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Channel: नीरज
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किताबों की दुनिया -188

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कफ़स भी हैं हमारे और ज़ंजीरें भी अपनी हैं 
 युगों से क़ैद हम अपनी ही दीवारों में बैठे हैं 
 ***
 मुश्किलें ही मुश्किलें हैं रात-दिन इसको 
 काट कर इस जिस्म से सर को कहीं रख दे
 *** 
जानती थी कि तेरे बाद उजड़ जाऊँगी 
 मैंने फिर भी तिरा हर रंग छुड़ा कर देखा 
 *** 
इल्ज़ाम सिर्फ तेज़ हवा पर ही क्यों रहे
 सूरज की रौशनी भी दिये का अज़ाब है
 *** 
सूरत नहीं दिखी तिरि करवे के चाँद में 
 जाने मुझे क्यों चाँद में बस चाँद ही दिखा 
 *** 
फिर कोई अब्र आ न जाए इधर 
बाम पर जख़्म कुछ सुखाये हैं 
 *** 
फिर बदन उसको दे दिया वापिस
 रूह जब से निखार ली हमने 
 *** 
फिर लगा तेरी छुअन में अजनबीपन सा
 तुझमें कोई और भी रहने लगा है क्या 

 आप ईश्वर या कोई भी अदृश्य शक्ति जो हमें चला रही है को मानें न मानें ये आप पर है। इस बात पर कोई बहस नहीं लेकिन आप एक बात तो जरूर मानेंगे कि इस शक्ति ने अपने द्वारा सृजित इंसानों में हुनर की एक नदी को प्रवाहित किया है। ये नदी सतत बहती रहती है। कुछ लोग इसे सतह पर ले आते हैं और ये सबको दिखाई देने लगती है लेकिन कुछ ऐसा नहीं कर पाते। ख़ास तौर पर आधी दुनिया की नुमाईंदगी करने वाली महिलाओं के लिए अपने में छिपे हुनर की नदी को सतह पर लाना इतना आसान नहीं होता। समाज और घर की जिम्मेदारियां एक बाँध की तरह इस नदी के प्रवाह को रोक लेते हैं। कुछ में हुनर की ये नदी समय के साथ सूख जाती है और कुछ में इसके लगातार प्रवाहित होते रहने से बाँध का जलस्तर बढ़ने लगता है ,साथ ही बढ़ता है बाँध पर दबाव। कुछ बाँध इस दबाव से टूट जाते हैं , कुछ रिसने लगते हैं और कुछ के ऊपर से नदी बहने लगती है।

 उम्र भर का साथ है कुछ फासले रख दरमियाँ 
 दूरीयां कर देंगी यूँ दिन-रात की नज़दीकियां 

 मर्द की बातों में आकर, चाहतों के नाम पर 
 औरतोँ ने फूंक डाले औरतों के आशियाँ 

 आँख में चुभने लगी है अपने घर की चांदनी 
 जुगनुओं की चाह में हो ? क्या हो बदकिस्मत मियाँ !! 

 ये जो शेर आपने ऊपर पढ़े हैं, यकीन मानिये कोई औरत ही लिख सकती है. पुरुष की सोच यहाँ तक पहुँच ही नहीं सकती। हमारी आज की शायरा हैं "निर्मल आर्या'जिनकी ग़ज़लों की अद्भुत किताब "कौन हो तुम"की बात हम करेंगे। निर्मल जी ने विपरीत परिस्थितियों में भी अपने हुनर की सरिता को सूखने नहीं दिया। निर्मल जी को ये तो इल्म था कि कुछ है जो उनके मन के अंदर ही अंदर घुमड़ता है लेकिन उसे व्यक्त करने की विधा का उन्हें जरा सा भी भान नहीं था। बाँध की मज़बूत दीवारों से उनके हुनर की नदी टकराती और लौट जाती। आखिर वो दिन आया जब बाँध में हलकी सी दरार पड़ गयी। पानी का रिसाव पहले बूँद बूँद हुआ फिर एक पतली सी धार बनी और फिर हुनर झरने के पानी सा झर झर झरने लगा। हर विपरीत परिस्थिति इस दरार को चौड़ा करने लगी। लबालब भरे बाँध में आयी इस दरार को भरना अब नामुमकिन था।


 यूँ हसरतों ने आजमाए मुझपे जम के हाथ 
 फिर पूछिए न मुझसे भी क्या क्या खता हुई

 बेचैनियाँ बहुत थीं बरसने से पेश्तर 
 बरसी जो खुल के जिस्म से हलकी घटा हुई 

 शब् भी विसाल की थी मुहब्बत भी थी जवां
 मुझसे मगर न फिर भी कोई इल्तिजा हुई

 उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के छोटे से गाँव दोघाट में जन्मीं निर्मल एक चुलबुली मस्त मौला लड़की थी। उम्र के उस हसीन दौर में जब गुलाबी सपनों की आमद शुरू होती है याने 16 वें साल में जब वो बाहरवीं कक्षा में पढ़ ही रही थीं, निर्मल जी शादी के बंधन में बंध गयीं। अपना घर छूट गया, स्कूल छूट गया और वो संगी साथी छूट गए जिनके साथ वक्त पंख लगा के उड़ा करता था। शादी हुई तो धीरे धीरे घर परिवार सामाजिक जिम्मेदारियों का बोझ भी बढ़ने लगा। पति और परिवार के स्नेह ने उन्हें हिम्मत दी और वो जी जान से अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने लगीं। बाँध जरूर बंध गया था लेकिन अंदर चलने वाली नदी सूखी नहीं थी लिहाज़ा वक्त के साथ बांध का जलस्तर तो बढ़ा ही और उसके साथ ही बहने का रास्ता न मिल पाने के कारण मन में बेचैनी भी बढ़ने लगी।

 ये रात होते ही चमकेंगे चांदनी बनकर 
 जो साये धूप के दिनभर शजर में रहते हैं 

 हमें सुकून कि ज्यादा किसी से रब्त नहीं 
 उन्हें गुरूर कि वो हर नज़र में रहते हैं 

 कभी भी दिल से कहीं गलतियां नहीं होतीं 
 खराबियों के जो कीड़े हैं सर में रहते हैं 

 बेचैनियां अभिव्यक्ति का माध्यम ढूंढने के लिए छटपटाने लगीं। कभी वो कहानियों का सहारा लेतीं तो कभी कविताओं का। और तो और खुद को व्यक्त करने के लिए उन्होंने फैशन डिजाइनिंग से लेकर घर भी डिजाइन किये।खूब वाह वाही बटोरी। नाम भी मिला प्रशंशकों की तादाद में बेशुमार इज़ाफ़ा भी हुआ लेकिन मन की बेचैनी का मुकम्मल इलाज़ वो नहीं ढूंढ पायीं। 8 मई 2014 की गर्म दुपहरी थी जब उन्होंने अनमनी सी अवस्था में एक कहानी लिखने की सोची ,थोड़ा बहुत लिखा फिर फाड़ के फेंक दिया। अचानक एक कविता की कुछ पंक्तियाँ उनके दिमाग में बिजली सी कौंधी उन्होंने उसे फ़ौरन कागज़ पर उतारा और घर वालों को सुनाया ,घर वालों ने सुन कर तालियां बजाईं। हिम्मत बंधी तो उसे फेसबुक पे डाल दिया। जैसा कि फेसबुक पर अक्सर होता है, प्रशंशा करने वालों का ताँता लग गया। फिर तो ये सिलसिला चल निकला। एक दिन उनकी किसी पोस्ट पर किन्हीं सुभाष मालिक जी का कमेंट आया जिसमें कहा गया था कि निर्मल जी आप बहुत खूब लिखती हैं लेकिन अगर इसे बहर में लिखें तो आनंद आ जाय।

 वो मुझको भूल गया इक तो ये गिला ,उस पर 
मुझे पुकारा गया नाम भी नया ले कर 

 पहन ले या तो चरागों की रौशनी या फिर 
 वजूद अपना तपा धूप की क़बा लेकर 

 मुझे तो रात की अलसाई सुब्ह प्यारी है 
 ये कौन रोज़ चला आता है सबा लेकर 

 बहर ? चौंक कर निर्मल जी ने सोचा। ये किस चिड़िया का नाम है ? सुभाष जी से संपर्क साधा गया तो उन्होंने फेसबुक पर चलने वाले ग्रुप "कविता लोक "का पता दिया जहाँ ग़ज़ल लेखन सिखाया जाता था । कविता लोक ने निर्मल जी का वो काम किया जो "खुल जा सिम सिम "ने अलीबाबा का किया था। ख़ज़ाने की गुफ़ा का दरवाज़ा खुल गया। फिर तो सिर्फ़ बहर ही क्यों ग़ज़ल की बारीकियां भी निर्मल जी समझने लगीं रफ़्ता रफ़्ता ग़ज़ल कहने भी लगीं। एक नये सफर की शुरुआत हो चुकी थी। जैसे जैसे वो आगे बढ़ती गयीं वैसे वैसे उनका मार्ग दर्शन करने लोग आगे आने लगे सुभाष जी से शुरू हुआ ये सिलसिला विजय शंकर मिश्रा जी -जो उनके सबसे बड़े बड़े आलोचक रहे और जिन्होंने उनकी हर इक ग़ज़ल में गलती निकाल कर उसे दोष मुक्त किया - से होता हुआ सईद जिया साहब तक और फिर आखिर में उर्दू अदब के जीते-जागते स्तम्भ और अदबी मर्कज़ पानीपत के आर्गेनाइज़र जनाब डा. कुमार पानीपती जी पर समाप्त हुआ।

 खिड़की पर ही हमने रख दी हैं आँखें 
 क्या जाने कब चाँद इधर से गुज़रेगा 

 ऐसे छू ,बस रूह मुअत्तर हो जाए 
 मिटटी का ये जिस्म कहाँ तक महकेगा

 आखिर कब तक थामे रक्खेगी 'निर्मल' 
दिल तो दिल है ,ज़िंदा है तो मचलेगा 

 डा. कुमार ने निर्मल जी हुई एक मुलाकात को बहुत दिलचस्प ढंग से में बयां किया है संक्षेप में बताऊँ तो वो लिखते हैं कि "एक दिन निर्मल अपने पति के साथ सुबह सुबह कुमार साहब के घर जा पहुंची और उन्हें कागजों का एक पुलंदा थमाते हुए बोलीं कि सर मेरी ये कुछ ग़ज़लें हैं आप इन्हें देख लीजिये मुझे दस पंद्रह दिनों में एक पब्लिशर को इन्हें देना है। कुमार साहब इतनी ग़ज़लें देख कर बोले कि इन्हें दस पंद्रह दिनों में देख कर देना संभव नहीं है। निर्मल निराश क़दमों से लौटने लगी तो उनका दिल पसीज गया। उन्होंने कहा कि चलो इन्हें रख दो मैं कोशिश करूँगा। निर्मल ख़ुशी ख़ुशी लौट गयी। डाक्टर साहब ने तीन दिनों में लगातार बैठ कर करीब पचास ग़ज़लें देख डालीं और निर्मल को कहा कि ये पचास ग़ज़लें तो अभी जाओ बाकि की बाद में दूंगा। निर्मल आयी उसके पाँव ख़ुशी के मारे ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। कुमार साहब के पाँव छुए उनका आशीर्वाद लिया और चली गयी। डाक्टर साहब ने निर्मल को वो सब कुछ दिया जो एक पिता अपनी बेटी को और उस्ताद अपने शागिर्द को दे सकता है।

 दिल के पहले पन्ने पर तुम ही तुम हो 
 क्या तुम मेरे सारे पन्ने भर दोगे 

 ऐसा लगता है मैं छूट गयी हूँ कहीं 
 तुमको मिल जाऊं तो वापिस कर दोगे 

 मैं घर की इज़्ज़त हूँ ज़ीनत हूँ ज़र हूँ 
 क्या तुम मुझको इल्मो-अदब का घर दोगे 

 निर्मल जी बहुत कम बोलती हैं ,और अपने बारे में तो बिल्कुल भी नहीं। ऊपर से कठोर लेकिन भीतर से बेहद नाज़ुक़ मिज़ाज़ की निर्मल जी ने ये रूप जान बूझ कर धरा है वो कहती हैं कि आज के ज़माने को देखते हुए ये बहुत जरूरी है। ये कठोरता एक रक्षा कवच है जो समाज में पाए जाने वाले मौका परस्तों को उनसे दूर रखता है। खुद्दार और जुझारू प्रवति की निर्मल ने 43 वर्ष की उम्र में एक्टिवा चलाना सीखा और फिर कार। उनसे वो महिलाएं प्रेरणा ले सकती हैं जो बढ़ती उम्र की आड़ ले कर अपनी कमज़ोरियाँ छुपाती हैं और अपने ख़्वाबों की पोटली बना कर घर के बाहर रखे सरकारी कूड़े दान में फेंक देती हैं।अगर आप में अपने सपनो को साकार करने की शिद्दत से चाह है तो फिर दुनिया की कोई ताकत आपकी राह नहीं रोक सकती। स्वभाव से हँसमुख और मस्त रहने वाली निर्मल जी ने जीवन में आयी अनेक कड़वाहटों का दौर सफलता पूर्वक झेला है और विजयी बन के निकली हैं।

 तू जरूरी है मुझे ज़ीस्त बनाने के लिए
 ज़ीस्त लग जाएगी तुझको ये बताने के लिए 

 सुनते हैं हिज़्र बिना इश्क मुकम्मल ही नहीं 
 दूर हो जाओ ज़रा इश्क निभाने के लिए 

 मसअला बात के जरिये भी सुलझ जाता, पर 
 खार ही काम आया खार हटाने के लिए 

 निर्मल जी किसी मुशायरे में नहीं जातीं, किसी पत्रिका या अखबार में अपनी ग़ज़लें नहीं भेजती क्यूंकि वो अंतर्मुखी हैं उनका आत्म प्रचार में विश्वास नहीं। उनके शुभचिंतक ही उनकी रचनाएँ इधर उधर भेजते रहते हैं। आज की दुनिया में नाम कमाने के लिए आपको खुद को बेचने का हुनर आना चाहिए, अपने फायदे के लिए दूसरों का इस्तेमाल करना भी आना चाहिए। संस्कार और अध्यात्म में गहरी रूचि के चलते वो चाह कर भी ऐसा नहीं कर पातीं जो है जैसा है उसमें ही बहुत खुश रहने में उनका गहरा विश्वास है। निर्मल जी की ज़िन्दगी में जो भी घटनाएं हुई हैं वो अचानक ही हुई हैं ,शायरी भी अचानक ही उनके जीवन में उतरी। शायरी को एक बोझिल और समय की बर्बादी समझने वाली निर्मल ने आज शायरी के माध्यम से अपनी पहचान बनाई है।

 जरा सी धूप के आसार कर दो 
 तुम्हारी याद पे काई जमी है 

 अकेला है वो मुझसे दूर रह कर 
 मुझे इस बात की बेहद ख़ुशी है 

 मिरी इक राय है मानों अगर तुम 
 जिसे देखा नहीं वो ही सही है 

 ऐनी बुक के पराग अग्रवाल की मैं इसलिए तारीफ करता हूँ कि उन्हें नए अनजान शायरों की किताबें छापने से गुरेज़ नहीं होता। बेहद दिलकश आवरण में लिपटी ये किताब जिसमें निर्मल जी की 100 से अधिक ग़ज़लें संगृहीत हैं ,दूर से ही पाठकों को अपनी और आकर्षित करती है। इस किताब को पाने के लिए आप पराग जी से 9971698930पर संपर्क करें।ये किताब अमेजन पर भी ऑन लाइन उपलब्ब्ध है। इस किताब को निर्मल जी ने अपने पिता स्वर्गीय चौधरी रामचन्दर सिंह जी को, जो प्रसिद्ध स्वतंत्रता सैनानी और समाजसेवी भी थे ,समर्पित किया है। आप इसे ध्यान से पढ़ें और निर्मल जी को इन लाजवाब ग़ज़लों के लिए 9416931642 पर फोन कर बधाई भी दें। और अब आखिर में पढ़िए निर्मल जी उस ग़ज़ल के चंद शेर जिसे उनसे हमेशा फरमाइश करके बार बार सुना जाता है और जिसने डा. कुमार जैसे ग़ज़ल पारखी को भी हैरान हो कर दाद देने पर मज़बूर कर दिया था :

 बूँद का रक्स आग पर देखो 
 जान जाओगे इश्क क्या शय है 

 कह रहे हैं ख़ुदा के क़ातिल भी 
 ज़र्रे-ज़र्रे में अब भी है ! है ! है ! 

 हाथ में किसके है कोई लम्हा 
 वक़्त हर शय का आज भी तय है

किताबों की दुनिया - 189

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रह के दुनिया में है यूँ तर्के-हवस की कोशिश
जिस तरह अपने ही साये से गुरेज़ाँ होना 
 तर्के-हवस=इच्छाओं का त्याग, गुरेज़ाँ =भागना

 ज़िन्दगी क्या है ?अनासिर में ज़हूरे-तरतीब 
 मौत क्या है ? इन्हीं अजज़ा का परीशां होना 
 अनासिर=पंच तत्व , ज़हूरे तरतीब = संगठित होना , अजज़ा =टुकड़ों ,परीशाँ =विघटन 

 दफ़्तरे-हुस्न पे मोहरे-यदे-क़ुदरत समझो 
 फूल का ख़ाक के तूदे से नुमायां होना 
 मोहरे-यदे-क़ुदरत= प्रकृति के हाथ की छाप , तूदे=ढेर 

 दिल असीरी में भी आज़ाद है आज़ादों का 
 वलवलों के लिए मुमकिन नहीं ज़िन्दा होना 
 असीरी=क़ैद , ज़िन्दा=क़ैद

 ज़िन्दगी क्या है ?- जैसा शेर उर्दू के कालजयी शेरों में शुमार होता है इस हिसाब से तो इसके शायर का नाम भी कालजयी होना चाहिए था -लेकिन हुआ नहीं। मीर-ओ-ग़ालिब के चलते ऐसे बहुत से शायरों को जिनका कलाम मयारी और क़ाबिले रश्क था अनजाने में या जानबूझ कर किसी सोची समझी साजिश के तहत भुला दिया गया। शायद इसलिए कि उनकी मादरी ज़बान उर्दू फ़ारसी या अरबी नहीं थी -वजह जो भी रही हो लेकिन इसका खामियाज़ा उर्दू शायरी के अनगिनत चाहने वालों को भुगतना पड़ा - वो ऐसे अनेक शायरों के बेजोड़ कलाम तक नहीं पहुँच पाए जिन्हें उन तक पहुंचना चाहिए था। इतना ही नहीं इनका कलाम सिर्फ उर्दू ज़बान जानने वालों तक ही सीमित रहा। आज के हिंदी पढ़ने लिखने वाले युवाओं ने तो शायद ये नाम सुना भी न हो।

 ज़बाँ को बंद करें या मुझे असीर करें 
मिरे ख़याल को बेड़ी पिन्हा नहीं सकते 
असीर =कैद ,पिन्हा=पहना 

 ये कैसी बज़्म है और कैसे उस के साक़ी हैं 
शराब हाथ में है और पिला नहीं सकते 

 ये बेकसी भी अजब बेकसी है दुनिया में 
कोई सताए हमें, हम सता नहीं सकते 

 आज हम जिस शायर और उसकी उस शायरी की किताब की बात कर रहे हैं जिसे राजपाल एन्ड साँस ने 'लोकप्रिय शायर"श्रृंखला के अंतर्गत प्रकाशित किया था। शायर का नाम है "पंडित ब्रजनारायण चकबस्त"जो एक कश्मीरी ब्राह्मण खानदान के घर 19 जनवरी 1882 को उत्तर प्रदेश के फैज़ाबाद में पैदा हुए -जी हाँ आज से करीब 136 साल पहले। उर्दू फ़ारसी ज़बान घर पर सीखी और अंग्रेजी पढ़ने के लिए स्कूल में दाखिल हुए। प्रारंभिक शिक्षा उन्होंने फैज़ाबाद में ही ली। उनके पिता उस वक्त डिप्टी कलेक्टर थे जो किसी भी भारतीय के लिए सिविल सेवा में उच्चतम पोस्ट हुआ करती थी। उनके पिता उदित नारायण शायरी भी किया करते थे। पिता की असामयिक मृत्यु के बाद उनका परिवार लखनऊ आ बसा। उन्होंने 1905 में कैनिंग कालेज लखनऊ से बी.ऐ किया और वहीँ से वकालत की परीक्षा पास करके 1908 से बाकायदा वकालत करने लगे. चकबस्त बेहद मेहनती ,समझदार और लगन के पक्के थे लिहाज़ा उनकी वकालत चल निकली और उनका नाम लखनऊ के मशहूर वकीलों में शामिल हो गया। पेशे से वकील लेकिन दिल से शायर ब्रजनारायण ने मात्र 9 साल की उम्र में पहली ग़ज़ल कही। इसे कहते हैं पूत के पाँव पालने में दिखाई देना।


 जहाँ में आँख जो खोली फ़ना को भूल गये 
 कुछ इब्तदा ही में हम इन्तहा को भूल गये 
 फ़ना=मौत , इब्तदा = शुरुआत , इन्तहा=अंत 

 निफ़ाक़ गब्रो-मुसलमां का यूँ मिटा आखिर 
 ये बुत को भूल गए वो खुदा को भूल गये 
 निफ़ाक़ = दुश्मनी , गब्रो-मुसलमां= हिन्दू मुसलमान

 ज़मीं लरज़ती है बहते हैं ख़ून के दरिया
 ख़ुदी के जोश में बन्दे खुदा को भूल गये

 चकबस्त साहब ने कभी किसी को उस्ताद नहीं बनाया क्यूंकि होता ये है कि लाख कोशिशों के बावजूद आपकी शायरी में आपके उस्ताद का अक्स नज़र आ ही जाता है। बिना उस्ताद के शायरी करना उर्दू कविता की परम्परा के अनुसार सही नहीं है लेकिन साहब कोई चकबस्त जैसा इन्सान ही ऐसा हौसला कर सकता है। एक तो हिन्दू ऊपर से बिना किसी उस्ताद के सहारे के मयारी अशआर कहना कोई आसान काम नहीं था। उस ज़माने में बिना किसी उस्ताद के सहारे अपनी पहचान बनाना मुश्किल काम रहा होगा। उस्ताद की जगह उन्होंने सीखने के लिए पुराने शायरों जैसे मीर, आतिश, ग़ालिब, अनीस आदि को खूब पढ़ा। जो लोग बिना दूसरों को पढ़े ये सोचते हैं कि वो बेहतरीन शायर बन सकते हैं वो जरूर किसी ग़लतफहमी में हैं.

 कमाले-बुजदिली है पस्त होना अपनी आँखों में 
 अगर थोड़ी सी हिम्मत हो तो फिर क्या हो नहीं सकता 

 उभरने ही नहीं देती यहाँ बेमायगी दिल की 
 नहीं तो कौन कतरा है जो दरिया हो नहीं सकता 
 बेमायगी=निर्धनता 

 चकबस्त साहब ने ग़ज़लें बहुत कम कही हैं यही कुल जमा 50 के करीब लेकिन जो जितनी कही हैं वो बेजोड़ हैं। उन्होंने नज़्में खूब लिखी और बाद में तो उनके लेखन में देश प्रेम सर्वोपरि हो गया। उन्होंने अपनी पूरी काव्य प्रतिभा को देश के लिए लुटा दिया अगर उनकी रचनाओं से राष्ट्रीयता के तत्व को निकाल दें तो बाकि कुछ खास नहीं बचता। देशप्रेम प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उनकी सभी रचनाओं में दिखाई देता है। वो सच्चे देशभक्त तो थे लेकिन उनका विश्वास राजनीतिक क्रांति में नहीं था। बहरहाल उनके विचार चाहे जो कुछ हों उनके देश प्रेम की सच्चाई और गहराई में कोई संदेह नहीं किया जा सकता।

 रहेगी आबो-हवा में ख्याल की बिजली 
 ये मुश्ते-ख़ाक है फानी रहे रहे न रहे 

 जो दिल में ज़ख्म लगे हैं वो खुद पुकारेंगे 
 ज़बाँ की सैफ-बयानी रहे रहे न रहे 
 सैफ-बयानी= तेजी 

 जो मांगना हो अभी मांग लो वतन के लिए 
 ये आरज़ू की जवानी रहे रहे न रहे 

 चकबस्त साहब ने अपनी ग़ज़लों को अद्भुत रंगों में ढाला है. 'आतिश'की चुस्त बंदिश के साथ उन्होंने 'ग़ालिब'की दार्शनिकता का पुट देकर अपनी ग़ज़लों के लिए में नयी राह बनायीं। ग़ज़ल में उनसे पहले के शायरों द्वारा कहे जाने वाले वैयक्तिक प्रेम के विषय से अलग ही विषयों का प्रयोग किया। उनकी ग़ज़लों में नरमी ,करुणा , व्यापकता और गागर में सागर भरने की अनूठी क्षमता पूरी तरह से कायम है। इसीलिए उन्हें पढ़ने से दिमाग पर किसी तरह का बोझ नहीं पड़ता और आंनद की अनुभूति भी हो जाती है।

 ये हयात आलमे-ख़्वाब है , न गुनाह है न सवाब है
 वही कुफ्रो-दीं में ख़राब है जिसे इल्मे-राजे-जहां नहीं 
 कुफ्रो-दीं =इस्लाम के अलावा , इल्मे-राजे-जहां=संसार के रहस्य 

 वो है सब जगह जो करो नज़र , वो कहीं नहीं जो है बे-बसर
 मुझे आजतक न हुई खबर वो कहाँ है और कहाँ नहीं 
 बे-बसर=न देखने वाला 

 वो ज़मीं पे जिनका था दबदबा कि बुलंद अर्श पे नाम था 
 उन्हें यूँ फ़लक ने मिटा दिया कि मज़ार तक का निशां नहीं 

 20 वीं सदी में उस वक्त जब भाषा को मजहब में बांटा जा रहा था चकबस्त साहब ने रामायण को अपने अनूठे ढंग से उर्दू में काव्य की सूरत में लिखा। उनकी लिखी रामायण के तीन हिस्से उर्दू साहित्य में बहुत ऊंचा स्थान रखते हैं। पाठक इसे इंटरनेट की वेब पत्रिका 'कविता कोष'में पढ़ सकते हैं। चकबस्त बहुत संवेदन शील शायर थे उन्होंने समाज और इंसान के बिगड़ते-संवरते विषयों पर उर्दू के अनेक पत्र पत्रिकाओं में कई लेख लिखे जो बहुत सराहे गए।उनकी विभिन्न काव्य विधाओं का संकलन लगभग 15 वर्ष पूर्व "सुबह वतन "शीर्षक से उनकी पोती उमा चकबस्त ने प्रकाशित करवाया। चकबस्त साहब लखनऊ के कश्मीरी मोहल्ले में , जहाँ वो रहते थे , हर साल नियम से ऑल इण्डिया मुशायरे का आयोजन करवाया करते थे ,जिसमें शिरकत करना हर बड़े शायर का सपना हुआ करता था। अपने बारे में कहे उनके इन अशआरों को पढ़ कर चकबस्त साहब की सोच का अंदाज़ा हो जाता है :

 जिस जा हो ख़ुशी, है वो मेरी मंज़िले-राहत
 जिस घर में हो मातम वो अज़ाख़ाना है मेरा
 जा =तरफ , अज़ाख़ाना =रोने की जगह

 जिस गोशाए-दुनिया में परस्तिश हो वफ़ा की 
 काबा है वही और वही बुतखाना है मेरा 
 परस्तिश=पूजा 

 मैं दोस्त भी अपना हूँ उदू भी हूँ मैं अपना 
 अपना है कोई और न बेगाना है मेरा 
 उदू =दुश्मन 

 ‘खाक-ए-हिन्द’, ‘गुलजार-ए-नसीम’, ‘रामायण का एक सीन’ (मुसद्दस), ‘नाल-ए-दर्द’, नाल-ए-यास’ और कमला (नाटक) ‘चकबस्त’ की प्रमुख रचनाएं हैं। 1983 में जन्मशती के अवसर पर उनका समग्र साहित्य ‘कुल्लियाते चकबस्त’ नाम से कालिदास गुप्ता ‘रजा’ के संपादन में प्रकाशित हुआ। लेकिन अब फैजाबाद स्थित उनकी जन्मस्थली में उनकी स्मृतियों और साहित्य के संरक्षण का सिर्फ एक ही उपक्रम है – वह लाइब्रेरी जिस पर मीर बबरअली अनीस के साथ पंडित बृजनारायण ‘चकबस्त’ का नाम भी चस्पां है और जिसे अवध की सांप्रदायिक एकता की अनूठी मिसाल माना जाता है।

 है शौक़ की मंज़िल यही दुनिया के सफर में 
 क्या ख़ाक जवानी है जो सौदा नहीं सर में 
 सौदा =उन्माद

 दुनिया मेरे नाले से खिंच आती है क़फ़स तक 
 मेला सा लगा रहता है सय्याद के घर में 

 रहती हैं उमंगें कहीं ज़ंज़ीर की पाबंद 
 हम कैद हैं ज़िंदा में बियाबां है नज़र में 
 ज़िंदा =कैदखाना 

 पंडित बृजनारायण ‘चकबस्त’। अल्लामा इकबाल के बेहद गहरे दोस्त। दोनों की दोस्ती कितनी गहरी थी इसका अंदाजा इस बात से होता है कि इकबाल मुंबई में मलाबार हिल्स पर रहने वाली अपनी प्रेमिका अतिया फैजी (राजा धनराजगीर के सेक्रटरी अंकल फैजी की बहन) से मिलने जाते तो भी चकबस्त को साथ ले जाते।धनराजमहल में शाम की महफिलें जमतीं तो ‘चकबस्त’ झूम-झूम कर कलाम सुनाते। बाद में उन्हें उर्दू के आधुनिक कविता स्कूल के संस्थापकों में से एक माना जाने लगा और उन्होंने आलोचना, संपादन व शोध के क्षेत्रों में भी भरपूर शोहरत पाई।

 उसे यह फ़िक्र है हरदम नया तर्ज़े-ज़फ़ा क्या है
 हमें ये शौक है देखें सितम की इंतिहा क्या है 
 तर्ज़े जफ़ा =अत्याचार /जुल्म 

 गुनहगारों में शामिल हैं गुनाहों से नहीं वाकिफ़
 सजा को जानते हैं हम ,खुदा जाने खता क्या है 

 नया बिस्मिल हूँ मैं , वाकिफ नहीं रस्मे-शहादत से 
 बता दे तू ही , ऐ ज़ालिम ! तड़पने की अदा क्या है 
बिस्मिल =घायल , रस्मे-शहादत = शहीद होने की रस्म 

 लखनऊ में ही वे प्रसिद्ध उर्दू निबंधकार अब्दुल हलीम ‘शरर’ से एक बहुचर्चित साहित्यिक विवाद में उलझे। दरअसल, उन्होंने 1905 में ‘गुलजार-ए-नसीम’ नाम से शायर दयाशंकर कौल ‘नसीम’ (1811-1843) की रचनाओं का संग्रह प्रकाशित किया तो शरर ने यह कहकर उनकी तीखी आलोचना की कि उन्होंने झूठ-मूठ ही नसीम की प्रशंसा के पुल बांधे हैं और उनको ‘गुल-ए-बकावली’ का रचयिता बता दिया है। शरर के अनुसार ‘गुल-ए-बकावली’ वास्तव में आतिश लखनवी की रचना थी। बाद में यह मामला अदालत तक गया, जिसमें चकबस्त ने अपना सफल बचाव किया .

दिल ही की बदौलत रंज भी है दिल ही की बदौलत राहत भी
 यह दुनिया जिसको कहते हैं दोज़ख भी है और जन्नत भी

 अरमान भरे दिल खाक हुए और मौत के तालिब जीते हैं
 अंधेर पे इस दुनिया के हमें आती है हंसी और रिक़्क़त भी
 तालिब =इच्छुक , रिक़्क़त =रोना

 या ख़ौफ़े-खुदा या ख़ौफ़े-सकर हैं दो ही बयां तेरे वाइज़
 अल्लाह के बन्दे ! दिल में तेरे है सोज़ो-गुदाज़े-मुहब्बत भी
 ख़ौफ़े-खुदा =ईश्वर का डर ,ख़ौफ़े-सकर =नर्क का डर , वाइज़ =धर्मोपदेशक, सोज़ो-गुदाज़े-मुहब्बत =प्रेम की नरमी

 उन्होंने 12 फ़रवरी 1926 के तीसरे पहर रायबरेली में एक मुक़दमे की पैरवी की और शाम 6 बजे की ट्रेन से लखनऊ आने के लिए उसमें बैठे ही थे कि अचानक उनपर दिमागी फालिज का तेज दौरा पड़ा और उनकी ज़बान बंद हो गयी। साथियों ने उन्हें प्लेटफॉर्म पर उतारा यथासंभव उपचार की व्यवस्था की गयी लेकिन सफलता नहीं मिली। डाक्टर द्वारा स्टेशन पर ही दो घंटों की भरसक कोशिशों के बावजूद मात्र 44 की उम्र में उर्दू शायरी का ये चमकता हुआ सितारा अंग्रेजी की एक कहावत कि "जिन्हें भगवान् प्यार करता है वे नौजवानी में मर जाते हैं "को चरितार्थ करते हुए अचानक बुझ गया। उम्र दराज़ लोग मेरी बात को अन्यथा न लें मैंने तो एक कहावत का जिक्र किया है। लखनऊ में नहीं बल्कि पूरे उर्दू जगत में इस खबर से शोक छा गया .

अगर दर्द-ए-मोहब्बत से न इंसाँ आश्ना होता
 न कुछ मरने का ग़म होता न जीने का मज़ा होता 

 बहार-ए-गुल में दीवानों का सहरा में परा होता 
जिधर उठती नज़र कोसों तलक जंगल हरा होता

 मय-ए-गुल-रंग लुटती यूँ दर-ए-मय-ख़ाना वा होता
 न पीने की कमी होती न साक़ी से गिला होता 

हज़ारों जान देते हैं बुतों की बेवफ़ाई पर 
अगर उन में से कोई बा-वफ़ा होता तो क्या होता 

 रुलाया अहल-ए-महफ़िल को निगाह-ए-यास ने मेरी 
क़यामत थी जो इक क़तरा इन आँखों से जुदा होता 

 चकबस्त साहब की कोई किताब देवनागरी में उपलब्ध है या नहीं मैं नहीं बता सकता क्यूंकि जिस किताब की चर्चा मैं कर रहा हूँ वो अब राजपाल एन्ड संस पर उपलब्ध नहीं है। उनकी ग़ज़लें आप रेख़्ता या कविता कोष की वेब साइट पर पढ़ सकते हैं या फिर गूगल से पूछें शायद वो कोई मदद कर पाए मुझे तो उसने अंगूठा दिखा दिया है। आईये पढ़ते हैं चकबस्त के कुछ चुनिंदा शेर और निकलते हैं किसी नयी किताब की तलाश में :

 उलझ पड़ूँ किसी के दामन से वह खार नहीं,
 वह फूल हूँ जो किसी के गले का हार नहीं।
 ***
 कौम का गम लेकर दिल का यह आलम हुआ,
 याद भी आती नहीं, अपनी परीशानी मुझे।
 ***
 जिन्दगी और जिन्दगी की यादगार,
पर्दा और पर्दे के पीछे कुछ परछाइयाँ।
***
बादे-फना फिजूल है, नामों-निशां की फिक्र,
जब हम नहीं रहे तो रहेगा मजार क्या। .
बादे-फना - मृत्यु के बाद
***
मुहब्बत है मुझे बुलबुल के गमअंगेज नालों से,
चमन में रह के मैं फूलों का शैदा हो नहीं सकता।
 गमअंगेज - गम बढ़ाने वाला, नाला - फरियाद, शैदा - आशिक
 ***
 हमारे और ज़ाहिदों के मज़हब में फ़र्क अगर है तो इस क़दर है  
कहेंगे हम जिसको पासे-इंसां वो उसको खौफ़े-ख़ुदा कहेंगे 
  ***
आशना हों कान क्या इंसान की फ़रियाद से
 शेख़ को फ़ुरसत नहीं मिलती खुदा की याद से

किताबों की दुनिया - 190

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 सच बात मान लीजिये चेहरे पे धूल है
 इलज़ाम आइनों पे लगाना फ़ुज़ूल है

 उस पार अब तो कोई तेरा मुन्तज़िर नहीं
 कच्चे घड़े पे तैर के जाना फ़ुज़ूल है

 जब भी मिला है ज़ख्म का तोहफा दिया मुझे
 दुश्मन जरूर है वो मगर बा-उसूल है

 उर्दू गुलिस्तां में एक से बढ़ एक बुलबुले हुई हैं जिनकी शायरी को लोगों ने पसंद तो किया लेकिन याद नहीं रखा। कारण ये रहा कि उन्होंने अपनी शायरी में कमो-बेस वो ही सब कुछ कहा जो की मर्द शायर कह रहे थे। फ़र्क इतना था कि शायर मेहबूबा को लेकर आंसू बहा रहे थे और शायरायें महबूब को लेकर। मुशायरों के मंच पर शायरा को एक सजी धजी गुड़िया के रूप में पेश किया जाता रहा है जो तरन्नुम और अपने हुस्न से सामयीन के दिलों पर कब्ज़ा करने की कोशिश करती थीं। आज भी हालात कुछ कुछ वैसे ही हैं लेकिन आधी आबादी की नुमाइंदगी कर रहीं शायराओं में से कुछ ने अपनी शायरी में उन अहसासात और ज़ज़्बात को पिरोना शुरू किया जो शायर की सोच के बाहर थे। इस सिलसिले में लिए जाने वाले नामों में पाकिस्तान की शायरा परवीन शाक़िर का नाम सबसे ऊपर है उन्होंने शायरी में जो मुकाम हासिल किया है उसकी कोई मिसाल नहीं। आज हमारे यहाँ भी गिनती की कुछ शायरा हैं जिनका कलाम उर्दू शायरी के किसी भी मोतबर शायर के कलाम से कम नहीं आँका जा सकता।

कौन चक्कर लगाए दुनिया के
 कम नहीं होते सात फेरे भी

 मेरी साँसों को जोड़ने वाले
 है तुझे हक़ मुझे बिखेरे भी

 इतनी ज़हरीली साज़िशें होंगी
 डस लिए जायेंगे सपेरे भी

 मेरी आँखों में जागने वाले
 टूट सकते हैं ख़्वाब तेरे भी

 हमारी आज की शायरा भी उसी फेहरिश्त में हैं जिनके कलाम ने सामिईन के दिल में जगह बनाई हुई है लोग उन्हें देखने सुनने को हमेशा मुशायरों में मौजूद रहते हैं। बात सन 1977 के एक मुशायरे की है जब मंच से एक नाम पुकारा जाता है और मंच पर बैठी एक पंद्रह साल की कमसिन सी लड़की माइक के सामने आ खड़ी होती है। उसके चलने और माइक के सामने खड़े होने में उसका अपने आप पर बला का भरोसा नज़र आता है। उसकी उम्र को देखते हुए लोग उसे बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं देते लेकिन इस बात की परवाह न करते हुए वो अपना गला साफ़ कर तरुन्नम में अपना कलाम पढ़ती है. लोग हैरान हो जाते हैं और उनकी सारी तवज्जो अब उस लड़की के कलाम पर हो जाती है। तालियां हैं कि थमने का नाम नहीं लेती। उस मुशायरे में जिस लड़की ने उर्दू अदब में अपनी शिरकत करने का ऐलान सरे आम कर दिया था उसका नाम है "अंजुम रहबर"जिनकी किताब "मलमल कच्चे रंगों की"मेरे सामने है।


 कहीं रास्ते में उसने मेरा हाथ छू लिया था
 तो कलाइयों के कंगन कई रोज़ खन-खनाये

 तुझे क्या खबर कि मैंने शबे हिज़्र कैसे काटी
 कभी नाविलें पढ़ी हैं कभी गीत गुनगुनाये

 मेरी इक तमन्ना 'अंजुम'कभी हो सकी न पूरी
 कि मैं उससे रूठ जाऊँ मुझे आके वो मनाये

 "अंजुम रहबर"मध्य प्रदेश के गुना जिले में 17 सितम्बर 1962 को पैदा हुईं। पढ़ने में होशियार अंजुम ने उर्दू में एम्. ऐ की डिग्री हासिल की। अंजुम जैसे शायरी के लिए ही पैदा हुई हैं। 1977 से आज तक याने लगभग 40 वर्षों से लगातार उनकी मंच पर मौजूदगी किसी भी मुशायरे की कामयाबी मानी जाती है। कारण जानना बहुत आसान है उन्हें सुन कर ही आपको उनकी सफलता का राज़ पता चल जायेगा। दरअसल अंजुम रहबर के गीतों और ग़ज़लों की भाषा सरल और स्पष्ट है जिसे हिन्दी का आम पाठक श्रोता भी आसानी से समझ सकता है।

मेरी आँखों तुम्हें रोने का सलीका भी नहीं
 रोज दरियाओं में सैलाब नहीं आते हैं

 कुछ तो दुनिया ने यहाँ मौत बिछा रक्खी है
 कुछ हमें जीने के आदाब नहीं आते हैं

 ये भी इक किस्म का संगीन मरज़ है 'अंजुम'
 नींद आती है मगर ख़्वाब नहीं आते हैं

 उनकी सभी रचनायें जीवन और जगत के विभिन्न रस-रंगों, सुख-दुख, दर्द और आनन्द की लहरों में अविरल गतिमान रहती हैं तथा हर आम और हर खास इंसान को उसकी हकीकत से रुबरु कराती हैं। यह जज़्बाती पाकीज़गी के साथ मुहब्बत का अहसास कराती हुई चलती है। इस किताब के बारे में बशीर बद्र लिखते हैं कि "ग़ज़लों की ये किताब शायरी की शानदार कद्रों का बेहतरीन नमूना है, जिसमें बोली जाने वाली सादा और तहदार ज़बान में उनका फन गज़ल की खूबसूरत ज़िन्दा रिवायतों और सच्ची जिद्दतों के मिले-जुले रंगों से वुजूद में आया है। हमारे अहद की शायरात की शायरी की तारीख़ इस किताब के ज़िक्र के बग़ैर नामुक्कमल रहेगी "

 तूफ़ान पर लिखे थे मेरे दोस्तों के नाम 
 कश्ती को साहिलों की तरफ मोड़ना पड़ा 

 मेरी पसंद और थी सबकी पसंद और 
 इतनी ज़रा सी बात पे घर छोड़ना पड़ा 

 'अंजुम'मैं क़ैद जिस्म की दीवार में रही 
 अपने बदन से अपना ही सर फोड़ना पड़ा 

 अंजुम की बढ़ती लोकप्रियता से प्रभावित हो कर उस काल में बहुत सी शायराओं ने उनके जैसी बनने की कोशिश की। आप यूँ समझें कि लता मंगेशकर के काल में न जाने कितनी गायिकाओं ने उनके जैसे गाने की कोशिश की है लेकिन लता लता ही रही। लता के पास सुर तो थे ही सबसे बड़ी बात उनके गाने में जो अदायगी थी जो भावनाएं पिरोयी गयीं थीं वो सुनने वाले को अपनी लगती थीं तभी तो वो लता बनी रहीं। आप सुर में उनकी भले नक़ल कर लें लेकिन गायन में वैसे भाव कैसे लाएंगे , ठीक इसी तरह अगर कोई अंजुम जैसी तरन्नुम से या उस से भी बेहतर तरन्नुम से अपनी रचनाएँ सुनाएँ उसको क्षणिक सफलता तो भले ही मिल जाए लेकिन लगातार सफलता नहीं मिल सकती। अंजुम साहिबा के पास बेहतरीन तरन्नुम तो है ही साथ में वो अलफ़ाज़ और अहसासात हैं जो उनके फ़न में चार चाँद लगा देते हैं।

 तन्हाइयों के दोश पे यादों की डोलियाँ 
 जंगल में जैसे निकली हों हिरणों की टोलियां 
 दोश =कंधे 

 कुर्बान मैं तुम्हारे लबों की मिठास पर 
 अंगूर जैसी लगती हैं कड़वी निबोलियाँ 

 यूँ गुदगुदा रहे हैं मेरे दिल को तेरे हाथ 
 आंगन में जैसे कोई बनाये रंगोलियां 

 सन 1988 में उनकी शादी लाज़वाब शायर जनाब राहत इंदौरी साहब से हुई. उनसे उन्हें एक बेटा "समीर राहत"भी हुआ लेकिन ये शादी अधिक टिकी नहीं और 1993 में दोनों अलग हो गये। अंजुम साहब की ज़िन्दगी अब अपने बेटे और शायरी को समर्पित हो गयी। देश-विदेश से उन्हें शिरकत के लिए पैगाम आने लगे और वो शोहरत की बुलंदियों पर जा बैठीं। देश के प्रसिद्ध कवि स्वर्गीय गोपाल दास 'नीरज'ने उनके बारे में लिखा है कि "अंजुम रहबर की रचनाओं में जहां वैयक्तिक अनुभूतियों की मिठास, कड़वाहट और रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का रसपूर्ण मिश्रण है, वहीं आज के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक विकृतियों और विद्रुपताओं की भी मार्मिक अभिव्यक्ति है। निश्चित ही जो भी पाठक इन रचनाओं में झांकेगा उसे अवश्य ही अपना और अपने समाज का कोई न कोई रुप अवश्य दिखाई देगा।’

 बस्ती के सारे लोग ही आतिश परस्त थे 
 घर जल रहा था और समन्दर करीब था 

 दफ़्ना दिया गया मुझे चांदी की कब्र में 
 मैं जिसको चाहती थी वो लड़का ग़रीब था 

 अंजुम मैं जीत कर भी यही सोचती रही 
 जो हार कर गया है बहुत खुश नसीब था 

 अंजुम रहबर साहिबा ने मुशायरों के अलावा टेलीविजन के अनेक चेनल्स जैसे ABP न्यूज ,सब टी.वी ,सोनी पल , ई टी.वी नेटवर्क ,डी डी उर्दू आदि में अपनी रचनाओं का पाठ किया है. उन्हें 1986 में इंदिरा गाँधी अवार्ड ,राम-रिख मनहर अवार्ड साहित्य भर्ती अवार्ड ,हिंदी साहित्य सम्मेलन अवार्ड ,अखिल भारतीय कविवर विद्यापीठ अवार्ड ,दैनिक भास्कर अवार्ड , चित्रांश फ़िराक़ गोरखपुरी अवार्ड और गुना का गौरव अवार्ड से सम्मानित किया गया है। सब से बड़ा अवार्ड तो मंच से उन्हें सुनते हुए बजने वाली वो तालियाँ हैं जो उनके चाहने वाले बजाते नहीं थकते।

 तेरी पलक पे इक आंसू की तरह ठहरी हूँ 
 मैं कहीं ख़ाक न हो जाऊं बचाले मुझको 

 तेरे चेहरे पे नज़र आती है सूरत मेरी 
 अब तुझे देखते हैं देखने वाले मुझको 

 है मोहब्बत की लड़ाई भी मोहब्बत 'अंजुम'
  जब भी जी चाहे वो आ जाये मना ले मुझको 

 अंजुम साहिबा की शायरी मोहब्बत में डूबी हुई शायरी है उन्हें पढ़ते सुनते हुए वही आनंद आता है जो शहद चखते हुए आता है क्यूंकि उसमें पता नहीं चलता की गुलाब चंपा चमेली गुलमोहर रातकी रानी मोगरे का रस कितना और कहाँ घुला हुआ है। मधुमख्खी की तरह वो अलग अलग ज़ज़्बातों के फूलों का रस अपनी शायरी में बहुत हुनर से घोल देती हैं। मशहूर शायर जनाब मुनव्वर राणा साहब लिखते हैं कि "अंजुम रहबर उम्र के उस हिस्से से निकल आई हैं जहां संजीदगी पर हँसी आती है, बल्कि अब उनकी हँसी में भी एक संजीदगी होती है और संजीदगी को जब ग़ज़ल की शाहराह मिल जाती है तो गज़ल इक बाविकार औरत की सहेली बन जाती है। जज़्बात की पाकीज़ा तरजुमानी, लहजे का ठहराव और अश्कों की रौशनाई से ग़ज़ल के हाथ पीले करने के हुनर ने उन्हें सल्तनत-ए-शायरी की ग़ज़लज़ादी बना दिया है। वो जिस सलीके, एहतराम और यकीन के साथ दिलों पर हुकूमत करती हैं, अगर सियासतदां चाहें तो उनसे हुकूमत करने का हुनर सीख सकते हैं .

