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किताबों की दुनिया - 75

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आज के युग में ये बात बहुत आम हो गयी है के लोग अपनी असलियत छुपा कर जो वो नहीं हैं उसे दिखाने की कोशिश करते हैं और ऐसे मौकों पर मुझे साहिर साहब द्वारा फिल्म इज्ज़त के लिए लिखा और रफ़ी साहब द्वारा गाया एक गाना " क्या मिलिए ऐसे लोगों से जिनकी फितरत छुपी रहे, नकली चेहरा सामने आये असली सूरत छिपी रहे " याद आता है. लेकिन साहब अपवाद कहाँ नहीं होते, जब कोई ताल ठोक कर जैसा वो है वैसा ही अपने बारे में बताते हुए कहता है की:

इक तअल्लुक है वुजू से भी सुबू से भी मुझे 
मैं किसी शौक़ को पर्दे में नहीं रखता हूँ 

तो यकीन मानिये दिल बाग़ बाग़ हो जाता है. वुजू और सुबू से अपनी दोस्ती को सरे आम मानने वाले हमारी आज की "किताबों की दुनिया" श्रृंखला जो अपने 75 वें मुकाम पर पहुँच चुकी है ,के शायर हैं जनाब "राहत इन्दोरी"साहब, जिनकी, दुनिया के किसी भी कोने में हो रहे, मुशायरे में मौजूदगी उसकी कामयाबी की गारंटी मानी जाती है.

कोई मौसम हो, दुःख-सुख में गुज़ारा कौन करता है 
परिंदों की तरह सब कुछ गवारा कौन करता है 

घरों की राख फिर देखेंगे पहले देखना ये है 
घरों को फूंक देने का इशारा कौन करता है 

जिसे दुनिया कहा जाता है, कोठे की तवायफ है 
इशारा किसको करती है, नज़ारा कौन करता है 

 दोस्तों जिस किताब का मैं जिक्र कर रहा हूँ उस किताब का शीर्षक है " चाँद पागल है "और इसे वाणी प्रकाशन वालों ने प्रकाशित किया है. इस किताब में राहत साहब की एक से बढ़ कर एक खूबसरत 117 ग़ज़लें संगृहीत हैं.


कुछ लोगों से बैर भी ले
दुनिया भर का यार न बन 

सब की अपनी साँसें हैं 
सबका दावेदार न बन 

कौन खरीदेगा तुझको 
उर्दू का अखबार न बन 

अपने अशआरों में ताजगी का एहसास राहत साहब ने फिल्म 'करीब" जो सन 1998 में रीलीज़ हुई थी, में लिखे गीतों से ही करा दिया था, उस फिल्म में रसोई घर में अपने काम गिनाती हिरोइन द्वारा गाये गाने को मैं अभी
तक नहीं भूल पाया हूँ. आप भी सुने:

  

लोग अक्सर शायरों को पढ़ते हैं या सुनते हैं लेकिन राहत इन्दोरी उस शायर का नाम है जिसे लोग पढना, सुनना और देखना पसंद करते हैं. राहत साहब को मुशायरों में शेर सुनाते हुए देखना एक ऐसा अनुभव है जिस से गुजरने को बार बार दिल करता है. उन्होंने सामयीन को शायरी सुनाने के लिए एक नयी स्टाइल खोज ली है जो सिर्फ और सिर्फ उनकी अपनी है. वो शेर को पढ़ते ही नहीं उसे जीते भी हैं.

इरादा था कि मैं कुछ देर तूफां का मज़ा लेता 
मगर बेचारे दरिया को उतर जाने की जल्दी थी 

मैं अपनी मुठ्ठियों में कैद कर लेता ज़मीनों को 
मगर मेरे कबीले को बिखर जाने की जल्दी थी 

मैं साबित किस तरह करता कि हर आईना झूठा है 
कई कमज़र्फ चेहरों को उतर जाने की जल्दी थी 

निदा फाजली साहब ने इस किताब के फ्लैप पर दी गयी भूमिका में लिखा है " सोचे हुए और जिए हुए आम इंसान के दुःख दर्द के फर्क को राहत के शेरों में अक्सर देखा जा सकता है. इस फर्क को राहत की ग़ज़ल की भाषा में भी पहचाना जा सकता है. राहत की ग़ज़ल की ज़ुबान में जो लफ्ज़ इस्तेमाल होते हैं, वो आम आदमी की तरह गली -मोहल्लों में चलते फिरते महसूस होते हैं. इस सरल-सहज, गली-मोहल्लों में चलने फिरने वाली भाषा के ज़रिये उन्होंने समाजके एक बड़े रकबे से रिश्ता कायम किया है."

आबले अपने ही अंगारों के ताज़ा हैं अभी 
लोग क्यूँ आग हथेली प' पराई लेते 

बर्फ की तरह दिसम्बर का सफ़र होता है 
हम तुझे साथ न लेते तो रज़ाई लेते 

कितना हमदर्द सा मानूस सा इक दर्द रहा 
इश्क कुछ रोग नहीं था कि दवाई लेते 

एक जनवरी 1950 को इंदौर में जन्में राहत साहब ने अपनी स्कूली और कालेज तक की पढाई इंदौर में ही की, कालेज की फुटबाल और हाकी टीम के कप्तान रहे राहत साहब ने भोपाल की बरकतुल्ला विश्व विद्यालय से एम् ऐ. (उर्दू) करने के बाद भोज विश्व विद्यालय से पी एच डी. हासिल की. उन्नीस वर्ष की उम्र में उन्होंने कालेज में अपने शेर सुनाये और देवास 1972 में हुए आल इंडिया मुशायरे में उन्होंने पहली बार शिरकत कर अपने इस नए सफ़र की शुरुआत की.

उन्होंने लगभग चालीस हिंदी फिल्मों में अब तक गीत लिखे हैं. उनमें से फिल्म "मिनाक्षी" का गीत "ये रिश्ता क्या कहलाता है..." मुझे बहुत पसंद है.

कतरा कतरा शबनम गिन कर क्या होगा 
दरियाओं की दावेदारी किया करो 

चाँद जियादा रोशन है तो रहने दो 
जुगनू भईया जी मत भारी किया करो 

रोज़ वही इक कोशिश जिंदा रहने की 
मरने की भी कुछ तैय्यारी किया करो 

इसी किताब में "मुनव्वर राना" साहब ने शायरी और राहत साहब के बारे में बहुत अच्छी बात कही है " शायरी गैस भरा गुब्बारा नहीं है जो पलक झपकते आसमान से बातें करने लगता है ! बल्कि शायरी तो खुशबू की तरह आहिस्ता आहिस्ता अपने परों को खोलती है, हमारी सोच और दिलों के दरवाज़े खोलती है और रूह की गहराईयों में उतरती चली जाती है. राहत ने ग़ज़ल की मिट्टी में अपने तजुर्बात और ज़िन्दगी के मसायल को गूंथा है यही उनका कमाल भी है और उनका हुनर भी और इसी कारनामे की वजह से वो देश विदेश में जाने और पहचाने जाते हैं. "

रोज़ तारों की नुमाइश में ख़लल पड़ता है 
चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है 

रोज़ पत्थर की हिमायत में ग़ज़ल लिखते हैं 
रोज़ शीशों से कोई काम निकल पड़ता है 

उसकी याद आई है साँसों ज़रा आहिस्ता चलो 
धडकनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है 

देश विदेश में अपनी शायरी के पंचम को लहराने वाले राहत साहब को इतने अवार्ड्स से नवाज़ा गया है के उन सबके जिक्र के लिए एक अलग से पोस्ट लिखनी पड़ेगी . उनमें से कुछ खास हैं :पाकिस्तानी अखबार 'जंग' द्वारा दिया गया सम्मान, यू.पी. हिंदी उर्दू साहित्य अवार्ड, डा.जाकिर हुसैन अवार्ड, निशाने-एजाज़, कैफ़ी आज़मी अवार्ड, मिर्ज़ा ग़ालिब अवार्ड, इंदिरा गाँधी अवार्ड, राजीव गाँधी अवार्ड, अदीब इंटर नेशनल अवार्ड, मो. अली ताज अवार्ड, हक़ बनारसी अवार्ड आदि आदि आदि...(लिस्ट बहुत लम्बी है).

राहत साहब की अब तक सात किताबें हिंदी -उर्दू में छप चुकी हैं , "चाँद पागल है" हिंदी में उनकी ग़ज़लों का पांचवां संकलन है.

मसाइल, जंग, खुशबू, रंग, मौसम 
ग़ज़ल अखबार होती जा रही है 

कटी जाती है साँसों की पतंगें 
हवा तलवार होती जा रही है 

गले कुछ दोस्त आकर मिल रहे हैं 
छुरी पर धार होती जा रही है 

इस किताब की प्राप्ति के लिए वही कीजिये जो आपने अब तक किया है याने वाणी प्रकाशन दिल्ली वालों से संपर्क या फिर नैट पर बहुत सी ऐसी साईट हैं जो आपको ये किताब भिजवा सकती हैं उनकी मदद लीजिये , इन सभी साईट का जिक्र यहाँ संभव नहीं है लेकिन इच्छुक लोग मुझसे मेरे ई -मेल neeraj1950@gmail.com या मोबाइल +919860211911पर मुझसे संपर्क कर पूछ सकते हैं.

अगर आप इस खूबसूरत किताब में शाया शायरी के लिए राहत साहब को बधाई देना चाहते हैं तो उनसे email - rahatindorifoundation@rediffmail.com Phone : +91 98262 57144  पर संपर्क करें.

आपसे राहत साहब के इन शेरों के साथ विदा लेते हैं और निकलते हैं अगली किताब की खोज पर .

वो अब भी रेल में बैठी सिसक रही होगी 
मैं अपना हाथ हवा में हिला के लौट आया 

खबर मिली है कि सोना निकल रहा है वहां 
मैं जिस ज़मीन प' ठोकर लगा के लौट आया 

वो चाहता था कि कासा ख़रीद ले मेरा 
मैं उसके ताज की कीमत लगा के लौट आया


 





जैसे की कोई बच्चा हँसता हो खिलखिलाकर

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आप सब को दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाएं




हर बात पे अगर वो बैठेंगे मुंह फुला कर 
रूठे हुओं को कब तक लायेंगे हम मना कर 

सच बोल कर सदा यूँ दिल खुश हुआ हमारा 
जैसे की कोई बच्चा हँसता हो खिलखिलाकर 

अपने रकीब को जब देखा वहां तो जाना 
रुसवा किया गया है हमको तो घर बुला कर 

पहले दिए हजारों जिसने थे घाव गहरे 
मरहम लगा रहा है अब वो नमक मिला कर 

गहरी उदासियों में आई यूँ याद तेरी 
जैसे कोई सितारा टूटा हो झिलमिलाकर 

माना हूँ तेरा दुश्मन बरसों से यार लेकिन 
मेरे भी वास्ते तू एक रोज़ कुछ दुआ कर 

गर खोट दिल में तेरे बिलकुल नहीं है "नीरज" 
 फिर किस वजह से करता है बात फुसफुसाकर

किताबों की दुनिया-76

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उनकी ये जिद कि वो इंसान न होंगे, हरगिज़ 
मुझको ये फ़िक्र, कहीं मैं न फ़रिश्ता हो जाऊं 

भूल बैठा हूँ तेरी याद में रफ़्तार अपनी 
मुझको छू दे कि मैं बहता हुआ झरना हो जाऊं 

बंद कमरे में तेरी याद की खुशबू लेकर 
एक झोंका भी जो आ जाय तो ताज़ा हो जाऊं 

फरिश्तों की तरह पाक, बहते झरनों की तरह मचलते और खुशबू की तरह महकते हुए अशआर शायरी की जिस किताब के हर पन्ने पर मिल जाते हैं उस किताब का नाम है "रौशनी महकती है " और शायर हैं जनाब " सत्य प्रकाश शर्मा". शर्मा जी शायरों की उस जमात से ताल्लुक रखते हैं जिन्हें अपना नाम बेचना नहीं आता, मंचों पर लफ्फाजी करनी नहीं आती जो अपनी ख़ुशी के लिए लिखते हैं और जिन्हें इस बात का कतई कोई मुगालता नहीं है के वो शायरी के माध्यम से कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हैं।


