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Channel: नीरज
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किताबों की दुनिया - 243

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डर कर घरों की धूप से कुछ गांव के बुजुर्ग 
डाले हुए सरों पे हैं पीपल की ओढ़नी

पहले तो तार-तार किया पैराहन तमाम 
फिर दाग दार कर गए पागल की ओढ़नी
*
समझौता तीरगी से कभी भी नहीं किया 
बिजली चली गई तो मज़ा धूप का लिया

दानिश वरों के मुंह पर हैं ताले पड़े हुए 
पागल ने सारा शहर ही सर पर उठा लिया
*
मैं सीढ़ियों से चढ़ तो गया आसमान पर 
यारों ने सीढ़ियों से उतरने नहीं दिया

हरचंद हूं सिफ़र मगर इतना रहे ख़्याल 
घाटा किसी अदद को सिफ़र ने नहीं दिया
*
अल्लाह तुम्हें ज़र्बे-कसाफ़त से बचाए 
इस उम्र में भी कांच का गुलदान लगो हो 
ज़र्बे-कसाफ़त: प्रदूषण की मार
*
पासों की मेहरबानी पर निर्भर नहीं हूं मैं 
शतरंज की बिसात हूं चौसर नहीं हूं मैं
*
जब तलक दिल में रहे मेघों की सूरत में रही 
याद जब पलकों तलक आई तो पानी हो गई

मैं तो अपने आप में पहले ही से यारों न था 
और कुछ कुछ इन दिनों रुत भी सुहानी हो गई

भोपाल -  इस शहर का नाम आते ही उन लोगों के, जो वहाँ गए हैं या नहीं भी गए हैं, ज़ेहन में बड़ा तालाब , छोटा तालाब, ताज-उल-मस्जिद, मोती मस्जिद। अरेरा हिल्स पर बना बिरला मंदिर या भारत भवन आदि दर्शनीय जगहों का नाम याद आता है।  
ऐसे ही जब भोपाल के शायरों की बात आती है तो हम असद भोपाली, कैफ़ भोपाली, शेरी भोपाली , ताज़ भोपाली  और बशीर बद्र आदि का नाम लेते हैं। ये नाम याद आने का कारण इनका पॉपुलर होना है लेकिन जिन दर्शनीय स्थानों के या शायरों के नाम हम नहीं लेते तो ये न समझें कि वो इनसे कम हैं।  

पुरानी बात है उर्दू अदब के हलकों में उस वक़्त हलचल मच गयी ये जब ये ख़बर आयी कि उर्दू अदब के स्कॉलर जनाब शम्सुर्रहमान फ़ारुख़ी साहब उर्दू के नये शायरों पर 'नये नाम'उन्वान से एक किताब निकाल रहे हैं जिसमें उस नये शायर के तआरुफ़ के साथ साथ उसका क़लाम भी छापा जायेगा। ज़ाहिर सी बात है कि अगर 'फ़ारुख़ी'साहब किसी शायर का ज़िक्र करेंगे तो वो ख़ास ही होगा। सारे नामी गरामी शोअरा बेताबी से उस क़िताब के मंज़र-ऐ-आम पर आने और उसमें खुद का नाम देखने को बेताब होने लगे। आख़िर किताब आयी जो भोपाल के उन सभी शायरों को जो अपना नाम उस किताब में देखने की ख़्वाइश लिए बैठे थे, को निराश कर गयी, क्यूंकि उस किताब में भोपाल के जिस एक मात्र शायर का क़लाम छपा था उसका नाम बाहर वालों के लिए तो क्या खुद भोपाल वालों के लिए अनजाना था।

ज़ुल्म  के आगे कभी तो सर उठा 
कुछ नहीं तो हाथ में पत्थर उठा

मैं भी करता हूं कलम की धार तेज़ 
और तू भी बे झिझक ख़ंजर उठा
*
ख्वाब ए हसीं के टूटने की इब्तिदा न हो 
दस्तक सी है किवाड़ पे बादे सबा न हो
*
हसीन ख़्वाब जो देखे थे रात भर मैंने
शऊर सुबह को कचरे में डाल देता है
*
किसी भी मेहनती लड़के के साथ बस लेती
ज़हीन लड़की है फिर भी नवाब चाहती है
*
ज़हन आज़ाद इक परिंदा है
फिर भी परवाज़ सरहदों वाली

तुमने 'तनवीर'घर के होते हुए
ज़िंदगी जी है होटलों वाली
*
जब हल चला रही हो ग़ज़ल सूखे खेत में
पानी क़्वाफ़ी गेहूँ की बाली रदीफ़ हो
*
लाख तहज़ीब के मलबूस सजा लूँ तन पर
रूबरू शीशे के जब जाऊँ तो नंगा हो जाऊँ
*
सदियों से जिसे देखता आया है ज़माना
बस शायरी अपनी उन्हीं ख़्वाबों की डमी है

'नए नाम'किताब में जिस शायर का ज़िक्र फ़ारुखी साहब ने किया था उनका नाम है जनाब 'शफक़ तनवीर'। ये नाम उर्दू वालों के लिए भी बहुत अधिक जाना पहचाना नहीं है ,हिंदी वालों की तो बात ही छोड़िये। भोपाल के एक बेहद मामूली परिवार में जब मोहम्मद यारखान के यहाँ 4 फरवरी 1939 को बेटा पैदा हुआ तो उसका नाम रखा गया 'अहमद यार खान'। बचपन से ही जनाब अहमद यार खान पढाई में होशियार थे। जब मेट्रिक की परीक्षा में अच्छे नंबर आये तो इंजीनियर बनने की ठानी। प्रदेश के इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिले के लिए गए तो पता चला कि उनके नम्बर इतने भी अच्छे नहीं थे कि दाखिला मिल जाता। जिन कालेजों में दाखिला मिल रहा था वो प्रदेश से बाहर थे और वहां पढ़ने के लिए घर के हालात इज़ाजत नहीं देते थे। किसी ने उन्हें डिप्लोमा करने की सलाह दी लिहाज़ा उन्होंने इलेक्ट्रिकल विषय में डिप्लोमा किया और अच्छे नंबरों से पास हुए। 

भोपाल का 'भारत हेवी इलेक्ट्रिकल'देश के सर्वश्रेष्ठ संस्थानों में से एक है जिसमें नौकरी करने का सपना हर होनहार इंजीनियर आज भी देखा करता है।  डिप्लोमा में आए नंबरों के आधार पर अहमद साहब को उम्मीद थी कि उन्हें भोपाल के इस संस्थान में नौकरी मिल जायेगी। उन्होंने वहां अप्लाई किया और चुन लिए गए। ये नौकरी उनके जीवन का टर्निंग पॉइंट रही। इस नौकरी  ने उन्हें वो सब कुछ दिया जिसकी तमन्ना हर आम इंसान अपनी ज़िन्दगी में करता है। माली हालात सुधरने के साथ ज़िन्दगी में सुकून आता चला गया। काम के प्रति उनके लगाव और जी तोड़ मेहनत से कभी मुँह न मोड़ने वाले अहमद यार खान को संस्थान में भरपूर इज़्ज़त और तरक्की मिली। 

इसी दौरान शायरी में भी उनकी दिलचस्पी बढ़ी और वो शफक़ तनवीर के नाम से लिखने लगे। पहले अल्लामा अहसन गिन्नौरी से इस्लाह ली फिर उन्हीं के मश्विरे पर उस्ताद शिफ़ा ग्वालियरी से इस्लाह लेने लगे। हमारे हाथ में उनकी किताब 'धूप दोपहर की'है जिसके चुंनिदा अशआर आपको पढ़वा रहे हैं। ये किताब सं 2011 में ग़ुलाम मुतुर्जा ईडन ग्राफिक्स एन्ड प्रिंटर्स भोपाल से उर्दू और हिंदी लिपियों में प्रकशित हुई है। इस किताब को आप रेख़्ता की साइट पर ऑन लाइन दोनों भाषाओँ में इस लिंक को https://www.rekhta.org/ebook-detail/dhoop-dopahar-ki-shafaq-tanveer-ebooks?lang=hi क्लिक कर पढ़ सकते हैं।        
              

कुछ खराबी आपमें है कुछ खराबी मुझ में है 
छानने के वास्ते लगता है छलनी चाहिए
*
दिल के वीराने में यादें तेरी 
जैसे मरघट में दरख़्त इमली के
*
वक्त हूं एक जगह रुक ना मेरा काम नहीं 
चैक हूँ कोरा रक़म भर के भुना ले मुझको
*
कुरआन जब पढ़ा तो हुआ मुझ पर मुनकशिफ़ 
देगी फ़क़त नमाज ही जन्नत नहीं मुझे
*
बिना तेरे मैं अपनी चादरे-हस्ती बुनूँ कैसे 
जहां ताना ज़रूरी है वहीं बाना जरूरी है
*
अदू कोई भी नहीं है फ़क़त अना के सिवा 
खुद अपनी ज़ात पे पथराव मुझको करना है 

मैं अपनी सोच बदलने से क़ब्ल कैसे कहूंँ 
किसी की सोच में बदलाव मुझको करना है
*
दौलत आनी जानी शय है किसकी होती है 
जग को पाठ पढ़ा जाता है मौसम पतझड़ का
*
आंखें जुबानो-ज़ेहन के मालिक हैं फिर भी हम 
यूं जी रहे हैं लगता है कांधे पे सर नहीं 

दानिश्वरी ने हमको खड़ा कर दिया वहांँ 
है इल्म कुल जहान का ख़ुद की ख़बर नहीं


'शफक़'साहब क्यों इतने लोकप्रिय नहीं हुए उसके लिए वो खुद कहते हैं कि 'शायरी मेरी हॉबी है। कभी भी मैंने उसे कमर्शियल नहीं बनाया। मैंने कभी भी किसी मुशायरे के लिए दूसरे शोअरा की तरह दूरदर्शन आकाशवाणी या उर्दू एकेडमी के चक्कर नहीं लगाए। उर्दू के बाकी शोअरा की तरह मंच से पढ़ते वक्त मुझे सामयीन से दाद की भीख मांगना हमेशा ही बहुत खराब लगा ।रही अवॉर्ड्स या एज़ाज़ की बात तो हम सभी जानते हैं कि वो किस तरह जोड़-तोड़ से हासिल किए जाते हैं। शायरी ने मुझे जीने का सलीक़ा सिखाया, जीने का अज़्म दिया, रूह में फूल खिलाए। मुझे तन्हाई के अज़ाब से बचाए रखा।

मैं 'शफक़ तनवीर'जिसे एक पड़ोसी ने बचपन में स्कूल में दाखिल करवाया था बाप के होते हुए भी, मैं उस बदनसीब खानदान या मज़हब का हूंँ जहां बच्चे पैदा करके खुदा के भरोसे छोड़ दिए जाते हैं। आज मैं इस तरह भी महसूस करता हूं कि कहीं निचले तबक़े की जहालत के पीछे नवाबी हुकूमत का हाथ तो नहीं था ? यह तो खुदा का शुक़्र है कि मुल्क आज़ाद हुआ और नवाबी हुकूमत की बहुत सी लानतों से अपने आप हमारा पीछा छूट गया अगर नवाबी हुकूमत खत्म नहीं हुई होती तो मैं भी कभी का दूसरे गरीबों की तरह मर गया होता।

मैंने एक कामयाब ज़िंदगी गुज़ारी है और कभी भी अपने मिज़ाज के खिलाफ समझौता नहीं किया इसकी वजह मेरी शायरी है।'

सफ़र हयात का इक सिम्त हो चुका है बहुत
'शफ़क़'ट्रेन की पटरी बदल के देखते हैं
*
नीमो-पीपल मत तलाश कैक्टस के शहर में 
कट गए वो पेड़ जो कारे हवा करते रहे
*
प्लेटफार्म पर क्यों दिल को बेकरार करूं 
मुसाफिरों की तरह मैं भी इंतजार करूँ

शकिस्ता हाली ही पे मेरी न तंज फरमाएं 
मैं जिसके सर पे रखूँ हाथ ताजदार करूँ
*
मन की उंगली थाम कर यूं ही अगर चलता रहा 
वो नहीं दिन दूर जब दिवालिया हो जाऊंगा 

मेहर से तेरी मेरे दिल का चमन आबाद है 
बेरुखी से यार ! मैं 'हिरोशिमा'हो जाऊंगा
*
किया जब जब हिसाबे-उम्रे रफ्ता 
फ़क़त 'जीरो'ही में टोटल रहा है 
उम्रे रफ्ता: बीते दिनों का 
*
इलर्जी है उसे भेजा है तुमने फिर भी गुलाब 
ये दोस्ती है तो बतलाओ दुश्मनी क्या है
*
मिली ने द्वार पे तुलसी न सेहन में पीपल 
पराए देश से लौटा तो अपना घर न मिला 

किसे मैं सौंपता फिर इल्म के ख़ज़ाने को 
धड़ों की भीड़ में ढूंढा तो एक सर न मिला

नौकरी के दौरान भारत सरकार की ओर से उन्हें 'लीबिया'में काम करने का मौका दिया गया, जहां वो बरसों रहे और इस सफ़र ने उनकी जिंदगी को नए नए तजुर्बे दिए ।शायरी के हवाले से वो तेहरान, त्रिपोली, दमिश्क और एथेंस जैसे शहरों में कई बार गए। सन 1997 में भारत हेवी इलेक्ट्रिकल भोपाल से चीफ टेक्नीशियन के ओहदे से रिटायर हुए।

'गुलदस्ता भोपाल'के अध्यक्ष मोहम्मद रईस खान लिखते हैं कि 'शफक़ तनवीर'की शायरी गुलो- बुलबुल, औरतों की तारीफ़, हुस्नो इश्क, हिज़्रो विसाल जैसे परंपरागत विषयों पर नहीं है बल्कि सच्चाई को उजागर करने वाली शायरी है और यही वजह है कि वो आसानी से याद की हो जाती है'। 

जनाब सुरेश प्रसाद सरोश लिखते हैं कि शफक़ साहब की शायरी किसी खास रिवायत कि आईनादार नहीं है और ना ही किसी खास आईडियोलॉजी की। वो वक्त के साथ चल कर उन मौजूआत पर क़लम उठाते हैं जिनका ताल्लुक़ रोजमर्रा की जिंदगी से होता है। इंसानी दोस्ती का जज़्बा पूरी शिद्दत के साथ उभरकर पढ़ने वाले को मुत्तासिर करता है। हिंदी जबान से लगाव की वजह से आपकी शायरी में हिंदी लहजे का असर भी साफ दिखाई देता है। उनकी जुबान सादा और सलीकेदार है, वो कोशिश करके अल्फ़ाज़ से शेरों के मफहूम को नहीं सजाते बल्कि कोशिश करते हैं कि जो बात दिल से निकली है उसे बगैर किसी लाग लपेट के बयान किया जाए। उनकी शायरी जिंदगी की अक्कासी करती है उनमें ईमानदारी भरपूर ताज़गी और तवानाई है।'

नुमाइश की हदों तक दीन वाले धर्म वाले हैं 
इधर भी नाग काले हैं उधर भी नाग काले हैं 

वह मशि्रक हो के मगरिब बिन्ते-हव्वा एक जैसी है 
यहांँ सीता की चीखें हैं वहांँ मरियम के नाले हैं
बिन्ते-हव्वा: हव्वा की बेटी यानी स्त्री

गवारा ही नहीं मुझको किसी कमज़र्फ़ का एहसां 
कहूंँ मैं ख़ार से कैसे मेरे तलवों में छाले हैं
*
सफ़र में ऐसे भी आए थे कुछ मुकाम कि हम 
अभी चले भी नहीं थे कि पाँव थकने लगे 

करिश्मा कम ये नहीं सरफिरी हवाओं का 
समर भी शाखों पर पकने से पहले पकने लगे
*
सारे खुदाओं ने धरती के ये कैसा कानून रचा 
एक को मीठी-मीठी रातें एक को खारे-खारे दिन
*
उठाया संग हमने और भरी शाखों पर दे मारा
शफ़क़ तनवीर तब जाकर हमारे हाथ आम आया
*
सस्ती शोहरत का जुनूं पेड़ के कीड़े की तरह 
कच्चे फल पकने से पहले ही सड़ा देता है
*
रोटी की गंध सूखे शरीरों को है पसंद 
भाती नहीं सुगंध इन्हें ज़ाफ़रान की
*
जवान धूप के दिल को निराश क्या करते
सफ़र के दश्त में साया तलाश क्या करते

'धूप दोपहर की'किताब से पहले उनकी चार किताबें 'सूरज काँधों पर लिए, शीशों के दरमियान, जुगनू के हमसफर और 21वीं सदी के सूरज से, मंजरे आम पर आकर तहलका मचा चुकी हैं। उन्होंने ग़ज़लों के अलावा बेहतरीन नज़्में, रूबाइयाँ, कतआत और कह मुकरनियाँ भी लिखी हैं। 

बहुत तो नहीं लेकिन कभी कबार वो मुशायरों के मंचो से, दूरदर्शन की महफिलों और आकाशवाणी से भी सुनाई दिये हैं। किसी ज़माने में भोपाल की अदबी नशिस्तें उनकी शिरकत के बिना अधूरी मानी जाती थीं।
सन 2005 में आल इंडिया बज़्मे-सईद ,झाबुआ मध्य प्रदेश ने उन्हें राष्ट्रीय एकता, सौहार्द्र और बेलोस अदबी खिदमत के लिए 'शान-ए-अदब'से नवाज़ा।

आखिर में पेश है उनकी ग़ज़लों से कुछ और चुनिंदा अशआर: 

सोच समझ कर खोल जुबां को हद में रह
मुझ में सोया हुआ कहीं दुर्योधन है

मुमकिन है कल काम तुम्हारे आ जाए 
पास हमारे गुजरे युग का दर्शन है

काँच घरों में या फिर बीच दरिंदों के 
जिंदा रहना भी तो यारों इक फन है
*
मैं नहीं कहता बांध कर रखिए 
बस में अंदर का जानवर रखिए 

ख्वाहिशों पर लिबास लाज़िम है
 वहशी अरमान ढाँप कर रखिए 

करता था अपने रुख़ का तअय्युन शऊर से 
मेरी निगाह जिन दिनों सूरजमुखी न थी 
तअय्युन : प्रदर्शन 

