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किताबों की दुनिया -206 /2

'गुलाम अब्बास'जिस गांव में रहते थे वहाँ रहते हुए शायरी की दुनिया में आगे बढ़ने के रास्ते कम थे लेकिन घर की मज़बूरियों की वजह से उनका लाहौर जाने का सपना पूरा नहीं हो पा रहा था। कोई उन्हें राह दिखाने वाला नहीं था। बड़ा भाई वहीँ के एक स्कूल में पढ़ाया करता था उसी की शिफारिश पर गुलाम अब्बास भी स्कूल में पढ़ाने लगे। ये नौकरी उन्हें बहुत दिनों तक रास नहीं आयी। दिल में अच्छा शायर बनने और अपना मुस्तकबिल संवारने की ललक आखिर अक्टूबर 1981 में उन्हें उनके सपनों के शहर लाहौर में ले आयी. 'रोजनामा जंग'अखबार में उन्हें 700 रु महीने की तनख्वा पर प्रूफ रीडर की  नौकरी मिल गयी। नौकरी और शायरी दोनों साथ साथ चलने लगी। नया शहर, नए लोग, नए कायदे मुश्किलें पैदा करने लगे और गाँव की सादा ज़िन्दगी ,घर का सुकून उन्हें बार बार लौटने को उकसाने लगा। लेकिन गुलाम अब्बास आँखों में सपने लिए मज़बूत इरादों से लाहौर आये थे इस लिए डटे रहे। मुश्किलों ने उनकी शायरी को पुख्ता किया। 

इसलिए अब मैं किसी को नहीं जाने देता 
जो मुझे छोड़ के जाते हैं चले जाते हैं 
***
चाँदनी खंदा है अपने हुजरा-ऐ-महताब पर 
और मैं नाज़ाँ हूँ इस पर मेरा घर मिटटी का है 
खंदा : हंसती , हुजरा ऐ महताब : चाँद के कमरे नाज़ाँ :फ़क्र करने वाला 
***
ये तेरे बाद खुला है कि जुदाई क्या है 
मुझ से अब कोई अकेला नहीं देखा जाता 
***
पानी आँख में भर लाया जा सकता है 
अब भी जलता शहर बचाया जा सकता है 
***
उस को रस्ते से हटाने का ये मतलब तो नहीं 
किसी दीवार को दीवार न समझा जाए 
***
एक तो मुड़ के भी न जाने की अज़ीयत थी बहुत 
और उस पर ये सितम कोई पुकारा भी नहीं 
***
देखा न जाए धूप में जलता हुआ कोई 
मेरा जो बस चले करूँ साया दरख़्त पर 
***
अभी तो घर में न बैठो, कहो बुजुर्गों से  
अभी तो शहर के बच्चे सलाम करते हैं 
***
यकीं आता नहीं तो मुझ को या महताब को देखो 
कि रात उसकी भी कट जाती है जिस का घर नहीं होता 
***
बस यही देखने को जागते हैं शहर के लोग 
आसमाँ कब तेरी आँखों की तरह होता है 

गुलाम अब्बास लाहौर आ तो गए लेकिन इतने बड़े शहर में अपनी मंज़िल कैसे तलाश करें ये सोचने लगे। कोई मदद के लिए आगे नहीं आया। शहर के लोग बेमुरव्वत होते हैं, ऐसा नहीं है, ऐसा सोचना भी गलत होगा। दर असल शहर में लोग ज्यादा होते हैं सभी एक मैराथन दौड़ का हिस्सा होते हैं सभी को मंज़िल की तलाश और वहां तक पहुँचने की जल्दी होती है इसलिए किसी से भी ये उम्मीद रखना कि वो आपका हाथ पकड़ कर रास्ता दिखायेगा सही नहीं होगा। हाँ आपको धक्का दे कर आगे निकलने वाले बहुतायत में मिलेंगे। अब्बास साहब की ज़िन्दगी में शायरी और नौकरी के साथ साथ धक्के भी जुड़ गए लेकिन इन तकलीफ़ों ने उन्हें एक बेहतर इंसान बनने में मदद की। 

चलता रहने दो मियाँ सिलसिला दिलदारी का
आशिक़ी दीन नहीं है कि मुकम्मल हो जाए 

हालत-ऐ-हिज़्र में जो रक़्स नहीं कर सकता 
उस के हक़ में यही बेहतर है कि पागल हो जाए 

डूबती नाव में सब चीख रहे हैं 'ताबिश'
और मुझे फ़िक्र ग़ज़ल मेरी मुकम्मल हो जाए 

कहते हैं जब ऊपर वाला आप पर मेहरबान होता है तो वो खुद तो मदद को नहीं आता अलबत्ता अपना एक नुमाइंदा आपके पास भेज देता है। गुलाम अब्बास साहब की मदद के लिए ऊपर वाले ने जिन्हें भेजा वो थे पाकिस्तान के उस्ताद शायर जनाब खालिद अहमद साहब जो लाहौर ही में रहते थे ।खालिद साहब को उन्होंने अपना उस्ताद बनाया और उनकी रहनुमाई में ग़ज़ल कहने में खूब मेहनत करने लगे। मेहनत और लगन का नतीज़ा निकलना ही था। अब्बास ताबिश साहब की क़लम खूब चल निकली । खालिद साहब ने उन्हें एक अच्छा और कामयाब शायर बनने के गुर सिखाये और बताया कि शायरी फ़ुर्सत में किया जाने वाला काम नहीं है बल्कि ये पूरे वक्त किये जाने वाला काम है । अब आप हमेशा तो शेर नहीं कह सकते लेकिन शेर कहने के लिए आपको हमेशा शेर की कैफ़ियत में रहना होता है. अपने ही लिखे को बार बार खारिज़ करने का हुनर सीखना होता है। यूँ समझें शेर कहना मछली पकड़ने जैसा काम है आप को ख़्याल के दरिया में हमेशा जाल डाल के रखना होता है अब मछली तो मछली है फंसे तो अभी फंस जाय और न फंसे तो महीनों न फंसे।     

तुम मांग रहे हो मेरे दिल से मेरी ख़्वाइश 
बच्चा तो कभी अपने खिलौने नहीं देता 

मैं आप उठाता हूँ शब-ओ-रोज़ की ज़िल्लत 
ये बोझ किसी और को ढोने नहीं देता 
 शब-ओ-रोज़ :रात-दिन ,ज़िल्लत :बदनामी, तौहीन  

वो कौन है उससे तो मैं वाक़िफ़ भी नहीं हूँ 
जो मुझको किसी और का होने नहीं देता 

फिर वो वक्त आया जिसका हर शायर को बेताबी से इंतज़ार रहता है याने उसकी पहली किताब का मंज़र-ए-आम पर आना।  खालिद साहब ने ही उनकी पहली ग़ज़लों की किताब '"तम्हीद " शाया करवाई और उसके मंज़र-ऐ-आम पर आते ही 'अब्बास ताबिश'साहब के नाम खुशबू की पाकिस्तान ही नहीं पूरी दुनिया में फैले शायरी के दीवानों तक पहुँच गयी। 'तम्हीद'के बाद उनकी ग़ज़लों की पाँच और किताबें "आसमाँ ""मुझे दुआओं में याद रखना ",परों में शाम ढलती है ","रक्से दरवेश "और "शजर तस्बीह करते हैं "शाया हो चुकी हैं. आम तौर पर शायर की कुलियात उसके दुनिया से रुख़्सत होने के बाद ही शाया होती है लेकिन अब्बास ताबिश  "मुनीर नियाज़ी "साहब की तरह ये सोच कर कि अक्सर उनकी सभी किताबें उनके पाठकों को एक ही जगह नहीं मिल पातीं या फिर आउट आफ प्रिंट जाती हैं अपना कुलियात "इश्क आबाद"मंज़र -ऐ-आम पर ले आये."    
हिंदी में शायद उनकी पहली और एक मात्र ग़ज़लों की किताब 'राधा कृष्ण प्रकाशन से "रक्स जारी है"नाम से प्रकाशित हुई जिसका जिक्र हम अभी कर रहे हैं :   

यूँ ही ख्याल आता है बाँहों को देख कर 
इन टहनियों पे झूलने वाला कोई तो हो 

हम इस उधेड़बुन में मोहब्बत न कर सके 
ऐसा कोई नहीं मगर ऐसा कोई तो हो  

मुश्किल नहीं है इश्क का मैदान मारना 
लेकिन हमारी तरह निहत्था कोई तो हो 

 चलिए बात वहीँ से शुरू करते हैं जहाँ छोड़ी थी। जी हाँ लाहौर से।  लाहौर की ज़िन्दगी अब्बास साहब को रास आने लगी। प्रूफ रीडिंग की नौकरी पूरे चार साल करने के बाद गवर्मेंट लाहौर के कॉलेज में दाख़िला लेकर उर्दू में एम् ऐ किया और वहां से निकलने वाले मशहूर रिसाले 'रावी'का संपादन किया और फिर लाला मूसा के कॉलेज में लेक्चरर बन गए। आजकल गुलबर्गा कालेज में उर्दू विभाग के अध्यक्ष की हैसियत से नौकरी कर रहे हैं।

लाहौर में जितना वक्त मिलता वो खालिद साहब की सोहबत में बिताने लगे। गुफ़तगू के दौरान खालिद साहब की बातें अब्बास साहब गांठ बांध लेते। उनकी एक बात उन सबके लिए गाँठ बांधनी जरूरी है, जो शायरी करते हैं और उस में अपनी पहचान बनाना चाहते हैं। खालिद साहब का कहना था कि शायरी लम्बी कूद के खेल की तरह होती है जिसमें आगे कूदने के लिए पहले पीछे की और जाना होता है। उनका इशारा रिवायत की ओर जाने से था। याने ये जानना जरूरी है कि आप से पहले किसी मौज़ू पर उस्ताद लोग क्या कह गए हैं और कैसे कह गए हैं। उन्हें पढ़ कर आप बहुत कुछ सीख सकते हैं। भले ही दुनिया हर दिन बदल रही हो लेकिन इंसान अभी भी वैसा ही है जैसा बाबा आदम के ज़माने में हुआ करता था। उसकी सोच में बहुत अधिक अंतर नहीं आया है। उसकी परेशानियां भी कमोबेश वैसी ही हैं। आधुनिकता ने उसे बाहर से भले ही बदल दिया हो लेकिन भीतर से गौर करें तो कुछ नहीं बदला। शायरी में अब नए अल्फ़ाज़ आ गए हैं लेकिन मूल बात अभी भी वही रहती है जो पहले थी। इश्क, रुसवाई, बेवफ़ाई, रक़ीब, ज़माना, मुश्किलें जस की तस हैं। 

वर्ना कोई कब गालियाँ देता है किसी को 
ये उसका करम है कि तुझे याद रहा मैं 

इस दर्ज़ा मुझे खोखला कर रख्खा था ग़म ने 
लगता था गया अब के गया अब के गया मैं 

इक धोके में दुनिया ने मेरी राय तलब की 
कहते थे कि पत्थर हूँ मगर बोल पड़ा मैं 

अब तैश में आते ही पकड़ लेता हूँ पाँव 
इस इश्क़ से पहले कभी ऐसा तो न था मैं 

रिवायत की तरफ़ जाने के बाद हमें ये याद रखना चाहिए कि हमें वहीँ का नहीं हो कर रह जाना। दरअसल रिवायत एक जंगल है जिसमें भटकने कि सम्भावना ज्यादा हैं। लोग रिवायत के जंगल में जा कर या तो रास्ता भटक के वहीँ के हो जाते हैं या फिर खाली हाथ लौट आते हैं जबकि हमें रिवायत के जंगल की खुशबू और ताज़गी को अपने साथ लिए लौटना होता है। जो ऐसा कर पाते हैं उनकी शायरी में ताज़गी और रवानी देर तक बनी रहती है। बहुत से कामयाब शायरों को आप देखें कि वो आगाज़ बहुत शानदार करते हैं लेकिन कुछ वक्त के बाद खुद को दोहराने लगते हैं।  खालिद साहब ने समझाया कि जब तुम्हें लगने लगे कि शायरी में दोहराव हो रहा है या ताज़गी ख़तम हो रही है तभी ठीक तभी आपको अपनी कलम एक तरफ़ रख देनी चाहिए। लिखना छोड़ के दूसरों को पढ़ना शुरू कर देना चाहिए। इस से आप अपनी साख देर तक बनाये रखने में कामयाब होंगे।      
    
हमारे दुःख न किसी तौर जब ठिकाने लगे 
हम अपने घर में परिंदों के घर बनाने लगे 
***
बर्फ पिघलेगी तो हम भी चल पड़ेंगे उसके साथ 
देखने वाले यही समझेंगे कि दरिया जाए है 
***
घर टपकता देख कर रोती है माँ 
छत तले इक छत पुरानी और है 
***
कोई रोंदे तो उठाते हैं निगाहें अपनी 
वर्ना मिटटी की तरह राह से कम उठते हैं 
***
वो अपनी मर्ज़ी का मतलब निकाल लेता है 
अगरचे बात तो हम सोच कर बनाते हैं 
***
तुझे क़रीब समझते थे घर में बैठे हुए 
तिरि तलाश में निकले तो शहर फ़ैल गया 
***
जिस तरह पेड़ को बढ़ने नहीं देती कोई बेल 
क्या जरूरी है मुझे घेर के मारा जाए 
***
ये जमा ख़र्च ज़बानी है उसके बारे में 
कोई भी शख़्स उसे देख कर नहीं आता 
***
 कि जैसे उससे मुलाकात फिर नहीं होगी 
वो सारी बातें इकठ्ठी बताना चाहता है 
***
तन्हाई से थी मेरी मुलाक़ात आख़िरी 
रोया और इसके बाद मैं घर से निकल गया 

ताबिश साहब ने खूब पढ़ा है और आज भी मौका लगते ही पढ़ने लगते हैं चाहे शायर नया हो या पुराना। इसके अलावा सूफ़ी संत 'शाह हुसैन'को भी दिल से पढ़ा जिससे उनकी शायरी में इबादत  मुहब्बत के रंग आये। अब्बास साहब किसी के अच्छे शेर पर दाद देने से कभी नहीं चूकते। उनका मानना है कि अच्छा शेर ऊपर वाले की देन होता है वो चाहे जिसे अता करे,और हमें उसका एहतराम करना चाहिए। उम्मीद करनी चाहिए कि ऊपरवाला अच्छा शेर कभी आपको भी अता करेगा। ताबिश साहब नौजवान शायर,चाहे वो पाकिस्तान का हो या हिंदुस्तान का ,हौसला अफ़ज़ाही करना अपना फ़र्ज़ समझते हैं यही वजह है की दोनों मुल्कों के नौजवान शायर उन्हें बहुत पसंद करते हैं। दुनिया के गोशे गोशे में मुहब्बत का पैग़ाम देने वाले इस शायर के चाहने वाले सब तरफ़ फैले हुए हैं। ऐसा नहीं है कि इनके हिस्से में हमेशा फूल ही आये हों ,कांटे भी मिले हैं बल्कि मिलते रहते हैं लेकिन इनकी खूबी यही है कि ये जैसे फूल लेते वक्त मुस्कुराते हैं वैसे ही काँटों से ज़ख्म खाते वक्त भी। और इसी खूबी ने इन्हें बुलंदी पे पहुँचाया है।अब्बास साहब ने ये सिद्ध किया कि अगर आपकी शायरी में मयार है तो आप मुशायरों में बिना तरन्नुम और अदाकारी का सहारा लिए भी क़ामयाब हो सकते हैं  

कोई गठड़ी तो नहीं है कि उठा कर चल दूँ 
शहर का शहर मुझे रख़्त-ए-सफ़र लगता है 
रख्त-ए-सफ़र : सफ़र का सामान 

इस ज़माने में ग़नीमत है ग़नीमत है मियां 
कोई बाहर से भी दरवेश अगर लगता है 

काश लौटाऊँ कभी उसका परिंदा उसको 
अच्छा मिसरा मुझे टूटा हुआ पर लगता है 

आप सोच रहे होंगे कि मैं शायर के बारे में ही बताता जा रहा हूँ उसकी शायरी पे कुछ नहीं कह रहा तो हुज़ूर उसकी दो वजह है पहली ये कि मैं खुद को इस लायक़ नहीं समझता कि इस क़द्दावर शायर की शायरी पर तब्सरा करने की गुस्ताख़ी करूँ और दूसरी ये कि जिसे मैं पसंद या नापसंद करूँ उसे आप भी पसंद या नापसंद करें। इसलिए मैं उनकी किताब से यूँ ही जहाँ नज़र गयी वहां से कुछ अशआर आपको पढ़वा रहा हूँ यदि आपको पसंद आये तो आप खुद ब खुद राधाकृष्ण प्रकाशन दिल्ली को गूगल पे ढूंढ निकालेंगे और इस किताब को मंगवा कर पूरी पढ़ेंगे ,वैसे ये किताब अमेज़न से ऑन लाइन मंगवाई जा सकती है। वैसे मुझे लगता है कि शायरी के दीवानों की अलमारी में ये किताब जरूर होनी चाहिए। ऐसी किताब जिसमें एक भी शेर आपको नेगटिव नहीं मिलेगा।अब्बास साहब ने ये सिद्ध किया कि अगर आपकी शायरी में मयार है तो आप मुशायरों में बिना तरन्नुम और अदाकारी का सहारा लिए भी क़ामयाब हो सकते हैं.अब्बास साहब को 2017 में क़तर में "मलिक मुसीबुर्रहमान इंटरनेशनल अवार्ड और पाकिस्तान सरकार द्वारा 'तमगा-ए-इम्तिआज़'के ख़िताब से नवाज़ा गया है।     
 
अगली किताब की तलाश में निकलने से पहले चलते चलते ये अशआर भी पढ़वाता चलता हूँ। 

यूँ भी मंज़र को नया करता हूँ मैं 
देखता हूँ उसको हैरानी के साथ 

आँख की तह में कोई सहरा न हो 
आ रही है रेत भी पानी के साथ 

ज़िन्दगी का मसअला कुछ और है 
शेर के कह लेता हूँ आसानी के साथ 

अब अगर उनका एक शेर जो हमेशा जहाँ भी वो जाते हैं उनसे पहले ही वहां पहुँच जाता है और उनकी पहचान बन चुका है वो भी पढ़ लीजिये  

एक मुद्दत से मिरि माँ नहीं सोई 'ताबिश'
मैंने इक बार कहा था मुझे डर लगता है   
 

किताबों  की दुनिया :207 

सियासी लोग खो बैठे हैं पानी 
सभी कीचड़ से कीचड़ धो रहे हैं 
***
दोस्ती, प्यार, जर्फ़, हमदर्दी 
हमने देखे हैं कटघरे कितने 
***
कब से रोज़ादार हैं आँखें तेरी 
दीद का आदाब कर इफ़्तार कर 
***
एक मुस्कान को आंसू ने ये खत भेजा है 
अपने कुन्बे में ज़रा कीजिये शामिल मुझको 
***
भला क्यों आसमाँ की सिम्त देखें 
ज़मीनें क्या नहीं दिखला रही हैं  
***
धूप, बारिश, शफ़क़, नदी, मिटटी 
ऐसे लफ़्ज़ों की मेज़बानी कर 
***
हाथ पीले हुए हमारे भी 
दर्द से हो गयी है कुड़माई 
***
हुआ अब देह का बर्तन पुराना 
बदल डालो ठठेरा बोलता है  
*** 
रात मावस की है ये तो ठीक है 
तुम सितारों का निकलना देखते 
***
बंद था द्वार और उम्र भर 
हम बनाते रहे सातिये  

ये तो मुझे याद है कि मई 2011 थी लेकिन तारीख़ याद नहीं आ रही। सुबह मोबाईल पर घंटी बजी देखा तो आदरणीय नन्द लाल जी सचदेव साहब का फोन था ,जो अभी हाल ही में हम सब को छोड़  कर पंचतत्व में विलीन हो गए हैं। मुझे आदेश दिया कि अगर मैं जयपुर में हूँ तो 'काव्यलोक'की 86 वीं गोष्ठी में फलाँ तारीख़ रविवार को फलाँ जगह पहुंचू। ये तब की बात है जब मैं ग़ज़लों में काफिया पैमाइ किया करता था और खुद को शायर समझने का मुगालता पाले हुआ था। ऊपर वाले का शुक्र है कि किताबें पढ़ने की आदत की वजह से मुझे अहसास हो गया कि जो शायरी मैं कर रहा हूँ वो मुझसे पहले बहुत से उस्ताद मुझसे हज़ार गुणा बेहतर ढंग से कर चुके हैं और कर रहे हैं,बकौल मुनीर नियाज़ी  "दम-ए-सहर जब खुमार उतरा तो मैंने देखा, तो मैंने देखा" और मैंने शायरी छोड़ दी। मज़े की बात ये है कि किसी ने पूछा भी नहीं कि क्यों छोड़ी।  

 नया सूरज तो झुलसाने लगा है 
बहुत नाराज़ थे हम तीरगी से  

न जाने वक्त को क्या हो गया है 
तअल्लुक़ तोड़ बैठा है घड़ी से  

लबों तक आ गये आंसू छलक कर 
कोई मरता भी कैसे तिश्नगी से  

जब मैं निर्धारित स्थान पर पहुंचा तो कमरे में कोई 25-30 लोग कुर्सियों पे बैठे थे और सामने आदरणीय नन्दलाल जी के एक ओर गोष्ठी संचालिका और दूसरी ओर सफ़ेद सफारी सूट पहने एक हज़रत बैठे थे जो धीरे से नंदलाल जी के कान में कुछ कहते और मुस्कुराते । गोष्ठी शुरू हुई। जो भी अपना कलाम पढ़ने आता वो सुनाते हुए सफारी पहने सज्जन की तवज्ज़ो चाहता  अगर वो सज्जन रचना पढ़ते हुए रचनाकार की और देख सर हिला देते तो पढ़ने वाले को लगता जैसे कर ली दुनिया मुठ्ठी में। मैंने अपने पड़ौसी से पूछा कि ये सफारी पहने हज़रत कौन हैं तो उन्होंने मुझे ऐसे देखा जैसे कह रहे हों अजीब अहमक हो, जयपुर में रह कर पूछ रहे हो कि ये कौन हैं ? आखिर जब मंच संचालिका ने बहुत आदर से उन्हें पढ़ने को बुलाया तो पता चला कि उनका नाम "लोकेश कुमार सिंह 'साहिल'है। बैठे बैठे ही उन्होंने अपने सुरीले गले से ये ग़ज़ल पढ़ी तो समझ में आया कि लोग क्यों उनकी तवज़्ज़ो चाहते हैं : 

ज़मीं से दूर होता जा रहा हूँ 
मैं अब मशहूर होता जा रहा हूँ  

दिखाताा फिर रहा था ऐब सबके 
सो चकनाचूर होता जा रहा हूँ  

उजालों में ही बस दिखता हूँ सबको 
तो क्या बेनूर होता जा रहा हूँ  

उसके बाद लोकेश जी से अक्सर मुलाकात होने लगी और ये पता लगने लगा कि इस इंसान को पूरा समझना कठिन है। लोकेश जी के इतने आयाम हैं कि देख कर हैरत होती है। दरअसल वो अंधों के हाथी हैं जो किसी को पेड़ का तना ,किसी को रस्सी, किसी को सांप, किसी को अनाज फैटने वाला सूपड़ा, किसी को भाला तो किसी को दीवार सा नज़र आते हैं। ये इस बात पर निर्भर करता है कि आपने उनका कौनसा पक्ष देखा है। उन्हें समग्र देख पाना संभव नहीं।यही कारण है कि उन्हें पसंद-नापसंद करने वालों की संख्या बहुत बड़ी है । इसका सीधा अर्थ ये निकलता है कि भले ही आप इन्हें पसंद करें या नापसंद लेकिन इन्हें अनदेखा, अंग्रेजी में जिसे कहते हैं 'इग्नोर' , नहीं कर सकते. या तो ये आपकी आँखों में बसेंगे या खटकेगें पर रहेंगे आँख ही में आप पूछेंगे कि आपको कैसे पता चला कि वो हाथी हैं ,तो मेरा जवाब ये है कि मैंने लोगों के बताए चित्रों को जोड़ के देखा है. 

तबस्सुम तो है तेरा बोलता सा  
बड़ा खामोश लेकिन कहकहा है  

किताबों से मुझे बाहर निकालो 
मेरे भीतर का बच्चा चीखता है  

बहुत ही खुशनुमा लगती है बस्ती 
किसी का ग़म तमाशा हो गया है  

किताबों की दुनिया में उनकी ताजा ग़ज़लों की किताब "तुक"के माध्यम से उन पर चर्चा करेंगे। उनके विचार आपको बताएँगे और दूसरों के उनके बारे में विचार भी सामने लाएंगे। सवाल ये है कि लोकेश जी पे चर्चा क्यों "तुक'पर क्यों नहीं ? तो जवाब ये है कि लोकेश जी को जान लिया तो 'तुक'पे चर्चा की जरुरत ही नहीं रहेगी। वो इस किताब के हर पृष्ठ पर शिद्दत और ईमानदारी से मौजूद हैं। साहिल जी को बहुत से लोग शायर भी नहीं मानते, अजी लोगों की छोड़िए वो तो खुद भी नहीं मानते और अपने को तुक्के बाज कहते हैं. आज के इस दौर में जहाँ एक मिसरा तक ढंग से नहीं कहने वाले खुद को ग़ालिब के क़द का शायर समझते हैं वहाँ खुद को ताल ठोक कर तुक्के बाज कहना साहस का काम है।सच बात तो ये है कि शायरी दर अस्ल खूबसूरत तुकबंदी ही तो है अब आप इसे कोई भी नाम दे दें.


जिंदगी कब की एक पड़ाव हुई 
हां मगर माहो साल आते हैं  

जिनकी आंखों को रोशनी बख्शी 
उनकी आंखों में बाल आते हैं  

कोई मंथन तो अब कहां होगा 
आ समंदर खंगाल आते हैं 

साहिल साहब को सफ़ेद रंग, जो शांति का प्रतीक है कुछ ज्यादा ही प्रिय है. अक्सर उनसे बिना बात उलझने वाले लोग कुछ समय बाद सफ़ेद झंडा हिलाते हुए उनके सामने आ कर आत्म- समर्पण कर देते हैं। इसलिए नहीं कि वो बड़े भारी योद्धा हैं बल्कि इसलिए कि वो सामने वाले को एहसास करवा देते हैं हैं कि उनसे उलझना वक्त की बर्बादी है क्यूंकि वो मुहब्बत से भरे इंसान हैं ,उलझने में विश्वास ही नहीं करते। अपनी बात स्पष्ट कहते हैं और फिर उस पर कायम रहते हैं। ये ही कारण है कि किताब का शीर्षक 'तुक'और उनका नाम देखें सफ़ेद रंग में छपा है. किताब का बैक ग्राउंड हलके और गहरे भूरे रंग का मिश्रण है जो मिटटी का रंग है। याने वो अपनी मिटटी से जुड़े इंसान हैं इसलिए हमेशा संयत रहते हैं। उन्हें आप हवा में उड़ते कभी नहीं देख सकते। ये ऐसी खूबियां हैं जो विरले ही दिखाई देती हैं। ऐसी खूबियां न होती तो क्या भारत के पूर्व प्रधानमंत्री आदरणीय चंद्र शेखर जी उन्हें अपना मानस पुत्र कहते ?    

 जिसे किताबों से चिढ़ है 
उस बच्चे का बस्ता मैं 
***
धन का घुँघरू भी अद्भुत है 
संबंधों को नृत्य कराये 
***
तेरे ख्याल की कैसी है रहगुज़र जिसमें 
पहाड़ आते हैं लेकिन शजर नहीं आते 
***
किस हथेली को ये पसंद नहीं 
मेंहदियों के रचाव में रहना 
***
खुदा की ज़ात पे ऊँगली उठाने वालो सुनो 
यकीं की धूप गुमां से ख़राब होती है 
***
जब से इनमें से इक वज़ीर बना 
क्या अजब जश्न है पियादों में
 ***
टूट कर भी जी रहे हैं अज़्मतों के साथ हम 
रोज़  ग़म देती है लेकिन ज़िन्दगी अच्छी लगी 
***
निगाहे-नाज का ही जब ये ढंग है तो फिर 
निगाहे-ग़ैब का सोचो पयाम क्या होगा
 ***
न इंतज़ार करो नामाबर के आने का  
कोई जवाब न आना भी इक जवाब तो है 
***
कितना अच्छा है खामियां निकलीं 
तेरे अंदर तो आदमी है अभी  

बात चंद्रशेखर जी की चली है तो बताता चलूँ कि वो देश के पहले प्रधानमंत्री थे जिन्होंने राज्य मंत्री या केंद्र में मंत्री बने बिना ही सीधे प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। जिन्होंने 4260 की.मी. पद यात्रा के दौरान लाखों लोगों से संपर्क कर लोकप्रियता की उन ऊंचाइयों को छुआ जिसे देख इंदिरा गांधी जैसी कद्दावर नेता भी घबरा गयीं .राजनीति के विद्वानों का मत है कि अगर श्री चंद्र शेखर को सत्ता में रहने का अधिक वक्त मिलता तो आज देश की हालत कुछ और ही होती। श्री चंद्र शेखर एक दृढ, साहसी और ईमानदार नेता होने के साथ साथ अत्यंत संवेदनशील, जागरूक साहित्यकार भी थे। उनके संपादन में दिल्ली से प्रकाशित पत्रिका 'यंग इण्डिया'में उनके सम्पादकीय लेख देश में लिखे जाने वाले सर्वश्रेष्ठ सम्पादकीय लेखों में से एक हुआ करते थे। ऐसे विलक्षण प्रतिभा के धनी चंद्रशेखर जी ने अगर अपना वरद हस्त साहिल जी के सर पर रखा तो उन्हें जरूर उनमें अपनी ही युवा छवि दिखाई दी होगी। लोकेश 'साहिल'जी ने 'तुक'उन्हें ही समर्पित की है। 

रूठ कर फिर से छिपूँ घर के किसी कोने में 
इक खिलौने के लिए सब से खफा हो जाऊं  

इसी उम्मीद पर दिन काट दिए हैं मैंने 
जिंदगी मैं तेरी रातों का दिया हो जाऊं  

जो मुझे छोड़ कर जाते हैं वो पंछी सुन लें 
कल नई रुत में फलों से ना लदा हो जाऊं 

इस किताब में श्री चंद्र शेखर जी का एक पत्र छपा है जो उन्होंने अपनी मृत्यु के एक हफ्ते पहले लिख कर भेजा था. वो लोकेश जी को प्रदान किए जाने वाले एक लाख की धनराशि मूल्य के  'बिहारी पुरस्कार'सम्मान समारोह में आना चाहते थे, लेकिन खराब स्वास्थ्य के चलते नहीं आ पाए. श्री चंद्र शेखर जी लिखते हैं कि "जिसने अपने जीवन में हर पहलू को परखा है, देखा है, भुगता है वही सही अर्थ में जीवन के रस की अभिव्यक्ति कर सकता है. राग, विराग, स्नेह, घृणा, उल्लास और उदासी सब कुछ ही तो देखना होता है, पर उसे अपने अंदर उतारकर जो लोगों तक पहुंच पाता है वही कलमकार है, साहित्यकार है. लोकेश भी उन्हीं लोगों में से एक हैं, ये अनुभूति के धनी हैं और उसे प्रकट करने में पूरी तरह सक्षम. इनकी भाषा में स्वाभाविकता है, लोगों को मोह लेने की शक्ति है भी है क्योंकि इनकी भाषा सामान्यजन की भाषा है और इनके भाव उनकी आपबीती के बखान।  

जिसको मौजों से उलझने का हुनर आता है 
उसको मझधार ने खुश होकर उछाला होगा  

जिसकी हर बात तुझे तीर सी चुभ जाती है 
वो बहर हाल तेरा चाहने वाला होगा  

तू तो इंसान है संदल का कोई पेड़ नहीं 
तूने किस तौर से सांपों को संभाला होगा  

जिनको आता है अदब में भी सियासत करना 
उनके कांधों पे ही रेशम का दुशाला होगा 

चंद्र शेखर जी के पत्र में उतरे भाव लोकेश जी के लिए सबसे बड़ा सम्मान हैं. हालांकि उनके लिए वरिष्ठ तथा साथी साहित्यकारों द्वारा वयक्त भाव भी कम महत्वपूर्ण नहीं. क्या कारण है कि लोकेश जी के लिए पुराने और नए साहित्यकार प्रशंसा का भाव रखते हैं. सुनने वाले उन्हेँ दीवानावार चाहते हैं. 'तुक'की ग़जलें पढ़ेंगे तो जवाब खुद ब खुद मिल जाएगा. ये ग़ज़लें किसी महबूबा से की गई गुफ्तगू नहीं हैं इनमें हमारी आपकी रोज की बातें समाहित हैं. ये हमारे सुख-दुख को, समाज की विडंबनाओं को, राजनीति के कीचड़ को और इंसान की फितरत को बयां करती हैं. इनमें हमें हमारा ही अक्स दिखाई देता है. ये ग़जलें जो जैसा है उसे बिना बात घुमाए सीधे सरल ढंग से कहती हैं. ये कहन ही इन्हें विशेष बनाती है. 

जिसे देखो वही बनता है आलिम 
जहालत काम करती जा रही है  

तुझे कमजोर सब कहने लगे हैं 
शराफत काम करती जा रही है  

बिना दिल के भी जिंदा लोग हैं सब 
       ये आदत काम करती जा रही है     
     
चंदौसी उत्तर प्रदेश के एक राजसी घराने में जन्में युवराज लोकेश कुमार सिंह जयपुर आ कर कब एक फक्कड़ फ़क़ीर तबियत के 'साहिल' में ढल गए ये शोध का विषय हो सकता है.रख रखाव अब भी उनका ठसके वाला है चाल और गर्दन में ख़म शाहों जैसा है बदली है तो सिर्फ़ सोच जिसके पीछे निश्चय ही चंद्र शेखर जी से निकटता का असर है जयपुर में उन्हें 'तारा प्रकाश जोशी'जैसे कवि और 'राही शहाबी'जैसे शायर की सोहबत में सीखने का मौका मिला। इस गंगा जमनी तहज़ीब का उन पर ये असर हुआ कि अब ये तय करना मुश्किल है कि वो बेहतर ग़ज़लकार हैं या कवि। 25 से अधिक संस्थाओं से जुड़े और देश के अग्रणी रचनाकारों के साथ 2000 से अधिक  कविसम्मेलन ,मुशायरे पढ़ने वाले लोकेश 'साहिल'आज भी मंच से जब ग़ज़लें या कवितायेँ या दोहे या मुक्तक या माहिये या घनाक्षरी छंद या आल्हा या कुंडलियां सुनाते हैं तो श्रोताओं के पास सिवाए मंत्रमुग्ध हो कर सुनने के और कोई विकल्प नहीं बचता। अपने शब्दों और सुरों से वो ऐसा जादू जगाते हैं कि लगता है समय थम सा गया है। उनके लेखन में आज भी युवाओं से अधिक ऊर्जा है और कलम में आंधी सी गति।         , 

ठिठुरती रात में काटी है ज़िन्दगी जिसने  
उसी ने धूप को पाया है मोतबर कितना  

तमाम ज़िन्दगी काग़ज़-क़लम में बीत गयी 
दुखों से काम लिया हमने उम्र भर कितना  

अदब तो बेच दिया तालियों लिफ़ाफ़ों में 
बनोगे और भला तुम भी नामवर कितना  

छंद मुक्त कविताओं और मंच पर सुनाये जाने वाले चुटकलों के घोर विरोधी और मीर परम्परा के लोकेश जी का 'तुक'दूसरा ग़ज़ल संग्रह है जिसे ऐनी बुक्स प्रकाशन इंदौर ने जिस ख़ूबसूरती से हार्ड बाउंड रूप में प्रकाशित किया है उसकी जितनी तारीफ की जाय कम है. किताब हाथ में लेकर सुखद अनुभूति होती है और पढ़ने की ललक बढ़ जाती है। किताब यूँ तो अमेजन पर ऑन लाइन उपलब्ध है  लेकिन आप चाहें तो ऐनी बुक्स के पराग अग्रवाल जी से 9971698930पर संपर्क कर उसे मंगवा सकते हैं और पढ़ने के बाद साहिल साहब को 9414077820 पर संपर्क कर मशवरा दे सकते हैं कि वो अपने इस ख्याल को दिल से निकाल दें कि वो सिर्फ तुकबंदी करते हैं क्यूंकि सिर्फ़ तुकबंदी करने से इतनी खूबसूरत ग़ज़लों का सृजन नहीं हो सकता। उसके लिए ख्याल की पुख़्तगी और उसे शेर में पिरोने का सलीका आना चाहिए जो उन्हें बखूबी आता है। तभी उनके तो इस सलीक़े के विजय बहादुर सिंह, अली अहमद फ़ातमी, कृष्ण कल्पित, शीन काफ़ निज़ाम, अब्दुल अहद 'साज़', एहतिशाम अख़्तर, कृष्ण बिहारी नूर , मख्मूर सईदी , मुमताज़ राशिद,इनाम शरर , मुकुट सक्सेना और फ़ारुख़ इंजीनियर जैसे रचनाकार भी क़ायल हैं। 
आख़िर में पेश हैं किताब की पहली ग़ज़ल से ये शेर : 

तुम्हारे साथ की आवारगी में 
मिली है ज़िंदगानी ख़ुदकुशी में  

उसे कह दो कि थोड़ा चुप  रहे अब 
बहुत है शोर उसकी ख़ामशी में  

है हम पर ख़ौफ़ कितना तीरगी का 
उजाला ढूंढते हैं रौशनी में  

फ़क़त आता है 'साहिल'तुक मिलाना 
नहीं कुछ भी तो तेरी शायरी में 

किताबों की दुनिया -208

सोना लेने जब निकले तो हर हर ढेर में मिट्टी थी 
जब मिट्टी की खोज में निकले सोना ही सोना देखा 
***
 मैं तो घर में अपने आप से बातें करने बैठा था 
अन देखा सा इक चेहरा दीवार पे उभरा आता है 
***
 प्यासी बस्ती प्यासा जंगल प्यासी चिड़िया प्यासा प्यार 
मैं भटका आवारा बादल किस की प्यास बुझाऊं
***
अगर घर से निकलें तो फिर तेज धूप 
मगर घर में डसती हुई तीरगी
***
 हैंं कुछ लोग जिनको कोई ग़म नहीं 
अ'जब तुर्फ़ा ने'मत है ये बेहिसी 
तुर्फ़ा: अनोखी, बेहिसी:संवेदनहीनता 
***
न जाने किस की हमें उम्र भर तलाश रही 
जिसे क़रीब से देखा वह दूसरा निकला 
***
ये दिल का दर्द तो साथी तमाम उम्र का है 
ख़ुशी का एक भी लम्हा मिले तो उससे मिलो 
***
घर में बैठे सोचा करते हमसे बढ़कर कौन दुखी है
इक दिन घर की छत पे चढ़े तो देखा घर-घर आग लगी है
***
मुझको नींद नहीं आती है
अपनी चादर मुझे उढ़ा दो
***
बस इतनी बात थी कि अ'यादत को आए लोग
दिल के हर इक जख़्म का टाँका उधड़ गया
अ'यादत:मिज़ाज पुर्सी
***
ऐसी रातें भी हम पे गुज़री हैं
तेरे पहलू में तेरी याद आई
***
इस की तो दाद देगा हमारा कोई रक़ीब  
जब संग उठा तो सर भी उठाते रहे हैं हम 

1947 की बात है दिल्ली स्टेशन पर गजब की भीड़ थी .दोस्त की सलाह पर वो लड़का दिल्ली से अलीगढ़ वाली ट्रेन में बड़ी मुश्किल से चढ़ पाया था. उस वक्त देश आजाद होने पर जश्न के रूप में बेगुनाह लोगों का खून सिर्फ़ इसलिए बहाया जा रहा था कि उनके मज़हब अलग थे. बीस साल का ये युवा दुबला पतला सा लड़का सहमा सा एक कोने में बैठा था कि दो-चार स्टेशन के बाद ही कुछ बलवाई ट्रेन में चढ़ गए और एक मज़हब विशेष के लोग ढूंढ कर ट्रेन के बाहर उतारने लगे. लड़के की आंखों में उतरे डर को देखकर एक बलवाई ने उसे गिरेबान से पकड़कर घसीटते हुए नीचे उतार लिया.
अल्लामा इकबाल ने गलत ही कहा था "कि मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना"जब कि इतिहास गवाह है कि "मज़हब ने ही सिखाया आपस में बैर रखना". हम सिर्फ इस बात पर किसी का खून कर देते हैं कि वो हमारे मज़हब का नहीं है जबकि उसका न तो उस मज़हब में पैदा होने पर कोई इख्तियार होता है न हमारा इस मज़हब में पैदा होने पर.  इंसान अकेला इतना हिंसक नहीं होता जितना वो भीड़ में हो जाता है.अकेले में किए गुनाह का बोझ दिल पर अधिक होता है जबकि भीड़ में किए गुनाह का बोझ भीड़ में बंट कर हल्का हो जाता है.
आखरी आवाज़ जो उस लड़के ने सुनी वो थी "मारो"और उसके बाद उसने खंजर अपनी पसलियों में तेजी से घुसता महसूस किया.

 मैं ढूंढने चला हूं जो खुद अपने आप को 
तोहमत ये मुझ पे है कि बहुत खु़द-नुमा हूं मैं 

जब नींद आ गई हो सदा ए जरस को भी 
मेरी ख़ता यही है कि क्यों जागता हूं मैं
सदा ए जरस : कारवाँ की घंटियों की आवाज़

 लाऊं कहां से ढूंढ कर मैं अपना हम-नवा 
खुद अपने हर ख़याल से टकरा चुका हूं मैं 

ऐ उम्र ए रफ़्ता मैं तुझे पहचानता नहीं 
अब मुझको भूल जा कि बहुत बेवफा़ हूं मैं

 ज़ख्म कितना भी गहरा हो भर जाता है ।रह जाता है सिर्फ़ एक निशान जो हमेशा इस बात की याद दिलाता है कि कभी यहां एक ज़ख्म था। हमारे आज के शायर ख़लीलुर्रहमान आ'ज़मीजिनकी किताब "तेरी सदा का इन्तिज़ार"का जि़क्र कर रहे हैं इस निशान को कभी नहीं भूल पाए. ये निशान हमेशा उनकी आँखों के सामने रहा नतीजतन वो हमेशा अकेलेपन के समंदर में डूबे रहे, खलाओं में भटकते रहे और अपने भीतर टहलते रहे. रस्मन तौर पर वह दुनिया से जुड़े दिखाई जरूर देते थे लेकिन हक़ीक़त में शायद उनका खुद से भी राबता कम था.


जिंदगी आज तलक जैसे गुजारी है न पूछ 
जिंदगी है तो अभी कितने मजे और भी हैं 
***
यूं जी बहल गया है तेरी याद से मगर 
तेरा ख्याल तेरे बराबर ना हो सका
***
भला हुआ कि कोई और मिल गया तुमसा 
वगरना हम भी किसी दिन तुम्हें भुला देते
*** 
ये और बात कहानी सी कोई बन जाए 
हरीम ए नाज़ के पर्दे हवा से हिलते हैं 
हरीम ए नाज़ :माशूका का मकान  
***
हमने उतने ही सर ए राह जलाए हैं चराग़ 
जितनी बर्गश्ता ज़माने की हवा हमसे हुई
बर्गश्ता: बिगड़ी हुई
***
एक दो पल ही रहेगा सब के चेहरों का तिलिस्म 
कोई ऐसा हो कि जिसको देर तक देखा करें
 *** 
मेरे दुश्मन न मुझको भूल सके
वरना रखता है कौन किसको याद
***
सुना रहा हूं उन्हें झूठ मूठ इक किस्सा 
कि एक शख्स मोहब्बत में कामयाब रहा
***
हाय वो लोग जिनके आने का
 हश्र तक इंतजार होता है
***
इतने दिन बीते कि भूले से कभी याद तेरी 
आए तो आंख में आंसू भी नहीं आते हैं
***
खिड़कियां जागती आंखों की खुली रहने दो 
दिल में महताब उतरता है इसी जीने से
***
जिंदगी छोड़ने आई मुझे दरवाजे तक 
रात के पिछले पहर मैं जो कभी घर आया
***
उत्तर प्रदेश के डिस्ट्रिक्ट आजमगढ़ और उस के आस पास ख़ास तौर पर सुल्तानपुर इलाक़े की मिटटी में पता नहीं क्या तासीर है की वहां एक से बढ़ कर एक बेहतरीन शायर हुए हैं और आज भी हो रहे हैं। ख़लीलुर्रहमान साहब की पैदाइश भी सुल्तानपुर के गाँव सीधा की है। गाँव के कट्टर मुस्लिम परिवार में मोहम्मद सफी साहब के यहाँ 1927 में आज़मी साहब का जन्म हुआ। आजमगढ़ से मैट्रिक पास करने के बाद अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से उर्दू में मास्टर्स की डिग्री हासिल की और फिर 1957 में पी.एच.डी की।       
1953 से वो अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के उर्दू विभाग में बतौर लेक्चरर नौकरी करने लगे पांच साल बाद रीडर बने. 

वो दिन कब के बीत गए जब दिल सपनों से बहलता था 
घर में कोई आए कि न आए एक दिया सा जलता था  

शायद अपना प्यार ही झूठा था वरना दस्तूर ये था 
मिट्टी में जो बीज भी बोया जाता था वो फलता था 

दुनिया भर की राम कहानी किस किस ढंग से कह डाली 
अपनी कहने जब बैठे तो इक इक लफ्ज़ पिघलता था 

ख़लील साहब को लिखने का शौक बचपन से ही था बच्चों की पत्रिका "पयामी तालीम"में उनकी रचनाएं नियमित छपती थीं. इस शौक को उन्होंने उर्दू साहित्य को आधुनिक और प्रगतिशील बनाने में परवान चढ़ाया. गद्य और पद्य दोनों विधाओं में उनकी क़लम चली और खूब चली. पुराने और अपने समकालीन रचनाकारों पर उन्होंने आलोचनात्मक लेख लिखे जो आज भी उर्दू के सर्वश्रेष्ठ आलोचनात्मक लेखों में शामिल होते हैं. उस वक्त जब शायरी महबूब के आरिज़ ओ लब ,बुलबल ओ चमन, हुस्न ओ इश्क की जंजीरों में जकड़ी हुई थी खलिल साहब ने अपने समकालीनों के साथ उसे जदीदियत की ओर मोड़ा. उसे प्रगतिशील बनाया और उसमें वो लफ़्ज इस्तेमाल किए जो अमूमन शायरी की ज़बान से दूर रखे जाते हैं. 

और तो कोई बताता नहीं इस शहर का हाल 
इश्तिहारात ही दीवार के पढ़ कर देखें 
इश्तिहारात: विज्ञापन  

जितने साथी थे वो इस भीड़ में सब खोए गए 
अब तो सब एक से लगते हैं किसे हम ढूंढें  

घर की वीरानी तलब करती है दिन भर का हिसाब
हमको यह फ़िक्र जरा शाम को बाहर निकलें 

ब्लड कैंसर एक गंभीर बिमारी है जो ख़लील साहब को उस वक्त लगी जब उनका लेखन उन्वान की ओर था. उनके मित्र शमीम हन्फ़ी लिखते हैं कि "देश में चेतना के चराग की लौ रोज़ ब रोज़ तेज होती जा रही थी और इस पूरी जद्द ओ जह्द में ख़लील साहब का हिस्सा सबसे ज्यादा था । वो जदीदियत के क़ाफ़ला-सालारों में शुमार किए जाते थे। अचानक ख़लील साहब की सेहत ज़वाब देने लगी लेकिन बीमारी के दौर में भी वो तख़्लीक़ी ( क्रिएटिव) और फन्नी (आर्टिस्टिक ) सतह पर बहुत ज़रखेज और शादाब दिखाई देते थे। आखरी दौर में लिखी उनकी ग़ज़लों और नज़्मों में आप मौत का रक़्स देख सकते हैं। अपनी और बढ़ती मौत के क़दमों की आहट साफ़ तौर पे रोज़ सुनना मौत से भी बदतर होता है। वो रात में उठकर बैठ जाते और जल्दी जल्दी हमेशा पास ही रखे काग़ज़ पर लिखने लगते। उस दौर में लिखी रचनाओं में अधूरे रह गए ख़्वाबों का दर्द और उदासी का रंग झलकता  है "  
एक जून 1978 को मात्र 51 वर्ष की उम्र में ख़लील साहब ने दुनिया ऐ फ़ानी को अलविदा कह दिया।   

 ये अलग बात कि हर सम्त से पत्थर आया 
सर-बुलन्दी का भी इलज़ाम मिरे सर आया 

बारहा सोचा कि ऐ काश न आँखें होतीं 
बारहा सामने आँखों के वो मंज़र आया  

मैं नहीं हक़ में ज़माने को बुरा कहने के 
अब के मैं खा के ज़माने की जो ठोकर आया  

ख़लील साहब के शागिर्दों में अँगरेज़ उर्दू स्कॉलर रॉल्फ रसेल और शायर 'शहरयार'उल्लेखनीय हैं। उनका तअल्लुक़ बशीर बद्र, ज़ाहिदा ज़ैदी ,मुई'न अहसन जज़्बी ,नासिर काज़मी ,इब्न इंशा ,बलराज कोमल, बाक़र मेहदी जैसे अदीबों से रहा। उनकी लिखी किताबों की एक लम्बी फ़ेहरिस्त है। उनकी किताबों का सफर 'कागज़ी पैराहन"से शुरू हुआ जो 1953 में मंज़र ऐ आम पर आयी उसके बाद 'नया अहद नामा''फ़िक्र ओ फ़न' 'ज़ाविये निगाह'आदि दस किताबों से होता हुआ 'ज़िन्दगी ऐ ज़िन्दगी'पर ख़तम हुआ. देवनागरी में उनकी एकमात्र किताब "तेरी सदा का इंतज़ार"  'रेख़्ता बुक्स बी 37 ,सेक्टर -1 नोएडा उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित हुई। ये किताब अब अमेज़न पर ऑन लाइन उपलब्ध है। जैसा कि आपको मालूम ही है कि हमारे यहाँ जीते जी किसी को सम्मान देने से परहेज़ किया जाता है इसीलिए ख़लील साहब को उनके जाने के बाद न सिर्फ़ उर्दू साहित्य में उल्लेखनीय योगदान के लिए ' ग़ालिब अवार्ड'दिया गया बल्कि यूनिवर्सिटी द्वारा उन्हें प्रोफ़ेसर की पदवी भी अता की गयी।   
चलते चलते उनकी एक ग़ज़ल ये अशआर भी पढ़वा देता हूँ : 

दूर रह कर ही जो आँखों को भले लगते हैं 
दिल ए दीवाना मगर उनकी ही क़ुर्बत मांगे  

पूछते क्या हो इन आँखों की उदासी का सबब 
ख्वाब जो देखे वो ख़्वाबों  की हक़ीक़त मांगे  

अपने दामन में छुपा ले मेरे अश्कों के चराग 
और क्या तुझसे कोई ऐ शब-ऐ-फ़ुर्क़त मांगे  

वो निगह कहती है बैठे रहो महफ़िल में अभी 
दिल की आशुफ़्तगी उठने की इजाज़त मांगे 
आशुफ़्तगी : दीवानगी 

किताबों की दुनिया 209 /1 

कहीं ये इश्क की वहशत को नागवार न हो 
झिझक रहा हूँ तिरे ग़म को प्यार करते हुए 
वहशत :उन्माद 
***
देख तितली की अचानक परवाज़ 
शाख़ से फूल उड़ा हो जैसे 
***
अजीब फ़ैसला था रौशनी के ख़ालिक़ का 
कि जो दिया भी नहीं थे वही सितारा बने 
ख़ालिक़ :निर्माता 
***
अब एक उम्र में याद आयी है तो याद आया 
सितारा बुझते हुए रौशनी बिखेरता है 
***
वो फिर मिला तो मुझे हैरतों से ताकता रहा 
कि दिल-गिरफ़्ता न लगता था बोलचाल से मैं 
दिल-गिरफ़्ता :उदास,दुखी 
***
फिर एक बार मैं रोया तो बेख़बर सोया 
वरना ग़म से निकलना मुहाल था मेरा 
***
अजीब राहगुज़र थी कि जिसपे चलते हुए 
क़दम रुके भी नहीं रास्ता कटा भी नहीं 
***
ये दुःख है उसका कोई एक ढब तो होता नहीं 
अभी उमड़ ही रहा था कि जी ठहर भी गया 
***
जो अक्स थे वो मुझे छोड़ कर चले गए हैं 
जो आइना है मुझे छोड़ कर नहीं जाता 
***
सच ये है कि पड़ता ही नहीं चैन किसी पल 
गर सब्र करूँगा तो अदाकारी करूँगा 

मैं मुरारी बापू का भक्त नहीं लेकिन उनकी एक बात का क़ायल हूं और वो है उनका रामकथा के दौरान ग़ज़ल के शेर सुनाना। उन के माध्यम से शायरी जन-जन तक पहुंच रही है. उन्हें शायरी की कितनी समझ है यह तो पता नहीं लेकिन उन्हें शायरी से कितनी मोहब्बत है यह साफ दिखाई देता है। सन 2005 में राजस्थान के प्रसिद्ध धार्मिक स्थल नाथद्वारा में राम कथा हुई जिसमें उनकी मौजूदगी में इंडो पाक मुशायरा रखा गया. एक हिंदू धार्मिक स्थल पर मुस्लिम शायरों की शायरी को जिस तरह से मुरारी बापू की मौजूदगी में सुना गया उसे देखकर अलगाववादी ताक़तों की अगर नींद उड़ गई हो तो हैरत की बात नहीं होगी. इससे एक बात स्पष्ट होती है कि शायरी, धर्म के दायरे में नहीं आती ।कोई भी व्यक्ति चाहे वो किसी भी धर्म या संप्रदाय का हो शायरी का दीवाना हो सकता है. खुशी की बात है कि आज के दौर में भी लोग शायर का नाम देखकर शेर पसंद नहीं करते.
इसी मुशायरे में पाकिस्तान से आए हमारे आज के शायर को उनके कलाम पर ज़बरदस्त दाद हासिल हुई थी.

