दूर ही से चमक रहे हैं बदन
सारे कपड़े कुतर गया सूरज
पानियों में चिताएँ जलने लगीं
नद्दियों में उतर गया सूरज
साजिशें ऐसी की चरागों ने
वक्त से पहले मर गया सूरज
*
दुनिया है जंगल का सफर
लक्ष्मण जैसा भाई दे
सोने का बाजार गिरा
मिट्टी को मँहगाई दे
*
सब ने रब का नाम लिखा तावीजों पर
लेकिन मैंने अपनी मांँ का नाम लिखा
*
घर के लोगों का मान कर कहना
अपनी हस्ती मिटा रहा हूंँ मैं
*
अपने चेहरे का कुछ ख्याल नहीं
सिर्फ शीशे बदल रहे हैं लोग
शाम है दोस्तों से मिलने की
ले के ख़ंजर निकल रहे हैं लोग
*
वो गौतम बुद्ध का हामी नहीं है
मगर घर से निकलना चाहता है
'मैंने तुम्हारी बल्लेबाज़ी देखी वाह वाह क्या खूब बैटिंग करते हो मियाँ, ज़िंदाबाद'। इंदौर के एक क्लब मैच में लंच टाइम पर आये सलामी बल्लेबाज़ से एक बुजुर्ग ने कहा। 'तारीफ़ के लिए बहुत शुक्रिया आप जैसे बुजुर्ग कद्रदानों से तारीफ़ सुनकर अच्छा लगता है'युवा बल्लेबाज़ ने जवाब दिया। थोड़ी देर बाद लंच पैकेट हाथ में लिए वो युवा उस बुजुर्ग के पास आकर बैठ गया और बोला 'लगता है आप क्रिकेट के पुराने खिलाड़ी हैं मेरी बल्लेबाज़ी में कोई कमी हो तो बताएं।'बुजुर्ग मुस्कुराये और बोले देखो मियाँ कभी कभी तुम शॉट खेलने में जल्दबाज़ी कर जाते हो ,भले ही उस शॉट से तुम्हें बाउंडरी मिले लेकिन देखने वाले को मज़ा नहीं आता। शॉट वो होता है जो बिना अतिरिक्त प्रयास के खेला जाय जिसे अंग्रेजी में कहते हैं 'एफर्टलेस शॉट'इस शॉट को खेलने के लिए आपकी टाइमिंग और बल्ले का एंगल खास रोल अदा करता है। एफर्टलेस शॉट एक खूबसूरत शेर की तरह है जो सीधा पढ़ने सुनने वाले के दिल में जा बसता है और पढ़ने सुनने वाला अपने आप वाह कहते हुए तालियाँ बजाने पर मज़बूर हो जाता है।'युवा बल्लेबाज़ का मुँह खुला का खुला रह गया वो बोला 'हुज़ूर आज पहली बार मुझे किसी ने क्रिकेट और शायरी के आपसी रिश्ते को समझाया है। आप थोड़ा और खुल कर बताएं। 'बुजुर्ग मुस्कुराये और बोले 'तुम शायरी करते हो ?''जी नहीं -कभी कोशिश की थी फिर छोड़ दी , मैं अलबत्ता कहानियां लिखता हूँ। 'युवा ने कहा। अच्छा तो कभी अपनी कोई शायरी मुझे सुनाना या पढ़वाना , ये रहा मेरा पता, बुजुर्ग ने जेब से एक कार्ड युवा को देते हुए कहा 'जी जरूर , मैं आपसे मिलने जरूर आऊंगा लेकिन अभी थोड़ा वक़्त है तो आप क्रिकेट के हवाले से शायरी पे और रौशनी डालें।'युवा ने कहा और लंच पैकेट एक तरफ रख दिया।
