
खुद ग़रज़ दुनिया में वरना कौन कब किसका हुआ
ज़िन्दगी का ये सफ़र भी यूँ ही पूरा हो गया
इक ज़रा नज़रें उठायीं थीं कि पर्दा हो गया
दर्द जब उमड़ा तो इक आंसू का कतरा हो गया
और जब ठहरा तो बढ़ कर एक दरिया हो गया
अपनों को अपना ही समझा ग़ैर समझा ग़ैर को
गौर से देखा तो देखा मुझको धोका हो गया
अव्वल अव्वल तो समाधी में अँधेरा ही रहा
आखिर आखिर हर तरफ जैसे उजाला हो गया.
ऐसे और इस तरह के अनेकों शेर पढ़ कर मालूम हुआ कि 'तर्ज़' साहब कितने कद्दावर शायर थे. "दर्द जब उमड़ा..".जैसा शेर एक बार पढने के बाद ज़ेहन से उतरने का नाम ही नहीं ले रहा. ज़िन्दगी को बहुत करीब से देखने और समझने वाला शख्स ही ऐसे शेर कह सकता है.
18 मई 1928 को लखनऊ में पैदा हुए 'तर्ज़' साहब की शायरी में हमें वहां की नफासत और नजाकत दोनों दिखाई पड़ती है.
इक ज़माना था कि जब था कच्चे धागों का भरम
कौन अब समझेगा कदरें रेशमी ज़ंजीर की
त्याग, चाहत, प्यार, नफरत, कह रहे हैं आज भी
हम सभी हैं सूरतें बदली हुई ज़ंजीर की
किस को अपना दुःख सुनाएँ किस से अब मांगें मदद
बात करता है तो वो भी इक नयी ज़ंजीर की
शोर शराबे और आत्म प्रशंशा से कोसों दूर रहने वाले इस ग़ैर मामूली शायर को मकबूलियत की वो बलंदी नहीं मिली जिसके वो हकदार थे. उनके बारे में मशहूर शायर जनाब 'अली सरदार जाफरी'साहब ने कहा है " सारे हिन्दुस्तान में बिखरे हुए कुछ ऐसे शायर भी मिलेंगे जिनके नाम या तो अपने इलाकों से बाहर नहीं गए हैं या बिलकुल गुमनामी के आलम में हैं. मेरे अज़ीज़ दोस्त 'तर्ज़' ऐसे शायर हैं जो ज्यादातर अपने हल्कए अहबाब में रहना पसंद करते हैं. इनके इस मिजाज़ ने उर्दू के आम पढने वालों को उनकी ग़ज़लों के हुस्न से महरूम रखा है."ज़ाफरी साहब की बात पर यकीं करने के लिए आप तर्ज़ साहब का नाम गूगल कर के देखें आप को गूगल महाशय जो अपनी जानकारी पर इतराते फिरते हैं बगलें झांकते नज़र आयेंगे.
है बात वक्त वक्त की चलने की शर्त है
साया कभी तो कद के बराबर भी आएगा
ऐसी तो कोई बात तसव्वुर में भी न थी
कोई ख्याल आपसे हट कर भी आएगा
मैं अपनी धुन में आग लगाता चला गया
सोचा न था कि ज़द में मेरा घर भी आएगा
'तर्ज़' साहब बेहद खूबसूरत आवाज़ के मालिक थे और जब वो तरन्नुम से अपना कलाम पढ़ते थे तो सुनने वाला बेहतरीन शायरी के साथ साथ उनकी आवाज़ के हुस्न का भी दीवाना हो जाता था. उनकी ग़ज़लों में हुस्न और इश्क की कशमकश, इश्क की बेबसी, हुस्न का अंदाज़े बयाँ, इंतज़ार का दर्द, हिज्र की कसक ही नहीं है ज़िन्दगी की तल्खियाँ और सच्चाइयाँ भी हैं, गिरते मूल्यों का दर्द भी है :
सपने मिलन के मिल के तो काफूर हो गए
इतना हुए क़रीब कि हम दूर हो गए
जिन कायदों को तोड़ के मुजरिम बने थे हम
वो क़ायदे ही मुल्क का दस्तूर हो गए
कोनों में काँपते थे अँधेरे जो आज तक
सूरज को ज़र्द देखा तो मगरूर हो गए
'तर्ज़' इनको अपने सीने में कब तक छुपाओगे
ये ज़ख्म अब कहाँ कहाँ रहे नासूर हो गए
अच्छी शायरी के शौकीनों को अपना दिल छोटा करने की जरूरत नहीं है क्यूँ के "हिना बन गयी ग़ज़ल" जैसी अनमोल शायरी की किताब, जिसमें तर्ज़ साहब की उम्दा ग़ज़लें ,नज्में, कतआत संगृहीत हैं सिर्फ "दिवंगत आत्मा की शांति के लिए दो मीठे बोल" बोल कर प्राप्त की जा सकती है. इस किताब में शायरी के साथ साथ तर्ज़ साहब के कुछ अविस्मर्णीय चित्र भी प्रकाशित किये गए हैं जिसमें आप उनको अपने परिवार और शायर मित्रों के साथ हँसते मुस्कुराते देख सकते हैं. मुझे इस किताब से ही मालूम पड़ा के मशहूर शायर कृष्ण बिहारी 'नूर' साहब रिश्ते में तर्ज़ साहब के दूर के भाई हैं. इस बेजोड़ किताब की प्राप्ति के लिए आप अपना मोबाइल या फोन उठाइये 09452461950 पर फोन कीजिये और इस किताब की फरमाइश कर डालिए. अगर ये तरीका कारगार साबित न हो रहा हो तो हमेशा मदद के लिए तैयार हमारे मित्र सतीश शुक्ला 'रकीब' साहब जो ‘तर्ज़’ साहब के बहुत क़रीब रहे हैं और उन्हें अपना गुरु मानते हैं को उनके मोबाइल 09892165892 पर संपर्क करें. मुझे पक्का विशवास है वो आपको ये किताब भिजवाने में कोई कसर न उठा रखेंगे. एक बात जान लें इस किताब की बहुत कम प्रतियाँ छपवाई गयीं हैं इसलिए इसकी प्राप्ति के लिए की गयी कोशिश में देरी आपको हाथ मलने पर मजबूर कर सकती है.