मुझे रुसवा करे अब या कि रक्खे उन्सियत कोई 
तक़ाज़ा ही नहीं करती है मेरी हैसियत कोई 

कभी दरिया सा बहता हूँ कभी खंडहर सा ढहता हूँ 
मैं इंसा हूँ, फरिश्तों सी नहीं मुझ में सिफ़त कोई 

मज़ा ये है कि तहरीरें उभर आती हैं चेहरे पर 
छुपाना भी अगर चाहे, छुपाये कैसे ख़त कोई 

श्री सत्य प्रकाश शर्मा जी से मेरा परिचय करवाने का श्रेय मेरे मुंबई निवासी शायर मित्र सतीश शुक्ल 'रकीब' को जाता है। बातों बातों में उन्होंने शर्मा जी की शायरी का जिक्र किया और लगे हाथ उनसे मोबाइल पे बात भी करवा दी। पहली बात से ही दिल में घर कर गए शर्मा जी का जन्म 5 जुलाई 1956 कानपुर में हुआ, होश सँभालते ही उनका झुकाव ग़ज़लों की और ऐसा हुआ के अब तक नहीं छूटा बल्कि रोज़ के रोज़ बढ़ता ही जा रहा है गोया शायरी न हुई शराब हो गयी जो " छुटती नहीं है काफिर मुंह से लगी हुई।।" भारतीय स्टेट बैंक में उप प्रबंधक के ओहदे पर काम करते हुए शायरी और फिर शायरी की मुकम्मल किताब के लिए वक्त निकालना आसान काम नहीं होता। उसके लिए दिल में जूनून चाहिए जो उनमें भरपूर है।

इस खौफ़ से उठने नहीं देता वो कोई सर 
हम ख्वाइशें अपनी कहीं मीनार न कर दें 

मुश्किल से बचाई है जो एहसास की दुनिया 
इस दौर के रिश्ते उसे बाज़ार न कर दें 

ये सोच के नज़रें वो मिलाता ही नहीं है 
आँखें कहीं ज़ज्बात का इज़हार न कर दें 

शर्मा जी की ग़ज़लें ही अनूठी नहीं है उन्होंने जिस अंदाज़ से ये किताब अपनी पत्नी को समर्पित की है वो भी उतना ही अनूठा है वो लिखते हैं " जीवन संगिनी कृष्णा के लिए ... जो ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव में पूरे यकीन के साथ मेरे साथ खड़ी रहीं ...जिन्हें मैं इस किताब के अलावा कुछ ख़ास नहीं दे सका।

दूर कितने करीब कितने हैं 
क्या बताएं रकीब कितने हैं 

ये है फेहरिश्त जाँ निसारों की 
तुम बताओ सलीब कितने हैं 

जिसको चाहें उसी से दूर रहें 
ये सितम भी अजीब कितने हैं 

अपनी खातिर नहीं कोई लम्हा 
हम भी आखिर गरीब कितने हैं 

देश की प्रमुख पत्रिकाओं और समाचार पत्रों में छपी उनकी ग़ज़लें मेरी तरह उनके बहुत से चाहने वालों की तादाद में इजाफा कर रही हैं। उन्हें अली अवार्ड (भोपाल) अमृत कलश सम्मान (गोरखपुर) और डा भगवत शरण चतुर्वेदी स्मृति सम्मान (जयपुर) से नवाज़ा गया है। ज़मीन से जुड़े इस शायर से बात करना भी कभी न भुलाए जाने वाला अनुभव है।

वफ़ा के नाम पे तुम जान देने लगते हो 
तुम्हारे शौक तो बर्बाद करने वाले हैं 

हमें पता है कि नश्तर तुम्हारे बहरे हैं 
ये ज़ख्म भी कहाँ फ़रियाद करने वाले हैं 

खबर लगी जो मुसीबत की घर से दौड़ पड़े 
ये अश्क दर्द की इमदाद करने वाले हैं 

इस किताब में शर्मा जी की 86 ग़ज़लें संगृहीत हैं, अपनी ग़ज़लों से पहले उन्होंने अपने राह्बरों और शायरी के दोस्तों का जिक्र बहुत पुर खुलूस अंदाज़ में किया है। एक़ ऐसे अंदाज़ में जो उनका अपना है। सबसे अच्छी बात है के किताब में उन्होंने किसी शायर या रहनुमा की कोई भी टिप्पणी, जिसमें अमूनन शायर और उसकी शायरी उनकी शान में कसीदे पढ़े जाते हैं, को जगह नहीं दी है। किताब में पहले उन्होंने अपने दिल की बात की है और फिर अपनी ग़ज़लों को सीधे अपने पाठकों के सामने परोस दिया है।

कातिलों में ज़मीर ढूढेंगे 
क्या महल में कबीर ढूंढेंगे 

खेल ऐसा भी एक दिन होगा 
सारे पैदल वज़ीर ढूँढेंगे 

जाँ पे बन आएगी मेरी तब तक 
जब तलक आप तीर ढूंढेंगे 

"रोशनी महकती है "को पांखी प्रकाशन, छतरपुर एंक्लेव फेज़-1, दिल्ली- 110074 ने प्रकाशित किया है , इस किताब की प्राप्ति के लिए आप +919999428213 पर फोन से या फिर paankhipublication@gmail.comपर मेल से संपर्क कर मंगवा सकते हैं। इस खूबसूरत किताब को अपने घर की लाइब्रेरी की शोभा बनाइये और इसमें प्रकाशित लाजवाब शायरी के लिए +919695531284पर फोन कर शर्मा जी को बधाई दीजिये। एक अच्छे और सच्चे शायर की हौसला अफजाही करना हर शायरी के दीवाने का फ़र्ज़ बनता है। नयी किताब की खोज में निकलने से पहले मैं आपको उनके ये शेर और पढवाता चलता हूँ

तू ख्वाइशों से जंग का एलान कर के देख 
नुक्सान की न सोच, ये नुक्सान करके देख 

दुनिया है इक तरफ, तेर एहसास इक तरफ 
तू किस में खुश रहेगा, जरा ध्यान कर के देख 

कुछ तेरी हैसियत में चमक और आएगी 
कुछ तेरी हैसियत नहीं, ये मान कर के देख

जहाँ उसूल दांव पर लगे वहां उठा धनुष

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इस बार दिवाली के शुभ अवसर पर गुरुदेव पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर तरही मुशायरा आयोजित किया गया. तरही का मिसरा था "घना जो अन्धकार हो तो हो रहे तो हो रहे" इस मिसरे के साथ शिरकत करने वाले शायरों और कवियों ने अपनी रचनाओं से अचंभित कर दिया. मुशायरे का पूरा मज़ा तो आप गुरुदेव के ब्लॉग पर जा कर ही ले सकते हैं यहाँ पढ़िए वो ग़ज़ल जो मैंने उस तरही में भेजी थी. उम्मीद है पसंद आएगी:




तुझे किसी से प्यार हो तो हो रहे तो हो रहे 
 चढ़ा हुआ ख़ुमार हो तो हो रहे तो हो रहे 

 जहाँ पे फूल हों खिले वहां तलक जो ले चले 
 वो राह, खारज़ार हो तो हो रहे तो हो रहे 

 उजास हौसलों की साथ में लिये चले चलो 
 घना जो अन्धकार हो तो हो रहे तो हो रहे 

बशर को क्या दिया नहीं खुदा ने फिर भी वो अगर 
बिना ही बात ख़्वार हो तो हो रहे तो हो रहे 

 मेरा मिजाज़ है कि मैं खुली हवा में सांस लूं 
 किसी को नागवार हो तो हो रहे तो हो रहे 

 चमक है जुगनूओं में कम, मगर उधार की नहीं 
 तू चाँद आबदार हो तो हो रहे तो हो रहे 
 आबदार: चमकीला 

 जहाँ उसूल दांव पर लगे वहां उठा धनुष 
 न डर जो कारज़ार हो तो हो रहे तो हो रहे 
 कारज़ार : युद्ध 

 फ़कीर हैं मगर कभी गुलाम मत हमें समझ 
 भले तू ताज़दार हो तो हो रहे तो हो रहे 

 पकड़ तू सच की राह को भले ही झूठ की तरफ 
 लगी हुई कतार हो तो हो रहे तो हो रहे

किताबों की दुनिया - 77

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नए प्रोजेक्ट के सिलसिले में इन दिनों लगभग हर महीने दो तीन दिनों के लिए गाजिआबाद और दिल्ली जाना पड़ रहा है. ज़िन्दगी अभी मुंबई -जयपुर और दिल्ली के बीच घूम रही है. अटैची पूरी तरह खुलती भी नहीं के फिर से पैक करने का समय हो जाता है. उम्र के इस मोड़ पर भागदौड़ का अपना मज़ा है लेकिन इस वजह से पढना लिखना कुछ कम हो रहा है. अब साहब ज़िन्दगी है, इसमें तो ये सब चलता रहता है :

ज़िन्दगी में फूल भी हैं खार भी 
हादसे भी हैं मगर त्यौहार भी 

हर जगह हैं गैर -ज़िम्मेदार लोग 
हर जगह हैं लोग ज़िम्मेदार भी 

प्यार हो जाय जहाँ पर बे-असर 
बे-असर होगी वहां तलवार भी 

खूबसूरत इत्तेफाक देखिये कि गाजिआबाद के जिस होटल में अक्सर मैं ठहरता हूँ उसी के पास पता चला मेरे प्रिय शायर " अशोक रावत " भी रहते हैं. अशोक जी की ग़ज़लें मैं सतपाल ख्याल साहब के ब्लॉग पर पढ़ कर उनका प्रशंशक हो चुका था, वहीँ से उनका मोबाइल नंबर भी मिला. उन्हें फोन किया तो लगा जैसे बरसों की पहचान हो. बात निकली और फिर दूर तलक गयी. पहली ही बार में इतनी आत्मीयता से बात करने वाले शख्स मैंने बहुत कम देखें हैं आज के इस युग में जहाँ :

अनपहचानी सी लगती हैं अपने ही घर की दीवारें 
अपनी ही गलियों में लगता जैसे हम अनजान हो गए 

बिगड़ गए ताऊ जी, पापा के हिस्से का जिक्र किया 
जब ज़ेवर की जब बात चली तो चाचा बेईमान हो गए 

छोटे भाई के बच्चों की शक्लें अब तक याद नहीं हैं 
राखी नहीं भेजती जीजी भैया अब महमान हो गए 

अशोक जी जैसा व्यक्ति किसी अजूबे से कम नहीं. मैंने फोन पर उनसे उनका ग़ज़ल संग्रह "थोडा सा ईमान" ,जिसका जिक्र आज हम करेंगे , पढने की ख्वाइश का इज़हार किया. अगले दिन सुबह ही वो अपनी किताब के साथ मेरे होटल की लाबी में मेरा इंतज़ार करते हुए मिले. मेरी खातिर अपने घर से दूर खास तौर पर उनका मुझसे मिलने और किताब देने आना मुझे भाव विभोर कर गया. बातों का सिलसिला जब शुरू हुआ तो लगा जैसे बरसों से बिछुड़े दो मित्र गप्पें मार रहे हैं.


