ज़िन्दगी तेरे पास क्या है बता
मौत के पास तो बहाने हैं
*
जिस्म मुजरिम है और रूह गवाह
ज़िंदगी इक बयान है प्यारे
*
ग़म, खुशी, आह, दर्द और आंसू
सबकी अपनी ज़बान है प्यारे
तुझको समझूं, लिखूं, पढ़ूं, सोचूं
तू मेरा इम्तिहान है प्यारे
*
क्या है मक़सद कहां निशाना है
तीर जाने कमान क्या जाने
*
किस इरादे से कौन पढ़ता है
ये भला इक किताब क्या जाने
घर की बर्बादियों के बारे में
घर में रखी शराब क्या जाने
कितने फूलों की हो गई तौहीन
ये महकता गुलाब क्या जाने
*
मुस्कुराने से रोकिए न मुझे
आंसुओं का दबाव भारी है
उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिले की तहसील कंठ के गांव पूरी रवाना में 10 जनवरी 1961 को जन्मे बच्चे को अपने पिता श्री राम गोपाल जी के प्लांट पर जाना बहुत प्रिय था । बचपन से ही उसके पिता उसे बड़े चाव से अपने साथ प्लांट ले जाते थेे। बाद में थोड़ा बड़ा होने पर वो खुद ही किसी ना किसी के साथ कोई ना कोई बहाना बनाकर वहाँ चला जाता। प्लांट में पड़े गन्ने के चट्टे याने ढेर और उसे क्रश करती विशालकाय क्रशर मशीन उस बच्चे के आकर्षण का विशेष केंद्र थी। वहीं पास ही में लगी लकड़ी काटने वाली आरा मशीनों ,धान मशीनों का शोर और ट्यूबवेल से निकलते पानी कि कल कल उसे बहुत भाती थी। प्लांट के सभी 40-50 मजदूर जब उसे देख कर मुस्कुराते हुए नमस्कार करते तो वो बहुत खुश होता।
नवीं कक्षा की परीक्षा में सर्वप्रथम आने की खुशी में उसके मित्र कब से उससे दावत की फरमाइश कर रहे थे लेकिन वो टालता जा रहा था। जब 'मतलबपुर'के 'कृषक उपकारक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय'के दसवीं कक्षा में आए इस बच्चे को क्लास का मॉनिटर घोषित कर दिया तब उसके मित्रों ने उस पर दावत करने का दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया । बच्चे ने एक दिन हाँ कर दी और अपने पिता से, जो उसकी कोई बात नहीं टालते थे, दावत के बारे में चर्चा करने का विचार लिए प्लांट की ओर कदम बढ़ाए। संपन्न घर परिवार के इस बच्चे के साथ उसके कुछ मित्र भी थे। सभी चहकते हुए प्लांट की ओर बढ़ रहे थे कि अचानक एक साथी ने लगभग चिल्लाते हुए कहा 'देखो उस तरफ कितना धुआँ उठ रहा है । बच्चे ने देखा कि धुआँ उसी ओर से उठ रहा था जिस और उसके पिता का प्लांट था । वो घबरा कर उस और दौड़ने लगा। सारे बच्चे उसके पीछे दौड़ने लगे । प्लांट में क्रशर मशीन के पास रखे हजारों टन गन्ने के ढेर में आग लगी हुई थी ।मजदूर उसे बुझाने का भरसक प्रयास कर रहे थे । चारों तरफ अफरा-तफरी का माहौल था । उसके पिता दूर ये सब देख कर सर पर हाथ धरे उदास एक कोने में बैठे हुए थे। ये सब देखकर बच्चे की आँख से टपाटप आँसू गिरने लगे।
यह दुनिया है यहां ऐसी भी धोखे खूब होते हैं
कि जैसे कोई चिड़िया आईने से चोंच टकराए
*
जो सच्चाई है वह तारीफ़ की मुहताज क्यों होगी
कि असली फूल पर कोई कहाँ खुशबू लगाता है
*
मैं जैसे वाचनालय में रखा अखबार हूँ कोई
जो पढ़ता है वो बेतरतीब अक्सर छोड़ जाता है
