( एक पुरानी ग़ज़ल नए पाठकों के लिए )
कब किसी के मन मुताबिक़ ही चली है जिन्दगी
राह तयकर इक नदी सी, ख़ुद बही है जिन्दगी
ये गुलाबों की तरह नाज़ुक नहीं रहती सदा
तेज़ काँटों सी भी तो चुभती कभी है जिन्दगी
मौत से बदतर समझ कर छोड़ देना ठीक है
ग़ैर के टुकड़ों पे तेरी, गर पली है ज़िन्दगी
बस जरा सी सोच बदली, तो मुझे ऐसा लगा
ये नहीं दुश्मन, कोई सच्ची सखी है ज़िन्दगी
जंग का हिस्सा है यारो, जीतना या हारना
ख़ुश रहो गर आख़िरी दम तक, लड़ी है जिन्दगी
मोल ही जाना नहीं इसका, लुटा देने लगे
क्या तुम्हें ख़ैरात में यारो मिली है जिन्दगी ?
जब तलक जीना है "नीरज", मुस्कुराते ही रहो
क्या ख़बर हिस्से में अब कितनी बची है जिन्दगी