समा सकती नहीं गुलशन की कोई शै निगाहों में
कि तुम को देखकर सू-ए-गुलिस्तां कौन देखेगा
सू-ए-गुलिस्तां :उपवन की ओर
*
यूं तो है हर शख्स़ हाजतमंद दुनिया में मगर
जिस के घर में कुछ न हो उसकी ज़रूरत देखिए
हाजतमंद: ज़रूरत मंद
*
यह किस्से चंद रोज़ा हैं भुला देगी इन्हें दुनिया
न रुसवा होके जाता है न कुछ आता है शोहरत से
*
क्या किनारे से ग़रज़ थी क्या ग़रज़ मझधार से
जिस जगह डूबी वही कश्ती का साहिल हो गया
*
चले ये कितना भी सहने चमन में इतरा कर
सबा को कब तेरा तर्ज़े-ए-ख़िराम आएगा
सबा: हवा, तर्ज़े ए ख़िराम : चलने का ढंग
*
मैं मुब्तिला ए फिक्र ए सुख़न हूं तो क्या हुआ
वो कौन है जहां मैं जिसे कोई ग़म नहीं
मुब्तिला ए फिक़रे सुख़न : काव्य चिंतन में लीन
*
जिंदगी के जो ये दो दिन हैं गुज़र जाएंगे
साथ अपनों के रहे या कहीं बेगानों में
*
वहशत है आज उसके हर इक क़ौल-ओ-फ़ैल में
इंसानियत थी जिनमें वो इंसा कहांँ गए
क़ौल-ओ-फ़ैल: कथनी और करनी
*
अभी है ज़हन में तामीर-ए-आशियां का ख़्याल
तड़प रही हैं अभी से ये बिजलियां क्या क्या
तामीर ए आशियां : नीड़ का निर्माण
*
चूंकि इक उम्र गुज़ारी थी इसी जिंदां में
सोच कर रह गया दीवार में दर कौन करे
छम छम गली, गुदड़ी मंसूर खां आगरा, स्थित दरगाह हज़रत क़ासिम शाह की मज़ार पर जो ख़ातून चादर चढ़ा कर दोनों हाथ उठाए खड़ी है, उसका नाम है 'माज़िदा'। दुआ मांग कर जब मुस्कुराती हुई 'माजिदा'मुड़ी तो पास खड़े उनके शौहर 'अब्दुल समद'साहब ने धीरे से उनसे पूछा 'बड़ी मुस्कुरा रही हो बेगम, अल्लाह से क्या मांगा?''बेटा'माजिदा ने लजाते हुए कहा और तेजी से अपनी माँ के घर की ओर चल पड़ी। उसकी बात सुनकर 'अब्दुल समद'भी मुस्कुराए बिना नहीं रह सके और ऊपर देख कर बुदबुदाते हुए कहा 'ऐ परवर दिगार, मेरी 'माजिदा'की मुराद पूरी करना'। 'अब्दुल समद'साहब जब अपने ससुराल में 'माजिदा'को छोड़ कर अपने घर की ओर रवाना हुए तो ख़ुशी से उनके पाँव जमीं पर नहीं पड़ रहे थे।
1 जनवरी 1925 के दिन 'माजिदा'को बेटा हुआ। नाम रखा गया 'अब्दुल सलाम'। नानी का पूरा घर नन्हें 'सलाम'की किलकारियों से गूँज उठा। मामू और खालाएँ बलाएँ लेने लगीं। अपनी हैसियत के हिसाब से 'सलाम'की नानी ने घर में जश्न की तैयारियां शुरू कर दीं । पर साहब ऊपर वाले का खेल भी अजीब होता है, जो उसके बाशिंदों को कभी समझ में नहीं आ सकता। जश्न की शहनाईयों की आवाज़ अभी धीमी भी नहीं पढ़ी थी कि माहौल में मातम छा गया । माजिदा'अपने दुधमुंहे बच्चे 'सलाम'को इस दुनिया में तन्हा छोड़ कर अचानक चल बसी।
इस बच्चे का 'दर्द'से रिश्ता तभी से क़ायम हो गया।
आबोहवा जो कल थी वही तो है आज भी
