सियासी लोग खो बैठे हैं पानी
सभी कीचड़ से कीचड़ धो रहे हैं
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दोस्ती, प्यार, जर्फ़, हमदर्दी
हमने देखे हैं कटघरे कितने
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कब से रोज़ादार हैं आँखें तेरी
दीद का आदाब कर इफ़्तार कर
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एक मुस्कान को आंसू ने ये खत भेजा है
अपने कुन्बे में ज़रा कीजिये शामिल मुझको
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भला क्यों आसमाँ की सिम्त देखें
ज़मीनें क्या नहीं दिखला रही हैं
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धूप, बारिश, शफ़क़, नदी, मिटटी
ऐसे लफ़्ज़ों की मेज़बानी कर
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हाथ पीले हुए हमारे भी
दर्द से हो गयी है कुड़माई
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हुआ अब देह का बर्तन पुराना
बदल डालो ठठेरा बोलता है
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रात मावस की है ये तो ठीक है
तुम सितारों का निकलना देखते
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बंद था द्वार और उम्र भर
हम बनाते रहे सातिये
ये तो मुझे याद है कि मई 2011 थी लेकिन तारीख़ याद नहीं आ रही। सुबह मोबाईल पर घंटी बजी देखा तो आदरणीय नन्द लाल जी सचदेव साहब का फोन था ,जो अभी हाल ही में हम सब को छोड़ कर पंचतत्व में विलीन हो गए हैं। मुझे आदेश दिया कि अगर मैं जयपुर में हूँ तो 'काव्यलोक'की 86 वीं गोष्ठी में फलाँ तारीख़ रविवार को फलाँ जगह पहुंचू। ये तब की बात है जब मैं ग़ज़लों में काफिया पैमाइ किया करता था और खुद को शायर समझने का मुगालता पाले हुआ था। ऊपर वाले का शुक्र है कि किताबें पढ़ने की आदत की वजह से मुझे अहसास हो गया कि जो शायरी मैं कर रहा हूँ वो मुझसे पहले बहुत से उस्ताद मुझसे हज़ार गुणा बेहतर ढंग से कर चुके हैं और कर रहे हैं,बकौल मुनीर नियाज़ी "दम-ए-सहर जब खुमार उतरा तो मैंने देखा, तो मैंने देखा" और मैंने शायरी छोड़ दी। मज़े की बात ये है कि किसी ने पूछा भी नहीं कि क्यों छोड़ी।
नया सूरज तो झुलसाने लगा है
बहुत नाराज़ थे हम तीरगी से
न जाने वक्त को क्या हो गया है
तअल्लुक़ तोड़ बैठा है घड़ी से
लबों तक आ गये आंसू छलक कर
कोई मरता भी कैसे तिश्नगी से
जब मैं निर्धारित स्थान पर पहुंचा तो कमरे में कोई 25-30 लोग कुर्सियों पे बैठे थे और सामने आदरणीय नन्दलाल जी के एक ओर गोष्ठी संचालिका और दूसरी ओर सफ़ेद सफारी सूट पहने एक हज़रत बैठे थे जो धीरे से नंदलाल जी के कान में कुछ कहते और मुस्कुराते । गोष्ठी शुरू हुई। जो भी अपना कलाम पढ़ने आता वो सुनाते हुए सफारी पहने सज्जन की तवज्ज़ो चाहता अगर वो सज्जन रचना पढ़ते हुए रचनाकार की और देख सर हिला देते तो पढ़ने वाले को लगता जैसे कर ली दुनिया मुठ्ठी में। मैंने अपने पड़ौसी से पूछा कि ये सफारी पहने हज़रत कौन हैं तो उन्होंने मुझे ऐसे देखा जैसे कह रहे हों अजीब अहमक हो, जयपुर में रह कर पूछ रहे हो कि ये कौन हैं ? आखिर जब मंच संचालिका ने बहुत आदर से उन्हें पढ़ने को बुलाया तो पता चला कि उनका नाम "लोकेश कुमार सिंह 'साहिल'है। बैठे बैठे ही उन्होंने अपने सुरीले गले से ये ग़ज़ल पढ़ी तो समझ में आया कि लोग क्यों उनकी तवज़्ज़ो चाहते हैं :
ज़मीं से दूर होता जा रहा हूँ
मैं अब मशहूर होता जा रहा हूँ
दिखाताा फिर रहा था ऐब सबके
सो चकनाचूर होता जा रहा हूँ
उजालों में ही बस दिखता हूँ सबको
तो क्या बेनूर होता जा रहा हूँ
उसके बाद लोकेश जी से अक्सर मुलाकात होने लगी और ये पता लगने लगा कि इस इंसान को पूरा समझना कठिन है। लोकेश जी के इतने आयाम हैं कि देख कर हैरत होती है। दरअसल वो अंधों के हाथी हैं जो किसी को पेड़ का तना ,किसी को रस्सी, किसी को सांप, किसी को अनाज फैटने वाला सूपड़ा, किसी को भाला तो किसी को दीवार सा नज़र आते हैं। ये इस बात पर निर्भर करता है कि आपने उनका कौनसा पक्ष देखा है। उन्हें समग्र देख पाना संभव नहीं।यही कारण है कि उन्हें पसंद-नापसंद करने वालों की संख्या बहुत बड़ी है । इसका सीधा अर्थ ये निकलता है कि भले ही आप इन्हें पसंद करें या नापसंद लेकिन इन्हें अनदेखा, अंग्रेजी में जिसे कहते हैं 'इग्नोर' , नहीं कर सकते. या तो ये आपकी आँखों में बसेंगे या खटकेगें पर रहेंगे आँख ही में। आप पूछेंगे कि आपको कैसे पता चला कि वो हाथी हैं ,तो मेरा जवाब ये है कि मैंने लोगों के बताए चित्रों को जोड़ के देखा है.
