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Channel: नीरज
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किताबों की दुनिया - 221

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बच्चे साँस रोके बैठे थे तभी मंच से नाम की घोषणा हुई और उसके बाद जो तालियाँ बजी उन्होंने रुकने का नाम ही नहीं लिया। रूकती भी कैसे ? आखिर ऐसा करिश्मा स्कूल में पहली बार जो हुआ था। लगातार तीसरी बार प्रथम स्थान। आठवीं कक्षा में, नौवीं में और अब दसवीं में भी ।अनवरत बजती तालियों के बीच मुस्कुराता हुआ वो बच्चा मंच पर आया जिसका नाम घोषित करते वक़्त शिक्षक की ख़ुशी का पारावार न था। वो बच्चा इस शिक्षक का ही नहीं स्कूल के हेडमास्टर से लेकर सभी शिक्षकों का चहेता था। सिर्फ़ पढाई में ही नहीं क्रिकेट के मैदान पर जब वो बल्ला ले कर उतरता तो विपक्षी टीम के बॉलर को समझ नहीं आता कि वो उसे कहाँ बॉल डाले जहाँ उसका बल्ला न पहुँच पाये ,कप्तान ये सोच कर परेशान होता कि वो फील्डर कहाँ खड़ा करे ताकि उसके बल्ले से निकली बॉल बाउंडरी पार न कर पाये और जब वो बॉल लेकर ओवर फेंकने जाता तो बल्लेबाज़ अपनी क़िस्मत को कोसता कि कहाँ इसके सामने आ गया। 
वो एक ऐसा बच्चा था जिस पर पूरे स्कूल को गर्व था। स्कूल वालों को तो पक्का यक़ीन था कि अब ग्यारवीं में ये बच्चा टॉप करेगा ही और फिर अगले साल बाहरवीं की बोर्ड परीक्षा में वो मैरिट में आ कर स्कूल का नाम पूरे प्रदेश में रौशन करेगा।  
ग्यारवीं कक्षा में उसके शिक्षकों ने एक मत से उसे साइंस दिलवा दी। शिक्षक चाहते थे कि बच्चा साइंस की पढाई कर इंजिनियर बने जबकि बच्चे का रुझान आर्टस की ओर था। घर और स्कूल वालों के इसरार से बच्चे ने आखिर, बेमन से ही सही, साइंस पढ़ना मंज़ूर किया और क्लास टेस्ट्स में आशा के अनुरूप सबसे आगे रहा। 
वार्षिक परीक्षाएँ सर पर थीं और पढाई पूरे जोर पर, तभी वो हुआ जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। 

खड़े ऊँचाइयों पर पेड़ अक्सर सोचते होंगे 
ये पौधे किस तरह गमलों में रह कर जी रहे होंगे  
*
दहशत के मारे भाग गये दश्त तरफ 
लफ़्ज़ों ने सुन लिया था छपाई का फ़ैसला 
*
बुलन्दियों पे ज़रा देर उसको टिकने दें 
अभी ग़लत है उसे आपका सफल कहना 
*
अफ़सोस, दर्द, टीस, घुटन, बेकली, तड़प 
क्या-क्या पटक के जाती है दुनिया मेरे आगे 
*
आग से शर्त लगाई है तुम्हारे दम पर 
ऐ हवाओं ! न मेरा नाम डुबाया जाए 
*
उसे कुछ इस तरह शिद्दत से ख़ुद में ढूंढता हूँ मैं 
मुसाफ़िर जिस तरह रस्ते में छाया ढूंढते होंगे 
*
रात-भर प्यार हँसी, शिकवे, शिकायत मतलब 
एक कमरे का हंसी ताजमहल हो जाना 
*
बे सबब अपनी  फ़ितरत को बदलने बजाय 
चंद आँखों में खला जाय, यही बेहतर है 
*
रखा था इसलिए काँटों के बीच तूने मुझे 
ऐ मेरी ज़ीस्त ! तुझे इक गुलाब होना था 
*
आँख खुली जब, चिड़िया ने चुग डाले खेत 
अब क्या, अब तो खर्राटे पर रोना था       
 
