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Channel: नीरज
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किताबों की दुनिया - 248

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मेरा क़द 
मेरे बाप से ऊंचा निकला 
और मेरी मांँ 
जीत गई
*
ऐ जीवन के प्यारे दुख 
मेरे अंदर दिया जलाना 
बुझ मत जाना
*
मेरे बच्चे 
तेरी आंँखें, तेरे लब देखकर 
मैं सोचती हूंँ 
ये दुनिया इस बला की ख़ूबसूरत है 
तो फिर क्यों जंग होती है ?
*
एक तरफ बेटी है मेरी 
एक तरफ मेरी मांँ 
दोनों मुझको अक़्ल बताती रहती है 
बारी-बारी सबक पढ़ाती रहती हैं 
दो नस्लों के बीच खड़ी 
मैं खुद पर हंसती रहती हूंँ 
अपनी गिरहें आप ही कसती रहती हूंँ 
मेरे दोनों हाथ बंँधे
मेरा दर्द न जाने कोई
*
खेलने कूदने की उम्रों में 
इक ना इक भाई साथ रहता है 
नौजवानी में खुलकर हंँसने पर 
ख़ौफ़-ए-रुसवाई साथ रहता है 
और अब उम्र ढल गई है तो 
रंज-ए-तन्हाई साथ रहता है 
वो अकेली कभी नहीं होती
*
औरतें ब-ज़ाहिर जो 
खेतियाँ तुम्हारी हैं 
यूं भी तो हुआ अक्सर 
उनके चश्म-ओ-अबरू के  
सिर्फ़ इक इशारे पर 
खेत हो गए लश्कर 
ब-ज़ाहिर: बाहर से ,चश्म-ए-अबरु:आंँख और भँवें

अब जरूरी तो नहीं कि किसी नयी किताब पर लिखने का सिलसिला हमेशा उस क़िताब में छपी ग़ज़लों के शेरों से ही किया जाये, यदि उस किताब में बेहतरीन नज़्में भी हैं तो उनमें से ही चुनिंदा आपके सामने रख कर भी तो आगे बढ़ा जा सकता है।

छठे दशक की बात है। कराची के एक उपनगर 'मलीर'के घर के अंदरूनी कमरे में जो दस बारह साल की बच्ची सो रही है वो सुबह मुँह अँधरे गली में चीमटा बजा कर गाते हुए फ़कीर की सुरीली आवाज़ से आँखें खोल देती है। अभी बिस्तर में कसमसा ही रही है कि बकरियों का रेवड़ हाँकते हुए बाहर जो गली से गुज़र रहा है वो भी गाता जा रहा है, परिंदो की कलरव हर लम्हा तेज होती जाती है, वो बिस्तर से नीचे उतरे उससे पहले ही रेड़ी पर सब्जी बेचने वाले की सुरीली टेर उसे मुस्कुराने पर मजबूर कर देती है। ये सब आवाजें रोज उसके सुबह उठने के अलार्म हैं। बच्ची तैयार हो कर जिस किसी भी बस से स्कूल जाती है उसी बस में लतामंगेशकर के गाने बजते सुनाई देते हैं।शाम कहीं दूर मस्जिद में कव्वालियों के सुर तो किसी शादी वाले घर से मुहम्मद रफ़ी के गाने फ़जा में तैरते सुनाई देते हैं। अभी बच्ची के घर रेडियो नहीं आया है। लाउडस्पीकर भी बहुत कम बजते हैं लेकिन संगीत का दरिया हर ओर बहता सुनाई देता है। बच्ची इस संगीत को सुन मुस्कुराती है, खिलखिलाती है। जी हाँ ठीक पढ़ा ये पाकिस्तान के कराची की ही बात कर रहा हूँ, संगीत कब सरहदों में बंध सका है ?

