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त्यागता ख़ुशबू कहाँ है मोगरा सूखा हुआ

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अपनी इक पुरानी ग़ज़ल को झाड़-पौंछ कर फिर से प्रस्तुत कर रहा हूँ , उम्मीद है पसंद आएगी

खौफ का खंजर जिगर में जैसे हो उतरा हुआ
आज कल इंसान है कुछ इस तरह सहमा हुआ

चाहते हैं आप खुश रहना अगर, तो लीजिये,
हाथ में वो काम जो मुद्दत से है छूटा हुआ

पाप क्या औ' पुण्य क्या है वो न समझेगा कभी
जिसका दिल दो वक़्त की रोटी में हो अटका हुआ

फूल की खुशबू ही तय करती है उसकी कीमतें,
क्या कभी तुमने सुना है, खार का सौदा हुआ

झूठ सीना तानकर चलता हुआ मिलता है अब,
सच तो बेचारा है दुबका, कांपता डरता हुआ

अपनी बद-हाली में भी मत मुस्कुराना छोड़िये
त्यागता ख़ुशबू कहाँ है मोगरा सूखा हुआ

वो हमारे हो गए 'नीरज' ये क्या कम बात है
खुद ग़रज़ दुनिया में वरना कौन कब किसका हुआ

किताबों की दुनिया - 66

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भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार...ये शब्द आजकल हर तरफ गूँज रहा है...सदियों से सहते आ रहे भ्रष्टाचार से अचानक लोग मुक्ति पाने के लिए तड़प रहे हैं...नारे लगा रहे हैं, अनशन कर रहे हैं, मुठ्ठियाँ हवा में लहरा रहे हैं...और भ्रष्टाचार है के वहीँ का वहीँ अपनी मजबूत स्तिथि का फायदा उठाते हुए मंद मंद मुस्कुरा रहा है. क्यूँ? जवाब के लिए मुंबई से प्रकाशित साहित्य पत्रिका "कथा बिम्ब"के ताज़ा अंक में श्री "घनश्याम अग्रवाल"जी की ये कविता पढ़ें:-
"बेताल के सवाल पर
विक्रम से लेकर अन्ना तक
सभी मौन हैं
कि जब सारा देश
भ्रष्टाचार के खिलाफ है
तब स्याला
भ्रष्टाचार करता कौन है?"

सीधी सी बात है भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले हम लोग ही भ्रष्टाचार को फ़ैलाने में सहयोग देते हैं.इसी बात को उस शायर ने जिसकी किताब का जिक्र हम करने जा रहे हैं किस खूबसूरत अंदाज़ में कहा है पढ़िए :-

येचाँद ख़ुद भी तो सूरज के दम से काइम है
ये ख़ुद के बल पे कभी चांदनी नहीं देते


गज़ब के तेवर लिए इस छोटी सी प्यारी सी शायरी की किताब" जन गण मन "के लेखक हैं ब्लॉग जगत के अति प्रिय, स्थापित युवा शायर जनाब "द्विजेन्द्र द्विज"साहब. द्विजेन्द्र जी किसी परिचय के मोहताज़ नहीं ,ब्लॉग जगत के ग़ज़ल प्रेमी इस नाम से बखूबी परिचित हैं. ब्लॉग पर उनकी सक्रियता अधिक नहीं रहती लेकिन वो जब भी अपनी ग़ज़लों से रूबरू होने का मौका देते हैं अपने पाठकों को चौंका देते हैं.

अँधेरे चंद लोगों का अगर मकसद नहीं होते
यहांके लोग अपने आप में सरहद नहीं होते

फरेबों की कहानी है तुम्हारे मापदंडों में
वगरना हर जगह 'बौने' कभी 'अंगद' नहीं होते

चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझना होगा
सफ़र में हर जगह सुन्दर घने बरगद नहीं होते

बौनों के अंगद होने की बात कहने वाला शायर किस कोटि का होगा ये पता लगाना कोई मुश्किल काम नहीं है. ऐसी सोच और ऐसे अशआर यक़ीनन शायर के अन्दर धड़कते गुस्से के लावे को बाहर लाते हैं. द्विज जी की बेहतरीन ग़ज़लें रिवायती ग़ज़लों की श्रेणी में नहीं आतीं, उनकी ग़ज़लों में महबूबा के हुस्न और उसकी अदाओं में घिरे इंसान का चित्रण नहीं है उनकी ग़ज़लों में आम इंसान की हताशा, दुखी जन के प्रति संवेदनाएं और समाज के सड़े गले नियमों के खिलाफ गुस्सा झलकता है. द्विज जी अपनी ग़ज़लों से आपको झकझोर कर जगाते हैं.

अगर इस देश में ही देश के दुश्मन नहीं होते
लुटेरा ले के बाहर से कभी लश्कर नहीं आता

जो खुद को बेचने की फितरतें हावी नहीं होतीं
हमें नीलाम करने कोई भी तस्कर नहीं आता

अगर जुल्मों से लड़ने की कोई कोशिश रही होती
हमारे दर पे जुल्मों का कोई मंज़र नहीं आता

10 अक्तूबर,1962. को जन्में द्विज जी, बेहतरीन ग़ज़ल कहने की उस पारिवारिक परम्परा का निर्वाह कर रहे हैं जिसकी नींव उनके स्वर्गीय पिता श्री "सागर पालनपुरी"जी ने डाली थी. श्री ‘सागर पालनपुरी’जी का नाम आज भी हिमाचल के साहित्यिक हलकों बहुत आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है. कालेज के दिनों से ही वो अपने पिता के सानिध्य में ऐसी ग़ज़लें कहने लगे जिसे सुन कर उस्ताद शायर भी दंग हो जाया करते थे. तारीफों की हवा से अक्सर इंसान गुब्बारे की तरह अपनी ज़मीन को छोड़ कर ऊपर उड़ने लगते हैं और एक दिन अचानक धरातल पर आ गिरते हैं, लेकिन द्विज जी के साथ ऐसा नहीं हुआ. प्रशंशा की सीढियों से उन्होंने नयी ऊँचाइयाँ छूने की कोशिशें की.

कटे थे कल जो यहाँ जंगलों की भाषा में
उगे हैं फिर वही तो चम्बलों की भाषा में

सवाल ज़िन्दगी के टालना नहीं अच्छा
दो टूक बात करो, फ़ैसलों की भाषा में

फ़रिश्ता है कहीं अब भी जो बात करता है
कड़कती धूप तले, पीपलों की भाषा में

हज़ार दर्द सहो, लाख सख्तियां झेलो
भरो न आह मगर, घायलों की भाषा में

द्विज जी चूँकि हिमाचल से हैं इसलिए उनकी ग़ज़लों में पहाड़ नदियाँ बादल झरने रूमानी अंदाज़ में नहीं बल्कि ज़िन्दगी की हकीकत बन कर कर उभरे हैं. इस संग्रह की संक्षिप्त सी भूमिका में मशहूर ग़ज़ल कार जनाब 'ज़हीर कुरैशी' जी ने क्या खूब लिखा है के " द्विज जी की ग़ज़लों में व्यक्त उनका पहाड़ हिमाचल तक सिमित नहीं है. जाती मज़हब रंग नस्लों और फिरकापरस्ती की सियासत के खिलाफ भी उनका ग़ज़लकार तन कर खड़ा है. पहाड़ की कठिन ज़िन्दगी में खून-पसीने से सींचे गए खेतों की उपज का बंटवारा ठीक-ठाक होने की चेतावनी भी उनके शेरों में है." आप खुद पढ़ें:

बंद अंधेरों के लिए ताज़ा हवा लिखते हैं हम
खिड़कियाँ हो हर तरफ ऐसी दुआ लिखते हैं हम

आदमी को आदमी से दूर जिसने कर दिया
ऐसी साजिश के लिए हर बद्दुआ लिखते हैं हम

रौशनी का नाम दे कर आपने बाँटे हैं जो
उन अंधेरों को कुचलता हौसला लिखते हैं हम

अँग्रेज़ी साहित्य में सनातकोत्तर डिग्री प्राप्त द्विज जी 'अनुप्रयुक्त विज्ञानं एवं मानविकी राजकीय पोलिटेक्निक', सुन्दर नगर , जिला मंडी में विभागाध्यक्ष के पद पर कार्य रत हैं , ग़ज़ल लेखन उनका शौक भी है और समाज में हो रही असंगतियों को देख मन के अन्दर उठते लावे को बाहर लाने का ज़रिया भी. उनकी ग़ज़लें आपसे दार्शनिक अंदाज़ में बातें नहीं करती बल्कि सीधे सपाट शब्दों में अपनी बात कहती हैं और अपना पक्ष प्रस्तुत करती हैं.

आपके अंदाज़, हमसे पूछिए तो मोम हैं
अपनी सुविधा के सभी सांचों में ढल जाते हैं आप

कुश्तियां, खेलों के चस्के आपके भी खूब हैं
शेर बकरी को पटकता है बहल जाते हैं आप

सिद्धियाँ मिलने पे जैसे मन्त्र साधक मस्त हों
शहर में होते हैं दंगे, फूल फल जाते हैं आप

"जन-गण-मन" गागर में सागर को चरितार्थ करती हुई छोटी सी किताब है जिसमें द्विज जी की लगभग साठ ग़ज़लें संगृहीत हैं. इसे आप श्री सतपाल ख्याल जी के ब्लॉग "आज की ग़ज़ल"या फिर स्वयं द्विज जी के ब्लॉग "द्विजेन्द्र ‘द्विज’"पर आन लाइन भी पढ़ सकते हैं. लेकिन साहब आन लाइन पढने में वो मज़ा नहीं आता जो मज़ा किताब को हाथ में उठाकर पढने में आता है. हालाँकि इस किताब को 'दुष्यंत-देवांश-प्रकाशन, अशोक लॉज, मारण्डा, हिमाचल प्रदेश द्वारा प्रकाशित किया गया है लेकिन इसे प्राप्त करने का आसान तरीका है द्विज जी को इस संग्रह के लिए उनके मोबाइल +919418465008 पर बात कर बधाई देते हुए उनसे किताब की प्राप्ति के लिए आग्रह करना।

मेरा सौभाग्य है के मैं पिछले पांच सालों से उनसे संपर्क में हूँ .ये संपर्क अभी तक आभासी है याने सिर्फ मोबाइल पर ही उनसे बात होती है लेकिन मुझे उनसे बात करके कभी लगा ही नहीं कि मैं इनसे अभी तक नहीं मिला हूँ. मैंने ग़ज़ल लेखन के क्षेत्र में उनसे बहुत कुछ सीखा है और सीख रहा हूँ. इस क्षेत्र में आदरणीय पंकज सुबीर जी और प्राण साहब के साथ साथ वो भी मेरे गुरु हैं. अपनी सोच में एक दम स्पष्ट और जीवन के प्रति सकारात्मक विचार रखने वाले इस शख्श की प्रशंशा के लिए मेरे पास उपयुक्त शब्द नहीं हैं. मैं दुआ करता हूँ के वो इसी तरह अपनी शायरी से हमें हमारे जीवन में फैले अंधियारों से लड़ने की ताकत देते रहें.

रास्तों पर 'ठीक शब्दों' के
दनदनाती ' वर्जनाएं ' हैं

मूक जब 'संवेदनाएं' हैं
सामने 'संभावनाएं' हैं

आदमी के रक्त में पलतीं
आज भी 'आदिम-प्रथाएं' हैं

ये मनोरंजन नहीं करतीं
क्यूंकि ये ग़ज़लें 'व्यथाएं' हैं

फूल कर कुप्पा हुआ करती थीं जिस पर रोटियां

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गुरुदेव पंकज सुबीर जी ब्लॉग पर हाल ही में एक तरही मुशायरे का आयोजन हुआ था जिसमें "इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में" या "कुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गाँव में " मिसरे पर ग़ज़ल कहनी थी. गाँव के माहौल पर उस मुशायरे में देश विदेश के बेहतरीन शायरों ने एक से बढ़ कर एक खूबसूरत ग़ज़लें भेजीं. पेश है उस मुशायरे में भेजी खाकसार की ग़ज़ल.



