आप कहते थे के रोने से न बदलेंगे नसीब
उम्र भर आपकी इस बात ने रोने न दिया
*
अगर खुद को भूले तो, कुछ भी न भूले
के चाहत में उनकी , ख़ुदा को भुला दें
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हम नींद की आगोश से क्यूँ चौंक उठे हैं
ख़्वाबों में कहीं तुमने पुकारा तो नहीं है
*
कितनी भी कोशिशों से सजा लो इसे मगर
जन्नत न ये ज़मीन बनेगी पिए बगैर
*
जब हक़ीक़त है के हर ज़र्रे में तू रहता है
फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मंदिर क्यों है
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आसमान तक जो न पहुँची आज तक
इक मुफ़लिस की सदा है ज़िन्दगी
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ख़ुश्क पत्तों का मुक़द्दर लेकर
आग के शहर में रहता हूँ जनाब
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मुझको फ़रियाद की आदत नहीं इस दुनिया में
सर झुकाता हूँ मैं तुम संग उठाओ यारो
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बारहा मर चुके हैं इश्क़ में हम
मौत का इंतज़ार कौन करे
डॉ. कामरा की डिस्पेंसरी के बाहर लम्बी लाइन लगी हुई थी, हमेशा ही लगती है ,पंजाब के 'फ़िरोज़पुर'शहर के पास गाँव 'रेतवाला' में और कोई ढंग का डाक्टर है भी तो नहीं। तब हर डॉक्टर को, वो चाहे जैसा हो, भगवान स्वरुप माना जाता था। डॉक्टर कामरा तो खैर थे ही भगवान स्वरुप, लिहाज़ा सारे गाँव वाले उनकी बड़ी इज़्ज़त करते थे। ये सन 1940 के आसपास की बात है तब लोग हर पढ़े लिखे की इज़्ज़त किया करते थे। डॉक्टर साहब के पास बैठा उनका छै साल का बेटा, जो घर से बाहर निकलने के चाव में अपने पिता के साथ डिस्पेंसरी आ तो गया लेकिन यहाँ कुछ करने को तो था नहीं इसलिए, लगातार कोई न कोई शरारत किये जा रहा था। डॉक्टर साहब ने तंग आ कर अपने एक मुलाज़िम को आवाज़ दे कर कहा कि वो बेटे को साथ लेजा कर गाँव घुमा लाये . बेटा खुश. घूमते हुए सामने हरे भरे खेत को देख कर वहाँ हल चलाते किसान से उसने पूछा ऐ खेत किदा ऐ (ये खेत किसका है )? किसान ने हँसते हुए कहा 'तवाडा बाश्शाओ (आपका है ) फिर उसने दूर बड़े से पेड़ की ओर ऊँगली कर के पूछा 'ओ किदा ऐ (वो किसका है )? किसान ने मुस्कुराते हुए कहा 'तवाडा बाश्शाओ'. बेटा मुलाज़िम की ऊँगली पकड़े जिस चीज की तरफ इशारा करते हुए जिस किसी से पूछता 'ऐ किदा ऐ ?'तो सब उसे एक ही जवाब देते 'तवाडा बाश्शाओ' . बेटा बहुत खुश हो घर लौटा। उसे लगा जैसे उसके पिता इस गाँव के महाराजा हों और वो उनका शहज़ादा 'सुदर्शन'।
किसी रंजिश को हवा दो के मैं ज़िंदा हूँ अभी
मुझको एहसास दिला दो के मैं ज़िंदा हूँ अभी
मेरे रुकने से मेरी साँसे भी रुक जाएँगी
फ़ासले और बढ़ा दो के मैं ज़िंदा हूँ अभी
ज़हर पीने की तो आदत थी ज़माने वालों
अब कोई और दवा दो के मैं ज़िंदा हूँ अभी