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हँसी को अब शरण मिल पाए अधरों पर नहीं संभव
तुम्हारे ग़म का शासन है हृदय की राजधानी में
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अक़ीदत है, मोहब्बत है, सियासत है कि मजबूरी
न जाने कौन सा रिश्ता है दरिया और समंदर में
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पराए हों कि अपने हों मगर सब खैरियत से हों
दुआ करते हैं हम हर रोज जब अखबार लेते हैं
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मैं सबका हूं सभी मेरे हैं सब का अंश है मुझ में
हवा का आग का आकाश का धरती का पानी का
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मोहब्बत की झुलसती धूप और कांटों भरे रस्ते
तुम्हारी याद नंगे पाँव घर आई तो क्या होगा
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मदारी और बंदर के विषय में भी जरा सोचो
किसे मिलता है पैसा और मेहनत कौन करता है
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बड़े होशियार हैं तालाब जो खामोश रहते हैं
मगर नादान हैं नदियाँ जो गिरती हैं समंदर में
आग तो जैसे तैसे बुझ गई लेकिन उसके बाद जला हुआ गन्ना इस लायक नहीं था कि उसे क्रश करके चीनी बनाई जा सके। लिहाज़ा उस गन्ने से घटिया दर्जे का गुड़ बनाया गया । इससे बहुत भारी नुकसान हुआ। बात यहीं खत्म नहीं हुई। कहते हैं मुसीबत कभी अकेले नहीं आती, गन्ने के ढेर में लगी आग अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि कुछ दिनों बाद ही क्रशर मशीन की मोटर की फाउंडेशन में दरार आ गई जिसकी वजह से मशीन एक महीने तक बंद रही । मजदूर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे, पूरे महीने एक पाई की आमदनी नहीं हुई लेकिन उन्हें पूरे महीने की पगार देनी जरूरी थी।
मजदूरों की पगार और किसानों से उधार लिये गन्ने का मूल्य चुकाने के लिए तुरंत मशीनों को बेचने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा था। लोगों ने भी दुनिया का दस्तूर निभाते हुए इस मौके का फायदा उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ी और रामगोपाल जी वर्मा के परिवार पर आई इस आपदा का भरपूर लाभ उठाया। मशीनों को लोहे के दाम पर बेचने पर मज़बूर कर दिया। प्लांट की जमीन भी सस्ते में बिक गई लेकिन फिर भी चुकाने को पर्याप्त धन इकठ्ठा नहीं हो पाया। आखरी विकल्प के रुप में वर्मा जी ने घर गिरवी रख दिया और तो और पूरे परिवार की लाडली भैंस 'भुई'और घर की शान बंदूक भी बेच देनी पड़ी।
पलक झपकते ही एक हँसता खेलता संपन्न परिवार फ़ाके करने को मजबूर हो गया। सुबह के खाने का किसी तरह इंतज़ाम होता तो शाम की चिंता सताने लगती और कभी तो पूरे परिवार को भूखे पेट ही सोना पड़ता। जहाँ रोज पेट भरने की समस्या मुँह बाये खड़ी हो वहाँ बच्चे की आगामी शिक्षा के बारे में सोचने की फ़िक्र किसे होती ? बच्चे ने दसवीं की परीक्षा तो किसी तरह पास कर ली लेकिन आगे क्या हो, ये प्रश्न सामने आ खड़ा हुआ। इंटर की पढ़ाई के लिए तो बच्चे को मुरादाबाद जाना पड़ता जो वर्तमान परिस्थितियों में असंभव था।