मेरे बचपन का वो साथी है अभी तक गाँव में
इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में

फूल कर कुप्पा हुआ करती थीं जिस पर रोटियां
माँ की प्यारी वो अंगीठी, है अभी तक गाँव में

ज़हर सी कडवी बहुत हैं इस नगर में बोलिया
हर जबां पर गुड़ की भेली, है अभी तक गाँव में

शहर में देखो जवानी में बुढ़ापा आ गया
पर बुढ़ापे में जवानी, है अभी तक गांव में

कोशिशें उसको उठाने की सभी ज़ाया हुईं
इक अजब सी नातवानी, है अभी तक गाँव में
नातवानी= अक्षमता, निर्बलता, असामर्थ्य

सारे त्योंहारों पे मिल कर मौज मस्ती नाचना
रोज पनघट पे ठिठोली, है अभी तक गांव में

पेट भरता था जिसे खा कर मगर ये मन नहीं
ढूध वाली वो जलेबी, है अभी तक गांव में

दोस्ती, अख़लाक़, नेकी, अदबियत, इंसानियत
जानिसारी, खाकसारी है अभी तक गाँव में

जिस्म की पुरपेच गलियों में कभी खोया नहीं
प्यार तो "नीरज" रूहानी है अभी तक गाँव में

चों मियां फुक्कन

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दोस्तों आपको याद होगा पिछले दिनों पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर एक तरही मुशायरे का आयोजन किया गया था जिसमें पेश मेरी ग़ज़ल आप पिछली पोस्ट में पढ़ चुके हैं. उसी मुशायरे के आखिर में उस्ताद शायर "भभ्भड़"पूरा भांग का मटका चढ़ा कर आ टपके. उनके आते ही मुशायरा होली के रंग में डूब गया. आप पंकज जी के ब्लॉग पर भभ्भड़ जी की हज़ल को पूरी पढ़ सकते हैं यहाँ प्रस्तुत हैं बानगी के तौर पर उस हज़ल के कुछ शेर. होली चली गयी तो क्या हुआ उसी के खुमार में इसका लुत्फ़ लें. मैंने ये हज़ल पंकज जी के ब्लॉग से उस वक्त चुरा ली जब वो पिनक में थे. अब चुरा ली तो चुरा ली जब बड़े बड़े चोरों का इस देश की सरकार कुछ नहीं बिगाड़ पायी तो इस चोरी पर पंकज जी मेरा क्या बिगड़ लेंगे? इसे कहते हैं चोरी और सीना जोरी...फिलहाल हज़ल पढ़िए और दिल खोल कर हंसिये



खूबसूरत उसकी साली है अभी तक गाँव में
इसलिए कल्लू कसाई है अभी तक गाँव में

चों मियां फुक्कनतुम्हारे घर मेंकल वो कौन थी
तुम तो कहते थे कि, बीवी है अभी तक गाँव में

मायके जाना है तुझको, गर जो होली पर, तो जा
वो बहन तेरी फुफेरी है अभी तक गाँव में

आ रिये हो खां किधर से बहकी बहकी चाल है
क्या वो नखलऊ वाली नचनी है अभी तक गाँव में

आप होली पर शराफत इतनी क्यूँ दिखला रहे
आपकी क्या धर्म पत्नी है अभी तक गाँव में

हुस्न बेपरवाह सा है इश्क बेतरतीब सा
औ' मोहब्बत बेवकूफी है अभी तक गाँव में

आज कल देते हैं वो 'भभ्भड़' का परिचय इस तरह
ये पुराना एक पापी है अभी तक गाँव में

किताबों की दुनिया - 67

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चमकी कहीं जो बर्क तो एहसास बन गयी
छाई कहीं घटा तो अदा बन गयी ग़ज़ल

आंधी चली तो कहर के साँचें में ढल गयी
बादे सबा चली तो नशा बन गयी ग़ज़ल

उठ्ठा जो दर्दे इश्क़ तो अश्कों में ढल गयी
बेचैनियाँ बढीं तो दुआ बन गयी ग़ज़ल

अर्ज़े दकन में जान तो देहली में दिल बनी
और शेहरे लखनऊ में हिना बन गयी ग़ज़ल

मुंबई निवासी मेरे शायर मित्र जनाब सतीश शुक्ला 'रकीब'जिनकी शायरी आप मेरे ब्लॉग पर पढ़ और पसंद कर चुके हैं जब मेरे यहाँ खोपोली में एक रात रहने आये तो अपने साथ शायरी की एक किताब भी उठाते लाये. मुझे ये बात स्वीकारने में कोई हिचक नहीं है कि इस किताब के शायर और उनकी शायरी के बारे में मुझे कुछ भी पता नहीं था. बाद में मुझे अपनी अज्ञानता पर अलबत्ता शर्म जरूर आई.

अश्क बहने दे यूँ ही
लज्ज़ते ग़म कम न कर

अजनबियत भी बरत
फासला भी कम न कर

पी के कुछ राहत मिले
ज़हर को मरहम न कर

बहते हुए अश्कों से ग़म की लज्जत उठाने वाले इस अज़ीम शायर का नाम है "गणेश बिहारी 'तर्ज़'जिनकी किताब "हिना बन गयी ग़ज़ल" का जिक्र आज हम अपनी इस किताबों की दुनिया श्रृंखला में करेंगे. ये किताब 'तर्ज़' साहब का सपना थी, जिसके हिंदी संस्करण का अनावरण वो अपने सामने करवाने से पहले ही 17 जुलाई 2009 को इस दुनिया-ऐ-फ़ानी से कूच कर गए.


ज़िन्दगी का ये सफ़र भी यूँ ही पूरा हो गया
इक ज़रा नज़रें उठायीं थीं कि पर्दा हो गया

दर्द जब उमड़ा तो इक आंसू का कतरा हो गया
और जब ठहरा तो बढ़ कर एक दरिया हो गया

अपनों को अपना ही समझा ग़ैर समझा ग़ैर को
गौर से देखा तो देखा मुझको धोका हो गया

अव्वल अव्वल तो समाधी में अँधेरा ही रहा
आखिर आखिर हर तरफ जैसे उजाला हो गया.

ऐसे और इस तरह के अनेकों शेर पढ़ कर मालूम हुआ कि 'तर्ज़' साहब कितने कद्दावर शायर थे. "दर्द जब उमड़ा..".जैसा शेर एक बार पढने के बाद ज़ेहन से उतरने का नाम ही नहीं ले रहा. ज़िन्दगी को बहुत करीब से देखने और समझने वाला शख्स ही ऐसे शेर कह सकता है.
18 मई 1928 को लखनऊ में पैदा हुए 'तर्ज़' साहब की शायरी में हमें वहां की नफासत और नजाकत दोनों दिखाई पड़ती है.

इक ज़माना था कि जब था कच्चे धागों का भरम
कौन अब समझेगा कदरें रेशमी ज़ंजीर की

त्याग, चाहत, प्यार, नफरत, कह रहे हैं आज भी
हम सभी हैं सूरतें बदली हुई ज़ंजीर की

किस को अपना दुःख सुनाएँ किस से अब मांगें मदद
बात करता है तो वो भी इक नयी ज़ंजीर की

शोर शराबे और आत्म प्रशंशा से कोसों दूर रहने वाले इस ग़ैर मामूली शायर को मकबूलियत की वो बलंदी नहीं मिली जिसके वो हकदार थे. उनके बारे में मशहूर शायर जनाब 'अली सरदार जाफरी'साहब ने कहा है " सारे हिन्दुस्तान में बिखरे हुए कुछ ऐसे शायर भी मिलेंगे जिनके नाम या तो अपने इलाकों से बाहर नहीं गए हैं या बिलकुल गुमनामी के आलम में हैं. मेरे अज़ीज़ दोस्त 'तर्ज़' ऐसे शायर हैं जो ज्यादातर अपने हल्कए अहबाब में रहना पसंद करते हैं. इनके इस मिजाज़ ने उर्दू के आम पढने वालों को उनकी ग़ज़लों के हुस्न से महरूम रखा है."ज़ाफरी साहब की बात पर यकीं करने के लिए आप तर्ज़ साहब का नाम गूगल कर के देखें आप को गूगल महाशय जो अपनी जानकारी पर इतराते फिरते हैं बगलें झांकते नज़र आयेंगे.

है बात वक्त वक्त की चलने की शर्त है
साया कभी तो कद के बराबर भी आएगा

ऐसी तो कोई बात तसव्वुर में भी न थी
कोई ख्याल आपसे हट कर भी आएगा

मैं अपनी धुन में आग लगाता चला गया
सोचा न था कि ज़द में मेरा घर भी आएगा

'तर्ज़' साहब बेहद खूबसूरत आवाज़ के मालिक थे और जब वो तरन्नुम से अपना कलाम पढ़ते थे तो सुनने वाला बेहतरीन शायरी के साथ साथ उनकी आवाज़ के हुस्न का भी दीवाना हो जाता था. उनकी ग़ज़लों में हुस्न और इश्क की कशमकश, इश्क की बेबसी, हुस्न का अंदाज़े बयाँ, इंतज़ार का दर्द, हिज्र की कसक ही नहीं है ज़िन्दगी की तल्खियाँ और सच्चाइयाँ भी हैं, गिरते मूल्यों का दर्द भी है :

सपने मिलन के मिल के तो काफूर हो गए
इतना हुए क़रीब कि हम दूर हो गए

जिन कायदों को तोड़ के मुजरिम बने थे हम
वो क़ायदे ही मुल्क का दस्तूर हो गए

कोनों में काँपते थे अँधेरे जो आज तक
सूरज को ज़र्द देखा तो मगरूर हो गए

'तर्ज़' इनको अपने सीने में कब तक छुपाओगे
ये ज़ख्म अब कहाँ कहाँ रहे नासूर हो गए

अच्छी शायरी के शौकीनों को अपना दिल छोटा करने की जरूरत नहीं है क्यूँ के "हिना बन गयी ग़ज़ल" जैसी अनमोल शायरी की किताब, जिसमें तर्ज़ साहब की उम्दा ग़ज़लें ,नज्में, कतआत संगृहीत हैं सिर्फ "दिवंगत आत्मा की शांति के लिए दो मीठे बोल" बोल कर प्राप्त की जा सकती है. इस किताब में शायरी के साथ साथ तर्ज़ साहब के कुछ अविस्मर्णीय चित्र भी प्रकाशित किये गए हैं जिसमें आप उनको अपने परिवार और शायर मित्रों के साथ हँसते मुस्कुराते देख सकते हैं. मुझे इस किताब से ही मालूम पड़ा के मशहूर शायर कृष्ण बिहारी 'नूर' साहब रिश्ते में तर्ज़ साहब के दूर के भाई हैं. इस बेजोड़ किताब की प्राप्ति के लिए आप अपना मोबाइल या फोन उठाइये 09452461950 पर फोन कीजिये और इस किताब की फरमाइश कर डालिए. अगर ये तरीका कारगार साबित न हो रहा हो तो हमेशा मदद के लिए तैयार हमारे मित्र सतीश शुक्ला 'रकीब' साहब जो ‘तर्ज़’ साहब के बहुत क़रीब रहे हैं और उन्हें अपना गुरु मानते हैं को उनके मोबाइल 09892165892 पर संपर्क करें. मुझे पक्का विशवास है वो आपको ये किताब भिजवाने में कोई कसर न उठा रखेंगे. एक बात जान लें इस किताब की बहुत कम प्रतियाँ छपवाई गयीं हैं इसलिए इसकी प्राप्ति के लिए की गयी कोशिश में देरी आपको हाथ मलने पर मजबूर कर सकती है.

आईये चलते चलते तर्ज़ साहब की एक छोटी बहर की ग़ज़ल के चंद खूबसूरत शेर आपको पढवाता हूँ...मुलाहिज़ा फरमाइए...