इस बात को अभी यहीं छोड़ कर चलिए थोड़ा पीछे चलते हैं। राजस्थान के जालोर जिले का एक गाँव है 'सांचोर'जिसका अभी हाल ही में अखबारों में ज़िक्र आया है क्यों कि वहाँ जून 2020 में एक 2.78 किलो का उल्का पिंड बहुत बड़े धमाके साथ गिरा था उसी सांचोर गाँव में 19 सितम्बर 1989 को एक मध्यमवर्गीय परिवार में उस प्रतिभावान बच्चे का जन्म हुआ जिसका ज़िक्र हम ऊपर कर चुके हैं। बच्चे में पढ़ने की भूख उसके पिता को बचपन से ही नज़र आने लगी। ये बच्चा अपनी क्लास की किताबों के अलावा अपने से बड़े भाइयों की क्लास की किताबें खास तौर पर हिंदी की बड़े चाव से पढ़ डालता। 
पिता ने एक बार उसे बाज़ार से राजस्थान पत्रिका द्वारा प्रकाशित बच्चों की पाक्षिक पत्रिका 'बालहँस 'पढ़ने को ला कर दी। इस पत्रिका को पढ़ कर तो जैसे बच्चे में और पढ़ने की भूख बढ़ गयी। पिता के संग जाकर उसने वो दूकान देख ली जहाँ बालहंस के अलावा और दूसरी बच्चों की पत्रिकाऐं जैसे 'नन्दन'''नन्हें सम्राट'आदि मिला करती थीं। पाठ्यपुस्तकों के अलावा अब ये पत्रिकाऐं भी नियमित रूप से पढ़ी जाने लगीं। पत्रिकाएं देख कर बच्चे का मन करता कि उसकी रचनाएँ और फोटो भी ऐसे ही इन पत्रिकाओं में छपे जैसे दूसरे लेखकों के छपती हैं। पत्रिकाओं में छपने की इस प्रबल चाह में बच्चे ने लिखना शुरू किया।      

बहुत हुआ कि हक़ीक़त की छत पे आ जाओ 
भरी है तुमने अभी तक उड़ान काग़ज़ पर 
*
हैरत है पीपल की शाख़ों से कैसे अरमां 
पतले-पतले धागों में आ कर बँध जाते हैं 
*
पेशानी पर बोसा तेरी चाहत का 
दिल पर कितने जंतर-मंतर करता है 
*
हर इक जगह तलाशते हैं अपना आदमी 
कहने को जात-पात से हैं कोसो दूर हम 
*
अजब-सा ख़ौफ़ है बस्ती में तारी 
शहर को धर्म का दौरा पड़ा है 
*
नाज़ुक मन पर रंग हज़ारों चढ़ते हैं 
दिल से दिल की जब कुड़माई होती है 
*
ज़्यादा सहूलतों के हैं नुक्सान भी ज़्यादा 
साये बड़े तो होंगे ही परबत के मुताबिक़ 
*
कुछ नहीं मुझ में कहीं भी कुछ नहीं है 
पर 'नहीं'में भी तेरी मौजूदगी है 
*
अगरचे छाँव है तो धूप भी है 
कई रंगों में कुदरत बोलती है 
*
 हर क़दम पर हादसों का डर सताता है यहाँ 
ज़िन्दगी है हाइवे का इक सफ़र अनमोल जी  
   
ग्यारवीं में बच्चे ने पहली कविता लिखी जो, कि जैसा उस उम्र का तकाज़ा होता है, थोड़ी रोमांटिक थी, लिहाज़ा उसने किसी को नहीं दिखाई। फिर देश प्रेम से ओतप्रोत एक कविता लिखी जो हर किसी को पढ़वाने लायक थी। बच्चा चाहता था कि इस कविता को वो अपने पिता को दिखाए क्यूंकि उन्हीं की प्रेरणा से ही उसने लेखन शुरू किया था। बच्चा अपनी इस कविता को पिता को दिखाता उस से पहले ही पिता बीमार हो गये। बच्चे ने सोचा कि दो तीन दिन बाद जब पिता ठीक हो जायेंगे तब दिखायेगा लेकिन 'तभी वो हुआ जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी'    
पिता  के अचानक इस तरह दुनिया-ए-फ़ानी से रुख़्सत होने के बाद जैसे बच्चे के पाँवों तले से ज़मीन ही ख़िसक गयी। घर में एक मात्र वो ही कमाने वाले थे लिहाज़ा उनके जाने के बाद घर की माली हालात बिगड़ गयी। गंभीर आर्थिक संकट मुँह बाए खड़ा हो गया। ग्यारवीं की परीक्षाएँ सर पर थीं लेकिन मातमपुर्सी के रस्मो रिवाज़ के चलते बच्चा उन दिनों एक अक्षर भी नहीं पढ़ पाया जिन दिनों उसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी। नतीज़ा वो हुआ जो नहीं होना चाहिए था।  प्रथम श्रेणी में पास होने की उम्मीद में पढ़ने वाले बच्चे की सप्लीमेंट्री आयी। आकाश नापने के ख़्वाब देखने वाले परिंदे के मानों पर ही कतरे गये। 