लेकिन चमन के फूलों पे वो ताज़गी नहीं
मैं क़ैस तो नहीं दर-ए-लैला को छोड़ जाऊं
ये इश्क़ इश्क़ है कोई दीवानगी नहीं
*
खुली हो आंख ही जिसकी क़फ़स में वो ये क्या जाने
किसे कहते हैं गुलशन और किसे वीराना कहते हैं
कभी देखा न आंखों से न तुझसे बात की मैंने
जहां वाले न जाने क्यों तेरा दीवाना कहते हैं
*
ये मतलब तो नहीं तुम एक को इनमें से कम कर दो
ख़नकते हैं जहांँ होते हैं दो बर्तन तो बर्तन से
*
क़ैद-ए-तन्हाई में क्या इसके सिवा हो मश्गला
खेलता रहता हूं अपने पांव की ज़ंजीर से
*
दरअस्ल ये हयात भी इक इम्तिहान है
देना है इम्तिहां यूं ही हर इम्तिहां के बाद
*
गुलों की आरजू में पहले कुछ कांटे भी पाले हैं
कि हमने पावों के कांटे भी कांटों से निकाले हैं
*
किया और फिर करके गाया नहीं
कभी हमने एहसां जताया नहीं
उसे याद करने से हासिल हो क्या
कभी जिसको दिल से भुलाया नहीं
बिन मां के दुधमुएँ बच्चे को संभालना आसान काम नहीं होता, लेकिन 'सलाम'की नानी, मामा और मामी ने इस काम को बखूबी अंजाम दिया। मामा-मामी रात-रात भर जागकर इनकी परवरिश करते रहे। हर छोटी बड़ी बात का नानी पूरा ध्यान रखतीं। फूफी, माँ का हक़ अदा करती रही ।इन सबके बीच 'सलाम'बड़े होने लगे ।
अपने मामूज़ाद भाई बहनों के साथ खेलते, फूफा की हवेली में धमाल मचाते और पास ही में बनी दरोगा जी की बड़ी सी हवेली की छत से पतंग उड़ाते 'सलाम'का बचपन गुज़रता रहा । हाँलाकि उनकी देखभाल करने को हर तरफ़ लोग थे लेकिन माँ की कमी उन्हें सालती रहती। थोड़ा बड़ा होने पर 'सलाम'अपने दद्दीहाल जो आगरा के ग़ालिब पुरा कलाँ में था रहने चले गए । जहां वालिद ने उनकी बेहतर परवरिश की ग़रज़ से अपनी शादीशुदा जिंदगी की दूसरी पारी का आगाज़ किया । शुरू में 'सलाम'को दीनी तालीम के लिए मोहल्ले की मस्जिद में दाखिला दिला दिया फिर कुछ अर्से बाद उनके वालिद ने उन्हें आगरा की 'शोएब मोहम्मदिया हाई स्कूल में दाखिला करा दिया जहां उनकी तालीम की बाकायदा इब्तेदा हुई ।उन दिनों आगरा में कहीं बिजली नहीं थी इसलिए स्कूल का काम चराग की रोशनी में किया करते थे। बरसो बाद जब बिजली आई तो पढ़ने लिखने में आसानी हुई।
तब के और अब के स्कूल की पढ़ाई में फ़र्क आ गया है । तब के मास्टर, आज की तरह बच्चों और उनके मां-बाप से डरे बिना, गलती करने पर बच्चों की तबीयत से पिटाई किया करते थे। 'सलाम'साहब के स्कूल के मास्टर 'फतेह मोहम्मद'जब बेंत से पिटाई करते तो पिटने वाले बच्चे को लगता जैसे किसी ने उसके हाथों में मेहंदी लगा दी है।चिल्लाने पर एक की जगह दो बेंत पड़ती। मार के डर से 'सलाम'कभी कभी तो रात भर जाग कर होमवर्क करते लेकिन मास्टर फ़तेह मोहम्मद फिर भी बेंत चलाने का कोई न मौका ढूंढ ही लिया करते थे।'सलाम'अपने दोस्तों को वो किस्से सुनाते हुए मज़े लेकर बताते कि उस पिटाई का भी अपना मज़ा हुआ करता था।