ज़िन्दगी क्या है और मौत क्या
शब् हुई और सहर हो गयी

उनकी आँखों में अश्क आ गए
दास्ताँ मुख़्तसर हो गयी

चार तिनके ही रख पाए थे
बिजलियों को खबर हो गयी

उनकी महफ़िल से उठ कर चले
रौशनी हमसफ़र हो गयी

बहुत मटका रही हो आज पतली जिस कमरिया को

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फागुन चला गया, होली चली गयी तो क्या हुआ ? मस्ती तो नहीं नहीं गयी ना? जिस दिन मस्ती चली गयी समझो सब कुछ चला गया. आज पढ़ते हैं गुरुदेव "पंकज सुबीर"जी के ब्लॉग पर होली के अवसर पर हुए मस्ती से भरपूर तरही मुशायरे में भेजी खाकसार की ये ग़ज़ल:



हुआ जो सोच में बूढा उसे फागुन सताता है
मगर जो है जवां दिल वो सदा होली मनाता है

अपुन तो टुन्न हो जाते भिडू जब हाथ से अपने
हमें घर वो बुला कर प्यार से पानी पिलाता है

उसे बाज़ार के रंगों से रंगने की ज़रूरत क्या
फ़कत छूते ही मेरे जो गुलाबी होता जाता है

गलत बातों को ठहराने सही हर बार संसद में
कोई जूते लगाता है कोई चप्पल चलाता है

सियासत मुल्क में शायद है इक कंगाल की बेटी
हर इक बूढा उसे पाने को कैसे छटपटाता है

बदल दूंगा मैं इसका रंग, कह कर देखिये नेता
बुरे हालात सी हर भैंस पर उबटन लगाता है

बहुत मटका रही हो आज पतली जिस कमरिया को
उसे ही याद रख इक दिन खुदा कमरा बनाता है

दबा लेते हैं दिल में चाह अब तुझसे लिपटने की
करें कितनी भी कोशिश बीच में ये पेट आता है

सुनाई ही नहीं देगा किसी को सच वहां "नीरज"
तू क्यूँ नक्कार खाने में खड़ा तूती बजाता है

किताबों की दुनिया -68

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बात जयपुर की है. सन 1980-90 की. हमारे घर में बरसों से चले आ रहे जयपुर के एक प्रसिद्द समाचार पत्र के साथ साथ हमने 'नव भारत टाइम्स'' जो जयपुर से तब प्रकाशित होना शुरू हुआ था को दो कारणों से मंगवाना शुरू कर दिया. पहला मुख्य कारण था उसके अंतिम पृष्ठ पर स्व. श्री शरद जोशी जी का रोज़ प्रकाशित होने वाला एक कालम और दूसरा हर हफ्ते छपने वाली साप्ताहिक फिल्म समीक्षा. मुझे फरवरी 1990 में अमिताभ बच्चन की फिल्म "अग्नि पथ" के बारे में छपी समीक्षा जिसमें समीक्षक ने उनके लाजवाब अभिनय की बेजोड़ प्रशंशा की थी, अभी तक याद है. समीक्षक द्वारा की गयी प्रशंशा में सच्चाई थी तभी इस फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरुष्कार श्री "अमिताभ बच्चन" को मिला. इस से साबित हुआ कि फिल्म समीक्षक के पास अपने आस पास की चीजों को सही ढंग से देखने समझने की अद्भुत क्षमता है. फिल्म की समीक्षा करते हुए ये समीक्षक बीच बीच में ऐसे कमाल के शेर पिरोता था के पढ़ते हुए मुंह से बरबस वाह निकल जाया करती थी. किन्हीं कारणों से जयपुर का नवभारत टाइम्स बंद हो गया और फिर उसके बाद मैंने कभी किसी अखबार या पत्रिका में ऐसी शायराना फिल्म समीक्षा नहीं पढ़ी. ये फिल्म समीक्षा लिखा करते थे हमारी आज की "किताबों की दुनिया" श्रृंखला के अगले शायर जनाब "दिनेश ठाकुर"जिनकी हाल ही में प्रकाशित किताब "परछाइयों के शहर में"का जिक्र हम करने जा रहे हैं.


कभी तुम जड़ पकड़ते हो कभी शाखों को गिनते हो
हवा से पूछ लो न ये शजर कितना पुराना है

मरासिम वैसे ही कायम हैं अपने ठोकरों से भी
मेरा रस्ता, मेरा चलना, मेरा गिरना पुराना है

समय ठहरा हुआ सा है हमारे गाँव में अब तक
वही पायल, वही छमछम, वही दरिया पुराना है

दस दिसंबर 1963 को झीलों की खूबसूरत नगरी उदयपुर में जन्में युवा दिनेश जी की शायरी में गर्मी से तपती धरती पर बारिश की पहली बूंदों से उठी मिटटी की महक है, झीलों सी गहराई है,शादाब घने पेड़ों के नीचे मिलने वाली ठंडक है ज़र्द पत्तों के डाल से बिछुड़ने का दर्द है... वो अपने अशआर से हमें चौंकाते भी हैं और सोचने पर मजबूर भी करते हैं. दिनेश के पिता उन्हें इंजिनियर बनाना चाहते थे लेकिन होनी एक कामयाब शायर. इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा में उतीर्ण होने के बावजूद उन्होंने अपने दिल का रास्ता चुना, विज्ञान विषयों को सदा के लिए छोड़ कर उन्होंने आर्ट विषयों में बी.ऐ. किया और जयपुर के एक प्रसिद्द दैनिक अखबार से जुड़ कर नौकरी के साथ साथ पत्रकारिता और मॉस कम्न्युकेशन में एम.ऐ.कर लिया. दुनिया को देखने की उनकी दृष्टि व्यापक होती चली गयी.

यही दस्तूर है शायद वफादारी की दुनिया में
जिसे जी जान से चाहो वही तकलीफ देती है

कज़ा का खौफ लेकर जी रहे हैं सब ज़माने में
हकीकत में सभी को ज़िन्दगी तकलीफ देती है

नुमूँ होते ही जिसको बागबाँ तकता है हसरत से
कई काँटों को वो ताज़ा कली तकलीफ देती है

दिनेश अपनी शायरी में बोलचाल की भाषा के लफ़्ज़ों का इस्तेमाल करते हैं इसीलिए उनकी ग़ज़लें पढ़ते हुए गुनगुनाने को दिल करता है. नए विचारों और शिल्प में नए प्रयोग करना उनका प्रिय शगल है. बंधी बँधाई लीक पर चलना उन्हें गवारा नहीं. अपने लिए नयी ज़मीन तलाशना किसी भी शायर के लिए बहुत बड़ी चुनौती होती है दिनेश इस चुनौती को स्वीकारते हैं और कामयाब भी होते हैं.

थोड़ी सी मोहब्बत भी ज़रूरी है जिगर में
गुस्से से ही सीने में बगावत नहीं आती

किस बात का डर है तुम्हें क्यूँ चुप सी लगी है
सच बोलने भर से तो क़यामत नहीं आती

हर दर्द से बावस्ता हुआ जाता है पहले
इक सर को झुकाने से इबादत नहीं आती

"परछाइयों के शहर में"दरअसल दिनेश जी का दूसरा ग़ज़ल संग्रह है , उनका पहला ग़ज़ल संग्रह "हम लोग भले हैं कागज़ पर " लगभग दस साल पहले शाया हुआ था जिसे बहुत सराहना मिली, उसका दूसरा संस्करण कुछ माह पहले ही प्रकाशित हुआ है जो दिनेश जी की ग़ज़लों की बढती लोकप्रियता को दर्शाता है. इस किताब की भूमिका में मशहूर शायर ज़नाब"शीन काफ निजाम" साहब ने बहुत कमाल की बात कही है "अगर सिर्फ बहर, रदीफ़ और काफिये से निर्मित दो पद शेर नहीं, तो अखबार की सुर्खी भी शेर नहीं. हेराक्लिटस ने कहा था- मेरी बात नहीं मेरे कहने में जो बात बोलती है उसे सुनो. वो बात अकथित है.कथन में अकथित को छुपाना अगर शेर साजी है तो कथन में अकथित को पढना ही ग़ज़ल पढना है " दिनेश जी की ग़ज़लें उनके इस कथन पर खरी उतरती हैं:

उसके ओझल होने तक मेरी आँखें थीं रस्ते पर
वो जाने किस ध्यान में गुम था, मुड़ कर जाना भूल गया

किस दर्ज़ा बेज़ार हुआ है गुलचीं अपने गुलशन से
ताज़ा मौसम के फूलों को गिनकर जाना भूल गया
गुलचीं : माली

बीवी, बच्चे, सड़कें, दफ्तर और तनख्वाह के चक्कर में
मैं घर से अपना ही चेहरा पढ़कर जाना भूल गया

इस किताब में दिनेश जी अधिकांश ग़ज़लें छोटी बहर में हैं और जैसा मैं हर बार कहता आया हूँ छोटी बहर में ग़ज़ल कहना जितना सरल दीखता है उतना ही मुश्किल काम है. गागर में सागर भरने की ये कला हर किसी के पास नहीं होती. थोड़े से लफ़्ज़ों में पुख्ता ढंग से कैसे बात कही जाती है ये आप इस किताब को पढ़ कर स्वयं देखें:

उलझने हैं सभी के सीने में
कौन अब इंकलाब रखता है

याद की धूप जब सताती है
सर पे मेरी किताब रखता है

गुनगुनाता है छुप के मेरी ग़ज़ल
शौक क्या लाजवाब रखता है

दिनेश जी की एक सौ चार लाजवाब ग़ज़लों से सजी इस किताब को यूँ तो फुल सर्कल पब्लिशिंग प्रा.ली.,जे- 40, जोरबाग लेन, दिल्ली ने प्रकाशित किया है और वो शायद आपको वहां से मिल भी जाय लेकिन फिर भी इसे आसानी से प्राप्त करने के लिए आप दिनेश जी को, जो इन दिनों राजस्थान के बहुत पुराने और सबसे अधिक पाठकों वाले अखबार "राजस्थान पत्रिका" में वरिष्ठ समाचार संपादक के पद पर कार्य रत हैं, उनके मोबाइल नंबर 9024788857 पर संपर्क करें, मुझे उम्मीद है मृदु भाषी दिनेश जी से बात कर आपको अलग सा सुकून और किताब प्राप्ति का आसान तरीका भी मिल जायेगा.

सियासत भी तवायफ़ है मोहब्बत क्यूँ करेगी वो
भला किस वक्त घुंघरू इसके मक्कारी नहीं करते

दुपट्टा उसने ये कह कर उड़ा फैंका हवाओं में
हम हर मौसम में परदे की तरफदारी नहीं करते

कसीदे सुनते सुनते रक्स करने लगते हैं साहिब
तमाशा कौनसा महफ़िल में दरबारी नहीं करते

प्रसिद्द रचनाकार श्री नन्द चतुर्वेदीजी ने इस किताब की दूसरी भूमिका में जो लिखा है कि "दिनेश ठाकुर के छोटे छोटे शेर सहसा ज़िन्दगी के उन सवालों से रूबरू कर देते हैं,जिनके जवाब देने के लिए हम तैयार नहीं थे,लेकिन अब जिनसे बचना संभव नहीं है.दिनेश की शायरी मौज-शौक की शायरी की नहीं है. वहां एक फलसफा भी है, बात ज़िन्दगी की बैचेनियों की है जो देर तक परेशान भी करती हैं " उनकी इस बात की तस्कीद के लिए हाज़िर हैं उनकी छोटी बहर की एक ग़ज़ल के ये शेर :-

सिलसिला है तो टूटता क्यूँ है
इस जहाँ में ये सिलसिला क्यूँ है

खींच लाया है जब तू मकतल में
फिर तेरा हाथ काँपता क्यूँ है
मकतल: वधस्थल

मैं भी हैरान हूँ कि बात है क्या
चलते चलते वो भागता क्यूँ है

आईये चलते चलते सुनते हैं दिनेश ठाकुर की वो मशहूर ग़ज़ल जिसे मोहम्मद हुसैन अहमद हुसैन भाइयों ने अपने दिलकश अंदाज़ में गाया है. शायरी और मौसिकी का ये मिलन अद्भुत है और देर तक ज़ेहन में गूंजता रहता है .

