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किताबों  की दुनिया -210

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उसने पढ़ी नमाज तो मैंने शराब पी 
दोनों को, लुत्फ़ ये है बराबर नशा हुआ
***
जरूरत है न जल्दी है मुझे मरने की फिर भी 
मेरे अंदर बहुत कुछ चल रहा है खुदकुशी सा
***
जादू भरी जगह है बाजार, तुम न जाना 
इक बार हम गए थे बाजार होकर निकले
***
मैं शहर में किस शख्स़ को जीने की दुआ दूं 
जीना भी तो सबके लिए अच्छा नहीं होता
***
मुसाफिर हो तो निकलो पांव में आंखें लगाकर 
किसी भी हमसफर से रास्ता क्यों मांगते हो
***
तभी वहीं मुझे उसकी हंसी सुनाई पड़ी 
मैं उसकी याद में पलकेंं भिगोने वाला था
***
वो अक्लमंद कभी जोश में नहीं आता 
गले तो लगता है, आगोश में नहीं आता
***
अब तो ये जिस्म भी जाता नजर आता है मुझे 
इश्क़ अब छोड़ मेरी जान कि मैं हार गया
***
मैंने मकांँ को इतना सजाया कि एक दिन 
तंग आ के इस मकाँँ से मेरा घर निकल गया
***
दुहाई देने लगे सुब्ह से बदन के चराग़ 
हमें बुझाओ कि हम रात भर जले हैं बहुत

क्या उम्र रही होगी यही कोई 4 या 5 साल के बीच की। एक बच्चा नए कपड़े पहने, काँँधे पर छोटा सा बस्ता लटकाए अपने वालिद का हाथ पकड़े, डरता हुआ स्कूल जा रहा है। वालिद बार-बार समझा रहे हैं कि स्कूल बहुत अच्छी जगह है और वहां के उस्ताद फरिश्ते जैसे खूबसूरत और नरम दिल हैं जिन्हें बच्चों से सिवा प्यार करने के और कुछ नहीं आता। बच्चा मुस्कुराते हुए फ़रिश्ते का तसव्वुर करने लगता हैै । स्कूल जा कर देेेखता है कि उस्ताद, फरिश्ता तो दूर की बात है शैतान से भी खौफ़नाक नजर आ रहे हैं. बच्चे की डरके मारे घिग्घी बँध गई।उसे पहली बार पता लगा कि हक़ीक़त की दुनिया ख़्वाबों की दुनिया से कितनी अलग होती है। 
उस्ताद ने उस बच्चे को उस दीवार के पास बिठा दिया जिसमें एक बड़ी सी खिड़की थी। थोड़ी देर बाद बच्चे ने सामने देखा कि उस्ताद दरवाजे के बाहर खड़े किसी पर चिल्ला रहे थे, फिर उसने खिड़की की तरफ देखा और अगले ही पल बस्ते समेत बाहर कूद गया। घर जा नहीं सकता था लिहाज़ा स्कूल की छुट्टी के समय तक बाहर ही घूमता रहा।बाहर की दुनिया स्कूल की दुनिया से कितनी अलग थी, हवा से हिलते पेड़, फुदकते चहचहाते परिंदे, कितने ही रंगों में खिले फूल और उन पर नाचती तितलियां देखते-देखते कब सुबह से शाम हो जाती उसे पता ही नहीं चला। 
ये सिलसिला महीनों चलता रहा।खेत खलिहान ओर वीरान पगडंडियों पर चलते हुए इस बच्चे ने कुदरत से जो सीखा वो स्कूल की चारदीवारी में बंद बच्चे कभी नहीं सीख पाते 

तुमको रोने से बहुत साफ हुई हैं आंखें 
जो भी अब सामने आएगा वो अच्छा होगा 

रोज़ ये सोच के सोता हूं कि इस रात के बाद 
अब अगर आँँख खुलेगी तो सवेरा होगा 

क्या बदन है कि ठहरता ही नहीं आँँखों में 
बस यही देखता रहता हूं कि अब क्या होगा

 बहराइच उत्तर प्रदेश के एक मुस्लिम परिवार में 25 दिसंबर 1952 को जन्मे इस बच्चे का नाम रखा गया था 'फरहतुल्लाह खाँ'जो आज उर्दू शायरी की दुनिया में 'फ़रहत एहसास'के नाम से जाना जाता है। घर का माहौल मज़हबी जरूर था लेकिन उसमें कट्टरपन नहीं था। जवानी में मुस्लिम लीगी रहे उनके वालिद अपने सभी बच्चों को रामलीला दिखाने ले जाते थे। आज के दौर में इस बात पर शायद किसी को यकीन ना आए लेकिन हक़ीक़त यही है कि मज़हब को लेकर आम लोगों के दिलों में तब इतनी कटुता नहीं थी जितनी कि आज है । आज हम 'फ़रहत एहसास'की देवनागरी में छपी किताब 'क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा'की बात किताबों की दुनिया श्रृंखला की इस कड़ी में करेंगे। सबसे पहले बता दूं कि किताब का टाइटल मीर तक़ी मीर साहब के मशहूर शेर 'मीर के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो , क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया' (क़श्का़ खींचा अर्थात तिलक किया) से लिया गया है, और इस शेर की झलक पूरी किताब में नज़र आती है।


