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Channel: नीरज
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कोह सा अकड़ा खड़ा रहता था जो

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नीरज शर्मा जो मेरे पडौसी हैं कल सुबह सुबह दांत निकाले मेरे घर आये। वैसे वो हमेशा दांत निकाले ही आते हैं लेकिन इस बार उनके दांत अपेक्षा कृत अधिक निकले हुए थे. ये आने वाले खतरे का सिग्नल था. उनके हाथ में एक कागज़ था जिसे थमाते हुए वो सोफे पे पसर गए और वार्तालाप शुरू हुआ :-
ये क्या है?
ग़ज़ल
ग़ज़ल?
हाँ चौंक क्यूँ गए ?
आप और ग़ज़ल?
क्यूँ ग़ज़ल क्या आप ही लिख सकते हैं ?
नहीं, लेकिन आप भी ...
जी मैं भी , मैं क्यूँ नहीं?
पढूं?
नहीं
तो?
छापें
छापें?
कहाँ ?
अपने ब्लॉग पे
मेरे ब्लॉग पे? आपकी ग़ज़ल ?
हाँ , इसमें बुराई क्या है , और कहीं छप नहीं रही इसलिए सोचा आप को दे दूं ताकि आप ब्लॉग पे छाप दें
......
आप चुप क्यूँ हैं? आप नहीं छापते दूसरों की ग़ज़ल कभी कभी ?
छापी नहीं पोस्ट की है एक आध बार
एक ही बात है , छापो मत चलो पोस्ट ही कर दो। अहसान उतर जाएगा
एहसान?
कैसा एहसान?
जो हमारी मैडम ने आप की काम वाली बाई पे किया है
क्या किया है ?
दही जमाने के लिए जामन दिया था ना। कल आपने कल दही खाया होगा
हाँ खाया तो था
बाई से पूछा नहीं दही जमा कैसे
नहीं?
अब समझ आ गया ना. आप नहीं छापेंगे मतलब पोस्ट करेंगे तो मैं समझूंगा आप एहसान फरामोश हैं। चलता हूँ .
सुनिए
कहिये
आपने मक्ते में मेरा नाम क्यूँ दिया है ?
आपका ? मैंने तो अपना ही दिया है , अब आपका और मेरा एक ही नाम है तो मैं क्या करूँ?
लोग समझेंगे की ये मेरी ग़ज़ल है।
क्या इत्ती ख़राब है ?
......
आप चुप हो गए ?
क्या कहूँ ?
कुछ मत कहें, आप पोस्ट करें .

तो लीजिये पेश है नीरज शर्मा जी की ये ग़ज़ल जो मैंने अपने पर एहसान फरामोश का लेबल न चिपके ये सोच कर पोस्ट की है .



ज़िन्दगी में तब झमेला हो गया 
नीम तुम, जब मैं करेला हो गया 

कोह सा अकड़ा खड़ा रहता था जो 
वक्त जब बदला तो ढेला हो गया  
कोह : पर्वत/पहाड़ 

रक्स करती थीं जहाँ तन्हाईयाँ 
तुम बसे दिल में तो मेला हो गया 

सोचता जो कुछ अलग है भीड़ से 
शख्स वो कितना अकेला हो गया 

हम चले जिस ओर तनहा ही चले 
वो चला जिस और रेला हो गया 

बंद थी जब तक वो गिन्नी सा रहा 
खुल गयी मुठ्ठी तो धेला हो गया 

ख़्वाब में जब वो दिखा 'नीरज'मुझे 
 मैं अकेले से दुकेला हो गया

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