ये दुःख पहले कभी झेला नहीं था 
अकेला था मगर तन्हा नहीं था 

हवा से मेरी गहरी दोस्ती थी 
मैं जब तक शाख़ से टूटा नहीं था 
 
मुहब्बत एक शीशे का शजर थी 
घना था पेड़ पर साया नहीं था 
 
मैं जिसमें देखता था अक्स अपना 
वो आईना फ़क़त मेरा नहीं था 

चलिए क़रीब 50 साल पहले के लाहौर चलते हैं. 6 दिसम्बर 1961 को लाहौर में पैदा हुआ एक बारह तेरह साल का लड़का स्कूल से घर लौट रहा है और रास्ते में खुद से ही बातें कर रहा है ।घर पर आकर बस्ता टेबल पर रख कर चहकते हुए मां से कहता है कि 'अम्मी आज मैंने शेर की कहे हैं'. ये सुनकर मां का दिल कैसा बल्लियों उछला होगा, आप सोच सकते हैं। जिस परिवार में लड़के के पिता, दादा, परदादा और दो फूफियां बेहतरीन शायर हों, वहां लड़के का शेर कहना कोई बहुत बड़ी घटना होनी तो नहीं चाहिए लेकिन मां इस बात पर खुश हुई कि उसकी 6 औलादों में से किसी एक में तो खानदान की रिवायत कायम रखने की काविश नजर आई. बात लड़के के पिता तक पहूंची । शाम को पिता ने उसे बुलाया, उससे से शेर सुने और खुश होते हुए बोले बरखुरदार तुम तो वज़न में कहते हो, शाबाश !! दो-चार दिन बाद घर पर हर महीने होने वाला मुशायरा एक कमरे में चल रहा था कि अचानक पिता ने लड़के को बुलाया और सबसे बोले कि मेरा बेटा भी शेर कहता है आप सब साहिबान इसे सुनेंं । लड़के ने घबराते हुए शेर पड़े जिसे सुनकर सदारत कर रहे मशहूर शायर जनाब 'अहसान दानिश'साहब उठे और लड़के को गले लगाते हुए उसके पिता से बोले 'ज़की कै़फी साहब मुबारक हो आपके यहां शायर पैदा हुआ है, क्या नाम है इसका ?''सऊद अशरफ उस्मानी'पिता गर्व से बोले.

हम भी वैसे न रहे दश्त भी वैसा न रहा 
उम्र के साथ ही ढलने लगी वीरानी भी 

वो जो बर्बाद हुए थे तेरे हाथों वही लोग 
दम-ब-ख़ुद देख रहे हैं तिरि हैरानी भी 

आखिर इक रोज़ उतरनी है लबादों की तरह 
तने-मलबूस ये पहनी हुई उरियानी भी 
शरीर का वस्त्र , उरियानी :नग्नता 

ये जो मैं इतनी सहूलत से तुझे चाहता हूँ 
दोस्त इक उम्र में मिलती है ये आसानी भी   
  
अहसान दानिश साहब ने ये बात बिल्कुल ठीक कही कि शायर पैदा ही होते हैं बनते नहीं .शायरी कोई डॉक्टरी, वकालत या इंजीनियरिंग जैसा पेशा नहीं है कि किसी कॉलेज, यूनिवर्सिटी में पढ़े, डिग्रियां ली और बन गए, ना ही ये पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले किसी दूसरे पेशे की तरह है। शायरी का फ़न किसी को तोहफ़़े की तरह भी नहीं दिया जा सकता ।शायरी इंसान के अंदर होती है लेकिन हर इंसान के अंदर नहीं. ये तौफ़ीक़ ऊपर वाला हर किसी को अता नहीं करता। शायर होता तो दूसरे आम इंसानों की तरह ही है लेकिन उसकी सोच का दायरा बड़ा होता है. वो औरों से ज्यादा संवेदनशील होता है इसलिए दूसरों के सुख दुःख को अच्छे से महसूस कर सकता है. शायर को अपने या दूसरों के अहसास एक खास रिदम में खूबसूरत अंदाज़ के साथ लफ्जों में पिरोने का हुनर आता है. कामयाब शायर बनने के लिए ऊपर वाले के दिए इस फ़न को लगातार मेहनत से सँवारना पड़ता है। 

जब तक मैं तेरे पास था बस तेरे पास था 
तूने मुझे जमींं पे उतारा तो मैं गया 

अपनी अना की आहनी जंजीर तोड़ कर 
दुश्मन ने भी मदद को पुकारा तो मैं गया 
अना: घमंड, आहनी: इस्पात की 

तेरी शिकस्त अस्ल में मेरी शिकस्त है 
तू मुझसे एक बार भी हारा तो मैं गया 

ये ताक ये चराग़ मेरे काम के नहीं 
आया नहीं नज़र वो दोबारा तो मैं गया

सऊद साहब पढ़ाई के दौरान शायरी करते रहे लेकिन उसे गंभीरता से नहीं लिया. साइंस में ग्रेजुएशन करने के बाद उन्होंने लाहौर से एमबीए की डिग्री हासिल की. एमबीए के बाद उन्होनें अपनी ग़जलें इक्ठ्ठा की उन में से कुछ छाँटी और मशहूर शायर 'अहमद नदीम कासमी'साहब के दफ्तर जा पहुंचे. उस वक्त कासमी साहब एक रिसाला निकाला करते थे जिसमें मयारी गजलें छपा करती थींं. दफ्तर में कासमी साहब के सामने लाजवाब शायरा परवीन शाक़िर साहिबा बैठी थींं. सऊद साहब अपनी गजलें नदीम साहब को देखकर वापस आ गए. जब कुछ दिन तक जवाब नहीं आया तो वह फिर से कासमी साहब के दफ्तर पहुंचे जहां कासमी साहब नहीं थे लेकिन परवीन शाकिर साहिबा बैठी थी उन्होंने सऊद साहब को देखते ही कहा 'अरे आप तो वही है ना जो कुछ दिन पहले अपनी गजलें छपने के लिए दे गए थे माशा अल्लाह आप बहुत अच्छा लिखते हैं, लिखते रहेंं '. परवीन शाक़िर जैसी शायरा से अपनी तारीफ सुन कर उसी पल सऊद साहब ने ग़जल की दुनिया में अपना एक मुकाम बनाने का फ़ैसला कर लिया. 

जैसे कोई दो दो उम्रें काट रहा हो 
झेली अपनी और उसकी तन्हाई मैंने 

एक मुहब्बत मुझमें शोलाज़न रहती थी  
ख़ैर फिर इक दिन आग से आग बुझाई मैंने 

खुद को राज़ी रखने की हर कोशिश करके 
आखिर अपने आप से जान छुड़ाई मैंने 

मेरी पूँजी और थी , मेरे ख़र्च अलग थे 
ख़्वाब कमाए मैंने ,नींद उड़ाई मैंने 

सऊद साहब की शायरी के प्रति इस दीवानगी के चलते ही उन्हें ये मुकाम हासिल हुआ कि आज पाकिस्तान में ही नहीं बल्कि दुनिया के हर उस गोशे में जहाँ उर्दू शायरी समझी जाती है लोग उनको पढ़ना सुनना पसंद करते हैं। उनकी शायरी से रूबरू होते हुए 'अहमद नदीम क़ासमी'साहब की उनके बारे में कही ये बात ज़ेहन में आ जाती है वो फरमाते हैं कि "जब ग़ज़ल विधा से ऊब चुके लोग मुझसे ये कहते हैं अब इस विधा में कहने को कुछ नहीं रहा तो मैं उनको मशवरा देता हूँ कि वो सऊद अशरफ़ उस्मानी को पढ़ लें क्यूंकि उसने ग़ज़ल के जिस्म में नयी जान फूंकी है।"  इस नए पन के कारण ही उनके पहले ग़ज़ल के मुज़मुए "कौस"को 1997 में पाकिस्तान प्राइम मिनिस्टर अवार्ड ,2006 में दूसरे मज़मुए "बारिश"को अहमद नदीम क़ासमी अवार्ड और 2016 में तीसरे मज़मुए "जलपरी"को भी ढेरों अवार्ड हासिल हुए हैं। शायरी के वो प्रेमी जो उर्दू लिपि पढ़ नहीं सकते अब उनकी चुनिंदा ग़ज़लों को देवनागरी में   'राजपाल एंड संस 'द्वारा प्रकाशित किताब "सरहद के आर-पार की शायरी"श्रृंखला में पढ़ सकते हैं। इस किताब में उनके साथ लाजवाब भारतीय शायर मरहूम 'रऊफ रज़ा 'साहब की ग़ज़लें भी संकलित हैं। किताब का संपादन देश के प्रसिद्ध शायर और शायरी के बेहतरीन जानकार जनाब 'तुफैल चतुर्वेदी 'साहब ने किया है। सऊद साहब की तीनों ग़ज़ल की किताबों से 85 ग़ज़लें छाँटना आसान काम नहीं था लेकिन तुफैल साहब ने जिस खूबी से इसे अंजाम दिया है उसके  लिए उनकी जितनी भी तारीफ की जाय कम है। आज हम इस किताब का सिर्फ आधा हिस्सा, याने जो सऊद साहब की शायरी का है , ही आपके सामने लाये हैं।   

दिल की अपनी ही समझ होती है 
जो फ़क़त ज़हन हैं, वो क्या समझेंं 

एक भूली हुई ख़ुश्बू मुझसे 
कह रही है मुझे ताज़ा समझें 

बात करते हुए रुक जाता हूं 
आप इस बात को पूरा समझें 

दिल को इक उम्र समझते रहे हम 
फिर भी इक उम्र में कितना समझें

आप इस किताब के संकलनकर्ता जनाब तुफैल चतुर्वेदी जी की व्यक्तिगत सोच या उनके और किसी भी दृष्टिकोण से भले मतभेद रखें लेकिन उनकी इस बात को झुठलाने की आपको कोई वज़ह नहीं मिलेगी कि "हमारे समय की शायरी पुराने उस्तादों से कहीं आगे की, ताज़ा और बेहतर है। आज के शायर हर एतबार से हर हवाले से बहुत अच्छे और नए शेर कह रहे हैं। कोई भी कसौटी तय कर लीजिये आप पाएंगे कि ये माल खरा सच्चा और चोखा है। इनके काम  फीकापन नहीं है. इसके लिए ये लोग भी ज़िम्मेदार हैं कि फ़ीके ,बेस्वाद बल्कि बदज़ायका अशआर का पहाड़ नहीं लगाते बल्कि अपने क़लाम को काटते छांटते हैं ,न सिर्फ अच्छा कहते हैं बल्कि सिर्फ अच्छा क़लाम  मन्ज़रे-आम पर लाते हैं" इस बात को समझने के लिए आपने जो अब तक अशआर पढ़ें वो अगर काफ़ी नहीं हैं तो लीजिये पढ़िए सऊद साहब के कुछ मुख़्तलिफ़ अशआर :
      
उस पेड़ का अजीब ही नाता था धूप से 
खुद धूप में था सबको बचाता था धूप से 
***
सांस में रेत की लहरें करवट लेती हैं 
अब मेरे लहज़े में सहरा बोलता है 
***
हम ऐसे लोग तो अपने भी बन नहीं पाते 
सो खूब सोच-समझ कर कोई हमारा बने 
***
लेकिन उनसे और तरह की रौशनियां सी फूट पड़ीं 
आंसू तो मिलकर निकले थे आँख के रंग छुपाने को 
***
कहीं कुछ और भी हो जाऊँ न रेज़ा-रेज़ा 
ऐसा टूटा हूँ कि जुड़ते हुए डर लगता है 
***
दिल से तेरी याद उतर रही है 
सैलाब के बाद का समां है 
***
कभी-कभी मिरे दिल में धमाल पड़ती हुई 
कभी-कभी कोई मुझमें मलंग होता हुआ 
***
मैं इक शजर से लिपटता हूँ आते जाते हुए 
सुकूँ भी मिलता है मुझको दुआ भी मिलती है 
***
वो तितलियों के परों पर भी फूल काढ़ता है 
ये लोग कहते हैं उसकी कोई निशानी नहीं 
***
ये तुम जो आईने की तरह चूर-चूर हो 
तुमने भी अपनी उम्र को दिल पर गुज़ारा क्या   

सऊद साहब शायरी करते नहीं जीते हैं शायरी उनके लिए मश्गला याने टाइम पास करने की चीज नहीं ज़िंदगी गुज़ारने का तरीका है. वो कहते हैं कि अपनी ग़ज़लों का पहला पाठक मैं ही होता हूं और जिस शेर पर मेरे मुंह से वाह नहीं निकलती उसे तुरंत खारिज ही नहीं करता बल्कि उसको तब तक सुधारता रहता हूं जब तक वह मुझे पसंद नहीं आ जाता. इनका मानना है कि इंसान को शायरी से मोहब्बत होनी चाहिए, जरूरी नहीं कि आप शायरी ही करें अगर आप शायरी पढ़ते हैं तो भी आपकी शख्सियत पर उसका असर पड़ता है आप एक बेहतरीन इंसान ही नहीं बनते आपका सेंस ऑफ ह्यूमर भी सुधरता है. पाकिस्तान के संपन्न घराने से ताल्लुक रखने वाले सऊद साहब का प्रकाशन का बड़ा व्यवसाय है 
चलते चलते उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाता चलता हूँ:

 वो गोरी छांव में है और सियाह धूप में हम 
तो उनका हक़ है, उन्हीं का जलाना बनता है 

ख़िरद के आढ़तियों को यह इल्म ही तो नहीं
कि खूब सोच समझकर दिवाना बनता है 

खुदा को मानता और दोस्त जानता हूं 'सऊद' 
और आजकल ये चलन क़ाफिराना बनता है

आखिरी में एक ज़रूरी बात करनी रह गई किताबों की दुनिया अब सिमटती जा रही है ।कभी लोगों के हाथों में रहने वाली किताबें अब धीरे-धीरे अलमारियों में बंद दम तोड़ रही हैं और वहां से भी गायब हो रही हैं. उनकी जगह मोबाइल, लैपटॉप और किंडल पर इ- बुक ने ले ली है. इसमें कोई बुराई नहीं, क्योंकि तकनीक आपको यह सुविधा देती है कि आप चाहे जितनी किताबें अपने साथ लिए जहां चाहे वहां ले जा सकते हैं.  शायद आने वाली पीढ़ी किताब से निकलने वाली खुशबू और वर्क पलटने से उपजे संगीत को कभी नहीं जान पाएगी. 
सऊद साहब का एक शेर, जिसे मेरी तमन्ना है कि कभी सच ना हो, पेश है :

कागज की ये महक ये नशा रूठने को है 
ये आखिरी सदी है किताबों से इश्क की

किताबों की दुनिया -209/2

(ये पोस्ट भाई 'मनोज मित्तल , इरशाद खान सिकंदर और गोविन्द गौतम के सहयोग के बिना संभव नहीं थी )

  
जिसे भी देखो हमारी तरफ ही देखता है 
इसी ख्याल ने दुश्वार कर दिया हमको
***
अजब सुरूर है खुद को गले लगाते हुए 
ये मेरे साये मिरे बाजूओं में आते हुए
***
मेरे लिए तो मेरे अश्क काफी होते हैं 
सितारे तोड़ने जाता हूं बस्तियों के लिए
***
किसी भी हाल में उससे जुदा नहीं होना 
बिगाड़ता हूं तबीयत अगर संभलती है
***
गेंद के आगे पीछे भागता रहता हूं 
रोज मेरा मैदान बड़ा हो जाता है 
***
सबसे लड़ लेता हूं अंदर-अंदर 
जिसको जी चाहे हरा देता हूं
***
काश आवाज़ को तस्वीर किया जा सकता 
एक ही लय में हुए झील का पानी और मैं
***
मुस्कुराओ मियां आदमी की तरह 
इतनी शिद्दत भी क्या आंख हंसने लगे
***
सुनो यह शोर अच्छा लग रहा है 
किसी मकतब में छुट्टी हो रही है 
मकतब: पाठशाला
***
अब नई तरकीब सोची जाएगी 
इन लबों से मुस्कुराए जा चुके
***
ख़सारे जितने हुए हैं वो जागने से हुए 
सो हर तरफ़ से सदा है कि जा के सो जाओ 
ख़सारे: घाटा 
***
वो ये कहते हैं सदा हो तो तुम्हारे जैसी 
इसका मतलब तो यही है कि पुकारे जाओ

अब एक दिसंबर की रात है तो ठण्ड तो होगी ही, वक्त भी तो देखो रात के ग्यारह बजे हैं और मैं पुरानी दिल्ली के चितली कबर चौक में चाय की दुकान ढूंढ रहा हूँ .मुझे किसी ने बताया था कि मियां अगर दिल्ली के शायरों से मिलना है तो पुरानी दिल्ली चले जाओ वहां जामा मस्जिद के पास चितली कबर चौक में किसी चाय की दुकान में आपको महफ़िल जमी मिलेगी। मैं चल पड़ा। यहाँ चौक के आसपास खूब दुकानें हैं और अच्छी ख़ासी भीड़ भी। किसी से पूछा कि जनाब वो चाय की दुकान कहाँ है जहाँ देर रात शायरों की महफ़िल जमती है? तो एक ने इशारा कर के बताया उधर। जब उधर थोड़ा बढ़ा ही था कि सामने की दुकान पे लगे बोर्ड पर नज़र गयी "सुलेमान टी स्टाल". ये एक छोटा सा रेस्टॉरेंट था जिसमें कुल जमा छै टेबल थीं और हर टेबल पर चार लोगों के आमने सामने बैठने की कुर्सियां रखी थी। रेस्टॉरेंट खाली था, सिवा एक कोने को छोड़ कर जहाँ पांच छै लोग बैठे बतिया रहे थे चाय के खाली गिलास सबके सामने पड़े थे. मैं उनके पास गया और बोला क्या आप लोग शायर हैं? मैं आप लोगों से मिलने आया हूँ. सब मुझे हैरत से देखने लगे.उनमें से जो सबसे बुजुर्ग थे उन्होंने मुझे बैठने का इशारा किया और कहा देखो बरखुरदार मैं इक़बाल फ़िरदौसी हूँ,  मेरा हारमोनियम के पार्ट्स बनाने का काम है , ये मुनीर हमदम है और इ-बुक्स पब्लिश करता है, ये जावेद मुंशी है 'सियासी तक़दीर'अखबार का जनर्लिस्ट है, ये जावेद नियाज़ी है इसका रबर का व्यापार है और फिर एक लम्बे बालों वाले शख्स की ओर देख कर बोले ये जनाब इंटीरियर डिज़ायनर हैं और इनका नाम ---तभी उस शख्स ने बात बीच में काटते हुए कहा 'छोडो भी इक़बाल साहब नाम में क्या रखा है इनके लिए पहले चाय मंगवा लें "ये कह कर उन शख्स ने अपने लम्बे बालों पे हाथ फेरा सामने रखे 'हावड़ा बीड़ी'के पैकेट से बीड़ी निकाली, सुलगायी और गहरा कश लेकर ढेर सा धुआं फ़िज़ा में बिखराते हुए हाथ से किसी को चाय लाने का इशारा किया । इक़बाल साहब ने लम्बे बालों वाले सज्जन के हाथ से बीड़ी छीन कर ऐश ट्रे में मसलते हुए कहा 'बस भी करें, आप इन दिनों बीड़ी ज्यादा नहीं पीने लगे ? दुनिया से भले बग़ावत करो लेकिन डाक्टर की सलाह से नहीं।'लम्बे बालों शख्स ने मुस्कुराते हुए फिर से बीड़ी सुलगाई गहरा कश लिया और बोले 'मुझे क्या होना है'           

हर सदी को इक नया ग़मशनास चाहिए 
मोम का बना हुआ धूप में खिला हुआ 

रोशनी दिखाई दे चाप तो सुनाई दे 
इक किवाड़ आदतन रखता हूं खुला हुआ 

आज कल की ज़िंदगी जी सको तो बात है 
जैसे क़तरा ओस का घास पर टिका हुआ

 मैंने शर्मिंदा होते हुए उन सबसे कहा 'मुआफ कीजिये, मैंने आप लोगों को डिस्टर्ब किया दरअसल मुझे किसी ने बताया था कि यहाँ रोज रात दिल्ली के शायर आपस में मिलते हैं आपस में सुनते सुनाते हैं तो मैं उन्हें ढूंढने चला आया । आप लोग अपनी गुफ़्तगू जारी रखिये मैं चलता हूँ। इक़बाल साहब हाथ पकड़ कर मुझे बिठाते हुए बोले 'बैठो मियां अब आ गए तो चाय पी कर चले जाना ,ठण्ड में मज़ा आएगा'। मैं जावेद साहब की बगल में बैठ गया वो मेरे कंधे पे हाथ रख कर बोले ' जिस किसी ने आपको यहाँ के बारे में बताया है उस बन्दे को दुआ देता हूँ कि किसी ने तो शायरों के लिए एक श्रोता भेजने की इनायत की'  उनकी इस बात पर सब ने जोर का ठहाका लगाया। 'दरअसल हम सब लोग अलग अलग काम करके अपने पेट की ख़ुराक का इंतज़ाम करते हैं लेकिन हम सब के पेट के अलावा ये कमबख़्त दिमाग़ भी ख़ुराक मांगता है ,इसलिए यहाँ इकठ्ठा होते हैं। तुम ने सही सुना 'हम शायरी भी करते हैं और यहाँ एक दूसरे को सुनते सुनाते हैं '.मुनीर साहब बोले और अपनी एक नज़्म सुनाने लगे. इसी बीच चाय आ गयी। काली कड़क मीठी। चाय ने जादू सा कर दिया सब पर और सभी बारी बारी से अपनी शायरी सुनाने लगे। मैंने झूम झूम कर दाद देते हुए कहा सुभानअल्लाह क्या शायरी है। इक़बाल साहब ये सुन कर बोले जनाब शायरी क्या है इनसे सुनें और फिर बीड़ी पीते शख्स से बोले 'रऊफ'साहब अता हो. तब मुझे पता लगा कि ये मेरे सामने बैठा शख़्स उर्दू का मशहूर शायर 'रऊफ रज़ाहै'. रऊफ साहब ने बीड़ी का एक जोर का कश लिया और बोले सुनो मियां शायरी क्या है :

ये जानता हूं कि अगली सीढ़ी पे चांद होगा 
मैं एक सीढ़ी उतर रहा हूं, ये शायरी है 

ख़ुदा से मिलने की आरजू थी वो बंदगी थी 
ख़ुदा को महसूस कर रहा हूं, ये शायरी है 

शरीर बच्चे ने आंसुओं की जुबां पकड़ ली 
मैं उसके लहजे से डर रहा हूं, ये शायरी है 

वो कह रहे हैं बुलंद लहजे में बात कीजे 
मैं हार तस्लीम कर रहा हूं, ये शायरी है 

वाह वाह के शोर से रेस्ट्रोरेंट की दीवारें हिलने लगीं। ये दौर रात दो बजे तक चलता रहा। मेरा तो दिन बन गया या कहूं रात गुलज़ार हो गयी । अब तक मैंने सबके मोबाईल नंबर ले लिए थे और उन सब ने मेरा। वक्ते रुख़सत मैंने कहा किसी को कहीं छोड़ना हो तो मैं छोड़ देता हूँ वहां कोने में मेरा स्कूटर खड़ा है। इकबाल साहब बोले 'आप रऊफ मियां को गली मेम साहब तक छोड़ दें'. रऊफ साहब ने मना कर दिया बोले 'बीस मिनट का ही तो रास्ता है बस दो बीड़ी पीते पीते कट जाएगा'. मैं चला जाऊंगा . मुझे क्या पता था वो वाकई चले जायेंगे। वो चले गए। सुबह 9 बजे इक़बाल साहब का फोन आया रुंधे गले से बोले 'मियां, रऊफ हमें छोड़ कर चला गया ' मैं समझा नहीं बोला 'कहाँ ? कहाँ चले गए ?'जवाब में इक़बाल साहब के सिसकने की आवाज़ आयी। 'कैसे कब ?'मैंने पूछा। 'सुबह 8 बजे मैसिव हार्ट अटैक आया संभल ही नहीं पाये , सुबह अच्छे से उठे थे चाय बनाई पी फिर सुबह फ़ज्र की नमाज़ घर में ही पढ़ी जबकि रोज पास की मस्जिद 'सय्यद रिफाई'में जाया करते थे. बेग़म ने पूछा क्या हुआ ख़ैरियत तो है आज आप ने नमाज घर में पढ़ी तो मुस्कुराते हुए बोले 'मुझे क्या होना है? मैं अभी हम दोनों के लिए फिर से चाय बना कर लाता हूँ , चाय बनी उन्होंने पी या नहीं, ये तो पता नहीं बस उसके थोड़ी देर बाद ही उन्हें अटैक आया और वो इस दुनिया को छोड़ गए।'ये सुनकर मुझे समझ ही नहीं आया कि मैं क्या कहूँ.    
        
भीड़ है जश्ने हुनर जारी है 
कुछ न कहने में समझदारी है 

हम वही उम्र गुजारेंगे जहां 
सांस लेने में भी दुश्वारी है 

कुछ नहीं कुछ नहीं कुछ भी तो नहीं 
बस कहीं और की तैयारी है

हम सब कहीं ओर चलने की तैयारी में ही तो ज़िन्दगी गुज़ार देते हैं कुछ समय से पहले निकल लेते हैं कुछ इंतजार में रहते हैं लेकिन किस ओर चलने की तैयारी है ये पता अभी तक नहीं लग पाया. जो गया उसने कभी किसी को बताया ही नहीं कि वो किधर गया।  ये दार्शनिक बातें कोई नयी तो है नहीं फिर क्यों न इन्हें यहीं छोड़ वापस रऊफ साहब की ओर लौटें ? रऊफ रज़ा साहब के इन्तेकाल के बाद ऐवाने ग़ालिब में उनकी याद में एक प्रोग्राम हुआ जिसमें 'फ़रहत एहसास, साहब ने कहा " मौत ने अपना काम कर दिया अब ज़िन्दगी को अपना काम करने दीजिये --रऊफ की मौत का जो मुझे दुःख है वो ये कि उन्हें भरी बहार में उठाया गया। इस वक्त वो अपनी शायरी के उरूज़ पर थे --खूब ग़ज़लें कह रहे थे--"  

हाथों में नब्ज़े वक्त है आंखों में आसमान 
लेकिन ये मेरे पांव से लिपटी हुई जमीन 

मेरी कलंदरी मेरे बच्चों में आ गई 
गुलज़ार हो गई मेरी सींंची हुई जमीन 

फिर यह हुआ कि चूल्हा जलाने में जल गई 
दोनों के काग़ज़ात में लिखी हुई जमीन

चलिए बात शुरू से शुरु की जाए. रऊफ़ रज़ा का जन्म सन 1954 में अमरोहा में हुआ था। उनका पैतृक मकान अमरोहा के बड़ी बेगम सरा में था।परिवार 1955 के आसपास दिल्ली आ गया और वही का होकर रह गया।
उनकी प्रारंभिक शिक्षा मदरसा करीमिया में हुई उसके बाद रऊफ़ रज़ा ने अलीगढ़ से अदीब फाज़िल और अदीब कामिल के इम्तिहान पास किए। इसके कुछ साल बाद उन्होंने आगरा यूनिवर्सिटी से उर्दू में एम.ऐ. की डिग्री हासिल की। इसके आगे भी वो पढ़ना चाहते थे लेकिन हालात माकूल नहीं बन पाए तो नहीं पढ़ पाये.

ये आंखें बंद किए किस तरफ पड़े हो तुम 
इसी तरफ़ से तो सैलाब की निकासी है 

यक़ींं के जोश में अपना क़सीदा लिख डाला 
मैं खुदशनासी को समझा ख़ुदाशनासी है 
खुदशनासी:खुद को पहचानना ,ख़ुदाशनासी: ईश्वर को पहचानना

इन्हीं दिनों तेरी क़दआवरी के चर्चे हैं 
इन्हीं दिनों तेरे चेहरे पर बदहवासी है
क़दआवरी: ऊंचाई

उनकी शायरी के सफ़र की शुरुआत 1975 के आसपास शुरू हुई और उन्होंने अपना नाम रज़ा अमरोहवी रखा लेकिन इसी नाम के एक शायर के अमरोहा में होने की जानकारी मिलने के बाद उन्होंने अपना क़लमी नाम रऊफ़ रज़ा कर लिया।शायरी के सफ़र की शुरुआत में उन्होंने एक वरिष्ठ शायर और अरूज़ के जानकार जनाब इफ्तेख़ार अल्वी से परामर्श लिया लेकिन यह सिलसिला अधिक दिन नहीं चल पाया।70 के दशक में नए शायरों ने किताबों को पढ़ना और नए विचारों को अपनी गजलों में जगह दे रहे शायरों का अनुसरण करना शुरू कर दिया और इसे उस्ताद शागिर्द की परंपरा पर तरजीह दी। इस अमल से शायरी का एक नया रूप निखरता चला गया और रऊफ़ रज़ा की शायरी भी इसी रौशनी में परवान चढ़ी।

उनकी शुरुआती शायरी रिवायती रही लेकिन जल्द ही वह जदीद ग़ज़ल की तरफ मुड़ गए।

प्यासा है तो प्यास दिखा 
तू कोई पैग़ंबर है 

मैं कैसे मर सकता हूं 
कितना कर्जा़ मुझ पर है 

अच्छी है बारिश लेकिन 
छत पर एक कबूतर है

रऊफ़ साहब की 1980 में शादी हुई, पहले सब कुछ ठीक चला और फिर धीरे-धीरे घर की माली हालत बद से बदतर होती चली गई। काम मिलना बंद हो गया। फाकाकशी की नौबत आ गई ।1988 में उनके एक दोस्त ने उन्हें अपने परिचित के यहां उड़ीसा में मार्बल चिप्स बनाने वाली कंपनी में सुपरवाइजर की पोस्ट पर लगवा दिया। आप ही बताएं जो इंसान संगमरमर के पत्थरों से ताजमहल तामीर करने की कुव्वत रखता हो उसे संगमरमर को चूरा करने के काम पर लगा दिया जाए तो कैसा लगेगा ? लिहाजा दिल ने बगा़वत करनी शुरू कर दी। दिल के साथ यही समस्या है, कभी दुनिया तो कभी दिमाग उसे दबाने में लगे रहते हैं।उसे अपनी करने ही नहीं देते। जिनका दिल दबा रह जाता है वो लोग घुटन के अंधेरों में खो जाते हैं लेकिन जिनका दिल अंगड़ाई लेकर बगावत कर देता है वो दुनिया और दिमाग की कैद तोड़कर ऐसा करिश्मा करते हैं कि दांतों तले उंगलियां दबानी पड़ती हैंं 
तो हुआ यूं कि हज़रत 3 साल बाद दिल की सुनकर याने1991 में उड़ीसा की लगी लगाई नौकरी छोड़ वापस दिल्ली लौट आए और फिर से इंटीरियर डेकोरेशन का काम शुरू कर दिया, जो चल निकला। यूं समझें घने कोहरे के बाद धूप निकलने लगी

हाय वह शख़्स जो मायूस मेरे घर से गया 
अपनी तनहाइयां रखने के लिए आया था
***
मैं जी उठा, मैं मर गया दोबारा जी उठा 
ये सारी वारदात ज़रा देर की है बस
***
मेहरबानो! मेरी आवाज ज़रा धीमी है 
मैं बहुत चीख़ने वालों में उठा बैठा हूं
***
काम ही काम है बस काम ही काम 
कुछ तो बर्बादी-ए-लम्हात करो
***
कुछ नया करके गुज़ारी जाए 
वरना ये उम्र गुजारी हुई है

1997 में उन्हें जबरदस्त दिल का दौरा पड़ा और इसके बाद डिप्रेशन ने भी उन्हें घेर लिया। लेकिन इन मुश्किल हालात में भी उन्होंने कई अच्छे शेर कहे।उनकी ग़ज़लों, आजाद और मुअर्रा नज़्मों और कुछ हाइकु का पहला संकलन 'दस्तकें मेरी' 1999 में प्रकाशित हुआ। 2007 में सोशल मीडिया से जुड़ने के बाद  रज़ा की सीमित दुनिया को नया विस्तार मिला और उनके सुस्त हो रहे शायर को एक नई ऊर्जा मिली और लोगों ने उन्हें हाथों हाथ लिया। 2012 में अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियां पूरी कर लेने के बाद रज़ा का पूरा ध्यान शायरी पर केंद्रित हो गया और उनकी शायरी बेहतरीन होती चली गई।

यूं भी हो जाए कि बरता हुआ रास्ता न मिले 
कोई शब लौट के घर जाना जरूरी हो जाए
***
अब यह पथराई हुई आंखें लिए फिरते रहो 
मैंने कब तुमसे कहा था मुझे इतना देखो
***
काश आवाज को तस्वीर किया जा सकता 
एक ही लय में हुए झील का पानी और मैं
***
तोड़ा गया हूं ऐसा कि जुड़ता नहीं हूं मैं 
बस और देखभाल की हसरत नहीं मुझे
***
मैं भी मक़तल से निकल जाने को तैयार नहीं 
वो भी अच्छा कोई क़ातिल नहीं देता है मुझे

सब कुछ सही चल रहा था, शायरी अपने उत्कर्ष की ओर सफ़र कर रही थी और वो माने बैैैठेे थे कि अब 'मुुझे क्या होना है'तभी वो मनहूस रात आई जिसका जिक्र हम ऊपर कर चुके हैं .
उनके देहावसान के बाद दो हजार अट्ठारह में उनका एक अन्य संकलन "यह शायरी है"प्रकाशित हुआ।
हिंदी में पहली बार नौजवान शायर  'इरशाद खान सिकंदर 'साहब द्वारा उनकी ग़जलों के लिप्यांतरण को तुफैल चतुर्वेदी जी ने संपादित किया और राजपाल ने प्रकाशित किया। इस किताब का पहला भाग आप पिछली पोस्ट में पढ़ ही चुके हैं।


आखरी में उनकी एक ग़जल के ये अशआर भी पढ़वाता चलता हूँ

रौनक़े-शहर तो बस मुँँह की तका करती है 
वो उजाला किए रहती है कहानी मेरी 

जो़र इस बात पे था इश्क का क्या हासिल है 
वो हंसी छूटी कि आंखे हुई पानी मेरी 

तुम चले आओगे इंकार का सामान लिए 
आखिरी मोड़ से गुज़रेगी कहानी मेरी

किताबों  की दुनिया -210

उसने पढ़ी नमाज तो मैंने शराब पी 
दोनों को, लुत्फ़ ये है बराबर नशा हुआ
***
जरूरत है न जल्दी है मुझे मरने की फिर भी 
मेरे अंदर बहुत कुछ चल रहा है खुदकुशी सा
***
जादू भरी जगह है बाजार, तुम न जाना 
इक बार हम गए थे बाजार होकर निकले
***
मैं शहर में किस शख्स़ को जीने की दुआ दूं 
जीना भी तो सबके लिए अच्छा नहीं होता
***
मुसाफिर हो तो निकलो पांव में आंखें लगाकर 
किसी भी हमसफर से रास्ता क्यों मांगते हो
***
तभी वहीं मुझे उसकी हंसी सुनाई पड़ी 
मैं उसकी याद में पलकेंं भिगोने वाला था
***
वो अक्लमंद कभी जोश में नहीं आता 
गले तो लगता है, आगोश में नहीं आता
***
अब तो ये जिस्म भी जाता नजर आता है मुझे 
इश्क़ अब छोड़ मेरी जान कि मैं हार गया
***
मैंने मकांँ को इतना सजाया कि एक दिन 
तंग आ के इस मकाँँ से मेरा घर निकल गया
***
दुहाई देने लगे सुब्ह से बदन के चराग़ 
हमें बुझाओ कि हम रात भर जले हैं बहुत

क्या उम्र रही होगी यही कोई 4 या 5 साल के बीच की। एक बच्चा नए कपड़े पहने, काँँधे पर छोटा सा बस्ता लटकाए अपने वालिद का हाथ पकड़े, डरता हुआ स्कूल जा रहा है। वालिद बार-बार समझा रहे हैं कि स्कूल बहुत अच्छी जगह है और वहां के उस्ताद फरिश्ते जैसे खूबसूरत और नरम दिल हैं जिन्हें बच्चों से सिवा प्यार करने के और कुछ नहीं आता। बच्चा मुस्कुराते हुए फ़रिश्ते का तसव्वुर करने लगता हैै । स्कूल जा कर देेेखता है कि उस्ताद, फरिश्ता तो दूर की बात है शैतान से भी खौफ़नाक नजर आ रहे हैं. बच्चे की डरके मारे घिग्घी बँध गई।उसे पहली बार पता लगा कि हक़ीक़त की दुनिया ख़्वाबों की दुनिया से कितनी अलग होती है। 
उस्ताद ने उस बच्चे को उस दीवार के पास बिठा दिया जिसमें एक बड़ी सी खिड़की थी। थोड़ी देर बाद बच्चे ने सामने देखा कि उस्ताद दरवाजे के बाहर खड़े किसी पर चिल्ला रहे थे, फिर उसने खिड़की की तरफ देखा और अगले ही पल बस्ते समेत बाहर कूद गया। घर जा नहीं सकता था लिहाज़ा स्कूल की छुट्टी के समय तक बाहर ही घूमता रहा।बाहर की दुनिया स्कूल की दुनिया से कितनी अलग थी, हवा से हिलते पेड़, फुदकते चहचहाते परिंदे, कितने ही रंगों में खिले फूल और उन पर नाचती तितलियां देखते-देखते कब सुबह से शाम हो जाती उसे पता ही नहीं चला। 
ये सिलसिला महीनों चलता रहा।खेत खलिहान ओर वीरान पगडंडियों पर चलते हुए इस बच्चे ने कुदरत से जो सीखा वो स्कूल की चारदीवारी में बंद बच्चे कभी नहीं सीख पाते 

तुमको रोने से बहुत साफ हुई हैं आंखें 
जो भी अब सामने आएगा वो अच्छा होगा 

रोज़ ये सोच के सोता हूं कि इस रात के बाद 
अब अगर आँँख खुलेगी तो सवेरा होगा 

क्या बदन है कि ठहरता ही नहीं आँँखों में 
बस यही देखता रहता हूं कि अब क्या होगा

 बहराइच उत्तर प्रदेश के एक मुस्लिम परिवार में 25 दिसंबर 1952 को जन्मे इस बच्चे का नाम रखा गया था 'फरहतुल्लाह खाँ'जो आज उर्दू शायरी की दुनिया में 'फ़रहत एहसास'के नाम से जाना जाता है। घर का माहौल मज़हबी जरूर था लेकिन उसमें कट्टरपन नहीं था। जवानी में मुस्लिम लीगी रहे उनके वालिद अपने सभी बच्चों को रामलीला दिखाने ले जाते थे। आज के दौर में इस बात पर शायद किसी को यकीन ना आए लेकिन हक़ीक़त यही है कि मज़हब को लेकर आम लोगों के दिलों में तब इतनी कटुता नहीं थी जितनी कि आज है । आज हम 'फ़रहत एहसास'की देवनागरी में छपी किताब 'क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा'की बात किताबों की दुनिया श्रृंखला की इस कड़ी में करेंगे। सबसे पहले बता दूं कि किताब का टाइटल मीर तक़ी मीर साहब के मशहूर शेर 'मीर के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो , क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया' (क़श्का़ खींचा अर्थात तिलक किया) से लिया गया है, और इस शेर की झलक पूरी किताब में नज़र आती है।


तुम अपने जिस्म की कुछ तो चराग़ गुल कर दो 
मैं, रौशनी हो ज़ियादा तो सो नहीं सकता
***
 मैं तो आया हूंँ लिबासों की ख़रीदारी को 
और बाज़ार ये कहता है कि नंगा हो जाऊं
***
कभी नीचा रहा सर और कभी छोटे रहे पांव 
मैं भी हर बार कहांँ अपने बराबर निकला
***
छाँव पहले से भी बहुत कम है 
पेड़ जब से घने हुए हैं बहुत
***
छिड़कने पड़ती है खुद पर किसी बदन की आग 
मैं अपनी आग में जब भी दहकने लगता हूं
***
चादर पे इक भी दाग नहीं क्या अज़ाब है 
इक उम्र हो गई है कि हैंं जस के तस पड़े 
अज़ाब :मुसीबत
***
यह सांसे मिल्कियत तो मौत की हैं 
मुझे लगता है चोरी कर रहा हूं
***
जिन्हें चेहरा बदलना हो बदल लें 
मैं अब पर्दा उठाने जा रहा हूं
***
कहानी ख़त्म हुई तब मुझे ख़्याल आया 
तेरे सिवा भी तो किरदार थे कहानी में
***
और दुश्वार बना सकते हैं दुश्वार को हम 
लेकिन आसान को आसान नहीं कर सकते

चलिए बात वहीं से शुरू करते हैं जहां छोड़ी थी फ़रहतुल्लाह खाँँ अब उम्र के उस दौर में हैं जब कुदरत बिना मज़हब, रंग, देश देखे इंसान की आंखों पर ऐसा चश्मा लगा देती है जिससे उसे सब कुछ गुलाबी दिखाई देने लगता है। फ़रहत साहब लिखते हैं कि "बात नौ-बालगी (किशोरावस्था) से कुछ पहले की उम्र के लड़के की है जो पहली बार एक लड़की के चेहरे पर खून की दमकती खुशबू की चकाचौंध से हैरत और हसरत जुदा है। ये हुस्न के एक मक़्तब (स्कूल) की तरह खुलने, जिस्म के दिल बनकर धड़कने और इश्क़ की पैदाइश का लम्हा था."ये चश्मा किसी के चेहरे से नून तेल लकड़ी के चक्कर में जल्द ही उतर जाता है तो कोई इसे फ़ितरतन उतार फेंकता है। फ़रहत साहब पर ये चश्मा अब तक चढ़ा हुआ है तभी उनके ढेरों अशआर आज भी गुलाबी रंग में रंगे मिलते हैं। 
अपनी शायरी के आगाज़ के सिलसिले में वो लिखते हैं कि " घर में शायरी का माहौल दूर दूर तक नहीं था ।शायरी मेरे बाहर कहीं नहीं थी, जो भी थी अंदर ही रही होगी जो एक दिन अचानक एक झमाके से ज़ाहिर हुई। 1967 की गर्मियों में, जब मेरा दूसरा बाकायदा इश्क़ चल रहा था, यूँ ही बैठे बैठे दो बराबर के मिसरे जहन में कौंधे।ये अहसास कि मुझ में कुछ बज रहा है जो लफ़्ज़ों में ढाला जा सकता है मेरे लिए एक ऐसा इन्किशाफ़ (प्रगट होना) था जिसका सिलसिला आज तक जारी है।

खुदा खामोश बंदे बोलते हैं 
बड़े चुप होंं तो बच्चे बोलते हैं 

सुनो सरगोशियाँ कुछ कह रही हैं 
जबाँ बंदी में ऐसे बोलते हैं 

मोहब्बत कैसे छत पर जाए छुपकर 
क़दम रखते ही ज़ीने बोलते हैं 

हम इंसानों को आता है बस इक शोर 
तरन्नुम में परिंदे बोलते हैं

सभी मज़हब के दोस्तों से दोस्ती निभाते, कबीर, सूर, तुलसी, रसखान और जायसी पढ़ते हुए उनकी रूह कलंदर सूफियों वाली हो गई। इस किताब को पढ़ते वक्त आपको कबीर की याद ना आए ऐसा हो ही नहीं सकता। ये कलंदरी शायद उन्हें अपनी मां के नाना के भाई से भी मिली हो सकती है जो वाकई कलंदर थे और साल में एक बार ऊंट पर सवार अपने पीछे ढोल ताशे बजाते मुरीदोंं का मजमा लिए बहराइच आया करते थे।
ये कलंदरी ही है जो उन्हें बाजार तक आने से रोकती  है। वो लिखते हैं कि "गाहे-बगाहे मुशायरे में मजबूरन या अपनी सी महफिल हो तो ब-रज़ा-ओ-रग़्बत( अपनी मर्जी से )शरीक हो जाता हूं। बेशतर( अधिकतर) एक फ़र्ज़ ए किफ़ाया (दूसरों की ओर से अदा किए जाने वाला कर्तव्य) की अदायगी के लिए ।" उनके नज़दीकी लोगों में आप बजाए उनकी हम उम्र के वो नौजवान ज्यादा देखेंगे जिनकी जिंदगी शायरी के इर्दगिर्द घूमती है।
हैरत की बात है कि आज के इस दौर में 'थोथा चना बाजे घणा'कहावत को चरितार्थ करते हुए जहाँ लोग अपने आपको प्रमोट करने और स्वगान में जी जान से लगे हुए हैं वहीं ये बच्चा जो अच्छा खासा बड़ा हो चुका है हमेशा उस खिड़की की तलाश में रहता है जिससे कूद कर वो फिर से अपनी मस्ती की दुनिया में जा सके ।यही कारण है कि बेहतरीन शायर होने के बावजूद आप सोशल मीडिया पर इंटरव्यू तो छोड़िए उनके शायरी पेश करते हुए अधिक वीडियो नहीं देख पाएंगे।

तुम जो तलवार लिए फिरते हो दुनिया के खिलाफ 
काश ऐसा हो कि आप अपने मुक़ाबिल हो जाओ
***
बहुत मिठास भी बे-ज़ाइक़ा सी होने लगी 
वो खुश-मिज़ाज किसी बात पे ख़फ़ा भी तो हो
***
कुछ मर गए कि उनको पहुंचना न था कहीं
और कुछ कहीं पहुंचने की जल्दी में मर गए
***
हजार भेष बदल लें मगर रहेंगे वही 
जो कह रहे हैं नया आईना बनाया जाए
***
तेरे गुलाब में कांटे बहुत ज़ियादा हैं 
तुझे न भूलने देगा तेरा गुलाब मुझे
***
इसे बच्चों के हाथों से उठाओ 
ये दुनिया इस क़दर भारी नहीं है
***
मेरी बदसूरती मुकम्मल कर 
मेरे पहलू में आ हसीन मेरे
***
किनारे को बचाऊँ तो नदी जाती है मुझसे 
नदी को थामता हूँँ तो किनारा जा रहा है
***
मैं तो समझा था कि हम दोनों अकेले हैं मगर 
उसको छूते ही हमारे बीच ख़्वाहिश आ गई
***
छोटा-मोटा तो नुकसान उठाया कर 
कोई दिन तो दफ़्तर देर से जाया कर
***
सुनकर अक्सर दुनिया वालों की चीखें 
दूध उतर आता है मेरे सीने में

फ़रहत साहब मुहब्बत के शायर हैं. इंसान की इंसान से मुहब्बत के। लोग कहते हैं कि उनकी शायरी में जिस्म को बहुत अहमियत दी गई है. जयपुर में प्रभा खेतान फाऊंडेशन और रेख़्ता की ओर से आयोजित 2018 में 'लफ्ज़'ऋँखला के पहले प्रोग्राम में प्रसिद्ध शायर और कवि लोकेश कुमार सिंह 'साहिल'साहब से बातचीत करते हुए उन्होंने कहा था कि " जिस्म के रास्ते बड़ी दुश्वारियां पैदा कर दी गई हैं। जिस्म को जीन्स के साथ जोड़ दिया गया है। रूह एक कंडीशन है, जो अजर- अमर है। मगर इंसान को जीन्स से जोड़ दिया है। वो मेटाफर बन गया है। शायरी में शायर रूह का मेटाफर के रूप में इस्तेमाल करने लगा है। जब हम किसी से मुहब्बत करते हैं, पहली दफा उसके जिस्म से इश्क करते हैं। फिर आगे जाकर हमारी संवेदनाएं उनसे जुड़ती हैं। और फिर इंसान अपनी मुहब्बत को अपने तरीके से इंटरप्रेट करता है।"

तुम्हें उससे मोहब्बत है तो हिम्मत क्यों नहीं करते 
किसी दिन उसके दर पर रक़्स ए वहशत क्यों नहीं करते 
रक़्स ए वहशत: दीवानगी में किया जाने वाला नृत्य 

इलाज अपना कराते फिर रहे हो जाने किस-किस से 
मोहब्बत करके देखो ना मोहब्बत क्यों नहीं करते 

मेरे दिल की तबाही की शिकायत पर कहा उसने 
तुम अपने घर की चीजों की हिफ़ाज़त क्यों नहीं करते 

कभी अल्लाह मियां पूछेंगे तब उनको बताएंगे 
किसी को क्यों बताएं हम इबादत क्यों नहीं करते

इसी प्रोग्राम में उन्होंने अपने और आजके दौर की शायरी और उर्दू ज़बान के बारे में बहुत दिलचस्प बातें की जिसे पढ़ कर आप उनकी सोच को और अधिक समझने में शायद कामयाब हो जाए:
"मेरे अंदर शायरी हर वक्त चलती रहती है। वो मुसलसल है। मेरे लिए खुद को इंटरप्रेट करने का तरीका है। वो सारे एलीमेंट्स जिनसे मेरा जिस्म बना है, वो किसी बनी-बनाई शक्ल में नहीं जाते हैं। जिस्म का बहुत बड़ा समुद्र है, जिसे हम मौसिकी के चाक पर रखकर चलाते हैं। देश की आजादी के 20-25 सालों बाद उर्दू जुबान के साथ ज्यादती शुरू हुई। खासकर इसलिए क्योंकि उस जमाने के शायर मुशायरों में चिल्ला-चिल्ला कर, चेहरा बिगाड़ कर शायरी करने लगे। जैसे सब्जी बेचने वाले चिल्ला कर सब्जियां बेचता है। एक दौर वो भी आया जब भाषा का बड़े पैमाने पर कॉमर्शियलाइजेशन हुआ। डिमांड हुई तो सप्लाई होने लगी। भाषा का स्वरूप बदलकर उसे तोड़-मरोड़कर पेश किया। मानो एक तरह का मुस्लिम अफेयर शुरू हो गया हो। मगर पिछले 10 सालों में माहौल बदला है। अब पढ़े-लिखे आईआईटीयन उर्दू जुबां के साथ जुड़ रहे हैं।"

न होता मैं तो यह दुख भी ना होता 
यही तो सारा रोना है कि मैं हूँँ 

चलाता फिर रहा हूं हल जमींं में
कहीं इक बीज बोना है कि मैं हू्ँँ 

ये मेरा जिस्म ही क्या मेरी हद है 
ये मिट्टी का खिलौना है कि मैं हूँँ

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से शिक्षा प्राप्त फ़रहत एहसास साहब की इस किताब पर जनाब 'मुजी़ब क़ासमी'साहब ने यूँ लिखा है " फरहत एहसास के फिक्र-ओ-ख्याल के जावीए को कैद नहीं किया जा सकता. अगर उनके यहां रिंदो सर मस्ती है तो इश्क-ओ-मोहब्बत का इजहार भी. अगर उनके यहां शिव की शक्ति है तो पार्वती का हुस्न भी, उनके यहां बयान का जमाल है तो मौजू का जलाल भी. इस संग्रह में हयात और कायनात के मसले, समाजी भ्रम, तशद्दुद-जुल्म, हुस्न-दिलकशी की अक्कासी है. पाठकों के लिए यह मुफीद शेरी मजमूआ है।"
फ़रहत एहसास साहब और उनकी इस किताब पर जिसमें उनके 2500 से ज्यादा चुनिंदा अशआर हैं, एक पोस्ट में कैद नहीं किया जा सकता।
"रेख़्ता.ओराजी"को दुनिया की सबसे बड़ी उर्दू ज़बान की वैबसाइट बनाने के देखे जनाब"संजीव सरार्फ"के सपने को साकार करने के पीछे 'फ़रहत अहसास'साहब और उनकी रहनुमाई में काम कर रही पूरी टीम की मेहनत का कमाल है. 
  