तुम अपने जिस्म की कुछ तो चराग़ गुल कर दो 
मैं, रौशनी हो ज़ियादा तो सो नहीं सकता
***
 मैं तो आया हूंँ लिबासों की ख़रीदारी को 
और बाज़ार ये कहता है कि नंगा हो जाऊं
***
कभी नीचा रहा सर और कभी छोटे रहे पांव 
मैं भी हर बार कहांँ अपने बराबर निकला
***
छाँव पहले से भी बहुत कम है 
पेड़ जब से घने हुए हैं बहुत
***
छिड़कने पड़ती है खुद पर किसी बदन की आग 
मैं अपनी आग में जब भी दहकने लगता हूं
***
चादर पे इक भी दाग नहीं क्या अज़ाब है 
इक उम्र हो गई है कि हैंं जस के तस पड़े 
अज़ाब :मुसीबत
***
यह सांसे मिल्कियत तो मौत की हैं 
मुझे लगता है चोरी कर रहा हूं
***
जिन्हें चेहरा बदलना हो बदल लें 
मैं अब पर्दा उठाने जा रहा हूं
***
कहानी ख़त्म हुई तब मुझे ख़्याल आया 
तेरे सिवा भी तो किरदार थे कहानी में
***
और दुश्वार बना सकते हैं दुश्वार को हम 
लेकिन आसान को आसान नहीं कर सकते

चलिए बात वहीं से शुरू करते हैं जहां छोड़ी थी फ़रहतुल्लाह खाँँ अब उम्र के उस दौर में हैं जब कुदरत बिना मज़हब, रंग, देश देखे इंसान की आंखों पर ऐसा चश्मा लगा देती है जिससे उसे सब कुछ गुलाबी दिखाई देने लगता है। फ़रहत साहब लिखते हैं कि "बात नौ-बालगी (किशोरावस्था) से कुछ पहले की उम्र के लड़के की है जो पहली बार एक लड़की के चेहरे पर खून की दमकती खुशबू की चकाचौंध से हैरत और हसरत जुदा है। ये हुस्न के एक मक़्तब (स्कूल) की तरह खुलने, जिस्म के दिल बनकर धड़कने और इश्क़ की पैदाइश का लम्हा था."ये चश्मा किसी के चेहरे से नून तेल लकड़ी के चक्कर में जल्द ही उतर जाता है तो कोई इसे फ़ितरतन उतार फेंकता है। फ़रहत साहब पर ये चश्मा अब तक चढ़ा हुआ है तभी उनके ढेरों अशआर आज भी गुलाबी रंग में रंगे मिलते हैं। 
अपनी शायरी के आगाज़ के सिलसिले में वो लिखते हैं कि " घर में शायरी का माहौल दूर दूर तक नहीं था ।शायरी मेरे बाहर कहीं नहीं थी, जो भी थी अंदर ही रही होगी जो एक दिन अचानक एक झमाके से ज़ाहिर हुई। 1967 की गर्मियों में, जब मेरा दूसरा बाकायदा इश्क़ चल रहा था, यूँ ही बैठे बैठे दो बराबर के मिसरे जहन में कौंधे।ये अहसास कि मुझ में कुछ बज रहा है जो लफ़्ज़ों में ढाला जा सकता है मेरे लिए एक ऐसा इन्किशाफ़ (प्रगट होना) था जिसका सिलसिला आज तक जारी है।