बुजुर्ग ने एक नज़र खाली मैदान पे डाली और फिर कुछ सोचते हुए बोले 'देखो कोई मफ़हूम या विषय या कोई बात तुम्हारे दिमाग में आयी तो समझो ये क्रिकेट बाल है जो किसी ने तुम्हारी और फेंकी अब तुम्हें लफ़्ज़ों के बल्ले से इसे सुनने पढ़ने वालों के दिल में उतारना है याने चौका या छक्का लगाना है। तो बल्ले का याने लफ़्ज़ों का इस्तेमाल इस सहजता से करो की मफ़हूम जब लफ़्ज़ों में पिरोया जाय तो मज़ा आ जाए। मफ़हूम को जबरदस्ती ठूंसे गए लफ़्ज़ों में मत बांधो याने बल्ले को तलवार की तरह मत चलाओ उसे इस सलीके से बल्ले से टकराने दो की मफ़हूम खुद बखुद सामईन के दिल तक पहुँच जाये याने बाउंड्री पार कर ले। बल्लेबाज़ी और शेर गोई में जल्दबाज़ी नहीं होनी चाहिए। सहजता होनी चाहिए। जितनी सहजता होगी बल्लेबाज़ी उतनी ही पुख्ता होगी और शेर उतना ही पुर असर होगा।
उम्र की अलमारियों में एक दिन
हम भी दीमक की ग़िज़ा हो जाएंगे
ग़िज़ा: भोजन
*
जो भाइयों में थी वो मोहब्बत चली गई
गेहूं की सौंधी रोटी से लज़्जत चली गई
विरसे में जो मिली थी वो तलवार घर में है
लेकिन लहू में थी जो हरारत, चली गई
*
कभी पैरों में अंगारे बंधे थे
मगर अब बर्फ़ बालों में मिलेगी
मैं मंजिल हूं न मंजिल का निशां हूं
वो ठोकर हूं जो रास्तों में मिलेगी
*
ये बिखरी पत्तियां जिस फूल की हैं
वो अपनी शाख पर महका बहुत है
समंदर से मुआफ़ी चाहते हैं
हमारी प्यास को क़तरा बहुत है
*
लोग उसको देवता की तरह पूजने लगे
जिस आफ़ताब ने मेरी बीनाई छीन ली
होटल में चाय बेचते फिरते हैं वो ग़रीब
जिन मोतियों से वक्त ने सच्चाई छीन ली
*
मेरे लबों में कोई ये सूरज निचोड़ दे
तंग आ चुका हूं अपने अंधेरे मकान से
हम जिस युवा की बात कर रहे हैं उसका जन्म 15 जून 1944, कन्नौज यू पी, जो पहले डिस्ट्रिक्ट फर्रुख्खाबाद में था, में हुआ। यहाँ मैं बताता चलूँ कि कनौज अपने इत्र के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है। कनौज से लखनऊ होते हुए ये युवा आखिर में इंदौर आ कर बस गया। इंदौर शहर में ही उसने अपनी पूरी तालीम हासिल की। इंदौर के वैष्णव पॉलिटेक्निक कॉलेज से मेकेनिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा किया और दिसंबर 1964 से बॉयलर डिपार्टमेंट में सरकारी मुलाजमत करने लगा। पूरे 40 साल मुलाजमत करने के बाद सन 2004 में रिटायर हो गया।
अधिकतर इंसान रिटायरमेंट को अपनी ज़िन्दगी का आखरी मुकाम समझ लेते हैं जो कि उम्र के हिसाब से हर नौकरी पेशा को हासिल होती ही है लेकिन उम्र कुछ लोगों के लिए सिर्फ एक नंबर है ऐसे इंसान रिटायर भले हो जाएँ अंग्रेजी वाले 'टायर'कभी नहीं होते याने कभी थकते नहीं ,कुछ न कुछ करते ही रहते हैं। वैसे भी जो इंसान अपनी ज़िन्दगी में बढ़िया खिलाड़ी रहा हो वो उम्र से कभी नहीं हारता। ये युवा आज 77 साल की उम्र में जेहनी तौर पर उतना ही जवान है जितना उस वक़्त था जब उसके बैट से क्रिकेट बॉल टकरा कर सनसनाती हुई बाउंड्री पार कर जाया करती थी। पहली फुर्सत में वो आज भी टीवी या मोबाईल पर क्रिकेट मैच देखने से नहीं चूकता। .
