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किताबों की दुनिया - 227

जब कलम ने तालियों की चाह में लिक्खी ग़ज़ल 
तब किताबों से निकलकर मीर ने रोका मुझे 

चंद सिक्कों की खनक पर डगमगाया जब कभी 
पर्स में रक्खी तेरी तस्वीर ने रोका मुझे 

बोलते लब रोक ना पाए मेरे क़दमों को तब 
मौन आंखों से छलकते नीर ने रोका मुझे
*
जवाबों से दो चार होना सरल है 
कठिन है निकलना सवालों से होकर
*
आंसू पीकर हंँस देने को 
सचमुच में हँसना समझूँ क्या

तुम कहती हो प्यार है मुझसे 
मुझको है उतना समझूं क्या
*
सियासी लोग बहरे तो न थे पर 
उन्हें हर लब पे ताला चाहिए था
*
वो जवानी और थी जो सर कटाना चाहती थी 
ये जवानी सिर्फ़ अपना सर बचाना चाहती है
*
खुद को खुद में ढूँँढना होगा सरल 
तू अगर साँँचों में ढलना छोड़ दे
*
तब मुझे आभास होता है स्वयं की जीत का 
जब किसी जलते दिये से हार जाती है हवा

'कहिये क्या परेशानी है' ?डॉक्टर ने चश्मा आँखों पर ठीक करते हुए अपना पैड निकाल कर पूछा। 'डॉक्टर साहब यूँ तो कोई परेशानी नहीं है बस कभी सर में तेज दर्द होता है ,कभी हल्का धुंधला दिखाई देने लगता है और रात में कभी कभी नाक से पानी आ जाता है।'डॉक्टर ने ध्यान से बात सुनी फिर सामने बैठे मरीज से कहा कि 'देखिये आपको इस पानी का सेम्पल टेस्ट करवाना पड़ेगा।'जवाब मरीज की पत्नी ने दिया 'डॉक्टर साहब नाक से आये पानी की वजह से रात में जब तकिया गीला हो जाता है तब पता लगता है, ऐसे में सेम्पल कैसे लें ? ये थोड़े पता चलता है कि कब पानी आएगा।'डॉक्टर ने पैड पर कुछ लिख कर उस कागज़ को फाड़ कर मरीज को देते हुए कहा 'ये डायगनोस्टिक सेंटर का नाम पता है आप वहां चले जाएँ वो अपने आप सेम्पल ले लेगा, जब रिपोर्ट आ जाये तो मुझे दिखा दें। 'मरीज की पत्नी के चेहरे पर चिंता की रेखाएं देख कर डॉक्टर ने मुस्कुराते हुए कहा 'आप कोई टेंशन न लें, सब ठीक होगा।'डॉक्टर के इस तरह दिए कथन से कब किसी भारतीय पत्नी की चिंता कम हुई है जो अब होती ? पति की बीमारी से चिंतित पत्नी तब तक चिंतित रहती है जब तक वो पूर्ण रूप से ठीक नहीं हो जाता।

