कोई काम उन को जो आ पड़ा, हमें आसमाँ पे चढ़ा दिया
जो निकल गया मतलब, तभी हमें रास्ता भी दिखा दिया
वही राज है, वही ताज है, ये चुनाव सिर्फ रिवाज है
कहीं दाम दे के मना लिया, कहीं डर दिखा के बिठा दिया
ये जहां फरेब का नाम है, यहाँ झूठ ही को सलाम है
जो हकीकतों पे अड़ा रहा उसे ज़हर दे के मिटा दिया
इन सीधे सादे सच्चाई बयां करते हुए मारक शेरों के शायर हैं जनाब "कुमार साइल"साहब, जिनकी किताब "हवाएं खिलाफ थीं"का जिक्र हम आज अपनी "किताबों की दुनिया"श्रृंखला में करने जा रहे हैं। दालान में दीवार तो खिंचावा दी है तुमने
ये धूप , ये बरसात, ये तूफ़ान भी बांटों
लाशें तो उठा लोगे कि पहचान हैं चेहरे
धरती पे पड़े खून की पहचान भी बांटों
क्यूँ थाप पे मेरी हो तेरे पाँव में थिरकन
हम तुम जो बंटें हैं तो ये सुर-तान भी बांटों
24 नवम्बर 1954 को हिसार (हरियाणा ) में जन्में साइल साहब ने दिल्ली यूनिवर्सिटी से मौसिकी में एम् ऐ किया। इन दिनों आप राजकीय स्नातकोत्तर महिला महाविद्यालय, भोडिया खेड़ा, फतेहाबाद (हरियाणा) में प्राचार्य के पद पर कार्यरत हैं। अपनी शायरी में आम इंसान कि खुशियां ग़म तकलीफें उत्सव समेटने वाले साइल साहब फरमाते है कि मेरी ग़ज़लों कि इस लहलहाती फ़सल के तबस्सुम के पीछे हज़ारों अफ़साने, सैंकड़ों कहानियां और न जाने कितने दर्दो-अलम पोशीदा हैं।ऐ यार तेरे शहर का दस्तूर निराला है
इक हाथ में खंज़र है इक हाथ में माला है
मतलब के लिए खुद ही बारूद थमाते हैं
फिर आप ही कहते हैं, बम किसने उछाला है
किस किस को सजा देगी , अदालत ये जरा देखें
शामिल तो मेरे क़त्ल में हर देखने वाला है
इस किताब को पढ़ते वक्त ये बात बखूबी साफ़ हो जाती है कि शायर ने अपने अशआर में अपने दिली एहसास को बड़े सलीके से सजा कर पेश किया है. उनके हर शेर में एक हस्सास शायर का दिल धड़कता हुआ महसूस होता है. उनके ख़यालात अछूते हैं और शेर कहने का अंदाज़ भी निराला है.
बहुत सोचते थे हमीं से जहाँ है
मगर मर के पाया जहाँ का तहाँ है
इसी इक वहम ने किया हम को रुसवा
लबों पे हो कुछ भी मगर दिल में हाँ है
इबादत के घर में करे है सियासत
ये इन्सां की सूरत में इन्सां कहाँ है
ये माना गले से लगाओगे लेकिन
ये क्या शै है जो आस्तीं में निहाँ है
'हवाएं खिलाफ थीं'के अलावा साइल साहब का एक और शेरी मज़मूआ "रेशमी ज़ंज़ीर "मंज़रे आम पर आने के बाद खासी मकबूलियत हासिल कर चुका है. एक बहुत छोटी सी जगह का ये बड़ा सा शायर भले ही लोकप्रियता के उस मुकाम तक न पहुंचा हो जिस पर उनके समकालीन शायर कायम हैं लेकिन उनकी शायरी अपने समकालीन शायरों के मुकाबले उन्नीस नहीं कही जा सकती। इसीलिए वो जब भी रिसाले या अखबार में छपते हैं तो किसी भी प्रबुद्ध पाठक की निगाह से ओझल नहीं होते। उस से भागें तो किस तरह भागें
साथ अपने वो कब नहीं होता
कौनसा दे है साथ वो अपना
क्या बिगड़ता जो रब नहीं होता
जैसे उग आये बेसबब सब्ज़ा
प्यार का भी सबब नहीं होता
ये किताब यकीनन मेरे हाथ नहीं आती अगर मैं इस साल के दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में नहीं गया होता। चलते रुकते देखते मुझे आधार प्रकाशन दिखा जहाँ ये किताब मुझे एक शेल्फ में रखी दिखाई दी। शायर का नाम परिचित नहीं था और ये ही इस किताब को शेल्फ से उठा कर देखने का कारण था. मुझे ऐसे शायर जिनके बारे में न अधिक पढ़ा हो और न सुना को पढ़ना बहुत पसंद है. नए शायर के प्रति आप की कोई पूर्व निर्मित धारणा नहीं होती इसीलिए पढ़ने में आनंद आता है। आधार प्रकाशन पर पुस्तकें खरीदने के दौरान हिंदी के प्रसिद्ध लेखक श्री एच आर हरनोट साहब से भी मुलाकात हुई जिनकी सादगी और अपनेपन ने मुझे भाव विभोर कर दिया। ये कहानी फिर सही। इन फफोलों का गिला कीजे तो किस से कीजे
हम ही बैचैन थे दिल आग में धर देने को
ग़र्क़ होने का खतरा तो उठाना होगा
मौज आती नहीं हाथों में गुहर देने को
गुहर : मोती
पाँव काँटों से हुए जाते हैं छलनी 'साइल'
पेड़ तो खूब लगाए थे समर देने को
बात आधार प्रकाशन की तो हुई लेकिन आधार प्रकाशन है कहाँ इसकी चर्चा नहीं हुई। तो जनाब इस किताब की प्राप्ति के लिए आप आधार प्रकाशन, एस सी एफ 267 सेक्टर -16 पंचकूला -134113 (हरियाणा) को लिखें या aadhar_prkashan@yahoo.com पर ई-मेल करें और अगर आप लिखत पढ़त के झंझट से बचना चाहते हैं तो 0172 - 2566952 पर फोन करें। मेरी राय में तो आपको साइल साहब को 09812595833 पर फोन कर इस लाजवाब किताब के लिए बधाई देते हुए किताब प्राप्ति की फरमाइश कर देनी चाहिए। यकीन कीजिये इस किताब की हर ग़ज़ल आप के दिल पर असर करेगी। चलते चलते उनकी एक ग़ज़ल के चंद शेर और पढ़िए :
अगर आदमी दिल से काला न होता
ख़ुदा ने अदन से निकाला न होता
अदन : स्वर्गीय उपवन
तुम्हारी ये तस्वीर कुछ और होती
लबों पे हमारे जो ताला न होता
पकाते न गर सब अलग अपनी खिचड़ी
सियासत के मुंह में निवाला न होता