लोग फिर भी घर बना लेते हैं भीगी रेत पर
जानते हैं बस्तियां कितनी समंदर ले गया
उस ने देखे थे कभी इक पेड़ पर पकते समर
साथ अपने एक दिन कितने ही पत्थर ले गया
समर: फल
रुत बदलने तक मुझे रहना पड़ेगा मुन्तजिर
क्या हुआ पत्ते अगर सारे दिसंबर ले गया
मुन्तजिर: इंतज़ार में
आप इन शेरों को पढ़ कर वाह वाह कर रहे होंगे जिन्हें ढूंढने में मेरी आह निकल गयी। शायरी की किताब ढूँढने मैं इस बार के दिल्ली पुस्तक मेले का चक्कर भी लगा आया और चक्करघिन्नी खा कर बड़ा बेआबरू हो कर ख़ाली हाथ लौटा। एक तो पुस्तक मेला बहुत विशाल क्षेत्र में फैला हुआ है दूसरे उस विशाल क्षेत्र के विशाल भाग पर अंग्रेजी भाषा का दबदबा है। ऐसे में हिंदी की और वो भी शायरी की ऐसी किताब ढूँढना जिसे किसी ख्याति प्राप्त शायर ने न लिखा हो, फूस के ढेर में सुई ढूँढने से भी अधिक मुश्किल काम है।
पुस्तक मेले में हिंदी भाषा की पुस्तकों के पंडाल में मैंने बहुत से हिंदी लेखकों को अपनी बात अंग्रेजी में रखते देख शर्म से गर्दन झुका ली। मैं अंग्रेजी का विरोधी नहीं लेकिन जो भाषा हमारी अपनी है उस से सौतेला व्यवहार करना मुझे पसंद नहीं आता।
वो बार बार बनाता है एक ही तस्वीर
हरेक बार फकत रंग ही बदलता है
गजाले -वक्त बहुत तेज़-रौ सही लेकिन
कहाँ पे जाय कि जंगल तमाम जलता है
गजाले-वक्त: समय का हिरन
अजीब बात है जाड़े के बाद फिर जाड़ा
मेरे मकान का मौसम कहाँ बदलता है
थक हार कर वापस अपने शहर जयपुर की उसी दूकान 'लोकायत प्रकाशन ' पर जा कर दस्तक दी जिसने हमेशा मुझे किताबों से मालामाल किया है। दूकान के बाहर ही उसके मालिक 'शेखर जी' जो हिंदी साहित्य और साहित्यकारों पर धाराप्रवाह बोल सकते हैं, मिल गए और बोले नीरज जी मुझे अफ़सोस है आपकी पसंद की कोई किताब इन दिनों नहीं आई है , फिर भी ये आप की ही दूकान है कहीं कुछ मिल जाय तो ढूंढ लें। इस जुमले का आशय सिर्फ इतना था के उनका मूड खुद किताबों के ढेर में घुसने का नहीं है। बहुत सारी किताबें देखीं लेकिन सब की सब या तो पढ़ी हुईं थीं, या फिर उन शायरों की जिनका जिक्र इस श्रृंखला में पहले हो चुका है। किताबों से उडती धूल को मुंह से पौंछता हुआ उठ ही रहा था के अचानक एक रैक में कहीं अन्दर धंसी इस किताब पर नज़र पड़ गयी जिसका जिक्र आज मैं आपसे करूँगा।
मैं हूँ बिखरा हुआ दीवार कहीं दर हूँ मैं
तू जो आ जाय मेरे दिल में तो इक घर हूँ मैं
कल मेरे साथ जो चलते हुए घबराता था
आज कहता है तिरे कद के बराबर हूँ मैं
इससे मैं बिछडू तो पल भर में फना हो जाऊं
मैं तो खुशबू हूँ इसी फूल के अंदर हूँ मैं
किताब का शीर्षक है
"लम्हों का लम्स "और शायर हैं जनाब
" मेहर गेरा ". आपका तो मुझे नहीं मालूम पर मैंने उनका नाम कभी नहीं सुना था, अजी मेरी बात तो छोडिये अपने आप को महाज्ञानी कहने वाले गूगल महाशय भी उनके नाम पर बगलें झांकते मिले।
जितनी जानकारी मुझे मिली है उसके अनुसार गेरा साहब का जन्म एक मई 1933 को पंजाब में जालंधर के पास हुआ। उनकी दो किताबें शाया हुई हैं पहली 'पैकार' और दूसरी " लम्हों का लम्स" जिसके लिए सन 1992 में उन्हें आल इण्डिया मीर अकादमी लखनऊ की और से मीर एवार्ड मिला।
ये दायरे तेरी नश्वो-नुमा में हायल हैं
जरा तू सोच बदल कैद से निकल तो सही
नश्वो-नुमा:विकास, हायल: रूकावट
गवाँ न जान यूँही मंजिलों के चक्कर में
सफ़र का लुत्फ़ उठा ज़ाविया बदल तो सही
ज़ाविया "दृष्टिकोण
कहीं वजूद ही तेरा न इसमें खो जाए
बड़ा हजूम है इस शहर से निकल तो सही
जनाब साहिर होशियार पुरी साहब फरमाते हैं कि 'मेहर गेरा' साहब का शे'री सफ़र तीन दशकों पर फैला हुआ है, जिसकी शुरुआत पारंपरिक अंदाज़ की ग़ज़ल गोई से हुई। सके बाद इनकी शायरी में एक नया मोड़ आया और इनके विचारों तथा कल्पना ने ग़ज़ल के रंग रूप में आधुनिक रुझानों को ढालना शुरू किया।
तिरे वजूद की खुशबू का पैरहन पहना
तिरे ही लम्स को ओढ़ा तिरा बदन पहना
वजूद:अस्तित्व, लम्स:स्पर्श
वो शख्स भीग के ऐसे लगा मुझे जैसे
कँवल के फूल ने पानी बदन बदन पहना
तिरे बदन की जिया इस तरह लगे जैसे
इक आफताब को तूने किरन किरन पहना
जिया :रौशनी
किताबों की दुनिया श्रृंखला की ये पहली ऐसी किताब है जिसके बारे में मैं आपको दावे से नहीं कह सकता कि ये आपको कहीं आसानी से मिल जायेगी। इस किताब को 'सारांश प्रकाशन' बहल हाउस 13, दरियागंज नयी दिल्ली ने सन 1996 में प्रकाशित किया था। मुझे लोकायत के श्री शेखर जी ने यकीन दिलाया है कि यदि ये किताब किसी को कहीं नहीं मिले तो वो इसकी प्राप्ति के लिए उसकी मदद करेंगे। अपने वादे पे वो खरे उतरते हैं या नहीं ये देखने के लिए आपको उन्हें 9461304810 पर संपर्क करना पड़ेगा।
रुत बदलते ही हर-इक सू मोजज़े होने लगे
पेड़ थे जितने भी सूखे सब हरे होने लगे
ये सफ़र में आ गया कैसा मुकामे-इंतेशार
लोग क्यूँ इक दुसरे से दूर अब होने लगे
मुकामे-इंतेशार:बिखराव का मुकाम
भूलकर सब कुछ समेटें क्यूँ न हम लम्हों का लम्स
ये भी क्या मिलते ही फिर शिकवे-गिले होने लगे
आज के लिए इतना ही, मिलते हैं अगले महीने एक नयी किताब और शायर के साथ तब तक
खुदा हाफ़िज़