इक वो भी था ज़माना, निजी मेरी हर ख़ुशी 
शोहरत के हत्थे चढ़के तमाशा बनी न थी 

आखिर में होली पर लिखी एक मुसलसल ग़ज़ल के ये शेर आपको पढ़वाता चलता हूँ :

मनचले टेसू के फूलों ने छटा बिखराकर 
आग जंगल में लगाई है तो होली आई 

प्रीत की रीत है अपने को फ़ना कर देना 
ख़ाक में शान मिलाई है तो होली आई 

हाँपती कॉँपती लंगड़ाती हुई ये दुनिया 
दुःख में डूबी नज़र आई है तो होली आई 





किताबों की दुनिया - 244

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मौसम के घर ये कौनसे मेहमान आ गये 
देहलीज़ पर उतारी हैं पत्तों ने चप्पलें  

कितनी नमी है सूनी हवेली में हर तरफ़ 
आया था कौन टांकने अश्क़ों की छागलें 
  *
पत्थरों के दौर को जुग बीते लेकिन 
क्या कहेंगे जो ज़माना सामने है 
*
गले मिल के नाचे है मिट्टी से अक्सर 
है बे-बाक कैसी हवा सीधी-सादी 

समंदर को मैंने तो पत्थर से मारा 
मगर मौज थी बेहया मुस्कुरा दी
*
वक्त की सुर्ख आंखे कहती हैं
 जाने वाले हैं काफिले दिन के 

नींद लेते हुए वो डरते हैं 
ख्वाब के घर बिखर गए जिनके 
*
बैठा बैठा गली में सन्नाटा 
चादरे-शब कुतर रहा है क्या 

खोल कर फेंक दे कबा ए जिस्म 
ऐसे घुट घट के मर रहा है क्या
*
गया है किस तरफ सायों का मेला 
ज़मीं पैरों तले सूनी पड़ी है
*
नगर में भी कहीं उस का न डर हो 
वही जो दश्त में बिखरा पड़ा है 
*
बदन तो फूल से पाए हैं हर किसी ने मगर 
हरेक शख़्श यहाँ खार जान पड़ता है

मुझे लगता है कि इसे मेरी पीढ़ी के लोग भी शायद भूल चुके होंगे, नयी पीढ़ी ने तो शायद इसे सुना भी न हो।  मेरी मुराद सं 1959 में आयी फिल्म 'लव मैरिज'के एक गाने 'टीन कनस्तर पीट पीट कर गला फाड़ के चिल्लाना, यार मेरे मत बुरा मान ये गाना है न बजाना'से है। इस गाने के गीतकार शैलेन्द्र, संगीतकार शंकर जयकिशन, गायक मोहम्मद रफ़ी और कलाकार देवानंद को शायद सपने में भी अंदाजा नहीं होगा कि आने वाले समय में शोर और गला फाड़ना ही संगीत का पर्याय बन जाएगा। संगीत का सुरीलापन अब पुरानी बात हो गयी है। सुरीलापन भागदौड़ से नहीं आता उसके लिए पर्याप्त वक़्त और साधना चाहिए। अफ़सोस अब हमारे पास वक़्त ही नहीं है साधना तो बहुत दूर की बात है। अज़ीब सी स्तिथि में हम सब भाग रहे हैं, क्यों ? क्यूंकि हमें बहुत थोड़े वक़्त में बहुत कुछ हासिल करना है और अभी करना है। हमारे पास अपने लिए ही वक़्त नहीं है दूसरे के लिए कहाँ से निकालें ? इसका नतीज़ा आप देख ही रहे हैं, जिस काम को सुकून से करने पर हमें जो ख़ुशी मिलती थी वो अब हासिल नहीं होती। हमारे काम की गुणवत्ता पर असर पड़ा है ,ख़ास तौर पर ललित कलाओं से सम्बंधित कामों पर। 

शायरी भी उनमें से एक है। रातोंरात लोकप्रियता के शिखर को छू लेने की हमारी कामना के चलते जल्दबाज़ी में हम दोयम दर्ज़े की शायरी करने लगे हैं। सोशल मीडिया के विस्फोट का असर ये हो रहा है कि जिस रफ़्तार से नित रोज नए शायर पैदा हो रहे हैं उसी रफ़्तार से वो गुमनामी के अँधेरे में खो रहे हैं। 

हमारे आज के शायर उस पीढ़ी के हैं जब शायरी इबादत की तरह की जाती थी। उस्ताद की जूतियाँ उठाई जाती थीं और एक एक मिसरे पर महीनों काम किया जाता था, बावजूद इसके सालों में वो कोई एक ऐसा शेर कह पाते थे जो लोगों के जेहन में जगह बना ले। उस दौर के शायर अपने दीवान की संख्या की वज़ह से नहीं बल्कि अपने कहे किसी एक शेर और कभी कभी तो सिर्फ एक मिसरे की वज़ह से बरसों लोगों के ज़ेहन में रहते थे।

मैं अंधेरों की कैद से छूटा 
तो उजालों से डर गया साहिब
*
ख़ार पत्थर चटान जैसा वो 
ख़ाक पानी गुलाब जैसा मैं 

कौन से रुख़ चलूँ नहीं मालूम 
हो गया हूंँ हवा का झोंका मैं 
*
मोम कागज़ कपास ऐसा मैं 
धूप शोला ग़ुबार बार ऐसा तू 

क्यों ना ख़ुद में ही ढूंढले सब कुछ
देखता क्या है ऐसे नक़्शा तू
*
सबके चेहरों की किताबें पढ़ चुका 
आरज़ू है एक दिन खुद को पढ़ूँ 

रहना होगा कब तलक गूँगा मुझे 
कब तलक बहरों की नगरी में रहूंँ
*
उसे कर दी वापस तो क्या हो गया 
उसी ने तो दी थी उसी की तो थी
*
आँखें तो आंँखें ही है 
कितना है बारिश का ज़ोर 

फिर सूरज की खूँटी से 
टूटी है किरनों की डोर

जोधपुर के मास्टर सिकंदर शाह 'ख़ुशदिल'के घर समझो शहनाइयाँ सी बजीं जब उनके यहाँ 10 फ़रवरी 1956 को एकलौता बेटा पैदा हुआ। मास्टर साहब ने बड़े प्यार से उसका नाम रक्खा 'सरफ़राज़'याने कि वो जो सम्मानित हो। उन्हें उम्मीद थी कि बेटा पढ़ लिख कर अपना और खानदान का नाम गौरवान्वित करेगा। उनकी उम्मीद पूरी तो हुई लेकिन किसी और वज़ह से। सरफ़राज़ साहब के वालिद जोधपुर से लगभग 80 की मी दूर खारिया मीठापुर गाँव के सरकारी स्कूल में पढ़ाते थे। 'सरफ़राज़'का बचपन उसी गाँव की गलियों में खेलते कूदते बीता। उसी स्कूल से जहाँ उनके वालिद साहब पढ़ाते थे सरफ़राज़ की पढाई का आगाज़ हुआ। कक्षा चार तक सब कुछ ठीक था तभी वालिद साहब का ट्रांसफर जोधपुर हो गया तो वो जोधपुर के प्राइमरी स्कूल में दाख़िल हुए और कक्षा पाँच भी पास कर ली। आगे की पढाई के लिए उनका दाखिला उस मिडिल स्कूल में हुआ जिस स्कूल में उनके पिता नहीं पढ़ाते थे। गाँव के स्कूल से पढ़ा बच्चा जोधपुर शहर के मिडिल स्कूल में जा कर बाकी बच्चों से घुलमिल नहीं सका। वालिद भी पहले की तरह उनके साथ स्कूल में नहीं थे। स्कूल में उनकी और किसी ने विशेष ध्यान भी नहीं दिया  इस सब के चलते वो कक्षा छठी क्लास में फेल हो गए। पढाई से मन उचट गया लेकिन वालिद की मर्ज़ी की वजह से अगले साल छठी की परीक्षा फिर से दी और उस में पास हुए। इसी तरह  उसी स्कूल से जैसे तैसे आठवीं तक पढाई भी कर ली। नौवीं कक्षा में उन्होंने जोधपुर के 'महात्मा गांघी स्कूल में दाखिला'लिया। बड़ा स्कूल था मुश्किल पढाई थी भी कोर्स की किताबों में मन नहीं लगता था नतीजा वो नौवीं की वार्षिक परीक्षा में फेल हो गए। फेल होने का कोई अफ़सोस भी उन्हें नहीं हुआ, मज़े की बात ये है कि सरफ़राज़ साहब आज भी अपनी छठी और नवीं क्लास में फेल होने के किस्से जोरदार ठहाके लगाते हुए सुनाते हैं।    

कोर्स की किताबों से जो तालीम हमें स्कूल कॉलेजों में जा कर मिलती है वो बहुत जरूरी है लेकिन जो तालीम हमें ज़िन्दगी की किताब से मिलती है वो सबसे अहम् होती है। मैंने बहुत से पढ़े लिखे बड़ी बड़ी डिग्रीधारी लोगों को ऐसी मूर्खता पूर्ण बातें करते सुना है कि जिसे तथाकथिक महा मूर्ख व्यक्ति भी सुन कर अपना सर पकड़ ले। भले ही सरफ़राज़ साहब ने कोर्स की किताबें नहीं पढ़ीं लेकिन उनकी रूचि पढ़ने में जरूर रही। उन्होंने हिंदी में छपी ढेरों साहित्यिक किताबों और पत्रिकाओं को खूब दिलचस्पी से पढ़ा। 'सारिका''धर्मयुग''साप्ताहिक हिंदुस्तान''रविवार''दिनमान'आदि पत्रिकाओं के वो नियमित पाठक रहे। 

किसे पता था कि नवीं क्लास की परीक्षा में फेल लेकिन ज़िन्दगी की क्लास में पास सरफ़राज़ कभी 'सरफ़राज़ शाकिर'के नाम से शायरी की दुनिया में अपना एक अलग मुकाम बनाएगा और हम उसकी किताब 'बादलों से किरन'की चर्चा अपनी किताबों की दुनिया में करेंगे।   


और तो किसके पीछे मैं जाता 
चल दिया एतबार के पीछे
*
जितने मंजर थे साहिल पर 
सब पानी में उल्टे निकले 
*
मौजें उलट-पुलट उसे करती रही मगर 
तिनका था एक झील में, जो तैरता रहा
*
झलकता है बाहर अंधेरा मेरा 
कोई रोशनी से भरा मुझ में है
*
जुड़ते जुड़ते ही टूट जाता है 
आदमी क्या कोई खिलौना है 

करवटें जिस पर ले रही है हवा 
झील है या कोई बिछौना है
*
न जाने ऐसा किस को ढूंँढ़ना था 
खुद अपने आप को गुम कर दिया हूंँ
*
ख़ामुशी गुफ़्तगू से अच्छी है 
तीर रक्खे रहो कमान के पास
*
अंँधेरा तआक़ुब में मेरे रहा 
मैं काग़ज़ पर लिखता गया रोशनी 
तआक़ुब: पीछा करने में

मेरा घर सुलगता रहा आग में 
कोई देखता रह गया रोशनी

आप ही बतायें यदि चौदह पंद्रह साल के बच्चे को उसका पिता कहे कि 'बेटा क्यूंकि तेरा पढाई लिखाई की तरफ जरा भी रुझान नहीं है इसलिए तेरी पढाई पर कुछ भी खर्च करना बेकार है कल से तेरा स्कूल जाना बंद, अब तू आज़ाद है'तो वो क्या करेगा ? सीधा सा जवाब है -आवारगी। घर का इकलौता लाड़ला बच्चा बेलगाम घोड़े की तरह जोधपुर की सड़कों पर अपने जैसे ही आवारा दोस्तों के साथ सारा सारा दिन इधर उधर घूमता रहता। लोगों ने जब उनके वालिद को इस बारे में समझाया तो उन्होंने सोचा कि लड़के को किसी काम-काज में लगा दिया जाय ताकि इसकी आवारगी भी कम हो और घर में चार पैसे भी आएं। अब आठवीं पास या यूँ कहें कि नवीं फेल बच्चे को कोई अफसर की नौकरी तो देगा नहीं लिहाज़ा उसे कभी पी.डबल्यू डी. में ,कभी वाटर वर्क्स में तो कभी बिजली विभाग में या फिर एयर फ़ोर्स में दिहाड़ी मज़दूर की हैसियत से मजदूरी वाला काम करना पड़ता। एक दिन उन्हें एयर फ़ोर्स में केजुएल वर्कर की नौकरी मिल गयी, तब सरफ़राज़ साहब लगभग बीस साल के होंगे। दो साल बाद उनके काम में दिलचस्पी,लगन और मेहनत की बदौलत याने 1978 में उन्हें मिलिट्री के गैरिसन इंजीनियर ऑफिस में परमानेंट वर्कर की नौकरी मिल गयी। यूँ समझिये कि उनकी लॉटरी खुल गयी क्यूंकि गैरिसन इंजीनियर के ऑफिस की नौकरी सेन्ट्रल गोवेर्मेंट की नौकरी होती है। इस नौकरी के मिलते ही सरफ़राज़ साहब की ज़िन्दगी पटरी पर आ गयी। ज़िन्दगी में सुकून सा आ गया। यही वो वक़्त था जब वो तुकबंदी करने लगे।

सरफ़राज़ साहब के खून में शायरी के जरासीम या कीटाणु पैदा होते ही आ गए थे क्यों की उनके पिता जनाब 'सिकंदर शाह 'खुशदिल'तो अपनी शायरी की वज़ह से पूरे हलके में मशहूर थे ही उनके दादा और परदादा का भी शायरी में खासा दबदबा रहा था। पुरखों से विरासत में मिले इस गुण का असर उनमें अब दिखाई देने लगा था। डाक्टर का बेटा डाक्टर या वकील का बेटा वकील या अभिनेता का बेटा अभिनेता तो बन सकता है लेकिन शायर का बेटा शायर ही बने ये कम ही देखने में आया है। शायरी किसी को सिखाई नहीं जा सकती ये आपके अंदर होती है। उस्ताद अपनी इस्लाह से उसे तराश सकते हैं बस।

ज़र्द पत्तों को हवाएं छू गईं 
टूटना उनका भी वाजिब हो गया

मैं बहुत बरसा हूंँ बादल की तरह 
और फिर मिट्टी में ग़ाइब हो गया
*
वो एक ख़ुशबू जो अंदर समाई है मेरे 
मैं दर-ब-दर उसे बेकार भागता देखूंँ

वो अपने घर के अज़ीज़ों के साथ रहता है 
मगर कहीं न कहीं उसको गुमशुदा देखूंँ
*
हवा के आगे आगे चल रहा है 
हरिक तिनका मेरे जैसा लगे है
*
ज़माने से तो डर मुझे कुछ न था 
मुझे ख़ोफ़ तो मेरे अंदर का था

निकाली है सूरज ने फिर से ज़बीं 
घना सा अंधेरा तो शब भर का 
*
आप-अपने से डर न जायें कहीं 
ताक़ से आईना हटा लीजे 

खुद से मिलने का रास्ता ढूंँढें 
आप अपनी अना गिरा लीजे 

अकलमंदी इसी में है शाकिर 
जाहिलों से भी मशवरा लीजे

सरफ़राज़ साहब की तुकबंदियों को सुन कर जब उनके दोस्त, अहबाब दाद देने लगे तो उन्हें लगने लगा कि वो एक पुख्ता शायर हो चुके हैं जिनकी ग़ज़लों को कोई भी अखबार या पत्रिका वाले छापने को तैयार हो जाएंगे। इसी ग़लतफहमी के चलते वो एक दिन अपनी एक ग़ज़ल लिए 'जलते दीप'अखबार के दफ़्तर पहुँच गए जहाँ उनके वालिद के तालिबे-इल्म याने शिष्य और उरूज़ के उस्ताद जनाब सुशील व्यास बैठे हुए थे। दोनों एक दूसरे को जानते थे इसलिए सरफ़राज़ साहब ने अखबार के दफ्तर में अपने आने का मक़सद बताते हुए उन्हें अपनी ग़ज़ल दिखाई जिसे देख कर व्यास जी ने कहा 'मियाँ साहबज़ादे क्या मास्टर साहब ने आपको मीटर नहीं सिखलाये ?''मीटर ? ये क्या होता है ?'सरफ़राज़ चौंकते हुए बोले। मुस्कुराते हुए व्यास जी ने कहा कि 'बरखुरदार अपने घर जाओ और वालिद से ग़ज़ल का व्याकरण सीखो, जब अच्छे से सीख लो तो ग़ज़ल कहने की कोशिश करना।'

मायूस सरफ़राज़ घर लौटे और अपने वालिद साहब को पूरी दास्तान सुनाई जिसे सुन कर वो बहुत नाराज़ हुए। उन्होंने समझाया कि शायरी बेकारों-नाकारा क़िस्म के लोगों का काम है शाइर बदनाम, बीमार और लाचार होते हैं। वालिद चाहते थे कि उनका इकलौता बेटा इस झमेले न पड़े लेकिन बेटे के खून में मौजूद शायरी के कीटाणु उसे इस सलाह को न मानने को उकसा रहे थे।बेटे की ज़िद के सामने वालिद ने घुटने टेक दिए और उन्हें ग़ज़ल के उरूज़ की बारीकियाँ समझानी शुरू कर दीं। अपने साथ वो उन्हें मुशायरों में ले जाने लगे ताकि उनकी शायरी की समझ में इज़ाफ़ा हो। धीरे धीरे मुशायरे के आयोजक कभी कभी उनको भी अपना कलाम पढ़ने का मौका देने लगे।

