सिर्फ मंज़िल पे पहुँचने का जुनूँ होता है
इश्क में मील के पत्थर नहीं देखे जाते
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जिसका पेट भरा है वो क्या समझेगा
भूख से मरने वाले कितने भूखे थे
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इसके मजमे की कोई सीमा नहीं
आदमी दर्शक मदारी ज़िन्दगी
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एक जलता हुआ चिराग हूँ मैं
मुझको मालूम है हवा क्या है
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जो कुछ है तेरे पास वही काम आएगा
बारिश की आस में कभी मटकी न फोड़ तू
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बढ़ी जब बेकली कल रात ,हमने
तुम्हारा नाम फिर गूगल किया है
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अर्दली हो के भी समझे है ये खुद को अफसर
ये मेरा जिस्म मेरी रूह का पैकर देखो
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इश्क का मतलब समझ कर देखिएगा
क़ुरबतें महसूस होंगी फासलों में
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मिला तो सबक दूंगा इंसानियत का
मैं खुद में छुपा जानवर ढूंढता हूँ
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जिस बशर की दस्तरस में कोई दरया था नहीं
प्यास की शिद्दत में वो आतिश को पानी लिख गया
बड़ा ही मुश्किल होता है एक तो किसी स्थापित प्रसिद्ध लोकप्रिय शायर पर लिखना और दूसरे किसी अनजान शायर पर लिखना। पहली श्रेणी के शायर के बारे में सभी को इतना कुछ मालूम होता है कि आप जो भी लिखें वही सबको पहले से पता होता है उसमें कुछ नया जोड़ना आसान नहीं होता और दूसरी श्रेणी के बारे में जब आपको कुछ पता ही नहीं होता है तो लिखेंगे कैसे और क्या ? ऐसे मामले में मैंने अक्सर देखा है कि सोशल मीडिया और सर्वज्ञानी गूगल बाबा भी अपना मुंह छुपा लेता है। आप उसके बारे में फिर यहाँ, वहां या जहाँ से भी थोड़ी सी सम्भावना दिखे जानकारी बटोरते हैं और इस अधकचरी जानकारी से मिले छोटे छोटे सूत्र इकठ्ठा करते हैं और फिर उन्हें आपस में जोड़ने की कोशिश करते हैं जिसमें कभी सफलता मिल जाती है तो कभी नहीं। हमारे आज के शायर दूसरी श्रेणी के हैं याने इनके बारे में मैंने न कभी सुना न कभी कहीं पढ़ा। किताब के कुछ पन्ने पलटे तो लगा कि इसे तो पूरा पढ़ना पड़ेगा। ये सरसरी तौर पर नज़र डाल कर रख देने वाली किताब नहीं है।
रहगुज़ारे-दिल से गुज़रा शाम को उनका ख़्याल
रक़्स यादों का मगर अब रात भर होने को है
क्या पता मिटटी को अब वो कूज़ागर क्या रूप दे
हाँ मगर हंगामा कोई चाक पर होने को है
मुस्कराहट क्यों ज़िया की हो रही मद्धम 'दिनेश'
क्या चिरागों पर हवाओं का असर होने को है