फूलों का अपना कोई परिवार नहीं होता 
खुशबू का अपना कोई घर द्वार नहीं होता 

इस दुनिया में अच्छे लोगों का ही बहुमत है 
ऐसा अगर न होता ये संसार नहीं होता 

कितने ही अच्छे हों कागज़ पानी के रिश्ते 
कागज़ की नावों से दरिया पार नहीं होता 

अशोक जी की ग़ज़लें उनके व्यक्तित्व की तरह सच्ची और सरल हैं. उनमें लफ्फाज़ी बिलकुल नहीं है. वो जो अपने आस पास देखते हैं महसूस करते हैं वो ही सब उनके शेरों में दिखाई देता है. इंसान और समाज में आ रहे नकारात्मक बदलाव से वो आहत होते हैं. उनकी ये पीड़ा उनके शेरों में ढल कर उतरती है :

मील के कुछ पत्थरों तक ही नहीं ये सिलसिला 
मंजिलें भी हो गयी हैं अब लुटेरों की तरफ 

जो समंदर मछलियों पर जान देता था कभी 
वो समंदर हो गया है अब मछेरों की तरफ 

सांप ने काटा जिसे उसकी तरफ कोई नहीं 
लोग साँपों की तरफ हैं या सपेरों की तरफ 

15 नवम्बर 1953 को मथुरा जिला के मलिकपुर गाँव में जन्में अशोक भाई सिविल इंजिनियर हैं, आगरा के निवासी हैं और नॉएडा स्थित भारतीय खाद्य निगम में उच्च अधिकारी हैं. सिविल इंजीनियर से बेहतर भला कौन शायर हो सकता है. सिविल इंजीनियर को पता होता है किस काम के लिए कैसा मिश्रण तैयार किया जाता है कैसे नक़्शे बनाये जाते हैं और कैसे ईंट दर ईंट रख कर निर्माण किया जाता है. जरा सी चूक भारी पड़ जाती है. अशोक जी ग़ज़लों में छुपा उनका सिविल इंजीनियरिंग पक्ष साफ़ दिखाई देता है. उनके शेर एक दम कसे हुए नपे तुले होते हैं जिसमें न एक लफ्ज़ जोड़ा जा सकता है और न घटाया.

मेरी नादानी कि जो सपनों में देखे 
मैं हकीक़त में वो मंज़र चाहता था 

भूल मुझसे सिर्फ इतनी सी हुई है 
मैं भी हक़ सबके बराबर चाहता था 

घर का हर सामान मुझको मिल गया पर 
वो नहीं जिसके लिए घर चाहता था 

मेरे ये कहने पर की आजकल लोग न शायरी पढ़ते हैं न सुनते हैं वो तमतमा गए. बोले नीरज जी आप सही नहीं हैं आज कल भी लोग अच्छी शायरी पढ़ते और पसंद करते हैं. आजके दौर में कच्चे शायरों का जमावड़ा अधिक हो गया है. हर कोई शेर या ग़ज़ल कह रहा है, बिना ग़ज़ल का व्याकरण समझे. कम्यूटर पर इतनी सुविधा है के आप कुछ भी लिखें आपको वाह वाह करने वाले तुरंत मिल जाते हैं जो आपके पतन का कारण बनते हैं. पहले एक शेर कहने में पसीना निकल जाता था उस्ताद लोग एक एक मिसरे पर हफ़्तों शागिर्द से कवायद करवाते थे तब कहीं जा कर एक शेर मुकम्मल होता था आज उस्ताद को कौन पूछता है फेसबुक पे शेर डालो और पसंद करने वालों की कतार लग जाती है क्यूँ की पसंद करने वाले को भी तो आपकी वाह वाही की जरूरत होती है. तू मुझे खुजा मैं तुझे खुजाऊं की परम्परा चल पड़ी है.

तुम्हारा बेख़बर रहना बड़ी तकलीफ देता है 
पता तो है तुम्हें सब कुछ कहाँ पर क्या खराबी है 

कभी इक पल गुज़रता है तो लगता है कि युग बीता 
कभी यह ज़िन्दगी, महसूस होता है ज़रा सी है 

खुदा का काम हो जैसे तमाशा देखते रहना 
कभी भी ये नहीं लगता कहीं कोई खुदा भी है 

ग़ज़लों की ये छोटी सी किताब गागर में सागर समान है ,जिसे शब्दकार प्रकाशन शाहगंज आगरा ने प्रकाशित किया है. अत्यंत सादे कलेवर वाली इस किताब में अशोक जी की वो ग़ज़लें हैं जो देश की प्रसिद्द पत्रिकाओं और अखबारों में छप चुकी हैं. हर ग़ज़ल के नीचे उस पत्रिका या अखबार का नाम और प्रकाशन तिथि अंकित है. आपको इस किताब की प्राप्ति के लिए अशोक जी से संपर्क करना होगा जो इन दिनों अपने दूसरी पुस्तक के प्रकाशन की तैय्यारी में व्यस्त हैं. आप अशोक जी से उनके मोबाइल +919458400433 (आगरा ) और +919013567499 (नोयडा ) पर संपर्क कर उन्हें इतने बेहतरीन शेरों के लिए बधाई दें और आज की ग़ज़ल पर चर्चा करें आपको असीमित आनंद आएगा. यकीन न हो तो आजमा कर देखें. अब समय हो गया है आपसे विदा लेने का लेकिन चलने से पहले पढ़िए अशोक जी की ग़ज़ल के ये शेर :

चैन से रहने का हमको मशवरा मत दीजिये 
अब मज़ा देने लगी हैं ज़िंदगी की मुश्किलें 

कुछ नहीं होगा अंधेरों की शिकायत से जनाब 
जानिये ये भी कि क्या हैं रौशनी की मुश्किलें 

रोज़ उठने बैठने की साथ में मजबूरियां 
वर्ना कोई कम नहीं हैं दोस्ती की मुश्किलें

खार जैसे रह गए हम डाल पर

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सभी पाठकों को नव वर्ष की शुभकामनाएं



सांप, रस्सी को समझ डरते रहे 
और सारी ज़िन्दगी मरते रहे 

खार जैसे रह गए हम डाल पर 
आप फूलों की तरह झरते रहे 

थाम लेंगे वो हमें ये था यकीं 
इसलिए बेख़ौफ़ हो गिरते रहे 

तिश्नगी बढ़ने लगी दरिया से जब 
तब से शबनम पर ही लब धरते रहे 

छांव में रहना था लगता क़ैद सा, 
इसलिये हम धूप में फिरते रहे 

रात भर आरी चलाई याद ने, 
रात भर ख़़ामोश हम चिरते रहे 

जिंदगी उनकी मज़े से कट गई 
रंग ‘नीरज’ इसमें जो भरते रहे


(ये ग़ज़ल श्री पंकज सुबीर जी के पारस स्पर्श से सोना हुई है )

किताबों की दुनिया -78

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शायरी और समंदर में एक गहरा रिश्ता है इनमें जितना डूबेंगे उतना आनंद आएगा। उथली शायरी और उथले  समंदर में कोई ख़ास बात नज़र नहीं आती लेकिन जरा गहरी डुबकी लगायें, आपको किसी और ही दुनिया में चले जाने का अहसास होगा। गहराई में आपको वो रंग नज़र आयेंगे जो सतह पर नहीं दिखाई देते। जो किताब आपको शायरी की गहराइयों में ले जाय उसके बारे में क्या कहा जाय। यूँ तो हर किताब कुछ न कुछ नया पढने को देती है लेकिन कुछ किताबें पढ़ कर दिल करता है इसे फिर से पढ़ा जाय। ऐसी ही एक किताब का जिक्र हम आज अपनी "किताबों की दुनिया"श्रृंखला में करेंगे:

उड़ने के अरमान सभी के पूरे कब हो पाते हैं
उड़ने का अरमान अगरचे हर बेकस में होता है

चाँद सितारों पर रहने की ख्वाइश अच्छी है, लेकिन
चाँद सितारों पर रह पाना किसके बस में होता है

एक इरादा करके घर से चलने में है दानाई
लोगों का नुक्सान हमेशा पेश-ओ-पस में होता है
दानाई: समझदारी ; पेच-ओ-पस : दुविधा

मेरे जैसा लोहा आखिर सोने में तब्दील हुआ
तुझमें शायद वो सब कुछ है जो पारस में होता है

शायरी का ये नया खूबसूरत मिजाज़ आपको युवा शायर"मनीष शुक्ला"जी किताब "ख़्वाब पत्थर हो गए "में एक जगह नहीं बहुत जगह पर बिखरा मिलेगा। बकौल मुंबई के मशहूर शायर "देव मणि पाण्डेय", शायरी में नग्मगि और नजाकत जरूर होनी चाहिये वर्ना ग़ज़ल का शेर, शेर न लग कर अखबार की खबर सा बेमज़ा लगने लगता है।" ये नग्मगि और नजाकत मनीष जी की शायरी में भरपूर दिखाई देती है .


बहुत अच्छा हुआ अहसास अब मरने लगे हैं
हजारों ज़ख्म हैं लेकिन कोई दुखता नहीं है

भला किसको दिखाएँ जाके दिल के आबले हम
सभी जल्दी में हैं कोई ज़रा रुकता नहीं है
आबले: छाले

सभी ने तल्खियों की गर्द इस चेहरे पे मल दी
और उस पर ये शिकायत भी कि अब हँसता नहीं है

बकौल प्रो.शारिब रुदौलवी "ज़बान की ये सादगी और इज़हार-ऐ-ज़ज्बात का ये अंदाज़ मनीष की खुसूसियत है। उनकी शायरी में जो चीज़ मुतास्सिर करती है वो उनके अहसासात की ताजगी और उनका सादा मासूम इज़हार है। उर्दू ज़बान उनकी मादरी ज़बान नहीं है उसके बावजूद उन्होंने उर्दू को इज़हार-ऐ-ज़ज्बात का जरिया बनाया इसकी मुझे ख़ुशी है "

कफ़स ही अब तो घर लगने लगा है
रिहा होने से डर लगने लगा है
कफ़स: कैदखाना

छुपा लेता है खद्द-ओ-खाल मेरे
अँधेरा मोतबर लगने लगा है
खद्द-ओ-खाल: नाक-नक्श; मोतबर: विश्वस्त

दिल-ऐ-नादान अब खामोश हो जा
तिरी बातों से डर लगने लगा है

किताबों की दुनिया श्रृंखला में मनीष जी जैसे युवा शायरों का जिक्र बहुत कम हुआ है। शायरी में जिन एहसासों को पिरोया जाता है उसके लिए ज़िन्दगी के अलग अलग रंगों का तजुर्बा होना जरूरी है और ये रंग बहुत बिरले संवेदनशील लोग ही कम उम्र में देख पाते हैं। सन 1971 में उन्नाव उत्तरप्रदेश में जन्मे मनीष ने लखनऊ विश्व विद्यालय से अन्थ्रोपोलोजी में ऍम ऐ किया और अब प्रांतीय सिविल सेवा (वित्त एवम लेखा) के अधिकारी के रूप में शासकीय सेवा रत हैं। वित्त एवम लेखा जैसे के शुष्क विषय में काम करने के बावजूद शायद उनकी अन्थ्रोपोलोजी की पढाई ही मानव के विभिन्न स्वभावों को उनकी शायरी में सहजता से ढाल पायी है।

प्यास की शिद्दत के मारों की अज़ीयत देखिये
खुश्क आँखों में नदी के ख्वाब पत्थर हो गए
अज़ीयत: परेशानी

सबके सब सुलझा रहे हैं आसमां की गुत्थियाँ
मसअले सारे ज़मीं के हाशिये पर हो गए

हमने तो पास-ए -अदब में बंदा परवर कह दिया
और वो समझे कि सच में बंदापरवर हो गए

"ख़्वाब पत्थर हो गए" किताब में न केवल खूबसूरत शायरी है बल्कि उसका कलेवर मुद्रण आदि सभी कुछ शायराना है। एक अच्छी किताब में जो जो खूबियाँ होनी चाहियें वो सभी इस किताब में हैं। इसे स्काई लार्क हाउस आफ पब्लिकेशन , 52 शिव विहार , सेक्टर आई, जानकी पुरम , लखनऊ उत्तर प्रदेश ने प्रकाशित किया है। आप इस किताब की प्राप्ति के लिए उन्हें 09415107895 पर संपर्क कर सकते हैं .