प्राथमिक शिक्षा गाँव में पूरी करने के बाद जब आगे की पढाई के सिलसिले में 'सुदर्शन'गाँव छोड़ कर फ़िरोज़पुर शहर आया तो उसके साथ दो हादसे हुए। पहला हादसा तब हुआ जब उसे ये बात समझ में आयी कि यहाँ पर उसकी कोई विशेष औकात नहीं है, वो कोई शहज़ादा-वहज़ादा नहीं है बल्कि वो भी यहाँ के बाकी बच्चों जैसा ही है। इस सच्चाई ने जैसे उसे अर्श से फर्श पर पटक दिया। दूसरा और बड़ा हादसा तब हुआ जब जवानी की देहलीज़ पर पाँव रखने के साथ ही उसे किसी से इश्क़ हो गया। उस दौर में किसी से इश्क़ होना बहुत बड़ी बात हुआ करती थी क्यूंकि इश्क़ करना आसान नहीं था। लड़कियां कड़े पहरों में रहतीं, किसी से मिलने जुलने या सन्देश लेने देने की आज जैसी सुविधा नहीं थी। अब इश्क़ हो तो गया लेकिन कामयाब नहीं हो पाया। ये आज की तरह 'तू नहीं और सही और नहीं और सही'जैसा समय नहीं था कि इससे क़ामयाब नहीं हुआ तो उससे कर लेते हैं। उस वक़्त,जिससे इश्क़ होता था तो गहरा होता था उसके सिवा किसी और से होने की कल्पना भी कोई नहीं करता था। लड़की के बाप ने उसकी शादी कहीं और कर दी और ये हज़रत उसकी शादी का कार्ड 'दीवाने ग़ालिब'किताब में छुपाये टूटा दिल लिए आगे पढ़ने के लिए जालंधर आ गए।
सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं
जिसको देखा ही नहीं उसको ख़ुदा कहते हैं
ज़िन्दगी को भी सिला कहते हैं कहने वाले
जीने वाले तो गुनाहों की सज़ा कहते हैं
फ़ासले उम्र के कुछ और बढ़ा देती है
जाने क्यों लोग उसे फिर भी दवा कहते हैं
पिता चाहते थे कि बेटा उनकी तरह कामयाब डॉक्टर बने लेकिन सुदर्शन पर महबूबा की जुदाई का ग़म इस क़दर हावी हुआ कि वो बाल और दाढ़ी बढ़ा कर, फटे पुराने कपड़े पहन कर एक फ़क़ीर के सांचे में ढल गए और खुद को शराब में डुबो कर 'सुदर्शन फ़ाकिर'के नाम से शायरी करने लगे। उन्होंने जालंधर में एक कमरा किराये पर लिया जो पहली मंज़िल पर था और जिसके नीचे एक ढाबा था। इस कमरे का बड़ा ही दिलकश वर्णन 'रविंद्र कालिया'जी ने अपनी किताब 'ग़ालिब छुटी शराब'में किया है। कमरे में सिर्फ़ एक दरी हुआ करती थी जिसमें सिगरेट से जलने के कारण खूब सारे छेद थे ,कमरे के फर्श पर शराब की बोतलें और सिगरेट के टुकड़े बिखरे रहते जो महीने में एक आध बार होने वाली सफाई के दौरान ही साफ़ किये जाते। ये कमरा जालंधर में शायरों, लेखकों और संगीतकारों का अड्डा बन गया था । स्टेशन के पास होने के कारण जो शायर लेखक जालंधर आता सीधा सुदर्शन के यहाँ रहने आ जाता। उन्हीं मौके- बेमौके आने वालों में से एक थे मशहूर ग़ज़ल गायक जनाब 'जगजीत सिंह' .उस वक़्त 'सुदर्शन फ़ाकिर'शायरी में और 'जगजीत सिंह' ग़ज़ल गायकी में अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष रत थे। जगजीत सिंह जी ने एक दिन सुदर्शन से वायदा किया कि अगर कभी वो क़ामयाब हुए तो वो सुदर्शन की नज़्में ,गीत और ग़ज़लें जरूर गाएंगे। जगजीत जी ने अपना वायदा निभाया और सं 1982 में अपना एक अल्बम 'द लेटेस्ट'रिलीज़ किया जिसमें शामिल सभी रचनाएँ 'सुदर्शन फ़ाकिर' साहब की थीं।