उसको तो अपने वादे का है हर घड़ी ख़्याल
क़ायम ज़बां पे अपनी मगर ख़ुद बशर नहीं
*
तमन्ना जिसको मंज़िल की न थी मंजिल पे जा पहुंचा
भटकता फिर रहा है वो जिसे अरमान-ए-मंजिल था
*
चमन का हाल ख़ुदारा न पूछिए मुझसे
कुछ ऐसे गुल भी यहांँ हैं जो मुस्कुरा न सके
*
आराम मिलेगा क्या घर जैसा कहीं हमको
यूं जाके कहीं रहलो घर कुछ भी हो कहो घर है
*
है जुस्तजू इस दिल को रह ए इश्क में किसकी
जब आ गई मंजिल तो ठहर क्यों नहीं जाता
*
देखा तो दिलो जां से उसी पर मैं फिदा हूं
जिस शोख़ के दामन की हवा तक से बचा हूं
किस कैफ़ के आलम में तेरे दर से चला था
गोया कि अभी तक तेरे दर पर ही खड़ा हूं
*
बहुत चाहा मोहब्बत को मोहब्बत ही कहे दुनिया
मगर उसने हक़ीक़त को बनाकर दास्तां छोड़ा
*
यही दिन-रात यारब रास आ जाएं कभी शायद
यूं ही ये सुबह रहने दे यूं ही ये शाम रहने दे
*
उसको रुकना पड़ा वही आखिर
जिसका जिस जा मुक़ाम आया है
स्कूल छोड़ने के बाद भी वो तालीम के लिए बेचैन रहे। पढ़े लिखे लोगों की सोहबत और किताबों से मोहब्बत की वजह से उनकी तालीम का सिलसिला बंद नहीं हुआ ।इसी बीच उन्हें शायरी का शौक चढ़ा और वो 'दर्द'तख़ल्लुस से गजलें कहने लगे ।शायद 'दर्द'के अलावा कोई दूसरा तख़ल्लुस उन्हें रास भी नहीं आता । घर के पास ही एक बाग था जिसमें मशहूर शायर जनाब 'सीमाब अकबराबादी'सुबह-शाम चहल क़दमी किया करते थे ।'दर्द'साहब से उनकी रोज गुफ्तगू होती और शायरी के हवाले से वो उन्हें बहुत सी बातें बताया करते। सीमाब साहब से मुलाकातों का नतीज़ा कहें या फिर उनके अंदर बसा तन्हाई का दर्द ,जो भी समझें , उन्होंने महज़ 15 साल की उम्र में शायरी का आगाज़ कर डाला और ग़ज़लें कहने लगे ।आगरा और उसके आसपास होने वाले मुशायरों में पहले सुनने जाने लगे और फिर धीरे धीरे शिरकत करने लगे। शायरी भी नशे की लत की तरह है एक बार लग जाय तो फिर मुश्किल से छूटती है। आगरा, वो भी चालीस के दशक का, तब उसका हर घर उर्दू शेरो-अदब की एक अंजुमन नज़र आता था। जहाँ लोग इस सलीक़े और शाइस्तगी से गुफ़्तगु करते थे कि बात बात पे फूल झड़ें और मज़ाक ही मज़ाक में तुरंत शेर पढ़ दिए जाएँ ,आखिर ये वही आगरा था जिसमें नज़ीर अक़बराबादी के दौर में तरबूज़ की फांके बेचने वाला भी 'मनफाश फरोश दिल सद पारह ख़्वेशाम'याने 'मैं अपने टुकड़े टुकड़े दिल की एक एक फाँक बेचता हूँ 'की सदायें लगाता नज़र आता था। आगरा के इस माहौल में दर्द साहब की शायरी परवान चढ़ी।