ये किताब रेख़्ता बुक्स द्वारा प्रकाशित की गई है जिसे खुद संजीव सराफ़ साहब ने सालिम सलीम की मदद से संकलित किया है.इस किताब को आप अमेजन और रेख़्ता की वेबसाइट से खरीद सकते हैं।

पहले दरिया से सहरा हो जाता हूं 
रोते-रोते फिर दरिया हो जाता हूं 

तनहाई में इक महफ़िल सी रहती है 
महफ़िल में जाकर तन्हा हो जाता हूं

जिस्म पे जादू कर देती है वह आग़ोश 
मैं धीरे-धीरे बच्चा हो जाता हूँँ

फ़रहत साहब की शायरी पर बात ख़्तम करने के लिए उनके इस शेर का सहारा ले रहा हूँ जिसमें उन्होंने अपने और अपनी शायरी को यूँ जा़हिर किया है:

फ़रहत एहसास हूं बाकी रहूं फ़रहत एहसास 
तर्ज़ ए ग़ालिब, सुख़न ए मीर नहीं चाहता मैं



किताबों की दुनिया -211

 
(ये पोस्ट भाई अखिलेश तिवारी और जनाब लोकेश कुमार सिंह 'साहिल' जी के सहयोग के बिना संभव नहीं थी )

आज 'किताबों की दुनिया'की इस  शृंखला का आगाज़ पद्मभूषण जनाब "गोपीचंद नारंग"साहब की उस टिप्पणी से करते हैं जो उन्होंने प्रसिद्ध शायर 'प्रियदर्शी ठाकुर 'ख़याल'साहब की ग़ज़लों की किताब 'धूप, तितली, फूल'पर 'धर्मयुग'पत्रिका में बरसों पहले की गयी समीक्षा में की थी । उन्होंने लिखा कि "हमारा दुर्भाग्य है कि हम ऐसे युग को झेल रहे हैं जहाँ धरती के बंटवारे के साथ संस्कृति का भी बंटवारा हो रहा है । मेरा बरसों से ये मत है कि भाषाओं का धर्म नहीं हुआ करता । भाषा तो हर उस व्यक्ति की अपनी हो जाती है जो उसे चाहता है । जो भाषा के नाज़ उठाता है भाषा भी उसके नाज़ उठाती है । अफ़सोस की बात ये है कि अब भाषा को धर्म के साथ जोड़ दिया गया है । भाषा ही नहीं रंगों का भी विभाजन धर्मानुसार हो गया है । भाषा तो सम्प्रेषण का माध्यम है इसका धर्म से क्या लेना देना इसी तरह रंग तो ईश्वर ने सब के लिए बनाये हैं फिर क्यों उन्हें धर्म के साथ चस्पा करना ? अब ग़ज़ल को ही लें, इस विधा को भी एक भाषा और धर्म-विशेष की मिल्कियत माना जाने लगा है जबकि ऐसा है नहीं । 
 
ब-मुश्किल बचाया था चिंगारियों से,
घिरा है मगर अब चमन आरियों से

कभी कोई जयचन्द, कभी मीर जाफ़र 
भरा है ये इतिहास ग़द्दारियों से

सुनिश्चित है उसका पतन इस वतन में 
प्रशंसा सुनी जिसने दरबारियों से

हमारे आज के शायर 'जस्टिस शिव कुमार शर्मा 'हिंदी में आज से नहीं बरसों से ग़ज़लें कहते आ रहे हैं और साहित्य में अपनी धाक जमा चुके हैं। उनकी ग़ज़लों की किताब  'हिलते हाथ दरख़्तों के'तब प्रकाशित हुई थी जब वो 'कुमार शिव'के नाम से साहित्य जगत में विख्यात थे। चूँकि इस किताब की सभी ग़ज़लों की भाषा हिंदी है और इनमें उर्दू के बहुत कम शब्द हैं तो  सिर्फ इस बिना पर आप इन्हें 'हिंदी ग़ज़लों'का भले ही नाम दें लें लेकिन मेरी नज़र में ये सिर्फ़ ग़ज़लें ही हैं । जब उर्दू में कही ग़ज़लें 'उर्दू ग़ज़लें'नहीं कहलाती तो फिर हिंदी या मराठी या गुजराती या पंजाबी या ब्रज-भाषा में कही ग़ज़लें क्यों उस भाषा के नाम से सम्बोधित की जाती हैं ? ग़ज़ल अगर किसी भी भाषा में ग़ज़ल के निर्धारित व्याकरण के अंतर्गत कही जाती है तो वो ग़ज़ल ही कहलानी चाहिए। 
वैसे ये बहस का विषय हो सकता है और हमारा उद्देश्य यहाँ बहस नहीं बल्कि किताब खोलकर आपके सामने रखना है तो चलिए वो ही करते हैं :-    

   

नहीं था चाहे बदन पर लिबास लोगों के,
हुज़ूर आए तो बस्ती ने झंडियाँ पहनींं 
*
उदास देहरी है, गुमसुम है बंद दरवाज़े
ये एक घर का नहीं, क़िस्सा है ये घर-घर का 
*
सुख धुएँँ-सा दीखता चिमनी के ऊपर 
दुख तरल होकर सतह पर बह रहे हैं 
*
कितना अपनापन था, बोझिल मन से हमको विदा किया,
पीछे मुड़कर देखे हमने हिलते हाथ दरख़्तों के 
*
काँटे तो हँसते-हँसते सह लेता था,
उसने अब उँगली में फूल चुभाया है 
*
चट्टानों से फूट पड़े हैं,
हम जल के ऐसे निर्झर हैं 
*
ये रिश्ते ये नाते, ये अपने-पराए 
भरा है यह घर-बार व्यापारियों से 
*
जब से ये सावन आया है, वृक्ष हुए अनुशासनहीन,
युवा चांदनी ने जंगल में आना-जाना छोड़ दिया
*
मैं तो टूट चुका भीतर तक, मुझको तो परवाह न थी,
तुम तो फागुन के मौसम थे, तुमने क्यों दर्पण तोड़ा ?
*
बारिश में भीगी तो ख़ुशबू फैल गई,
हुआ देह पर जादू टोना मिट्टी का

 राजस्थान के कोटा शहर में 24 सितम्बर 1945 को जन्में जनाब 'शिव कुमार शर्मा'उर्फ़ 'कुमार शिव'का बचपन अभावों में गुज़रा । परिवार के सदस्यों के आपसी क्लेश के चलते उनके परदादा द्वारा स्थापित किया गया प्रिंटिंग का जमा-जमाया व्यवसाय धीरे धीरे उजड़ गया । पिता सीधे-सादे नेक दिल इंसान थे इसलिए परिवार में चल रहे षड़यंत्र के शिकार होने के बावजूद उन्होंने किसी का बुरा नहीं चाहा । माँ के दिए संस्कारों की वजह से कठिन  समय में उनमें कभी हीनता का भाव नहीं आया । उनकी माँ हमेशा अडिग चट्टान की तरह उन्हें हर मुश्किल में सम्बल देती रहीं । वो सोचते थे कि विपरीत परिस्थितियों में बिना निराश हुए वो पढ़-लिखकर इन अभावों को दूर कर लेंगे और अपनी इस सकारात्मक सोच के चलते उन्होंने ऐसा करके दिखाया भी ।  


गीली लकड़ी, चूल्हा-चौका चिमटा-बेलन और धुआँ,
भीगा अंजन, बजते कंगन, यह गोरा तन और धुआँ 

यादें पीहर की सुलगी हैं धधक उठी है सीने में,
आँखों से बाहर निकला है मन का चंदन और धुआं 

द्वार-द्वार पर कढ़े माँँडने आँँगन-आँँगन रंगोली,
कमरों में लेकिन मकड़ी के जाले, सीलन और धुआँ 

उनका इंजीनियर बनने का सपना तब टूट गया जब हाईस्कूल में उनके उतने अंक नहीं आये जो उन्हें विज्ञान और गणित विषयों में प्रवेश दिला सकते इसलिए हार कर उन्हें कॉमर्स विषय चुनना पड़ा । समझौते किये बिना जीवन जीना संभव नहीं था । लालटेन की रौशनी में पढ़ते हुए आख़िर उन्होंने 1964 में बी.कॉम डिग्री हासिल कर ली और चम्बल-प्रोजेक्ट के कार्यालय में कनिष्ठ लिपिक की नौकरी से अपना घर चलाने लगे । दिन में नौकरी और शाम को राजकीय महाविद्यालय कोटा में चलने वाली कानून की कक्षाओं में जाने लगे । आख़िरकार मेहनत रंग लायी और 1967 में राजस्थान बार काउन्सिल ने उन्हें एडवोकेट के रूप में मान्यता दे दी । ये सब लिखने का मक़सद सिर्फ़ उस शायर के संघर्ष को जानना और उससे प्रेरणा लेना है जिसकी किताब आज हमारे सामने है ।  
       
एक काग़ज़ आग से कुछ दूर है,
यूं समझ लो आग को आराम है

ज़िन्दगी भर ज़िन्दगी का क्रम यहाँ,
सुबह थी, दोपहर थी, फिर शाम है 

आजकल यारों तुम्हारी दोस्ती 
दुश्मनी का ही नया उपनाम है 

इससे पहले कि हम 'कुमार शिव'साहब के साहित्य पक्ष की और चलें यहाँ उनकी प्रतिभा का एक दृष्टान्त लिखना उचित लग रहा है । वकील बन कर कुमार शिव कोटा के एक प्रसिद्ध वकील  के चेंबर में काम सीखने लगे लेकिन जब 'कुमार शिव'को वकालत में आगे बढ़ने के अधिक मौक़े नहीं नज़र आये तो उन्होंने हिंदी में प्रथम श्रेणी में एम.ए. कर किसी सरकारी कॉलेज में व्याख्याता बनने का विचार किया । हिंदी विभागाध्यक्ष ने ये सोचकर कि एक कॉमर्स ग्रेजुएट जिसने हिंदी कभी पढ़ी नहीं एम.ए. कैसे करेगा ! लिहाज़ा उन्हें हिंदी में एडमिशन देने से मना कर दिया । भला हो प्रिंसिपल साहब का जिन्होंने सिर्फ़ इसलिए कि ये लड़का अपने कॉलेज की क्रिकेट टीम का कप्तान था ; उन्हें विभागाध्यक्ष के विरोध के बावजूद एडमिशन दे दिया । वकालत की ट्रेनिंग और हिंदी की कक्षाएं साथ-साथ चलने लगीं । आख़िर वही हुआ जिसका डर था वकालत की ट्रेनिंग के चलते एम.ए. की कक्षाएँ  छूटने लगी और उनकी अटेंडेंस फ़ाइनल परीक्षा में बैठने के स्तर से कम हो गयीं । 'कुमार शिव'साहब के विभागाध्यक्ष एवं प्रिंसिपल को दिए इस आश्वासन पर भरोसा कर कि वो परीक्षा में अवश्य उत्तीर्ण होकर दिखाएंगे ; उन्हें परीक्षा में बैठने दिया । परिणाम आने पर विभागाध्यक्ष हैरान रह गए जब 'कुमार शिव 'न केवल प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए बल्कि कक्षा में प्रथम भी रहे।         

आँखें पगडंडी पर रख दी दीया जलाया देहरी पर, 
तुमने मेरे इंतज़ार में क्यों लट में उलझाई रात ?

तुमने इस जीवन में सौंपे यादों के कुछ बीज हमें,
हमने आँखों के गमलों में इनसे ही महकाई रात 

पलकें हैं बोझिल-बोझिल और चेहरे पर सिंदूर लगा,
सुबह पूछती है सूरज से बोलो कहाँँ बिताई रात 

बड़े वकील के यहाँ ट्रेनिंग के दौरान रोज़ अदालतों के चक्कर और साथ ही हिंदी में एम.ए. फ़ाइनल की तैयारी चलती रही । आख़िरकार उन्होंने हिंदी से एम.ए. प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और वकालत को छोड़-छाड़ कर विश्वविद्यालय में व्याख्याता बनने के ख़्वाब देखने शुरू कर दिए लेकिन भाग्य को कुछ और ही मंज़ूर था । अचानक उनके हाथों एक दिन एक ऐसा मुक़दमा लगा जिसमें उनके जीतने की और ग़रीब मुवक्किल की ओर से केस लड़ने पर उससे कोई पैसे मिलने की उम्मीद नहीं थी । उन्होंने मुक़दमा लड़ा और नामी-गिरामी सरकारी वकील को पटखनी देते हुए उसे शान से जीत लिया । उनकी पैरवी से ख़ुश होकर जज ने उन्हें अपने कैबिन में बुला कर कहा,"वन डे यू विल रीच द टॉप , दिस इज माई प्रिडिक्शन ।"जज साहब के इस वाक्य से मिले हौसले ने उनके व्याख्याता बनने की सोच को सदा के लिए भुला दिया ।     

थामने कल जो चले थे रोशनी की उंगलियाँ,
हाथ में लेकर खड़े हैं तीरगी की उंगलियाँ 

जा रहा है शाम को सूरज किनारा छोड़कर, 
हिल रही है देख कर उसको नदी की उंगलियाँ 

आज इसका चप्पा चप्पा खून से है तर-ब-तर,
किन फ़सादोंं में कटी हैं इस गली की उंगलियाँ 

वकालत के साथ- साथ राजनीति में भी उनका दख़ल बढ़ने लगा और प्रदेश कांग्रेस पार्टी में उनकी साख बढ़ने लगी । इसी दौरान जयपुर से सहायक जनसम्पर्क अधिकारी के पद पर देश के प्रसिद्ध कवि 'तारादत्त 'निर्विरोध'कोटा ट्रांसफर हो कर आये । उनसे मित्रता के बाद 'कुमार शिव'का काव्य-प्रेम परवान चढ़ा । पारिवारिक गोष्ठियों से शुरू हुआ उनका काव्य-सफ़र अखिल भारतीय कवि-सम्मेलनों तक जा पहुंचा । कोटा में ही नहीं देश के अन्य भागों से भी उन्हें कवि-सम्मेलनों में काव्य-पाठ के निमंत्रण आने लगे । उनका नाम देश के काव्य-प्रेमियों में सम्मान से लिया जाने लगा ।  ये सब होते हुए भी उनके मन में देश की सबसे लोकप्रिय साप्ताहिक-पत्रिका  'धर्मयुग'में अपनी रचना को स्थान न मिल पाने की कसक थी । धर्मयुग के संपादक श्री 'धर्मवीर भारती'उनकी हर रचना को खेद-पूर्वक लौटा देते थे । युवा पाठक शायद न जानते हों लेकिन उस दौर में 'धर्मयुग'में आपकी रचना का छप जाना आपके उच्च-कोटि के लेखक होने का प्रमाण हुआ करता था । आख़िर 'कुमार शिव'साहब की मेहनत रंग लायी और 1973 में उनका गीत 'सांझ निर्वसना'धर्मयुग में छप ही गया ।  
            
धूप के साधक तिरस्कृत हो गए,
तिमिर के चारण पुरस्कृत हो गए 

क्या समय बदला कि जल थे जो कभी, 
कुछ हुए नवनीत, कुछ घृत हो गए

जब चली पछुआ अँँधेरा बज उठा,
झील के सब तार झंकृत हो गए 

प्याज कच्चे और रोटी ज्वार की,
मिल गई तो लोग कृत-कृत हो गए

'धर्मयुग'में फिर वो निरंतर छपते रहे और उनकी प्रतिष्ठा को चार चाँद लगते रहे । कोटा में उनकी भेंट वहां के अज़ीम शायर जनाब 'अक़ील शादाब'साहब से हुई और उनसे उन्होंने शायरी, ख़ासतौर से ग़ज़ल कहने के गुण सीखे ; इस प्रकार गीत-ग़ज़लों से लैस हो कर वो जिस कवि सम्मेलन में जाते अपनी धाक जमा लेते । उनकी लेखनी सतत चलती रही और वो प्रसिद्ध कवि श्री वीर सक्सेना, बृजेन्द्र कौशिक ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार, कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ,गोविन्द व्यास, सोम ठाकुर, कन्हैया लाल नंदन, हरिराम आचार्य, ताराप्रकाश जोशी, रमानाथ अवस्थी, बालस्वरूप राही, कुबेर दत्त, गोपाल दास 'नीरज'तथा हरिवंश राय बच्चन आदि जैसे मूर्धन्य रचनाकारों के साथ मंच साझा करते रहे ।     
गहन कूपों के निकट हैं,
दोस्तो! हम तो रहट हैं 

फाइलों में दब गए हम,
एक निर्धन की रपट हैं 

झुर्रियाँ मुख पर लिखी हैं,
हम समय के चित्रपट हैं 

भाग्य ही अपना बुरा है,
मित्र तो सब निष्कपट हैं 

मैं आपको जयपुर के सवाई मान सिंह मेडिकल कॉलेज में हुए एक कवि-सम्मेलन का क़िस्सा बताता हूँ । कवि सम्मेलन चल रहा था लेकिन जम नहीं रहा था । छात्र हुड़दंग के मूड में थे और बिना कवि की प्रतिष्ठा का ख़याल किये उन्हें हूट किये जा रहे थे । संचालक महोदय और कवि गण असहाय नज़र आ रहे थे । तभी कुमार शिव को रचना पाठ के लिए पुकारा गया । ऐसे माहौल में माइक पर जाना जोखिम भरा काम होता है । कुमार शिव उठे माइक पर जा कर हाथ जोड़े और बोले "मेरा ये गीत जॉन्डिस का पेशेंट है, आप देश के होनहार डॉक्टर हैं इसलिए ये गीत इलाज़ के लिए आप के सामने पेश कर रहा हूँ अब आप चाहे इसे मार दें या ठीक कर दें।"छात्र हंसने लगे, अधिकांश ने इस जुमले पर तालियाँ बजाई और सभी छात्र गीत सुनने को एकदम चुप हो गए। इसके बाद उन्होंने सस्वर वो गीत पढ़ा जो आगे चलकर उनकी पहचान बना और उसे उन्हें सभी कवि सम्मेलनों में श्रोताओं की फ़रमाइश पर सुनाना पड़ता था । गीत का शीर्षक था 'पीलिया हो गया है अमलतास को'जिसकी शुरुआत इन पंक्तियों से होती है,
"तुमने छोड़ा शहर, धूप दुबली हुई , पीलिया हो गया है अमलतास को, 
नींद आती नहीं है हरी घास को ।"उसके बाद छात्रों ने उनसे एक के बाद एक ढेरों गीत सुने और तालियाँ बजाई। इस तरह एक असफल-सा होता कवि सम्मेलन अत्यधिक सफल हुआ ।     

जानते थे दूरियों के सख़्त नियमों को मगर,
आपकी नज़दीकियाँँ हम आदतन बुनते रहे

काश वो ये सोचते, जाना उन्हें भी एक दिन,
ज़िंदगी भर दूसरों का जो कफ़न बुनते रहे 

ठोकरें लगती रहींं, छोड़े नहीं पर हौसले, 
आँँधियों में भी दिए अपने सपन बुनते रहे 

कवि-सम्मेलन के मंचो से उनका जुड़ाव बहुत समय तक नहीं रहा । वो अपनी आत्मकथा 'वक़्त ने लिखा है मुझे'में लिखते हैं कि "कवि-मंचों  लोकप्रिय तो बनाया किन्तु मुझे आत्मसंतुष्टि नहीं मिली ।  मंचों पर सस्ती लोकप्रियता भुनाने की होड़ मची है और कविता शायरी के नाम पर जाने क्या-क्या परोसा जा रहा है. मेरा कविता लिखना छूटता नहीं है लेकिन मंच पर जाकर श्रोताओं की तालियाँ बटोरने में अब रुचि नहीं रही । इस देश या समाज में कविता की कितनी ही उपेक्षा हो ,जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है कविता मेरे अंतर्मन की ख़ुराक है "लोकप्रियता के शिखर से वापस लौटने का निर्णय लेना आसान नहीं होता जबकि लोग शिखर पर बने रहने के लिए कितने ही हथकंडे अपनाते हैं ।            
क्षण किसी के साथ महक के थे गुलाबों की तरह,
अब फफूँँदी छा गई उन पर अचानक सड़ गए 

फूल पलकों में सँजोकर रख लिए थे याद के,
दूरियों की धूप में झुलसे सभी फिर झड़ गए 

सोचते थे ढूंढ लेंगे ज़िन्दगी का हल कभी,
नोक वाले प्रश्न अनगिन रास्ते में अड़ गए 

'कुमार शिव'की ग़ज़लों की ये किताब विकास पेपरबैक्स, दिल्ली से सन 1991 में प्रकाशित हुई थी इसमें उनकी लगभग 100 ग़ज़लें संकलित हैं । इस किताब के बाजार में मिलने की संभावना क्षीण ही है अलबत्ता आप इस किताब के शायर रिटायर्ड जज श्री 'कुमार शिव'साहब  जो अब जयपुर शहर के निवासी हैं, आप उनके मोबाइल नम्बर 9829051118 पर कॉल कर उन्हें इन लाजवाब ग़ज़लों के लिए बधाई दे सकते हैं और उनकी कालजयी कवितायेँ 'अमलतास'और उनका चाँदनी पर लिखा अद्भुत गीत 'गोरी लड़की'सुनने का सौभाग्य प्राप्त कर सकते हैं । 
आख़िर में, उनकी एक छोटी बहर की ग़ज़ल के ये शे'र पढ़वाता चलता हूँ :-

तुमने छोड़ा है गाँव सावन में,
मौसमी आँँख से झरे बादल

नभ के चौड़े-सपाट सीने से,
सट गए आज छरहरे बादल 

देख लो खिलखिला रहे कैसे,
धूप में श्वेत मसखरे बादल 

देखकर निर्वचन दुपहरी को,
आह भरते हैं छोकरे बादल

किताबों की दुनिया -212

अगर मानूस है तुमसे परिन्दा 
तो फिर उड़ने को पर क्यूँ तौलता है 
[ मानूस : हिला हुआ ]

कहीं कुछ है,कहीं कुछ है,कहीं कुछ 
मिरा सामान सब बिखरा हुआ है 

अभी तो घर नहीं छोड़ा है मैंने 
ये किसका नाम तख़्ती पर लिखा है 
 
"सुनो बोरिया बिस्तर बांधना पड़ेगा, ये घर छोड़ कर अब ग्वालियर जाना है ।"रसोई से इस जुमले पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी । उन्होंने गला खंखारते हुए फिर कहा,"गवर्मेंट कमला राजा गर्ल्स कॉलेज में प्रोफ़ेसर और सदर-शोबए उर्दू का ओहदा मिला है।"कोई जवाब नहीं । कभी-कभी ख़ामोशी वो सब कुछ कह देती है जो बोल कर नहीं कहा जा सकता । बल्कि उससे भी ज़्यादा । मुलाज़मत के सिलसिले में मुख़्तलिफ़ मक़ामात का सफ़र घर के बाशिंदों के लिए सबसे मुश्किल होता है ; गृहस्थी बसाना फिर उसे समेटना और फिर बसाना वो भी एक बार नहीं कई बार । अमरावती से जबलपुर फिर भोपाल और अब ग्वालियर । आप ही बताएं इस ख़बर को सुनकर भला कौन ख़ुश या दुखी होकर जवाब देगा ? इसीलिए जवाब नहीं आया । अफ़सोस ! ज़वाब न देने से समस्या ख़त्म नहीं होती , वहीं की वहीं रहती है । समस्या का समाधान बोलने या चुप रहने से नहीं होता उससे सामना करने से होता है । लिहाज़ा सामान बाँधकर कूच की तैयारी शुरू कर दी गयी ।             

हम तो बिखराते हुए चलते हैं साए अपने 
किसी दीवार से साया नहीं मांगा करते
*
हर एक काम सलीक़े से बांट रक्खा है 
ये लोग आग लगाएँँगे, ये हवा देंगे
*
कोशिशें है उसे मनाने की 
ये भी डर है कि बात मान न ले 
*
नाव काग़ज़ की छोड़ दी मैंने 
अब समंदर की ज़िम्मेदारी है
*
वो ज़हर देता तो सबकी नज़र में आ जाता 
तो ये किया कि मुझे वक्त पर दवाएँँ न दींं
*
मैं तो चाहता ये हूँँ बहस ख़त्म हो जाए 
आओ तौल कर देखें, किस का बोझ भारी है
*
तू मुझे काँँटा समझता है तो मुझसे बच के चल 
राह का पत्थर समझता है तो फिर ठोकर लगा
*
जो मुझसे दूर बैठे हैं, सब गुल-फ़रोश हैं 
मुझसे खरीदना हो तो ख़ुशबू खरीदना
*
माहौल को ख़राब न मैंने किया कभी 
टूटा भी हूं तो अपने ही अंदर बिखर गया
*
उसमें चूल्हे तो कई जलते हैं 
एक घर होने से क्या होता है

भोपाल से ग्वालियर शायद ही कोई आना चाहे जब तक कि कोई मजबूरी ही न हो । भोपाल हरा-भरा है और झीलों से घिरा है और आपको ये बता दूँ कि रहने और जीवन-यापन के लिए ग्वालियर से सस्ता भी है - चौंक गए ? जी हाँ, मैं भी चौंक गया था जब गूगल ने ये जानकारी मुझे दी । ये जानकारी अब की है जबकि मैं बात कर रहा हूँ सन 1968 की । और मैं मान लेता हूँ कि तब भी भोपाल ग्वालियर से सस्ता ही होगा । ग्वालियर आना इस परिवार की मजबूरी थी लिहाज़ा आना पड़ा । ये लोग आये और रहने लगे । ऐसा होता है कि हम जहाँ कहीं रहने लगते हैं धीरे-धीरे वो घर,मोहल्ला,लोग और शहर हमें अच्छा लगने लगता है । इस परिवार को भी ग्वालियर अच्छा लगने लगा और इतना अच्छा लगने लगा कि पूरे परिवार ने ऊपर वाले से दुआ की कि वो अब उन्हें और कहीं विस्थापित न करे । ऊपर वाला हमेशा सब की बात नहीं मानता लेकिन कभी-कभी मान भी लेता है और उसका ये कभी कभी मान लेना ही इंसान को उससे जोड़े रखता है । ऊपर वाले ने परिवार की इस दुआ को क़बूल कर लिया । ग्वालियर में बसने के बाद ये परिवार विस्थापन के दर्द से मुक्त हुआ । 
भूमिका लम्बी ही नहीं हो रही बे-मक़सद भी होती जा रही है इसलिए इसे विराम देते हुए बताता हूँ कि हम जिस परिवार की बात कर रहे हैं उसके मुखिया याने हमारे आज के शायर हैं जनाब डॉ. 'अख़्तर नज़्मी'साहब जिनकी देवनागरी में छपी किताब 'सवा नेज़े पे सूरज'हमारे सामने है ।    

उलझनेंं और बढ़ाते क्यूँ हो 
मुझको हर बात बताते क्यूँ हो 

मैं ग़लत लोगों में घिर जाता हूं 
तुम मुझे छोड़ के जाते क्यूँँ हो 

फिर मेरा दिन नहीं काटे कटता 
तुम ज़रा देर को आते क्यूँँ हो 

वादी-ए-गुल से गुज़रते जाओ 
हाथ फूलों को लगाते क्यूँँ हो

सबसे पहले बात करते हैं इस किताब के शीर्षक की.  'सवा नेज़े पे सूरज'का अर्थ क्या हुआ ? इस किताब में दिए विवरण के अनुसार ऐसा इस्लाम में विचार किया गया है की  'जब क़यामत का दिन आएगा तब सूरज सातवें आसमान पर आ जायेगा जो ठीक पृथ्वी के ऊपर है। सूरज का सातवें आसमान पर यानी ठीक पृथ्वी के ऊपर आना 'सवा नेज़े'पे आना है जिससे सूरज के प्रचंड ताप से धरती पर सब विनष्ट होने लगेगा और किसी को होश नहीं रहेगा और नेज़ा याने भाला है ।  हम इस बात की व्याख्या पर नहीं जाएंगे क्यूंकि ये इस पोस्ट का मक़सद नहीं है । अभी हम क़यामत की नहीं बल्कि क़यामत ढाते उन अश'आरों की बात करेंगे जो इस किताब में जगह-जगह बिखरे पड़े हैं ।  
   .
कुछ लोगों को इसका भी तजुर्बा नहीं अब तक 
जो सबका है वह शख़्स किसी का नहीं होता 

हैरत है कि ये बात भी समझानी पड़ेगी 
सूरज ही के छुपने से अँँधेरा नहीं होता 

मैं ज़हन में उसके हूँँ मेरे दिल में है वो भी 
इस तरह बिछड़ना तो बिछड़ना नहीं होता

इलाहबाद के जनाब मुमताज़ उद्दीन 'बेखुद'के यहाँ सन 1931 में 'सैयद अख़्तर जमील'का जन्म हुआ जो आगे चल कर 'अख़्तर नज़्मी 'के नाम से उर्दू ग़ज़ल के आसमां का रोशन सितारा बना । मुमताज़ साहब का परिवार और नाते-रिश्तेदारों को रोज़ी-रोटी की तलाश में इलाहबाद छोड़ना पड़ा और वो लोग जिसको जहाँ ठिकाना मिला बस गए । घर की माली हालत खस्ता थी लिहाज़ा बचपन में अख़्तर साहब के बहुत से अरमान पूरे नहीं हो सके । जवानी में भी किसी ने उनकी तरफ़ जितना देना चाहिए था उतना ध्यान नहीं दिया-। वो अगर ग़लत राहों पर चल पड़ते तो उन्हें कोई समझाने वाला भी नहीं था लेकिन ऊपर वाले की मेहरबानी से उनके क़दम कभी बहके नहीं और वो सीधे रास्ते पर चलते हुए तालीम हासिल करते रहे । इसी दौरान ज़िन्दगी की जद्दोजहद को वो अश'आरों में ढालने लगे और कभी-कभी ग़ज़लें भी कहने लगे । एक अच्छे उस्ताद की तलाश शुरू हुई लेकिन दूर-दराज़ में बसे शायरों तक उनकी पहुँच नहीं हो पायी और आसपास वालों ने उन्हें तवज्जो तक नहीं दी ।   .

न सोचा था वो कर गुज़रेगा ये भी 
मुझे अपना बना कर छोड़ देगा 

मेरे हाथों में जब पतवार होगी 
मेरे पीछे समंदर छोड़ देगा 

ख़रीदेगा उसे जिस पर नज़र है 
मुझे बोली लगाकर छोड़ देगा

उनके वालिद अफ़साने, तन्ज़िया और मज़ाहिया रेडियाई ख़ाके लिखते थे और शे'र भी कहते थे । आम-फ़हम ज़ुबान में तहदार मानवियत से आरास्ता लेकिन अपनी इल्मी बे वज़ाअति के बाइस अख़्तर साहब की उनसे मशवरा लेने की जुर्रत नहीं हुई । क्या ज़माना था जब बच्चे अपने बाप की इज़्ज़त करते थे और उनसे ख़ौफ़ खाते थे अब मामला थोड़ा उल्टा हो गया है । आप इस बात का बुरा न मानें  लेकिन अपवाद कहाँ नहीं होते । वालिद के स्टाइल की नक़ल करते हुए उन्होंने ग़ज़लें कहनी शुरू की और जब उनके वालिद को इस बात की ख़बर मिली तो उन्होंने सुनने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की । वालिद ग़ज़ल सुनते जरूर लेकिन उन्होंने दाद कभी खुलकर बुलन्द आवाज़ में नहीं दी और अगर दाद मिलती भी थी तो ग़ज़ल सुनकर कभी उनकी आँखों में आयी चमक से तो कभी लबों पर बिखरी हलकी-सी मुस्कराहट से तो कभी हाथ की हल्की-सी जुम्बिश से । ये बात सन 1952 की है याने जब अख़्तर साहब 21 साल के थे।      

सर्फ़ कर दिया मैंने ज़िन्दगी का हर लम्हा 
इसको याद करने में, उसको भूल जाने में
*
यही सच है कोई माने न माने 
सब अच्छा है तो कुछ अच्छा नहीं है
*
मैं अपनी घुटन अपने दिल में लिए 
हमेशा हवादार घर में रहा
*
सारे दरवाज़े एक जैसे हैं 
झुक के निकलो तो सर नहीं लगता
*
 शराब पी के तो मैं ख़ुद ख़रीद लूं सबको 
वो सोचता है पिलाकर ख़रीद लेगा मुझे
*
ये कहा तो बात की तह तक पहुंच सकते हैं लोग 
दूर से अच्छा नज़र आता है मेरा घर मुझे
*
मेरी ज़ुबाँँ ही फँस जाती है, मैं ही पकड़ा जाता हूँँ 
वो तो यार बदल देता है अपनी बात सफ़ाई से
*
जब चलो उसके रास्ते पे चलो 
क्या इसी को निबाह कहते हैं
*
क्या किया है निबाहने के सिवा 
जब से इस ज़िन्दगी से रिश्ता है
*
ये तरक़्क़ी पसंद शायरी के उरूज का दौर था । सभी का रुख़ उसी ओर हुआ करता था लेकिन अख़्तर साहब का रिश्ता न तरक़्क़ीपसंद शायरी से जुड़ सका न रिवायती शायरी से पूरी तरह टूट सका । धीरे-धीरे 1955 तक आते-आते उनका लहजा तब्दील होते होते पूरी तरह से जदीद शायरी पे टिक गया । इसके साथ ही उनकी मकबूलियत का दौर शुरू होता है जो चालीस से अधिक सालों तक लगातार चलता रहा । उनकी ग़ज़लों को बड़े ग़ज़ल गायकों जैसे 'जगदीश ठाकुर', 'जगजीत सिंह', 'अनूप जलोटा'और 'अहमद हुसैन -मोहम्मद हुसैन'बंधुओं ने अपने स्वर दिए और जन-जन तक पहुँचाया । 'अख़्तर'साहब मुशायरों के शायर कभी नहीं रहे,यही वजह है कि उनके मुशायरे पढ़ते हुए के वीडियो इंटरनेट पर कहीं नहीं मिलते। वीडियो तो छोड़िये उन पर किसी का हिंदी या अंग्रेजी में लिखा लेख भी नहीं मिलता। उर्दू का मुझे पता नहीं क्यूंकि मुझे उर्दू पढ़नी नहीं आती । उनकी शायरी का सफ़र 1 सितंबर 1997 को मात्र 65 साल की उम्र में ग्वालियर में रुक गया  वो अपने परिवार और चाहने वालों को रोता-बिलखता छोड़ गए । उनकी बेग़म 'निशात अख़्तर'लिखती हैं कि "उनका साथ छूटा कहाँ है । उनकी फ़िक्र, उनका क़लाम, उनके अश'आर और इन्हीं में वो ख़ुद हर जगह मौजूद हैं । उनकी दुनिया किताबों में थी और उस दुनिया में आज भी वो हर जगह नज़र आते हैं।"            
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 हंगामे में खोई हुई ख़ुशियाँ नहीं मिलतींं 
बारात में खोया हुआ ज़ेवर नहीं मिलता 

ये नींद का आलम है के शब-भर नहीं आती 
आराम का ये हाल है दिन भर नहीं मिलता 

पानी की तरफ़ पानी का रुख़ होता है 'नज़्मी'
सूखी हुई नदियों को समंदर नहीं मिलता

अख़्तर साहब की किताबों में  'शब -रेज़े' (उर्दू में सन 1982 में) , 'ख़्वाबों का हिसाब' (उर्दू में सन 1986 में) , 'सवा नेज़े पे सूरज' (उर्दू में सन 1996 में और देवनागरी में सं 2006 में) तथा मीर सय्यद अली 'ग़मगीन'पर शोध-ग्रंथ 2008 में मंज़र-ए-आम आया । हिंदी में इस किताब को 'मेधा बुक्स'नवीन शाहदरा, दिल्ली ने प्रकाशित किया है लेकिन अब उनके पास ये किताब उपलब्ध है या नहीं ये कहना मुश्किल है । अख़्तर साहब ने सिर्फ ग़ज़लें ही नहीं क़ता, नज़्म, रुबाई और दोहों जैसी विधा पर भी सफलतापूर्वक क़लम चलाई है ।   
 
आख़िर में प्रस्तुत हैं नज़्मी साहब की इस किताब से चुने हुए चंद अश'आर :-        

चश्मदीद एक भी गवाह नहीं
जुर्म छुप जाएगा गुनाह नहीं
*
आग तो लग गई इस घर में बचा ही क्या है 
बच गया मैं तो वो कह देगा जला ही क्या है
*
इतनी सूरज से दोस्ती न करो 
छोड़ जाएगा ये अँँधेरे में
*
इतना अच्छा न कहो उसको के फँस जाए ज़ुबाँ 
जब बुराई नज़र आए तो बुरा कह न सको
*
हमेशा घर ही में रहने से दम-सा घुटता है 
तुम्हारी बात भी सच है मगर किधर जाएँँ
*
 इसीलिए तो बनाया है घर किताबों में 
 के बार-बार तुम्हारी नज़र से गुजरूँगा
*
लगता नहीं है पढ़ने में, लगने लगेगा दिल 
ऐसा करो रहीम के दोहे पढ़ा करो
*
नहीं है कोई मुरव्वत नहीं है पानी में 
जो हाथ-पाँँव न मारेगा डूब जाएगा
*
आँँख सूरज की बंद होते ही 
चाँँद ने आसमाँँ खरीद लिया
*
मुश्किल था खेल दिन के उजाले में खेलना 
सूरज छुपा तो आई नज़र रौशनी मुझे
*

किताबों की दुनिया -213 


सूरज है वो कि चाँद है देखूँगा फिर उसे 
पहले वो मेरी आँख का कंकर निकाल दे 
***
होगा न सेहरकारी में उससे बड़ा कोई 
वो बूँद रक्खे सीप में गौहर निकाल दे 
[ सेहरकारी : जादूगरी ]
***
काँटे तो सब निकाल लिये मैंने अपने आप 
अब कोई मेरे पाँव का चक्कर निकाल दे 

तारीख़ 24 अक्टूबर 1942, क़ायदे से आज घर में जश्न का माहौल होना चाहिए था लेकिन इस घर में इस तरह के फ़िज़ूल क़ायदे के लिए कोई जगह नहीं थी, इसीलिए जिस बच्चे की आज छठवीं सालगिरह थी उसके सामने केक के बजाय 'उर्दू'का क़ायदा पड़ा था, जिसे बच्चे के अब्बा उसे पढ़ा रहे थे। अब्बा ही पढ़ाते थे, वो भी जब उनका मन करता ,बच्चे को स्कूल भेजना उन्होंने कभी ज़रूरी नहीं समझा। अपनी सालगिरह के मौके पर बच्चे के तसव्वुर में केक तो नहीं अलबत्ता नारंगी रंग की मीठी गोली जरूर थी और इसी वज़ह से उसका ध्यान किताब में नहीं था। तभी तेज आवाज़ के साथ गाल पर अब्बा के पड़े थप्पड़ से बच्चे की आँखों के सामने सितारे नाचने लगे। ऐसे में कोई भी बच्चा दो काम करेगा पहला 'वो रोयेगा' दूसरा 'वो थप्पड़ मारने वाले के मरने की दुआ करेगा। इस बच्चे ने पहला काम नहीं किया क्यूंकि उससे दूसरा थप्पड़ पड़ने का अंदेशा था लिहाज़ा दूसरा काम बड़ी शिद्दत से किया। मुश्किल ये है कि ऊपरवाला आसानी से किसी की दुआ कबूल नहीं करता .इस बच्चे की भी नहीं की .बच्चा बड़ा होता रहा, उर्दू पढ़ता रहा और पिटता रहा। नतीज़ा ? ग्यारह बरस की उम्र तक बच्चे को 'मिर्ज़ा ग़ालिब का पूरा दीवान याद हो गया, मीर, मोमिन और दाग़ के सैंकड़ो शेर याद हो गए। बच्चा खुद भी धीरे धीरे शायरी  करने लगा .लोग जब सुनते और बच्चे को इज़्ज़त की नज़रों से देखते तब बच्चे के समझ आया कि ऊपर वाले ने क्यों उसकी दुआ क़बूल नहीं की थी। अब्बा जैसे भी थे, बच्चे को उर्दू से बेपनाह मोहब्बत करना सिखा गये।

बच्चे के हिंदी सीखने के पीछे की कहानी भी मज़ेदार है. पड़ौस में रहने वाला दोस्त हिंदी फिल्मों और गीतों का दीवाना था और उसके घर ऐसी पत्र पत्रिकाओं का खज़ाना था। बच्चा पत्र पत्रिकाओं में फोटो देख कर खुश होता लेकिन पढ़ नहीं पाने से निराश होता। दोस्त ने लगन से बच्चे को हिंदी के वर्णाक्षरों से परिचय कराया। बच्चे ने पत्रिकाएं पढ़ने के लालच में हिंदी भी सीख ली। थोड़ा और बड़ा हुआ तो अंग्रेज़ी भी ऐसे ही खुद की मेहनत से सीखी और इन तीनों ज़बानों पर अधिकार, बिना स्कूल का मुंह देखे कर लिया।  

कहीं भी जाये चमकने का शौक़ है उसको 
वो अपने साथ अँधेरे ज़रूर रखता है 
***
वहीं से चाँद मेरे साथ साथ चलने लगा 
जहाँ से ख़त्म हुई रौशनी मकानों की 
***
मुझे कुछ भी नहीं आता मगर ये होशियारी है 
ये मत समझो कि सब कुछ जानता हूँ इसलिए चुप हूँ 
***
ठहर भी जाय तो पानी की सतह पर किश्ती 
सफ़र का शौक़ लिए डगमगाती रहती है 
***
मैं उसको देखूँ कुछ ऐसे कि देख भी न सकूँ 
वो अपने-आप में छुप जाय जब दिखाई दे 
*** 
छत पे सोने का ख़ूब लुत्फ़ रहा 
मैंने ओढ़ा कभी बिछाया चाँद 
***
जागता हो तो न देखे कोई महलों की तरफ़ 
किस तरह सोया हुआ आदमी ख़्वाबों से बचे 
***  
ध्यान में तेरे कभी बैठूँ तो क्या बैठूँ बता 
जब तलक तेरा तसव्वुर भी तेरे जैसा न हो 
***
ये जो सुकून सा है नतीजा है सब्र का 
हँसता हुआ सा जो भी है रोया हुआ-सा है 
***
सराब प्यास बुझाता नहीं कभी लेकिन 
ये बात खूब समझता है कौन प्यासा है 
[ सराब : मृगतृष्णा

ये बच्चा अब बड़ा हो चला है ,हारमोनियम बजाता है और सुर से गाने भी लगा है। मौसिकी के अलावा इसे चित्रकारी का भी शौक चढ़ गया है। बहुत खूबसूरत पेंटिंग करने लगा है, लोग पेंटिंग देखते हैं और बच्चे का हुनर देख कर दांतों तले उँगलियाँ दबा लेते हैं। संगीत, पेंटिंग और शायरी का शौक बच्चे को अपने अब्बा से मिला है जो दूसरा निकाह कर अब ये घर छोड़ कर अलग रहने जा चुके हैं। घर चलाने की जिम्मेदारी अब इस बच्चे के नाज़ुक कांधों पर आ पड़ी है। घर में माँ के अलावा छोटे भाई बहन भी हैं।अब्बा की सिफारिश से बच्चे की 'ग्वालियर इलेक्ट्रिक सप्लाई'में नौकरी लग गयी है, जहाँ नक्शों की ट्रेसिंग करनी होती है। जो तनख्वा मिलती है उस से घर का गुज़ारा किसी तरह चल जाता है। सिर्फ हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी के ज्ञान से  ज्यादा ढंग का काम मिलना मुश्किल था। कोई डिग्री हाथ में होती तो और बात थी लेकिन यहाँ तो स्कूल की शक्ल भी कभी नहीं देखी थी। खैर वक़्त अपनी रफ़्तार से चलता रहा और इस बच्चे की, जो अब जवान हो गया था, शादी भी हो गयी। ज़िन्दगी के 24 साल मुश्किलों से जूझते हुए गुज़र रहे थे राहत का कहीं कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा था. तभी एक ऐसी घटना घटी जिसने इस जवान की पूरी ज़िन्दगी बदल दी . एक बार किसी रिश्तेदार ने उनके अनपढ़ होने का मज़ाक उड़ाया। और सबके सामने खुल कर उड़ाया। इस घटना से बजाय अपमानित हो कर आंसू बहाने के, जवान ने क़सम खाई कि एक दिन इन सबका मुंह बंद करके दिखायेगा। बस ये धुन सवार हो गयी. प्राइवेट केंडिडेट की हैसियत से मेट्रिक की परीक्षा दे डाली। उसमें पास हुए तो फिर हायर सेकेंडरी भी पास कर डाली और उसके बाद इंटर फिर बी. ऐ. और अंग्रेजी में एम. ऐ. की डिग्री हासिल की। याने अगले आठ सालों में वो जवान तालीम के मुआमले में फर्श से अर्श पर पहुँच गया। ये बात लिखने, पढ़ने में जितनी आसान लगती है उतनी है नहीं। सोच कर देखिये ये कितने कमाल की बात है कि जिस शख़्स ने 24 साल की उम्र तक स्कूल का रुख़ न किया हो उसने अपने बलबूते पर एम.ऐ. करली वो भी अंग्रेजी भाषा में, फिर उर्दू में । इस शख्स ने सबको  दिखला दिया कि इंसान अगर ठान ले तो क्या नहीं कर सकता। उर्दू शायरी के इतिहास में ऐसा करिश्मा करने वाला शायद ही कोई दूसरा शायर हुआ हो 

सवाब का तो कोई काम मुझसे हो न सका 
किसी गुनाह से राहे -निजात निकलेगी 
[ राहे -निजात : मुक्ति का रास्ता ]
***
बस एक आह भरी और सो गये चुपचाप 
जरा सी देर में निबटाया रात-भर का काम 
***
रखा संभाल के यूँ जाँ को जिस्म में हमने 
कि जैसे क़ैद हवा को हबाब में रक्खा 
[ हबाब :बुलबुला ] 
***
पैसे नहीं हों जेब में जिस चीज़ के लिये 
वो चीज़ ये समझ लो कि बाज़ार में नहीं 
***
वो राहबर हैं तो फिर आगे क्यों नहीं आते 
समझ में आ गया रस्ते में रात करनी है 

जैसे जैसे डिग्रियां मिलती गयीं वैसे वैसे नौकरी में इस शख्स को तरक्की मिलती गयी। मामूली ट्रेसर के ओहदे से एल.डी.सी. फिर यू.डी.सी.और यू.डी.सी से एस.जी.सी तक. पूरे आफिस में इस शख्स के जोश और जूनून की धाक जम गयी। नौकरी अपनी जगह चलती रही और इस शख्स की शायरी अपनी जगह। शायरी इस शख्स की रूहानी जरुरत बनकर ज़िन्दगी में दाख़िल हुई। शायरी को इस शख्स ने ज़िन्दगी की जद्दोजहद और घुटन को बाहर निकालने का जरिया बनाया। पेंटिंग शौक था जो बाद में कमर्शियल आर्ट में तब्दील हो कर अतिरिक्त आय का ज़रिया बनने लगा। नौकरी से हर महीने रुपया तो मिलता था लेकिन सुकून धीरे धीरे कम होता जा रहा था और मन शायरी और पेंटिंग में उलझा रहता था। इस कश्मकश से निज़ात पाने के लिए मात्र 48 वर्ष की उम्र में सं 1984 में आखिर वो दिन आया जब इस शख्स ने अपनी 30 साल की नौकरी से प्री रिटायरमेंट ले लिया। 
अब अपनी पसंद के दो काम इस शख्स के हाथ में रह गए थे ,पहला शायरी और दूसरा पेंटिंग। शायरी रूह के लिए और पेंटिंग घर खर्च के लिए। नौकरी छोड़ कर इस शख्स ने अपना 'ग्राफिक डिजाइनिंग' का काम शुरू किया जो चल निकला।