दिन रात बरसता हो जो बादल नहीं देखा 
 आँखों की तरह कोई भी पागल नहीं देखा 

 तुमने मेरी आँखों के क़सीदे तो लिखे हैं 
 लेकिन मेरा बहता हुआ काजल नहीं देखा 

 उसने भी कभी नींद से रिश्ता नहीं रखा 
 मैंने भी कोई ख़्वाब मुकम्मल नहीं देखा 

 "मलमल कच्चे रंगों की"का प्रकाशन सबसे पहले सं 1998 में रहबर साहिबा ने खुद ही करवाया था बाद में इसे मंजुल प्रकाशन भोपाल से प्रकाशित किया गया। आप इस किताब को जिसमें अंजुम साहिबा की लगभग 63 ग़ज़लें कुर कुछ गीत भी संकलित किये गए हैं, अमेज़न से तो ऑन लाइन मंगवा ही सकते हैं यदि ऐसा न करना चाहें तो मंजुल पब्लिशिंग हॉउस को 'सेकंड फ्लोर, उषा प्रीत काम्प्लेक्स ,42 मालवीय नगर भोपाल-462003 "के पते पर लिख सकते हैं। मंजुल की साइट www. manjulindia.com से भी इसे मंगवाया जा सकता है। अंजुम साहिबा को इस किताब के लिए आप उनके फेसबुक पेज पर जा कर बधाई दे सकते हैं। मेरे पास उनका मोबाईल नंबर नहीं है वरना जरूर देता। नयी किताब की तलाश पे निकलने से पहले मैं पढ़वाता हूँ आपको उनकी कुछ ग़ज़लों से चुने हुए ये शेर :

 पाजेब तोड़ देने में साज़िश उन्हीं की थी
 जो लोग कह रहे हैं कि झनकार भी गई
 ***
अंजुम तुम्हारा शहर जिधर है उसी तरफ
 इक रेल जा रही थी कि तुम याद आ गए
 ***
वो चाह कर भी किसी का शिकार कर न सका 
 वो एक तीर था लेकिन मेरी कमान में था
 ***
रौशनी आँखें जलाकर कीजिये
 चाँद को कब तक निचोड़ा जाएगा
 ***
छुपती कभी नहीं है मोहब्बत छुपाये से
 चूड़ी हो हाथ में तो खनकती जरूर है
 ***
वादा अगर करें तो भरोसा न कीजिये
 खुलकर नहीं बरसते वो बादल हैं लड़कियाँ
 ***
जो बिखरा था कभी सारे जहाँ में
 वो ग़म अब एक औरत बन गया है
 ***
हर क़दम देखभाल कर रखिये
 हादसे बेज़बान होते हैं
*** 
आँखों में मामता है तो घुँघरू हैं पाँव में 
 रक्कासा है कहीं, कहीं मरियम है ज़िन्दगी 

आपके कीमती वक्त को देखते हुए वैसे तो क़ायदे से तो इन फुटकर शेरों के साथ ही बात ख़तम हो जानी चाहिए थी लेकिन साहब कम्बख्त दिल कब क़ायदे मानता है ? तो क़ायदे को बाक़ायदा तोड़ते हुए मैं आपको अंजुम साहिबा की एक छोटी बहर की ग़ज़ल के ये शेर पढ़वा कर आपसे रुख़सत होता हूँ :

 तेरा फेरा तेरा चक्कर लगेगा 
 न जाने कब मेरा घर, घर लगेगा 

 वो पल भर के लिए आयेगा लेकिन
 संवरने में मुझे दिनभर लगेगा 

 जो है बिक जाने को तैयार 'अंजुम' 
वो कुछ दिन बाद सौदागर लगेगा।

किताबों की दुनिया -191

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नहीं है घर कोई ऐसा जहाँ उसको न देखा हो 
 कन्हैया से नहीं कुछ कम सनम मेरा वो हरजाई 

 मुहब्बत के करूँ भुजबल की मैं तक़रीर क्या यारो 
 सितम हो तो उसको उठा लेता है ज्यूँ राई 

 झंकाया था मुझे ज़ाहिद ने कूचा रंजे-दुनिया का 
 मुगां ने राहते-दुनिया की मुझको बात बतलाई 
 झंकाया=दिखाया, मुगां= साक़ी 

 पर इस से क्या कि तेरी ज़ुल्फ़ ने आरिज़ ने आँखों ने 
 पियारे बाँट ली बाहम मेरी आँखों की बीनाई 
 आरिज़=गाल, बाहम =आपस में 

 इंग्लैंड के प्रसिद्ध लेखक जनाब एच जी वेल्स ने सं 1895 में एक उपन्यास लिखा था जिसका नाम था "द टाइम मशीन "इसमें एक ऐसी मशीन का जिक्र था जिसमें बैठ कर आप अपने वर्तमान समय से पीछे या आगे के समय में जा सकते हैं। मुझे इस मशीन की कब से तलाश थी जो आज सुबह घूमते हुए मुझे एक कूड़ा पात्र में पड़ी मिली। किसने कब और क्यों इस मशीन को वहां फेंका इसका पता नहीं चल पाया। मैं तो देखते ही पहचान गया क्यूंकि टाइम मशीन उपन्यास को मैंने बचपन से अब तक न जाने कितनी बार पढ़ा होगा।मैंने फ़ौरन मशीन उठाई और उसे घर ले जाने लगा ,पार्क में घूम रहे लोग मेरी इस हरकत पे ठहाके लगाने लगे। मूर्ख अक्सर समझदार लोगों की हरकतों पर ठहाके लगाते ही हैं, ये कोई नयी बात तो है नहीं। घर आकर मशीन साफ़ की कुछ ढीले पेच कसे पुर्ज़ों में तेल दिया , सीट पर बैठा और स्टार्ट बटन दबा दिया।

 निकलके चौखट से घर की प्यारे जो पट के ओझल ठिठक रहा है 
 समट के चट से तेरे दरस को नयन में जियरा अटक रहा है 
 समट =सिमट 

 जिन्हों की छाती से पार बरछी हुई है रन में वो सूरमा है 
 बड़ा वो सावंत मन में जिसके बिरह का कांटा खटक रहा है 
 जिन्हों की =जिनकी 

 मुझे पसीना जो तेरे मुख पर दिखाई दे है तो सोचता हूँ 
 ये क्यों कि सूरज की जोत आगे हर एक तारा छिटक रहा है 

 बटन के दबते ही खट खट खटाक की आवाज़ें आयीं एक पंखा बहुत तेज़ी से घूमा और उसके बाद मुझे कुछ याद नहीं जब होश आया तो देखा मैं एक बाग़ में गिरा पड़ा हूँ कुछ लोग मुझे हैरत से देख रहे हैं और आपस में खुसुर-पुसुर कर रहे हैं। मैंने मरियल सी आवाज़ में पास ही खड़े लम्बी सफ़ेद दाढ़ी और अजीब सी कीमती पगड़ी पहने हुए एक बुजुर्गवार से पूछा कि मैं कहाँ हूँ तो वो मुस्कुराते हुए बोले "मियां तुम लखनऊ में हो नवाब आसफुद्दौला के महल के बाग़ में। "लखनऊ ? नवाब आसफुद्दौला ? मैंने हैरत से कहा लेकिन मन ही मन खुश भी हुआ कि टाइम मशीन काम कर रही है ,शायद जोश और ख़ुशी में मुझसे ही कोई गलत बटन दब गया होगा वरना मेरा इरादा लखनऊ वो भी आसफ़ुद्दौला के समय ,याने सन 1777 के आसपास, में आने का तो कतई नहीं था।

 आदम का जिस्म जबकि अनासिर से मिल बना 
 कुछ आग बच रही थी सो आशिक का दिल बना
 अनासिर -तत्व 

 जब तेशा कोहकन ने लिया हाथ तब ये इश्क़ 
 बोला कि अपनी छाती पे धरने को सिल बना
 तेशा =पत्थर काटने का हथियार, कोहकन =फ़रहाद 

 अपना हुनर दिखाएंगे हम तुझको ए शीशागर 
 टूटा हुआ किसी का अगर हम से दिल बना 

 मैंने फक्कड़ से उन बुजुर्गवार से पूछा कि अगर ये 1777 के आसपास का वक्त है तो मियां मीर तकी मीर साहब का आपको कुछ पता है ? अब साहब मीर का नाम सुनना था की बुजुर्गवार के मुंह से फर्राटे से गालियां निकलने लगीं वो भी ऐसी कि अगर उन्हें यहाँ लिख दूँ आप यकीनन मुझे ढूंढते हुए मारने पहुँच जाएँ। गुस्से से कांपते और मुझे गालियाँ देते वो अपनी छड़ी पकडे तुरंत चले गए। उनके वहां से जाते ही पास खड़े एक बुजुर्ग ने धीरे से मेरे कान में कहा ये क्या जुल्म कर दिया मियां इनके सामने मीर का नाम क्यों लिया ? दोनों आपस में एक दूसरे की शक्ल तक नहीं देखते और एक दूसरे पर गालियों की वो बौछार करते हैं कि सुनने वाला कानों पे हाथ धर ले। सच तो ये है कि मीर साहब ने इन्हें अपने बराबर का शायर माना है लेकिन इन्होने अपनी क़ाबलियत का बड़ा हिस्सा लोगों पर कीचड़ उछालने और गालियां देने में खर्च कर दिया। "शायर ? ये जनाब शायर हैं?" - मैंने कहा। "जी हाँ कमाल के शायर हैं आपने इनका नाम नहीं सुना ? 'जी नहीं - मैंने कहा -क्या नाम हैं इनका ? जवाब मिला -मिर्ज़ा 'सौदा'

 क्या हुस्नो-इश्क में अब बिगड़ी है बेतरह से 
 तीरे-निगह तो वां हैं यां बर्छियाँ हैं आहें 

 आवे वो सैर करने इक बार जो चमन में
 गुल आसमाँ पे अपनी फेंकें सदा कुलाहें 
 कुलाहें =टोपियां 

 उस दिल में गो हमारी उल्फ़त नहीं रही अब 
 अपनी तरफ से ऐ दिल हम तो भला निबाहें 

 टुक मेह्र दे खुदाया काफ़िर बुतों के दिल में
 या आशिकों के जी से खो दे उन्हों की चाहें
 टुक=थोड़ी, मेह्र=रहम, उन्हों की =उनकी 

 मैंने बुजुर्गवार से दरख़्वास्त की कि मुझे 'सौदा'के बारे में बताएं क्यूंकि मैंने उनका नाम भले ही कहीं सुना हो लेकिन उनके बारे में कहीं कुछ पढ़ा नहीं है। वो मुझे एक पेड़ के नीचे लेकर बैठ गए। मशक से पानी पिलाया खाने को गुड़ धानी दी और बोले कि मिर्ज़ा मोहम्मद रफ़ी "सौदा"के बुजुर्ग काबुल के रहने वाले थे और सिपाही पेशा थे। अच्छा इज़्ज़तदार खानदान था। उनके पिता मिर्ज़ा मुहम्मद शफी व्यापार के सिलसिले में दिल्ली आये और यहीं बस गए। दिल्ली में ही सौदा का जन्म 1713 में हुआ, उनका लालन-पालन शिक्षा-दीक्षा दिल्ली में ही हुई , मीर साहब के मामू खान आरज़ू और शाह हातिम जैसे शायर उनके उस्ताद थे। मिर्ज़ा पहले फ़ारसी में लिखा करते थे खान आरज़ू के कहने पर ही उन्होंने से फ़ारसी छोड़ उर्दू सीखी और फिर उर्दू में ही कहने लगे। वो खानदानी रईस थे। जवानी मस्ती में काट रहे थे कि दिल्ली पर मराठाओं ने हमला कर दिया तो जनाब फर्रुखाबाद चले गए और बहुत से साल वहीँ शायरी करते हुए गुज़ारे।

 सब्रो-आराम कहूं या कि मैं अब होशो-हवास
 हो गया उसकी जुदाई में जुदा क्या क्या कुछ 

 जौफ़-ओ-नाताकती-ओ-सुस्ती-ओ-एज़ाशिकनी 
 एक घटने में जवानी के बढ़ा क्या क्या कुछ 
 जौफ़-ओ-नाताकती-ओ-सुस्ती-ओ-एज़ाशिकनी =कमज़ोरी और बदन टूटना 

 सैर की क़ुदरते-ख़ालिक़ की बुताँ में 'सौदा' 
मुश्त भर ख़ाक में जल्वा है भरा क्या क्या कुछ 
 क़ुदरते-ख़ालिक़ =ईश्वर की लीला , मुश्त =मुठ्ठी 

 बुजुर्ग अपनी रौ में बोले जा रहे थे और मैं सुने जा रहा था कि "आखिर 1771 में सौदा फर्रुखाबाद से फैज़ाबाद होते हुए लखनऊ आ बसे। सौदा एक और तो बहुत मिलने-जुलने वाले और यारबाश आदमी हैं तुनकमिज़ाज ऐसी कि क्या कहा जाय , जिस पर बिगड़ते उसकी सात पुश्तों की खबर ले डालते और ऐसी ऐसी जगहों से बख़िया उधेड़ते कि शर्म से आँखें नीची हो जाएँ। ये हज़रत औरत मर्द लड़का लड़की बूढा बुढ़िया किसी के भी कपडे उतारने से नहीं चूकते और तो और बेज़बान और नासमझ जानवरों घोडा हाथी वैगरह को भी नहीं छोड़ते।"मैंने ये सुनकर कहा कि "बड़े ही अजीब इंसान हैं मिर्ज़ा सौदा, तो बुजुर्गवार बोले कि "सौदा की ज़बान जितनी ज़हरीली है उनका दिल उतना ही बड़ा है वो सच्चे मायने में बड़े शायर ही नहीं बड़े आदमी भी हैं "

 क्या जानिये किस-किस से निगह उनकी लड़ी है
 जिस कूचे में जा देखो तो इक लोथ पड़ी है 
 लोथ =लाश 

 मैं हाल कहूं किससे तेरे अहद में अपना 
रोते हैं कहीं दिल को कहीं जी की पड़ी है 

 ठहरा है तेरी चाल में और जुल्फ में झगड़ा 
 हर एक ये कहती है लटक मुझमें बड़ी है

 'उर्दू'में कसीदे कहने का चलन अगर देखा जाय तो मिर्ज़ा सौदा ने ही शुरू किया। कसीदों के अलावा उन्होंने मर्सिये लिखने में भी महारत हासिल की .मिर्ज़ा सौदा की शायरी में फ़ारसी शब्दों का बहुत कम प्रयोग हुआ है और जो हुआ है वो इतना पुख्ता है कि वो लफ्ज़ आने वाले समय में भी बने रहेंगे "ये बात कह कर बुजुर्गवार चुप हुए और बोले "बरखुरदार इस से पहले की मिर्ज़ा सौदा तुम्हें गिरफ्तार करने नवाब के सिपाही साथ ले कर आयें तुम फ़ौरन यहाँ से निकल लो।"मैंने भी इसी में अपनी भलाई समझी ,टाइम मशीन में बैठा बटन दबाया तो लिखा आया सन ---? मैंने फ़ौरन 2018 टाइप किया, पंखा तेजी से घूमा खट खट खटाक की आवाज़ हुई और उसके बाद तेज़ झटका सा लगा होश आया तो मैं अपने घर पे अपने बिस्तर पे था. किसी तरह की कोई टाइम मशीन वहां नहीं थी। मुझे लगता है ये सब सपना ही था। शायद मिर्ज़ा सौदा चाहते थे कि मैं उनके बारे में लिखूं ,तभी ये सब कुछ हुआ।

 आलूदा -जि-कतराते-अरक़ देख जबीं को 
अख़्तर पड़े झांके हैं फ़लक पर से जमीं को
 आलूदा -जि-कतराते-अरक़ देख जबीं को =लज्जा से माथे पे आये पसीने को देख कर , अख़्तर=तारे 

 आता है तो आ शोख़ कि मैं रोक रहा हूँ 
 मानिंदे-हुबाब अपने दमे-बाज़पसीं को 
 मानिंदे-हुबाब =बुलबुले की तरह , दमे-बाज़पसीं=आखरी सांस 

 मतलब के मेरे अर्ज़ पे इक बार भी 'सौदा'
 'हाँ'ने न छुड़ाया कभी उस लब से 'नहीं'को 

 होश में आते ही मैंने सौदा की शायरी तलाशने की कोशिश की नतीजतन मुझे राजपाल एन्ड संस् दिल्ली से प्रकाशित 'उर्दू के लोकप्रिय शायर'श्रृंखला के अंतर्गत छपी "सौदा -जीवनी और संकलन "किताब हाथ लगी। आज उसी किताब की ग़ज़लों से कुछ अशआर आपके सामने रख रहा हूँ। ये किताब अब शायद उपलब्ध नहीं है।हिंदी में सौदा को पढ़ने के लिए आपको रेख़्ता की वेबसाइट पर जाना होगा। सौदा की ग़ज़लों में करुणा का पक्ष लगभग नहीं है कारण चाहे उनका मुग़ल बच्चा होना हो ,दरबारियों और सामंत वर्ग के साथ उठना-बैठना हो, प्रेम का वास्तविक अनुभव न होना हो आदि दूसरे उनकी ग़ज़लों में सूफ़ीवाद का प्रभाव न के बराबर है फिर भी सौदा की ग़ज़लों का अपना महत्त्व है और उर्दू साहित्य में एक विशिष्ठ स्थान है। उनका शब्द चयन अनूठा होता था और उनके विषयों की सादगी भी बहुत मनमोहक हुआ करती थी।


 जाते हैं लोग काफ़िले के पेशो-पस चले
 दुनिया अज़ब सरा है जहाँ आ के बस चले 
 पेशो-पस =आगे पीछे 

 ऐ गुंचा आँखें खोल के टुक तो चमन को देख
 जमईयते-दिली पे तेरी फूल हँस चले 
 जमईयते-दिली = इत्मीनान 

 तेरे सुखन को मैं ब-सरो-चश्म नासेहा 
मानूं हज़ार बार अगर दिल पे बस चले 
 सुख़न=बात , ब-सरो-चश्म=रात-दिन, नासेहा=धर्मोपदेशक 

 एक बात और जो सौदा को बड़ा शायर बनाती है वो है ईहामगोई से परहेज़। ईहामगोई याने दो अर्थ रखने वाले शब्दों का प्रयोग। इस शाब्दिक कलाबाज़ी में कवित्व की हत्या हो जाती है. सौदा के पूर्व के शायरों ने इस कलाबाज़ी का भरपूर प्रयोग किया था जिसे 'सौदा'ने नक़्क़ारे की चोट पर इस खिलवाड़ को ख़तम कर दिया जबकि उनके समकालीन 'मीर'इसके बड़े शौकीन थे । 'सौदा'ने अलंकारों के प्रयोग से पीछा छुड़ाया और बयान को ज्यादा महत्त्व दिया। 'सौदा'अपने हुनर के प्रदर्शन के लिए एक काम करते थे जिसे आज कोई पसंद नहीं करता वो है मुश्किल से मुश्किल रदीफ़-काफियों में शेर कहना, इसके लिए बड़ी प्रतिभा और अभ्यास की जरुरत होती है लेकिन ये भी है तो कलाबाज़ी ही.

 जौहर को जौहरी और सर्राफ़ ज़र को परखे 
 ऐसा कोई न देखा वो जो बशर को परखे 
 ज़र=सोना 

 जौहर न होवे जिसमें जौहर-शनास कब है 
 जो साहबे -हुनर हो वो ही हुनर को परखे 

 दर्रे-सुख़न को अपने परखाए आदमी से 
 हरगिज़ न कह तू 'सौदा'हर जानवर को, परखे 
दर्रे-सुख़न=काव्य-मुक्ता

  'सौदा'से पहले हिंदी के देशज शब्द अंधाधुंध प्रयोग में लिए जाते थे 'सौदा 'ने इनमें बहुत से खड़खड़ाने वाले शब्द हटा कर फ़ारसी के मीठे शब्द प्रयोग किये।उन्होंने फ़ारसी की उपमाएं रूपक संकेत आदि भी उर्दू में लाने का काम किया जो अभी तक उर्दू काव्य की नींव का काम दे रहे हैं। उर्दू का वर्तमान रूप दरअसल 'सौदा'का ही दिया हुआ है। चलिए अब 'सौदा'की बात को यहीं विराम देते हुए निकलते हैं अगली किताब की तलाश में तब तक आप उनके ये मुख्तलिफ शेर पढ़ें और दाद दें :

 दिल को तो हर तरह से दिलासा दिया करूँ 
 आँखें तो मानती नहीं मैं इसको क्या करूँ
 ***
 ऐ मियां इश्क़ के मारों को कहीं ठौर नहीं 
 दिल नहीं अब्र नहीं आप नहीं और नहीं 
 *** 
मसीहा सुन के उठ जावे जो कुछ कहिये दवा कीजे 
 मुहब्बत सख्त बीमारी है इसको आह क्या कीजे
 *** 
ऐसा ही जाऊं-जाऊं करते हो तो सिधारो 
 इस दिल पे कल जो होगी सो आज ही वो हो ले 
 *** 
हर आन देखता हूँ मैं अपने सनम को शैख़ 
 तेरे खुदा का तालिबे-दीदार कौन है
 तालिबे-दीदार =दर्शन का इच्छुक
 *** 
गैरते-इश्क़ आके ऐ 'सौदा'तू परवानों से सीख 
 शमअ से अपना भी मिलन देख जल जाते हैं ये 
 ***" 
क़ीमत में उनके गो हम दो जग को दे चुके अब
 उस यार की निगाहें तिस पर भी सस्तियाँ हैं
 *** 
बे-इख़्तियार मुंह से निकले है नाम तेरा 
 करता हूँ जिस किसी को प्यारे ख़िताब तुझ बिन
 ख़िताब=सम्बोधन 
 *** 
किस्मत कि मैं दिल अपना किया पीस के सुरमा
 तिस पर भी नहीं चश्म में मंज़ूर किसू के
 *** 
वही जहाँ में रमूज़े-क़लन्दरी जाने 
 भभूत तन पे जो मलबूस-कैसरी जाने 
 रमूज़े-क़लन्दरी=फ़कीरी के रहस्य , मलबूस-कैसरी =राजाओं के वस्त्र

किताबों की दुनिया - 192

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उसके रंग में रँगे लौट आये हैं घर
 घर से निकले थे रँगने उसे रंग में
 ***
हो ज़रा फ़ुर्सत तो मुझको गुनगुना लो
 प्रेम का मैं ढाई आखर हो गया हूँ
 ***
जो तुम कहो तो चलें ,तुम कहो तो रुक जाएँ 
 ये धड़कने तो तुम्हारी ही सेविकाएं हैं
 ***
किताब उलटी पकड़ कर पढ़ रहे हो देर से काफ़ी
 तुम्हें बतलाएँ बरख़ुरदार आओ, इश्क का मतलब
 ***
किसी का ज़ुल्फ़ से पानी झटकना
 इसी का नाम बारिश है महोदय
 ***
वस्ल की रात था जिस्म ही जिस्म
 बस उसको ओढ़ा, उसे ही बिछाते रहे
 ***
यकायक आ गया था शहर उनका रास्ते में
 उसी दिन से जुदा हम हो गए हैं कारवाँ से
 ***
मिलन को मौत आखिर कैसे कह दूँ
 नदी सागर से मिलने जा रही है
 ***
यूँ सारी रात बरसोगे तो प्यासा मर ही जाएगा
 किसी प्यासे पे ज्यादा बरस जाना भी समस्या है
***
किया न वादा कोई आज तक कभी पूरा 
 तुम्हारे वादे तो सरकारी घोषणाएँ हैं

 आज हम बात करेंगे इश्क की। अब ये इश्क़ मजाजी (शारीरिक) है या इश्क़ हक़ीक़ी(ईश्वरीय ) ये आप तय करें वैसे साई बुल्लेशाह इश्के मजाजी को इश्के हकीकी से जोड़ने वाला पुल कहते हैं। !!खैर आप माने न माने ये जो दुनिया है न ये चल ही इश्क के बूते पर रही है। अगर नफ़रत के बूते पर चल रही होती तो कब की खत्म हो गयी होती। ये इश्क ही है जो हर हाल में इसे चलाये रखने की ताकत रखता है। अब अगर आपने किसी से पूछ लिया कि ये इश्क़ है क्या तो पहले जवाब देने वाला आपको ऐसे घूरेगा जैसे आप किसी और ग्रह के प्राणी हैं और फिर जो जवाब देगा उसे सुनकर आपको लगेगा कि इस से तो अच्छा था मैं ये सवाल पूछता ही नहीं। जितने मुंह उतनी बातें। ज्यादातर जवाब देने वाले तो आपको हिक़ारत की नज़र से देखते हुए अपनी कमीज़ या कुर्ते का कॉलर उठाते हुए कहेंगे "तुमने इश्क़ का नाम सुना है , हमने इश्क़ किया है"और फिर टेढ़ी मुस्कान फेकेंगे लेकिन बताएँगे नहीं कि इश्क है क्या ?
हकीकत में इश्क किया नहीं जाता, इश्क जिया जाता है. दरअसल 'इश्क'अंधों का हाथी है। इसका पूर्ण स्वरुप शायद ही किसी ने देखा हो, जिस अंधे ने इस हाथी का जो हिस्सा पकड़ा उसने हाथी को वैसा ही परिभाषित कर दिया।

 वस्ल की शब कोई बतलाए शुरू क्या कीजिए 
 जम गया हो जब रगों का भी लहू क्या कीजिए 

 वक्त-ए-रुख़सत कह रहे हैं 'आज कुछ भी मांग लो '
 और मैं हैरत में हूँ अब आरज़ू क्या कीजिए 

 उसकी आँखों से मेरे हाथों पे क़तरा था गिरा 
 उम्र भर फिर ये हुआ कि अब वुज़ू क्या कीजिए 

 बहुत कम लोग दुनिया में ऐसे हुए हैं जिन्होंने शायद इश्क को उसके पूरे वुज़ूद में देखा है ,यहाँ सभी का नाम लेना मुमकिन नहीं और न ही हमारा ये मक़सद है। हमारा तो काम है किताब की चर्चा करना और आखिर में हम वो ही करने वाले हैं लेकिन उसे करने से पहले सोचा चलो इश्क पे कुछ चर्चा हो जाए क्यूंकि हमारी आज की किताब का विषय भी इश्क़ है। तो बात शुरू करते हैं संत कबीर से। कबीर से ज्यादा सरल और सीधी बात और कोई करने वाला मिलेगा भी नहीं और उनकी बात तो आप पत्थर पे लकीर समझ लें। कबीर दास जी कहते हैं कि "घड़ी चढ़े घड़ी उतरे वो तो प्रेम न होय , अघट प्रेम ही ह्रदय बसे प्रेम कहिये सोय !!"अब आप मुझसे इसका मतलब मत पूछना अगर कबीर दास जी की बात भी समझानी पड़े तो फिर हो ली इश्क़ पे चर्चा। वैसे बहुत गहरी बात कह गए हैं कबीर दास जी और ऐसी बात यकीनन कोई अँधा नहीं कह सकता।

 ख़लाओं पर बरसती हैं न जाने कब से बरसातें 
 मगर फिर भी ख़लाओं का अँधेरा है कि प्यासा है

 सुनहरी बेलबूटे-सा जो काढ़ा था कभी तूने 
 बदन पर अब तलक मेरे तेरा वो लम्स ज़िंदा है 

 कोई पुरकैफ़ खुशबू तल्ख़-सी आती रही शब भर 
 गली में नीम के फूलों का मौसम लौट आया है

 ग़ज़लों में नीम के फूलों की अक्सर बात नहीं की जाती बल्कि शहर में रहने वाले तो शायद जानते भी न हों कि नीम के फूलों की खुशबू कितनी मदहोश कर देने वाली होती है। शायरी में नीम के फूलों का प्रयोग वही कर सकता है जिसने इसका अनुभव किया हो। इश्क़ भी नीम के फूलों सा ही होता है सबसे अलग -जिसके बारे में सुना भले ही सब ने हो अनुभव कम ही किया होगा। प्रेम या इश्क के बारे में ईशा फाउंडेशन के सद्गुरु ने कहा है कि "मूल रूप से प्रेम का मतलब है कि कोई और आपसे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो चुका है। यह दुखदायी भी हो सकता है, क्योंकि इससे आपके अस्तित्व को खतरा है। जैसे ही आप किसी से कहते हैं, ’मैं तुमसे प्रेम करता हूं’, आप अपनी पूरी आजादी खो देते है। आपके पास जो भी है, आप उसे खो देते हैं। जीवन में आप जो भी करना चाहते हैं, वह नहीं कर सकते। बहुत सारी अड़चनें हैं, लेकिन साथ ही यह आपको अपने अंदर खींचता चला जाता है। यह एक मीठा जहर है, बेहद मीठा जहर। यह खुद को मिटा देने वाली स्थिति है। अगर आप खुद को नहीं मिटाते, तो आप कभी प्रेम को जान ही नहीं पाएंगे। आपके अंदर का कोई न कोई हिस्सा मरना ही चाहिए। आपके अंदर का वह हिस्सा, जो अभी तक ’आप’ था, उसे मिटना होगा, जिससे कि कोई और चीज या इंसान उसकी जगह ले सके। अगर आप ऐसा नहीं होने देते, तो यह प्रेम नहीं है, बस हिसाब-किताब है, लेन-देन है।"

 एक लम्हा बस वही है और बाकी कुछ नहीं
ज़िन्दगी सारी अलग और वस्ल का लम्हा अलग 

 इश्क के बीमार पर सारी दवाएँ बेअसर 
 चारागर उसकी दवा का है जरा नुस्ख़ा अलग

 चलते-चलते आपने देखा था हमको बस यूँही 
 शहर में उस दिन से अपना हो गया रुतबा अलग 

 प्रेम की बात हो और ओशो याद न आएं ऐसा हो नहीं सकता , लोग उनके पक्ष में हों या विपक्ष में इस से हमें कोई लेना देना नहीं लेकिन जो उन्होंने कहा है उसे पढ़ लेने में कोई हर्ज़ नहीं वो कहते हैं कि "प्रेम का अर्थ है: जहां मांग नहीं है और केवल देना है। और जहां मांग है वहां प्रेम नहीं है, वहां सौदा है। जहां मांग है वहां प्रेम बिलकुल नहीं है, वहां लेन-देन है। और अगर लेन-देन जरा ही गलत हो जाए तो जिसे हम प्रेम समझते थे वह घृणा में परिणत हो जाएगा। "वो आगे कहते हैं "जहां प्रेम केवल देना है, वहां वह शाश्वत है, वहां वह टूटता नहीं। वहां कोई टूटने का प्रश्न नहीं, क्योंकि मांग थी ही नहीं। आपसे कोई अपेक्षा न थी कि आप क्या करेंगे तब मैं प्रेम करूंगा। कोई कंडीशन नहीं थी। प्रेम हमेशा अनकंडीशनल है। कर्तव्य, उत्तरदायित्व, वे सब अनकंडीशनल हैं, वे सब प्रेम के रूपांतरण हैं।प्रेम केवल उस आदमी में होता है जिसको आनंद उपलब्ध हुआ हो। जो दुखी हो, वह प्रेम देता नहीं, प्रेम मांगता है, ताकि दुख उसका मिट जाए.

 कह रहे हैं आप हमसे इश्क़ करना छोड़ दो 
 साफ़ ही कह दो कि जीने की तमन्ना छोड़ दो 

 इश्क़ है तो क्या हुआ सोने न देंगे चैन से ? 
आप ख़्वाबों में मेरे आकर टहलना छोड़ दो 

 दिल मचल बैठा तो जाने क्या ग़ज़ब हो जायेगा 
 डाल कर पाज़ेब सीढ़ी से उतरना छोड़ दो 

 तो जैसा अभी मैंने आपको बताया कि आज की किताब इश्क़ पर लिखी ग़ज़लों की किताब है जिसमें कोई ज्ञान नहीं बघारा गया कोई दार्शनिकता नहीं प्रदर्शित की गयी बल्कि पासबाने-अक़्ल याने अक़्ल के चौकीदार को दिल से जरा दूर बैठा दिया गया है। मामला इश्क़ का है इसलिए वहां अक़्ल का वैसे भी क्या काम ? देखा गया है कि इंसान ने जो जो काम अक़्ल से किये हैं उनसे उसे दुःख ही अधिक मिला है और जो जो काम दिल से किये गए हैं उनसे ख़ुशी। किताब है जनाब पंकज सुबीरद्वारा लिखित और शिवना प्रकाशन -सीहोर द्वारा प्रकाशित "अभी तुम इश्क़ में हो"जिसने सन 2018 के पुस्तक मेले में लगभग सभी ग़ज़ल प्रेमी और खास तौर पर इश्क़ में पड़े खुशकिस्मत लोगों को अपनी और आकर्षित किया और देखते ही देखते इसके 2 संस्करण 4 दिन में बिक गए। कॉफी टेबल बुक के अंदाज़ में छपी गुलाबी रंग की इस किताब के अब तक चार पांच संस्करण तो बाजार में आ चुके हैं और बिक्री अभी जारी है। इस किताब में छपी कुछ ग़ज़लों को तो प्रसिद्ध गायकों ने गाया भी है.


   भले अपने ही घर जाना है पर भूलोगे रास्ता 
 किसी को साथ में रक्खो, अभी तुम इश्क़ में हो 

 नहीं मानेगा कोई भी बुरा बिलकुल जरा भी 
 अभी तुम चाहे जो कह दो, अभी तुम इश्क़ में हो 

 कोई समझा बुझा के राह पर फिर ले न आये 
 किसी के पास मत बैठो, अभी तुम इश्क़ में हो 

 वो परसों भी नहीं आया नहीं आया वो कल भी
 गिनो मत, रास्ता देखो, अभी तुम इश्क़ में हो

 "पंकज सुबीर"ग़ज़लकार नहीं हैं और इस बात को वो खुद भी सरे आम कहते हैं. हालाँकि उनके द्वारा ब्लॉग पर निरंतर चलाये जाने वाली ग़ज़ल की कक्षाओं से हम जैसे बहुत से ग़ज़ल प्रेमियों ने ग़ज़ल की बारीकियां सीखीं और कुछ कहने लायक हुए। मूल रूप से वो कहानी उपन्यास और सम्पादन जैसे क्षेत्रों से न केवल जुड़े हुए हैं बल्कि इन क्षेत्रों में उन्होंने बहुत नाम भी कमाया है। उनकी उपलब्धियां गिनने बैठो तो ऊँगली अपने आप दाँतों तले आ जाती है। इश्क़ या प्रेम के अनेक रंगों से उन्होंने अपनी कहानियों और उपन्यास में जो चित्र बनाये हैं वो अद्भुत हैं। ऐसे ही चित्र उन्होंने अपनी प्रेम से पगी ग़ज़लों में भी उकेरे हैं। आप उन्हें पसंद या नापसंद कर सकते हैं लेकिन उनकी रचनाओं को अनदेखा करना संभव नहीं।

 बूँद जैसे शबनम की आंच पर गिरी जैसे 
 जिस्म में उठीं लहरें हो कोई नदी जैसे

 वस्ल की कहानी है मुख़्तसर-सी बस इतनी 
 अंजुरी में भर-भर कर चांदनी हो पी जैसे 

 सुन के रेल की सीटी याद आयी 'पाकीज़ा' 
 चलते-चलते कोई हो मिल गया यूँ ही जैसे
 (सन्दर्भ :यूँ ही कोई मिल गया था सरे राह चलते चलते चलते ) 

 पंकज जी को मैं सं 2006 से ब्लॉग के माध्यम से जान पाया। उनका सीहोर, जो भोपाल और इंदौर के मध्य है, में निजी व्यसाय है, वो बच्चों को कम्प्यूटर की शिक्षा देने के लिए खोले गए एक संस्थान को चलाते हैं और साथ ही स्वतंत्र लेखन भी करते हैं । मैंने उनकी रचना प्रक्रिया को करीब से देखा है। अपने लेखन में उन्होंने उत्तरोत्तर प्रगति की है। सबसे बड़ी बात है कि वो साहसी हैं अपनी रचनाओं में वो नए प्रयोग करने से घबराते नहीं इसीलिए उनकी कहानियों और उपन्यासों का कथ्य चौंकाता है। सम्बन्ध निभाने में भी उनका कोई सानी नहीं हाँ वो थोड़ा मूडी जरूर हैं, जो हर रचनाकार कम -ज्यादा होता ही है, अपने इस मूड की वजह से कुछ लोग उनसे ख़फ़ा भी हो जाते हैं.पिछले 12 वर्षों में मैं उन्हें जितना जान पाया हूँ उसे व्यक्त करना यहाँ संभव नहीं है क्यूंकि ये पोस्ट शुद्ध रूप से उनकी किताब के बारे में है उनके बारे में नहीं है ,हाँ उनकी उपलब्धियों को जरूर गिनाना चाहूंगा।

 अब तुम्हारा काम क्या वो आ गए
 तख़्लिया ऐ चाँद, तारों तखलिया

 आबे-ऐ-ज़मज़म की किसे दरकार है 
 हमने तेरी आँख का आंसू पिया 

 आपने कल का किया वादा है पर 
 वादा अब तक कौन सा पूरा किया 

 उन्हें मिले सम्मानों /प्रुस्कारों में उनके कहानी संग्रह "चौपड़ें की चुड़ैलें "को राजेंद्र यादव हंस कथा सम्मान, "महुआ घटवारिन और अन्य कहानियां"किताब को लंदन के हॉउस ऑफ कॉमन्स में अन्तर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान' , उपन्यास 'ये वो सहर तो नहीं तो नहीं "को भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा 'नवलेखन पुरूस्कार' , इंडिपेंडेंट मीडिया सोसाइटी (पाखी पत्रिका ) द्वारा स्व. जे.सी.जोशी शब्द साधक जनप्रिय सम्मान, मध्य्प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मलेन द्वारा 'वागीश्वरी पुरूस्कार' , समग्र लेखन हेतु 'वनमाली कथा सम्मान' ,समग्र लेखन हेतु 53 वां 'अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान'आदि प्रमुख हैं।उन्हें केनेडा और अमेरिका की साहित्यिक संस्थाओं ने अपने यहाँ बुला कर सम्मानित किया है। उनकी कहानी 'दो एकांत'पर बनी फीचर फिल्म 'बियाबान'देश विदेश में होने वाले फिल्म समारोहों में पुरुस्कृत हो चुकी है , इस फिल्म के गीत भी पंकज जी ने लिखे थे। उनकी कहानी 'कुफ्र'पर एक लघु फिल्म भी बन चुकी है। सबसे बड़ा सम्मान तो उनके असंख्य पाठकों द्वारा उन्हें दिया गया प्यार है जिसे आप उनके साथ गुज़ारे कुछ ही पलों में अनुभव कर सकते हैं।

 ये जो कोहरे-सा है बिछा हर सू 
 इसमें ख़ुद को ज़रा समाने दो 

 उँगलियों की है इल्तिज़ा बस ये 
 चाँद के कुछ क़रीब आने दो 

 होंठ बरसेंगे बादलों जैसे 
 तुम अगर आज इनको छाने दो 

 अगर आपको पंकज जी के लेखन की बानगी देखनी है तो इस किताब को पढ़ें क्यूंकि इसमें उनकी लगभग 55 ग़ज़लों के अलावा 14 प्रेम गीत और 7 अद्भुत प्रेम भरी कहानियां भी शामिल हैं। यूँ समझें की ये किताब 'प्रेम'की कॉम्बो डील है।हो सकता है कि इस किताब को पढ़ कर गंभीर शायरी के प्रेमी अपनी नाक-भौं सिकोड़ें लेकिन जो दिल से जवाँ हैं ,इश्क़ कर रहे हैं या इश्क़ करने में विश्वास रखते हैं वो जरूर खुश हो जायेंगे और ऐसे लोगों से निवेदन है कि अगर आपके पास ये किताब नहीं है तो तुरंत इसे मंगवाने का उपक्रम करें। पहली बार हार्ड बाउंड में छपी ये किताब अब पेपर बैक में भी आसानी से मिल सकती है। इसके लिए आप अमेज़न की ऑन लाइन सेवा का उपयोग करें या इस किताब के प्रकाशक 'शिवना प्रकाशन'को shivna.pra kashan@gmail.com पर मेल करें, शिवना प्रकाशन के जनाब 'शहरयार'भाई से 9806162184 पर संपर्क करें और साथ ही साथ पंकज जी को इन ग़ज़लों के लिए बधाई देने के लिए 9977855399 पर निःसंकोच संपर्क करें। समय आ गया है कि अगली किताब की खोज के लिए निकला जाय तब तक आप पढ़ें उनकी ग़ज़ल ये शेर :

 इसे पुकारा, उसे पुकारा, बुलाया इसको , बुलाया उसको 
उमीद लेकर खड़ा हूँ मैं भी कभी तो मेरा भी नाम लेगा

 उठा के नज़रें तो देखिये जी खड़ा है कोई फ़क़ीर दर पर
 लुटा भी दो हुस्न का ख़ज़ाना ये आज है कल कहाँ रहेगा 

 दुआओं में बस ये मांगता हूँ ज़रा ये परदा उठे हवा से 
 अगर वो सुनता है जो सभी की कभी तो मेरी भी वो सुनेगा

 यूँ तो मैं चला ही गया था लेकिन दरवाज़े से वापस लौट आया , मुझे याद आया कि उनकी एक ग़ज़ल के शेर जो मैंने सोचा था कि आपको पढ़वाऊंगा वो तो लिखना ही भूल गया। पहले सोचा कि कोई बात नहीं अब कितनी ग़ज़लों से कितने शेर आपको पढ़वाऊं लेकिन मन नहीं माना सो अब ये शेर पढ़वा कर पक्का जा रहा हूँ - यकीन कर लें।

 होंठों से छू लो अगर तुम धूप से झुलसे बदन को 
 बर्फ-सी हो जाय ठंडी , गर्मियों की ये दुपहरी 

 हर छुअन में इक तपिश है ,हर किनारा जल रहा है 
 है तुम्हारे जिस्म जैसी , गर्मियों की ये दुपहरी 

 अब्र-सा सांवल बदन उस पर मुअत्तर-सा पसीना 
 हो गयी है बारिशों-सी ,गर्मियों की ये दुपहरी

किताबों की दुनिया - 193

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दिल ना उमीद तो नहीं नाकाम ही तो है
 लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है
 ***
तुझको तकमील कर रहा हूँ मैं
 वर्ना तुझसे तो मुझको प्यार नहीं
 तकमील =पूर्णता
 ***
है वही बात यूँ भी और यूँ भी
 तुम सितम या करम की बात करो
 ***
 दिल से तो हर मुआम्ला करके चले थे साफ़ हम
 कहने में उनके सामने बात बदल बदल गई
 ***
आये तो यूँ कि जैसे हमेशा थे मेहरबाँ
 भूले तो यूँ कि गोया कभी आशना न थे
 ***
आते आते यूँ ही दम भर को रुकी होगी बहार
 जाते जाते यूँ ही पल भर को ख़िज़ाँ ठहरी है
 ***
अब अपना इख़्तियार है चाहे जहाँ चलें
 रहबर से अपनी राह जुदा कर चुके हैं हम
 ***
वो जो अब चाक गरेबाँ भी नहीं करते हैं 
 देखने वालो कभी उनका जिगर तो देखो 

 1985 कराची का नेशनल स्टेडियम , जनरल जिया उल हक़ द्वारा आयोजित कल्चरल प्रोग्राम का आयोजन था। जनरल ने 5 जुलाई 1977 को जुल्फ़िक़ार अली भुट्टो का तख्ता पलट के सत्ता हथियाली थी और सितम्बर 1978 से खुद को पाकिस्तान का राष्ट्रपति घोषित कर दिया था। इस्लाम के नाम पर जुल्म और दमन का नंगा नाच चल रहा था। लोग संगीनों के साये में सांस लेने को मज़बूर थे। घुट रहे थे। उस दिन स्टेडियम में लगभग 50,000 से ज्यादा लोगों की भीड़ अपनी चहेती गायिका को सुनने इकठ्ठा हुई थी। पाकिस्तान आर्मी के आला अफसर भी पूरी आन-बान-शान से मौजूद थे। कुछ ही दिन पहले जनरल ने पाकिस्तान में महिलाओं को साड़ी पहनने पर पाबन्दी लगा दी थी. गायिका को स्टेज पर बुलाया गया उसके आते ही जैसे सारे आर्मी आफिसर्स को मानो सांप सूंघ गया क्यूंकि गायिका काली साड़ी पहने हौले हौले स्टेज पर आयी। जनरल के हुक्म की सरे आम धज्जियाँ उड़ाती हुई। अफसर इसके लिए बिलकुल तैयार नहीं थे , माना वो देश के करोड़ों चाहने वालों की कलाकार थी लेकिन थी तो एक औरत ही न - औरत होकर हुक्म उदूली ?