बात शुरू करते हैं कैथल से जो हरियाणा के शहर कुरुक्षेत्र से लगभग 54 की.मी की दूरी पर है। कैथल को हनुमान जी की जन्म स्थली भी माना जाता है और यही वो जगह है जहाँ भारत की पहली महिला शासक रज़िया सुल्तान की मज़ार स्थित है, लेकिन हम कैथल नहीं रुकेंगे उस से आगे चलेंगे ज्यादा नहीं ,यही कोई 18 -19 की.मी और पहुंचेंगे पूण्डरी गाँव। देखिये सावन का महीना है और ये सारा गाँव महक रहा है फिरनी की खुशबू से। कहते हैं जिसने पूंडरी गाँव की बनी फिरनी सावन में नहीं खाई तो फिर उसने जीवन में क्या खाया ? फिरनी एक तरह की मिठाई है जो मैदे और चीनी से बनाई जाती है और देश में ही नहीं विदेशों में भी सावन के महीने में पूंडरी से मंगवाई जाती है और बड़े चाव से खाई जाती है। इस फिरनी के अनूठे स्वाद के कारण ही पूंडरी का नाम लोगों की ज़बान पर है। इसी छोटे से गाँव के हैं हमारे आज के शायर जो देखने में पहलवान जैसे लगते हैं लेकिन हैं दिल के बहुत कोमल। जिस तरह की ग़ज़लें वो कह रहे हैं मुझे यकीन है कि आज नहीं तो कल पूंडरी को लोग उनके नाम '
दिनेश कुमार'की वजह से भी जानेंगे। दिनेश जी का पहला ग़ज़ल संग्रह '
तुम हो कहाँ'अभी हमारे सामने है :
नफ़स के इन परिंदों की कहानी भी अजीब है
कि जब भी शाम हो गयी सफर तमाम हो गया
नफ़स =सांस
नसीब हम ग़रीबों का न बदला लोकतंत्र में
नया है हुक्मरां भले नया निज़ाम हो गया
सफर कलंदरों का कब है मंज़िलों पे मुनहसिर
जहाँ कहीं क़दम रुके वहीँ क़याम हो गया
मुनहसिर =आश्रित
25 अक्टूबर 1977 को पूंडरी जिला कैथल में जन्में दिनेश ने कुरुक्षेत्र विश्विद्यालय से वाणिज्य विषय में स्नातक की डिग्री हासिल की। गाँव और घर का माहौल ऐसा नहीं था कि दिनेश जी कविताओं या शायरी की और झुकते लेकिन उसके बावजूद ऐसा हुआ और पत्थरों की दीवार से जिस तरह एक कोंपल फूट निकलती है कुछ वैसे ही शायरी उनमें से निकल कर बाहर आयी। कारण ढूंढने की कोशिश करेंगे तो शायद सफलता हाथ नहीं लगेगी कि क्यों बचपन में वो दूरदर्शन और रेडियो से प्रसारित होने वाले कवि सम्मेलनों और मुशायरों के जूनून की हद तक दीवाने थे। सन 2005 याने 28 वर्ष की उम्र में उन्होंने पहली तुकबंदी की और उसे करनाल की एक काव्य गोष्ठी में सुनाया तो लोगों ने खूब पसंद किया। उत्साह बढ़ा तो बिना ग़ज़लों का व्याकरण समझे 7 -8 ग़ज़लें कह डालीं लेकिन जल्द ही ग़मे रोज़गार ने उनके इस परवान चढ़ते शौक के पर क़तर दिए।
घुप अँधेरे में उजाले की किरण सा जीवन
जो भी जी जाए वो दुनिया में अमर होता है
आपसी प्यार मकीनों में हो, घर तब तब होगा
दरो-दीवार का ढाँचा तो खंडर होता है
वो न सह पायेगा इक पल भी हक़ीक़त की तपिश
जिसके ख़्वाबों का महल मोम का घर होता है
ज़िन्दगी, जीने की जद्दो जहद में गुज़रती रही मन में उठते विचार कागज़ पर उतरने को तरसते रहे। लगभग 9 साल बाद याने 2014 में दिनेश जी ने अपनी एक ग़ज़लनुमा रचना फेसबुक पर डाली तो उसके बाद उन्हें जो प्रतिक्रिया मिली उस से पता लगा कि ग़ज़ल के लिए बहर का ज्ञान बहुत जरूरी है। सोचिये पूंडरी जैसे छोटे गाँव में ग़ज़ल के नियमों की जानकारी उन्हें कौन देता ?