कोई कुछ भी कहे सुनो ही नहीं 
ऐसे बन जाओ जैसे हो ही नहीं 

न सही कोई सायादार शजर 
रास्ते में कहीं रुको ही नहीं 

हो कोई बदगुमाँ तो होने दो 
इसका मतलब तो है हंसो ही नहीं 

ऐसी बातों का सोचना भी क्या 
कहना चाहो तो कह सको ही नहीं 

'ग्राफिक डिजाइन' की बात आयी है तो एक वाक़्या बताता हूँ। नवंबर 1987 ,ग्वालियर शहर में गहमागहमी चरम पर थी। पूरा शहर सजाया जा रहा था । राजमहल का तो हाल ही मत पूछें । लोगों में भागदौड़ मची हुई थी । किसी के पास सर खुजाने तक का वक़्त नहीं था । ये सब लोग दिसम्बर याने अगले महीने में होने वाली, श्री 'माधवराव सिंधिया'जी की बेटी की शादी की तैयारी में व्यस्त थे । सबसे बड़ी समस्या से वो टीम जूझ रही थी जिसके ज़िम्मे शादी का कार्ड फ़ाइनल करना था। समय कम था और काम भी बहुत महत्वपूर्ण था क्यूंकि कार्ड ही तो गणमान्य अतिथियों को पहला सन्देश देता है कि शादी किस स्तर की होने जा रही है। देश-विदेश से हज़ारों डिज़ाइन के एक से बढ़कर एक लाजवाब कार्ड सामने पड़े थे। हर एक कार्ड पर चर्चा हो रही थी लेकिन कोई कार्ड पसंद नहीं आ रहा था। तभी एक ऐसा कार्ड सामने आया जिसकी डिज़ाइन देखकर सब की बांछे खिल गयीं ये वो कार्ड था जो सभी को पसंद आया। ये कार्ड ऐसा था जैसे किसी ने मानो शायरी पेंट की है   
वो, मुसव्विर याने चित्रकार जिसने ये कार्ड डिज़ाइन किया था हमारे आज के शायर 'शकील ग्वालियरी'हैं । शायरी भी एक तरह से मुसव्विरी ही तो है। इसमें शायर लफ़्ज़ों से पेंटिंग करता है। इस वाक़ये से आप उनके हुनर का अंदाज़ा लगा सकते हैं। 
उसी हुनरमंद इंसान 'शकील ग्वालियरी'साहब की ग़ज़लों की हिंदी में एकमात्र छपी किताब 'लम्हों का रस'हमारे सामने है । इस किताब में लगभग 125 ग़ज़लें संकलित हैं.। शकील साहब की ग़ज़लें बेहद आसान ज़बान में हैं और यही इनकी सबसे बड़ी ख़ूबी है । डॉक्टर 'मुख़्तार शमीम (उज्जैन )'लिखते हैं कि,"शकील ग्वालियरी जिस सलीके से शेर कहते हैं और एक मिसरे में जिस तरह नया मोड़ देते हैं ये सलीक़ा कम ही शायरों को नसीब हुआ है।"      
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देखते सब हैं मगर बंद ज़ुबाँ रखते हैं 
इस तरह शहर में हम अम्नो-अमाँ रखते हैं 
***
इश्क़ की इब्तिदा और इन्तेहा हम से पूछो 
फूल को चूम के काँटों पे ज़ुबाँ रखते हैं 
***
तह में मिट्टी है कि पत्थर हैं मुझे क्या मालूम 
मैं तो ये देखता हूँ फूल खिला पानी पर 
***
ज़ात क्या नाम भी पूछा न नदी का उसने 
                   इतना प्यासा था कि आते ही गिरा पानी पर               
           
 शायरी जैसे शकील साहब के भीतर छुपी हुई थी तभी तो उन्होंने मात्र 15 -16 बरस की उम्र में बिना कोई खास तालीम हासिल किये बाक़ायदा शेर कहना शुरू कर दिए । उनके इस हुनर को तराशा उनके उस्ताद-ऐ-मोहतरम हज़रत 'गनी मुहम्मद क़ुरैशी गनी ग्वालियरी'साहब ने । सन 1953 याने 17 बरस की उम्र से उन्होंने सलीक़ेदार ग़ज़लें कहनी शुरू कर दीं।  उनके लेखन का दायरा सिर्फ ग़ज़ल तक ही सीमित नहीं रहा उनके समीक्षात्मक लेख और  लोक-साहित्य पर किये शोध-पत्र साहित्य जगत में चर्चा का विषय रहे । अपनी शायरी के बारे में उन्होंने लिखा है कि'मेरी शायरी का  तअल्लुक़ मेरी अपनी तरह की सोच से है और मेरी सोच बनी है उन हालात से जिनसे मैं गुज़रा हूँ। यहाँ एक ख़ास बात ध्यान में रखने के क़ाबिल है कि ग़ज़ल के शेर में शायर की शख़्सियत कई छलनियों में छन कर थोड़ी बहुत अपनी झलक दिखाती है। हर शायर कुछ मख़्सूस बहरें इस्तेमाल करता है। मीर की खास बहर को ग़ालिब ने कभी इस्तेमाल नहीं किया, इसलिए कि वो उनके मिज़ाज से मेल नहीं खाती थी।मैंने भी अपनी ग़ज़लों में उन्हीं चंद बहरों का इस्तेमाल किया जो मेरे ख़्याल को आसानी से शेर में पिरोने में मददगार थीं. मैं शायरी में किसी भी लफ्ज़ का इस्तेमाल बिना उसका ओरिजिन जाने नहीं करता हूँ क्यूंकि हर लफ्ज़ का एक कल्चर होता है उस कल्चर का परसेप्शन न हो तो शब्द का उचित इस्तेमाल नहीं हो सकता। मैं अपनी शायरी में लफ़्ज़ों के माध्यम से अस्ल मफ़्हूम (विषय )के अलावा भी कई बातें कह जाता हूँ। मानी और मफ़्हूम के अलावा मेरी शायरी में आप तास्सुर भी पाएंगे मैं कहता हूँ शायरी में तास्सुर लाने के लिए हिंदी कवियों को उर्दू और उर्दू कवियों को हिंदी साहित्य पढ़ना चाहिए '

हो सलीक़ा अगर बरतने का 
लफ़्ज़ रहते हैं हर जुबान में ख़ुश
***
दुनिया का कोई काम हो आसान से आसान 
होना हो तो होता है वगरना नहीं होता 
***
तुम्हारी जीत उसे तुमसे दूर कर देगी 
निबाह चाहो तो दानिश्ता हारते रहना 
***
अम्न एक लफ़्ज़ है अक्सर जो उभर आता है 
ख़ूने-इंसान में डूबी हुई तलवारों पर 
***
साहिल पे एक कमीज़ मिली चाक की हुई 
ये किसने ख़ुदकुशी का इरादा बदल दिया 
***
इश्क़ करने चले थे चाँद से हम 
ख़त न फेंका गया अटारी तक 
***
लिखा है जिसकी तख़्ती पर मुहब्बत 
वो दरवाज़ा कोई जाँ-बाज़ खोले 
***
किसी की राहतें भी बे-मज़ा हैं 
किसी के दर्द में लज़्ज़त बहुत है 
***
ये बात न होती तो कभी रंग न चुभते 
काँटों का असर कुछ तो गुलाबों में भी आया 
***
कितने नादाँ हैं वो जो सोचते हैं 
इश्क़ में कामयाब हो जायें  

शकील साहब की ग़ज़लों की पहली किताब 'तरकश'मध्यप्रदेश उर्दू अकादमी द्वारा 1986 में प्रकाशित की गयी। ग्वालियर में उर्दू ग़ज़ल के 100 साल के इतिहास के विवेचन और समीक्षा पर केंद्रित उनकी दूसरी किताब 'पत्थरों के शहर में'सन 1996 में प्रकाशित हुई जो उर्दू साहित्य के क्षेत्र में ख़ासी चर्चित हुई । तीसरी किताब एक ग़ज़ल संग्रह 'आसमां पर आसमां'सन 2000 में चौथी और एकमात्र देवनागरी में छपी किताब 'लम्हों का रस'सन 2003 में प्रांजल शिक्षा एवं साहित्य समिति ग्वालियर द्वारा प्रकाशित की गयी। देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं जिनमें धर्मयुग ,हंस ,युद्धरत तथा अक्षरा प्रमुख हैं । इसके अलावा राणा प्रताप पर खंड-काव्य लिखा है । उनका शोध-पत्र स्कंदगुप्त : एक अध्ययन है ।कविता संग्रहों में 'फसल बनती उम्मीदें' , 'पुष्पगंध'तथा 'ऐसा क्यों होता है'विशेष उल्लेखनीय हैं । उन्होंने दतिया से प्रकाशित 'उद्भव'और 'विकास'सन्दर्भ-ग्रन्थ तथा 'ज्ञान ज्योति'और 'अस्मिता'पत्रिकाओं का संपादन भी किया है । शकील साहब म. प्र. हिंदी साहित्य सम्मेलन , म. प्र . साहित्य अकादमी से सम्बद्ध रखते हैं । आकाशवाणी के ग्वालियर केंद्र के प्रारम्भ से लेकर अब तक सहयोगी रहे हैं । आकाशवाणी ग्वालियर ने आप पर तीन घंटे की रेडियो ऑटोबायोग्राफ़ी 2014 में तैयार की थी  

पलकों पे आके रुक गए ख़्वाबों के काफ़िले 
पानी के पास शहर-सा आबाद हो गया 
***
जो हाथ थपकियों से सुला देते थे कभी 
तकिये पे बस ग़िलाफ़ चढाने के रह गये 
***
पागल हूँ, घर की तन्हाई 
ढूंढ रहा हूँ बाहर आकर 
***
मैं ही कश्ती भी हूँ मल्लाह भी तूफ़ान भी हूँ  
और अब डूब रहा हूँ तो परेशान भी हूँ  
***
अजीब बात है उनसे जो मेरे अपने हैं 
मुझे ये कहना पड़ा मेरा ऐतबार करो 
***
बजा रहा है कोई साज़ बंद कमरे में 
लरज़ रही है छतें सात आसमानों की          
***
मौजे-खूँ की तह में क्या है ये किसे मालूम था 
नदी उतरी तो भारी पत्थरों के सर खुले   
***
 सैयाद छोड़ दे दरे-ज़िन्दान खुला हुआ 
फिर कोई क़ैद रह के दिखाये मेरी तरह  
***
आओ ,सो जाओ उठो और चल दो 
ये ठिकाना भी ठिकाना है कोई 
***
पानी जहाँ है डूबे हुओं की है यादगार 
आग उनकी यादगार है जो ख़ाक हो गये 
    
यूँ तो शकील साहब पर लिखने के लिए एक पोस्ट काफी नहीं है, लेकिन हमारी मज़बूरी है इसलिए शकील साहब की इस किताब में दर्ज जनाब 'रामकिशोर शुक्ल'साहब की इन पंक्तियों से इस पोस्ट को विराम देते हैं,"शकील की शायरी लगभग पचास साल का सफ़र तय कर चुकी है । इस दौरान उनका मिज़ाज पूरी तरह ग़ज़ल में रच-बस गया है । उनका ये ग़ज़ल-संग्रह आपको एक ऐसी दुनिया में ले जायेगा जहाँ आप अपने अतीत वर्तमान और भविष्य से रूबरू होंगे, जहाँ आप पुरानी तहज़ीब की धरोहरों और नये तौर-तरीकों से ख़त्म हो रही पुरानी क़द्रों के अहसासात महसूस करेंगे, जहाँ आप सच्चाइयाँ बयाँ करते हुए किरदार और धरती से आकाश तक फैली कायनात के मंज़र देखेंगे, जहाँ आप कान से देख सकेंगे और आँख से सुन सकेंगे, जहाँ आप हार-जीत से ऊपर होंगे, जहाँ आप बिना पर वाली चीजें उड़ती हुई देखेंगे,जहाँ आप वो सब देखेंगे और महसूस करेंगे जिनकी तलाश में इंसान सदियों से है।  सबसे ऊपर आप यह महसूस करेंगे कि दुनिया में ईश्वर के बाद कोई है जो आपको पार लगा सकता है वो कोई और नहीं सिर्फ आप ख़ुद हैं ।"       

उससे बिछड़े एक मुद्दत हो गई लेकिन हमें 
आज भी हर काम में उसकी इजाज़त चाहिए 
***
तजरुबों ने ख़राब कर डाला 
दोस्तों हम भी साफ़ थे दिल के 
***
अगर है तंज़ ही करना नज़र मिला के करो 
चढ़ा हो तीर तो सीधा रखो कमान का रुख़ 
***
ये तो गुलिस्तानों में रोज़ के क़िस्से हैं 
फूल खिले, खिलकर शाखों से दूर हुए  
***
ग़मे-हयात से ऐ दिल फ़रार क्या मानी 
सिपाही छोड़ के लश्कर तो जा नहीं सकता 
*** 
इज़्ज़त बचा के अपनी कैसा निकल गया है 
कहते हैं चाँद भी है टुकड़ा इसी ज़मीं का 
***
रौशनी में कहीं उगल देगा 
मेरा साया निगल गया है मुझे 
***
शायरी में शायरी हमने बहुत कम की 'शकील'
शेर भी कहना हुआ तो सादगी से कह दिया


(ये पोस्ट ग्वालियर के मशहूर शायर 'अतुल अजनबी'जी द्वारा भेजे गए 'पहल'पत्रिका के उस अंक से तैयार की गयी है जिसमें शकील साहब ने अपने बारे में एक लेख लिखा था )  

किताबों की दुनिया - 214


आप कहते थे के रोने से न बदलेंगे नसीब 
उम्र भर आपकी इस बात ने रोने न दिया 
*
अगर खुद को भूले तो, कुछ भी न भूले 
के चाहत में उनकी , ख़ुदा को भुला दें
*
हम नींद की आगोश से क्यूँ चौंक उठे हैं 
ख़्वाबों में कहीं तुमने पुकारा तो नहीं है 
*
कितनी भी कोशिशों से सजा लो इसे मगर 
जन्नत न ये ज़मीन बनेगी पिए बगैर 
*
जब हक़ीक़त है के हर ज़र्रे में तू रहता है 
फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मंदिर क्यों है 
*
आसमान तक जो न पहुँची आज तक 
इक मुफ़लिस की सदा है ज़िन्दगी 
*
ख़ुश्क पत्तों का मुक़द्दर लेकर 
आग के शहर में रहता हूँ जनाब 
*
मुझको फ़रियाद की आदत नहीं इस दुनिया में 
सर झुकाता हूँ मैं तुम संग उठाओ यारो 
*
बारहा मर चुके हैं इश्क़ में हम 
मौत का इंतज़ार कौन करे 
    
डॉ. कामरा की डिस्पेंसरी के बाहर लम्बी लाइन लगी हुई थी, हमेशा ही लगती है ,पंजाब के 'फ़िरोज़पुर'शहर के पास गाँव 'रेतवाला' में और कोई ढंग का डाक्टर है भी तो नहीं। तब हर डॉक्टर को, वो चाहे जैसा हो, भगवान स्वरुप माना जाता था। डॉक्टर कामरा तो खैर थे ही भगवान स्वरुप, लिहाज़ा सारे गाँव वाले उनकी बड़ी इज़्ज़त करते थे। ये सन 1940 के आसपास की बात है तब लोग हर पढ़े लिखे की इज़्ज़त किया करते थे। डॉक्टर साहब के पास बैठा उनका छै साल का बेटा, जो घर से बाहर निकलने के चाव में अपने पिता के साथ डिस्पेंसरी आ तो गया लेकिन यहाँ कुछ करने को तो था नहीं इसलिए, लगातार कोई न कोई शरारत किये जा रहा था। डॉक्टर साहब ने तंग आ कर अपने एक मुलाज़िम को आवाज़ दे कर कहा कि वो बेटे को साथ लेजा कर गाँव घुमा लाये . बेटा खुश. घूमते हुए सामने हरे भरे खेत को देख कर वहाँ हल चलाते किसान से उसने पूछा ऐ खेत किदा ऐ (ये खेत किसका है )? किसान ने हँसते हुए कहा 'तवाडा बाश्शाओ (आपका है ) फिर उसने दूर बड़े से पेड़ की ओर ऊँगली कर के पूछा 'ओ किदा ऐ (वो किसका है )? किसान ने मुस्कुराते हुए कहा 'तवाडा बाश्शाओ'. बेटा मुलाज़िम की ऊँगली पकड़े जिस चीज की तरफ इशारा करते हुए जिस किसी से पूछता 'ऐ किदा ऐ ?'तो सब उसे एक ही जवाब देते 'तवाडा बाश्शाओ' . बेटा बहुत खुश हो घर लौटा। उसे लगा जैसे उसके पिता इस गाँव के महाराजा हों और वो उनका शहज़ादा 'सुदर्शन'। 
किसी रंजिश को हवा दो के मैं ज़िंदा हूँ अभी 
मुझको एहसास दिला दो के मैं ज़िंदा हूँ अभी 

मेरे रुकने से मेरी साँसे भी रुक जाएँगी 
फ़ासले और बढ़ा दो के मैं ज़िंदा हूँ अभी 

ज़हर पीने की तो आदत थी ज़माने वालों 
अब कोई और दवा दो के मैं ज़िंदा हूँ अभी 

प्राथमिक शिक्षा गाँव में पूरी करने के बाद जब आगे की पढाई के सिलसिले में 'सुदर्शन'गाँव छोड़ कर फ़िरोज़पुर शहर आया तो उसके साथ दो हादसे हुए। पहला हादसा तब हुआ जब उसे ये बात समझ में आयी कि यहाँ पर उसकी कोई विशेष औकात नहीं है, वो कोई शहज़ादा-वहज़ादा नहीं है बल्कि वो भी यहाँ के बाकी बच्चों जैसा ही है। इस सच्चाई ने जैसे उसे अर्श से फर्श पर पटक दिया। दूसरा और बड़ा हादसा तब हुआ जब जवानी की देहलीज़ पर पाँव रखने के साथ ही उसे किसी से इश्क़ हो गया। उस दौर में किसी से इश्क़ होना बहुत बड़ी बात हुआ करती थी क्यूंकि इश्क़ करना आसान नहीं था। लड़कियां कड़े पहरों में रहतीं, किसी से मिलने जुलने या सन्देश लेने देने की आज जैसी सुविधा नहीं थी। अब इश्क़ हो तो गया लेकिन कामयाब नहीं हो पाया। ये आज की तरह 'तू नहीं और सही और नहीं और सही'जैसा समय नहीं था कि इससे क़ामयाब नहीं हुआ तो उससे कर लेते हैं। उस वक़्त,जिससे इश्क़ होता था तो गहरा होता था उसके सिवा किसी और से होने की कल्पना भी कोई नहीं करता था। लड़की के बाप ने उसकी शादी कहीं और कर दी और ये हज़रत उसकी शादी का कार्ड 'दीवाने ग़ालिब'किताब में छुपाये टूटा दिल लिए आगे पढ़ने के लिए जालंधर आ गए। 

सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं 
जिसको देखा ही नहीं उसको ख़ुदा कहते हैं 

ज़िन्दगी को भी सिला कहते हैं कहने वाले 
जीने वाले तो गुनाहों की सज़ा कहते हैं 

फ़ासले उम्र के कुछ और बढ़ा देती है 
जाने क्यों लोग उसे फिर भी दवा कहते हैं 
  
पिता चाहते थे कि बेटा उनकी तरह कामयाब डॉक्टर बने लेकिन सुदर्शन पर महबूबा की जुदाई का ग़म इस क़दर हावी हुआ कि वो बाल और दाढ़ी बढ़ा कर, फटे पुराने कपड़े पहन कर एक फ़क़ीर के सांचे में ढल गए और खुद को शराब में डुबो कर 'सुदर्शन फ़ाकिर'के नाम से शायरी करने लगे। उन्होंने जालंधर में एक कमरा किराये पर लिया जो पहली मंज़िल पर था और जिसके नीचे एक ढाबा था। इस कमरे का बड़ा ही दिलकश वर्णन 'रविंद्र कालिया'जी ने अपनी किताब 'ग़ालिब छुटी शराब'में  किया है। कमरे में सिर्फ़ एक दरी हुआ करती थी जिसमें सिगरेट से जलने के कारण खूब सारे छेद थे ,कमरे के फर्श पर शराब की बोतलें और सिगरेट के टुकड़े बिखरे रहते जो महीने में एक आध बार होने वाली सफाई के दौरान ही साफ़ किये जाते। ये कमरा जालंधर में शायरों, लेखकों और संगीतकारों का अड्डा बन गया था । स्टेशन के पास होने के कारण जो शायर लेखक जालंधर आता सीधा सुदर्शन के यहाँ रहने आ जाता। उन्हीं मौके- बेमौके आने वालों में से एक थे मशहूर ग़ज़ल गायक जनाब 'जगजीत सिंह' .उस वक़्त 'सुदर्शन फ़ाकिर'शायरी में और 'जगजीत सिंह' ग़ज़ल गायकी में अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष रत थे। जगजीत सिंह जी ने एक दिन सुदर्शन से वायदा किया कि अगर कभी वो क़ामयाब हुए तो वो सुदर्शन की नज़्में ,गीत और ग़ज़लें जरूर गाएंगे। जगजीत जी ने अपना वायदा निभाया और सं 1982 में अपना एक अल्बम 'द लेटेस्ट'रिलीज़ किया जिसमें शामिल सभी रचनाएँ 'सुदर्शन फ़ाकिर' साहब की थीं।                

ग़म बढे आते हैं क़ातिल की निगाहों की तरह 
तुम छुपा लो मुझे ऐ दोस्त गुनाहों की तरह 
*
हम सा अनाड़ी कोई खिलाड़ी ढूंढ न पाओगे दुनिया में 
खुद को खुद शह दे बैठे और बाज़ी अपनी मात हुई है 
*
लबों से लब जो मिल गए लबों से लब ही सिल गए 
सवाल गुम जवाब गुम बड़ी हसीन रात थी
*
हर शाम ये सवाल मुहब्बत से क्या मिला 
हर शाम ये जवाब के हर शाम रो पड़े 
*
 नाख़ुदा को ख़ुदा कहा है तो फिर 
डूब जाओ ख़ुदा ख़ुदा न करो 
*
कोई मुसाफिर होगा जिसने दस्तक दी होगी 
वरना इस घर में कब कोई अपना आता है 
*
आज की रात बहुत ज़ुल्म हुआ है हम पर 
आज की रात हमें आप भी कम याद आये 
*
 दिल की हर आग बुझाने को तेरी याद आई 
कभी कतरा, कभी शबनम, कभी दरिया बन कर    
*
मेरे मरने से रंज क्यों हो उन्हें 
ज़िन्दगी थी रही रही न रही   

सुदर्शन की नौकरी जालंधर रेडियो में लग गयी। एक बार मशहूर ग़ज़ल गायिका 'बेग़म अख़्तर'जालंधर के आईजी पुलिस 'आश्विन कुमार'के निमंत्रण पर लखनऊ से जालंधर आयीं। रेडियो पर उन्होंने अश्विनी कुमार की कुछ ग़ज़लें गायीं फिर उन्हें एक ग़ज़ल सुदर्शन फ़ाकिर की भी पकड़ा दी। उन्होंने ये सोच कर कि इस छोटी सी उम्र वाले शायर की ग़ज़ल में क्या दम होगा उसे बेमन से पकड़ लिया। उन्होंने स्टूडियो में धुन बनाई और उसे गाया। जब गाना शुरू किया तो उसके शब्दों से इतनी प्रभावित हुईं अलग अलग नोट्स पर उन तीन अंतरों को बार-बार गाती रहीं। जिन आईजी साहब की ग़ज़लें गाने वो आयी थीं उनसे ज्यादा समय उन्होंने सुदर्शन फ़ाकिर की एक ग़ज़ल को ही दे दिया। मुंबई जा कर इस ग़ज़ल को रिकार्ड करवाने का वादा करके जाते हुए बोलीं 'सुदर्शन तुम्हारी इस ग़ज़ल ने मेरा जालंधर आना सार्थक कर दिया'। ये ग़ज़ल बाद में बेग़म अख्तर की गयी सबसे मशहूर ग़ज़लों में शुमार हुई और इसे अपार लोकप्रियता मिली। उस ग़ज़ल के चंद अशआर यूँ थे :

कुछ तो दुनिया की इनायात ने दिल तोड़ दिया 
और कुछ तल्ख़ी-ऐ-हालात ने दिल तोड़ दिया 

हम तो समझे थे के बरसात में बरसेगी शराब 
आयी बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया 

दिल तो रोता रहे और आँख से आंसू न बहे
इश्क़ की ऐसी रवायात ने दिल तोड़ दिया 

आप को प्यार है मुझ से के नहीं है मुझ से
ऐसे बेकार से सवालात ने दिल तोड़ दिया   
        
मुंबई जा कर बेग़म अख़्तर 'साहिबा ने अपना कौल निभाया और इस ग़ज़ल को रिकार्ड करवाते वक्त सुदर्शन को फोन करके मुंबई बुला लिया। ये 1969 की बात है। मुंबई में सुदर्शन जी की मुलाक़ात उस समय के बड़े संगीतकार 'मदन मोहन'जी हुई। मदन जी ने उनकी कुछ ग़ज़लों की धुनें भी बनाईं लेकिन वो ग़ज़लें रिकार्ड हों उस से पहले ही मदन मोहन जी इस दुनिया ऐ फ़ानी से रुख्सत हो गए। इस बीच बेग़म अख़्तर ने 'ख़य्याम'साहब के संगीत निर्देशन में उनकी ग़ज़ल 'इश्क़ में ग़ैरत ऐ जज़्बात ने रोने न दिया 'को गा कर उन्हें मक़बूल कर दिया। शायद बहुत कम लोग जानते होंगे कि उन्हें  सं 1979 में उत्तम कुमार -शर्मीला टैगोर अभिनीत फिल्म 'दूरियाँ'के गीत 'ज़िन्दगी मेरे घर आना'के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्मफेयर अवार्ड दिया गया था । इस गीत को जयदेव जी ने संगीत बद्ध किया और भूपेंद्र तथा अनुराधा पौड़वाल जी ने गाया था। सुदर्शन पहले ऐसे फ़िल्मी गीतकार हैं जिसने अपने पहले ही गीत के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्मफेयर अवार्ड जीता।      

ज़िन्दगी में जब तुम्हारे ग़म नहीं थे 
इतने तनहा थे कि हम भी हम नहीं थे 

वक़्त पर जो लोग काम आये हैं अक्सर 
अजनबी थे वो मेरे हमदम नहीं थे 

हमने ख़्वाबों में ख़ुदा बनकर भी देखा 
आप थे बाहों में दो आलम नहीं थे 

 सामने दीवार थी ख़ुद्दारियों की 
वरना रस्ते प्यार के परखम नहीं थे 
  
सुदर्शन फ़ाकिर बेहद एकांतप्रिय, स्वभाव से बहुत संकुचित और बहुत कम लोगों से खुलकर बात करने वाले थे. उनके दोस्तों की तादाद भी ज्यादा नहीं थी. जगजीत सिंह के अलावा बॉलीवुड के सितारे फिरोज खान, राजेश खन्ना और डैनी डेन्जोंगपा जरूर उनके गहरे दोस्त थे. यही कारण है की उनके नाम से अधिक उनकी रचनाएँ चर्चित हुईं। जगजीत सिंह की सुरीली आवाज़ में उनका लिखा भजन 'हे राम आज भी भारतीय घरों में बड़ी श्रद्धा से सुना जाता है। एन सी सी का राष्ट्रिय गीत 'हम सब भारतीय हैं'भी उन्हीं का लिखा हुआ है।  'ये कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी'सुदर्शन फ़ाकिर साहिब की नज़्म वो नज़्म थी जिसे जगजीत सिंह साहब ने लगभग अपने सभी लाइव शो में गाया। अच्छे शायर होने के बावजूद सुदर्शन कभी मुशायरों के मंच पर नहीं गए इसलिए आम जनता से उनकी दूरी बनी रही। हैरत की बात है कि इतने लोकप्रिय शायर की कोई किताब मंज़र ऐ आम पर नहीं आयी। वो अपनी किताब छपवाने का ख़्वाब अभी देखने ही लगे थे कि गले के कैंसर के कारण 18 फरवरी 2008 में उनकी मृत्यु हो गयी। ये भी शायद पहली बार ही हुआ है कि एक शायर की मृत्यु के 12 साल बाद उसकी पहली किताब 'कागज़ की कश्ती 'मन्ज़रे आम पर आयी है। इस किताब में सुदर्शन फ़ाकिर की चुनिंदा ग़ज़लों के अलावा उनके मशहूर गीत और नज़्में भी शामिल हैं। इस किताब को राजपाल एन्ड संस् ने प्रकाशित किया है और ये किताब अमेजन से ऑन लाइन भी मंगवाई जा सकती है.    


अब आखिर में वो ग़ज़ल जिसमें सुदर्शन फ़ाकिर की ज़िन्दगी सिमट आयी है :-   

हम तो यूँ अपनी ज़िन्दगी से मिले 
अजनबी जैसे अजनबी से मिले 

हर वफ़ा एक जुर्म हो गोया 
दोस्त कुछ ऐसी बेरुख़ी से मिले 

फूल ही फूल हमने मांगे थे 
दाग़ ही दाग़ ज़िन्दगी से मिले 

जिस तरह आप हमसे मिलते हैं 
आदमी यूँ न आदमी से मिले  

किताबों की दुनिया -215

इस इंतज़ार में हूँ शाख़ से उतारे कोई 
तुम्हारे क़दमों में ले जा के डाल दे मुझको 
*
तूने मुझे छुआ था क्या जाने वो मोजिज़ा था क्या 
हिज़्र की साअतों में भी मुझको विसाल-सा रहा 
मोजिज़ा :चमत्कार , हिज़्र: जुदाई ,साअतों :घड़ियों ,विसाल : मिलन 
*
दुनिया के भेद क्या हैं क़ुरआन-वेद क्या हैं 
आगाही-ए-अदम में इन्सान मर गया है 
आगाही ए अदम :परलोक ज्ञान 
*
उस फूल को निहारूँ और देर तक निहारूँ 
शायद इसी बहाने मैं ताज़गी को पहुँचूँ 
*
पहले भी तन्हा थे लेकिन हम को इल्म न था 
तुझसे मिल कर हमने तन्हाई को पहचाना 
*
पहले मुझको भी दुनिया से नफ़रत रहती थी 
फिर मेरे जीवन तेरे इश्क़ का फूल खिला 
*
तेरा दुःख है जो मुझे भरता है 
अपने हर सुख में अधूरा हूँ मैं 
*
हमारे वास्ते होने की सूरत
वही है जो नहीं अब तक हुआ है 
*
बाहर रह रह कर ये जाना 
अपने अंदर जन्नत है 
*  
 हज़ारों मंज़िलें सर कर चुका हूँ मैं लेकिन 
ये ख़ुद से ख़ुद का सफ़र तो बहुत अजब सा है   

'जहांगीर गँज'मुझे उम्मीद है कि शायद आपने इस गाँव का नाम नहीं सुना है। इसमें आश्चर्य की कोई बात भी तो नहीं है, भारत जैसे विशाल देश में एक राज्य के लोग दूसरे राज्य के अधिकांश शहरों के नाम तक नहीं जानते, गाँव के नाम तो दूर की बात है।ये संभव भी नहीं है। चलिए हम बता देते हैं ये गाँव भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के 'अम्बेडकर नगर'डिस्ट्रिक्ट जो 1995 में फैज़ाबाद से विभक्त हो कर अस्तित्व में आया, के अंतर्गत आता है। अब अगर हम 'जहांगीर गँज'को केंद्र में रख कर 50 की.मी रेडियस का एक गोल घेरा खींचे तो आप पाएंगे कि उस परिधि में आयी भूमी पर विलक्षण प्रतिभा के लोग पैदा हुए हैं। उन सब के नाम तो यहाँ बताने संभव नहीं हैं  लेकिन उन में से कुछ के नाम उदाहरण के तौर पर लिये जा सकते हैं जैसे प्रगतिशील लेखक संग के आधार स्तम्भ, शायर, लेख़क पद्म श्री से सम्मानित ज़नाब 'कैफ़ी आज़मी'साहब,  सोशलिस्ट पार्टी के जनक श्री  'राम मनोहर लोहिया'जी ,संस्कृत भाषा से उर्दू में भगवत गीता का अनुवाद करने वाले अनूठे शायर 'अनवर जलालपुरी'साहब , मष्तिष्क चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में क्रन्तिकारी खोज के लिए पद्म श्री से सम्मानित डॉक्टर 'मेहदी हसन'साहब और असामाजिक तत्वों द्वारा चलती रेल से दिए गये धक्के के कारण पैर गंवाने के बावजूद अपने बुलंद हौसलों से एवरेस्ट विजय करनी वाली, पद्म श्री से सम्मानित ,दुनिया की पहली महिला, 'अरुणिमा सिन्हा' । आप सोच रहे तो जरूर होंगे कि मैं आपको जहांगीर गँज के बारे में क्यों बता रहा हूँ तो इसका जवाब ये है कि हमारे आज के युवा प्रतिभाशाली शायर 'महेंद्र कुमार सानी' यहीं जहांगीर गँज में 5 जून 1984 को पैदा हुए थे और इनका नाम भी कल को इन लोगों की फेहरिश्त में शामिल हो जाय तो हैरत नहीं होनी चाहिए । उनकी ग़ज़लों की पहली किताब 'मौज़ूद की निस्बत से'हमारे सामने है।   


एक मौजूद की निस्बत से है ये सारा वजूद 
किसी अव्वल का नहीं कोई निशाँ सानी में 
*  
तन्हाई है फुर्सत है 
जीने में क्या लज़्ज़त है 
*
शेर कह कर दिल-ऐ-मुज़्तर को करार आया तो 
मसअला फिर वही दरपेश है हैरानी का 
दिल-ऐ-मुज़्तर:बेकरार दिल , दरपेश :सम्मुख 
*
मैं जागृति की अजब अजब मंज़िलों से गुज़रा 
कि रात जब तेरा ध्यान कर के मैं सो रहा था 
*
यूँ तो आवारगी मुझमें है बला की लेकिन 
इश्क़ तेरा मुझे बादल नहीं होने देता 
देखिये तो सब दुनिया मस्त-अलस्त लगती है 
जानिये तो हर इन्सां मुब्तिला है दहशत में 
मुब्तिला :खोया हुआ 
*
बिखर गया है मेरी रूह में वो ख़ार की मानिंद 
वो गुल बदन मुझे शायद गुलाब कर के रहेगा 
*
दूर करते हैं तुझे हम पहले 
फिर जो  हैरत से तुझे देखते हैं 
ये दुनिया है इसे पाना नहीं है  
इसे बस देखना है देखना है   
 *
है सारा खेल इन आँखों के घर में 
हक़ीक़त में जो बाहर दिख रहा है 

जहाँगीर गँज में अधिकतर उर्दू और हिंदी ही बोली जाती है और वहां की आबादी में मुसलमानों का प्रतिशत अधिक है। बचपन के आठ साल यहाँ बिताने के बाद याने 1992 में 'महेंद्र कुमार सानी'जी का परिवार 'पंचकुला'स्थानांतरित हो गया। पंचकुला हरियाणा का चंडीगढ़ के साथ बसा हुआ एक प्लांड शहर है। आपकी जानकारी के लिए बताता चलूँ की राष्ट्रिय पुरूस्कार से सम्मानित अभिनेता 'आयुष्मान खुराणा'यहीं के हैं. बात 1999 की है, महेंद्र तब 15 वर्ष के रहे होंगे, दसवीं कक्षा के विद्यार्थी थे, स्कूल के बाद घर लौट रहे थे कि रास्ते में पान की दुकान पर रखे टेपरिकार्डर में बज रही जगजीत सिंह की ग़ज़ल "शाम से आँख में नमी सी है आज फिर आप की कमी सी है "सुन कर उनके पाँव ठिठक गए।  ग़ज़ल जैसे ही ख़तम हुई उन्होंने पान वाले से उसे फिर से चलाने की गुज़ारिश की जब वो सीधे कहने से नहीं माना तो फिर हाथ पाँव जोड़ कर उसे मनाया और इस ग़ज़ल को चार पांच बार सुना। रास्ते भर उसे गुनगुनाते महेंद्र घर पहुंचे। जगजीत सिंह जादू उनके सर चढ़ कर बोलने लगा। घर लौटते वक्त पान की दुकान पर खड़े हो कर ग़ज़ल सुनना महेंद्र की दिनचर्या का हिस्सा बन गया। पान वाले को भी अब ये ग़ज़ल प्रेमी बच्चा पसंद आने लगा और वो महेंद्र के आते ही जगजीत की कोई न कोई कैसेट लगा देता। 

ठहरे हुए पानी में रवानी कोई शय तू 
मौजूद से आगे भी है यानी कोई शय तू 

जो एक है उस एक में हर हाल है तू ही 
अव्वल में अगर है कहीं सानी कोई शय तू 

जो रूप है वो रंग से खाली तो नहीं है 
इन ज़र्द से पत्तों में है धानी कोई शय तू 

सरसब्ज़ है ता-हद्दे-नज़र रेत की खेती 
मौजूद के सहराओं में पानी कोई शय तू 

दसवीं से बाहरवीं कक्षा तक याने दो साल तक ये सिलसिला चलता रहा. ग़ज़लें सुन सुन कर महेंद्र को उर्दू ज़बान से मोहब्बत हो गयी और उसे बहुत से उर्दू के लफ्ज़ भी याद हो गए। बाहरवीं के बाद छुट्टियों में महेंद्र अपने गाँव घूमने गए क्यूंकि अभी कॉलेज जाने में देरी थी। गाँव में महेंद्र के ग़ज़ल प्रेम को देख कर उनके बहुत से मुस्लिम दोस्त बन गए। महेंद्र की याददाश्त भी खूब थी वो बात बात पर बेहतरीन शेर सुना देते थे। उनके इस हुनर के चलते उस छोटे से जहाँगीर गँज में उनकी एक पहचान बन गयी। लोग उन्हें अपने घर बुलाते, बाजार के रास्तों ,चौराहों पर खुली चाय की दुकानों पर उसे चाय पिलाते और शायरी सुनते। ऐसी ही एक महफ़िल में महेंद्र की मुलाक़ात इलाहबाद यूनिवर्सिटी से उर्दू में एम.ऐ. कर रहे आफ़ताब अहमद से हो गयी जो छुट्टियों में अपने घर आये हुए थे । उम्र में अच्छा ख़ासा फर्क होने के बावजूद दोनों की उर्दू ज़बान से मोहब्बत की वजह से दोस्ती हो गयी। दो तीन दिन में एक बार होने वाली ये मुलाक़ात अब दिन में दो तीन बार होने लगी। आफ़ताब से मिलने के बाद जैसे महेंद्र के ज़ेहन में रौशनी फ़ैल गयी। ग़ज़ल कहने के नए आयाम उनके सामने खुलने लगे। बात धीरे धीरे जगजीत सिंह की ग़ज़लें सुनने से आगे बढ़ कर अब खुद शेर कहने, रदीफ़, काफ़िये को निभाने तक जा पहुंची। .   

मिरे वजूद में तेरा वजूद ऐसे है 
दरख़्त-ए-ज़र्द में जैसे हरा चमकता है 
दरख्त-ऐ-ज़र्द :सूखा पेड़ 

ये रौशनी में कोई और रौशनी कैसी 
कि मुझ में कौन ये मेरे सिवा चमकता है 

मैं एक बार तो हैरान हो गया 'सानी'
ये मेरा अक्स है या आइना चमकता है

आफ़ताब अहमद के मिलने से पहले महेंद्र मानते थे कि उर्दू सिर्फ मुसलमानों की ही ज़बान है।  आफ़ताब अहमद ने फ़िराक़ गोरखपुरी, कृष्ण बिहारी नूर, कुँवर महेंद्र सिंह बेदी 'सहर', पंडित बृज नारायण चकबस्त आदि के साथ साथ ऐसे और कई मशहूर शायरों के नाम महेंद्र को बताये जो मुस्लिम नहीं थे । उन्होंने महेंद्र को समझाया कि उर्दू ज़बान हमारी अपनी ज़बान है और इस पर जितना हक़ मेरा है उतना ही तुम्हारा भी है बशर्ते तुम इसे ढंग से सीखो। इस बात ने महेंद्र को रोमांचित कर दिया और उसने फैसला किया कि वो पंचकुला पहुँचते ही उर्दू लिखना पढ़ना सीखेगा। पंचकुला के जिस कॉलेज में महेंद्र ने दाखिला लिया उसके पास ही हरियाणा उर्दू अकेडमी थी वहां कम्यूटर के साथ उर्दू का कोर्स सीखना जरुरी था। महेंद्र ने कोर्स में दाखिला ले लिया और अगले दो तीन महीनों में ही अच्छे से उर्दू लिखना पढ़ना सीख गया। महेंद्र ने अकेडमी की लाइब्रेरी में रखी उर्दू शायरी की किताबें एक एक करके पढ़ने का सिलसिला शुरू कर दिया। इन किताबों को पढ़ने के साथ ही महेंद्र ने अपनी शायरी का आगाज़ कर तो दिया लेकिन उसे महसूस हुआ कि शायरी ख़ास तौर पर ग़ज़ल कहना महज़ काफिया पैमाइ का नाम नहीं है। अब महेंद्र को तलाश थी एक ऐसे शख्स की जिसकी ऊँगली पकड़ कर वो ग़ज़ल की टेढ़ी मेड़ी पगडंडियों पर आसानी से चलना सीख सकें।    
एक जंगल सा उगा है मेरे तन के चारों ओर 
और अपने मन के अंदर ज़र्द-सा रहता हूँ मैं 

एक नुक़्ते से उभरती है ये सारी क़ायनात  
एक नुक़्ते पर सिमटता फैलता रहता हूँ मैं 

रौशनी के लफ्ज़ में तहलील हो जाने से क़ब्ल 
इक ख़ला पड़ता है जिस में घूमता रहता हूँ मैं 
तहलील : घुल जाना

उस्ताद की तलाश महेंद्र को पंचकुला के नामवर अदीब जनाब 'टी एन राज'साहब के दर पर ले आयी।  राज साहब उर्दू के आला तन्ज़ो मिज़ाह के शायर हैं और उनका शेरी मजमुआ  'ग़ालिब और दुर्गत'उर्दू मज़ाहिया शायरी में मक़बूल हुआ। राज साहब के यहाँ उर्दू का हर बेहतरीन रिसाला आता था और हर विषय पर छपी उर्दू की श्रेष्ठ किताबें आती थीं। हरियाणा उर्दू अकेडमी की लाइब्रेरी ने जहाँ महेंद्र को रिवायती शायरी की ढेरों किताबें पढ़ने का मौका दिया वहीँ राज साहब के यहाँ उनका परिचय उर्दू की आज की शायरी से हुआ। राज साहब ने महेंद्र के अध्ययन विस्तार दिया लेकिन उनकी शायरी को सही पटरी पर डाला जनाब 'एस एल धवन'साहब ने। उसके बाद महेंद्र की लगन और लगातार पढ़ते  रहने की आदत ने उन्हें शायरी के एक ख़ास मुक़ाम पर पहुंचा दिया। 

 मैं सोचता हूँ मग़र क्या मुझे नहीं मालूम 
मैं देखता हूँ मग़र ध्यान किसके ध्यान में है 

जहाँ मैं हूँ वहीँ उसको भी होना चाहिए ,फिर 
मुझे वो क्यों नहीं मिलता ,वो किस जहान में है 

उसी का तर्जुमा भर मेरी शायरी 'सानी'
वो एक लफ्ज़ जो मुब्हम-सा मेरे कान में है 
मुब्हम: अस्पष्ट 

इस किताब की भूमिका में जयपुर के मशहूर शायर जनाब 'आदिल रज़ा मंसूरी'साहब, जो महेंद्र की शायरी के इस सफर में शरीक रहे हैं, लिखते हैं कि "मौजूद के मानी जहाँ 'हाज़िर'के हैं वहीँ एक मानी 'ज़िंदा'या 'जीवित'के भी हैं। 'ज़िंदा मतलब 'ज़िन्दगी'यानी ये शाइरी ज़िन्दगी से इंसान की निस्बत की शाइरी है. जिसके सामने रोज़े-ए-अज़ल से कुछ सवाल हैं। 'वो कौन है ?क्यों है ?किसलिए है ? ख़ुदा क्या है ? है भी या नहीं ?ये दुनिया क्या है ? रूह क्या है ? सानी का ज़हन भी ऐसे सवालों के घेरे में है मग़र उनके यहाँ सिर्फ सवाल नहीं हैं उनके पास जवाब भी है जो उनके अपने हासिल-कर्दा हैं और उनकी शायरी इन जवाबों के इज़हार की शाइरी है।  उनकी शाइरी में ज़ाहिर में भी एक फ़िक्री पर्दा है जहाँ उनके हमअस्र सब कुछ कह देना चाहते हैं वहीँ 'सानी'कहे में कुछ अनकहा छोड़ देते हैं बल्कि ये काम वो कारी याने पाठक के सुपुर्द कर देते हैं " 
महेंद्र सानी अपनी बात कहते हुए लिखते हैं कि 'शाइरी क्या है ? इसी उधेड़बुन में एक अरसा सर्फ़ हो चुका है और ऐसा लगता है मेरी बाक़ी उम्र भी ऐसे ही गुज़रने वाली है "      

इस क़दर ख़ामुशी है कमरे में 
एक आवाज़-सी है कमरे में 

कोई गोशा नहीं मिरी खातिर 
क्या मिरी ज़िन्दगी है कमरे में 

कोई रस्ता नहीं रिहाई का 
वो अजब गुमरही है कमरे में 

एक बाहर की ज़िन्दगी है मिरी 
और इक ज़िन्दगी है कमरे में 

महेंद्र जी, जो आजकल एक स्टार्टअप 'योर कोट'में मैनेजर के ओहदे पर कार्यरत हैं, का मानना है कि शाइरी के लिए कही गई ये बात ग़लत है कि इसे हर कोई नहीं कर सकता। वो बाकायदा शाइरी सिखाते भी हैं ग़ज़ल पर वर्क शाप भी करते हैं । वो ख़ुद एक ऐसे परिवार से हैं जिसका शाइरी से कभी कोई नाता नहीं रहा। उनका मानना है कि हर वो इंसान जिसका ज़हन सवाल करता है शाइरी कर सकता है आप महेंद्र जी से 8699434749 / 7009383017 पर  सम्पर्क करें उन्हें इस किताब के लिए मुबारक़ बाद दें और इस किताब को अमेज़न या रेख़्ता बुक्स से ऑर्डर करें। इस किताब पर बहुत से विद्वान शायरों और आलोचकों ने अपने विचार रखें हैं जिन्हें आप महेंद्र कुमार सानी जी के फेसबुक अकाउंट पर पढ़ सकते हैं। मैंने आपको महेंद्र जी के बारे में जितना मुझे पता था बताया, उनकी शाइरी के बारे में. आप उन्हें पढ़ कर, अपनी राय स्वयं बनायें , चलते चलते आईये  आपको उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर भी पढ़वा देता हूँ :  

जिस्म इक सहरा है सहरा के दरून 
एक दरिया चस्म-ऐ-तर दरवेश है 
दरून : अंदर , चश्म-ऐ-तर : भीगी आँख 

ख़ल्क़ ख़ाली सीपियाँ हैं दहर में 
दहर में कोई गुहर दरवेश है 
ख़ल्क़ :प्रजा ,दहर:संसार , गुहर : मोती 

जाने किस फ़ुर्सत में फिरता है वो शख़्स 
इस तरह तो दर-ब-दर दरवेश है   

किताबों की दुनिया -216 

पते की बात भी मुँह से निकल ही जाती है 
कभी कभी कोई झूठी ख़बर बनाते हुए 
*
मिज़ां तक आता जाता है बदन का सब लहू खिंच कर 
कभी क्या इस तरह भी याद का काँटा निकलता है 
मिज़ां :पलक 
*
मैं अपने आप में गुम था मुझे ख़बर न हुई 
गुज़र रही थी मुझे रौंदती हुई दुनिया 
*
रात बहुत दिन बाद आए हैं दिल के टुकड़े आँखों में 
रात बहुत दिन बाद मिले हैं ये अंगारे पानी से 
*
रोज़ बुनियाद उठाता हूँ नई 
रोज़ सैलाब बहा कर ले जाए 
*
कुछ और तर्ह की मुश्किल में डालने के लिए 
मैं अपनी ज़िन्दगी आसान करने वाला हूँ 
*
न बात कहने की मोहलत है और न सुनने की 
चले चलो यूँही एक आध इशारा करते हुए 
*
जो भी सच्ची बात कहेगा ज़हर लगेगा दुनिया को 
अपने सच में थोड़ा थोड़ा झूठ मिलाते रहा करो 
*
कहते हो कि याद उसकी वबाले-ए-दिल-ओ-जाँ है 
ऐसा ही अगर है तो भुला कर उसे देखो        
वबाले-ए-दिल-ओ-जाँ : दिल और जान की मुश्किल  
*
वो यूँ मिला था कि जैसे कभी न बिछड़ेगा 
वो यूँ गया कि कभी लौट कर नहीं आया 

बात तब की है जब भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव अपने चरम पर था। आणविक युद्ध की तैयारियों के चलते दोनों देश परीक्षण कर चुके थे। ऐसे में दोनों देशों के तब के प्रधानमंत्रियों ने शांति स्थापित करने के लिए एक ऐतिहासिक क़दम उठाया। वो था ,दोनों देशों के बीच बस सेवा शुरू करने का निर्णय। इस बस सेवा को नाम दिया गया 'सदा-ऐ-सरहद'। शुक्रवार 19 फ़रवरी 1999 का दिन भारत और पाकिस्तान के आपसी संबंधों के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जायेगा। इसी दिन दोनों देशों के बीच ये बस यात्रा शुरू की गयी थी जो आज भी दिल्ली और लाहौर के बीच चलती है (बीच में कुछ समय के लिए स्थगित की गयी थी )। भारत की और से इस पहली सद्भावना बस यात्रा में तब के प्रधानमंत्री स्व .श्री अटलबिहारी बाजपेयी जी के साथ भारत के गणमान्य नागरिक भी शामिल थे। वाघा बार्डर पर पाकिस्तान के प्रधान मंत्री श्री नवाज़ शरीफ़ ने इस बस से पधारे भारतीय प्रतिनिधि मंडल का भावभीना स्वागत किया था । लाहौर में भारतीयों के सम्मान में हुए एक शाही भोज के कार्यक्रम में श्री नवाज़ शरीफ़ और उनके केबिनेट के सदस्यों और पाकिस्तान के सम्मानित नागरिकों की मौजूदगी में एक युवा शायर ने श्री अटलबिहारी बाजपेयी जी को उन्हीं की कविताओं का उर्दू में छपा संकलन 'हम जंग न होने देंगे'भेंट में दिया। सब ने तालियां बजा कर उस युवा शायर को दोनों देशों की दोस्ती के लिए तैयार किये इस खूबसूरत तोहफ़े के लिए बधाई दी। किसे पता था कि कुछ दिनों बाद ये तोहफ़ा ही इस शायर की जान का दुश्मन बन जायेगा। 

हाल हमारा पूछने वाले 
क्या बतलाएँ सब अच्छा है 

क्या क्या बात न बन सकती थी 
लेकिन अब क्या हो सकता है 

कब तक साथ निभाता आख़िर 
वो भी दुनिया में रहता है 

दुनिया पर क्यों दोष धरें हम 
अपना दिल भी कब अपना है 
 
दरअसल हुआ यूँ कि इस नौजवान शायर की ये अदा और उसका बाजपेयी जी के साथ  मुस्कुराकर फोटो खिंचवाने का मंज़र उस दावत में आये एक फ़ौजी अफ़सर की निग़ाहों में चुभ गया। दूसरे दिन के लगभग सभी पाकिस्तानी अख़बारों में उस शायर, जिसका नाम 'आफ़ताब हुसैन'है, की बाजपेयी जी को क़िताब देते की फोटो प्रमुखता से छपी जो उस फ़ौजी अफ़सर को और भी नाग़वार गुज़री। सीधी सी बात है अगर दुश्मनी ही ख़त्म हो जाय तो फ़ौज का क्या काम ? वैसे भी क़लम से बन्दूक की दुश्मनी बहुत पुरानी है। बन्दूक अवाम की ज़बान बंद करने के काम आती है और क़लम अवाम को ज़बान खोलने को उकसाती है। खैर साहब जैसा कि पड़ौसी मुल्क़ की गौरवशाली परम्परा है, कुछ महीनो के बाद ही फ़ौज ने नवाज़ शरीफ़ की शराफ़त को दरकिनार करते हुए उनकी सत्ता का पासा पलट कर मुल्क़ पर कब्ज़ा कर लिया। आफ़ताब हुसैन की तरफ़ से दोस्ती का हाथ बढ़ाने वाली इस मासूम सी हरक़त को मुल्क़ के साथ ग़द्दारी समझ कर फ़ौज की तरफ़ से उनपर कड़ी नज़र रखने का फरमान जारी हो गया। जासूस उनकी छोटी बड़ी सभी गतिविधियों को नोट करने लगे। आये दिन उनके उठाये हर क़दम की पूछताछ की जाती जैसे वो फलाँ से क्यों मिले ,क्या बात की फलाँ जगह क्यों गएआदि आदि। एक शरीफ़ बेक़सूर इंसान को परेशान करने के लिए जितने हथकंडे अपनाये जा सकते थे सब अपनाये जाने लगे। उनकी अच्छी खासी सुकून से कट रही ज़िन्दगी दुश्वार की जाने लगी .