अफ़सोस !! संगीत अब हमारी ज़िंदगी से ग़ायब हो गया है उसकी जगह शोर ने ले ली है। संगीत ने ही तो हमें  जानवरों से अलग किया हुआ है। संगीत जिस दिन हमारे बीच से ग़ायब हो गया उस दिन ये जो थोड़ा बहुत जानवरों और हममें फ़र्क बचा है वो मिट जाएगा। आप देखें धीरे धीरे मिट ही रहा है। हम अंदर से बेचैन हैं ,घुट रहे हैं ,दुखी हैं, अकेले हैं ,जल्दी ही अपना आपा खो देते हैं क्यूंकि हम मुस्कुराना भूल गए हैं, गुनगुनाना भूल गए हैं।    

फूलों की जबाँ की शाइ'र थी 
कांँटो से गुलाब लिख रही थी 

आंँखों से सवाल पढ़ रही थी 
पलकों से जवाब लिख रही थी 

फूलों में ढली हुई ये लड़की 
पत्थर पे किताब लिख रही थी
*
लड़कियांँ माओं जैसा मुकद्दर क्यों रखती हैं 
तन सहरा और आंँख समंदर क्यों रखती हैं 

औरतें अपने दुख की विरासत किसको देंगी 
संदूक़ों में बंद ये ज़ेवर क्यों रखती हैं 

वो जो रही है खाली पेट और नंगे पांँवों 
बचा बचा कर सर की चादर क्यों रखती हैं 

सुब्ह-ए-विसाल की किरनें हमसे पूछ रही हैं 
रातें अपने हाथ में ख़ंजर क्यों रखती हैं
*
यादों के बिस्तर पर तेरी ख़ुश्बू काढ़ूँ
इसके सिवा तो और मैं कोइ हुनर नहीं रखती

मैं जंगल हूंँ और अपनी तन्हाई पर ख़ुश 
मेरी जड़ें जमीन में है कोई डर नहीं रखती
*
सूना आंँगन तन्हा औरत लंबी उम्र 
खाली आंँखें भीगा आंँचल गीले होंठ

ये बच्ची कराची के उपनगर मलीर में रहती जरूर है लेकिन इसके घर में अवधी बोली जाती है। इस बच्ची के पिता वकील हैं जो मुल्क़ तक़सीम होने के कुछ अरसे बाद, बलरामपुर उत्तर प्रदेश से कराची जहाँ ये 25 दिसंबर 1956 को पैदा हुई, आ कर बस गए। माँ 1965 तक इसे गोद में लिए न कितनी बार सरहद पार अपने वतन बलरामपुर ले जाया करती। इस बच्ची को अपने बचपन में सुने अनीस के ढेरों मर्सिये याद हैं। इन्हें सुन सुन कर ये खुद भी नोहे और नात लिखने लगी। तब ये कोई छठी या सातवीं जमात में पढ़ती होगी। साथ पढ़ने वाले और मोहल्ले के बच्चे इसकी लिखी नात मजलिसों में सुनाते और ईनाम पाते। इसी उम्र में ये रेडिओ पाकिस्तान कराची से जुड़ गयी और बरसों जुड़ी रही। एक बार का वाकया है रेडिओ पर प्रोग्राम डायरेक्टर ने चूड़ी पर तुरंत एक छोटी सी नज़्म लिखने को कहा इन्होने लिख दी 
'तेरी भेजी हुई 
ये हरे काँच की चूड़ियाँ 
नर्म पोरों से 
उजली कलाई के नाज़ुक़ सफर तक 
लहू हो गईं '

ये मोहम्मद जिया-उल हक़ के कार्यकाल की बात है ,प्रोग्राम डाइरेक्टर ने उसे पढ़ कर कहा 'बीबी इसमें से लहू लफ्ज़ की जगह कोई और लफ्ज़ बरतो क्यूंकि लहू लफ्ज़ कविता कहानियां ग़ज़ल, नज़्म आदी में इस्तेमाल करने की सरकार की तरफ़ से पाबन्दी है। बच्ची ने साफ़ मना कर दिया और घर चली आयी। आप ज़रा लफ्ज़ की ताकत का अंदाज़ा लगाएं कि उसके इस्तेमाल भर से एक तानाशाह किस तरह ख़ौफ़ज़दा था। उस दिन इस बच्ची को भी लफ्ज़ की ताक़त का पता चला और उसने तय किया कि वो लफ्ज़ का दामन कभी नहीं छोड़ेगी।            