सिकुड़ जाते हैं मेरे पाँव खुद ही
मैं जब रिश्तों की चादर तानता हूं
*
नींदों की जुस्तजू में लगे हैं तमाम ख्वाब
सज-धज के आ गया है कोई उनके ध्यान में
*
चार आंसुओं का रोक न पाईं बहाव वो
जिन आँखों में हैं बाँधे समंदर कभी-कभी
*
कागज के फूल तुमने निगाहों से क्या छुए
लिपटी हुई है एक महक फूलदान से
ऐ दिल कहीं यकीन की उँगली न छूट जाय
बोझल हुए हैं पाँव सफ़र की थकान से
*
कुर्बत भी चाहता है मगर फासले के साथ
कैसी अजीब शर्त तेरी दोस्ती की है
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छोटे संबंधों के नाम
कोलन, कौमा, पूर्ण विराम
जाने क्या मजबूरी है
खु़द से ही हर पल संग्राम
*
मेरी बस्ती के चिराग़ों को बुझाने वाले
थे सभी लोग वो सूरज के घराने वाले
आज के अहद में जीने पे तअज्जुब होगा
दिन जो याद आए कभी भी बीते ज़माने वाले
निराशा के इस घोर अँधेरे में अचानक आशा की किरण बन कर बच्चे के पिता का एक परिचित युवक जो मुरादाबाद के 'जी.के.होम्योपैथिक कॉलेज'का विद्यार्थी था ,गाँव आया। युवक ने बच्चे के पिता को आश्वासन दिया कि वो अपनी जान पहचान की वजह से बच्चे का दाखिला मुरादाबाद के आयुर्वेदिक विद्यालय में निशुल्क करवा देगा और हॉस्टल में कमरा भी दिलवा देगा। पिता को जैसे मुँह मांगी मुराद मिल गयी। बच्चे का दिल भी ख़ुशी से बल्लियों उछलने लगा। मुरादाबाद जाने की कल्पना से ही खुश हो कर बच्चे की रातों की नींद ही उड़ गयी।
आखिर जल्द ही उस बच्चे की ज़िन्दगी में अपना घर गाँव छोड़ कर मुरादाबाद जाने वाला महत्वपूर्ण मोड़ आया । मुरादाबाद में ,अपने साथ लाए चंद कपड़ों ,एक स्टोव और थोड़े से राशन के सामान के साथ, बच्चे ने घर गाँव के साथ-साथ अपने बचपन को भी अलविदा कह दिया। पढाई के साथ साथ वो विपरीत परिस्थितियों में खुद को ढालते हुए जीवन को बेहतर बनाने के लिए संघर्ष करने लगा। उसने छोटे बच्चों की ट्यूशन लेनी शुरू की जिससे उसकी रोजमर्रा की ज़रूरतें पूरी होने लगीं।
उसे याद नहीं जिंदगी की मुश्किलों से दो दो हाथ करते हुए अपने मन के भावों को व्यक्त करने के लिए कब उसने कलम थामी। मुरादाबाद में उस्ताद ग़ज़लकारों की कमी नहीं। उनकी संगत में आने से इस बच्चे में, जिसका नाम कृष्ण कुमार वर्मा है, ग़ज़ल सीखने की ललक पैदा हुई। इसके चलते पहले उर्दू भाषा सीखी और फिर उरुज़ का ज्ञान प्राप्त किया। ग़ज़ल कहते कहते कृष्ण को अहसास हुआ कि ग़ज़ल महज उर्दू और उरूज जान लेने से नहीं कही जा सकती इस विधा को सीखने के लिए एक उस्ताद का होना जरूरी है। उस्ताद की खोज शुरू हुई।
मुस्कुराना है मेरे होठों की आदत में शुमार
इसका मतलब मेरे सुख-दुख से लगाता क्यों है
*
हमने माना कि तरक़्क़ी तो हुई है लेकिन
तीरगी आज भी क़ायम है चिरागों के तले
*
कूड़े के अंबार से पन्नी चुनते अधनंगे बच्चे
पेट से हटकर भी कुछ सोचे वक्त कहां मिल पाता है
ठंडा चूल्हा, खाली बर्तन, भूखे बच्चे, नंगे जिस्म