समझ में आती नहीं जिसको बात ही मेरी 
वो मेरी बात की तफ़्सीर करने के लिए है 
तफ़्सीर : व्याख्या 

कोई नहीं जो कहे हर्फ़ दो तसल्ली के  
जिसे भी देखिये तक़रीर करने के लिए है 
*
गुज़र के आया हूँ मैं रौंदता हुआ खुद को 
किसी का काम था लेकिन ये काम मुझ से हुआ 
*
चलता जाता हूँ मुसलसल किसी वीराने को 
और लगता है मुझे जैसे घर आता हुआ हूँ 
*
क्या ख़बर मेरे ही सीने में पड़ी सोती हो 
भागता फिरता हूँ जिस रोग भरी रात से मैं 
*
मोहब्बत है मैं उसको देखता हूँ सोचता हूँ 
मोहब्बत जब नहीं होगी तो वो कैसा लगेगा 
*
हवस की राह से निकलो अगर नहीं है मोहब्बत 
ये रास्ता भी उसी रास्ते से जा मिलेगा         
*
रास्ता देखते रहते थे कि आएगा कोई 
और जिसे आना था जाने की तरफ़ से आया 
*
इस समन्दर में गुज़ारा नहीं होने वाला 
किसी खामोश जज़ीरे की तरफ जाता हूँ मैं 
*
सर सलामत है तो समझो न सलामत मुझको 
अंदर अंदर कोई दीवार दरकती हुई है 

पुलिस द्वारा उनसे गाहे बगाहे पूछताछ की जाती, जिरह की जाती, डराया धमकाया जाता और इस मामूली से मसले को फ़ौज के हक़ में ले जाने के लिए उनपर दबाव बनाया जाता कि वो वही कहें जो ख़ुफ़िया एजेंट उनसे कहलवाना चाहते हैं। आफ़ताब हुसैन के जमीर ने पुलिस द्वारा गलत बयानी की पेशकश को मंज़ूर नहीं किया। जमीर पर अपनी किताब 'अघोषित आपातकाल'में कमलेश्वर लिखते हैं  कि ' जमीर नाम की कोई चीज फ़ौज के पास नहीं होती जमीर नाम का बीज 'तहजीब-संस्कृति'के खेतों से उगता है। बारूद के गोदामों या बारूदी ज़मीन में नहीं। "  
 2 मार्च 2002 को कराची में एक मुशायरा आयोजित किया गया था जिसमें शिरकत करने को आफ़ताब लाहौर से कराची गए और मुशायरे के बाद किसी काम की वजह से वहीँ रुक गए। चार मार्च को उनके लाहौर वाले घर पर छापा पड़ा और सारा सामान तहस नहस कर दिया गया। असल में फ़ौजी और आई एस आई के एजेंट आफ़ताब हुसैन को गिरफ़्तार करने को आये थे। ये तो अच्छा हुआ कि वे उस वक्त कराची में थे। कराची में आफ़ताब को उनके छोटे भाई से इस छापे की ख़बर मिली और इससे पहले कि कराची में उनपर आफत टूटती वो अपने गाँव चले गए। 

सोचने से ही परेशानी है 
मत परेशान रहो, सोचो मत   

मन्ज़िल-ए-शौक़ किसे मिलती है 
बस यूँही चलते चलो, सोचो मत 

इश्क़ का का काम है सुब्हान-अल्लाह 
सोचते क्या हो करो, सोचो मत 

सोचते रहने से क्या होता है 
उठ के कुछ काम करो, सोचो मत 

गाँव से इस्लामाबाद जाने और वहां से भारत का वीसा प्राप्त करने की अलग ही कहानी है। वीसा मिलने के बाद अगर आफ़ताब हवाई जहाज़ से भारत आते तो एयरपोर्ट पर ही पकडे जाते लिहाज़ा उन्होंने 'समझौता एक्प्रेस'से जाना ही बेहतर समझा। वाघा बार्डर पर चेकिंग हुई लेकिन वहां की पुलिस इतनी मुस्तैद नहीं नहीं थी कि उन्हें पकड़ती। पाकिस्तानी ख़ुफ़िया पुलिस को भी उनके भारतीय वीसा की भनक नहीं लगी थी इसलिए वो सकुशल भारत आ गए जहाँ उन्हें राजनीतिक शरण मिल गयी। भारत में उनके बहुत से चाहने वाले और दोस्त थे जिनमें कमलेश्वर प्रमुख थे। कमलेश्वर ने ही उनकी इस दास्तान को अपनी किताब 'अघोषित आपातकाल'में विस्तार से कलम बद्ध किया है। आज हम उनकी ग़ज़लों की किताब 'मोहब्बत जब नहीं होगी'को आपके सामने लाये हैं । इस क़िताब को 'रेख़्ता बुक्स'ने प्रकाशित किया है आप इसे contact@rekhta.orgसे या फिर अमेजन से आसानी से मँगवा सकते हैं। ये किताब उन्होंने 'कमलेश्वर और केदार सिंह'को याद करते हुए समर्पित की है। 


चार साँसे थीं मगर सीने को बोझल कर गईं 
दो क़दम की ये मसाफ़त किस क़दर भारी हुई 
मसाफ़त :दूरी 

एक मंज़र है कि आँखों से सरकता ही नहीं 
एक साअ'त है कि सारी उम्र पर तारी हुई 
साअ'त : पल     

किन तिलिस्मी रास्तों में उम्र काटी आफ़ताब 
जिस क़दर आसाँ लगा उतनी ही दुश्वारी हुई 

आफ़ताब हुसैन का जन्म 6 जून 1962 को तालागंग, पंजाब पाकिस्तान में हुआ। गाँव में  शुरूआती तालीम के बाद ये लाहौर पढ़ने चले आये और यूनिवर्सिटी ओरियंटल कॉलेज लाहौर से उर्दू साहित्य में पोस्ट ग्रेजुएशन किया और उसी शहर में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के तौर पर काम करते रहे। उनकी क़ाबलियत के चलते उन्हें 'हल्क़ा ए अर्बाबे ज़ौक़'लाहौर का सेकेट्री बनाया गया। यहाँ आपको बतलाता चलूँ कि 'हल्क़ा ए अर्बाबे ज़ौक़' 29 अप्रेल 1939 को पाकिस्तान का एक महत्वपूर्ण साहित्यिक मूवमेंट था जिसे 'नून मीम राशिद'और 'मीरजी'ने शुरू किया और बाद में इसमें पाकिस्तान के प्रसिद्ध साहित्यकारों के अलावा भारत के 'कृष्ण चन्दर'और 'राजेंद्र सिंह बेदी'जैसे साहित्यकारों भी जोड़ा। लाहौर से शुरू हुआ ये मूवमेंट अब पाकिस्तान के विभिन्न शहरों के अलावा 'भारत , यूरोप और नार्थ अमेरिका के बहुत से शहरों में भी शुरू हो चुका है। बीस साल की उम्र याने सन 1982 में ही आफ़ताब हुसैन ने अपनी शायरी की बदौलत पाकिस्तान में वो मुक़ाम हासिल कर लिया था जिसे हासिल करने में दूसरे अपनी पूरी उम्र खर्च कर देते हैं। 

कोई नहीं जो वरा-ए-नज़र भी देख सके 
हर एक ने उसे देखा है देखने के लिए 
वरा-ए-नज़र: आँखों की पहुँच से बाहर 

बदल रहे हैं ज़माने के रंग क्या क्या देख 
नज़र उठा कि ये दुनिया है देखने के लिए 

गुज़र रहा है जो चेहरे पे हाथ रक्खे हुए 
ये दिल उसी को तरसता है देखने के लिए 

पाकिस्तान में आफ़ताब साहब की ज़िन्दगी सुकून से कट रही थी तभी वो हादसा हुआ जिसका ज़िक्र ऊपर किया जा चुका है। भारत में शरण लेने के कुछ अरसे बाद वो अदीबों के आलमी इदारे (P. E. N. ) की दावत पर जर्मनी चले गए और वहाँ से ऑस्ट्रिया की कल्चरल मिनिस्ट्री और विएना शहर के बुलावे पर 'राइटर इन रेसिडेंस 'के तहत वहीँ बस गए। विएना यूनिवर्सिटी से तुलनात्मक साहित्य में पी एच डी की डिग्री लेने के बाद अब उसी यूनिवर्सिटी में दक्षिणी एशिया के साहित्य और संस्कृति का अध्यापन करते हैं और वहां से एक जर्मन-इंग्लिश भाषा की पत्रिका वर्ड एंड वर्ल्ड'भी निकालते हैं. हिंदी के अलावा उनकी रचनाएँ इटेलियन ,इंग्लिश ,पर्शियन, बंगाली और जर्मन आदि कई भाषाओँ में पढ़ी एवं सराही जाती हैं। ग़ज़ल के अलावा वो विभिन्न सामाजिक समस्याओं पर विचारोत्तेजक लेख भी लिखते हैं। किसी ने सही कहा है कि ज़िन्दगी में जो होता है अच्छे के लिए होता है अगर वो बाजपेयी जी की कविताओं की उर्दू में किताब न छपवाते और उन्हें स्वयं भेंट न देते तो शायद वो वहाँ नहीं होते जहाँ आज हैं।    

कार-ए-दुनिया कहीं निमटा है किसी से भी कहीं 
आप बेकार मुसीबत में, पड़े रहते हैं   
कार-ए-दुनिया: दुनिया के काम    

शेर का नश्शा भी अफ्यून से कुछ कम तो नहीं 
कि जो पड़ जाते हैं इस लत में, पड़े रहते हैं 
अफ्यून: अफ़ीम 

यार लोग आ के सुना जाते हैं बातें क्या क्या  
और हम हैं कि मुरव्वत में, पड़े रहते हैं 

अब तो पड़ने में कोई लुत्फ़ न रहने में मज़ा 
बस पड़े रहने की आदत में, पड़े रहते हैं 

यूँ तो आफ़ताब हुसैन साहब की अलग अलग विषयों पर अब तक आधा दर्ज़न से अधिक किताबें उर्दू इंग्लिश में छप कर बाजार में आ चुकी हैं लेकिन उर्दू में छपी उनकी ग़ज़लों की एकमात्र किताब 'मत्ला' 1999 में छपी थी जो भारत और पाकिस्तान में बहुत चर्चित रही. आफ़ताब हुसैन इस क़िताब की भूमिका में लिखते हैं कि "शेर कहना मेरे लिए एक सुखद अनुभव है कि ये अभिव्यक्ति का वो माध्यम है जो मेरी ऊर्जा को जीनलाइज़ करता है। शेर कहते हुए मेरी नज़रों में कोई विशेष पाठक नहीं होता, मैं खुद भी नहीं होता।  बस एक तरंग होती है जो मुझसे लिखवाये चली जाती है। मेरी शाइरी का विषय-वस्तु क्या है ? मैंने इसके बारे में कभी गौर नहीं किया।  मैं समझता हूँ कि ज़िन्दगी ही की तरह शाइरी भी एक फैली हुई क़ायनात है। मैं इतना जरूर जानता हूँ कि मैं अपना सच लिखता हूँ और अपनी पूरी कुव्वत के साथ लिखता हूँ। "    
मेरी गुज़ारिश है कि आप आफ़ताब हुसैन साहब को पढ़ें और फिर खुद फैसला करें कि उनकी शाइरी कैसी है। आखिर में उनकी एक ग़ज़ल के चंद शेर आपकी ख़िदमत पेश करते हुए विदा लेता हूँ :

मन्ज़िल हाथ नहीं आ पाती ख़्वाब अधूरा रह जाता है 
राह-ए-तलब पर चलते चलते आदमी आधा रह जाता है 
राह-ए-तलब: ख्वाहिशों की राह    

कभी कभी तो दिल की धड़कन बंद भी हो जाती है साहब 
कभी कभी तो सीने में बस दर्द धड़कता रह जाता है 

तुझको भूल चुके हैं हम भी लेकिन ऐसी बात नहीं कुछ 
सूरज डूब भी जाए अगर तो एक धुँदलका रह जाता है  

वक़्त का पहिया चले तो फिर कब चल सकता है ज़ोर किसी का 
आदमी अपने आप को क्या क्या चीज़ समझता रह जाता है 


किताबों की दुनिया : 217

जाने क्या अंजाम होगा अब मिरी तक़दीर का 
ख़ुदकुशी के वक़्त टूटा सिलसिला ज़ंजीर का 
सिलसिला :कड़ी 

उसने दिल की धड़कने मुझको सुनाने के लिए 
डाला है तावीज़ गर्दन में मिरी तस्वीर का 

भैंस की आँखों पे पट्टी बांध कर तहबंद से 
राँझा पहने फिर रहा है आज लहंगा हीर का 

कल्पना कीजिये कि भैंस की आँखों पर राँझे का तहबंद है और उसके पीछे राँझा हीर का लहंगा पहने ठुमकता चल रहा है। इस दिलकश मंज़र को देख कर आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी ? आप हैरान होंगे या मुस्कुरायेंगे या ठहाका लगा कर हँसेंगे ? मेरे ख्याल से आप हैरान तो बाद में होंगे पहले अगर आप बिंदास नहीं हैं तो मुस्कुरायेंगे वरना ठहाका लगाएंगे। ये मुस्कुराने और ठहाके लगाने का गुण ही आपको जानवरों से अलग करता है, क्यूंकि सिर्फ जानवर ही न मुस्कुराते हैं न ठहाके लगाते हैं। तो आज किताबों की दुनिया में हम आपको पहली बार मुस्कुराने और ठहाके लगाने की दावत देते हैं। पता नहीं क्यों हमारे समाज में हंसने और ठहाके लगाने को बेहूदगी समझा जाता है। शायद ही आप लोगों को सड़कों या महफ़िलों में खुल कर ठहाके लगाते देखें।ख़ास तौर पर तथाकथिक सभ्रांत लोगों को। तमीज़दार लोग सिर्फ़ मुस्कुराते हैं, वो भी हौले से। इस से तनाव बढ़ता है। इस तनाव भरे युग में अपना मानसिक संतुलन बनाये रखने के लिए खुल कर हंसना सबसे कारगर इलाज़ है। मेरी बात शायद आपको नागवार गुज़रे इसलिए चलिए उन फ़िल्मी गानों का जिक्र करते हैं जो हंसने की पैरवी करते हैं .|आज के दौर के युवा ने शायद मुकेश के गाने न सुने हों लेकिन हमारे दौर में उनका फिल्म 'किनारे किनारे'का ये गाना हमें बहुत बड़ा सबक देता था 'जब ग़मे इश्क़ सताता है तो हँस लेता हूँ , हादसा याद ये आता है तो हँस लेता हूँ 'उन्हीं का गाया फ़िल्म 'आशिक़ी'का एक और गीत है 'तुम आज मेरे संग हँस लो तुम आज मेरे संग गा लो और हँसते गाते इस जीवन की उलझी राह सँवारो ' .दोनों गाने बताते हैं कि विपरीत परिस्थितियों से बाहर निकलने का एक ही रास्ता है -हँसो।     

जो किसी बहाने घर में कभी सालियाँ भी आतीं 
भला फिर ये क्यों झमेला मुझे नाग़वार होता 
*
फिर भला इसमें लुत्फ़ ही क्या है 
इश्क़ जब गालियों भरा न हुआ 
*
हुआ था दर्द से भारी तो ग़म क्या सर के कटने का 
न सर कटता मिरा तो ज़िन्दगी भर सर फिर होता 
*
मुर्ग़ बिरयानी सभी कुछ है पसंद 
पेट में हो गैस तो फिर खाएँ क्या   
*
ये नहीं है वो नहीं है रोज़ बेग़म का है ताओ 
ले न डूबे हम को ये अपनी गृहस्ती एक दिन 
*
बदल कर ज़रा भेस हम हिंजड़ों का 
नवाबों के रंगी हरम देखते हैं 
*
दफ़्तर में आ ही जाता हूँ कुछ वक़्त काटने 
वैसे किसी के बाप का नौकर नहीं हूँ मैं 
*
जब से बढ़ा है शहर में मौतों का सिलसिला 
हमराह अपने रखता हूँ इक नौहागर को मैं 
नौहागर :रोने पीटने वाला 
*
वो सियाह ज़ुल्फ़ें जो बन कर नाग डसती थीं हमें 
वक़्त की फटकार खा कर अब सिवय्यां हो गईं 
गंजे हुए हैं हम मियां जूते ही खा के इश्क़ में 
जिसको हो अपना सर अज़ीज़ उसकी गली में जाए क्यों 

पंजाब का एक प्रमुख शहर है पटियाला जो अपने 'पैग'के अलावा दीवान 'जर्मनी दास'की किताब 'महाराजा'और 'महारानी'में चर्चित महाराजा भूपेंद्र सिंह के किस्सों और मौसिकी के उस घराने के लिए प्रसिद्ध है जिससे जनाब बड़े ग़ुलाम अली खां साहब भी मुतअल्लिक़ थे। उसी शहर में एक मिठाई की दूकान थी, जिसकी मिठाइयों की मिठास से ज्यादा मीठी उसके मालिकों की ज़ुबान हुआ करती थी। दुकान के मालिकों से ख़ालिस उर्दू, हिंदी और पंजाबी में कभी शेर तो कभी उनकी पैरोडी तो कभी चटपटे जुमले सुनता हुआ ग्राहक एक की जगह तीन मिठाइयां ले लेता और फिर भी वहीँ जमा रहता। दुकान के मालिक श्री मालू राम जी के बेटे 'राज़'को दुकान जा कर अपने पिता, भाई और मामा की लच्छेदार बातें सुननी बड़ी अच्छी लगतीं। घर में माँ भी, कभी कभी ऐसे जुमले जड़ देती कि राज़ हँसते हँसते लोटपोट हो जाता। शायरी में राज़ की दिलचस्पी बढ़ने लगी। इस ख़ुशनुमा माहौल में राज़ कब शायरी करने लगा उसे पता ही नहीं चला और तो और कब मिर्ज़ा ग़ालिब उसके जेहन पर सवार हो गए इसकी भी खबर नहीं लगी। ग़ालिब का जादू उनके सर चढ़ कर बोलने लगा।     

रात का सन्नाटा हो और राज़दां कोई न हो 
बीवियां तनहा ही घूमें और मियां कोई न हो 
*
थान पर खच्चर के मैंने ऊँट बांधा था जो कल 
रंग उस पर वो चढ़ा कि हिनहिनाता जाए है 
थान : खूँटा 
*
मुहल्ले वालों का सर फोड़ना है बात अलग 
फटेगी शर्ट तो समझोगे तुम रफू क्या है 
*
अच्छे खासे को भी लंगड़ा कह दिया 
ज़ाइके बदनाम हैं यूँ आम के 
*
मेरे अल्लाह मेरी पारसाई पर करम करना 
 मुसल्सल तेज़ बारिश में वो लिपटा जाए है मुझ से 
*
सांडों की लड़ाई में परेशांन सभी थे 
कुत्ता मिरे पीछे था तो भैंसा मिरे आगे 
*
सोहबत का जानवर की हुआ उन पे असर 
पाली है जब से लोमड़ी चालाक हो गए  
*
हम हो चुके है घुटनों से लाचार क्या करें 
यानी उचक के हुस्न का दीदार क्या करें 
*
मरते थे जो हसीन वो मुँह फेर कर चले  
इस चौखटे पे झुर्रियों की मार देख कर 
*
इश्क़ के ख़ुतूत ने दिखलाया रंगे-ख़ास 
महबूब जितने थे उन्हें ले भागे डाकिए 
ख़ुतूत :चिठ्ठियां 

ये राज़ ही हमारे आज के शायर हैं जिनका पूरा नाम श्री 'त्रिलोकी नाथ काम्बोज'है लेकिन अदबी हलकों में इन्हें "टी.एन. राज़"के नाम से जाना जाता है। इनकी किताब "ग़ालिब और दुर्गत"हमारे सामने है जिसमें राज़ साहब ने, जैसा कि आपने अब तक पढ़ कर समझ ही लिया होगा, ग़ालिब साहब की मशहूर ग़ज़लों की वो दुर्गत की है कि ग़ालिब उसे पढ़ कर बजाय नाराज़ होने के क़ब्र के अँधेरे में मारे ख़ुशी के भंगड़ा कर रहे होंगे। कारण ये कि जो काम राज़ साहब ने किया है वो बच्चों का खेल नहीं है । तन्ज़-ओ-मिज़ाह याने हास्य व्यंग की शायरी करना, वो भी ग़ालिब की ज़मीन पर, बहुत ही मुश्किल काम है लेकिन साहब राज़ साहब ने इस काम को अंजाम दिया है और क्या खूब दिया है। किताब पढ़ते पढ़ते दिल बाग़ बाग़ हो जाता है। अगर ये काम आसान होता तो अब तक बहुत से शायर इसे कर चुके होते। ऐसा नहीं है कि बाक़ी शायरों ने कोशिश नहीं की ,खूब की लेकिन साहब ग़ालिब की ज़मीन इतनी सख्त है कि बहुत से खेती करने वालों के तो इस कोशिश में हल ही टूट गए और जो थोड़े बहुत हल चला पाए उनके ख्यालों के बीज उसमें पनपे ही नहीं । ग़ालिब छोड़िये वैसे भी तन्ज़-ओ-मिज़ाह पर आसानी से कलम नहीं चलती तभी तो शायरी के इतिहास में संजीदा शायरों के नाम की तो एक कभी न खत्म होने वाली लम्बी सी लिस्ट बन जायेगी लेकिन ढंग के तन्ज़-ओ-मिज़ाह के शायर शायद उँगलियों पर गिनने लायक भी न हों। एक नज़ीर अकबराबादी जरूर जेहन में आते हैं जबकि इस विधा में नस्र में लिखने वालों की तादाद जरूर कुछ बड़ी है। सच्ची बात तो  ये है कि किसी को हँसाना मुश्किल है और रुलाना बहुत आसान इसलिए लोग आसान काम को ज्यादा तरज़ीह देते हैं और रुलाने के नए नए तरीके इज़ाद करते रहते हैं। 
 

गाड़ी रूकती नज़र नहीं आती 
छींक वक़्ते सफ़र नहीं आती 

जूता बाटा का अब चले कैसे 
पहले सी वो रबर नहीं आती 

आँख में जब से उतरा मोतिया 
कोई सूरत नज़र नहीं आती 

ज़हमते-गैस होगी सुब्ह-रफअ 
नींद क्यों रात भर नहीं आती 
ज़हमते गैस -गैस की तकलीफ़ , सुब्ह-रफअ : सुबह दूर 

बीवी जाती है जब भी मायके को 
कोई भी साली घर नहीं आती 
    
जनाब त्रिलोकी नाथ उर्फ़ टी.एन. साहब का जन्म 19 सितम्बर 1934 में पटियाला में हुआ। 'राज़'तख़ल्लुस ज़ाहिर सी बात है बाद में जुड़ा। परिवार का ताल्लुक क्यूंकि मिठाई से था, जिसमें पढाई से ज़्यादा तजुर्बा काम आता है, लिहाज़ा अपनी पढाई लिखाई पर परिवार में से किसी ने कोई ख़ास तवज्जोः नहीं दी। 'राज़'साहब ठहरे इस परिवार के बिगड़े शहज़ादे इसलिए जनाब ने वो काम नहीं किया जो ख़ानदानी था बल्कि इसके उलट पढाई लिखाई की। पढाई-लिखाई क्या की यूँ समझिये कि 'उनके ख़्याल आये तो आते चले गए'की तर्ज़ पर वो पढ़ते चले गए। उर्दू और हिंदी में एम.ऐ. की डिग्रियाँ पा कर जब उनका जी नहीं भरा तो हज़रत एल एल बी की और मुड़ गए और उसकी भी डिग्री हासिल कर ली वो भी 'ऑनर्स'के साथ। ये तो हुई पढाई की बात अब ज़रा शौक़ देखें ज़नाब के, शायरी तो, जैसा आपको पता लग चुका है, ख़ैर था ही साथ में ज्योतिष में भी जोर आज़माइश करते हुए महारत हासिल कर ली और शतरंज सीख कर अच्छे अच्छे उस्तादों को पानी पिलाने लगे। रोज़ी रोटी के लिए वक़ालत करने की ठानी लेकिन अदालत में मी लार्ड मी लार्ड बोलने से कोफ़्त होने लगी तो मास्टरी, अफ़सरी, प्रोफ़ेसरी और फिर सरकार में नौकरी दर नौकरी करते हुए खूब पापड़ बेले। लेक्चरारी में बंधे कुछ दिन कुरुक्षेत्र में भी रहे और जब वहां मन नहीं लगा तो पंचकुला आ गए और हुकूमत हरियाणा के महकमा-ऐ-क़ानून से वाबस्ता हो गए फिर वहीँ से आखिर में सितम्बर 1993 में बतौर डिप्टी सेकेट्री रिटायर हुए। 

मुर्ग़ चोरी का रोज़ खाता हूँ 
मैं नहीं जानता सज़ा क्या है 

मैं चला हूँ विदेशी दौरे पर 
ये न पूछो कि मुद्दआ क्या है 

रह के सुहबत में उनकी चलेगा पता 
घोड़ा क्या चीज़ है गधा क्या है 

बीवी उम्मीद से है पचपन में 
या इलाही ये माजरा क्या है

ग़ालिब के अलावा राज़ साहब ने ज़ौक़ ,फ़ानी ,जोश ,शक़ील ,जिग़र , फ़िराक ,क़तील शिफ़ाई साहिर जैसे अज़ीम शायरों की ग़ज़लों की भी इसी तरह दुर्गत करने में कोई कसर छोड़ी। इस किताब में आप ग़ालिब के अलावा इन सब शायरों की ग़ज़लों पर की गयी पैरोडी का भी मज़ा उठा सकेंगे। राज़ साहब अपनी इस किताब की भूमिका में लिखते हैं कि "चचा ग़ालिब के शेर 'मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाए क्यों के पेशे नज़र उदासी, बेचैनी, तनाव और परेशानी हर इंसान को ज़िन्दगी के किसी न किसी मोड़ पर घेरे हुए है। इन के बीच हँसी ख़ुशी के मौक़े जुटा लेने वाला इंसान ही ख़ुश किस्मत है। क्यूंकि मिज़ाह का लुत्फ़ लेते रहने वाले इंसान के लिए दुनिया के ग़मों को बर्दाश्त करने के लिए एक नयी ताक़त और हिम्मत पैदा हो जाती है। नामवर मिज़ाह निगार जनाब 'मुज्तबा हुसैन'अपनी किताब 'तकल्लुफ़ बरतरफ़'में एक जगह लिखते हैं 'मैं हंसी को मुक़द्दस फ़रीज़ा (पावन कर्तव्य ) मानता हूँ और क़हक़हा लगाने को ज़िन्दगी का सबसे बड़ा एडवेंचर -- ज़िन्दगी के बेपनाह ग़मों में घिरे रहने के बावजूद इंसान का क़हक़हा लगाना ऐसा ही है जैसे विशाल समंदर में भटके हुए किसी जहाज़ को अचानक कोई टापू मिल जाए।    
सुनता वो कम है हंसी उसको सुनाए न बने 
भैंस के सामने ज्यूँ बीन बजाए न बने 

नाक में दम जो करे उसका पसीना मेरे 
बात गर्मी में बिना लक्स नहाए न बने 

सब्ज़ी जो सस्ती मिली हमने ज़्यादा लेली 
अब उठाए न उठे और गिराए न बने 

ग़ालिब की ग़ज़लों की दुर्गत का आइडिया राज़ साहब को तब आया जब वो उनकी उन साठ के लगभग ग़ज़लों का सरल हिंदी में अनुवाद और व्याख्या कर रहे थे जिन्हें सहगल , सुरैय्या ,रफ़ी ,तलत महमूद ,लता , बेग़म अख़्तर ,जगजीत और ग़ुलाम अली जैसे गायकों ने गा कर लोकप्रिय बना दिया है। उनका ये अद्भुत काम किताब की शक़्ल में 'ग़ालिब-जीवनी,शायरी और ख़त'के नाम से देवनागरी में बाजार में उपलब्ध है। ग़ालिब की इन ग़ज़लों को समझने के लिए इस से आसान ज़बान में दूसरी कोई किताब हिंदी में मिलनी मुश्किल है। 'ग़ालिब और दुर्गत'सबसे पहले उर्दू में शाया हुई थी जिसकी खुशवंत सिंह, डॉ. गोपीचंद नारंग , बशीर बद्र, निदा फ़ाज़ली, प्रो जगन्नाथ आज़ाद , सागर ख़य्यामी ,इब्राहिम अश्क़ जैसे साहित्यकारों ने भूरी भूरी प्रशंसा की। हिंदी पाठकों के आग्रह पर इसका देवनागरी में संस्करण निकाला गया जो हाथों हाथ बिक गया। अब इस किताब का दूसरा संस्करण बाजार में उपलब्ध है। ये किताब 'साक्षी पेपरबैक्स'  एस -16 ,नवीन शाहदरा ,दिल्ली 110032 से प्रकाशित हुई है। आप 09810461412 पर संपर्क कर इसे मंगवा सकते हैं या फिर इस किताब को अमेज़न से ऑन लाइन भी मँगवा सकते हैं। 

तिरे बन्दे का ऐ मालिक कभी तो पेच-ओ-ख़म निकले 
कभी इसकी भी दुम निकले कभी इसका भरम निकले   

डिनर ढाबे पे जिन साहब को कल मैंने खिलाया था 
वही हज़रत मिरी महबूब के चौथे ख़सम निकले 

ये सब बरसाती मेंढक हैं ये लीडर दुम हैं कुत्ते की 
हज़ारों बार पिट कर भी न कम्बख्तों के ख़म निकले 
ख़म : टेढ़ा पन 

पुलिस ने रात भर पीछा किया था चोर का लेकिन 
निशां जब सुब्ह को देखे तो भैंसों के क़दम निकले 

नज़ाक़त को ग़ज़ल की हम ने ढाला है ज़राफ़त में 
न ग़ालिब ने कसर छोड़ी न हम ही 'राज़'कम निकले 
ज़राफ़त: हास्य             

राज़ साहब के मित्र डॉ नाशिर नक़वी साहब लिखते हैं कि ' 86 साल की उम्र में भी ये शख़्स किसी तौर पर अपने आप को बूढ़ा क़ुबूल करने को तैयार नहीं क्यूंकि इनका ख़्याल है कि आदमी दिल से बूढ़ा नहीं होना चाहिए। बूढ़ा वो होता है जो हंसने हंसाने से परहेज़ करता है। बस यही वो अदा है जो टी एन राज़ को जवां और हरदिल अज़ीज़ बनाए हुए है। आप उनसे 9646532292 या 9988097276 पर बात कर खुद इस बात का यकीन कर सकते हैं। नक़वी साहब आगे लिखते हैं कि 'राज़ की मिज़ाहिया शायरी में एक बड़ी ख़ूबी ये है कि वो हंसने हंसाने के साथ समाज को दरपेश मौजूदा मसअलों और बुराइयों से वाकिफ़ कराने में कामयाब हैं। राज़ खुद को निशाना बना कर किसी ऐब को उजागर करके अपने दाएं बाएं फैली कुरीतियों के छीटें बिखेरते हैं जो बड़े दिल गुर्दे की बात है। इनका हर शेर एक अदबी और मेयारी लतीफ़े का सा असर छोड़ता है। जिस आदमी में ,जिस समाज में हंसने हंसाने की सलाहियत नहीं होती वो समाज टी बी ज़दा होता है , जहाँ हर इंसान के सीने में घुटन और तनाव की खांसी सुनाई देती है। इस माहौल में अगर कोई शख़्स अपने मज़ाहिया अंदाज़ एहसास और इज़्हार से मुस्कुराने,हंसाने और क़हक़हा लगाने की प्रेरणा देता है तो उसे फ़रिश्ता ही कहा जायेगा। राज़ साहब इस माने में फ़रिश्ता हैं क्यूंकि वो कहीं हल्के और कहीं तीखे तन्ज़ के साथ हंसने और हंसाने का अनोखा और अछूता गुर जानते हैं। 

मैं पंचकुला के होनहार शायर जनाब 'महेंद्र कुमार सानी जी का बेहद शुक्रगुज़ार हूँ जिनके कारण मुझे इस बाक़माल शायर का पता चला। चलिए देखते हैं कि राज़ साहब ने जिगर मुरादाबादी साहब की एक ग़ज़ल की क्या खूब दुर्गत की है :
       
यूँ ज़िन्दगी तबाह किए जा रहा हूँ मैं 
पीरी में भी विवाह किए जा रहा हूँ मैं 
पीरी : बुढ़ापा 

बस का तो इस बुढ़ापे में कुछ भी नहीं रहा 
क्या क्या न फिर भी चाह किए जा रहा हूँ मैं 

उन गुलरुख़ों पे जो हुए खण्डर मेरी तरह 
हसरत भरी निगाह किए जा रहा हूँ मैं 
गुलरुख़ों : फूल से चेहरे वाले 

बीवी की डाँट है कभी अफ़सर की झाड़ है 
दोनों से ही निबाह किए जा रहा हूँ मैं 

और अब आख़िर में फ़िराक़ साहब की एक ग़ज़ल की भी दुर्गत भी देख लें। सच तो ये है कि मैं सभी की दुर्गत तो एक पोस्ट में पढ़वा नहीं सकता सिर्फ़ आपसे गुज़ारिश ही की कर सकता हूँ कि ऐसी अलमोल किताब का आपके पास होना जरूरी है क्यूंकि कुछ पता थोड़े होता है ज़िन्दगी में न जाने कब आपको हंसने की जरुरत पड़ जाय इसलिए अग्रिम इंतज़ाम करके रखें। 

किसी के इश्क़ में मरना जो जी में ठान लेते हैं 
वो अपनी क़ब्र का जुग़राफ़िया पहचान लेते हैं 

नज़र वास्ते सुर्मा ,ज़बीं के वास्ते बिंदी 
वो क्या क्या क़त्ल का मेरे लिए सामान लेते हैं 

इधर बीवी जो दे ताने उधर मच्छर सताते हों 
तो सर से पाओं तक हम पूरी चादर तान लेते हैं 

रिटायर हो के जब से 'राज़'हम बैठे हैं घर अपने 
नहीं चलती हमारी, बीवी के फ़रमान लेते हैं  

किताबों की दुनिया -218 

शहरों का भटकना मिरी आदत का करम था
जंगल की शुरुआत  तिरी याद ने की है
*
एक ही तीर है तरकश में तो उजलत न करो
ऐसे मौक़े पे निशाना भी ग़लत लगता है
*
क़त्ल होने की सिफ़त बाद के असबाक़ में है
पहले ख़ंजर की कसौटी पे उतरना सीखो 
सिफ़त-ख़ूबी , असबाक़-पाठों
*
कौन रक्खेगा ख़बर बाद में इस रिश्ते की
लाओ माँ-बाप की तस्वीर को उल्टा कर दूँ
*
अभी तो शक है ग़लत रहनुमाई करने का
हमें यक़ीन अगर हो गया तो क्या होगा
*
तन्हा रहने का सबब हो तो बहुत गहरा हो
वर्ना तन्हाई भी किरदार से गिर जाती है
*
जब से समझ में आया कि हम भी है आदमी
उस दिन से आदमी पे भरोसा नहीं किया
*
अना का बोझ भी रक्खा है मेरे शाने पर
ये हाथ काँप रहा है सलाम करते हुए
*
छोड़ कर खेल कैसे हट जाता
मैं जुआरी था और हार में था

बहुत कम किताबें ऐसी होती हैं जिन्हें पढ़ने के बाद आपका दिल कई दिनों तक दूसरी किताब उठाने को न करे। आप सिर्फ़ और सिर्फ़ उसी में डूबे रहना चाहें। ऐसी किसी किताब का लिखने वाला अगर आपके लिए अनजान हो तो लुत्फ़ दुगना हो जाता है क्यूंकि नामी गरामी शायर से तो आपको उम्मीद होती ही है कि उसका कलाम क़ाबिले तारीफ़ होगा लेकिन जब अनजान शायर का क़लाम आपको झूमने पर मज़बूर कर दे तो वो ख़ुशी लफ़्ज़ों में बयाँ नहीं हो सकती । इसे यूँ समझें कि अमूनन शराब की ब्रांड से हमें नशे का थोड़ा बहुत अंदाज़ा हो जाता है लेकिन अगर बोतल पर कोई ऐसा ब्रांड लिखा हो जिसे आपने कभी देखा सुना न हो और उसे पी कर उसका नशा उतरने का नाम न ले तो सोचिये उसका मज़ा क्या होगा ? 
उस्ताद शायर और संपादक 'तुफ़ैल चतुर्वेदी'साहब और आज के दौर के नौजवान बेहतरीन शायर लिप्यांतरकार जनाब 'इरशाद ख़ान सिकंदर'साहब ने मिल कर हमें जिस शायर से मुलाकात करवाई है उसे पढ़ कर दोनों को फ़र्शी सलाम करने को जी चाहता है। अगर ये दोनों आपस में न मिलते तो यकीन जानिये 'राजपाल एन्ड संस'वालों की 'सरहद आर-पार की शायरी'वाली ये श्रृंखला इतनी दिलकश न होती। दोनों ही शायरी के मर्मज्ञ हैं, जौहरी हैं लिहाज़ा इनके हाथ से जो निकलेगा वो बहुमूल्य ही होगा। 
इस श्रृंखला के एक आध शायर को छोड़ बाकि के सभी शायर ऐसे हैं जिन्हें हिंदी पाठकों ने शायद ही कभी पढ़ा हो. पाकिस्तानी शायरों को न पढ़ पाने के कई कारण हो सकते हैं लेकिन अपने देश के ऐसे बेमिसाल शायरों को हिंदी के पाठक इसलिए नहीं पढ़ पाए क्यूंकि नंबर एक ,उनका काम सिर्फ उर्दू में ही शाया हुआ है नंबर दो ,उन्होंने अपनी शायरी के मयार से कभी समझौता नहीं किया इसलिए वो मुशायरों के मंच पर लोकप्रिय होने के लिए कही जाने वाली सतही और चौंकाने वाली शायरी से ताल मेल नहीं बिठा पाये। 

हमारे घर के ग़मों का कोई सवाल नहीं
सवाल ये है कि दरवाज़ा खोलना है अभी

अँधेरी रात का लम्बा सफ़र तो बाद में है
ये जगमगाता हुआ शहर काटना है अभी

तुम्हारे साथ गुज़ारे हुए महीनों से
तुम्हें निकालते रहने का सिलसिला है अभी

अच्छी और मेयारी शायरी कभी भुलाई नहीं जा सकती। वो कभी न कभी सामने आती ही है और लोगों के दिलो दिमाग़ पर छा जाती है। जनाब तुफ़ैल चतुर्वेदीसाहब इस किताब की भूमिका में इसी बात को अपने ख़ास अंदाज़ में यूँ बयाँ करते हैं 'ऐसी शायरी किस काम की जिसे स्टेज पर ड्रामेबाज़ी गायकी का सहारा लेना पड़े ? मुशायरे में ग़ज़ल गायकी के बल पर या कूल्हा लगाने से चल जायेगी मगर वक़्त तो बड़ी ज़ालिम चीज है। उसकी नज़र में जगह बनाने के लिए बड़ी मेहनत दरकार है। वो निर्मम है। किसी का लिहाज़ नहीं करता। किसी का ड्रामा ,गाना उसे याद नहीं रहता बक़ौल जनाब दिलावर फ़िगार साहब 'ये टेंटुआ तो किताबों में छप नहीं सकता'। "

जो चोट दे गए उसे गहरा तो मत करो
हम बेवक़ूफ़ है कहीं चर्चा तो मत करो

माना के तुमने शहर को सर कर लिया मगर
दिल जा-नमाज़ है इसे रस्ता तो मत करो
जा-नमाज़ -नमाज़ पढ़ने की चटाई

तामीर का जुनून मुबारक तुम्हें मगर
कारीगरों के हाथ तराशा तो मत करो
तामीर -निर्माण

आज हम जिस शायर की बात कर रहे हैं उसे अपने दौर के कद्दावर शायर, जो अपनी अदाकारी के बल पर मुशायरों की जान हुआ करते थे, ने अपने साथ मिलाने की भरसक कोशिश की ,लुभावने वादे किये लेकिन कामयाब नहीं हो सके। ऐसा क्या था इस शायर में कि उसे अपने दल  में शामिल करने के लिए इस नामचीन शायर को मिन्नतें करनी पड़ीं ? जवाब है -उसकी लाजवाब शायरी। ऐसी शायरी जो सामईन के दिलो-दिमाग पर हमेशा के लिए तारी हो जाय। मैं आपको उस कद्दावर शायर का नाम तो नहीं बताऊंगा लेकिन उस शायर का नाम जरूर बताऊंगा , जिसने किसी भी दल का हिस्सा बनने से साफ़ इंकार कर दिया जिसने कभी अपने उसूलों से समझौता नहीं किया जो अगर चाहता तो किसी का पिछलग्गू बन कर दाम और नाम दोनों कमाता। अपनी शर्तों पे जीने वाले और अकेले चलने वाले इस अज़ीम शायर का नाम था जनाब 'अहमद कमाल परवाज़ी'. 
हिंदी पाठकों के लिए ही नहीं बल्कि उर्दू जानने वालों के लिए भी 'परवाज़ी'साहब का नाम बहुत जाना पहचाना नहीं है। मैंने उनके बारे में जानने के लिए गूगल खंगाला अपने शायर मित्रों से बात की लेकिन कुछ हासिल नहीं हुआ। आखिर उनके छोटे बेटे 'नावेद परवाज़ी'मेरी मदद को सामने आये। उनकी बदौलत ही आज आप 'परवाज़ी'साहब के बारे में पढ़ पा रहे हैं। उनकी बाकमाल शायरी को देवनागरी में पहली बार 'सरहद के आर-पार की शायरी'किताब में शाया किया है राजपाल एन्ड संस् ने।      


तिरी ख़्वाहिश से ऊपर उठ रहा हूँ
यही लम्हा नतीजा हो गया तो
*
ग़म का अहसास नहीं है तो अधूरापन है
एक आंसू भी टपक जाए तो पूरा हो जाउँ
*
नायाब कोई चीज़ गुज़रती है तो हम लोग
ये सोचने लगते हैं हमारी तो नहीं है
*
सही तो ये था कि रस्ते में ख़ुश्क हो जाता 
बुरा तो ये है कि दरिया में गिर गया दरिया 
*
जो खो गया है कहीं ज़िन्दगी के मेले में
कभी-कभी उसे आँसू निकल के देखते हैं
*
चलो ये देख लें अब किसकी जीत होती है
मैं ख़ाली हाथ तिरे हाथ में निवाला है
*
खिलौने बाद में पहले तू इस रसीद से खेल
ऐ मेरे लाल तिरी फ़ीस भर के आया हूँ
*
शुरू में मैं भी इसे रौशनी समझता था
ये ज़िन्दगी है इसे हाथ मत लगा लेना
*
बच्चों की तरह तुमको बरतना नहीं आता
दुनिया तो हवाओं में उड़ाने के लिए है
*
वो अगर आज की माँ है तो थपकती कब है
तू अगर आज का दिल है तो धड़कता क्यों है

महाकाल की नगरी 'उज्जैन'में 11 मार्च 1944 को कमाल साहब का जन्म हुआ। आठ भाई बहनों में वो सातवें नंबर पर थे। पिता उज्जैन के किसी हॉस्पिटल में कम्पाउंडर थे, घर की माली हालत अच्छी न होते हुए भी उन्होंने अपने सभी बच्चों को बेहतरीन तालीम दिलवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कमाल साहब के बड़े भाई इक़बाल हुसैन हॉकी के जबरदस्त खिलाड़ी होने के साथ साथ शायरी भी करते थे। अपने दोस्तों के घरों पर अक्सर होने वाली नशिस्तों में इक़बाल साहब अपने साथ कमाल साहब को भी ले जाते। अपने भाई के कलाम पर मिलती वाहवाहियों से कमाल साहब बहुत खुश होते और खुद भी वैसा ही कुछ लिखने की कोशिश करते। बड़े भाई को कमाल साहब ने एक आध बार अपना लिखा दिखाया जिसे उन्होंने देख कर ख़ारिज कर दिया लेकिन कमाल साहब ने लिखना नहीं छोड़ा। कभी कभी तो वो अपने भाई के क़लाम में कमियां निकाल कर उसे अपनी छोटी बहन को सुनाया करते क्यूंकि बड़े भाई को बताने से डाँट का डर जो था। ग़ज़ल सीखने के लिए उन्होंने उज्जैन के शायर 'तुफ़ैल'साहब की शागिर्दी तो की लेकिन ये सिलसिला ज्यादा दिन चला नहीं। ज़्यादातर वो अपने लिखे को तब तक काटते छाँटते रहते जब तक उन्हें अपने कलाम से पूरी तसल्ली न हो जाती।         

इक रोज़ तुमसे हाथ मिलाने की आरज़ू
इतनी शदीद थी कि मिरे हाथ जल गये
शदीद : तीव्र

मेरी तरह से ट्रेन भी सुनसान हो गई
एक-एक करके सारे मुसाफ़िर निकल गये

ये उन दिनों की बात है जब दर्द दर्द था
अब तो हमारे ज़ख़्म भी सोने में ढल गये

कॉलेज के दिनों में उनकी दोस्ती कुछ ऐसे लोगों से हुई जो गुंडे किस्म के थे जो जुआ खेलते और हर किसी से झगड़ते फिरते थे। दोस्तों के कहने पर कमाल साहब एक कमरा किराये पर लेकर लोगों को जुआ खिलाने लगे लेकिन खुद कभी नहीं खेला। इससे उन्हें आमदनी होने लगी और अपनी जेब, जैसा कि उन्होंने अपने बेटे नावेद को बताया,अठ्ठनियों चवन्नियों से भरने लगे। एक दिन उन्हें लगा कि जो ज़ायका कभी बड़ी मुश्किल से हाथ आयी चवन्नी की चाय पीने में आता था वो लोगों को जुआ खिला कर हासिल हुई दौलत से मिली चाय में नहीं आता है । बस उसी दिन से उन्होंने जुआ खिलाना बंद कर दिया और पढाई में लग गए।
एम.ए. एल.एल.बी की डिग्री हासिल करने के बाद जिला सहकारी केंद्रीय बैंक मर्यादित की 'मकदोने'ब्रांच में नौकरी करने लगे। मकदोने उज्जैन से लगभग 60 की.मी. दूर एक गाँव है। शुरू में तो मकदोने  की हवा उन्हें रास नहीं आयी इसलिए वापस उज्जैन चले आये लेकिन जब घरवालों ने नौकरी छोड़ने पर ऐतराज़ किया तो वापस लौट गए। यहीं से उनकी शायरी के सफ़र का आगाज़ हुआ। गाँव की खुली आबोहवा, खेत खलियान, कच्ची पगडंडियां, किसान और उनके परिवारों की खुशियां, परेशानियां , मिटटी की सौंधी खुशबू सब उनकी शायरी में जगह पाने लगे। बैंक पहुँचने के लिए उन्हें साईकिल से लम्बा रास्ता तय करना पड़ता था और इस पूरे रास्ते में उनका दिमाग शेर बुनता रहता जिसे वो बैंक पहुँचते ही कागज़ पर उतार लेते थे। शायर वही बन सकता है जो धुनी हो, ये पार्ट टाइम जॉब नहीं है, शायर को चौबीसों घंटे शायरी में ही डूबे रहना पड़ता है। दुनियादारी के काम साथ साथ चलते रहते हैं और दिमाग शेर कहने में उलझा रहता है। ये तपस्या है, इसे जो जितनी शिद्दत से करता है उतना ही उसे इसका फल मिलता है। कमाल साहब के बिस्तर पर तकिये के पास हमेशा एक रजिस्टर और पैन पड़ा रहता था जिसमें वो रात कभी भी उठ कर अचानक आया ख्याल दर्ज़ कर लिया करते थे। 

तुझसे बिछड़ूँ तो तिरी ज़ात का हिस्सा हो जाऊँ 
जिसपे मरता हूँ उसी ज़हर से अच्छा हो जाऊँ

तुम मिरे साथ हो ये सच तो नहीं है लेकिन
मैं अगर झूठ न बोलूं तो अकेला हो जाऊँ

मैं तिरी क़ैद को तस्लीम तो करता हूँ मगर
ये मेरे बस में नहीं है कि परिन्दा हो जाऊँ

वो तो अंदर की उदासी ने बचाया वर्ना
उनकी मर्ज़ी तो यही थी कि शगुफ़्ता हो जाऊँ
शगुफ़्ता- खुशहाल

समझौता परस्ती कमाल साहब की आदत का हिस्सा नहीं थी। वो जो करते हमेशा अपनी तरफ से परफेक्ट किया करते। चाहे कपड़े पहनने का शऊर हो, बैंक का काम हो, लोगों से मेल मुलाकात हो, दोस्तों से दोस्ती हो, रिश्तेदारों से रिश्तेदारी निबाहना हो या बच्चों की पढाई हो याने कोई काम हो वो उसे पूरी शिद्दत और ईमानदारी से करने की कोशिश करते। यही कारण है कि उनकी शायरी उनके समकालीन शायरों से बहुत अलग और असरदार है। इस किताब के बाहरी फ्लैप पर कमाल साहब की शायरी का निचोड़ कुछ यूँ बयाँ किया गया है "अहमद कमाल परवाज़ी की शायरी जैसे ज़िन्दगी की मुश्किलों से होड़ लेती हुई। तीखे तंज़ कसती हुई सबको होशियार,ख़बरदार करती हुई आगे बढ़ती है। परवाज़ी रवायतों को तोड़ते हुए अपनी ग़ज़लों में ऐसे ऐसे विषय पिरोते हैं जो शायद पहली बार उर्दू ग़ज़ल का हिस्सा बने हैं जैसे -रबी और खरीफ़ की फ़सल, बच्चों के स्कूल की फ़ीस,सियासत के दाँव-पेच, गाँव की ज़िन्दगी ---"
ये अलग बात है कि उन्हें इस शायरी की बदौलत वो मक़बूलियत हासिल नहीं हुई जिसके वो हक़दार थे। मक़बूलियत का दरअसल आपके हुनर से कोई सीधा रिश्ता नहीं होता कई बार ये तिकड़म या किस्मत से हासिल होती है ,ज़्यादातर ये भी देखा गया है कि हुनरमंद लोगों को मकबूलियत आसानी से मिलती भी नहीं क्यूंकि वो अपने वक़्त से बहुत आगे की सोच वाले होते हैं। दूसरी ख़ासियत जो कमाल साहब के बेटे 'नावेद'ने मुझे बताई वो ये कि'कमाल'साहब बहुत सकारात्मक सोच के इंसान थे। कैसे भी हालात हों उनकी सोच हमेशा पॉजिटिव रहती। हर हाल में खुश रहना और अपने साथ रहने वालों को हमेशा खुश रखना उन्हें आता था। हर किसी की मदद करने में उन्हें ख़ुशी हासिल होती थी। घर परिवार के लोग, रिश्तेदार,दोस्त जब कभी किसी मौके पर एक साथ इकठ्ठा होते तो कमाल साहब को पुकारते जो अपने जुमलों और किस्सों से सबके पेट में हँसा हँसा कर दर्द कर दिया करते। लोग उनकी ज़िंदादिली की मिसाल दिया करते थे। 