अपनी आग को जिंदा रखना कितना मुश्किल है
पत्थर बीच आईना रखना कितना मुश्किल है 

कितना आसाँ है तस्वीर बनाना औरों की 
खुद को पस-ए-आईना रखना कितना मुश्किल है

दोपहरों के ज़र्द किवाड़ों की ज़ंजीर से पूछ 
यादों को आवारा रखना कितना मुश्किल है
*
तेरे ध्यान का जिद्दी बालक मुझको सोता देख 
घुंँघरू जैसी आवाज़ों में रोने लगता है
*
लाख पत्थर हूं मगर लड़की हूंँ
फूल ही फूल हैं अंदर मेरे
*
ख्वाहिशें दिल में मचल कर यूं ही सो जाती हैं
जैसे अंगनाई में रोता हुआ बच्चा कोई
*
दिल कोई फूल नहीं है कि अगर तोड़ दिया 
शाख़ पर इससे भी खिल जाएगा अच्छा कोई 

रात तन्हाई के मेले में मेरे साथ था वो 
वरना यूंँ घर से निकलता है अकेला कोई
*
सुब्ह वो क्यारी फूलों से भर जाती थी 
तुम जिसकी बेलों में छुप कर आते थे 

उससे मेरी रूह में उतरा ही न गया 
रस्ते में दो गहरे सागर आते थे

ये बच्ची बहुत शर्मीली है। घर से स्कूल और स्कूल घर बस यही इसकी दुनिया है। वालिद हर छुट्टी के दिन इसे कराची से थोड़ा आगे खरीदे अपने खेतों पर पूरे परिवार के साथ ले जाते जहाँ कपास चुनती, खेतों में काम करती लड़कियों से ये बतियाती और उनके दुःख सुख सुनती। वालिद साहब का इंतेक़ाल जल्द ही हो गया तब इसकी माँ की उम्र ये कोई तीस बत्तीस की रही होगी।तब अपनी माँ के साथ ये अपनी नानी जो मात्र 24 साल की उम्र में ही बेवा हो गयीं थीं के पास रहने लगीं। नानी एक तरह से घर मुखिया हो गयीं। नानी जमींदार परिवार से थीं लिहाज़ा उनमें जमीन्दाराना ठसका भी था। घर में काम वालियों के साथ नानी का व्यवहार वही जमीन्दाराना था जबकि माँ की उन सबसे खूब दोस्ती थी। काम वालियाँ बच्ची की माँ से घंटो बातें करतीं और अपने दुखड़े सुनातीं। उनके दुखड़े सुन सुन कर बच्ची सोचती कभी मैं इनके बारे लिखूंगी। एक रजिस्टर में अपने ख़्याल जो कभी नज़्म होते कभी कहानी की शक्ल में वो दर्ज़ करती रहती। मात्र चौदह साल की उम्र से उनकी रचनाएँ प्रकाशित हो कर चर्चित होने लगी थीं.

स्कूल से कॉलेज और कॉलेज से यूनिवर्सिटी का सफ़र भी कट गया। कराची यूनिवर्सिटी से उर्दू में एम् ऐ करने के बाद भी उनका लिखना जारी रहा और इसे सँवारा मलीर की 'बज़्में इल्मो दानिश'नाम से होने वाली नशिस्तों ने। युवा और अनुभवी रचनाकार इन नशिस्तों में अपना क़लाम सुनाते जिन पर खुली बहस होती और युवाओं को इस सब से बहुत कुछ सीखने को मिलता। रेडिओ पाकिस्तान कराची पर भी उस वक़्त पाकिस्तान की बेहतरीन प्रतिभाएं काम करती थीं लिहाज़ा वहां से भी बच्ची ने बहुत कुछ सीखा। लगातार सीखने की ललक और अपनी विलक्षण प्रतिभा के कारण ये बच्ची, जिसे दुनिया 'इ'शरत आफ़रीन के नाम से जानती है, सबकी नज़रों में आ गयी आज उन पर पूरे उर्दू लिटरेचर को नाज़ है।

मैंने इक हर्फ़ से आगे कभी सोचा ही न था 
और वो हर्फ़ लुग़त में तेरी लिक्खा ही न था 
लुग़त: शब्दकोश 