लेखन छूटा, स्कूल छूटा, पढाई छूटी लेकिन हिम्मत और हौंसला नहीं छूटा। बच्चे ने परिवार को आर्थिक सम्बल देने के लिए गाँव में अपनी परचूनी की छोटी सी दूकान खोल ली और साथ ही ख़ाली वक़्त में प्राइवेटली बारहवीं की परीक्षा की तैयारी की और पास हुआ।           

चाय का कप, ग़ज़ल, तेरी बातें 
कैसे अरमान पलने लगते हैं 
*
जो फेंकी ज़िन्दगी ने यार्कर थी 
उस अंतिम गेंद पर छः जड़ चुका हूँ 
*
दफ़्तर, बच्चे ,बीवी, साथी, रिश्ते-नाते, दुनियादारी 
सबके सबको खुश रख पाना इतना तो आसान नहीं है 
*
बहुत आसान है मुश्किल हो जाना 
बहुत मुश्किल है पर आसान होना 
*
बहुत मासूम है दिल गर बिछड़ जाये कोई अपना 
फ़लक पर नाम का उसके सितारा ढूंढ लेता है 
*
आदमी बनने की ख़ातिर छटपटाता वो रहा 
रब समझ कर तुम इबादत उम्र भर करते रहे 
*
पीठ से खंज़र ने करली दोस्ती 
और फिर  बदला अधूरा रह गया 
*
समंदर हो कि मौसम हो या फिर लाचार इंसां हो 
कहाँ समझे जहां वाले किसी की ख़ामोशी की हद 
*
 ख़त के लफ़्ज़ों के बीच मैं खुद को 
उसकी टेबल पे छोड़ आया हूँ 
*
थोड़ा अच्छा होना, होता है अच्छा  
वरना मँहगी पड़ जाती अच्छाई है   

बच्चे की पढ़ने की ललक देखिये कि घोर आर्थिक तंगी होने के बावज़ूद उसने अपनी दूकान पर नियमित अख़बार मँगवाना शुरू दिया क्यूँकि अख़बार के साथ अलग अलग दिन विशेष परिशिष्ट जो आते थे। परचूनी की दूकान से थोड़ी बहुत आमदनी होने लगी। धीरे धीरे कहावत 'हिम्मत ए मर्दां मदद ए ख़ुदा'सच होने लगी। मुश्किल हालात ने बच्चे को मानसिक रूप से मज़बूत बनाया और अपने पाँव पर खड़े होने का हुनर तो सिखाया लेकिन आगे क्या करना है ये समझाने वाला न कोई घर में था न गाँव में । बच्चे ने अपनी समझ के अनुसार सरकारी नौकरी पाने के लिए  बी.ऐ. में अंग्रेज़ी विषय लिए, पास हुआ लेकिन सरकारी नौकरी नहीं मिली। एक दिन अपनी दूकान किसी सौंप कर वो एक प्राइवेट स्कूल में बच्चों को पढ़ाने की नौकरी करने लगा। स्कूल में नौकरी इसलिए की ताकि पढ़ने लिखने का मौका मिलता रहे।कुछ समय बाद अपना एक छोटा सा कोचिंग सेंटर खोल लिया जो चल निकला। जिंदगी ढर्रे पर लौटने लगी। 
तभी सं 2009 के अंत में आमिर खान की फ़िल्म आयी 'थ्री इडियट्स'जिसे देख बच्चे को एहसास हुआ कि वो जो कर रहा है उसे जीना नहीं कहते। ज़िन्दगी में अगर अपने सपने साकार करने का प्रयास न किया तो जीना व्यर्थ है। सपना था लेखक बनने का। सन 2010 इस बच्चे के जीवन में टर्निंग प्वाइंट बन कर आया। अपने सपने साकार करने ये लिए इस बच्चे ने अपने जमे -जमाये काम के साथ-साथ गाँव भी छोड़ दिया।   
सपनों को साकार करने की धुन में जोख़िम उठाने वाला ये बच्चा आज हिंदी ग़ज़ल के आकाश में एक चमकता सितारा है जो के.पी.अनमोलके नाम से जाना जाता है।  इन्हीं की ग़ज़लों की क़िताब 'कुछ निशान कागज़ पर'हमारे सामने है जिसे 'किताबगंज प्रकाशन'ने प्रकाशित किया है। ये ग़ज़लें पाठक के दिल पर निशान छोड़ने में सक्षम हैं।
 