गड़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं
तनावर जिस्म गाड़े जा रहे हैं
तनावर : हृष्ट-पुष्ट

तुम्हें बदनाम हम होने न देंगे
हर इक तहरीर फाड़े जा रहे हैं
तहरीर: लेख

बहुत रोओगे हमको याद करके
तुम्हें इतना बिगाड़े जा रहे हैं

खिज़ां की उम्र भी आने को है अब
चले आओ कि जाड़े जा रहे हैं

जैसे मैं हमेशा कहता हूँ इस बार भी कहूँगा के शायरी के हर पाठक का फ़र्ज़ बनता है के वो अच्छे शायर और उसके अशआर को दाद दें। शायर की हौसला अफजाही होगी तो वो और बेहतर कहने की कोशिश करेगा। आपसे गुज़ारिश है के आप मनीष जी को उनकी इस बेहतरीन किताब और लाजवाब शायरी के लिए चाहे shukla_manish24@rediffmail.com पर मेल करके या फिर उन्हें उनके मोबाइल 09415101115 पर बात कर के बधाई दें। अगर आप चाहें तो उनसे इस किताब को पढने की ख्वाइश जताते हुए इसे आपके पास भेजने की इल्तेज़ा भी कर सकते हैं। मैंने बहुत से शायरों और उनकी शायरी की किताबों को पढ़ा है, मुझे मनीष जी की किताब ने उन्हें बार बार पढने के लिए मजबूर किया है। इस युवा शायर की शायरी है ही ऐसी जितनी बार पढो अलग मज़ा आता है :-

उस से हाल छुपाना तो है ना-मुमकिन
हमने उसको आँखें पढ़ते देखा है

अश्क रवाँ रखना ही अच्छा है वरना
तालाबों का पानी सड़ते देखा है

दिल में कोई है जिसको अक्सर हमने
हर इल्जाम हमीं पर मढ़ते देखा है

इस उम्मीद के साथ कि आप मनीष जी से संपर्क करेंगे मैं आपसे अगली किताब को तलाशने तक विदा लेता हूँ। चलते चलते पेश हैं मनीष जी की एक बेजोड़ ग़ज़ल के ये खूबसूरत शेर:

सर सब्ज़ खेत, दूध के दरिया की छोडिये
फ़ाकाकशों के चन्द निवालों का क्या हुआ

किसको खबर है रौशनी के इस निजाम में
मिटटी के दिए बेचने वालों का क्या हुआ

दरिया को हद में बाँध कर जंगल डुबो दिया
पर सोचिये हसीन गज़ालों का क्या हुआ
गज़ालों : हिरण

लीजिये अब मनीष जी को अपना कलाम पढ़ते हुए सुनिए :-


डालियों पे फुदकने से जो मिल गयी

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मुश्किलों की यही हैं बड़ी मुश्किलें 
आप जब चाहें कम हों, तभी ये बढ़ें 

अब कोई दूसरा रास्ता ही नहीं 
याद तुझको करें और जिंदा रहें 

बस इसी सोच से, झूठ कायम रहा 
बोल कर सच भला हम बुरे क्यूँ बनें 

डालियों पे फुदकने से जो मिल गयी 
उस ख़ुशी के लिए क्यूँ फलक पर उड़ें 

हम दरिन्दे नहीं गर हैं इंसान तो 
आइना देखने से बता क्यूँ डरें ? 

ज़िन्दगी खूबसूरत बने इस तरह 
हम कहें तुम सुनो तुम कहो हम सुनें 

आके हौले से छूलें वो होंठों से गर 
तो सुरीली मुरलिया से ‘नीरज’ बजें 


( गुरुदेव पंकज सुबीर जी की पारखी नज़रों से गुजरी ग़ज़ल )

किताबों की दुनिया -79

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लोग फिर भी घर बना लेते हैं भीगी रेत पर
जानते हैं बस्तियां कितनी समंदर ले गया 

उस ने देखे थे कभी इक पेड़ पर पकते समर 
साथ अपने एक दिन कितने ही पत्थर ले गया 
समर: फल 

रुत बदलने तक मुझे रहना पड़ेगा मुन्तजिर 
क्या हुआ पत्ते अगर सारे दिसंबर ले गया 
मुन्तजिर: इंतज़ार में 

आप इन शेरों को पढ़ कर वाह वाह कर रहे होंगे जिन्हें ढूंढने में मेरी आह निकल गयी। शायरी की किताब ढूँढने मैं इस बार के दिल्ली पुस्तक मेले का चक्कर भी लगा आया और चक्करघिन्नी खा कर बड़ा बेआबरू हो कर ख़ाली हाथ लौटा। एक तो पुस्तक मेला बहुत विशाल क्षेत्र में फैला हुआ है दूसरे उस विशाल क्षेत्र के विशाल भाग पर अंग्रेजी भाषा का दबदबा है। ऐसे में हिंदी की और वो भी शायरी की ऐसी किताब ढूँढना जिसे किसी ख्याति प्राप्त शायर ने न लिखा हो, फूस के ढेर में सुई ढूँढने से भी अधिक मुश्किल काम है।

पुस्तक मेले में हिंदी भाषा की पुस्तकों के पंडाल में मैंने बहुत से हिंदी लेखकों को अपनी बात अंग्रेजी में रखते देख शर्म से गर्दन झुका ली। मैं अंग्रेजी का विरोधी नहीं लेकिन जो भाषा हमारी अपनी है उस से सौतेला व्यवहार करना मुझे पसंद नहीं आता।

वो बार बार बनाता है एक ही तस्वीर 
हरेक बार फकत रंग ही बदलता है 

गजाले -वक्त बहुत तेज़-रौ सही लेकिन 
कहाँ पे जाय कि जंगल तमाम जलता है 
गजाले-वक्त: समय का हिरन 

अजीब बात है जाड़े के बाद फिर जाड़ा 
मेरे मकान का मौसम कहाँ बदलता है 

थक हार कर वापस अपने शहर जयपुर की उसी दूकान 'लोकायत प्रकाशन ' पर जा कर दस्तक दी जिसने हमेशा मुझे किताबों से मालामाल किया है। दूकान के बाहर ही उसके मालिक 'शेखर जी' जो हिंदी साहित्य और साहित्यकारों पर धाराप्रवाह बोल सकते हैं, मिल गए और बोले नीरज जी मुझे अफ़सोस है आपकी पसंद की कोई किताब इन दिनों नहीं आई है , फिर भी ये आप की ही दूकान है कहीं कुछ मिल जाय तो ढूंढ लें। इस जुमले का आशय सिर्फ इतना था के उनका मूड खुद किताबों के ढेर में घुसने का नहीं है। बहुत सारी किताबें देखीं लेकिन सब की सब या तो पढ़ी हुईं थीं, या फिर उन शायरों की जिनका जिक्र इस श्रृंखला में पहले हो चुका है। किताबों से उडती धूल को मुंह से पौंछता हुआ उठ ही रहा था के अचानक एक रैक में कहीं अन्दर धंसी इस किताब पर नज़र पड़ गयी जिसका जिक्र आज मैं आपसे करूँगा।

मैं हूँ बिखरा हुआ दीवार कहीं दर हूँ मैं 
तू जो आ जाय मेरे दिल में तो इक घर हूँ मैं 

कल मेरे साथ जो चलते हुए घबराता था 
आज कहता है तिरे कद के बराबर हूँ मैं 

इससे मैं बिछडू तो पल भर में फना हो जाऊं 
मैं तो खुशबू हूँ इसी फूल के अंदर हूँ मैं 

किताब का शीर्षक है"लम्हों का लम्स "और शायर हैं जनाब " मेहर गेरा ". आपका तो मुझे नहीं मालूम पर मैंने उनका नाम कभी नहीं सुना था, अजी मेरी बात तो छोडिये अपने आप को महाज्ञानी कहने वाले गूगल महाशय भी उनके नाम पर बगलें झांकते मिले।


जितनी जानकारी मुझे मिली है उसके अनुसार गेरा साहब का जन्म एक मई 1933 को पंजाब में जालंधर के पास हुआ। उनकी दो किताबें शाया हुई हैं पहली 'पैकार' और दूसरी " लम्हों का लम्स" जिसके लिए सन 1992 में उन्हें आल इण्डिया मीर अकादमी लखनऊ की और से मीर एवार्ड मिला।

ये दायरे तेरी नश्वो-नुमा में हायल हैं 
जरा तू सोच बदल कैद से निकल तो सही 
नश्वो-नुमा:विकास, हायल: रूकावट 

गवाँ न जान यूँही मंजिलों के चक्कर में 
सफ़र का लुत्फ़ उठा ज़ाविया बदल तो सही 
ज़ाविया "दृष्टिकोण 

कहीं वजूद ही तेरा न इसमें खो जाए 
बड़ा हजूम है इस शहर से निकल तो सही 

जनाब साहिर होशियार पुरी साहब फरमाते हैं कि 'मेहर गेरा' साहब का शे'री सफ़र तीन दशकों पर फैला हुआ है, जिसकी शुरुआत पारंपरिक अंदाज़ की ग़ज़ल गोई से हुई। सके बाद इनकी शायरी में एक नया मोड़ आया और इनके विचारों तथा कल्पना ने ग़ज़ल के रंग रूप में आधुनिक रुझानों को ढालना शुरू किया।

तिरे वजूद की खुशबू का पैरहन पहना 
तिरे ही लम्स को ओढ़ा तिरा बदन पहना 
वजूद:अस्तित्व, लम्स:स्पर्श 

वो शख्स भीग के ऐसे लगा मुझे जैसे 
कँवल के फूल ने पानी बदन बदन पहना 

तिरे बदन की जिया इस तरह लगे जैसे 
इक आफताब को तूने किरन किरन पहना 
जिया :रौशनी 

किताबों की दुनिया श्रृंखला की ये पहली ऐसी किताब है जिसके बारे में मैं आपको दावे से नहीं कह सकता कि ये आपको कहीं आसानी से मिल जायेगी। इस किताब को 'सारांश प्रकाशन' बहल हाउस 13, दरियागंज नयी दिल्ली ने सन 1996 में प्रकाशित किया था। मुझे लोकायत के श्री शेखर जी ने यकीन दिलाया है कि यदि ये किताब किसी को कहीं नहीं मिले तो वो इसकी प्राप्ति के लिए उसकी मदद करेंगे। अपने वादे पे वो खरे उतरते हैं या नहीं ये देखने के लिए आपको उन्हें 9461304810 पर संपर्क करना पड़ेगा।

रुत बदलते ही हर-इक सू मोजज़े होने लगे 
पेड़ थे जितने भी सूखे सब हरे होने लगे 

ये सफ़र में आ गया कैसा मुकामे-इंतेशार 
लोग क्यूँ इक दुसरे से दूर अब होने लगे 
मुकामे-इंतेशार:बिखराव का मुकाम 

भूलकर सब कुछ समेटें क्यूँ न हम लम्हों का लम्स 
ये भी क्या मिलते ही फिर शिकवे-गिले होने लगे 

आज के लिए इतना ही, मिलते हैं अगले महीने एक नयी किताब और शायर के साथ तब तक खुदा हाफ़िज़

जो आँधियों में दीपक थामे हुए खड़ा है

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गुरुदेव पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर इस बार बसंत पंचमी के अवसर पर हुए मुशायरे में अद्भुत ग़ज़लें पढने को मिलीं। सम सामयिक विषयों पर शायरों ने खूब शेर कहे। उसी तरही, जिसका मिसरा था " ये कैदे बा-मशक्कत जो तूने की अता है " , में भेजी खाकसार ग़ज़ल यहाँ भी पढ़िए :



ये कैदे बा-मशक्क्त जो तूने की अता है
मंज़ूर है मुझे पर, किस जुर्म की सजा है ?