मैंने कहना भी जो चाहा तो बयांँ कर न सकी
मुझमे लफ्जों को बरतने का सलीक़ा ही न था 

उसने मिलने की रह-ओ-रस्म न की तर्क मगर 
मैं ही चुप रह गई अब के वो अकेला ही न था
*
ये और बात की कम हौसला तो मैं भी थी 
मगर ये सच है उसे पहले मैंने चाहा था
*
यह नहीं ग़म कि मैं पाबंद-ए-ग़म-ए-दौराँ थी 
रंज ये है कि मेरी ज़ात मेरा ज़िन्दाँ थी 
पाबंद-ए-ग़म-ए-दौराँ: समय के दुखों को बाध्य ,ज़िन्दाँ: क़ैदखाना

सूखती जाती है अब ढलती हुई उम्र के साथ
बाढ़ मेहंदी की जो दरवाजे पे अपने हाँ थी 

पढ़ रहा था वो किसी और के आंँचल पे नमाज़ 
मैं बस आईना-ओ-क़ुर्आन लिए हैराँ थी
*
अ'दावतें नसीब हो के रह गईं 
मोहब्बतें रक़ीब हो के रह गईं 

परिंद हैं न आँगनों में पेड़ है 
ये बस्तियांँ अजीब हो के रह गईं

रिवायतों की क़त्ल-ग़ाह-ए-इश्क में 
ये लड़कियां सलीब हो के रह गईं

इ'शरत आफ़रीन के लिए अपने लिए नयी राह बनाना आसान नहीं था। उनसे पहले की कद्दावर शायरायें अदा जाफ़री, किश्वर नाहीद, फहमीदा रिआज़ और ज़ेहरा निग़ाह ने अपने लिए जो अलग राह बनाई उसके अलावा किसी और के लिए कोई नयी राह बनाना बेहद मुश्किल काम था लेकिन इशरत ने वो काम किया और अपनी अलग पहचान बनाई। इ'शरत ने जो देखा, सुना, भुगता वो लिखा और पूरी ईमानदारी से लिखा। मज़े की बात ये है कि ग़ज़ल कहना उन्होंने कहीं से सीखा नहीं हालाँकि उनके अब्बा अच्छे शायर थे और उनके यहाँ नशिस्तें हुआ करती थीं लेकिन इ'शरत ने उनमें कभी शिरकत नहीं की। इशरत के चाचा बेहतरीन शायर थे जब उन्हें कहीं से पता चला कि इशरत बीबी शेर कहती है तो उन्होंने एक तरही मिसरा इशरत को ग़ज़ल कहने के लिए दिया। जब इ'शरत साहिबा ने तुरंत ही उस पर ग़ज़ल कह कर चाचा के पास भिजवाई तो वो पढ़कर हैरान रह गए और अपने भाई याने इ'शरत के अब्बू से बोले कि भाई जान इ'शरत बीबी को आप कभी शेर कहने से रोकना मत. ऊपर वाले ने ख़ास हुनर इसे अता फ़रमाया है। आप देखना एक दिन ये अपना और आपका नाम पूरी दुनिया में रौशन करेगी।अपने लेखन की शुरूआत को इ'शरत साहिबा एक शेर में यूँ बयाँ करती हैं :

मैंने जिस दिन लिखना सीखा पहला शेर लिखा 
लिख लिख कर इक हर्फ़ मिटाया फिर ता'देर लिखा   

आज इ'शरत आफ़रीन साहिबा की रेख़्ता बुक्स द्वारा देवनागरी में प्रकाशित किताब 'एक दिया और एक फूल'हमारे सामने है जिसमें इ'शरत साहिबा की चुनिंदा 61 ग़ज़लें और 48 बेहतरीन नज़्में संकलित हैं। ये किताब आप रेख़्ता बुक्स नोएडा से या फिर अमेजन से ऑन लाइन मँगवा सकते हैं।


कपास चुनते हुए हाथ कितने प्यारे लगे 
मुझे ज़मीं से मोहब्बत के इस्तिआरे लगे 
इस्तिआरे: रूपक

मुझे तो बाग भी महका हुआ अलाव लगा 
मुझे तो फूल भी ठहरे हुए शरारे लगे
*
यूंँ ही ज़ख़्मी नहीं है हाथ मेरे 
तराशी मैंने इक पत्थर की लड़की 