 तुम आये हो न शबे-इंतज़ार गुज़री है 
 तलाश में है सहर बार बार गुज़री है 

 वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था 
 वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है 

 न गुल खिले हैं न उनसे मिले न मै पी है 
 अजीब रंग में अबके बहार गुज़री है 

 आर्मी अफसरों के विपरीत भीड़ ने गायिका के हौसले की दाद देते हुए तालियां बजायीं। इस से पहले की अफसर कुछ कार्यवाही करते गायिका ने गला साफ़ किया ,तबले सारंगी वाले को इशारा किया और गाने लगी - "हम देखेंगे , लाज़िम है कि हम भी देखेंगे -"ये सुनना कि भीड़ ख़ुशी से चीखने लगी पूरे स्टेडियम में जैसे तूफ़ान आ गया। जैसे जैसे गायिका गाती गई वैसे वैसे भीड़ का उन्माद बढ़ता गया। आर्मी अफसरों के चेहरों पर हवाइयाँ उड़ने लगीं , तुरंत स्टेडियम की लाइट्स बंद कर दी गयीं , माइक बंद कर दिया गया लेकिन गायिका जाती गई और तब तक गाती रही जब तक ये नज़्म ख़तम नहीं हो गयी. लोग बरसों बाद सामूहिक रूप से इंकलाब ज़िंदाबाद के नारे लगाने लगे, बाद में बहुत सी कार्यवाहियाँ हुईं गायिका को पाकिस्तान में किसी भी जगह से गाने पर बैन कर दिया गया , बहुत से दर्शकों के खिलाफ फ़र्ज़ी कार्यवाही हुई लेकिन जो होना था वो हो गया। रातों रात इस ऐतिहासिक पल का कैसेट दिल्ली पहुँचाया गया जहाँ से इसकी हज़ारों कापियां लोगों के यहाँ पहुंचीं। आप सोचेंगे कि ऐसा क्या था उस नज़्म में ? तो आपसे गुज़ारिश है कि अगर आपने इक़बाल बानो कोफैज़ अहमद फैज़ की इस नज़्म को गाते नहीं सुना है तो यू ट्यूब पर इसे सर्च करके सुनें। सुनते वक्त आपके रोंगटे अगर खड़े न हों तो समझना कि आपके लेफ्ट साइड में जो हिस्सा धक् धक् करता है वो दिल नहीं महज़ शरीर में खून पहुँचाने वाला एक पंप है।

 शेख़ साहब से रस्मो-राह न की 
 शुक्र है ज़िन्दगी तबाह न की 

 तुझको देखा तो सेर-चश्म हुए
 तुझको चाहा तो और चाह न की 
 सेर-चश्म =आँखों की भूख मिटी 

 कौन क़ातिल बचा है शहर में 'फ़ैज' 
जिसे से यारों ने रस्मो-राह न की 

 13 फरवरी 1911 को सियालकोट पाकिस्तान में जन्में 'फैज़ अहमद फैज़'साहब को शायद ही कोई ऐसा शायरी प्रेमी होगा जो न जानता हो. फैज़ साहब के बारे में इतना कुछ इंटरनेट किताबों और पत्रिकाओं में उपलब्ध है की उसमें एक लफ्ज़ भी और नहीं जोड़ा जा सकता ,ऐसे में किताबों की दुनिया में उनकी किताब की चर्चा करना है तो जोखिम का काम। फिर सोचा बहुत से युवा पाठक ऐसे होंगे जिन तक शायद उनकी ग़ज़लें न पहुंची हो तो चलो ये पोस्ट उनके लिए ही सही इसलिए मैंने "फैज़ की ग़ज़लें और नज़्मे"किताब का चुनाव किया। इस किताब में उनकी अधिकतर ग़ज़लों का रंग प्रेम का है जो उनकी बाद की ग़ज़लों से गायब हो गया। आज के युवा को उस शायर के बारे में मालूम होना चाहिए जिसकी शायरी आज भी मजलूमों के लिए हिम्मत का काम करती है. फैज पहले सूफी संतों से प्रभावित थे. 1936 में वे सज्जाद जहीर और प्रेमचंद जैसे लेखकों के नेतृत्व में स्थापित प्रगतिशील लेखक संघ में शामिल हो गए. फैज़ इसके बाद एक प्रतिबद्ध मार्क्सवादी हो गए.


 दोनों जहाँ तेरी मोहब्बत में हार के 
 वो जा रहा है कोई शबे-ग़म गुज़ार के 

 वीरां है मैकदा खुमो-सागर उदास है
 तुम क्या गए कि रूठ गए दिन बहार के 

 दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया 
 तुझसे भी दिल फरेब हैं ग़म रोज़गार के 

 उर्दू शायरी और नज्म में प्रेम या इश्क का बड़ा जोर रहता है. फैज भी पहले इश्किया शायरी ही किया करते थे, जिसपर सूफीवाद का गहरा प्रभाव देखा जा सकता है. प्रगतिशील लेखक संघ का नारा था- ‘हमें हुस्न के मयार को बदलना होगा’ यानी कविता और शायरी में प्रेम-मोहब्बत की जगह आम लोगों, मजलूमों और मजदूरों के बारे में लिखने की अपील की गई.फैज़ ने भी अपनी शायरी के मिजाज को बदला और शायरी में आम लोगों के दुख-दर्द को जगह दी. फैज़ ने बिल्कुल शायराना अंदाज में प्रेम-मोहब्बत की शायरी न लिखने की घोषणा की. मार्क्सवाद की तरफ झुकाव के चलते सन 1962 में उन्हें लेनिन पीस प्राइज़ से नवाज़ा गया जो नोबेल पीस प्राइज के बराबर समझा जाता है ।

 कर रहा था ग़मे-जहाँ का हिसाब 
 आज तुम याद बे-हिसाब आये 

 न गयी तेरे ग़म की सरदारी 
 दिल में यूँ रोज़ इंकलाब आये 

 इस तरह अपनी ख़ामुशी गूंजी 
 गोया हर सिम्त से जवाब आये 

 फैज़ ने ख़ूबसूरती और रोमांस के सुनहरी पर्दे के पार हक़ीक़त की तल्ख़ सच्चाइयों को करीब से देखा है। उन्होंने आरज़ूओं का क़त्ल होते हुए देखा है , भूख उगाने वाले खेत और ख़ाक में लिथड़े, खून में नहाये हुए ज़िस्म देखे हैं ,बाज़ारों में बिकता मज़दूर का गोश्त और गरीब लोगों के हाथों से उनका निवाला झपटते हुए बाज़ देखे हैं। नासूरों से बहती हुई पीप की दुर्गन्ध सूंघी है तभी वो कहते हैं "मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे मेहबूब न मांग "फैज़ किसी एक मुल्क के शायर नहीं है , कोई भी शायर किसी एक मुल्क का नहीं हो सकता, पूरी दुनिया के ज़ुल्म सहते हुए लोग उनकी पीड़ाएँ शायर को व्यथित करती हैं उन्हें बगावत पर उकसाती हैं। फैज़ इस मायने में एक अंतरराष्ट्रीय शायर हैं जिसकी शायरी शोषित-पीड़ित जनता के पक्ष में खड़ी है.

 दिल में अब यूँ तिरे भूले हुए ग़म आते हैं 
 जैसे बिछड़े हुए काबे में सनम आते हैं 

 एक इक करके हुए जाते हैं तारे रोशन 
 मेरी मंज़िल की तरफ तेरे क़दम आते हैं 

 और कुछ देर न गुज़रे शबे-फ़ुर्क़त से कहो
 दिल भी कम दुखता है वो याद भी कम आते हैं 

 फैज़ के इस संग्रह में उनकी क्रांतिकारी ग़ज़लें या नज़्में शामिल नहीं की गयी हैं , उनके तीन संग्रहों 'नक़्शे-फ़रियादी,'दस्ते-सबा', और 'जिन्दानामा'में से कुछ चुनिंदा ग़ज़लों को ही इसमें शामिल किया गया है जिनका अंतर-स्वर इश्क है जबकि फैज़ अहमद फैज़ क्रांति में विश्वास करने और जगाने वाले शायर थे. फैज़ की शायरी सताए हुए लोगों के लिए है और उनकी उम्मीदों और सपनों को आवाज देने वाली है. भारत-पाकिस्तान विभाजन से मिलने वाली आजादी से फैज खुश नहीं थे. उन्होंने साफ-साफ लिखा: "ये दाग़-दाग़ उज़ाला, ये शब गज़ीदा सहर वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं"'इस किताब में फैज़ साहब की लगभग 40 प्रसिद्ध ग़ज़लें संग्रहित हैं इसके अलावा उनकी कालजयी रचनाएँ जैसे "मुझसे पहले सी मोहब्बत मिरि महबूब न मांग", चंद रोज़ और मिरि जान ,आखरी खत , कुत्ते , बोल.... याद ,आदि 60 के लगभग भी पढ़ने को मिलती हैं। आखिरी में कुछ लाजवाब शेर भी दिए गए हैं।

 वस्ल की शब थी तो किस दर्ज़ा सुबुक गुज़री थी 
 हिज़्र की शब है तो क्या सख़्त गरां ठहरी है 

 इक दफ़ा बिखरी तो हाथ हाई है कब मौजे-शमीम 
 दिल से निकली है तो क्या लब पे फ़ुग़ाँ ठहरी है 
 मौजे-शमीम =खुशबू की लहर , फ़ुग़ाँ =आह 

 आते आते यूँ ही दम भर को रुकी होगी बहार 
 जाते जाते यूँ ही दम भर को ख़िज़ाँ ठहरी है 

 आईये फैज़ साहब के बारे में फिर से बात शुरू करें। बहुत कम लोग जानते होंगे कि फैज़ साहब ने ब्रिटिश इंडियन आर्मी में कप्तान की हैसियत से नौकरी की और तरक्की करते हुए पहले मेजर और बाद में लेफ्टिनेंट कर्नल पद तक पहुंचे। उन्होंने ब्रिटिश एम्पायर मैडल भी प्राप्त किया। विभाजन के बाद उन्होंने पाकिस्तान रहना पसंद किया और वो वहां के प्रमुख अख़बार 'पाकिस्तान टाइम्स'के एडिटर और साथ ही कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य भी बने ,इसी के चलते 1951 में उन पर लियाक़त खां की सरकार को गिरा कर कम्युनिस्ट सरकार बनाने में मदद करने का अभियोग लगाया गया और जेल भेज दिया गया। चार साल जेल में गुज़ारने के बाद वो भुट्टो सरकार के साथ जुड़ गए। भुट्टो सरकार के साथ उन्होंने बरसों काम किया ,जिया उलहक़ द्वारा भुट्टो की गिरफ़्तारी और फांसी के बाद उनके हर कार्यकलाप पर नज़र रखी जाने लगी इसलिए उनका दिल पाकिस्तान से उचट गया और वो बेरुत जा बसे। बेरुत में कुछ साल गुजरने के बाद वो वापस पाकिस्तान कराची लौट आये और वहीँ 20 नवम्बर 1984 को उनका देहावसान हो गया।

 राज़े -उल्फ़त छुपा के देख लिया 
 दिल बहुत कुछ जला के देख लिया 

 और क्या देखने को बाकी है 
 आपसे दिल लगा के देख लिया 

 आज उनकी नज़र में कुछ हमने 
 सबकी नज़रें बचा के देख लिया 

 फैज़ साहब की ग़ज़लों को भारत पकिस्तान के आला गायकों ने अपने स्वर दिए हैं। मेहदी हसन साहब को बुलंदियों पर पहुँचाने में फैज़ की ग़ज़ल "गुलों में रंग भरे बादे-नौबहार चले , चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले "को कौन भूल सकता है। इक़बाल बानो के अलावा 'टीना सानी , बेग़म अख्तर , रेखा भारद्वाज और आबिदा परवीन ने भी उन्हें खूब गाया है। फैज़ की ग़ज़लों और नज़्मों को किसी देश विशेष की सीमा में बाँध कर नहीं रखा जा सकता सकता। उनके चाहने वाले दुनिया के हर कोने में मौजूद हैं। जब तक उर्दू शायरी है फैज़ का नाम ज़िंदा रहेगा। फ़िराक़, साहिर और फैज़ एक की कालखंड में हुए और तीनो अपने अपने क्षेत्रों में किसी से कम नहीं आंके जा सकते। हिंदी में उनकी किताबें अमेज़न पर उपलब्ध हैं और ये किताब जिसका जिक्र किया जा रहा है ,जिसे नारायण दत्त शगल एन्ड सन्स दरीबा कलाँ दिल्ली ने सन 1959 में प्रकाशित किया और जनाब नूरनबी अब्बासी साहब ने सम्पादित किया था अब शायद ही कहीं मिले।

 तुम्हारी याद के जब ज़ख्म भरने लगते हैं 
 किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं 

 हदीसे-यार के उन्वां निखारने लगते हैं 
 तो हर हरीम में गेसू सँवरने लगते हैं 

 दरे-कफ़स पे अँधेरे की मुहर लगती है 
 तो 'फैज़'दिल में सितारे उतरने लगते हैं 

 पाकिस्तान सरकार ने फैज़ साहब के गुज़रने के 6 साल बाद उन्हें पाकिस्तान का सर्वोच्च सिविलियन पुरूस्कार "निशान-ऐ-इम्तियाज़"प्रदान किया। पंजाबी , रशियन , इंग्लिश ,उर्दू ,अरबी और पर्शियन भाषा के विद्वान फैज़ साहब अपने लिखे कलाम से हमेशा ज़िंदा रहेंगे। दुनिया भर में फैले शायरी के लाखों दीवाने उन्हें कभी नहीं भूलेंगे। आईये चलने से पहले पढ़े उनके कुछ कताआत जो लोगों को जबानी याद हैं और रहेंगे :

 रात यूँ दिल में तिरि खोई हुई याद आई 
 जैसे वीराने में चुपके से बहार आ जाये 
 जैसे सहराओं में हौले से चले बादे - नसीम 
 जैसे बीमार को बे-व्जह करार आ जाये 
 ***
 मता-ऐ-लौहो-क़लम छिन गई तो क्या ग़म है 
 कि ख़ूने-दिल में डुबो ली हैं उँगलियाँ मैंने 
 ज़ुबाँ पे मुहर लगी है तो क्या कि रखदी है
 हरेक हल्फ़-ऐ-ज़ंज़ीर में ज़ुबाँ मैंने
 *** 
तिरा जमाल निगाहों में ले के उठ्ठा हूँ
 निखर गई है फ़िज़ा तेरे पैरहन की सी 
 नसीम तेरे शबिस्ताँ से होक आई है
 मिरी सहरा में महक है तिरे बदन की सी 
 *** 
सुब्ह फूटी तो आसमाँ पे तिरे 
 रंगे-रुख़्सार की फुहार गिरी 
 रात छाई तो रू-ऐ-आलम पर 
 तेरी ज़ुल्फ़ों की आबशार गिरी 
 *** 
न आज लुत्फ़ कर इतना कि कल गुज़र न सके 
 वो रात जो कि तिरे गेसुओं की रात नहीं 
 ये आरज़ू भी बड़ी चीज़ है मगर हमदम 
 विसाले-यार फ़क़त आरज़ू की बात नहीं 
 *** 
सारी दुनिया से दूर हो जाये 
 जो ज़रा तेरे पास हो बैठे 
 न गई तेरी बेरुखी न गई 
 हम तेरी आरज़ू भी खो बैठे


लीजिये सुनिए उस ऐतिहासिक कलाम को जिसने लाखों मज़बूर मज़लूम लोगों में ज़ुल्म के ख़िलाफ़ बग़ावत करने का साहस जगाया और पहचानिये एक औरत की ताकत को जो एक खूंखार तानाशाह को सरे आम चुनौती पेश करती है । क्या हुआ अगर आपने इसे पहले से ही सुना हुआ है -एक बार और दिल के धड़कने का सबब याद आये तो क्या बुरा है :- 

किताबों की दुनिया - 194

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सिर्फ कमरे में बिछा कालीन देखा है 
आपने कालीन की दुनिया नहीं देखी
 *** 
अजब मेरी कहानी है कि जिसमें 
कहीं भी ज़िक्र मेरा ही नहीं है 
 *** 
तूने मुझे जो अच्छा बताया तो ये हुआ 
 अपनी कई बुराइयाँ फिर याद आ गईं 
 *** 
तराशी हुई नोक पर है सियासत 
 जिसे चुभ रही है वही बेखबर है
 *** 
सर उठा कर उम्र भर लड़ता रहा, अब क्या हुआ 
 जीतने के वक्त ही क्यों नीची गर्दन हो गई 
 ***
 बड़े आराम से हैं प्रश्न सारे 
 फ़ज़ीहत उत्तरों की हो रही है 
 *** 
मुझे जो सुख मिला है क्या बताऊँ 
 घड़ी जो बंद थी उसको चला कर
 *** 
मैं घर में अब अकेला हूँ बताने 
 मैं सोशल मीडिया पर छा रहा हूँ 
 *** 
कोई सीखे राह बनाना इनके रस्ते पर चलकर 
 मरने की सौ विपदाओं में हैं जीने के कौशल ख़्वाब 
 *** 
इक हरेपन की नई उम्मीद तो जागे 
 जेठ में चल चिठ्ठियां बरसात की बाँटें 

 आज से लगभग 50 साल पहले एक फिल्म आयी थी "तलाश "जिसमें मन्ना डे साहब का गाया और सचिन देव बर्मन दा के संगीत से सजा गाना "तेरे नैना तलाश करें जिसे, वो है तुझी में कहीं दीवाने"बहुत प्रचलित हुआ। इस गाने में एक बहुत सच्ची बात को आसान लफ़्ज़ों में कह दिया गया था जबकि इसी बात को अधिकतर सूफी संतों ने में भी कहा है, लेकिन क्या है न की फ़िल्मी गानों का असर हम पर देर तक रहता है इसलिए ये याद रहा। हम गाना सुन लेते हैं सूफी संतों को पढ़ लेते हैं लेकिन करते वो ही हैं जिसे हम ठीक समझते हैं ,तभी आप देखिये हर किसी को किसी न किसी चीज की तलाश है और हर कोई उसे अपने भीतर न ढूंढते हुए बाहर ढूंढता है। तलाश चाहे ज़िन्दगी की हो ,ख़ुशी की हो ,शांति की हो ,रास्ते की या किसी मंज़िल की हो, ईश्वर की हो या फिर अपनी प्रेमिका की और कुछ नहीं तो स्वर्ग की या फिर मोक्ष की-तलाशा उसे बाहर ही जाता है। हम सभी का जीवन एक लम्बी तलाश ही तो है। इस तलाश से हासिल क्या होता है ये बहस का मुद्दा हो सकता है इसलिए इसे यहीं छोड़ते हैं.

 जो डूबा है वही तारा तलाशूँ 
 मैं अपने में तेरा होना तलाशूँ 

 जवाबों से गई उम्मीद जबसे 
 सवालों में कोई रस्ता तलाशूँ 

 तुम्हारे लौटने तक भी तुम्हीं हो 
 ख़ुदा का शुक्र है मैं क्या तलाशूँ 

 मेरा चेहरा अगर मिल जाए मुझको 
 तो फिर गुम है जो आईना तलाशूँ 

 हमारे आज के शायर जनाब "विनय मिश्र"जी ने इस सतत तलाश को अपनी ग़ज़ल की किताब "तेरा होना तलाशूँ "में जगह जगह, अलग अलग अंदाज़ और खूबसूरत लफ़्ज़ों से कुछ इस तरह पिरोया है कि लगने लगता है ये तलाश सिर्फ उनकी अपनी नहीं बल्कि कहीं न कहीं हम सभी की है। ये बात ही उन्हें विशिष्टता प्रदान करती है। आज के इस दौर में जहाँ अंधाधुन्द ग़ज़लें कही जा रही है वहाँ अपनी अलग पहचान बनाना आसान नहीं। अति किसी भी क्षेत्र में हो बुरी होती है ,आपने देखा ही होगा कि बाढ़ में चढ़ी नदी का पानी हमेशा आम बहने वाली नदी के पानी से गदला होता है। ये ही हाल आज कल ग़ज़ल लेखन का हो गया है. सोशल मिडिया पर ग़ज़लों का उफान सा आया हुआ है। पता नहीं क्यों लोगों को ऐसा लगता है कि अगर उन्होंने ग़ज़ल नहीं कही तो कहीं आने वाले समय में ये विधा ही ख़तम न हो जाय और ये कि ये विधा उनके कारण ही जीवित रह पाएगी। उन्हें ये नहीं पता कि वो ही ग़ज़ल की जड़ में मठ्ठा डाल रहे हैं। दरअसल ग़ज़ल अभ्यास से नहीं अनुभव से आती है। अभ्यास से आप ग़ज़ल के नियमों में परिपक़्व हो सकते हैं लेकिन उसमें डाले जाने वाले भाव, अनुभव से आते हैं।

 बांटने वाली कोई जब तक हवा मौजूद है 
 हम गले मिलते रहें पर फासला मौजूद है 

 और कुछ ज्यादा संभलकर और कुछ हो कर सजग
 भीड़ में जो चल सको तो रास्ता मौजूद है 

 आंसुओं का इक समंदर चुप्पियों का एक शोर 
 इस अकेले में ग़ज़ब की सम्पदा मौजूद है 

 विनय जी का जन्म उत्तर प्रदेश के देवरिया में 12 अगस्त 1966 को हुआ , अब आप ये मत पूछना कि देवरिया कहाँ है, क्यों की अगर आप पूछेंगे तो मुझे बताना पड़ेगा कि वो गोरखपुर से कोई 50 की.मी की दूरी पर है। देवरिया में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ,वाराणसी को चुना और वहां से एम्.ऐ.(हिंदी ) और फिर 'तुलसी दास का रचनात्मक दायित्व बोध पर पी.एच.डी की डिग्री हासिल की ।अब कोई हिंदी में एम.ऐ.करे और हिंदी की किसी विधा में कलम भी चलाये ऐसा कोई नियम तो नहीं है लेकिन अक्सर देखा गया है कि हिंदी या उर्दू में डिग्रियां हासिल करने वाले उस भाषा की किसी न किसी विधा में लिखने से अपने आपको रोक नहीं पाते। लिहाज़ा लिखते हैं ,कुछ का लिखा पढ़ा जाता है और अधिकतर का लिखा किसी का ध्यान आकर्षित नहीं कर पाता। कारण साफ़ है किसी भाषा का ज्ञान होना अलग बात है और उस भाषा में कुछ लिखना अलग। भाषा सम्प्रेषण का माध्यम मात्र है लेखन के लिए आपके पास भाव होना जरूरी है और अगर आप भाषा के साथ साथ भाव भी रखते हैं तो ही आप'विनय मिश्र'बन सकते हैं।

 राजमहलों के इरादे थे बड़े लेकिन मुझे 
 झुग्गियों का उन इरादों में दख़ल अद्भुत लगा 

 सब सफल होने की चाहत में लगे हैं रात दिन 
 इसलिए सबको मेरा होना विफल अद्भुत लगा 

 जो नहीं है उसका होना आज मुमकिन ही नहीं
 प्रश्न जैसा ही मिला उत्तर सरल अद्भुत लगा 

 विनय जी ने अपना साहित्यिक सफर कविता लेखन से शुरू किया। वाराणसी प्रवास के दौरान उनकी मुलाकात ग़ज़ल के सशक्त हस्ताक्षर उस्ताद शायर जनाब 'मेयार सनेही"साहब से हो गयी। उसके बाद उनका हाल वो हुआ जो लोहे का पारस पत्थर के स्पर्श से होता है। सनेही साहब ने उन्हें ग़ज़ल के व्याकरण के साथ साथ वो बारीकियां भी समझायीं जो एक साधारण शायर को असाधारण बनाती हैं। उन्होंने ने ही 'विनय'जी को ऊँगली पकड़ कर अपने पाँव पर खड़े होना और फिर चलना सिखाया। किसी अच्छे गुरु का मिलना किस्मत की बात होती है ,विनय जी किस्मत के धनी निकले। विनय जी भी अपनी मेहनत और लगन से इसी कोशिश में लगे रहते हैं कि उनके कलाम को पढ़ कर उस्ताद को गर्व हो।
(मेयार सनेहीजी का जिक्र किताबों की दुनिया-82 में हो चुका है)

 उस शहर में ऊंचे ऊंचे थे मकान 
 ज़िन्दगी का एक भी कमरा न था 

 जो उदासी में सुनाया था तुम्हें 
 कल ख़ुशी में क्या वही किस्सा न था 

 याद आने के बहाने थे कई 
 भूलने का एक भी रस्ता न था 

 विनय जी पहली पुस्तक 'सूरज तो अपने हिसाब से निकलेगा"में उनकी कवितायेँ संगृहीत हैं। उसके बाद उनका ग़ज़ल संग्रह "सच और है"मंज़र-ऐ-आम पर आया और बहुत मकबूल हुआ। उन्होंने मंजू अरुण की रचनावली का संपादन भी किया है जो 'पलाश वन दहकते हैं'शीर्षक से प्रकाशित हुआ। 'तेरा होना तलाशूँ "उनका दूसरा ग़ज़ल संग्रह है जो अप्रेल 2018 में शिल्पायन बुक्स ,शाहदरा ,दिल्ली से प्रकाशित हुआ। इस संग्रह को विनय जी ने 'हिंदी कविता में ग़ज़ल विमर्श को आगे बढ़ाने वाले ख्यातिलब्ध जनधर्मी आलोचक डा. जीवन सिंहजी को समर्पित किया है। विनय जी की कवितायेँ ,गीत ,नवगीत दोहे ,मुक्त छंद और ग़ज़लें देश की प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में नियमित रूप से छपती रहती हैं।

 ये बुरी बात है सियासत में 
 आदमी होना फिर भला होना 

 सोचकर देख कैसा लगता है 
 सूखते ज़ख्म का हरा होना 

 मंज़िलें एक जब नहीं सबकी 
 राह में तब किसी का क्या होना 

 विनय जी की ग़ज़लें विविधता लिए हुए हैं। उन्होंने सामाजिक सरोकारों पर इंसानी फितरत पर राजनितिक परिपेक्ष्य पर कलम चलायी है। इनकी ग़ज़लें हमारे आज के युग की नुमाइंदगी करती हैं। सीधी सरल भाषा में बात करना वो भी ऐसी जो सबकी हो कई बार दोहराई गयी हो उसे ही सबसे हट कर कहना बहुत मुश्किल काम होता है। विनय जी इस काम को अधिकतर बहुत खूबी से इस किताब में कुशलता पूर्वक करते नज़र आते हैं। मुझे लगता है कि वो आत्ममुग्धता के शिकार नहीं हैं वो तालियां बटोरने या सस्ती लोकप्रियता के लिए ग़ज़लें नहीं कहते। उन्हें जब जो बात लगती है कि कहनी ही चाहिए शायद तभी वो उसे शेरों में ढालते हैं। आज के दौर में ऐसा करने वाले वो अद्भुत इंसान हैं।

 कुटिलता का प्रबंधन है चतुर्दिक 
 सरलता का कोई पूजक नहीं है 

 दुखों के एक ध्रुव पर हैं खड़े हम 
 यहाँ बस बर्फ है चकमक नहीं है

 हमारे दौर का संकट न पूछो
 दिशा तो है दिशासूचक नहीं है 

 विनय जी ग़ज़लों का स्वर खुरदरा है वो अपनी बात को मखमल का मुलम्मा चढ़ा कर पेश नहीं करते। उनमें काले को काला कहने का साहस है इसीलिए वो ये जोखिम उठा लेते हैं। प्रसिद्ध समीक्षिका "रंजना गुप्ता"लिखती हैं कि "प्रतिपक्ष का सारथी बनकर जीवन समर के मध्य रथ खींचना, विनय मिश्र को बख़ूबी आता है। वे अपनी ग़ज़लों के बहाने से दुनिया भर की तकलीफ़ों और तजुर्बों का बयान करते हैं। बहुत-से मसलों पर उन्होंने बेबाक़ी से बात की है। जनसंघर्ष, सर्वहारावर्ग, बाज़ारवाद, राजनीतिक कुटिलता, अवसरवाद के साथ ही बच रहा अकेलापन, प्रेम की बेचारगी और निर्मम समय की दिनों-दिन बढ़ती दुश्वारियों को उन्होंने बहुत शिद्दत से अपनी ग़ज़लों में रेखांकित किया है

 मैं लौटा हूँ घर की तरफ हाथ खाली
 मैं जैसा हूँ वैसा ही संसार निकला 

 शहर घूमकर शाम तक गाँव लौटा 
 वो माटी का माधो समझदार निकला 

 कई याद की सीपियों में पला जब 
मेरा दर्द होके चमकदार निकला

 'शब्द कारखाना' ( हिंदी त्रैमासिक ) के ग़ज़ल अंक के अतिथि संपादक विनय जी इन दिनों राजकीय कला स्नातकोत्तर महाविद्यालय अलवर (राज.) के हिंदी विभाग में असोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप शिल्पायन बुक्स दिल्ली से 011-22826078 पर संपर्क करें और विनय जी को 0144-2730188 अथवा 9414810083पर संपर्क कर बधाई दें। एक अच्छे और सच्चे शायर की हौसला अफ़ज़ाही करना आपका फ़र्ज़ बनता है। इस किताब में संगृहीत विनय जी की 105 ग़ज़लों के सभी शेर कुछ न कुछ कहते जरूर हैं लेकिन सभी को यहाँ प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। आपसे अनुरोध है कि आप इस किताब को पढ़ें और फिर विनय जी को उनके लाजवाब कलाम के लिए दिल से दुआ दें। चलने से पहले उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाता हूँ :

 दुखों से बात कर ली जी घड़ी भर हो गया हल्का 
 नहीं तो कौन इस मेले में अपना यार लगता है 

 कभी यादों के झुरमुट में जहाँ चौपाल सजती थी 
वहीँ मैं देखता हूँ अब खुला बाजार लगता है 

 ये मेरा दिल तुम्हारी खुशबुओं का एक गुलशन था 
 समय बदला है तो गुलशन ये कांटेदार लगता है

किताबों की दुनिया - 195

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कांटा है वो कि जिसने चमन को लहू दिया 
 ख़ूने -बहार जिसने पिया है , वो फूल है 
 *** 
अपने पहलू में सजा लो तो इसे चैन आये
 दिल मेरा ग़म की धड़कती हुई तस्वीर सही 
 *** 
न जाने कौनसी मंज़िल पे आ पहुंचा है प्यार अपना
 न हमको एतबार अपना, न उनको एतबार अपना 
 *** 
भंवर से बच निकलना तो कोई मुश्किल नहीं लेकिन 
 सफ़ीने ऐन दरिया के किनारे डूब जाते हैं
 *** 
ओ बेरहम मुसाफ़िर हँसकर साहिल की तौहीन न कर 
 हमने अपनी नाव डुबाकर तुझको पार उतारा है
 *** 
अकसर उबल पड़ी है मेरी ओक से शराब 
 यूँ भी दुआ को हाथ उठाता रहा हूँ मैं
 *** 
थक गया मैं करते करते याद तुझको 
 अब तुझे मैं याद आना चाहता हूँ 
 *** 
ना जाने किस अदा से लिया तूने मेरा नाम 
 दुनिया समझ रही है कि सब कुछ तेरा हूँ मैं 
 *** 
ना कोई ख़्वाब हमारे हैं न ताबीरें हैं 
 हम तो पानी पे बनाई हुई तस्वीरें हैं 
 *** 
न हो उनपे कुछ मेरा बस नहीं , कि ये आशिक़ी है हवस नहीं 
 मैं उन्हीं का था मैं उन्हीं का हूँ ,वो मेरे नहीं तो नहीं सही 

लाहौर शहर में सुबह के चार बजे हैं, बरसात हो रही है ,एक गोल चेहरे पर तीखी मूंछों वाला , काले घुंघराले बालों और चमकीली आँखों वाला इंसान आवाज़ लगाता है "ओये मुंडू उठ ओये चार बज गए ,तेल गरम करके लया फटाफट छेती !! मुंडू , उनका सेवक ,जो अभी तक गहरी नींद में था स्प्रिंग लगे गुड्डे की तरह अपने बिस्तर से उछलता है तेल गरम करता है एक कटोरी में डालता है और उस इंसान के पास आकर खड़ा हो जाता है जिसने अब सिर्फ लंगोट धारण कर रखा है और जो जमीन पे पेट के बल लेटा हुआ है। मुंडू को पता है कि क्या करना है - ये तो उसका रोज का काम है एक घंटा उस इंसान की जम के तेल मालिश। मालिश के बाद इन हज़रत का दंड पेलने का सिलसिला शुरू होता है , मुंडू का काम है गिनना जिसमें वो अक्सर गलती करता है लिहाज़ा सौ की जगह ढेड़ सौ दंड पेलना आम बात हो गयी है। पसीने में नहाये ये जनाब अब सीधे आकर अपनी टेबल पर बैठेंगे। आप सोच रहे होंगे कि मैं किसी पहलवान का जिक्र कर रहा हूँ ,आपकी सोच सही है इस तरह का इंसान पहलवान ही हो सकता है, लेकिन नहीं -अब ये हज़रत खिड़की से गिरती बारिश की बूंदों को देखते हैं और गुनगुना उठते हैं : "रात भर बूंदियां रक़्स करती रहीं , भीगी मौसिकियों ने सवेरा किया "आप भी मानेंगे कि ऐसा काव्य रचने वाला इंसान, पहलवान भले हो न हो लेकिन शायर जरूर होगा।

 पूछ रही है दुनिया मुझसे वो हरजाई चाँद कहाँ है 
 दिल कहता है गैर के बस में , मैं कहता हूँ मेरे दिल में 

 डरते-डरते सोच रहा हूँ वो मेरे हैं अब भी शायद 
 वर्ना कौन किया करता है यूँ फेरों पर फेरे दिल में 

 उजड़ी यादों टूटे सपनों शायद कुछ मालूम हो तुमको 
 कौन उठाता है रह-रहकर टीसें शाम-सवेरे दिल में 

 इस तरह तेल मालिश और दंड पेलने के बाद जहाँ अखाड़ा सजना चाहिए ख़म ठोकने और पेंतरे बदलने की मशक्कत होनी चाहिए वहां इसके ठीक विपरीत शेर कहे जा रहे हैं जिनमें झरनों का संगीत नदी की कल-कल, फूलों की महक, भंवरों की गुँजन, बादलों की गड़गड़ाहट, पपीहे की पीहू पीहू और महबूब की लचकती कमर का बखान पिरोया जा रहा है। ये शख्स जो जाति का पठान है और जिसने पेट पालने के लिए कभी गेंद बल्ले बेचे तो कभी रैकेट कभी लुंगियां बेचीं तो कभी कुल्ले कभी चुंगीखाने में कलर्की की तो कभी बस कम्पनियों में टिकट बेचे याने हर तरह का गैर शायराना काम किया और साथ ही की लाजवाब शायरी। शायरी दरअसल आपके अंदर होती है ,आप पहाड़ों की वादियों में, फूलों की घाटियों में या जिस्म के बाज़ारों में बैठें तो ही शायरी कर पाएंगे ऐसा तो कतई जरूरी नहीं और अगर आपके अंदर शायरी है ही नहीं तो साहब आप लाख दंड पेल लें आपके अंदर से एक मिसरा भी फूट जाए तो कहना।

 निकल कर दैरो-क़ाबा से अगर मिलता न मैखाना 
 तो ठुकराए हुए इन्सां खुदा जाने कहाँ जाते 

 तुम्हारी बेरुख़ी ने लाज रख ली बादा-खाने की 
 तुम आँखों से पिला देते तो पैमाने कहाँ जाते 

 चलो अच्छा हुआ काम आ गयी दीवानगी अपनी 
 वगर्ना हम ज़माने भर को समझाने कहाँ जाते 

 हमारे आज के जो शायर साहब हैं न, शायरी उनमें कूट कूट कर भरी हुई है ये तेल मालिश और दंड पेलने की कवायद उस शायरी को अपने अंदर से बाहर कागज़ पर उतारने के लिए की जाती है। ये भी एक तरीका है मूड बनाने का हाँ ये तरीका जरा अलग है इसलिए हमें हजम नहीं होता। हम देखते आये हैं कि शायरी को अपने अंदर से बाहर निकालने के लिए शायर या तो लगातार सिगरेट पीते हैं या तो शराब, या दोनों एक साथ ,कुछ चाय की केतली सामने रखते हैं कुछ रात के सन्नाटे का इंतज़ार करते हैं तो कुछ महबूब के पहलू में लेटने का लेकिन कोई दंड बैठक निकाल कर पसीने पसीने हो कर शायरी करे ऐसा कभी देखा-सुना-पढ़ा ही नहीं। लेकिन जो है सो है। अब क्या पता शायद इसी कसरत की वज़ह से उनके अंदर से बाहर निकलने वाली शायरी की बदौलत उनका पूरी दुनिया में नाम है और उनके लाखों चाहने वाले हैं। जो उन्हें पहचान गए हैं उन्हें सलाम और जो नहीं पहचान पाए हैं उन्हें बताते हैं हमारे आज के शायर का नाम : क़तील शिफ़ाईप्रकाश पंडितद्वारा सम्पादित और राजपाल एन्ड संस् द्वारा प्रकाशित किताब "क़तील शिफ़ाई और उनकी शायरी"हमारे सामने है :


ऐ शामे-अलम कुछ तू ही बता ये ढंग तुझे कुछ आया है  
दिल मेरी खोज में निकला था और तुझको ढूंढ के लाया है

 इक हल्की हल्की धूप मिली उस कोमल रूप के परदे में 
 फागुन की ठिठुरती रातों को जब भादों ने गर्माया है 

 मैं फूल समझ कर चुन लूँगा इन भीगे से अंगारों को 
 आँखों की इबादत का मैंने पहले भी यही फल पाया है 

 ये उस जमाने की बात है, लेकिन कम ज्यादा आज भी लागू होती है, वो ये कि अगर कोई शायर है तो उसकी एक अदद प्रेमिका भी होगी, इसलिए हमारे क़तील साहब की भी थी। और वो थी भी कोई ऐसी वैसी नहीं, सिनेमा की खूबसूरत अदाकारा थी, नाम था चंद्रकांता। उनका प्रेम रॉकेट की गति से परवान चढ़ा और डेढ़ साल में रॉकेट की गति से ही जमीन पर धड़ाम आ गिरा। चंद्रकांता तो कपडे झाड़ कर मुस्कराते हुए तू नहीं और सही और नहीं और सही गुनगुनाते हुए उठ खड़ी हुई लेकिन क़तील साहब वहीँ पड़े रह गए ,दिल पे गहरी चोट खाये हुए। एक तो शायर ऊपर से दिल पे लगी गहरी चोट याने सोने में सुहागा , लोगों ने सोचा अब तो क़तील साहब से विरह की ऐसी ऐसी ग़ज़लें पढ़ने सुनने को मिलेंगी कि अश्कों से तर दामन सूखने का नाम ही नहीं लेगा पर हुआ इसका उल्टा। क़तील ने चंद्रकांता की बेवफाई पर लिखने और कोसने के बजाए उन हालातों पर उन मज़बूरियों पर क़लम चलाई जिसकी वजह से चंद्रकांता उन्हें छोड़ गयी। 

 ये भी कोई बात है आखिर दूर ही दूर रहें मतवाले 
 हरजाई है चाँद का जोबन या पंछी को प्यार नहीं है 

 एक जरा सा दिल है जिसको तोड़ के तुम भी जा सकते हो 
 ये सोने का तौक़ नहीं, ये चांदी की दीवार नहीं है 
तौक़=फंदा 

 मल्लाहों ने साहिल -साहिल मौजों की तौहीन तो कर दी 
लेकिन फिर भी कोई भंवर तक जाने को तैयार नहीं है 

 पंजाब जो अब पकिस्तान के हिस्से में है की तहसील हरिपुर के जिले हज़ारा में 24 दिसंबर 1919 को क़तील साहब का जन्म हुआ। स्कूली और कालेज की पढाई रावलपिंडी में रह कर पूरी की। हर पिता की तरह क़तील के पिता भी यही चाहते थे कि उनका बेटा शायरी जैसे शौक न पाले और एक अच्छी सी नौकरी कर इज़्ज़त की ज़िन्दगी बसर करे और हर नालायक बेटे की तरह क़तील साहब ने पिता की बात नहीं मानी और वो किया जो उनके दिल ने कहा। रावलपिंडी में उनका पत्राचार प्रसिद्ध शायर जनाब 'अहमद नदीम क़ासमी साहब से शुरू हुआ। उनकी रहनुमाई में उन्होंने यथार्थवादी शायरी के गुर सीखे। इस से पहले क़तील साहब रोती बिसूरती लिजलिजी मोहब्बत में लिपटी शायरी किया करते थे और अपने उस्ताद शायर जनाब 'शिफ़ा कानपुरी 'साहब से इस्लाह लिया करते थे। शिफ़ा साहब के शागिर्द की हैसियत से उन्होंने अपना नाम क़तील शिफ़ाई कर लिया था जबकि उनका असली नाम 'औरंगजेब खान'था. 