ये रहनुमा किसी के दम पर खड़ा हुआ है
जिसको समझ रहे थे हर मर्ज़ की दवा है

नक्काल पा रहा है तमगे इनाम सारे
असली अदीब देखो ताली बजा रहा है

इस दौर में उसी को सब सरफिरा कहेंगे
जो आँधियों में दीपक थामे हुए खड़ा है

रोटी नहीं हवस है, जिसकी वजह से इंसां
इंसानियत भुला कर वहशी बना हुआ है

मीरा कबीर तुलसी नानक फरीद बुल्ला
गाते सभी है इनको किसने मगर गुना है

आभास हो रहा है हलकी सी रौशनी का
उम्मीद का सितारा धुंधला कहीं उगा है

हालात देश के तुम कहते ख़राब "नीरज "
तुमने सुधारने को बोलो तो क्या किया है ?

किताबों की दुनिया -80

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जयपुर से मुंबई आना जाना आजकल महीने में दो बार होने लगा है, जयपुर एयरपोर्ट पर जो किताबों की दूकान है उसका मैनेजर अब मुझे पहचानने लगा है। अब वो मेरे दुकान में दाखिल होने पर पहले ही बता देता है के शायरी की कोई नयी किताब आई है या नहीं। आई होती है तो उसकी मुस्कान चौड़ी हो जाती है और वो आँखों को मिचमिचाते हुए कहता है "आ गयी सर ". किताबें आती तो हैं लेकिन वो ही मुनव्वर राणा जी की ,बशीर बद्र साहब की, वसीम बरेलवी जी की, गुलज़ार साहब की और मैं उन पर सरसरी नज़र डाल के जब चलने को होता हूँ तो वो निराश हो के कहता है सर आपको चाहिए क्या ? इस सवाल का जवाब मेरे पास भी नहीं है।मुझे क्या चाहिए मुझे खुद नहीं पता। ये मैं किताब हाथ में आने पर ही तय कर पाता हूँ।

अब जैसे इस किताब को ही लें, जिसका जिक्र हम आज करने वाले हैं, ये मुझे जयपुर बुक फेयर में अचानक मिल गयी। रैक पर एक कोने में लुढ़की पुरानी सी दिखती इस किताब को शायद ही फेयर में आने वाले किसी दूसरे इंसान ने हाथ में लिया होगा, अगर लिया होता तो उस पर मिट्टी की परत नहीं होती।

न दे सबूत न दावा करे मगर मुझको 
सज़ा से पहले वो इल्ज़ाम तो बताया करे 

लड़ी सितारों की लाता है कौन किसके लिए 
मुझे जो चाहे वो फूलों के हार लाया करे 

नहीं है दोस्त के कपड़ों में वो अगर दुश्मन 
मिरा मज़ाक़ मेरे सामने उड़ाया करे 

अगर वो दोस्त है मेरा, तो टूट जाय जहाँ 
वहां से वो मिरी आवाज़ फिर उठाया करे 

ये किताब है "धूप तितली फूल"और शायर हैं अगस्त 1946 में मोतिहारी, बिहार में जन्में जनाब "प्रियदर्शी ठाकुर" जो "ख़याल "उपनाम से शायरी करते हैं। पटना कालेज से स्नातक और दिल्ली विश्व विद्यालय से सनातकोत्तर (इतिहास) शिक्षा प्राप्ति के बाद ख्याल साहब ने 1967 से 1970 तक भगत सिंह कालेज, नयी दिल्ली में अध्यापन कार्य किया। 1970 से आप भारतीय प्रशासनिक सेवा में नियुक्त हुए और नयी दिल्ली मानव संसाधन विकास मंत्रालय के शिक्षा विभाग में सचिव के पद पर कार्यरत रहे .


आसमानों को निगलती तीरगी के रू-ब-रू 
एक नन्हें दायरे भर रौशनी की क्या चले 

एक मजबूरी है हर शब् चाँद के हमराह चलना 
हो भले बीमार लेकिन चांदनी की क्या चले 

हुस्न लफ़्ज़ों में न था, अशआर में शेवा न था 
शायरी में सिर्फ आखिर आगही की क्या चले 
शेवा: शैली, ढंग ; आगही : ज्ञान 

ख्याल साहब की शायरी के लफ़्ज़ों में हुस्न भी है, अशआर में शेवा और हर शेर में आगही भी। हुस्न-ओ-इश्क वाली रिवायती शायरी के साथ साथ वो सामाजिक सरोकार को भी सफलता पूर्वक अपने शेरों में ढालते हैं।

रहनुमाँ ही ढूंढती रह जाएँ ना नादानियाँ 
दोस्तों, वीरान हो जाएँ न ये आबादियाँ 

आदमी का कत्ल ही जब रोज़मर्रा हो गया 
फिर दरख्तों के लिए क्यूँकर फटें अब छातियाँ 

क्यूँ नहीं सोचा कि अपना घर भी है आखिर यहाँ 
गुलसितां को राख करके ढूढ़ते हो आशियाँ 

जंगलों से शहर हो गये और हवाएं ज़हर-सी 
हम नयी पीढी को विरसे में न दें वीरानियाँ 

बकौल जनाब सैयद फ़ज़लुल मतीनसाहब "इंसानी रिश्तों क गहराई से देखने, परखने और नये और खूबसूरत अदाज़ से पेश करने में 'ख्याल' ने अपनी एक अलग पहचान बनायीं है। अपनी जाती काविशों को अपने से बाहर निकल कर देखने और उनके हवाले से जीवन का सच उजागर करने का हौसला भी उसमें है "

दास्ताँ दिलचस्प थी वो धूप, तितली, फूल की 
वक्त बदले में मगर मेरी जवानी ले गया 

मेरी बातें अनसुनी कीं, मेरा चेहरा पढ़ लिया 
लफ्ज़ उसने फेंक डाले और मानी ले गया 

रूप का दरिया था वो, सब बुत बने देखा किये
हमको पत्थर कर गया ज़ालिम रवानी ले गया 

इस किताब की भूमिका में ख्याल साहब अपनी शायरी के बारे में कहते हैं "ज़िन्दगी में हर शख्स वही करता है या करने की कोशिश करता है जो उसे अच्छा लगता है और मेरी राय में सभ्य आचरण और सलीके के दायरों में रहते हुए हर एक को करना भी वही चाहिए जो वह चाहता हो, क्यूँ की ज़िन्दगी फिर दुबारा मिलती हो इसका कोई पक्का सबूत नहीं पाया जाता। मुझे ग़ज़ल कहना अच्छा लग रहा है, सो ग़ज़ल कह रहा हूँ।"

उसे कहो कि वो अब मुझसे दिल्लगी न करे 
उदासियों की कसक मेरी शबनमी न करे 

उतर न आयें कहीं ख़्वाब भी बगावत पर 
वो इस कदर मेरी नींदों की चौकसी न करे 

रहीं न याद मुझे सुबह रात की बातें 
मज़ाक मुझसे तो यूँ मेरी तिश्नगी न करे 

भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस किताब की प्राप्ति के आसार कम ही हैं फिर भी कोशिश करने में क्या हर्ज़ है? अलबत्ता आपको 'ख्याल' साहब की राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक "पता ही नहीं चलता " जो उपलब्द्ध है, को पढ़ कर उनके लेखन का अंदाजा हो सकता है। वैसे जिस शायर के लिए जनाब वसीम साहब फरमाते हैं कि "ख्याल साहब की शायरी धूप की तरह खिलती, तितली की तरह मचलती और फूल की तरह महकती सोच का खज़ाना है", उसके लिए और क्या कहा जाय?

रूह तक कुचली है लोगों ने मिरी पाँव तले 
और उस पर ये सितम है, मुझको समझा रास्ता 

फैसला मेरा गलत हो ये तो मुमकिन है जरूर 
हक़ मुझे भी था मगर चुनने का अपना रास्ता 

उसने पूछा नाम तो मेरा मगर उस वक्त तक 
आ चुका था ख़त्म होने पर हमारा रास्ता 

ख्याल साहब से इस से पहले दो ग़ज़ल संग्रह मंज़रे आम पर आ हैं चुके हैं "टूटा हुआ पुल " (1982) और "रात गए" (1989) , ये ख्याल साहब की तीसरी किताब है जो 1990 में प्रकाशित हुई थी। अभी, याने 2004 में राजकमल प्रकाशन ने "पता ही नहीं चलता " शीर्षक से उनकी किताब प्रकाशित की है जो अभी बाज़ार में उपलब्द्ध है।

"धूप तितली फूल", जिसका बाज़ार में मिलना सहज नहीं है, में ख्याल साहब की खूबसूरत नज्में भी शामिल की गयी हैं।आम फहम ज़बान में कही गयी इस किताब की सभी ग़ज़लें उर्दू और हिंदी दोनों ज़बान के पाठकों को प्रभावित करने क्षमता रखती हैं।

वक्ते रुखसत से पहले चलये पढ़िए ख्याल साहब की एक ग़ज़ल के चंद शेर:

यही बहुत है अगर मेरे साथ साथ चले 
वो मेरे बख्त के पत्थर तो ढो नहीं सकता 
बख्त: भाग्य 

न याद आयें वो हरदम, मगर मैं पूरी तरह 
भुला सकूँ कभी उनको, ये हो नहीं सकता 

जो शै मिली ही नहीं गुम वो मुझसे क्या होगी 
ये तय समझ कि तुझे अब मैं खो नहीं सकता

करें जब पाँव खुद नर्तन

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होली के बारे में आम धारणा ये है कि ये एक उमंगों भरा त्योंहार है जो साल में एक बार आता है, ये बात सही है लेकिन मेरा मानना है की होली आनंद की एक अवस्था है जो जब आपके मन में उत्पन्न हो होली हो जाती है। इसी आशय को मैंने अपनी एक ग़ज़ल में ढाला है , उम्मीद है आपको भी मेरी बात पसंद आएगी:- 

 

 करें जब पाँव खुद नर्तन, समझ लेना कि होली है
 हिलोरें ले रहा हो मन, समझ लेना कि होली है

 किसी को याद करते ही अगर बजते सुनाई दें 
 कहीं घुँघरू कहीं कंगन, समझ लेना कि होली है 

 कभी खोलो अचानक , आप अपने घर का दरवाजा 
 खड़े देहरी पे हों साजन, समझ लेना कि होली है 

 तरसती जिसके हों दीदार तक को आपकी आंखें 
 उसे छूने का आये क्षण, समझ लेना कि होली है 

 हमारी ज़िन्दगी यूँ तो है इक काँटों भरा जंगल 
 अगर लगने लगे मधुबन, समझ लेना कि होली है 

 बुलाये जब तुझे वो गीत गा कर ताल पर ढफ की 
 जिसे माना किये दुश्मन, समझ लेना कि होली है 

 अगर महसूस हो तुमको, कभी जब सांस लो 'नीरज' 
 हवाओं में घुला चन्दन, समझ लेना कि होली है

किताबों की दुनिया - 81

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आप में से बहुत से दिल्ली तो जरूर गए होंगे लेकिन शायद कुछ लोग ही महरौली गए हों, महरौली जो क़ुतुब मीनार के पीछे है और जहाँ की भूल भुलैय्याँ , जो अब सरकार द्वारा बंद कर दी गयीं हैं, बहुत प्रसिद्द हैं, सुना है इन भूल भुलैय्यों में जाने के बाद बाहर निकलना बहुत मुश्किल होता है । उसी भूल भुलैय्याँ के पास है "अयन प्रकाशन" जिसे ढूंढना भी कोई कम टेडी खीर नहीं है। इस बार के अपने दिल्ली प्रवास के दौरान मैं विगत तीस वर्षों से सफलता पूर्वक चल रहे "अयन प्रकाशन" के संस्थापक श्री भोपल सूदजी से मिलने गया जिनसे मिलने की तमन्ना मैं बहुत दिनों से दिल में पाले हुए था. सूद साहब चलती फिरती ग़ज़ल की किताब हैं। जीवन से पूर्ण रूप से संतुष्ट व्यक्ति के चेहरे पर कैसी आभा होती है ये देखने के लिए सूद साहब से मिलना जरूरी है. उनसे मिल कर जो आनंद आया उसे शब्द देना मेरे बस में नहीं लेकिन उनसे मिली किताबों के जखीरे के बारे में कहने को शब्द ढूढने की कोशिश कर रहा हूँ।

अदावत दिल में रखते हैं मगर यारी दिखाते हैं
न जाने लोग भी क्या क्या अदाकारी दिखाते हैं

यकीनन उनका जी भरने लगा है मेज़बानी से
वो कुछ दिन से हमें जाती हुई लारी दिखाते हैं

डराना चाहते हैं वो हमें भी धमकियाँ देकर
बड़े नादान हैं पानी को चिंगारी दिखाते हैं

पानी को चिंगारी दिखाती हुई एक से बढ़ कर एक उम्दा ग़ज़लों से भरी किताब "अंगारों पर शबनम" का जिक्र आज हम अपनी इस श्रृंखला में करेंगे जिसके शायर हैं जनाब वीरेन्द्र खरे 'अकेला'.