किसी शजर के सगे नहीं हैं ये चहचहाते हुए परिंदे

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(गुरुदेव पंकज सुबीर द्वारा आशीर्वाद प्राप्त ग़ज़ल)



अजल से है ये बशर की आदत, जिसे न अब तक बदल सका है
ख़ुदा ने जितना अता किया वो, उमीद से कम उसे लगा है
अजल: अनंतकाल

किसी शजर के सगे नहीं हैं ये चहचहाते हुए परिंदे
तभी तलक ये करें बसेरा दरख्‍़त जब तक हरा भरा है
शजर : पेड़

जला रहा हूँ हुलस हुलस कर, चराग घर के खुले दरों पर
न आएंगे वो मुझे पता है, मगर ये दिल तो बहल रहा है

यहीं रही है यहीं रहेगी ये शानो शौकत ज़मीन दौलत
फकीर हो या नवाब सबको, कफन वही ढाई गज मिला है

चलो हवाओं का रुख बदल दें, बदल दें नदियों के बहते धारे
जुनून जिनमें है जीतने का, ये उनके जीवन का फलसफा है

रहा चरागों का काम जलना, मगर हमीं ने कभी तो उनसे
किया है घर को किसी के रौशन, किसी के घर को जला दिया है

जरा सी बदलोगे सोच अपनी तो फिर सभी से यही कहोगे
इसे समझते रहे बुरा हम, जहां ये लेकिन बहुत भला है

किसे दिखाए वो दाग दिल के, किसे दुखों की कथा सुनाये
अज़ाब ऐसा है ये कि जिससे अदीब तनहा तड़प रहा है
अज़ाब= पीड़ा, सन्ताप, दंड : अदीब= विद्वान :

जो सुब्ह निकले कमाने घर से, थके हुए दिन ढला तो लौटे
तुम्हारा मेरा, सभी का नीरज, यही तो बस रोज़नामचा है

किताबों की दुनिया - 69

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पिछले दिनों मुंबई के अपने मित्र सतीश शुक्ल "रकीब "द्वारा अजीम शायर तर्ज़ लखनवी साहब की याद में आयोजित कार्यक्रम में जाने का मौका मिला. सोचा था इतने बड़े शायर की याद में रखे कार्यक्रम में बहुत से नए पुराने शायरों को सुनने का मौका मिलेगा लेकिन ऐसा हो नहीं पाया. जिस शहर में छुट भैय्ये अभिनेता और नेताओं को देखने के भीड़ जुट जाती है उसी शहर में एक अदीब को याद करने वाले सिर्फ मुठ्ठी भर लोग ही नज़र आये. अपने देश में अदीबों के साथ ऐसा व्यवहार कोई नयी बात नहीं है. हमारे देश में जहाँ "अदम गौंडवी" जैसे कद्दावर शायर उपयुक्त चिकित्सा के अभाव में दम तोड़ देते हों वहां किसी अदीब की याद में आयोजित कार्यक्रम में लोगों के न आने की घटना असाधारण नहीं है. बस, एक अदीब की याद में रखे कार्यक्रम में शिरकत करने अदीब ही न आयें ये बात दुःख पहुंचाती है. कहते हैं की औरत ही औरत की दुश्मन होती है वैसे ही मुझे लगता है अदीब ही अदीब का दुश्मन बना हुआ है. लेकिन शुक्र है अभी भी एक आध ही सही, अदीब हैं जो दूसरे अदीब की तहे दिल से प्रशंशा करते हैं.

इस कार्यक्रम में अपनी बढती उम्र और ख़राब स्वाथ्य के बावजूद उर्दू के मशहूर शायर जनाब "नक्श लायलपुरी"आये और उन्होंने न केवल अपने अज़ीज़ दोस्त को श्रधांजलि दी बल्कि कार्यक्रम की अध्यक्षता भी पूरी तन्मयता से की. आज हम उन्हीं की लिखी किताब " तेरी गली की तरफ"जिसका एक पृष्ठ देव नागरी में और दूसरा उर्दू लिपि में छपा है का जिक्र अपनी किताबों की दुनिया श्रृंखला में करेंगे.


लोग फूलों की तरह आयें के पत्थर की तरह
दर खुला है मेरा आगोशे-पयम्बर की तरह

रात के वक्त कोई इसका तमाशा देखे
दिल के बिफर हुआ रहता है समंदर की तरह.

ये भी ग़म दे के गुज़र जाते तो क्या रोना था
हादिसे ठहरे हुए हैं किसी मंज़र की तरह

सच है नक्श साहब और उनका घर आगोशे पयम्बर से कम नहीं. जो इंसान इतना प्यारा सरल सीधा और सच्चा हो और जिस से मिल कर ऐसी राहत और सुकून मिले जैसे तेज़ गर्मी में किसी बरगद के पेड़ के नीचे आने से मिलती है तो वो पयम्बर नहीं तो और क्या होगा? नक्श साहब के लिखे " रस्मे उल्फत को निभाएं तो निभाएं कैसे..."और "तुम्हें हो न हो मुझको तो इतना यकीं है..."जैसे फ़िल्मी गानों का मैं दीवाना था और आज भी हूँ, लेकिन उनकी शायरी के बारे में मुझे इल्म नहीं था. इस किताब को पढ़ कर मुझे अंदाज़ा हुआ के वे कितने अजीम शायर हैं. वो अब मेरे लिए क्या हैं ये मैं आपको उन्हीं के इन शेरों के माध्यम से बता रहा हूँ:

तेरी आँखों में कई रंग झलकते देखे
सादगी है के झिझक है के हया है क्या है ?

रूह की प्यास बुझा दी है तेरी कुरबत ने
तू कोई झील है, झरना है, घटा है क्या है?

नाम होटों पे तेरा आए तो राहत सी मिले
तू तसल्ली है, दिलासा है, दुआ है क्या है ?

24 फरवरी 1928 को बंटवारे से पहले पंजाब के लायलपुर जिसका नाम अब पकिस्तान सरकार ने फैसलाबाद कर दिया गया है, के एक गाँव गोगेरा में नक्श साहब का जन्म हुआ. इनका बचपन का नाम जसवंत राय था लेकिन शायर बनने के बाद नक्श हुआ और फिर नक्श ही रह गया. बंटवारे के समय बिगड़ते हालात देखते हुए इनका परिवार लखनऊ चला आया.नक्श साहब का मन जब लखनऊ में रमा नहीं तो वो मुंबई के लिए रवाना हो गए. अनजान शहर में एक भले इंसान को जिन दिक्कतों का सामना करना पड़ता है वो इन्हें भी करना पड़ा जैसे भूखे पेट खुले में सोना , काम की तलाश में दर दर भटकना वगैरह वगैरह. घुन के पक्के नक्श साहब ने हिम्मत नहीं हारी . भारी संघर्ष के बाद उन्हें सरकारी नौकरी मिली जिसे करते हुए वो अपना पहला प्यार शायरी भी करते रहे फिर एक दिन नौकरी छोड़ दी और फिल्मों की और रुख किया, धीरे धीरे उनकी गिनती फिल्मों के चर्चित गीतकारों में होने लगी.

ज़हर देता है कोई, कोई दवा देता है
जो भी मिलता है मेरा दर्द बढ़ा देता है

वक्त ही दर्द के काँटों पे सुलाए दिल को
वक्त ही दर्द का एहसास मिटा देता है

नक्श रोने से तसल्ली कभी हो जाती थी
अब तबस्सुम मेरे होटों को जला देता है


नक्श साहब ने साफ़ सुथरी समझ में आने वाली ज़बान, दिलकश अंदाज़ और खूबसूरत लहजे में फ़िल्मी नगमें और गीत लिखे और इसी खासियत को अपनी शायरी में भी दोहराया. मुंबई के मशहूर शायर जनाब "ज़मीर काज़मी" साहब ने इस किताब में लिखा है की "कामयाब शायरी वही है जो दिल से निकले और दिलों में समा जाय". नक्श साहब की शायरी उनकी इस बात की पैरवी करती दिखाई देती है. वो बहुत आसानी से अपने अशआर लोगों के दिलों में उतार देते हैं:


अपनी शायरी सुनाते हुए नक्श साहब

शाखों को तुम क्या छू आए
काँटों से भी खुशबू आए

कोई तो हमदर्द है मेरा
आप न आए आंसू आए

'नक्श' घने जंगल में दिल के
फिर यादों के जुगनू आए

काँटों से भी खुशबू की बात करने वाले ऐसे नायाब शायर को वो बुलंदी नसीब नहीं हुई जो उनके समकालीन शायरों को हुई. कारण आपको नक्श साहब से मिल कर साफ़ हो जायेगा या फिर अज़ीज़ कैसी साहब ने जो इस किताब में लिखा है उसे पढ़ कर " नक्श साहब के चाहने वाले बहुत हैं, उनके गीत मशहूर हैं उनकी ग़ज़लें महफ़िलों सभाओं में गई जाती हैं लेकिन उनको अपने चाहने वालों और दोस्तों का इस्तेमाल करके अपने आपको प्रोजेक्ट करने का हुनर नहीं आता."

ग़म तो है हासिले ज़िन्दगी दोस्तों
बांटना है तो बांटो ख़ुशी दोस्तों

यह गनीमत है कुछ तो अँधेरा छटा
घर जले रौशनी तो हुई दोस्तों

'नक्श' से मिल के तुमको चलेगा पता
जुर्म है किस कदर सादगी दोस्तों

कार्यक्रम की समाप्ति के बाद मैं उन्हें घर छोड़ने गया . रास्ते में ज़र्दे की दो तीन पत्तियां अपनी ज़बान पर रख कर वो अपने और अपने ज़माने के शायरों के पुराने फ़िल्मी गीत बड़े रस ले कर सुनाते गए. उन्होंने आज के फ़िल्मी गीतों के स्तर पर दुःख व्यक्त किया. बोले " बरखुरदार हमारे ज़माने के फ़िल्मी गानों में अर्थ समाये होते थे पर आज के गानों में शब्द ही नहीं होते तो अर्थ कहाँ से होंगे? पुराने फ़िल्मी गीत पूरे के पूरे आज भी लोगों की जबान पर हैं लेकिन आज के गीतों की दूसरी लाइन भी शायद ही कोई बता पाए, दरअसल बरखुरदार पहले लोग दिल से गाने सुना करते थे आज कल कान से सुनते हैं, कहने का मतलब ये के एक कान से सुनते हैं दूसरे से निकाल देते हैं ."
बच्चों सी निश्चल मुस्कराहट उनके चेहरे पर खिल उठी.
उनके मुस्कुराते हुए चेहरे पर आप उन ग़मों को नहीं पढ़ सकते जो इनकी शायरी में झलकते हैं

प्यार को दो ही पल नसीब हुए
इक मुलाकात, इक जुदाई है

आइना पत्थरों से टकराया
ये सजा सादगी की पाई है

मेरी इक सांस भी नहीं मेरी
ज़िन्दगी किस कदर पराई है

शायरी की इस लाजवाब किताब खरीदने के लिए आप को इन में से किसी पते पर संपर्क करना होगा :-
१. किताबदार 5/A ,18/110 जलाल मंजिल, टेमकर स्ट्रीट, जे.जे. हस्पताल के पास मुंबई- 400008
२. गौरव अपार्टमेन्टस C/A/5 होली क्रास रोड, आई. सी.कोलोनी, बोरीवली (वेस्ट) मुंबई 400103
३. अदब नामा , 303 क्लासिक प्लाज़ा तीन बत्ती, भिवंडी, थाणे .
मुझे अफ़सोस है के मेरे पास नक्श साहब का फोन या मोबाइल नंबर नहीं है लेकिन आप उन्हें इस खूबसूरत शायरी के लिए बधाई यहाँ कमेन्ट द्वारा दे सकते हैं. इस पोस्ट की एक प्रिंटेड प्रति मैं कुछ दिनों बाद उन्हें पहुंचाने वाला हूँ. चलते चलते नक्श साहब के ये तीन शेर और पढ़ते चलिए और मानिए कि एक अच्छा इंसान ही अच्छे शेर कह सकता है:

कोई परदेस अगर जाय तो क्या ले जाये
भीगी भीगी हुई आँखों की दुआ ले जाये

याद रखता है उसे अहले ज़माना बरसों
ज़ख्म औरों के जो सीने में सजा ले जाये

मुझसे कलियों का तड़पना नहीं देखा जाता
काश गुलशन से कहीं दूर हवा ले जाये

तो चलते हैं दोस्तों शायरी की एक और किताब की तलाश में तब तक आप नक्श साहब की जादुई शायरी का मज़ा इस गीत को सुन कर लें...हो सकता है आज के नौजवानों ने रुना लैला के गाये फिल्म "घरोंदा" के इस गाने को न सुना हो लेकिन जिन्होंने सुना है वो दुबारा सुन कर इसका मज़ा लें:-


गुलमुहर के पेड़ नीचे

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देश में गर्मी अपने पूरे रंग में है लेकिन यहाँ खोपोली में बादलों ने हलके से आहट देनी शुरू कर दी है. गर्मियों का अपना आनंद होता है इसी विषय पर पंकज जी के ब्लॉग पर पिछले साल एक तरही मुशायरा हुआ जिसमें दिया गया मिसरा " और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी"पर पेश की गयी खाकसार की ग़ज़ल अब मेरे ब्लॉग पर पढ़िए और गर्मियों को दुआएं दीजिये.