 बज़्मे-अंजुम से नज़र घूम के लौट आई है 
 फिर वही मैं हूँ वही आलमे-तन्हाई है 

 गुनगुनाती हुई आती हैं फ़लक से बूँदें 
 कोई बदली तेरी पाज़ेब से टकराई है 

 पास रह कर भी ये दूरी मुझे मंज़ूर नहीं 
 इस से बेहतर तो मेरी आलमे -तन्हाई है 

 अभिनेत्री चंद्रकांता का क़तील साहब की ज़िन्दगी से रुख़सत होना खुद क़तील साहब के लिए ठीक हुआ या नहीं ये कहना मुश्किल है लेकिन ये हादसा उर्दू शायरी के लिए नेमत बन कर आया। उसके बाद क़तील ने जो शायरी की है उस से उर्दू साहित्य बहुत समृद्ध हुआ। उर्दू शायरी की डगर को उन्होंने ज्यादा साफ़ सुंदर और प्रकाशमान बनाया। मनीष अपने ब्लॉग "एक शाम मेरे नाम'में लिखते हैं कि "क़तील की शायरी को जितना पढ़ेंगे आप ये महसूस करेंगे कि प्रेम, वियोग बेवफ़ाई की भावना को जिस शिद्दत से उन्होंने अपनी लेखनी का विषय बनाया है वैसा गिने चुने शायरों की शायरी में ही नज़र आता है। जनाब सरदार ज़ाफ़री साहब ने क़तील साहब के बारे में एक जुमला कहा है कि पहाड़ी के ख़ुश्क सीने से उबलता हुआ एक चश्मा ( हरी-भरी वादियों से गुनगुनाता हुआ गुज़र रहा है। और इसका नग़मा सुनकर कलियां आंखें खोल देती हैं। इस चश्मे का नाम क़तील शिफ़ाई है।

 खीरामे-नाज़ --और उनका खीरामे -नाज़ ? क्या कहना 
 ज़माना ठोकरें खाता हुआ महसूस होता है 
 खीरामे-नाज़ =सुन्दर चाल 

 किसी की नुकरई पाज़ेब की झंकार के सदके 
 मुझे सारा जहां गाता हुआ महसूस होता है
नुकरई = चांदी की


 'क़तील'अब दिल की धड़कन बन गई है चाप क़दमों की 
 कोई मेरी तरफ़ आता हुआ महसूस -होता है 

 क़तील साहब के एक दोस्त हुआ करते थे जनाब ए.हमीद उन्होंने क़तील की शख्सियत का ख़ाका कुछ यूँ खिंचा है "माज़ी में पीछे जाता हूं तो क़तील की एक शक्ल उभरती है : घने स्याह घुंघरियाले बाल, मज़बूत क़ुव्वत इरादे की अलामत, चौड़े नथुनों वाली सुतवां रोमन नाक, सुर्ख-ओ-सफ़ेद मुस्कराता हुआ ख़ूबसूरत चेहरा, हज़ारे की मर्दाना वजाहत का भरपूर मज़हर, वालिहाना जज़्बात और तेज़ फ़हम की अकास आंखें, शेरों में पायल की खनक, बातों में बेसा$ख्तगी व बेबाकी, कोई लगी-लिपटी नहीं, पीठ पीछे करने वाली बातों को मुंह पर कह देने वाला....नाराज़गियां मोल लेने वाला.... क़तील शिफ़ाई।''अब इन्हीं क़तील साहब की इस ग़ज़ल के शेर पढ़ें जो इश्क-ओ -मुहब्बत की खूबसूरत वादियों से दूर हक़ीक़त की सख़्त चट्टान की तरह हैं और आज भी उतने ही मौजू हैं जितने आज से पचास साल पहले थे :

 खून से लिथड़े चेहरे पर ये भूखी नंगी रअनाई 
 देख ज़माने देख ये मेरे ख़्वाबों की शहज़ादी है 
 रअनाई =सुंदरता

 पत्ती-पत्ती डाली-डाली कोस रही है मौसम को 
 लेकिन अपने बाग़ का माली इन बातों का आदी है

 शुक्र करो ऐ गुलशन वालो आज क़फ़स की कैद नहीं 
 बाग़ में भूखों मरने की हर पंछी को आज़ादी है 

 मुहब्बतों का शायर कहते हैं क़तील साहब को लेकिन उन्हें समाजी और खासकर महरूम तबके की फ़िक्र कुछ कम न थी।उनके नर्मो-नाज़ुक दिल में सब इंसानों के बराबर होने का सपना पलता था और इस धरती पर रची गई इंसानी ग़ैर-बराबरी बेचैन करती थी। अपने मुल्क के हालात उन्हें बेचैन किया करते थे। अपनी नज़्मों गीतों और ग़ज़लों में उनकी बेचैनी साफ़ तौर पर नज़र आती है। हर संवेदनशील इंसान चाहे वो शायर हो न हो अपने आसपास के बदलते बिगड़ते माहौल को देख कर व्यथित होता ही है ये अलग बात है कि अपनी व्यथा को व्यक्त करने के तरीके सब के एक जैसे नहीं होते। क़तील चूँकि शायर थे लिहाज़ा उन्होंने अपनी मानसिक वेदना का इज़हार अपनी रचनाओं के माध्यम से व्यक्त किया और क्या ही खूब किया।

 क़फ़स में आँधियों का नाम सुनके मुतमइन न हो 
 ये बागबां का हुस्ने- गुफ़्तगू है और कुछ नहीं 

 सरूरे-मय कहाँ , कि दिल की तश्नगी बुझाएं हम 
 इस अंजुमन में साया-ए-सुबू है और कुछ नहीं 

 तुम्हें गुलों की बेबसी में हुस्न की तलाश है 
 ये जुस्तजू बराए जुस्तजू है ,और कुछ नहीं 

 क़तील अपने बारे में लिखते हैं कि ''यूं तो मुझे बारह-तेरह बरस की उम्र से ही मेरी सोच मुझे बेचैन सा रखती थी लेकिन महसूस करके शेर कहने की इब्तिदा 1935 ईस्वी से हुई जब अचानक मेरे शाह खर्च बाप का साया मेरे सर से उठ गया और मेरे शऊर ने मेरे रंगारंग तजुर्बों को अपने अंदर जज़्ब करना शुरू किया। मुझे ज़िंदगी में पहली बार इस हक़ीक़त को समझने की फ़ुरसत मिली कि लोग एक-एक चेहरे पर कई-कई चेहरे सजाए बैठे हैं।''उनकी एक चेहरे पे कई चेहरे वाली बात को जनाब साहिर लुधियानवी ने 'दाग'फिल्म के गाने के लिए बहुत खूबी से इस्तेमाल किया है। साहिर और क़तील साहब में जबरदस्त याराना था दोनों लाहौर में पास पास रहते थे। साहिर ही तरह क़तील साहब ने भी पाकिस्तानी और हिंदुस्तानी फिल्मों के लिए भी खूब गाने लिखे लेकिन अपनी शायरी के मयार से समझौता नहीं किया।उनके गीत 'घुँघरू टूट गए --"को तो दोनों मुल्कों के न जाने कितने गायकों ने आवाज़ दी है। फ़िल्मी गाने लिखने के दौरान ही उनका इश्क पाकिस्तान की मशहूर गायिका इकबाल बानो से परवान चढ़ा लेकिन शादी की देहलीज़ से ही वापस लौट गया।

 चमन वाले ख़िज़ाँ के नाम से घबरा नहीं सकते
 कुछ ऐसे फूल भी खिलते हैं जो मुरझा नहीं सकते

 समाअत साथ देती है तो सुनते हैं वो अफ़साने
 जो पलकों से झलकते हैं ज़बां पर आ नहीं सकते

 हमें पतवार अपने हाथ में लेने पड़ें शायद
 ये कैसे नाखुदा हैं जो भंवर तक जा नहीं सकते

 आप सोच रहे होंगे कि मैं 'क़तील "साहब की उन ग़ज़लों जिन्हें जगजीत सिंह , मेहदी हसन और गुलाम अली साहब ने गा कर अमर कर दिया है जैसे 'अपने होंठों पर सजाना चाहता हूँ ' , 'ये मोज़ज़ा भी मोहब्बत कभी दिखाए मुझे' , 'अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझे' , 'सदमा तो है मुझे भी कि तुझसे जुदा हूँ मैं ' , 'मिल कर जुदा हुए तो न रोया करेंगे हम' , 'यारों किसी क़ातिल से कभी प्यार न मांगो' , 'ज़िन्दगी में तो सभी प्यार किया करते हैं' ,'शोला था जल बुझा हूँ' , 'किया है प्यार जिसे हमने ज़िन्दगी की तरह ' ,आदि का जिक्र क्यों नहीं कर रहा तो उसका कारण ये है कि वो ग़ज़लें इस किताब में नहीं है क्यूंकि ये किताब तो 1959 में प्रकाशित हुई थी 1959 से 11 जुलाई 2001 तक याने जब तक वो मौजूद रहे तब तक के 42 सालों के दौरान जो ग़ज़लें कहीं वो इस किताब में नहीं हैं वो किसी और किताब में होंगी लेकिन क्यूंकि इसमें नहीं है इसलिए इसमें जो ग़ज़लें हैं मैं सिर्फ उन्हें ही आप तक पहुंचाऊंगा। क़तील साहब के बारे में जानकारी मैंने जरूर इस किताब के अलावा इंटरनेट से प्राप्त सूचनाओं और प्रसिद्ध ब्लॉगर मनीष कुमार और राजकुमार केसवानी साहब के ब्लॉग से इकठ्ठा की है।

 वो फूल से लम्हें भारी हैं अब याद के नाज़ुक शानों पर
 जो प्यार से तुमने सौंपे थे आगाज़ में इक दीवाने को

 इक साथ फ़ना हो जाने से इक जश्न तो बरपा होता है
 यूँ तनहा जलना ठीक नहीं समझाए कोई परवाने को

 मैं रात का भेद तो खोलूंगा जब नींद मुझे न आएगी
 क्यों चाँद-सितारे आते हैं हर रात मुझे समझने को

ये किताब आप https://www.pustak.org/books/bookdetails/4992की साइट से या फिर राजपाल एन्ड संस् दिल्ली से भी मंगवा सकते हैं।  क़तील शिफ़ाई साहब पर अगर आप लिखने पे आएं तो लिखते ही चले जा सकते हैं ,मैं तो अपनी रौ में लिखता चला जा रहा हूँ लेकिन मुझे ये भी तो ध्यान रखना पड़ेगा कि आपका वक्त बहुत कीमती है और मुझे अब यहीं रुक जाना चाहिए इसलिए आपसे अब रुखसत की इज़ाज़त ले रहा हूँ। हाँ जाने से पहले आपको उनकी एक बहुत मशहूर ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाता चलता हूँ , यूँ पढ़वाने की तमन्ना तो और भी बहुत कुछ थी लेकिन खैर -कहते हैं न कि सब कुछ पूरा कभी नहीं मिलना चाहिए थोड़ी सी कसक बाकी रहनी चाहिए तभी ज़िन्दगी में मज़ा बना रहता है :

 परीशां रात सारी है सितारो तुम तो सो जाओ 
 सुकूते-मर्ग तारी है सितारो तुम तो सो जाओ 

 हमें तो आज की शब् पौ फ़टे तक जागना होगा 
 यही किस्मत हमारी है सितारो तुम तो सो जाओ 

 हमें भी नींद आ जायेगी हम भी सो ही जायेंगे 
 अभी कुछ बेकरारी है सितारो तुम तो सो जाओ

किताबों की दुनिया - 196

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हम तो रात का मतलब समझे, ख़्वाब, सितारे, चाँद, चराग़  
आगे का अहवाल वो जाने जिसने रात गुज़ारी हो 
 अहवाल =हाल 
 *** 
मुझे कमी नहीं रहती कभी मोहब्बत की
 ये मेरा रिज़्क़ है और आस्मां से आता है 
 रिज़्क़=जीविका
 *** 
वो शोला है तो मुझे ख़ाक भी करे आख़िर 
 अगर दिया है तो कुछ अपनी लौ बढाए भी
 *** 
अपने लहू के शोर से तंग आ चुका हूँ मैं 
 किसने इसे बदन में नज़र-बंद कर दिया 
 *** 
रंग आसान हैं पहचान लिए जाते हैं
 देखने से कहीं ख़ुश्बू का पता चलता है
 *** 
रेत पर थक के गिरा हूँ तो हवा पूछती है 
 आप इस दश्त में क्यों आए थे वहशत के बगैर 
 वहशत=दीवानगी 
 *** 
जिस्म की रानाइयों तक ख्वाइशों की भीड़ है
 ये तमाशा ख़त्म हो जाए तो घर जाएंगे लोग 
 *** 
 ऐसा गुमराह किया था तिरी ख़ामोशी ने 
 सब समझते थे तिरा चाहने वाला मुझको
 *** 
उदास ख़ुश्क लबों पर लरज़ रहा होगा 
 वो एक बोसा जो अब तक मिरी जबीं पे नहीं 
 ***
 वो रुक गया था मिरे बाम से उतरते हुए
 जहां पे देख रहे हो चराग़ जीने में
 *** 
आशिकी के भी कुछ आदाब हुआ करते हैं 
 ज़ख्म खाया है तो क्या हश्र उठाने लग जाएँ 
 हश्र =हंगामा

 मेरी समझ में दुनिया में तीन तरह के लोग होते हैं - ये अलग बात है कि मेरी समझ कोई ज्यादा नहीं है लेकिन जितनी भी है उस हिसाब से कह रहा हूँ- पहले वो लोग जिनके पास क़ाबलियत का समंदर होता है लेकिन वो ज़ाहिर ऐसे करते हैं जैसे उनके पास बस बूँद भर क़ाबलियत है दूसरे वो जिनके पास बूँद भर क़ाबलियत होती है लेकिन वो दुनिया को बताते हैं की उनके पास क़ाबलियत का समंदर है तीसरे वो जिनके पास क़ाबलियत का समंदर तो छोड़ें एक बूँद भी नहीं होती लेकिन ज़ाहिर ऐसे करते हैं जैसे दुनिया में अगर किसी के पास काबलियत है तो सिर्फ उनके पास। दूसरे और तीसरे किस्म के लोग सोशल मिडिया में छाये हुए हैं इसलिए उनका जिक्र किताबों की दुनिया में करके क्यों अपना और आपका वक्त बर्बाद किया जाय।

 लग्ज़िशें कौन सँभाले कि मोहब्बत में यहाँ 
 हमने पहले भी बहुत बोझ उठाया हुआ है 
 लग्ज़िशें =भूल 
 *** 
मिली है जान तो उसपर निसार क्यों न करूँ
 तू ऐ बदन मिरे रस्ते में आने वाला कौन ? 
*** 
इश्क में कहते हैं फरहाद ने काटा था पहाड़ 
 हमने दिन काट दिए ये भी हुनर है साईं 
 *** 
मेरे होने में किसी तौर से शामिल हो जाओ 
 तुम मसीहा नहीं होते हो तो क़ातिल हो जाओ 
 मसीहा =मुर्दे में जान डालने वाला 
 *** 
बदन के दोनों किनारों से जल रहा हूँ मैं 
 कि छू रहा हूँ तुझे और पिघल रहा हूँ मैं 
 *** 
हवा गुलाब को छू कर गुज़रती रहती है 
 सो मैं भी इतना गुनहगार रहना चाहता हूँ
 *** 
मैं झपटने के लिए ढूंढ रहा हूँ मौक़ा 
 और वो शोख़ समझता है कि शर्माता हूँ 
 *** 
लिपट भी जाता था अक्सर वो मेरे सीने से
 और एक फ़ासला सा दर्मियाँ भी रखता था
 *** 
रात को जीत तो पाता नहीं लेकिन ये चराग़ 
 कम से कम रात का नुक्सान बहुत करता है 

 आज जिस शायर की किताब की बात हम कर रहे हैं वो पहली श्रेणी के शायर हैं ,अफसोस इस बात का नहीं है कि इस शायर ने अपनी काबलियत का ढिंढोरा नहीं पीटा अफ़सोस इस बात का है कि हमने उनकी काबलियत को उनके रहते उतना नहीं पहचाना जिसके वो हकदार थे। एक बात तो तय है भले ही किसी शायर को उसके जीते जी इतनी तवज्जो न मिले लेकिन जिस किसी में भी क़ाबलियत होती है उसका काम उसके सामने नहीं तो उसके बाद बोलता है, लेकिन बोलता जरूर है। किसी ने कहा है -किसने ? ये याद नहीं कि आपके लिखे को अगर कोई दौ-चार सौ साल बाद पढता है या पहचानता है तो समझिये आपने वाकई कुछ किया है वर्ना तो प्रसिद्धि पानी पर बने बुलबुले की तरह होती है ,इधर से मिली उधर से गयी। आज जिनको लोग सर माथे पे बिठाते हैं कल उन्हें को गिराने में वक्त नहीं लगाते। ऐसे सैंकड़ों उदाहरण हमारे सामने हैं ,सिर्फ शायरी में ही नहीं हर क्षेत्र में जहाँ हमने कथाकथित महान लोगों को अर्श से फर्श पर औंधे मुंह गिरते देखा है।

 मैं तेरी मन्ज़िल-ए-जां तक पहुँच तो सकता हूँ 
 मगर ये राह बदन की तरफ़ से आती है 

 ये मुश्क है कि मोहब्बत मुझे नहीं मालूम 
 महक सी मेरे हिरन की तरफ़ से आती है 

 किसी के वादा-ए-फ़र्दा के बर्ग-ओ-बार की खैर
 ये आग हिज़्र के बन की तरफ से आती है
 वादा-ए-फ़र्दा=कल मिलने का वादा , बर्गफल -ओ-बार=फल पत्ते फूल 

आप शायरी भी पढ़ते चलिए और साथ में मेरी बकबक भी जैसे खेत में फसल के साथ खरपतवार होती हैं न वैसे ही। अब ये बताइये कि क्यों काबिलियत होते हुए भी किसी को उसके जीते जी उतनी प्रसिद्धि नहीं मिलती ? मेरे ख्याल से उसका कारण शायद ये है कि क़ाबिल लोग ज्यादातर जो बात करते हैं वो उनके समय से आगे की होती है या फिर बात वो होती है जिसे बहुमत समझ नहीं पाता। हम जिसे समझ नहीं पाते उसे या तो नकार देते हैं या सर पर बिठा लेते हैं। नकारना अपेक्षाकृत आसान होता है इसलिए ज्यादातर बुद्धिजीवियों को नकार दिया जाता है फिर सदियों में उसकी कही लिखी बातों का विश्लेषण होता है तब कहीं जा के समझ में आता है कि जिसे हमें नकारा था वो कितना महान था। देखा ये गया है कि अकेले चलने वाले से अक्सर भीड़ में चलने के आदी लोग कतराते हैं उन्हें वो अपनी जमात का नहीं लगता। हम दरअसल धडों में बटें लोग हैं, आप चाहे इस बात को माने न मानें। हमें लगता है कि जिस धड़े में हम हैं वो सर्वश्रेष्ठ है। दूसरे धड़े के लोग हमारी क्या बराबरी करेंगे। धड़े के मठाधीश दूसरे धड़े के क़ाबिल इंसान की क़ाबिलियत को या तो सिरे से नकार देते हैं या उसकी और ध्यान ही नहीं देते।

 बस इक उमीद पे हमने गुज़ार दी इक उम्र 
 बस एक बूँद से कुहसार कट गया आखिर 
 कुहसार=पहाड़

 बचा रहा था मैं शहज़ोर दुश्मनों से उसे 
 मगर वो शख़्स मुझी से लिपट गया आखिर 
 शहज़ोर =ताक़तवर 

 हमारे दाग़ छुपाती रिवायतें कब तक 
 लिबास भी तो पुराना था फट गया आख़िर

 चलिए अब आज की ग़ज़ल की किताब की और रुख करते हैं जिसका शीर्षक है "मन्ज़र-ए-शब-ताब"जिसके शायर हैं जनाब 'इरफ़ान सिद्द्की'साहब। वही इरफ़ान सिद्द्की जो 11 मार्च 1939 को उत्तरप्रदेश के बदायूँ में पैदा हुए , बरेली में पढ़े लिखे और 15 अप्रेल 2004 को लख़नऊ में इस दुनिया-ए-फ़ानी से कूच कर गए। बहुत से लोग बदायूँ में पैदा होते हैं और लखनऊ में जन्नत नशीन होते हैं लेकिन इनमें से शायद ही कोई 'इरफान सिद्द्की 'जैसा होता है। मुझे ये बात कहने में कोई शर्म नहीं कि मेरे लिए ये नाम अब तक अनजाना था। आपने जरूर इनके बारे में पढ़ा सुना होगा लेकिन हम जैसे लोग जो उर्दू से मोहब्बत तो करते हैं लेकिन पढ़ नहीं सकते, इरफ़ान सिद्द्की साहब तक आसानी से नहीं पहुँच सकते। कारण ? ये भी बताना पड़ेगा ? वैसे सीधा सा है -इनकी कोई किताब हिंदी में किसी बड़े प्रकाशक द्वारा प्रकाशित नहीं हुई - किसी पत्रिका या अखबार में कभी छपे हों तो मुझे पता नहीं - मुशायरों में खूब गए हों इसका भी कहीं जिक्र नहीं मिलता - सोशल मिडिया में इनके किसी फैन क्लब की भी सूचना मुझे नहीं है -तो बताइये कैसे पता चलेगा इनके बारे में ?


 ढक गईं फिर संदली शाखें सुनहरी बौर से 
 लड़कियां धानी दोपट्टे सर पे ताने आ गईं

 फिर धनक के रंग बाज़ारों में लहराने लगे
 तितलियाँ मासूम बच्चों को रिझाने आ गईं 

 खुल रहे होंगे छतों पर सांवली शामों के बाल 
 कितनी यादें हमको घर वापस बुलाने आ गईं 

 बिल्ली के भाग्य से छींका तब टूटा जब रेख़्ता बुक्स वालों ने उनकी ग़ज़लों की ये किताब शाया की। आप उनकी शायरी पढ़ते हुए अब तक समझ ही होंगे कि वो किस क़ाबलियत के शायर थे। उनकी शायरी के बारे में मेरे जैसा अनाड़ी तो भला क्या कह पायेगा अलबत्ता इरफ़ान साहब के बारे में जो थोड़ी बहुत जानकारी मैंने जुटाई है वो ही आपसे साझा कर रहा हूँ। वैसे आपकी सूचना के लिए बता हूँ कि ये जो गूगल महाशय हैं ये भी बहुमत के हिसाब से ही चलते हैं ,इनसे किसी इरफ़ान सिद्दीकी साहब जैसे शायर की जानकारी प्राप्त करना आसान काम नहीं। वहां से जो हासिल हुआ वो था की इरफ़ान साहब 1962 में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की केंद्रीय सूचना सर्विसेस से जुड़ गए. नौकरी के सिलसिले में दिल्ली, लखनऊ आदि स्थानों पर रहे. यह नियाज़ बदायूंनी के छोटे भाई थे. उनके पुस्तकों के नाम हैं: ‘कैनवस’, ‘इश्क नामा’, ‘शबे दरमयाँ’, ‘सात समावात’ . इसके अलावा “हवाए दश्ते मारया” और “दरया” भी उनके कुछ रिसाला नुमा किताबों में शामिल हैं. ये किताबें पाकिस्तान से प्रकाशित हुईं 

ज़मीं छुटी तो भटक जाओगे ख़लाओं में 
 तुम उड़ते उड़ते कहीं आस्मां न छू लेना 

 नहीं तो बर्फ़ सा पानी तुम्हें जला देगा 
 गिलास लेते हुए उँगलियाँ न छू लेना 

 उड़े तो फिर न मिलेंगे रिफ़ाक़तों के परिन्द
 शिकायतों से भरी टहनियां न छू लेना
 रिफ़ाक़तों =दोस्ती 

 इरफ़ान साहब की शायरी के बारे में इस किताब की भूमिका में जनाब शारिब रुदौलवी लिखते हैं कि 'इरफ़ान सिद्द्की की शायरी में इश्क की दो कैफ़ियतें मिलती हैं। एक जिसमें गर्मी है, लम्स है ,एहसास की शिद्दत है और कुर्बत (समीपता ) का लुत्फ़ है और दूसरे में एहसास-ए-जमाल (सौंदर्य बोध )है , मोहब्बत है, खुशबू है. इरफ़ान सिद्दीकी के यहाँ जिस्म,लम्स और विसाल का जिक्र है। इस कैफ़ियत (अवस्था )में भी उनके यहाँ बड़ा तवाजुन (संतुलन )है। ये नाज़ुक मरहला था लेकिन उन्होंने उसे बहुत ख़ूबसूरती से तय किया है। उनके यहाँ इश्क़ न तो सिर्फ तसव्वुराती (काल्पनिक) और ख़याली है और न वो तहज़ीबी ज़वाल (पतन) के ज़माने के बाला-खानो (कोठों) में परवरिश पाने वाला इश्क है। एक ज़िंदा शख़्स का ज़िंदा शख़्स से इश्क है। इरफ़ान सिद्दीकी ने उसे जिस तरह अपनी शायरी में बरता है उसने उर्दू की इश्क़िया शायरी के वक़ार ( प्रतिष्ठा ) में इज़ाफा किया है। "शारिब साहब के इस कथन की पुष्टि इस किताब को पढ़ते वक्त होती जाती है।

 उठो ये मंज़र-ए-शब्-ताब देखने के लिए
 कि नींद शर्त नहीं ख़्वाब देखने के लिए 
 मंज़र-ए-शब्-ताब=रात को रोशन करने वाला दृश्य 

 अजब हरीफ़ था मेरे ही साथ डूब गया 
 मिरे सफ़ीने को ग़र्क़ाब देखने के लिए
 हरीफ़ =प्रतिद्वंदी ,ग़र्क़ाब =डूबना 

 जो हो सके तो जरा शहसवार लौट के आएं
 पियादगां को ज़फ़रयाब देखने के लिए 
 शहसवार =अच्छा घुड़सवार , पियादगां =पैदल सिपाही , ज़फ़रयाब =विजयी

 लखनऊ जहाँ शायर पनपते थे वहीँ उनमें आपसी धड़ेबंदी भी खूब चलती थी। इरफान साहब जैसा कि मैंने पहले बताया है इस घटिया किस्म की अदबी सफबन्दी के खिलाफ थे लिहाज़ा इसका खामियाज़ा भी उन्हें भुगतना पड़ा। वो बहुत से ऐसे सम्मानों से जिसे उनके समकालीन शायरों को नवाज़ा गया था , महरूम रह गए। इस बात की टीस उन्हें रही भी। एक बेइंतिहा पढ़े-लिखे ,बेपनाह अच्छे शायर और एक शरीफ आदमी के लिए ये अदबी नाइंसाफियां नाक़ाबिले बर्दाश्त होती हैं कभी कभी तो ये पीड़ा भावुक आदमी की जान भी ले लेती है। अगर उनके साथ ज़माने का सलूक थोड़ा भी दोस्ताना होता तो शायद वो कुछ बरस और जी लेते। ऐसा नहीं है कि ये घटिया रिवायत अब नहीं रही अब भी है और पहले से कहीं ज्यादा खूंखार रूप में है। टीवी शो हों ,मुशायरे हों, अदबी रिसालों में छपने की बात हो या फिर किताब छपवाने की कवायद हो अगर आप किसी धड़े का हिस्सा नहीं है तो फिर फेसबुक या सोशल मिडिया के सहारे दिन काटिये और पढ़ने वालों का इंतज़ार कीजिये।

 उसको मंज़ूर नहीं है मिरी गुमराही भी 
 और मुझे राह पे लाना भी नहीं चाहता है 

 अपने किस काम में लाएगा बताता भी नहीं 
 हमको औरों पे गंवाना भी नहीं चाहता है 

 मेरे लफ़्ज़ों में भी छुपता नहीं पैकर उसका
 दिल मगर नाम बताना भी नहीं चाहता है 

 लखनऊ के शायरों का जिक्र हो और जनाब वाली आसी का नाम ज़हन में न आये ऐसा तो हो ही नहीं सकता। जो लोग किताबों की दुनिया नियमित रूप से पढ़ते आये हैं उन्हें याद होगा कि वाली साहब का जिक्र भारत भूषण पंत साहब की किताब वाली पोस्ट में विस्तार से किया था। वाली आसी साहब की लखनऊ में किताबों की दूकान थी जहाँ सभी शायर शाम के वक्त गपशप करने और शायरी पर संजीदा गुफ्तगू करने इकठ्ठा हुआ करते थे। इरफ़ान साहब वाली साहब के चहेते शायर थे और उनके कितने ही शेर उन्हें ज़बानी याद थे। इरफ़ान साहब की शायरी अपने वतन से ज्यादा पकिस्तान में मशहूर थी बल्कि बहुत से लोग उन्हें पाकिस्तानी शायर ही समझते थे। मुनव्वर राणा साहब ने अपनी किताब 'मीर आके लौट गया 'में इरफ़ान साहब के बारे में एक रोचक किस्सा दर्ज़ किया है। आप इरफ़ान साहब के ये शेर पढ़ें फिर वो किस्सा बताता हूँ :

 अब इसके बाद घने जंगलों की मंज़िल है 
 ये वक्त है कि पलट जाएँ हमसफ़र मेरे 

 ख़बर नहीं है मिरे घर न आने वाले को 
 कि उसके क़द से तो ऊंचे हैं बाम-ओ-दर मेरे 

 हरीफ़े-ऐ-तेग़-ए-सितमगर तो कर दिया है तुझे 
 अब और मुझसे तू क्या चाहता है सर मेरे 
 हरीफ़े-ऐ-तेग़-ए-सितमगर=अत्याचारी की तलवार का प्रतिद्वंदी

 हुआ यूँ कि एक दफह पकिस्तान के मशहूर शायर जनाब 'इफ़्तिख़ार आरिफ़'साहब लखनऊ अपने वतन तशरीफ़ लाये। आरिफ़ साहब के नाम की तूती उस वक्त पूरे उर्दू जगत में बजती थी -उनके मुकाबले का तो छोड़िये उनके आस पास भी किसी शायर का नाम फटकता नहीं था। उन्होंने मुनव्वर साहब से जो अपनी कार से आरिफ़ साहब को होटल छोड़ने जा रहे थे पूछा कि 'मुनव्वर मियां आपकी अदबी सूझ-बूझ और मुतालिए (अध्ययन )के सभी कायल हैं - आप बताइये कि इरफ़ान सिद्दीकी अच्छे शायर हैं या मैं ? मुनव्वर साहब एक पल को चौंके फिर उन्होंने कहा कि 'देखिये इफ़्तिख़ार भाई मेरी इल्मी हैसियत के हिसाब से आपकी ग़ज़लों का दायरा महदूद (सीमित ) है लेकिन इरफ़ान भाई ने ग़ज़ल में नए मौज़ूआत के ढेर लगा दिए हैं "ये सुन कर इफ्तिखार साहब ने कहा 'मुनव्वर इस लिहाज़ से तुम्हारा तजज़िया गैर जानिब दाराना (पक्षपात रहित ) है -पाकिस्तान में भी इरफ़ान भाई मुझसे बड़े शायर माने जाते हैं "

 हट के देखेंगे उसे रौनक-ए-महफ़िल से कभी 
 सब्ज़ मौसम में तो हर पेड़ हरा लगता है 

 ऐसी बेरंग भी शायद न हो कल की दुनिया 
 फूल से बच्चों के चेहरों से पता लगता है 

 देखने वालो मुझे उससे अलग मत जानो 
 यूं तो हर साया ही पैकर से जुदा लगता है 

 इरफ़ान साहब को उर्दू अकादमी उत्तर प्रदेश और ग़ालिब इंस्टीट्यूट ने सम्मानित किया है। उनके अदबी सफर पर मगध बुद्ध विश्विद्यालय से डॉक्टरेट किया गया है। पाकिस्तान के बहावलपुर विश्विद्यालय और पंजाब विश्वविद्यालय के छात्रों उनके किये काम पर थीसिस लिखी। जिन्हें शायरी में कुछ अलग हट कर पढ़ने की चाह है उनके लिए तो ये किताब किसी वरदान से कम नहीं। सच्ची और अच्छी शायरी पढ़ने वालों के लिए इस किताब का उनके हाथ में होना जरूरी है। किताब को आसानी से आप अमेज़न से आन लाइन मंगवा सकते हैं। दिल्ली में कोई परिचित हो तो उसकी मदद से आप इसे रेख़्ता के दफ्तर से ख़रीद कर भी मंगवा सकते हैं। आप क्या करते हैं ये आप पर है लेकिन मेरी तो सिर्फ इतनी सी गुज़ारिश है कि इस किताब को पढ़ें जरूर। चलते चलते उनकी एक लाजवाब ग़ज़ल के ये शेर आपको पढ़वाता चलता हूँ :

 सख्त-जां हम सा कोई तुमने न देखा होगा 
 हमने क़ातिल कई देखे हैं तुम्हारे जैसे 

 दीदनी है मुझे सीने से लगाना उसका 
 अपने शानों से कोई बोझ उतारे जैसे 
 दीदनी =देखने योग्य 

 अब जो चमका है ये खंज़र तो ख्याल आता है 
 तुझको देखा हो कभी नहर किनारे जैसे 

 उसकी आँखें हैं कि इक डूबने वाला इंसां
 दूसरे डूबने वाले को पुकारे जैसे

किताबों की दुनिया - 197

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सिर्फ मंज़िल पे पहुँचने का जुनूँ होता है 
 इश्क में मील के पत्थर नहीं देखे जाते 
 *** 
जिसका पेट भरा है वो क्या समझेगा 
 भूख से मरने वाले कितने भूखे थे
 *** 
 इसके मजमे की कोई सीमा नहीं 
 आदमी दर्शक मदारी ज़िन्दगी 
 *** 
एक जलता हुआ चिराग हूँ मैं 
 मुझको मालूम है हवा क्या है
 *** 
जो कुछ है तेरे पास वही काम आएगा 
 बारिश की आस में कभी मटकी न फोड़ तू
 *** 
बढ़ी जब बेकली कल रात ,हमने 
 तुम्हारा नाम फिर गूगल किया है
 *** 
अर्दली हो के भी समझे है ये खुद को अफसर 
 ये मेरा जिस्म मेरी रूह का पैकर देखो 
 *** 
इश्क का मतलब समझ कर देखिएगा 
 क़ुरबतें महसूस होंगी फासलों में
 *** 
मिला तो सबक दूंगा इंसानियत का 
 मैं खुद में छुपा जानवर ढूंढता हूँ 
 *** 
जिस बशर की दस्तरस में कोई दरया था नहीं 
 प्यास की शिद्दत में वो आतिश को पानी लिख गया 

 बड़ा ही मुश्किल होता है एक तो किसी स्थापित प्रसिद्ध लोकप्रिय शायर पर लिखना और दूसरे किसी अनजान शायर पर लिखना। पहली श्रेणी के शायर के बारे में सभी को इतना कुछ मालूम होता है कि आप जो भी लिखें वही सबको पहले से पता होता है उसमें कुछ नया जोड़ना आसान नहीं होता और दूसरी श्रेणी के बारे में जब आपको कुछ पता ही नहीं होता है तो लिखेंगे कैसे और क्या ? ऐसे मामले में मैंने अक्सर देखा है कि सोशल मीडिया और सर्वज्ञानी गूगल बाबा भी अपना मुंह छुपा लेता है। आप उसके बारे में फिर यहाँ, वहां या जहाँ से भी थोड़ी सी सम्भावना दिखे जानकारी बटोरते हैं और इस अधकचरी जानकारी से मिले छोटे छोटे सूत्र इकठ्ठा करते हैं और फिर उन्हें आपस में जोड़ने की कोशिश करते हैं जिसमें कभी सफलता मिल जाती है तो कभी नहीं। हमारे आज के शायर दूसरी श्रेणी के हैं याने इनके बारे में मैंने न कभी सुना न कभी कहीं पढ़ा। किताब के कुछ पन्ने पलटे तो लगा कि इसे तो पूरा पढ़ना पड़ेगा। ये सरसरी तौर पर नज़र डाल कर रख देने वाली किताब नहीं है।

 रहगुज़ारे-दिल से गुज़रा शाम को उनका ख़्याल 
 रक़्स यादों का मगर अब रात भर होने को है 

 क्या पता मिटटी को अब वो कूज़ागर क्या रूप दे 
 हाँ मगर हंगामा कोई चाक पर होने को है 

 मुस्कराहट क्यों ज़िया की हो रही मद्धम 'दिनेश' 
क्या चिरागों पर हवाओं का असर होने को है 

 बात शुरू करते हैं कैथल से जो हरियाणा के शहर कुरुक्षेत्र से लगभग 54 की.मी की दूरी पर है। कैथल को हनुमान जी की जन्म स्थली भी माना जाता है और यही वो जगह है जहाँ भारत की पहली महिला शासक रज़िया सुल्तान की मज़ार स्थित है, लेकिन हम कैथल नहीं रुकेंगे उस से आगे चलेंगे ज्यादा नहीं ,यही कोई 18 -19 की.मी और पहुंचेंगे पूण्डरी गाँव। देखिये सावन का महीना है और ये सारा गाँव महक रहा है फिरनी की खुशबू से। कहते हैं जिसने पूंडरी गाँव की बनी फिरनी सावन में नहीं खाई तो फिर उसने जीवन में क्या खाया ? फिरनी एक तरह की मिठाई है जो मैदे और चीनी से बनाई जाती है और देश में ही नहीं विदेशों में भी सावन के महीने में पूंडरी से मंगवाई जाती है और बड़े चाव से खाई जाती है। इस फिरनी के अनूठे स्वाद के कारण ही पूंडरी का नाम लोगों की ज़बान पर है। इसी छोटे से गाँव के हैं हमारे आज के शायर जो देखने में पहलवान जैसे लगते हैं लेकिन हैं दिल के बहुत कोमल। जिस तरह की ग़ज़लें वो कह रहे हैं मुझे यकीन है कि आज नहीं तो कल पूंडरी को लोग उनके नाम 'दिनेश कुमार'की वजह से भी जानेंगे। दिनेश जी का पहला ग़ज़ल संग्रह 'तुम हो कहाँ'अभी हमारे सामने है :


 नफ़स के इन परिंदों की कहानी भी अजीब है
 कि जब भी शाम हो गयी सफर तमाम हो गया 
 नफ़स =सांस 

 नसीब हम ग़रीबों का न बदला लोकतंत्र में 
 नया है हुक्मरां भले नया निज़ाम हो गया 

 सफर कलंदरों का कब है मंज़िलों पे मुनहसिर 
 जहाँ कहीं क़दम रुके वहीँ क़याम हो गया 
 मुनहसिर =आश्रित

 25 अक्टूबर 1977 को पूंडरी जिला कैथल में जन्में दिनेश ने कुरुक्षेत्र विश्विद्यालय से वाणिज्य विषय में स्नातक की डिग्री हासिल की। गाँव और घर का माहौल ऐसा नहीं था कि दिनेश जी कविताओं या शायरी की और झुकते लेकिन उसके बावजूद ऐसा हुआ और पत्थरों की दीवार से जिस तरह एक कोंपल फूट निकलती है कुछ वैसे ही शायरी उनमें से निकल कर बाहर आयी। कारण ढूंढने की कोशिश करेंगे तो शायद सफलता हाथ नहीं लगेगी कि क्यों बचपन में वो दूरदर्शन और रेडियो से प्रसारित होने वाले कवि सम्मेलनों और मुशायरों के जूनून की हद तक दीवाने थे। सन 2005 याने 28 वर्ष की उम्र में उन्होंने पहली तुकबंदी की और उसे करनाल की एक काव्य गोष्ठी में सुनाया तो लोगों ने खूब पसंद किया। उत्साह बढ़ा तो बिना ग़ज़लों का व्याकरण समझे 7 -8 ग़ज़लें कह डालीं लेकिन जल्द ही ग़मे रोज़गार ने उनके इस परवान चढ़ते शौक के पर क़तर दिए।

 घुप अँधेरे में उजाले की किरण सा जीवन 
 जो भी जी जाए वो दुनिया में अमर होता है 

 आपसी प्यार मकीनों में हो, घर तब तब होगा 
 दरो-दीवार का ढाँचा तो खंडर होता है 

 वो न सह पायेगा इक पल भी हक़ीक़त की तपिश
 जिसके ख़्वाबों का महल मोम का घर होता है 

 ज़िन्दगी, जीने की जद्दो जहद में गुज़रती रही मन में उठते विचार कागज़ पर उतरने को तरसते रहे। लगभग 9 साल बाद याने 2014 में दिनेश जी ने अपनी एक ग़ज़लनुमा रचना फेसबुक पर डाली तो उसके बाद उन्हें जो प्रतिक्रिया मिली उस से पता लगा कि ग़ज़ल के लिए बहर का ज्ञान बहुत जरूरी है। सोचिये पूंडरी जैसे छोटे गाँव में ग़ज़ल के नियमों की जानकारी उन्हें कौन देता ?लिहाज़ा उन्होंने इंटरनेट की शरण ली। किस्मत से उन्हें डा ललित कुमार सिंह , नीलेश शेवगांवकर और डा अशोक गोयल जैसे हमेशा मदद करने को तैयार रहने वाले लोगों का साथ मिला। मुहतरम अनवर बिजनौरी साहब की किताब 'शायरी और व्याकरण'ने भी उनकी बहुत मदद की। सीख वही सकता है जो अपनी गलतियों से सबक ले और अगर कोई आपकी कमियां बताये तो उसे सकारात्मक ढंग से स्वीकार करे । दिनेश जी ने ये ही रास्ता अपनाया। उनका ,सीखने का 2014 में चला ये सिलसिला आज भी जारी है।

 ढो रहे हैं बोझ हम तहज़ीब का 
 गर्मजोशी अब कहाँ आदाब में 

 कौन करता रौशनी की क़द्र अब 
 ढूंढते हैं दाग सब महताब में 

 सिर्फ इतना सा है अफ़साना 'दिनेश' 
 ज़िन्दगी मैंने गुज़ारी ख्वाब में 

 दिनेश जी के लिखने पढ़ने के इस सिलसिले को एक झटका तब लगा जब उन्हें सन 2016 में दिल की गंभीर बीमारी ने आ घेरा। बीमारी कोई भी हो इंसान को तोड़ देती है और अगर दिल की हो तो और भी। दिनेश इस बीमारी की चपेट में आकर मानसिक रूप से बहुत कमज़ोर हो गए। इलाज़ के लिए पर्याप्त धन का अभाव, बीमारी से और ऑपरेशन से पैदा हुई परेशानियों ने उनकी कलम एक बार फिर उनके हाथ से छीन ली। सोशल मिडिया के अपने फायदे नुक्सान हैं लेकिन इसकी बदौलत हमें जीवन में कुछ ऐसे लोग मिल जाते हैं जिनकी सोहबत में आपकी परेशानियां ,दुःख तकलीफें कम हो जाती है। दिनेश जी सौभाग्यशाली हैं कि मुसीबत की घडी में हौसला देने वालों की उन्हें कभी कमी नहीं रही और इसी हौसले की बदौलत वो ज़िन्दगी के मैदान-ए-जंग में फिर से ताल ठोक कर आ खड़े हुए।

 हमको तो क्यूंकि अपने सितमगर से प्यार था 
 ज़ोरो-जफ़ा का उस से गिला कर न सके हम 

 रंजो-अलम को सहने की आदत जो पड़ गई 
 फिर अपने सोज़े -दिल की दवा कर न सके हम 

 आज उनके तसव्वुरात का बंधन अजीब था 
 मरने तलक तो खुद को रिहा कर न सके हम

 'साहित्य सभा 'कैथल में चलने वाली उस मयारी मासिक काव्य गोष्ठी का नाम है जिसमें शिरक़त करना शायर के लिए फ़क्र की बात मानी जाती है. हर माह इस गोष्ठी द्वारा ग़ज़ल प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है जिसमें कैथल के ही नहीं पूरे हरियाणा और उसके आसपास के शायर भाग लेते हैं। दिनेश जी ने इस प्रतियोगिता में समय समय पर कभी तृतीय कभी द्वितीय तो कभी प्रथम स्थान ग्रहण किया है। श्री अमृत लाल मदान जो इस काव्यगोष्ठी के प्रधान हैं ने इस किताब की भूमिका में लिखा है कि "मेरी लिए यह हैरानी का सबब रहा है कि आज जबकि ख़ालिस उर्दू जानने वालों की तादाद बहुत कम हो गयी है ,कैसे वाणिज्य पढ़ा कस्बे का ये नौजवान स्नातक एहसासात से लबालब ग़ज़लें कह लेता है , कैसे मुश्किल से मुश्किल उर्दू के अल्फ़ाज़ को शायरी की दिलकश चाशनी के रूप में परोस कर सामने रख देता है "

 हक़-परस्ती की डगर पर है ख़मोशी छाई
 झूठ की पैरवी करते हैं ज़माने वाले

 अपने उपदेशों की गठरी को उठाले ज़ाहिद
 मयक़दे जाएंगे ही मयक़दे जाने वाले

 अपनी हिम्मत से नया बाब कोई लिखते हैं
 सर नहीं देखते, दस्तार बचाने वाले

 मजे की बात है कि बिना किसी उस्ताद की मदद लिए उर्दू ज़बान दिनेश जी ने इंटरनेट के माध्यम से सीखी। उनके पास और कोई रास्ता भी नहीं था क्यूंकि कस्बे में उर्दू सिखाने वाला कोई ढंग का उस्ताद मिला नहीं ,नौकरी की वजह से रोज रोज कैथल तो जा नहीं सकते थे लिहाज़ा इंटरनेट की शरण ले ली। उनका कहना है कि अभी उनको उर्दू लिखने में दिक्कत आती है अलबत्ता वो धीरे धीरे पढ़ जरूर लेते हैं। इस से उनकी झुझारू प्रवृति का पता चलता है, उनके जूनून की खबर लगती है। मुझे ऐसे सुदूर इलाकों में रहने वाले अनजान शायरों को पढ़ना अच्छा लगता है भले ही उनकी शायरी अभी कच्ची है मयार भी बहुत ऊंचा नहीं है लेकिन उनका हौसला बुलंद है। जो लोग स्थापित नहीं हैं उनके तरफ खड़े रहने वालों की हमेशा कमी रहेगी मगर जो लोग जुनूनी हैं उनके लिए इस बात से अधिक फ़र्क नहीं पड़ता कि कितने लोग उनके साथ खड़े हैं। आप दिल से लिखते रहें तो एक दिन चाहने वालों की भीड़ खुद-ब -खुद आपकी तरफ खींची चली आएगी।

 अगरचे काम कोई मेरा बेमिसाल नहीं 
 मगर सुकूँ है यही दिल को कुछ मलाल नहीं 

 वफ़ा की राह पे चल कर किसी को कुछ न मिला 
 मगर मैं ज़िंदा हूँ अब तक ये क्या कमाल नहीं 

 हम अब भी रातों को उठ उठ के उनको छूते हैं 
 हुई है उम्र मगर इश्क में ज़वाल नहीं 
 ज़वाल =गिरावट /कमी 

 दिनेश जी के इस पहले ग़ज़ल संग्रह को 'शब्दांकुर प्रकाशन'मदनगीर , नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है। इस किताब को आप प्रकाशक को उनके ईमेल अड्रेस shabdankurprkashan@gmail.comपर मेल करके प्राप्ति का रास्ता पूछ सकते हैं या 09811863500 परकॉल कर सकते हैं ,सबसे बढ़िया तो ये रहेगा कि आप अपने कीमती समय से एक छोटा सा हिस्सा निकाल कर दिनेश जी को उनके मोबाईल न. 09896755813पर फोन करके बधाई दें और किताब प्राप्ति का रास्ता पूछें। किसी अनजान शायर की हौसला अफ़ज़ाही करना सबाब का काम होता है क्यूंकि आपके एक फोन से जो ख़ुशी दिनेश जी को मिलेगी वो शायद उन्हें किसी बड़े सम्मान को प्राप्त करके भी न मिले -ये बात मैं अपने अनुभव से कह रहा हूँ और अगर आप भी कुछ लिखते हैं तो पाठक के फोन से मिलने वाली ऊर्जा को समझ सकते हैं।

अपने मिलने का इक दर खुला छोड़ दे 
 चारागर ज़ख्म कोई हरा छोड़ दे 

 तेरी नस्लों को दुश्वारी होगी नहीं 
 दश्ते-सहरा में तू नक़्शे-पा छोड़ दे

 सिर्फ खुशियाँ ही जीवन का हासिल नहीं
 कुछ ग़मों के लिए हाशिया छोड़ दे 

 वक्त आ गया है कि अब किसी नयी किताब की तलाश के लिए निकला जाय इसलिए दिनेश जी की ज़िन्दगी के लगभग हर पहलू को नज़दीक से देखती-भालती पुर कशिश अंदाज़ वाली ग़ज़लों की चर्चा को विराम दिया जाय। चलते चलते आईये पढ़ते हैं उनकी एक छोटी बहर में कही ग़ज़ल के ये शेर :

 मेरे चेहरे पे जब चेहरा नहीं था 
 मैं तब आईने से डरता नहीं था 

 ग़मों से जब नहीं वाबस्तगी थी
 मैं इतनी ज़ोर से हँसता नहीं था 

 नज़ाकत ताज़गी कुछ बेवफाई 
 किसी के हुस्न में क्या क्या नहीं था

किताबों की दुनिया -198

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"तशरीफ़ लाइए हुज़ूर"ख़िदमदगार फर्शी सलाम करता हुआ हर आने वाले को बड़े अदब से अंदर आने का इशारा कर रहा था। दिल्ली जो अब पुरानी दिल्ली कहलाती है में इस बड़ी सी हवेली, जिसके बाहर ये ख़िदमतगार खड़ा था, को फूलों से सजाया गया था। आने जाने वाले लोग बड़ी हसरत से इसे देखते हुए निकल रहे थे क्यूंकि इसमें सिर्फ वो ही जा पा रहे थे जिनके पास एक तो पहनने के सलीक़ेदार कपडे थे और दूसरे हाथ में वो रुक्का था जिसमें उनके तशरीफ़ लाने की गुज़ारिश की गयी थी ,उस रुक्के को आज की भाषा में एंट्री पास कहते हैं। जिस गली में ये हवेली थी उसे भी सजाया गया था। ये तामझाम देख कर इस बात का अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं था कि कोई खास ही मेहमान यहाँ आने वाला है. तमाशबीन खुसुर पुसुर करते हुए क़यास लगा रहे थे लेकिन किसी के पास भी पक्की खबर नहीं थी। कुछ रईस लोग घोड़े पर और कुछ बग्घियों में तशरीफ़ ला रहे थे। आईये हम भी अंदर चलते हैं ,यहाँ कब तक खड़े रहेंगे ?