मैं उससे कम ही मिलता हूँ, सुना है मैंने लोगों से
ज़ियादा मेल हो तो दूरियां आती ही आती हैं

कुसूर उसका नहीं, गर वो खुदा खुद को समझता है
जो दौलत हो तो ये खुशफहमियां आती ही आती हैं

अगर बत्तीस हो सीना, पुलिस के काम का है तू
ज़माने भर की तुझको गालियाँ आती ही आती हैं

आम बोलचाल की भाषा में कही अकेला जी की सारी ग़ज़लें ही बहुत असरदार हैं। डॉ कुंअर बैचैन जी ने एक वाक्य में इस संग्रह के बारे में सब कुछ कह दिया है " अपने में अकेला और एकदम खरा है कवि वीरेन्द्र खरे 'अकेला' जी का ये संग्रह" 

इस तरह से बात मनवाने का चक्कर छोड़ दे 
देख तू सीधी तरह से मेरा कॉलर छोड़ दे 

झूठ मक्कारी तजें नेताजी मुमकिन ही कहाँ 
नाचना गाना- बजाना कैसे किन्नर छोड़ दे . 

न्याय की खातिर वो अपना सर कटा भी ले मगर 
घर की ज़िम्मेदारियों को किसके सर पर छोड़ दे 

अकेला जी ग़ज़लें परम्परावादी ग़ज़लों के मिजाज़ को निभाते हुए भी अपने कहन के निराले अंदाज़ से ताजगी भरी लगती हैं। कुंअर जी ने ठीक ही कहा है कि "इस संग्रह की ग़ज़लों में कुछ अंगारे दर्शाए गए हैं तो उन पर शबनम बिखेरने का काम भी ये ग़ज़लें कर रही हैं " खुद अकेला जी मानते हैं

इक नए ही लिबास में है ग़ज़ल 
ये 'अकेला' का काम है कि नहीं 

18 अगस्त 1968 को छतरपुर (म.प्र) के किशन गढ़ ग्राम में जन्में वीरेन्द्र खरे जी ने अपनी कलम साहित्य की ग़ज़ल, गीत, कविता, व्यंग-लेख , कहानी, समीक्षा, आलेख जैसी अनेक विधाओं पर सफलता पूर्वक चलाई है। "अंगारों पर शबनम" उनका तीसरा ग़ज़ल संग्रह है जो सन 2012 में प्रकाशित हुआ इस से पूर्व उनके दो संग्रह "बची चौथाई रात" सन 1996 में और "सुबह की दस्तक" सन 2006 में प्रकाशित हो कर चर्चित हो चुके हैं।

काम है जिनका रस्ते-रस्ते बम रखना 
उनके आगे पायल की छमछम रखना 

जो मैं बोलूं आम तो वो बोले इमली 
मुश्किल है उससे रिश्ता कायम रखना 

दौलत के अंधों से उल्फ़त की बातें 
दहके अंगारों पर क्या शबनम रखना 

श्री माणिक वर्मा जी इस किताब के बारे में कहते हैं " बहुत लम्बे अरसे बाद ऐसा ग़ज़ल संग्रह पढने को मिला जिसने मुझे भीतर तक झकझोरा है , हिंदी ग़ज़लों या हिंदी ग़ज़लकारों की अपार भीड़ में श्री वीरेन्द्र खरे सचमुच 'अकेले' हैं " वीरेन्द्र जी को उनकी साहित्यिक उपलब्धियों पर जबलपुर द्वारा "हिंदी भूषण ", लायंस क्लब द्वारा "छतरपुर गौरव", मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मलेन एवम बुंदेलखंड हिंदी साहित्य-संस्कृति मंच सागर (मप्र) द्वारा तहलका जैसे अनेको सम्मानों से सम्मानित किया गया है

अज़ब नशा है मेरे मुल्क में लड़ाई का 
मिला न कोई तो आपस में भाई भाई लड़े 

कहाँ-कहाँ से न उधड़ा कसा कसा कुरता 
जवानी तुझसे कहाँ तक कोई सिलाई लड़े 

जो हमने दोस्ती की है, तो दोस्ती की है 
जो हम लड़ाई लड़े हैं,तो बस लड़ाई लड़े 

"अंगारों पर शबनम" में आपको अकेला जी की ऐसी अनूठी एक सौ एक ग़ज़लें पढने को मिलेंगी। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप अयन प्रकाशन के श्री भोपल सूद जी से उनके मोबाइल 09818988613 पर संपर्क करें और अकेला जी को, जो अभी छत्रसाल नगर के पीछे पन्ना रोड छतरपुर (मप्र ) में रहते हैं, उनकी विलक्षण ग़ज़लों के लिए उनके मोबाइल 09981585601पर बधाई दे सकते हैं।

मैले गमछों की पीडाएं 
क्या समझेगी उजली टाई 

राहे उल्फत संकरा परबत 
और बिछी है उस पर काई 

सुनकर वो मेरी सब उलझन 
बोला मैं चलता हूँ भाई 

हाले दिल मत पूछ 'अकेला' 
कुआँ सामने, पीछे खाई 

बहुत से ऐसे शेर हैं जो मैं यहाँ चाहता हूँ आपको पढ़वाऊं लेकिन समयाभाव के चलते नहीं पढवा पा रहा। अगर ऊपर दिये शेरो को पढ़ कर आपकी और पढने की प्यास जग गयी है तो देर किस बात की, उठाइये अपना मोबाइल और इस किताब की प्राप्ति के लिए प्रयास शुरू कर दिजिये. चलते चलते अकेला जी की एक ग़ज़ल के चंद शेर और आपकी खिदमत में पेश हैं जिनमें रूमानियत क्या खूब झलक रही है :-

नज़र हमारी वहीँ पे जा के अटक रही है 
वो गीले बालों को उँगलियों से झटक रही है 

ख़फा-ख़फा रूख़ पे हल्की-हल्की सी मुस्कुराहट 
ये पतझड़ों में कली कहाँ से चटक रही है 

तुम्हारे चेहरे पे हैं अलामात 'ना-नुकुर' के 
अगरचे 'हाँ' में तुम्हारी गर्दन मटक रही है

पीसते हैं चलो ताश की गड्डियां

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चाय की जब तेरे साथ लीं चुस्कियां 
ग़म हवा हो गए छा गयीं मस्तियाँ 

दौड़ती ज़िन्दगी को जरा रोक कर 
पीसते हैं चलो ताश की गड्डियां 

जब तलक झांकती आंख पीछे न हो 
क्या फरक बंद हैं या खुली खिडकियां 

जान ले लो कहा जिसने भी, उसको जब 
आजमाया लगा काटने कन्नियाँ 

जिनमें पत्थर उठाने की हिम्मत नहीं 
ख़्वाब  में तोड़ते हैं वही मटकियां 

प्यार के ढोंग से लाख बहतर मुझे 
आप देते रहें रात दिन झिड़कियां 

कौन सुनता है "नीरज" सरल सी ग़ज़ल 
कुछ धमाके करो तो बजें सीटियाँ

किताबों की दुनिया - 82

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कहती है ज़िन्दगी कि मुझे अम्न चाहिए 
ओ' वक्त कह रहा है मुझे इन्कलाब दो 

इस युग में दोस्ती की, मुहब्बत की आरज़ू 
जैसे कोई बबूल से मांगे गुलाब दो 

जो मानते हैं आज की ग़ज़लों को बेअसर 
पढने के वास्ते उन्हें मेरी किताब दो 

आज हमारी किताबों की दुनिया श्रृंखला में हम उसी किताब "ख़याल के फूल " की बात करेंगे जिसका जिक्र उसके शायर जनाब "मेयार सनेही " साहब ने अपनी ऊपर दी गयी ग़ज़ल के शेर में किया है. मेयार सनेही साहब 7 मार्च 1936 को बाराबंकी (उ प्र ) में पैदा हुए. साहित्यरत्न तक शिक्षा प्राप्त करने बाद उन्होंने ग़ज़ल लेखन का एक अटूट सिलसिला कायम किया।


कारवाँ से आँधियों की छेड़ भी क्या खूब थी 
होश वाले उड़ गए ओ' बावले चलते रहे 

गुलशनो-सहरा हमारी राह में आये मगर 
हम किसी की याद में खोये हुए चलते रहे 

ऐ 'सनेही' जौहरी को मान कर अपना खुदा 
खोटे सिक्के भी बड़े आराम से चलते रहे 

सनेही साहब की ग़ज़लें रवायती ढाँचे में ढली होने के बावजूद अपने अनोखे अंदाज़ के कारण भीड़ से अलग दिखाई देती हैं। अपने समय और समाज को बेहद सादगी और साफगोई के साथ चित्रित करना सनेही साहब की खासियत है।हिंदी उर्दू के लफ़्ज़ों में वो बहुत ख़ूबसूरती से अपनी ग़ज़लों में ढालते हैं

ऋतुराज के ख्याल में गुम होके वनपरी 
कब से बिछाए बैठी है मखमल पलाश का 

सूरज को भी चराग दिखाने लगा है अब 
बढ़ता ही जा रहा है मनोबल पलाश का 

है ज़िन्दगी का रंग या मौसम का ये लहू 
या फिर किसी ने दिल किया घायल पलाश का 

'मेयार' इन्कलाब का परचम लिए हुए 
उतरा है आसमान से ये दल पलाश का 

पलाश पर इस से खूबसूरत कलाम मैंने तो आजतक नहीं पढ़ा कमाल के बिम्ब प्रस्तुत किये हैं मेयार साहब ने।इस किताब के फ्लैप पर छपे श्री विनय मिश्र जी के कथनानुसार "ग़ज़ल का रिवायती तगज्जुल बरकरार रखते हुए निजी और घर संसार के संवेदनों को अनुभव की सुई में पिरो कर शायरी का सुन्दर हार बना देना कमाल का फन तो है ही, मेयार सनेही की शायराना तबियत का पुख्ता प्रमाण भी है."