तिरे ख़िलाफ़ गवाही तो दे रहा हूँ मगर
दुआएँ मांग रहा हूँ तिरी रिहाई की
*
मेरी आदत मुझे पागल नहीं होने देती
लोग तो अब भी समझते हैं कि घर जाता हूँ
*
हम इत्तिफाक़ से दोनों ही झूठ बोलते थे
यही तो चीज़ तअल्लुक़ में एतबार की थी
*
कह तो देता हूँ यहाँ लोग मिरे अपने हैं
बाद में नाम बताने में उलझ जाता हूँ
*
रंजिशें कैसे छोड़ सकता हूँ
शहर में अजनबी न हो जाऊँ
*
मेरा दिल  भी किसान है या रब
इसका कर्ज़ा अदा नहीं होता
*
घाव की शक्ल में निकलता है
चाँद बरसात के ज़माने में
*
उम्र भर पेड़ लगाने का नतीजा रख दे
ला मिरे हाथ पे सूखा हुआ पत्ता रख दे
*
ये तो अच्छा है कि हक़ मार रहे हो लेकिन
इससे क्या होगा अभी और निखरना सीखो
*
इसमें जीने की तमन्ना ही अजब लगती है
प्यार तो डूब के मरने के लिये होता है 

एक तो रिटायरमेंट दूसरे तीनों बेटों का पढ़ लिख कर नौकरी के सिलसिले में घर छोड़ कर बाहर जाना बेटियों का आगे की पढाई के लिए हॉस्टल का रुख करना कमाल साहब को तन्हा कर गया। इसी बीच एक ऐसा हादसा भी हुआ जो उन्हें नागवार गुज़रा जिसका यहाँ ज़िक्र करना उनकी निजी ज़िन्दगी में घुसपैठ जैसी हरक़त कहलाएगी लेकिन उसकी वजह से उन्हें गहरा सदमा लगा और वो दिल की बीमारी पाल बैठे। इसका एहसास उन्हें अपने एक भाई के इंतेक़ाल के बाद हुआ जब वो उन्हें दफ़ना कर लौट रहे थे लेकिन अपनी खुद्दारी के चलते उन्होंने अपनी इस तक़लीफ़ का इज़हार किसी नहीं किया। उन्हें अल्लाह के सिवा और किसी से कभी कोई उम्मीद नहीं रखी। अपनी परेशानी किसी को बताने के हक़ में कभी नहीं रहे। 
 29 दिसम्बर 2007 शाम की बात है तीन बेटों में से मँझला बेटा जो ईदुल जुहा पर घर आया हुआ था कमाल साहब से गले मिल कर नौकरी पर वापस जाने के लिए अपने दोनों भाइयों के साथ रेलवे स्टेशन के लिए निकला।अभी तीनो भाई स्टेशन पहुँचे ही थे कि कमाल साहब के अज़ीज़ दोस्त जिया साहब का बड़े भाई के पास फोन आया कि वापस घर पहुंचो तुम्हारे अब्बा की तबियत नासाज़ है उन्हें ठंडा पसीना आ रहा है। तीनो भाई वापस लौटे तब तक कमाल साहब हॉस्पिटल पहुँच चुके थे। एक घंटे की मशक्कत के बाद डॉक्टर ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। उनके ज़नाज़े में जैसे लोगों का सैलाब उमड़ पड़ा। भले ही उज्जैन के बाहर लोग उन्हें ज्यादा न जानते हों लेकिन वो अपने शहर के लोगों के लाडले थे। 
उनके इंतेक़ाल के बाद एक दिन जब उनके बड़े भाई ने, जिन्होंने कभी उनके क़लाम को ध्यान से नहीं पढ़ा था, अचानक उनकी एक किताब को पढ़ना शुरू किया तो पढ़ते चले गए और आखिर में भरे गले से बोले 'अफ़सोस कमाल इतने कमाल का शायर था ये मुझे आज पता चला' .काश अपने बड़े भाई के इस जुमले को सुनने के लिए उस वक्त कमाल मौजूद होते।    

पहले मालूम नहीं था कि सफ़र होते हैं
अब ये मालूम नहीं है कि सफ़र कितने हैं

एक पत्ती से भी महरूम उगाने वाला
काटने वाले के हाथों में शजर कितने हैं

कल तलक कितना परेशान था घर की ख़ातिर
आज घर छोड़ के निकला हूँ तो घर कितने हैं

कमाल साहब की उर्दू में दो किताबें प्रकाशित हुई थीं पहली 1988 में 'मुख़्तलिफ़'और दूसरी 2005 में 'बरकरार'. कमाल साहब की दिली ख़्वाइश थी कि उनकी ग़ज़लें देवनागरी में भी शाया हों लेकिन ऐसा हो नहीं सका। सं 2009 में उनके दोस्तों ने उनकी ग़ज़लों को देवनागरी में  'चाँदी का वरक़'नाम की किताब में छपवाया। अफ़सोस, ये किताब हिंदी पाठकों के हाथ जितनी पहुँचनी चाहिए थी पहुँच नहीं पायी।अब तो शायद ही ये बाज़ार में मिले। देवनागरी में उनकी श्रेष्ठ ग़ज़लें अब 'सरहद आर-पार की शायरी'में ही संकलित हैं। ये किताब हर ग़ज़ल प्रेमी के संग्रह में होनी चाहिए क्यूंकि इसमें संकलित ग़ज़लें बार बार पढ़ने लायक हैं बल्कि यूँ कहूँ कि हज़ार बार पढ़ने लायक हैं तो ग़लत नहीं होगा। 
आख़िर में आईये उनके चंद चुनिंदा अशआर आपको पढ़वाता चलता हूँ :
     
छोटी सी एक बात पर मंज़र बदल गए 
दामन फटा तो हाथ से रिश्ते निकल गये 
*
अंगूठे दे के उतारा गया ख़रीफ का बोझ 
रबीअ फ़स्ल में बाज़ू चुका दिए जाएँ 
*
मुझे बताओ क़ाबा किस तरफ है 
मैं हुज़रा छोड़ के चकरा गया हूँ 
*
पहले तो घर में रहने की आदत सी डाल दी 
अब कह रहे हैं कौम के धारे से कट गया 
*
बस एक पल में दो आलम तलाश कर लेना 
वो एक बार निगाहें उठा के देखेंगे 
*
ग़म के बगैर जश्न मुकम्मल न हो सका 
ऐसा लगा कि कोई मचलने से रह गया 
*
यहाँ का मसअला मिटटी की आबरू का नहीं 
यहाँ सवाल ज़मीनों पे इख़्तियार का है 
*
एक पागल है जो दिन भर यही चिल्लाती है 
मेरे भारत के लिए कौनसी बस जाती है 
*
मैंने किरदार से गिरते हुए लोगों की तरफ़ 
इतना देखा है कि कमज़ोर निगाहें कर लीं 
*
पाँव के नीचे फूल रख देगा 
ज़िन्दगी भर निकालते रहना 


किताबों की दुनिया -219


तेरी शर्तों पे ही करना है अगर तुझको क़बूल 
ये सहूलत तो मुझे सारा जहाँ देता है 
*
सभी ने देखा मुझे अजनबी निगाहों से 
कहाँ गया था अगर घर नहीं गया था मैं 
*
मुस्कुराना सिखा रहा हूँ तुझे 
अब तिरा दुःख भी पालना पड़ेगा 
*
क्यों बात बढ़ाना चाहते हो 
तुम अपनी कमगुफ़्तारी से 
कम गुफ़्तारी -कम बोलना
*
ख़ुद ही पढ़ते हैं क़सीदे उसके 
ख़ुद ही दाँतों से ज़ुबाँ काटते हैं 
*
मैं जानता हूँ मुझे मुझसे माँगने वाले 
पराई चीज़ का जो लोग हाल करते हैं 
*
हम अगर अबके साल भी न मिले 
फिर उधेड़ोगी तुम ये स्वेटर क्या 
*
तुझे खोकर तो तिरी फ़िक्र बहुत जायज़ है 
तुझे पाकर भी तिरा ध्यान रखा जाएगा क्या 
*
मैं ये चाहता हूँ कि उम्र भर रहे तिश्नगी मिरे इश्क़ में 
कोई जुस्तज़ू रहे दरमियाँ तिरे साथ भी तिरे बाद भी   
*
तुम अपने कर्ब का इज़हार कर भी सकती हो 
कि प्याज़ काट के ये वक़्त कट भी सकता है 
कर्ब: दुःख  
*
अब तो इक़रार भी नहीं दरकार 
अब तिरी ख़ामुशी का क्या कीजे 
*
बाज़-औक़ात ख़ुशी छू के गुज़र जाती है 
रह भी जाती है कभी लॉटरी इक नंबर से   
  
ओकाड़ा , पाकिस्तान के पंजाब प्रोविन्स का एक शहर जिसमें मोहल्ले हैं और मोहल्ले के घर एक दूसरे से जुड़े हुए। देखा ये गया है कि जहाँ घर जुड़े होते हैं वहां उनमें रहने वाले लोगों के दिल भी आपस में जुड़े होते हैं। लोगों की तकलीफें और खुशियाँ सांझी होती हैं। सबको पता होता है कि किसके घर के सामने वाले पेड़ का पीला पत्ता टूट के नीचे गिरा है और किसके पड़ौस के पेड़ में फल लगे हैं। इन्हीं मोहल्ले में से एक मोहल्ले का बच्चा एक घर से दूसरे घर यूँ घुसता है जैसे दूसरा घर भी उसके अपने घर का ही विस्तार हो। किसी भी घर में जा कर कुछ भी मांग के खा लेता है ये हाल सिर्फ़ इस बच्चे का ही नहीं है सभी बच्चों का है। यहाँ के सभी बच्चों के लिए मोहल्ले के सभी घर उनके अपने हैं।
जिस बच्चे का ज़िक्र मैं कर रहा हूँ उसकी पैदाइश 31 अगस्त 1980 की है और उसके घर का माहौल अलबत्ता थोड़ा सख़्त है। माँ-बाप दोनों सख़्त मिज़ाज़ हैं लेकिन बच्चे से प्यार करने वाले हैं। बच्चे को घर में शरारतें करने की सहूलिहत नहीं मिलती लिहाज़ा वो ये काम बाहर करता है। बच्चा अपने शहर ,मोहल्ले में बहुत खुश है उसे लगता है शायद सारी दुनिया इतनी ही खूबसूरत है और सारी दुनिया के लोग आपस में ऐसे ही मोहब्बत से रहते हैं। बच्चे की ज़िन्दगी के पंद्रह सोलह साल यूँ ही हँसी ख़ुशी से बीत जाते हैं । तभी एक दिन बच्चे के वालिद ऐलान करते हैं कि वो लोग ओकाड़ा छोड़ कर अपने और बच्चों के बेहतर मुस्तक़बिल के लिए जल्द ही लगभग 250 की.मी. दूरी पर बसे बड़े शहर बहावलपुर जा कर बस जाएँगे जहाँ उनके बाकि रिश्तेदार रहते हैं । बच्चा समझ नहीं पाता कि वो इस बात पर ख़ुशी ज़ाहिर करे या अपने पुराने दोस्त और मोहल्ले को छोड़ने का ग़म मनाये।               

धूप में साया बने तन्हा खड़े होते हैं 
बड़े लोगों के ख़सारे भी बड़े होते हैं 
ख़सारे - नुक़सान 
*
ले आयी छत पे क्यों मुझे बेवक़्त की घुटन 
तेरी  तो ख़ैर बाम पे आने की उम्र है 
*
उसे कहो जो बुलाता है गहरे पानी में 
किनारे से बँधी किश्ती का मसअला समझे 
*
वो दस्तयाब हमें इसलिए नहीं होता 
हम इस्तेफ़ादा नहीं देखभाल करते हैं 
इस्तेफ़ादा -लाभ उठाना 
*
दफ़्तर से मिल नहीं रही छुट्टी वगरना मैं 
बारिश की एक बूँद न बेकार जाने दूँ 
*
यानी अब भी सादा दिल हूँ अंदर से 
अच्छा चेहरा देख के धोका खाता हूँ 
*
बेतकल्लुफ़ है बहुत मुझसे उदासी मेरी 
मुस्कुराऊँ तो पकड़ती है मुझे कॉलर से 
*
हम हुए क्या ज़रा ख़फ़ा तुमसे 
जिसको देखो तुम्हारा हो गया है 
*
बदल के देख चुकी है रियाया साहिबे-तख़्त 
जो सर क़लम नहीं करता ज़ुबान खींचता है 
साहिबे-तख़्त: राजा 
*
हमारे ग़म कहीं कम पड़ गए तो क्या होगा  
इरादा है कि अभी हमने और जीना है 
*
होते-होते होगा वस्ल हमारा पाक तकल्लुफ़ से 
पैर अभी मानूस नहीं है नये-नवेले बूट के साथ 
*
सर झटकने से कुछ नहीं होगा 
मैं तिरे हाफ़िज़े में रह गया हूँ 
हाफिज़े: मष्तिष्क/ याददाश्त 


तब किसे पता था कि बहावलपुर आकर ये बच्चा शायरी करेगा और एक दिन पूरी दुनिया में 'अज़हर फ़राग़'के नाम से जाना जायेगा। 'अज़हर फ़राग़'साहब की लाजवाब शायरी को हम हिन्दी पाठकों तक पहुँचाने के लिए सबसे पहले हमें जनाब तुफ़ैल चतुर्वेदी साहब को उनकी ग़ज़लों के संपादन और इरशाद खान सिकंदर साहब को लिप्यांतर के लिए तहे दिल से शुक्रिया अदा करना होगा। ये दोनों ग़ज़लों के पारखी हैं इसलिए 'सरहद पार की शायरी'श्रृंखला की इस कड़ी में उन्होंने 'अज़हर साहब की शायरी के अनमोल मोती पिरोये हैं जिसे राजपाल एन्ड सन्स ने पहली बार देवनागरी में प्रकाशित किया है।    


दीवारें छोटी होती थीं लेकिन परदा होता था 
ताले की ईजाद से पहले सिर्फ़ भरोसा होता था 
 
कभी-कभी आती थी पहले वस्ल की लज़्ज़त अंदर तक 
बारिश तिरछी पड़ती थी तो कमरा गीला होता था 

शुक्र करो तुम उस बस्ती में भी इक स्कूल खुला 
मर जाने के बाद किसी का सपना पूरा होता था 

जब तक माथा चूम के रुख़सत करने वाली ज़िंदा थी 
दरवाज़े से बाहर तक भी मुँह में लुक़्मा होता था

बहावलपुर ओकाड़ा से बड़ा शहर है लिहाज़ा इसमें रहने के तौर तरीक़े ओकाड़ा से अलग थे। मोहल्लों की जगह कॉलोनीज थीं जिनमें घर एक दूसरे से जुड़े हुए नहीं दूर दूर थे। लोगों के दिलों में भी जुड़ाव नहीं था। लोगों के आपसी सम्बन्ध दुआ सलाम और आप कैसे हैं? मैं ठीक हूँ, से आगे आसानी से नहीं बढ़ते थे। अज़हर को शुरू शुरू में ऐसे माहौल में बड़ी घुटन महसूस होने लगी। कुछ दिन अनमने से बीते, धीरे धीरे कॉलेज के दोस्तों के बीच मन रमने लगा और पता नहीं कब अज़हर को शायरी का शौक लग गया। उम्र के इस बासंती मोड़ पर जब हर तरफ़ फूल खिले नज़र आते हैं और हवाओं में चन्दन की महक आने लगती है अधिक तर नौजवान अपने दिल में उमड़ रहे ज़ज़्बातों को शायरी, कविता के माध्यम से वयक्त करने लगते हैं। एक उम्र के बाद बहुत से तो इस रुमानियत से बाहर निकल कर दूसरी तरफ़ चल देते हैं और कुछ बिरले इसमें डूब जाने की सोचने लगते हैं। अज़हर को शायरी से बेपनाह मोहब्बत हो गयी लेकिन उसे कोई सही ग़लत बताने वाला उस्ताद नहीं मिल रहा था। सीनियर शायरों का रुख़ बेहद रूखा था और वो सिखाने के नाम पर मुँह बना लिया करते थे। ऐसे में किसी ने उन्हें उस्ताद शायर 'नासिर अदील'साहब का नाम सुझाया जो उस वक्त अपनी नासाज़ तबियत के चलते शायरी छोड़ चुके थे। 

हर शीशे का डर है भय्या 
बच्चों वाला घर है भय्या 

ऐनक का वावैला करना 
ठोकर से बेहतर है भय्या 
वावैला: हंगामा  

मैं जो तुमको खुश दिखता हूँ 
पर्दे की झालर है भय्या 

आधा-आधा रो लेते हैं 
एक टिशू पेपर है भैय्या 

अपनी एक ग़ज़ल कागज़ पर लिख कर अज़हर साहब 'अदील'साहब को ढूंढते ढूंढते उन तक जा पहुँचे। 'अदील'साहब को मिल कर उन्हें लगा जैसे किसी दरवेश से मिल रहे हों। बड़े अदब से अज़हर साहब ने उन्हें आदाब किया और वो कागज़ जिस पर वो अपनी ग़ज़ल लिख कर लाये थे उनके सामने रख दिया। 'अदील'साहब ने कागज़ उठाया ग़ज़ल पढ़ी और कागज़ को बड़ी ऐतियाद से एक और रख कर अज़हर साहब को गौर से देखा और उन्हें मीर की एक ग़ज़ल सुनाई उसका मतलब समझाया फिर ग़ालिब का शेर सुना कर उसकी व्याख्या की आखिर में कुमार पाशी की एक ग़ज़ल सुना कर उसके रदीफ़ काफ़िये के इस्तेमाल पर विस्तार से बताते रहे। एक आध घंटे की इस गुफ़्तगू के दौरान एक बार भी उन्होंने उस ग़ज़ल की चर्चा नहीं की जो अज़हर साहब अपने साथ लाये थे। अगले दिन अज़हर साहब अपनी एक और ग़ज़ल 'अदील'साहब को दिखाने जा पहुंचे और 'अदील'साहब ने फिर वो ही किया जो पहले दिन किया था, इस बार उन्होंने नासिर काज़मी, ज़फर इक़बाल और फ़िराक़ साहब का कलाम उन्हें बड़े मन से सुनाया और उसके एक एक लफ्ज़ पर चर्चा की। ये सिलसिला इसी तरह एक दो महीने तक रोज यूँ ही चलता रहा। कागज़ पर लिख कर लाई अज़हर साहब की ग़ज़लें एक के ऊपर एक तह कर बिना किसी चर्चा के रखी जाती रहीं। धीरे धीरे अज़हर साहब उस्तादों के कलाम और उनकी बारीकियां 'अदील'साहब  से सुन सुन कर समझ गये कि जो ग़ज़लें रोज़ रोज़ कागज़ पर लिख कर वो ला रहे हैं उन्हें ग़ज़ल कहना ग़ज़ल की तौहीन है। अब ऐसे उस्ताद की शान में सिर्फ सजदा ही किया जा सकता है जो बिना कुछ कहे आपको ये अहसास करवा दे कि बरखुरदार ग़ज़ल कहना इतना आसान नहीं है जितना समझा जा रहा है।  

तुझसे कुछ और तअल्लुक़ भी ज़रूरी है मिरा 
ये मुहब्बत तो किसी वक़्त भी मर सकती है 

मेरी ख़्वाहिश है कि फूलों से तुझे फतह करूँ 
वरना ये काम तो तलवार भी कर सकती है 

हो अगर मौज में हम जैसा कोई अँधा फ़क़ीर 
एक सिक्के से भी तक़दीर सँवर सकती है 

इस बात को अच्छे से समझने के बाद अज़हर साहब ने 'अदील'साहब से सबसे पहले ग़ज़ल का अरूज़ सीखा ,लफ्ज़ बरतने का हुनर और ग़ज़ल के क्राफ्ट की बारीकियाँ समझीं। जब बात कुछ समझ में आयी तब उन्होंने उस्ताद की रहनुमाई में ग़ज़लें एक बार फिर से कहनी शुरू कीं।  'अदील'साहब का ये जुमला कि 'कोरस में गाने वाले का अपना सुर कितना भी सुरीला हो सोलो गाने वाले के जैसी पहचान नहीं बना सकता'अज़हर साहब ने गाँठ बांध लिया और उस तरह की शायरी से अलग ऐसी शायरी करनी शुरू की जो विषय और क्राफ्ट में सबसे अलग थी। नतीज़ा ? वो हज़ारों शायरों की भीड़ में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हुए। बड़ा उस्ताद वो होता है जिसके शागिर्द उसकी जैसी नहीं बल्कि उस से बेहतर शायरी करते हैं। शागिर्द के नाम से उस्ताद का नाम रौशन होना चाहिए। अज़हर साहब की शायरी की कामयाबी के ताज में उस दिन एक बेशकीमती रत्न तब जुड़ा जब 2017 में 'जावेद अख़्तर'साहब ने अपनी सदारत में दुबई के एक मुशायरे में उन्हें सुनने के बाद कहा कि "यार अब तुम्हारे बाद क्या मुशायरा पढ़ना है ?"

मुहब्बत के कई मानी हैं लेकिन 
ज़ियादा सामने का सिर्फ़ तू है 

दुआ भूली हुई होगी किसी को 
फ़लक पर इक सितारा फ़ालतू है 

कहीं भी रख के आ जाता हूँ खुद को 
न जाने किस को मेरी जुस्तजू है 

ख़ुदा सुनता है जैसे बेज़बाँ की 
नमाज़ उस की भी है जो बेवज़ू है 

ऐसा नहीं है कि ये कामयाबी जनाब अज़हर फ़राग़ को रातों रात मिल गयी। इस कामयाबी और अपनी मौजूदगी को दर्ज़ करवाने में उन्हें एक लम्बा अरसा लगा। अपना रास्ता, जो सबसे अलग हो, उसे खोजना और फिर उस पर चलना आसान नहीं होता। जिस तरह के रंग की शायरी अज़हर साहब करते थे वो उस ज़माने में क़बूल ही नहीं होती थी। एक बार जब उन्होंने एक बहुत नामवर प्रगतिशील शायर को अपना ये शेर 2001 में सुनाया कि 'ग़लत न जान मेरी दूसरी मोहब्बत को , यकीन कर ये तेरे हिज्र की तलाफ़ी है (हिज्र -बिछोह , तलाफ़ी-प्रायश्चित )तो वो उनके मुँह की और हैरत से तकता रहा और सर झटक कर चल दिया। उस जमाने में ,जब अहमद फ़राज़ का ये शेर 'हम मोहब्बत में भी तौहीद (ईश्वर को एक मानना )के कायल हैं फ़राज़, एक ही शख़्स को महबूब बनाये रक्खा'पाकिस्तान की गली गली में मशहूर था, लोग इस बात पे यकीन रखते थे कि 'मोहब्बत एक से होती है हज़ारों से नहीं, रौशनी चाँद से होती है सितारों से नहीं'अज़हर का ये शेर कि 'तुझसे कुछ और ताल्लुक भी जरूरी है मेरा , ये मोहब्बत तो किसी वक्त भी मर सकती है'लोगों के गले नहींउतरा।               
वक़्त बदला लोगों की सोच बदली और कल तक अज़हर फ़राग़ की जिस शायरी को नकार दिया गया था उससे नयी नस्ल के लोग जुड़ने लगे। नौजवान शायरों ने उनकी राह पकड़ी और शायरी में नयी फ़िज़ा के आने का ऐलान कर दिया। फ़राग़ साहब की इस सोच ने कि 'शायर को सालों के आगे का पता होना चाहिए , सौ साल बाद कैसी दुनिया होगी उसका तसव्वुर होना चाहिए तभी उसका नाम शायरी में ज़िंदा रहेगा।आज के हालत पर शायरी करना तो अख़बार की खबर लिखने जैसा काम होगा' ग़ज़ल कहने के अंदाज़ को बदल दिया  

रात की आग़ोश से मानूस इतने हो गये 
रौशनी में आए तो हम लोग अंधे हो गये 
आग़ोश -गोद, मानूस -अभ्यस्त 

आंगनों में दफ़्न हो कर रह गई हैं ख्वाइशें 
हाथ पीले होते-होते रंग पीले हो गये 

भीड़ में गुम हो गये हम अपनी ऊँगली छोड़कर 
मुनफ़रीद होने की धुन में औरों जैसे हो गये 
मुनफ़रीद-अनूठे    

बड़े उस्ताद उन्हीं नौजवानों को अपना शागिर्द बनाया करते जिनसे या तो उन्हें कोई फ़ायदा हासिल होने की उम्मीद होती या फिर किसी दोस्ती या ताल्लुकात का क़र्ज़ चुकाना होता। इस वजह से ऐसे युवा जिनमें अच्छी शायरी करने का ज़ज़्बा तो होता था लेकिन उस्ताद तक रसाई का ज़रिया नहीं होता था ,आगे नहीं बढ़ पाते थे। इससे दोयम दर्ज़े के शायर मन्ज़रे आम पर छाने लगे और शायरी में गिरावट आने लगी। अज़हर साहब ने नौजवानो की इस तकलीफ़ को शिद्दत से महसूस किया क्यूंकि वो खुद भी शुरू में इस समस्या से दो चार हो चुके थे। 

तब अज़हर साहब ने, पाकिस्तान के नौजवान शायरों को ग़ज़ल की बारीकियां सीखने में मदद पहुँचाने की गरज़ से एक फ़ोरम का गठन किया। अज़हर साहब की रहनुमाई में इस फोरम से जुड़ कर नौजवान शायरों ने एक दूसरे से बहुत कुछ सीखा और शायरी के क्षेत्र में नाम कमाया। बहावलपुर में 2010 के बाद 'नयी ग़ज़ल'की लहर चली जिसमें नौजवान शायरों ने उन सभी विषयों पर जो समाज में कभी टैबू समझे जाते थे, ग़ज़लें कहीं जो बहुत मकबूल हुईं, नयी ज़मीनें तलाशी गयीं, नए विषय उठाये गए, क्राफ्ट और कहन की खोज की गयी। ये सब करने में ग़ज़ल के उरूज़ के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गयी। नयी ग़ज़ल को रिवायती ग़ज़ल के एक्टेंशन के रूप में पेश किया गया। इस बदलाव ने ग़ज़ल में नयी जान फूंक दी ,पढ़ने सुनने वालों को इसमें ताज़गी का एहसास हुआ और इससे ग़ज़ल की लोकप्रियता में चार चाँद लग गए।

अज़हर साहब का मानना है कि जिस तरह आम पढ़ने सुनने वालों ने जहाँ इस नयी ग़ज़ल को ख़ुशी से अपनाया वहीँ आलोचक अभी भी ग़ज़ल की उसी पुरानी रवायत से चिपके बैठे हैं और इस ताज़गी को नकारने में लगे हैं। पारम्परिक लोग बदलाव को आसानी से नहीं स्वीकारते लेकिन वक़्त उन्हें बाद में स्वीकारने को मज़बूर कर देता है। सरकारों के भरोसे रहने से साहित्य का कभी भला नहीं हो सकता। पाठ्य पुस्तकों में अभी भी उन्हीं को जगह मिलती है जिनकी रचनाएँ अब अपना महत्व खो चुकी हैं याने सम-सामयिक नहीं हैं। सरकारों को चाहिये की वो चुनिंदा नौजवानों के कलाम भी पाठ्यपुस्तकों में लाये ताकि आने वाली पीढ़ी को अंदाज़ा हो कि आज के दौर की सोच और शायरी कैसी है।  

ग़ज़ल को पूरी तरह से समर्पित अज़हर भाई की दो किताबें सन 2006 में 'मैं किसी दास्ताँ से उभरूँगा'और सन 2017 में 'इज़ाला'के नाम से उर्दू में मंज़र-ऐ-आम पर आ चुकी हैं। हिंदी में जैसा की पहले बताया है ये ही एक मात्र किताब है जिसमें उनकी 80 ग़ज़लें संकलित हैं और सभी बार बार पढ़ने लायक हैं। 
अज़हर फ़राग़ साहब के बारे में सब कुछ एक पोस्ट में समेट लेना संभव नहीं लेकिन और कोई चारा भी तो नहीं इसलिए थोड़े को ज्यादा माने और आखिर में उनके ये चंद अशआर पढ़ें :

हम जिसे चाहे अपना कहते रहें 
वही अपना है जिसे पा लिया जाय 
*
फिर उसके बाद गले से लगा लिया मैंने 
ख़िलाफ़ अपने उसे पहले ज़हर उगलने दिया 
*
ये नहीं देखते कितनी है रियाज़त किसकी 
लोग आसान समझ लेते हैं आसानी को 
रियाज़त :अनवरत अभ्यास से आने वाली सिद्धता 
*
घर में किसका पाँव पड़ा 
छत से जाले उतर गये 
*       
 कुछ इतना सहल न था रौशनी से भर जाना 
नज़र दिये पे बड़ी देर तक जमानी पड़ी 
सहल: सरल 
*
कोई तो नाम हो तअल्लुक़ का 
किस हवाले से बोझ ढोया जाय

किताबों की दुनिया - 220

ये जो मौजूद है इसी में कहीं 
इक ख़ला है तुझे नहीं मालूम 

तब कहाँ था वो अब कहाँ पर है 
पूजता है ! तुझे नहीं मालूम 

इश्क़ खुलता नहीं किसी पर भी 
दायरा है ! तुझे नहीं मालूम 

रोते-रोते ये क्या हुआ तुझको 
हँस पड़ा है ! तुझे नहीं मालूम 

जिस किताब का ज़िक्र हम करने जा रहे हैं उसके शायर के बारे में किताब के फ्लैप पर क्या  लिखा है आइये सबसे पहले वो पढ़ते हैं। "पहली बात कि ये इस शायर की शायरी में जब मुहब्बत दाख़िल होती है तो पूरी कायनात में फूल खिलने लगते हैं। गुस्सा फूटता है तो बदला नहीं बेबसी होती है। जब ये शायर हैरत के संसार में दाख़िल होता है तो पाठक भी हैरतज़दा हो जाते हैं और सबसे बड़ी बात ये कि ये बने बनाये ढर्रे पर नहीं चलना चाहता और ख़ुद ही सब अनुभव करना चाहता हैं। 
सबसे ख़ास बात ये शायर बहुत ईमानदारी से शायरी करता हैऔर जैसा कि इस किताब भूमिका में लिखा है 'ईमानदार शायरी यूँ ही अवाम को बैचैन करने वाली होती है। ये कुछ-कुछ ठहरे पानी में कंकर, बल्कि भारी पत्थर फेंकने का काम है। ज़ाहिर है पानी उछलेगा आवाज़ होगी और छींटे पड़ेंगे तो लोग मार से बचने की कोशिश ही करेंगे, मगर ईमानदार शायरी से कैसे बचा जा सकता है ? बंद कमरे के दरवाज़ों, दीवारों को पार कर सुनने की शक्ति पर दस्तकें ही नहीं देती अपितु हथौड़े बजाती है। "      
    
उसे भी ज़िद थी कि माँगूँ तो सब जहाँ देखे   
दराज़ मैं भी कहाँ हाथ करने वाला था   
दराज़ : फैलाना 

खुली हुई थी बदन पर रूवां रूवां आँखें 
न जाने कौन मुलाक़ात करने वाला था 

मैं सामने से उठा और लौ लरज़ने लगी 
चिराग़ जैसे कोई बात करने वाला था 

क़िताब 'सरहद के आर-पार की शायरी 'शीर्षक के अंतर्गत छपने वाली सीरीज जिसके बारे में आप पहले पढ़ चुके हैं में दो शायर होते हैं एक भारत से दूसरे पाकिस्तान से। इस बार भारतीय शायर हैं जनाब 'तुफ़ैल चतुर्वेदी'साहब जिनकी बेहतरीन शायरी के अलावा इस किताब में आप उनकी लिखी लाजवाब भूमिका भी पढ़ सकते हैं उन्होंने ने ही अपनी और पाकिस्तानी शायर की शायरी के संपादन की जिम्मेवारी भी उठाई है। पाकिस्तानी शायर हैं जनाब 'रफ़ी रज़ा'साहब जिनकी उर्दू ग़ज़लों का लिप्यांतरण नौजवान शायर 'इरशाद खान 'सिकंदर'साहब ने किया है।  
आज हम पाकिस्तानी शायर 'रफ़ी रज़ा'की शायरी और उनकी ज़िन्दगी पर थोड़ी बहुत बात करेंगे। थोड़ी बहुत इसलिए कि उनकी शायरी पर ही इतनी लम्बी बात हो सकती है कि जिसे समेटने में अच्छी-ख़ासी मोटी क़िताब भी छोटी पड़े। 
रफ़ी रज़ा साहब का नम्बर तुफ़ैल साहब ने दिया और रफ़ी साहब से अपने बारे में मुझे बताने की सिफ़ारिश सिकंदर भाई ने की, मैं दोनों का शुक्रगुज़ार हूँ क्यूंकि उनके सहयोग के बिना ये पोस्ट संभव नहीं थी। 
पाकिस्तान में चिनाब नदी के किनारे 'रबवह' (रबवा) जो पंजाब प्रोविंस में है में 9 अक्टूबर 1962 को मोहम्मद रफ़ी का जन्म हुआ। ये नाम उनकी ख़ाला ने बहुत इसरार करके रखवाया जो भारत के विलक्षण और लोकप्रिय गायक 'मोहम्मद रफ़ी'की जबरदस्त प्रशंसक थीं। बाद में मोहम्मद नाम कहीं पीछे छूट गया और सिर्फ़ रफ़ी रह गया। रज़ा तखल्लुस भी उन्होंने बाद में रखा। अहमदिया जमात में पैदा हुए रफ़ी रज़ा का जीवन आसानी भरा नहीं रहा। यहाँ ये बताना जरूरी हो जाता है कि अहमदिया इस्लाम का एक संप्रदाय है। इसका प्रारंभ मिर्ज़ा गुलाम अहमद (1835-1908) के जीवन और शिक्षाओं से हुआ। अहमदिया आंदोलन के अनुयायी गुलाम अहमद को मुहम्मद साहब के बाद एक और पैगम्बर (दूत) मानते हैं जबकि इस्लाम में पैगम्बर मोहम्मद ख़ुदा के भेजे हुए अन्तिम पैगम्बर माने जाते हैं। दुनिया भर के दूसरे मुसलमान इन्हें काफ़िर मानते है। इनके हज करने पर भी प्रतिबंध है। सन 1974 में अहमदिया संप्रदाय के मानने वाले लोगों को पाकिस्तान में एक संविधान संशोधन के जरिए गैर-मुस्लिम करार दे दिया गया था । एक मुस्लिम देश में ग़ैर-मुस्लिम माने जाने वाले समुदाय की क्या हालत होती है ये वही समझ सकता है जिसने इसे भुगता है।     .

दुख का इलाज ढूंढ रहा था बहाव में 
रो-रो के मैंने और दुखा ली हुई है आँख 
*
जाते-जाते न मुड़ के देख मुझे 
शाम के वक़्त शाम होने दे 
*
ये जो कनारे-चश्म तड़प सी है, रंज है 
ऐ दिल ! यक़ीन कर अभी रोया नहीं गया 
*
मैं बुझाता हूँ किसी इश्क़ में मर्ज़ी से अगर 
जा चमकता है कहीं और सितारा मेरा 
*
मैं शाख़े-उम्र पे बस सूखने ही वाला था 
लिपट गया कोई आकर हरा-भरा मुझसे 
*
इल्म ख़ुद भी बड़ी मुसीबत है 
इससे बढ़ कर वबाल है ही नहीं 
*
उसको अंदाज़ा मिरी प्यास का फिर 
रेत को पानी पिलाने से हुआ 
*
दुश्मन से ही लड़ा है अभी ख़ुद से तो नहीं 
मैदाने-कार-ज़ार में आया नहीं है तू 
 मैदाने-कार-ज़ार : युद्ध स्थल 
*
तू ने नफ़रत से मिरी जान तो क्या लेनी थी 
मैं यही काम मुहब्बत से किए जाता हूँ 

एक चलना है कि खिंचता ही चला जाता हूँ 
एक रुकना है कि ताकत से किए जाता हूँ  
 
रबवह(रबवा) में उन्होंने पहले 'तालीम उल--इस्लाम'स्कूल और फिर कॉलेज से ऍफ़ एस सी तक की तालीम हासिल की। तालीम के साथ-साथ देश दुनिया में फैले मज़हबों के बारे में भी जानकारी की। आठवीं क्लास तक आते-आते वो इस्लाम की तारीफ़ पढ़ चुके थे। 
पढ़ने का शौक रफ़ी साहब को दीवानगी की हद से आगे तक था। ये शौक़ उन्हें अपनी वालिदा से मिला। स्कूल की किताबों के अलावा वो जो जहाँ कहीं कुछ भी लिखा मिलता उसे बहुत दिलचस्पी से पढ़ते चाहे वो सौदा सुलफ़ के साथ आये कागज़ पर लिखा हो या दवाओं के साथ आये रैपर पर। दवाओं के रैपर पढ़ पढ़ कर तो उन्हें बहुत सी दवाओं के फार्मूले तक याद हो गए थे जो अमूमन मेडिकल सेल्स रिपेरजेंटेटिव को भी याद नहीं हुआ करते।
ऍफ़ एस सी करने के बाद वो रबवह छोड़ कर इंस्ट्रूमेंटेशन इंजिनीयरिंग के कोर्स के लिये, जो तीन साल का था, सरगोधा के पॉलिटेक्निक कॉलेज में पढ़ने चले गये। ये कोर्स तीन की जगह चार साल में पूरा हुआ ,क्यों ? इसके पीछे की कहानी ये बताती है कि किसी भी मुल्क में  डिक्टेटरशिप लागू होने पर आम इंसान की ज़िन्दगी पर क्या असर पड़ता है। डिक्टेटर को जो वो सोचता है उसे लागू करने की पूरी आज़ादी होती है वो अपनी भलाई के लिए कुछ भी कर गुजरने से गुरेज़ नहीं करता। उसे अवाम की कोई परवाह नहीं होती। ये 'जिया उल हक़'के शासन काल की बात है। तक्षिला के पॉलिटेक्निक कॉलेज में कुछ लड़कों ने जिया के ख़िलाफ़ बग़ावत की तैयारी के लिए हथियार कॉलेज के एक कमरे में छुपाने शुरू कर दिए। ये बात फ़ौजियों को किसी तरह पता चल गयी। जिया उल हक़ तक जब ये ख़बर पहुंची तो उसने, बजाय एक तक्षिला के पॉलिटेक्निक कॉलेज पर एक्शन लेने के, देश के सभी पॉलिटेक्निक कॉलेजों पर एक्शन ले लिया और उन्हें एक साल के लिए बंद कर दिया। इस तुग़लकी निर्णय से पूरे मुल्क़ के बेक़सूर छात्रों का जिनका इस बग़ावत से दूर दूर का भी रिश्ता नहीं था ,पूरा एक साल ख़राब हो गया। 
इंस्ट्रूमेंटेशन की पढाई के साथ साथ रफ़ी साहब ने प्राइवेटली बी. ऐ. की डिग्री जिसमें उर्दू एडवांस और लिटरेचर एडवांस के साथ साथ फ़ारसी भी शामिल थी , हासिल कर ली। इस तरह उन्हें उर्दू साहित्य की अच्छी खासी जानकारी हो गयी।         
       
ए वाइज़ा तू ख़ुदा की तरफ़ से है ही नहीं 
इसीलिए तिरा लहजा डपटने वाला है 
वाइज़ा : धर्मोपदेशक 
*
डर रहा था मैं गहरी खाई से 
पाँव फिसला तो मेरा डर निकला 
*
तो क्या दुआएँ करूँ सानहों के होने की 
गले मिले हैं सभी सानहे के होने  से 
सानहों : दुर्घटनाओँ 
*
जिसकी जुबां का ज़ख्म मिरी रूह तक गया 
कौन उससे पूछता तिरी तलवार है कहाँ 
*
तू मिल रहा है मुझसे मगर आग है किधर 
मिट्टी को क्या करूँ मैं ,मुझे जान चाहिये 
*
वो रौशनी मिरी बीनाई ले गयी पहले 
फिर उसके बाद मिरा देखना मिसाल हुआ 
*
ख़ुदा का नाम लिया और फिर भरा सागर 
लो मैं शराब को ख़ुद ही हराम करने लगा 
*
बहुत दिनों से ख़मोशी थी चीख़ कर टूटी 
जो ख़ौफ़ था मिरे अंदर दहाड़ कर निकला 
*
महक रही है कोई याद गुफ़्तगू की तरह 
सुलग सुलग के अगरबत्ती जल रही है कोई  
*
वो पहली मुहब्बत चली आती है बुलाने 
वो पहला ख़सारा मुझे रुकने नहीं देता 
ख़सारा : घाटा 


रफ़ी साहब को खेल कूद में बेहद दिलचस्पी थी। स्कूली दिनों में वो तकरीबन हर खेल की टीम में शिरक़त करते और टीम को जिताते लेकिन उनके इस हुनर को किसी खास टूर्नामेंट के वक़्त ,सिफ़ारिशी बच्चों की ख़ातिर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता। जब भी स्कूल के बाहर कोई टीम भेजनी होती उसमें उनकी जगह किसी रसूख़दार बच्चे का नाम होता। ये भेदभाव दुनिया भर में खेलों में ही नहीं बल्कि ज़िन्दगी में कहाँ नहीं होता? रफ़ी साहब इस बात को जानते थे लेकिन जब ये भेदभाव वो अपने साथ जरूरत से ज्यादा होते देखते तो इस नाइंसाफी पर खून के घूँट पी कर रह जाते। उन्होंने टीम वाले खेलों को छोड़ उन खेलों की तरफ़ रुख़ किया जिसमें आप अकेले अपने दमखम पर हिस्सा लेते हैं जैसे एथेलेटिक्स और खूब मैडल जीते। 
आठवीं जमात से रफ़ी साहब को लिखने का शौक़ परवान चढ़ा। उन्हें लगा कि कहानियाँ लिखने से ग़ज़लें और नज़्म लिखना आसान है। इसके लिए उस्ताद की तलाश शुरू हुई, कुछ मिले भी लेकिन वहां भी जब उन्होंने दोयम दर्ज़े के शायरों को वाह वाही पाते और उस्ताद को उनकी हौसला अफ़ज़ाही करते देखा तो उस्ताद की तलाश बंद कर दी और किताबों का सहारा लिया। किताबों को अपना उस्ताद बनाया उन्हीं से उरूज़ सीखा और ग़ज़ल में लफ्ज़ बरतने का सलीका भी। आज वो जिस मुकाम पर हैं वो अपने इस पढ़ने की आदत की वज़ह से ही हैं।  
उन्होंने अपनी ग़ज़ल सं 1979 में कही जो लाहौर के उस रिसाले में छपी जो अहमीदियों में बहुत मक़बूल था। बाद में उनकी ग़ज़लें बग़ावती तेवर वाली थीं जो जिया की हुकूमत के ख़िलाफ़ थीं लेकिन किस्मत से फ़ौजियों की नज़रों से बच गयीं वरना उन दिनों बग़ावत करने और शासक के ख़िलाफ़ लिखने वालों को उठा कर जेल में डाल दिया जाता था। 
धीरे धीरे वो पहले छोटी छोटी नशिस्तों में और फिर मुशायरों में ग़ज़लों में पढ़ते पढ़ते मक़बूल होते तो होते गए लेकिन उन्हें ये मकबूलियत थोथी लगी। उन्हें  ये बात समझ में आने लगी कि अगर शायरी की दुनिया में अपना नाम पुख़्ता तौर पर दर्ज़ करवाना है तो वो लिखना पड़ेगा जो सबसे अलग हो। चौंकाने वाली शायरी कुछ वक्त आपको वाह वाही दिला देती है लेकिन उसके बाद उसका कोई वजूद नहीं रह जाता। 

करती है हर घड़ी मिरे दिल में शुमारे-उम्र 
क़िस्तों में क़ैद से यूँ रिहा हो रहा हूँ मैं 
शुमारे-उम्र : उम्र की गिनती  
*
बदन थमाते हुए ये नहीं बताया था 
तमाम उम्र ये कोहे-गिराँ पकड़ना है 
कोहे-गिराँ : भारी पहाड़ 
*
ये सूरज बुझ रहा है जो उफ़क़ में 
मुझे अपनी कहानी लग रही है 
*
एक इस उम्र का ही काटना काफ़ी नहीं क्या 
इश्क़ का बोझ मिरी जाँ पे इज़ाफ़ी नहीं क्या 
इज़ाफ़ी : अतिरिक्त 
*
तुम मिल गए तो देखो तुम्हारी ख़ुशी को फिर 
चारों तरफ़ से दुख ने हिफाज़त में ले लिया 
*
सब्ज़ होने से हक़ीक़त तो नहीं बदलेगी 
लाख इतराए मगर अस्ले-शजर मिट्टी है 
अस्ले-शजर : पेड़ की वास्तविकता 
*
अब बोलने लगा हूँ ज़मीं के ख़िलाफ़ भी 
मुझको बना रहा है निडर इतना आसमान 
*
नतीजा कुछ भी निकले कुछ तो निकले 
मुसलसल इम्तिहाँ का क्या किया जाये 
*
सुनने से तो ख़ुशबू का तअल्लुक़ भी नहीं है 
क्यों बात वो करता है महकने के बराबर 
*
 ये फड़फड़ाता हुआ शोला खोल दे कोई 
बंधा चराग़ से क्यों आग का परिंदा है 

इंस्ट्रूमेंटेशन के बाद उनकी दिलचस्पी इलेक्ट्रॉनिक्स की और हुई इसलिए उन्होंने इलेक्टॉनिक्स के क्षेत्र में तालीम हासिल की और पाकिस्तान में जब कम्यूटर आया तो वो उस इंडस्ट्री के साथ जुड़ गए। ये उनकी ज़िन्दगी का टर्निंग प्वाइंट था क्यूंकि इसी इंडस्ट्री ने उन्हें कैनेडा में बसने और नौकरी का मौका दिया और वो पाकिस्तान से कैनडा शिफ्ट हो गए। अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कम्यूटर कंपनियों में काम करते करते वो जल्द ही उकता गए और फ़ार्मेसी की और मुड़ गए  लेकिन वहां भी उनका मन ज़्यादा देर तक नहीं टिका । बेचैनी की हालत में किसी ने उन्हें 'एंटोमोलोजी'का कोर्स करने की सलाह दी। एंटोमोलोजी आप जानते होंगे कि इंसेक्ट्स और उनके इंसान के साथ संबंध का विज्ञान है। केनेडा की प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी से उन्होंने एंटोमोलोजी का कोर्स किया और वो अभी उसी से जुड़ी इंडस्ट्री में काम कर रहे हैं। 
ये सब करने के साथ साथ शायरी का सफ़र भी लगातार चलता रहा। शायरी में उन्होंने अपनी मेहनत से अपनी जगह बनाई।  रफ़ी साहब का मानना है कि आप जो कुछ भी करें दिल से करें और सबसे अलग करने की सोचें। पगडंडियों पर चलने वालों के पाँव के निशान उस पर ज़्यादा देर तक नहीं रह पाते, यदि आप अपने पाँव के निशान छोड़ना चाहते हैं तो आपको अलग रास्ते पर ही चलना होगा। एक पिटे हुए धारे से खुद की शायरी को अलग रखना बेहद मुश्किल काम है। रफ़ी साहब चाहते हैं कि उनकी शायरी पढ़ कर लोग पहचान लें कि ये क़लाम रफ़ी रज़ा का है। 

मिरे मिज़ाज को बख़ियागरी नहीं आती 
तअल्लुक़ात का धागा उधड़ता रहता है 
*
खिड़की से देखते हुए क्यों पीछे हट गईं 
क्या रौशनी गली की बुझाने लगी हो तुम 
*
सिमटने की कोई हद पार कर आया हूँ क्या मैं 
जो अब मेरा बिखर जाना ज़रूरी हो गया है 
*
कहना तो था कि ख़ुश हूँ तुम्हारे बग़ैर भी  
आँसू मगर कलाम से पहले ही गिर गया 
*
सोचते रहने में अंदाज़ा नहीं था मुझको 
सोचते रहने में मुहलत ने निकल जाना है 
*
न जाने किसको ज़रुरत पड़े अँधेरे में 
चराग़ राह में देखा था घर नहीं लाया 
*
सर उठाता हूँ तो ढह जाता हूँ 
कोई दीवार हूँ मिट्टी की तरह 

रफ़ी साहब का मानना है कि "एक नयी धारा या सोच या तर्ज़, जिसे कबूलियत भी मिले बल्कि क़बूलियते आम मिले, को शायरी में पैदा करना बहुत मुश्किल काम है क्यूंकि यदि अलग करने की फ़िक्र में आप शायरी की जुबान या उसकी स्टाइल या डिक्शन बदल देते हैं तो फिर उसकी तासीर कम हो जाने का डर रहता है। उर्दू ग़ज़ल का मसअला ये है बल्कि ख़ासियत ये है कि इसे तग़ज़्ज़ुल के बगैर क़ुबूलियत नहीं मिलती। तग़ज़्ज़ुल का मतलब ऐसे है जैसे जब आपको भूख़ लगती है और आपको खाना दिखाया जाता है तो उस खाने की खुशबू से उसको देखने से आपके मुँह में स्लाइवा बनना शुरू हो जाता है जिसे राल टपकना भी कहते हैं । ग़ज़ल में तग़ज़्ज़ुल वो राल ही है जो श्रोता सुनने से पहले खुद को तैयार करते हुए अपने ज़ेहन को एक खास रौ में ले के आता है एक ख़ास माहौल उसके ज़ेहन में होता है वो उसी को एक्पेक्ट करता और उसी पर रिएक्ट करता है। याने भर पेट खाने के बावजूद खाने को देखते रहने और उसे लगातार खाने को दिल करे। जिसे खा कर वो कहे कि अहा स्वाद आ गया। ये स्वाद ही तग़ज़्ज़ुल है। स्वाद जो आपके सेंसेस को जगा दे।  बासी फ़ीका अधपका  खाना सिर्फ़ बेहद भूखा इंसान ही खा सकता है। भरपेट इंसान को तो उसे देखना भी गवारा नहीं होगा खाना तो दूर की बात है ।  देखिये दुनिया भर में मसाले वही होते हैं नमक मिर्च हल्दी धनिया आदि उनका अनुपात ही खाने में स्वाद लाता है , ये अनुपात सीखना ही असली हुनर है।  
 अपनी शायरी में जो ये स्वाद याने तग़ज़्ज़ुल पैदा कर लेता है वो क़ामयाब हो जाता है।
शायरी सहज होनी चाहिए ,बहती हुई सी ,रवानी लिए हुए। चौंकाने वाली शायरी की उम्र लम्बी नहीं होती चाहे उसे कितनी भी मक़बूलियत मिली हो। कामयाबी के लिए एक बात ये भी है कि अपनी शायरी में आप मुश्किल लफ़्ज़ों के इस्तेमाल से परहेज़ करें। उन्होंने अपनी शायरी में उन लफ़्ज़ों का इस्तेमाल भी किया है  जिनमें फ्लो नहीं होता जैसे पछाड़ उखाड़ झाड़ आदि और इसे लोगों ने इसे पसंद भी किया।       
      