 वां तू है ज़र्द-पोश , यहाँ मैं हूँ ज़र्दरंग 
 वां तेरे घर बसंत है याँ मेरे घर बसंत 
 ज़र्द-पोश =पीले कपडे पहने हुए , ज़र्द रंग =पीले रंग का (पीतवर्ण )  

ये किसके ज़र्द चेहरे का अब ध्यान बंध गया
 मेरी नज़र में फिरती है आठों पहर बसंत 

 उस रश्के-गुल के हाथ तलक कब पहुँच सके 
 सरसों हथेली पर न जमाये अगर बसंत 

अंदर घुसते ही हमें एक बड़ा सा दालान दिखाई देता है जिसके चारों तरफ़ खूबसूरत इमारत बनी हुई है। दालान में चांदनी का चमचमाता फर्श बिछा है और इमारत पर चारों और फूल मालाएं लटक रही हैं। एक और ख़िदमदगार सलाम करते हुए हमें और अंदर की तरफ जाने का इशारा करता है। अहा- अंदर के दालान की ख़ूबसूरती बयां नहीं की जा सकती। दालान के चारों और बने बरामदों पर रंगबिरंगे रेशमी परदे लटक रहे हैं। इत्र की खुशबू हर ओर महक रही है। दालान के बीचों बीच एक चबूतरा है जिसके चारों और मख़मली कालीन बिछे हैं ,थोड़ी थोड़ी दूरी पर उनपर रेशमी खोल चढ़े तकिये रखें हैं जिनपर कढ़ाई की गयी है। चबूतरे पर गद्दे बिछे हैं गद्दों पर कीमती चादर बिछी है और सफ़ेद रंग के रेशमी गाव तकिये रखे हैं. हमें भी सबकी देखा देखी चबूतरे पर बैठे एक निहायत खूबसूरत शख़्स को सलाम करना है और कालीन पर बैठ जाना है। आप बैठिये न, देखिये यूँ टकटकी लगाकर देखने की इज़ाज़त यहाँ किसी को नहीं है।

 थी वस्ल में भी फ़िक्रे-जुदाई तमाम शब् 
 वो आये तो भी नींद न आई तमाम शब 

 यकबार देखते ही मुझे ग़श जो आ गया 
 भूले थे वो भी होश रुबाई तमाम शब 

 मर जाते क्यों न सुबह के होते ही हिज़्र में 
 तकलीफ़ कैसी-कैसी उठाई तमाम शब

 मैं आपको दोष नहीं देता क्यूंकि चबूतरे पर गाव तकिये के सहारे बैठे शख्स की शख़्सियत है ही ऐसी कि बस देखते रहो मन ही नहीं भरता। जिसकी बड़ी बड़ी आँखें हैं ,लम्बी पलकें हैं ,पतले होंठ हैं जिन पर पान का लाखा जमा है ,मिस्सी लगे दांत हैं, हल्की मूंछे हैं सुन्दर तराशी हुई दाढ़ी है ,मांसल भुजाएं हैं ,चौड़ा सीना है ,सर पर घुंघराले बाल हैं जो पीठ और कंधे पर बिखरे हुए हैं ,बदन पर शरबती मलमल का अंगरखा है लेकिन उसके नीचे कुरता नहीं पहना हुआ है लिहाज़ा इस वजह से उनके शरीर का कुछ भाग खुला दिखाई देता है ,गले में काले धागे में बंधा सुनहरी तावीज़ है ,लाल गुलबदन रेशमी कपडे का मोहरियों पर से तंग लेकिन ऊपर जाकर थोड़ा सा ढीला पायजामा पहना है, सर पर दुपल्लू टोपी है जिसके किनारों पर बारीक लैस लगी है -ऐसे शख़्स को कोई टकटकी लगा कर न देखे तो क्या करे ?

 कुछ क़फ़स में इन दिनों लगता है जी 
 आशियाँ अपना हुआ बर्बाद क्या 
 क़फ़स =पिंजरा 

 है असीर उसके वो है अपना असीर 
 हम न समझे सैद क्या सय्याद क्या 
 असीर =बंदी , सैद =शिकार 

 क्या करूँ अल्लाह सब है बे-असर 
 वलवला क्या नाला क्या फ़रियाद क्या 

 अचानक सरगर्मियां कुछ तेज हो गयीं -हुज़ूर आ गए, हुज़ूर आ गए का शोर होने लगा। देखा तो पूरे लवाजमे के साथ मुग़लिया दरबार के शायर-ए-आज़म और नवाब बहादुर शाह ज़फर साहब के उस्तादे मोहतरम जनाब मोहम्मद इब्राहिम ज़ौक़ साहब तशरीफ़ ला रहे हैं। सब लोग अपनी जगह खड़े हो गए। चबूतरे पर से उतर कर उस हसीं नौजवान ने उनका इस्तक़बाल किया दुआ सलाम की और उन्हें बड़े एहतराम के साथ चबूतरे पर अपने पास बिठाया। उस दिलकश नौजवान की आँखें अभी भी दरवाज़े की और लगीं हुई थीं। किसी का इंतज़ार था शायद। किसका ? ज़ौक़ साहब ने नौजवान के कंधे पर हाथ रखा और कहा 'मोमिन'साहब कुछ सुनाइये ,भाई हमसे तो और इंतज़ार नहीं होता। आपको ये बता दूँ कि चबूतरे के नीचे बैठे साजिंदे जिनमें एक के पास हारमोनियम एक के पास तबला और एक के पास सारंगी एक के पास वीणा थी , ऊपर बैठे नौजवान के इशारे का इंतज़ार ही कर रहे थे. अब जब ज़ौक़ साहब ने उस नौजवान का नाम उजागर कर ही दिया है तो ये बताने के सिवा हमारे पास और चारा क्या है कि किताबों की दुनिया में इस बार जनाब 'कलीम आनंद'साहब द्वारा संकलित "मोमिन की शायरी"किताब ,जो हमारे सामने खुली हुई है, की बात हो रही है। इशारा हुआ, साज बजने लगे और मोमिन साहब ने गला खंखारते हुए लाजवाब तरन्नुम के साथ ये ग़ज़ल शुरू की :


 मैंने तुमको दिल दिया तुमने मुझे रुसवा किया 
 मैंने तुमसे क्या किया और तुमने मुझसे क्या किया 

 रोज़ कहता था कहीं मरता नहीं, हम मर गए 
 अब तो खुश हो बे-वफा तेरा ही ले कहना किया 

 रोइये क्या बख़्ते- खुफ्ता को कि आधी रात से 
 मैं इधर रोया किया और वो वहाँ सोया किया 
बख़्ते- खुफ्ता = सोया हुआ भाग्य  

सुरों की बरसात में भीगे ग़ज़ल के शेरों ने लोगों को वो कर दिया जो करना चाहिए था -पागल। सुभानअल्लाह सुभानअल्लाह की आवाज़ें चारों तरफ से आने लगीं ,तालियां रुकने का नाम ही नहीं ले रही थीं। 'मोमिन'के गले का जादू सब के सर चढ़ कर बोल रहा था। पूरी दिल्ली में ऐसा खूबसूरत ,सलीकेदार और सुरीला शायर दूसरा नहीं था. हकीम गुलामअली खां जो कश्मीर से दिल्ली आकर बस गए थे का ये बेटा मोमिन न सिर्फ अपनी 'शायरी'बल्कि एक योग्य चिकित्सक और जबरदस्त ज्योतिषी के रूप में भी पूरी दिल्ली में मशहूर थे। एक मशहूर कहावत कि "खुदा जब देता है तो छप्पर फाड़ कर देता है"मोमिन साहब पर पूरी तरह सच उतरती थी। आज ये मजलिस उनके जनम दिन की ख़ुशी में उनकी हवेली में सजाई गयी थी जिसमें दिल्ली ही नहीं उसके आसपास के बड़े बड़े रईस और शायरी के दीवाने बुलाये गए थे। हम तो आप जानते हैं रईस तो हैं नहीं सिर्फ शायरी के दीवाने हैं लिहाज़ा इस वजह से बुलाये गए और आप क्यूंकि हमारे अज़ीज़ हैं इसलिए हम आपको भी साथ ले आये। ज़ौक़ साहब ने उठ कर मोमिन को गले लगा लिया और बोले भाई एक और -मोमिन ने सर झुकाया साजिंदों को इशारा किया और गाने लगे :

 वो जो हममें तुममें करार था तुम्हें याद हो कि न याद हो
 वही यानी वादा निबाह का तुम्हें याद हो कि न याद हो

 वो जो लुत्फ़ मुझपे थे पेश्तर वो करम कि था मेरे हाल पर
 मुझे सब है याद ज़रा-ज़रा तुम्हें याद हो कि न याद हो

 वो नए गिले वो शिकायतें वो मज़े-मज़े की हिकायतें
 वो हरेक बात पे रूठना तुम्हें याद हो कि न याद हो
हिकायतें =कहानियां  

हर शेर पर आसमान शोर से फट रहा था मुर्रर सुभानअल्लाह वाह वाह कहते लोग थक नहीं रहे थे किसे पता था कि ये ग़ज़ल उर्दू शायरी में मील का पत्थर कहलाएगी और बरसों बाद भी इसकी ताज़गी बनी रहेगी। लाजवाब अशआर बेमिसाल तरन्नुम। ज़ौक़ साहब ने मोमिन के लिए दुआओं के दरवाज़े खोल दिए। तभी एक दुबला पतला इंसान ढीली ढाली शेरवानी और तुर्की टोपी पहने नमूदार हुआ। 'मोमिन'को जैसे इन्हीं का इंतज़ार था, चबूतरे से तेजी से उठे और दौड़ते हुए उनके गले लग गए। कमर में हाथ डाले बड़े प्यार से उन्हें चबूतरे पर अपने साथ ही बिठाया। ज़ौक़ साहब ने उन्हें देख कर मुंह बिचकाया बोले आओ मियां असद, तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहे थे शायद मोमिन मियां। मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ “ग़ालिब के आते ही महफ़िल और भी गरमा गयी। ग़ालिब ने मुस्कुराते हुए मोमिन को मुबारकबाद दी और ज़ौक़ साहब से पूछा हुज़ूर और सब खैरियत ? ज़ौक़ साहब हाँ और ना के बीच झूलते हुए कुछ बोल नहीं पाए। वो भले मानें न मानें लेकिन पूरी दिल्ली जानती थी कि ग़ालिब ज़ौक़ साहब से हर लिहाज़ से बड़े शायर हैं। ग़ालिब ने मोमिन से कहा आज कुछ ऐसी ग़ज़ल सुनाओ कि तबियत फड़क उठे। मोमिन ने इशारा किया साजिंदों ने साज संभाले और तरन्नुम के साथ अशआर का दरिया बहने लगा :

 असर उसको ज़रा नहीं होता
 रंज राहत-फ़ज़ा नहीं होता 
 राहत-फ़ज़ा =आराम पहुँचाने वाला 

 तुम हमारे किसी तरह न हुए 
 वर्ना दुनिया में क्या नहीं होता 

 उसने क्या जाने क्या किया लेकर
 दिल किसी काम का नहीं होता 

 हाले-दिल यार को लिखूं क्यूँकर 
 हाथ दिल से जुदा नहीं होता 

 तुम मेरे पास होते हो गोया 
 जब कोई दूसरा नहीं होता

 'तुम मेरे पास होते हो गोया'ग़ालिब ये शेर सुनकर लपक के उठे और मोमिन को कस कर गले लगा लिया ,उन्हें कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि क्या बोलूं ? भर्राये गले से कहा 'मिसरे में गोया लफ्ज़ जोड़ कर मानो शेर को फर्श से अर्श पर बिठा दिया तुमने मोमिन -आह !!! ऐसा करो तुम मेरा पूरा दीवान ले लो और ये एक शेर मुझे दे दो। "आप समझ रहे हैं इस शेर का महत्त्व -जिसकी एवज में ग़ालिब अपना पूरा दीवान देने की बात कर रहे हैं। ग़ालिब जो अपने समकालीन किसी भी शायर की तारीफ़ झूठे मुंह भी नहीं किया करते थे उनके द्वारा इतनी बड़ी बात कहना क्या मायने रखता है आप समझ सकते हैं। छोटी बहर में इसकी टक्कर का शेर आपको पूरी उर्दू शायरी में बहुत कम मिलेंगे बल्कि शायद ही मिलें। कभी कभी एक शेर आपको अमर कर सकता है। मैं हमेशा कहता हूँ ज्यादा लिखना बड़ी बात नहीं अच्छा लिखना बड़ी बात होती है और वो भी सादा लफ़्ज़ों में। मोमिन साहब को तो जैसे ग़ालिब ने सब कुछ दे दिया। इस से बड़ा तोहफ़ा भला क्या होगा ? मोमिन की आँखें छलक गयीं। ग़ालिब को गले लगाते हुए बोले कि ये मेरी ख़ुशक़िस्मती है मैं आप जैसी शख़्शियत को रूबरू देख रहा हूँ आप को सुन रहा हूँ आपको छू सक रहा हूँ। आप बड़े शायर ही नहीं बहुत बड़े इंसान हैं। कैसे कैसे प्यार से भरे लोग हुआ करते थे तब।
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 लिक्खो सलाम ग़ैर के खत में ग़ुलाम को 
 बन्दे का बस सलाम है ऐसे सलाम को 

 अब शोर है मिसाल जो दी उस ख़राम को
 यूँ कौन जानता था क़यामत के नाम को
 ख़राम =चाल 

 जब तू चले जनाज़ाए-आशिक़ के साथ साथ 
 फिर कौन वारिसों की सुने इज़्न-ए-आम को 
 इज़्न-ए-आम=मुसलमानों में अर्थी के ले जाते वक्त मृतक के उत्तराधिकारी लोगों को सार्वजनिक आज्ञा देते हैं कि जो लोग घर जाना चाहें वो जा सकते हैं। 

 आप सोच रहे होने कि इतनी तामझाम और उस पर होने वाले खर्चे को मोमिन साहब किस तरह वहन करते होंगे ? सच ही सोच रहे हैं क्यूंकि इन्होने अपने हुनर को तो कभी पेशा बनाया नहीं। इतने योग्य चिकित्सक होने के बावजूद उन्होंने लोगों के इलाज़ के लिए पैसा नहीं लिया। ज्योतिषी तो ऐसे कि अगर कह दें कि सूरज आज पश्चिम से उगेगा तो सूरज की क्या मजाल जो उनके कहे को टाल दे. लोग उनकी ज्योतिष पर पकड़ देख कर दांतों तले उँगलियाँ दबा लिया करते थे। दरअसल इनके पूर्वज शाही चिकित्सक थे और बड़े जागीरदार थे बाद में उन्हें सरकार से इतनी पेंशन मिलने लगी जो उनके रईसाना ठाट बाट को बनाये रखने के लिए काफी थी। ये वो दौर था जब मुगलिया सल्तनत अपने उतार पर थी और उर्दू शायरी परवान चढ़ रही थी। उर्दू शायरी के स्वर्ण काल का आरम्भ था ये दौर। हिन्दुस्तान छोटी बड़ी रियासतों में बंटा हुआ था वहां के राजा और नवाब अच्छे फ़नकारों के कद्रदान हुआ करते थे। मोमिन साहब को भी रामपुर, टोंक, भोपाल, जहांगीराबाद और कपूरथला राज्यों के नवाब और राजाओं ने अपने यहाँ आने और रहने का निमंत्रण भेजा लेकिन स्वाभिमानी तबियत के चलते दिल्ली रहना ही पसंद किया।

 किसके हंसने का तसव्वुर है शबो-रोज़ कि यूँ 
 गुदगुदी दिल में कोई आठ पहर करता है 
 शबो-रोज़=रातदिन 

 ऐश में भी तो न जागे कभी तुम, क्या जानो 
 कि शबे-ग़म कोई किस तौर सहर करता है

 बख़्ते-बद ने यह डराया है कि काँप उठता हूँ 
 तू कभी लुत्फ़ की बातें भी अगर करता है 
 बख़्ते-बद =दुर्भाग्य 

 सुनो रखो सीख रखो इसको ग़ज़ल कहते हैं
 'मोमिन'ऐ अहले-फ़न इज़हारे-हुनर करता है 
 अहले-फ़न =कलाकारों 

 सच में ये 'मोमिन'का आत्मविश्वास ही है जो ग़ालिब और ज़ौक़ की मौजूदगी में अपने फ़न का इज़हार करते हुए कहता है कि ग़ज़ल कहना मुझसे सीखो। ग़ज़ब के खुद्दार, रसिक, विलासप्रिय, सलीकेदार 'मोमिन'शतरंज के भी उस्ताद थे। पूरी दिल्ली में उनकी टक्कर का शतरंज का कोई खिलाड़ी नहीं था। मोमिन सं 1780 में दिल्ली में पैदा हुए और यहीं सं 1851 में याने सिर्फ 51 साल की उम्र में इस दुनिया-ऐ-फ़ानी से रुख़सत हो गए।उन्होंने ऐलान किया था कि वो 5 दिन ,5 महीने या 5 साल में मर जायेंगे और ये ही हुआ इस एलान के ठीक 5 महीने बाद वो अपनी छत की सीढ़ी से गिर गए और फिर कभी नहीं उठे। वैसे आप क्या सोचते हैं ? मोमिन जैसे शायर कभी मर सकते हैं ? नहीं , जब तक उर्दू शायरी ज़िंदा रहेगी मोमिन उसमें ज़िंदा रहेंगे , वक्त में इतनी ताकत नहीं कि उनका वजूद मिटा दे।

 किसी का हुआ आज, कल था किसी का 
 न है तू किसी का , न होगा किसी का 

 किया तुमने कत्ले-जहाँ इक नज़र में
 किसी ने न देखा तमाशा किसी का 

 न मेरी सुने वो, न मैं नासहों की 
 नहीं मानता कोई कहना किसी का 
 नासहों =नसीहत करने वाले 

 मुझे लगता अब हमें इस महफ़िल से उठ जाना चाहिए क्यूंकि शाम ढलने को है और थोड़ी ही देर में यहाँ जाम छलकने लगेंगे। आप मेरे साथ आएं, आप हालाँकि सूफ़ी नहीं हैं लेकिन इन लोगों की तरह रईस भी नहीं जो इनके साथ बैठ कर जाम टकराएं ,इन्होने हमें यहाँ इतनी देर बैठने दिया ये क्या कम बात है ? हम रास्ते में मोमिन साहब की बात करते रहेंगे। आपको पता है फ़िराक गोरखपुरी साहब ने एक जगह लिखा है कि "मोमिन सूफी आध्यात्मिकता का सहारा लिए बिना ही ठेठ भौतिक प्रेम की बातें इतने चमत्कारपूर्ण प्रभाव के साथ करते थे कि उनके शेर देर तक सुनने वालों के कानों में गूंजते हैं और बहुत से अशआर तो उर्दू साहित्य में मुहावरों और कहावतों का रूप धारण कर चुके हैं। उनकी रचनाएँ काव्य नियमों का पालन करते हुए बहुत सरलता और गति से दिल में उतर जाती हैं। वो नासिख़ की तरह बाल की खाल नहीं निकालते। ग़ालिब और ज़ौक़ के समकालीन होते हुए भी उन्होंने अपनी राह खुद बनाई और क्या ही खूब बनाई "

 दोस्त करते हैं मलामत, गैर करते हैं गिला 
 क्या क़यामत है मुझी को सब बुरा कहने को हैं 

 मैं गिला करता हूँ अपना, तू न सुन गैरों की बात
 हैं यही कहने को वो भी और क्या कहने को हैं 

 हो गए नामे -बुताँ सुनते ही 'मोमिन'बेकरार 
 हम न कहते थे कि हज़रत पारसा कहने को हैं 

 मोमिन के बारे में उर्दू पढ़ने लिखने वालों के लिए तो इंटरनेट, किताबों और रिसालों में बहुत कुछ है लेकिन हिंदी लिख पढ़ने वालों के लिए बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। जो एक मात्र किताब बहुत मशक्कत के बाद मुझे हासिल हुई है उसी का जिक्र मैं कर रहा हूँ इसके अलावा इनकी कुलियात या संकलन देवनागरी में अगर कहीं है तो मुझे उसका इल्म नहीं ,अगर आपके पास कुछ जानकारी है तो जरूर बताएं। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप 'मनोज पब्लिकेशन' 1583-84 दरीबां कलां ,चांदनी चौक दिल्ली -6 को लिख सकते हैं या फिर 9868112194 पर पूछ सकते हैं ,ये किताब अमेज़न पर ऑन लाइन भी उपलब्ब्ध है।इस किताब में यूँ तो मोमिन साहब की 100 से ज्यादा ग़ज़लें संगृहीत हैं जिन्हें यहाँ आपको पढ़वा पाना संभव नहीं इसलिए उनकी ग़ज़लों से कुछ चुनिंदा शेर आपकी खिदमत में हाज़िर हैं :

 यारो ! किसी सूरत से तो अहवाल जता दो
 दरवाज़े पर उसके मेरी तस्वीर लगा दो
 अहवाल =हालत
 ***
ताबो-ताकत, सब्रो-राहत, जानो- ईमां, अक्लो-होश
 हाय क्या कहिए, कि दिल के साथ क्या-क्या जाए है
 *** 
मैं भी कुछ खुश नहीं वफ़ा करके 
 तुमने अच्छा किया निबाह न की 
 *** 
माँगा करेंगे अब से दुआ हिज्रे-यार की 
 आखिर तो दुश्मनी है असर को दुआ के साथ 
 *** 
ऐसी लज़्ज़त खलिशे-दिल में कहाँ होती है 
 रह गया सीने में उसका कोई पैकां होगा 
 पैकां =तीर 
 *** 
ग़ैर है बे-वफ़ा पै तुम तो कहो 
 है इरादा निबाह का कब तक 
 *** 
 नाम उल्फ़त का न लूँगा जब तलक है दम में दम 
 तूने चाहत का मज़ा ऐ फ़ित्नागर ! दिखला दिया 
 *** 
ख़ाक होता न मैं तो क्या करता 
 उसके दर का ग़ुबार होना था 
 *** 
देखिए किस जग़ह डुबो देगा 
 मेरी किश्ती का नाख़ुदा है इश्क 
*** 
 उम्र सारी तो कटी इश्के-बुताँ में 'मोमिन' 
 आख़री वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमां होंगे

किताबों की दुनिया - 199

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अगर ये जानते चुन-चुन के हमको तोड़ेंगे 
 तो गुल कभी न तमन्नाए-रंगो-बू करते
 ***
 दिखाने को नहीं हम मुज़तरिब हालत ही ऐसी है
 मसल है -रो रहे हो क्यों ,कहा सूरत ही ऐसी है 
 मुज़तरिब=बैचैन , मसल =मिसाल 
 *** 
बाद रंजिश के गले मिलते हुए रुकता है जी 
 अब मुनासिब है यही कुछ मैं बढूं ,कुछ तू बढे
 *** 
समझ है और तुम्हारी कहूं मैं तुमसे क्या 
 तुम अपने दिल में खुदा जाने सुन के क्या समझो 
 *** 
 ज़ाहिदे-गुमराह के मैं किस तरह हमराह हूँ 
 वह कहे 'अल्लाह हू 'और मैं कहूं 'अल्लाह हूँ ' 
*** 
दिल वो क्या जिसको नहीं तेरी तमन्नाए - विसाल 
 चश्म क्या वो जिस को तेरी दीद की हसरत नहीं 
 *** 
उस हूरवश का घर मुझे जन्नत से है सिवा
 लेकिन रक़ीब हो तो जहन्नुम से कम नहीं
 *** 
न मारा तूने पूरा हाथ क़ातिल 
 सितम में भी तुझे पूरा न पाया
 *** 
एक दिन भी हमको जीना हिज़्र में था नागवार 
 पर उमीदे-वस्ल में बरसों गुज़ारा हो गया 
 *** 
दिल गिर के नज़र से तेरे उठने का नहीं फिर 
 यह गिरने से पहले ही संभल जाए तो अच्छा 

 नौकरी कैसी भी हो होती नौकरी ही है चाहे वो सरकारी ही क्यों न हो। यूँ सरकारी नौकरी भी आजकल बहुत मज़े की नहीं रह गयी ,प्राइवेट की बात तो छोड़ ही दें। प्राइवेट नौकरी करना ब्लेड की तेज़ धार पे चलने जैसा है ज़रा सा चूके तो या तो कटे या गिरे। प्राइवेट नौकरी मैंने 46 साल की है और मुझे मालूम है कि सबकी अपेक्षाओं पर हमेशा खरे उतरना कितना मुश्किल काम होता है। प्राइवेट नौकरी में एक बॉस होता है जो 98 % खड़ूस किस्म का होता है उसके हज़ारों चमचे होते हैं जो हमेशा उसे खुश रखने में लगे रहते हैं इसके बदले किसी की जान जाये या नौकरी इसकी परवाह उन्हें नहीं होती। कभी कभी प्राइवेट नौकरी में मालिक ही आपका बॉस भी होता है। ये सबसे ख़तरनाक स्थिति होती है. बॉस से तो जैसे तैसे निपटा जा सकता है लेकिन मालिक से ? तौबा तौबा !! उसके चमचों की भीड़ भी बॉस के मुकाबले सौ गुना होती है और ये भी देखा है कि ज्यादातर मालिक कान के कच्चे होते हैं उनके इस अवगुण की वजह से आपकी बरसों की मेहनत पल भर में धूल में मिल सकती है।

 मय्यत को ग़ुस्ल-दीजो न इस ख़ाकसार की 
 है तन पे ख़ाके-कूचाए-दिलबर लगी हुई 

 बैठे भरे हुए हैं खुमे-मै की तरह हम 
 पर क्या करें कि मुहर है मुंह पर लगी हुई 
 खुमे-मै =शराब का मटका 

 निकले है कब किसी से कि उसकी मिज़ा की नोक 
 है फांस सी कलेजे के अंदर लगी हुई 
 मिज़ा=पलक 

 दरअसल होता क्या है कि नौकरी में मिलने वाली सुविधाओं की तरफ तो लोगों का ध्यान जाता है लेकिन उन सुविधाओं को जुटाने में नौकरी पेशा इंसान को जो खतरा उठाना पड़ता है उसे सब नज़र अंदाज़ कर देते हैं. जो लोग ये समझते हैं कि अब प्राइवेट नौकरी करना बहुत मुश्किल और जानलेवा हो गया है वो हमारे आज के शायर के बारे में शायद नहीं जानते जो 1789 में दिल्ली के एक बेहद मामूली और ग़रीब सिपाही शैख़ मुहम्मद रमज़ान साहब के यहाँ पैदा हुए थे। घर पर खाने के लाले पड़े हुए थे ऐसे में उनकी पढाई-लिखाई की तरफ कौन ध्यान देता ? अपने बेटे को पढ़ने के लिए मदरसे भेजने की औकात रमज़ान साहब में थी नहीं लिहाज़ा उन्होंने मोहल्ले के ही एक उस्ताद जनाब हाफ़िज़ गुलाम रसूल साहब से दरख़्वास्त की कि वो उनके बेटे को अपने घर बुला कर जितनी भी जैसी भी दे सकते हैं तालीम दें। रसूल साहब नेक इंसान थे बच्चे की मासूमियत देख पिघल गए और हाँ कर दी।रसूल साहब के यहाँ शेरो शायरी की खूब चर्चा हुआ करती थी क्यूंकि रसूल साहब खुद शायर थे।

 अक्ल से कह दो कि लाये न यहाँ अपनी किताब 
 मैं हूँ दीवाना अभी घर से निकल जाऊँगा 

 दिल ये कहता है कि तू साथ न ले चल मुझको
 जा के मैं वां तेरे काबू से निकल जाऊँगा 

 जा पड़ा आग में परवाना दमे-गर्मीए-शौक़ 
 समझा इतना भी न कमबख़्त कि जल जाऊंगा 
 दमे-गर्मीए-शौक़=प्रेमालाप के क्षण में 

 रसूल साहब के यहाँ ही रमज़ान साहब के बेटे जनाब शैख़ इब्राहिम 'ज़ौक़', जिनकी शायरी के संकलन की किताब "शेख़ इब्राहिम ज़ौक़ -जीवनी और शायरी"जिसे डा राजेंद्र टोकीसाहब ने सम्पादित किया है की चर्चा आज कर रहे रहे हैं , के साथ मीर काज़िम हुसैन 'बेकरार'भी पढ़ा करते थे। एक बार बेकरार साहब ने ज़ौक़ साहब को एक ग़ज़ल सुनाई , ग़ज़ल ज़ौक़ साहब को बहुत पसंद आयी और पूछा कि मियां आपके उस्ताद कौन हैं ? बेकरार साहब ने फ़रमाया कि जनाब 'शाह नसीर साहब'। ज़ौक़ साहब तब अपनी एक ग़ज़ल शाह नसीर साहब के पास ले गए और उन्हें अपना उस्ताद मान लिया। ज़ौक़ अपनी ग़ज़लें शाह साहब को दिखाने लगे. मियां इब्राहिम ज़ौक़ की शायरी अपने उस्ताद की शायरी से जब बेहतर होने लगी तभी शाह साहब में गुरु द्रोणाचार्य की आत्मा प्रवेश कर गयी और उन्होंने ज़ौक़ से एकलव्य की तरह अंगूठा तो नहीं माँगा लेकिन ये जरूर कहा कि तुम इतना बकवास कहते हो बरखुरदार मुझे यकीन हो गया है कि शायरी तुम्हारे बस की बात नहीं , अच्छा होगा कि तुम शायरी छोड़ कर जामा मस्जिद की सीढ़ियों पे जा के लोगों को चने बेचो। ज़ौक़ उदास वाकई जामा मस्जिद की सीढ़ियों पे बैठ रोने लगे। उन्हें रोता हुआ देख एक बुजुर्गवार जनाब मीर कल्लू 'हक़ीर'जो उधर से गुज़र रहे थे रुक गए। ज़ौक़ ने कारण बताया , हक़ीर तुरंत शाह साहब की नियत समझ गए। उन्होंने कहा बरखुरदार परसों ईद है और उस मौके पे जामा मस्जिद के पास होने वाले मुशायरे में तुम अपनी ग़ज़ल पढ़ना। ज़ौक़ साहब ने बात मान ली और मुशायरे में ये ग़ज़ल पढ़ी :


 हम रोने पे आ जाएँ तो दरिया ही बहा दें 
 शबनम की तरह से हमें रोना नहीं आता 

 हस्ती से ज़ियादा है कुछ आराम अदम में 
 जो जाता है वां से वो दोबारा नहीं आता 
 अदम=परलोक 

 किस्मत ही से नाचार हूँ ऐ 'ज़ौक़'वगर्ना 
 सब फ़न में हूँ मैं ताक़ मुझे क्या नहीं आता 
 ताक़=माहिर, दक्ष 

 एक सत्तर अठ्ठारह साल के लड़के के मुंह से ऐसी ग़ज़ल इस से पहले किसी ने नहीं सुनी थी। समझिये उन्होंने मुशायरा ही लूट लिया उस दिन। लोगों की ज़बान पर उनके शेर और नाम चढ़ गया। शहर में होने वाले मुशायरों में उन्हें बुलाया जाने लगा लेकिन उनकी शोहरत शहर की गलियों से क़िले तक नहीं पहुँच पायी जहाँ अकबर शाह द्वितीय बादशाह थे। बादशाह को तो शायरी से कोई लेना देना नहीं था लेकिन उनके बेटे बहादुर शाह ज़फर शायरी के दीवाने थे। ज़फर किले में अक्सर मुशायरे करवाते थे जिसमें वो दूसरे शायरों को सुनते कम और अपनी शायरी ज्यादा सुनाया करते थे। एक आम सिपाही के बेटे का क़िले की दीवारों को पार कर अंदर पहुंचा इतना आसान नहीं था। अगर सिर्फ़ पत्थर की दीवारें होतीं तो भी वो कोशिश करते लेकिन दीवारें तो रसूख़ वाले शायरों की थीं जो किसी हाल में एक नए शायर को अंदर नहीं आने देना चाहते थे। ये परम्परा तो वैसे आज तक चली आ रही है अगर आपको कोई प्रमोट करने वाला नहीं है फिर आप चाहे कितने ही बड़े शायर हों आपको कोई मान्यता नहीं देगा, सरकारी ईनाम मिलने की तो बात ही जाने दीजिये। आखिर कोशिशों के बाद किले के मुशायरों में शिरकत करने वाले एक नेक दिल शायर ने उनके बारे में ज़फर साहब को बता ही दिया। अगले ही मुशायरे में ज़फर साहब ने उन्हें शिरकत करने का न्योता भेज दिया। ज़ौक़ साहब तशरीफ़ लाये जिन्हें देख ज़फर हैरान रह गए , इतनी कम उम्र में ये लड़का क्या शायरी करेगा ?खैर अब बुलाया है तो सुन लेते हैं। मुशायरा शुरू हुआ और ज़ौक़ साहब ने शमा अपने सामने आने पे ये ग़ज़ल पढ़ी :

दरियाए-अश्क चश्म से जिस आन बह गया 
 सुन लीजिओ कि अर्श का ऐवान बह गया 
 दरियाए-अश्क=आंसू की नदी , ऐवान =महल 

 ज़ाहिद ! शराब पीने से क़ाफ़िर हुआ मैं क्यों 
 क्या डेढ़ चुल्लू पानी में ईमान बह गया 

 कश्ती-सवारे-उम्र है बहरे-फ़ना में हम 
 जिस दम बहा के ले गया तूफ़ान , बह गया 

 उसके बाद तो ज़ौक़ नियमित रूप से किले के मुशायरों में बुलाये जाने लगे। शहज़ादे ज़फर के पास बहुत धन दौलत तो थी नहीं ,बादशाह भी अपनी एक बेग़म की मोहब्बत में गिरफ्तार होने के कारण ज़फर की जगह उसके बेटे को गद्दी सौंपना चाहते थे। ज़फर को महज़ 500 रु महीने में अपना गुज़ारा करना होता था। ज़फर की माली हालत देख कर उनके उस्ताद एक एक कर के उनसे कनारा कर दूसरी रियासतों की तरफ जाने लगे थे। एक बार ज़फर ने अपनी एक ग़ज़ल ज़ौक़ साहब को दिखाई और उनकी इस्लाह से इतने मुत्तासिर हुए कि उन्हें अपना उस्ताद मान लिया और चार रूपये महीना तनख्वाह पर किले में ही मुलाज़िम रख लिया। दिन गुज़रते रहे ज़फर आखिर बादशाह सलामत बने तब ज़ौक़ सिर्फ सात रुपये महीना के मुलाज़िम ही थे। बादशाह बनते ही चमचों की भीड़ उनके चारों और खड़ी हो गयी। चमचों की चांदी हो गयी और अदीब भूखे मरते रहे। ये ही कल होता रहा है ये ही आज हो रहा है ये ही कल होता रहेगा। मुख्तार मिर्ज़ा मुग़ल जो बादशाह के मंत्री थे ज़ौक़ को पसंद नहीं करते थे उन्होंने अपने चमचे पूरे दरबार में भर लिए और शाही ख़ज़ाने को दीमक की तरह चाटने लगे। आखिर पाप का घड़ा फूटा मिर्ज़ा और उनके चमचों को धक्के दे कर किले से निकाल दिया। ज़ौक़ साहब की तनख्वाह पहले 30 रु और फिर 100 रु महीना कर दी जो दरबार के बाकि दरबारियों से बहुत ही कम थी लेकिन ज़ौक़ ने कभी इस बात का गिला नहीं किया।

 कहीं तुझको न पाया गरचे हमने इक जहाँ ढूँढा 
 फिर आखिर दिल ही में देखा बगल ही में से तू निकला

 खजिल अपने गुनाहों से हूँ मैं यां तक कि जब रोया  
तो जो आंसू मेरी आँखों से निकला सुर्खरू निकला 
 खजिल=शर्मिंदा 

 उसे अय्यार पाया यार समझे ज़ौक़ हम जिसको
 जिसे यां दोस्त हमने अपना जाना वो उदू निकला 
 अय्यार =चालाक , उदू =दुश्मन 

 ज़ौक़ अब शहज़ादे ज़फर के नहीं बादशाह ज़फर के उस्ताद हो गए थे लिहाज़ा लोगों की बद-नज़रों का शिकार होने लगे। बादशाह के चमचे उन्हें हर वक्त किसी न किसी वज़ह से नीचा दिखाने में लगे रहते और तो और बादशाह सलामत जो खुद सनकी थे उनकी ऊटपटांग ढंग से परीक्षा लिया करते। प्राइवेट नौकरी में आने वाली जो भी तकलीफें मैंने ऊपर बयां की हैं वो ज़ौक़ साहब रोज़ाना झेलने लगे। अब देखिये बादशाह सलामत अपने महल की खिड़की पे खड़े हैं चमचे भी हैं और उस्ताद ज़ौक़ भी तभी किले के बाहर से एक चूरन बेचने वाला अजब से तरन्नुम में आवाज़ लगा कर चूरन बेच रहा है तभी एक चमचा ज़ौक़ साहब से कहता है उस्ताद जी इस तरन्नुम पे एक ग़ज़ल हो जाये तो बादशाह सलामत खुश हो जायेंगे। बादशाह चमचे की बात पर सर हिलाते हुए कहते हैं हाँ हाँ क्यों नहीं -हो जाये उस्ताद। ज़ौक़ साहब मन ही मन चमचे को गलियां देते हुए लेकिन ऊपर से मुस्कुराते हुए उसी तरन्नुम में ग़ज़ल कहने लगते हैं और खुद को इस नौकरी के लिए लानत भेजते हैं।

 देखा आखिर को न फोड़े की तरह फूट बहे 
 हम भरे बैठे थे क्यों आपने छेड़ा हमको 

 तू हंसी से न कह मरते हैं हम भी तुझ पर
 मार ही डालेगा बस रश्क हमारा हमको 

 वस्ल का उसके तसव्वुर तो बंधा रहता है 
 तो मज़े हिज़्र में भी आते है क्या क्या हमको 

 प्राइवेट नौकरी की एक और त्रासदी देखिये अगर कहीं ज़ौक़ साहब ने कोई ग़ज़ल कही जो बादशाह सलामत तक पहुँच गयी तो बादशाह सलामत तुरंत उसी ज़मीन और रदीफ़ काफिये पर अपनी एक ग़ज़ल कह कर उस्ताद के लिए इस्लाह के लिए भेज देते अब उस्ताद अगर उस ग़ज़ल को अपने से घटिया मानें तो बादशाह की नाराज़गी मोल लेने का खतरा खड़ा हो सकता था और अगर अपने से बढ़िया कह दें तो अपना ही लिखा ख़ारिज करने का दुःख झेलना पड़ता था। इसके बावजूद ज़ौक़ साहब ने ग़ज़ल कहना नहीं छोड़ा और न ही छोड़ी नौकरी। अपने सरल स्वाभाव के कारण उन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी एक ही मकान में काट दी जो मकान कम कबूतरों का बाड़ा ज्यादा लगता था। अगर चाहते तो बादशाह सलामत से कह कर अपने लिए कोई ढंग का मकान ले सकते थे लेकिन अपने कम बोलने की आदत के चलते चुप ही रहे और बादशाह को कहाँ इतनी फुर्सत कि वो जाने कि उनके उस्ताद किस हाल में कहाँ रहते हैं। यूँ बादशाह अगर अपने मुलाज़िमों की खोज खबर लेने लगें तो हो गयी बादशाही। ये वो परम्परा है जो सदियों से चली आ रही है चलती रहेगी। आप ही बताएं हमारे आज के बादशाहों को कुछ ख़बर भी है कि उनकी अवाम किस हाल में रहती है ? अदीबों का हाल जो उस वक्त था उस से बदतर अब है।

 दिन कटा, जाइये अब रात किधर काटने को
 जब से वो घर में नहीं, दौड़े है घर काटने को 

 हाय सैय्याद तो आया मेरे पर काटने को 
 मैं तो खुश था कि छुरी लाया है सर काटने को 

 वो शजर हूँ न गुलो-बार न साया मुझमें 
 बागबां ने लगा रक्खा है मगर काटने को 

 ये तो आप जानते ही होंगे कि ग़ालिब मोमिन और ज़ौक़ साहब एक ही दौर के शायर हुए हैं और वो भी दिल्ली के और तीनो ही अपने फ़न में माहिर , कोई किसी से कम नहीं। तीनों में आपसी रंजिश भी थी लेकिन सौदा और मीर की तरह नहीं। तीनों एक दूसरे को पसंद नहीं करते थे लेकिन एक दूसरे की अच्छी शायरी की तारीफ़ जरूर किया करते थे। ग़ालिब, जो अपने आपको सर्वश्रेष्ठ समझते थे, को ये मलाल था कि किले में जो रुतबा ज़ौक़ साहब को मिला हुआ था उसके सच्चे हक़दार वो खुद थे। अवाम की तरह ग़ालिब को भी ज़ौक़ साहब हाथी पर चांदी के हौदे में बैठे तो नज़र आते थे लेकिन हाथी को पालने में ज़ौक़ साहब को क्या क्या पापड़ बेलने पड़ते थे उसका शायद अंदाज़ा नहीं था। जिस इंसान को अपना घर चलाने में दिक्कत महसूस हो रही हो उसे अगर साथ में हाथी भी पालना पड़े तो सोचिये क्या हाल होगा। बादशाह होते ही ऐसे हैं खुश हुए तो ज़ौक़ साहब को चांदी के हौदे के साथ हाथी ईनाम में दे दिया। प्राइवेट नौकरी में आप ये नहीं पूछ सकते कि हुज़ूर ये आप मुझे ईनाम दे रहे हैं या मुझसे हर्ज़ाना ले रहे हैं।

 अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जायेंगे 
 मर गए पर न लगा जी तो किधर जाएंगे 

 हम नहीं वो जो करें खून का दावा तुझ पर 
 बल्कि पूछेगा खुदा भी तो मुकर जाएंगे

 'ज़ौक़'जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला
 उनको मैखाने में ले आओ ,संवर जाएंगे 

 ज़ौक़ साहब को वर्तमान आलोचकों ने उनके समकालीन शायरों के मुकाबले बहुत कम आँका है ,उन्होंने इस बात को नज़र अंदाज़ कर दिया कि ज़ौक़ साहब ने उम्र भर अपने काँधे पर सल्तनते-मुग़लिया के भारी भरकम ताजिये बहादुर शाह ज़फर को ढोया है और साथ ही उर्दू अदब को कुछ ऐसी चीज़ें दे गए जिनका आज की अस्थिर मनोवैज्ञानिक पृष्ठ-भूमी में कुछ महत्त्व न मालूम हो किन्तु जिसमें बिला शक कुछ स्थाई मूल्य निहित हैं जिससे किसी ज़माने में इंकार नहीं किया जा सकता। ज़ौक़ अपने शागिर्दों से उम्र और रुतबे में कम थे। ज़ौक़ की शायरी में लफ़्ज़ों को बरतने का जो सलीका मिलता है वो कमाल है इसके साथ ही उनकी ग़ज़लों में ज़बान की सादगी और चुस्ती ग़ज़ब की नज़र आती है। ज़ौक़ जिस ज़माने के शायर थे उस ज़माने में मुश्किल बहरों में कहने की रवायत थी लेकिन ज़माने के चलन को दरकनार करते हुए उन्होंने आसान लफ़्ज़ों को चुना। रिवायतों के खिलाफ जाने के लिए आपमें ग़ज़ब का आत्मविश्वास होना चाहिए जो ज़ौक़ साहब में था.