वालिद साहब ने जब देखा कि उनके शहजादे स्कूल तो खैर बीमारी की वजह से नहीं जा पा रहे लेकिन शायरी में मुकम्मल तौर पर ग़र्क़ होने की ओर बढ़ रहे हैं तो उन्होंने उनके क़दमों में नकेल डालने की गरज़ से आगरा के तिकोनिया बाज़ार में एस.एम बारी के नाम से मशहूर दुकान पर बिठा दिया जिसमें ग्लास वेयर, गैस वेयर, क्राकरी और कटलरी का सामान बिकता भी था और किराए पर भी जाता था। हज़रत दुकान पर बैठ तो गए लेकिन दिमाग शायरी में ही उलझा रहा। जनाब रात को दुकान बढ़ाते ही किसी नशिस्त या मुशायरे में शिरकत के लिए पहुँच जाते। इसी के साथ इन्हें गाने बजाने का शौक़ भी चर्राया सो रात में कभी हारमोनियम तो कभी वॉयलिन बजाते और गाते। बाजार में बैठने की वजह से लोग अब इन्हें पहचानने भी लगे थे। दुकान पर बैठने का सिलसिला भी लम्बा नहीं चला क्यूंकि दुकान ढंग से न चलने की वजह से बंद हो गयी। नाई की मंडी में वालिद साहब की ब्रश फैक्ट्री थी लिहाज़ा अब दर्द साहब वहां जाने लगे। इसी बीच उन्हें एक बार अपने खालू के पास जयपुर जाने का मौका मिला। खालू 'दर्द'साहब के हुनर को पहचान गए लिहाज़ा उन्होंने दर्द साहब के वालिद से गुज़ारिश की की वो उन्हें जयपुर भेज दें। वालिद साहब को भी ये बात ठीक लगी क्यूंकि आगरा में रह कर उनका सुधारना उन्हें नामुमकिन लग रहा था।
तेईस साल के नौजवान अब्दुल सलाम 'दर्द'अक़बराबादीआगरा को हमेशा के लिए अलविदा कह कर जयपुर चले आये और अपने आखरी वक़्त तक जयपुर की शायरी की महफिलों को रौशन करते रहे। उन्हीं की ग़ज़लों की किताब 'आबशारे ग़ज़ल'अभी हमारे सामने है। इस किताब में दर्द अक़बराबादी साहब की चुनिंदा उर्दू ग़ज़लों का जयपुर के वरिष्ठ शायर जनाब मनोज मित्तल'कैफ़'ने हिंदी में अनुवाद (लिप्यांतरण) किया है। ये किताब सं 2010 में जयपुर के 'अदबी संगम'और 'काव्यलोक'संस्थाओं के प्रयासों से मन्ज़रे आम पर आयी। किताब खरीद कर पढ़ने वाले शौकीनों के लिए अब इसका मिलना अगर असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है।
दिल वो जो तेरी याद से ग़ाफिल नहीं होता
उस दिल से सनम ख़ाने का पत्थर है ग़नीमत
जिस दिल में कोई दर्द न हो दिल नहीं होता
*
काकुल-ओ- जुल्फ़ पे बेकार ख़फ़ा होते हो
आईना सामने रखते न परेशां होते
अश्कबारी मेरी ऐ काश कुछ ऐसी होती
मेरे आंसू तेरी पलकों से नुमायां होते
*
किया है तौक़-ओ-सलासिल को ज़ेब-ए-तन हमने
क़फ़स में रह के भी हम बांकपन से गुज़रे हैं
तौक-ओ-सलासिल: बेड़ी और जंजीर, ज़ेब-ए-तन: श्रृंगार
*
यहां किसी की नज़र में नहीं कोई क़ातिल
क़दम क़दम पे मगर क़त्लेआम होता है
ये मैकशों की नज़र का फ़रेब है वर्ना
न मैकदा ही किसी का न जाम होता है
