसके बाद लगभग 32 सालों तक दोनों एक दूसरे के रंग और मौसम में शरीक़ रहे। आईये पढ़ते हैं वो ग़ज़ल जिसने मेहदी हसन साहब को मुत्तासिर किया था :
प्यार घड़ी भर का भी बहुत है
झूठा, सच्चा मत सोचा कर
वो भी तुझसे प्यार करे है
फिर दुःख होगा , मत सोचा कर
दुनिया के ग़म साथ हैं तेरे
खुद को तन्हा मत सोचा कर
जीना दूभर हो जायेगा
जानां इतना मत सोचा कर
फ़रहत साहब अपने बारे में लिखते हैं कि "
स्कूली तालीम का हाथ सातवीं जमात से पहले ही छूट गया था फिर प्राइवेट स्टूडेंट की हैसियत से कराची यूनिवर्सिटी से उर्दू में एम्.ऐ.और इंग्लिश में एम् ए की अधूरी डिग्री तक मैं पहले मुसलमान और थोड़ा सा इंसान रहा। फिर एक खुशकिस्मत दिन मुझे एक "अदबी-बेअदब"इंसान ने किसी और देश की तरफ़ एक बेहतर ज़िन्दगी जीने की तलाश में रवाना कर दिया। बहुत सी ख़ारदार और फूलों से लदी तवील राहों से चल कर आखिर मैं लेबनॉन से अमेरिका आ पहुँचा। वहां ज़िंदा रहने के लिए डोनट बनाये , सॉफ्ट वेयर इंजीनियरिंग की पढाई कर प्रोग्राम बनाये ,इंटरनेशनल बिजनेस में एम् बी ऐ किया और तो और हवाई जहाज उड़ाने के लिए पायलेट का लाइसेंस भी लिया। यहाँ मेरी सोच की आँखों पर बंधी मज़हब की सब्ज़ पट्टी की गिरफ्त कमज़ोर पड़ना शुरू हुई। आज मैं ये कहने के क़ाबिल हुआ हूँ कि "जी हाँ मैं अव्वल आखिर सिर्फ एक इंसान हूँ।मैं किसी मुल्क से मुतअल्लिक़ नहीं। मेरा ताअल्लुक़ 'प्लानेट अर्थ 'से है और इसी सबब मैं इस ज़मीन पर बसने वाले हर इंसान को पहले अपना हमवतन समझता हूँ और फिर कोई और। "
आवाज़ मेरी बैठ तो सकती है थकन से
लहजे में मगर मेरे गुज़ारिश नहीं होगी
हो फ़िक्र जिसे खुद वो मेरा हाल परख ले
मुझ से तो मेरे ग़म की नुमाइश नहीं होगी
धड़कन में तेरा नाम बहर हाल रहेगा
होठों पे मेरे हाँ , तेरी ख़्वाहिश नहीं होगी
फ़रहत साहब के पिता जो हरियाणा के कैथल जिले के थे खुद बहुत बेहतरीन शायर थे. उनका ननिहाल लख़नऊ था। याने उनकी जड़ें हिंदुस्तान में हैं। विभाजन के बाद उनका परिवार पाकिस्तान चला गया जहाँ उनके पिता क्लेम डिपार्टमेंट में काम करने लगे। वो अपने वालिद के बारे में एक जगह कहते हैं कि "
जो लोग कहते थे कि मेरी हिन्दुस्तान में इतनी बड़ी जमीन-जायदाद थी उन्हें मेरे वालिद से मिलवाया जाता था. वालिद साहब को असलियत पता होती थी. लिहाजा जल्द ही कुछ लोग उनकी ईमानदारी की वजह से उन्हें नापसंद करने लगे. ईमानदारी की सजा के तौर पर उन्हें पाकिस्तान के कालापानी समझे जाने वाले इलाके डेरा गाजी खान में ट्रांसफर कर दिया गया. हम चार भाइयों के जवान होने तक हमारा अपना घर नहीं था. हम किराये के मकान में रहते थे. वहीँ 1955 में मेरा जन्म हुआ।"जिसकी हिंदुस्तान में जड़ें हों ,पाकिस्तान में जन्म हुआ हो और अमेरिका में रिहाइश हो उसे तो किसी एक मुल्क का नहीं कहा जा सकता। वो वाकई 'प्लानेट अर्थ 'के बाशिंदे हैं।
ऐसा नहीं कि मुझको जुदाई का ग़म नहीं
लेकिन ये बात और, मेरी आँख नम नहीं
तेरे हुज़ूर लाए मुझे प्यार माँगने
इतना तो जान मेरी तेरे ग़म में दम नहीं
तन्हाई, ज़ख्म, रंज-ओ-अलम सब ही साथ हैं
सोचो अगर तो इतने अकेले भी हम नहीं
फ़रहत साहब को लोग इण्डिया परस्त मानते हैं , उनके बेबाक कथनों से पाकिस्तान के बहुत से लोग आहत भी हुए हैं वो कहते हैं कि : "
मेरा ख्याल है कि हिंदुस्तान की आम जनता काफी समझदार है. मैं आम हिंदुस्तानी की इस बात के लिए बहुत तारीफ करता हूं. ये वो मुल्क है जिसने हर तहजीब को, हर मजहब, हर शफ़ाकत को पाला है, सीने से लगाया है. इस मुल्क में वसीम बरेलवी और नीरज हैं तो इस मुल्क ने अहमद फ़राज को भी गले लगाया था, फरहत शहजाद को गले लगाया है. हिन्दुस्तान से मेरा गहरा रिश्ता रहा है. इसकी वजह रही है कि मेरी पहली शादी हिन्दुस्तानी लड़की से हुई थी. उनके देहांत के बाद मेरी दूसरी शादी भी हिन्दुस्तानी लड़की से ही हुई. अल्लाह के करम से मुझे हिन्दुस्तान में पाकिस्तान से ज्यादा इज़्ज़त और मोहब्बत मिली है. इसलिए वहां राय बन गयी कि ये हिन्दुस्तान का शायर है. इसलिए जब भारत पाकिस्तान में तनाव बढ़ता है तो पीटीवी वाले सबसे पहले मेरी ग़ज़लें काट देते हैं."