डायगनोस्टिक सेंटर से आयी रिपोर्ट को देख कर इस बार डॉक्टर ने चश्मा उतार कर टेबल पर रखते हुए मरीज से कहा कि 'आपकी नाक से सेरीबो स्पाइनल फ्लूइड (सी एस एफ )आ रहा है।'स्त्रियों का सिक्स्थ सेंस ग़ज़ब का होता है इसी के चलते मरीज की पत्नी समझ गयी कि मामला गड़बड़ है,तुरंत घबराते हुए पूछा 'सेरीबो स्पाइनल फ्लुइड ? ये ठीक तो हो जायेंगे न ?'डॉक्टर ने, जितना वो सहज हो सकता था सहज होते हुए, कहा 'जी बिल्कुल ठीक हो जायेंगे' .मरीज ने सहजता से पूछा कि ये बीमारी आखिर है क्या ?'डॉक्टर ने अपने पैड पर दिमाग का स्केच बनाया और समझाने लगा कि 'देखो हमारे सर में एक झिल्ली होती है जिसमें ये लिक्विड भरा रहता है ,किसी कारणवश अगर झिल्ली में कहीं दरार आ जाये या उसमें छोटा सा छेद हो जाए तो वो लिक्विड नाक के रास्ते बाहर आने लगता है।'पत्नी ने आधी बात ही सुनी और वो सुबकने लगी। मरीज अलबत्ता शांत भाव से डॉक्टर की बात सुनता रहा आखिर में डॉक्टर ने कहा कि 'मैं ये दवा आपको लिख कर देता हूँ इसे एक हफ्ते तक लगातार लें और फिर मुझसे मिलें '। मरीज ने उत्साह से दवाएं लेनी शुरू कीं  और एक हफ़्ता इसी उम्मीद में बीत गया कि आज नहीं तो कल डॉक्टर की दी हुई दवाऐं असर दिखाऐंगी ही। 

अफ़सोस कि हफ्ता बीतने के बाद भी मरीज की दशा में जरा भी फर्क नहीं पड़ा। नाक से पानी जैसे द्रव का बहना और पत्नी का चिंतित रहना बदस्तूर जारी रहा।  
               
जरा सा भी तो खारापन नहीं देता है बादल को 
समंदर खुश है नदियों से मिली सौगात को लेकर 
*
वृक्ष के देवत्व को स्वीकार करके जो चला था 
वह प्रगति रथ आ चुका है लौह निर्मित आरियों तक
 
वक्त रहते छोड़ दो कुंठा घृणा के रास्तों को 
अन्यथा यह ले चलेंगे मानसिक बीमारियों तक 

हमने उन हाथों में खंजर और तमंचे दे दिए हैं 
जो पहुंचना चाहते थे रंग और पिचकारियों तक
*
अनसुनी करना नहीं बेटी की उस आवाज को तुम 
जो तुम्हें खामोश रहकर कुछ बताना चाहती है
*
एक से दिखते हैं खुशियाँँ हो या मातम 
आदमी भी शामियाने हो न जाएंँ

जो शरारत सीख ना पाए अभी तक 
डर है वो बच्चे सयाने हो न जाएँँ
*
छले जाने से बचना भी सरल था 
महज़ इनकार करना सीख लेते 

दुखों में गर सुखों को ढूंढना था 
उन्हें स्वीकार करना सीख लेते
*
बहुत होता सरल अपनी अना से दूर हो जाना 
अगर आता हमें रसख़ान मीराँँ सूर हो जाना

मोहब्बत में कभी ना हाथ अपना आजमाएं वे 
जिन्हें बर्दाश्त ना होगा बिखर कर चूर हो जाना

एक हफ्ते के बाद डाक्टर ने कुछ और टेस्ट करवाए और आखिर में कहा कि इस झिल्ली का छेद बंद करने के लिए हमें आपका ऑपरेशन करना पड़ेगा। ये दवाओं से ठीक होने वाला केस नहीं है। बहुत रेयर है। डॉक्टर ने पत्नी की और देख कर कहा कि 'आपको हिम्मत रखनी होगी, घबराने से काम नहीं चलेगा। ये ऑपरेशन के बाद बिल्कुल ठीक हो जायेंगे भरोसा रखें।'स्त्री, जिसे हम कमज़ोर मानते हैं विपरीत परिस्थितियों में वज्र सी मज़बूत भी हो जाती है। पत्नी ने मुस्कुराने की कोशिश करते हुए कहा 'डॉक्टर साहब मुझे आप पर और अपने ईश्वर पर अटूट विश्वास है ,इन्हें कुछ नहीं होगा। आप ऑपरेशन की तारीख़ पक्की करें। 