*
कुछ इख़्तियार जिसको हुकूमत से मिल गया
उसने जो कुछ भी चाहा सहूलत से मिल गया
मिलता है बे सबब भी किसी से कोई यहां
मिलना था उसको अपनी ज़रूरत से मिल गया
*
लम्हे जो ज़िंदगी में गुज़ारे तेरे बग़ैर
लम्हे वो ज़िंदगी के सभी रायगां गए
रायगां: व्यर्थ
'दर्द'साहब के खालू जनाब एस.एम.इस्लाम साहब की जयपुर में तीन दुकानें थीं, एक जनरल मर्चेंट की, एक सिगरेट की और एक आर्म एम्युनेशन की। खालू तीन दुकानें संभालने में ख़ासे परेशां हो रहे थे लेकिन उनका मक़सद 'दर्द'साहब को सिर्फ़ इन दुकानों की देखभाल के बुलाना नहीं था। असल में वो इन्कमटेक्स के तकादों से परेशां थे क्यूंकि पिछले पांच सालों में उन्होंने इन दुकानों के बही खाते ही तैयार नहीं किये थे। 'दर्द'साहब जयपुर आये उन्होंने सबसे पहले बहीखाते तैयार किये और इन्कमटेक्स के अफसरों के सवालों का तसल्लीबख़्श जवाब भी दिया जिससे खुश हो कर इनकम टेक्स डिपार्टमेंट ने खालू पर कोई टेक्स नहीं लगाया।'दर्द'साहब की मेहनत और होशियारी देख कर खालू बहुत ही खुश हुए और सोचने लगे कि क्या किया जाय ताकि 'दर्द'को आगरा याद ही न आये। हक़ीक़त तो ये थी कि जयपुर की चौड़ी सड़कें, खूबसूरत बाजार ,गुलाबी रंग, तीन और से शहर को घेरे पहाड़, उन पर बने हैरतअंगेज़ किले ,बड़े बड़े बागीचे, महल और झील देख कर 'दर्द'खुद भी वापस आगरा नहीं जाना चाहते थे। जब खालू ने 14 अगस्त 1955 को जयपुर में ही उनका निकाह करवा दिया तो 'दर्द'साहब के आगरा कूच करने के इरादों पर हमेशा के लिए बर्फ़ गिर गयी।
जयपुर से मोहब्बत और जयपुर में ही निक़ाह के अलावा 'दर्द'साहब की आगरा वापस न जाने की एक और बड़ी वजह थी उनके खालू 'इस्लाम'साहब का शेरो शायरी से बेहद लगाव। 'इस्लाम'साहब की दोस्ती जयपुर के सभी बड़े और नामवर शायरों से थी। उनके घर अक्सर शेरो-सुख़न की महफिलें जमतीं। इस्लाम साहब के यहाँ'जिगर मुरादाबादी'और 'जोश मलीहाबादी'जैसे शायर क़याम करने आते। 'दर्द'साहब ऐसी महफ़िलों का हिस्सा बनते और बहुत कुछ सीखते। ये सिलसिला सालों चला। इस बीच 'इस्लाम'साहब की माली हालत बद से बदतर होती चली गयी तीनों दुकानें भी हाथ से निकल गयीं और इस्लाम साहब लम्बी बीमारी के बाद इस दुनिया से रुख़्सत हो गए।
'दर्द'साहब ने अपने साले 'मुहम्मद उस्मान'के साथ मिल कर जयपुर के मशहूर जौहरी बाजार की जामा मस्जिद के नीचे बनी एक दुकान में कपड़ों का काम शुरू किया। 'वैरायटी क्लॉथ स्टोर'नाम की ये दुकान आज भी इस बाज़ार में खूब चल रही है। 'दर्द'साहब ने पच्चीस सालों तक जामा मस्जिद का हिसाब किताब भी संभाला। ज़िन्दगी जब पटरी पर आयी तो 'दर्द'साहब शायरी में डूबने लगे। दुकान पर जयपुर के अदबी लोगों का जमावड़ा लगता। 