सच की राह पर चलना आख़िर नामुमकिन हो जाता है
*
चिंता, उलझन, दुख-सुख, नफ़रत, प्यार, वफ़ा आंसू मुस्कान
एक ज़रा सी जान के देखो कितने हिस्सेदार हुए
*
रह गई अपने-पराए की कहां पहचान अब
कितना सूना हो गया रिश्तों का पनघट इन दिनों
*
बेतहाशा तंज़ करता है दिये पर आज तक
एक टुकड़ा तीरगी का पाँव से लिपटा हुआ
*
फाइलों का ढेर, वेतन में इज़ाफ़ा कुछ नहीं
हाँ, अगर बढ़ता है तो चश्मे का नंबर आजकल
कतरने अख़बार की पढ़कर चले जाते हैं लोग
शायरी करने लगे मंचों पर हॉकर आजकल
*
रोशनी के वास्ते धागे को जलते देखकर
ली नसीहत मोम ने, उसको पिघलना आ गया
इस खोज का अंत जनवरी 1989 को मुरादाबाद में हर गणतंत्र दिवस पर होने वाले मुशायरे से हुआ। दोस्तों की सलाह पर मुशायरे के दौरान कृष्ण कुमार लखनऊ से पधारे उस्ताद शायर 'कृष्ण बिहारी नूर'साहब की बगल में जा बैठे और उनसे उनके घर का पता पूछा। दो दिन बाद उन्होंने 'नूर'साहब को पत्र लिखा जिसमें उनसे उनकी ग़ज़लों की किताब के बारे में जानकारी माँगी।नूर साहब ने जवाब में लिखा कि उनकी दो किताबें मंजर ए आम पर आई हैं 'दुख-सुख'और 'तपस्या', इनमें से सिर्फ़ 'तपस्या'ही ,जो उर्दू लिपि में है, बाजार में उपलब्ध है। जवाब में कृष्ण कुमार जी ने 'नूर'साहब को लिखा कि वो उर्दू ज़बान से वाकिफ हैं और साथ ही अपनी दो ग़ज़लें भी 'नूर'साहब को भेज दीं। ग़ज़लें नूर साहब को पसंद आई ं और उनमें से एक ग़ज़ल मुंबई से छपने वाली पत्रिका 'बज़्मे फ़िक्रो फ़न'में छपने भी भेज दी। जब कृष्ण कुमार जी ने नूर साहब से उनका शागिर्द बनने की इच्छा ज़ाहिर की तो उन्होंने कहा कि इसके लिए आप लखनऊ आएं।
नूर साहब से मिलने के लगभग एक साल बाद दिसंबर 1989 में कृष्ण कुमार लखनऊ गये ,जो अब 'नाज़'तख़्ल्लुस से ग़ज़ले कहने लगे थे। नूर साहब के घर पहूँच कर साथ लाया मिठाई का डिब्बा उनके हाथ में देकर उन्होंने नूर साहब के चरण स्पर्श किये। नूर साहब ने आशीर्वाद दिया और डब्बे में से मिठाई का पहला टुकड़ा कृष्णकुमार जी को खिला कर उन्हें अपना शाग़िर्द बनाना मंज़ूर किया।
जलो तो यूँ कि हर इक सिम्त रोशनी हो जाए
बुझो तो यूँ कि ना बाक़ी रहे निशानी भी
*
बदला अपने अहसाँ का उम्र भर नहीं चाहा
सीपियों ने बचपन से मोतियों को पाला है
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नाख़ुदा, नाव, पतवार, साहिल हमें
एक तुम क्या मिले, सब सहारे मिले
*
तू वो शक और और विश्वास का प्रश्न है
सब जिसे जोड़ते और घटाते रहे
*
तेरे नामों से तो सब है वाक़़िफ मगर
ये बता तुझको पहचानता कौन है
दिसंबर 1989 के उस दिन से लेकर नूर साहब की जिंदगी के आखिरी दिन याने 30 मई 2003 तक कृष्णकुमार 'नाज़'साहब पर नूर साहब का वरद हस्त रहा। इन 13 सालों में नूर साहब ने 'नाज़'साहब को ग़ज़ल के विभिन्न पहलुओं , छंद के प्रकार और भाषा की बारीकियों से अवगत कराया। उन्होंने कहा कि बरख़ुरदार तुम मुशायरों में जाओ , वहाँ शायरों को ध्यान से सुनो और गौर करो कि शायर को उसके किस क़लाम पर ज्यादा दाद मिलती है और क्यों ? शेर में रवानी का क्या असर होता है। 'नाज़'साहब ने नूर साहब की हर बात का अक्षरश: पालन किया। वो अपना लिखा नूर साहब को दिखाते और वो जिस शेर या ग़ज़ल को ख़ारिज करने को कहते उसकी वज़ह जान कर तुरंत हटा देते। नूर साहब'की रहनुमाई में ही नाज़ साहब की पहली किताब मंजर ए आम पर आई।