लिहाज़ा उन्होंने इंटरनेट की शरण ली। किस्मत से उन्हें डा ललित कुमार सिंह , नीलेश शेवगांवकर और डा अशोक गोयल जैसे हमेशा मदद करने को तैयार रहने वाले लोगों का साथ मिला। मुहतरम अनवर बिजनौरी साहब की किताब 'शायरी और व्याकरण'ने भी उनकी बहुत मदद की। सीख वही सकता है जो अपनी गलतियों से सबक ले और अगर कोई आपकी कमियां बताये तो उसे सकारात्मक ढंग से स्वीकार करे । दिनेश जी ने ये ही रास्ता अपनाया। उनका ,सीखने का 2014 में चला ये सिलसिला आज भी जारी है।
ढो रहे हैं बोझ हम तहज़ीब का
गर्मजोशी अब कहाँ आदाब में
कौन करता रौशनी की क़द्र अब
ढूंढते हैं दाग सब महताब में
सिर्फ इतना सा है अफ़साना 'दिनेश'
ज़िन्दगी मैंने गुज़ारी ख्वाब में
दिनेश जी के लिखने पढ़ने के इस सिलसिले को एक झटका तब लगा जब उन्हें सन 2016 में दिल की गंभीर बीमारी ने आ घेरा। बीमारी कोई भी हो इंसान को तोड़ देती है और अगर दिल की हो तो और भी। दिनेश इस बीमारी की चपेट में आकर मानसिक रूप से बहुत कमज़ोर हो गए। इलाज़ के लिए पर्याप्त धन का अभाव, बीमारी से और ऑपरेशन से पैदा हुई परेशानियों ने उनकी कलम एक बार फिर उनके हाथ से छीन ली। सोशल मिडिया के अपने फायदे नुक्सान हैं लेकिन इसकी बदौलत हमें जीवन में कुछ ऐसे लोग मिल जाते हैं जिनकी सोहबत में आपकी परेशानियां ,दुःख तकलीफें कम हो जाती है। दिनेश जी सौभाग्यशाली हैं कि मुसीबत की घडी में हौसला देने वालों की उन्हें कभी कमी नहीं रही और इसी हौसले की बदौलत वो ज़िन्दगी के मैदान-ए-जंग में फिर से ताल ठोक कर आ खड़े हुए।
हमको तो क्यूंकि अपने सितमगर से प्यार था
ज़ोरो-जफ़ा का उस से गिला कर न सके हम
रंजो-अलम को सहने की आदत जो पड़ गई
फिर अपने सोज़े -दिल की दवा कर न सके हम
आज उनके तसव्वुरात का बंधन अजीब था
मरने तलक तो खुद को रिहा कर न सके हम
'साहित्य सभा 'कैथल में चलने वाली उस मयारी मासिक काव्य गोष्ठी का नाम है जिसमें शिरक़त करना शायर के लिए फ़क्र की बात मानी जाती है. हर माह इस गोष्ठी द्वारा ग़ज़ल प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है जिसमें कैथल के ही नहीं पूरे हरियाणा और उसके आसपास के शायर भाग लेते हैं। दिनेश जी ने इस प्रतियोगिता में समय समय पर कभी तृतीय कभी द्वितीय तो कभी प्रथम स्थान ग्रहण किया है। श्री अमृत लाल मदान जो इस काव्यगोष्ठी के प्रधान हैं ने इस किताब की भूमिका में लिखा है कि "मेरी लिए यह हैरानी का सबब रहा है कि आज जबकि ख़ालिस उर्दू जानने वालों की तादाद बहुत कम हो गयी है ,कैसे वाणिज्य पढ़ा कस्बे का ये नौजवान स्नातक एहसासात से लबालब ग़ज़लें कह लेता है , कैसे मुश्किल से मुश्किल उर्दू के अल्फ़ाज़ को शायरी की दिलकश चाशनी के रूप में परोस कर सामने रख देता है "
हक़-परस्ती की डगर पर है ख़मोशी छाई
झूठ की पैरवी करते हैं ज़माने वाले
अपने उपदेशों की गठरी को उठाले ज़ाहिद
मयक़दे जाएंगे ही मयक़दे जाने वाले
अपनी हिम्मत से नया बाब कोई लिखते हैं
सर नहीं देखते, दस्तार बचाने वाले