जोधपुर के इस्हाक़िया स्कूल के बाहर 31 दिसंबर 1979 को मुस्लिम यूथ कॉर्नर ने एक शानदार मुशाइरे का आयोजन किया जिसमें सरफ़राज़ साहब भी अपने वालिद साहब शिरक़त के लिए पहुंचे। मुशाइरे की निज़ामत की बागडोर जनाब शीन काफ़ निज़ाम साहब को सौंपी गयी। सरफ़राज़ साहब ने जब अपना नंबर आने पर ग़ज़ल पढ़ी तो निज़ाम साहब उनके वालिद से बोले 'वाह मास्टर सैय्यद सिकंदर शाह खुशदिल को मैं मुबारकबाद पेश करता हूँ कि उनके साहबज़ादे ने उम्दा ग़ज़ल सुना कर दिल खुश कर दिया। खुशदिल साहब जहाँ सोलवीं सत्रहवीं सदी की बातें करते हैं वहां उनके बेटे शाकिर ने इक्कीसवीं सदी की बात कर कमाल कर दिया।मुशाइरे के बाद निज़ाम साहब सरफ़राज़ साहब की पीठ थपथापे हुए बोले बेटे ऐसी कितनी ग़ज़लें हैं तुम्हारे पास उन्हें लेकर मेरे पास आ जाओ। दूसरे दिन सुबह सवेरे सरफ़राज़ साहब के दौलतखाने पहुँच गए। निज़ाम साहब ने उन्हें अपना शागिर्द क़बूल किया और यहाँ से सरफ़राज़ साहब का शेरी सफर शुरू हुआ।

बात बढ़ सकती है शोलों की तरह 
तिनके मत रखो शरर के सामने
*
क्या फलों से भरा हुआ था मैं 
रख दिया उसने क्यूँ हिला के मुझे
*
तेरा हिस्सा हूँ ये तस्लीम, लेकिन 
समंदर में जज़ीरे की तरह हूँ
*
अंधेरों में भटका नहीं था मगर 
वो क्यूँ हो गया है उजालों में गुम 

कोई उसको पहचानेगा किस तरह 
हो पहचान जिस की हवालों में गुम
*
मैं अपने आप में इक घोंसला हूँ
परिंदा मेरे अंदर बोलता है 

उसी को आईना कहते हैं शायद 
वही जो सब के मुंँह पर बोलता है
*
रह गए सब उलट-पुलट हो कर 
लोग सारे किताब लगने लगे 

देखते-देखते बिखर जायें 
घर के बच्चे गुलाब लगने लगे
*
जैसा मैं कल था आज भी वैसा ही हूंँ जनाब 
लौटा हूंँ मैं उधर से ज़माना जिधर गया

निज़ाम साहब ने, जैसे पारस पत्थर लोहे को सोने में बदल देता है वैसे ही, सरफ़राज़ शाह साहब को सरफ़राज़ 'शाकिर'बना दिया। एक बार का ज़िक्र है पद्मश्री कालिदास गुप्ता रिज़ा साहब जिन्होंने ग़ालिब पर ग़ज़ब का काम किया है जोधपुर पधारे। निज़ाम साहब उनसे मिलने 'घूमर'होटल गए और वहाँ शाकिर साहब को भी बुलवा लिया। कालीदास गुप्ता साहब ने शाकिर साहब से कहा कि मियाँ शाकिर आज आप मुझे वो ग़ज़लें सुनाओ जिसे आपके उस्ताद ए  मोहतरम ने न देखा सुना हो। किसी भी शागिर्द के लिए ये मुमकिन नहीं होता कि वो उस्ताद को दिखाए बगैर अपना क़लाम मंज़र-ए-आम पर लाये। सरफ़राज़ साहब सकपकाए और निज़ाम साहब की और देखा,उस्ताद मुस्कुराये और गर्दन हिला कर इजाजत देदी। शाकिर साहब ने अपनी दो ग़ज़लें कालीदास साहब को सुनाईं जिसे सुन कर वो झूमते हुए निज़ाम साहब से बोले कि 'अरे निज़ाम मुबारक़ हो यार 'शाकिर'शायर हो गया।'उस्ताद के सामने किसी के द्वारा शागिर्द की तारीफ़ सुन कर शागिर्द तो खुश होता ही है उस्ताद की छाती भी गर्व से चौड़ी हो जाती है। उस्ताद के लिए उसका शागिर्द उसकी अपनी औलाद से कम हैसियत नहीं रखता। आज के दौर में उस्ताद-शागिर्द की ये परम्परा धीरे धीरे ख़तम होती जा रही है। 

'शाकिर'साहब यूँ तो देश की मशहूर अखबारों रिसालों में छपते रहे हैं मुशायरों में शिरक़त भी करते रहे हैं आकाशवाणी और दूरदर्शन पर भी आते रहे हैं लेकिन बावजूद इसके उन्हें वो मुक़ाम हासिल नहीं हो पाया जिसके वो हक़दार थे। सीधी सादी तबियत के मालिक और हर हाल में खुश रहने की आदत की वजह से वो अपने आपको बाजार में बेचने का हुनर नहीं सीख पाए। वैसे भी मक़बूलियत और मयार का आपस में कोई रिश्ता नहीं है। ऐसे बहुत से शायर हैं जिनकी शायरी में मयार ढूंढें नहीं नहीं मिलता लेकिन वो बहुत मक़बूल हैं। निदा फाज़ली और हबीब कैफ़ी साहब उनकी शायरी के बड़े प्रशंसकों में से रहे हैं।  

आप फुरसत में उनसे उनके मोबाईल न 9649810520पर संपर्क करें. उनको तो आपसे बात करके ख़ुशी होगी ही आप भी निराश नहीं होंगे। ऐसे सरल मोहब्बत से भरे इंसान जिनके पास आपके लिए हमेशा वक़्त हो आजकल गुफ़्तगू के लिए कहाँ मिलते हैं। ये किताब जिसमें शाकिर साहब की 107 ग़ज़लों के अलावा कुछ लाजवाब दोहे भी हैं सं 2005 में अनुराधा आर्ट्स जोधपुर ने नरेंद्र आडवाणी और अनुराधा आडवाणी के सहयोग से प्रकाशित की थी। अब ये किताब बाजार में उपलब्ब्ध है या नहीं इसकी सूचना आपको सरफ़राज़ साहब ही दे पाएंगे। 

उनका अपना एक यू ट्यूब चैनल भी है जिसे ज़ाहिर है उनके बच्चों ने ही लॉंच किया होगा जिसके एक विडिओ में वो जोधपुर की किसी झील के किनारे पड़े पत्थरों और चट्टानों पर देव आनंद की तरह टोपी पहन कर चलते हुए अपनी शायरी सुनाते नज़र आते हैं। आप देखें और उसका मज़ा लें। विडिओ का लिंक ये रहा https://youtu.be/oOFqFEs4JBM

आखिर में उनके कुछ फुटकर शेर आपको और पढ़वाता चलता हूँ।       

चला हूँ साथ मैं दुनिया के बरसों 
अब अपने साथ चलना चाहता हूंँ 

उतरने दो उतरती है तो सर पर 
मैं कब साये में पलना चाहता हूंँ
*
तुझको लिखता है खुद को पड़ता है 
आदमी बा-कमाल है अल्लाह 

जिंदगी और किसको कहते हैं 
मौसमों की मिसाल है अल्लाह
*
जाने किसने ख़ाक से बांधा मुझे 
खुलने वाला हूंँ हवा सा मैं कोई

मेरे अंदर जंगलों का वास है 
और उसमें क़ाफ़िला सा मैं कोई

शक्ल सूरत हूंँ वगरना हर तरफ़ 
कुछ भी न होता ख़ला सा मैं कोई
*
रोशनी है, तो रोशनी से है 
वरना अंधा मकान है, है क्या 

कायनात तेरी और मेरा वजूद 
नुक्ते का सा निशान है, है क्या
*
रोक मत मुझ को यूंँ ही बहने दे 
थम गया तो निशान छोडूंँगा

किताबों की दुनिया - 245

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यह तब्सिरा शिकायतें बेकार हैं मियांँ 
ये मान लो कि खेलती है खेल जिंदगी
*
मंदिर मस्जिद के सपनों में अक्सर थक कर चूर हुई 
जब बच्चों को हंसते देखा आंखों ने आराम किया 

पापों के साए में खुद को यूंँ जीवित रखते हैं हम 
घट भरने की बारी आई सीधा तीरथ धाम किया

उसकी माया वो ही जाने इसका मतलब यू समझो 
धरती पर खुद रावण भेजा फिर धरती पर राम किया
*
चाहे वे जिसको खरीदें, भोग लें या फेंक दें 
इश्तहारों से टँगे हैं हम सभी दीवार पर
*
राधिका-सी ज़मीं रक्स करने लगे 
बादलों बांँसुरी तो बजाया करो
*
तब हर इक घर में सदाक़त का जनाज़ा उतरा
झूठ से लिपटे हुए सुबह जो अख़बार गए
सदाक़त: सच्चाई
*
मैं आइने से मुखातिब हूँ ख़ूब तन के खड़ा
मेरा ये अक्स मगर क्यों झुका-झुका ही लगे
*
तेरे आगे मैं ठहरा हूँ
बिल्कुल ड्रेसिंग टेबल जैसा

रिश्तों का आखेट हुआ है
घर लगता है जंगल जैसा

शायद आप जानते हों लेकिन बहुत से लोग नहीं जानते कि बैतूल जिले के गाँव मलाजपुर के एक मंदिर में पिछले 400 सालों से भूत भगाने के लिए मेला लगता है जिसमें दूर दूर से लोग अपने परिजनों, मित्रों की दिमागी बीमार का इलाज़ करवाने ये सोच कर आते हैं कि इन पर किसी भूत-प्रेत का साया है। मज़े की बात है कि ऐसे लोगों का दावा है कि इस तरह के मरीज़ वहां जा कर  ठीक भी हो जाते हैं। एक बात और इस मंदिर में आरती के समय बजते शंख की आवाज़ के साथ मंदिर के प्रांगण में बसने वाले कुत्ते अपना सुर भी मिलाते हैं। ये आरती रोजाना शाम को होती है।  आप पूछेंगे कि किताबों की दुनिया में मलाजपुर का ज़िक़्र क्यों ? आपके इस सवाल का कोई सीधा जवाब भी मेरे पास नहीं है मलाजपुर का ज़िक्र तो मैंने इसलिए किया क्यूंकि इसके मात्र 40 की.मी. दूर गाँव गोराखार है जहाँ 15 जुलाई 1981 को एक स्कूल अध्यापक के घर जिस बच्चे का जन्म हुआ उसका नाम रखा गया मिथिलेश पूरा नाम मिथिलेश वामनकर। अब चूँकि गोराखार में ऐसा कुछ उल्लेखनीय नहीं है लिहाज़ा उसके पास के गाँव का ज़िक्र कर लिया। मिथिलेश जी की प्रारम्भिक शिक्षा गोराखार गाँव के आंगनबाड़ी केंद्र से ही हुई। इसी गाँव से उन्होंने पहली दूसरी कक्षा की पढाई भी की फिर पिता का स्थानांतरण लगभग 500 की मी दूर बस्तर के बवई गाँव में हो गया तो आगे की शिक्षा फिर बस्तर के अलग अलग गाँवों के अलग अलग स्कूलों में हुई।    
.          
आज मिथिलेश वामनकर की ग़ज़लों की किताब 'अँधेरों की सुबह'अभी हमारे सामने है। इस किताब को अंजुमन प्रकाशन इलाहबाद ने सं 2016 को प्रकाशित किया था। ये किताब अमेजन पर ऑन लाइन उपलब्ध है।


आसान लग रहा है अगर तय सफ़र मियांँ 
तो जिंदगी ये आपकी समझो उतार पर 

वादा लिया कि ख़वाब हकीक़त करोगे तुम 
यूं बोझ रख दिया है किसी होनहार पर
*
अजब है लोग सच कहने में भी नज़रें चुरा लेंगे 
मगर जब झूठ कहना हो तो गंगाजल उठाते हैं
*
अब सिसकते हैं अकेले में विष के प्याले 
आजकल तो कहीं शंकर नहीं देखे जाते

राह कैसी है हमें हश्र पता है लेकिन 
इश्क़ में मील के पत्थर नहीं देखे जाते
*
कि चूल्हे भी जिनके घरों में जल नहीं पाते 
उन्हें तहज़ीब रख कर बोलना क्या इक तराजू से 

ज़रा सोचो कि उसका भी भला क्या हौसला होगा 
अभी जो मेढकों को तोल आया इक तराजू से
*
क़ुरबतें घटाती हैं हर नजर की बिनाई 
ज्यूँ तले चरागों के रौशनी नहीं मिलती
*
अब तो मुकम्मल ज़िदगी हर एक को मिलते नहीं 
जो हाथ में है रोटियांँ तो पांव में जंजीर है

लो क़त्ल भी मेरा हुआ क़ातिल मुझे माना गया 
तफ्तीश भी मेरी हुई मुझको मिली ताज़ीर है 
ताज़ीर: दंड ,सजा

बस्तर को याद करते हुए मिथिलेश जी लिखते हैं कि 'बस्तर में गुजरा मेरा बचपन मेरी यादों में आज भी जस का तस है। घने जंगल, छोटे छोटे गांव, घासफूस वाले घर, धूल भरी गांव की गलियाँ, साइकिल पर बैठकर पापा के साथ हाट जाना, पापा का नदी तैरकर दूसरे तट तक मुझे ले जाना फिर दूसरी बार मे साइकिल लाना, लालाजी की किराने की टपरी से मीठी गोली मिलना जिससे पूरे होंठ लाल हो जाते थे, पत्तल बनाने के लिए जंगल से पत्ते लाना, घर की बाड़ी से सब्जियाँ तोड़ना, वो भीमा, लक्ष्मी दीदी, ओट्टी चाचा, शोभा दीदी, कितनी सादगी थी उन लोगों में, उस हवा में, उन गांवों में, उन जंगलों में। और कितना कुछ है। बस्तर मेरे जीवन का अहम हिस्सा रहा है। 

पापा की मास्टरी और तबादले चलते रहे और मैं भी कई स्कूलों में पढ़ता रहा, नए नए दोस्तों से मिलता रहा। 1989 में पापा का चयन डिप्टी कलेक्टर के पद पर हुआ तो हम घास फूस वाले घर से सीधे बंगले में पहुंच गए। गाँव छूट गए और कस्बानुमा नगरों के नए स्कूलों में दाखिल होते गए। इस दौरान पापा छत्तीसगढ़ की छोटी छोटी तहसीलों में रहें जहां के सरकारी स्कूलों में मेरी पढ़ाई हुई। जब मैं मिडिल स्कूल पहुँचा तो थोड़ी बहुत तुकबंदी शुरू कर दी थी। सातवीं में पहली बार मेरी एक कविता स्थानीय अखबार में छप गई।

फिर क्या था, खुद को साहित्य के क्षेत्र पदार्पित मानते हुए काव्य लिखना और साहित्य पढ़ना शुरू हो गया। चूंकि पापा खुद अच्छे कवि है इसलिए घर में किताबों की कमी थी नहीं। लेकिन मेरा साहित्यक अध्ययन कविता से नहीं बल्कि उपन्यासों से आरंभ हुआ। आठवीं कक्षा में प्रेमचंद के अधिकांश उपन्यास पढ़ चुका था। दसवीं कक्षा तक तो अज्ञेय, नागर, यशपाल, मोहन राकेश, श्रीलाल शुक्ल, रेणु, प्रसाद, चतुरसेन आदि के उपन्यास पढ़ चुका था लेकिन उस उम्र में सर्वाधिक प्रभावित हुआ था धर्मवीर भारती के उपन्यास गुनाहों के देवता से। उस उपन्यास का असर कई महीनों तक रहा। अपने आसपास चंदर, सुधा, बिनती खोजते रहता। कभी खुद को चंदर मानकर कहीं सुधा की कल्पना में खोया रहता तो कभी बिनती से मिलने को आतुर हो जाता।

दिखे जो नींद में यारो वो सपने हो नहीं सकते 
ये वो शै है, कभी जो आपको सोने नहीं देती

खुशी आई है घर में तो यक़ीनन साथ ग़म होगा 
कभी साया अलग खुद रौशनी होने नहीं देती
*
अगर लफ़्जों की ज्यादा पत्तियां बिखरी हुई होंगी 
तो मतलब के समर हमको दिखाई दे नहीं सकते 

खुदा ने भूल जाने की अजब दौलत तो बख़्शी है 
मगर फिर भी सभी बस याद रखने में लगे रहते
*
क्या मुफ़लिसी वतन की सियासत से जाएगी 
ये परबतों पे दाल गलाने की बात है

खुद ही उतर के आएंगे तारे ज़मीन पर 
बस आसमां से चांद हटाने की बात है
*
खुशियां मिले तभी तक क़दमों में आसमां है 
हमने ग़मों को पाया सिर पे ज़मीन जैसे
*
आज उफ़क तक सरसों देखी दिल बोला 
नीली चूनर पीला लहंगा बढ़िया है

बूँदों की बारात दुआरे से बोली 
खेतों का हरियाला बन्ना बढ़िया है
*
लहू से आज नहा कर जो लौट आया है 
गया था शख्स़ शरीफों का घर पता करने

बेहद रोचक अंदाज़ में अपने बारे में आगे बताते हुए मिथिलेश जी लिखते है 'वो उम्र के सबसे रोमांचित करने वाले दिन थे। हार्मोनल बदलाव अपना करिश्मा दिखा रहे थे और मैं डायरी पर डायरी भर रहा था। उन सालों में खूब लिखा। कितना सार्थक लिखा ये नहीं पता। लेकिन लिखा खूब। हार्मोन्स प्रेम कवितायें लिखवाते थे और औपन्यासिक पठन के प्रभाव से सामाजिक यथार्थवादी कविताएँ भी लिखने लगा था। गीत सर्वाधिक प्रिय विधा थी उन दिनों। इधर जगजीत सिंह की ग़ज़लों की कैसेट्स ने शायरी से जोड़ दिया तो बशीर बद्र साहब की दीवानगी रही। इस कला प्रेम ने पढ़ाई पर असर डाला जरूर लेकिन पता नहीं कैसे दसवीं में गणित और विज्ञान में अच्छे नम्बर आ गए और उस समय की प्रचलित परम्परा अनुसार हायर सेकेंडरी में गणित लेना और इंजीनियर बनना तय हो गया। यद्यपि यह निर्णय मेरे अलावा बाकी सबने लिया था जिसमें घर परिवार समाज सभी सम्मिलित थे। नैतिक दबाव ऐसा था कि मेरे पास ना कहने की गुंजाइश ही नहीं थी। 

