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Channel: नीरज
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किताबों की दुनिया - 200

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ता-हश्र उसका होश में आना मुहाल है
 जिसकी तरफ सनम की निगाहे-नयन गई 
ता-हश्र =क़यामत तक 
*** 
साफ़ी तिरे जमाल की कां लग बयां करूँ
 जिस पर कदम निगाह के अक्सर फिसल गए 
साफी =सफाई, सुंदरता , जमाल =रोशनी ,कां लग =कहाँ तक 
*** 
सजन तेरी गुलामी में किया हूँ सल्तनत हासिल 
मुझे तेरी गली की ख़ाक है तख्ते-सुलेमानी 
*** 
मुद्दत के बाद गर्मी दिल की फरद हुई है 
शरबत है हक़ में मेरे उस बेवफ़ा की गाली 
फरद =समाप्त 
*** 
तुझ मुख की आब देख गई, आब आब की 
ये ताब देख अक्ल गई आफ़ताब की 
*** 
सुन कर खबर सबा सूँ गरेबाँ को चाक़ कर 
निकले हैं गुल चमन सूँ तिरे इश्तयाक में
 सबा =हवा , इश्तयाक =चाह 
*** 
तुझ गाल पर नौं का निशाँ दिसता मुझे उस घात का 
रोशन शफ़क़ पर जगमगे ज्यूँ चाँद पिछली रात का 
नौं =नाख़ून, दिसता =दिखाई देता 
*** 
वो आबो-ताब हुस्न में तेरे है ऐ सजन 
खुर्शीद जिस कूँ देख कर लरज़ां है ज्यूँ चिराग 
खुर्शीद =चाँद 
*** 
शुगल बेहतर है इश्कबाज़ी का 
क्या हकीकी क्या मजाज़ी का 
हकीकी =वास्तविक , मजाज़ी =अवास्तविक
 *** 
बुलबुलां गर यक नज़र देखें तिरे मुख का चमन 
फिर न देखें ज़िन्दगी में मुख कभी गुलज़ार का 
*** 
ऐ शोख़ तुझ नयन में देखा निगाह कर-कर 
आशिक़ के मारने का अंदाज़ है सरापा 

 आप सर खुजला रहे होंगे -नहीं ? अच्छा जी ? इसलिए पूछा क्यूंकि मैंने तो ये सब पढ़ते वक्त खुजलाया था और इतनी जोर से खुजलाया की मेरे सर पर पड़े नाखूनों के निशान आप आज भी देख सकते हैं। बात ही ऐसी थी। इससे पहले ना ऐसी भाषा पढ़ने में आयी थी और न ऐसे ख़्याल। आती भी कैसे ? साढ़े तीन सौ सालों में बहुत कुछ बदल गया है। जी सही पढ़ा आपने , ये जो अशआर अगर आपने पढ़ें हैं तो बता दूँ कि आज से लगभग साढ़े तीन सौ साल पहले के हैं। कैसा ज़माना रहा होगा न तब ? शायर के पास सिवा इश्क फरमाने और अपनी मेहबूबा की ख़ूबसूरती बखान करने के अलावा और कोई काम ही नहीं होता होगा शायद । रोज़ी रोटी की फ़िक्र तो तब भी हुआ ही करती होगी लेकिन शायद उसके लिए इतनी मारामारी नहीं हुआ करती होगी जितनी आज के दौर में होती है । थोड़े में गुज़ारा हुआ करता होगा। तब लोग उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से ज्यादा सफ़ेद क्यों के झमेले में नहीं पड़ते होंगे।हाथ में वक़्त हुआ करता होगा तभी लोग कभी बुलबुल कभी चाँद कभी गुलशन कभी फूल देख देख कर खुश हुआ करते होंगे।

 अँखियों की करूँ मसनद ओ पुतली का करूँ बालिश 
वो नूरे-नज़र आज अगर मेरे घर आवे 
बालिश =तकिया 

 जामे मनें गुंचे नमन रह न सकूँ मैं 
गर पी की खबर लेके नसीमे-सहर आवे
 नसीमे-सहर =सुबह की हवा  