मजे की बात है कि बिना किसी उस्ताद की मदद लिए उर्दू ज़बान दिनेश जी ने इंटरनेट के माध्यम से सीखी। उनके पास और कोई रास्ता भी नहीं था क्यूंकि कस्बे में उर्दू सिखाने वाला कोई ढंग का उस्ताद मिला नहीं ,नौकरी की वजह से रोज रोज कैथल तो जा नहीं सकते थे लिहाज़ा इंटरनेट की शरण ले ली। उनका कहना है कि अभी उनको उर्दू लिखने में दिक्कत आती है अलबत्ता वो धीरे धीरे पढ़ जरूर लेते हैं। इस से उनकी झुझारू प्रवृति का पता चलता है, उनके जूनून की खबर लगती है। मुझे ऐसे सुदूर इलाकों में रहने वाले अनजान शायरों को पढ़ना अच्छा लगता है भले ही उनकी शायरी अभी कच्ची है मयार भी बहुत ऊंचा नहीं है लेकिन उनका हौसला बुलंद है। जो लोग स्थापित नहीं हैं उनके तरफ खड़े रहने वालों की हमेशा कमी रहेगी मगर जो लोग जुनूनी हैं उनके लिए इस बात से अधिक फ़र्क नहीं पड़ता कि कितने लोग उनके साथ खड़े हैं। आप दिल से लिखते रहें तो एक दिन चाहने वालों की भीड़ खुद-ब -खुद आपकी तरफ खींची चली आएगी।
अगरचे काम कोई मेरा बेमिसाल नहीं
मगर सुकूँ है यही दिल को कुछ मलाल नहीं
वफ़ा की राह पे चल कर किसी को कुछ न मिला
मगर मैं ज़िंदा हूँ अब तक ये क्या कमाल नहीं
हम अब भी रातों को उठ उठ के उनको छूते हैं
हुई है उम्र मगर इश्क में ज़वाल नहीं
ज़वाल =गिरावट /कमी
दिनेश जी के इस पहले ग़ज़ल संग्रह को 'शब्दांकुर प्रकाशन'मदनगीर , नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है। इस किताब को आप प्रकाशक को उनके ईमेल अड्रेस
shabdankurprkashan@gmail.comपर मेल करके प्राप्ति का रास्ता पूछ सकते हैं या
09811863500 परकॉल कर सकते हैं ,सबसे बढ़िया तो ये रहेगा कि आप अपने कीमती समय से एक छोटा सा हिस्सा निकाल कर दिनेश जी को उनके मोबाईल न.
09896755813पर फोन करके बधाई दें और किताब प्राप्ति का रास्ता पूछें। किसी अनजान शायर की हौसला अफ़ज़ाही करना सबाब का काम होता है क्यूंकि आपके एक फोन से जो ख़ुशी दिनेश जी को मिलेगी वो शायद उन्हें किसी बड़े सम्मान को प्राप्त करके भी न मिले -ये बात मैं अपने अनुभव से कह रहा हूँ और अगर आप भी कुछ लिखते हैं तो पाठक के फोन से मिलने वाली ऊर्जा को समझ सकते हैं।
अपने मिलने का इक दर खुला छोड़ दे
चारागर ज़ख्म कोई हरा छोड़ दे
तेरी नस्लों को दुश्वारी होगी नहीं
दश्ते-सहरा में तू नक़्शे-पा छोड़ दे
सिर्फ खुशियाँ ही जीवन का हासिल नहीं
कुछ ग़मों के लिए हाशिया छोड़ दे
वक्त आ गया है कि अब किसी नयी किताब की तलाश के लिए निकला जाय इसलिए दिनेश जी की ज़िन्दगी के लगभग हर पहलू को नज़दीक से देखती-भालती पुर कशिश अंदाज़ वाली ग़ज़लों की चर्चा को विराम दिया जाय। चलते चलते आईये पढ़ते हैं उनकी एक छोटी बहर में कही ग़ज़ल के ये शेर :
मेरे चेहरे पे जब चेहरा नहीं था
मैं तब आईने से डरता नहीं था
ग़मों से जब नहीं वाबस्तगी थी
मैं इतनी ज़ोर से हँसता नहीं था
नज़ाकत ताज़गी कुछ बेवफाई
किसी के हुस्न में क्या क्या नहीं था