खूब ज़रूरी हैं दोनों 
झूठ ज़रा-सा ज़्यादा सच 
*
ख़ुद को बना सका न मैं सौ कोशिशों के बाद 
और उसने एक बार में छू कर बना दिया 
*
सवाल ये नहीं है लौट कैसे आया वो 
सवाल ये है कि वो लौट कैसे आया है 
*
कुछ रोज़ कोई मेरा भी ज़िम्मा सँभाल ले 
तंग आ चुका हूँ अब तो मैं खुद को सँभाल कर   
*
कुछ न मन का कर सकें, ये वक़्त की कोशिश रही 
काम मन के ही मगर हम, ख़ासकर करते रहे    
               
अनमोल जी ने गाँव छोड़ जोधपुर का रुख़ किया जहाँ उन्हें एक स्वस्थ साहित्यिक माहौल मिला। जोधपुर में स्वतंत्र लेखन के साथ कम्पीटीटिव परीक्षाओं की तैयारी भी चलने लगी। जोधपुर के वरिष्ठ साहित्यकारों के सानिध्य से उन्होंने बहुत कुछ सीखा। इतना सब होने के बावज़ूद अनमोल जी को अपनी मंज़िल का रास्ता सुझाई नहीं दे रहा था। तभी उनके जीवन में आये एक शख़्स ने उन्हें हिंदी में एम.ऐ. करने की सलाह दी। इस सलाह से जैसे मंज़िल का रास्ता आलोकित हो गया। हिंदी शुरू से अनमोल जी का प्रिय विषय रहा था। उन्होंने हिंदी में सिर्फ़ प्रथम श्रेणी से एम. ऐ ही नहीं किया बल्कि कॉलेज में टॉप भी किया। 
व्यक्तिगत कारणों से वो 2014 में जोधपुर से रुड़की आ गए और फिर यहीं के हो कर रह गए। रुड़की में उन्होंने वेब डिजाइनिंग का कोर्स किया और फिर उसी को पेशा बना लिया। वेब डिजाइनिंग से उनकी भौतिक जरूरतें पूरी होती हैं लेकिन अपनी मानसिक ज़रूरीयात को वो 'हस्ताक्षर'वेब पत्रिका निकाल कर पूरा करते हैं। पिछले पाँच से अधिक वर्षों से लगातार प्रकाशित  'हस्ताक्षर' हिंदी की प्रतिष्ठित वेब पत्रिका के रूप में स्थापित हो चुकी है। इस अनूठी मासिक वेब पत्रिका में आप हिंदी में साहित्य की लगभग सभी विधाओं को पढ़ सकते हैं।  यदि आप किसी विधा में लिखते हैं तो अपना लिखा प्रकाशन के लिए भेज भी सकते हैं। हस्ताक्षर वेब पत्रिका का अपना एक विशाल पाठक समूह है जो लगातार बढ़ता ही जा रहा है। 

जीवन में अब अनमोल वो काम करते हैं जिसे उनका दिल चाहता है। थ्री ईडियट्स फिल्म की टैग लाइन की तरह उनके जीवन में अब 'आल इज वैल'है।