तुझ लब की अगर याद में तस्नीफ़ करूँ शेर 
हर शेर मनें लज़्ज़ते-शहदो-शकर आवे 

 हमने किताबों की दुनिया की ये यात्रा समझिये गंगा सागर से शुरू की थी आज हम गो-मुख पर आ पहुंचे हैं ,देखिये ,जरा गौर से देखिये यहाँ का पानी गंगा सागर के पानी से बिलकुल अलग है इसलिए कुछ अजीब सा लग रहा है।आज हम जिस शायर और उसकी शायरी की बात कर रहे हैं उन्हें उर्दू शायरी का जनम दाता कहा जाता है , कोई उन्हें शायरी का बाबा आदम कहते हैं तो कोई उर्दू अदब के वाल्मीकि, क्यों कि उन से पहले शायरी फ़ारसी ज़बान में हुआ करती थी। उन्होंने ही सबसे पहले उर्दू ज़बान की नज़ाकत, नफ़ासत और ख़ूबसूरती को शायरी में इस्तेमाल किया। उन्होंने न सिर्फ भारतीय ज़बान उर्दू को शायरी में इस्तेमाल किया बल्कि भारतीय मुहावरे, भारतीय ख़याल (कल्पना) और इसी मुल्क की थीम को भी अपने कलाम की बुनियाद बनाया। इस तरह मुक़ामी अवाम उर्दू शायरी से जुड़ गई .उस वक्त लिया गया ये एक क्रन्तिकारी क़दम था।

 सजन तुझ इन्तजारी में रहें निसदिन खुली अंखिया
मशाले शमआ तेरे ग़म में रो-रो बह चली अँखियाँ

 तेरे बिन रात-दिन फिरतियाँ हूँ बन-बन किशन की मानिंद
अपस के मुख ऊपर रखकर निगह की बांसली अखियां

 तिरि नयनां पे गर आहो-तसदक हो तो अचरज नहीं
कि इस कूँ देख कर गुलशन में नरगिस ने मली अँखियाँ
आहो-तसदक=सदके करना 

  घुमक्कड़ी के बेहद शौकीन हमारे आज के शायर जनाब 'वली'दकनीकी शायरी को श्री जानकी प्रसाद शर्मा जी ने 'उर्दू शायरी के बाबा आदम -वली दकनी'किताब में संकलित किया है जिसकी चर्चा हम कर रहे हैं। जनाब शमशुद्दीन 'वली'का जन्म 1668 में आज के महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में हुआ था। कुछ लोग उनकी पैदाइश 1667 की मानते हैं ,महाराष्ट्र क्यूंकि भारत के दक्षिण में है इसी कारण शमशुद्दीन वली का नाम 'वली 'दकनी पड़ा। वैसे उनके नाम को लेकर अभी भी लोग एक मत नहीं है कुछ लोग उन्हें वली मुहम्मद पुकारते हैं तो कुछ वली गुजराती। वली बहुत खोजी प्रकृति के इंसान थे ,ज्ञान की खोज में वो उस ज़माने में जब यातायात के कोई साधन नहीं हुआ करते थे दूर-दराज स्थानों की और निकल जाया करते थे। इस घुमक्कड़ी के कारण ही उनकी शायरी फ़ारसी के शिकंजे से आज़ाद हो पायी। देशज और आसान शब्दों को शायरी में ढाल कर उन्होंने इसे आम जन तक पहुँचाने का काम किया।



 मैं आशिकी में तब सूँ अफ़साना हो रहा हूँ 
तेरी निगह का जब सूँ दीवाना हो रहा हूँ 

 ऐ आशना करम सूँ यक बार आ दरस दे 
तुझ बाज सब जहाँ सूँ बेगाना हो रहा हूँ 

 शायद वो गंजे-ख़ूबी आवे किसी तरफ सूँ 
इस वासते सरापा वीराना हो रहा हूँ 
गंजे-खूबी =प्रिय 