 मरते हैं तेरे प्यार से हम और जियादा 
 तू लुत्फ़ में करता है सितम और जियादा 

 वो दिल को चुरा कर जो लगे आँख चुराने 
 यारों का गया उनपे भरम और जियादा 

 क्यों मैंने कहा तुझसा खुदाई में नहीं और
 मगरूर हुआ अब वो सनम और जियादा 

 ज़ौक़ साहब के बारे में इतना कुछ है बताने को कि ऐसी बहुत सी पोस्ट्स लिखनी पढ़ें। ज़ौक़ ता उम्र लिखते रहे , कहा जाता है कि वो अपनी मृत्यु, जो सं 1854 में हुई थी ,के तीन घंटे पहले तक शेर कहते रहे थे। अगर आपको ज़ौक़ साहब और उनकी शायरी पढ़ने की दिली तमन्ना है तो इस पुस्तक के लिए आप 'अंगूर प्रकाशन' W A -170 -A -6 शकरपुर, दिल्ली को लिखें या फिर उन्हें +91-11-22203411पर संपर्क करें , वैसे आसान तो ये रहेगा कि आप इस किताब को अमेज़न से ऑन लाइन मंगवा लें। चलते चलते आईये आपको ज़ौक़ साहब की वो ग़ज़ल पढ़वाते हैं जिसे कुंदन लाल सहगल साहब ने अपनी आवाज़ दे कर अमर कर दिया , अगर आपने ये ग़ज़ल नहीं सुनी तो अभी की अभी यू ट्यूब का सहारा लें , फिर न कहना बताया नहीं :

 लायी हयात आये , क़ज़ा ले चली , चले 
 अपनी ख़ुशी न आये न अपनी ख़ुशी चले 

 बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे 
 पर क्या करें जो काम न बे दिल-लगी चले 

 हो उम्रे-ख़िज़्र भी तो कहेंगे ब-वक्ते-मर्ग 
 हम क्या रहे यहाँ अभी, आये अभी चले 
 उम्रे-ख़िज़्र=अमर , ब-वक्ते-मर्ग=मरते समय

 दुनिया ने किस का राहे-फ़ना में दिया है साथ 
 तुम भी चले चलो यूँही जब तक चली चले

किताबों की दुनिया - 200

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ता-हश्र उसका होश में आना मुहाल है
 जिसकी तरफ सनम की निगाहे-नयन गई 
ता-हश्र =क़यामत तक 
*** 
साफ़ी तिरे जमाल की कां लग बयां करूँ
 जिस पर कदम निगाह के अक्सर फिसल गए 
साफी =सफाई, सुंदरता , जमाल =रोशनी ,कां लग =कहाँ तक 
*** 
सजन तेरी गुलामी में किया हूँ सल्तनत हासिल 
मुझे तेरी गली की ख़ाक है तख्ते-सुलेमानी 
*** 
मुद्दत के बाद गर्मी दिल की फरद हुई है 
शरबत है हक़ में मेरे उस बेवफ़ा की गाली 
फरद =समाप्त 
*** 
तुझ मुख की आब देख गई, आब आब की 
ये ताब देख अक्ल गई आफ़ताब की 
*** 
सुन कर खबर सबा सूँ गरेबाँ को चाक़ कर 
निकले हैं गुल चमन सूँ तिरे इश्तयाक में
 सबा =हवा , इश्तयाक =चाह 
*** 
तुझ गाल पर नौं का निशाँ दिसता मुझे उस घात का 
रोशन शफ़क़ पर जगमगे ज्यूँ चाँद पिछली रात का 
नौं =नाख़ून, दिसता =दिखाई देता 
*** 
वो आबो-ताब हुस्न में तेरे है ऐ सजन 
खुर्शीद जिस कूँ देख कर लरज़ां है ज्यूँ चिराग 
खुर्शीद =चाँद 
*** 
शुगल बेहतर है इश्कबाज़ी का 
क्या हकीकी क्या मजाज़ी का 
हकीकी =वास्तविक , मजाज़ी =अवास्तविक
 *** 
बुलबुलां गर यक नज़र देखें तिरे मुख का चमन 
फिर न देखें ज़िन्दगी में मुख कभी गुलज़ार का 
*** 
ऐ शोख़ तुझ नयन में देखा निगाह कर-कर 
आशिक़ के मारने का अंदाज़ है सरापा 

 आप सर खुजला रहे होंगे -नहीं ? अच्छा जी ? इसलिए पूछा क्यूंकि मैंने तो ये सब पढ़ते वक्त खुजलाया था और इतनी जोर से खुजलाया की मेरे सर पर पड़े नाखूनों के निशान आप आज भी देख सकते हैं। बात ही ऐसी थी। इससे पहले ना ऐसी भाषा पढ़ने में आयी थी और न ऐसे ख़्याल। आती भी कैसे ? साढ़े तीन सौ सालों में बहुत कुछ बदल गया है। जी सही पढ़ा आपने , ये जो अशआर अगर आपने पढ़ें हैं तो बता दूँ कि आज से लगभग साढ़े तीन सौ साल पहले के हैं। कैसा ज़माना रहा होगा न तब ? शायर के पास सिवा इश्क फरमाने और अपनी मेहबूबा की ख़ूबसूरती बखान करने के अलावा और कोई काम ही नहीं होता होगा शायद । रोज़ी रोटी की फ़िक्र तो तब भी हुआ ही करती होगी लेकिन शायद उसके लिए इतनी मारामारी नहीं हुआ करती होगी जितनी आज के दौर में होती है । थोड़े में गुज़ारा हुआ करता होगा। तब लोग उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से ज्यादा सफ़ेद क्यों के झमेले में नहीं पड़ते होंगे।हाथ में वक़्त हुआ करता होगा तभी लोग कभी बुलबुल कभी चाँद कभी गुलशन कभी फूल देख देख कर खुश हुआ करते होंगे।

 अँखियों की करूँ मसनद ओ पुतली का करूँ बालिश 
वो नूरे-नज़र आज अगर मेरे घर आवे 
बालिश =तकिया 

 जामे मनें गुंचे नमन रह न सकूँ मैं 
गर पी की खबर लेके नसीमे-सहर आवे
 नसीमे-सहर =सुबह की हवा  

तुझ लब की अगर याद में तस्नीफ़ करूँ शेर 
हर शेर मनें लज़्ज़ते-शहदो-शकर आवे 

 हमने किताबों की दुनिया की ये यात्रा समझिये गंगा सागर से शुरू की थी आज हम गो-मुख पर आ पहुंचे हैं ,देखिये ,जरा गौर से देखिये यहाँ का पानी गंगा सागर के पानी से बिलकुल अलग है इसलिए कुछ अजीब सा लग रहा है।आज हम जिस शायर और उसकी शायरी की बात कर रहे हैं उन्हें उर्दू शायरी का जनम दाता कहा जाता है , कोई उन्हें शायरी का बाबा आदम कहते हैं तो कोई उर्दू अदब के वाल्मीकि, क्यों कि उन से पहले शायरी फ़ारसी ज़बान में हुआ करती थी। उन्होंने ही सबसे पहले उर्दू ज़बान की नज़ाकत, नफ़ासत और ख़ूबसूरती को शायरी में इस्तेमाल किया। उन्होंने न सिर्फ भारतीय ज़बान उर्दू को शायरी में इस्तेमाल किया बल्कि भारतीय मुहावरे, भारतीय ख़याल (कल्पना) और इसी मुल्क की थीम को भी अपने कलाम की बुनियाद बनाया। इस तरह मुक़ामी अवाम उर्दू शायरी से जुड़ गई .उस वक्त लिया गया ये एक क्रन्तिकारी क़दम था।

 सजन तुझ इन्तजारी में रहें निसदिन खुली अंखिया
मशाले शमआ तेरे ग़म में रो-रो बह चली अँखियाँ

 तेरे बिन रात-दिन फिरतियाँ हूँ बन-बन किशन की मानिंद
अपस के मुख ऊपर रखकर निगह की बांसली अखियां

 तिरि नयनां पे गर आहो-तसदक हो तो अचरज नहीं
कि इस कूँ देख कर गुलशन में नरगिस ने मली अँखियाँ
आहो-तसदक=सदके करना 

  घुमक्कड़ी के बेहद शौकीन हमारे आज के शायर जनाब 'वली'दकनीकी शायरी को श्री जानकी प्रसाद शर्मा जी ने 'उर्दू शायरी के बाबा आदम -वली दकनी'किताब में संकलित किया है जिसकी चर्चा हम कर रहे हैं। जनाब शमशुद्दीन 'वली'का जन्म 1668 में आज के महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में हुआ था। कुछ लोग उनकी पैदाइश 1667 की मानते हैं ,महाराष्ट्र क्यूंकि भारत के दक्षिण में है इसी कारण शमशुद्दीन वली का नाम 'वली 'दकनी पड़ा। वैसे उनके नाम को लेकर अभी भी लोग एक मत नहीं है कुछ लोग उन्हें वली मुहम्मद पुकारते हैं तो कुछ वली गुजराती। वली बहुत खोजी प्रकृति के इंसान थे ,ज्ञान की खोज में वो उस ज़माने में जब यातायात के कोई साधन नहीं हुआ करते थे दूर-दराज स्थानों की और निकल जाया करते थे। इस घुमक्कड़ी के कारण ही उनकी शायरी फ़ारसी के शिकंजे से आज़ाद हो पायी। देशज और आसान शब्दों को शायरी में ढाल कर उन्होंने इसे आम जन तक पहुँचाने का काम किया।



 मैं आशिकी में तब सूँ अफ़साना हो रहा हूँ 
तेरी निगह का जब सूँ दीवाना हो रहा हूँ 

 ऐ आशना करम सूँ यक बार आ दरस दे 
तुझ बाज सब जहाँ सूँ बेगाना हो रहा हूँ 

 शायद वो गंजे-ख़ूबी आवे किसी तरफ सूँ 
इस वासते सरापा वीराना हो रहा हूँ 
गंजे-खूबी =प्रिय 

 आप देखिये कि वली ने तत्कालीन लोक भाषा में ही अपनी शायरी की है। उनमें ब्रज, अवधि और संस्कृत भाषाओँ का विशेष पुट है। कूँ ,सूँ ,निस-दिन,परत,पीत (प्रीत ), जीव , मोहन ,रयन (रैन ),सजन जैसे लफ्ज़ इसका उदाहरण हैं. 1700 में अपनी ग़ज़लों के दीवान के साथ जब वो दिल्ली पहुंचे, तो शुमाली (उत्तरी) भारत के अदबी हल्क़ों में एक हलचल पैदा हो गई। ज़ौक, सौदा और मीर तक़ी मीर जैसे महान उर्दू शायर वली की रवायत की ही देन हैं। उस दौर में सबको समझ आने वाली उर्दू ज़बान में उनकी आसान और बामानी शायरी ने सबका दिल जीत लिया। दरअसल, वली का दिल्ली पहुंचना उर्दू ग़ज़ल की पहचान, तरक्की और फैलाव की शुरुआत थी।एक ओर वली ने जहां शायराना इज़हार के ज़रिए भारतीय ज़बान की मिठास और मालदारी से वाक़िफ़ कराया, वहीं फ़ारसी के जोश और मज़बूती को भी कायम रखा, जिसका उन्होंने अपनी नज़्मों में बख़ूबी इस्तेमाल भी किया। वली को शायरी की उस जदीद (आधुनिक) ज़बान का मेमार (शिल्पी) कहा जाना कोई बड़बोलापन नहीं होगा, जो हिंदी और फ़ारसी अल्फ़ाज़ों का बेहतरीन मिश्रण है।

 ऐ रश्के-महताब तू दिल के सहन में आ
 फुरसत नहीं है दिन को अगर तू रयन में आ 
रश्के-माहताब =चाँद भी जिससे इर्षा करे , रयन =रात 

 ऐ गुल अज़ारे-गुंचा दहन टुक चमन में आ 
गुल सर पे रख के शमआ नमन अंजुमन में आ  
गुल अज़ारे-गुंचा दहन =फूल की कली जैसा मुंह , नमन =समान 

 कब लग अपस के गुंचए-मुख को रखेगा बंद 
ऐ नौबहारे-बागे-मुहब्बत सुखन में आ 
कब लग =कब तक , अपस =अपने 

 आदिल कुरैशी उनके बारे में लिखते हैं कि "वली की पसंदीदा थीम इश्क़ और मोहब्बत थी। इसमें सूफ़ियाना और दुनियावी, दोनों ही तरह का इश्क़ शुमार था। मगर उनकी शायरी में हमें ज़्यादानज़र ख़ुशनुमा इक़रार और मंज़ूरी आती है। इसके बरअक्स उदासी, मायूसी और शिकायत कुछ कम ही महसूस होती है। वली इस मामले में भी पहले उर्दू शायर थे, जिसने उस दौर के चलन के ख़िलाफ़ जाकर आदमी के नज़रिए से प्यार का इज़हार करने की शुरुआत की।"दिल्ली में वो लंबे अर्से तक रहे बल्कि यहां की तबज़ीब से ख़ासे मुतआस्सिर भी हुए. जब वली दिल्ली पहुंचे, सुख़न-नवाज़ों ने उन्हें हाथों हाथ लिया. महफ़िलें सजने लगीं, शायर चहकने लगे, लेकिन जो आवाज़ निकलती वो वली की आवाज़ से मेल खाती नज़र आती. अब तक वली के दिल पर दिल्ली और दिल्ली के दिल पर वली का नाम रौशन हो चुका था.दिल्ली में वली को वो सम्मान मिला कि शाही दरबार में हिंदी के जो पद गाए जाते थे उनकी जगह वली की ग़ज़लें गाई जाने लगीं.दिल्ली में तहलका मचाने के बाद वली घूमते हुए अहमदाबाद चले आये ये शहर इन्हें इतना रास आया कि यहीं के हो के रह गए।

 तुझ गली की खाके-राह जब सूँ हुआ हूँ ऐ पिया
 तब सूँ तेरा नक़्शे-पा तकिया है मुझ बीमार का
 तकिया =पवित्र स्थान 

 बुलबुलां गर यक नज़र देखें तिरे मुख का चमन 
फिर न देखें ज़िन्दगी में मुख कभी गुलज़ार का 

 टुक अपस का मुख दिखा ऐ राहते-जानो-जिगर 
है 'वली'मुद्दत सती मुश्ताक़ तुझ दीदार का
 सती =से

 31 अक्टूबर 1707 को वली ने अपनी अंतिम सांस अहमदाबाद में ही ली। उनका जनाजा बहुत धूमधाम से निकाला गया जिसमें उनकी शायरी के दीवाने हिन्दू और मुस्लिम लोग हज़ारों की तादात में शामिल थे, शाहीबाग इलाके में उनको दफना दिया गया। उनकी कब्र पर एक मज़ार भी बनाया गया जिसे देखने और अपना सर झुकाने लोग नियमित रूप से आया करते। अहमदाबाद को इस बात का फ़क्र हासिल था कि उसकी गोद में उर्दू शायरी का बाबा आदम गहरी नींद में सो रहा है। कोई समझदार इंसान 28 फरवरी 2002 का वो मनहूस दिन याद नहीं करना चाहेगा जब अहमदाबाद में दंगे भड़क उठे थे। हिंसक भीड़ सोच समझ खो देती है। धार्मिक उन्माद अच्छा बुरा सोचने की क्षमता हर लेता है। लोगों में छुपा हिंसक पशु अपनी पूर्ण क्रूरता के साथ बाहर आ जाता है। उस वक्त हमें महसूस होता है कि सभ्य होने का जो मुलम्मा हम ओढ़े हुए हैं ये किसी भी क्षण उतार कर फेंका जा सकता है। हम हकीकत में जानवर ही हैं। दंगों के दौरान भीड़ के हाथ जो लगा वो नष्ट कर दिया गया। बदकिस्मती से वली दकनी की मज़ार उन्मादी भीड़ के रास्ते में आ गयी जो पुलिस कमिश्नर आफिस के पास ही थी। भीड़ ने ये नहीं सोचा कि शायर किसी मज़हब विशेष का नहीं होता ,वो अवाम की आवाज़ होता है ,लेकिन भीड़ सोचती ही कब है लिहाज़ा उस मज़ार को तहस नहस कर दिया गया। तुरतफुरत सरकार द्वारा उस पर सड़क बना दी गयी.आज अगर आप उस मज़ार को खोजने जाएँ तो उसका नामो-निशान भी नहीं मिलेगा।

 इस रात अँधेरी में मत भूल पडूँ तिस सों 
टुक पाँव के झाँझे की झनकार सुनाती जा 

तुझ इश्क में जल-जल कर सब तन कूँ किया काजल 
यह रौशनी-अफ़्ज़ा है अँखियाँ कूँ लगाती जा 
रौशनी-अफ्ज़ा =रौशनी बढ़ने वाली 

 तुझ नेह में दिल जल-जल कर जोगी की लिया सूरत
 यक बार इसे मोहन छाती सूँ लगाती जा 

 लोग भूल जाते हैं कि मज़ार मिटाने से वली दकनी जैसे शायर कभी नहीं मिट सकते। ये वो चिराग़ हैं जो आँधियों से नहीं बुझते उनकी रौशनियां राह दिखाती रही हैं और ता-उम्र रास्ता दिखाती ही रहेंगी। वली दकनी को पढ़ने के लिए आप इस किताब को पढ़ें जो मेरे ख्याल से हिंदी में उपलब्ध एक मात्र किताब है जिसे वाणी प्रकाशन दिल्ली ने प्रकाशित किया है। वाणी प्रकाशन से संपर्क के बारे में बहुत बार बताया जा चूका है लेकिन आपकी सुविधा के लिए एक बार फिर बता देते हैं।
वाणी प्रकाशन 21-A दरियागंज नई दिल्ली -110002
 फ़ोन :011-23275710 /23273167
 ई -मेल : sales@vaniprakashan.in, marketing@vaniprakashan.in 

 आखिर में चलते चलते आपको पढ़वाते हैं वली दकनी की एक अनूठी ग़ज़ल जिसकी संरचना अद्भुत है एक शेर जिस शब्द से शुरू होता है उसी पर ख़तम होता है ,पहले मिसरे (मिसरा-ऐ-ऊला )का आखरी शब्द दूसरे मिसरे(मिसरा -ऐ-सानी ) का पहला शब्द होता है। इस विधा को क्या कहते हैं ये तो मुझे पता नहीं लेकिन ये काम है काफी मुश्किल :

 दिलरुबा आया नज़र में आज मेरी खुश अदा 
 खुश अदा ऐसा नहीं देखा हूँ दूजा दिलरुबा

 बेवफ़ा गर तुझको बोलूं , है बजा ऐ नाज़नीं 
 नाज़नीं आलम मने होते हैं अक्सर बेवफ़ा 

 मुद्दए-आशक़ाँ हर आन है दीदारे-यार 
 यार के दीदार बिन दूजा अबस है मुद्दआ 
 अबस =बेकार

किताबों की दुनिया -201

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मिले तो खैर न मिलने पे रंजिशें कैसी 
कि उससे अपने मरासिम थे पर न थे ऐसे 
*** 
आस कब दिल को नहीं थी तेरे आ जाने की 
पर न ऐसी कि क़दम घर से न बाहर रखना
 *** 
मेरी गर्दन में बाहें डाल दी हैं 
तुम अपने आप से उकता गए क्या
 *** 
मगर किसी ने हमें हमसफ़र नहीं जाना 
ये और बात कि हम साथ-साथ सब के गये 
***
 मुंसिफ हो अगर तुम तो कब इन्साफ करोगे 
मुजरिम हैं अगर हम तो सज़ा क्यों नहीं देते
 ***
 खिले तो अब के भी गुलशन में फूल हैं लेकिन 
न मेरे ज़ख्म की सूरत न तेरे लब की तरह 
*** 
इस चकाचौंध में आँखे भी गँवा बैठोगे 
उसके होते हुए पलकों को झुकाये रखना 
*** 
हम यहाँ भी नहीं हैं खुश लेकिन 
अपनी महफ़िल से मत निकाल हमें 
*** 
तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल 
हार जाने का हौसला है मुझे
 *** 
हंसी ख़ुशी से बिछड़ जा अगर बिछड़ना है 
ये हर मकाम पे क्या सोचता है आखिर तू 

बहुत बड़ा ऑडिटोरियम था ,पूरा खचाखच भरा हुआ, लोग कुर्सियों के अलावा कॉरिडोर में भी बैठे थे ,यूँ समझें तिल धरने को भी जगह नहीं थी। सामने मंच पर साजिंदे बैठे और बीच में शॉल ओढ़े गायक जिसकी उँगलियाँ हारमोनियम पर थीं। अचानक गायक ने हारमोनियम पर सुर छेड़े और जैसे ऑडिटोरियम में करंट सा दौड़ गया। तालियों की गड़गड़ाहट से दीवारें कांपने लगीं , कुछ लोग सीट पर से खड़े हो कर सीटियां बजाने लगे, गायक ने आलाप लिया तालियां और तेज हो गयीं , लोग खुद गुनगुनाने लगे। गायक ने हारमोनियम रोक दिया सामने की सीट पे बैठे एक सज्जन को सलाम किया वो उठ खड़े हुए और ऑडिटोरियम में बैठे लोगों की और मुंह करके हाथ हिलाया। तालियों बजती रहीं। गायक ने गला साफ़ करके कहा "मुझे याद नहीं पड़ता कि किसी शायर को उसके जीते जी इतना सम्मान और मकबूलियत हासिल हुई हो ,ये अपने दौर के तो सबसे मकबूल शायर हैं ही ,आने वाली सदियां भी इन्हें शिद्दत से याद किया करेंगी। "

 फूल खिलते हैं तो हम सोचते हैं 
तेरे आने के ज़माने आये 

 ऐसी कुछ चुप-सी लगी है जैसे 
हम तुझे हाल सुनाने आये 

 दिल धड़कता है सफ़र के हंगाम 
काश ! फिर कोई बुलाने आये 
हंगाम :समय 

 क्या कहीं फिर कोई बस्ती उजड़ी 
लोग क्यों जश्न मनाने आये 

 आज हम जिस शायर और उसकी किताब की बात कर रहे हैं उसे उर्दू बोलने समझने वाले सभी लोग चाहे वो जिस भी मुल्क के बाशिंदे हों बेहद प्यार करते थे, करते हैं और करते रहेंगे।इनकी शायरी को सरहदों में बांधना ना-मुमकिन है। हमने जिस गायक की बात अभी की वो थे जनाब मेहदी हसन साहब और शायर थे जनाब 'अहमद फ़राज़'जिस धुन को हारमोनियम पर अभी उन्होंने बजाया वो थी फ़राज़ साहब की बेहद मशहूर ग़ज़ल "रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ ..."इस एक ग़ज़ल ने मेहदी हसन साहब को जो मकबूलियत दिलाई उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती। लगता है जैसे मेहदी हसन साहब इस ग़ज़ल को गाने के लिए बने थे ,यूँ तो उनकी ढेरों ग़ज़लें सुनने वालों को मुत्तासिर करती रही हैं लेकिन 'रंजिश ही सही ..."की तो बात ही अलग है।इस ग़ज़ल को हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बहुत से नए पुराने गायक -गायिकाओं ने पहले भी गाया है आज भी गाते हैं, गाते भी रहेंगे लेकिन जो असर मेहदी हसन साहब ने इसे गाते हुए पैदा किया था उसकी तो बात ही कुछ और है। यूँ तो फ़राज़ साहब की ढेरों किताबें बाजार में हैं, उन्हीं में से एक "ख़्वाब फ़रोश"हमारे सामने है :


 जिस तरह बादल का साया प्यास भड़काता रहे 
मैंने ये आलम भी देखा है तिरि तस्वीर का 

 जाने किस आलम में तू बिछड़ा कि है तेरे बग़ैर 
आज तक हर नक़्श फ़रियादी मिरि तहरीर का

 जिसको भी चाहा उसे शिद्दत से चाहा है फ़राज़ 
सिलसिला टूटा नहीं है दर्द की ज़ंज़ीर का 

 ये कहना अतिश्योक्ति पूर्ण नहीं होगा कि फ़राज़ बीसवीं सदी के महान शायरों इक़बाल और फैज़ साहब के बाद उर्दू के सबसे लोकप्रिय शायर हुए हैं। ऐसा भी नहीं है कि उनके समकालीन शायरों की शायरी उनसे मयार में कम थी लेकिन जो लोकप्रियता फ़राज़ साहब ने हासिल की वैसी उनके साथ के शायर नहीं हासिल कर पाए। अगर गौर करें तो पाएंगे कि फ़राज़ साहब की लोकप्रियता का राज़ उनकी शायरी की ज़बान थी। बेहद आसान ज़बान में गहरी बात कहने का जो हुनर फ़राज़ साहब के पास था वैसा और दूसरे शायरों में नहीं मिलता यही कारण है कि उनकी ग़ज़लों को भारत या पाकिस्तान के गायकों ने खूब गाया है। फ़राज़ खुद भी देश विदेश के मुशायरों में अपनी सादा ज़बान और अपना कलाम पढ़ने के निराले अंदाज़ के कारण बहुत बुलाये जाते थे। उनके व्यक्तित्व और कलाम को पढ़ कर ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल था कि इस शायर के पास फौलाद का जिगर है।

 ये ख़्वाब है खुशबू है कि झौंका है कि पल है
 ये धुंध है बादल है कि साया है कि तुम हो

 इस दीद की साअत में कई रंग हैं लरज़ां 
मैं हूँ कि कोई और है ,दुनिया है, कि तुम हो
 साअत =क्षण 

 देखो ये किसी और की आँखें हैं कि मेरी 
देखूं ये किसी और का चेहरा है ,कि तुम हो 

 पाकिस्तान के शहर कोहाट में 12 जनवरी 1931 को जन्मे अहमद फ़राज़ का असली नाम सैयद अहमद शाह था लेकिन वह दुनिया भर में अपने तख़ल्लुस अहमद फ़राज़ के नाम से जाने जाते थे. कोहाट में प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद वो आगे पढ़ने के लिए 75 की मी दूर बसे बड़े शहर पेशावर चले गए। पेशावर के मशहूर एडवर्ड कॉलेज से उन्होंने उर्दू और फ़ारसी ज़बानों में एम् ऐ की डिग्री हासिल की। स्कूल के ज़माने में उनका बैतबाज़ी में हिस्से लेने का शौक बाद में शायरी की ओर खींच लाया। ग़ज़ल लेखन की और उनका झुकाव कॉलेज दिनों से ही हो गया था जहाँ फैज़ अहमद फैज़ पढ़ाया करते थे। शुरू में उनकी शायरी रुमानियत से भरी नज़र आती है। फैज़ और अली सरदार ज़ाफ़री साहब के संपर्क में आने के बाद उनकी शायरी में बदलाव देखने को मिलता है।

 तू भी हीरे से बन गया पत्थर 
 हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएँ 

 देर से सोच में हैं परवाने 
राख हो जाएँ या हवा हो जाएँ 

 अब के अगर तू मिले तो हम तुझसे 
ऐसे लिपटें तिरि क़बा हो जाएँ

 'फ़राज़'अपने आदर्श फैज़ की तरह क्रांतिकारी शायर नहीं थे लेकिन उनकी शायरी में राजनीती में होने वाली ओछी हरकतों को खुल कर बयां करने का हौसला था. बांग्ला देश बनने से पहले पश्चिमी पाकिस्तान की सेना द्वारा पूर्वी पकिस्तान के बंगाली सैनिकों और आम इंसान पर ढाये गए जुल्म को उन्होंने खुल कर अपनी एक नज़्म में बयां किया है। इस नज़्म को उन्होंने सार्वजानिक रूप से एक मुशायरे में पढ़ा और पाकिस्तान की सेना को जल्लाद कहा। जुल्फ़िक़ार अली भुट्टो के इशारे पर उन्हें रातों रात बिना किसी वारंट के जेल में बंद कर दिया गया। कोई और शायर होता तो इस बात के लिए सार्वजानिक रूप से माफ़ी मांग कर जेल से बाहर आ सकता था लेकिन फ़राज़ को ये मंज़ूर नहीं था। जेल की चार दीवारों में बंद घुटन और साथ ही उन पर ढाये जाने वाले जुल्म फ़राज़ को तोड़ने में नाकामयाब रहे। फ़राज़ के इस हौसले की चारों और बहुत प्रशंशा हुई।

 मेरे झूठ को खोलो भी और तोलो भी तुम 
लेकिन अपने सच को भी मीज़ान में रखना 
मीज़ान =पलड़ा 

बज़्म में यारों की शमशीर लहू में तर है 
रज़्म में लेकिन तलवारों को म्यान में रखना 
रज़्म =युद्ध 

 इस मौसम में गुलदानों की रस्म कहाँ है 
लोगो ! अब फूलों को आतिशदान में रखना  

तानाशाही रवैय्यों से उनका दूसरा पाला तब पड़ा जब जनरल जिया -उल-हक़ पाकिस्तान के डिक्टेटर बने। जिया हर पढ़ेलिखे समझदार इंसान से नफरत करते थे। उन्हें फ़राज़ का सैन्य अधिकारीयों के खिलाफ लिखना नाग़वार गुज़रता था। फ़राज़ उस वक्त के पाकिस्तान के माहौल से निराश हो कर वहां से 6 साल के लिए जलावतन हो गए और ब्रिटेन, कनाडा और यूरोप में प्रवास करते रहे। उनके साथ पाकिस्तानी हुक्मरानों ने जैसा बुरा व्यवहार किया उसकी मिसाल ढूंढना मुश्किल है। अमेरिका के पिठ्ठू कहने पर जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने उनके सारे सामान के साथ उन्हें सरकारी घर से सड़क पर ला खड़ा किया। अमेरिका में बसे पाकिस्तानी 'मोअज़्ज़म शेख 'ने अपने एक लेख में लिखा था कि "अगर ओलम्पिक में किसी शायर या कवि पर किये गए अत्याचारों पर मैडल देने की प्रतियोगिता होती तो पाकिस्तान को गोल्ड मैडल मिलता।"

 बदला न मेरे बाद भी मौजू-ए-गुफ़्तगू 
मैं जा चुका हूँ फिर भी तेरी महफ़िलों में हूँ

 मुझसे बिछुड़ के तू भी तो रोयेगा उम्रभर 
ये सोच ले कि मैं भी तेरी ख्वाइशों में हूँ 

 तू हंस रहा है मुझ पे मेरा हाल देख कर 
और फिर भी मैं शरीक तेरे कहकहों में हूँ

 भले ही पाकिस्तानी हुक्मरानों ने उनके साथ दुर्व्यवहार किया लेकिन पाकिस्तान की अवाम ने हमेशा उन्हें सर आँखों पे बिठाया। पाकिस्तान की ही नहीं बल्कि हर उस इंसान ने जिसे उर्दू ज़बान और शायरी से मोहब्बत है फ़राज़ साहब को अपने दिल के तख्ते ताउस पर बड़ी इज़्ज़त से बिठया है। ये उनके प्रति लोगों का प्यार ही है जिसकी बदौलत उन्हें कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया जिनमें सितारा-ए-इम्तियाज़ ,हिलाल-ए-इम्तियाज और निगार अवार्ड प्रमुख हैं। सं 2006 में उन्होंने सरकार की नीतियों से सहमत न होते हुए हिलाल-ऐ-इम्तिआज़ अवार्ड वापस कर दिया था। 25 अगस्त 2008 को इस्लामाबाद के एक निजी अस्पताल में गुर्दे की विफलता से फराज़ का निधन हो गया। 26 अगस्त की शाम को इस्लामाबाद, पाकिस्तान के एच -8 कब्रिस्तान के कईप्रशंसकों और सरकारी अधिकारियों के बीच उनको सुपुर्दे ख़ाक कर दिया गया। पाकिस्तान सरकार ने अपने किये पे शर्मिंदा होते हुए उन्हें उनकी मृत्यु के बाद सन 2008 में हिलाल-ऐ- पकिस्तान के अवार्ड से नवाज़ा।

 यही दिल था कि तरसता था मरासिम के लिए 
अब यही तर्क-ऐ-तअल्लुक़ के बहाने मांगे 

 अपना ये हाल कि जी हार चुके लुट भी चुके 
और मोहब्बत वही अंदाज़ पुराने मांगे

 ज़िन्दगी हम तिरे दागों से रहे शर्मिंदा 
और तू है कि सदा आईनाख़ाने मांगे 

 अहमद ‘फ़राज़’ ग़ज़ल के ऐसे शायर हैं जिन्होंने ग़ज़ल को जनता में लोकप्रिय बनाने का क़ाबिले-तारीफ़ काम किया। ग़ज़ल यों तो अपने कई सौ सालों के इतिहास में अधिकतर जनता में रुचि का माध्यम बनी रही है, मगर अहमद फ़राज़ तक आते-आते उर्दू ग़ज़ल ने बहुत से उतार-चढ़ाव देखे और जब फ़राज़ ने अपने कलाम के साथ सामने आए, तो लोगों को उनसे उम्मीदें बढ़ीं। ख़ुशी यह कि ‘फ़राज़’ ने मायूस नहीं किया। अपनी विशेष शैली और शब्दावली के साँचे में ढाल कर जो ग़ज़ल उन्होंने पेश की वह जनता की धड़कन बन गई और ज़माने का हाल बताने के लिए आईना बन गई। मुशायरों ने अपने कलाम और अपने संग्रहों के माध्यम से अहमद फ़राज़ ने कम समय में वह ख्याति अर्जित कर ली जो बहुत कम शायरों को नसीब होती है। बल्कि अगर ये कहा जाए तो गलत न होगा कि इक़बाल के बाद पूरी बीसवीं शताब्दी में केवल फ़ैज और फ़िराक का नाम आता है जिन्हें शोहरत की बुलन्दियाँ नसीब रहीं, बाकी कोई शायर अहमद फ़राज़ जैसी शोहरत हासिल करने में कामयाब नहीं हो पाया। उसकी शायरी जितनी ख़ूबसूरत है, उनके व्यक्तित्व का रखरखाव उससे कम ख़ूबसूरत नहीं रहा।

 क्या क़यामत है कि जिनके लिए रुक-रुक के चले 
अब वही लोग हमें आबला-पा कहते हैं 

 कोई बतलाओ कि इक उम्र का बिछड़ा महबूब 
इत्तिफ़ाक़न कहीं मिल जाए तो क्या कहते हैं 

 जब तलक दूर है तू तेरी परिस्तिश करलें 
हम जिसे छू न सकें उसको खुदा कहते हैं 

 मेहदी हसन की आवाज़ में "रंजिश ही सही--"के अलावा "अब के हम बिछुड़े तो शायद ---"और गुलाम अली साहब की आवाज़ में ये आलम शौक का ---"जैसी न जाने कितनी ग़ज़लों के माध्यम से फ़राज़ साहब हमारे बीच सदियों तक ज़िंदा रहेंगे।पाकिस्तान के मेहदी हसन और गुलाम अली साहब के अलावा भारत के नामचीन गायकों जैसे जिनमें लता मंगेशकर, आशा भोंसले, जगजीत सिंह, पंकज उधास आदि ने भी अपना स्वर दिया है ।उनके क़लाम को पढ़ने का पूरा मज़ा लेने के लिए आपको उनकी किताब "ख़ानाबदोश चाहतों के"तलाशनी होगी जिसमें फ़राज़ साहब की चुनिंदा ग़ज़लें और नज़्में हैं। फ़राज़ साहब की शायरी का हिंदी में इस से बेहतर संकलन और किसी किताब में नहीं है। ""ख्वाब फरोश " , जिसे डायमंड बुक्स ओखला इंडस्ट्रियल एरिया फेज -2 द्वारा प्रकाशित किया है, को मंगवाने के लिए आप उन्हें 011-41611861 पर फोन करें या उनकी वेब साइट www.dpb.inपर जा कर इसे आन लाइन ऑर्डर करें। ये किताब अमेज़न पर भी आसानी से उपलब्ध है। आखिर में इस किताब की एक ग़ज़ल से ये शेर पढ़वाते हुए हम आपसे रुखसत होते हैं :

 ये क्या कि सबसे बयाँ दिल की हालतें करनी
 फ़राज़ तुझको न आई मोहब्बतें करनी 

 मोहब्बतें ये कुर्ब क्या है कि तू सामने है और 
हमें शुमार अभी से जुदाई की साअतें करनी 
कर्ब =निकटता , साअतें =क्षण  

हम अपने दिल से हैं मज़बूर और लोगों को
 ज़रा सी बात पे बरपा कयामतें करनी 

 ये लोग कैसे मगर दुश्मनी निभाते हैं 
हमें तो रास न आए मोहब्बतें करनी

किताबों की दुनिया - 202

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दरिया की ज़िन्दगी पर सदके हज़ार जानें 
मुझको नहीं गवारा साहिल की मौत मरना 
*** 
इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मज़बूरी 
कि हमने आह तो की उनसे आह भी न हुई 
सिवा=ज्यादा
 *** 
हर एक मकाँ में कोई इस तरह मकीं है 
पूछो तो कहीं भी नहीं देखो तो यहीं है 
*** 
हाँ, हाँ, तुझे क्या काम मेरे शिद्दते ग़म से ? 
हाँ, हाँ, नहीं मुझको तेरे दामन की हवा याद 
*** 
निगाहों में कुछ ऐसे बस गए हैं हुस्न के जलवे 
कोई महफ़िल हो लेकिन हम तेरी महफ़िल समझते हैं 
*** 
मजबूरी-ऐ-कमाले मुहब्बत तो देखना 
जीना नहीं कबूल , जिए जा रहा हूँ मैं
 *** 
क्या बताऊँ, किस कदर ज़ंज़ीरे पा साबित हुए 
चंद तिनके जिनको अपना आशियाँ समझा था मैं 
*** 
काँटों का भी हक़ है आखिर 
कौन छुड़ाए अपना दामन 
*** 
यह है इश्क की करामत यह कमाले शायराना 
अभी बात मुंह से निकली अभी हो गयी फ़साना
 *** 
मुहब्बत की बातें मुहब्बत ही जाने 
मुअम्मे नहीं हैं ये समझाने वाले 
मुअम्मे =गुत्थी 

 अलीबाबा पेड़ के पीछे खड़ा सब देख रहा था। उसने चोरों के सरदार ने गुफा के दरवाज़ा को खोलने के लिए जो बोला था वो भी रट लिया। जब चोर गुफा से बाहर आकर वापस चले गए तो वो पेड़ के पीछे से निकला ,गुफा के सामने खड़ा हुआ और बोला "खुल जा सिम सिम "दरवाज़ा खुला अलीबाबा अंदर गया और उसके बाद उसने जो देखा उसे देख उसकी जो हालत हुई होगी उसे मैं समझ सकता हूँ। इतना विशाल खज़ाना उसके सामने था। ऊपर वाले के दिए दो हाथों से वो जितना उठा सकता था उसने उस ख़ज़ाने से हिस्सा उठाया और चल दिया। मैं भी तो वोही कर रहा हूँ आज। सारे ख़ज़ाने को एक साथ न उठा पाने का जो मलाल अलीबाबा को उस वक्त हुआ होगा वो मुझे अब हो रहा है। ये किताब जो मेरे सामने है उस ख़ज़ाने से कम नहीं ,इसमें इश्क के बेजोड़ हीरे, हुस्न की चमचमाती सोने की अशर्फियाँ ,शराब के पन्ने की तरह खूबसूरत ज़ेवर ग़म के सच्चे मोतियों की मालाओं के ढेर और न जाने क्या क्या है। दिल तो मेरा भी यही कर रहा है कि सारे का सारा खज़ाना आपके कदमों पे धर दूँ लेकिन मजबूरी है, अकेला इतना बोझ उठा नहीं सकता। जो जितना उठा पाया हूँ आपके सामने है :

 हुस्न की जल्वागरी से है मुहब्बत का जुनूँ 
शमा रोशन हुई , पर लग गए परवानों के
 *** 
मुझको शिकवा है अपनी आँखों से 
तुम न आए तो नींद क्यों आई ? 
*** 
आपस में उलझते हैं अबस शेखो-बिरहमन 
काबा न किसी का है न बुतखाना किसी का 
अबस =बेकार 
*** 
इश्क जब तक न कर चुके रुसवा 
आदमी काम का नहीं होता
 *** 
तौबा तो कर चुका था मगर इसका क्या इलाज
 वाइज़ की ज़िद ने फिर मुझे मजबूर कर दिया 
*** 
जुनूने मुहब्बत यहाँ तक तो पहुंचा
 कि तर्के मुहब्बत किया चाहता हूँ 
*** 
हाय ये मजबूरियां महरूमियाँ नाकामियां 
इश्क आखिर इश्क है तुम क्या करो हम क्या करें 
*** 
कमाले हुस्न की का आलम दिखा दिया तूने
 चिराग़ सामने रख कर बुझा दिया तूने
 *** 
यूँ दिल के तड़पने का कुछ तो है सबब आखिर 
या दर्द ने करवट ली या तुमने इधर देखा 
*** 
हुदूद कूचा-ए-महबूब हैं वही से शुरू 
जहाँ से पड़ने लगे पाँव डगमगाए हुए 

 चलिए 19 वीं शातब्दी के शुरूआती दौर में चलते हैं यही कोई 1910 के आसपास, किसी मोहल्ले में मुशायरा चल रहा है आधी रात का वक्त होगा , एक नामचीन शायर साहब अपना कलाम उछल उछल कर पढ़ रहे हैं दाद के लिए हाथ फैलाये हुए हैं लेकिन सामिईन उन्हें उखाड़ने को कमर कसे बैठे हैं , शायर मुशायरे के आर्गेनाइजर की और मुख़ातिब हो कर धीरे से कहते हैं कैसे ज़ाहिल गँवार लोगों को मुझे सुनने को बुलाया हुआ है आपने। कोई शेर उनके पल्ले ही नहीं पड़ रहा , इस से तो मैं अगर गधों को सुनाता तो कम से कम दुम तो हिलाते। आर्गेनाइजर धीरे से बोलै शुक्र कीजिये सामिईन में गधे नहीं हैं वरना हो सकता है दुलत्तियाँ चलाने लगते। मुशायरा उखड चुका था ,तभी एक नौजवान नशे में धुत्त लड़खड़ाता हुआ मंच की और बढ़ा। उसकी बेतरीब बढ़ी दाढ़ी और महीनों से कंघी को तरसती हुई लम्बी जुल्फें देख कर लगता था जैसे वो किसी पागलखाने से सीधा चला आया है। नौजवान को तेजी से माइक की तरफ आता देख वो शायर साहब तो फ़ौरन खिसक लिए लेकिन आर्गेनाइजर की बांछे खिल उठीं। नौजवान ने गला साफ़ किया और लाजवाब तरन्नुम में ये कलाम पढ़ा :

 दिल में किसी के राह किये जा रहा हूँ मैं 
कितना हसीं गुनाह किये जा रहा हूँ मैं 

 गुलशन परस्त हूँ मुझे गुल ही नहीं अज़ीज़ 
काँटों से भी निबाह किये जा रहा हूँ मैं 

 यूँ ज़िन्दगी गुज़ार रहा हूँ तेरे बगैर 
जैसे कोई गुनाह किये जा रहा हूँ मैं 

 अब इसके बाद क्या हुआ ,आप तो समझदार हैं जान ही गए होंगे। सामिईन ने और किसी को पढ़ने ही नहीं दिया ,ये नौजवान सारा मुशायरा लूट के ले गया। सच तो ये है कि ऐसा कोई भी मुशायरा किसी को याद नहीं जिसमें इन हज़रत ने पढ़ा हो और उसे लूट न ले गए हों। मुशायरा लूटने का ये सिलसिला इस शायर की मौत के बाद ही ख़तम हुआ। तो चलिए आज इसी शायर की बात करते हैं जिसने उर्दू शायरी को हुस्न और इश्क के नए पाठ पढ़ाये। इनकी शायरी में हुस्न और इश्क की धीमी धीमी आंच पर इंकलाब और नए नज़रियात की आहट सुनाई देती है। 6 अप्रेल 1890 में मुरादाबाद में जन्में इस शायर का नाम है अली सिकंदर जो उर्दू शायरी के फ़लक पर आफ़ताब की चमक रहा है और आने वाले वक्त में भी इसी आब के साथ चमकता रहेगा ,हम इस शायर को "जिगर मुरादाबादी"के नाम से जानते हैं। उनकी ग़ज़लों के संकलन की जिस किताब "मेरा पैगाम मुहब्बत है जहाँ तक पहुंचे"की हम बात कर रहे हैं ,उसे "किताब घर"प्रकाशन दिल्ली द्वारा प्रकाशित किया गया है।


 आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त घबराता हूँ मैं 
जैसे हर शय में किसी शय की कमी पाता हूँ मैं 

 हाय रे मजबूरियां तरके मुहब्बत के लिए
 मुझको समझाते हैं वो और उनको समझाता हूँ मैं 

 मेरी हिम्मत देखना मेरी तबियत देखना 
जो सुलझ जाती है गुत्थी फिर से उलझाता हूँ मैं

 जिगर को शायरी विरासत में मिली थी। उनके पिता मौलाना अली 'नज़र'तो शायर थे ही उनके दादा हाफिज मोहम्मद 'नूर'भी शायर थे। जैसा कि अमूमन होता है उस दौर में कोई कोई शायर ही खाते-पीते घर के होते थे जबकि अधिकांश की माली खस्ता ही होती थी।आज भी वैसे कोई खास फ़र्क नहीं पड़ा है जो सच्चे और अच्छे शायर हैं उनकी हालत खस्ता ही है, हाँ जो शायरी को बेचने के हुनर से वाकिफ़ हैं उन्हें कोई कमी नहीं। जिगर के परिवार वाले ये हुनर नहीं जानते थे इसलिए किसी तरह गुज़ारा करते रहे। ऐसे माहौल में जिगर की शिक्षा ढंग से नहीं हो पायी ,वो कुछ साल ही मदरसे गए बाद में घर पर ही फ़ारसी सीखी। जिगर का ये मानना था कि शायरी के लिए किसी स्कूल कॉलेज की डिग्री लेना जरूरी नहीं। जिगर साहब ने तो बिना डिग्री के बेहतरीन शायरी कर ली लेकिन उनकी इस बात को उनके बाद के बाकि शायरों ने भी गले बांध लिया और आज भी आपको इस सोच के शायर मिल जायेंगे जो मुशायरों के मंचों पर धूम मचा रहे हैं लेकिन अगर उनसे उनकी डिग्री पूछेंगे तो बगलें झांकते नज़र आएंगे। जिगर ने माना कि अधिक पढाई नहीं की लेकिन उन्होंने ज़िन्दगी के तल्ख़ तजुर्बों से बहुत कुछ सीखा और उन्हीं तजुर्बों को अपनी शायरी में ख़ूबसूरती से ढाला।अब आपके पास अगर तजुर्बे भी ना हों सिर्फ दूसरों की नक़ल करने का हुनर आता हो तो अपनी नौटंकी से मंचों पे आप बेशक तालियां पिटवा लेंगे लेकिन मंच से हटते ही आपको याद रखने वाला कोई नहीं होगा।

 हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं 
 हमसे ज़माना खुद है ज़माने से हम नहीं 

 यारब ! हुजूमे दर्द को दे और वुसअतें 
 दामन तो क्या अभी मेरी आँखें भी नम नहीं 
 हुजूमे=भीड़, वुसअतें=फैलाव 

 ज़ाहिद कुछ और हो न हो मैखाने में , मगर 
 क्या कम ये है कि फ़ितना-ए-दैरो हरम नहीं 

 जिगर की ज़िन्दगी में अगर झांकेंगे तो आपको दो बातें खास तौर पे मिलेंगी पहली मयनौशी और दूसरी आशिकी। जिगर ने या तो शराब पी या इश्क किया और दोनों ही काम करने में किसी तरह की कोई कंजूसी नहीं की। ज़नाब इश्क फरमाते नाकामयाब होते तो शराब में गर्क हो जाते और शायरी करने लगते, शायरी करते तो किसी न किसी को उनसे इश्क हो जाता जो थोड़े दिन चलता और जिगर साहब फिर से शराब से नाता जोड़ लेते। फक्कड़ तबियत कुछ मिला तो ठीक न मिला तो भी ठीक। पढ़े लिखे होते तो कहीं नौकरी भी मिलती ,दुबले पतले मरियल से बदसूरत चेहरे वाले जिगर को कोई ढंग का काम किसी ने दिया ही नहीं इसलिए जब जो काम मिला कर लिया और पेट की आग बुझा ली। जनाब ने स्टेशन स्टेशन घूम के चश्मे बेचने का काम भी किया है। ये ही मरियल दुबला-पतला बदसूरत इंसान बकौल शौक़त थानवी "जब मुशायरे में तरुन्नम से अपना कलाम पढ़ते तो दुनिया के सबसे हसीन और दिलकश इंसान नज़र आने लगते।चेहरे पर मासूमियत छा जाती "इसी मासूमियम के चलते हसीनाएं उन्हें अपना दिल दे बैठतीं जिसे कबूल करने में जिगर साहब कभी कोताही नहीं बरतते।