ज़रा सा मुस्कुराने लग गये हैं 
मगर इसमें ज़माने लग गये हैं 

जवां उस दम हुईं रूहें हमारी 
बदन जब चरमराने लग गये हैं 

बस इक ताबीर के चक्कर में मेरे 
कई सपने ठिकाने लग गये हैं 

मुसलसल अश्क़ , बेचैनी उदासी 
मेरे ग़म अब कमाने लग गये हैं 

इस 'ऑल इज वैल'के पीछे कितना संघर्ष छुपा है इसका किसी को अंदाज़ा नहीं है। अनमोल जी के जीवन की कहानी हमें प्रेरणा देती है कि ऊपर वाले के दिए इस जीवन को हमें अपने हिसाब से अपनी ख़ुशी से जियें। ऊपर वाला माना बहुत ही कम लोगों को सब कुछ तश्तरी में परोस कर देता है लेकिन सबको एक चीज बहुतायत में देता है वो है 'हिम्मत'। अफ़सोस बहुत कम लोग ऊपर वाले के दिए इस गुण को अपनाते हैं। अपने सपनों को साकार करने में संघर्ष करना पड़ता है और जो हिम्मत से संघर्ष करता है उसे मंज़िल मिलती ही है।  
अनमोल जी की बचपन से छपने की चाह ने ही उन्हें आज इस मुकाम पर ला खड़ा किया है। 'कुछ निशान कागज़ पर'से पहले उनका एक ग़ज़ल संग्रह 'इक उम्र मुकम्मल'भी छप चुका है। हिंदी के वरिष्ठ ग़ज़ल कारों जैसे श्री ज़हीर कुरेशी, ज्ञान प्रकाश विवेक , हरेराम समीप , अनिरुद्ध सिन्हा आदि ने उनकी ग़ज़लों को अपने ग़ज़ल संकलन में शामिल किया है उन पर आलोचनात्मक लेख लिखे हैं , ये बात युवा ग़ज़लकार के लिए किसी भी बड़े ईनाम से कम नहीं है।
हिंदी ग़ज़ल पर अनमोल जी के लिखे आलोचनात्मक लेख बहुत चर्चित हुए हैं । उनकी ग़ज़लें देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं और वेब पत्रिकाओं में निरंतर प्रमुखता से स्थान पाती हैं। दूरदर्शन राजस्थान और आकाशवाणी से भी उनकी ग़ज़लें प्रसारित हुई हैं। इसके अलावा उनकी ग़ज़लें , न्यूज़ीलैंड की 'धनक', केनेडा की 'हिन्द चेतना', सऊदी अरब की 'निकट', आयरलैंड की 'एम्स्टेल गंगा'और न्यूयार्क की 'NASKA; जैसी लोकप्रिय वेब पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। सहज सरल भाषा में गहरी बात व्यक्त करने में सक्षम ये ग़ज़लें पढ़ते सुनते वक़्त सीधे दिल में उतर जाती हैं। 
  
मृदु भाषी अनमोल जी आज जहाँ हैं, वहाँ बहुत खुश हैं और संतुष्ट हैं यही तो एक सफल जीवन की उपलब्धी होती है। 

इतना सब कुछ मिल जाने पर भी अनमोल जी को अपनी पहली रचना अपने पिता को न सुना पाने का ग़म अभी भी सालता है। वो इस बात का ज़िक्र करते हुए बहुत भावुक हो जाते हैं। हमें यकीन है कि चाहे वो अब उनके आसपास मौज़ूद नहीं हैं लेकिन जहाँ भी हैं आज अपने बेटे को इस मुक़ाम पर देख कर खुश होते होंगे। अनमोल की कामयाबी के पीछे उनके पिता की अदृश्य दुआओं का ही हाथ है। आज वो जो हैं उनकी दी हुई तरबियत का ही नतीज़ा हैं। 
अनमोल जी को उनके उज्जवल भविष्य के लिए आप उनके मोबाईल न. 8006623499 पर शुभकामनायें देते हुए उनसे इस किताब की प्राप्ति का आसान रास्ता पूछ सकते हैं। 
आईये अंत में उनकी ग़ज़ल ये शेर पढ़वाता चलता हूँ।         

ये क्यों सोचूँ किसी ने क्या कहा है 
मेरे जीने का अपना फ़लसफ़ा है 

बहुत गहरी ख़ामोशी ओढ़ मुझमें 
समंदर दूर तक पसरा पड़ा है 

मेरी नज़रों से देखो तुम अगर तो 
इसी दीवार में इक रास्ता है 

नदी बहती है कितना दर्द लेकर 
किनारों को कहाँ कुछ भी पता है

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