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Channel: नीरज
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किताबों की दुनिया -107/2

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हज़ारों मुश्किलें हैं दोस्तों से दूर रहने में 
मगर इक फ़ायदा है पीठ पर खंज़र नहीं लगता 

कहीं कच्चे फलों को संगबारी तोड़ लेती है 
कहीं फल सूख जाते हैं कोई पत्थर नहीं लगता 

हर इक बस्ती में उसके साथ अपनापन सा लगता है 
नहीं है वो तो अपना घर भी अपना घर नहीं लगता 

मुज़फ़्फ़र साहब की शायरी फ़लक से गुनगुनाती हुई गिरती बरसात की बूंदों की याद दिलाती है जिसमें लगातार भीगते रहने का मन करता है। भाषा की ऐसी मिठास ऐसी रवानी ओर कहीं मिलना दुर्लभ है। ये खासियत उनकी एक आध नहीं बल्कि सभी ग़ज़लों में दिखाई देती है।

कागज़ी फूल हैं उसकी तकदीर में 
जिसको फूलों में काँटा नहीं चाहिए 

ग़म बंटाने को इक आम सा आदमी 
दोस्ती को फ़रिश्ता नहीं चाहिए 

ज़ख़्म छिल जायेंगे ग़म बिफर जायेगा 
बेसबब मुस्कुराना नहीं चाहिए 

मात्र 14 साल की उम्र से अब तक लगातार ग़ज़लें कहने वाले मुज़फ़्फ़र साहब ने अब तक 1700 अधिक ग़ज़लें कह डाली हैं। मुज़फ्फ़र हनफी कि शायरी (ग़ज़ल) कि पहली किताब “पानी कि जुबां“ जो 1967 में प्रकाशित हुई थी , हिंदुस्तान में आधुनिक शायरी कि पहली किताब मानी जाती है।

दो बूंदों की हसरत ले कर चुप टीले पर रेत खड़ी है 
चारों जानिब घुँघरू बांधे रिमझिम रिमझिम बरसा पानी 

सूखी डालें सोच रहीं हैं अब आने से क्या होता है 
पत्ते ताली पीट रहे हैं आया पानी आया पानी 

अक्सर उसकी याद आती है रौ में तेज़ी आ जाती है 
वो परबत की ऊंची चोटी , मैं झरने का बहता पानी 

हनफी साहब के बारे में आज के दौर के कामयाब शायर और उर्दू शायरी पर पुख्ता जानकारी रखने वाले जनाब 'मयंक अवस्थी'साहब ने ठीक ही फ़रमाया है कि : "हर शायर गज़ल की तलाश करता है लेकिन हनफी साहब इकलौते शायर हैं जिनकी तलाश ग़ज़ल खुद करती है।आज के दौर के मंच के बड़े बड़े नाम –किसकी गज़लों की नकल करते हैं सब जानते हैं — गज़लों के नक्काल बहुत हैं और मुज़फ्फर एक — हनफी साहब से कई शायरों को बहुत रश्क है और उनपर ऐसे शायरों ने ज़बर्दस्त तंज़बारी की है लेकिन मुज़फ्फर हनफी साहब को न कोई पा सका है और न पा सकेगा “

अगर सोचो तो वजनी हो गयी है 
हमारी बात ना मंज़ूर हो कर 

किसी का पास आकर दूर होना 
कहीं अन्दर महकना दूर हो कर 

मुहब्बत की इज़ाज़त भी नहीं है 
बड़े घाटे में हूँ मशहूर हो कर 

हनफ़ी साहब की ग़ज़लें देवनागरी में यूँ तो इंटरनेट की बहुत सी लोकप्रिय साइट्स मसलन 'लफ्ज़ ', कविताकोश, रेख्ता के अलावा कुछ छुटपुट ब्लॉग पर भी पढ़ीं जा सकती हैं लेकिन एक मुश्त पढ़ने के लिए सिवा ''मुज़फ़्फ़र की ग़ज़लें" की किताब के दूसरा कोई रास्ता नहीं है। इस किताब में मुज़फ़्फ़र साहब की चुनिंदा 127 ग़ज़लें शामिल की गयी हैं। 