आईये चलते चलते तर्ज़ साहब की एक छोटी बहर की ग़ज़ल के चंद खूबसूरत शेर आपको पढवाता हूँ...मुलाहिज़ा फरमाइए...
ज़िन्दगी क्या है और मौत क्या
शब् हुई और सहर हो गयी
उनकी आँखों में अश्क आ गए
दास्ताँ मुख़्तसर हो गयी
चार तिनके ही रख पाए थे
बिजलियों को खबर हो गयी
उनकी महफ़िल से उठ कर चले
रौशनी हमसफ़र हो गयी
कभी तुम जड़ पकड़ते हो कभी शाखों को गिनते हो
हवा से पूछ लो न ये शजर कितना पुराना है
मरासिम वैसे ही कायम हैं अपने ठोकरों से भी
मेरा रस्ता, मेरा चलना, मेरा गिरना पुराना है
समय ठहरा हुआ सा है हमारे गाँव में अब तक
वही पायल, वही छमछम, वही दरिया पुराना है
दस दिसंबर 1963 को झीलों की खूबसूरत नगरी उदयपुर में जन्में युवा दिनेश जी की शायरी में गर्मी से तपती धरती पर बारिश की पहली बूंदों से उठी मिटटी की महक है, झीलों सी गहराई है,शादाब घने पेड़ों के नीचे मिलने वाली ठंडक है ज़र्द पत्तों के डाल से बिछुड़ने का दर्द है... वो अपने अशआर से हमें चौंकाते भी हैं और सोचने पर मजबूर भी करते हैं. दिनेश के पिता उन्हें इंजिनियर बनाना चाहते थे लेकिन होनी एक कामयाब शायर. इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा में उतीर्ण होने के बावजूद उन्होंने अपने दिल का रास्ता चुना, विज्ञान विषयों को सदा के लिए छोड़ कर उन्होंने आर्ट विषयों में बी.ऐ. किया और जयपुर के एक प्रसिद्द दैनिक अखबार से जुड़ कर नौकरी के साथ साथ पत्रकारिता और मॉस कम्न्युकेशन में एम.ऐ.कर लिया. दुनिया को देखने की उनकी दृष्टि व्यापक होती चली गयी.
यही दस्तूर है शायद वफादारी की दुनिया में
जिसे जी जान से चाहो वही तकलीफ देती है
कज़ा का खौफ लेकर जी रहे हैं सब ज़माने में
हकीकत में सभी को ज़िन्दगी तकलीफ देती है
नुमूँ होते ही जिसको बागबाँ तकता है हसरत से
कई काँटों को वो ताज़ा कली तकलीफ देती है
दिनेश अपनी शायरी में बोलचाल की भाषा के लफ़्ज़ों का इस्तेमाल करते हैं इसीलिए उनकी ग़ज़लें पढ़ते हुए गुनगुनाने को दिल करता है. नए विचारों और शिल्प में नए प्रयोग करना उनका प्रिय शगल है. बंधी बँधाई लीक पर चलना उन्हें गवारा नहीं. अपने लिए नयी ज़मीन तलाशना किसी भी शायर के लिए बहुत बड़ी चुनौती होती है दिनेश इस चुनौती को स्वीकारते हैं और कामयाब भी होते हैं.
