जाने क्या अंजाम होगा अब मिरी तक़दीर का
ख़ुदकुशी के वक़्त टूटा सिलसिला ज़ंजीर का
सिलसिला :कड़ी
उसने दिल की धड़कने मुझको सुनाने के लिए
डाला है तावीज़ गर्दन में मिरी तस्वीर का
भैंस की आँखों पे पट्टी बांध कर तहबंद से
राँझा पहने फिर रहा है आज लहंगा हीर का
कल्पना कीजिये कि भैंस की आँखों पर राँझे का तहबंद है और उसके पीछे राँझा हीर का लहंगा पहने ठुमकता चल रहा है। इस दिलकश मंज़र को देख कर आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी ? आप हैरान होंगे या मुस्कुरायेंगे या ठहाका लगा कर हँसेंगे ? मेरे ख्याल से आप हैरान तो बाद में होंगे पहले अगर आप बिंदास नहीं हैं तो मुस्कुरायेंगे वरना ठहाका लगाएंगे। ये मुस्कुराने और ठहाके लगाने का गुण ही आपको जानवरों से अलग करता है, क्यूंकि सिर्फ जानवर ही न मुस्कुराते हैं न ठहाके लगाते हैं। तो आज किताबों की दुनिया में हम आपको पहली बार मुस्कुराने और ठहाके लगाने की दावत देते हैं। पता नहीं क्यों हमारे समाज में हंसने और ठहाके लगाने को बेहूदगी समझा जाता है। शायद ही आप लोगों को सड़कों या महफ़िलों में खुल कर ठहाके लगाते देखें।ख़ास तौर पर तथाकथिक सभ्रांत लोगों को। तमीज़दार लोग सिर्फ़ मुस्कुराते हैं, वो भी हौले से। इस से तनाव बढ़ता है। इस तनाव भरे युग में अपना मानसिक संतुलन बनाये रखने के लिए खुल कर हंसना सबसे कारगर इलाज़ है। मेरी बात शायद आपको नागवार गुज़रे इसलिए चलिए उन फ़िल्मी गानों का जिक्र करते हैं जो हंसने की पैरवी करते हैं .|आज के दौर के युवा ने शायद मुकेश के गाने न सुने हों लेकिन हमारे दौर में उनका फिल्म 'किनारे किनारे'का ये गाना हमें बहुत बड़ा सबक देता था 'जब ग़मे इश्क़ सताता है तो हँस लेता हूँ , हादसा याद ये आता है तो हँस लेता हूँ 'उन्हीं का गाया फ़िल्म 'आशिक़ी'का एक और गीत है 'तुम आज मेरे संग हँस लो तुम आज मेरे संग गा लो और हँसते गाते इस जीवन की उलझी राह सँवारो ' .दोनों गाने बताते हैं कि विपरीत परिस्थितियों से बाहर निकलने का एक ही रास्ता है -हँसो।
जो किसी बहाने घर में कभी सालियाँ भी आतीं
भला फिर ये क्यों झमेला मुझे नाग़वार होता
*
फिर भला इसमें लुत्फ़ ही क्या है
इश्क़ जब गालियों भरा न हुआ
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हुआ था दर्द से भारी तो ग़म क्या सर के कटने का
न सर कटता मिरा तो ज़िन्दगी भर सर फिर होता
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मुर्ग़ बिरयानी सभी कुछ है पसंद
पेट में हो गैस तो फिर खाएँ क्या
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ये नहीं है वो नहीं है रोज़ बेग़म का है ताओ
ले न डूबे हम को ये अपनी गृहस्ती एक दिन
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बदल कर ज़रा भेस हम हिंजड़ों का
नवाबों के रंगी हरम देखते हैं
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दफ़्तर में आ ही जाता हूँ कुछ वक़्त काटने
वैसे किसी के बाप का नौकर नहीं हूँ मैं
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जब से बढ़ा है शहर में मौतों का सिलसिला
हमराह अपने रखता हूँ इक नौहागर को मैं
