फागुन चला गया, होली चली गयी तो क्या हुआ ? मस्ती तो नहीं नहीं गयी ना? जिस दिन मस्ती चली गयी समझो सब कुछ चला गया. आज पढ़ते हैं गुरुदेव "पंकज सुबीर"जी के ब्लॉग पर होली के अवसर पर हुए मस्ती से भरपूर तरही मुशायरे में भेजी खाकसार की ये ग़ज़ल:
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हुआ जो सोच में बूढा उसे फागुन सताता है
मगर जो है जवां दिल वो सदा होली मनाता है
अपुन तो टुन्न हो जाते भिडू जब हाथ से अपने
हमें घर वो बुला कर प्यार से पानी पिलाता है
उसे बाज़ार के रंगों से रंगने की ज़रूरत क्या
फ़कत छूते ही मेरे जो गुलाबी होता जाता है
गलत बातों को ठहराने सही हर बार संसद में
कोई जूते लगाता है कोई चप्पल चलाता है
सियासत मुल्क में शायद है इक कंगाल की बेटी
हर इक बूढा उसे पाने को कैसे छटपटाता है
बदल दूंगा मैं इसका रंग, कह कर देखिये नेता
बुरे हालात सी हर भैंस पर उबटन लगाता है
बहुत मटका रही हो आज पतली जिस कमरिया को
उसे ही याद रख इक दिन खुदा कमरा बनाता है
दबा लेते हैं दिल में चाह अब तुझसे लिपटने की
करें कितनी भी कोशिश बीच में ये पेट आता है
सुनाई ही नहीं देगा किसी को सच वहां "नीरज"
तू क्यूँ नक्कार खाने में खड़ा तूती बजाता है