इस दौरान जगदलपुर और दंतेवाड़ा से ग्यारहवीं बारहवीं कक्षा पूरी की और इंजीनियरिंग के इंट्रेंस की तैयारी के लिए भिलाई चला गया। वहां अकेला रहता था तो पढ़ाई के साथ साथ कविताई भी खूब चली। उन दिनों इंजीनियरिंग में आई टी ब्रांच का बड़ा जोर था लेकिन मेरे टेस्ट में इतने ही नम्बर आते थे कि मुझे सिविल मिल सके। मुझे सिर्फ आई टी इंजीनियर बनना था। आई टी इंजीनियरिंग का सपना पूरा नहीं हो सका।   आखिर हार मानकर मुझे वापस दंतेवाड़ा जाकर बी एस सी करनी पड़ी। दंतेवाड़ा से 50 किलोमीटर दूर किरंदुल कॉलेज में प्रवेश लिया और बैलाडीला किरंदुल के लौह अयस्क वाले  लाल हरे मनोरम पहाड़ों में खोता रहा। लेखन का आलम ये था कि मुझे सेकेंडियर में इसलिए सप्लीमेंट्री आई क्योंकि तब मैं अपना उपन्यास "लौह घाटी में चांद"लिख कर रहा था।
वो उपन्यास कॉलेज के सफल असफल प्रेम प्रसंगों और बस्तर में व्याप्त शोषणकारी प्रवृत्तियों के विरुद्ध युवाओं के आक्रोश पर आधारित था जो कभी प्रकाशित नहीं हो सका। उस उपन्यास को कई दोस्तों ने पढ़ा और उसमें खुद का चरित्र पाकर बहुत खुश भी होते थे। सब आज भी याद करते हैं। 

हमारे पांव चिपके जा रहे हैं 
नदीम उनकी गली चुंबक हुई क्या 
नदीम: मित्र 

अचानक ही ग़ज़ल फिर हो गई है
हमारी वेदना सर्जक हुई क्या
*
किसी ने रोका, की मिन्नतें भी, बहुत बुलाया हमें किसी ने 
हुआ पराजित ये गांव फिर से नगर की कोशिश सफल हुई है 

मुआवजे हो तमाम लेकिन वही ख़सारा वही हक़ीक़त 
ज़मीं से फंदे उगे हज़ारों तबाह जब भी फसल हुई है
*
तीर बूंँदों के भला, क्या आपको आए मज़ा 
भीग जाने का हुनर तो जानती है छतरियांँ

जेब में है वज़्न कितना, ये ज़माना देखता
फूल कितना खिल गया है, देखती हैं तितलियाँ
*
कहीं बुत परस्ती कहीं हैं ज़ियारत, तिज़ारत हुई है कहीं मज़हबों की 
शिवाला बहुत है, मिली मस्जिदें भी, मगर आदमी में अक़ीदत नहीं है 
ज़ियारत: प्रार्थना,  तिज़ारत: व्यापार
*
उसे भी तो ज़रा दिल से निकालो 
मिटाया नाम जिसका डायरी से
*
लगे फिर से बँधाने को नई जो आस अच्छे दिन 
असल में कर रहे जैसे कोई उपहास अच्छे दिन

ग़रीबी में दिखाते जो किसी को भूख के जलवे 
अमीरी में वही लगते, हमें उपवास अच्छे दिन

जब मध्यप्रदेश छत्तीसगढ़ अलग हुए तो पापा ने मध्यप्रदेश चुना और हम मध्यप्रदेश आ गए। पहले पापा की हरदा पोस्टिंग हुई फिर  छिंदवाड़ा। जब मैं छिंदवाड़ा में था वहीं से बी एस सी फाइनल किया और जैसे तैसे साइंस ग्रेजुएट हो गया। इन्ही दिनों दुष्यन्त कुमार का ग़ज़ल संग्रह साये में धूप हाथ लगा। अब मुझे ग़ज़लें लिखने से कोई नहीं रोक सकता था। मैंने खूब ग़ज़लें लिखी।  100 से अधिक ग़ज़लों का एक दीवान तैयार हो गया। इस दौरान एक इंटरनेट कैफे में थोड़ा बहुत काम कर जेब खर्च लायक कुछ कमाई करने लगा था। उल्लेखनीय है कि पॉकेट मनी मांगना हमारे घर मे अपराध की श्रेणी में आता था। इंटरनेट से संपर्क हुआ तो वेब डिजायनिंग सीख ली। खुद से थोड़ी बहुत html लेंग्वेज भी सीख ली। उन दिनों इंटरनेट जानने वालों में अंधों में काना राजा था मैं। बड़े उत्साह से भोपाल में एम सी ए करने का सपना लेकर पापा से बात करने की कोशिश की मगर बात नहीं बनी।खैर। सौभाग्य से इसके बाद पापा का ट्रांसफर भोपाल हुआ तो  मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था।

2003 में हम भोपाल आये। भोपाल में एम सी ए में प्रवेश से सम्बंधित जानकारी लेने के दौरान एक दिन बेरोजगार आंखों को मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग का विज्ञापन नज़र आया। बड़े बड़े अफसरों वाली परीक्षा ने ध्यान खींचा। विज्ञापन देखा तो फॉर्म भरने की अंतिम तिथि दो दिन बाद थी। तत्काल फॉर्म भरा और रुचि अनुसार इतिहास विषय का चयन कर लिया। प्री की परीक्षा पास हो गया। मुख्य परीक्षा के लिए इतिहास के साथ दूसरा विषय लेना था फिर रुचि अनुसार हिंदी साहित्य लिया। तैयारी में लग गया। मेंस के पेपर अच्छे गए लेकिन रिजल्ट आने में बहुत साल लगे। उस दौरान दिल्ली आई ए एस की कोचिंग करने चला गया। लेकिन दो बार प्री निकलने के बाद भी मेंस में असफल हो जाता था। वो बहुत खीझ भरे दिन थे। मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग का रिजल्ट नहीं आ रहा था और upsc क्रेक करना बूते का नहीं लग रहा। बेरोजगारी के वो दिन बड़े कष्ट वाले थे। खुद पर जितना गुस्सा उन दिनों आया उतना न उससे पहले आया, न उसके बाद।हां उन दिनों लेखन अवश्य चला और ब्लॉग भी खूब लिखे। 

वापस भोपाल आकर कोई बिजनेस करने का मन बनाया। पुस्तैनी गांव गोराखार में स्टोन क्रशर की तैयारी में लग गया। कई दफ्तरों के चक्कर लगाए। ये 2007 की बात है।

उसी साल मप्र पीएससी की मेंस का रिजल्ट आ गया। मैं सफल हुआ । फिर साक्षात्कार की तैयारी में लग गया।  मेरा चयन वाणिज्यिक कर अधिकारी में हो गया। अब नई नौकरी, ट्रेनिंग, नए नए दायित्व ट्रान्सफर पोस्टिंग आदि में दो तीन साल गुजर गए। इस बीच एक नया बखेड़ा हो गया। मेरा विवाह हो गया। वो भी अंतरजातीय प्रेम विवाह। यानी फुल फैमिली ड्रामा। सारी मान मनौवल का सिलसिला तब रुका जब एक बेटी का पिता बन गया। इन सब के कारण लेखन में कमी आई लेकिन प्रेमिका कम पत्नी ने सदैव लिखने के लिए प्रेरित किया और रचनाएं प्रकाशन के लिए भेजने लगातार कहती रही। इसी बीच मेरी दो ग़ज़लें एक साझा संकलन में प्रकाशित हो गई तो फिर से मेरी लिखने की इच्छा जागृत हुई। अब जो ग़ज़लें लिखता था वो समाचार पत्रों में प्रकाशित भी होती थी। अब इस छपास ने मुझे और लिखने के लिए प्रेरित किया। फिर ग़ज़लों का अंबार लगने लगा। खुद को शायर घोषित कर स्थानीय आयोजनों में ग़ज़ल पाठ भी करने लगा। 

प्रमोशन पाकर असिस्टेंट कमिश्नर हो गया तो शायरी में रौब भी जुड़ गया और आयोजन में अतिथि के तौर पर बड़े ठाठ से जाता था। लेकिन खोखले शायर वाला रौब अधिक दिन नहीं चल सका।  जब नेट के माध्यम से अरूज़ की जानकारी मिली तो समझ आया ग़ज़ल लिखते नहीं कहते हैं। अब अपनी औकात समझ आई। अपनी तथाकथित ग़ज़लों के ढेर को परे किया और अनुशासित रूप से नेट और किताबों के माध्यम से अरूज़ का अभ्यास करने लगा। लगभग तीन साल तक यह अभ्यास जारी रहा। 2014 में ओपन बुक्स ऑनलाइन वेबसाइट से जुड़ा और वहीं काव्य की विभिन्न विधाओं का अभ्यास करने लगा। गुणीजनों का सानिध्य पाकर कुछ कुछ शायरी समझ आने लगी। इस दौरान जो ग़ज़लें कही वो 2016 में प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह अंधेरों की सुबहमें संग्रहित हैं। इसके बाद जैसे जैसे शायरी समझ आती गई, ग़ज़ल कहना कम होता गया। फिर छंदों और गीतों की तरफ मुड़ा। बहुत दोहे लिखे और दोहा संग्रह का संपादन भी किया। आलोचना विधा ने आकर्षित किया तो दुष्यन्त की ग़ज़लों के शिल्प पर लिखा। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई। एक गीत संकलन प्रकाशनाधीन है। आजकल इतिहास पर कुछ लिखने का प्रयास कर रहा हूँ।

मंदिर मस्जिद के सपनों में अक्सर थक कर चूर हुई 
जब बच्चों को हंँसते देखा आंँखों ने आराम किया 

पापों के साए में खुद को यूं जीवित रखते हैं हम 
घट भरने की बारी आई, सीधा तीरथ धाम किया
*
ये तब्सिरा शिकायतें बेकार है मियांँ 
ये मान लो कि खेलती है खेल ज़िंदगी 
तब्सिरा: आलोचना

एक पौधा भी लगाया न कहीं पर जिसने 
बात करता है जमाने से वही नेचर की
*
चाहे जिसकी जमीन पर कहिये 
शे'र अपने बयाँ से उठता है 

जो कि ममता हमेशा बरसाए 
अब्र वो सिर्फ माँ से उठता है
*
अगर दिल में ठिकाना है तो क़दमों को खबर कर दो 
ये मंदिर और मस्जिद की तरफ ही दौड़ जाते हैं 

जो तनहाई बुजुर्गों की अगर अब भी नहीं समझे 
चलो तुमको हम अपने गांँव के बरगद दिखाते हैं
*
अगर दे तो मुअज्ज़िज़ फितरतन खुद्दार दुश्मन दे 
मेरे क़द का नहीं होगा तो मतलब दुश्मनी का क्या?
*
विधान जब से उड़ानों के हक़ में पारित है 
नियम भी साथ बना एक, पर कुतरने का


जब मैंने उनके उस्ताद के बारे में पूछा तो उन्होंने लिखा कि मैं अपनी ग़ज़लें ओपन बुक्स ऑनलाइन वेबसाइट पर पोस्ट करता था जहां कई उस्तादों की इस्लाह मिल जाती थी। दरअसल उस वेबसाइट पर सीखने सीखने की एक स्वस्थ्य परंपरा में सभी अभ्यासी भी थे और उस्ताद भी। सभी एक दूसरे की कमियाँ बताकर ग़ज़लों को ठीक कर लेते थे। जितना मैंने अरूज़ पढ़ा था और जो वेबसाइट पर अरूज़ के हवाले से इस्लाह मिली उसी के आधार पर लगा कि अब ग़ज़लें व्याकरण के हिसाब से काफी हद तक सही कह रहा हूँ। ये तो हुई कला पक्ष की बात लेकिन भाव पक्ष के संबंध में अभी ठोस कुछ कह नहीं सकता।
 
भोपाल के हिंदी भवन, स्वराज भवन, दुष्यन्त कुमार संग्रहालय आदि में हुए कवि सम्मेलनों में रचना पाठ का अवसर मिला है। मैंने "ओपन बुक्स ऑनलाइन भोपाल चैप्टर"नाम से एक संस्था बनाई थी जिसमें प्रतिमाह आयोजन होते थे। इस संस्था के अध्यक्ष स्वर्गीय जहीर कुरैशी साहब थे और मैं महासचिव। ज़हीर साहब का एक लंबे अरसे तक आशीष मिला। एक बड़े शायर की सादगी का गवाह रहा हूँ। उनके घर भी घंटों बैठा करते और ग़ज़ल से शुरू हुई चर्चा साहित्यिक दुनिया से समाज और राजनीति तक कब पहुंच जाती थी, पता ही नहीं चलता था। जहीर साहब मुझे उत्साहित करने के लिए अक्सर कहते थे मिथिलेश जी आप कभी कभी बड़ा शेर कह जाते हैं। उन जैसे बड़े शायर का स्नेह मिलना बड़ी बात थी मेरे लिए।
 
पसंदीदा शायरों के बारे में पूछने पर उन्होंने मुझे लिखा 'मुझे शायरों में ग़ालिब और दुष्यन्त बहुत पसंद है। ग़ालिब मुग्ध कर लेते हैं और दुष्यन्त झिंझोड़ देते हैं। ग़ालिब अपने समय से आगे के शायर थे और दुष्यन्त अपने समय के प्रामाणिक दस्तावेज।'

वर्तमान में हो रही शायरी पर उनकी टिप्पणी बहुत उल्लेखनीय है वो 'आजकल जो वास्तव में शायरी हो रही है वह तो बहुत बढ़िया है। शायर अपने समय को अभिव्यक्त करने के लिए नए प्रतीक, नए बिम्ब गढ़ रहा है और उनकी शायरी युगबोध से भरपूर दिखाई देती है। लेकिन जहां शायरी के नाम पर कुछ भी लिखा, पढ़ा और छापा जा रहा है वहां थोड़ा दुख होता है। शायरी के नाम पर केवल लिखने के लिए लिखना उचित नहीं है। हर विधा का अपना शिल्प और ढंग होता है, केवल नारेबाजी के लिए गलतियों को नए प्रयोग कहना ठीक नहीं है।'

आप मिथिलेश जी को उनके मोबाईल न 9826580013पर फोन कर जरूर बताएं कि आपको उनकी शायरी कैसी लगीं उनकी शायरी का अंदाज़ कैसा लगा ,यकीन मानें वो स्वस्थ आलोचना को बहुत प्राथमिकता देते हैं और हाँ यदि आपको उनकी शायरी पसंद आयी हो तो आप उन्हें बधाई दें। मैं मिथिलेश का आभारी हूँ क्यूंकि ये पोस्ट मिथिलेश जी के सहयोग के बिना संभव नहीं थी। आखिर में पेश हैं उनकी कुछ और ग़ज़लों से लिए चुनिंदा शेर :
 
मुझे मंदिर की घंटी ने सवेरे प्रश्न पूछा है
कि मस्जिद में जो मीरा का भजन होगा तो क्या होगा

नगर जिसमें सभी पाषाण मन के लोग रहते हैं
मुझे मालूम है मेरा रूदन होगा तो क्या होगा
*
एक जुमले ने नई पौध को भी मारा है
अब न वो लोग, न वैसा है जमाना बाक़ी
*
सर्जना भी अब कहांँ मौलिक रही
जो पढ़ेंगे आप वो साभार है

हम गगन के स्वप्न में खोए रहे
और खिसका जा रहा आधार है
*
ज़ियारत क्या, परस्तिश क्या, अक़ीदत क्या, इबादत क्या
किसी मासूम बच्चे का अगर चितवन नहीं देखा

किताबों की दुनिया - 246

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दूर ही से चमक रहे हैं बदन
सारे कपड़े कुतर गया सूरज

पानियों में चिताएँ जलने लगीं
नद्दियों में उतर गया सूरज

साजिशें ऐसी की चरागों ने
वक्त से पहले मर गया सूरज
*
दुनिया है जंगल का सफर
लक्ष्मण जैसा भाई दे

सोने का बाजार गिरा
मिट्टी को मँहगाई दे
*
सब ने रब का नाम लिखा तावीजों पर
लेकिन मैंने अपनी मांँ का नाम लिखा
*
घर के लोगों का मान कर कहना
अपनी हस्ती मिटा रहा हूंँ मैं
*
अपने चेहरे का कुछ ख्याल नहीं
सिर्फ शीशे बदल रहे हैं लोग

शाम है दोस्तों से मिलने की
ले के ख़ंजर निकल रहे हैं लोग
*
वो गौतम बुद्ध का हामी नहीं है
मगर घर से निकलना चाहता है

'मैंने तुम्हारी बल्लेबाज़ी देखी वाह वाह क्या खूब बैटिंग करते हो मियाँ, ज़िंदाबाद'। इंदौर के एक क्लब मैच में लंच टाइम पर आये सलामी बल्लेबाज़ से एक बुजुर्ग ने कहा। 'तारीफ़ के लिए बहुत शुक्रिया आप जैसे बुजुर्ग कद्रदानों से तारीफ़ सुनकर अच्छा लगता है'युवा बल्लेबाज़ ने जवाब दिया। थोड़ी देर बाद लंच पैकेट हाथ में लिए वो युवा उस बुजुर्ग के पास आकर बैठ गया और बोला 'लगता है आप क्रिकेट के पुराने खिलाड़ी हैं मेरी बल्लेबाज़ी में कोई कमी हो तो बताएं।'बुजुर्ग मुस्कुराये और बोले देखो मियाँ कभी कभी तुम शॉट खेलने में जल्दबाज़ी कर जाते हो ,भले ही उस शॉट से तुम्हें बाउंडरी मिले लेकिन देखने वाले को मज़ा नहीं आता। शॉट वो होता है जो बिना अतिरिक्त प्रयास के खेला जाय जिसे अंग्रेजी में कहते हैं 'एफर्टलेस शॉट'इस शॉट को खेलने के लिए आपकी टाइमिंग और बल्ले का एंगल खास रोल अदा करता है। एफर्टलेस शॉट एक खूबसूरत शेर की तरह है जो सीधा पढ़ने सुनने वाले के दिल में जा बसता है और पढ़ने सुनने वाला अपने आप वाह कहते हुए तालियाँ बजाने पर मज़बूर हो जाता है।'युवा बल्लेबाज़ का मुँह खुला का खुला रह गया वो बोला 'हुज़ूर आज पहली बार मुझे किसी ने क्रिकेट और शायरी के आपसी रिश्ते को समझाया है। आप थोड़ा और खुल कर बताएं। 'बुजुर्ग मुस्कुराये और बोले 'तुम शायरी करते हो ?''जी नहीं -कभी कोशिश की थी फिर छोड़ दी , मैं अलबत्ता कहानियां लिखता हूँ। 'युवा ने कहा। अच्छा तो कभी अपनी कोई शायरी मुझे सुनाना या पढ़वाना , ये रहा मेरा पता, बुजुर्ग ने जेब से एक कार्ड युवा को देते हुए कहा 'जी जरूर , मैं आपसे मिलने जरूर आऊंगा लेकिन अभी थोड़ा वक़्त है तो आप क्रिकेट के हवाले से शायरी पे और रौशनी डालें।'युवा ने कहा और लंच पैकेट एक तरफ रख दिया।