खुदा खामोश बंदे बोलते हैं 
बड़े चुप होंं तो बच्चे बोलते हैं 

सुनो सरगोशियाँ कुछ कह रही हैं 
जबाँ बंदी में ऐसे बोलते हैं 

मोहब्बत कैसे छत पर जाए छुपकर 
क़दम रखते ही ज़ीने बोलते हैं 

हम इंसानों को आता है बस इक शोर 
तरन्नुम में परिंदे बोलते हैं

सभी मज़हब के दोस्तों से दोस्ती निभाते, कबीर, सूर, तुलसी, रसखान और जायसी पढ़ते हुए उनकी रूह कलंदर सूफियों वाली हो गई। इस किताब को पढ़ते वक्त आपको कबीर की याद ना आए ऐसा हो ही नहीं सकता। ये कलंदरी शायद उन्हें अपनी मां के नाना के भाई से भी मिली हो सकती है जो वाकई कलंदर थे और साल में एक बार ऊंट पर सवार अपने पीछे ढोल ताशे बजाते मुरीदोंं का मजमा लिए बहराइच आया करते थे।
ये कलंदरी ही है जो उन्हें बाजार तक आने से रोकती  है। वो लिखते हैं कि "गाहे-बगाहे मुशायरे में मजबूरन या अपनी सी महफिल हो तो ब-रज़ा-ओ-रग़्बत( अपनी मर्जी से )शरीक हो जाता हूं। बेशतर( अधिकतर) एक फ़र्ज़ ए किफ़ाया (दूसरों की ओर से अदा किए जाने वाला कर्तव्य) की अदायगी के लिए ।" उनके नज़दीकी लोगों में आप बजाए उनकी हम उम्र के वो नौजवान ज्यादा देखेंगे जिनकी जिंदगी शायरी के इर्दगिर्द घूमती है।
हैरत की बात है कि आज के इस दौर में 'थोथा चना बाजे घणा'कहावत को चरितार्थ करते हुए जहाँ लोग अपने आपको प्रमोट करने और स्वगान में जी जान से लगे हुए हैं वहीं ये बच्चा जो अच्छा खासा बड़ा हो चुका है हमेशा उस खिड़की की तलाश में रहता है जिससे कूद कर वो फिर से अपनी मस्ती की दुनिया में जा सके ।यही कारण है कि बेहतरीन शायर होने के बावजूद आप सोशल मीडिया पर इंटरव्यू तो छोड़िए उनके शायरी पेश करते हुए अधिक वीडियो नहीं देख पाएंगे।

तुम जो तलवार लिए फिरते हो दुनिया के खिलाफ 
काश ऐसा हो कि आप अपने मुक़ाबिल हो जाओ
***
बहुत मिठास भी बे-ज़ाइक़ा सी होने लगी 
वो खुश-मिज़ाज किसी बात पे ख़फ़ा भी तो हो
***
कुछ मर गए कि उनको पहुंचना न था कहीं
और कुछ कहीं पहुंचने की जल्दी में मर गए
***
हजार भेष बदल लें मगर रहेंगे वही 
जो कह रहे हैं नया आईना बनाया जाए
***
तेरे गुलाब में कांटे बहुत ज़ियादा हैं 
तुझे न भूलने देगा तेरा गुलाब मुझे
***
इसे बच्चों के हाथों से उठाओ 
ये दुनिया इस क़दर भारी नहीं है
***
मेरी बदसूरती मुकम्मल कर 
मेरे पहलू में आ हसीन मेरे
***
किनारे को बचाऊँ तो नदी जाती है मुझसे 
नदी को थामता हूँँ तो किनारा जा रहा है
***
मैं तो समझा था कि हम दोनों अकेले हैं मगर 
उसको छूते ही हमारे बीच ख़्वाहिश आ गई
***
छोटा-मोटा तो नुकसान उठाया कर 
कोई दिन तो दफ़्तर देर से जाया कर
***
सुनकर अक्सर दुनिया वालों की चीखें 
दूध उतर आता है मेरे सीने में

फ़रहत साहब मुहब्बत के शायर हैं. इंसान की इंसान से मुहब्बत के। लोग कहते हैं कि उनकी शायरी में जिस्म को बहुत अहमियत दी गई है. जयपुर में प्रभा खेतान फाऊंडेशन और रेख़्ता की ओर से आयोजित 2018 में 'लफ्ज़'ऋँखला के पहले प्रोग्राम में प्रसिद्ध शायर और कवि लोकेश कुमार सिंह 'साहिल'साहब से बातचीत करते हुए उन्होंने कहा था कि " जिस्म के रास्ते बड़ी दुश्वारियां पैदा कर दी गई हैं। जिस्म को जीन्स के साथ जोड़ दिया गया है। रूह एक कंडीशन है, जो अजर- अमर है। मगर इंसान को जीन्स से जोड़ दिया है। वो मेटाफर बन गया है। शायरी में शायर रूह का मेटाफर के रूप में इस्तेमाल करने लगा है। जब हम किसी से मुहब्बत करते हैं, पहली दफा उसके जिस्म से इश्क करते हैं। फिर आगे जाकर हमारी संवेदनाएं उनसे जुड़ती हैं। और फिर इंसान अपनी मुहब्बत को अपने तरीके से इंटरप्रेट करता है।"

तुम्हें उससे मोहब्बत है तो हिम्मत क्यों नहीं करते 
किसी दिन उसके दर पर रक़्स ए वहशत क्यों नहीं करते 
रक़्स ए वहशत: दीवानगी में किया जाने वाला नृत्य 

इलाज अपना कराते फिर रहे हो जाने किस-किस से 
मोहब्बत करके देखो ना मोहब्बत क्यों नहीं करते 

