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Channel: नीरज
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सूर्यास्त

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सोचता हूँ आज आपको अपनी दोयम दर्ज़े कि ग़ज़ल पढ़वाने के बजाय एक ऐसी अद्भुत रचना पढ़वाई जाय जिसकी मिसाल हिंदी साहित्य में ढूंढें नहीं मिलती ( कम से कम मुझे ). इस बार दिल्ली के पुस्तक मेले में मुझे बरसों से तलाशी जा रही सूर्य भानु गुप्तसाहब कि किताब "एक हाथ की ताली"मिल गयी। इस किताब में गुप्त जी की ग़ज़लें, दोहे, कवितायेँ, त्रिपदियाँ, हाइकू, चतुष्पदिआं आदि सब कुछ है। वाणी प्रकाशन से इस किताब के सन 1997 से 2002 के अंतराल में चार संस्करण निकल चुके हैं। ये किताब बाज़ार में सहजता से उपलब्ध नहीं है। (कम से कम मेरी जानकारी में )

इस किताब के पृष्ठ 104 पर छपी गुप्त जी की लम्बी कविता "सूर्यास्त"के कुछ अंश आपको पढ़वाता हूँ।


 
 
चेहरे जले -अधजले जंगल
चेहरे बहकी हुई हवाएँ।
चेहरे भटके हुए शिकारे
चेहरे खोई हुई दिशाएँ।
 
चेहरे मरे हुए कोलम्बस
चेहरे चुल्लू बने समंदर।
चेहरे पत्थर की तहज़ीबें
चेहरे जलावतन पैगम्बर।
 
चेहरे लोक गीत फ़ाक़ों के
चेहरे ग़म की रेज़गारियां।
चेहरे सब्ज़बाग़ की शामें
चेहरे रोती मोमबत्तियाँ।
 
चेहरे बेमुद्दत हड़तालें
चेहरे चेहराहट से ख़ाली।
चेहरे चेहरों के दीवाले
चेहरे एक हाथ की ताली।
 
चेहरे दीमक लगी किताबें
चेहरे घुनी हुई तकदीरे।
चेहरे ग़ालिब का उजड़ा घर
चेहरे कुछ ख़त कुछ तस्वीरें।
 
चेहरे खुली जेल के क़ैदी
चेहरे चूर चूर आईने।
चहरे चलती फिरती लाशें
चेहरे अस्पताल के ज़ीने।
 
चेहरे ग़लत लगे अंदाज़े
चेहरे छोटी पड़ी कमीज़ें।
चेहरे आगे बढ़े मुक़दमे
चेहरे पीछे छूटी चीज़ें।
 
चेहरे चेहरों के तबादले
चेहरे लौटी हुई बरातें।
चेहरे जलसाघर की सुबहें
चेहरे मुर्दाघर की रातें।
 
चेहरे घुटनों घुटनों पानी
चेहरे मई जून की नदियां।
चेहरे उतरी हुई शराबें
चेहरे नस्लों कि उदासियाँ।
 
चेहरे ख़त्म हो चुके मेले
चेहरे फटे हुए गुब्बारे।
चेहरे ठन्डे पड़े कहकहे
चेहरे बुझे हुए अंगारे।
 
चेहरे सहरा धूप तिश्नगी
चेहरे कड़ी क़ैद में पानी।
चेहरे हरदिन एक करबला
चेहरे हर पल इक कुर्बानी।
 
चेहरे एक मुल्क के टुकड़े
चेहरे लहूलुहान आज़ादी।
चेहरे सदमों की पोशाकें
चेहरे इक बूढ़ी शहज़ादी।
 
चेहरे पिटी हुई तश्बीहें
चेहरे उड़े हाथ के तोते।
चेहरे बड़े मज़े में रहते
चेहरे अगर न चेहरे होते।
 
चेहरे अटकी हुई पतंगें
चाहों के सूखे पेड़ों पर
चेहरे इक बेनाम कैफियत
ऊन उतरवाई भेड़ों पर।
 
चेहरे एक नदी में फिसली
शकुन्तलाओं की अंगूठियां
उनको निगल गयीं जो, वे तो
मछली घर की हुई मछलियां।
 
चेहरे लादे हुए सलीबें
अपने झुके हुए कन्धों पर.
सहमे सहमे रैंग रहे हैं
जीवन की लम्बी सड़कों पर.
 
चेहरे सड़कें-छाप उँगलियाँ
पकडे पकडे ऊब चुके हैं
फ़िक्रों के टीलों के
पीछे चेहरे सारे डूब चुके हैं।
 
( सम्पूर्ण कविता में 31 छंद हैं )
 


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