कौन कहता है कि ईमान से डर लगता है 
मुझको अल्लाह के दरबान से डर लगता है 

ग़ैर के डर का वो अंदाज़ा लगा सकता है 
जिस मुसलमां को मुसलमान से डर लगता है 

झाँकते क्यों नहीं ख़ुद अपने गिरेबान में आप 
आप को अपने गिरेबान से डर लगता है 

कल  सुनी गुफ़्तगू हैवानों की छुपा कर मैंने 
सभी कहते थे कि इंसान से डर लगता है 

रफ़ी साहब ने कुछ अलग किस्म की शायरी करने के लिए अपने साथ के और पुराने शायरों को पढ़ना शुरू किया और उनपर आलोचनात्मक लेख भी लिखने लगे। आलोचना में उन्होंने बहुत ईमानदारी से काम किया और आलोचना करते वक्त ये नहीं देखा कि शायरी उनके दोस्तों की है या दुश्मनों की। कुछ तो मज़हबी पाखण्ड के विरोधी विचारों के कारण और कुछ आलोचना में सच कहने के कारण उनके दुश्मनों की तादाद दोस्तों से बहुत ज़्यादा हो गयी। इससे उनकी सोच में बिल्कुल भी फ़र्क नहीं पड़ा। वो साफ़ तौर पर सबसे  कहते भी हैं कि फलाँ शख़्स की शायरी में मुझे ये कमी नज़र आ रही है यदि आप मेरी दलील से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते तो तो कोई बात नहीं आप बताएं कि मैं कहाँ ग़लत हूँ और यदि आप साबित करते हैं कि मैं ग़लत हूँ तो मुझे अपनी ग़लती मानने में कोई ऐतराज़ नहीं है लेकिन होता इसके उलट है लोग आलोचना से तिलमिला जाते हैं और व्यक्तिगत बातों पर कीचड़ उछालना शुरू  कर देते हैं। रफ़ी साहब ऐसी लोगों और उनकी बातों से घबराते नहीं हैं बिना डरे अपनी बात पुख्ता ढंग से कहते हैं। 
तुफ़ैल साहब ने किताब की भूमिका में लिखा भी है कि "ग़लत को ढोल बजा कर सबके सामने लाना इसलिए भी ज़रूरी है कि ऐसा न किया जाये तो दुरुस्त के साथ सदियों से होती आयी नाइंसाफ़ी बंद नहीं हो पायेगी। ये विरोध बड़े पैमाने पर लोगों में उलझन पैदा करता है। कान-पूँछ लपेट कर कूँ कूँ करते हुए किसी तरह ज़िन्दगी जीने वाले लोग ग़ुर्राने वाला लहजा नापसंद तो करेंगे ही।" 
रफ़ी साहब शायरी के अलावा एक्टिविस्ट भी हैं और बेहद ज़रूरतमंदों की मदद के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं।उर्दू में उनके दो ग़ज़ल संग्रह '  सितारा लकीर छोड़ गया'और 'इतना आसमान'प्रकाशित हो चुके हैं. देवनागरी में पहली बार राजकमल प्रकाशन ने उनकी शायरी को इसे प्रस्तुत किया है। आप अगर शायरी याने अच्छी और भीड़ से अलग किस्म की शायरी पढ़ने में रूचि रखते हैं तो ये क़िताब आपके पास जरूर होनी चाहिए जो कि अमेजन से ऑन लाइन मंगवाई जा सकती है। 
चलते चलते आईये पढ़ते उनकी एक छोटी बहर की ग़ज़ल के चंद शे'र:        

जहाँ रोना था रो सके न वहाँ 
इसी ख़ातिर इधर उधर रोये 

लोग रोये बिछड़ने वालों पर 
और हम ख़ुद को ढूँढ़ कर रोये 

कोई चारा बचा नहीं होगा 
वर्ना क्यों मेरे चारागर रोये 
चारागर : चिकित्सक 

है ख़ुदा जब कि हर जगह मौजूद 
छुपछुपा कर कोई किधर रोये   





( ये पोस्ट रफ़ी रज़ा साहब के कैनेडा से भेजे वाइस मैसेज पर आधारित है )





किताबों की दुनिया - 221

बच्चे साँस रोके बैठे थे तभी मंच से नाम की घोषणा हुई और उसके बाद जो तालियाँ बजी उन्होंने रुकने का नाम ही नहीं लिया। रूकती भी कैसे ? आखिर ऐसा करिश्मा स्कूल में पहली बार जो हुआ था। लगातार तीसरी बार प्रथम स्थान। आठवीं कक्षा में, नौवीं में और अब दसवीं में भी ।अनवरत बजती तालियों के बीच मुस्कुराता हुआ वो बच्चा मंच पर आया जिसका नाम घोषित करते वक़्त शिक्षक की ख़ुशी का पारावार न था। वो बच्चा इस शिक्षक का ही नहीं स्कूल के हेडमास्टर से लेकर सभी शिक्षकों का चहेता था। सिर्फ़ पढाई में ही नहीं क्रिकेट के मैदान पर जब वो बल्ला ले कर उतरता तो विपक्षी टीम के बॉलर को समझ नहीं आता कि वो उसे कहाँ बॉल डाले जहाँ उसका बल्ला न पहुँच पाये ,कप्तान ये सोच कर परेशान होता कि वो फील्डर कहाँ खड़ा करे ताकि उसके बल्ले से निकली बॉल बाउंडरी पार न कर पाये और जब वो बॉल लेकर ओवर फेंकने जाता तो बल्लेबाज़ अपनी क़िस्मत को कोसता कि कहाँ इसके सामने आ गया। 
वो एक ऐसा बच्चा था जिस पर पूरे स्कूल को गर्व था। स्कूल वालों को तो पक्का यक़ीन था कि अब ग्यारवीं में ये बच्चा टॉप करेगा ही और फिर अगले साल बाहरवीं की बोर्ड परीक्षा में वो मैरिट में आ कर स्कूल का नाम पूरे प्रदेश में रौशन करेगा।  
ग्यारवीं कक्षा में उसके शिक्षकों ने एक मत से उसे साइंस दिलवा दी। शिक्षक चाहते थे कि बच्चा साइंस की पढाई कर इंजिनियर बने जबकि बच्चे का रुझान आर्टस की ओर था। घर और स्कूल वालों के इसरार से बच्चे ने आखिर, बेमन से ही सही, साइंस पढ़ना मंज़ूर किया और क्लास टेस्ट्स में आशा के अनुरूप सबसे आगे रहा। 
वार्षिक परीक्षाएँ सर पर थीं और पढाई पूरे जोर पर, तभी वो हुआ जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। 

खड़े ऊँचाइयों पर पेड़ अक्सर सोचते होंगे 
ये पौधे किस तरह गमलों में रह कर जी रहे होंगे  
*
दहशत के मारे भाग गये दश्त तरफ 
लफ़्ज़ों ने सुन लिया था छपाई का फ़ैसला 
*
बुलन्दियों पे ज़रा देर उसको टिकने दें 
अभी ग़लत है उसे आपका सफल कहना 
*
अफ़सोस, दर्द, टीस, घुटन, बेकली, तड़प 
क्या-क्या पटक के जाती है दुनिया मेरे आगे 
*
आग से शर्त लगाई है तुम्हारे दम पर 
ऐ हवाओं ! न मेरा नाम डुबाया जाए 
*
उसे कुछ इस तरह शिद्दत से ख़ुद में ढूंढता हूँ मैं 
मुसाफ़िर जिस तरह रस्ते में छाया ढूंढते होंगे 
*
रात-भर प्यार हँसी, शिकवे, शिकायत मतलब 
एक कमरे का हंसी ताजमहल हो जाना 
*
बे सबब अपनी  फ़ितरत को बदलने बजाय 
चंद आँखों में खला जाय, यही बेहतर है 
*
रखा था इसलिए काँटों के बीच तूने मुझे 
ऐ मेरी ज़ीस्त ! तुझे इक गुलाब होना था 
*
आँख खुली जब, चिड़िया ने चुग डाले खेत 
अब क्या, अब तो खर्राटे पर रोना था       
 
इस बात को अभी यहीं छोड़ कर चलिए थोड़ा पीछे चलते हैं। राजस्थान के जालोर जिले का एक गाँव है 'सांचोर'जिसका अभी हाल ही में अखबारों में ज़िक्र आया है क्यों कि वहाँ जून 2020 में एक 2.78 किलो का उल्का पिंड बहुत बड़े धमाके साथ गिरा था उसी सांचोर गाँव में 19 सितम्बर 1989 को एक मध्यमवर्गीय परिवार में उस प्रतिभावान बच्चे का जन्म हुआ जिसका ज़िक्र हम ऊपर कर चुके हैं। बच्चे में पढ़ने की भूख उसके पिता को बचपन से ही नज़र आने लगी। ये बच्चा अपनी क्लास की किताबों के अलावा अपने से बड़े भाइयों की क्लास की किताबें खास तौर पर हिंदी की बड़े चाव से पढ़ डालता। 
पिता ने एक बार उसे बाज़ार से राजस्थान पत्रिका द्वारा प्रकाशित बच्चों की पाक्षिक पत्रिका 'बालहँस 'पढ़ने को ला कर दी। इस पत्रिका को पढ़ कर तो जैसे बच्चे में और पढ़ने की भूख बढ़ गयी। पिता के संग जाकर उसने वो दूकान देख ली जहाँ बालहंस के अलावा और दूसरी बच्चों की पत्रिकाऐं जैसे 'नन्दन'''नन्हें सम्राट'आदि मिला करती थीं। पाठ्यपुस्तकों के अलावा अब ये पत्रिकाऐं भी नियमित रूप से पढ़ी जाने लगीं। पत्रिकाएं देख कर बच्चे का मन करता कि उसकी रचनाएँ और फोटो भी ऐसे ही इन पत्रिकाओं में छपे जैसे दूसरे लेखकों के छपती हैं। पत्रिकाओं में छपने की इस प्रबल चाह में बच्चे ने लिखना शुरू किया।      

बहुत हुआ कि हक़ीक़त की छत पे आ जाओ 
भरी है तुमने अभी तक उड़ान काग़ज़ पर 
*
हैरत है पीपल की शाख़ों से कैसे अरमां 
पतले-पतले धागों में आ कर बँध जाते हैं 
*
पेशानी पर बोसा तेरी चाहत का 
दिल पर कितने जंतर-मंतर करता है 
*
हर इक जगह तलाशते हैं अपना आदमी 
कहने को जात-पात से हैं कोसो दूर हम 
*
अजब-सा ख़ौफ़ है बस्ती में तारी 
शहर को धर्म का दौरा पड़ा है 
*
नाज़ुक मन पर रंग हज़ारों चढ़ते हैं 
दिल से दिल की जब कुड़माई होती है 
*
ज़्यादा सहूलतों के हैं नुक्सान भी ज़्यादा 
साये बड़े तो होंगे ही परबत के मुताबिक़ 
*
कुछ नहीं मुझ में कहीं भी कुछ नहीं है 
पर 'नहीं'में भी तेरी मौजूदगी है 
*
अगरचे छाँव है तो धूप भी है 
कई रंगों में कुदरत बोलती है 
*
 हर क़दम पर हादसों का डर सताता है यहाँ 
ज़िन्दगी है हाइवे का इक सफ़र अनमोल जी  
   
ग्यारवीं में बच्चे ने पहली कविता लिखी जो, कि जैसा उस उम्र का तकाज़ा होता है, थोड़ी रोमांटिक थी, लिहाज़ा उसने किसी को नहीं दिखाई। फिर देश प्रेम से ओतप्रोत एक कविता लिखी जो हर किसी को पढ़वाने लायक थी। बच्चा चाहता था कि इस कविता को वो अपने पिता को दिखाए क्यूंकि उन्हीं की प्रेरणा से ही उसने लेखन शुरू किया था। बच्चा अपनी इस कविता को पिता को दिखाता उस से पहले ही पिता बीमार हो गये। बच्चे ने सोचा कि दो तीन दिन बाद जब पिता ठीक हो जायेंगे तब दिखायेगा लेकिन 'तभी वो हुआ जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी'    
पिता  के अचानक इस तरह दुनिया-ए-फ़ानी से रुख़्सत होने के बाद जैसे बच्चे के पाँवों तले से ज़मीन ही ख़िसक गयी। घर में एक मात्र वो ही कमाने वाले थे लिहाज़ा उनके जाने के बाद घर की माली हालात बिगड़ गयी। गंभीर आर्थिक संकट मुँह बाए खड़ा हो गया। ग्यारवीं की परीक्षाएँ सर पर थीं लेकिन मातमपुर्सी के रस्मो रिवाज़ के चलते बच्चा उन दिनों एक अक्षर भी नहीं पढ़ पाया जिन दिनों उसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी। नतीज़ा वो हुआ जो नहीं होना चाहिए था।  प्रथम श्रेणी में पास होने की उम्मीद में पढ़ने वाले बच्चे की सप्लीमेंट्री आयी। आकाश नापने के ख़्वाब देखने वाले परिंदे के मानों पर ही कतरे गये। 

लेखन छूटा, स्कूल छूटा, पढाई छूटी लेकिन हिम्मत और हौंसला नहीं छूटा। बच्चे ने परिवार को आर्थिक सम्बल देने के लिए गाँव में अपनी परचूनी की छोटी सी दूकान खोल ली और साथ ही ख़ाली वक़्त में प्राइवेटली बारहवीं की परीक्षा की तैयारी की और पास हुआ।           

चाय का कप, ग़ज़ल, तेरी बातें 
कैसे अरमान पलने लगते हैं 
*
जो फेंकी ज़िन्दगी ने यार्कर थी 
उस अंतिम गेंद पर छः जड़ चुका हूँ 
*
दफ़्तर, बच्चे ,बीवी, साथी, रिश्ते-नाते, दुनियादारी 
सबके सबको खुश रख पाना इतना तो आसान नहीं है 
*
बहुत आसान है मुश्किल हो जाना 
बहुत मुश्किल है पर आसान होना 
*
बहुत मासूम है दिल गर बिछड़ जाये कोई अपना 
फ़लक पर नाम का उसके सितारा ढूंढ लेता है 
*
आदमी बनने की ख़ातिर छटपटाता वो रहा 
रब समझ कर तुम इबादत उम्र भर करते रहे 
*
पीठ से खंज़र ने करली दोस्ती 
और फिर  बदला अधूरा रह गया 
*
समंदर हो कि मौसम हो या फिर लाचार इंसां हो 
कहाँ समझे जहां वाले किसी की ख़ामोशी की हद 
*
 ख़त के लफ़्ज़ों के बीच मैं खुद को 
उसकी टेबल पे छोड़ आया हूँ 
*
थोड़ा अच्छा होना, होता है अच्छा  
वरना मँहगी पड़ जाती अच्छाई है   

बच्चे की पढ़ने की ललक देखिये कि घोर आर्थिक तंगी होने के बावज़ूद उसने अपनी दूकान पर नियमित अख़बार मँगवाना शुरू दिया क्यूँकि अख़बार के साथ अलग अलग दिन विशेष परिशिष्ट जो आते थे। परचूनी की दूकान से थोड़ी बहुत आमदनी होने लगी। धीरे धीरे कहावत 'हिम्मत ए मर्दां मदद ए ख़ुदा'सच होने लगी। मुश्किल हालात ने बच्चे को मानसिक रूप से मज़बूत बनाया और अपने पाँव पर खड़े होने का हुनर तो सिखाया लेकिन आगे क्या करना है ये समझाने वाला न कोई घर में था न गाँव में । बच्चे ने अपनी समझ के अनुसार सरकारी नौकरी पाने के लिए  बी.ऐ. में अंग्रेज़ी विषय लिए, पास हुआ लेकिन सरकारी नौकरी नहीं मिली। एक दिन अपनी दूकान किसी सौंप कर वो एक प्राइवेट स्कूल में बच्चों को पढ़ाने की नौकरी करने लगा। स्कूल में नौकरी इसलिए की ताकि पढ़ने लिखने का मौका मिलता रहे।कुछ समय बाद अपना एक छोटा सा कोचिंग सेंटर खोल लिया जो चल निकला। जिंदगी ढर्रे पर लौटने लगी। 
तभी सं 2009 के अंत में आमिर खान की फ़िल्म आयी 'थ्री इडियट्स'जिसे देख बच्चे को एहसास हुआ कि वो जो कर रहा है उसे जीना नहीं कहते। ज़िन्दगी में अगर अपने सपने साकार करने का प्रयास न किया तो जीना व्यर्थ है। सपना था लेखक बनने का। सन 2010 इस बच्चे के जीवन में टर्निंग प्वाइंट बन कर आया। अपने सपने साकार करने ये लिए इस बच्चे ने अपने जमे -जमाये काम के साथ-साथ गाँव भी छोड़ दिया।   
सपनों को साकार करने की धुन में जोख़िम उठाने वाला ये बच्चा आज हिंदी ग़ज़ल के आकाश में एक चमकता सितारा है जो के.पी.अनमोलके नाम से जाना जाता है।  इन्हीं की ग़ज़लों की क़िताब 'कुछ निशान कागज़ पर'हमारे सामने है जिसे 'किताबगंज प्रकाशन'ने प्रकाशित किया है। ये ग़ज़लें पाठक के दिल पर निशान छोड़ने में सक्षम हैं।
 
खूब ज़रूरी हैं दोनों 
झूठ ज़रा-सा ज़्यादा सच 
*
ख़ुद को बना सका न मैं सौ कोशिशों के बाद 
और उसने एक बार में छू कर बना दिया 
*
सवाल ये नहीं है लौट कैसे आया वो 
सवाल ये है कि वो लौट कैसे आया है 
*
कुछ रोज़ कोई मेरा भी ज़िम्मा सँभाल ले 
तंग आ चुका हूँ अब तो मैं खुद को सँभाल कर   
*
कुछ न मन का कर सकें, ये वक़्त की कोशिश रही 
काम मन के ही मगर हम, ख़ासकर करते रहे    
               
अनमोल जी ने गाँव छोड़ जोधपुर का रुख़ किया जहाँ उन्हें एक स्वस्थ साहित्यिक माहौल मिला। जोधपुर में स्वतंत्र लेखन के साथ कम्पीटीटिव परीक्षाओं की तैयारी भी चलने लगी। जोधपुर के वरिष्ठ साहित्यकारों के सानिध्य से उन्होंने बहुत कुछ सीखा। इतना सब होने के बावज़ूद अनमोल जी को अपनी मंज़िल का रास्ता सुझाई नहीं दे रहा था। तभी उनके जीवन में आये एक शख़्स ने उन्हें हिंदी में एम.ऐ. करने की सलाह दी। इस सलाह से जैसे मंज़िल का रास्ता आलोकित हो गया। हिंदी शुरू से अनमोल जी का प्रिय विषय रहा था। उन्होंने हिंदी में सिर्फ़ प्रथम श्रेणी से एम. ऐ ही नहीं किया बल्कि कॉलेज में टॉप भी किया। 
व्यक्तिगत कारणों से वो 2014 में जोधपुर से रुड़की आ गए और फिर यहीं के हो कर रह गए। रुड़की में उन्होंने वेब डिजाइनिंग का कोर्स किया और फिर उसी को पेशा बना लिया। वेब डिजाइनिंग से उनकी भौतिक जरूरतें पूरी होती हैं लेकिन अपनी मानसिक ज़रूरीयात को वो 'हस्ताक्षर'वेब पत्रिका निकाल कर पूरा करते हैं। पिछले पाँच से अधिक वर्षों से लगातार प्रकाशित  'हस्ताक्षर' हिंदी की प्रतिष्ठित वेब पत्रिका के रूप में स्थापित हो चुकी है। इस अनूठी मासिक वेब पत्रिका में आप हिंदी में साहित्य की लगभग सभी विधाओं को पढ़ सकते हैं।  यदि आप किसी विधा में लिखते हैं तो अपना लिखा प्रकाशन के लिए भेज भी सकते हैं। हस्ताक्षर वेब पत्रिका का अपना एक विशाल पाठक समूह है जो लगातार बढ़ता ही जा रहा है। 

जीवन में अब अनमोल वो काम करते हैं जिसे उनका दिल चाहता है। थ्री ईडियट्स फिल्म की टैग लाइन की तरह उनके जीवन में अब 'आल इज वैल'है।

ज़रा सा मुस्कुराने लग गये हैं 
मगर इसमें ज़माने लग गये हैं 

जवां उस दम हुईं रूहें हमारी 
बदन जब चरमराने लग गये हैं 

बस इक ताबीर के चक्कर में मेरे 
कई सपने ठिकाने लग गये हैं 

मुसलसल अश्क़ , बेचैनी उदासी 
मेरे ग़म अब कमाने लग गये हैं 

इस 'ऑल इज वैल'के पीछे कितना संघर्ष छुपा है इसका किसी को अंदाज़ा नहीं है। अनमोल जी के जीवन की कहानी हमें प्रेरणा देती है कि ऊपर वाले के दिए इस जीवन को हमें अपने हिसाब से अपनी ख़ुशी से जियें। ऊपर वाला माना बहुत ही कम लोगों को सब कुछ तश्तरी में परोस कर देता है लेकिन सबको एक चीज बहुतायत में देता है वो है 'हिम्मत'। अफ़सोस बहुत कम लोग ऊपर वाले के दिए इस गुण को अपनाते हैं। अपने सपनों को साकार करने में संघर्ष करना पड़ता है और जो हिम्मत से संघर्ष करता है उसे मंज़िल मिलती ही है।  
अनमोल जी की बचपन से छपने की चाह ने ही उन्हें आज इस मुकाम पर ला खड़ा किया है। 'कुछ निशान कागज़ पर'से पहले उनका एक ग़ज़ल संग्रह 'इक उम्र मुकम्मल'भी छप चुका है। हिंदी के वरिष्ठ ग़ज़ल कारों जैसे श्री ज़हीर कुरेशी, ज्ञान प्रकाश विवेक , हरेराम समीप , अनिरुद्ध सिन्हा आदि ने उनकी ग़ज़लों को अपने ग़ज़ल संकलन में शामिल किया है उन पर आलोचनात्मक लेख लिखे हैं , ये बात युवा ग़ज़लकार के लिए किसी भी बड़े ईनाम से कम नहीं है।
हिंदी ग़ज़ल पर अनमोल जी के लिखे आलोचनात्मक लेख बहुत चर्चित हुए हैं । उनकी ग़ज़लें देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं और वेब पत्रिकाओं में निरंतर प्रमुखता से स्थान पाती हैं। दूरदर्शन राजस्थान और आकाशवाणी से भी उनकी ग़ज़लें प्रसारित हुई हैं। इसके अलावा उनकी ग़ज़लें , न्यूज़ीलैंड की 'धनक', केनेडा की 'हिन्द चेतना', सऊदी अरब की 'निकट', आयरलैंड की 'एम्स्टेल गंगा'और न्यूयार्क की 'NASKA; जैसी लोकप्रिय वेब पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। सहज सरल भाषा में गहरी बात व्यक्त करने में सक्षम ये ग़ज़लें पढ़ते सुनते वक़्त सीधे दिल में उतर जाती हैं। 
  
मृदु भाषी अनमोल जी आज जहाँ हैं, वहाँ बहुत खुश हैं और संतुष्ट हैं यही तो एक सफल जीवन की उपलब्धी होती है। 

इतना सब कुछ मिल जाने पर भी अनमोल जी को अपनी पहली रचना अपने पिता को न सुना पाने का ग़म अभी भी सालता है। वो इस बात का ज़िक्र करते हुए बहुत भावुक हो जाते हैं। हमें यकीन है कि चाहे वो अब उनके आसपास मौज़ूद नहीं हैं लेकिन जहाँ भी हैं आज अपने बेटे को इस मुक़ाम पर देख कर खुश होते होंगे। अनमोल की कामयाबी के पीछे उनके पिता की अदृश्य दुआओं का ही हाथ है। आज वो जो हैं उनकी दी हुई तरबियत का ही नतीज़ा हैं। 
अनमोल जी को उनके उज्जवल भविष्य के लिए आप उनके मोबाईल न. 8006623499 पर शुभकामनायें देते हुए उनसे इस किताब की प्राप्ति का आसान रास्ता पूछ सकते हैं। 
आईये अंत में उनकी ग़ज़ल ये शेर पढ़वाता चलता हूँ।         

ये क्यों सोचूँ किसी ने क्या कहा है 
मेरे जीने का अपना फ़लसफ़ा है 

बहुत गहरी ख़ामोशी ओढ़ मुझमें 
समंदर दूर तक पसरा पड़ा है 

मेरी नज़रों से देखो तुम अगर तो 
इसी दीवार में इक रास्ता है 

नदी बहती है कितना दर्द लेकर 
किनारों को कहाँ कुछ भी पता है

किताबों की दुनिया - 222

जो अपनी ज़मीनों की हिफ़ाज़त नहीं करते 
इज़्ज़त के फ़लक उनसे मुहब्बत नहीं करते 
*
जाने किसलिए हस्सास इतना दिल हुआ मेरा 
तबस्सुम में मुझे आवाज़ आती है कराहों की 
हस्सास :संवेदनशील 
*
ख़त हमारे रख लिए और हमसे नज़रें फेर लीं 
एक काग़ज़ से भी कम क़ीमत हमारे दिल की है 
*
ये और बात है मंसूब हूँ मैं उससे मगर 
ये सच है उसपे मेरा इख़्तियार कुछ भी नहीं 
*
ऐ ज़िन्दगी बस उसमें दो बातें मिलीं मुझको 
इक तजरुबा मीठा है ,इक याद कसैली है 
*
वुसअतें उमीदों की क़ैद करके क्या होगा 
ख्वाब के परिंदों के घोंसले तो घर में हैं 
वुसअतें :ऊँचाइयाँ 
*
ये सारे तमगा-ओ-सौग़ात अपने पास रखें 
कटे सरों को अता करके ताज क्या होगा 
*
किसी के हाथ में होती है डोर किस्मत की 
पतंग बनना किसी का नसीब होता है 
*
जब तक रही तलाश तो लुत्फ़े-सफ़र रहा 
मंज़िल पे जब पहुँच गए मंज़िल नहीं रही 
*
फिर बहारों का पलट आना तो नामुमकिन है 
छू के सूखे हुए पेड़ों को तू संदल कर दे   

टैक्सी ठीक वहीँ आ कर रुकी जहाँ का पता उसे बुक करते वक्त लिखवाया गया था। ड्राइवर ने  सामने ही शहर की मशहूर आयुर्वेदिक क्लिनिक 'मीना नर्सिंग होम' देख कर इत्मीनान की साँस ली ।यहीं टैक्सी बुलवाई गयी थी। इस नर्सिंग होम को टैक्सी ड्राइवर अच्छे से पहचानता है। तीन साल पहले ही तो उसने अपनी बीवी का इलाज़ यहाँ से करवाया था और अब वो इस इलाज़ के कारण ही एक अच्छी ख़ासी सेहतमंद ज़िन्दगी गुज़ार रही है। ड्राइवर ने सोचा ज़रूर किसी मरीज़ ने ही टैक्सी बुक करवाई होगी। उसने हार्न बजाने की सोची और तभी क्लिनिक का दरवाज़ा खोल कर आहिस्ता से जो ख़ातून बाहर निकलीं उसे ड्राइवर ने फ़ौरन पहचान लिया। अरे, यही तो वो डॉक्टर हैं जिन्होंने उसकी बीवी का इलाज़ किया था और उसे दवा देते वक़्त मुस्कुरा कर कहा था कि ' बेफ़िक्र रहो बेटी तुम जल्दी ही ठीक हो जाओगी, बस दवा वक्त से लेती रहना और इलाज़ पूरा करवाना '। 
धीमे क़दमों से चलती जब वो ख़ातून टैक्सी के पास पहुँची तब ड्राइवर ने ग़ौर किया कि उनके हाथ में एक छोटा सा सिलेंडर है जिस पर लिखा है 'ऑक्सीजन'और जिसमें से निकली एक ट्यूब खातून की नाक में जा रही है। ड्राइवर को माज़रा समझ नहीं आया उसने लपक के टैक्सी का दरवाज़ा खोला ,खातून उसे देख हलके से मुस्कुराई और फिर टैक्सी में बैठ गयीं . बैठने के बाद खातून ने अपने हाथ में पकड़ा हुआ एक काग़ज़ का टुकड़ा ड्राइवर को पकड़ाते हुए हौले से कहा 'मुझे यहाँ ले चलो' । 
ड्राइवर ने काग़ज़ पे लिखे को पढ़ा और अदब से कहा 'जी मोहतरमा जरूर, बस आधा घंटा लगेगा यहाँ पहुँचने में ,आप आराम से बैठें।'पूरे सफर के दौरान ड्राइवर को ये अहसास होता रहा कि मोहतरमा आराम से नहीं बैठ पा रही है। तेज साँस लेने की आवाज़ लगातार उसके कानों से टकराती रही थी। बैक व्यू मिरर में ड्राइवर ने ये भी देखा कि तकलीफ़ के बावज़ूद मोहतरमा के चेहरे पर शिकन नहीं है और होंठों पर हलकी सी मुस्कुराहट है। 'ऊपर वाले का निज़ाम भी कमाल है जो सबकी तकलीफ़ों को दूर करता है उसे ही इतनी तकलीफ़ दे रहा है। वो फ़रिश्तों का भी इम्तिहान लेता है शायद 'ड्राइवर ने सोचा।            

मरहम लगाने आया था ज़ख़्मों पे वो मेरे 
ज़ुल्मों-सितम का साथ में लश्कर लिये हुए 
*
चेहरा किसी का जिस्म किसी का लगा लिया 
आसाँ नहीं रही कोई पहचान इन दिनों 
*
न जाने क्यों मुझे हर शख़्स टूटा-टूटा लगता है 
जो खुद किरचों में बिखरा है , मैं उस दरपन से क्या माँगूँ 
*
भड़क उठी है बनकर आग ये रिश्तों की ठंडक भी 
कि हम अब बर्फ़ में रहकर जलन महसूस करते हैं 
*
मुझको इंकार ज़रूरत से नहीं है लेकिन 
नाम उल्फ़त का न लो जिस्म से रग़बत करके  
रग़बत:चाह ,दिलचस्पी 
*
वो ख़ुशी में अपनी खुश है मैं भी अपने ग़म में खुश 
दिन हैं उसके पास मेरे पास हैं रातें बहुत 
*
मौसम हो कि बे-मौसम जब चाहें बरस जाएँ 
जब हमको ज़रूरत हो बरसात नहीं मिलती 
*
अब मुहब्बत में कशिश है तो फ़क्त इतनी है 
लोग रिश्तों को निभाते हैं ज़रूरत की तरह 
*
दर्द की सुरंगों में है बला की तारीकी 
क्यों अँधेरे रास्तों पर रौशनी नहीं जाती 
*
अब्र कुछ देर बरस के जो चला जाता है 
देर तक पेड़ की शाख़ों को रुलाती है हवा 

लगभग आधे घंटे बाद टैक्सी अपने मुकाम पर जा पहुंची। एक घर के बाहर बीस पच्चीस लोग खड़े टैक्सी का इंतज़ार ही कर रहे थे। टैक्सी के रुकते ही एक जनाब ने तपाक से दरवाज़ा खोलते हुए कहा 'तशरीफ़ लाइए मीना नक़वी साहिबा, इस हाल में भी आप ने हम लोगों के बीच आ कर जो हमारा मान बढ़ाया है उसके लिए शुक्रिया बहुत छोटा लफ्ज़ है।''किस हाल में ? 'हँसते हुए मीना जी ने कहा 'अरे आपका मतलब इस सिलेंडर से है ? अनवर कैफ़ी साहब अब तो ये मेरा पक्का साथी है मैं जहाँ जाती हूँ मेरे साथ ही चला आता है अब न मैं इसे छोड़ती हूँ और न ये मुझे। आप मुझे बुलाएँ और मैं न आऊं ये मुमकिन नहीं।'  मीना जी की ये बात सुन कर वहां खड़े सब लोग उनकी शायरी और अदब के प्रति दीवानगी को देख क़ायल हुए बिना नहीं रह सके। मीना जी ने टैक्सी ड्राइवर से कहा 'तुम यहीं मेरा इंतज़ार करना मैं थोड़ी देर में आती हूँ'और मेज़बान अनवर कैफ़ी साहब के साथ अंदर चली गयीं । अनवर साहब ने जब उनकी तबीयत का हाल पूछा तो मुस्कुराते हुए बोलीं 'तबियत का हाल मत पूछा करें ,आप तो जानते ही हैं मुझे कैंसर है अब ये बीमारी मुझे जिस हाल में रखेगी रहूंगी, बरसों हो गए इसका साथ निभाते ,जब तक हिम्मत है निभाती रहूंगी। चलिए छोड़िये ये सब बातें आप तो नशिस्त शुरू करें।'नशिस्त शुरू हुई ,आधा घंटा बैठने के बाद मीना जी की तबियत बिगड़ने लगी तो वो अनवर साहब से बोलीं 'आप मुझसे पहले पढ़वा लें मैं और नहीं रुक सकती। उसके बाद बड़े मन से वो दस पंद्रह मिनट तक अपने चंद चुनिंदा अशआर सुनाती रहीं और लोग सुन कर झूमते रहे। 

इस वाक़ये के कुछ महीनों बाद वो मुरादाबाद से अपने बेटे 'नायाब ज़ैदी'के साथ नोएडा चली गयीं और वहीं 15 नवम्बर 2020 के दिन, सिर्फ 65 साल की उम्र में वो इस दुनिया को अलविदा कह गयीं ।  

किताबों की दुनिया में आज हम मीना नक़वीसाहिबा की हिंदी में छपी किताब 'किरचियाँ दर्द की'आपके लिए लाये हैं। जिसे 'एवाने अदब पब्लिशर्ज तुर्कमान गेट दिल्ली'ने प्रकाशित किया है।


मुझे फ़ुर्सत नहीं यादों से जिस की 
वो मुझको चाहता है फुर्सतों में 
*
जन्म देने वाली का नाम कुछ नहीं होता 
शाख़ जानी जाती है फूल के हवालों से 
*
जिस पे रिश्तों के निभाने की हो ज़िम्मेदारी 
उसके हिस्से में फ़क्त मात हुआ करती है 
*
यूँ रास्तों से इन दिनों दिलचस्पियॉँ बढ़ीं 
क़दमों की ख़ाक हो गई मंज़िल मिरे लिए 
*
उस घड़ी शजर के सब पत्ते गुनगुनाते हैं 
जब कोई नई चिड़िया शाख़ पे उतरती है 
*
इसीलिए तो ये चाँद तारे मद्धम हैं 
हमारी पलकों पे जुगनू सजा गया है कोई 
*
ये तो अच्छा हुआ कलियों का गला घोंट दिया 
वरना खुशबू भी हवाओं में बिखर सकती थी 
*
जब बर्फ़ की चादर ओढ़ चुके, मेरे ख़्वाबों के ताजमहल 
रातों की सियाही बोने लगी आँखों में जलन अंगारों सी 
*
क़ाफ़िले ग़म के गुज़रते ही रहे 
ज़िन्दगी इक राहगुज़र सी हो गई 
*
उसकी चाहत उसकी क़ुरबत उसकी बातें उसकी याद 
कितने उनवाँ मिल गए हैं इक कहानी के लिए 

'नगीना'उत्तर प्रदेश के 'बिजनौर'के अंतर्गत आने वाला एक छोटा सा क़स्बा है। इस क़स्बे के सैयद इल्तज़ा हुसैन ज़ैदी साहब के यहाँ एक बेटे और बेटी के बाद 20 मई 1955 को तीसरी संतान जो हुई वो लड़की थी, उस का नाम रखा गया 'मुनीर ज़ोहरा'जो बाद में 'मीना नक़वी'के नाम से मशहूर हुईं। 'नगीना'में तब मुस्लिम लड़कियों के लिए पढ़ने का कोई स्कूल नहीं था लेकिन मीना जी के वालिद बेहद सुलझे हुए और तालीम के जबरदस्त हामी इंसान थे ,लिहाज़ा उन्होंने मीना जी को 'दयानन्द वैदिक कन्या अन्तर कॉलेज'में दाख़िला दिला दिया। इसी कॉलेज से मीना जी ने पहली क्लास से इंटर तक की पढाई बहुत अच्छे नंबरों से पास हो कर पूरी की। शुरू से ही स्कूल में होने जलसों में मीना जी हमेशा अपनी ही लिखी कोई कहानी या कविता सुनाया करती थीं। लिखने पढ़ने का शौक़ मीना जो को बचपन से पड़ गया था। ज़ैदी साहब अदब नवाज़ थे इसलिए घर की आलमारियाँ किताबों से भरी हुई थीं। ये किताबें मीना जी को अपनी और बुलातीं और वो इनकी तरफ़ खिंची चली आतीं । सबसे ख़ास बात ये थी कि घर के अदबी माहौल का असर सब बच्चों पर पड़ा। मीना जी उनकी बड़ी आपा और उनके बाद हुई पांच छोटी बहनें और सभी भाई हमेशा अपनी पसंद की किताबों को लिए घर भर में इधर उधर बैठ कर पढ़ते रहते। 

अदब नवाज़ डा. शेख नगीनवी अपने एक लेख में मीना जी के घर के अदबी माहौल के असर को यूँ बयाँ करते हैं "विश्व साहित्य में कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता जहाँ सात सगी बहनों में पांच बहनें साहित्य सर्जन कर रही हों और उन्होंने विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनायी हो। मीना नक़वी की चार दूसरी बहनें 'शमीम ज़ेहरा''डाक्टर नुसरत मेहदी''अलीना इतरात रिज़वी'और 'नुसहत अब्बास'किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं और इन सभी पाँचों बहनों की शायरी को विश्व स्तर पर एक पहचान मिली हुई है।"इन में से 'डाक्टर नुसरत मेहदी'साहिबा के बारे में आप किताबों की दुनिया श्रृंखला में पढ़ ही चुके हैं। 

ये सभी बहनें अपनी दादी जान जो 'अंदलीब'तख़ल्लुस से शायरी करती थीं के नक़्शे क़दम पर चली हैं। 

बाद में बेशक समन्दर पर उठायें ऐतराज़ 
पहले दरिया ख़ुद में पैदा इतनी गहराई करें 
*
ज़रा सी सम्त बदल ली जो अपनी मर्ज़ी से 
तो नाव आ गई तूफ़ान के निशाने पर 
*
तेरे सितम से लरज़ तो गया बदन लेकिन 
ये और बात है आँखों में डर नहीं आया 
*
मेरी उड़ान इस लिए भी हो गई थी मोतबर 
क़दम तले ज़मीन थी नज़र में आसमान था 
*
शीशा-ऐ-दिल से नहीं आहो फुगाँ से निकलीं 
 किरचियाँ दर्द की निकलीं तो कहाँ से निकलीं 
आहो फुगाँ :रुदन 
*
चलो हवाओं से थोड़ी सी गुफ़्तगू कर लें 
हमें चिरागों पे इस बार एतबार है कम 
*
दरअसल वो नींदें हैं आगोश में अश्कों की 
पलकों की मुंडेरों से हर शब जो फिसलती हैं 
 *
बूढ़े माँ-बाप से बेज़ार वो घर लगता है 
उम्र लंबी हो तो ऐ ज़िन्दगी डर लगता है 
*
दरवाज़े पे नाम अपना हम लिख ही नहीं सकते 
ताउम्र रहे हैं हम गैरों के मकानों में 
*
इस नए दौर में चाहत का है मंज़र ऐसा 
जैसे सहरा में उड़े रेत बगूलों की तरह 

मीना जी ने इंटर करने बाद मेडिकल की डिग्री हरिद्वार से आयुर्वेद में ली। भाषा से उनका लगाव इतना ज्यादा था कि उन्होंने अंग्रेजी ,संस्कृत और हिंदी में प्राइवेटली पढाई कर एम.ए की डिग्रियाँ हासिल कीं। इन तीनों भाषाओँ में एम.ए करने वाले और फिर उसके बाद उर्दू में शायरी करने वाले लोग आपको विरले ही मिलेंगे।   

यूँ तो मीना जी ने अपनी शायरी का आगाज़ 'नगीना'से ही कर दिया था लेकिन उसे परवाज़ मिली जब उनकी शादी मुरादाबाद जिले के 'अगवानपुर'गाँव के निवासी जनाब हमीद आग़ा साहब से हुई। 'अगवानपुर'मुरादाबाद से महज़ 13 की.मी. की दूरी पर है। मुरादाबाद की फ़िज़ा ही शायराना है। जिगर मुरादाबादी साहब का ये शहर देश के अव्वल दर्ज़े के शायरों की खान है। मुरादाबाद की हवा और आग़ा साहब के साथ ने उन्हें लिखने का हौसला और हिम्मत दी। उनकी बेतरतीब शायरी को तरतीब वार लिखने की सलाह दी। इससे पहले वो, जब कोई ख़्याल ज़हन में आता उसे उस वक्त जो कुछ भी हाथ में होता उसे तुरंत उसी पर लिख कर छोड़ देती फिर वो चाहे हाथ में पकड़ा कोई रिसाला हो अखबार हो यहाँ तक कि मरीजों के नुस्खों की पर्चियां ही क्यों न हों। उन्होंने अपनी शायरी को अव्वल मुकाम तक पहुँचाने के लिए नामचीन शायर जनाब 'होश नोमानी रामपुरी'और जनाब 'अनवर कैफ़ी मुरादाबादी'को अपना उस्ताद तस्लीम किया। इन दो उस्तादों की रहनुमाई में मीना जी ने वो मुक़ाम हासिल किया जिसका तसव्वुर हर शायर करता है। 

मैंने पूछी मुहब्बत की सच्चाई जब 
नाम उसने मेरा बर्फ़ पर लिख दिया 
*
गिरने वाले को न गिरने दिया पलकें रख दीं 
अपने अश्कों को दिया खुद ही सहारा मैंने 
*
मुझको दहलीज़ के उस पार न जाने देना 
घर से निकलूंगी तो पहचान बदल जायेगी 
*
सहमे सहमे इन चिरागों की हिफ़ाज़त तो करो 
आँधियों का पैरहन ख़ुद काग़ज़ी हो जाएगा 
*
जाँ बचने की इम्कान अगर हैं तो इसी में 
लुट जाने का सामान रखें साथ सफर में  
*
क़ुरबत का असर होगा ये ही सोच के कुछ लोग 
काँटों से गुलाबों की महक माँग रहे हैं 
पहले उसने चिराग़ों को रौशन किया 
फिर हवाओं में कुछ आँधियाँ डाल दीं 
*
क्यों मैंने ख़ुद ही अपनी मसीहाई बेच दी 
बच्चे तो मेरे अपने भी बीमार थे बहुत 
*
ये क्या कि रोज़ वही एक जैसी उम्मीदें 
कभी तो आँखों में सपने नए सजाऊँ मैं 

उस्तादों की रहनुमाई में मीना जी ने अपने अलग अंदाज़, लब-ओ-लहज़ा और ज़ुबान से शायरी की दुनिया में पहचान बनाई। उन्होंने तल्ख़तर विषयों को रेशमी लफ़्ज़ों में पिरोने का फ़न सीखा और सीखा कि कैसे कड़वाहट को लफ़्ज़ों की शकर में लपेट कर पेश करते हैं। मीना नक़वी जी के लिए शायरी पेशा नहीं बल्कि शौक़ था और इस शौक़ को वो पूरी ज़िम्मेदारी, फ़िक्र, अहसासात, तजुर्बात से रंगीन बना रही थीं। नर्सिंग होम की ज़िम्मेवारी के साथ साथ घर गृहस्ती और दो बच्चों की परवरिश का जिम्मा उठाते हुए उन्होंने अपने लिखने के इस शौक़ को कभी कमज़ोर नहीं पड़ने दिया। 
उनकी लगभग एक दर्ज़न किताबें मंज़र-ए-आम पर आ चुकी हैं इनमें से तीन 'दर्द पतझड़ का ''किर्चियाँ दर्द की'और 'धूप-छाँव' देवनागरी लिपि में उपलब्ध हैं। सिर्फ़ उर्दू में प्रकाशित  'सायबान', 'बादबान','जागती आँखें,'मंज़िल'और 'आइना' बहुत चर्चित हुई हैं। मीना जी की ग़ज़लें देश की सभी प्रसिद्ध उर्दू और हिंदी की पत्रिकाओं में छप चुकी हैं यही कारण है कि वो उर्दू और हिंदी पाठकों में समान रूप से लोकप्रिय हैं।
मीना जी को ढेरों अवार्ड्स मिले हैं जिनमें दिल्ली , बिहार उर्दू अकेडमी द्वारा दिया गया साहित्य सेवा सम्मान, बिहार कैफ़ मेमोरियल सोसाइटी द्वारा दिया गया बेहतरीन शायरा एवार्ड, सरस्वती सम्मान , सुर साधना मंच हरियाणा सम्मान उर्दू अकेडमी बिहार द्वारा रम्ज़ अज़ीमाबादी अवार्ड प्रमुख हैं। सबसे बड़ा सम्मान तो वो प्यार है जो मीना जी के पाठकों ने उन्हें दिया है। वो आज हमारे बीच भले ही नहीं हैं लेकिन वो अपने पाठकों के दिलों में हमेशा रहेंगी। 
अपनी मृत्यु से सिर्फ दो दिन पहले उन्होंने जो ग़ज़ल फेसबुक पर पोस्ट की उसे मैं आपको पढ़वाते हुए विदा लेता हूँ। (जैसा डा. शेख़ नगीनवी साहब के लेख में लिखा है )

मकान ए इश्क़ की पुख़्ता असास हैं हम भी  
यक़ीन मानिये ! दुनिया शनास हैं हम भी 

ये और बात कि गुल की रिदा हैं ओढ़े हुए 
ख़िज़ाँ की रुत के मगर आसपास हैं हम भी 

फ़क़त तुम्हीं में नहीं है ख़ुलूस का ख़ेमा 
मोहब्बतों के क़बीले को रास हैं हम भी 

परेशां तन्हा नहीं है वो लम्हा ए फुरक़त
ग़ज़ब का सानेहा था बदहवास हैं हम भी 

अभी तो सब को मयस्सर हैं सबके साथ हैं हम  
कि कुछ दिनों में तो बाद अज़ क़यास हैं हम भी 
अज़ : से, क़यास : अंदाज़ा 

जो दिल के सफ्हे पे लिखा था तूने चाहत से 
उसी फ़साने का इक इक्तेबास हैं हम भी 
इक्तिबास: उद्धरण   


(इस पोस्ट के लिए शुक्रगुज़ार हूँ 'नुसरत मेहदी'साहिबा का जिन्होंने 'अनवर कैफ़ी'साहब का नंबर दिया और फिर जनाब 'अनवर कैफ़ी'साहब का जिन्होंने मुझे अहम जानकारी अता फ़रमा कर मेरी मदद की )          

किताबों की दुनिया - 223

बात सन 1991 की गर्मियों की है जब भोपाल में रात के तीन बजे मुशायरे के नाज़िम ज़नाब अनवर जलालपुरी साहब ने माइक पर कहा कि 'हज़रात, आइये ज़िन्दगी के जो फ़ीके तीखे रंग हैं उनकी रोमानी कैफ़ियत को ग़ज़ल में बड़ी ख़ूबसूरती से तर्जुमानी करने का हुनर जिस फ़नकार को आता है उसका नाम है 'क़ैफ़ भोपाली'मैं बड़े अदब से क़ैफ़ भोपाली साहब से गुज़ारिश कर रहा हूँ कि वो तशरीफ़ लायें और हमारे मुशायरे को नवाज़ें, आइये मोहतरम 'क़ैफ़ भोपाली'साहब, तब ये सुन कर सामयीन में हलचल सी मच गयी। पीछे बैठे,अधलेटे अलसाये से लोग चाक चौबंद हो कर आगे आ कर बैठने लगे । तालियाँ बजने लगीं।  क़ैफ़ साहब जो खादी का सफ़ेद कुरता पायजामा और सर पर सफ़ेद पगड़ी सी पहने बैठे थे को दो लोगों ने मिल कर उठाया। वो उठे और लगभग लड़खड़ाते हुए माइक पर पहुंचे । साफ़ लग रहा था कि वो बीमार हैं लेकिन माइक पकड़ कर जब उन्होंने झूम कर अपनी ग़ज़ल के ये अशआर सुनाये तो हँगामा बरपा हो गया। उन्हें शायरी पढ़ते देख लगा ही नहीं के ये बुज़ुर्ग जो शहर भोपाल की शान है, बीमार है और अपनी ज़िन्दगी का आख़री मुशायरा पढ़ रहा है।  
(संशय की स्तिथि में इस क्लिप को यू ट्यूब पर देख लें ) 

   .तेरा चेहरा कितना सुहाना लगता है 
तेरे आगे चाँद पुराना लगता है 

तिरछे-तिरछे तीर नज़र के चलते हैं 
सीधा-सीधा दिल पे निशाना लगता है 

आग का क्या है पल दो पल में लगती है 
बुझते-बुझते एक ज़माना लगता है  

पॉँव न बाँधा पंछी का पर बाँधा है 
आज का बच्चा कितना सयाना लगता है 

सुनने वाले घंटों सुनते रहते हैं 
मेरा फ़साना सब का फ़साना लगता है  

मज़े की बात ये हुई कि इस ग़ज़ल के साथ ही मीर तकी मीर और दाग़ जैसे उस्तादों के स्कूल वाली शायरी से दामन छुड़ा कर उर्दू शायरी को एक नया बांकपन नये आसमान नये परवाज़ देने वाले इस बेमिसाल शायर ने बिना रुके इसी रदीफ़ वाली अपनी दूसरी ग़ज़ल भी लगे हाथ सुना डाली। ये ग़ज़ल पहली ग़ज़ल से ज़रा भी कम दिलकश नहीं थी। रदीफ़ वही, काफ़िये अलग लेकिन सामईन पर असर, वही -जादुई , आप भी पढ़ें और लुत्फ़ लें : 

तेरा चेहरा सुबह का तारा लगता है 
सुबह का तारा कितना प्यारा लगता है 

तुमसे मिल कर इमली मीठी लगती है 
तुमसे बिछुड़ कर शहद भी खारा लगता है 

रात हमारे साथ तू जागा करता है 
चाँद बता तू कौन हमारा लगता है 

ख़्वाजा मुहम्मद इब्राहिम साहब का ताल्लुक़ यूँ तो कश्मीर से था लेकिन वो भोपाल आ कर बस गए। शायरी से इनका तो दूर दूर तक कोई रिश्ता नहीं था लेकिन इनकी शरीके हयात 'शायरा ख़ानम' जो लख़नऊ की रहने वाली थीं 'आजस'तख़ल्लुस से शायरी करती थीं। बेग़म शायरा ख़ानम ने 20 फरवरी 1917 को अपने मायके लखनऊ में पैदा हुए बच्चे का नाम रखा 'ख़्वाजा मोहम्मद इदरीस'जिसे दुनिया 'कैफ़ भोपाली'के नाम से जानती है। कैफ़ साहब आम बच्चों की तरह खेलकूद में कोई दिलचस्पी नहीं रखते थे। अपने में खोये रहना उनका शगल था। कभी स्कूल का मुँह नहीं देखा घर पर ही अरबी फ़ारसी की पढाई की और सिर्फ़ सात साल की उम्र से शायरी करने लगे। वाल्दा ही उनकी उस्ताद थीं। कैफ़ साहब की शायरी में जो सूफ़ीयाना रंग है वो उनकी माँ की वजह से है। 