बुजुर्ग ने एक नज़र खाली मैदान पे डाली और फिर कुछ सोचते हुए बोले 'देखो कोई मफ़हूम या विषय या कोई बात तुम्हारे दिमाग में आयी तो समझो ये क्रिकेट बाल है जो किसी ने तुम्हारी और फेंकी अब तुम्हें लफ़्ज़ों के बल्ले से इसे सुनने पढ़ने वालों के दिल में उतारना है याने चौका या छक्का लगाना है। तो बल्ले का याने लफ़्ज़ों का इस्तेमाल इस सहजता से करो की मफ़हूम जब लफ़्ज़ों में पिरोया जाय तो मज़ा आ जाए। मफ़हूम को जबरदस्ती ठूंसे गए लफ़्ज़ों में मत बांधो याने बल्ले को तलवार की तरह मत चलाओ उसे इस सलीके से बल्ले से टकराने दो की मफ़हूम खुद बखुद सामईन के दिल तक पहुँच जाये याने बाउंड्री पार कर ले। बल्लेबाज़ी और शेर गोई में जल्दबाज़ी नहीं होनी चाहिए। सहजता होनी चाहिए। जितनी सहजता होगी बल्लेबाज़ी उतनी ही पुख्ता होगी और शेर उतना ही पुर असर होगा।

उम्र की अलमारियों में एक दिन
हम भी दीमक की ग़िज़ा हो जाएंगे
ग़िज़ा: भोजन
*
जो भाइयों में थी वो मोहब्बत चली गई
गेहूं की सौंधी रोटी से लज़्जत चली गई

विरसे में जो मिली थी वो तलवार घर में है
लेकिन लहू में थी जो हरारत, चली गई
*
कभी पैरों में अंगारे बंधे थे
मगर अब बर्फ़ बालों में मिलेगी

मैं मंजिल हूं न मंजिल का निशां  हूं
वो ठोकर हूं जो रास्तों में मिलेगी
*
ये बिखरी पत्तियां जिस फूल की हैं
वो अपनी शाख पर महका बहुत है

समंदर से मुआफ़ी चाहते हैं
हमारी प्यास को क़तरा बहुत है
*
लोग उसको देवता की तरह पूजने लगे
जिस आफ़ताब ने मेरी बीनाई छीन ली

होटल में चाय बेचते फिरते हैं वो ग़रीब
जिन मोतियों से वक्त ने सच्चाई छीन ली
*
मेरे लबों में कोई ये सूरज निचोड़ दे
तंग आ चुका हूं अपने अंधेरे मकान से

हम जिस युवा की बात कर रहे हैं उसका जन्म 15 जून 1944, कन्नौज यू पी, जो पहले डिस्ट्रिक्ट फर्रुख्खाबाद में था, में हुआ। यहाँ मैं बताता चलूँ कि कनौज अपने इत्र के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है। कनौज से लखनऊ होते हुए ये युवा आखिर में इंदौर आ कर बस गया। इंदौर शहर में ही उसने अपनी पूरी तालीम हासिल की। इंदौर के वैष्णव पॉलिटेक्निक कॉलेज से मेकेनिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा किया और दिसंबर 1964 से बॉयलर डिपार्टमेंट में सरकारी मुलाजमत करने लगा। पूरे 40 साल मुलाजमत करने के बाद सन 2004 में रिटायर हो गया।

अधिकतर इंसान रिटायरमेंट को अपनी ज़िन्दगी का आखरी मुकाम समझ लेते हैं जो कि उम्र के हिसाब से हर नौकरी पेशा को हासिल होती ही है लेकिन उम्र कुछ लोगों के लिए सिर्फ एक नंबर है ऐसे इंसान रिटायर भले हो जाएँ अंग्रेजी वाले 'टायर'कभी नहीं होते याने कभी थकते नहीं ,कुछ न कुछ करते ही रहते हैं। वैसे भी जो इंसान अपनी ज़िन्दगी में बढ़िया खिलाड़ी रहा हो वो उम्र से कभी नहीं हारता। ये युवा आज 77 साल की उम्र में जेहनी तौर पर उतना ही जवान है जितना उस वक़्त था जब उसके बैट से क्रिकेट बॉल टकरा कर सनसनाती हुई बाउंड्री पार कर जाया करती थी। पहली फुर्सत में वो आज भी टीवी या मोबाईल पर क्रिकेट मैच देखने से नहीं चूकता। .
 
इस दिल से युवा शायर का नाम है जनाब 'तारिक़ शाहीन'जिनकी ग़ज़लों की किताब 'कड़वा मीठा नीम'आज हमारे सामने है जिसे रेडग्रैब बुक्स प्राइवेट लिमिटेड ने प्रकाशित किया है। ये किताब आप अमेजन या फ्लिपकार्ट से ऑन लाइन मंगवा सकते हैं। मेरा मशवरा है कि इस ख़ूबसूरत क़िताब को हिंदी पाठकों के लिए मंज़र-ऐ-आम पर लाने के लिए जनाब पराग अग्रवाल साहब को उनके मोबाइल न 9971698930 पर संपर्क कर शुक्रिया अदा करें और जनाब तारिक़ शाहीन साहब को लाज़वाब शेरों के लिए उनके मोबाईल न 9893253546 पर संपर्क कर मुबारक़बाद जरूर दें। 


सिर्फ दो गज़ ज़मीं हूँ सिमटूँ तो
और फैलूँ तो आसमां हूंँ मैं

मुझको खुद में तलाश कीजेगा
तुम जहांँ हो वहांँ-वहांँ हूंँ मैं
*
मौत सारी अनासिर उड़ा ले गई
देखती रह गई जिंदगी साहिबों

और आगे बढ़ा हूंँ कड़ी धूप में
जब भी बढ़ने लगी तिश्नगी साहिबों
*
लो हो चुका तैयार मेरा घर मेरा आँगन
अब काम तुम्हारा है बढ़ो आग लगाओ
*
मुझे पसंद नहीं सेज के गुलाबी फूल
ये काली रात, सियाह नाग दे तो बेहतर है

तमाम उम्र कहीं जंगलों में कट जाए
ये जिंदगी मुझे बैराग दे तो बेहतर है
*
सबक उससे कोई ले दोस्ती का
जो दुश्मन पर भरोसा कर रहा था
*
जो जल रही थी खोखले नारों के दरमियां
उन मशअलों को वक्त की आंधी निगल गई

चांँद अपने केंचुली में कहीं दूर जा छुपा
सूरज उगा तो रात की नागिन कुचल गई

रिटायरमेंट के बाद जो मज़े का काम उनके साथ हुआ वो बिरलों के साथ ही हुआ होगा। हुआ यूँ कि उनके एक दोस्त थे जो नवभारत टाइम्स में पत्रकार थे और काँग्रेस के बड़े नेता भी थे वो अक्सर शाहीन साहब से उर्दू की तालीम हासिल किया करते थे। शाहीन साहब की उर्दू ज़बान और उर्दू साहित्य पर पकड़ के क़ायल थे। उन्हीं दिनों जब शाहीन साहब सरकारी नौकरी से रिटायर हुए भारत सरकार की मिनिस्ट्री ऑफ इन्फॉर्मेशन और ब्रॉडकास्टिंग की तरफ फ़िल्म सेंसर बोर्ड के मेंबरस की नियुक्तियाँ हो रही थीं चुनाचे उनके दोस्त ने उन्हें फिल्म सेंसर बोर्ड का मेंबर बनवा दिया। शाहीन साहब की फिल्मों में बचपन से रूचि थी। उनके फिल्मों पर लिखे लेख इंदौर के अखबारों में नियमित छपते थे। तो ये हुआ न मज़े का काम फ़िल्में देखो और मेंबर बनने की फीस अलग से सरकार से लो। एक पंथ दो काज वाली बात हो गयी। उस दौरान उन्होंने 'एक था टाइगर जैसी'बड़ी छोटी 103 फ़िल्में अपने कार्यकाल में पास कीं। किसी वजह से वो सेंसर बोर्ड का काम छोड़ तो आये लेकिन खाली नहीं बैठे या यूँ कहें कि उनकी क़ाबलियत ने उन्हें ख़ाली नहीं बैठने दिया। तभी उनके पास आधार कार्ड डिपार्टमेंट से ऑफर आया और वो वेरिफायर की हैसियत से आधार कार्ड से जुड़ गए और लगभग पाँच-सात साल तक जुड़े रहे। इसके अलावा उन्होंने मध्यप्रदेश मदरसा बोर्ड की हाई -स्कूल और हायर-सेकेंडरी स्कूल कोर्स की विभिन्न विषयों पर लगभग 16 किताबें लिखीं जो बोर्ड में कई साल चलीं।

अब आप ही बताएँ, है कोई ऐसा शख़्स आपकी निगाह में जो रिटायरमेंट के बाद इस क़दर अलग अलग कामों में मसरूफ़ रहा हो ? मैं ये तो नहीं कहूंगा कि इसतरह मसरूफ़ रहने वाले वो वाहिद इंसान थे लेकिन ये जरूर कहूंगा कि ऐसे इंसान आपको बहुत ही कम मिलेंगे। यही कारण है कि जब भी आप उनसे गुफ़तगू करें आपको लगेगा किसी कॉलेज में पढ़ने वाले युवा लड़के से बतिया रहे हैं क्यूंकि उनकी आवाज़ में वो ही ख़ुनक और जोश है जो युवाओं में होता है।   .     
जब भी बुझते चराग़ देखे हैं
अपनी शोहरत अजीब लगती है

आग मिट्टी हवा लहू पानी
ये इमारत अजीब लगती है

जिंदगी ख़्वाब टूटने तक है
ये हक़ीक़त अजीब लगती है
*
सूली पे चढ़ा है तो कभी ज़हर पिया है
जीने की तमन्ना में वो सौ बार मरा है

दिन रात किया करता है पत्थर को जो पानी
फ़ाक़ों के समंदर में वही डूब रहा है
*
लगायें कब तलक पैवंद साँसें
ये चादर अब पुरानी हो गई है
*
उसी को जहर समझते हैं मेरे घरवाले
वो आदमी जो मुझे देवता सा लगता है

न जाने कौन मुझे छीन ले गया मुझसे
अब अपने आप में कोई ख़ला सा लगता है

मैं हर सवाल का रखता हूं इक जवाब मगर
कोई सवाल करे तो बुरा सा लगता है
*
जुगनूओं की तरह सुलग पहले
क़र्ब की दास्तान तब लिखना
क़र्ब :पीड़ा, तकलीफ़

शायरी की तरफ़ शाहीन साहब का कोई विशेष झुकाव नहीं था अलबत्ता कहानियां खूब लिखते जो इंदौर के बड़े अखबारों में छपतीं। एक बार हुआ यूँ कि उन्होंने एक 5 शेरों से सजी ग़ज़ल कही और उस पर इस्लाह लेने के लिए इंदौर के एक बड़े उस्ताद के यहाँ पहुँच गए। उस्ताद तो उस्ताद होते हैं और बड़े उस्तादों का तो कहना ही क्या। बड़े उस्ताद अपने शागिर्दों से घिरे हुए थे लिहाज़ा उन्होंने कोई दो घंटे के इंतज़ार के बाद शाहीन साहब को अपने पास बुलाया और उनकी कही ग़ज़ल को सरसरी तौर पर देख कर कहा कि 'बरखुरदार इस ग़ज़ल को मेरे पास रख जाओ मैं इसे फुर्सत में इत्मीनान से इसे देखूँगा। अब तुम कल शाम को आना फिर इस पर बात करेंगे।'शाहीन साहब दूसरे दिन धड़कते दिल से शाम को उस्ताद के यहाँ पहुँच गए। उस्ताद ने उन्हें ग़ज़ल देते हुए कहा कि 'बरखुरदार इस ग़ज़ल को ध्यान से पढ़ो और समझो'। शाहीन साहब उन्हें सलाम करके उठे और बाहर आकर जब अपनी ग़ज़ल पढ़ी तो माथा ठनक गया। उस ग़ज़ल में शेर तो 5 ही थे लेकिन उन 5 शेरों में साढ़े चार शेर उस्ताद के थे सिर्फ एक मिसरा ही शाहीन साहब का था। उसी वक़्त शाहीन साहब ने उस कागज़ के, जिस पर ग़ज़ल लिखी हुई थी, टुकड़े टुकड़े किये और नाली में फेंक कर क़सम खाई कि अब कभी ग़ज़ल नहीं कहेंगे।

इंसान सोचता कुछ है होता कुछ है। शाहीन साहब की कहानियां, फिल्मों और स्पोर्ट पर लेख जिस अख़बार में नियमित छपते थे उसके मालिक उर्दू के क़ाबिल विद्वान् जनाब अज़ीज इंदौरी साहब थे। एक बार अज़ीज़ साहब को किसी काम से कहीं जाना पड़ गया तो वो शाहीन साहब से बोले कि मियां मुझे आज काम है मैंने सादिक़ इंदौरी साहब से कह दिया है कि वो अखबार की मेन हैडिंग आ कर लगा देंगे तुम बाकी पेपर सेट कर देना। सादिक़ साहब को भी आने में देर हो गयी तो शाहीन साहब ने अखबार की मेन हैडिंग भी खुद ही लगा दी और धड़कते दिल से सादिक़ साहब का इंतज़ार करने लगे। ये उनकी सादिक़ साहब से पहली मुलाक़ात होने वाली थी। थोड़ी देर के बाद जब सादिक़ साहब ने आ कर अखबार देखा तो बहुत खुश हुए बोले 'यार! तुम तो बहुत हुनरमंद इंसान हो, ऐसा करो कि अखबार की हेडिंग यही रहने दो बस तुम इस लफ्ज़ को वहाँ से हटा कर यहाँ रख दो। शाहीन साहब ने ऐसा ही किया और देखा कि इस छोटे से लफ़्ज़ों के हेरफेर से हेडिंग किस क़दर असरदार हो गयी है। उन्हें बरसों पहले क्रिकेट मैदान पर लफ़्ज़ों को बरतने के बारे में कही बुजुर्ग की बात फ़ौरन याद आ गयी उन्होंने सादिक़ साहब को गौर से देखते हुए कहा हुज़ूर आपको मैंने कहीं देखा है। सादिक़ साहब मुस्कुराये और बोले'जी जनाब हम बरसों पहले एक बार मिल चुके हैं क्रिकेट के मैदान पर जहाँ अपनी शायरी और क्रिकेट को लेकर गुफ़तगू हुई थी। मैं तो तुम्हें पहली नज़र में ही पहचान गया था क्यूंकि तुम्हारी बैटिंग से मैं बहुत मुत्तासिर हुआ था।

सादिक़ साहब ने अखबार की हैडलाइन की एक बार फिर से तारीफ़ करते हुए अचनाक जब शाहीन साहब से पूछा कि क्या तुम शायरी करते हो मियां तो शाहीन साहब तपाक से बोले 'लानत भेजिए शायरी को'। सादिक़ साहब ने हैरानी से पूछा 'भाई तुम शायरी के नाम से इतने भन्नाये हुए क्यों हो? बरसों पहले जब ये सवाल मैंने तुमसे किया था तब भी तुम झल्ला गए थे।बात क्या है जरा खुल कर बताओ।'थोड़ी ना-नुकर के बाद जब शाहीन साहब ने अपनी दास्ताँ सुनाई तो सादिक़ साहब हँसते हुए बोले 'बड़े खुद्दार आदमी हो यार, वैसे तुम इस्लाह के लिए जिसके पास गए थे वो मेरा शागिर्द है। तुम ऐसा करो कि अगर तुम्हें याद हो तो वही ग़ज़ल मुझे लिख के दो। शाहीन साहब ने उन्हें ग़ज़ल दे दी। दूसरे दिन वो ग़ज़ल सादिक़ साहब शाहीन साहब को वापस देते हुए बोले 'यार तुम्हारी ग़ज़ल के सभी शेर बढ़िया हैं उनमें कहीं कुछ करने की गुंजाईश नहीं है बस एक मिसरे में मैंने इस लफ्ज़ को वहाँ से हटा कर यहाँ कर दिया है बस। तुम तो लिखा करो मियां। कभी कहीं परेशानी आ जाये तो मेरे पास बेतकल्लुफ़ हो कर चले आया करो। इस बात से शाहीन साहब बेहद खुश हुए। ऐसा उस्ताद जिसे मिल जाय तो फिर कौन है जो अपने आपको ग़ज़ल कहने से रोक पायेगा ? लिहाज़ा उन्होंने ग़ज़लें कहना शुरू कर दिया।

अब समंदर वहां करे सजदे
हमने दामन जहांँ निचोड़े हैं

हर तरफ हैं हुजूम सायों का
आदमी तो जहांँ में थोड़े हैं
*
ये है माला वो है दार
जैसी गर्दन वैसा हार
दार: फांसी

सूखी मिट्टी इत्र हुई
पानी आया पहली बार

ये गुर है खुश रहने का
एक ख़मोशी सौ इज़हार
*
मैं संग हो के पहुंँचा था जब उसके सामने
वो मुझको आईने की तरह देखता रहा
*
जाने अपनी बूढ़ी मांँ से मुझको यह क्यों ख्वाहिश है
वो मुझको मेले में ढूंढे और कहीं खो जाऊंँ मैं
*
पांँव पत्थर किए देते हैं ये मीलों के सफ़र
और मंजिल का तक़ाज़ा है कि चलते रहना

दरो-दीवार जहांँ जान के दुश्मन हो जायें
और उसी घर में जो रहना हो, तो कैसे रहना
*
कोई आए मुझे बाहर निकाले
मैं अपने आप से तंग आ गया हूंँ