पूछता हूँ कि क्या कह रही थी हवा 
चांदनी रात बातें बनाने लगी 

इस तरह याद आने से क्या फायदा 
जैसे नागिन कहीं सरसराने लगी 

आओ लंगर उठायें मुज़फ़्फ़र मियाँ 
बादबाँ को हवा गुदगुदाने लगी 

'लफ्ज़'के पोर्टल पर जाने माने शायर जनाब तुफैल चतुर्वेदीसाहब ने लिखा है कि "मुज़फ्फ़र हनफ़ी साहब ग़ज़ल के दरबार के वो अमीर हैं कि उनसे दरबार ही धन्य नहीं है बल्कि उनकी किसी भी महफ़िल में मौजूदगी महफ़िल के सारे लोगों को बाशऊर बना देती है. मैंने उनकी सदारत में मुशायरे पढ़े हैं. बड़े-बड़े वाचाल शायर हाथ बांधे उनसे इजाज़त लेते देखे हैं.
ग़ज़ल के दो रंग जनाबे-मीर और जनाबे-सौदा से चले हैं. तीसरे रंग यानी व्यंग्यात्मकता का इज़ाफ़ा जनाबे-यास यगाना चंगेज़ी और शाद आरिफी साहब ने किया. मुज़फ्फर साहब उन शाद आरिफी साहब के शागिर्द हैं.

मेरे हाथों के छाले फूल बन जाते हैं कागज़ पर 
मेरी आँखों से पूछो रात भर तारे बनाता हूँ 

जिधर मिट्टी उड़ा दूँ आफताब-ऐ-ताज़ा पैदा हो 
अभी बच्चों में हूँ साबुन के गुब्बारे बनाता हूँ 

ज़माना मुझसे बरहम है मेरा सर इसलिए खम है 
कि मंदिर के कलश, मस्जिद के मीनारे बनाता हूँ 
 बरहम = नाराज , खम =झुका हुआ 

मेरे बच्चे खड़े हैं बाल्टी ले कर कतारों में 
कुएँ ,तालाब, नहरें और फ़व्वारे बनाता हूँ 

'मुनव्वर राना'साहब ने किताब के कवर फ्लैप पर क्या खूब लिखा है "मुज़फ़्फ़र साहब की हर ग़ज़ल अनोखी उपज और हुनरमंदी का सबूत देती है उनका हर शेर विश्वास और ज़िन्दगी करने की अलामत बन जाता है। 

जनाब 'गोपी चंद नारंग'साहब दूसरे फ्लैप पर लिखते हैं कि 'मुज़फ्फर हनफ़ी उन शायरों में हैं जो अपने लहजे और आवाज से पहचाने जाते हैं। तबियत की रवानी की वजह से उन के यहाँ ठहराव की नहीं बहाव की कैफियत है। किसी शायर का अपने लहजे और अपने तेवर से पहचाना जाना ऐसा सौभाग्य है जिस को कला की सब से बड़ी देन समझना चाहिए।

कुछ ऐसे अंदाज़ से झटका उस ने बालों को 
मेरी आँखों में दर आया पूरा कजरी बन 

उल्फ़त के इज़हार पे उस के होंटो पर मुस्कान 
पेशानी पर बेचैनी सी, आँखों में उलझन 

कैसे तेरे शेरों में हो जाते हैं आमेज़ 
पत्थर का ये दौर मुज़फ़्फ़र और ग़ज़ल का फ़न 

कुछ लोग होते हैं जो अवार्ड्स लेने की फ़िराक में दिन रात एक करते हैं लेकिन कुछ ऐसे होते हैं जिनकी तलाश में अवार्ड्स रहते हैं। मुज़फ़्फ़र साहब दूसरे तबके के लोगों में शुमार हैं जिनकी गिनती उँगलियों पर की जा सकती है। ज़िन्दगी में उन्होंने अवार्ड्स को कभी कोई अहमियत नहीं दी। पचास से ऊपर अवार्ड प्राप्त हनफ़ी साहब को हाल ही में सन2013 -14 के लिए उर्दू अकादमी की और से पुरुस्कृत किया गया।