सन् 2007 में नाज़ साहब ने 'हिंदी ग़ज़ल के संदर्भ में कृष्ण बिहारी नूर का विशेष अध्ययन'विषय पर शोध कर पी.एच.डी. की डिग्री प्राप्त की। नाज़ साहब का ये शोध ग्रंथ नूर साहब पर किया गया सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है।
आज कृष्ण कुमार 'नाज़'साहब की ग़ज़लों की एक अनूठी किताब 'नई हवाएँ'की जानकारी और उसके चुनिंदा अशआर आप तक पहूँचा रहे हैं। बाजार में उपलब्ध ग़ज़लों की सैंकड़ों किताबों में से ये किताब इसलिए अनूठी है कि इसमें उर्दू ग़ज़ल की 18 अत्यधिक प्रचलित बहरों पर कही 120 ग़ज़लों का संकलन किया गया है। हर बहर के अरकान और उस बहर में कही ग़ज़लें एक साथ संकलित हैं। ग़ज़ल सीखने वालों के लिए इससे बेहतर किताब शायद ही कोई हो। इस किताब को 'किताबगंज प्रकाशन'गंगापुर सिटी राजस्थान ने प्रकाशित किया है।
ये किताब 'अमेजन'से ऑन लाइन भी मँगवाई जा सकती है। आप नाज़ साहब से 9927376877 अथवा 9808315744 पर मोबाईल से संपर्क कर सकते हैं। यकीन मानिए उनसे बात कर आप उनकी सहृदयता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। उनसे kknaaz1@gmail.comपर भी संपर्क किया जा सकता है।
आदमी की भूख मकड़ी की तरह है दोस्तो
और जीवन उसके जाले की तरह उलझा हुआ
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जिसकी खातिर आदमी कर लेता है खुद को फ़ना
कितना मुश्किल है बचा पाना उसी पहचान को
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ज़हन से उलझा हुआ है मुद्दतों से यह सवाल
आदमी सामान है या आदमी बाज़ार है
इस तरक्की पर बहुत इतरा रहे हैं आज हम
जूतियां सर पर रखी हैं पाँव में दस्तार है
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मैंने दुश्मन को भी खुश होकर लगाया है गले
दुश्मनी अपनी जगह, इंसानियत अपनी जगह
मैं परिंदे की तरह मजबूर भी हूँ क़ैद भी
हां मेरी ज़हनी उड़ानों की सिफ़त अपनी जगह
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थी कभी अनमोल, लेकिन अब तेरे जाने के बाद
ज़िंदगी फुटपाथ पर बिखरा हुआ सामान है
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सर झुकाने ही नहीं देता मुझे मेरा गुरूर
इक बुराई ने दबा लीं मेरी सब अच्छाइयाँ
कुछ दिनों तक तो अकेलापन बहुत अखरा मगर
धीरे-धीरे लुत्फ़ देने लग गई तनहाइयाँ
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यह सुख भी क्षणिक हैं यह दुख भी हैं वक़्ती
ये किसके हुए हैं, न तेरे, न मेरे