ऑपरेशन टेबल पर लेटे मरीज़ का चेहरा ढक दिया गया है। उसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा सिर्फ सुनाई दे रहा है। औपचारिकता के लिए कोई फॉर्म भरा जा रहा है। डॉक्टर किसी से कह रहा है कि लिखिए "मरीज का नाम 'अश्विनी त्रिपाठी , जन्म तिथि दस अगस्त 1978, स्थान बाराँ -राजस्थान। क्यों ठीक है न अश्विनी बाबू ?"'जी डॉक्टर साहब सही जानकारी है 'अश्विनी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया। 'तो शुरू करें अश्विनी जी ?'आवाज़ आयी। 'जी करिये , मैं ठीक हूँ 'अश्विनी ने जवाब दिया। एनेस्थीसिया लगते ही अचानक अश्विनी के कानों में सूं की आवाज़ आने लगी आँखें मुंदने लगीं और बाहर की आवाज़ें आनी बंद हो गयीं । बाहरी दुनिया से नाता टूटते ही अंदर का संसार जाग गया। अश्विनी को अपना बाराँ का घर दिखाई देने लगा जिसके आँगन में वो भाग रहा है उसके पीछे उसकी तीन बड़ी बहनें भाग रही हैं लेकिन वो किसी की पकड़ में नहीं आ रहा । चारों खिलखिला रहे हैं। तीन बहनों का छोटा प्यारा एक मात्र भाई 'अश्विनी', पूरे घर का लाडला है। शैतान मगर पढाई लिखाई में होशियार ,तेज तर्रार बच्चा।            

जिसे झोपड़ी ही महल लग रही थी 
वो इंसाँँ महल को महल लिख न पाया 
*
प्यार में अभिव्यक्तियों का दौर है 
प्यार में एहसास कम है इन दिनों
*
पास आने पर लगा कुछ दूरियां हैं लाज़मी 
दूर रहकर दूर रहना भी कहां अच्छा लगा
*
भूख को कुछ रोटियां मिल जाएँँ बस 
उसको क्या गीता से या कुरआन से 

छोड़ दो सम्मान की आशा अगर 
तुमको को जीना है यहाँ सम्मान से
*
शिव के जैसा भोलापन ना हो जिसमें 
विष को अंगीकार नहीं कर सकता है 

तन के भीतर देख नहीं पाता है जो 
वो मन पर अधिकार नहीं कर सकता है
*
हर सियासत की गली में यह विरोधाभास है 
श्वेत वस्त्रों को पहनने आदमी काले गए
कुछ ख़ताएं भी जरूरी है यहाँँ 
हर ख़ता को ना सुधारा कीजिए
*
न पूछो तिजोरी बता ना सकेगी 
ख़जाने का डर ख़ुद खजाने से पूछो

अश्विनी को ऑपरेशन टेबल पर लेटे हुए याद आ रहा है कि उसकी रूचि विज्ञान विषय में थी जो कि आज भी उतनी ही है । उसका सपना था कि या तो वो डॉक्टर बने या इंजीनियर, इसलिए उसने ग्यारवीं में साइंस विषय लिए थे। बाराँ क्यूंकि छोटी जगह है इसलिए कोचिंग के लिए घर वालों ने उसे पास ही के शहर 'कोटा' भेजने का निर्णय लिया था। 'कोटा'जैसा कि सब जानते हैं पूरे भारत में मेडिकल और इंजिनीयरिंग की कोचिंग के लिए विख्यात है। यहाँ कोचिंग लिए बच्चों का देश के प्रसिद्ध इंजीनियरिंग और मेडिकल कालेजों में दाखिला होता हैं। अश्विन ने डॉक्टर बनने का सपना आँखों में पाले जी तोड़ पढाई की। 'कोटा'में बहुत से बच्चे ऐसे ही सपने आखों में लिए पढ़ते हैं लेकिन उन सबके सपने पूरे नहीं होते। अश्विनी जैसे बहुत से बच्चे एक आध प्रतिशत से रह जाते हैं। अश्विन उन बच्चों में से नहीं था जो असफलता से निराश हो जाते हैं। उसने कोशिश पूरी की लेकिन अगर मंज़िल नहीं मिली तो कोई बात नहीं। एक रास्ता बंद होने से जीवन नहीं रुकता। उसे याद है वो कोटा से खाली हाथ लेकिन बुलंद हौसलों से वापस बाराँ लौटा। बी एस सी की फिर उसके बाद बी एड और प्राइवेट स्कूल में ग्यारवीं बाहरवीं के बच्चों को साइंस पढ़ाने लगा। 