ग़म बढे आते हैं क़ातिल की निगाहों की तरह
तुम छुपा लो मुझे ऐ दोस्त गुनाहों की तरह
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हम सा अनाड़ी कोई खिलाड़ी ढूंढ न पाओगे दुनिया में
खुद को खुद शह दे बैठे और बाज़ी अपनी मात हुई है
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लबों से लब जो मिल गए लबों से लब ही सिल गए
सवाल गुम जवाब गुम बड़ी हसीन रात थी
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हर शाम ये सवाल मुहब्बत से क्या मिला
हर शाम ये जवाब के हर शाम रो पड़े
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नाख़ुदा को ख़ुदा कहा है तो फिर
डूब जाओ ख़ुदा ख़ुदा न करो
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कोई मुसाफिर होगा जिसने दस्तक दी होगी
वरना इस घर में कब कोई अपना आता है
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आज की रात बहुत ज़ुल्म हुआ है हम पर
आज की रात हमें आप भी कम याद आये
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दिल की हर आग बुझाने को तेरी याद आई
कभी कतरा, कभी शबनम, कभी दरिया बन कर
*
मेरे मरने से रंज क्यों हो उन्हें
ज़िन्दगी थी रही रही न रही
सुदर्शन की नौकरी जालंधर रेडियो में लग गयी। एक बार मशहूर ग़ज़ल गायिका 'बेग़म अख़्तर'जालंधर के आईजी पुलिस 'आश्विन कुमार'के निमंत्रण पर लखनऊ से जालंधर आयीं। रेडियो पर उन्होंने अश्विनी कुमार की कुछ ग़ज़लें गायीं फिर उन्हें एक ग़ज़ल सुदर्शन फ़ाकिर की भी पकड़ा दी। उन्होंने ये सोच कर कि इस छोटी सी उम्र वाले शायर की ग़ज़ल में क्या दम होगा उसे बेमन से पकड़ लिया। उन्होंने स्टूडियो में धुन बनाई और उसे गाया। जब गाना शुरू किया तो उसके शब्दों से इतनी प्रभावित हुईं अलग अलग नोट्स पर उन तीन अंतरों को बार-बार गाती रहीं। जिन आईजी साहब की ग़ज़लें गाने वो आयी थीं उनसे ज्यादा समय उन्होंने सुदर्शन फ़ाकिर की एक ग़ज़ल को ही दे दिया। मुंबई जा कर इस ग़ज़ल को रिकार्ड करवाने का वादा करके जाते हुए बोलीं 'सुदर्शन तुम्हारी इस ग़ज़ल ने मेरा जालंधर आना सार्थक कर दिया'। ये ग़ज़ल बाद में बेग़म अख्तर की गयी सबसे मशहूर ग़ज़लों में शुमार हुई और इसे अपार लोकप्रियता मिली। उस ग़ज़ल के चंद अशआर यूँ थे :
कुछ तो दुनिया की इनायात ने दिल तोड़ दिया
और कुछ तल्ख़ी-ऐ-हालात ने दिल तोड़ दिया
हम तो समझे थे के बरसात में बरसेगी शराब
आयी बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया
दिल तो रोता रहे और आँख से आंसू न बहे
इश्क़ की ऐसी रवायात ने दिल तोड़ दिया
आप को प्यार है मुझ से के नहीं है मुझ से
ऐसे बेकार से सवालात ने दिल तोड़ दिया