 मुहब्बत में ये क्या मक़ाम आ रहे हैं 
 कि मंज़िल पे हैं और चले जा रहे हैं 

 ये कह कह के हम दिल को बहला रहे हैं 
 वो अब चल चुके हैं वो अब आ रहे हैं 

 जफ़ा करने वालों को क्या हो गया है 
 वफ़ा करके भी हम तो शर्मा रहे हैं 

 जिगर साहब एक बार आगरे की तवायफ़ 'वहीदन'से इश्क कर बैठे , लोगों ने समझाया कि मियां अपनी हैसियत तो देखें कहाँ आप और कहाँ वो लेकिन कहते हैं न कि प्यार अँधा होता है और जिगर साहब का प्यार तो जनम से अँधा था , नहीं माने। वही हुआ जो होना था 'वहीदन'का धंधा जब ठप्प होने लगा तो उन्होंने कड़के जिगर साहब को बाहर का रास्ता दिखा दिया। दिल तो टूटना ही था ,टूटा और जिगर शराब पी कर ग़म गलत करते हुए शायरी करने लगे। ये किस्सा फिर से दोहराया गया सुना है मैनपुरी की गायिका 'शीरज़न'जिस तेजी से उनपे फ़िदा हुईं उतनी ही तेजी से रुखसत भी हो गयीं। यहाँ ये भी बता दें कि मशहूर ग़ज़ल गायिका अख़्तरी बाई फैज़ाबादी उर्फ़ बेग़म अख़्तर ने भी उन्हें शादी का पैगाम भेजा था जिसे जिगर साहब ने न जाने क्या सोच के ठुकरा दिया। बेग़म अख़्तर साहिबा ने जिगर की बहुत सी ग़ज़लों को बहुत दिलक़श अंदाज़ में अपनी खनकती आवाज़ में गाया है। अगर हम अली सरदार ज़ाफ़री साहब की उन पर बनी डाक्यूमेंट्री पे यकीन करें तो इस तरह के किस्सों के लगातार चलते रहने की वज़ह से उनकी बीवी उन्हें छोड़ अपनी बहन के पास गौंडा चली गयी। गौंडा निवासी शायर जनाब 'असगर गौंडवी'जिगर के जिगरी दोस्त थे उन्हीं की बीवी जिगर साहब की बीवी की बड़ी बहन थी। 'असगर'साहब की सोहबत से जिगर की शायरी हुस्न-ओ-इश्क की गिरफ़्त से निकल कर गमें-दौरां की नुमाइंदगी करने लगी। जिगर की असली पहचान इसी बदलती शायरी की वजह से है।

 कभी हुस्न की तबियत ना बदल सका ज़माना
 वही नाज़े बेनियाज़ी वही शाने ख़ुसरुवाना
 ख़ुसरुवाना=शाहाना 

 मेरी ज़िन्दगी तो गुज़री तेरे हिज़्र के सहारे 
 मेरी मौत को भी प्यारे कोई चाहिए बहाना 

 मैं वो साफ़ ही न कह दूँ है जो फ़र्क मुझ में तुझमें 
 तेरा दर्द दर्दे तन्हा मेरा ग़म ग़मे ज़माना 

 जिगर बेतहाशा शराब पीते थे ये तो आपको बता ही चुके हैं ,मुशायरों में लोग लड़खड़ाते हुए जिगर साहब को बड़ी मुश्किल से पकड़ कर माइक के सामने लाते थे ,माइक के सामने आते ही उनकी लड़खड़ाहट बेहतरीन तरुन्नम की ओट में दब जाती और वो मुशायरा लूट कर ही उठते। जिगर के दौर में ही बहुत से शायरों ने जिगर के लिबास हुलिए और तरन्नुम की नक़ल करके नाम कमाने की कोशिश की लेकिन जिगर जैसा बनना आसान नहीं था। लोग समझते हैं कि जिगर शराब पी कर ही ग़ज़लें कहते हैं जबकि हकीकत जिगर साहब ने कुछ यूँ बयाँ की है : "ये ख्याल कि जब मैं शराब पीता था तो बहुत अच्छे शेर कहता था ग़लत है, एक साथ दो महबूब नहीं हो सकते जो इंसान शराब में कभी पानी मिलाने का रवादार न हो वो भला अपने ऊपर शेर मुसल्लत कर सकता है ?एक बात ये भी है कि मैं शेर उस वक्त कहता था जब शराब छोड़ देता था। दो-दो तीन-तीन- महीने से एक बूँद नहीं पीता था और उसी ज़माने में ग़ज़ल कहता था। शराब पी कर सिर्फ दो या तीन ग़ज़लें कहीं हैं "मेरा ख्याल है कि उन सभी शायरों को जो सोचते हैं कि शायरी और शराब का रिश्ता अटूट है जिगर साहब की इस बात को ज़ेहन में रखना चाहिए।

 एक लफ्ज़ मुहब्बत का अदना ये फ़साना है 
 सिमटे तो दिले आशिक़, फैले तो ज़माना है 

 ये इश्क नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे 
 इक आग का दरिया है और डूब के जाना है 

 आँसू तो बहुत से हैं आँखों में जिगर ,लेकिन 
 बिंध जाए सो मोती है रह जाए सो दाना है 

 फिर हुआ यूँ कि एक दिन जिगर साहब ने शराब से तौबा कर ली और मरते दम तक उसे छुआ तक नहीं। ये करिश्मा कैसे हुआ ये तो पता नहीं शायद उनके अज़ीज़ दोस्त असगर साहब के इसरार के कारण या फिर बीवी के दुबारा घर लौट आने के कारण ,कारण कुछ हो, नतीजा सही रहा। बेतरतीब जिगर अब सलीके से रहने लगे.उन्होंने ग़ज़ल को एक नई ज़िन्दगी बक्शी। उनकी ग़ज़लें मदहोशी और रंगीनी के छलकते हुए सागर हैं उनमें किस्म-किस्म के ज़ज़्बात जलवागर हैं जिनका मुताअला ज़िन्दगी के नशे को गहरा कर देता है ,कायनात के हुस्न में इज़ाफ़ा हो जाता है और ज़िन्दगी एक नए रूप में नज़र आने लगती है। उनके कलाम के सैंकड़ों अशआर ऐसेहैं जिनमें ज़िन्दगी और वक्त के धड़कनों की आवाज़ें सुनाई देती हैं। आने वाली नस्लें और तारीख़ जिगर को भुला नहीं सकती। जिगर पर लिखने बैठे तो लिखते ही चले जाएँ लेकिन बात ख़तम न हो लेकिन हम ऐसा कर नहीं सकते मजबूरी है इसलिए। सं 1958 में उन्हें उनकी किताब "आतिशे गुल "पर साहित्य अकादमी का पुरूस्कार दिया गया। उसके 2 साल बाद उर्दू जगत का ये चमकता हुआ सितारा 9 सितम्बर 1960 को अस्त हो गया।

 पाँव उठ सकते नहीं मंज़िले-जाना के ख़िलाफ़ 
 और अगर होश की पूछो तो मुझे होश नहीं 

 कभी उन मद भरी आँखों से पिया था एक जाम 
 आज तक होश नहीं होश नहीं होश नहीं 

 अपने ही हुस्न का दीवाना बना फिरता हूँ 
 मेरी आगोश को अब हसरते आगोश नहीं

 जिगर साहब ने खुद तो फिल्मों के लिए गाने नहीं लिखे लेकिन उनकी ग़ज़लों से मुत्तासिर हो कर बहुत से नामी गीतकारों ने गीत लिखे जैसे 'अजी रूठ कर अब कहाँ जाइएगा' ,'निगाहें मिलाने को जी चाहता है ', उनके ख्याल आये तो आते चले गए ---वगैरह। अब बात करते हैं किताब की तो जैसा मैंने शुरू में ही बता दिया था कि इस लाजवाब किताब को 'किताबघर प्रकाशन अंसारी रोड दरियागंज दिल्ली ने प्रकाशित किया है। आप उनसे 011-23266207 या 23255450 पर फोन करके पूछ सकते हैं। ख़ुशी की बात ये है कि ये किताब अमेज़न पर भी उपलब्ध है इसलिए आप इसे आसानी से ऑन लाइन मंगवा सकते हैं। ये रहा लिंक : https://www.amazon.in/Mera-Paigaam-Muhabbat-Jahan-Pahunche/dp/8170168058 इस किताब में जिगर साहब की 200 ग़ज़लें संग्रहित हैं जो बार बार पढ़ने लायक हैं। सोचिये मत तुरंत आर्डर करिये और शायरी के इस दिलकश समंदर में गोते लगाइये। आखिर में पेश हैं उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर :

 दिल को सुकून रूह को आराम आ गया 
 मौत आ गई कि दोस्त का पैग़ाम आ गया 

 दीवानगी हो, अक्ल हो, उम्मीद हो कि यास 
 अपना वही है वक्त पे जो काम आ गया 
 यास =निराशा 

 ये क्या मक़ामे इश्क है ज़ालिम कि इन दिनों 
 अक्सर तेरे बग़ैर भी आराम आ गया

किताबों की दुनिया - 203

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तुझको शैतान के हो जायेंगे दर्शन वाइज़ 
डालकर मुंह को गिरेबाँ में कभी देखा है 
*** 
ज़िन्दगी को ज़िन्दगी करना कोई आसाँ न था
 हज़्म करके ज़हर को करना पड़ा आबे-हयात
 *** 
हज़ार शुक्र कि मायूस कर दिया तूने 
ये और बात कि तुझसे भी कुछ उमीदें थीं
 *** 
तू एक था मेरे अशआर में हज़ार हुआ
 इस इक चिराग से कितने चिराग़ जल उट्ठे 
*** 
जो ज़हरे-हलाहल है अमृत भी वही नादाँ 
मालूम नहीं तुझको अंदाज़ ही पीने के 
***
 मज़हब कोई लौटा ले और उसकी जगह देदे 
तहज़ीब सलीके की, इंसान करीने के
 *** 
मौत का भी इलाज़ हो शायद
 ज़िन्दगी का कोई इलाज़ नहीं 
*** 
वो आलम और ही है जिसमें मीठी नींद आ जाये 
ग़मो-शादी में सोने के लिए रातें नहीं होतीं 
ग़मो-शादी =ग़मी और ख़ुशी 
*** 
अगर मुमकिन हो तो सौ-सौ जतन से 
अज़ीज़ो ! काट लो ये ज़िन्दगी है 
*** 
कुछ नहीं वो निगाहें मगर 
बात पहुँचती है कहाँ-से-कहाँ 

 साल 1982 ,काफी ठण्ड थी , जनवरी में दिल्ली में होती ही है ,तभी तो सुबह के दस तक भी बजे भी लोग कहीं न कहीं दुबके पड़े थे माहौल सुस्ती से भरा हुआ था कि एम्स में सरगर्मियां अचानक बढ़ गयीं। अफ़रातफ़री का सा माहौल हो गया। एम्स आप जानते ही होंगें दिल्ली का सबसे बड़ा सरकारी हस्पताल है । डाक्टर नर्से और दूसरे सभी विभाग के लोग कमरा नंबर 104 जो वी आई पी रूम था की और दौड़ रहे थे। तभी एम्स के रजिस्ट्रार मिस्टर सिंह धड़धड़ाते हुए कमरे में घुसे, उनके साथ ही आठ दस लोग भी। उन लोगों ने आते ही तुरतफुरत कमरे के परदे बदल दिए, सारा सामान करीने से सजा दिया और बैड पर बैठे बुजुर्ग को उठाकर, पलंग पर बिछी बैडशीट, तकिये के गिलाफ, कम्बल आदि बदल दिए और बुजुर्ग को भी हॉस्पिटल की और से नयी पोषक पहना दी गयी।ये काम आधे घंटे में निपट गया। बुजुर्ग इन सब हरकतों से परेशान नज़र आ रहे थे आखिर गुस्से में बोले 'कोई मुझे बताएगा की ये सब क्या हो रहा है ?'सिंह साहब ने बड़े आदर से जवाब दिया सर प्राइम मिनिस्टर श्रीमती इंदिरा गाँधी साहिबा आप से मिलने आ रही हैं।

 मोहब्बत में मेरी तन्हाइयों के हैं कई उनवाँ 
तेरा आना, तेरा मिलना, तेरा उठना, तेरा जाना 
उनवाँ =शीर्षक 
*** 
कुछ आदमी को हैं मज़बूरियां भी दुनिया में 
अरे वो दर्दे-मोहब्बत सही, तो क्या मर जाएँ ? 
*** 
गरज़ की काट दिए ज़िन्दगी के दिन ऐ दोस्त 
वो तेरी याद में हो या तुझे भुलाने में 
*** 
हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है 
नई-नई सी है कुछ तेरी रहगुज़र फिर भी 
*** 
मैं देर तक तुझे खुद ही न रोकता लेकिन
 तू जिस अदा से उठा है उसी का रोना है 
***
 ये ज़िन्दगी के कड़े कोस, याद आता है 
तेरी निगाहे-करम का घना-घना साया 
*** 
शबे-विसाल के बाद आईना तो देख जरा 
तेरे जमाल की दोशीज़गी निखार आई 
शबे-विसाल=मिलान की रात , जमाल की=सौंदर्य की , दोशीज़गी =कौमार्य
 *** 
हम क्या हो सका मोहब्बत में 
खैर तुमने तो बेवफ़ाई की 
*** 
आज आँखों में काट ले शबे-हिज़्र
 ज़िंदगानी पड़ी है सो लेना 
*** 
रहा है तू मेरे पहलू में इक ज़माने से
 मेरे लिए तो वही ऐन हिज़्र के दिन थे
 हिज़्र के=जुदाई के 

 प्राइम मिनिस्टर किसी बुजुर्ग से मिलने हॉस्पिटल आये मतलब वो कोई खास ही शख़्स होगा वरना कौन किसे मिलने आता है ? हॉस्पिटल में इसी बात को लेकर खुसुरपुसुर सी हो रही थी कि ऐसा बुजुर्ग है कौन ? दोपहर ठीक एक बजकर पद्रह मिनिट पर इंदिरा जी कमरे में दाखिल हुईं और आते ही दोनों हाथ जोड़ते हुए बोलीं -नमस्कार जी। बुजुर्ग ने बिस्तर पर बैठे बैठे सर ऊपर किया और पूछा कौन ? आंखों में मोतिया बिंद उतर आने की वजह से शायद वो चेहरा पहचान नहीं पाए होंगे। किसी ने उनके कान में कहा 'इंदिरा जी आयी हैं ' . बुजुर्ग की आँखों में आंसू छलछला आये बोले 'बेटी इंदिरा मैं ठीक हूँ , मैंने सिगरेट भी छोड़ दी है ज़िन्दगी में पहली बार'. इंदिरा जी हँसते हुए बोली 'लेट इट भी द फर्स्ट एन्ड लास्ट टाइम'फिर पूछा 'आपको यहाँ कोई तकलीफ तो नहीं है न ?'बुजुर्ग ने कहा -नहीं, बिलकुल नहीं , तुम्हारी वजह से मेरा यहाँ बहुत ख्याल रखा जा रहा है, लेकिन बेटी यहाँ जो गरीब हैं ,बेसहारा हैं अगर उनका भी ऐसे ही इतना ही ख्याल रखा जाय तो ही जवाहर जी के हिंदुस्तान का सपना साकार होगा। बेटी मेरी एक बात गौर से सुनो 'गो टू द पुअरेस्ट ऑफ दी पुअर'. इंदिरा जी ने उनकी इस बात को गांठ बांध लिया और बाद में इंदिरा जी का बयान अखबार में छपा जिसमें उन्होंने अपनी पार्टी के अधिकारीयों को मुखातिब करते हुए कहा था कि 'गो टू द पुअरेस्ट ऑफ दी पुअर '

 रश्क है जिस पर ज़माने भर को है वो भी तो इश्क 
कोसते हैं जिसको वो भी इश्क ही है , हो न हो 

 आदमियत का तकाज़ा था मेरा इज़हारे-इश्क 
भूल भी होती है इक इंसान से, जाने भी दो 

 यूँ भी देते हैं निशान इस मंज़िले-दुश्वार का 
जब चला जाए न राहे-इश्क में तो गिर पड़ो 

 अब तक तो आपको इस बात का अंदाज़ा हो ही गया होगा कि जिस बुजुर्ग की हम बात कर रहे हैं वो और कोई नहीं उर्दू अदब के कद्दावर शायर जनाब 'फ़िराक गोरखपुरी'हैं। फ़िराक जिनका नाम 'रघुपति सहाय'था गोरखपुर की बाँसगाँव तहसील के बनवारपार गाँव में 28 अगस्त 1896 को पैदा हुए थे। इनके पिता गोरखपुर और आसपास के जिलों में सबसे बड़े दीवानी के वकील थे लिहाज़ा घर में किसी चीज़ की कमी नहीं थी। एक विशाल कोठी लक्ष्मी भवन जो आज भी मौजूद है में दर्जनों नौकर चाकरों के बीच वो अपने विशालकाय परिवार के साथ रहते थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा घर पर ही हुई। स्कूली पढाई गोरखपुर के विभिन्न स्कूलों करने के बाद आगे की पढाई के लिए वो इलाहबाद आ गए 1918 में बी.ऐ की परीक्षा देने के बाद वो स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। सं 1930 में आगरा विश्विद्यालय से उन्होंने अंग्रेजी में एम् ऐ किया और प्रथम स्थान प्राप्त किया। उन्हें बिना कोई अर्ज़ी दिए ही इलाहबाद युनिवेर्सिटी में अंग्रेज़ी के उस्ताद की हैसियत से नौकरी मिल गयी. सं 1959 में फ़िराक विश्वविद्यालय से रिटायर हुए लेकिन यू.जी.सी ने इन्हें रिसर्च प्रोफ़ेसर नियुक्त कर दिया जिस पर वो 1966 तक काम करते रहे।

 वो चुपचाप आँसू बहाने की रातें 
वो इक शख़्स के याद आने की रातें

 शबे-मह की वो ठंडी आँचें वो शबनम 
तिरे हुस्न के रसमसाने की रातें 

 फुहारें-सी नग्मों की पड़ती हो जैसे 
कुछ उस लब से सुनने-सुनाने की रातें 

 मुझे याद है तेरी हर सुबह-रुख़्सत
 मुझे याद हैं तेरे आने की रातें 

 फ़िराक की शायरी में निखार इलाहबाद जा कर आया जब उनका संपर्क प्रोफ़ेसर 'नासरी, साहब से हुआ। नासरी साहब ने न केवल उनकी ग़ज़लों में संशोधन किया बल्कि उर्दू शायरी के नियमों पर नियमपूर्वक लेक्चर भी दिए और इस तरह उनके दिल में जल रही शायरी की ज्वाला को विधिवत भड़का दिया। फ़िराक साहब के सबसे प्रिय शिष्य और साये की तरह उनके साथ रहने वाले 'रमेश चंद्र द्विवेदी'साहब ने उनके बारे में लिखा है कि 'बहुत से दृश्य, वस्तुएं, विचार, कहानियां और घटनाएं उन्हें ध्यानमग्न कर देते थे और उनकी दशा एक समाधिस्त योगी की तरह हो जाती थी. वो वस्तुओं को देख आत्मविभोर हो जाया करते थे। प्रकृति का प्रत्येक दृश्य, गाँव की पगडंडियां, हरे भरे खेत, अमराइयाँ, बाग़ बगीचे, कीड़े-मकोड़े, पशु-पक्षी, हवा और बारिश, रात और दिन का हर पल, वनस्पति संसार, तारों भरी रात और सन्नाटा, पहाड़ उनकी चोटियां और घाटियां, स्त्री-पुरुष और बच्चे, अंडे सेते हुए और अपने बच्चों को दाना चुगाते हुए पक्षी, तालाब में तैरती और जीवन-उमंग से उछलती हुई मछलियां,पशुओं के शिशुओं की कूदफाँद और अपने बच्चों को ढूढ़-पान कराते हुए पशु, घर-गृहस्ती के सामान, निर्माण कार्य में रत मजदूर, खेतों में दौड़ता हुआ पानी आदि फ़िराक की चेतना को जागरूक करते बल्कि उसे और भी समृद्ध और भरपूर बना देते'. आज हम उनकी लाजवाब किताब 'सरगम'की बात करेंगे जिसमें फ़िराक साहब ने अपनी पसंद की 120 ग़ज़लों से ज्यादा का चयन किया है।


 जिन्हें शक हो वो करें और खुदाओं की तलाश 
हम तो इंसान को दुनिया का खुदा कहते हैं 

 तेरी रूदादे-सितम का है बयाँ नामुमकिन 
फायदा क्या है मगर यूँ ही ज़रा कहते हैं 

 औरों का तजुर्बा जो कुछ हो मगर हम तो 'फ़िराक' 
तल्खी-ए-ज़ीस्त को जीने का मज़ा कहते हैं 
तल्खी-ए-ज़ीस्त =जीवन की कटुता

 फ़िराक जैसी शख़्सियत को किसी एक लेख या किताब में समेटना बहुत मुश्किल काम है। इतनी बहुमुखी प्रतिभा के व्यक्ति बहुत कम हुए हैं। उन पर बहुत से लेख और किताबें लिखी गयीं हैं जिनमें प्रोफ़ेसर शमीम हनफ़ी साहब की किताब "इंतिखाब -फ़िराक गोरखपुरी"लाजवाब है। चलिए फिर से लौटते हैं उनके जीवन प्रसंगों पर। स्वतंत्रता संग्राम में कूदने के एवज में अंग्रेजी सरकार ने उन्हें आगरा जेल में डाल दिया जहाँ वो लगभग दो साल रहे। इस जेल में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के साथ बहुत से काव्य प्रेमी भी बंद थे। फ़िराक साहब जेल की बालकोनी से ताजमहल को निहारा करते और ग़ज़लें कहा करते। और तो और उन्होंने जेल में बाकायदा हर हफ्ते मुशायरा रखना शुरू कर दिया जिसमें मिसरा-ऐ-तरही पर ग़ज़लें पढ़ी जातीं। ये साप्ताहिक मुशायरा बाकायदा 10-12 हफ़्तों तक लगातार चलता रहा बाद में इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। दो साल की जगह जेल की अवधि को घटा कर ढेड़ साल कर दिया गया, जब फ़िराक जेल से बाहर आये तो पाया कि उनके घर की आर्थिक दशा बहुत खराब है। पिता तो लम्बी बीमारी के बाद जेल जाने से पहले ही गुज़र चुके थे जेल के दौरान उनके जवान भाई को भी टी.बी. ने अपना शिकार बना लिया था। इसी दौरान जवाहर लाल नेहरू उनके घर ठहरने आये और फ़िराक साहब के बिना कुछ कहे ही सारा माज़रा समझ गए। उन्होंने फ़िराक से इलाहबाद में कांग्रेस पार्टी के अंडर सेकेट्री के पद पर काम करने की पेशकश की। फ़िराक ने उनका कहा माना और ढाई सौ रूपए माहवार की पगार पर इलाहबाद में कांग्रेस पार्टी के अंडर सेकेट्री के पद पर काम करने लगे।

 मैंने सोचा था तुझे इक काम सारी उम्र में 
वो बिगड़ता ही गया, ऐ दिल, कहाँ बनता गया  

मेरी घुट्टी में पड़ी है हो के हल उर्दू जबाँ 
जो भी मैं कहता गया हुस्ने-बयाँ बनता गया 
हल=घुलमिल कर 

 वक्त के हाथों यहाँ क्या क्या ख़ज़ाने लुट गए
 एक तेरा ग़म कि गंजे-शायगां बनता गया 
 गंजे-शायगां=बहुमूल्य खज़ाना 

 वो लोग जो उर्दू जबाँ को एक खास मज़हब के लोगों की बपौती मानते हैं फ़िराक की शायरी को बर्दाश्त नहीं कर पाते। फ़िराक साहब ने ये सिद्ध किया कि उर्दू भी बाकि दूसरी ज़बानों की तरह एक ज़बान है जिसे कोई भी बोल सकता है लिख या पढ़ सकता है ,इसके लिए किसी ख़ास मज़हब का होना जरूरी नहीं। ये देखा गया है कि जब आप किसी की बराबरी नहीं कर पाते तो उसकी बुराई करने लगते हैं। यूँ किसी की तारीफ़ करने से कोई महान नहीं हो जाता और किसी की बुराई करने से कोई बुरा नहीं हो जाता। लोगों ने फ़िराक साहब के शेरों को काने, लूले और लंगड़े साबित करने की कोशिश की लेकिन जब वो कामयाब नहीं हो पाए तो उन्होंने उनके व्यक्तिगत जीवन पर कीचड़ उछालना शुरू कर दिया। ये बात सच है कि फ़िराक साहब का गृहस्त जीवन शांत नहीं था। पत्नी की बदसूरती और उनके अधिक पढ़े लिखे न होने का मलाल उन्हें जीवन भर सालता रहा। दरअसल फ़िराक बचपन से ही खूबसूरती के दीवाने थे अच्छी और दिलकश चीज़ें और मंज़र उन्हें आकर्षित करते थे। कुरूप महिलाओं की गोद में जाते ही वो रोने लगते। जब स्वयं की पत्नी उन्हें बदसूरत मिली तो वो इस सदमे को सहन नहीं कर पाए ,पत्नी को लेकर उनके मन में आदर नहीं था लेकिन उन्होंने कभी उनकी अवहेलना नहीं की। उन्हें किसी चीज़ की कमी नहीं होने दी। फ़िराक साहब को दो बेटियां और एक बेटा इसी पत्नी से मिला। उनके और उनकी पत्नी के संबंधों पर लिखी रमेश चंद्र द्विवेदी जी की किताब 'कोयला भई न राख़'पठनीय है। लोग उनके सामने बोलने में भी कतराते थे क्यूंकि फ़िराक साहब मुंहफट होने की हद तक स्पष्टवादी और कलमफट होने की हद तक साहित्य योद्धा थे। 

मैं आस्माने मुहब्बत से रुख्सते-शब हूँ
 तिरा ख़्याल कोई डूबता सितारा है 

कभी हयात कभी मौत के झरोखे से 
कहाँ-कहाँ से तेरे इश्क ने पुकारा है 

 बयाने-कैफ़ियत उस आँख का हो क्या जिसने 
हज़ार बार जिलाया है और मारा है

 फ़िराक ने 1923 से 1927 तक कांग्रेस के अंडर सेकेट्री पद पर काम करने के बाद गाँधी जी से गोरखपुर में जनजागरण पैदा करने की अनुमति मांगी जिसे गाँधी ने सहर्ष प्रदान कर दिया। गोरखपुर में चलने वाली सभी राष्ट्रीय आन्दोलनों की बागडोर फ़िराक साहब ने अपने हाथ में ले ली। फ़िराक का मौलिक चिंतन ग़ज़ब का था। वो अपनी रोजमर्रा की बातचीत में ऐसे वाक्य बोल जाते थे जो बड़े से बड़े शिक्षित लोगों को चौंका देते थे। उनके वाक्यों ने, भाषणों और लेखों ने अंग्रेजी हकूमत के दिल में भय उपजा दिया। उन्होंने फ़िराक की सभाओं और लेखों पर पाबन्दी लगा दी। गोरखपुर छोड़ वो 1930 से इलाहबाद यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी पढ़ाने लगे। उनका लेक्चर सुनने के बाद विद्यार्थी ये अनुभव करने लगता था कि वो लाइब्रेरी हज़्म करके उठा है। वो बच्चों से कहते 'सोचो चिंतन करो मनन करो सोचो विचारो'फ़िराक अपने अनूठे सेन्स ऑफ ह्यूमर के चलते पूरी यूनिवर्सिटी के सबसे चहेते अध्यापक थे। फ़िराक तुलसीदास जी को विश्व का सबसे बड़ा कवि मानते थे उन्होंने एक बार कहा था कि रामचरितमानस पढ़ कर मैं राम का तो नहीं लेकिन तुलसीदास जी का पुजारी जरूर बन गया हूँ।

 ये तो नहीं कि ग़म नहीं 
हाँ मेरी आँख नम नहीं

 मौत अगरचे मौत है 
मौत से ज़ीस्त कम नहीं 

 अब न ख़ुशी की है ख़ुशी 
ग़म भी अब तो ग़म नहीं 

 कीमते हुस्न दो जहाँ 
कोई बड़ी रकम नहीं 

 बहुत कम लोग जानते हैं कि फ़िराक ने उर्दू के अलावा हिंदी और अंग्रेजी में भी किताबें लिखी हैं। उन्हें उनकी उर्दू किताब'गुले नग्मा'जिसमें उनकी अधिकांश रचनाएँ संगृहीत हैं , पर साहित्य अकादमी और बाद में ज्ञानपीठ सम्मान से सम्मानित किया गया था। फ़िराक साहब को बातें करने का बेहद शौक था और वो घंटों बिना किसी और को मौका दिए किसी भी विषय पर पूरी ऑथरिटी से बोल सकते थे। उनके जैसे ज़हीन वक्ता बहुत कम हुए हैं। सुना है कि इलाहबाद के कॉफी हाउस में जब वो दोपहर बाद जाया करते थे तो वहां बैठे सभी लोग उन्हें घेर कर बैठ जाते और उनकी बातें सुनते। लगभग 630 ग़ज़लों के अलावा नज़्मों, रुबाइयों और कतआत के रचयिता फ़िराक साहब को उनके सैंकड़ों शेरों जो अब क्लासिक का दर्ज़ा पा चुके हैं के कारण बरसों बरस याद रखा जायेगा। एक नयी उर्दू ज़बान को को अपनी ग़ज़लों में ढालने वाले फ़िराक आखिर 3 मार्च 1982 को इस दुनिया-ऐ-फ़ानी से रुखसत फरमा गए। फ़िराक उर्दू साहित्य की वो शख़्शियत थे जिसकी भरपाई आने वाले सालों में तो नामुमकिन लगती है. उनके साथ के और बाद के शायरों ने फिर वो भारत के हों या पाकिस्तान के उनकी स्टाइल को खूब कॉपी किया है। पाकिस्तान के लोकप्रिय शायर 'नासिर काज़मी'फ़िराक साहब के बहुत बड़े दीवाने थे।

 भरम तेरे सितम का खुल चुका है
 मैं तुझसे आज क्यों शर्मा रहा हूँ 

 तेरे पहलू में क्यों होता है महसूस 
कि तुझ से दूर होता जा रहा हूँ 

 मुहब्बत अब मुहब्बत हो चली है 
तुझे कुछ भूलता-सा जा रहा हूँ 

 'सरगम'जिसे राजपाल एन्ड सन्स 1590 मदरसा रोड कश्मीरी गेट दिल्ली -6 ने प्रकाशित लिया था को आप उनसे 011-23869812 पर फोन करके मंगवा सकते हैं , ये किताब अमेजन पर ऑन लाइन भी उपलब्ध है। इसमें आपको फ़िराक साहब की कुछ ऐसी ग़ज़लें भी पढ़ने को मिलेंगी जो अमूमन कहीं पढ़ने को नहीं मिलती। कुछ ग़ज़लों में तो 15-20 से भी ज्यादा शेर हैं। इन ग़ज़लों को पढ़ते हुए आप फ़िराक साहब को बहुत अधिक तो नहीं लेकिन थोड़ा बहुत समझ सकते हैं। उन्हें समझने के लिए आपको उनकी सारी याने हिंदी अंग्रेजी और उर्दू में लिखी किताबें पढ़नी पड़ेंगी तब कहीं जा के हो सकता है की आपको उनके लेखन की गहरायी का अंदाज़ा हो पाए। लीजिये आखिर में पेश है फ़िराक साहब की एक बहुत मशहूर ग़ज़ल जिसे ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह और उनकी पत्नी चित्रा सिंह ने गा कर अमर कर दिया ,के ये शेर :

 बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं 
तुझे ऐ ज़िन्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं 

 तबियत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में 
 हम ऐसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं 

 खुद अपना फ़ैसला भी इश्क में काफ़ी नहीं होता 
उसे भी कैसे कर गुज़रें जो दिल में ठान लेते हैं

किताबों की दुनिया - 204

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मिला था एक यही दिल हमें भी आप को भी 
सो हम ने इश्क रखा, आपने ख़ुदा रक्खा
 *** 
है इंतज़ार उसे भी तुम्हारी खुशबू का 
हवा गली में बहुत देर से रुकी हुई है
 *** 
बीच में कुछ भी न हो यानी बदन तक भी नहीं 
तुझसे मिलने का इरादा है तो यूँ है मेरा 
*** 
ये कैसे मलबे के नीचे दबा दिया गया हूँ 
मुझे बदन से निकालो मैं तंग आ गया हूँ 
*** 
ये तो अच्छा किया तन्हाई की आदत रक्खी 
तब इसे छोड़ दिया होता तो अब क्या करते 
*** 
तिरे होने न होने पर कभी फिर सोच लूँगा 
अभी तो मैं परेशां हूँ खुद अपनी ही कमी से
 *** 
फैसला लौट के आने का है दुश्वार बहुत 
किस से पूछूँ वो मुझे भूल चुका है कि नहीं 
*** 
जरा आंसू रुकें तो मैं भी देखूं उसकी आँखों में 
उदासी किस कदर है और पशेमानी कहाँ तक है 
*** 
जो रात बसर की थी मिरे हिज़्र में तूने 
उस रात बहुत देर तिरे साथ रहा मैं 
***
 धूल नज़र में रह गई उसको विदाअ कर दिया 
और उसी गुबार में, उम्र गुज़ार दी गयी 

 इस से पहले कि हम आगे बढ़ें मुझे बताएं कि क्या आपने कभी www.greeniche.comपर क्लिक किया है ? आप इसके बारे में कुछ जानते हैं ? यदि हाँ तो अपना समय बचाएं और नीचे दिए शेरों पर जाएँ और यदि नहीं तो जो बता रहा हूँ उसे जरा गौर से पढ़ें। ये जो वेब साइट है इसका लोगो है "पैशन फार लाइफ़"याने "ज़िन्दगी से मुहब्बत"और ये वेब साइट कैनेडा की एक मशहूर कंपनी की है जो हेल्थ केयर प्रोडक्ट बनाती है जिसमें विटामिनस और सप्लीमेंट्स, नेचरल हेल्थ फ़ूड, स्किन और बालों की केयर के प्रोडक्ट्स आदि शामिल हैं । ये कंपनी बहुत पुरानी नहीं है लेकिन इसने कैनेडा में बहुत सी बरसों पुरानी कंपनियों , जो इसी प्रकार के प्रोडक्ट बनाती आ रही हैं ,के पैर बाज़ार से उखाड़ दिए हैं। ये कंपनी अपनी क़्वालिटी के चलते कैनेडा ही नहीं पूरी दुनिया में अपना नाम कमा रही है और तेजी से आगे बढ़ रही है। आप सोच रहे होंगे कि मैं इस पोस्ट की आड़ में कहीं इस कंपनी का प्रचार तो नहीं कर रहा हूँ, तो जवाब है जी नहीं। मैं सिर्फ हमारे आज के शायर की पहचान इस कंपनी के माध्यम से करवा रहा हूँ जो इसकी सफलता के पीछे हैं।

 रात के पिछले पहर पुरशोर सन्नाटों के बीच 
तू अकेली तो नहीं ऐ चश्मे-तर मैं भी तो हूँ 

 खुद-पसंदी मेरी फ़ितरत का भी वस्फ़े-ख़ास है 
बेखबर तू ही नहीं है, बेख़बर मैं भी तो हूँ 

 यूँ सदा देता है अक्सर कोई मुझमें से मुझे 
तुझको ख़ुश रक्खे ख़ुदा यूँ ही मगर मैं भी तो हूँ 

 फ़्लैश बैक तकनीक का इस्तेमाल करते हुए चलिए जरा पीछे लौटें।18 फ़रवरी 1968 का दिन है कराची के एक नामी डाक्टर के घर के रौनक देखते ही बन रही है। सबके चेहरे पे खिली ख़ुशी देख अंदाज़ा हो रहा है कि कोई बहुत अच्छी खबर है, जी बिलकुल सही। अच्छी खबर ये है कि डाक्टर साहब के यहाँ बेटा हुआ है. मिठाई बांटी जा रही है, गीत गाये जा रहे हैं। दो साल बाद डाक्टर साहब काम के सिलसिले में लीबिया चले जाते हैं पूरे परिवार के साथ और वहां पूरे 9 साल रहते हैं। ये बच्चा अब थोड़ा बड़ा हो गया है जिसे लीबिया में इंग्लिश मीडियम स्कूल न होने के कारण कराची भेज दिया गया है। कराची से स्कूलिंग करने के बाद उसने टी.जे. साइंस कॉलेज कराची से ग्रेजुएशन किया। पाकिस्तान में ग्रेजुएशन के करने के बाद कैरियर के लिए कोई बहुत ज्यादा ऑप्शन नहीं थे। क्या किया जाय इसी सोच में जब ये हज़रत अपने दोस्त के साथ कार में घर जा रहे थे तो दोस्त ने एक जगह कार रोक कर उन्हें कहा कि आप बैठे मैं सामने के कॉलेज से एम.बी ऐ. के लिए एक फार्म ले आता हूँ। एम,बी.ऐ की डिग्री को उस वक्त तक बहुत कम स्टूडेंट जानते थे। दोस्त के साथ इन हज़रत ने भी फार्म भर दिया , दोस्त तो परीक्षा में रह गए लेकिन ये चुन लिए गए।

 हमारे साथ जब तक दर्द की धड़कन रहेगी 
तिरे पहलू में होने का गुमाँ बाक़ी रहेगा 

 बहुत बे-ऐतबारी से गुज़र कर दिल मिले हैं 
बहुत दिन तक तकल्लुफ़ दर्मियाँ बाक़ी रहेगा

 रहेगा आसमाँ जब तक जमीं बाक़ी रहेगी 
जमीं क़ायम है जब तक आसमाँ बाक़ी रहेगा 

 एम,बी.ऐ. के बाद ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो यूनिवर्सिटी कराची से एम्. एस. किया और एक मल्टीनेशनल हेल्थ केयर कंपनी से जुड़ गए। इस तरह की कंपनियां किसी को कुछ नया करने की आज़ादी नहीं देती। लिहाज़ा इन का मन इस काम से उखड़ने लगा। बड़ी कंपनी की शानदार नौकरी को छोड़ने का निर्णय आसान नहीं था लेकिन इन्होने लिया और एक छोटी लोकल कम्पनी में काम करने लगे जहाँ उन्हें अपने हिसाब से काम करने की आज़ादी थी। सभी कंपनियाँ अपने प्रोडक्ट के प्रमोशन के लिए डॉक्टर्स को गिफ्ट्स दिया करती हैं। इस शख़्स ने जिसका नाम 'इरफ़ान सत्तार'है, प्रोडक्ट प्रमोशन का नया तरीक़ा सोचा। उन्होंने नामचीन शायरों जैसे ग़ालिब मीर आदि के सौ चुनिंदा शेरों की खूबसूरत बुकलेट छपवायी और वितरित कीं। उनके इस प्रयास को बहुत सराहना मिली। एक नयी फैक्ट्री के उद्घाटन के लिए उन्होंने बजाय किसी नेता या अफसर को बुलाने के पाकिस्तानी शायर अहमद फ़राज़ को बुलाया जो उस समय लिया गया एक बहुत बड़ा कदम था. हमारे यहाँ तो ये अभी भी मुमकिन नहीं है। ऐसे अलग सोच वाले प्रतिभाशाली शख़्स ने जब कलम उठाई तो ग़ज़ब ढा दिया।

 पहले जो था वो सिर्फ तुम्हारी तलाश थी 
लेकिन जो तुमसे मिल के हुआ है ,ये इश्क है 

 क्या रम्ज़ जाननी है तुझे अस्ले-इश्क की 
जो तुझमें इस बदन के सिवा है ,ये इश्क है 
रम्ज-भेद ,सिवा=अधिक  

जो अक़्ल से बदन को मिली थी वो थी हवस 
जो रूह को जुनूं से मिला है, ये इश्क है 

 पाकिस्तान में आगे बढ़ने के लिमिटेड मौकों और माहौल को देखते हुए इरफ़ान सत्तार साहब ने कैनेडा बसने का इरादा किया। कैनाडा में ज़िन्दगी दो तरह से गुज़ारी जा सकती थी पहली किसी बड़ी कंपनी में नौकरी करके और दूसरी अपनी कंपनी खोल के। दूसरा रास्ता क्यूंकि बहुत मुश्किल था लिहाज़ा इरफ़ान साहब ने आदतन वही चुना। उनकी मेहनत लगन और अलग ढंग की सोच ने नई कंपनी को कुछ ही सालोँ में कहाँ से कहाँ पहुंचा दिया। उनके प्रोडक्ट्स की डिमांड कैनेडा में तो है ही अमेरिका मिडल ईस्ट भारत पाकिस्तान के अलावा चीन में भी खूब हो रही है। अपने बेहद व्यस्त शेड्यूल में से सत्तार साहब शायरी के लिए वक्त निकाल लेते हैं। जैसे उनके हेल्थ प्रोडक्ट बहुत अलग हट के हैं वैसे ही उनकी शायरी भी बेहद दिलकश और खास है। उर्दू में इरफ़ान साहब की दो किताबें शाया हो चुकी हैं हिंदी में छपी उनकी किताब "ये इश्क है"जिसमें उन दो किताबों से चुनिंदा ग़ज़लें ली गयीं हैं आज हमारे सामने है।महेन कुमार सानी और नदीम अहमद काविश ने किताब का सम्पादन किया है, उसी में से पेश हैं कुछ चुनिंदा ग़ज़लों के शेर :



 तेरी याद की खुशबू ने बाहें फैला कर रक़्स किया 
कल तो इक एहसास ने मेरे सामने आकर रक़्स किया 

 पहले मैंने ख़्वाबों में फैलाई दर्द की तारीक़ी
 फिर उसमें इक झिलमिल रौशन याद सजा कर रक़्स किया 

 रात गए जब सन्नाटा सरगर्म हुआ तन्हाई में 
दिल की वीरानी ने दिल से बाहर आ कर रक़्स किया 

 इरफ़ान सत्तार साहब की शायरी और टॉक शो के यू ट्यूब पर वीडियो देखते-सुनते हुए यकीन होता है कि इरफ़ान साहब के पास एक बिलकुल अलहदा लेकिन साफ़ सोच है। ये शख़्स अपनी बात कहने में ख़तरनाक हद तक ईमानदार, सच्चा और नेक है। पाकिस्तान के ही नहीं पूरी दुनिया के लोगों को अपनी शायरी से दीवाना बना देने वाले जनाब जॉन ऐलिया साहब उनके उस्ताद हैं. इस किताब में उनकी लगभग 100 से ज्यादा ग़ज़लें संग्रहित की गयीं हैं जो पाठकों को देर तक अपनी गिरफ्त से बाहर नहीं आने देती। मैं सोचता हूँ की अपनी अपनी बकबक को कुछ देर के लिए रोक कर आप तक उनके चुनिंदा अशआर पहुंचाऊं तो लीजिये मैं एक तरफ हो जाता हूँ अब आप हैं और इरफ़ान साहब का कलाम है :

 गुज़र रहा है तू किस से गुरेज़ करता हुआ
 ठहर के देख ले ऐ दिल कहीं ख़ुशी ही न हो

 वो आज मुझसे कोई बात कहने वाला है
मैं डर रहा हूँ कि ये बात आख़िरी ही न हो

 अजीब है ये मिरी ला-तअल्लुक़ी जैसे
 जो कर रहा हूँ बसर मेरी ज़िन्दगी ही न हो
***
 मैं तुझसे साथ भी तो उम्र भर का चाहता था
सो तुझ से अब गिला भी उम्र भर का हो गया है

 मिरा आलम अगर पूछे तो उनसे अर्ज़ करना
 कि जैसा आप फ़रमाते थे वैसे हो गया है

 मैं क्या था और क्या हूँ और क्या होना है मुझको
मिरा होना तो जैसे इक तमाशा हो गया है
***
वो इक रोजन कफ़स का जिसमें किरनें नाचती थीं
मिरी नज़रें उसी पर थीं रिहा होते हुए भी

 मुझे तूने बदन समझा हुआ था वरना मैं तो
तिरी आगोश में अक्सर न था होते हुए भी

मुसलसल क़ुर्ब ने कैसा बदल डाला है तुझको
 वही लहज़ा वही नाज़ो-अदा होते हुए भी
मुसलसल क़ुर्ब =लगातार नज़दीकी
 ***
हमें तुम्हारी तरफ रोज़ खींच लाती थी
 वो एक बात जो तुमने कभी कही ही नहीं

 वो एक पल ही सही जिसमें तुम मयस्सर हो
 उस एक पल से जियादा तो ज़िन्दगी भी नहीं

 हज़ार तल्ख़ मरासिम सही प'हिज़्र की बात
 उसे पसंद न थी और हमने की भी नहीं
 तल्ख़ मरासिम=कड़वे रिश्ते , हिज़्र -जुदाई
 ***
धूप है उसकी मेरे आँगन में
 उसकी छत पर है चांदनी मेरी

 जाने कब दिल से आँख तक आ कर
 बह गयी चीज़ क़ीमती मेरी

 क्या अजब वक्त है बिछुड़ने का
 देख रूकती नहीं हंसी मेरी

 तेरे इंकार ने कमाल किया
 जान में जान आ गयी मेरी
 ***
एक मैं हूँ जिसका होना हो के भी साबित नहीं
 एक वो है जो न हो कर जा-ब-जा मौजूद है

 ताब आँखें ला सकें उस हुस्न की, मुम्किन नहीं
 मैं तो हैराँ हूँ कि अब तक आइना मौजूद है

 एक पल फ़ुर्सत कहाँ देते हैं मुझको मेरे ग़म
 एक को बहला दिया तो दूसरा मौजूद है

 अब देखिये ग़ज़लें तो इस किताब में जैसा मैंने बताया 100 से ऊपर हैं और सभी ऐसी हैं जिन्हें यहाँ पढ़वाने का मन है लेकिन आप भी जानते हैं और मैं भी कि ये संभव नहीं. इन ग़ज़लों को पढ़ना तभी संभव है जब ये किताब आपके पास हो और इसे अपने पास रखने के लिए आपको ऐनी बुक्स G -248 ,2nd फ्लोर , सेक्टर -63 नोएडा-201301 को लिखना होगा या www. anybook. org की साइट पे जाना होगा , सबसे आसान तो ये होगा कि आप श्री पराग अग्रवाल जो ऐनी बुक्स के कर्त्ता धर्ता है और खुद भी बेमिसाल शायर हैं , को उनके मोबाईल न 9971698930 पर संपर्क करें। पराग को आप बधाई दें जिनका शायरी प्रेम ही उनसे ऐसी अनमोल शायरी की किताबों को मंज़र-ए-आम पर लाने की हिम्मत पैदा करता है, वरना आज के युग में भला कौन जान बूझ कर ऐसा जोखिम लेगा ? कितने लोग शायरी की किताबें पढ़ते हैं और वो भी ऐसी मयारी शायरी की किताब ? मेरे दिल से पराग के लिए हमेशा दुआएं निकलती हैं। ये किताब अमेजन पर भी ऑन लाइन उपलब्ध है। आप किताब मंगवाइये और चलते चलते उनकी एक और ग़ज़ल के ये शेर पढ़िए :