अना खोई  तो कुढ़ कर मर गई वो 
बड़ी हस्सास थी अंदर की लड़की
हस्सास: संवेदनशील
*
वहशत सी वहशत होती है 
ज़िंदा हूंँ हैरत होती है 
वहशत :उलझन, डर 

सारे क़र्ज़ चुका देने की
कभी कभी उज्लत होती है
उज्लत: जल्दी

अपने आप से मिलने में भी 
अब कितनी दिक्क़त होती है

शाम को तेरा हंँस कर मिलना 
दिन भर की उज् रत होती है
उज् रत: मजदूरी, मेहनताना
*
यूंँही किसी के ध्यान में अपने आप में गाती दोपहरें
नर्म गुलाबी जाड़ों वाली बाल सुखाती दोपहरें 

सारे घर में शाम ढले तक खेल वो धूप और छाँवों का 
लिपे-पुते कच्चे आंँगन में लोट लगाती दोपहरें

खिड़की के टूटे शीशों पर एक कहानी लिखती हैं 
मंढे हुए पीले काग़ज से छन कर आती तो दोपहरें

सन 1985 में उनका विवाह भारत के सय्यद परवेज़ जाफ़री से हो गया जो उस वक़्त वक़ालत के साथ-साथ अच्छी ख़ासी शायरी भी करते थे। सय्यद परवेज़ मशहूर शायर जनाब अली सरदार जाफ़री साहब के भतीजे हैं। शादी के बाद अली सरदार जाफ़री साहब ने अपने यहाँ दोनों को दावत पर बुलाया और हँसते हुए कहा कि देखो जिस तरह एक जंगल में दो शेर साथ नहीं रहते इसी तरह एक घर में दो शायरों का रहना भी मुमकिन नहीं है लिहाज़ा तुम दोनों आपस में तय करलो कि कौन शायरी छोड़ेगा। तय करने की नौबत ही नहीं आयी क्यूंकि चचा जान का जुमला पूरा करने से पहले ही परवेज़ साहब ने मुस्कुराते हुए कहा कि शायरी तो इ'शरत ही करती है और वो ही करती रहेगी। मैं भला और मेरी वकालत भली। इशरत साहिबा पांच बरस भारत में रहीं। इस दौरान उनके चाहने वालों की तादात में भरी इज़ाफ़ा हुआ। इस्मत चुगताई को उनकी नज़्में बहुत अच्छी लगती थीं उन्होंने इशरत से कहा भी कि 'तुम्हारी नज़्मों में वही कहानियां हैं जिन्हें देख या सुन कर मैंने खून थूका था'। तुम्हारी नज़्मों में कहानियां हैं ये बात पाकिस्तान के बड़े कहानीकार इंतज़ार हुसैन साहब ने भी उन्हें कहा था। 

उनकी नज़्म 'ये बस्ती मेरी बस्ती है'को उर्दू की बेहतरीन नज़्मों में से एक माना गया है। ये नज़्म उन्होंने कराची की एक मस्जिद में हुए बम्ब धमाके के बाद कही थी। ये मस्जिद उनके मोहल्ले में थी। जब अमेरिका से इस धमाके के बारे में इशरत ने अपनी अम्मी से फोन पर पूछा तो उनकी अम्मी ने कहा कि 'बेटा सब ठीक हैं, अपना कोई घायल नहीं हुआ हाँ कुछ बंजारने और उनके बच्चे अलबत्ता इस धमाके से अपनी जान गवाँ बैठे हैं।'अम्मी की ये बात इ'शरत के दिल पर छुरी की तरह लगी कि अपना कोई घायल नहीं हुआ तब उनके दिल से आवाज़ आयी तो फिर जो घायल हुए वो किनके हैं। मेरी गुज़ारिश है कि रेख़्ता की साइट पर इस नज़्म को पढ़ें या इशरत आफ़रीन को इसे पढ़ते हुए यू ट्यूब पर देखें और जाने कि लफ्ज़ किस तरह आपके दिल पर असर करते हैं। इसी तरह की एक और अलग विषय पर उनकी नज़्म 'गुलाब और कपास'बार बार पढ़ने लायक है।    