इस दिल से युवा शायर का नाम है जनाब 'तारिक़ शाहीन'जिनकी ग़ज़लों की किताब 'कड़वा मीठा नीम'आज हमारे सामने है जिसे रेडग्रैब बुक्स प्राइवेट लिमिटेड ने प्रकाशित किया है। ये किताब आप अमेजन या फ्लिपकार्ट से ऑन लाइन मंगवा सकते हैं। मेरा मशवरा है कि इस ख़ूबसूरत क़िताब को हिंदी पाठकों के लिए मंज़र-ऐ-आम पर लाने के लिए जनाब पराग अग्रवाल साहब को उनके मोबाइल न 9971698930 पर संपर्क कर शुक्रिया अदा करें और जनाब तारिक़ शाहीन साहब को लाज़वाब शेरों के लिए उनके मोबाईल न 9893253546 पर संपर्क कर मुबारक़बाद जरूर दें।
सिर्फ दो गज़ ज़मीं हूँ सिमटूँ तो
और फैलूँ तो आसमां हूंँ मैं
मुझको खुद में तलाश कीजेगा
तुम जहांँ हो वहांँ-वहांँ हूंँ मैं
*
मौत सारी अनासिर उड़ा ले गई
देखती रह गई जिंदगी साहिबों
और आगे बढ़ा हूंँ कड़ी धूप में
जब भी बढ़ने लगी तिश्नगी साहिबों
*
लो हो चुका तैयार मेरा घर मेरा आँगन
अब काम तुम्हारा है बढ़ो आग लगाओ
*
मुझे पसंद नहीं सेज के गुलाबी फूल
ये काली रात, सियाह नाग दे तो बेहतर है
तमाम उम्र कहीं जंगलों में कट जाए
ये जिंदगी मुझे बैराग दे तो बेहतर है
*
सबक उससे कोई ले दोस्ती का
जो दुश्मन पर भरोसा कर रहा था
*
जो जल रही थी खोखले नारों के दरमियां
उन मशअलों को वक्त की आंधी निगल गई
चांँद अपने केंचुली में कहीं दूर जा छुपा
सूरज उगा तो रात की नागिन कुचल गई
रिटायरमेंट के बाद जो मज़े का काम उनके साथ हुआ वो बिरलों के साथ ही हुआ होगा। हुआ यूँ कि उनके एक दोस्त थे जो नवभारत टाइम्स में पत्रकार थे और काँग्रेस के बड़े नेता भी थे वो अक्सर शाहीन साहब से उर्दू की तालीम हासिल किया करते थे। शाहीन साहब की उर्दू ज़बान और उर्दू साहित्य पर पकड़ के क़ायल थे। उन्हीं दिनों जब शाहीन साहब सरकारी नौकरी से रिटायर हुए भारत सरकार की मिनिस्ट्री ऑफ इन्फॉर्मेशन और ब्रॉडकास्टिंग की तरफ फ़िल्म सेंसर बोर्ड के मेंबरस की नियुक्तियाँ हो रही थीं चुनाचे उनके दोस्त ने उन्हें फिल्म सेंसर बोर्ड का मेंबर बनवा दिया। शाहीन साहब की फिल्मों में बचपन से रूचि थी। उनके फिल्मों पर लिखे लेख इंदौर के अखबारों में नियमित छपते थे। तो ये हुआ न मज़े का काम फ़िल्में देखो और मेंबर बनने की फीस अलग से सरकार से लो। एक पंथ दो काज वाली बात हो गयी। उस दौरान उन्होंने 'एक था टाइगर जैसी'बड़ी छोटी 103 फ़िल्में अपने कार्यकाल में पास कीं। किसी वजह से वो सेंसर बोर्ड का काम छोड़ तो आये लेकिन खाली नहीं बैठे या यूँ कहें कि उनकी क़ाबलियत ने उन्हें ख़ाली नहीं बैठने दिया। तभी उनके पास आधार कार्ड डिपार्टमेंट से ऑफर आया और वो वेरिफायर की हैसियत से आधार कार्ड से जुड़ गए और लगभग पाँच-सात साल तक जुड़े रहे। इसके अलावा उन्होंने मध्यप्रदेश मदरसा बोर्ड की हाई -स्कूल और हायर-सेकेंडरी स्कूल कोर्स की विभिन्न विषयों पर लगभग 16 किताबें लिखीं जो बोर्ड में कई साल चलीं।
अब आप ही बताएँ, है कोई ऐसा शख़्स आपकी निगाह में जो रिटायरमेंट के बाद इस क़दर अलग अलग कामों में मसरूफ़ रहा हो ? मैं ये तो नहीं कहूंगा कि इसतरह मसरूफ़ रहने वाले वो वाहिद इंसान थे लेकिन ये जरूर कहूंगा कि ऐसे इंसान आपको बहुत ही कम मिलेंगे। यही कारण है कि जब भी आप उनसे गुफ़तगू करें आपको लगेगा किसी कॉलेज में पढ़ने वाले युवा लड़के से बतिया रहे हैं क्यूंकि उनकी आवाज़ में वो ही ख़ुनक और जोश है जो युवाओं में होता है। .