तभी सरकारी स्कूलों में नए अध्यापकों की नियुक्तियों की घोषणा हुई। अश्विनी ने अप्लाई किया और उसका सलेक्शन हो गया। उसे घर से लगभग 80 की मी दूर एक सरकारी स्कूल में सेकिंड ग्रेड साइंस अध्यापक के पद पर नियुक्ति का पत्र मिला। सरकारी नौकरी, चाहे घर से दूर ही मिले, छोड़नी नहीं चाहिए। अश्विनी बाराँ छोड़ वहीँ रहने लगा जहाँ स्कूल था लेकिन घर के पास के किसी स्कूल में ट्रांसफर के प्रयास उसने जारी रखे। प्रयास सफल हुए और उसका ट्रांसफर घर से लगभग 16 की.. मी. दूर सरकारी स्कूल में हो गया। जीवन सहज गति से चलने लगा ,इसमें मिठास घोलने को साथ मिला पत्नी के रूप में मिली मित्र का, जिसने उसके घर को दो जुड़वाँ बच्चों की किलकारियों से भर दिया।  
      
साइंस के साथ साथ अश्विनी की रूचि हिंदी भाषा में भी थी। जब वो छोटा था तो फ़ुरसत के पलों में पिता उसे अपनी गोद में बिठा कर सूरदास, तुलसी, मीरा, कबीर आदि के पद सुना कर समझाते थे। पिता के समझाने का अंदाज़ और कवियों के शब्द उस पर जादू कर देते उसे लगता ये सिलसिला कभी खत्म न हो पिता यूँ ही समझाते रहें और वो मुग्ध हो कर सुनता रहे।धीरे धीरे हिंदी में उसकी रूचि पद्य की और अधिक होती गयी । वो घर में आने वाली अख़बार और पत्रिकाओं में छपी कवितायें बहुत मनोयोग से पढता, उन्हें गुनगुनाता और मन ही मन कवितायेँ रचने लगता। बाद में जब भी उसे पढ़ाने से फ़ुरसत मिलती वो अपने मन की भावनाएँ कागज़ पर उतारने लगता। उसने देखा है कि जो लोग अपनी भावनाएँ व्यक्त नहीं कर पाते वो कुंठित हो जाते हैं और जो कर पाते हैं वो सहज रहते हैं, शांत रहते हैं। अश्विनी अपनी कवितायेँ अब अपने यार दोस्तों और साहित्य प्रेमी वरिष्ठ जन को सुनाने लगा। यार दोस्त उसकी रचनाएँ सुन कर तालियाँ बजाते और बड़े बुजुर्ग पीठ थपथपाते,कहीं कोई कमी देखते,तो बताते।       
 कि जिस मसअले पर सियासत टिकी है 
उसी को सियासत ने टाला हुआ है 

कहीं हैं मयस्सर निवाला न इसको 
कहीं खुद बदन ही निवाला हुआ है
*
 इसे इक मुकम्मल ग़ज़ल हम बना लें 
यह जीवन हमारा महज़ काफ़िया है 

बुझो आग बुझती है जैसे हवन की 
जलो जैसे मंदिर में जलता दिया है
*
जबकि उनसे पूछ कर दीपक जलाया है अभी 
ये अंधेरे भर रहे हैं फिर हवा के कान क्यूँ
*
पहुंचना है हमें सद्भावना के शीर्ष तक लेकिन 
डगर जाती है काई से सने दुर्गम ढलानों से 