तबस्सुम तो है तेरा बोलता सा
बड़ा खामोश लेकिन कहकहा है
किताबों से मुझे बाहर निकालो
मेरे भीतर का बच्चा चीखता है
बहुत ही खुशनुमा लगती है बस्ती
किसी का ग़म तमाशा हो गया है
किताबों की दुनिया में उनकी ताजा ग़ज़लों की किताब "तुक"के माध्यम से उन पर चर्चा करेंगे। उनके विचार आपको बताएँगे और दूसरों के उनके बारे में विचार भी सामने लाएंगे। सवाल ये है कि लोकेश जी पे चर्चा क्यों "तुक'पर क्यों नहीं ? तो जवाब ये है कि लोकेश जी को जान लिया तो 'तुक'पे चर्चा की जरुरत ही नहीं रहेगी। वो इस किताब के हर पृष्ठ पर शिद्दत और ईमानदारी से मौजूद हैं। साहिल जी को बहुत से लोग शायर भी नहीं मानते, अजी लोगों की छोड़िए वो तो खुद भी नहीं मानते और अपने को तुक्के बाज कहते हैं. आज के इस दौर में जहाँ एक मिसरा तक ढंग से नहीं कहने वाले खुद को ग़ालिब के क़द का शायर समझते हैं वहाँ खुद को ताल ठोक कर तुक्के बाज कहना साहस का काम है।सच बात तो ये है कि शायरी दर अस्ल खूबसूरत तुकबंदी ही तो है अब आप इसे कोई भी नाम दे दें.
जिंदगी कब की एक पड़ाव हुई
हां मगर माहो साल आते हैं
जिनकी आंखों को रोशनी बख्शी
उनकी आंखों में बाल आते हैं
कोई मंथन तो अब कहां होगा
आ समंदर खंगाल आते हैं
साहिल साहब को सफ़ेद रंग, जो शांति का प्रतीक है कुछ ज्यादा ही प्रिय है. अक्सर उनसे बिना बात उलझने वाले लोग कुछ समय बाद सफ़ेद झंडा हिलाते हुए उनके सामने आ कर आत्म- समर्पण कर देते हैं। इसलिए नहीं कि वो बड़े भारी योद्धा हैं बल्कि इसलिए कि वो सामने वाले को एहसास करवा देते हैं हैं कि उनसे उलझना वक्त की बर्बादी है क्यूंकि वो मुहब्बत से भरे इंसान हैं ,उलझने में विश्वास ही नहीं करते। अपनी बात स्पष्ट कहते हैं और फिर उस पर कायम रहते हैं। ये ही कारण है कि किताब का शीर्षक 'तुक'और उनका नाम देखें सफ़ेद रंग में छपा है. किताब का बैक ग्राउंड हलके और गहरे भूरे रंग का मिश्रण है जो मिटटी का रंग है। याने वो अपनी मिटटी से जुड़े इंसान हैं इसलिए हमेशा संयत रहते हैं। उन्हें आप हवा में उड़ते कभी नहीं देख सकते। ये ऐसी खूबियां हैं जो विरले ही दिखाई देती हैं। ऐसी खूबियां न होती तो क्या भारत के पूर्व प्रधानमंत्री आदरणीय चंद्र शेखर जी उन्हें अपना मानस पुत्र कहते ?
