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Channel: नीरज
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किताब मिली - शुक्रिया - 12

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सूरज का साथ देने में नुक्सान ये हुआ
हम रात की नज़र में गुनाहगार हो गए

इस बार मेरे पास मुहब्बत की ढाल थी
इस बार उसके तीर भी बेकार हो गए
*
ख़याल ज़िद भी करें उनको टाल देता हूं 
मैं हल्का शेर ग़ज़ल से निकाल देता हूं
*
फ़ज़ायें एक सी रहती नहीं कभी दिल की
हमेशा चांद भी पूरा नहीं निकलता है
*
हटा लो मील का पत्थर हमारे राहों से 
हमारे ज़ौक़े-सफ़र को थकान देता है
*
हम हैं शायर हमें तफ़रीक़ नहीं आती है
ढलते सूरज को भी हम लोग दुआ देते हैं 
तफ़रीक़: मतभेद 

हमको इंसाफ़ की उम्मीद नहीं है लेकिन 
आप कहते हैं तो ज़ंजीर हिला देते हैं
*
जवाब देना है अपनी ज़मीर को भी मुझे
मैं शायरी को पहेली नहीं बनाऊंगा

ख़याल जिद भी करें उनको टाल देता हूं 
मैं हल्का शेर ग़ज़ल से निकाल देता हूं


शायरी और मुहब्बत दोनों ही "इक आग का दरिया है और डूब के जाना है"वाला काम है। जो लोग मुश्किल काम को अंजाम देने का हौंसला रखते हैं और साथ ही जुनूनी हैं उन्हें ही इस और क़दम बढ़ाने चाहिएं 

आप उस्ताद शायरों की शायरी को ग़ौर से पढ़ें तो महसूस करेंगे कि उन्होंने किस कमाल से हर शेर के मिसरों में लफ़्ज़ों को इस तरतीब से रखा है कि किसी भी लफ़्ज़ को आप अपनी जगह से हटा नहीं सकते। लफ़्ज़ों की तरतीब बदलते ही आपको उस शेर की रवानी में फ़र्क साफ़ नज़र आ जाएगा।

शायरी और तुकबंदी में बहुत फ़र्क है और ये फ़र्क आपको हमारे आज के शायर जनाब "कशिश होशियारपुरी"साहब की ग़ज़लों की किताब "मंज़िलों से दूर"पढ़ते वक्त साफ़ नज़र आ आएगा। उनकी ग़ज़ल के हर शेर में लफ़्ज़ नौलखा हार में जड़े नगीनों की तरह तराश कर बड़ी कारीगरी से टांके गए हैं। शेरों में रवानी किसी अल्हड़ नदी की तरह कलकल बहती हुई सी है। नए ग़ज़लकारों के साथ साथ उनको जो ग़ज़ल कहने का फ़न अभी सीख रहे हैं, "कशिश होशियारपुरी"साहब की इस किताब को बार-बार पढ़ना चाहिए ताकि वो समझें कि शेर कहने का शऊर और हुनर क्या होता है और इसके लिए कितनी मेहनत मशक्कत करनी पड़ती है। "कशिश होशियारपुरी"साहब कहते हैं कि :

'शेरो सुख़न की मंजिलें पाने के वास्ते 
मैंने पहाड़ काटा है फ़रहाद की तरह 

सीधी सी बात है जो लोग पहाड़ काटकर रास्ता बनाने की बजाय बनी बनाई सड़क या पगडंडी पर चलने में विश्वास रखते हैं उन्हें शायरी करना छोड़ ही देना चाहिए क्योंकि ऐसी शायरी, जिसमें पहाड़ तोड़कर रास्ता बनाने जैसी मशक्कत ना करनी पड़े, भले ही सोशल मीडिया पर तुरंत वाह वाही बटोर ले लेकिन वो वक्त की आंधी में बहुत जल्दी और आसानी से उड़ जाती है और भुला दी जाती है। 

"मंज़िलों से दूर"की ग़ज़लों में "कशिश"साहब ने एक से बढ़कर एक नए रदीफ़ और काफियों का इस्तेमाल किया है जो कारी को हैरान भी करता है और उनकी ग़ज़लों को पढ़ने में दिलचस्पी भी बनाए रखता है।
उसूल होते हैं सबको बहुत अज़ीज़ मगर 
कभी-कभी ये परेशान करने लगते हैं
*
हम ये पूछेंगे लहू से की कभी क़त्ल के बाद
क्या किसी तीर का ख़ंजर का बदन दुखता है
*
वो मुझे तोड़ गया आज इसलिए रिश्ता 
मैं उसकी एक भी आदत बुरी न देख सका
*
कहीं कहीं पे ज़रूरी है थोड़ी तल्ख़ी भी
क़फ़स में है वह परिंदे जो मीठा बोलते हैं
*
अपनी ग़ैरत का उसे करना है सौदा लेकिन
मुझसे कहता है ख़रीदार भी मैं ला कर दूं

कशिश होशियारपुरी"साहब जिनका वैसे नाम 'कुलतार सिंह'है वैसे तो होशियारपुर, पंजाब के बाशिंदे हैं लेकिन इन दिनों वो 'अमेरिका'के 'शिकागो'शहर में रहते हैं। आइए उनके बारे में उन्हीं द्वारा इस किताब में लिखी भूमिका से जानते हैं, वो लिखते हैं कि:

जैसा कि आप जानते हैं पंजाब का एक शहर होशियारपुर, जिसे हल्का-ए-अरबाबे-ज़ौक का शहर कहा जाता है, इस अदबी और तारीखी शहर की ज़रखे़ज़ ज़मीन से बड़े अदीब पैदा हुए जिनके नाम आज भी जहाने-अदब के फ़लक पर रौशन हैं उनमें 'मुनीर नियाज़ी', 'हफ़ीज होशियारपुरी', 'हबीब जालिब', 'नरेश कुमार शाद'वगै़रह नुमायां हैं। मेरा ख़मीर भी इसी शहर के तारीख़ी ही गांव खड़ियाला सैणीयां की ज़मीन से 1 मार्च 1965 को उठा। मैंने अपने शहर की इस अज़ीम अदबी विरासत को संभालने में ही अपने आप को खर्च कियाहै

यहां से गुज़रे हैं साहिर, नज़र, मुनीर, 'कशिश' 
हमारे नाम को निस्बत उसी दयार से है

मेरे खानदान का शायरी से कहीं दूर का भी रिश्ता नहीं था मेरी मिट्टी खराब की मैंने यह सख्त राह इख़्तियार कर ली। यह मेरी ख़ुशबख़्ती कह लें कि ज़िंदगी मुझे उत्तर प्रदेश के बहुत ही ज़रख़ेज़ इलाके बाराबंकी की फ़ज़ाओं में ले गई वहां मैंने क़रीब 12 साल गुज़ारे वहीं मेरे फ़न ने तरबियत पाई। इब्तिदाई दिनों में मैंने उस्ताद-ए-मोहतरम 'बादल सुल्तानपुरी'साहब से उर्दू ज़ तयबान, उर्दू ग़ज़ल और उरूज़ के बारे में इल्म हासिल किया। 'बादल'साहब ने बहुत सख्त इम्तिहान लिए यहां तक की 7 साल बाद मुझे अपना शागिर्द तस्लीम किया। 'बादल'साहब के इंतकाल के बाद माहिरे फ़न उस्ताद हज़रते 'रहबर ताबानी'साहब की शफ़क़्त हासिल हुई ।आपने मेरे लहजे और फ़न को निखारा।

शायरी मेरे नज़दीक इबादत का फ़न है, शायरी ज़िंदगी को पाकीज़गी बख़्शती है, शायरी मेरे जीने का मक़्सद है, मेरी ज़िंदगी का हिस्सा है। शायरी ज़िंदगी की रा'नाई है, शायरी आदमी को तहज़ीब सिखाती है, शायरी आसमानों से उतरती है और आलिम बनती है। शायरी तेज सूरज की रोशनी का गुज़र नहीं बल्कि नर्म चांदनी का जादू है।

मैं शायरी के दावेदारों की फ़ेहरिस्त में कहां पर हूं मैंने इस पर कभी और नहीं किया ना हाथ फैला कर शोहरत मांगने की कोशिश की मैंने अपनी हर ग़ज़ल को पिछली ग़ज़ल से बेहतर करने की कोशिश की है। मुझे 'मज़रूह सुल्तानपुरी', 'कैफ़ी आज़मी', 'ख़ुमार बाराबंकवी', 'बशीर बद्र', 'राहत इंदौरी', 'मुनव्वर राणा', 'गोपाल दास नीरज'जी जैसी कद्दावर शायरों के साथ मुशायरे पढ़ने का फ़क़्र हासिल है। मेरी ग़ज़लें आकाशवाणी जालंधर और लखनऊ एवम दूरदर्शन दिल्ली और जालंधर से प्रसारित हो चुकी हैं।

'टाइम्स पब्लिकेशन'होशियारपुर से सन 2022 में प्रकाशित"मंज़िलों से दूर"से किताब से पहले भी 'कशिश'साहब की किताब "एहसास की परतें" 1994 में छप कर मक़बूल हो चुकी है। 
आप 'टाइम्स पब्लिकेशन'से 9888033233 पर संपर्क कर इस किताब को मंगवा सकते हैं और 'कशिश'साहब को उनके फेसबुक पेज https://www.facebook.com/kashish.hoshiarpuri?mibextid=ZbWKwL पर अथवा उनके ईमेल kashishhoshiarpuri123gmail.com पर बधाई दे सकते हैं।

आप हर बात सलीक़े से कहें घर में भी 
आपकी बातों का बच्चों पे असर पड़ता है 

सारे इस फ़र्क को महसूस नहीं कर सकते 
चांदनी का जो सितारों पे असर पड़ता है
*
फ़ायलातुन फ़ायेलुन में लोग तो उलझे रहे
आपका ग़म आके मेरा शेर पूरा कर गया
*
चलो, उठो कि ज़माने के साथ-साथ चलें 
अब इस मक़ाम पे ख़तरा दिखाई देता है
*
तूने दुनिया को बनाया था मुहब्बत के लिए
तेरी दुनिया से मुहब्बत नहीं देखी जाती
*
हरे पहाड़ों की चोटियों पर झुके झुके ये सफ़ेद बादल 
नदी के तन पे हवा अज़ल से जो नाचती है वो शायरी है

ये बात मौजे-तरब से पूछो, यक़ीन कर लो या रब से पूछो 
कि ज़िंदगानी में हादसों की जो चाशनी है वो शायरी है
मौजे-तरब: ख़ुशी की लहर
*
उर्दू सीख के सबसे पहले 
मैंने तेरा नाम लिखा था
*
इश्क़ जो दे उसे क़ुबूल करें
दर्द हो, वस्ल हो, जुदाई हो






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