तारिक़ साहब बेहद प्राइवेट इंसान हैं। शोहरत से कोसों दूर अपने में ही मस्त रहने वाले इंसान।  यही कारण है कि उन्हें मुशायरों के मंच पर बहुत ही कम देखा गया है। नशिस्तों में भी उनकी शिरकत ज्यादा नहीं होती। जनाब कीर्ति राणा साहब अपने ब्लॉग में उनके बारे में लिखते हैं कि इंदौर के खजराना में रहने वाले शायर तारिक शाहीन शायरी में तो माहिर माने जाते हैं लेकिन जोड़-तोड़, जमावट के फन में कमजोर ही हैं वरना क्या वजह है कि उर्दू का एक नामचीन शायर उम्र की 76वीं पायदान पर कदम रख दे और उर्दू अदब तो ठीक खजराना तक में हलचल ना हो । अपनी शायरी से देश-विदेश में शहर का नाम रोशन करने वाले शायर का हीरक-जयंती वर्ष दबे पैर निकलने की हिमाकत तभी कर सकता है जब कोई लेखक-शायर सिर्फ रचनाकर्म से ही ताल्लुक रखेउनका तखल्लुस है तारिक यानी अलसुबह के अंधेरे में चलने वाला मुसाफिर, शायद यही वजह है कि उनकी शायरी का सुरूर तो दिलोदिमाग पर चढ़ता है लेकिन इस बड़ी सुबह के मुसाफिर पर नजरें इनायत नहीं हुईं।

 इंदौर में उनके सबसे क़रीब दोस्त थे, मरहूम शायर जनाब राहत इंदौरी साहब जिनकी जब तक वो हयात रहे मुशायरों के मंच पर तूती बोला करती थी। राहत साहब तारिक़ साहब को अपना उस्ताद मानते थे हालाँकि तारिक़ साहब इस बात से इंकार करते हैं और इसे राहत का बड़प्पन कहते हैं । शाहीन साहब आज भी उन्हें याद करते हुए उदास हो जाते हैं वो कहते हैं की राहत जैसी खूबियाँ मैंने बहुत कम इंसानों में देखी हैं।      

एम पी उर्दू अकादमी, भोपाल ने उन्हें 'शादाँ इंदौरी अवार्ड से , जान-चेतना अभियान ने बहुसम्मान से और बज़्मे-गौहर हैदराबाद ने मोअतबर शायर अवार्ड से नवाज़ा है। नवभारत’ में उर्दू सफा (पेज) का संपादन करने से पहले ‘शाखें’ नाम से रंगीन त्रैमासिक निकाल चुके हैं जो 22 देशों में जाती थी और दुनियाभर के फनकार इसमें छपा करते थे। उनकी अपनी रचनाएँ  जर्मन, पाक, अमेरिका, स्वीडन, लंदन आदि देशों की पत्रिकाओं में निरंतर छपती रही हैं। 

आखिर में पेश है उनके कुछ और चुनिंदा शेर :

एक आदमी था हम जिसे इंसान कह सकें
गुम हो चुका है भीड़ में वो आदमी जनाब

सूरज के साथ शहर का चक्कर लगाइए
आ जाएगी समझ में अभी ज़िंदगी जनाब
*
उस पर हंँसू कि अश्क बहाऊंँ मैं दोस्तों
शर्मिंदा हो रहा है मेरा घर उजाड़ के
*
तोड़ दो ताज की तामीर के हर मंसूबे
तुमको मालूम नहीं दस्ते-हुनर कटते हैं

हमने उस शहर के माहौल में ऐ दोस्त मेरे
इस तरह काटे हैं दिन जैसे कि सर कटते हैं
*
वो शनासा तो नहीं है कि पलट आएगा
अजनबी वक्त़ को आवाज लगाऊंँ कैसे
*
बहुत खुश हो, तुम अपनी जिंदगी से
मियां क्यों लंतरानी कर रहे हो

ख़ुदा रक्खे तुम्हें मेरे चरागों
हवा पर, हुक्मरानी कर रहे हो
*
जो शख़्श भी ज़माने की नज़रों में आ गया
चेहरे पे उसने दूसरा चेहरा लगा लिया
*
कोई पत्थर न था सलीक़े का
आईना किस के रूबरू करते

किताबों की दुनिया - 247

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ये मैं हूंँ और ये मैं हूंँ ये एक मैं ही हूंँ 
मगर ख़लीज सी इक दरमियान देखता हूंँ 
ख़लीज: अंतर खाड़ी

कहांँ-कहाँ नई ता'मीर की ज़रूरत है 
सो तेरी आंँखों से अपना जहान देखता हूंँ 
ता'मीर :निर्माण 

मेरा चराग़-ए-बदन नूर-बार होता है 
तेरी हवा को अ'जब मेहरबान देखता हूंँ 
नूर-बार: रोशनी बरसाने वाला 

ये मैं यक़ीन की किस इंतहा पे आ पहुंँचा
कि अपने चारों तरफ़ बस गुमान देखता हूंँ
*
ये आस्ताना-ए-हसरत है हम भी जानते हैं 
दिया जला दिया है और सलाम कर लिया है 
आस्ताना-ए-हसरत :कामना की चौखट
*
जूते चटख़ाते हुए फिरते थे सड़कों गलियों 
हमने कब शहर-ए-मोहब्बत में मशक़्क़त की थी 

आयतें अब मिरी आंँखों को पढ़ा करती हैं 
मैंने बरसों किसी चेहरे की तिलावत की थी 
तिलावत: पढ़ना
*
था ही क्या अपना जिसे अपना बनाए रखते 
जान सी चीज़ थी वो भी तो तुम्हारी निकली
*
बदन की प्यासी सदाओं ने ख़ुदकुशी कर ली 
मैं जी रहा हूंँ किसी याद की रिफ़ाक़त में 
रिफ़ाक़त :दोस्ती, साथ 

ख़ुदा, नमाज़ें ,दुआएँ, ये चिल्ले नज़्र-ओ-नियाज़ 
मैं ए'तिबार गँवाता रहा मोहब्बत में 
नज़्र-ओ-नियाज़ :चढ़ावा

मैं जयपुर शहर में रहता हूं जयपुर अपनी बहुत सी दूसरी विशेषताओं के अलावा विशालकाय किलों के लिए भी प्रसिद्ध है । ये किले जयपुर और उसके आप पास की पहाड़ियों पर बने हैं, शहर के बीचो-बीच सिटी पैलेस बना हुआ है । बचपन में मेरे पिता मुझे उंगली पकड़कर इन महलों में घुमाने ले जाते थे और मैं उनकी विशाल दीवारें, बड़े बड़े दालान, ढेरों कमरे, नक्काशी दार खंबो पे टिकी बारहदरी, संगमरमर के फर्श, मूर्तियां, फव्वारे, बेशुमार झरोखे, महराबें, गुंबद वगैरह देख हैरान हो जाता। थोड़ी ही देर के बाद मैं वहाँ से बाहर निकलने को छटपटाने लगता क्योंकि वहाँ की हर चीज मुझे लार्जर दैन लाइफ लगती लेकिन मैं वहाँ लाइफ मिस करता। कोई महल कितना भी बड़ा या खूबसूरत हो आप उसमें बहुत देर तक रह नहीं सकते जबकि एक या दो कमरे के किसी भी घर में रहने से जी नहीं भरता। महल को देखने वालों की कतार लगती है जबकि घर का दरवाजा हर किसी के लिए नहीं खुलता और अगर किसी के लिए खुलता है तो पूरे मन से खुलता है। महल पर हमेशा किसी बाहरी हमलावर का डर रहता है इसलिए उसकी हिफाज़त के लिए पूरी फ़ौज़ रखनी पड़ती है। घर को ऐसा कोई डर नहीं होता, इसीलिए घर में सुकून महसूस होता है ।

कुछ लोग महल की तरह होते हैं दिखने में लार्जर दैन लाइफ लेकिन भीतर से खोखले और ठंडे। हमेशा डरे डरे, हर किसी से आशंकित, चौकन्ने, सावधान, रूखे ,अधिकतर लोगों से दूरी बनाये हुए। अपनी छवि को बनाये रखने की ख़ातिर किसी भी हद तक गिरने को आमादा। चमचों की एक बड़ी सी फ़ौज़ हमेशा उनको अपने इर्द-गिर्द चाहिए जो उन्हें बड़े और महान होने का हमेशा अहसास दिलाती रहे। कुछ लोग घर की तरह होते हैं सरल, सहज, जिंदादिल, मोहब्बत और अपनेपन से लबरेज़ ,हर किसी को गले लगाने को तैयार, निडर। हमारे आज के शायर दूसरी श्रेणी के हैं। किसी भी आम घर की तरह।

जब मैंने आज के शायर से पूछा कि आप अपनी ज़िन्दगी का कोई ऐसा अहम वाक़या बताएं जिसने आपके जीने का ढंग बदल दिया हो तो उन्होंने जो जवाब दिया वो कुछ यूँ था 'ज़िन्दगी का हर लम्हा आपको तब्दील करता रहता है, हर लम्हा जो है आपको सिखाता रहता है, एक दार्शनिक ने कहा भी था कि आप एक दरिया में दुबारा क़दम नहीं रख सकते , दरिया भी तब्दील हो जाता है आप भी तब्दील हो जाते हैं। तब्दीली का जो एक मुसलसल प्रोसेस है वो जारी रहता है ये होता है कि फौरी तौर पर आप उसे महसूस नहीं कर पाते कि इस लम्हे में आप कितना तब्दील हुए किस हद तक तब्दील हुए इसलिए कि ठहराव जैसी कोई चीज तो होती नहीं है। ठहराव भी जो होता है एक मुसलसल रवानी होता है। हम एक खास तरह की सिचुएशन में रहते हैं और ये जो सिचुएशन भी बहुत ही पैराडाक्सिकल (विरोधाभासी ) किस्म की होती है। छोटा छोटा वाक़या भी आपके ऊपर कैसा गहरा असर डाल देता है बाज़-औकात आपको पता ही नहीं चलता आप सीखते हैं आपके जीने का ढंग बदलता है आपके सोचने समझने का अंदाज़ बदलता है। हाँ ये जरूर होता है कि कोई अचानक एक वाकया हो जाता है जो आपको बदल देता है आप उस बदलाव को महसूस करने लगते हैं। जैसे आपका कोई बहुत अज़ीज़ जिससे आपको बेपनाह मुहब्बत हो अचानक आप को हमेशा के लिए तन्हा छोड़ कर चल दे तो उसकी कमी आपको बहुत डिस्टर्ब कर देगी। ज़िन्दगी के म'आनी वो बिलकुल तब्दील हो जाते हैं। हमारे अंदर जो एक ज़िंदा रहने की जो ख्वाइश है वो कैसे कैसे शक्लें बदलती है कौन कौन से रंगों में आती है कौन कौन से पैकर में आती है ,सोचने लग जाता हूँ। इन बातों से मैं परेशान भी होता हूँ कोशिश करता हूँ इन्हें अपनी शायरी में ढालूँ , पता नहीं मैं इसमें कितना कामयाब हो पाता हूँ।

लगता यही है नूर के रथ पर सवार हूँ 
आंखों ने तेरी मुझको वो रसते सुझाए हैं
*
जिस्म का बर्तन सर्द पड़ा है तन्हाई के चूल्हे पर 
अफ़्सुर्दा है जान-ओ-दिल का तुम बिन घर संसार बहुत
अफ़्सुर्दा: दुखी
*
तेरे जमाल के जौहर को ताब देता था 
मेरा नशेब तुझे आबशार करता हुआ 
नशेब : ढलान,  आबशार: झरना
*
अ'जीब भेद है खुलकर भी कुछ नहीं खुलता 
सो आस्माँ को तेरा इस्तिआ'रा करता हूं
गस्तिआरा: रूपक
*
याद दिल में भँवर सा बनाती रही
दर्द सहरा था आंखों में जलता रहा
*
जमने देता ही नहीं मुझको सुकूत-ए-शब में 
बहता रहता है तेरी याद का झरना साईं 
सुकूत ए शब:  रात की स्तब्धता
*
 हांँ मुझे है फ़राग़ जख़्मों से 
हांँ मुझे आपकी जरूरत है
फ़राग़: छुटकारा
*
नोच रही है रूह के रेशे रेशे को 
एक ख्वाहिश थी रफ़्ता रफ़्ता चील हुई
*
ये किस ज़मीन पर मेरे क़दम पड़े 
वो क्या ग़ुबार था कि मैं निखर गया 

लिपट के रो रही हैं मुझसे हैरतें 
मलाल था कि रायगाँ सफ़र गया
रायगाँ: बेकार, व्यर्थ

हमारे आज के शायर का नाम जानने से पहले आईये पढ़ते हैं कि उसके बारे में अपनी तरह के अकेले, अलबेले, फक्कड़ और बेहद मशहूर शायर जनाब 'शमीम अब्बास'साहब क्या कहते हैं।
 
शमीम साहब फरमाते हैं कि "ना बहुत मोटे तगड़े, ना बहुत लंबे चौड़े,ना बहुत गोरे चिट्टे, ना बहुत दुबले-पतले, ना बहुत साँवले हर मामले में दरमियाना, दरमियाना क़द, दरमियाना रंग, दरमियाना काठी, इक हल्की सी मुस्कान लिए चेहरा, सजे सँवरे बाल, बहुत कायदे से और नफासत के साथ ज़ेबतन किये हुए कपड़े, खुश गुफ़्तार, खुश इख़लाख़ हद ये है कि गर्मागर्म बहस के दौरान भी एक हल्की सी मुस्कुराहट उसके चेहरे पर घर किये रहती है, मुसलसल तारी रहती है । शायर तो अच्छा है ही बाकी आदमी बहुत अच्छा है, मुझे बहुत अच्छा लगता है। सिर्फ एक मामले में मुझे उससे जलन है, हसद है वो ये कि वो लड़कियों के कॉलेज में प्रोफेसर है बाकी सब ठीक है। मैं ये सब इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि वो मेरा बहुत अच्छा दोस्त है वो मेरे ख्याल से 99 फीसद लोगों का अच्छा दोस्त है ये उसकी शख़्शियत की खूबी है कि जिससे मिलता है वो शख़्स उससे मुत्तासिर होता है, उसे चाहने लगता है।"

हमारे आज के शायर हैं जनाब 'अमीर हमज़ा साक़िब'जिनकी जनाब 'शमीम अब्बास'साहब से मुलाक़ात बरसों पहले मुम्ब्रा के एक मुशायरे में हुई थी। मुशायरे में सुनाये 'अमीर'के क़लाम को उन्होंने भरपूर दाद से नवाज़ा और मुशायरा ख़त्म होने पर 'अमीर'को एक कोने में ले जाकर उनसे मुशायरे में पढ़े उनके एक ख़ास शेर को फिर से सुनाने को कहा। 'अमीर'के शेर को गौर से सुनकर उन्होंने अमीर से कहा की अगर मुनासिब समझें तो इस शेर को कुछ अलग ढंग से कह कर देखें। 'अमीर'ने शमीम साहब की बात मानते हुए वही शेर जब कुछ अलग ढंग से कह कर उन्हें फोन पर सुनाया तो वो बहुत खुश हुए और ढेरों दुआएं दीं। तब से लेकर उन दोनों के बीच पनपा अपनापा आज तक क़ायम है। शमीम साहब के 'अमीर'के बारे में ऊपर जो आपने जुमले पढ़ें हैं, उसके बाद हमारे पास 'अमीर हमज़ा साक़िब'की शख़्शियत के बारे में कहने को और कुछ खास नहीं बचता।

उनकी ग़ज़लों की देवनागरी में रेख़्ता बुक्स,नोयडा, उत्तरप्रदेश द्वारा छपी किताब 'जिस्म का बर्तन सर्द पड़ा है', हमारे सामने है। ये किताब आप अमेजन से ऑन लाइन भी मंगवा सकते हैं। 


इक आग इश्क़ की लिए फिरये तमाम उम्र 
किसने कहा था हाथ शरारों में डालिए

ये कौन फूल फूल खिला शाख़-शाख़ पर 
मैं ख़ाक छानता रहा किस की हवा लिए
*
यूं तो सब जल जाएगा 
दिल की लौ कम करते हैं 

अंदर से जो ख़ाली हैं 
'साक़िब'हम हम करते हैं
*
मेरा पता ठिकाना कहांँ जुज़ मेरे सिवा 
मेरी तलाश क्या कि अभी गुम-शुदा हूंँ मैं
*
तिरे ख्य़ाल के जब शामियाने लगते हैं 
सुख़न के पांँव मिरे लड़खड़ाने लगते हैं 

मैं दश्त-ए-हू की तरफ़ जब उड़ान भरता हूंँ 
तेरी सदा के शजर फिर बुलाने लगते हैं
दश्ते हू: वीराना

ये गर्द है मिरी आंखों में किन ज़मानों की 
नए लिबास भी अब तो पुराने लगते हैं
*
जब उसका अक्स नहीं हम तो क्या जरूरी है 
कि जो भी उसने किया हू-ब-हू किया जाए
*
मैं भी तो उस पे जांँ छिड़कता हूंँ 
ग़म अगर एहतिराम करता है

आगे बढ़ने से पहले थोड़ा पीछे चलते हैं, पीछे याने आज से यही कोई 34-35 साल पहले। मुंबई के पास भिवंडी की अंबेडकर लाइब्रेरी में बैठा लाइब्रेरियन देखता था कि एक लड़का अक्सर लाइब्रेरी में आता है, अलमारी से कोई किताब निकालता है और करीब चार-पांच घंटे उस किताब में सर दिए चुपचाप पढ़ता रहता है और लिखता रहता है ।लाइब्रेरियन के लिए, एक 15-16 साल के लड़के की इस क़दर किताबों से मोहब्बत देख कर, हैरान होना लाज़मी था क्योंकि उसने इस उम्र के लड़कों को ज़्यादातर सड़कों पर क्रिकेट, फुटबॉल खेलते या आवारागर्दी करते ही देखा था ।पहले तो उसने समझा इस उम्र के दूसरे पढ़ाकू लड़कों की तरह ये भी किसी रोमांटिक या जासूसी उपन्यास को पढ़ने लाइब्रेरी आता होगा पर एक दिन जब वो अपनी उत्सुकता पर काबू नहीं रख पाया तो उसने लड़के से पूछ ही लिया कि ,बरखुरदार क्या पढ़ रहे हो'? लड़के ने हौले से हाथ में पकड़ी किताब जब उन्हें दिखाई तो लाइब्रेरियन साहब को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ , वो हैरान रह गए। अब आप ही बताएं कि ज़नाब 'फ़ैज अहमद फ़ैज'साहब की किताब 'दस्ते सबा'एक कमसिन उम्र के लड़के के हाथ में देखकर भला कौनसा पढ़ा लिखा इंसान हैरान नहीं होगा ? लड़के ने मुस्कुराते हुए लाइब्रेरियन साहब को बताया कि उसे फैज़ साहब बेहद पसंद हैं और ये किताब वो सातवीं मर्तबा पढ़ रहा है।