 माहौल मेरे घर का बदलता रहा, सो अब 
 मेरे मिज़ाज़ का तो ज़रा सा नहीं रहा 

 मैं चाहता हूँ दिल भी हक़ीक़त पसंद हो 
 सो कुछ दिनों से मैं इसे बहला नहीं रहा 

 वैसे तो अब भी खूबियां उसमें हैं अनगिनत 
 जैसा मुझे पसंद था , वैसा नहीं रहा

किताबों की दुनिया - 205

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बारहा ऐसा हुआ है याद तक दिल में न थी
 बारहा मस्ती में लब पर उनका नाम आ ही गया 
*** 
खाइयेगा इक निगाहे-लुत्फ़ का कब तक फ़रेब
 कोई अफसाना बना कर बदगुमाँ हो जाइये 
***
 फिर मिरी आँख हो गयी नमनाक 
फिर किसी ने मिज़ाज पूछा है 
नमनाक =नम
 ***
 कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी 
कुछ मुझे भी खराब होना था 
*** 
इश्क़ का ज़ौके-नज़ारा मुफ़्त में बदनाम है
 हुस्न ख़ुद बेताब है जलवे दिखाने के लिए
 ज़ौके-नज़ारा =देखने की चाह 
*** 
मये-गुलफ़ाम भी है ,साज़े-इशरत भी है साक़ी भी
 मगर मुश्किल है आशोबे-हक़ीक़त से गुज़र जाना
 मये-गुलफ़ाम=फूल जैसी सुंदर शराब, साजे-इशरत =सुख संगीत,आशोबे-हक़ीक़त=वास्तविकता की पीड़ा
 ***
 हुस्न को कर न दे ये शर्मिंदा
 इश्क से ये ख़ता भी होती है 
*** 
मुझे आज साहिल पे रोने भी दो
 कि तूफ़ान में मुस्कुराना भी है 
*** 
छलकती है जो तेरे जाम से उस मय का क्या कहना
 तिरे शादाब होठों की मगर कुछ और है साकी 
*** 
आँख से आँख जब नहीं मिलती
 दिल से दिल हमकलाम होता है 

  जो लोग उर्दू शायरी से वाकिफ़ हैं उन्हें तो इन शेरों को पढ़ कर शायर के नाम का अंदाज़ा हो ही गया होगा लेकिन जो सिर्फ रस्मन शायरी से मोहब्बत करते हैं उन्हें शायद अभी तक कुछ पता न चला हो। कोई बात नहीं आखिर हम किस मर्ज़ की दवा हैं ? हम बताते हैं, लेकिन थोड़ी देर में। आपने ऊपर शेर पढ़े ही होंगे ,ज़ाहिर सी बात है ऐसे बेमिसाल शेर कहने वाले को सुनने वाले भी खूब मिलते होंगे। ये तब की बात है जब सोशल मिडिया का कुछ अता-पता नहीं था. कुछ लोग दोस्ती का वास्ता देकर उनसे सुनते होंगे तो कुछ उन्हें शराब पिला कर। 5 दिसम्बर 1955 की भयंकर सर्दी वाली इस मनहूस रात में शराबखाने की छत पे जो लोग इस शायर को घेर कर बैठे हैं वो इनके दोस्त नहीं हैं सिर्फ सुनने वाले हैं जो इन्हें शराब के एक के बाद दूसरा जाम पिला रहे हैं और बदले में इनसे दिलकश शेर और जबरदस्त जुमले सुन सुन कर खुश हो रहे हैं, तालियाँ बजा रहे हैं। रात गहरा रही है ठंडी हवा के साथ ओस भी गिरनी शुरू हो गयी है और शराब भी ख़तम हो चली है लिहाज़ा ये लोग एक एक करके धीरे धीरे वहां से खिसक रहे हैं , दोस्त होते तो वहां ठहरते और शायर को अपने साथ ले जाते लेकिन तमाशबीनों को सिर्फ तमाशे से मतलब होता है तमाशा दिखने वाले से नहीं। एक आध ने यूँ ही पूछ लिया मियाँ घर नहीं चलोगे तो जवाब मिला कि प्याले में कुछ बूँदें बची हैं हलक़ से उतार लें तो चलेंगे , कब प्याले की शराब ख़तम हुई और कब शराब के नशे ने पीने वाले को अपने आगोश में लिया किसी को ख़बर नहीं। शायर उस ठंडी रात को एक फटी पुरानी अचकन और ढीला ढाला पायजामा पहने शराबखाने की छत पर तनहा पड़ा रहा। सुबह जब उसे किसी ने देखा तो वो अकड़ा पड़ा था ,उसे तुरंत हस्पताल पहुँचाया गया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।शायर के दिमाग की नस फट गयी थी।

कुछ तुझको ख़बर है हम क्या क्या ए शोरीशे-दौरां भूल गये 
वो जुल्फें-परीशां भूल गये, वो दीदा-ए-गिरियां भूल गये 
शोरीशे-दौरां=संसार के उपद्रव, जुल्फें-परीशां=बिखरे केश ,दीदा-ए-गिरियां=रोती आँखें 

 अब गुलसे नज़र मिलती ही नहीं अब दिल की कली खिलती ही नहीं 
ऐ फ़स्लें- बहारां रुख़सत हो हम लुत्फ़े-बहारां भूल गये 

 सब का तो मुदावा कर डाला अपना ही मुदावा कर न सके 
सब के तो गरेबाँ सी डाले अपना ही गरेबाँ भूल गये 
मुदावा =इलाज़ 

 शराब और इश्क़ ये दो ऐसी महामारियां हैं जिन्होंने किसी भी दूसरी बीमारी से ज्यादा शायरों की जान ली है। और दूसरी बिमारियों का तो फिर भी इलाज़ संभव है लेकिन इन दो में से किसी भी एक बीमारी से बच निकला थोड़ा मुश्किल है और कहीं ये दोनों एक साथ हो जाएँ तो फिर बचना ना-मुमकिन है. आप इतिहास उठा कर देखें तो पाएंगे कि ज़्यादातर शायरों या अति संवेदनशील लोगों को ये दोनों बीमारियां पता नहीं क्यों एक साथ ही होती हैं ? शराब और इश्क़ दोनों ही कभी आपको पूरी तरह तृप्त नहीं कर पाते इसीलिए एक अधूरापन एक प्यास हमेशा ज़ेहन में रहती है और यही कारण है कि इनकी गिरफ़्त में आया इंसान फिर बाहर नहीं आ पाता। इस अधूरेपन को पूरा करने की चाह में खुद पूरा हो जाता है। ये विषय व्यापक है इसलिए यहाँ चर्चा योग्य नहीं है ,इसे यहीं छोड़ते हैं और वापस अपने शायर की और लौटते हैं जो अब 'है'से 'था'में बदल चुका है। इंसान दरअस्ल मृतकों को पूजता है। सारी दुनिया में अधिकतर मौकों पर देखा गया है कि जब कोई इंसान मौजूद है तो उसके काम को न सराहना मिलती है न तवज्जोह लेकिन उसके इस दुनिया से रुख़्सत होते ही हमें अचानक उसमें छुपे सारे गुण बल्कि कुछ ऐसे गुण भी जो शायद उसमें थे ही नहीं, नज़र आने लगते हैं।कल तक जिसका नाम लेने में हमारी ज़बान लड़खड़ाने लगती थी उसके जाते ही हम उसी ज़बान से उसकी शान में कसीदे पढ़ने लगते हैं। ऐसा क्यों होता है ? ऐसा कब तक होता रहेगा -पता नहीं। हमारे शायर के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ।

 तुम्हें तो हो जिसे कहती है नाखुदा दुनिया
बचा सको तो बचा लो, कि डूबता हूँ मैं

 इस इक हिजाब पे सौ बेहिजाबियाँ सदके
 जहाँ से चाहता हूँ, तुमको देखता हूँ मैं
 हिजाब =पर्दा

 बताने वाले वहीँ पर बताते हैं मंज़िल
 हज़ार बार जहाँ से गुज़र चुका हूँ मैं

 चलिए बात वहां से शुरू करते हैं जहाँ से शुरू होनी चाहिए याने फैज़ाबाद के रुदौली कस्बे से जहाँ के चौधरी सिराज उल हक़ के यहाँ 19 अक्टूबर 1911 को जो बेटा पैदा हुआ उसका नाम रक्खा गया असरार उल हक़। सिराज उल हक़ उस इलाक़े के पहले ज़मींदार थे जिन्होंने वक़ालत जैसी उच्च शिक्षा प्राप्त की और ज़मींदारी पर सरकारी नौकरी को तरज़ीह दी। परिवार में जहाँ पुराने नियम कायदे माने जाते थे वहीँ नयी सोच को भी अपनाया जाता था। प्राथमिक शिक्षा के बाद हर पढ़े लिखे बाप की तरह सिराज साहब की तमन्ना थी कि असरार इंजीनियर बने लिहाज़ा उन्होंने असरार को आगरा के सेंट जांस कॉलेज में साइंस पढ़ने भेज दिया। अब साहब यूँ तमन्नाएँ पूरी होने लगें तो हर बाप का बेटा इंजिनियर डॉक्टर तो क्या टाटा बिरला अम्बानी न बन जाये ? आप लाख कोशिश करें होता वही है जो मंज़ूर-ए-खुदा होता है।'असरार'आगरा आ तो गए लेकिन दोस्ती कर बैठे फानी बदायूनी, जज़्बी और मैकश अकबराबादी जैसे शायरों से। बस फिर क्या था शायरी के कीड़े तो उन्हें काटा ही साथ ही शराब का भी चस्का लग गया। इंजीनियरिंग की पढाई धरी की धरी रह गयी, हज़रत साइंस में फेल हो गये। पिता, जिनका ट्रांसफर तब अलीगढ़ हो गया था, ने जब ये सुना तो अपना सर पीट लिया और असरार को अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाखिला दिलवा दिया वो भी आर्ट्स में। असरार को जैसा माहौल चाहिए था वैसा ही अलीगढ आ कर मिला और उनका शायरी का हुनर निखरने लगा। इस शहर में उनका राब्ता मंटो, इस्मत चुगताई, अली सरदार जाफ़री, सिब्ते हसन, जाँ निसार अख़्तर जैसे नामचीन शायरों से हुआ।यहीं उन्होंने अपना तख़ल्लुस 'शहीद'से बदल कर 'मजाज़'रख लिया। आज हमप्रकाश पंडितसाहब द्वारा सम्पादित किताब 'मजाज़'आप के सामने ले आये हैं।


 हंस दिए वो मेरे रोने पर मगर 
उनके हंस देने में भी इक राज़ है 

 छुप गए वो साजे-हस्ती छेड़ कर 
अब तो बस आवाज़ ही आवाज़ है 

 सारी महफ़िल जिसपे झूम उट्ठी 'मज़ाज'' 
वो तो आवाज़े-शिकस्ते-साज़ है 

 अलीगढ़ के गर्ल्स कॉलेज में उनकी ग़ज़लों और नज़्मों को तकिये के नीचे रख कर सोने वाली लड़कियों की तादाद भी कोई कम नहीं थी.अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में मजाज़ के कलाम की तूती बोलने लगी। गर्ल्स कॉलेज से उन्हें बुलावे आते वो जाते, तब उनके और लड़कियों के बीच एक पर्दा तान दिया जाता, जिसके पार मजाज़ अपना कलाम तरन्नुम से पढ़ते और लड़कियां चूँकि उन्हें देख नहीं पाती थीं लिहाज़ा उनका अपने ज़ेहन में तसव्वुर करतीं और आहें भरतीं। शायरी सुनाने के बाद लड़कियां उनको वापस जाते हुए क्लास की खिड़कियों से देखतीं और दूर से बलाएँ लेतीं। मजाज़ की शख़्शियत ही ऐसी थी कि जिसे देख कर उन पर कुर्बान होने को दिल करे। बचपन में, जैसा की बहन "हमीदा"ने एक जगह लिखा है, "'मजाज़'बड़े सरल स्वभाव का निर्मल हृदय का व्यक्ति था | जागीरी वातावरण में स्वामित्य की भावना माँ के दूध के साथ मिलती है परन्तु मजाज़ में इस तरह का कोई भाव नहीं था | दूसरों की चीज को अपने प्रयोग में नहीं लाना और अपनी चीज दूसरों को दे देना उसकी आदत रही | इस के अतिरिक्त वह शुरू से ही सौंदर्य प्रेमी भी था | कुटुंब में कोई सुन्दर स्त्री देख लेता तो घंटो उसके पास बैठा रहता | खेल कूद, खाने पीने तक की सुध नहीं रहती।

 लाख छुपते हो मगर छुप के भी मस्तूर नहीं 
तुम अजब चीज़ हो, नज़दीक नहीं, दूर नहीं 
मस्तूर =छुपे हुए 

 ज़ुर्रते-अर्ज़ पे वो कुछ नहीं कहते लेकिन 
हर अदा से ये टपकता है कि मंज़ूर नहीं 

 हाय वो वक़्त कि जब बे-पिये मदहोशी थी 
हाय ये वक़्त कि अब पी के भी मख़्मूर नहीं 
मख़्मूर=नशा 

 अलीगढ़ के गर्ल्स कॉलेज में उनकी ग़ज़लों और नज़्मों को तकिये के नीचे रख कर सोने वाली लड़कियों की तादाद भी कोई कम नहीं थी। मजाज़ की इश्किया शायरी अलीगढ़ में ज्यादा नहीं चल पायी क्यूंकि जल्द ही वो डॉ. अशरफ, मख़्दूम ,अख्तर रायपुरी, सबत हसन, सरदार जाफ़री, जज्बी और ऐसे दूसरे समाजवादी साथियों और इंकलाबी तरक्की पसंद शायरों की सोहबत में शामिल हो गये। ऐसे माहौल में मजाज ने ’इंकलाब’ जैसी नज्म बुनी। मजाज़ उन चंद शायरों में शामिल हैं जिन्होंने आधुनिक उर्दू शायरी को एक नया मोड़ दिया है. तरक्कीपसंद शायरों के लिए मुहब्बत और माशूका की खूबसूरती के बयान से अधिक समाज में गैर-बराबरी और भेदभाव का मसला अधिक बड़ा था. यहाँ से मजाज़ की शायरी ने अलग सी करवट ली और उनकी मशहूरी अलीगढ़ की सीमाओं से निकल कर पूरे हिंदुस्तान में हो गयी। उन्हें उर्दू शायरी का कीट्स कहा जाने लगा। इन्हीं दिनों दिल्ली के ऑल इण्डिया रेडियो से एक पत्रिका निकालने का ऐलान हुआ और असिस्टेंट एडिटर की पोस्ट पर काम करने के लिए मजाज़ के पास इंटरव्यू का बुलावा आया। मजाज़ नौकरी करने की नियत से अलीगढ़ छोड़ दिल्ली चल दिए ,ये सं 1935 की बात है। ।

ख़ुद दिल में रहके आँख से पर्दा करे कोई 
हाँ लुत्फ़ जब है पाके भी ढूँढा करे कोई 

 तुमने तो हुक्मे-तर्के-तमन्ना सुना दिया 
किस दिल से आह तर्के-तमन्ना करे कोई 

 मुझको ये आरज़ू वो उठाएं नक़ाब ख़ुद 
उनको ये इन्तिज़ार तक़ाज़ा करे कोई 

 दिल्ली के इंटरव्यू में सफलता मिली और ऑल इण्डिया रेडियो की पत्रिका 'आवाज़'में उन्हें असिस्टेंट एडिटर की नौकरी मिल गयी। नौकरी तो एक साल ही चल पायी क्यूंकि पत्रिका के संपादक मंडल से उनकी बनी नहीं ,लेकिन दिल्ली में किसी के साथ शुरू हुआ इश्क मरते दम तक मजाज़ के साथ चिपका रहा। मजाज़ की शायरी के प्रशंसक दिल्ली में यूँ तो ढेरों थे लेकिन एक ख़ातून जिनका नाम - छोड़िये नाम में क्या रखा है -जो शादीशुदा थीं उन पर और उनकी की शायरी पर बुरी तरह से फ़िदा हो गयीं। उसके खाविंद शायर तो नहीं थे लेकिन काफी पैसे वाले बिजनेसमैन थे। खातून को मजाज़ और उनकी शायरी बेइंतिहा पसंद थी लेकिन इतनी भी नहीं कि वो अपना भरापूरा महल नुमा घर छोड़ कर मजाज़ की झोपड़ी में ज़िन्दगी गुज़ार देतीं. मजाज़ तो इस बात को समझते थे लेकिन उनका दिल नहीं। पत्रिका छोड़ने के बाद दिल्ली में रहने का कोई सबब तो था नहीं इसलिए वो खुद तो लखनऊ चले आये लेकिन दिल वहीँ दिल्ली में छोड़ आये। लखनऊ में मजाज़ दिन-रात उस दिल्ली वाली के तसव्वुर में खोये रहते और अपना ग़म शराब में घोल कर पीते रहते।मजाज़ की उस वक्त की गयी शायरी उर्दू की बेहतरीन इश्किया शायरी में शुमार होती है। उन्होंने अपने ग़म को ज़माने के ग़म से जोड़ दिया। शराब की लत इस कदर बढ़ी कि लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि मजाज़ शराब को नहीं, शराब मजाज़ को पी रही है। इतना सबकुछ होने के बावजूद मजाज़ की ज़िंदादिली हमेशा कायम रही। कॉफी हॉउस हो या शराब खाने, मजाज़ के दिलचस्प जुमलों और चुटकुलों को सुन सुन कर ,लोगों के ठहाकों से गूंजते रहते। ये शायरी और ज़िंदादिली ही उस मनहूस रात उनकी मौत की वज़ह बनी। 1939 में सिब्ते हसन ,सरदार जाफरी और मजाज़ ने मिलकर ’नया अदब’ का सम्पादन किया जो आर्थिक कठिनाईयों की वजह से ज्यादा दिन तक नहीं चल सका।

 चारागरी सर आँखों पर इस चारागरी से क्या होगा
 दर्द की अपनी आप दवा है , तुमसे अच्छा क्या होगा

 वाइज़े-सादालौह से कह दो छोड़ उक़्वा की बातें
इस दुनिया में क्या रक्खा है, उस दुनिया में क्या होगा
वाइज़े-सादालौह से =सरल स्वाभाव वाले धर्मोदेशक से , उक़्वा=परलोक

 तुम भी 'मज़ाज'इंसान हो आखिर लाख छुपाओ इश्क अपना 
ये भेद मगर खुल जाएगा ये राज़ मगर अफ़शा होगा 
अफ़शा=प्रकट

 "नया अदब"पत्रिका के बंद होने के बाद मजाज़ सड़क पर थे. पिता की पेंशन से घर बड़ी मुश्किल से चल पा रहा था इसलिए मजाज़ को एक लाइब्रेरी में लाइब्रेरियन की नौकरी करनी पड़ी। नौकरी के साथ साथ शराब और शायरी दोनों चलते रहे .'अख़्तर शीरानी''मजाज़'साहब के पसंददीदा शायर थे। उनके अचानक हुए इन्तेकाल ने मजाज़ को पागल सा कर दिया था। वो दौर अजब दौर था जब शायरों में कमाल की दोस्ती और भाईचारा हुआ करता था कोई धड़ेबंदी नहीं होती थी सब एक दूसरे की दिल खोलकर तारीफ करते और मौका मिलने पर टांग भी खींचते। एक दूसरे के घर बेतकल्लुफी से ठहरते हंसी मज़ाक और संजीदा गुफ़्तगू करते। आज हमें ये सब सोच के जरूर हैरत होती है क्यूंकि आज के शायरों के बीच जो रस्साकशी चल रही है उस पर कुछ न कहा जाए तो ही बेहतर है। 'मजाज़'के दोस्तों में जैसा पहले बताया जोश मलीहाबादी, प्रकाश पंडित , जां निसार अख़्तर, साहिर लुधियानवी, सरदार ज़ाफ़री , फैज़ अहमद फैज़, फ़िराक गोरखपुरी सज़्ज़ाद ज़हीर, मंटो, कृशन चन्दर , इस्मत चुगताई जैसे लोग थे। जोश से उनकी दोस्ती बेमिसाल थी। इस सब दोस्तों के बावजूद मजाज़ तन्हा थे। अधूरे इश्क़ बल्कि एकतरफा इश्क़ ने उन्हें कहीं न छोड़ा। घरवालों द्वारा उनकी तन्हाई को कम करने की तमाम कोशिशें नाकामयाब रहीं। जो लोग कभी मजाज़ को अपना दामाद बनाने के लिए आगे पीछे घूमा करते थे वही उनसे कनारा कर गए। कौन एक शराबी और कड़के शायर के साथ अपनी बेटी का रिश्ता करता ?

 बहुत मुश्किल है दुनिया का संवरना
तिरी जुल्फ़ों का पेचो-ख़म नहीं है

 बहुत कुछ और भी है इस जहाँ में
ये दुनिया महज़ ग़म ही ग़म नहीं है

 मिरी बर्बादियों का हम-नशीनों
तुम्हें क्या ख़ुद मुझे भी ग़म नहीं है

 मजाज़ को कभी किसी दुश्मन की जरुरत नहीं पड़ी उनकी दुश्मनी खुद अपने आप से ही रही। उन्हें दो बार नर्वस ब्रेकडाउन हुआ लेकिन घरवालों की तीमारदारी से वो ठीक हो गए। आखिरी दिनों में उनपर पागलपन के दौरे पड़ने लगे और उन्हें रांची के पागल खाने में भर्ती करवा दिया जहाँ उनकी मुलाकात मशहूर इंकलाबी शायर 'काज़ी नज़रुल इस्लाम 'से हुई वो भी वहीँ भर्ती थे। कहते हैं उन्होंने क़ाज़ी साहब को पहचान लिया और उनसे कहा कि आप ऐसे चुप क्यों हैं ? चलिए हम लाहौर चलते हैं जो अब विदेशी ज़मीन है लेकिन पागलखाने तो वहां भी होंगे ही।"दुनिया के दो सबसे ज़हीन और कमाल के लोग और दोनों ही पागलखाने में। बकौल हयातुल्ला अंसारी 'दिल में इक हूक उठती है कि काश ! जिस तरह हुआ ,उस तरह न होता। काश !! दुनिया इससे बेहतर होती !! काश!! वो ऐसी होती कि 'मज़ाज'उसमें जी सकता। जी सकता और हंस सकता और नग्में गा सकता '

इक अर्ज़े-वफ़ा भी कर न सके, कुछ कह न सके, कुछ सुन न सके 
यां हमने ज़बां ही खोली थी , वां आँख झुकी शरमा भी गए

रूदादे-ग़मे-उल्फ़त उनसे हम क्या कहते, क्योंकर कहते 
इक हर्फ़ न निकला होठों से और आँख में आंसू आ भी गए 
रूदादे-ग़मे-उल्फ़त=प्रेम के दुखों की कहानी  

उस महफ़िले-कैफ़ों-मस्ती में, उस अंजुमने-इर्फ़ानी में 
सब जाम-ब-कफ़ बैठे ही रहे, हम पी भी गए, छलका भी गए 
 अंजुमने-इर्फ़ानी में=ज्ञानियों की महफ़िल में ,जाम-ब-कफ़=प्याला हाथ में लिए 

 फैज़ साहब ने मजाज़ पर लिखा है कि 'मजाज़ की इन्क़िलाबियत आम इंकलाबी शायरों से अलग है। आम इंकलाबी शायर इन्किलाब के मुताल्लिक गरजते हैं , ललकारते हैं , सीना कूटते हैं, इन्किलाब के मुताल्लिक गा नहीं सकते ---वो सिर्फ इन्किलाब की हौलनाकी को देखते हैं उसके हुस्न को नहीं पहचानते। ये इन्किलाब का प्रगतिशील नहीं प्रतिक्रियात्मक तसव्वुर है। मजाज़ सच्चे मायनों में प्रगतिशील शायर था'शब्दों के साथ असाधारण कौशल, अति-उत्तम छंद, एक साहित्यिक उपज जिसमें न सिर्फ़ प्रेम-लीला है बल्कि इंक़लाब का नारा भी है. ऐसे शायर का इस प्रकार यूँ अंधकार में खो जाना, हमारी चूक है. इसे साहित्य के साथ नाइंसाफी का नाम दीजिए, मजाज़ के साथ बेईमानी का, बात बराबर है. मजाज़ के इस दुनिया से रुख़्सत होने के 53 साल बाद भारत सरकार ने उनपर एक डाक टिकट जारी किया। 2016 में उनपर फीचर फिल्म भी बनी जो न बनती तो भी मजाज़ की लोकप्रियता पे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। अली सरदार ज़ाफ़री साहब द्वारा उन पर दूरदर्शन के लिए बनाया सीरियल 'कहकशां'जरूर देखा जा सकता है।

 तुझी से तुझे छीनना चाहता हूँ
 ये क्या चाहता हूँ ये क्या चाहता हूँ 

 ख़ताओं पे जो मुझको माइल करे फिर 
सज़ा और ऐसी सज़ा चाहता हूँ 
माइल =प्रवृत

 तुझे ढूंढता हूँ तिरी जुस्तजू है 
मज़ा है कि ख़ुद गुम हुआ चाहता हूँ 

 सुना है एक बार सिने स्टार नरगिस जो उनकी बहन सफ़िया की सहेली थीं उनसे मिलने आयी और ऑटोग्राफ मांगे - ये सच है -उस वक्त अदीबों की क़द्र हुआ करती थी, आज ये बात जरूर अजूबा लग सकती है -खैर ! उन्होंने नरगिस जो सफ़ेद दुपट्टा ओढ़े हुए थीं को ऑटोग्राफ दिया और अपनी मशहूर नज़्म की दो लाइने भी साथ में लिख दीं - "तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन , तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था".ये पूरी नज़्म तरक्कीपसंद शायरी की मिसाल बन चुकी है। आप को बताता चलूँ कि बाद में सफ़िया की शादी शायर जां निसार अख़्तर साहब से हुई जिनके बेटे जावेद अख़्तर साहब का नाम तो आप सब ने सुना ही होगा। जी हाँ !! मजाज़ पद्म भूषण जावेद अख़्तर साहब के मामू थे। एक बार पंडित नेहरू अलीगढ़ यूनिवर्सिटी तशरीफ़ लाये और पूछा की क्या अलीगढ यूनिवर्सिटी का अपना कोई तराना है ? वो किसी भी जवाब से संतुष्ट नहीं हुए ये बात जब मजाज़ तक पहुंची तो दूसरे ही दिन उन्होंने 'ये मेरा चमन ये मेरा चमन , मैं अपने चमन का बुलबुल हूँ'लिखा जिसे वहां अब भी गाया जाता है।

 क्यों जवानी की मुझे याद आई 
मैंने इक ख़्वाब सा देखा क्या था 

 हुस्न की आँख भी नमनाक हुई 
इश्क को आपने समझा क्या था 

 इश्क ने आँख झुका ली वरना
 हुस्न और हुस्न का पर्दा क्या था

 मजाज़ जैसे शायर पर इतने कम शब्दों में नहीं लिखा जा सकता उन्हें पूरा जानने के लिए आपको उनका लिखा पढ़ना होगा। शबे ताब , आहंग और साज़े नौ उनकी चर्चित किताबें हैं. मजाज़ की पूरी ज़िंदगी इक अधूरी ग़ज़ल है , वो तमाम उम्र अपने ज़ख्मों से खेलते रहे। मजाज़ की ग़ज़लें तो कम हैं लेकिन उनकी नज़्में और गीत कमाल के हैं और ये सभी आपको इस किताब में जिसकी बात आज हम कर रहे हैं में मिलेंगे जिनमें 'आवारा''किस से मोहब्बत है' , 'इन्किलाब', 'मज़बूरियां', बोल! री धरती बोल ! 'रात और रेल' ! 'दिल्ली से वापसी ', नौजवान ख़ातून से ', और 'नन्ही पुजारिन 'बार बार पढ़ने लायक हैं। इस किताब का पेपर बैक संस्करण सं 2018 में राजपाल एंड संस्- 1590 मदरसा रोड, कश्मीरी गेट दिल्ली -110006 ने सं 2018 में प्रकाशित किया है। ये किताब अमेज़न से भी ऑन लाइन मंगवाई जा सकती है। चलते चलते उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर और पढ़ते हैं :

 कभी साहिल पे रह कर शौक़ तूफानों से टकराएं
कभी तूफां में रह कर फिक्र है साहिल नहीं मिलता

 ये आना कोई आना है कि बस रस्मन चले आए
 ये मिलना ख़ाक मिलना है कि दिल से दिल नहीं मिलता

 ये क़त्ले-आम और बे-इज़्न क़त्ले-आम कहिये
 ये बिस्मिल कैसे बिस्मिल हैं जिन्हें क़ातिल नहीं मिलता
 बे-इज़्न=बिना इजाज़त, बिस्मिल =घायल

 मजाज़ साहब पर की गयी कोई बात उनकी इस अमर नज़्म के बिना पूरी नहीं हो सकती जिसे दुनिया भर के न जाने कितने गायकों ने अपने अपने अंदाज़ में इसे गाया है , पूरी नज़्म पढ़ने के लिए आप किताब खरीदिये , बानगी के लिए यहाँ पढ़िए :

 शहर की रात और मैं नाशादो-नाकारा फिरूं
 जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूं 
 ग़ैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूं
 ऐ ग़मे -दिल क्या करूँ , ऐ वहशते-दिल क्या करूँ ! 

ज़िस्म तक ही अगर रहे महदूद

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अच्छा !!!आपने क्या समझा की "किताबों की दुनिया "श्रृंखला को विराम दे दिया तो आपको मुझसे छुट्टी मिल गयी? -वाह जी वाह -ऐसे कैसे ? कितने भोले हो आप ? लीजिये एक ग़ज़ल झेलिये - न न लाइक करने या कमेंट की ज़हमत मत उठायें -पढ़ लें ,यही बहुत है।

 मुझको कोई अलम नहीं होता
जो तुम्हारा करम नहीं होता
अलम =दुःख, दर्द

 ज़िस्म तक ही अगर रहे महदूद
तो सितम फिर सितम नहीं होता
महदूद=सीमित 

 तू नहीं याद भी नहीं तेरी
 हादसा क्या ये कम नहीं होता 

 उसकी आँखों में झांक कर सोचा 
क्या यही तो इरम नहीं होता 
इरम =स्वर्ग 

 मेरी चाहत पे हो मुहर तेरी
 प्यार में ये नियम नहीं होता 

 कहकहों को तरसने लगता हूँ 
जब मेरे साथ ग़म नहीं होता 

 इश्क 'नीरज'वो रक़्स है जिसमें 
पाँव उठने पे थम नहीं होता

किताबों की दुनिया 206 /1

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पहले तो हम छान आए ख़ाक सारे शहर की 
तब कहीं जा कर खुला उसका मकाँ है सामने 
***
तुम्हारे शहर में तोहमत है ज़िंदा रहना भी 
जिन्हें अज़ीज़ थीं जानें वो मरते जाते हैं 
***
तेरे लिए चराग़ धरे हैं मुँडेर पर 
तू भी अगर हवा की मिसाल आ गया तो बस 
मिसाल : तरह 
***
उसे न मिलने से खुशफ़हमियाँ तो रहती हैं 
मैं क्या करूँगा जो इंकार कर दिया उसने 
***
जी चाहता था रोऊँ उसे जां से मार कर 
आँखें छलक पड़ीं तो इरादा बदल दिया 
***
ये जो मैं भागता हूँ वक्त से आगे आगे 
मेरी वहशत के मुताबिक़ ये रवानी कम है 
 ***
यही इक शग्ल रखना है अज़ीयत के दिनों में भी 
किसी को भूल जाना है किसी को याद रखना है 
शग्ल : काम , अज़ीयत : तकलीफ़ 
***
मेरे इस कोशिश में बाजू कट गए 
चाहता था सुल्ह तलवारों के बीच 
***
अब तो हम यूँ रहते हैं इस हिज़्र भरे वीराने में 
जैसे आँख में आंसू गुम हो जैसे हर्फ़ किताबों में चुप 
***
लहू तो इश्क़ के आगाज़ ही में जलने लगता है 
मगर होंठों तक आता है धुआँ आहिस्ता आहिस्ता 

कहा जाता है कि अच्छी शायरी वही कर सकता है जो अच्छा इंसान हो। अब सवाल ये उठता है कि अच्छा इंसान होता कौन है ? अगर आप गूगल करेंगे तो वो बताएगा कि जो इंसान दूसरों की मदद करे , जो कमज़ोर के हक़ में खड़ा हो , जो किसी से जले नहीं सबकी तारीफ करे, दूसरों की बात का बुरा न माने, किसी को अपशब्द न कहे ,हर इंसान को इंसान समझे वगैरह वगैरह वो अच्छा इंसान होता है तो माफ़ कीजियेगा इस कसौटी पर तो बहुत कम शायर उतरेंगे जो अलबत्ता अवाम की नज़र में बेहतरीन शायर माने जाते हैं। तो इसका मतलब अच्छी शायरी के लिए अच्छा इंसान होना जरूरी नहीं? बहुत जरूरी है जनाब क्यूंकि अच्छे इंसान की शायरी देर तक ज़िंदा रहती है। अवाम ने जिसे पसंद किया वो अच्छा शायर हो ऐसा नहीं है क्यूंकि अवाम आज उस की तरफ़ है तो कल किसी दूसरे की तरफ़ हो जाएगी। हक़ीकत में अवाम किसी की तरफ नहीं होती। खैर ! अब कौन अच्छा है कौन बुरा ये बहस का विषय है और हमारी इस बहस में कोई दिलचस्पी नहीं है लेकिन एक बात है कि अगर कोई अच्छा है तो उसे ये बताने की जरुरत नहीं पड़ती कि वो अच्छा है उसकी अच्छाई खुद बोलती है। मेरी नज़र में हमारे आज के शायर उसी श्रेणी के हैं जिन्हें ये कहने की जरुरत कभी नहीं पड़ी कि वो अच्छे इंसान हैं। उनकी शख़्सियत और उनकी शायरी ही इस बात की गवाही देती है भले ही आप मेरे नज़रिये से इत्तेफ़ाक़ न रखें।  

हम हैं सूखे हुए तालाब पे बैठे हुए हंस 
जो तअल्लुक़ को निभाते हुए मर जाते हैं 

घर पहुँचता है कोई और हमारे जैसा 
हम तेरे शहर से जाते हुए मर जाते हैं 

ये मोहब्बत की कहानी नहीं मरती लेकिन 
लोग किरदार निभाते हुए मर जाते हैं 

अच्छे इंसान की चर्चा के बाद चलिए अच्छे शेर की बात करते हैं। मैं कुछ कहूंगा तो छोटा मुंह बड़ी बात लगेगी इसलिए उर्दू के कद्दावर लेखक जनाब रशीद अहमद सिद्दीकी साहब के हवाले से बताना चाहूंगा की अच्छा शेर अच्छे चेहरे की तरह होता है जो नज़र के सामने से हटने के बाद भी आपके तसव्वुर में रहता है और जिसे याद करते ही आपका हाथ अपने आप दिल पे रखा जाता है। ऐसा शेर हमेशा आपके ज़ेहन में रहता है। अक्सर देखा गया है कि आज के दौर में खास तौर पर मुशायरों में शायर शेर के मार्फ़त से आपको चौंकाने की कोशिश करते हैं। जब आप अचानक चौंकते हैं तो चौंकना अच्छा लगता है लेकिन चौंकने की गिरफ्त में खुद को बहुत देर तर गिरफ्तार नहीं रख सकते। हर बार आप चौंकते भी नहीं। ऐसे शेर थोड़े वक्त में भुला दिए जाते हैं। 

मैं कैसे अपने तवाज़ुन को बरक़रार रखूं 
कदम जमाऊँ तो साँसे उखाड़ने लगती हैं 
तवाज़ुन : एक वज़न पर होना 

यूँ ही नहीं मुझे दरिया को देखने से गुरेज़ 
सुना है पानी में शक्लें बिगड़ने लगती हैं 

रहें ख़मोश तो होटों से खूं टपकता है 
करें कलाम तो खालें उधड़ने लगती हैं 
कलाम : बात करना 

अच्छे इंसान और अच्छे शेर की फिलॉसफी को यहीं छोड़ते हुए चलिए कोई 45 साल पीछे की और लौटते हैं। लाहौर पाकिस्तान के पास का एक छोटा सा गाँव है, जिसमें रहने वाला कोई चौदह पंद्रह साल का लड़का रात के वक्त स्कूल का सबक याद करने की कोशिश कर रहा है लेकिन उसका ध्यान सामने खुली किताब पर टिक नहीं रहा। पास के टाउन हाल के बाग़ से लोगों के शोर से उसका ध्यान बार बार भटका रहा है। आखिर किताब को बिस्तर पर रख वो घर से बाहर निकल कर उस और चल पड़ा है जहाँ से शोर आ रहा है। वहां जा कर देखता है कि बाग़ में करीब सौ दो सौ लोग एक छोटे से स्टेज को घेर कर बैठे हैं और स्टेज पर खड़े हो कर एक इंसान कुछ सुना रहा है जिसे सुन कर सभी सर हिलाते ऊपर की और हाथ उठाते वाह वाह कर रहे हैं। लड़का वहीँ हैरत से बैठ जाता है और ये सब देखता रहता है और सोचता है कि इसमें क्या खास बात है? स्टेज पे खड़े आदमी की तरह वो भी लिखने पढ़ने की कोशिश कर सकता है वाह वाही बटोर सकता है।

मैं ने आँखों के किनारे भी न तर होने दिए 
जिस तरफ से आया था सैलाब वापस कर दिया 
***
ये नुक़्ता कटते शजर ने मुझे किया तालीम 
कि दुःख तो मिलते हैं गर ख़्वाइश-ऐ-नुमू की जाय 
तालीम :सिखाया , ख्वाइश-ऐ-नुमू :बढ़ने फूलने की ख़्वाइश 
***
गली में खेलते बच्चों के हाथों का मैं पत्थर हूँ
मुझे इस सहन का ख़ाली शजर अच्छा नहीं लगता 
***
ये तो अब इश्क़ में भी जी लगने लगा है कुछ-कुछ  
इस तरफ़ पहले-पहल घेर के लाया गया था मैं 
***
ज़िंदा रहने की ख़्वाइश में दम-दम लौ दे उठता हूँ 
मुझ में सांस रगड़ खाती है या माचिस की तीली है 
***
बैठे रहने से तो लौ देते नहीं ये जिस्म-ओ-जां 
जुगनुओं की चाल चलिए रौशनी बन जाइए 
***
 इक सदा आई झरोखे से कि तुम कैसे हो 
फिर मुझे लौट के जाने में बड़ी देर लगी 
***
मैं ने तो जिस्म की दीवार ही ढाई है फ़क़त 
क़ब्र तक खोदते हैं लोग ख़ज़ाने के लिए 
***
तू ख़ुदा होने की कोशिश तो करेगा लेकिन 
हम तुझे आँख से ओझल नहीं होने देंगे    
***
रात भर उस लड़के ने उस शख़्स को जो मंच पे खड़ा अपने हुनर से वाह वाही बटोर रहा था अपनी आँख से ओझल नहीं होने दिया और सुबह सवेरे ही पता लगा लिया कि वो हज़रत पास ही में रहते हैं। एक दो दिन की मेहनत से लड़के ने दो चार ग़ज़लें कहीं और पहुँच गया नज़ीर साहब के सामने ,जी नज़ीर ही नाम था शायद उनका। नज़ीर साहब ने पढ़ा और कहा बरखुरदार तुम जो लिख के लाये हो वो वज़्न में नहीं है और कागज़ वापस लौटा दिए। 'वज़्न में नहीं है ?'ये जुमला तो लड़के ने कभी सुना ही नहीं था ये वज़्न क्या है ? अब चौदह पंद्रह साल की उम्र वज़्न जैसी बातों पे वक्त जाया नहीं करती (वैसे इस बात पर तो आज भी बहुत से शायर वक़्त ज़ाया नहीं करते बल्कि वज़्न में कहने को जरूरी भी नहीं समझते ), लड़के ने भी ये सोच कर कि ये झमेले का काम है लिखना छोड़ दिया। कुछ वक्त गुज़रा, नज़ीर साहब को ये लड़का अचानक बाजार में टकरा गया। मिलते ही नज़ीर साहब ने कहा 'बरखुरदार तुम उस दिन के बाद आये ही नहीं, क्यों ?''जी आपने कहा था कि मेरा क़लाम वज़्न में नहीं है ,तो मैंने सोचा मैं ये सब कहने लायक नहीं हूँ 'लड़के ने मरी आवाज़ में कहा।''तुमने गलत सोचा बरखुरदार ,ये बात सही है कि तुम्हें ग़ज़ल कहने का इल्म नहीं है लेकिन हुनर है क्यूंकि  तुम्हारी ग़ज़लों में मुझे इम्कान (संभावना )नज़र आ रहा है. तुम कल से मेरे पास आओ मैं तुम्हें अपना शागिर्द बनाऊंगा। 'लड़के को जैसे मुंह मांगी मुराद मिल गयी।             
  
यूँ थूक न मुझ पर मिरे हारे हुए दुश्मन 
ये मेरी कमां है, ये मिरे तीर पड़े हैं  

पस्ती में गिरा मैं तो ख्याल आया ये मुझको
शाखों से नहीं फूल बुलंदी से झड़े हैं 

तू है कि अभी घर से भी बाहर नहीं निकला 
हम हैं कि शजर बन के तिरी रह में खड़े हैं 

लड़के का उस्ताद के घर रोज आना-जाना होता रहा और उरूज़ की बारीकियां समझ आने लगी साथ ही ग़ज़ल कहने में लुत्फ़ आने लगा। सब कुछ ठीक ही चल रहा था कि लड़के के अब्बा का अचानक इंतेक़ाल हो गया,घर में क़फ़न जुटाने लायक पैसे भी नहीं थे। लड़के की माँ को लड़के का ग़ज़ल कहना जरा भी रास नहीं आ रहा था। उन्होंने लड़के से कहा की वो अपनी तालीम पे ही ध्यान दे क्यों की शायरी से घर नहीं चलाया जा सकता. माँ से बेहपनाह मोहब्बत के चलते लड़के ने ग़ज़ल कहना लगभग बंद कर दिया लेकिन तब तक उसकी एक ग़ज़ल 'महताब'रिसाले में छप चुकी थी ,ये 1977 की बात है तब लड़के की उम्र थी 16 साल । उस रिसाले को लड़का रात में उठ उठ कर निहारता और खुश होता ,उसे यकीन ही नहीं होता कि उसकी ग़ज़ल रिसाले में छप सकती है। इतनी ख़ुशी शायद इससे पहले उसे कभी हासिल नहीं हुई थी खैर तालीम के सिलसिले में लड़के को घर छोड़ कर बाहर जाना पड़ा।सन 1978 को उसकी दूसरी ग़ज़ल पाकिस्तान के मशहूर रिसाले 'माहे नौ'  में छप गयी।  इस वाकये के कुछ दिनों बाद लड़का जब अपने घर गया तो उसकी माँ ने उसके लिए गोश्त पकाया .जिस घर में दाल भी कभी ही नसीब होती थी उस घर में गोश्त का पकना किसी अजूबे से कम बात नहीं थी। लड़के ने हैरत से देखा कि माँ के चेहरे पर अजीब सा सुकून है और वो खाना बनाते वक्त गुनगुना भी रही है। खाना खिलाते वक्त माँ ने प्यार से पूछा 'बेटा क्या शायरी से पैसे भी मिलते हैं ?' 

अपनी तारीफ सुन नहीं सकता 
खुद से मुझको बला की वहशत है 
वहशत : डर 

बात अभी की अभी नहीं है याद 
एक लम्हे में कितनी वुसअत है 

दुःख हुआ आज देख कर उसको 
वो तो वैसा ही खूबसूरत है    

माँ के पूछने के अंदाज़ से लड़के में जोश आ गया उसे लगा अपने दिल की बात कहने का मौका आ गया है। लुक्मा मुंह में डालते हुए बोला 'बहुत बरकत है माँ, मैंने देखा है शायरी से कुछ लोग कहाँ से कहाँ पहुँच गए हैं। इसकी बदौलत सड़क पे रहने वाले कोठियों में रहने लगे हैं और पैदल चलने वाले अब चमचमाती कारों में घूमते हैं ''अच्छा ?'माँ ने हैरानी से कहा और फिर प्यार से सर पर हाथ फेरते हुए बोली 'बेटा मैं दुआ करती हूँ कि तू भी बड़ा शायर बने अल्लाह ताला तेरा नाम पूरी दुनिया में रोशन करे। मेरी तरफ से तुझे पूरी आज़ादी है ,आज तेरी शायरी की वजह से ही ये गोश्त घर में पता नहीं कितने वक्त के बाद पका है.''मेरी शायरी की वजह से ? कैसे ?'हैरत से लड़के ने पूछा। 'कल डाकिया 'माहे नौ'रिसाले से आया 29 रु का मनी ऑर्डर दे गया था। उसी पैसे से ये दावत हो रही है बेटा।'
  
उस दिन से माँ की दुआओं का असर ये हुआ कि आने वाले वक्त में  'गुलाम अब्बास'नाम का ये एक गुमनाम सा लड़का धीरे धीर पूरी दुनिया में अपनी तरह के अकेले बेहतरीन शायर 'अब्बास ताबिश'में तब्दील होने लगा।      

मैं अपने आप में गहरा उतर गया शायद 
मिरे सफ़र से अलग हो गई रवानी मिरी 

तबाह हो के भी रहता है दिल को धड़का सा 
कि रायगां न चली जाय रायगानी मिरी 
रायगां : बेकार 

मैं अपने बाद बहुत याद आया करता हूँ 
तुम अपने पास न रखना कोई निशानी मिरी 


क्रमश: 
अगली पोस्ट का इंतज़ार करें 
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