दिन तो अपना इक खिलंदरा दोस्त है 
शब वो हमजोली जो सब बातें करे 

मुझ में एक मासूम सी बच्ची जो है 
मुझसे पहरों बे-सबब बातें करे
*
तमाम रात में अपनी ही रोशनी में जली 
तमाम रात किसी ने मुझे बुझाया नहीं
*
अब ये दिल भी कितना बोझ सहारेगा 
मान भी जाओ कश्ती बहुत पुरानी है

आग बचा कर रखना अपने हिस्से की 
आने वाली रात बड़ी बर्फानी है 

तेरी खातिर कितना खुद को बदल दिया 
अपने ऊपर मुझको भी हैरानी है 
*
क्या दिन थे जब कुन्जी ख़ुशी ख़ज़ाने की 
अपने धूल-भरे हाथों में होती थी 

कच्चे रंगों का आंँचल और भीगे ख़्वाब 
कितनी मुश्किल बरसातों में होती थी
*
कहांँ से लाएंगे बच्चों के वास्ते अपने 
गई सदी का खुला आसमाँ सुनहरी धूप 

कहानियों में सुनाया करेंगे आगे लोग 
सितारे फूल धनक तितलियांँ सुनहरी धूप
*
इ'शरत आफरीन नब्बे के दशक के शुरुआत में अपने परिवार सहित अमेरिका चली गयीं और अब वहीँ अपने तीन बच्चों के साथ ह्यूस्टन, टेक्सास में रहती हैं। उनकी उर्दू में तीन किताबें 'कुंज पीले फूलों का' 1985 में ,'धूप अपने हिस्से की' 2005 में और 'दिया जलाती शाम'सं 2017  मंज़र-ऐ आम पर आयीं और बहुत चर्चित हुईं। हाल ही में उनकी कुलियात 'ज़र्द पत्तों का बन'भी मंज़र-ऐ-आम पर आयी है। 'उनकी नयी किताब 'परिंदे चहचहाते हैं'जल्द ही मंज़र-ऐ-आम पर आने वाली है। 
 
पूरी दुनिया की उन यूनिवर्सिटीज में जहाँ जहाँ 'जेंडर स्टडीज़'पढाई जाती हैं वहाँ वहाँ इ'शरत साहिबा की नज़्में और ग़ज़लें उनके सिलेबस में शामिल हैं। इशरत साहिबा को दुनिया के कोने में होने वाले सेमिनार, फेस्टिवल्स और मुशायरों में अपना कलाम पढ़ने को बड़े आदर से बुलाया जाता है।       

इशरत साहिबा को मिले अवार्ड्स की लिस्ट भी ख़ासी लम्बी है. आखिर में पेश हैं उनकी ग़ज़लों के कुछ और चुनिंदा शेर।   .
    
वही बेचैन रखते हैं ज़ियादा 
अभी तक हर्फ़ जो लिक्खे नहीं हैं 

ये दरिया ख़ुश्क है ऐसा नहीं बस 
किसी के सामने रोते नहीं हैं 

समझ में आ गई जिस रोज दुनिया 
उसी दिन से तो दुनिया के नहीं हैं
*
पंख पखेरू डाली डाली चहक रहे हैं 
आदमी के हिस्से में ऐसा सन्नाटा 

अनजानी दीवार खड़ी है हर घर में 
अंदर बैठा है अनदेखा सन्नाटा
*
इसे कुरेद के देखो तो शहर निकलेगा 
तुम्हारे सामने ये रेत का जो टीला है
*
जिंदगी देर से हम पर तेरे असरार खुले 
इतनी सादा भी न थी जितना समझते रहे हम 
असरार: रहस्य, भेद
*
कुछ हमीं कार-ए-जहांँ में उन दिनों उलझे न थे 
हमसे मिलने में उसे भी काम याद आए बहुत
*
कैसा होगा आधी उम्र सफर में रहना 
आधी उम्र अकेले एक ही घर में रहना
*
खोखला पेड़ खड़ा है लेकिन 
उसका एहसास-ए-अना रक़्स में है
एहसास-ए-अना: स्वत्व का भाव

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