मजे की बात तो ये हुई कि दसवीं के इम्तिहान के एक परचे में जब 'आपका पसंदीदा शायर'पर लिखने का सवाल आया तो इस लड़के ने जवाब में फ़ैज पर न सिर्फ़ लम्बा लेख लिखा बल्कि साथ में 'दस्ते-सबा'में छपी बहुत सी ग़ज़लें और नज्में भी लिख दी जिसे पढ़ कर कॉपियां चैक करते वक्त एगज़ामिनर ने भी दाँतों तले उँगली दबा ली क्योंकि फ़ैज के बारे में इतना तो उन्हें भी पता नहीं था।

लाइब्रेरियन ने लड़के की पढ़ने की लगन को देखकर एक बार अपने असिस्टेंट को कहा कि 'उस टेबल पर बैठे लड़के को देख रहे हों मियाँ, एक दिन वो अपना और भिवंडी का नाम पूरी दुनिया में रौशन करेगा और ज़िन्दगी में बेहतरीन शख़्स बनेगा।'लाइब्रेरियन की पहली बात सच हुई ये तो पता नहीं लेकिन इस लड़के जिसका नाम 'अमीर'है को जानने वाले उसके बारे में कही दूसरी बात से जरूर इत्तफ़ाक़ रखेंगे।

निहाल यादों की चाँदी में शब, तो दिन सारा 
किसी के ज़िक्र का सोना उछालने में गया
*
दिल-ओ-दिमाग़ मुअ'त्तर तुम्हारे नाम से है 
तो फिर ये बू-ए-शिकायत कहांँ से आती है 
मुअ'त्तर :सुगंधित
*
जुनूँ पे इससे बुरा वक़्त और क्या होगा 
कि जान छूट गई तेरे जाँ-निसारों की 

जनाब आप तो ले बैठे घर के दुखड़े को 
हुजूर बात थी सहरा की रेगज़ारों की 

तुम्हारा रंग न आना था सो नहीं आया 
धनक सजाते रहे लाख इस्तिआ'रों की
*
जाने किस जुर्म में माख़ूज़ वो जिंदानी है 
जो भी आता है वो जंजीर हिला जाता है
माख़ूज़: पकड़ा गया, जिंदानी: क़ैदी
*
टहनियाँ दिल की बेलिबास हुईं 
आस के पंछी उड़ गए सारे

दीद  इज़्हार क़ुर्ब लम्स विसाल
 हल नहीं होते मस्अले सारे

कैसी इम्काँ थे अपने यारों में 
वक्त बदला बदल गए सारे
इम्काँ: सँम्भावना
*
ज़हर पीना दुर-ए-नायाब लुटाते रहना 
जर्फ़ कब मुझको मयस्सर है समंदर तुझ सा
दुर-ए-नायाब: अमूल्य रत्न, जर्फ़: पात्र

28 अप्रैल 1971 को भिवंडी में पैदा हुए 'अमीर हमज़ा साक़िब'दरअसल आज़मगढ़ के पास के छोटे से गाँव के हैं। उनके वालिद बेहतरीन शायर जनाब अताऊर रहमान 'अता', कारोबार के सिलसिले में भिवंडी आए और फिर यहीं के हो कर रह गये। 'अमीर'अम्बेडकर लाइब्रेरी में रखी शायरी की किताबें पढ़ते पढ़ते खुद भी शेर कहने की कोशिश करने लगे। वालिद साहब की उँगली पकड़ कर शेर कहने का सलीका सीखा और उन्नीस साल की उम्र से बाक़ायदा शायरी करने लगे। मुशायरों और नशिस्तों में शिरकत भी करने लगे लेकिन ये सिलसिला लम्बा नहीं चल पाया। 

मुशायरों के लिये शायरी करना सरकारी या गैरसरकारी संस्थान में नौकरी करने जैसा काम है। जैसे नौकरी में मातहत की पूरी कोशिश बॉस को खुश करने की होती है क्योंकि उसे नाराज़ करके उसकी तरक्की नहीं हो सकती ठीक वैसे ही मुशायरे के शायर सामईन को खुश करने की लगातार कोशिश करते रहते हैं चाहे उसके लिए उन्हें पढ़ते वक्त नौटंकी करनी पड़े या गायकी। शायर का सिर्फ़ एक ही मक़सद होता है, सामईन की वाहवाही और तालियाँ बटोरना। जो ज्यादा बटोर पाता है वो ही लम्बे वक्त तक मंच पर टिका रहता है और ज़्यादा पैसा कमा पाता है। वाहवाही और तालियों की चाहत में शायरी हाशिये पर धकेल दी जाती है। ये बात सभी शायरों पर लागू नहीं होती लेकिन ज़्यादातर पर होती है। एक बात तो मैं यकीन से कह सकता हूँ कि अब मुशायरे के मंच से बेहतरीन शायरी पढ़ने वाले शायरों के दिन लद गए हैं. अलबत्ता कुछ नौजवान शायर बहुत खूब कह रहे हैं और मंच से अच्छी शायरी पढ़ने की हिम्मत भी कर रहे हैं लेकिन वो भी हज़ारों की भीड़-भाड़ वाले बड़े मज़मेनुमा मुशायरों में कामयाब नहीं हो पाते। यही कारण है कि मुशायरों में आठ दस घंटे का वक्त खपाने के बाद बड़ी मुश्किल से आपके हाथ दो या तीन ऐसे शेर हाथ आते हैं जो आपके ज़हन में कुछ देर तक टिके रह सकें। इतने वक्त में तो आप किसी किताब या रिसाले को पढ़ कर घर बैठे ही बहुत कुछ हासिल कर सकते है। अमीर ने कुछ वक्त तक तो मुशायरे के मंचों को देखा और आखिर में उकता कर मुशायरों से तौबा कर ली । शायरी करना 'अमीर' की मज़बूरी नहीं बल्कि खुद से गुफ़्तगू करने का एक जरिया है।

इस किताब की भूमिका वो अपनी शायरी के हवाले से लिखते हैं कि 'शेर कहते वक़्त मैं मुकम्मल न सही मगर एक बे-ख़बरी में जरूर होता हूँ।लफ्ज़ और उनकी पुर-असरारियत (रहस्मयता ) मुझे हैरत में डालती है। लफ़्ज़ों के इम्कानात (संभावनाएं )को खंगालना ,उन्हें नए मआ'नी-ओ-मफ़ाहीम (अर्थ-भाव) देना किसी तख़्लीक़ी (रचनात्मक ) एडवेंचर से कम नहीं। मैं एक सफर पर निकला हूँ , तख़्लीक़ी एडवेंचर के सफर पर। इस सफर में मेरे हाथ क्या आएगा नहीं जानता। अलबत्ता ये जानता हूँ कि इस सफर में रायगानी (व्यर्थता )मेरा मुकद्दर नहीं होगी।

मेरी बरहना पुश्त थी कोड़ों से सब्ज़-ओ-सुर्ख़  
गोरे बदन पे उसके भी नीला निशान था

ज़िंदगी हाय तआ'कुब तेरा 
आख़िरी बस का सफ़र हो जैसे 
तआ'कुब: पीछा करना

दस्तरस में वो नहीं है मेरी 
शे'र कहने का हुनर हो जैसे 

फिर कठिन और कठिन और कठिन 
सांँस पनघट की डगर हो जैसे
*
क्या आस्माँ उठाते मोहब्बत में जबकि दिल 
तार-ए-निगह में उलझी हुई इक पतंग था
*
मिले न तुम ही न हम और ही किसी के हुए
यही बचा है कि अब अपने ही अ'दू हो जाएंँ
अ'दू: दुश्मन
*
रहे कहीं भी कहीं दूर मुझसे तू छुप जाए 
मेरे ख़यालों में चेहरा तेरा दमकता है 

ये ज़िस्म-ओ-रूह की गहराइयों में उतरेगा 
ये दर्द वो नहीं आंखों से जो छलकता है 

गुनाहगार न बन दिल मेरे ख़ुदा के लिए 
ख़याल-ए-यार का दामन कोई झटकता है

तुम्हारा लुत्फ़-ओ-करम हम फ़क़ीर लोगों पर 
किसी गरीब की छत की तरह टपकता है
*
पत्थर पड़े हैं राह के बे-ख़ानुमाँ-ख़राब
अब शहर में कोई भी दिवाना नहीं है क्या
बे-ख़ानुमाँ: बेघर
*
ये ख़्वाब रक्खेगा बेदार मुझको बरसों तक 
तिरी गली में मैं अपना मकान देखता हूँ

'अमीर'साहब ने भिवंडी से ग्रेजुएशन करने के बाद पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए मैसूर यूनिवर्सिटी को चुना और वहां से उर्दू में एम.ऐ. किया। नेट की परीक्षा दी और 'मीर तकी मीर'पर रिसर्च कर पी.एच डी की डिग्री हासिल की। इन दिनों आप भिवंडी के जी.एम. मोमिन वीमेन्ज़ कॉलेज के उर्दू विभाग में प्रोफ़ेसर के पद पर काम कर रहे हैं। पढ़ने लिखने के बेहद शौक़ीन 'अमीर'साहब को संगीत से भी दीवानावार मुहब्बत है। इसकी मोहब्बत में गिरफ्तार हो कर उन्होंने बाकायदा हिंदुस्तानी क्लासिकल म्यूजिक की तालीम जौनपुर के उस्ताद मोहम्मद हुसैन साहब से हासिल की। वक़्त की कमी के चलते वो संगीत में महारत तो हासिल नहीं कर सके लेकिन अब भी जब मूड होता है तो किसी न किसी राग को छेड़ कर उसमें डूबने की कोशिश करते हैं। संगीत के अलावा उनकी फिल्मों में भी बेहद दिलचस्पी है। शायरी तो खैर उनकी पहली मोहब्बत जैसी है। 

'अमीर'साहब ने जनाब 'मीर तकी मीर'साहब को जब पढ़ा तो उनके रवैये में तब्दीली आयी और उनकी फ़िक्र का मरकज़ जदीदियत की जगह इश्क हो गया। चीजों को रोमांटिसाइज करना और उसमें मिस्ट्री पैदा करना उनका दिलचस्प मश्ग़ला रहा है।'अमीर'अपनी शायरी हवाले से फरमाते हैं कि 'अपनी शायरी के ताल्लुक से मुझे किसी भी तरह की कोई खुशफ़हमी तो नहीं है बस ये है कि मुझे शेर कहने का जो अमल है उसमें लुत्फ़ आता है। लफ़्ज़ों को जानना, चीजों को उलट-पलट कर देखना और देखने का जो अपना जो एक तरीका है कि मैं हाल को भी माज़ी के तनाज़ुर (प्रेस्पेक्टिव ) में देखने की कोशिशें करता हूँ। लफ्ज़ उनके म'आनी और लफ्ज़ और म'आनी के दरमियान जो एक रिश्ता है जिसको , नून मीम राशिद साहब ने 'रिश्ता हाय आहन'कहा है तो ये लफ्ज़ और म'आनी के दरम्यान जो एक आहनी रिश्ता और जब वोही आहनी रिश्ता किसी शेर में आकर सय्याल (तरल, बहने वाला) हो जाता है उसमें सय्यालियत पैदा होती है तो ये तमाम चीजें मेरे लिए बड़ी मिस्टीरियस सी लगती हैं और मैं उसी मिस्ट्री में जीना पसंद करता हूँ। उसी रिश्ते पर गौर करता रहता हूँ। चीजों को माज़ी में देखने की कोशिश करता हूँ। कभी तवारीख़ का हिस्सा बन जाता हूँ कभी किसी क़िरदार में ढल जाता हूँ। फ़ितरत जो है वो मुझे बहुत मुत्तासिर करती है। फ़ितरत अपनी तरफ़ बुलाती है। जो रंग हैं, जो खुशबुएँ हैं, जो रौशनी है, लफ्ज़ हैं, म'आनी है , इंसानी रिश्ते हैं उन रिश्तों के दरमियान जो बदलती हुई नवीयतें हैं वो आपको मेरी शायरी के मरकज़ में ख़ुसूसन मिल जाएँगी।

अपनी शायरी के आगाज़ के लगभग 15 साल बाद 'अमीर'साहब का पहला मजमुआ सन 2014 में 'मौसम-ए-कश्फ़'के नाम से देहलीज़ पब्लिकेशन से शाया हुआ और बेहद मक़बूल हुआ। उसके करीब 5 साल बाद सन 2019 में देवनागरी में रेख़्ता द्वारा पब्लिश हुआ उनका दूसरा मजमुआ 'जिस्म का बर्तन सर्द पड़ा है'शायरी पढ़ने वालों को बहुत पसंद आ रहा है। उनकी शायरी 'रेख़्ता की साइट पर भी उपलब्ध है। मेरी सभी शायरी प्रेमियों से गुज़ारिश है कि अगर आप संजीदा शायरी पसंद करते हैं तो आपकी निजी लाइब्रेरी में उनकी ये किताब जरूर होनी चाहिए। आप 'अमीर'साहब को उनके खूबसूरत क़लाम के लिए 9890250473 पर फोन कर मुबारक़बाद दे सकते हैं।

आख़िर में पेश हैं उनकी इसी किताब से लिए कुछ और शेर :

आगही खून चूस लेती है 
छोड़िए जो हो बा-ख़बर रहिए
आगही: ज्ञान
*
'मीर'साहब से पूछिए जा कर
इ'श्क़ बिन क्या अदब भी आता है

मैं उसे गुनगुनाए जाता हूं 
वो मुझे भूल भूल जाता है
*
सुराग़ अपना मिले कहां से 
तुम्हारी दुनिया के हो चुके हैं
*
दिल के मैदाँ में खेल जारी है 
उसकी आंँखों का मेरे आंँसू का
ये दुनिया हाथ बांँध सामने थी 
मगर मैं आसमांँ को तक रहा था
*
जिसे तुम दिल हमारा कह रहे हो
भरी बरसात की सूनी गली है
*
तुम्हारी याद पर है जोर अपना 
ये दुनिया आज़माई जा चुकी है
*
तेरी आहट से मुझ में दूर तलक 
एक जंगल सा फैल जाता है 

कुफ्र है हिज्र का तसव्वुर भी 
आसमाँ कब जमीं से बिछड़ा है





किताबों की दुनिया - 248

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मेरा क़द 
मेरे बाप से ऊंचा निकला 
और मेरी मांँ 
जीत गई
*
ऐ जीवन के प्यारे दुख 
मेरे अंदर दिया जलाना 
बुझ मत जाना
*
मेरे बच्चे 
तेरी आंँखें, तेरे लब देखकर 
मैं सोचती हूंँ 
ये दुनिया इस बला की ख़ूबसूरत है 
तो फिर क्यों जंग होती है ?
*
एक तरफ बेटी है मेरी 
एक तरफ मेरी मांँ 
दोनों मुझको अक़्ल बताती रहती है 
बारी-बारी सबक पढ़ाती रहती हैं 
दो नस्लों के बीच खड़ी 
मैं खुद पर हंसती रहती हूंँ 
अपनी गिरहें आप ही कसती रहती हूंँ 
मेरे दोनों हाथ बंँधे
मेरा दर्द न जाने कोई
*
खेलने कूदने की उम्रों में 
इक ना इक भाई साथ रहता है 
नौजवानी में खुलकर हंँसने पर 
ख़ौफ़-ए-रुसवाई साथ रहता है 
और अब उम्र ढल गई है तो 
रंज-ए-तन्हाई साथ रहता है 
वो अकेली कभी नहीं होती
*
औरतें ब-ज़ाहिर जो 
खेतियाँ तुम्हारी हैं 
यूं भी तो हुआ अक्सर 
उनके चश्म-ओ-अबरू के  
सिर्फ़ इक इशारे पर 
खेत हो गए लश्कर 
ब-ज़ाहिर: बाहर से ,चश्म-ए-अबरु:आंँख और भँवें

अब जरूरी तो नहीं कि किसी नयी किताब पर लिखने का सिलसिला हमेशा उस क़िताब में छपी ग़ज़लों के शेरों से ही किया जाये, यदि उस किताब में बेहतरीन नज़्में भी हैं तो उनमें से ही चुनिंदा आपके सामने रख कर भी तो आगे बढ़ा जा सकता है।

छठे दशक की बात है। कराची के एक उपनगर 'मलीर'के घर के अंदरूनी कमरे में जो दस बारह साल की बच्ची सो रही है वो सुबह मुँह अँधरे गली में चीमटा बजा कर गाते हुए फ़कीर की सुरीली आवाज़ से आँखें खोल देती है। अभी बिस्तर में कसमसा ही रही है कि बकरियों का रेवड़ हाँकते हुए बाहर जो गली से गुज़र रहा है वो भी गाता जा रहा है, परिंदो की कलरव हर लम्हा तेज होती जाती है, वो बिस्तर से नीचे उतरे उससे पहले ही रेड़ी पर सब्जी बेचने वाले की सुरीली टेर उसे मुस्कुराने पर मजबूर कर देती है। ये सब आवाजें रोज उसके सुबह उठने के अलार्म हैं। बच्ची तैयार हो कर जिस किसी भी बस से स्कूल जाती है उसी बस में लतामंगेशकर के गाने बजते सुनाई देते हैं।शाम कहीं दूर मस्जिद में कव्वालियों के सुर तो किसी शादी वाले घर से मुहम्मद रफ़ी के गाने फ़जा में तैरते सुनाई देते हैं। अभी बच्ची के घर रेडियो नहीं आया है। लाउडस्पीकर भी बहुत कम बजते हैं लेकिन संगीत का दरिया हर ओर बहता सुनाई देता है। बच्ची इस संगीत को सुन मुस्कुराती है, खिलखिलाती है। जी हाँ ठीक पढ़ा ये पाकिस्तान के कराची की ही बात कर रहा हूँ, संगीत कब सरहदों में बंध सका है ?