 आप देखिये कि वली ने तत्कालीन लोक भाषा में ही अपनी शायरी की है। उनमें ब्रज, अवधि और संस्कृत भाषाओँ का विशेष पुट है। कूँ ,सूँ ,निस-दिन,परत,पीत (प्रीत ), जीव , मोहन ,रयन (रैन ),सजन जैसे लफ्ज़ इसका उदाहरण हैं. 1700 में अपनी ग़ज़लों के दीवान के साथ जब वो दिल्ली पहुंचे, तो शुमाली (उत्तरी) भारत के अदबी हल्क़ों में एक हलचल पैदा हो गई। ज़ौक, सौदा और मीर तक़ी मीर जैसे महान उर्दू शायर वली की रवायत की ही देन हैं। उस दौर में सबको समझ आने वाली उर्दू ज़बान में उनकी आसान और बामानी शायरी ने सबका दिल जीत लिया। दरअसल, वली का दिल्ली पहुंचना उर्दू ग़ज़ल की पहचान, तरक्की और फैलाव की शुरुआत थी।एक ओर वली ने जहां शायराना इज़हार के ज़रिए भारतीय ज़बान की मिठास और मालदारी से वाक़िफ़ कराया, वहीं फ़ारसी के जोश और मज़बूती को भी कायम रखा, जिसका उन्होंने अपनी नज़्मों में बख़ूबी इस्तेमाल भी किया। वली को शायरी की उस जदीद (आधुनिक) ज़बान का मेमार (शिल्पी) कहा जाना कोई बड़बोलापन नहीं होगा, जो हिंदी और फ़ारसी अल्फ़ाज़ों का बेहतरीन मिश्रण है।

 ऐ रश्के-महताब तू दिल के सहन में आ
 फुरसत नहीं है दिन को अगर तू रयन में आ 
रश्के-माहताब =चाँद भी जिससे इर्षा करे , रयन =रात 

 ऐ गुल अज़ारे-गुंचा दहन टुक चमन में आ 
गुल सर पे रख के शमआ नमन अंजुमन में आ  
गुल अज़ारे-गुंचा दहन =फूल की कली जैसा मुंह , नमन =समान 

 कब लग अपस के गुंचए-मुख को रखेगा बंद 
ऐ नौबहारे-बागे-मुहब्बत सुखन में आ 
कब लग =कब तक , अपस =अपने 

 आदिल कुरैशी उनके बारे में लिखते हैं कि "वली की पसंदीदा थीम इश्क़ और मोहब्बत थी। इसमें सूफ़ियाना और दुनियावी, दोनों ही तरह का इश्क़ शुमार था। मगर उनकी शायरी में हमें ज़्यादानज़र ख़ुशनुमा इक़रार और मंज़ूरी आती है। इसके बरअक्स उदासी, मायूसी और शिकायत कुछ कम ही महसूस होती है। वली इस मामले में भी पहले उर्दू शायर थे, जिसने उस दौर के चलन के ख़िलाफ़ जाकर आदमी के नज़रिए से प्यार का इज़हार करने की शुरुआत की।"दिल्ली में वो लंबे अर्से तक रहे बल्कि यहां की तबज़ीब से ख़ासे मुतआस्सिर भी हुए. जब वली दिल्ली पहुंचे, सुख़न-नवाज़ों ने उन्हें हाथों हाथ लिया. महफ़िलें सजने लगीं, शायर चहकने लगे, लेकिन जो आवाज़ निकलती वो वली की आवाज़ से मेल खाती नज़र आती. अब तक वली के दिल पर दिल्ली और दिल्ली के दिल पर वली का नाम रौशन हो चुका था.दिल्ली में वली को वो सम्मान मिला कि शाही दरबार में हिंदी के जो पद गाए जाते थे उनकी जगह वली की ग़ज़लें गाई जाने लगीं.दिल्ली में तहलका मचाने के बाद वली घूमते हुए अहमदाबाद चले आये ये शहर इन्हें इतना रास आया कि यहीं के हो के रह गए।

 तुझ गली की खाके-राह जब सूँ हुआ हूँ ऐ पिया
 तब सूँ तेरा नक़्शे-पा तकिया है मुझ बीमार का
 तकिया =पवित्र स्थान 

 बुलबुलां गर यक नज़र देखें तिरे मुख का चमन 
फिर न देखें ज़िन्दगी में मुख कभी गुलज़ार का 

 टुक अपस का मुख दिखा ऐ राहते-जानो-जिगर 
है 'वली'मुद्दत सती मुश्ताक़ तुझ दीदार का
 सती =से