माहौल में अनबन का चलन देख रहे हैं 
बिखरे हुए सदभाव-सुमन देख रहे हैं 

जिस डाल पे' बैठे हैं उसे काटने वाले 
आराम से अपना ही पतन देख रहे हैं 

वो लोग जो नफरत के सिवा कुछ नहीं देते 
उनको भी मुहब्बत से अपन देख रहे हैं 

यहाँ काफिये में 'अपन' का प्रयोग अनूठा है, जानलेवा है. सनेही साहब अपनी ग़ज़लों में इस तरह के चमत्कार अक्सर करते दिखाई देते हैं ये ही कारण है की इनकी ग़ज़लें बार बार पढने को जी करता है। विगत पचास वर्षों से ग़ज़लों की अविरल धारा बहाने वाले इस विलक्षण शायर की जितनी तारीफ़ की जाय कम है, मूल रूप से उर्दू के शायर सनेही साहब की ग़ज़लों में हिंदी के लफ़्ज़ों का प्रयोग अद्भुत है।

हलाहल बांटने वालो, इसे तो पी चुका हूँ मैं 
मुझे वो चीज़ दी जाय जिसे पीना असंभव हो 

बताओ क्या इसी को हार्दिक अनुबंध कहते हैं 
इधर आंसू पियें जाएँ उधर मस्ती का अनुभव हो 

'सनेही' ज़िन्दगी के ज़हर को रख दो ठिकाने से 
कि मुमकिन है इसी से एक दिन अमृत का उदभव हो

'ख्याल के फूल" किताब, जिसे 'अयन प्रकाशन' महरौली-दिल्ली द्वारा प्रकाशित किया गया है, की प्राप्ति के लिए श्री भोपाल सूद जी से आपको उनके मोबाइल 09818988613 पर संपर्क करना होगा। आप चाहें तो मेयार साहब से उनके मोबाइल 09935528683 पर बात कर उन्हें इन खूबसूरत ग़ज़लों की किताब के लिए मुबारकबाद देते हुए इस किताब को मंगवाने का तरीका भी पूछ सकते हैं .

तुमने मज़हब को सियासी पैंतरों में रख दिया 
सर पे' रखने वाली शै को ठोकरों में रख दिया 

पत्थरों से खेलने वालों को होश आया कि जब 
वक्त ने उनको भी शीशे के घरों में रख दिया 

लूट कुछ ऐसी मची है आजकल इस देश में 
रोटियों को ज्यूँ किसी ने बंदरों में रख दिया 

आम आदमी को समर्पित इस किताब में सनेही साहब की अस्सी बेहतरीन ग़ज़लें संगृहीत हैं जो अपने कहन के निराले अंदाज़, रदीफ़ और काफियों के अद्भुत चुनाव से आपका दिल मोह लेगीं। इस उम्र दराज़ शायर का ये पहला ग़ज़ल संग्रह है जान कर इस बात की पुष्टि होती है की शायर की पहचान उसकी छपी किताबों की संख्या से नहीं बल्कि उसके द्वारा कहे गए असरदार शेरों की वजह से होती है।

हाथ पीले क्या हुए हाथों में सरसों पक गयी 
चार ही दिन की मुलाकातों में सरसों पक गयी 

भेद तो दो दिन में खुल जाता सुनहरी धूप का 
वो तो ये कहिये यहाँ रातों में सरसों पक गयी 

साव जी पानी के बदले तेल जब पीने लगें 
बस समझ लेना बही खातों में सरसों पक गयी 

खूब हो तुम भी 'सनेही' गुलमुहर के शहर में 
लिख रहे हो गीत देहातों में सरसों पक गयी 

चलते चलते आईये पढ़ते हैं सनेही साहब की एक ग़ज़ल के ये शेर और निकलते हैं एक नयी किताब की तलाश में :-

कोई जुगनू जो चमकता है चमकने दें उसे 
क्यूँ समझते हैं उसे चाँद सितारों के ख़िलाफ़ 

खूब हैं लोग जो शोलों को हवा देते हैं 
और आवाज़ उठाते हैं शरारों के ख़िलाफ़ 
शरारों : चिंगारियों 

मेरी कुटिया को हिकारत की नज़र से देखा 
वर्ना मैं कब था फ़लक बोस मीनारों के ख़िलाफ़ 
फ़लकबोस: गगन चुम्बी

भाई प्रसन्न वदन चतुर्वेदी साहब की बदौलत सुनिए सनेही साहब का कलाम उनकी जुबान से जिसे एक नशिस्त में रिकार्ड किया गया :-


नीम के ये पेड़

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हो खफा हमसे वो रोते जा रहे हैं 
और हम रुमाल होते जा रहे हैं 

नीम के ये पेड़ इक दिन आम देंगे 
 सोच कर रिश्तों को ढोते जा रहे हैं

पत्थरों से दोस्ती कर ली है जब से 
आईने पहचान खोते जा रहे हैं 

कब तलक दें फूल उनको ये बताओ 
जो हमें कांटे चुभोते जा रहे हैं

रहनुमा मक्खन का वादा करके देखो 
कब से पानी ही बिलोते जा रहे हैं 

है यकीं इक दिन यहीं गुलशन बनेगा 
बीज हम बंज़र में बोते जा रहे हैं 

पास मत आना हमारे, कह रहे जो 
आँख से "नीरज" वो न्योते जा रहे हैं

किताबों की दुनिया - 83

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("इस ब्लॉग से आप सब के प्यार का नतीजा है ये 301 वीं पोस्ट" )

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जागती आँखों ही से सोती रहती हूँ 
मैं पलकों में ख़्वाब पिरोती रहती हूँ 

तेजाबी बारिश के नक्श नहीं मिटते 
मैं अश्कों से आँगन धोती रहती हूँ 

मैं खुशबू की कद्र नहीं जब कर पाती 
फूलों से शर्मिंदा होती रहती हूँ 

जब से गहराई के खतरे भांप लिए 
बस साहिल पर पाँव भिगोती रहती हूँ 

मैं भी 'नुसरत' उसके लम्स की गर्मी से 
कतरा कतरा दरिया होती रहती हूँ

"किताबों की दुनिया " में अरसे से तलाशी जा रही एक शायरा द्वारा लिखी ग़ज़लों वाली किताब आखिर मिल ही गयी. ऐसा नहीं है कि सिर्फ शायर ही ग़ज़लें कह रहे हैं लेकिन ये मेरी बदकिस्मती थी की मुझे किसी शायरा की ऐसी किताब नहीं मिली जिसका जिक्र अपनी इस श्रृंखला में करता। आखिर बिल्ली के भाग का छींका टूटा और शिवना प्रकाशन, सीहोर,म.प्र. ने "नुसरत मेहदी " साहिबा की किताब "मैं भी तो हूँ " छाप कर मेरी मुराद पूरी कर दी।


कतरा के ज़िन्दगी से गुज़र जाऊं क्या करूँ 
रुसवाइयों के खौफ़ से मर जाऊं क्या करूँ 

मैं क्या करूँ के तेरी अना को सुकूँ मिले 
गिर जाऊं, टूट जाऊं, बिखर जाऊं क्या करूँ 

फिर आके लग रहे हैं परों पर हवा के तीर 
परवाज़ अपनी रोक लूं डर जाऊं क्या करूँ 

 प्रसिद्द साहित्यकार श्री पंकज सुबीरने इस किताब में एक जगह लिखा है "ग़ज़ल, ये शब्द सुनते ही दिमाग में परों से हल्के शब्द, रेशम के महीन धागों से बहुत नफासत के साथ लगाए गए जोड़, चांदनी का पानी छिड़क कर चमकाए हुए और चन्दन की खुशबू से महकाए हुए विन्यासों का ख्याल आ जाता है। और इन सब उपमाओं पर पूरी तरह से खरी उतरती हैं नुसरत मेहदी जी की ग़ज़लें।"

हर कोई देखता है हैरत से 
तुमने सब को बता दिया है क्या 

क्यूँ मेरा दर्द सहते रहते हो 
कुछ पुराना लिया दिया है क्या 

क्यूँ हवाओं से लड़ता रहता है
कौन है आस का दिया है क्या 

 मध्य प्रदेश उर्दू अकेडमी की सचिव नुसरत साहिबा ने शायरी के अलावा लेख ,कहानियां, ड्रामा आदि साहित्य की हर विधा पर सफलता पूर्वक अपनी कलम चलाई है। बशीर बद्रसाहब इस किताब की भूमिका में लिखा है "नुसरत हमारे दौर की शाइ रात में विशिष्ट ढंग की शाइरा हैं. पुरानी किसी महान शाइरा से उनकी तुलना या प्रतिस्पर्धा करना उचित नहीं। उनकी शायरी आज के दौर में ज़िन्दगी की सच्चाइयों का उदगार है."

अपनी बे चेहरगी भी देखा कर 
रोज़ इक आईना ना तोड़ा कर 

ये सदी भी कहीं ना खो जाए 
अपनी मर्ज़ी का कोई लम्हा कर 

मसअले हैं तो हल भी निकलेंगे 
पास आ, साथ बैठ, चर्चा कर 

नुसरत जी को उनके साहित्यिक योगदान के लिए "खातूने अवध सम्मान -लखनऊ के अलावा कह्कशाने अवध भोपाल और माइनोरिटी फोरम द्वारा भी सम्मानित किया गया है " उनका संकलन "इन्तेखाबे सुख़न" को एम ऐ (उर्दू) के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है.
इशरत कादरीसाहब का विचार है की नुसरत साहिबा की ग़ज़लों में परम्परागत, प्रगतिशील और आधुनिक विचारों के साथ निजी भावनाओं का दर्द, माहौल की घुटन के अलावा जीती जागती ज़िन्दगी का बिखराव, समस्याएं और राजनितिक सतह पर असमानता आदि पर उनके विचार और अनुभव दिखाई देते हैं .

मैं हूँ इक जिंदा हकीकत मुझे महसूस करो 
मैं किसी कोने में रखी हुई तस्वीर नहीं 

घर की देहलीज़ मेरे साथ चला करती है 
देखने में तो मिरे पाँव में ज़ंजीर नहीं 

मैंने जो पाया वो सब अपने अमल से पाया 
मेरे हाथों की लकीरें मिरी तकदीर नहीं 

इस किताब को पढ़ते हुए आप जनाब जुबैर रिज़वी साहब की इस बात से इतेफाक रखेंगे की " नुसरत साहिबा ने आधुनिक फैशन वाले भावों को अपनी ग़ज़लों में आने नहीं दिया। इस रवैये से उनकी ग़ज़ल केन्द्रीय मुख्य धारा से बाहर नहीं आती। वो शेर को ग़ज़ल का शेर बनाकर पढने वालों को सौंपती हैं।

कोई ग़म याद नहीं शिकवा गिला याद नहीं 
आज कुछ भी तेरी चाहत के सिवा याद नहीं 

ये तेरे नाम की तासीर है वरना पहले 
ऐसे निखरी हो हथेली पे हिना याद नहीं 

उसने बेजुर्म सजा दी थी मगर अब 'नुसरत' 
मैं हूँ मुन्सिफ तो मुझे उसकी जफा याद नहीं 
मुंसिफ:इन्साफ करने वाला 

आप इस किताब की प्राप्ति के लिए शिवना प्रकाशन को shivna.prakashan@mail.com मेल करें या फिर पंकज सुबीर जी से उनके मोबाइल 9977855399 पर संपर्क करें। किताब पढ़ें और पढ़ कर नुसरत जी को उनके मोबाइल 9425012227 पर इतनी खूबसूरत और दिलकश शायरी के लिए बधाई दें . आप ये काम करें तब तक हम निकलते हैं आपके लिए ढूँढने एक और किताब और हाँ चलते चलते उनकी ग़ज़ल के ये शेर भी आपकी खिदमत में पेश करते हैं :