'दर्द'साहब की शायरी को संवारने में जयपुर के उस्ताद शायर मुंशी 'मनमोहन लाल'"बिस्मिल"जनाब 'मोहम्मद इक़बाल हुसैन 'ख़लिश'अकबराबादी , क़ाज़ी अमीनुद्दीन 'असर' , टोंक के जनाब 'साजिद हुसैन'और 'राही शहाबी'का नाम ख़ास तौर पर लेने लायक है। 23 जनवरी 1967 को अलहाज 'क़मर'वाहिदी के यहाँ 'दर्द'साहब ने पहली बार अपनी ग़ज़ल पढ़ी और उसके बाद कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा।
गुल तो गुल इस बार कांटे भी परीशां हो गए
पहले ऐसा तो कभी दौर-ए-ख़िज़ां देखा न था
*
मंजर तो गुलिस्तां के न थे ऐसे दिलफरेब
धोखे में जाने अहल-ए-चमन कैसे आ गए
*
आठों पहर ही दैर-ओ-हरम में रहा है तू
फिर भी तेरी तलाश में दैर-ओ-हरम रहे
*
जिसको अपना कह दिया तुमने तो फिर उसके लिए
ये ज़मीं कुछ भी नहीं वो आसमां कुछ भी नहीं
*
सियासत कल भी थी अहल-ए-सियासत थे यहांँ कल भी
मगर इस दौर का रंग-ए-सियासत और ही कुछ है
*
किसने खाई न रात में ठोकर
किस की किस्मत में हादसात नहीं
*
क्या सुनेंगे ये भला पत्थर के लोग
हमने तोड़ा भी तो पैमाना कहां
हम से बेख़ुद क्या बताएं अब तुम्हें
काबा किस जा है सनम ख़ाना कहां
*
दिल मेरा अभी जवां है 'दर्द'से तुम पूछ लो
ज़िंदगी की कशमकश ने जिस्म बूढ़ा कर दिया
*
सलीक़ा हमें ही नहीं मांगने का
खज़ाने में उसकी भला क्या कमी है
जयपुर के वरिष्ठ रचनाकार श्री मुकुट सक्सेनाऔर श्री सोहन प्रकाश 'सोहन'जी जिन्होंने दर्द साहब के साथ बहुत सी नशिस्तों में हिस्सा लिया उन्हें याद करते हुए बताते हैं कि ''दर्द साहब बहुत ही सरल और सादा जीवन जीने वाले व्यक्ति थे। आप हर संस्था की गोष्ठी और कार्यक्रमों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते और पूरे वक़्त तक बैठे रहते। छोटे और बड़े रचनाकार की अच्छी रचनाओं पर खुल कर दाद देते। उनका सबसे बहुत दोस्ताना व्यवहार रहता था। वो हर दिल अजीज़ थे। किसी ने कभी भी उनके मुँह से किसी की बुराई नहीं सुनी न ही उन्हें किसी ने कभी किसी पर नाराज़ होते देखा । 'सोहन'जी उन्हें याद करते हुए भाव विभोर हो कर बताते हैं कि इतने बड़े क़द के शायर मेरी 'लूना'पर बड़ी बेतकल्लुफी से बैठ कर नशिस्तों में चले जाया करते। सोहन जी उनकी उम्र का ध्यान करते हुए बहुत सावधानी से डरते हुए लूना चलाते और वो आराम से पीछे बैठे अपनी ही किसी ग़ज़ल को गुनगुनाते रहते। एक बार दर्द साहब को किसी संस्था ने सम्मान स्वरुप माँ सरस्वती की धातु की मूर्ती प्रदान की उन्होंने फोन कर सोहन जी को बुलाया और कहा कि 'भाई सोहन जी मुझे ये माँ सरस्वती की मूर्ती मिली है और इसकी पवित्रता का ख़्याल रखना बहुत जरूरी है इसलिए इसे आप ले जाएँ और अपने मंदिर में प्रतिष्ठित कर रोज़ पूजा करें और मेरी तरफ से फूल चढ़ाया करें। 'सोहन'जी गदगद होते हुए बताते हैं कि ये मूर्ती आज भी उनके मंदिर की शोभा बढ़ा रही है।