जब भी बुझते चराग़ देखे हैं
अपनी शोहरत अजीब लगती है
आग मिट्टी हवा लहू पानी
ये इमारत अजीब लगती है
जिंदगी ख़्वाब टूटने तक है
ये हक़ीक़त अजीब लगती है
*
सूली पे चढ़ा है तो कभी ज़हर पिया है
जीने की तमन्ना में वो सौ बार मरा है
दिन रात किया करता है पत्थर को जो पानी
फ़ाक़ों के समंदर में वही डूब रहा है
*
लगायें कब तलक पैवंद साँसें
ये चादर अब पुरानी हो गई है
*
उसी को जहर समझते हैं मेरे घरवाले
वो आदमी जो मुझे देवता सा लगता है
न जाने कौन मुझे छीन ले गया मुझसे
अब अपने आप में कोई ख़ला सा लगता है
मैं हर सवाल का रखता हूं इक जवाब मगर
कोई सवाल करे तो बुरा सा लगता है
*
जुगनूओं की तरह सुलग पहले
क़र्ब की दास्तान तब लिखना
क़र्ब :पीड़ा, तकलीफ़
शायरी की तरफ़ शाहीन साहब का कोई विशेष झुकाव नहीं था अलबत्ता कहानियां खूब लिखते जो इंदौर के बड़े अखबारों में छपतीं। एक बार हुआ यूँ कि उन्होंने एक 5 शेरों से सजी ग़ज़ल कही और उस पर इस्लाह लेने के लिए इंदौर के एक बड़े उस्ताद के यहाँ पहुँच गए। उस्ताद तो उस्ताद होते हैं और बड़े उस्तादों का तो कहना ही क्या। बड़े उस्ताद अपने शागिर्दों से घिरे हुए थे लिहाज़ा उन्होंने कोई दो घंटे के इंतज़ार के बाद शाहीन साहब को अपने पास बुलाया और उनकी कही ग़ज़ल को सरसरी तौर पर देख कर कहा कि 'बरखुरदार इस ग़ज़ल को मेरे पास रख जाओ मैं इसे फुर्सत में इत्मीनान से इसे देखूँगा। अब तुम कल शाम को आना फिर इस पर बात करेंगे।'शाहीन साहब दूसरे दिन धड़कते दिल से शाम को उस्ताद के यहाँ पहुँच गए। उस्ताद ने उन्हें ग़ज़ल देते हुए कहा कि 'बरखुरदार इस ग़ज़ल को ध्यान से पढ़ो और समझो'। शाहीन साहब उन्हें सलाम करके उठे और बाहर आकर जब अपनी ग़ज़ल पढ़ी तो माथा ठनक गया। उस ग़ज़ल में शेर तो 5 ही थे लेकिन उन 5 शेरों में साढ़े चार शेर उस्ताद के थे सिर्फ एक मिसरा ही शाहीन साहब का था। उसी वक़्त शाहीन साहब ने उस कागज़ के, जिस पर ग़ज़ल लिखी हुई थी, टुकड़े टुकड़े किये और नाली में फेंक कर क़सम खाई कि अब कभी ग़ज़ल नहीं कहेंगे।
इंसान सोचता कुछ है होता कुछ है। शाहीन साहब की कहानियां, फिल्मों और स्पोर्ट पर लेख जिस अख़बार में नियमित छपते थे उसके मालिक उर्दू के क़ाबिल विद्वान् जनाब अज़ीज इंदौरी साहब थे। एक बार अज़ीज़ साहब को किसी काम से कहीं जाना पड़ गया तो वो शाहीन साहब से बोले कि मियां मुझे आज काम है मैंने सादिक़ इंदौरी साहब से कह दिया है कि वो अखबार की मेन हैडिंग आ कर लगा देंगे तुम बाकी पेपर सेट कर देना। सादिक़ साहब को भी आने में देर हो गयी तो शाहीन साहब ने अखबार की मेन हैडिंग भी खुद ही लगा दी और धड़कते दिल से सादिक़ साहब का इंतज़ार करने लगे। ये उनकी सादिक़ साहब से पहली मुलाक़ात होने वाली थी। थोड़ी देर के बाद जब सादिक़ साहब ने आ कर अखबार देखा तो बहुत खुश हुए बोले 'यार! तुम