आम, लीची सी रसीली, गर्मियों की वो दुपहरी
और शहतूतों से मीठी, गर्मियों की वो दुपहरी

फालसे, आलू बुखारों की तरह खट्टी-ओ-मीठी
यार की बातों सी प्यारी, गर्मियों की वो दुपहरी

थे पिता बरगद सरीखे और शीतल सी हवा माँ
तो लगा करती थी ठंडी, गर्मियों की वो दुपहरी

भूलना मुमकिन नहीं है, गुलमुहर के पेड़ नीचे
साथ हमने जो गुजारी, गर्मियों की वो दुपहरी

कूकती कोयल के स्वर से गूँजती अमराइयों में
प्यार के थे गीत गाती, गर्मियों की वो दुपहरी

बिन तेरे उफ़! किस कदर थी जानलेवा यार लम्बी
और सन्नाटे में डूबी, गर्मियों की वो दुपहरी

सर्दियों में भी पसीना याद कर आता है 'नीरज'
तन जलाती चिलचिलाती, गर्मियों की वो दुपहरी

किताबों की दुनिया - 70

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बर्फ के घर में ठिठुरते आदमी के ज़ेहन में
एक टुकड़ा धूप का अहसास रखतीहै ग़ज़ल

हाथ रखते ही समय के नब्ज़ पर हमको लगा
एक मुर्दा जिस्म में कुछ सांस रखती है ग़ज़ल

द्रौपदी के चीर हरने पर सभासद मौन हैं
न्याय पर कुछ प्रश्न चिन्ह सायास रखती है ग़ज़ल

ग़ज़ल को नए ढंग से परिभाषित करने वाले हमारी " किताबों की दुनिया "श्रृंखला के आज शायर हैं जनाब "प्रेमकिरण"साहब. शायद आपने ये नाम पहले न सुना हो, कमसे कम मैंने तो नहीं ही सुना था. भला हो मेरे शायर मित्र जनाब घायल साहब का, जिनकी किताब "लपटों के दरमियाँ "का जिक्र हम इसी श्रृंखला में कर चुके हैं, जिन्होंने सबसे पहले मुझे इन के बारे में बताया. नए शायरों को पढना एक नए अनुभव से गुजरने जैसा होता है. एक अपरिचित क्षेत्र की यात्रा करने जैसा. आप को पता नहीं होता के रास्ते में कैसे मंज़र आयेंगे. पूरी यात्रा में आपकी उत्सुकता लगातार बनी रहती है. "प्रेमकिरण"साहब की किताब " आग चख कर लीजिये"पढ़ते हुए मुझे जो सुखद अनुभव हुए, उन्हें ही मैं आज आप सब के साथ बाँट रहा हूँ.


गोद में लेना चाहें तो वो गोद से फिसली जाय
मेरी नन्हीं बिटिया जैसी चंचल चंचल धूप

दामन-दामन ठंडक जागी, नुक्कड़ नुक्कड़ आग
सर्द हवाएं, जाड़े के दिन ,शीतल शीतल धूप

खेत बेच कर आखिर उसने दिया गाँव को 'भात'
चावल चावल क़र्ज़ में ठिठुरा पत्तल पत्तल धूप

“चंचल चंचल” , “शीतल शीतल” और “पत्तल पत्तल” जैसे काफिये के साथ "धूप " जैसा रदीफ़ आप को कहाँ रोज़ रोज़ पढने को मिलता है ? ये रचनात्मक मौलिकता ही हर शायर को बाकियों से अलग करती है. "प्रेमकिरन" जी की मौलिकता उनके ग़ज़ल संग्रह के शीर्षक से लेकर उनके हर शेर में देखी जा सकती है.

दिल है पिन कुशन- सा सीने में
हर खलिश आलपिन होती है

हम पे आंसू गिराने वालों के
हाथ में ग्लिसरीन होती है

कीमते अश्क जो समझती है
नम वही आस्तीन होती है

आपा धापी भरे आजकल के जटिल जीवल में जहाँ भौतिक सुखों के पीछे भागता व्यक्ति अपने लिए ही समय नहीं निकाल पाता ऐसे में उस से शायरी की किताब पढने की उम्मीद रखना नीम के पेड़ से आम तोड़ने की कल्पना करने जैसा है , किन्तु फिर भी साहब रेगिस्तान में नखलिस्तान जैसे कुछ लोग हैं जो ये कारनामा करते हैं और जिंदगी में ताजगी बनाये रखते हैं. ऐसे लोगों के कारण ही शायरी आज तक जिंदा है. जिंदा है क्यूँ की जीवन में जटिलताएं जितनी बढती जा रही हैं शायरी के तेवर उतने ही तीखे होते जा रहे हैं. शायरी इंसान को जटिलताओं से डर कर भागना नहीं सिखाती बल्कि उस से सीधी मुठभेड़ के बाद जीतने के हुनर सिखाती है.

मंजिलों की आस रखिये और चलिए
भूल का एहसास रखिये और चलिए

गर मुसीबत काई की सूरत बिछी हो
पाँव को हस्सास रखिये और चलिए

आँधियों का साथ पतझड़ दे रहा है
ढूंढ कर मधुमास रखिये और चलिए

15 जनवरी 1953 को पैदा हुए प्रेम जी की ग़ज़लें अनेक ग़ज़ल एवम कविता संग्रहों के अलावा देश की हिंदी उर्दू की बहुत सी पत्र- पत्रिकाओं में छप चुकी हैं. प्रेम जी ने अनेकों अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों में शिरकत और आकाशवाणी दूरदर्शन के माध्यम से अपने चाहने वालों का दायरा बढाया है. प्रेम जी को डा.मुरलीधर श्रीवास्तव 'शेखर' और दुष्यंत कुमार शिखर सम्मान से सम्मानित किया गया है. इन दिनों आप वाणी प्रकाशन, पटना शाखा में कर रत हैं .

अपने युग के आदमी का बंधु वर्णन क्या करें
आवरण उठता नहीं है रूप दर्शन क्या करें

कोई सपना ही जिन्होंने उम्र भर देखा न हो
वो समय के नाग-फन पर काल-नर्तन क्या करें

दूसरों पर उँगलियाँ ही हम उठाते रह गए
इससे फुर्सत ही नहीं हम आत्म-मंथन क्या करें

हिंदी के शब्दों को ग़ज़लों में ढालने का हुनर बहुत कम देखने को मिला है जबकि प्रेम जी की इस किताब में वो उर्दू के शब्दों के संग बहुत ख़ूबसूरती से ताल मेल बिठाते नज़र आये हैं . प्रेम जी की ग़ज़लें गंगा जमुनी तहजीब का जीता जागता नमूना हैं. उर्दू के दीवानों को उनकी ग़ज़लों में उर्दू ग़ज़लों वाली रवायती खुशबू मिलेगी और हिंदी पाठकों को उनकी ग़ज़लों में दुष्यंत जी वाली हिंदी की महक. शब्द हिंदी के हों या उर्दू के उन्हें बहुत सहजता से प्रेम जी ने अपनी ग़ज़लों में पिरोया है.ग़ज़ल प्रेमियों के लिए ये किताब संग्रहणीय है.

कितने शीशों की नज़ाकत का भरम खुल जाएगा
इस चमन के फूल को पत्थर न होने दीजिये

ज़िन्दगी के रास्ते में आग का दरिया भी है
ज़िन्दगी को मोम का पैकर न होने दीजिये

ज़हर जो शंकर बनाये आपको तो खाइए
वरना इक इंसान को विषधर न होने दीजिये

सस्ती लोकप्रियता से दूर ग़ज़ल के इस सच्चे साधक को अगर आप इन बेहद खूबसूरत अशआरों से भरी इस किताब के लिए मुबारकबाद देना चाहें तो अपना फोन या मोबाइल उठायें और उनसे 09334317153नंबर मिला कर बात करें. किताब यूँ तो राजदीप प्रकाशन सी- 187 ज्वालापुरी, न.-4, नागलोई नई दिल्ली से खरीदी जा सकती है लेकिन प्रेम जी से बात कर के अगर कोई इसकी प्राप्ति का आसान रास्ता हो तो पता कर लें.

आखिर में प्रेम जी की एक ग़ज़ल के इन शेरों के साथ आपसे अगले शायर की किताब ढूँढने तक विदा लेते हैं:

चींटियाँ माना कि दिन में वो चुगाते हैं मगर
आँख में कुछ शर्म भी है कि नहीं ये तो पढो

आस्था को ठेस पहुंची तो लगे तुम चीखने
मंदिरों में धर्म भी है कि नहीं ये तो पढो

तुम तो तीरंदाज़ बन कर खुश बहुत होंगे 'किरन'
तीर का कुछ धर्म भी है कि नहीं ये तो पढो

आप मुड़ कर न देखते

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ज़िन्दगी में जो ग़म नहीं होता
नाम रब का अहम् नहीं होता

तुझ में बस तू बचा है मुझमें मैं
अब के रिश्तों में हम नहीं होता

क़त्ल अब खेल बन गया क्यूँ की
सर सज़ा में कलम नहीं होता

दोस्ती हो के दुश्मनी इसमें
यार कोई नियम नहीं होता

रोटियों के सिवा ग़रीबों का
और कुछ भी इरम नहीं होता
इरम : स्वर्ग

आप मुड़ कर न देखते तो हमें
प्यार है, ये भरम नहीं होता

चीखता है वही सदा " नीरज"
जिसकी बातों में दम नहीं होता

किताबों की दुनिया - 71

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उस ज़माने में भी ,जब मोबाइल नहीं हुआ करता था, चैट की सुविधा नहीं थी और तो और टेलीफोन भी नहीं था , लोग एक दूसरे से खूब बातें किया करते थे. अब जब बात करने की बहुत सी सुविधाएँ हो गयीं हैं जैसे मोबाइल आदि तो लोग हर जगह हर समय बात करते दिखाई देते हैं लेकिन अब की और तब की बातचीत में फर्क है . अब लोगों का मुंह बात करता है जिसे कान सुनते हैं जबकि तब लोग दिल से बात करते थे जिसे दिल सुनता था. बात करने से ज्यादा समझी जाती थी. ऐसी आत्मीय बातचीत जिसे उर्दू में गुफतगू कहते हैं अब बहुत कम होती है.

ऐसे माहौल में शायरी की वो किताब जिसकी टैग लाइन
"बात करती हुई ग़ज़लों की किताब"हो आपका ध्यान खींचने में जरूर कामयाब होगी.

बात करती हुई ग़ज़लों की इस किताब का शीर्षक है " मिजाज़ कैसा है "और मिजाज़ पूछने वाले शायर हैं जनाब "अनवारे इस्लाम ". आज हम इसी किताब का जिक्र अपनी " किताबों की दुनिया " श्रृंखला में करेंगे.


उस की आँखों में आ गए आंसू
मैंने पूछा मिजाज़ कैसा है

दूर तक रेत ही चमकती है
कोई पानी नहीं है धोका है

किसके काँधे पे रखके सर रोऊँ
हाल सबका ही मेरे जैसा है

मेरे ब्लॉग के नियमित पाठक " अनवारे इस्लाम " के कलाम और और उनकी शायरी से रूबरू हो चुके हैं लेकिन जो अनियमित हैं उनसे गुज़ारिश है कि वो "सुखनवर" पर चटखा लगायें. सुखनवर उस साहित्यिक पत्रिका का नाम है जिसे अनवारे इस्लाम साहब भोपाल से नियमित रूप से प्रकाशित करते हैं. सच कहूँ तो साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं की जो आज दशा है उसे देखते हुए अनवारे इस्लाम भाई को इस जोखिम भरे काम के लिए बधाई दी जानी चाहिए.

तुम अपनी रोशनियों पर गुरूर मत करना
चराग सबके बुझेंगे हवा किसी की नहीं

वो होंट सी के मेरे पूछता है चुप क्यूँ हो
किताबे जुर्म में ऐसी सजा किसी की नहीं

चराग़ जलने से पहले ही घर को लौट सकें
हमारे वास्ते इतनी सी दुआ किसी की नहीं

मिजाज़ कैसा है की ग़ज़लें बहुत सादा ज़बान में आपसे बात करती चलती हैं. सीधी सच्ची बातें हैं जो बहुत सरलता से ग़ज़ल के शेरों में पिरोई गयी हैं. वो अपने बारे में भी इस किताब में कुछ नहीं कहते जो कुछ कहती हैं उनकी ग़ज़लें कहती हैं. खास बात तो ये है के उनकी शान में, जैसा की अब हर किताब के शुरूआती पन्नों में इक रिवाज़ सा बन गया है, किसी बड़े शायर, नेता या फिर उनके यार दोस्तों ने कसीदे नहीं पढ़े.