थोड़ी सी मोहब्बत भी ज़रूरी है जिगर में
गुस्से से ही सीने में बगावत नहीं आती
किस बात का डर है तुम्हें क्यूँ चुप सी लगी है
सच बोलने भर से तो क़यामत नहीं आती
हर दर्द से बावस्ता हुआ जाता है पहले
इक सर को झुकाने से इबादत नहीं आती
"परछाइयों के शहर में"दरअसल दिनेश जी का दूसरा ग़ज़ल संग्रह है , उनका पहला ग़ज़ल संग्रह "हम लोग भले हैं कागज़ पर " लगभग दस साल पहले शाया हुआ था जिसे बहुत सराहना मिली, उसका दूसरा संस्करण कुछ माह पहले ही प्रकाशित हुआ है जो दिनेश जी की ग़ज़लों की बढती लोकप्रियता को दर्शाता है. इस किताब की भूमिका में मशहूर शायर ज़नाब"शीन काफ निजाम" साहब ने बहुत कमाल की बात कही है "अगर सिर्फ बहर, रदीफ़ और काफिये से निर्मित दो पद शेर नहीं, तो अखबार की सुर्खी भी शेर नहीं. हेराक्लिटस ने कहा था- मेरी बात नहीं मेरे कहने में जो बात बोलती है उसे सुनो. वो बात अकथित है.कथन में अकथित को छुपाना अगर शेर साजी है तो कथन में अकथित को पढना ही ग़ज़ल पढना है " दिनेश जी की ग़ज़लें उनके इस कथन पर खरी उतरती हैं:
उसके ओझल होने तक मेरी आँखें थीं रस्ते पर
वो जाने किस ध्यान में गुम था, मुड़ कर जाना भूल गया
किस दर्ज़ा बेज़ार हुआ है गुलचीं अपने गुलशन से
ताज़ा मौसम के फूलों को गिनकर जाना भूल गया
गुलचीं : माली
बीवी, बच्चे, सड़कें, दफ्तर और तनख्वाह के चक्कर में
मैं घर से अपना ही चेहरा पढ़कर जाना भूल गया
इस किताब में दिनेश जी अधिकांश ग़ज़लें छोटी बहर में हैं और जैसा मैं हर बार कहता आया हूँ छोटी बहर में ग़ज़ल कहना जितना सरल दीखता है उतना ही मुश्किल काम है. गागर में सागर भरने की ये कला हर किसी के पास नहीं होती. थोड़े से लफ़्ज़ों में पुख्ता ढंग से कैसे बात कही जाती है ये आप इस किताब को पढ़ कर स्वयं देखें:
उलझने हैं सभी के सीने में
कौन अब इंकलाब रखता है
याद की धूप जब सताती है
सर पे मेरी किताब रखता है
गुनगुनाता है छुप के मेरी ग़ज़ल
शौक क्या लाजवाब रखता है
दिनेश जी की एक सौ चार लाजवाब ग़ज़लों से सजी इस किताब को यूँ तो फुल सर्कल पब्लिशिंग प्रा.ली.,जे- 40, जोरबाग लेन, दिल्ली ने प्रकाशित किया है और वो शायद आपको वहां से मिल भी जाय लेकिन फिर भी इसे आसानी से प्राप्त करने के लिए आप दिनेश जी को, जो इन दिनों राजस्थान के बहुत पुराने और सबसे अधिक पाठकों वाले अखबार "राजस्थान पत्रिका" में वरिष्ठ समाचार संपादक के पद पर कार्य रत हैं, उनके मोबाइल नंबर 9024788857 पर संपर्क करें, मुझे उम्मीद है मृदु भाषी दिनेश जी से बात कर आपको अलग सा सुकून और किताब प्राप्ति का आसान तरीका भी मिल जायेगा.
सियासत भी तवायफ़ है मोहब्बत क्यूँ करेगी वो
भला किस वक्त घुंघरू इसके मक्कारी नहीं करते
दुपट्टा उसने ये कह कर उड़ा फैंका हवाओं में
हम हर मौसम में परदे की तरफदारी नहीं करते
कसीदे सुनते सुनते रक्स करने लगते हैं साहिब
तमाशा कौनसा महफ़िल में दरबारी नहीं करते
प्रसिद्द रचनाकार श्री नन्द चतुर्वेदीजी ने इस किताब की दूसरी भूमिका में जो लिखा है कि "दिनेश ठाकुर के छोटे छोटे शेर सहसा ज़िन्दगी के उन सवालों से रूबरू कर देते हैं,जिनके जवाब देने के लिए हम तैयार नहीं थे,लेकिन अब जिनसे बचना संभव नहीं है.दिनेश की शायरी मौज-शौक की शायरी की नहीं है. वहां एक फलसफा भी है, बात ज़िन्दगी की बैचेनियों की है जो देर तक परेशान भी करती हैं " उनकी इस बात की तस्कीद के लिए हाज़िर हैं उनकी छोटी बहर की एक ग़ज़ल के ये शेर :-
सिलसिला है तो टूटता क्यूँ है
इस जहाँ में ये सिलसिला क्यूँ है
खींच लाया है जब तू मकतल में
फिर तेरा हाथ काँपता क्यूँ है
मकतल: वधस्थल
मैं भी हैरान हूँ कि बात है क्या
चलते चलते वो भागता क्यूँ है
आईये चलते चलते सुनते हैं दिनेश ठाकुर की वो मशहूर ग़ज़ल जिसे मोहम्मद हुसैन अहमद हुसैन भाइयों ने अपने दिलकश अंदाज़ में गाया है. शायरी और मौसिकी का ये मिलन अद्भुत है और देर तक ज़ेहन में गूंजता रहता है .
शाखों को तुम क्या छू आए
काँटों से भी खुशबू आए