तो बहुत हुनरमंद इंसान हो, ऐसा करो कि अखबार की हेडिंग यही रहने दो बस तुम इस लफ्ज़ को वहाँ से हटा कर यहाँ रख दो। शाहीन साहब ने ऐसा ही किया और देखा कि इस छोटे से लफ़्ज़ों के हेरफेर से हेडिंग किस क़दर असरदार हो गयी है। उन्हें बरसों पहले क्रिकेट मैदान पर लफ़्ज़ों को बरतने के बारे में कही बुजुर्ग की बात फ़ौरन याद आ गयी उन्होंने सादिक़ साहब को गौर से देखते हुए कहा हुज़ूर आपको मैंने कहीं देखा है। सादिक़ साहब मुस्कुराये और बोले'जी जनाब हम बरसों पहले एक बार मिल चुके हैं क्रिकेट के मैदान पर जहाँ अपनी शायरी और क्रिकेट को लेकर गुफ़तगू हुई थी। मैं तो तुम्हें पहली नज़र में ही पहचान गया था क्यूंकि तुम्हारी बैटिंग से मैं बहुत मुत्तासिर हुआ था।
सादिक़ साहब ने अखबार की हैडलाइन की एक बार फिर से तारीफ़ करते हुए अचनाक जब शाहीन साहब से पूछा कि क्या तुम शायरी करते हो मियां तो शाहीन साहब तपाक से बोले 'लानत भेजिए शायरी को'। सादिक़ साहब ने हैरानी से पूछा 'भाई तुम शायरी के नाम से इतने भन्नाये हुए क्यों हो? बरसों पहले जब ये सवाल मैंने तुमसे किया था तब भी तुम झल्ला गए थे।बात क्या है जरा खुल कर बताओ।'थोड़ी ना-नुकर के बाद जब शाहीन साहब ने अपनी दास्ताँ सुनाई तो सादिक़ साहब हँसते हुए बोले 'बड़े खुद्दार आदमी हो यार, वैसे तुम इस्लाह के लिए जिसके पास गए थे वो मेरा शागिर्द है। तुम ऐसा करो कि अगर तुम्हें याद हो तो वही ग़ज़ल मुझे लिख के दो। शाहीन साहब ने उन्हें ग़ज़ल दे दी। दूसरे दिन वो ग़ज़ल सादिक़ साहब शाहीन साहब को वापस देते हुए बोले 'यार तुम्हारी ग़ज़ल के सभी शेर बढ़िया हैं उनमें कहीं कुछ करने की गुंजाईश नहीं है बस एक मिसरे में मैंने इस लफ्ज़ को वहाँ से हटा कर यहाँ कर दिया है बस। तुम तो लिखा करो मियां। कभी कहीं परेशानी आ जाये तो मेरे पास बेतकल्लुफ़ हो कर चले आया करो। इस बात से शाहीन साहब बेहद खुश हुए। ऐसा उस्ताद जिसे मिल जाय तो फिर कौन है जो अपने आपको ग़ज़ल कहने से रोक पायेगा ? लिहाज़ा उन्होंने ग़ज़लें कहना शुरू कर दिया।
अब समंदर वहां करे सजदे
हमने दामन जहांँ निचोड़े हैं
हर तरफ हैं हुजूम सायों का
आदमी तो जहांँ में थोड़े हैं
*
ये है माला वो है दार
जैसी गर्दन वैसा हार
दार: फांसी
सूखी मिट्टी इत्र हुई
पानी आया पहली बार
ये गुर है खुश रहने का
एक ख़मोशी सौ इज़हार
*
मैं संग हो के पहुंँचा था जब उसके सामने
वो मुझको आईने की तरह देखता रहा
*
जाने अपनी बूढ़ी मांँ से मुझको यह क्यों ख्वाहिश है
वो मुझको मेले में ढूंढे और कहीं खो जाऊंँ मैं
*
पांँव पत्थर किए देते हैं ये मीलों के सफ़र
और मंजिल का तक़ाज़ा है कि चलते रहना
दरो-दीवार जहांँ जान के दुश्मन हो जायें
और उसी घर में जो रहना हो, तो कैसे रहना
*
कोई आए मुझे बाहर निकाले
मैं अपने आप से तंग आ गया हूंँ