नौहागर :रोने पीटने वाला
*
वो सियाह ज़ुल्फ़ें जो बन कर नाग डसती थीं हमें
वक़्त की फटकार खा कर अब सिवय्यां हो गईं
*
गंजे हुए हैं हम मियां जूते ही खा के इश्क़ में
जिसको हो अपना सर अज़ीज़ उसकी गली में जाए क्यों
पंजाब का एक प्रमुख शहर है पटियाला जो अपने 'पैग'के अलावा दीवान 'जर्मनी दास'की किताब 'महाराजा'और 'महारानी'में चर्चित महाराजा भूपेंद्र सिंह के किस्सों और मौसिकी के उस घराने के लिए प्रसिद्ध है जिससे जनाब बड़े ग़ुलाम अली खां साहब भी मुतअल्लिक़ थे। उसी शहर में एक मिठाई की दूकान थी, जिसकी मिठाइयों की मिठास से ज्यादा मीठी उसके मालिकों की ज़ुबान हुआ करती थी। दुकान के मालिकों से ख़ालिस उर्दू, हिंदी और पंजाबी में कभी शेर तो कभी उनकी पैरोडी तो कभी चटपटे जुमले सुनता हुआ ग्राहक एक की जगह तीन मिठाइयां ले लेता और फिर भी वहीँ जमा रहता। दुकान के मालिक श्री मालू राम जी के बेटे 'राज़'को दुकान जा कर अपने पिता, भाई और मामा की लच्छेदार बातें सुननी बड़ी अच्छी लगतीं। घर में माँ भी, कभी कभी ऐसे जुमले जड़ देती कि राज़ हँसते हँसते लोटपोट हो जाता। शायरी में राज़ की दिलचस्पी बढ़ने लगी। इस ख़ुशनुमा माहौल में राज़ कब शायरी करने लगा उसे पता ही नहीं चला और तो और कब मिर्ज़ा ग़ालिब उसके जेहन पर सवार हो गए इसकी भी खबर नहीं लगी। ग़ालिब का जादू उनके सर चढ़ कर बोलने लगा।
रात का सन्नाटा हो और राज़दां कोई न हो
बीवियां तनहा ही घूमें और मियां कोई न हो
*
थान पर खच्चर के मैंने ऊँट बांधा था जो कल
रंग उस पर वो चढ़ा कि हिनहिनाता जाए है
थान : खूँटा
*
मुहल्ले वालों का सर फोड़ना है बात अलग
फटेगी शर्ट तो समझोगे तुम रफू क्या है
*
अच्छे खासे को भी लंगड़ा कह दिया
ज़ाइके बदनाम हैं यूँ आम के
*
मेरे अल्लाह मेरी पारसाई पर करम करना
मुसल्सल तेज़ बारिश में वो लिपटा जाए है मुझ से
*
सांडों की लड़ाई में परेशांन सभी थे
कुत्ता मिरे पीछे था तो भैंसा मिरे आगे
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सोहबत का जानवर की हुआ उन पे असर
पाली है जब से लोमड़ी चालाक हो गए
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हम हो चुके है घुटनों से लाचार क्या करें
यानी उचक के हुस्न का दीदार क्या करें
*
मरते थे जो हसीन वो मुँह फेर कर चले
इस चौखटे पे झुर्रियों की मार देख कर
*
इश्क़ के ख़ुतूत ने दिखलाया रंगे-ख़ास
महबूब जितने थे उन्हें ले भागे डाकिए
ख़ुतूत :चिठ्ठियां
ये राज़ ही हमारे आज के शायर हैं जिनका पूरा नाम श्री 'त्रिलोकी नाथ काम्बोज'है लेकिन अदबी हलकों में इन्हें "टी.एन. राज़"के नाम से जाना जाता है। इनकी किताब "ग़ालिब और दुर्गत"हमारे सामने है जिसमें राज़ साहब ने, जैसा कि आपने अब तक पढ़ कर समझ ही लिया होगा, ग़ालिब साहब की मशहूर ग़ज़लों की वो दुर्गत की है कि ग़ालिब उसे पढ़ कर बजाय नाराज़ होने के क़ब्र के अँधेरे में मारे ख़ुशी के भंगड़ा कर रहे होंगे। कारण ये कि जो काम राज़ साहब ने किया है वो बच्चों का खेल नहीं है । तन्ज़-ओ-मिज़ाह याने हास्य व्यंग की शायरी करना, वो भी ग़ालिब की ज़मीन पर, बहुत ही मुश्किल काम है लेकिन साहब राज़ साहब ने इस काम को अंजाम दिया है और क्या खूब दिया है। किताब पढ़ते पढ़ते दिल बाग़ बाग़ हो जाता है। अगर ये काम आसान होता तो अब तक बहुत से शायर इसे कर चुके होते। ऐसा नहीं है कि बाक़ी शायरों ने कोशिश नहीं की ,खूब की लेकिन साहब ग़ालिब की ज़मीन इतनी सख्त है कि बहुत से खेती करने वालों के तो इस कोशिश में हल ही टूट गए और जो थोड़े बहुत हल चला पाए उनके ख्यालों के बीज उसमें पनपे ही नहीं । ग़ालिब छोड़िये वैसे भी तन्ज़-ओ-मिज़ाह पर आसानी से कलम नहीं चलती तभी तो शायरी के इतिहास में संजीदा शायरों के नाम की तो एक कभी न खत्म होने वाली लम्बी सी लिस्ट बन जायेगी लेकिन ढंग के तन्ज़-ओ-मिज़ाह के शायर शायद उँगलियों पर गिनने लायक भी न हों। एक नज़ीर अकबराबादी जरूर जेहन में आते हैं जबकि इस विधा में नस्र में लिखने वालों की तादाद जरूर कुछ बड़ी है। सच्ची बात तो ये है कि किसी को हँसाना मुश्किल है और रुलाना बहुत आसान इसलिए लोग आसान काम को ज्यादा तरज़ीह देते हैं और रुलाने के नए नए तरीके इज़ाद करते रहते हैं।
गाड़ी रूकती नज़र नहीं आती
छींक वक़्ते सफ़र नहीं आती
जूता बाटा का अब चले कैसे
पहले सी वो रबर नहीं आती
आँख में जब से उतरा मोतिया
कोई सूरत नज़र नहीं आती
ज़हमते-गैस होगी सुब्ह-रफअ
नींद क्यों रात भर नहीं आती
ज़हमते गैस -गैस की तकलीफ़ , सुब्ह-रफअ : सुबह दूर
बीवी जाती है जब भी मायके को
कोई भी साली घर नहीं आती
जनाब त्रिलोकी नाथ उर्फ़ टी.एन. साहब का जन्म 19 सितम्बर 1934 में पटियाला में हुआ। 'राज़'तख़ल्लुस ज़ाहिर सी बात है बाद में जुड़ा। परिवार का ताल्लुक क्यूंकि मिठाई से था, जिसमें पढाई से ज़्यादा तजुर्बा काम आता है, लिहाज़ा अपनी पढाई लिखाई पर परिवार में से किसी ने कोई ख़ास तवज्जोः नहीं दी। 'राज़'साहब ठहरे इस परिवार के बिगड़े शहज़ादे इसलिए जनाब ने वो काम नहीं किया जो ख़ानदानी था बल्कि इसके उलट पढाई लिखाई की। पढाई-लिखाई क्या की यूँ समझिये कि 'उनके ख़्याल आये तो आते चले गए'की तर्ज़ पर वो पढ़ते चले गए। उर्दू और हिंदी में एम.ऐ. की डिग्रियाँ पा कर जब उनका जी नहीं भरा तो हज़रत एल एल बी की और मुड़ गए और उसकी भी डिग्री हासिल कर ली वो भी 'ऑनर्स'के साथ। ये तो हुई पढाई की बात अब ज़रा शौक़ देखें ज़नाब के, शायरी तो, जैसा आपको पता लग चुका है, ख़ैर था ही साथ में ज्योतिष में भी जोर आज़माइश करते हुए महारत हासिल कर ली और शतरंज सीख कर अच्छे अच्छे उस्तादों को पानी पिलाने लगे। रोज़ी रोटी के लिए वक़ालत करने की ठानी लेकिन अदालत में मी लार्ड मी लार्ड बोलने से कोफ़्त होने लगी तो मास्टरी, अफ़सरी, प्रोफ़ेसरी और फिर सरकार में नौकरी दर नौकरी करते हुए खूब पापड़ बेले। लेक्चरारी में बंधे कुछ दिन कुरुक्षेत्र में भी रहे और जब वहां मन नहीं लगा तो पंचकुला आ गए और हुकूमत हरियाणा के महकमा-ऐ-क़ानून से वाबस्ता हो गए फिर वहीँ से आखिर में सितम्बर 1993 में बतौर डिप्टी सेकेट्री रिटायर हुए।
मुर्ग़ चोरी का रोज़ खाता हूँ
मैं नहीं जानता सज़ा क्या है
मैं चला हूँ विदेशी दौरे पर
ये न पूछो कि मुद्दआ क्या है
रह के सुहबत में उनकी चलेगा पता
घोड़ा क्या चीज़ है गधा क्या है