 31 अक्टूबर 1707 को वली ने अपनी अंतिम सांस अहमदाबाद में ही ली। उनका जनाजा बहुत धूमधाम से निकाला गया जिसमें उनकी शायरी के दीवाने हिन्दू और मुस्लिम लोग हज़ारों की तादात में शामिल थे, शाहीबाग इलाके में उनको दफना दिया गया। उनकी कब्र पर एक मज़ार भी बनाया गया जिसे देखने और अपना सर झुकाने लोग नियमित रूप से आया करते। अहमदाबाद को इस बात का फ़क्र हासिल था कि उसकी गोद में उर्दू शायरी का बाबा आदम गहरी नींद में सो रहा है। कोई समझदार इंसान 28 फरवरी 2002 का वो मनहूस दिन याद नहीं करना चाहेगा जब अहमदाबाद में दंगे भड़क उठे थे। हिंसक भीड़ सोच समझ खो देती है। धार्मिक उन्माद अच्छा बुरा सोचने की क्षमता हर लेता है। लोगों में छुपा हिंसक पशु अपनी पूर्ण क्रूरता के साथ बाहर आ जाता है। उस वक्त हमें महसूस होता है कि सभ्य होने का जो मुलम्मा हम ओढ़े हुए हैं ये किसी भी क्षण उतार कर फेंका जा सकता है। हम हकीकत में जानवर ही हैं। दंगों के दौरान भीड़ के हाथ जो लगा वो नष्ट कर दिया गया। बदकिस्मती से वली दकनी की मज़ार उन्मादी भीड़ के रास्ते में आ गयी जो पुलिस कमिश्नर आफिस के पास ही थी। भीड़ ने ये नहीं सोचा कि शायर किसी मज़हब विशेष का नहीं होता ,वो अवाम की आवाज़ होता है ,लेकिन भीड़ सोचती ही कब है लिहाज़ा उस मज़ार को तहस नहस कर दिया गया। तुरतफुरत सरकार द्वारा उस पर सड़क बना दी गयी.आज अगर आप उस मज़ार को खोजने जाएँ तो उसका नामो-निशान भी नहीं मिलेगा।

 इस रात अँधेरी में मत भूल पडूँ तिस सों 
टुक पाँव के झाँझे की झनकार सुनाती जा 

तुझ इश्क में जल-जल कर सब तन कूँ किया काजल 
यह रौशनी-अफ़्ज़ा है अँखियाँ कूँ लगाती जा 
रौशनी-अफ्ज़ा =रौशनी बढ़ने वाली 

 तुझ नेह में दिल जल-जल कर जोगी की लिया सूरत
 यक बार इसे मोहन छाती सूँ लगाती जा 

 लोग भूल जाते हैं कि मज़ार मिटाने से वली दकनी जैसे शायर कभी नहीं मिट सकते। ये वो चिराग़ हैं जो आँधियों से नहीं बुझते उनकी रौशनियां राह दिखाती रही हैं और ता-उम्र रास्ता दिखाती ही रहेंगी। वली दकनी को पढ़ने के लिए आप इस किताब को पढ़ें जो मेरे ख्याल से हिंदी में उपलब्ध एक मात्र किताब है जिसे वाणी प्रकाशन दिल्ली ने प्रकाशित किया है। वाणी प्रकाशन से संपर्क के बारे में बहुत बार बताया जा चूका है लेकिन आपकी सुविधा के लिए एक बार फिर बता देते हैं।
वाणी प्रकाशन 21-A दरियागंज नई दिल्ली -110002
 फ़ोन :011-23275710 /23273167
 ई -मेल : sales@vaniprakashan.in, marketing@vaniprakashan.in 

 आखिर में चलते चलते आपको पढ़वाते हैं वली दकनी की एक अनूठी ग़ज़ल जिसकी संरचना अद्भुत है एक शेर जिस शब्द से शुरू होता है उसी पर ख़तम होता है ,पहले मिसरे (मिसरा-ऐ-ऊला )का आखरी शब्द दूसरे मिसरे(मिसरा -ऐ-सानी ) का पहला शब्द होता है। इस विधा को क्या कहते हैं ये तो मुझे पता नहीं लेकिन ये काम है काफी मुश्किल :

 दिलरुबा आया नज़र में आज मेरी खुश अदा 
 खुश अदा ऐसा नहीं देखा हूँ दूजा दिलरुबा

 बेवफ़ा गर तुझको बोलूं , है बजा ऐ नाज़नीं 
 नाज़नीं आलम मने होते हैं अक्सर बेवफ़ा 

 मुद्दए-आशक़ाँ हर आन है दीदारे-यार 
 यार के दीदार बिन दूजा अबस है मुद्दआ 
 अबस =बेकार

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