मिरे आँगन में उड़कर आ रही है 
नए मौसम नए लम्हों की खुशबू 

महकने की इजाज़त चाहती है 
हंसी चाहत भरे ज़ज्बों की खुशबू 

कई सपने सजाकर रख गयी है 
मिरी पलकों पे उन होठों की खुशबू 

चली आती है हर शब् गुगुनाती 
हवा के दोश पर यादों की खुशबू 



अलग राहों में कितनी दिलकशी है

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ज़ेहन में आपके गर खलबली है 
बड़ी पुर-लुत्फ़ फिर ये ज़िन्दगी है 
पुर लुत्फ़ : आनंद दायक 

अजब ये दौर आया है कि जिसमें 
गलत कुछ भी नहीं,सब कुछ सही है 

मुसलसल तीरगी में जी रहे हैं 
ये कैसी रौशनी हमको मिली है 
मुसलसल :लगातार : तीरगी : अँधेरा 

मुकम्मल खुद को जो भी मानता है 
यकीं मानें बहुत उसमें कमी है 

जुदा तुम भीड़ से हो कर तो देखो 
अलग राहों में कितनी दिलकशी है

समंदर पी रहा है हर नदी को 
हवस बोलें इसे या तिश्नगी है 
तिश्नगी : प्यास 

नहीं आती है 'नीरज' हाथ जो भी 
हरिक वो चीज़ लगती कीमती है

किताबों की दुनिया - 84

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आज की किताब का जिक्र करने से पहले चलिए थोड़ी सी अर्थ हीन भूमिका बाँधी जाय .अर्थ हीन इसलिए के इसके बिना भी किताब की बात की जा सकती है . हुआ यूँ की इस बार जयपुर प्रवास के दौरान वहां के दैनिक भास्कर अखबार में एक छोटी सी खबर छपी जिसमें सूचना थी की मुंबई के ख्याति प्राप्त शायर श्री सुरेन्द्र चतुर्वेदी से जयपुर के शायर लोकेश साहिल 'आर्ट कैफे' में बैठ कर बातचीत करेंगे। जयपुर में कोई आर्ट कैफे भी है ये भी तब तक पता नहीं था . खैर !! किसी तरह हमने आर्ट कैफे का पता किया और पहुँच गए .

सुरेन्द्र जी ने लोकेश जी से ढेरों बातें की और अपनी ग़ज़लें भी सुनाईं। जयपुर में इस तरह की अनोपचारिक बातचीत का ये अपने आप में अनोखा कार्यक्रम था. कार्यक्रम के बाद सुरेन्द्र जी से बातचीत हुई और उन्होंने मेरी रूचि और पुस्तकों के प्रति अनुराग देख कर उसी वक्त अपनी कुछ किताबें मुझे भेंट में दे दीं . उन्हीं किताबों के ज़खीरे में से एक ताज़ा छपी किताब " ये समंदर सूफियाना है " का जिक्र आज हम करेंगे।


खुदाया इस से पहले कि रवानी ख़त्म हो जाए
रहम ये कर मेरे दरिया का पानी ख़त्म हो जाए
 
हिफाज़त से रखे रिश्ते भी टूटे इस तरह जैसे
किसी गफलत में पुरखों की निशानी ख़त्म हो जाए
 
लिखावट की जरूरत आ पड़े इस से तो बेहतर है
हमारे बीच का रिश्ता जुबानी ख़त्म हो जाए
 
हज़ारों ख्वाइशों ने ख़ुदकुशी कुछ तरह से की
बिना किरदार के जैसे कहानी ख़त्म हो जाए

बकौल सुरेन्द्र उन्होंने अपने लेखन की शुरुआत कविताओं से की और फिर वो कवि सम्मेलनों में बुलाये जाने लगे. मंचीय कवियों की तरह उन्होंने ऐसी रचनाएँ रचीं जो श्रोताओं को गुदगुदाएँ और तालियाँ बजाने पर मजबूर करें. ज़ाहिर है ऐसी कवि सम्मेलनीय रचनाओं ने उन्हें नाम और दाम तो भरपूर दिया लेकिन आत्म संतुष्टि नहीं . साहित्य के विविध क्षेत्रों में हाथ आजमाने के बाद अंत में ग़ज़ल विधा में वो सुकून मिला जिसकी उन्हें तलाश थी.

फैसलों में अपनी खुद्दारी को क्यूँ जिंदा किया
उम्र भर कुछ हसरतों ने इसलिए झगडा किया
 
मुझसे हो कर तो उजाले भी गुज़रते थे मगर
इस ज़माने ने अंधेरों का फ़क़त चर्चा किया 
 
मैंने जब खामोश रहने की हिदायत मान ली
तोहमतें मुझ पर लगा कर आपने अच्छा किया
  
कुछ नहीं हमने किया रिश्ता निभाने के लिए
अब जरा बतलाइये कि आपने क्या क्या किया

मूलतः अजमेर निवासी सुरेन्द्र जब फिल्मों में किस्मत आजमाने के लिए मुंबई लिए रवाना हुए तो परिवार और इष्ट मित्रों ने उन्हें वहां के तौर तरीकों से अवगत करवाते हुए सावधान रहने को कहा. मुंबई नगरी के सिने संसार में अच्छे साहित्यकारों की जो दुर्गति होती है वो किसी से छुपी नहीं. सुरेन्द्र ने मुंबई जाने से पहले किसी भी कीमत पर साहित्य की सौदेबाजी न करने का दृढ निश्चय किया.

मुंबई प्रवास के आरंभिक काल में उन्हें अपने इस निश्चय पर टिके रहने में ढेरों समस्याएं आयीं लेकिन वो अपने निश्चय पर अटल रहे.

खिज़ाओं के कई रिश्ते जुड़े हैं जिस्म से मेरे
मगर मैं रूह के भीतर की वीरानी से डरता हूँ
 
कभी कुनबे के आगे हाथ फैलाता नहीं हूँ मैं
मैं बचपन से ही माँ की हर पशेमानी से डरता हूँ
 
मुझे रंगों को छू कर देखने की है बुरी आदत
मगर मैं तितलियों की हर परेशानी से डरता हूँ

मुंबई की फिल्म नगरी में दक्ष साहित्यकारों की रचनाओं को खरीद कर या उनसे लिखवा कर अपने नाम से प्रसारित करने वाले मूर्धन्य साहित्यकारों की भीड़ में सुरेन्द्र को एक ऐसा शख्स मिला जिसने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी. उस अजीम शख्स को हम सब गुलज़ार के नाम से जानते हैं.

अपनी एक किताब में सुरेन्द्र कहते हैं " ज़िन्दगी में पहली बार महसूस हुआ कि फ़िल्मी कैनवास पर कोई रंग ऐसा भी है जो दिखता ही नहीं महसूस भी होता है. गुलज़ार साहब के व्यक्तित्व और कृतित्व ने मुझे बेइन्तेहा प्रभावित किया "

तेरी आँखों में मैंने अश्क अपने क्या रखे
तूने समंदर को जरा सी देर में कतरा बना डाला
 
कभी बादल, कभी बारिश, कभी उम्मीद के झरने
तेरे अहसास ने छू कर मुझे क्या क्या बना डाला
 
तेरी मौजूदगी ने जख्म पर जब उँगलियाँ रक्खीं
तो मैंने दर्द अपना और भी गहरा बना डाला

सुरेन्द्र और उनकी की शायरी के बारे में गुलज़ार साहब फरमाते हैं "सुरेन्द्र की ग़ज़लों में बदन से रूह तक पहुँचने का ऐसा हुनर मौजूद है जिसे वो खुद सूफियाना रंग कहते हैं मगर मेरा मानना है कि वे कभी कभी सूफीज्म से भी आगे बढ़ कर रूहानी इबादत के हकदार हो जाते हैं. कभी वे कबायली ग़ज़लें कहते नज़र आते हैं तो कभी मौजूदा हालातों पर तबसरा करते ! मुझे हमेशा येही लगा कि मेरी ही शक्ल का कोई शख्स सुरेन्द्र में भी साँसे लेता है "

मुझे मेरी तरह के दूसरे दरिया से तू मिलवा
कि हर कतरे में जिसके इक समंदर सांस लेता हो
 
जुदा होकर मैं तुझसे यूँ तो जिंदा हूँ मगर ऐसे
कि जैसे जिस्म से काटा हुआ सर साँस लेता हो
 
 
बनाओ अब कहीं ऐसी इबादतगाह कि जिसमें
दरो दीवार का हर एक पत्थर सांस लेता हो

सुरेन्द्र की ग़ज़लों का पूरा कैनवास देखने के लिए ये बहुत जरूरी है के हम उनकी बाकी सभी किताबों याने "दर्द-बे-अंदाज़", "वक्त के खिलाफ","अंदाज़े बयां और ", "आसमाँ मेरा भी था" , "अंजाम खुदा जाने ", "कोई एहसास बच्चे की तरह" और " कोई कच्चा मकान हो जैसे" को भी पढ़ें. सिर्फ एक किताब को पढ़ कर हम उनकी शायरी की गहराई का अंदाजा नहीं लगा पाएंगे.

"ये समंदर सूफियाना है " और उनकी बाकी अधिकाँश किताबें जयपुर के बोधि प्रकाशन से प्रकाशित हुई हैं.


बड़े अंदाज़ से वो बोलता है
मगर खुद को कहाँ वो खोलता है
 
चखे तो शहद सा लगता है मीठा
ज़हर भी इस तरह से घोलता है
 
उफनता वो नहीं है दूध जैसे
मगर भीतर बहुत वो खौलता है
 
हुनर आया है जबसे बोलने का
बहुत खामोश हो कर बोलता है

अगर इस पोस्ट ने आपके मन में सुरेन्द्र की और भी ग़ज़लें पढने की प्यास जगाई है तो इन पुस्तकों की प्राप्ति के लिए बोधि प्रकाशन जयपुर को 098290-18087 पर संपर्क करें या फिर सीधे सुरेन्द्र को उनके मोबाईल न. 09829271388 पर बधाई देते हुए उनसे इन किताबों की प्राप्ति के लिए गुज़ारिश करें. आप उन्हें ghazal1681@yahoo.co.in पर मेल भी लिख सकते हैं. मुझे पूरी उम्मीद है वो अपने सच्चे पाठकों को निराश नहीं करेंगे.

अगली किताब की खोज पर जाने से पहले लीजिये सुरेन्द्र की एक और खूबसूरत ग़ज़ल के ये शेर पढ़ें और फिर एक विडियो देखें जिसे खाकसार ने उनके जयपुर कार्यक्रम के दौरान अपने मोबाइल की मदद से बनाया था :
 
यादों के घर लौट के जाना मुश्किल है
दरवाज़े फिर से खुलवाना मुश्किल है
 
उनसे भी मैं जुदा नहीं हो पाता हूँ
जिनसे मेरा साथ निभाना मुश्किल है
 
रूह में चाहे वो ही साँसे लेता हो
लेकिन उसको तो छू पाना मुश्किल है
 
जो रहते हर वक्त दिलों में लोगों के
ऐसे लोगों का मर जाना मुश्किल है

खोलिए आँख तो सवेरा है

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बंद रखिए तो इक अँधेरा है 
खोलिए आँख तो सवेरा है 

सांप यादों के छोड़ देता है 
शाम का वक्त वो सँपेरा है 

फ़ासला इक बहुत जरूरी है 
यार के भेष में बघेरा है 

ताजपोशी उसी की होनी है 
मुल्क में जो बड़ा लुटेरा है 

मरहला है सरायफानी ये 
चार दिन का यहाँ बसेरा है 

रूह बेरंग क्यों ना हो साहब 
हर कोई जिस्म का चितेरा है 

शाम दर पे खड़ी है ऐ 'नीरज' 
अब समेटो जिसे बिखेरा है



(मयंक भाई आपके मिडास टच को सलाम )
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