है मुश्किल पिताजी के घर को बचाना
मिरे भाई अपना मकाँ चाहते हैं

मिरे हिस्से में तो लहू भी नहीं है
वो हाथों को रंगे हिना चाहते हैं

है बाकी ज़मीं पर बहुत काम फिर भी
सितारों से आगे जहाँ चाहते हैं

आकर्षक आवरण में लिपटी इस किताब में अनवारे इस्लाम साहब की अस्सी ग़ज़लें अपनी सादगी से पाठकों का मन मोह लेती हैं. ज़िन्दगी को खुशगवार बनाने वाली बातों को बहुत ख़ूबसूरती से अशआरों में पिरोया गया है. इन छोटी छोटी बातों का अपना महत्व है अगर हम इन्हें अपने जीवन में उतार लें तो बहुत सी अनचाही तकलीफों से निजात पा सकते हैं. ये बातें बिना लाग लपेट के अनवारे साहब अपने दिलकश अंदाज़ में हमें बतातें हैं.

गुम न हो जाय साझी विरासत कहीं
अपने बच्चों को किस्से सुनाया करो

भीग जाने का अपना अलग लुत्फ़ है
बारिशों में निकलकर नहाया करो

तुम जो रूठो तो कोई मनायेतुम्हें
कोई रूठे तो तुम भी मनाया करो

अनवारे इस्लाम जी ने अपने उस्ताद शायर पिता स्व. सलाम सागरी से मिली शायरी की इस विरासत को जिंदा रखा है. मध्य प्रदेश के शहर सागर में एक अक्तूबर सन 1947 को जन्मे अनवारे साहब ने पूरा जीवन लेखन को ही समर्पित कर दिया है. उन्होंने साक्षरता पर साठ और बाल साहित्य पर अठ्ठारह से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है. उन्हें साहित्य अकादमी म.प. और राष्ट्र भाषा प्रचार समिति म.प. द्वारा सम्मानित किया गया है. लगभग फकीराना अंदाज़ में ज़िन्दगी बसर करते हुए ज़मीन से जुड़े इस शायर ने उर्दू की महत्वपूर्ण कृतियों तथा प्रतिष्ठित शायरों की सत्ताईस से अधिक पुस्तकों का संपादन भी किया है. अनवरत लिखते हुए ना उनका कलम थकता है और ना वो खुद.

तू है मेरा के तेरे सिवा कौन है
मैं हूँ तेरा तो मुझसे जुदा कौन है

क्यूँ परेशां हूँ तेरे होते हुए
तू जो खुश है तो मुझसे ख़फ़ा कौन है

फूल कागज़ के हैं देखने के लिए
घर सजा लीजिये सूँघता कौन है

अनवारे साहब की रचनाएँ सी.बी.एस.इ , महाराष्ट्र राज्य के हिंदी पाठ्यक्रम सहित विदेशों के हिंदी पाठ्यक्रमों में भी शामिल हैं. भारी भरकम शब्द और अलंकृत भाषा के बिना भी अच्छा और सार्थक साहित्य रचा जा सकता है ये अनवारे साहब को कलाम को पढ़ कर सिद्ध हो जाता है. दुनिया, कलिष्ट भाषा और गूढ़ संकेतों में लिखी, आपकी रचनाओं के लिए भले आपको ज्ञानी या पंडित कहने लगे लेकिन कबीर नहीं कहेगी,कबीर कहलवाने के लिए आपकी रचना आम ज़बान और फक्कड़ अंदाज़ में ही होनी चाहिए जैसी की अनवारे साहब की हैं:

तिरी बातें समझ पाता नहीं मैं
तिरी बातों में आसानी बहुत है

परों को चौंच से नोचा है अक्सर
क़फ़स के नाम कुर्बानी बहुत है
क़फ़स: पिंजरा

यहाँ पर भीड़ में सब अजनबी हैं
मिरे शहरों में वीरानी बहुत है

आलेख प्रकाशन वी-8, नवीन शाहदरा दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस किताब को खरीदने के लिए आपको अनवारे इस्लाम साहब से संपर्क करना चाहिए. किताब प्राप्ति के आसान रास्ते को बताते हुए अनवारे साहब आपको, अपनी दिलकश ज़बान और पुर खुलूस बातों से, अपना बना लेंगे. उनसे संपर्क करने के लिए आप उन्हें उनके मोबाइल 9893663536पर फोन करें या फिर उन्हें sukhanvar12@gmail.com पते पर इ-मेल करें. आप ये सब करें तब तक हम आपसे, उनके ये शेर सुना कर, विदा लेते हैं और निकलते हैं एक और शायरी की किताब की तलाश में.

कौन पोंछेगा आँख के आंसू
अपनी बारिश में आप भीगा कर

रेशमी तार थे जो जीवन के
रख दिए आज हमने उलझा कर

छाँव का जिक्र ठीक है लेकिन
तू कभी धूप में भी निकला कर

कि जिनके हाथ में जलती हुई माचिस की तीली है

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नजाकत है न खुश्बू औ’ न कोई दिलकशी ही है
गुलों के साथ फिर भी खार को रब ने जगह दी है

किसी की याद चुपके से चली आती है जब दिल में
कभी घुँघरू से बजते हैं, कभी तलवार चलती है

वही करते हैं दावा आग नफरत की बुझाने का
कि जिनके हाथ में जलती हुई माचिस की तीली है

हटो, करने दो अपने मन की भी इन नौजवानों को
ये इनका दौर है, इनका समय है, इनकी बारी है

घुटन, तड़पन, उदासी, अश्क, रुसवाई, अकेलापन
बग़ैर इनके अधूरी इश्क की हर इक कहानी है

कभी बच्चों को मिल कर खिलखिलाते नाचते देखा
लगा तब जिंदगी ये हमने क्या से क्या बना ली है

उतर आये हैं बादल याद के आंखों में यूं “नीरज”
ज़मीं जो कल तलक सूखी थी अब वो भीगी भीगी है

किताबों की दुनिया -72

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छोटे गाँव कस्बों की तो बात ही छोड़ दें बड़े बड़े शहरों में भी अच्छी शायरी की किताब खोजना रेगिस्तान में पानी खोजने से भी कठिन काम है. सस्ती शायरी के संस्करण भले की रेलवे की बुक स्टाल या एक आध दुकान पर मिल जाएँ लेकिन अगर आप वाकई उम्दा शायरी के शौकीन हैं तो ऐसी किताब को खोजने के लिए आपको दर दर भटकना पड़ेगा. ये बात मैं सिर्फ अपने अनुभव से बता रहा हूँ इसलिए गलत भी हो सकता हूँ क्यूँ कि अनुभव हम सब के अलग अलग हो सकते हैं.

जयपुर में एक "
लोकायत प्रकाशन" है, जहाँ हिंदी की उन किताबों का ढेर है जिन पर मिटटी की परतें चढ़ी रहती हैं, वहां किताबें स्टील के रैक्स के अलावा फर्श पर भी बिखरी पड़ी रहती हैं. लोकायत की डबल दुकान पर एक साधारण सी टेबल के पीछे एक अति साधारण कुर्सी पर चश्मा लगाये बैठे उसके करता धर्ता शेखर जी हमेशा मुझे देखते ही मुस्कुरा कर कहते हैं " आईये सर फिरे नीरज जी"

उनका कहना सही है क्यूँ की आज के युग में कोई भी पढ़ा लिखा इंसान ऐसी साधारण सी दुकान पर किताबें ढूँढने और खरीदने नहीं जाता और अगर किताब हिंदी में हो तो मान के चलिए कि वो इंसान सर फिर ही होगा. किताबों की खोज के दौरान मैंने हर दुकान और बड़े बड़े माल में सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी भाषा की किताबों को ही बिकते देखा है.

लोकायत पर किताब की खोज करते और धूल फांकते हुए मेरी नज़र जिस किताब पर पढ़ी उसी का जिक्र हम आज अपनी किताबों की दुनिया की श्रृंखला में करने जा रहे हैं:

हम भी होशियार न थे प्यार भी पागल की तरह
बात फैली है तेरे आँख के काजल की तरह

चार सू सैले हवा* भी है संभलना भी है
ज़ीस्त भी है तेरे उड़ते हुए आँचल की तरह
चार सू सैले हवा:: चारों और हवा के झोंके
ज़ीस्त: ज़िन्दगी

रात सी रात है बरसात है तन्हाई है
कूकता है मेरे दिल में कोई कोयल की तरह

आज की किताब है " आवाज़ चली आती है" और शायर हैं मरहूम जनाब " शाज़ तमकनत" साहब. हिंदी पाठकों के लिए शायद ये नाम अंजाना हो लेकिन दकन में इनका नाम बहुत इज्ज़त से लिया जाता है. शाज़ साहब उर्दू के उन चन्द शायरों में शुमार किये जाते हैं जिन्होंने उर्दू साहित्य में नया इज़ाफा किया है. वो जिस कदर अपने समय में एकांत प्रिय रहे और अपनी ज़िन्दगी के उतार चढ़ावों से गुज़रते हुए शायरी को अपना ओढना-बिछौना बनाया, शायद ही कोई और शायर इस बांकपन के साथ नज़र आता है.



क्या खबर थी कि तेरे बाद ये दिन आयेंगे
आप ही रूठेंगे हम आप ही मन जायेंगे

ज़िन्दगी है तो बहरेहाल गुज़र जायेगी
दिल को समझाया था कल आज भी समझायेंगे

सुबह फिर होगी कोई हादिसा याद आएगा
शाम फिर आएगी फिर शाम से घबराएंगे

31 जनवरी 1933 को हैदराबाद में शाज़ तमनकत साहब का जन्म हुआ. उस वक्त उर्दू शायरी का वहां बोलबाला था. शाज़ साहब को अपनी माँ से बे इन्तहा मोहब्बत थी लेकिन बचपन में ही उनका साया अचानक सर से उठने पर वो टूट गए. उसी टूटन ने शाज़ साहब के भीतर उस शायर को पैदा किया जिसने आगे चल कर इंसान की ज़िन्दगी और समाज के दर्द को अपनी शायरी के विशाल दामन में समेटा. कालेज की पढाई ख़तम होते होते शाज़ साहब की गिनती हैदराबाद के नामवर शायरों में होनी लगी. फ़िराक गोरखपुरी जैसे शायर ने उनके बारे में कहा कि " शाज़ की शायरी मोहब्बत की शायरी है. इनके लफ़्ज़ों की महक दूर से पहचानी जा सकती है."

कुछ रात ढले होती है आहट दरे दिल पर
कुछ फूल बिखर जाते हैं मालूम नहीं क्यूँ

मत पूछ नकाबों से तू यारी है हमारी
हम चेहरों से डर जाते हैं मालूम नहीं क्यूँ

हर सुबह तुझे जी से भुलाने का है वादा
हर शाम मुकर जाते हैं मालूम नहीं क्यूँ

शाज़ साहब का पहला मजमुआ "तराशीदा" 1966 में शाया हुआ उसके बाद 1973 में " बयाज़े शाम" और 1977 में "नीम ख़्वाब". शाज़ साहब ने कम लिखा लेकिन जो लिखा वो उन्हें अमर कर गया. शाज़ साहब ने वारंगल से अध्यापन कार्य शुरू किया और कुछ समय वो पूना भी रहे. पूना में उन्होंने पूना कालेज आफ आर्ट्स के उर्दू विभाग में प्रोफ़ेसर के पद पर कार्य किया. पूना छोड़ते समय वहां "जश्न-ऐ-शाज़ " बड़ी धूम धाम से मनाया गया जिसमें सरदार जाफरी, कैफ़ी आज़मी, जाँ निसार अख्तर, मजरूह सुल्तानपुरी और साहिर लुधियानवी जैसे मशहूर शायरों ने शिरकत की. शायर तो शायर इस कार्यक्रम में शिरकत के लिए मुंबई से दिलीप कुमार, वहीदा रहमान और सुनील दत्त साहब भी खिंचे चले आये. शाज़ साहब की शायरी की लोकप्रियता का आलम ये था कि उनकी रचनाओं को बेग़म अख्तर, फरीदा खानम, रईस खान बारसी, विट्ठल राव,गुलाम फ़रीद साबरी और हरिहरन जैसे गायकों ने अपनी आवाज़ दी.

जिस से बेज़ार रहे थे वही दर क्या कुछ है
घर की दूरी ने ये समझाया कि घर क्या कुछ है

रात भर जाग कर काटे तो कोई मेरी तरह
खुद-ब-खुद समझेगा वो पिछला पहर क्या कुछ है

जैसे किस्मत की लकीरों पे हमें चलना है
कौन समझेगा तेरी रहगुज़र क्या कुछ है

शाज़ साहब की शायरी आम आदमी के दिल की आवाज़ है . हिंदी में उनकी रचनाओं का ये पहला संकलन है जिसे शशि नारायण स्वाधीन साहब ने सम्पादित किया है और वाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. वाणी प्रकाशन दिल्ली के बारे में पूरी जानकारी आपको इस श्रृंखला में बहुत जगह मिलेगी इसलिए उसे मैं यहाँ नहीं दे रहा. इस किताब के लिए आप वाणी प्रकाशन से संपर्क कर सकते हैं.