अवार्ड लेने में उनकी बेरुखी उनके सुनाये इस सच्चे किस्से से बयाँ होती है " 1995 की बात है। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा उस दिन मुझे उर्दू के सर्वोच्च मिर्जा गालिब अवार्ड से सम्मानित करने वाले थे। उसी दिन खंडवा में आयोजित मुशायरे के लिए दोस्तों ने निमंत्रण भेजा था। जन्म स्थली और दोस्तों के बीच जो खुशी मिलती वह राष्ट्रपति के हाथों अवार्ड लेने से नहीं। मिर्जा गालिब अवार्ड लेने के लिए मैंने अपने बेटे फिरोज हनफी को दिल्ली भेजा और मैं खंडवा चला आया। (जैसा उन्होंने चर्चा में बताया)"

जब खाली बिस्तर लगता है काँटों का इक ढेर 
किरनों सा परदे से छन कर आ जाता है कौन 

फूलों की पंखुड़ियों से जब मन करता है बात 
कोमल कोमल टहनी में ये बल खाता है कौन 

चिड़ियों की चहकार से इतने भोलेपन के साथ 
हंस हंस कर कानों में अमृत छलकाता है कौन 

वो कहती है और किसी को अपने शेर सुना 
तेरी चिकनी चुपड़ी बातों में आता है कौन 

मुज़फ़्फ़र साहब की बुलंद शक्शियत और बेजोड़ शायरी पर ऐसी कई पोस्ट्स भी अगर लिखें तो भी कामयाबी हासिल नहीं होगी। मैंने तो सिर्फ 'टिप ऑफ द आइस बर्ग 'ही दिखाने कोशिश की है। इस किताब को हिंदी अकादमी (दिल्ली ) के सौजन्य से फ़रवरी 2003 में प्रकाशित किया गया था। इस संकलन के लिए मुज़फ़्फ़र साहब की ग़ज़लों का चयन उन के बेटे फ़ीरोज़ और जनाब फ़ुज़ैल ने किया है। किताब प्राप्ति के लिए आप अल किताब इंटरनेशनल ,मुरादी रोड, बटाला हाउस नई दिल्ली ,विजय पब्लिशर्स 9 मार्किट दरिया गंज और मॉडर्न पब्लिशिंग हाउस वगोला मार्किट नयी दिल्ली से सम्पर्क कर सकते हैं।

ये सब कुछ नहीं करना तो यूँ करें कि आप मुज़फ़्फ़र साहब के साहिब जादे जनाब फ़िरोज़ भाई को उनके मोबाईल न.09717788387 पर संपर्क कर किताब प्राप्ति का आसान रास्ता पूछें। कुछ भी करें एक बात पक्की है कि इस किताब के पन्नों को पलटते हुए आप जिस अनुभव से गुज़रेंगे उसे लफ़्ज़ों में बयां नहीं किया जा सकता। ,
इस पोस्ट के अंत तक आने के बाद मुझे महसूस हो रहा है कि अभी बहुत कुछ छूट गया है जिसका जिक्र होना चाहिए था सागर की एक बूँद से चाहे आप सागर में मौजूद अथाह पानी का स्वाद या उसमें मिले नमक और दूसरे मिनरल्स की मात्रा का भले पता लगा लें, लेकिन सागर की गहराई का अंदाज़ा नहीं लगा सकते उसके लिए तो आपको उसमें डुबकी ही लगानी पड़ेगी।

आखिर में उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर आपको पढ़वाते हैं और अगली किताब की खोज में निकलते हैं :

फन को महकाये रखते हैं ज़ख़्मी दिल के ताज़ा फूल 
टूटी तख्ती काम आती है नय्या पार लगाने में 

तितली जैसे रंग बिखेरो घायल हो कर काँटों से 
मकड़ी जैसे क्या उलझे हो ग़म के ताने बाने में 

बुझते बुझते भी ज़ालिम ने अपना सर झुकने न दिया 
फूल गयी है सांस हवा की एक चिराग़ बुझाने में 

 इस पोस्ट को अगर मुज़फ़्फ़र साहब के एक शेर से की नज़र से देखा जाय तो वो शेर होगा :

 अंदर से अच्छे होते हैं अक्सर आड़े तिरछे लोग 
 जैसे अफ़साना मंटो मन्टो का,जैसे शेर मुज़फ़्फ़र का



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