जिसे किताबों से चिढ़ है
उस बच्चे का बस्ता मैं
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धन का घुँघरू भी अद्भुत है
संबंधों को नृत्य कराये
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तेरे ख्याल की कैसी है रहगुज़र जिसमें
पहाड़ आते हैं लेकिन शजर नहीं आते
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किस हथेली को ये पसंद नहीं
मेंहदियों के रचाव में रहना
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खुदा की ज़ात पे ऊँगली उठाने वालो सुनो
यकीं की धूप गुमां से ख़राब होती है
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जब से इनमें से इक वज़ीर बना
क्या अजब जश्न है पियादों में
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टूट कर भी जी रहे हैं अज़्मतों के साथ हम
रोज़ ग़म देती है लेकिन ज़िन्दगी अच्छी लगी
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निगाहे-नाज का ही जब ये ढंग है तो फिर
निगाहे-ग़ैब का सोचो पयाम क्या होगा
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न इंतज़ार करो नामाबर के आने का
कोई जवाब न आना भी इक जवाब तो है
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कितना अच्छा है खामियां निकलीं
तेरे अंदर तो आदमी है अभी
बात चंद्रशेखर जी की चली है तो बताता चलूँ कि वो देश के पहले प्रधानमंत्री थे जिन्होंने राज्य मंत्री या केंद्र में मंत्री बने बिना ही सीधे प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। जिन्होंने 4260 की.मी. पद यात्रा के दौरान लाखों लोगों से संपर्क कर लोकप्रियता की उन ऊंचाइयों को छुआ जिसे देख इंदिरा गांधी जैसी कद्दावर नेता भी घबरा गयीं .राजनीति के विद्वानों का मत है कि अगर श्री चंद्र शेखर को सत्ता में रहने का अधिक वक्त मिलता तो आज देश की हालत कुछ और ही होती। श्री चंद्र शेखर एक दृढ, साहसी और ईमानदार नेता होने के साथ साथ अत्यंत संवेदनशील, जागरूक साहित्यकार भी थे। उनके संपादन में दिल्ली से प्रकाशित पत्रिका 'यंग इण्डिया'में उनके सम्पादकीय लेख देश में लिखे जाने वाले सर्वश्रेष्ठ सम्पादकीय लेखों में से एक हुआ करते थे। ऐसे विलक्षण प्रतिभा के धनी चंद्रशेखर जी ने अगर अपना वरद हस्त साहिल जी के सर पर रखा तो उन्हें जरूर उनमें अपनी ही युवा छवि दिखाई दी होगी। लोकेश 'साहिल'जी ने 'तुक'उन्हें ही समर्पित की है।
रूठ कर फिर से छिपूँ घर के किसी कोने में
इक खिलौने के लिए सब से खफा हो जाऊं
इसी उम्मीद पर दिन काट दिए हैं मैंने
जिंदगी मैं तेरी रातों का दिया हो जाऊं
जो मुझे छोड़ कर जाते हैं वो पंछी सुन लें
कल नई रुत में फलों से ना लदा हो जाऊं
इस किताब में श्री चंद्र शेखर जी का एक पत्र छपा है जो उन्होंने अपनी मृत्यु के एक हफ्ते पहले लिख कर भेजा था. वो लोकेश जी को प्रदान किए जाने वाले एक लाख की धनराशि मूल्य के 'बिहारी पुरस्कार'सम्मान समारोह में आना चाहते थे, लेकिन खराब स्वास्थ्य के चलते नहीं आ पाए. श्री चंद्र शेखर जी लिखते हैं कि "जिसने अपने जीवन में हर पहलू को परखा है, देखा है, भुगता है वही सही अर्थ में जीवन के रस की अभिव्यक्ति कर सकता है. राग, विराग, स्नेह, घृणा, उल्लास और उदासी सब कुछ ही तो देखना होता है, पर उसे अपने अंदर उतारकर जो लोगों तक पहुंच पाता है वही कलमकार है, साहित्यकार है. लोकेश भी उन्हीं लोगों में से एक हैं, ये अनुभूति के धनी हैं और उसे प्रकट करने में पूरी तरह सक्षम. इनकी भाषा में स्वाभाविकता है, लोगों को मोह लेने की शक्ति है भी है क्योंकि इनकी भाषा सामान्यजन की भाषा है और इनके भाव उनकी आपबीती के बखान।