बीवी उम्मीद से है पचपन में
या इलाही ये माजरा क्या है
ग़ालिब के अलावा राज़ साहब ने ज़ौक़ ,फ़ानी ,जोश ,शक़ील ,जिग़र , फ़िराक ,क़तील शिफ़ाई साहिर जैसे अज़ीम शायरों की ग़ज़लों की भी इसी तरह दुर्गत करने में कोई कसर छोड़ी। इस किताब में आप ग़ालिब के अलावा इन सब शायरों की ग़ज़लों पर की गयी पैरोडी का भी मज़ा उठा सकेंगे। राज़ साहब अपनी इस किताब की भूमिका में लिखते हैं कि "चचा ग़ालिब के शेर 'मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाए क्यों के पेशे नज़र उदासी, बेचैनी, तनाव और परेशानी हर इंसान को ज़िन्दगी के किसी न किसी मोड़ पर घेरे हुए है। इन के बीच हँसी ख़ुशी के मौक़े जुटा लेने वाला इंसान ही ख़ुश किस्मत है। क्यूंकि मिज़ाह का लुत्फ़ लेते रहने वाले इंसान के लिए दुनिया के ग़मों को बर्दाश्त करने के लिए एक नयी ताक़त और हिम्मत पैदा हो जाती है। नामवर मिज़ाह निगार जनाब 'मुज्तबा हुसैन'अपनी किताब 'तकल्लुफ़ बरतरफ़'में एक जगह लिखते हैं 'मैं हंसी को मुक़द्दस फ़रीज़ा (पावन कर्तव्य ) मानता हूँ और क़हक़हा लगाने को ज़िन्दगी का सबसे बड़ा एडवेंचर -- ज़िन्दगी के बेपनाह ग़मों में घिरे रहने के बावजूद इंसान का क़हक़हा लगाना ऐसा ही है जैसे विशाल समंदर में भटके हुए किसी जहाज़ को अचानक कोई टापू मिल जाए।
सुनता वो कम है हंसी उसको सुनाए न बने
भैंस के सामने ज्यूँ बीन बजाए न बने
नाक में दम जो करे उसका पसीना मेरे
बात गर्मी में बिना लक्स नहाए न बने
सब्ज़ी जो सस्ती मिली हमने ज़्यादा लेली
अब उठाए न उठे और गिराए न बने
ग़ालिब की ग़ज़लों की दुर्गत का आइडिया राज़ साहब को तब आया जब वो उनकी उन साठ के लगभग ग़ज़लों का सरल हिंदी में अनुवाद और व्याख्या कर रहे थे जिन्हें सहगल , सुरैय्या ,रफ़ी ,तलत महमूद ,लता , बेग़म अख़्तर ,जगजीत और ग़ुलाम अली जैसे गायकों ने गा कर लोकप्रिय बना दिया है। उनका ये अद्भुत काम किताब की शक़्ल में 'ग़ालिब-जीवनी,शायरी और ख़त'के नाम से देवनागरी में बाजार में उपलब्ध है। ग़ालिब की इन ग़ज़लों को समझने के लिए इस से आसान ज़बान में दूसरी कोई किताब हिंदी में मिलनी मुश्किल है। 'ग़ालिब और दुर्गत'सबसे पहले उर्दू में शाया हुई थी जिसकी खुशवंत सिंह, डॉ. गोपीचंद नारंग , बशीर बद्र, निदा फ़ाज़ली, प्रो जगन्नाथ आज़ाद , सागर ख़य्यामी ,इब्राहिम अश्क़ जैसे साहित्यकारों ने भूरी भूरी प्रशंसा की। हिंदी पाठकों के आग्रह पर इसका देवनागरी में संस्करण निकाला गया जो हाथों हाथ बिक गया। अब इस किताब का दूसरा संस्करण बाजार में उपलब्ध है। ये किताब 'साक्षी पेपरबैक्स' एस -16 ,नवीन शाहदरा ,दिल्ली 110032 से प्रकाशित हुई है। आप 09810461412 पर संपर्क कर इसे मंगवा सकते हैं या फिर इस किताब को अमेज़न से ऑन लाइन भी मँगवा सकते हैं।
तिरे बन्दे का ऐ मालिक कभी तो पेच-ओ-ख़म निकले
कभी इसकी भी दुम निकले कभी इसका भरम निकले
डिनर ढाबे पे जिन साहब को कल मैंने खिलाया था
वही हज़रत मिरी महबूब के चौथे ख़सम निकले
ये सब बरसाती मेंढक हैं ये लीडर दुम हैं कुत्ते की
हज़ारों बार पिट कर भी न कम्बख्तों के ख़म निकले
ख़म : टेढ़ा पन