ख्याल आते ही कल शब् तुझे भुलाने का
चिराग बुझ गया जैसे मेरे सिरहाने का

करीब से ये नज़ारे भले नहीं लगते
बहुत दिनों से इरादा है दूर जाने का

मैं और कोई बहाना तलाश कर लूँगा
तू अपने सर न ले इल्ज़ाम दिल दुखाने का

जिस ज़माने में शाज़ साहब ने शायरी शुरू की वो ज़माना उर्दू के भारी भरकम लफ़्ज़ों के इस्तेमाल का ज़माना था. शाज़ साहब ने उसमें सादगी डाली और आम भाषा के लफ़्ज़ों का खूबसूरत इस्तेमाल किया. ये ही उनकी लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण बना. अपनी ज़बान में अपनी बात सुन कर आम इंसान उनकी शायरी का दीवाना हो गया.

कोई गिला कोई शिकवा ज़रा रहे तुमसे
ये आरज़ू है कि इक सिलसिला रहे तुमसे

अब एक दिन की जुदाई भी सह नहीं सकते
जुदा रहे हैं तो बरसों जुदा रहे तुमसे

हर एक शख्स की होती है अपनी मजबूरी
मैं उस जगह हूँ जहाँ फासला रहे तुमसे

18 अगस्त 1985 की सुबह हैदराबाद के शाह अली बंद मोहल्ले के असर अस्पताल के कमरा न. 21 में शाज़ साहब ने हमेशा के लिए अपनी आँखें मींच लीं. हैदराबाद में शायरी के एक युग का अंत हो गया. उर्दू की शायरी जिसमें हिंदी का छायावाद, रहस्यवाद और प्रयोगवाद का हल्का हल्का रंग शाज़ साहब के ज़रिये अदब में एक ऐसी तस्वीर बना चूका था जिसकी कूची शाज़ साहब के हाथों में थी. उनके जाने से ये रंग बिखर गए उन्हीं रंगों को फिर से इस किताब में समटने की कोशिश की गयी है.

प्यासा हूँ रेगज़ार* में दरिया दिखाई दे
जो हाल पूछ ले वो मसीहा दिखाई दे
रेगज़ार: रेगिस्तान

पड़ती है सात रंगों की तेरे बदन पे धूप
जो रंग तू पहन ले वो गहरा दिखाई दे

क्या क्या हकीकतों पे है परदे पड़े हुए
तू है किसी का और किसी का दिखाई दे

इस किताब में ऐसे एक नहीं सैंकड़ों शेर हैं जिन्हें मैं यहाँ कोट करना चाहता हूँ...लेकिन ये मेरी मजबूरी है के मैं चाह कर भी ऐसा नहीं कर पा रहा हूँ. ग़ज़लों के अलावा इस किताब में शाज़ साहब की कुछ चुनिन्दा नज्में भी पढने को मिलती हैं. शाज़ साहब के अपने दोस्त शायरों के साथ लिए गए फोटो इस किताब में चार चाँद लगा देते हैं. मेरी शायरी के सभी दीवानों से गुज़ारिश है कि आप अपनी अलमारी में इस किताब को जरूर शामिल करें. अगली किताब की खोज में निकलने से पहले मैं आपको ये शेर पढवा कर विदा लेता हूँ -

शिकन शिकन तेरी यादें हैं मेरे बिस्तर की
ग़ज़ल के शेर नहीं करवटें हैं शब् भर की

फिर आई रात मेरी सांस, रूकती जाती है
सरकती आती हैं दीवारें फिर मेरे घर की

निबाह करता हूँ दुनिया से इस तरह अय ''शाज़"
कि जैसे दोस्ती हो आस्तीन -ओ -खंज़र की

आंखें करती हैं बातें

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मैं राजी तू राज़ी है
पर ग़ुस्‍से में क़ाज़ी है

आंखें करती हैं बातें
मुंह करता लफ्फाजी है

जीतो हारो फर्क नहीं
ये तो दिल की बाज़ी है

तुम बिन मेरे इस दिल को
दुनिया से नाराजी है

कड़वा मीठा हम सब का
अपना अपना माजी है

सब में रब दिखता जिसको
वो ही सच्चा हाजी है

दर्द अभी कम है ‘नीरज’
चोट अभी कुछ ताज़ी है


( ये ग़ज़ल गुरु देव पंकज सुबीर जी का मिडास टच लिए हुए है )

किताबों की दुनिया - 73

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श्री अवनीश कुमारजी की किताब "पत्तों पर पाजेब", जिसकी चर्चा आज हम इस श्रृंखला में करेंगे, की भूमिका के आरम्भ में दी गयी इन पंक्तियों ने मुझे इस किताब को खरीद कर पढने के लिए प्रेरित किया.

“कविता एक कोशिश करती है-जीवन का चित्र बनाने की, यथार्थ और उस से कुछ बेहतर...रंग वही हैं जो कायनात ने दिए हैं, तमाम कोशिशों के बाद भी तस्वीर मुकम्मल नहीं होती, फिर नयी कोशिश होती है. ये किताब भी ऐसी ही एक कोशिश है...”


वो बेहतर जानते हैं चोट क्या होती हथोड़े की
मिली तकदीर लोहे की, पड़े हैं जो निहाई पर

वो जिसके हाथ में खंज़र था, अब भोला कबूतर है
सभी की आँख दीवानी है हाथों की सफाई पर

नीली ओढ़नी पर रौशनी का एक दरिया सा
सितारे दे गया है चाँदनी की मुंह दिखाई पर

आज कल ग़ज़लें थोक के भाव लिखी जा रही हैं और छप भी रही हैं. हर पत्रिका में एक आध ग़ज़ल का होना अनिवार्य हो गया है. बहती गंगा में हाथ धोते हुए हमें बहुत से नौसिखिये कच्चे शायर बहुतायत में नज़र आ जाते हैं. जिस विधा में सदियों से कहा जा रहा हो उसमें कोई नयी बात कहना या फिर किसी पुरानी बात को नए अंदाज़ से कहना आसान काम नहीं है. और जब कभी ऐसा नज़र आता है तबियत खुश हो जाती है:

बाढ़ का पानी घरों की छत तलक तो आ गया
रेडियो पर बज रहा मौसम सुहाना आएगा

सड़क पर ठंडी बियर के बोर्ड को पढ़ते हुए
सोचता हूँ कब एक छोटा चायखाना आएगा

ढूध से चलती हों जिसमें रोटी के चक्के लगे
देखना ऐसा भी कारों का ज़माना आएगा

अवनीश कुमार के लिए कविता न तो उच्छ्वास है और न अदाकारी. अवनीश इस चलताऊ माहौल के रचनाकार नहीं हैं यद्दपि उनकी हर ग़ज़ल पहले मिसरे से ही हमें बाँध लेती है और आखिरी शेर तक पहुँचते -पहुँचते हमारे एहसास की दुनिया एकदम बदल जाती है :

बहुत था बीमार सूरज हड़बड़ाकर धूप ने
गिरवी रख दीं तीरगी के हाथ अपनी चूड़ियाँ

ज़िन्दगी भर रामलीला में लड़े सच की तरफ
मज़हबी दंगे में वो मारे गए रहमत मियां

जब वो बोले लगे कानों में शहद सा घुल गया
पहन रक्खीं नीम की सीकों की जिसने बालियाँ


उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद जिले के भूड़नगरिया गाँव में 1969 में जन्में अवनीश कुमार वनस्पति विज्ञानं में एम.एस.सी. हैं और बी.एड करने बाद शिक्षा विभाग में सहायक बेसिक शिक्षा अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं. उनका पहला कविता संग्रह "आइना धूप में " 1993 को प्रकाशित हुआ था उसके बाद अब 2011 में "पत्तों पर पाजेब " ग़ज़ल संग्रह.

मोहब्बत कैद हो जाती है सोने की जंजीरों में
महज़ अफवाह है यारों, ज़माने ने उड़ाई है

ज़मूरे ने कहा-सारा तमाशा पेट की खातिर
कोई जादू नहीं है सिर्फ हाथों की सफाई है

उतर जाते हैं रिक्शे से उसे धक्का लगाते हैं
पता है छोटे बच्चों को बहुत ऊंची चढाई है

हमारे चारों और घटने वाली छोटी छोटी घटनाओं पर उनकी पैनी नज़र जाती है और वो उसे शेर में ढाल देते हैं: इस संग्रह में रोमांटिक ग़ज़लें भी हैं, पर उनका मिजाज़ यथार्थवादी है. उड़ान है, पर मिटटी की खुशबू के साथ. ग़ज़लों में अपनी बात कहने का उनका निराला अंदाज़ उन्हें अपने सम कालीन शायरों से अलग करता है और भीड़ में अपनी पहचान बनाता है.

गुलों में ढूढती फिरती है बेकल
तितलियाँ खुशबुओं के ख़त पुराने

आज फिर अब्र के घूंघट से साधे
शिकारी चाँद ने सौ सौ निशाने

सोचता हूँ तेरी भीगी पलक पर
मैं रख दूं धूप के मौसम सुहाने

तेरी चाहत की चिंगारी रखी है
हमारे फूस के हैं, आशियाने

"पत्तों पर पाजेब" की ग़ज़लें, नए अंदाज़ की ग़ज़लें हैं जिनमें नए बिम्ब और प्रतीक निहायत ख़ूबसूरती से पिरोये गए हैं. और तो और पौराणिक, ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं के माध्यम से भी आज के व्यक्ति की व्यथा कही गयी है. अविनीश जी को पढने के बाद आप ग़ज़लों में आ रहे परिवर्तन को भलीभांति महसूस कर सकते हैं. ये ग़ज़लें हमारे जीवन से इस कदर जुडी हैं के हर शेर हमें अपनी आपबीती लगने लगता है.

परेशां हैं कई घर की घुटन से
बहुत से हैं कि जिनपे घर नहीं है

ऐ मीरे-फौज तू है जंग भी है
कि तेरे साथ अब लश्कर नहीं है

सुबह सय्याद ने देखा, कफस में
फलक का ख्वाब है...ताईर नहीं है

मीरे-फौज=सेनापति, कफस=पिंजरा, ताईर=परिंदा

वाणी प्रकाशनद्वारा प्रकाशित इस किताब की भूमिका में अवनीश ने लिखा है " हम सब कला-रूपों के 'ग्लैमर' से सम्मोहित थे. लेकिन 'ग्रीन रूम' में झांकना दुःखदायी था क्यूंकि सारे मेकअप उतर चुके थे. किरदारों के चमकते चेहरे अब बीते ज़माने की बात हो गयी थी. एक अदद 'रोल माडल' की तलाश करने वाले बहुत मायूस हुए." अवनीश ने अपनी ग़ज़लों के माध्यम से ग्रीन रूम में झाँका है और चेहरों की बेबसी को उकेरा हैं जिन्हें अब तक मेकअप ने ढका हुआ था.

कोई तो बात है जिससे कि हमने कलम ही पकड़ी
हमारे वक्त भी मौजूद थी तलवार मौलाना

नहीं आदाब कर पाए हमारे बेबसी देखो
हमारे हाथ में रक्खे रहे अंगार मौलाना

वक्त का दर्द गाती है -दिलों पर राज करती है
ग़ज़ल मुजरा नहीं करती किसी दरबार मौलाना

इस किताब की हर ग़ज़ल और वो सभी नज्में जो आखिर में दी गयी हैं, अवनीश जी की विलक्षण सोच का लोहा मनवा देती हैं. उनकी कलम के जादू से पाठक बाहर नहीं निकल पाता. शायरी की ऐसी बेजोड़ किताब हर उस शख्स के पास होनी चाहिए जिसे शायरी से मोहब्बत है. मेरा अपने पाठकों से निवेदन है के चाहे वो इस किताब को न खरीदें लेकिन अवनीश जी को उनके मोबाइल 9410043814 पर फोन कर उन्हें इस लाजवाब शायरी के लिए बधाई जरूर दें ,और कुछ हो न हो लेकिन एक अच्छे शायर की हौसला अफ़जाही करना हमारा फ़र्ज़ होना चाहिए

तुम साथ हो तो घर की कमी फिर नहीं खलती
ये बात है जो घर से निकल, सोच रहा हूँ

हाँ! वक्त मुश्किलों से भरा है बहुत मगर
कीचड़ में ही खिलते हैं कमल, सोच रहा हूँ

सदियों से रहते आये हैं फुटपाथ पे जो लोग
मैं उनके लिए ताज महल, सोच रहा हूँ

अब हम निकलते हैं एक नयी किताब और नए शायर की तलाश में...

