दिपावली के शुभ अवसर पर पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर तरही मुशायरे का सफल आयोजन हुआ ,उसी में प्रस्तुत खाकसार की ग़ज़ल
दुबक के ग़म मेरे जाने किधर को जाते हैं
अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं
हज़ार बार कहा यूँ न देखिये मुझको
हज़ार बार मगर, देख कर सताते हैं
उदासियों से मुहब्बत किया नहीं करते
हुआ हुआ सो हुआ भूल, खिलखिलाते हैं
हमें पता है कि मौका मिला तो काटेगा
हमीं ये दूध मगर सांप को पिलाते हैं
कमाल लोग वो लगते हैं मुझ को दुनिया में
जो बात बात पे बस कहकहे लगाते हैं
जहाँ बदल ने की कोशिश करी नहीं हमने
बदल के खुद ही जमाने को हम दिखाते हैं
बहुत करीब हैं दिल के मेरे सभी दुश्मन
निपटना दोस्तों से वो मुझे सिखाते हैं
गिला करूँ मैं किसी बात पर अगर उनसे
तो पलट के वो मुझे आईना दिखाते हैं
रहो करीब तो कड़ुवाहटें पनपती हैं
मिठास रिश्तों की कुछ फासले बढ़ाते हैं
नहीं पसंद जिन्हें फूल वो सही हैं, मगर
गलत हैं वो जो सदा खार ही उगाते हैं
ये बादशाह दिए रोंध कर अंधेरों को
गुलाम मान के, अपने तले दबाते हैं
बहुत कठिन है जहां में सभी को खुश रखना
कि लोग रब पे भी अब उँगलियाँ उठाते हैं
जिसे अंधेरों से बेहद लगाव हो 'नीरज'
चराग सामने उसके नहीं जलाते हैं