जिसको मौजों से उलझने का हुनर आता है
उसको मझधार ने खुश होकर उछाला होगा
जिसकी हर बात तुझे तीर सी चुभ जाती है
वो बहर हाल तेरा चाहने वाला होगा
तू तो इंसान है संदल का कोई पेड़ नहीं
तूने किस तौर से सांपों को संभाला होगा
जिनको आता है अदब में भी सियासत करना
उनके कांधों पे ही रेशम का दुशाला होगा
चंद्र शेखर जी के पत्र में उतरे भाव लोकेश जी के लिए सबसे बड़ा सम्मान हैं. हालांकि उनके लिए वरिष्ठ तथा साथी साहित्यकारों द्वारा वयक्त भाव भी कम महत्वपूर्ण नहीं. क्या कारण है कि लोकेश जी के लिए पुराने और नए साहित्यकार प्रशंसा का भाव रखते हैं. सुनने वाले उन्हेँ दीवानावार चाहते हैं. 'तुक'की ग़जलें पढ़ेंगे तो जवाब खुद ब खुद मिल जाएगा. ये ग़ज़लें किसी महबूबा से की गई गुफ्तगू नहीं हैं इनमें हमारी आपकी रोज की बातें समाहित हैं. ये हमारे सुख-दुख को, समाज की विडंबनाओं को, राजनीति के कीचड़ को और इंसान की फितरत को बयां करती हैं. इनमें हमें हमारा ही अक्स दिखाई देता है. ये ग़जलें जो जैसा है उसे बिना बात घुमाए सीधे सरल ढंग से कहती हैं. ये कहन ही इन्हें विशेष बनाती है.
जिसे देखो वही बनता है आलिम
जहालत काम करती जा रही है
तुझे कमजोर सब कहने लगे हैं
शराफत काम करती जा रही है
बिना दिल के भी जिंदा लोग हैं सब
ये आदत काम करती जा रही है
ठिठुरती रात में काटी है ज़िन्दगी जिसने
उसी ने धूप को पाया है मोतबर कितना
तमाम ज़िन्दगी काग़ज़-क़लम में बीत गयी
दुखों से काम लिया हमने उम्र भर कितना
अदब तो बेच दिया तालियों लिफ़ाफ़ों में
बनोगे और भला तुम भी नामवर कितना
छंद मुक्त कविताओं और मंच पर सुनाये जाने वाले चुटकलों के घोर विरोधी और मीर परम्परा के लोकेश जी का 'तुक'दूसरा ग़ज़ल संग्रह है जिसे ऐनी बुक्स प्रकाशन इंदौर ने जिस ख़ूबसूरती से हार्ड बाउंड रूप में प्रकाशित किया है उसकी जितनी तारीफ की जाय कम है. किताब हाथ में लेकर सुखद अनुभूति होती है और पढ़ने की ललक बढ़ जाती है। किताब यूँ तो अमेजन पर ऑन लाइन उपलब्ध है लेकिन आप चाहें तो ऐनी बुक्स के पराग अग्रवाल जी से 9971698930पर संपर्क कर उसे मंगवा सकते हैं और पढ़ने के बाद साहिल साहब को 9414077820 पर संपर्क कर मशवरा दे सकते हैं कि वो अपने इस ख्याल को दिल से निकाल दें कि वो सिर्फ तुकबंदी करते हैं क्यूंकि सिर्फ़ तुकबंदी करने से इतनी खूबसूरत ग़ज़लों का सृजन नहीं हो सकता। उसके लिए ख्याल की पुख़्तगी और उसे शेर में पिरोने का सलीका आना चाहिए जो उन्हें बखूबी आता है। तभी उनके तो इस सलीक़े के विजय बहादुर सिंह, अली अहमद फ़ातमी, कृष्ण कल्पित, शीन काफ़ निज़ाम, अब्दुल अहद 'साज़', एहतिशाम अख़्तर, कृष्ण बिहारी नूर , मख्मूर सईदी , मुमताज़ राशिद,इनाम शरर , मुकुट सक्सेना और फ़ारुख़ इंजीनियर जैसे रचनाकार भी क़ायल हैं।
आख़िर में पेश हैं किताब की पहली ग़ज़ल से ये शेर :
तुम्हारे साथ की आवारगी में
मिली है ज़िंदगानी ख़ुदकुशी में
उसे कह दो कि थोड़ा चुप रहे अब
बहुत है शोर उसकी ख़ामशी में
है हम पर ख़ौफ़ कितना तीरगी का
उजाला ढूंढते हैं रौशनी में
फ़क़त आता है 'साहिल'तुक मिलाना
नहीं कुछ भी तो तेरी शायरी में