मेरे दिल की तबाही की शिकायत पर कहा उसने 
तुम अपने घर की चीजों की हिफ़ाज़त क्यों नहीं करते 

कभी अल्लाह मियां पूछेंगे तब उनको बताएंगे 
किसी को क्यों बताएं हम इबादत क्यों नहीं करते

इसी प्रोग्राम में उन्होंने अपने और आजके दौर की शायरी और उर्दू ज़बान के बारे में बहुत दिलचस्प बातें की जिसे पढ़ कर आप उनकी सोच को और अधिक समझने में शायद कामयाब हो जाए:
"मेरे अंदर शायरी हर वक्त चलती रहती है। वो मुसलसल है। मेरे लिए खुद को इंटरप्रेट करने का तरीका है। वो सारे एलीमेंट्स जिनसे मेरा जिस्म बना है, वो किसी बनी-बनाई शक्ल में नहीं जाते हैं। जिस्म का बहुत बड़ा समुद्र है, जिसे हम मौसिकी के चाक पर रखकर चलाते हैं। देश की आजादी के 20-25 सालों बाद उर्दू जुबान के साथ ज्यादती शुरू हुई। खासकर इसलिए क्योंकि उस जमाने के शायर मुशायरों में चिल्ला-चिल्ला कर, चेहरा बिगाड़ कर शायरी करने लगे। जैसे सब्जी बेचने वाले चिल्ला कर सब्जियां बेचता है। एक दौर वो भी आया जब भाषा का बड़े पैमाने पर कॉमर्शियलाइजेशन हुआ। डिमांड हुई तो सप्लाई होने लगी। भाषा का स्वरूप बदलकर उसे तोड़-मरोड़कर पेश किया। मानो एक तरह का मुस्लिम अफेयर शुरू हो गया हो। मगर पिछले 10 सालों में माहौल बदला है। अब पढ़े-लिखे आईआईटीयन उर्दू जुबां के साथ जुड़ रहे हैं।"

न होता मैं तो यह दुख भी ना होता 
यही तो सारा रोना है कि मैं हूँँ 

चलाता फिर रहा हूं हल जमींं में
कहीं इक बीज बोना है कि मैं हू्ँँ 

ये मेरा जिस्म ही क्या मेरी हद है 
ये मिट्टी का खिलौना है कि मैं हूँँ

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से शिक्षा प्राप्त फ़रहत एहसास साहब की इस किताब पर जनाब 'मुजी़ब क़ासमी'साहब ने यूँ लिखा है " फरहत एहसास के फिक्र-ओ-ख्याल के जावीए को कैद नहीं किया जा सकता. अगर उनके यहां रिंदो सर मस्ती है तो इश्क-ओ-मोहब्बत का इजहार भी. अगर उनके यहां शिव की शक्ति है तो पार्वती का हुस्न भी, उनके यहां बयान का जमाल है तो मौजू का जलाल भी. इस संग्रह में हयात और कायनात के मसले, समाजी भ्रम, तशद्दुद-जुल्म, हुस्न-दिलकशी की अक्कासी है. पाठकों के लिए यह मुफीद शेरी मजमूआ है।"
फ़रहत एहसास साहब और उनकी इस किताब पर जिसमें उनके 2500 से ज्यादा चुनिंदा अशआर हैं, एक पोस्ट में कैद नहीं किया जा सकता।
"रेख़्ता.ओराजी"को दुनिया की सबसे बड़ी उर्दू ज़बान की वैबसाइट बनाने के देखे जनाब"संजीव सरार्फ"के सपने को साकार करने के पीछे 'फ़रहत अहसास'साहब और उनकी रहनुमाई में काम कर रही पूरी टीम की मेहनत का कमाल है. 
  
ये किताब रेख़्ता बुक्स द्वारा प्रकाशित की गई है जिसे खुद संजीव सराफ़ साहब ने सालिम सलीम की मदद से संकलित किया है.इस किताब को आप अमेजन और रेख़्ता की वेबसाइट से खरीद सकते हैं।

पहले दरिया से सहरा हो जाता हूं 
रोते-रोते फिर दरिया हो जाता हूं 

तनहाई में इक महफ़िल सी रहती है 
महफ़िल में जाकर तन्हा हो जाता हूं

जिस्म पे जादू कर देती है वह आग़ोश 
मैं धीरे-धीरे बच्चा हो जाता हूँँ

फ़रहत साहब की शायरी पर बात ख़्तम करने के लिए उनके इस शेर का सहारा ले रहा हूँ जिसमें उन्होंने अपने और अपनी शायरी को यूँ जा़हिर किया है:

फ़रहत एहसास हूं बाकी रहूं फ़रहत एहसास 
तर्ज़ ए ग़ालिब, सुख़न ए मीर नहीं चाहता मैं




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