नज़र उससे न मिलती काश, अब
वो लिए हाथों में पत्थर रह गया है
शिकस्ता है मेरा आईना या फिर
मेरा चेहरा बिखर कर रह गया है
नमाज़ी जा चुके अपने घरों को
ख़ुदा मस्जिद में फँस कर रह गया है
वो किस्मत के धनी हैं या मुनाफ़िक
के जिन शानों पे अब सर रह गया है
मुनाफिक़=पाखंडी
फ़रहत साहब की शायरी रिवायती शायरी नहीं है उनकी शायरी के बारे में दिल्ली युनिवर्सिटी के उर्दू विभाग के जनाब खालिद अल्वी साहब ने लिखा है कि "
किसी भी साहित्य का मूल्यांकन केवल समय करता है ग़ालिब के समय में ज़ौक का दर्ज़ा बहुत बुलंद था लेकिन समय ने ग़ालिब को जिस सिंहासन पर बिठाया है किसी ने उस समय कल्पना भी नहीं की होगी। इसलिए फ़रहत को साहित्य में कौनसा स्थान दिया जाता है इसका निर्णय समय पर ही छोड़ देना चाहिए। लेकिन इतना जरूर कहना चाहूंगा कि हिंदुस्तान के बाहर ग़ज़ल को फ़रहत शहज़ाद जैसा अभिभावक मिला हुआ है इसलिए ग़ज़ल परदेश में भी मथुरा की गाय की तरह प्रसन्नचित नज़र आती है। हम हिन्दुस्तानियों को कभी कभी बुरा भी लगता है कि अमेरिका जैसी समंदर पार बस्ती में भी ग़ज़ल अपने प्राचीन वतन हिंदुस्तान की तरह घमंडी नज़र आती है"
कोंपलें फिर फूट आयीं शाख पर कहना उसे
वो न समझा है ,न समझेगा मगर कहना उसे
राह में तेरी घडी भर की रिफ़ाक़त के लिए
जल रहा है धूप में पागल शजर कहना उसे
रिफ़ाक़त =साथ
रिस रहा हो खून दिल से, लब मगर हँसते रहें
कर गया बर्बाद मुझको ये हुनर कहना उसे
"
कहना उसे"में ,जिसे वाणी प्रकाशन ने अपनी "
दास्ताँ कहते कहते"सीरीज के अन्तर्गत प्रकाशित किया है , फ़रहत शहज़ाद साहब की उर्दू में छपने वाली पहली पांच किताबों में से सिर्फ कुछ चुनिंदा ग़ज़लें ही शामिल की गयीं हैं। फ़रहत कहते हैं कि "
मेरी शायरी मेरी ज़िन्दगी का मन्जूम सफरनामा है। मैंने जो जिया, वो लिखा और जो जिए बगैर लिखा वो बाद में जिया या शायद यूँ कहना ज़्यादा दुरुस्त होगा कि जीना पड़ा। मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि अगर आप अपने ज़हन-ओ-दिल पर पड़े रिवायती शायरी के ताले खोलकर इन ग़ज़लों को पढ़ेंगे तो अक्सर जगहों पर आपकी खुद से मुलाकात जरूर होगी"
कभी यूँ हो कि पत्थर चोट खाये
ये हर दम आईने ही चूर क्यों हैं
फ़क़त इक शक्ल आँखों से छिनी थी
ये सारे ख़्वाब चकना चूर क्यों हैं
कोई पूछे तो दिल के हुक्मरां से
मुहब्बत का एवज़ नासूर क्यों है
जोश ,फ़राज़ बशीर बद्र और वसीम बरेलवी जैसी शख्सियतों से राब्ता रखने वाले जनाब फ़रहत शहज़ाद की इस किताब को, जिसमें उनकी 200 से ज्यादा ग़ज़लें संकलित हैं ,देवनागरी में तैयार करने में डाक्टर मृदुला टंडन साहिबा का बहुत बड़ा हाथ है। उन्होंने फ़रहत साहब की उर्दू में प्रकाशित सभी ग़ज़लों की किताबों में से चुनिंदा ग़ज़लें छांटी उनका लिप्यांतर किया और ख्याल रखा कि ग़ज़लें ऐसी हों जिसे हिंदी का पाठक ठीक से समझ सके. कुछ ग़ज़लों में आये उर्दू के मुश्किल लफ़्ज़ों का हिंदी अनुवाद भी उस ग़ज़ल के अंत में दिया। इस किताब को पढ़ते वक्त पाठक ज़ज़्बात के समंदर को खंगालता हुआ गुज़रता है।