'दर्द'साहब नशिस्तों और मुशायरों में जब अपना क़लाम लाजवाब तरन्नुम में पढ़ते तो भरपूर दाद से नवाज़े जाते। यहाँ आपको ये बताता चलूँ कि उन्होंने 292 से अधिक तरही मिसरों पर ग़ज़लें कहीं जो 'दर्द और दरमाँ'किताब में सिलसिलेवार दर्ज़ हैं। इसके अलावा 'गुल हाए रंग रंग'और 'याद-ए-माजी'भी उनकी देवनागरी में प्रकाशित हुई किताबें हैं। बड़े अफ़सोस की बात है कि अब इनमें से कोई भी क़िताब आसानी से बाजार में नहीं मिलेगी। 'दर्द'साहब को जयपुर की बहुत सी नामवर संस्थाओं ने सम्मान से नवाज़ा जिनमें राजस्थान उर्दू अकादमी, काव्यलोक, राजस्थान पत्रिका, अदबी संगम, मिर्ज़ा ग़ालिब सोसाइटी , पिंक सिटी प्रेस क्लब और मित्र परिषद विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
उम्र के आखरी पड़ाव में उनकी सेहत में लगातार गिरावट आती रही उन्हें प्लूरेसी, एग्ज़िमा ,पीलिया, मोतियाबिंद हार्ट अटेक ,पाइल्स और प्रोस्टेट जैसी सभी गंभीर बीमारयां हुईं लेकिन कोई बीमारी उनके शायरी के ज़ज़्बे को कमज़ोर नहीं कर पायी। बीमारियों के लश्कर के साथ वो आखरी दम तक नशिश्तों और मुशायरों में झूम झूम कर अपना क़लाम पढ़ते रहे। 16 जनवरी 2011 को ज़िन्दगी के 86 साल पूरे करने के बाद इस दुनिया से रुख़्सत हो गए। जोहरी बाजार में उनके द्वारा शुरू किया 'वैराइटी क्लॉथ स्टोर'और 'जमा मस्जिद'आज भी ज्यूँ का त्यूँ है बस नहीं हैं तो जनाब 'अब्दुल सलाम दर्द अकबराबादी साहब।
आखरी में उनकी ग़ज़लों के कुछ शेर और पढ़वाय देता हूँ :
तुम अपने इश्क़ से वाबस्ता मुझको रहने दो
सुलगती आग में शामिल धुआं भी होता है
*
हां बहुत देख ली अक़्ल-ओ-ख़िरद की दुनिया
बेझिझक अब कोई दीवाना बना दे मुझको
अक़्ल ओ ख़िरद: बुद्धि और विवेक
*
दिल का सुकून कहते हैं ए दोस्त जिसको हम
पुख़्ता मकां में है न वो मिट्टी के घर में है
*
हमारे पांव में जो देखकर ज़ंजीर हंसते हैं
किसी दिन वो भी अपने पांव में ज़ंजीर देखेंगे
*
किसी का ग़म हो रग-रग में तो फिर ऐसा ही होता है
छलक पड़ते हैं आंखों के कटोरे मुस्कुराने से
*
काम लाखों पड़े हैं करने को
और दो दिन की ज़िंदगानी है
*
जब न आने की बात करते हो
जान जाने की बात करते हो
क्या तुम्हें हम भी याद आते हैं
भूल जाने की बात करते हो
फिर बुरा कहते हो ज़माने को
फिर ज़माने की बात करते हो
*
रातें ही बस मिलेगी यहां एतिबार की
दिन ढूंढते हो आप कहां ऐतिबार के