तारिक़ साहब बेहद प्राइवेट इंसान हैं। शोहरत से कोसों दूर अपने में ही मस्त रहने वाले इंसान। यही कारण है कि उन्हें मुशायरों के मंच पर बहुत ही कम देखा गया है। नशिस्तों में भी उनकी शिरकत ज्यादा नहीं होती। जनाब कीर्ति राणा साहब अपने ब्लॉग में उनके बारे में लिखते हैं कि इंदौर के खजराना में रहने वाले शायर तारिक शाहीन शायरी में तो माहिर माने जाते हैं लेकिन जोड़-तोड़, जमावट के फन में कमजोर ही हैं वरना क्या वजह है कि उर्दू का एक नामचीन शायर उम्र की 76वीं पायदान पर कदम रख दे और उर्दू अदब तो ठीक खजराना तक में हलचल ना हो । अपनी शायरी से देश-विदेश में शहर का नाम रोशन करने वाले शायर का हीरक-जयंती वर्ष दबे पैर निकलने की हिमाकत तभी कर सकता है जब कोई लेखक-शायर सिर्फ रचनाकर्म से ही ताल्लुक रखे।उनका तखल्लुस है तारिक यानी अलसुबह के अंधेरे में चलने वाला मुसाफिर, शायद यही वजह है कि उनकी शायरी का सुरूर तो दिलोदिमाग पर चढ़ता है लेकिन इस बड़ी सुबह के मुसाफिर पर नजरें इनायत नहीं हुईं।
इंदौर में उनके सबसे क़रीब दोस्त थे, मरहूम शायर जनाब राहत इंदौरी साहब जिनकी जब तक वो हयात रहे मुशायरों के मंच पर तूती बोला करती थी। राहत साहब तारिक़ साहब को अपना उस्ताद मानते थे हालाँकि तारिक़ साहब इस बात से इंकार करते हैं और इसे राहत का बड़प्पन कहते हैं । शाहीन साहब आज भी उन्हें याद करते हुए उदास हो जाते हैं वो कहते हैं की राहत जैसी खूबियाँ मैंने बहुत कम इंसानों में देखी हैं।
एम पी उर्दू अकादमी, भोपाल ने उन्हें 'शादाँ इंदौरी अवार्ड से , जान-चेतना अभियान ने बहुसम्मान से और बज़्मे-गौहर हैदराबाद ने मोअतबर शायर अवार्ड से नवाज़ा है। नवभारत’ में उर्दू सफा (पेज) का संपादन करने से पहले ‘शाखें’ नाम से रंगीन त्रैमासिक निकाल चुके हैं जो 22 देशों में जाती थी और दुनियाभर के फनकार इसमें छपा करते थे। उनकी अपनी रचनाएँ जर्मन, पाक, अमेरिका, स्वीडन, लंदन आदि देशों की पत्रिकाओं में निरंतर छपती रही हैं।
आखिर में पेश है उनके कुछ और चुनिंदा शेर :
एक आदमी था हम जिसे इंसान कह सकें
गुम हो चुका है भीड़ में वो आदमी जनाब
सूरज के साथ शहर का चक्कर लगाइए
आ जाएगी समझ में अभी ज़िंदगी जनाब
*
उस पर हंँसू कि अश्क बहाऊंँ मैं दोस्तों
शर्मिंदा हो रहा है मेरा घर उजाड़ के
*
तोड़ दो ताज की तामीर के हर मंसूबे
तुमको मालूम नहीं दस्ते-हुनर कटते हैं
हमने उस शहर के माहौल में ऐ दोस्त मेरे
इस तरह काटे हैं दिन जैसे कि सर कटते हैं
*
वो शनासा तो नहीं है कि पलट आएगा
अजनबी वक्त़ को आवाज लगाऊंँ कैसे
*
बहुत खुश हो, तुम अपनी जिंदगी से
मियां क्यों लंतरानी कर रहे हो
ख़ुदा रक्खे तुम्हें मेरे चरागों
हवा पर, हुक्मरानी कर रहे हो
*
जो शख़्श भी ज़माने की नज़रों में आ गया
चेहरे पे उसने दूसरा चेहरा लगा लिया
*
कोई पत्थर न था सलीक़े का
आईना किस के रूबरू करते