समाजशास्त्र, उर्दू और हिंदी विषयों में एम.ए.करने के बाद नाज़ साहब ने बी.एड. की परीक्षा पास की और फिर पी.एच.डी. की डिग्री भी हासिल की। मृदुभाषी नाज़ साहब विलक्षण प्रतिभा के धनी और जुझारू व्यक्तित्व के स्वामी हैं। माँ सरस्वती की उन पर विशेष कृपा रही है। उन्होंने न सिर्फ़ ग़ज़ल लेखन में महारत हासिल की बल्कि गीत, दोहा, कविता, नाटक तथा निबंध लेखन में भी कौशल दिखाया है। उनकी ये आठ किताबें इस समय बाजार में उपलब्ध हैं 'इक्कीसवीं सदी के लिए'(ग़ज़ल संग्रह), 'गुनगुनी धूप'(ग़ज़ल संग्रह), 'मन की सतह पर'(गीत संग्रह), 'जीवन के परिदृश्य'(नाटक संग्रह),'हिंदी ग़ज़ल और कृष्ण बिहारी 'नूर','नई हवाएँ'(ग़ज़ल संग्रह) और ग़ज़ल के विद्यार्थियों को उरूज आसानी से समझने के लिए बेहतरीन किताब 'व्याकरण ग़ज़ल का'।
नाज़ साहब के जीवन की कहानी हमें संघर्ष कर अपने सपनों को साकार करने की प्रेरणा देती है।उन्होंने जीवन में कभी हार नहीं मानी, विपरीत परिस्थितियों के समक्ष घुटने नहीं टेके। 'अमर उजाला'अखबार में उन्होंने सन 1989 'प्रूफ रीडर'के पद से नौकरी का आरम्भ किया और तीन वर्ष बाद ही उनका तबादला संपादकीय विभाग में हो गया। सन 1995 में उन्हें 'गन्ना विकास विभाग, मुरादाबाद में उर्दू अनुवादक के पद की सरकारी नौकरी मिल गई लेकिन 'अमर उजाला'वालों ने उनसे वहीं काम करते रहने की गुज़ारिश की, लिहाजा वो दोनों संस्थाओं में तीन सालों तक साथ साथ नौकरी करते रहे। दोनों जगह काम के बोझ के चलते उन्हें स्पोंडिलाइटिस व मोतियाबिंद भी हो गया लेकिन मुरादाबाद में अपना खुद का एक घर होने की चाहत ने इन तकलीफों को उन पर हावी नहीं होने दिया। आखिर 1998 में उन्होंने 'अमर उजाला'छोड़ दिया। 31 जनवरी 2021 को वो गन्ना विकास विभाग के लेखाकार पद से सेवानिवृत्त हुए।
अब अपना पूरा समय वो अपने द्वारा स्थापित 'गुंजन प्रकाशन'और लेखन पठन को देते हैं।
इस संघर्ष में उनके बचपन ने सीधा प्रौढ़ावस्था में कब कदम रख दिया ये पता ही नहीं चला। नाज़ साहब पर केन्द्रित 'निर्झरिणी'पत्रिका के अंक-12 में वो अपने बारे में लिखते हैं कि 'युवावस्था तक अभावों ने अपने बाहुपाश में जकड़े रखा।लेकिन ईश्वर हमेशा मेरी उंगली थामे रहा उसने मुझे कभी निराश नहीं किया। तमाम दिक्क़तों के बावजूद कभी मेरा कोई काम नहीं रुका ।मैंने कभी दौलतमंद दोस्त नहीं बनाए यह मेरा हीनताबोध भी हो सकता है ।जिंदगी के सफर में मुझे बहुत अच्छे-अच्छे लोग मिले। आज जब अतीत के झरोखों में झांकता हूं तो मेरी आंखें भीग जाती हैं ।लेकिन तभी मेरा आत्मबल मेरा कंधा थपथपाकर मेरा हौसला बढ़ाता है और कहता है - शाबाश, तुम्हारी मेहनत रंग लाई; और चलो, और चलो, चलते रहो, परिश्रम ही तुम्हारी पूजा है।
आईये अंत में उनके इन चंद चुनिंदा शेरों के साथ अपनी बात समाप्त करते हैं :
चांद को पाने की कोशिश करते-करते
जुगनू क़िस्मत का हिस्सा हो जाता है
मैं ठहरा सदियों से प्यासा रेगिस्तान
तू तो नदी है तुझको क्या हो जाता है
*
हाथ सेंकती हैं ख्वाहिशें
जिंदगी है या अलाव है
*
जिंदगी ये बता नाम क्या दूं तुझे
आशना, अजनबी, राहज़न, राहबर
*
जहां शरीर से लेकर ज़मीर तक बिक जाय
नई हवाओं ने छोड़ा वहां पे ले जाकर