मुंबई जा कर बेग़म अख़्तर 'साहिबा ने अपना कौल निभाया और इस ग़ज़ल को रिकार्ड करवाते वक्त सुदर्शन को फोन करके मुंबई बुला लिया। ये 1969 की बात है। मुंबई में सुदर्शन जी की मुलाक़ात उस समय के बड़े संगीतकार 'मदन मोहन'जी हुई। मदन जी ने उनकी कुछ ग़ज़लों की धुनें भी बनाईं लेकिन वो ग़ज़लें रिकार्ड हों उस से पहले ही मदन मोहन जी इस दुनिया ऐ फ़ानी से रुख्सत हो गए। इस बीच बेग़म अख़्तर ने 'ख़य्याम'साहब के संगीत निर्देशन में उनकी ग़ज़ल 'इश्क़ में ग़ैरत ऐ जज़्बात ने रोने न दिया 'को गा कर उन्हें मक़बूल कर दिया। शायद बहुत कम लोग जानते होंगे कि उन्हें सं 1979 में उत्तम कुमार -शर्मीला टैगोर अभिनीत फिल्म 'दूरियाँ'के गीत 'ज़िन्दगी मेरे घर आना'के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्मफेयर अवार्ड दिया गया था । इस गीत को जयदेव जी ने संगीत बद्ध किया और भूपेंद्र तथा अनुराधा पौड़वाल जी ने गाया था। सुदर्शन पहले ऐसे फ़िल्मी गीतकार हैं जिसने अपने पहले ही गीत के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्मफेयर अवार्ड जीता।
ज़िन्दगी में जब तुम्हारे ग़म नहीं थे
इतने तनहा थे कि हम भी हम नहीं थे
वक़्त पर जो लोग काम आये हैं अक्सर
अजनबी थे वो मेरे हमदम नहीं थे
हमने ख़्वाबों में ख़ुदा बनकर भी देखा
आप थे बाहों में दो आलम नहीं थे
सामने दीवार थी ख़ुद्दारियों की
वरना रस्ते प्यार के परखम नहीं थे
सुदर्शन फ़ाकिर बेहद एकांतप्रिय, स्वभाव से बहुत संकुचित और बहुत कम लोगों से खुलकर बात करने वाले थे. उनके दोस्तों की तादाद भी ज्यादा नहीं थी. जगजीत सिंह के अलावा बॉलीवुड के सितारे फिरोज खान, राजेश खन्ना और डैनी डेन्जोंगपा जरूर उनके गहरे दोस्त थे. यही कारण है की उनके नाम से अधिक उनकी रचनाएँ चर्चित हुईं। जगजीत सिंह की सुरीली आवाज़ में उनका लिखा भजन 'हे राम आज भी भारतीय घरों में बड़ी श्रद्धा से सुना जाता है। एन सी सी का राष्ट्रिय गीत 'हम सब भारतीय हैं'भी उन्हीं का लिखा हुआ है। 'ये कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी'सुदर्शन फ़ाकिर साहिब की नज़्म वो नज़्म थी जिसे जगजीत सिंह साहब ने लगभग अपने सभी लाइव शो में गाया। अच्छे शायर होने के बावजूद सुदर्शन कभी मुशायरों के मंच पर नहीं गए इसलिए आम जनता से उनकी दूरी बनी रही। हैरत की बात है कि इतने लोकप्रिय शायर की कोई किताब मंज़र ऐ आम पर नहीं आयी। वो अपनी किताब छपवाने का ख़्वाब अभी देखने ही लगे थे कि गले के कैंसर के कारण 18 फरवरी 2008 में उनकी मृत्यु हो गयी। ये भी शायद पहली बार ही हुआ है कि एक शायर की मृत्यु के 12 साल बाद उसकी पहली किताब 'कागज़ की कश्ती 'मन्ज़रे आम पर आयी है। इस किताब में सुदर्शन फ़ाकिर की चुनिंदा ग़ज़लों के अलावा उनके मशहूर गीत और नज़्में भी शामिल हैं। इस किताब को राजपाल एन्ड संस् ने प्रकाशित किया है और ये किताब अमेजन से ऑन लाइन भी मंगवाई जा सकती है.
अब आखिर में वो ग़ज़ल जिसमें सुदर्शन फ़ाकिर की ज़िन्दगी सिमट आयी है :-
हम तो यूँ अपनी ज़िन्दगी से मिले
अजनबी जैसे अजनबी से मिले
हर वफ़ा एक जुर्म हो गोया
दोस्त कुछ ऐसी बेरुख़ी से मिले
फूल ही फूल हमने मांगे थे
दाग़ ही दाग़ ज़िन्दगी से मिले
जिस तरह आप हमसे मिलते हैं
आदमी यूँ न आदमी से मिले