(पेशे खिदमत है ,छोटी बहर में एक निहायत सादा सी ग़ज़ल)
ये कैसी मजबूरी है
जो लोगों में दूरी है
क्यूँ फिरता पगलाया सा
तुझमें ही कस्तूरी है
बात सुई से ना सुलझे
तो तलवार जरूरी है
तुम बिन मेरे जीवन की
हर तस्वीर अधूरी है
जाता है जो मंजिल तक
वो रस्ता बेनूरी है
देख किसी को मुस्काना
अब केवल दस्तूरी है
अब केवल दस्तूरी है
देखा 'नीरज'को मुड़ कर
ये क्या कम मशहूरी है ?