बू-ए-गुल फूल का मोहताज नहीं है , लेकिन
फूल खुशबू से जुदा होगा तो मर जाएगा
किसको मालूम था जानां के तेरे जाते ही
दर्द खंज़र की तरह दिल में उतर जायेगा
शेर कहते रहो शायद के करार आ जाये
ज़ख्म-ए-दिल ज़ख्म-ए-बदन कब है के भर जाएगा
"कहना उसे "की प्राप्ति के लिए आपको वाणी प्रकाशन की साइट पर जाना पड़ेगा और उसके लिए आप www. vaniprkashan.inपर क्लिक करें या फिर +91 11 23273167 पर फोन करें वैसे ये किताब अमेज़ॉन पर भी हार्ड बाउन्ड और पेपर बैक में उपलब्ध है आप इसे वहां से भी ऑन लाइन मंगवा सकते हैं। ये एक ऐसी किताब है जिसका हर सफ़्हा बेहतरीन शायरी से लबालब भरा हुआ है। शायरी प्रेमियों को ये किताब कतई निराश नहीं करेगी। किताब पढ़ कर आप फ़रहत शहज़ाद साहब को उनके ई -मेल farhatalishahzad@yahoo.comपर लिख कर बधाई जरूर दें। फ़रहत साहब फेसबुक पर भी हैं वहां भी उन्हें बधाई दी जा सकती है।
मैं अब भी मुन्तज़िर रहता हूँ तेरा
मगर अब वो परेशानी नहीं है
अकेला है बहुत सहरा भी लेकिन
मेरे दिल जैसी वीरानी नहीं है
सुनाऊँ हाले दिल मैं अंजुमन में
मेरे ग़म में वो अरजानी नहीं है
चलो शहज़ाद दिल के ज़ख़्म खुरचें
के यूँ भी नींद तो आनी नहीं है
फरहत शहज़ाद और उनकी ग़ज़लों पर खूब लिखा जा सकता है। उनकी ग़ज़लों में संगीत खनकता है तभी मेहदी हसन साहब के अलावा भी तमाम बड़े ग़ज़ल गायकों जैसे गुलाम अली ,जगजीत सिंह आबिदा परवीन ,शफ़क़त अली खान , नुसरत फ़तेह अली खान, शकील अहमद , हरिहरन इत्यादि ने कुल मिला कर उनकी 400 से ज्यादा ग़ज़लों को गाया है। उनकी एक यादगार ग़ज़ल को "तेरा मिलना अच्छा लगे है "को मेहदी हसन साहब ने स्वर कोकिला लता मंगेशकर साहिबा के साथ मिल कर सन 2010 में गाया है। सन 2016 में उन्हें लुधियाना में "साहिर लुधियानवी"आवार्ड से नवाज़ा गया। नयी किताब की तलाश में निकलने से पहले पेश हैं उनकी ग़ज़लों के कुछ फुटकर शेर :
कुछ ज़र्द हो चले थे तिरे हिज़्र के शजर
फिर शहर-ए-दिल में याद की बरसात हो गयी
***
जब न तरकश में कोई तीर बचा
हाथ उसका सलाम तक पहुंचा
***
क्या हुआ गर ख़ुशी नहीं बस में
मुस्कुराना तो इख़्तियार में है
***
याद में तेरी आँख से गिर कर
रात अश्कों ने ख़ुदकुशी कर ली
***
तमाम उम्र मुझे संगसार करता रहा
वो मेरा यार जो शीशे के घर में रहता था
संगसार =पत्थरों से मारना
***
ज़िन्दगी कट गयी मनाते हुए
अब इरादा है रूठ जाने का
***
एक पल में ज़िन्दगी मेरी समझने के लिए
सर्दियों की चांदनी रातों में बाहर देखिये
***
उँगलियाँ फेरना बालों में मेरे देर तलक
उन दिनों मुझसे तुम्हें कितनी मुहब्बत थी ना
***
ये पागलपन नहीं तो और क्या है
मैं सचमुच मुस्कुराना चाहता हूँ
***
लगा कर ज़ख्म खुद मरहम भी देगा
उसे इतना क़रीना आ गया है