तिरंगा भी दुखी है रंग बँटते देखकर अपने 
मगर उम्मीद है उसको वतन के नौजवानों से
*
जो पौध चाहती है दरख़्तों में बदलना 
उस पर किसी दरख़्त की छाया न कीजिए 

गर चाहते हैं आप ये रिश्ते बचे रहें 
आईना बन के सामने आया न कीजिए 
*
साँँचा- ए- इंसानियत तो हम सभी के पास है 
पर कोई राजी नहीं होता पिघलने के लिए

पढ़ना और पढ़ाना अश्विनी के जीवन के अभिन्न अंग बन गए।कविताओं, दोहों, मुक्तकों ,छंदों आदि से गुजरती हुई अश्विनी की काव्य यात्रा ग़ज़ल तक आ पहुंची। ग़ज़ल के शिल्प के जादू ने अश्विनी को मंत्र मुग्ध कर दिया। ग़ज़ल में सिर्फ दो मिसरों में गहरी बात कहने का जो ये फ़न है वो जितना दिखाई देता है उतना सरल है नहीं। अश्विनी को पता चल गया था कि ढंग का एक शेर कहने में पसीने आ जाते हैं और पसीने बहा कर भी ढंग का शेर हो जाए तो गनीमत समझें । ग़ज़ल का शिल्प समझने और शेर को कहने के अंदाज़ को समझने के लिए अश्विनी ने किताबों का सहारा लिया ,उन्हें अपना गुरु बनाया। धीरे धीरे उसने ग़ज़लें कहनी शुरू कीं। वो हर वक़्त शायरी में डूबा रहने लगा। स्कूल जाते वक्त रस्ते में अगर कोई मिसरा उसके दिमाग में आ जाता तो वो अपनी मोटर साइकिल सड़क के एक किनारे रोक कर अपनी कॉपी निकालता उसमें लिखता और फिर आगे बढ़ता। ये सिलसिला लगभग रोज ही होने लगा। वो अपनी ग़ज़लें पहले मित्रों को सुनाता फिर उस्तादों को और जब उसे यकीन हो जाता कि वो कुछ ढंग का कह पा रहा है तब ही उसे फेयर कर कॉपी में लिखता। 

बाराँ ही नहीं बल्कि उसके आसपास होने वाले कवि सम्मेलनों और मुशायरों में उसे बुलाया जाने लगा। 'कोटा'के राष्ट्रीय स्तरीय कवि सम्मेलनों और मुशायरों में भी वो शिरकत करने लगा। उसकी रचनाएँ देश की प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं जैसे 'समकालीन भारतीय साहित्य,हंस . वागर्थ , पाखी , मधुमती आदि में प्रकाशित होने लगीं। आकाशवाणी कोटा से उसकी ग़ज़लें प्रसारित हुईं। अश्विनी की पहचान 'बाराँ' से निकल कर पहले 'कोटा' और फिर पूरे देश में होने लगी।             

छाँव याद है पेड़ों की, फल याद रहे 
भूल गए हम बीजों की कुर्बानी को
*
जब भी मां-बाप से कहता हूं शहर आने को 
तब वो मिट्टी उठा माथे से लगा लेते हैं
*
वो इक पौधा जो पत्थर पर उगा है
न जाने क्या सिखाना चाहता है
*
महका करती हैं वो हिज़्र की रातें भी 
याद तेरी जब कस्तूरी हो जाती है
*
जो कि ख़ुशहाली मुझे ताउम्र ना दे पाएगी 
वो समझ मुझको महज बदहालियों में आ गई
*
तब भ्रमर से पुष्प का मकरंद ही खतरे में था 
आजकल तो पुष्प की हर पंखुरी ख़तरे में है
*
जिस पीपल ने जितना ज़्यादा ताप सहा 
वो उतनी ही ज़्यादा छाया करता है
*
कभी भी जो पिघल पाते नहीं है 
किसी साँँचे में ढल पाते नहीं है 