मन सरोवर में खुशियों के 'नीरज' खिले

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( आपके सहयोग और प्यार के कारण इस ब्लॉग ने पांच वर्ष पूरे कर लिए हैं. 5 सितम्बर 2007 से अब तक याने इन पांच वर्षों में उपलब्धि के नाम पर 285 पोस्ट,11000 से अधिक टिप्पणियां, एक लाख चौबीस हज़ार से अधिक बार देखे गए पेज और 435 सदस्य नहीं है बल्कि वो अद्भुत अटूट रिश्ते हैं जो इस ब्लॉग के कारण ही बन पाए हैं. )

अभी हाल ही में गुरुदेव पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर तरही मुशायरे का आयोजन हुआ था. मुशायरा नवोदित शायर अर्श की शादी के उत्सव पर आयोजित किया गया था लाज़मी था के उसमें प्यार के अलग अलग रंग बिखेरतीं ग़ज़लें आयें और आयीं भी. प्यार के इतने रंग उस तरही में बिखरे के हर कोई उसमें सराबोर हो गया. उसी मुशायरे में भेजी खाकसार की ग़ज़ल यहाँ भी पढ़ें:-



हर अदा में तेरी दिलकशी है प्रिये
जानलेवा मगर सादगी है प्रिये

भोर की लालिमा चाँद की चांदनी
सामने तेरे फीकी लगी है प्रिये

लू भरी हो भले या भले सर्द हो
साथ तेरे हवा फागुनी है प्रिये

बिन तेरे बैठ आफिस में सोचा किया
ये सजा सी, भी क्या नौकरी है प्रिये

पास खींचे, छिटक दूर जाए कभी
उफ़ ये कैसी तेरी मसखरी है प्रिये

मुस्कुराती हो जब देख कर प्यार से
एक सिहरन सी तब दौड़ती है प्रिये

फूल चाहत के देखो खिले चार सू
प्रीत की अल्पना भी सजी है प्रिये

पड़ गयी तेरी आदत सी अब तो मुझे
और आदत कहीं छूटती है प्रिये ?

मन सरोवर में खुशियों के 'नीरज' खिले
पास आहट तेरी आ रही है प्रिये

किताबों की दुनिया - 74

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हर शायर की तमन्ना होती है के वो कुछ ऐसे शेर कह जाय जिसे दुनिया उसके जाने के बाद भी याद रखे...लेकिन...मैंने देखा है बहुत अच्छे शायरों की ये तमन्ना भी तमन्ना ही रह जाती है...शायरी की किताबों पे किताबें और दीवान लिखने वाले शायर भी ऐसे किसी एक शेर की तलाश में ज़िन्दगी गुज़ार देते हैं. गुरुदेवपंकज सुबीरजी के कहे अनुसार "अच्छा और यादगार शेर कहा नहीं जाता ये शायर पर ऊपर से उतरता है ". ऐसा ही एक शेर, जिसे मैंने भोपाल में दो दशक पहले, मेरे छोटे भाई के नया घर लेने के अवसर पर हुई पार्टी में उसके एक साथी के मुंह से पहली बात सुना था, मेरी यादों में बस गया.

मेरे खुदा मुझे इतना तो मोतबर कर दे 
मैं जिस मकान में रहता हूँ उसको घर कर दे 
मोतबर: विश्वसनीय 

 उर्दू शायरी में मकान और घर के महीन से फर्क को इतनी ख़ूबसूरती से शायद ही कभी बयां किया गया हो और अगर किया भी गया है तो मुझे उसका इल्म नहीं है. इस एक शेर ने इसके शायर को वो मुक़ाम दिया जिसकी ख्वाइश हर शायर अपने दिल में रखता है.

शायरी की किताबों को जयपुर की लोकायत, जिसका जिक्र मैं पहले भी कर चुका हूँ, में खोजते हुए जब इस किताब के पहले पन्ने पर सबसे पहले दिए इस शेर पर मेरी निगाह पढ़ी तो लगा जैसे गढ़ा खज़ाना हाथ लग गया है. किताब है " नए मौसम की खुशबू " और शायर हैं जनाब " इफ्तिख़ार आरिफ़ "


 मेरे खुदा मुझे इतना तो मोतबर कर दे 
मैं जिस मकान में रहता हूँ उसको घर कर दे 

 मैं ज़िन्दगी की दुआ मांगने लगा हूँ बहुत 
जो हो सके तो दुआओं को बेअसर कर दे 

 मैं अपने ख़्वाब से कट कर जियूं तो मेरा ख़ुदा 
उजाड़ दे मेरी मिटटी को दर-बदर कर दे 

शायरी में सूफ़ियाना रंग के साथ मज़हबी रंग का प्रयोग सबसे पहले आरिफ़ साहब ने किया जो सत्तर के दशक में नया प्रयोग था. बाद के शायरों ने उनके इस लहजे की बहुत पैरवी की और ये लहजा उर्दू शायरी का नया मिजाज़ बन गया. आज भी जब कोई नौजवान चाहे वो हिन्दुस्तान का हो या पकिस्तान का जब शायरी की दुनिया में नया नया कदम रखता है तो आरिफ़ साहब की तरह शेर कहने की कोशिश करता है.

हिज्र की धूप में छाओं जैसी बातें करते हैं 
आंसू भी तो माओं जैसी बातें करते हैं 
हिज्र: जुदाई 

खुद को बिखरते देखते हैं कुछ कर नहीं पाते 
फिर भी लोग खुदाओं जैसी बातें करते हैं 

एक ज़रा सी जोत के बल पर अंधियारों से बैर 
पागल दिए हवाओं जैसी बातें करते हैं 

आरिफ़ साहब का जन्म 21 मार्च 1943 को लखनऊ में हुआ. उन्होंने लखनऊ विश्व विद्यालय से 1964 में एम्.ऐ. की शिक्षा प्राप्त की. उस वक्त लखनऊ में मसूद हुसैन रिज़वी, एहतिशाम हुसैन, रिजवान अल्वी और मौलाना अली नक़ी जैसी बड़ी हस्तियाँ मौजूद थीं. इनके बीच रह कर आरिफ़ साहब ने साहित्य, तहजीब, रिवायत और मज़हब का पाठ पढ़ा.

नद्दी चढ़ी हुई थी तो हम भी थे मौज में 
पानी उतर गया तो बहुत डर लगा हमें 

दिल पर नहीं यकीं था सो अबके महाज़ पर 
दुश्मन का एक सवार भी लश्कर लगा हमें 
महाज़: रणभूमि 

गुड़ियों से खेलती हुई बच्ची की गोद में 
आंसू भी आ गया तो समंदर लगा हमें 

लखनऊ विश्व विद्यालय से एम्.ऐ. करने के बाद आरिफ़ साहब पकिस्तान चले गए. वहां उन्होंने 1977 तक रेडिओ पाकिस्तान और टेलिविज़न में काम किया. उसके बाद वो 1991 तक लन्दन में बी.सी.सी.आई. के जन संपर्क प्रशाशक और उर्दू मरकज़, लन्दन के प्रभारी प्रशाशक जैसे पदों पर आसीन रहे. सन 1991 से वो पाकिस्तान में रहते हुए "मुक्तदरा कौमी ज़बान" जैसी महत्वपूर्ण संस्था के अध्यक्ष के रूप में भाषा और साहित्य की सेवा कर रहे हैं.

समझ रहे हैं मगर बोलने का यारा नहीं 
जो हम से मिल के बिछड़ जाय वो हमारा नहीं 

समन्दरों को भी हैरत हुई कि डूबते वक्त 
किसी को हमने मदद के लिए पुकारा नहीं 

वो हम नहीं थे तो फिर कौन था सरे बाज़ार 
जो कह रहा था कि बिकना हमें गवारा नहीं 

हिंदी भाषी शायरी के दीवानों के लिए हो सकता है आरिफ़ साहब का नाम नया हो और शायद उनका लिखा बहुत से लोगों ने पढ़ा भी न हो लेकिन उर्दू शायरी के फ़लक पर उनका नाम किसी चमचमाते सितारे से कम नहीं. वाणी प्रकाशन वालों ने हिंदी के पाठकों के लिए उर्दू के बेहतरीन शायरों की किताबें प्रस्तुत की हैं और इस काम के लिए उनकी जितनी तारीफ़ की जाय कम है. आरिफ़ साहब की इस किताब को शहरयार और महताब नकवी साहब ने सम्पादित किया है.

हमीं में रहते हैं वो लोग भी कि जिनके सबब 
ज़मीं बलंद हुई आसमां के होते हुए 

बस एक ख़्वाब की सूरत कहीं है घर मेरा 
मकाँ के होते हुए, लामकाँ के होते हुए 
लामकां : बिना मकाँ 

दुआ को हाथ उठाते हुए लरजता हूँ 
कभी दुआ नहीं मांगी थी माँ के होते हुए 

इस किताब में जहाँ आरिफ़ साहब की चुनिन्दा ग़ज़लें संगृहीत हैं वहीँ उनकी कुछ बेमिसाल नज्में भी शामिल की गयीं हैं. आरिफ़ साहब की उर्दू में लिखी चार किताबें मंज़रे आम पर आ चुकी हैं, देवनागरी लिपि में पहली बार उनके कलाम को वाणी प्रकाशन वालों ने प्रकाशित किया है. पाकिस्तान सरकार द्वारा उन्हें "हिलाले इम्तिआज़", सितारा-ऐ-इम्तिआज़ जैसे इनाम से नवाज़ा जा चुका है, भारत में भी आलमी उर्दू कांफ्रेंस ने उन्हें " फैज़ इंटर नेशनल अवार्ड" से नवाज़ा है. दोनों मुल्कों में अपने कलाम का लोहा मनवाने वाले आरिफ़ साहब को पढना एक नए अनुभव से गुजरने जैसा है.

नए मौसम की खुशबू आज़माना चाहती है 
खुली बाहें सिमटने का बहाना चाहती हैं 

 नयी आहें, नए सेहरा, नए ख़्वाबों के इमकान 
नयी आँखें, नए फ़ित्ने जगाना चाहती हैं 

बदन की आग में जलने लगे हैं फूल से जिस्म 
हवाएं मशअलों की लौ बढ़ाना चाहती हैं 

ऐसे एक नहीं अनेक उम्दा शेरों से भरी ये किताब बेहतरीन उर्दू शायरी को हिंदी में पढना चाहने वाले पाठकों के लिए किसी वरदान से कम नहीं. इस किताब को, वाणी वालों को सीधे लिख कर या फिर नेट के ज़रिये आर्डर दे कर, मंगवा सकते हैं. वाणी प्रकाशन वालों का पूरा पता, नंबर आदि मैं अपनी पुरानी पोस्ट्स पर कई बार दे चुका हूँ इसलिए उसे यहाँ फिर से दे कर अपनी इस पोस्ट को लम्बी करना मुझे सही नहीं लग रहा. आरिफ़ साहब के इन शेरों के साथ आपसे विदा लेते हुए वादा करते हैं के हम जल्द ही एक और नयी किताब के साथ आपके सामने हाज़िर होंगे.

ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है 
ऐसी तन्हाई कि मर जाने को जी चाहता है 

घर की वहशत से लरज़ता हूँ मगर जाने क्यूँ 
शाम होती है तो घर ज़ाने को जी चाहता है 

डूब जाऊं तो कोई मौज निशाँ तक न बताए 
ऐसी नद्दी में उतर जाने को जी चाहता है

अब धनक के रंग सारे रात दिन

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सिर्फ यादों के सहारे रात दिन
पूछ मत कैसे गुज़ारे रात दिन 

साथ तेरे थे शहद से, आज वो 
हो गए रो-रो के खारे रात दिन

कूद जा, बेकार लहरें गिन रहा
बैठ कर दरिया किनारे रात दिन 

बांसुरी जब भी सुने वो श्याम की
तब कहां राधा विचारे रात, दिन 

आपके बिन जिंदगी बेरंग थी 
अब धनक के रंग सारे रात दिन 

है बहुत बेचैन बुलबुल क़ैद में 
आसमाँ करता इशारे रात दिन 

लौट आएंगे वो नीरज ग़म न कर 
खो गये हैं जो हमारे रात दिन 


(ग़ज़ल की नोंक पलक गुरुदेव पंकज सुबीर जी ने संवारी है)
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