हिंदी में कैफ़ साहब की शायरी की किताब 'गुल से लिपटी तितली'कभी छपी थी जो अब कहीं आसानी से उपलब्ध नहीं है लेकिन हिंदी पाठकों के लिए भोपाल के शायर और रचनाकार जनाब 'अनवारे इस्लाम'साहब द्वारा सम्पादित किताब 'आज उनका ख़त आया'जिसे 'पहले पहल प्रकाशन भोपाल ने सं 2017 में प्रकाशित किया था ,अमेज़न से मंगवाई जा सकती है। आज वही किताब हमारे सामने है।  
इस किताब की प्राप्ति की जानकारी के लिए और कैफ़ साहब की शायरी के इस लाजवाब संकलन के लिए मुबारकबाद देने को आप अनवारे इस्लाम साहब से उनके मोबाईल न 7000568495 पर सम्पर्क कर सकते हैं। 


तेरी लटों में सो लेते थे बेघर आशिक़ बेघर लोग
बूढ़े बरगद आज तुझे भी काट गिराया लोगों ने 
*
उन्हें मैं छीन कर लाया हूँ कितने दावेदारों से 
शफ़क़ से, चांदनी रातों से, फूलों से , सितारों से 
शफ़क़ : सुबह, ऊषा 

कभी होता नहीं महसूस वो यूँ क़त्ल करते हैं 
निगाहों से, कनखियों से, अदाओं से, इशारों से 
*
एक कमी थी ताजमहल में 
मैंने तिरी तस्वीर लगा दी 

आपने झूठा वादा करके 
आज हमारी उम्र बढ़ा दी 
*
अज़्मते सुकरातो ईसा की क़सम 
दार के साये में हैं दाराइयाँ 
  अज़्मते सुकरातो ईसा-सुकरात और ईसा की महानता , दार-सूली , दाराइयाँ -बादशाही 

चारागर मरहम भरेगा तो कहाँ 
रूह तक हैं ज़ख्म की गहराइयाँ 
*
बुरा न मान अगर यार कुछ बुरा कह दे 
दिलों के खेल में ख़ुद्दारियाँ नहीं चलतीं 

छलक-छलक पड़ी आँखों की गागरें अक्सर 
सम्भल-सम्भल के ये पनहारियाँ नहीं चलतीं 
*
मत देख के फिरता हूँ, तिरे हिज़्र में ज़िंदा 
ये पूछ के जीने में मज़ा है के नहीं है 
*
दरो दीवार पे शक्लें सी बनाने आई 
फिर से बारिश मेरी तन्हाई चुराने आई 

उलझे बाल बड़ी बड़ी ज़हीन आँखे और तीखे नाक नक्श वाले के कैफ साहब बहुत भावुक थे। शुरू शुरू की शायरी का रूमानी अंदाज़ और आशिक़ाना मिज़ाज़ उनकी शख्शियत का हिस्सा था। उनकी इश्क़िया शायरी बहुत व्यक्तिगत कही जा सकती है मगर उनकी जाति ज़िन्दगी में इस प्रकार का कोई प्रसंग नहीं मिलता। शायरी करते और यार दोस्तों में फक्कड़ घूमते कैफ़ जब बड़े हुए तो उनके आवारा मिजाज़ को देख कर घर वालों चिंता हुई। लिहाज़ा राह पर लाने की गरज़ से उनका निक़ाह इफ़्तिख़ार बानो से कर दिया गया ताकि घर चलाने की फ़िक्र में वो कोई काम धंधा करें। सीधी सादी घरेलू बानो न खुद शायरा थीं न उनकी शायरी में कोई दिलचस्पी थी अलबत्ता किफ़ायत से घर चलाना उन्हें आता था। कैफ़ साहब को उन्होंने शायरी के लिए पूरी छूट दे कर घर चलाने के साथ साथ चार बेटी और एक बेटे को पालने की ज़िम्मेदारी भी अपने सर ओढ़ ली। ऐसा नहीं है कि कैफ़ साहब को घर की आर्थिक स्तिथि का अंदाज़ा नहीं था लेकिन वो अपनी फक्कड़पन की आदत से मज़बूर थे। जब हालात बिगड़े और नौबत फ़ाक़ा मस्ती तक आ गयी तो उन्होंने रियासत पठारिया में 30 रु महीने की नौकरी कर ली। मगर उनकी आज़ाद तबियत नौकरी की बंदिशों को ज्यादा दिनों तक बर्दाश्त न कर सकी.और उन्होंने नौकरी छोड़ उस वक्त देश में आज़ादी के लिए चल रही जंग में अपनी बग़ावती शायरी के ज़रिये नया जोश भरने का बीड़ा उठा लिया। उन दिनों भोपाल में अंग्रेज़ों के खिलाफ 'प्रजामंडल'संस्था का गठन किया गया था जिसके कैफ़ साहब जागरूक कार्यकर्ता बन गए और बहुत सी मशहूर इंक़लाबी नज़्में लिखीं। उनकी नज़्म 'दुनिया में वफ़ाओं का सिला है कि नहीं है , मेरा कोई हस्सास ख़ुदा है कि नहीं है'  बहुत मकबूल हुई। अंग्रेज़ों ने उनके बगावती तेवर देख कर उन्हें जेल में डाल दिया।      

मयकशों आगे बढ़ो तश्ना लबो आगे बढ़ो 
अपना हक़ माँगा नहीं जाता है छीना जाय है 

आप किस किस को भला सूली चढ़ाते जाएंगे 
अब तो सारा शहर ही मन्सूर बनता जाय है 
मन्सूर: एक संत जिसे सच बोलने के ज़ुर्म पर सूली चढ़ा दिया गया  
*
दाग़ दुनिया ने दिये, ज़ख्म ज़माने से मिले 
हमको तोहफ़े ये तुम्हें दोस्त बनाने से मिले 

हम तरसते ही, तरसते ही, तरसते ही रहे  
वो फ़लाने से, फ़लाने से, फ़लाने से मिले 
*
जिस्म पर बाकी ये सर है क्या करूँ 
दस्ते-क़ातिल बे हुनर है क्या करूँ 

चाहता हूँ फूँक दूँ इस शहर को 
शहर में उनका भी घर है क्या करूँ 

कैफ़ मैं हूँ एक नूरानी किताब 
पढ़ने वाला कम नज़र है क्या करूँ 
*
आ तेरे मालो-ज़र को मैं तक्दीस बख्स दूँ 
आ अपना मालो-ज़र मिरी ठोकर में डाल दे 
मालो-ज़र : धन दौलत , तक्दीस : पवित्रता 
 
मैंने पनाह दी तुझे बारिश की रात में 
तू जाते जाते आग मेरे घर में डाल दे 
*
चलते हैं बच के शैख़-ओ-बरहमन के साये से 
अपना यही अमल है बुरे आदमी के साथ 

देश आज़ाद हो गया और कैफ़ साहब को भी जेल से रिहाई मिल गयी। आज़ादी के बाद देश में उपजे हालात कैफ़ साहब को बेचैन करने लगे। उन्हें अपनी धरती के बँटने का बहुत दुःख था।  उनका स्वास्थ बिगड़ने लगा। ये उनकी ज़िन्दगी का सबसे बुरा दौर था। उनका ये हाल देख उनके दोस्त अख्तर अमानउल्ला खान उन्हें मुंबई ले आये जहाँ उनकी मुलाक़ात क़माल अमरोही से हुई. क़माल साहब खुद बेहतरीन शायर थे लिहाज़ा उन्हें कैफ़ साहब की शायरी बहुत पसंद आयी. क़माल साहब ने अपनी फिल्म 'दायरा'का एक भक्ति गीत कैफ़ साहब से लिखवाया 'देवता तुम हो मेरा सहारा "जो बहुत मक़बूल हुआ। ये बात 1953 की है। कमाल उन दिनों मीना कुमारी जी को लेकर एक यादगार भव्य फिल्म बनाना चाहते थे। उस फिल्म का मुहूर्त हुआ सन 1956 में, जिसका नाम था 'पाक़ीज़ा'और जो 16 साल बाद रीलीज़ हुई। इस फिल्म के दो गाने कैफ़ साहब ने लिखे थे 'चलो दिलदार चलो 'और 'आज हम अपनी दुआओं का असर देखेंगे '  मज़े की बात है कि दोनों ही गाने सुपर हिट हुए। 'पाक़ीज़ा'के गाने 'चलो दिलदार चलो'के पीछे की कहानी बताता चलता हूँ हालाँकि उसका कैफ़ साहब से कोई लेना देना नहीं है लेकिन चूँकि ये गाना कैफ़ साहब ने लिखा इसलिए बता रहा हूँ। 
'पाक़ीज़ा'बनते बनते मीना कुमारी जी को सिरोसिस ऑफ लिवर की बीमारी ने जकड़ लिया था और वो शूटिंग पर भी कभी नहीं आ पाती थीं। 'चलो दिलदार चलो'गीत मीना जी पर फिल्माए जाने वाले मुज़रे के सीन के लिए लता मंगेशकर जी की आवाज़ में रिकार्ड हुआ था। किसी कारण वश बाद में उसे राजकुमार और मीना जी पर फिल्माने का विचार किया गया और गाना फिर से लता जी के साथ रफ़ी साहब को लेकर युगल स्वर में रिकार्ड किया गया। ये रफ़ी साहब का अकेला सुपर हिट गाना है जिसमें उन्होंने सिर्फ़ गाने के मुखड़े की एक लाइन गाई है और एक आलाप लिया है, बस। मीना जी चूंकि बीमार थीं इसलिए राजकुमार के साथ उनके बॉडी डबल के रूप में पद्मा खन्ना को लिया गया जिसमें उनका चेहरा दिखाई नहीं देता। लगभग साढ़े तीन मिनट के इस अद्भुत गाने में राजकुमार और मीना कुमारी के बॉडी डबल की उपस्तिथि सिर्फ दस या बारह सेकेण्ड की है , कैमरा सारे गाने में सिर्फ झील, नाव, बादल, आकाश और चाँद पर ही घूमता रहता और आपको पता भी नहीं चलता।ये गीतकार, संगीतकार, कैमरामैन और निर्देशक के कमाल का गाना है। फ़िल्मी दुनिया में उन्होंने बहुत से गाने नहीं लिखे।फ़िल्म रज़िया सुलतान और शंकर हुसैन के गाने ही उन्होंने लिखे।  शंकर हुसैन फिल्म एक ऐसी फिल्म थी जो सिर्फ़ अपने गानों के कारण याद रही। उसी फिल्म का एक गाना जिसके बोल फिल्म में थोड़े बदले हुए हैं यूँ है

इंतिज़ार की शब में चिलमनें सरकती हैं 
चौंकते हैं दरवाज़े, सीढ़ियां धड़कती हैं 

आज उनका ख़त आया, चाँद से लिफ़ाफ़े में 
रात के अँधेरे में चूड़ियाँ चमकती हैं  

बार बार आती हैं उस गली की आवाज़ें 
पाँव डगमगाते हैं पिंडलियाँ लचकती हैं 

चांदनी के बिस्तर पर रात जब चमकती है 
बिन किसी के खनकाये चूड़ियाँ खनकती हैं  

(आप यूँ करें कि इस लेख को यहीं छोड़ शंकर हुसैन के इस गाने को गूगल की मदद से सामने लाएं और फिर ईयर फोन लगा कर आँखें बंद कर इसे सुनें। कसम से ये गाना आपको किसी और ही दुनिया में ले जाएगा ) 

दरअसल फ़िल्मी दुनिया कैफ़ साहब जैसे फ़क़ीराना मिजाज़ इंसान के लिए थी ही नहीं लिहाज़ा वो उसे छोड़छाड़ कर भोपाल आ गए।  'कैफ़ साहब का मन मुशायरों में, नशिस्तों में लगता था। वो थे भी मुशायरों के शायर। उनकी मौजूदगी मुशायरे की क़ामयाबी की गारंटी मानी जाती थी। वो एक शहर के मुशायरे से दूसरे शहर के मुशायरे तक बस चलते ही रहते। लगातार घूमना उन्हें पसंद था। निदा फ़ाज़ली अपनी किताब 'चेहरे'में लिखते हैं कि "मैं अमरावती के निकट बदनेरा स्टेशन पर मुंबई की गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहा था। गाड़ी लेट थी। मैं समय गुज़ारने के लिए स्टेशन से बाहर आया। एक जानी-पहचानी मुतरन्निम आवाज़ ख़ामोशी में गूंज रही थी। यह आवाज़ मुझे कुलियों, फ़क़ीरों और तांगे वालों के उस जमघट की तरफ़ ले गयी जो सर्दी में एक अलाव जलाये बैठे थे और उनके बीच में 'कैफ़ भोपाली'झूम-झूम कर उन्हें ग़ज़लें सुना रहे थे और अपनी बोतल से उनकी आवभगत भी फरमा रहे थे। श्रोता हर शेर पर शोर मचा रहे थे।  
कैफ़ को दुनिया से बहुत ऐशो आराम की ख़्वाहिश नहीं थी, लेकिन शराब उनके शौक में पहले पायदान पर थी प्रत्येक शहर के रास्ते मकान और छोटे-बड़े शहरी उन्हें अपनी बस्ती का समझते थे। वे मुशायरों के लोकप्रिय शायर थे। जहां जाते थे, पारिश्रमिक का अंतिम पैसा ख़र्च होने तक वे वहीं घूमते-फिरते दिखाई देते थे। एक मुशायरे से दूसरे मुशायरे के बीच का समय वे इसी तरह गुज़ारते थे। उनकी अपनी कमाई शराब एवं शहर के ज़रूरतमंदों के लिए होती थी। अन्य ख़र्चों की पूरी ज़िम्मेदारी उसी मेज़बान की होती थी, जो मुशायरे का संयोजक होने के साथ उनका प्रशंसक भी होता था। विशिष्ट तरन्नुम में शेर सुनाते थे। शेर सुनाते समय, आवाज़ के साथ पूरे जिस्म को प्रस्तुति में शामिल करते थे। जिस मुशायरे में आते थे, बार-बार सुने जाते थे। हर मुशायरे में उनकी पहचान खादी का वह सफेद कुर्ता-पायजामा होता था जो विशेष तौर से उसी मुशयारे के लिए किसी स्थानीय खादी भंडार से ख़रीदा जाता था।"

हाय लोगों की करम फ़र्माइयाँ 
तोहमतें, बदनामियाँ, रुस्वाइयाँ 

ज़िन्दगी शायद इसी का नाम है 
दूरियाँ, मज़बूरियाँ, तन्हाईयाँ 

क्या ज़माने में यूँ ही कटती है रात 
करवटें, बेताबियाँ, अंगड़ाईयाँ 

क्या यही होती है शाम-इन्तिज़ार 
आहटें, घबराहटें, परछाईयाँ     

 कैफ़ साहब ने ग़ज़लों अलावा आकाशवाणी के लिए बहुत से नाटक, नौटंकी और गीत लिखे।  वो अपनी ज़्यादातर शायरी कोड शब्दों या बिंदुओं में लिखते थे और वक़्त मिलने पर उसे उर्दू लिपि में बदल लेते थे। कैफ़ साहब को कभी सम्मान पाने या अवार्ड लेने की तमन्ना नहीं रही । अक्सर वो अपने सम्मान में होने वाले जलसों में जाने से भी कतराते थे। उन्हें 1989 में मध्यप्रदेश फिल्म जर्नलिस्ट की तरफ़ से 'फ़िल्म रत्न' , भारतीय भाषा साहित्य सम्मलेन में 'भारत भूषण 'सम्मान , आलमी उर्दू कांफ्रेंस में ' रियाज़ ख़ैराबादी अवार्ड'और उर्दू अकेडमी से 'मिराज मीर खां अवार्ड'आदि अनेक अवार्ड्स से सम्मानित किया गया। टैगोर की गीतांजली  अनुवाद बीच  छोड़ उन्होंने कुरान शरीफ़ का सरल आम उर्दू ज़बान में काव्य अनुवाद करने का फ़ैसला लिया। क़ुरान पाक के इस काव्य अनुवाद का कुछ भाग 'मफ़हूमूल कुरान'  शीर्षक से दुबई में छपा और बहुत पसंद किया गया। इस काम को भी वो कैंसर जैसी बीमारी के शिकंजे में आने की वजह से पूरा नहीं कर सके और 24 जुलाई 1991 के दिन इस दुनिया-ए-फ़ानी से रुख़्सत हो गये।  

कौन आएगा यहाँ कोई न आया होगा 
मेरा दरवाज़ा हवाओं ने हिलाया होगा 

दिल नादाँ न धड़क ऐ दिले नादाँ न धड़क 
कोई ख़त ले के पड़ौसी के घर आया होगा 

इस गुलिस्ताँ की यही रीत है ऐ शाख़े-गुल 
तूने जिस फूल को पाला वो पराया होगा 

गुल से लिपटी हुई तितली को गिरा कर देखो 
आँधियों ! तुमने दरख्तोंको गिराया होगा   
   
कैफ़ साहब के नवासे जनाब क़मर साक़िब की रहनुमाई में भोपाल के अदब नवाज़ लोगों ने उनकी जन्म शदाब्दी के अवसर पर भोपाल में 11 फरवरी 2017 को एक शानदार अंतर्राष्ट्रीय मुशायरे का आयोजन किया और साल भर तक उनकी याद में विभिन्न अदबी कार्यक्रम करते रहने का बीड़ा उठाया। इस मुशायरे में कैफ़ साहब की बेटी शायरा डा. परवीन कैफ़ ने भी हिस्सा लिया। परवीन जी ने कैफ़ साहब की शायरी पर डॉक्टरेट की है।  
17 सितम्बर 2017 को भोपाल में मध्यप्रदेश उर्दू अकेडमी द्वारा 'याद-ए-कैफ़'मनाया गया जिसमें कैफ़ साहब पर तीन सत्रों में अलग अलग कार्यक्रम हुए। इसके अलावा हाल ही में भोपाल के शाहजहां बाद में एक लाइब्रेरी भी उनके नाम से खोली गयी। 
कैफ़ साहब की यादें आज भी उन शहरों कस्बों और गावों के लोगों में बसी हुई है जहाँ जहाँ उन्होंने अपनी शायरी सुनाई। 
आख़री में उनके कुछ और शे'र आपको पढ़वा कर विदा लेता हूँ।      
 

घटा छाई हुई है, तू ख़फ़ा है, रिन्द प्यासे हैं 
ये क़त्ले आम, क़त्ले आम, क़त्ले आम है साकी 

मिरी क़िस्मत की मुझको कब मिलेगी मैं ये क्यों सोचूँ 
ते तेरा काम, तेरा काम, तेरा काम है साकी 
*
सवाल ये था के अब इसके बाद क्या होगा 
दिये ने रख ली सरे-आम, आफ़्ताब की बात 
*
महफ़िल में देखते हैं कुछ इस ज़ाविये से वो 
हर शख़्स कह रहा है के मैं ख़ुशनसीब हूँ  
*
मत किसी से कीजिये यारी बहुत 
आज की दुनिया है व्यापारी बहुत 

वो हमारे हैं न हम उनके लिये 
दोनों जानिब है अदाकारी बहुत 
*
जब कहा है रोटी को चाँद सा हंसी मैंने 
क़हक़हे लगाये हैं मसखरे अदीबों ने 
*
ये दौर वो है के संजीदा हो गये दोनों 
न अब जवान है राँझा न हीर है कमसिन 
*
समझाते हैं नासेह मुझे इश्क़ के नुक्ते 
पूछो के मियाँ तुमने कभी इश्क़ किया भी 
*
बरगद की छाँव में भी तो सोते हैं लोग-बाग 
हम ढूँढ़ते फिरें तिरी ज़ुल्फ़ों के साए क्यों 
*
ज़िन्दगी बाप की मानिंद सज़ा देती है 
रहम दिल माँ की तरह मौत बचाने आई 
*
दुनिया को चंद लोग समझते हैं पायदार 
ये कितनी पायदार है ठोकर लगा के देख  

किताबों की दुनिया - 224

मैं रोज़ इधर से गुज़रता हूँ कौन देखता है 
मैं जब इधर से न गुज़रूँगा कौन देखेगा 
*
मिरि तबाहियों का भी फ़साना क्या फ़साना है 
न बिजलियों का तज़्किरा न आशियाँ की बात है 
तज़्किरा : वर्णन 

निगाह में बसा-बसा निगाह से बचा-बचा   
रुका-रुका, खिंचा-खिंचा ये कौन मेरे साथ है 

चराग़ बुझ चुके, पतंगे जल चुके, सहर हुई 
मगर अभी मिरि जुदाईयों की रात, रात है 
*
 जुनूने-इश्क़ की रस्मे-अजीब क्या कहना 
मैं उनसे दूर वो मेरे क़रीब क्या कहना     
*
ये सोज़े-दुरुं, ये अश्क़े-रवाँ, ये काविशे-हस्ती क्या कहिए 
मरते हैं कि कुछ दिन जी लें हम, जीते हैं कि आख़िर मरना है 
सोज़े-दुरुं : आंतरिक वेदना , अश्क़े-रवाँ : बहते आँसू , काविशे-हस्ती : जीने की कोशिश
*
तिरी पलकों की जुम्बिश से जो टपका 
उसी इक पल के अफ़्साने ज़माने 

उन्हीं की ज़िन्दगी जो चल पड़े हैं 
तिरी मौज़ों से टकराने ज़माने 

बात यही कोई 1970 के आसपास की होगी, साहीवाल जो पाकिस्तान के पंजाब राज्य का एक कस्बा है उस कस्बे के 'स्टेडियम होटल'में पड़ी एक गोल सी मेज के इर्दगिर्द दस पन्द्रह लोग बैठे हैं। टेबल पर अभी अभी खाए बिस्कुटों की खाली प्लेटें, पानी के गिलास,चाय के कप और ऐश ट्रे में बुझे-अधबुझे सिगरेट के टुकड़े हैं जिनसे धुआँ उठ रहा है। जो लोग यहाँ आसपास के रहने वाले हैं उनके लिए ये रोज का दृश्य है। रोज शाम के पाँच बजते बजते इसी टेबल पर बरसों से महफ़िल जमनी शुरू हो जाती है जो सात बजे तक जमी रहती है। एक पचास साठ के बीच की उम्र का दुबला पतला शख्स पिछले पन्द्रह सोलह साल से रोज धीमी चाल से साईकिल चलाता यहाँ आता है जिसके आते ही महफिल में जान आ जाती है और उसके बाद सिगरेट, चाय-कॉफी, बिस्कुट और भी बहुत कुछ खाने पीने का सामान जमा हुए लोगों की फरमाइश के हिसाब से आता रहता है। इन लोगों में बातचीत हमेशा हल्की आवाज़ में होती है, कभी किसी ने इस मेज पर किसी को बहस करते या ऊँची आवाज में बात करते नहीं सुना जबकि सबको पता है कि यहाँ इस टेबल पर जो भी आता है उसका अदब से ख़ास रिश्ता या लगाव होता है और ऐसे लोग बिना शोर मचाये बातचीत नहीं करते। यहाँ बैठने वाले शायर भी हैं, अफ़साना निगार भी, नॉवलिस्ट भी हैं और पत्रकार भी। इस टेबल पर बैठने वाले हर शख्स की निगाहें उस तरफ होती हैं जिस तरफ वो साईकिल पर मध्यम रफ्तार से आने वाला बैठा होता है। ये ख़ास शख़्स बोलता बहुत कम है, सुनता ज्यादा है। 

आज लेकिन मामला कुछ अलग है। इस टेबल पर एक शख़्स सर झुकाए खड़ा है और साईकिल पर आने वाले शख़्स की निगाहें उस पर आग बरसा रहीं हैं । धीमी लेकिन रोबदार आवाज में उस से सवाल किया गया है 'तुमने हमारे सामने ये गुस्ताख़ी की कैसे बरखुरदार ?'ये बात सुनकर तुरंत एक काली शेरवानी पहने शख़्स ने कहा 'माफ़ करें हुज़ूर आज नासिर को मैं ही पहली बार आपकी बज़्म में लाया हूँ , ये गुस्ताख़ी इससे नहीं ,मुझसे हुई है , मुझे इसे बताना चाहिए था कि इस टेबल पर बैठने के कुछ उसूल हैं '। तब सर झुकाए शख़्स ने बेहद मुलायम लफ़्जों में हाथ जोड़ते हुए पूछा 'मुझसे आखिर ऐसी क्या गुस्ताख़ी हो गई उस्ताद ?'अपनी गर्दन काली शेरवानी पहने हुए की तरफ़ करते हुए साईकल पर आने वाले शख़्स ने कहा 'लो अब तुम ही इसे बताओ अनवर'। अनवर ने गला साफ़ किया फिर बोले 'मियॉँ इस टेबल पर पिछले सोलह सत्ररह सालों से जनाब की मौजूदगी में जो भी खाने पीने का सामान मंगवाया जाता है उसके बिल का हमेशा जनाब ही भुगतान करते आये हैं ये ही इस टेबल का उसूल है लेकिन आज तुमने अनजाने में बिल भुगतान की पेशकश करते हुए जेब से रुपये निकाल कर वेटर को दे दिए, ये ज़नाब की शान में गुस्ताख़ी है जिसे ये कभी बरदाश्त नहीं कर सकते। आज तुम पहली बार आए हो इसलिए ये रूपये उठाओ और याद रखो कि आईंदा आप ऐसी हरकत दुबारा न करें।'इस वाक़ये के थोड़ी बाद महफ़िल बर्ख़ास्त हो गयी। साईकिल सवार ने सब को ख़ुदा हाफ़िज़ कहा अपनी साईकिल उठाई और धीमी रफ़्तार से उसे चलाते हुए अगले मोड़ से ओझल हो गया।

बिल भुगतान की पेशकश करने वाले शख़्स ने पास खड़े अपने दोस्त अनवर से कहा 'कमाल के इंसान हैं 'मजीद अमजद' साहब, जितना उनके बारे में सुना था उससे बढ़ कर।'

इक लहर उठी और डूब गए होटों के कँवल आँखों के दीये 
इक गूँजती आँधी वक़्त की बाज़ी जीत गई, रुत बीत गई 

तुम आ गए मेरी बाहों में कौनैन की पेंगें झूल गई 
तुम भूल गए, जीने की जगत से रीत गई, रुत बीत गई 
कौनैन : दो दुनियाएं -भौतिक-आध्यात्मिक 

इक ध्यान के पाँओं डोल गए, इक सोच ने बढ़ कर थाम लिया 
इक आस हँसी, इक याद सुनाकर गीत गई, रुत बीत गई 

ये लाला-ओ-गुल क्या पूछते हो सब लुत्फ़े-नज़र का किस्सा है 
रुत बीत गई जब दिल से किसी की पीत गई, रुत बीत गई 
*
ख़याले-यार तिरे सिलसिले नशे की रुतें 
जमाले-यार तिरी झलकियाँ गुलाब के फूल जमाले यार : प्रेमिका की ख़ूबसूरती

सुलगते जाते हैं चुपचाप हँसते जाते हैं    
मिसाले-चेहरा-ए-पैग़मबरां गुलाब के फूल 

कटी है उम्र बहारों के सोग में 'अमजद'
मेरी लहद पे खिलें जावेदां गुलाब के फूल 
लहद : क़ब्र, जावेदां : हमेशा के लिए        
*
किसको बतायें अब जो ये उलझन आन पड़ी है 
जब तक तुमको भूल न पायें, याद न आयें 
*
प्यार की मीठी नज़र से तूने जब देखा मुझे 
तल्खियाँ सब ज़िन्दगी की लुत्फ़े-सामां हो गईं   

छा गईं दुश्वारियों पर मेरी सहल-अंगारियाँ 
मुश्किलों का इक ख़याल आया कि आसां हो गईं 
सहल-अंगारियाँ =बेफ़िक्री 

'मजीद अमजद'एक ऐसे शायर है जिससे हिंदी के पाठक तो छोड़ें, उर्दू वाले भी अधिक परिचित नहीं हैं। परिचित नहीं हैं से मेरा मतलब ये है कि उतने परिचित नहीं हैं जितने होने चाहियें। क्यों नहीं है इसका उत्तर हमें शमीम हनफ़ी जैसे बड़े आलोचक द्वारा उनके बारे में लिखी इन पंक्तियों से मिलता है "कभी कभी कुछ फ़नकार एक इंडस्ट्री बन जाते हैं अपने आप में और फिर सब कुछ उन्हीं के इर्दगिर्द घूमता है और दूसरे जो उनसे किसी लिहाज़ से कम नहीं बल्कि बाज़ औक़ात तो उनमें से कुछ का क़द निकलता हुआ होगा, उनकी अनदेखी हो जाती है। फैज़ और मन्टो जैसे रचनाकारों को इंडस्ट्री बन जाने की मिसाल हमारे सामने है जबकि मजीद अमजद जैसे बड़े और अहम शायर पसे-पुश्त डाल दिए गए। ज़दीद नज़्म निगारी के बानियों में एक अहम नाम मजीद अमजद का है। क्या ज़बान, क्या ख़्याल, क्या उस्लूब ( स्टाइल ),क्या तर्ज़े-अहसास हर सतह पर मजीद अमजद ने अपना इनफिराद (मौलिकता ) क़ायम किया है। बहुत फ़िक्र-अंगेज़ है उनकी शायरी जिसकी तह में कहीं एक गहरी उदासी की कारफ़रमाई रहती है।  

मजीद अमजदयूँ तो अपनी नज़्मों की वज़ह से जाने जाते हैं लेकिन उन्होंने ग़ज़लेँ भी कहीं जो अपनी मिसाल आप हैं। उनकी ग़ज़लों की तादाद नज़्मों के मुकाबले बहुत कम है लेकिन जितनी हैं जो हैं कमाल हैं।     
  
ऐनीबुक प्रकाशनने हाल ही में मजीद अमजद साहब की कुलियाते-ग़ज़ल और चुनिंदा नज़्में 'बहारों का सोग'नाम से प्रकाशित की है। इस किताब के लिप्यंतरण और सम्पादन की जिम्मेदारी पं. अर्श सुल्तानपुरी उठाई है। गम्भीर शायरी का लुत्फ़ लेने वाले हिंदी पाठक इसे पढ़ कर जरूर आंनदित होंगे। आप इस किताब को अमेज़न से ऑन लाइन या फिर जनाब 'पराग अग्रवाल'को 9971698930पर फोन कर मंगवा सकते हैं।   
 
इस पोस्ट में इसी किताब से उनकी ग़ज़लों के शेर बानगी के लिए आपके सामने हैं।    

शम'अ के दामन में शोला, शम'अ के क़दमों में राख़ 
और हो जाता है हर मंज़िल पे परवाने का नाम 
*
ज़िन्दगी की राहतें मिलती नहीं मिलती नहीं 
ज़िन्दगी का ज़हर पी कर जुस्तजू में घूमिये 
*
झोंकों में रस घोले दिल  
पवन चले और डोले दिल 

जीवन की रुत के सौ रूप 
नग्मे, फूल, झकोले, दिल 

यादों की जब पेंग चढ़े 
बोल अलबेले बोले दिल 

किसकी धुन है बावरे मन 
तेरा कौन है भोले दिल 
*
निज़ामे-कुहना के साये में आफ़ियत से न बैठ 
निज़ामे-कुहना तो गिरती हुई इमारत है 
निज़ामे-कुहना : जान से मारने के प्रबंधक , आफ़ियत :ख़ैरियत 

दिलों की झोंपड़ियों में भी रौशनी उतरे 
जो यूँ नहीं तो ये सब सैले-नूर अकारत है 
सैले-नूर :रौशनीकी किरण ,अकारत :बेकार 
*
दिन कट रहे हैं कश्मकशे-रोज़गार में 
दम घुट रहा है साया-ए-अब्रे-बहार में 
साया-ए-अब्रे-बहार :बहार के बादल का साया 

आती है अपने जिस्म के जलने की बू मुझे 
लुटते हैं निकहतों के सुबू जब बहार में 
निक़हतों के सुबू =खुशबू की सुराही 

गुज़रा उधर से जब कोई झोंका तो चौंक कर 
दिल ने कहा ये आ गए हम किस दयार में    

चलिए अमजद साहब के बारे में थोड़ा जानें। लगभग एक सौ सात पहले याने 29 जून 1914 को झंग शहर, जो अब पाकिस्तान में है, के मियाँ मुहम्मद अली के यहाँ मजीद साहब का जन्म हुआ। अभी वो छोटे ही थे कि उनके वालिद ने दूसरी शादी कर ली। उनकी माँ को ये बरदाश्त नहीं हुआ और वो नन्हें मजीद को गोद में उठाये अपने मायके आ गयीं। आप उस बच्चे की किस्मत का अंदाज़ा लगाएँ जिसको बाप के होते हुए यतीम की ज़िन्दगी बितानी पड़ी और उस बीवी का जो शौहर की मौज़ूदगी में बेवाओं की तरह रही। उनके नाना मियाँ नूर मोहम्मद, जो अरबी फ़ारसी के विद्वान थे, ने बचपन से ही मजीद साहब को दोनों ज़ुबानों से रूबरू करवाया। अमजद साहब ने मेट्रिक तक की पढाई इस्लामिया कॉलेज झंग से और गवर्मेंट कॉलेज लाहौर से सं 1934 में ग्रेजुएशन किया। लाहौर में जब कहीं नौकरी नहीं मिली तो आखिर झंग के एक अर्ध सरकारी अख़बार 'उरूज़'में बतौर एडिटर काम करने लगे। 

मजीद साहब का बचपन चूँकि एक आम बच्चे से अलग था लिहाज़ा उन्होंने अपने ज़ज़्बात का इज़हार करने को शायरी का दामन थामा। उनके साथ के बच्चे जब उनसे कोई जाती सवाल पूछते तो वो झल्ला जाते। उनके दुःख दर्द कोई समझता नहीं था इसलिए वो किसी से शेयर भी नहीं करते थे। उन्होंने अपनी एक दुनिया बना ली जिसमें वो तन्हा रहना पसंद करते। सातवीं क्लास से वो अपने दिल में जो महसूस करते उसे एक डायरी में नज़्म की शक्ल में दर्ज़ कर लेते।उनकी शायरी में बचपन के हालात का गहरा असर है क्यूंकि उनका खेलकूद नाज़ो-नख़रे उठवाने का वक़्त बरबाद हो गया इसलिए उनकी शायरी में दुखभरा अहसास मिलता है। उनकी शादी भी छोटी उम्र में कर दी गयी थी जो बदक़िस्मती से क़ामयाब नहीं हो सकी. 

पढ़ने का उन्हें बचपन से ही शौक था, 'उरूज़'अख़बार में  नौकरी के दौरान उन्होंने विदेशी साहित्य खूब पढ़ा जिसमें कीट्स,शैली,ऑस्कर वाइल्ड, विक्टर ह्यूगो और कामू जैसे लेखक विशेष हैं। दस साल 'उरूज़'में गुज़ारने के बाद उन्होंने असिस्टेंट फ़ूड कंट्रोलर के पद  पर, ता-उम्र सरकारी नौकरी की।
                   
जो तुम हो बर्क़े-नशेमन तो मैं नशेमने बर्क़ 
उलझ पड़े हैं हमारे नसीब क्या कहना 
बर्क़े-नशेमन :घोंसले पर गिरने वाली बिजली,  नशेमने बर्क़: वो घोंसला जिस पर बिजली गिरे 

लरज़ गई तेरी लौ मेरे डगमगाने से 
चराग़े-गोशा-ए-कू-ए-हबीब क्या कहना   
चराग़े-गोशा-ए-कू-ए-हबीब: प्रेमिका की गली के ताक़ में जलने वाला चराग़  
*
मेरे नसीबे-शौक़ में लिक्खा था ये मक़ाम 
हर-सू तिरे ख़्याल की दुनिया है, तू नहीं 
*
बोझल पर्दे, बंद झरोखा ,हर साया रंगीं धोका 
मैं इक मस्त हवा का झौंका, द्वारे-द्वारे झाँक चुका 
*
सहरा-ए-ज़िन्दगी में जिधर भी क़दम उठे 
रस्ते में एक आरज़ूओं का चमन पड़े 

इस जलती धूप में ये घने साया-दार पेड़ 
मैं अपनी ज़िन्दगी इन्हें दे दूँ जो बन पड़े 
*
साँझ-समय इस कुँज में ज़िन्दगियों की ओट 
बज गई क्या-क्या बाँसुरी रो गए क्या-क्या लोग 

गठरी काल रैन की सोंटी से लटकाए  
अपनी धुन में ध्यान-नगर को गए क्या-क्या लोग 

मीठे-मीठे बोल में दोहे का हिन्डोल 
सुन-सुन उसको बाँवरे हो गए क्या- क्या लोग 
*
रूहों में जलती आग ख़यालों में खिलते फूल 
सारी सदाक़तें किसी काफ़िर निगाह की    
सदाक़तें: सच्चाई 

जब भी ग़मे-ज़माना से आँखें हुई दो-चार 
मुँह फेर कर तबस्सुमे-दिल पर निगाह की 

नौकरी के सिलसिले में उनका ट्रांसफ़र 1945 में लाहौर से 'साहीवाल'हो गया। 'साहीवाल'में तन्हा रह कर गुज़ारा 29 साल का वक़्त उनकी 60 साला ज़िन्दगी का सबसे बेहतरीन वक़्त था। वो हमेशा इस कोशिश में रहते कि कहीं उनका ट्रांसफर बड़े शहर में न हो जाय। ज़िंदादिल, बेहद संवेदनशील- कहीं कोई हरा दरख़्त कट जाय ,कोई बच्चा उदास हो जाय ,चींटी किसी के पाँव से कुचली जाय या कोई परिंदा ज़ख़्मी हो जाय तो बहुत दुखी हो जाने वाले, सबके काम आने वाले, छोटे बड़े की इज़्ज़त करने वाले, कोई मिल गया तो साईकिल से उतर कर उसके साथ चलने वाले मजीद अमजद को 'साहीवाल'में सब पहचानते थे। 

'साहीवाल'जिसका पुराना नाम मोंटगुमरी था के पास ही विश्व प्रसिद्ध ईस्वी से लगभग 2500 वर्ष पूर्व की सभ्यता के अवशेष 'हड़प्पा'में मिले थे। इन अवशेषों के अध्यन के लिए जर्मनी से एक लड़की 'शालात'सरकारी मेहमान की हैसियत से 1957 में 'साहीवाल'आयी और मजीद अमजद साहब के घर पर रुकी। क्यों रुकी इसका मुझे पता नहीं लेकिन रुकी ये जरूर पता है। हो सकता है कि साहीवाल में ढंग का होटल न हो और मजीद साहब के पास क्यूंकि दो कमरों का मकान था और वो अकेले रहते थे तो सरकार द्वारा उसे अपने घर पर रखने का उन्हें आदेश मिला हो. खैर वो रही और रोज शाम को मजीद साहब के साथ गप्पें मारती हुई कैनाल कॉलोनी से स्टेडियम होटल तक की लम्बी सैर करती। साहीवाल जैसे छोटे क़स्बे में एक स्थानीय बन्दे के साथ गोरी लड़की का हँस हँस कर बतियाते हुए सैर करना सबके लिए दिलचस्पी का विषय था। 'शालात'मजीद साहब के ज्ञान से बहुत प्रभावित थी और शायद मजीद साहब भी उसे मन ही मन पसंद करने लगे थे। जब 'शालात'की घर वापसी का वक्त आया तो मजीद साहब ने  सोचा की उसे अपने दिल की बात बता दूँ याने इज़हारे मोहब्बत कर दूँ, लिहाज़ा वो उसे छोड़ने स्टेशन गए और साथ फूलों का गुलदस्ता भी ले गए। शर्मीले मजीद अमजद ने गुलदस्ता अपनी साइकिल पे ये सोच कर छोड़ा कि वो इसे गाड़ी चलने पर 'शालात'को पकड़ाएंगे। स्टेशन पर बतियाने में वक़्त का पता ही नहीं चला और गाड़ी स्टेशन से रेंगने लगी तो वो भी 'शालात'के साथ ही बातें करते करते ट्रेन पर चढ़ गए और क्वेटा,जो लगभग दो सौ किलोमीटर दूर था, जहाँ 'शालात'को उतरना था, तक चले गए, ये भूल कर कि साहीवाल स्टेशन पर वो जो अपनी साइकिल खड़ी कर आये हैं उस पर फूलों का गुलदस्ता रखा है। सफ़र ख़तम हो गया लेकिन दिल की बात ज़बाँ पर न आ पायी। ऐसा कई बार होता है कि ज़िन्दगी की ट्रेन का स्टेशन आ जाता है, दिल की कई बातें दिल ही में रह जाती हैं और मोहब्बत के फूल गुलदस्ते में लगे -लगे  मुरझा जाते हैं।
 
उस मोड़ पर अभी जिसे देखा है कौन था 
संभली हुई निगाह थी सादा लिबास था 

यादों के धुंधले देश खिली चाँदनी में रात 
तेरा सुकूत किसकी सदा का लिबास था 
सुकूत : मौन      

ऐसे भी लोग हैं जिन्हें परखा तो उनकी रूह 
बे-पैरहन थी जिस्म सरापा लिबास था 
*
मेरी मानिंद ख़ुद-निगर तन्हा 
ये सुराही में फूल नरगिस का 
ख़ुद-निगर : स्वार्थी, ख़ुद में लिप्त    

हाय वो ज़िन्दगी-फ़रेब आँखें 
तूने क्या सोचा मैंने क्या समझा     

घुंघुरुओं की झनक-मनक में बसी 
तेरी आहट ! मैं किस ख़्याल में था 

है जो ये सर पे ज्ञान की गठरी 
खोल कर भी इसे कभी देखा 
*
फिर लौट कर न आया ,ज़माने गुज़र गए 
वो लम्हा जिसमें एक ज़माना गुज़ारा था 
*
वो एक टीस जिसे तेरा नाम याद रहा 
कभी कभी तो मिरे दिल का साथ छोड़ गई 
*
झुकें जो सोचती पलकें तो मेरी दुनिया को 
डुबो गई वो नदी जो अभी बही भी न थी 

'शालात'के जाने के बाद अमजद साहब बहुत दिन उदास रहे और फिर उन्होंने 'म्यूनिख'उन्वान से एक नज़्म कही जो उर्दू शायरी में एक अहम स्थान रखती है। साहीवाल में मजीद साहब के यहाँ बाहर से अक्सर शायर आ कर ठहरा करते थे उन्हीं में एक थे भारत से आये शायर 'साहिर लुधियानवी'। एक शाम मजीद साहब ने साहिर को अपनी ताज़ा लिखी नज़्म सुनाई जिसकी शुरुआत की सतरें थीं ' ये दुनिया ये तख़्तों ये ताज़ों की दुनिया , ये रस्मों में लिथड़े रवाज़ों की दुनिया'साहिर ने नज़्म सुन कर मजीद साहब के हाथ पकड़ते हुए कहा इस नज़्म की कुछ सतरें आप मुझे इस्तेमाल करने दें ,मजीद साहब ख़ुशी ख़ुशी मान गए। साहिर ने अपने हिसाब से इस नज़्म को कहा जो बेहतरीन है लेकिन उसकी कुछ सतरें मजीद साहब की हैं ,इस नज़्म को फिल्म 'प्यासा'में मोहम्मद रफ़ी साहब ने गा कर अमर कर दिया। इसी तरह मन्टो साहब के इसरार पर मजीद साहब ने उन पर भी एक नज़्म कही है जो बहुत सराही गयी खास तौर पर ये लाइनें  'कौन है जो बल खाते ज़मीरों के पुर-पेच धुंधलकों में /रूहों के इफ्रीत-कदों ( राक्षसों के घर ) के ज़हर-अन्दोज़ (ज़हरीले)महलकों (छोटी जगह)  में /ले आया है यूँ बिन पूछे अपने आप /ऐनक के बर्फीले शीशों से छनती नज़रों की चाप /कौन है ये गुस्ताख़ /ताख़ तड़ाक। 

शायरी के माध्यम से खुद को दुनिया से जोड़ने वाले, दाद वसूलने और किसी को खुश करने की ख़्वाइश से कोसों दूर हो कर शायरी करने वाले मजीद साहब को जीते जी वो पहचान नहीं मिली जिसके वो हक़दार थे। उनकी सिर्फ एक किताब 'शबे-रफ़्ता'ही उनके सामने 1958 में शाया हुई थी। 

उस दौर के पाँच बड़े शायरों  फ़ैज़ (1911 ), नासिर काज़मी (1925) ,मुनीर नियाज़ी (1928 )नून मीम राशिद (1910 ) और जोश (1898 ) के साथ में मजीद साहब का नाम शुमार होता है। मजीद साहब के पास ख़्यालों की बहुत बड़ी रेंज थी उनके शायरी के केनवास पर इतने रंग है जो और किसी शायर के यहाँ नज़र नहीं आते।        

बिखरती लहरों के साथ दिनों के तिनके भी थे 
जो दिल में बहते हुए रुक गए ,नहीं गुज़रे 
*
ध्यान में रोज़ छमछमाता है 
क़हक़हों से लदा हुआ ताँगा 

दो तरफ़ बँगले रेशमी नींदें 
और सड़क पर फ़क़ीर इक नाँगा 
*
तू कि अपने साथ है अपने बदन के वास्ते 
कोई तेरे साथ तन्हा है तिरे दिल के लिए 
*
दुनिया के ठुकराए हुए लोगों का काम 
पहरों बैठे बातें करना दुनिया की 
*
क़ालीनों पर बैठ के अज़्मत वाले सोग में जब रोए 
दीमक लगे ज़मीर इस इज़्ज़ते-ग़म पर क्या इतराए थे 
अज़्मत: प्रभावशाली 
*
तुझे तो इल्म है क्यों मैंने इस तरह चाहा 
जो तूने यूँ नहीं चाहा तो क्या, जो तू चाहे  

सलाम उनपे तहे-तेग़ भी जिन्होंने कहा 
जो तेरा हुक्म जो तेरी रज़ा जो तू चाहे  
तहे-तेग़ : तलवार के नीचे 

रिटायरमेंट के बाद मजीद साहब की माली हालत और सेहत बिगड़ती गयी।सरकार के ख़िलाफ़ जब तक लिखने की वजह से उनकी पेंशन और वजीफ़ा रोक दिया गया लेकिन फिर भी उनका स्टेडियम होटल जाने और अपनी टेबल के बिल अदा करने की आदत में कभी रूकावट नहीं आयी। एक बार जब महफ़िल बर्खास्त हुई तो आदतन मजीद साहब ने बिल अदायगी के लिए जब जेब में हाथ डाला तो पाया कि वो खाली है तब मुस्कुराते हुए वेटर से बोले 'आज का बिल उधार रहा मियां इसे कल अदा करूँगा '।होटल का मालिक 'जोगी'जो अमजद साहब का जिगरी दोस्त था, उनकी माली हालत से वाक़िफ़ था लेकिन कुछ मदद नहीं कर पा रहा था क्योँ कि उसे डर था कि मदद की पेशकश से कहीं उनकी खुद्दारी को ठेस न पहूंचे।आज दूर से ये नज़ारा देख उससे रहा नहीं गया वो टेबल पर आया और आराधना फिल्म के गाने 'बागों में बहार है'की तर्ज़ पर अमजद साहब से पूछा 'मजीद भाई ये होटल किसका है ?'मजीद साहब ने जवाब दिया 'आपका'जोगी ने फ़ौरन पूछा 'आप दोस्त किसके है ?'मजीद साहब ने मुस्कुराते हुए कहा 'आपका', 'जोगी साहब ने बिना वक़्त गँवाए फिर पूछा 'इस टेबल पर आया सामान किसका था?'मजीद साहब ने कहा 'आपका'जोगी हँसते हुए बोला कि 'जब होटल मेरा है, आप मेरे हैं, टेबल पर रखा सामान मेरा है तो इसके बिल अदा करने का हक़ किसका हुआ ?अमजद साहब बिना सोचे बोले 'आपका'। ये ही जोगी सुनना चाहता था वो मुस्कुराते हुए वहाँ जमा सब लोगों से बोला 'सुना आप सबने माजिद भाई ने क्या कहा, आज से इस टेबल पर इनकी मौजूदगी में जो आएगा उसका बिल खाक़सार ही अदा करेगा। मन ही मन में अमजद साहब समझ गए कि जोगी ने उनकी इज़्ज़त को बड़ी ख़ूबसूरती से बचाया है। उस दिन के बाद से जोगी ने कभी मजीद साहब को बिल अदा नहीं करने दिया। हाय कहाँ गए ऐसे लोग और ऐसे दोस्त !!  

धीरे धीरे आँख से नज़र आना बंद हो गया। 11 मई 1974 की दोपहर को खाना खाने के बाद उन्होंने अपने खिदमतगार 'अली मोहम्मद' जो शुरू से उन्हीं के पास रहता था लेकिन काम कहीं और करता था को बाजार से कुछ लाने को भेजा। जब वो वापस लौटा तो उसने देखा कि मजीद साहब बेसुध अपनी खाट पर पड़े हैं। डॉक्टर बुलवाया गया जिसने आते ही उन्हें मृत घोषित कर दिया। 

साहीवाल के डिप्टी कमिश्नर जावेद क़ुरेशी जो मजीद साहब के प्रशंसक थे को जैसे ही खबर मिली उन्होंने उनके घर में पड़े वो सारे कागज़ात जिन पर मजीद साहब ने कुछ लिख रखा था यूनाइटेड बैंक के लॉकर में रखवा दिए। उनके क़लाम के चोरी हो जाने का अंदेशा जो था। 
जावेद साहब ने अपनी देखरेख में आनन फानन में फ़ूड विभाग का एक छोटा ट्रक जिसमें खाने का तेल गाँव गाँव सप्लाई होता था को धो पौंछ कर तैयार करवाया उनकी देह को फूलों से सजाया और उन्हें झंग दफ़नाने के लिए भेज दिया। जनाज़े में उनका अपना कोई नहीं था सिवा उन चंद दोस्तों के जो उनके साथ स्टेडियम होटल की टेबल के इर्दगिर्द बैठा करते थे। 
उनकी वफ़ात के बाद लॉकर से कागज़ निकाल कर पढ़े गए और उनके लिखे को 'शबे -रफ़्ता के बाद'शीर्षक से छपवाया गया। 
आज उन पर सैंकड़ो किताबें और हज़ारों आर्टिकल छप चुके हैं लेकिन उन्हें देखने वाले मजीद साहब नहीं हैं। उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर झंग में जो एक पब्लिक पार्क भी बनवाया गया था वो अब देख रेख के अभाव में कूड़े के ढेर में बदल चुका है। यू ट्यूब पर आप उस पार्क की हालत देख, शर्मिंदा हो सकते हैं। भारत हो या पाकिस्तान, अदीबों के साथ हम ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं ? शायद किसी के पास जवाब हो लेकिन मेरे पास नहीं है। 
अंत में उनके चंद अशआर और :

चैत आया, चेतावनी भेजी, 'अपना वचन निभा'
पतझड़ आई,  पत्र लिखे, 'आ जीवन बीत चला'

खुशियों का मुख चूम के देखा, दुनिया मान भरी 
दुःख वो सजन कठोर कि जिसको रूह करे सजदा 

शीशे की दीवार ज़माना, आमने सामने हम 
नज़रों से नज़रों का बँधन, जिस्म से जिस्म जुदा
*
तिरे ख़्याल के पहलू से उठ के जब देखा 
महक रहा था ज़माने में कू-ब-कू तिरा ग़म 
*
मुझे ख़बर भी न थी और इत्तिफ़ाक़ से, कल 
मैं इस तरफ से जो गुज़रा वो इन्तिज़ार में थे       

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