समंदर को भी कमतर आँँकते हैं
कुएँ से जो निकल पाते नहीं हैं 

बदलना चाहते हैं हम ज़माना 
मगर खुद को बदल पाते नहीं है

अश्विनी के विचारों का ये सिलसिला तब टूटा जब उसे अचानक डॉक्टर की आवाज़ सुनाई दी 'बधाई हो ,इनका ऑपरेशन सफल हुआ है'।  उसके बाद पत्नी का भीगे स्वर में कहना 'धन्यवाद डॉक्टर साहब मैंने कहा था न कि मुझे आप पर और मेरे ईश्वर पर पूरा भरोसा है 'सुनाई दिया। ठीक तभी अश्विनी के कानों में दोनों बच्चों की आवाज़ आयी 'कैसे हो पापा'और अश्विनी ने कोशिश कर आँखें खोल दीं। उसने पत्नी और दोनों बच्चों को पास खड़े मुस्कुराते देखा और माँ की आँखों से टपकते आँसुओं को देखा फिर धीरे से अपना हाथ माँ के हाथ पर रख दिया। 'आपको एक हफ्ते बाद घर भेज देंगे ,घर पर ही अब आपको लम्बा आराम करना है ,समझे अश्विनी जी'डॉक्टर ने मुस्कुराते हुए कहा और कमरे से बाहर चला गया।  

घर पर काम ही क्या था सिवाय पढ़ने लिखने के। इस अवसर का भरपूर फायदा उठाया अश्विनी जी ने। अपनी पुरानी लिखी ग़ज़लों को एक बार फिर से पढ़ा जहाँ उचित लगा उन्हें ठीक किया और कुछ नयी ग़ज़लें भी कही। मित्रों और घरवालों ने इन ग़ज़लों को प्रकाशित करवाने का प्रस्ताव दिया और इस तरह 'अश्विनी त्रिपाठी'जी की पहली ग़ज़लों की किताब 'हाशिये पर आदमी'मंज़र-ऐ-आम पर आयी। 

इस किताब को जिसमें अश्विनी जी की 84 ग़ज़लें है को 'बोधि प्रकाशन जयपुर'ने प्रकाशित किया है।  इस किताब की प्राप्ति के लिए आप बोधि प्रकाशन के 'मायामृग'जी से 9829018087 पर संपर्क कर सकते हैं। भले ही अश्विनी जी की ये ग़ज़लें सीधी सरल भाषा में कही गयी हैं लेकिन इनका पाठक के सीधे दिल में उतर जाने की क्षमता पर संदेह नहीं किया जा सकता। इन ग़ज़लों के लिए आप अश्विनी जी को उनके मोबाईल न 8890628632 पर संपर्क कर बधाई दे सकते हैं। एक शायर के लिए उसके पाठकों से मिली प्रशंसा से बढ़ कर और कुछ नहीं होता।     
आखिर में पेश हैं इस किताब से लिए उनके कुछ और शेर :     


 बच्चे पढ़ना सीखे तब से 
अखबारों से डर लगता है 

माँँ कहती है झुकना सीखो 
जब चौखट पर सर लगता है
*
लोभ धोखा जालसाज़ी दिख रहे हैं वर्क़ पर 
आज खिसका जा रहा है हाशिए पर आदमी 

जिंदगी की अब ग़ज़ल कहना बहुत आसाँँ नहीं 
हर तरफ अटका पड़ा है काफ़िए पर आदमी
*
जिस दिन उस से आंखें चार नहीं होतींं 
उस दिन जाना पड़ता है मयखाने में 

तन से तन की दूरी कितनी कमतर है 
उम्र गुज़र जाती है मन तक जाने में 

मेरे भीतर इक भोला सा बच्चा है 
मर जाता हूँँ उसको रोज़ बचाने में
*
इंसानों को सिर्फ़ डराना ठीक नहीं 
डर अक्सर हथियारों से मिलवाता है





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