पुलिस ने रात भर पीछा किया था चोर का लेकिन
निशां जब सुब्ह को देखे तो भैंसों के क़दम निकले
नज़ाक़त को ग़ज़ल की हम ने ढाला है ज़राफ़त में
न ग़ालिब ने कसर छोड़ी न हम ही 'राज़'कम निकले
ज़राफ़त: हास्य
राज़ साहब के मित्र डॉ नाशिर नक़वी साहब लिखते हैं कि ' 86 साल की उम्र में भी ये शख़्स किसी तौर पर अपने आप को बूढ़ा क़ुबूल करने को तैयार नहीं क्यूंकि इनका ख़्याल है कि आदमी दिल से बूढ़ा नहीं होना चाहिए। बूढ़ा वो होता है जो हंसने हंसाने से परहेज़ करता है। बस यही वो अदा है जो टी एन राज़ को जवां और हरदिल अज़ीज़ बनाए हुए है। आप उनसे 9646532292 या 9988097276 पर बात कर खुद इस बात का यकीन कर सकते हैं। नक़वी साहब आगे लिखते हैं कि 'राज़ की मिज़ाहिया शायरी में एक बड़ी ख़ूबी ये है कि वो हंसने हंसाने के साथ समाज को दरपेश मौजूदा मसअलों और बुराइयों से वाकिफ़ कराने में कामयाब हैं। राज़ खुद को निशाना बना कर किसी ऐब को उजागर करके अपने दाएं बाएं फैली कुरीतियों के छीटें बिखेरते हैं जो बड़े दिल गुर्दे की बात है। इनका हर शेर एक अदबी और मेयारी लतीफ़े का सा असर छोड़ता है। जिस आदमी में ,जिस समाज में हंसने हंसाने की सलाहियत नहीं होती वो समाज टी बी ज़दा होता है , जहाँ हर इंसान के सीने में घुटन और तनाव की खांसी सुनाई देती है। इस माहौल में अगर कोई शख़्स अपने मज़ाहिया अंदाज़ एहसास और इज़्हार से मुस्कुराने,हंसाने और क़हक़हा लगाने की प्रेरणा देता है तो उसे फ़रिश्ता ही कहा जायेगा। राज़ साहब इस माने में फ़रिश्ता हैं क्यूंकि वो कहीं हल्के और कहीं तीखे तन्ज़ के साथ हंसने और हंसाने का अनोखा और अछूता गुर जानते हैं।
मैं पंचकुला के होनहार शायर जनाब 'महेंद्र कुमार सानी जी का बेहद शुक्रगुज़ार हूँ जिनके कारण मुझे इस बाक़माल शायर का पता चला। चलिए देखते हैं कि राज़ साहब ने जिगर मुरादाबादी साहब की एक ग़ज़ल की क्या खूब दुर्गत की है :
यूँ ज़िन्दगी तबाह किए जा रहा हूँ मैं
पीरी में भी विवाह किए जा रहा हूँ मैं
पीरी : बुढ़ापा
बस का तो इस बुढ़ापे में कुछ भी नहीं रहा
क्या क्या न फिर भी चाह किए जा रहा हूँ मैं
उन गुलरुख़ों पे जो हुए खण्डर मेरी तरह
हसरत भरी निगाह किए जा रहा हूँ मैं
गुलरुख़ों : फूल से चेहरे वाले
बीवी की डाँट है कभी अफ़सर की झाड़ है
दोनों से ही निबाह किए जा रहा हूँ मैं
और अब आख़िर में फ़िराक़ साहब की एक ग़ज़ल की भी दुर्गत भी देख लें। सच तो ये है कि मैं सभी की दुर्गत तो एक पोस्ट में पढ़वा नहीं सकता सिर्फ़ आपसे गुज़ारिश ही की कर सकता हूँ कि ऐसी अलमोल किताब का आपके पास होना जरूरी है क्यूंकि कुछ पता थोड़े होता है ज़िन्दगी में न जाने कब आपको हंसने की जरुरत पड़ जाय इसलिए अग्रिम इंतज़ाम करके रखें।
किसी के इश्क़ में मरना जो जी में ठान लेते हैं
वो अपनी क़ब्र का जुग़राफ़िया पहचान लेते हैं
नज़र वास्ते सुर्मा ,ज़बीं के वास्ते बिंदी
वो क्या क्या क़त्ल का मेरे लिए सामान लेते हैं
इधर बीवी जो दे ताने उधर मच्छर सताते हों
तो सर से पाओं तक हम पूरी चादर तान लेते हैं
रिटायर हो के जब से 'राज़'हम बैठे हैं घर अपने
नहीं चलती हमारी, बीवी के फ़रमान लेते हैं