अफ़सोस !! संगीत अब हमारी ज़िंदगी से ग़ायब हो गया है उसकी जगह शोर ने ले ली है। संगीत ने ही तो हमें  जानवरों से अलग किया हुआ है। संगीत जिस दिन हमारे बीच से ग़ायब हो गया उस दिन ये जो थोड़ा बहुत जानवरों और हममें फ़र्क बचा है वो मिट जाएगा। आप देखें धीरे धीरे मिट ही रहा है। हम अंदर से बेचैन हैं ,घुट रहे हैं ,दुखी हैं, अकेले हैं ,जल्दी ही अपना आपा खो देते हैं क्यूंकि हम मुस्कुराना भूल गए हैं, गुनगुनाना भूल गए हैं।    

फूलों की जबाँ की शाइ'र थी 
कांँटो से गुलाब लिख रही थी 

आंँखों से सवाल पढ़ रही थी 
पलकों से जवाब लिख रही थी 

फूलों में ढली हुई ये लड़की 
पत्थर पे किताब लिख रही थी
*
लड़कियांँ माओं जैसा मुकद्दर क्यों रखती हैं 
तन सहरा और आंँख समंदर क्यों रखती हैं 

औरतें अपने दुख की विरासत किसको देंगी 
संदूक़ों में बंद ये ज़ेवर क्यों रखती हैं 

वो जो रही है खाली पेट और नंगे पांँवों 
बचा बचा कर सर की चादर क्यों रखती हैं 

सुब्ह-ए-विसाल की किरनें हमसे पूछ रही हैं 
रातें अपने हाथ में ख़ंजर क्यों रखती हैं
*
यादों के बिस्तर पर तेरी ख़ुश्बू काढ़ूँ
इसके सिवा तो और मैं कोइ हुनर नहीं रखती

मैं जंगल हूंँ और अपनी तन्हाई पर ख़ुश 
मेरी जड़ें जमीन में है कोई डर नहीं रखती
*
सूना आंँगन तन्हा औरत लंबी उम्र 
खाली आंँखें भीगा आंँचल गीले होंठ

ये बच्ची कराची के उपनगर मलीर में रहती जरूर है लेकिन इसके घर में अवधी बोली जाती है। इस बच्ची के पिता वकील हैं जो मुल्क़ तक़सीम होने के कुछ अरसे बाद, बलरामपुर उत्तर प्रदेश से कराची जहाँ ये 25 दिसंबर 1956 को पैदा हुई, आ कर बस गए। माँ 1965 तक इसे गोद में लिए न कितनी बार सरहद पार अपने वतन बलरामपुर ले जाया करती। इस बच्ची को अपने बचपन में सुने अनीस के ढेरों मर्सिये याद हैं। इन्हें सुन सुन कर ये खुद भी नोहे और नात लिखने लगी। तब ये कोई छठी या सातवीं जमात में पढ़ती होगी। साथ पढ़ने वाले और मोहल्ले के बच्चे इसकी लिखी नात मजलिसों में सुनाते और ईनाम पाते। इसी उम्र में ये रेडिओ पाकिस्तान कराची से जुड़ गयी और बरसों जुड़ी रही। एक बार का वाकया है रेडिओ पर प्रोग्राम डायरेक्टर ने चूड़ी पर तुरंत एक छोटी सी नज़्म लिखने को कहा इन्होने लिख दी 
'तेरी भेजी हुई 
ये हरे काँच की चूड़ियाँ 
नर्म पोरों से 
उजली कलाई के नाज़ुक़ सफर तक 
लहू हो गईं '

ये मोहम्मद जिया-उल हक़ के कार्यकाल की बात है ,प्रोग्राम डाइरेक्टर ने उसे पढ़ कर कहा 'बीबी इसमें से लहू लफ्ज़ की जगह कोई और लफ्ज़ बरतो क्यूंकि लहू लफ्ज़ कविता कहानियां ग़ज़ल, नज़्म आदी में इस्तेमाल करने की सरकार की तरफ़ से पाबन्दी है। बच्ची ने साफ़ मना कर दिया और घर चली आयी। आप ज़रा लफ्ज़ की ताकत का अंदाज़ा लगाएं कि उसके इस्तेमाल भर से एक तानाशाह किस तरह ख़ौफ़ज़दा था। उस दिन इस बच्ची को भी लफ्ज़ की ताक़त का पता चला और उसने तय किया कि वो लफ्ज़ का दामन कभी नहीं छोड़ेगी।            

अपनी आग को जिंदा रखना कितना मुश्किल है
पत्थर बीच आईना रखना कितना मुश्किल है 

कितना आसाँ है तस्वीर बनाना औरों की 
खुद को पस-ए-आईना रखना कितना मुश्किल है

दोपहरों के ज़र्द किवाड़ों की ज़ंजीर से पूछ 
यादों को आवारा रखना कितना मुश्किल है
*
तेरे ध्यान का जिद्दी बालक मुझको सोता देख 
घुंँघरू जैसी आवाज़ों में रोने लगता है
*
लाख पत्थर हूं मगर लड़की हूंँ
फूल ही फूल हैं अंदर मेरे
*
ख्वाहिशें दिल में मचल कर यूं ही सो जाती हैं
जैसे अंगनाई में रोता हुआ बच्चा कोई
*
दिल कोई फूल नहीं है कि अगर तोड़ दिया 
शाख़ पर इससे भी खिल जाएगा अच्छा कोई 

रात तन्हाई के मेले में मेरे साथ था वो 
वरना यूंँ घर से निकलता है अकेला कोई
*
सुब्ह वो क्यारी फूलों से भर जाती थी 
तुम जिसकी बेलों में छुप कर आते थे 

उससे मेरी रूह में उतरा ही न गया 
रस्ते में दो गहरे सागर आते थे

ये बच्ची बहुत शर्मीली है। घर से स्कूल और स्कूल घर बस यही इसकी दुनिया है। वालिद हर छुट्टी के दिन इसे कराची से थोड़ा आगे खरीदे अपने खेतों पर पूरे परिवार के साथ ले जाते जहाँ कपास चुनती, खेतों में काम करती लड़कियों से ये बतियाती और उनके दुःख सुख सुनती। वालिद साहब का इंतेक़ाल जल्द ही हो गया तब इसकी माँ की उम्र ये कोई तीस बत्तीस की रही होगी।तब अपनी माँ के साथ ये अपनी नानी जो मात्र 24 साल की उम्र में ही बेवा हो गयीं थीं के पास रहने लगीं। नानी एक तरह से घर मुखिया हो गयीं। नानी जमींदार परिवार से थीं लिहाज़ा उनमें जमीन्दाराना ठसका भी था। घर में काम वालियों के साथ नानी का व्यवहार वही जमीन्दाराना था जबकि माँ की उन सबसे खूब दोस्ती थी। काम वालियाँ बच्ची की माँ से घंटो बातें करतीं और अपने दुखड़े सुनातीं। उनके दुखड़े सुन सुन कर बच्ची सोचती कभी मैं इनके बारे लिखूंगी। एक रजिस्टर में अपने ख़्याल जो कभी नज़्म होते कभी कहानी की शक्ल में वो दर्ज़ करती रहती। मात्र चौदह साल की उम्र से उनकी रचनाएँ प्रकाशित हो कर चर्चित होने लगी थीं.

स्कूल से कॉलेज और कॉलेज से यूनिवर्सिटी का सफ़र भी कट गया। कराची यूनिवर्सिटी से उर्दू में एम् ऐ करने के बाद भी उनका लिखना जारी रहा और इसे सँवारा मलीर की 'बज़्में इल्मो दानिश'नाम से होने वाली नशिस्तों ने। युवा और अनुभवी रचनाकार इन नशिस्तों में अपना क़लाम सुनाते जिन पर खुली बहस होती और युवाओं को इस सब से बहुत कुछ सीखने को मिलता। रेडिओ पाकिस्तान कराची पर भी उस वक़्त पाकिस्तान की बेहतरीन प्रतिभाएं काम करती थीं लिहाज़ा वहां से भी बच्ची ने बहुत कुछ सीखा। लगातार सीखने की ललक और अपनी विलक्षण प्रतिभा के कारण ये बच्ची, जिसे दुनिया 'इ'शरत आफ़रीन के नाम से जानती है, सबकी नज़रों में आ गयी आज उन पर पूरे उर्दू लिटरेचर को नाज़ है।

मैंने इक हर्फ़ से आगे कभी सोचा ही न था 
और वो हर्फ़ लुग़त में तेरी लिक्खा ही न था 
लुग़त: शब्दकोश 

मैंने कहना भी जो चाहा तो बयांँ कर न सकी
मुझमे लफ्जों को बरतने का सलीक़ा ही न था 

उसने मिलने की रह-ओ-रस्म न की तर्क मगर 
मैं ही चुप रह गई अब के वो अकेला ही न था
*
ये और बात की कम हौसला तो मैं भी थी 
मगर ये सच है उसे पहले मैंने चाहा था
*
यह नहीं ग़म कि मैं पाबंद-ए-ग़म-ए-दौराँ थी 
रंज ये है कि मेरी ज़ात मेरा ज़िन्दाँ थी 
पाबंद-ए-ग़म-ए-दौराँ: समय के दुखों को बाध्य ,ज़िन्दाँ: क़ैदखाना

सूखती जाती है अब ढलती हुई उम्र के साथ
बाढ़ मेहंदी की जो दरवाजे पे अपने हाँ थी 

पढ़ रहा था वो किसी और के आंँचल पे नमाज़ 
मैं बस आईना-ओ-क़ुर्आन लिए हैराँ थी
*
अ'दावतें नसीब हो के रह गईं 
मोहब्बतें रक़ीब हो के रह गईं 

परिंद हैं न आँगनों में पेड़ है 
ये बस्तियांँ अजीब हो के रह गईं

रिवायतों की क़त्ल-ग़ाह-ए-इश्क में 
ये लड़कियां सलीब हो के रह गईं

इ'शरत आफ़रीन के लिए अपने लिए नयी राह बनाना आसान नहीं था। उनसे पहले की कद्दावर शायरायें अदा जाफ़री, किश्वर नाहीद, फहमीदा रिआज़ और ज़ेहरा निग़ाह ने अपने लिए जो अलग राह बनाई उसके अलावा किसी और के लिए कोई नयी राह बनाना बेहद मुश्किल काम था लेकिन इशरत ने वो काम किया और अपनी अलग पहचान बनाई। इ'शरत ने जो देखा, सुना, भुगता वो लिखा और पूरी ईमानदारी से लिखा। मज़े की बात ये है कि ग़ज़ल कहना उन्होंने कहीं से सीखा नहीं हालाँकि उनके अब्बा अच्छे शायर थे और उनके यहाँ नशिस्तें हुआ करती थीं लेकिन इ'शरत ने उनमें कभी शिरकत नहीं की। इशरत के चाचा बेहतरीन शायर थे जब उन्हें कहीं से पता चला कि इशरत बीबी शेर कहती है तो उन्होंने एक तरही मिसरा इशरत को ग़ज़ल कहने के लिए दिया। जब इ'शरत साहिबा ने तुरंत ही उस पर ग़ज़ल कह कर चाचा के पास भिजवाई तो वो पढ़कर हैरान रह गए और अपने भाई याने इ'शरत के अब्बू से बोले कि भाई जान इ'शरत बीबी को आप कभी शेर कहने से रोकना मत. ऊपर वाले ने ख़ास हुनर इसे अता फ़रमाया है। आप देखना एक दिन ये अपना और आपका नाम पूरी दुनिया में रौशन करेगी।अपने लेखन की शुरूआत को इ'शरत साहिबा एक शेर में यूँ बयाँ करती हैं :

मैंने जिस दिन लिखना सीखा पहला शेर लिखा 
लिख लिख कर इक हर्फ़ मिटाया फिर ता'देर लिखा   

आज इ'शरत आफ़रीन साहिबा की रेख़्ता बुक्स द्वारा देवनागरी में प्रकाशित किताब 'एक दिया और एक फूल'हमारे सामने है जिसमें इ'शरत साहिबा की चुनिंदा 61 ग़ज़लें और 48 बेहतरीन नज़्में संकलित हैं। ये किताब आप रेख़्ता बुक्स नोएडा से या फिर अमेजन से ऑन लाइन मँगवा सकते हैं।


कपास चुनते हुए हाथ कितने प्यारे लगे 
मुझे ज़मीं से मोहब्बत के इस्तिआरे लगे 
इस्तिआरे: रूपक

मुझे तो बाग भी महका हुआ अलाव लगा 
मुझे तो फूल भी ठहरे हुए शरारे लगे
*
यूंँ ही ज़ख़्मी नहीं है हाथ मेरे 
तराशी मैंने इक पत्थर की लड़की 

अना खोई  तो कुढ़ कर मर गई वो 
बड़ी हस्सास थी अंदर की लड़की
हस्सास: संवेदनशील
*
वहशत सी वहशत होती है 
ज़िंदा हूंँ हैरत होती है 
वहशत :उलझन, डर 

सारे क़र्ज़ चुका देने की
कभी कभी उज्लत होती है
उज्लत: जल्दी

अपने आप से मिलने में भी 
अब कितनी दिक्क़त होती है

शाम को तेरा हंँस कर मिलना 
दिन भर की उज् रत होती है
उज् रत: मजदूरी, मेहनताना
*
यूंँही किसी के ध्यान में अपने आप में गाती दोपहरें
नर्म गुलाबी जाड़ों वाली बाल सुखाती दोपहरें 

सारे घर में शाम ढले तक खेल वो धूप और छाँवों का 
लिपे-पुते कच्चे आंँगन में लोट लगाती दोपहरें

खिड़की के टूटे शीशों पर एक कहानी लिखती हैं 
मंढे हुए पीले काग़ज से छन कर आती तो दोपहरें

सन 1985 में उनका विवाह भारत के सय्यद परवेज़ जाफ़री से हो गया जो उस वक़्त वक़ालत के साथ-साथ अच्छी ख़ासी शायरी भी करते थे। सय्यद परवेज़ मशहूर शायर जनाब अली सरदार जाफ़री साहब के भतीजे हैं। शादी के बाद अली सरदार जाफ़री साहब ने अपने यहाँ दोनों को दावत पर बुलाया और हँसते हुए कहा कि देखो जिस तरह एक जंगल में दो शेर साथ नहीं रहते इसी तरह एक घर में दो शायरों का रहना भी मुमकिन नहीं है लिहाज़ा तुम दोनों आपस में तय करलो कि कौन शायरी छोड़ेगा। तय करने की नौबत ही नहीं आयी क्यूंकि चचा जान का जुमला पूरा करने से पहले ही परवेज़ साहब ने मुस्कुराते हुए कहा कि शायरी तो इ'शरत ही करती है और वो ही करती रहेगी। मैं भला और मेरी वकालत भली। इशरत साहिबा पांच बरस भारत में रहीं। इस दौरान उनके चाहने वालों की तादात में भरी इज़ाफ़ा हुआ। इस्मत चुगताई को उनकी नज़्में बहुत अच्छी लगती थीं उन्होंने इशरत से कहा भी कि 'तुम्हारी नज़्मों में वही कहानियां हैं जिन्हें देख या सुन कर मैंने खून थूका था'। तुम्हारी नज़्मों में कहानियां हैं ये बात पाकिस्तान के बड़े कहानीकार इंतज़ार हुसैन साहब ने भी उन्हें कहा था। 

उनकी नज़्म 'ये बस्ती मेरी बस्ती है'को उर्दू की बेहतरीन नज़्मों में से एक माना गया है। ये नज़्म उन्होंने कराची की एक मस्जिद में हुए बम्ब धमाके के बाद कही थी। ये मस्जिद उनके मोहल्ले में थी। जब अमेरिका से इस धमाके के बारे में इशरत ने अपनी अम्मी से फोन पर पूछा तो उनकी अम्मी ने कहा कि 'बेटा सब ठीक हैं, अपना कोई घायल नहीं हुआ हाँ कुछ बंजारने और उनके बच्चे अलबत्ता इस धमाके से अपनी जान गवाँ बैठे हैं।'अम्मी की ये बात इ'शरत के दिल पर छुरी की तरह लगी कि अपना कोई घायल नहीं हुआ तब उनके दिल से आवाज़ आयी तो फिर जो घायल हुए वो किनके हैं। मेरी गुज़ारिश है कि रेख़्ता की साइट पर इस नज़्म को पढ़ें या इशरत आफ़रीन को इसे पढ़ते हुए यू ट्यूब पर देखें और जाने कि लफ्ज़ किस तरह आपके दिल पर असर करते हैं। इसी तरह की एक और अलग विषय पर उनकी नज़्म 'गुलाब और कपास'बार बार पढ़ने लायक है।    

दिन तो अपना इक खिलंदरा दोस्त है 
शब वो हमजोली जो सब बातें करे 

मुझ में एक मासूम सी बच्ची जो है 
मुझसे पहरों बे-सबब बातें करे
*
तमाम रात में अपनी ही रोशनी में जली 
तमाम रात किसी ने मुझे बुझाया नहीं
*
अब ये दिल भी कितना बोझ सहारेगा 
मान भी जाओ कश्ती बहुत पुरानी है

आग बचा कर रखना अपने हिस्से की 
आने वाली रात बड़ी बर्फानी है 

तेरी खातिर कितना खुद को बदल दिया 
अपने ऊपर मुझको भी हैरानी है 
*
क्या दिन थे जब कुन्जी ख़ुशी ख़ज़ाने की 
अपने धूल-भरे हाथों में होती थी 

कच्चे रंगों का आंँचल और भीगे ख़्वाब 
कितनी मुश्किल बरसातों में होती थी
*
कहांँ से लाएंगे बच्चों के वास्ते अपने 
गई सदी का खुला आसमाँ सुनहरी धूप 

कहानियों में सुनाया करेंगे आगे लोग 
सितारे फूल धनक तितलियांँ सुनहरी धूप
*
इ'शरत आफरीन नब्बे के दशक के शुरुआत में अपने परिवार सहित अमेरिका चली गयीं और अब वहीँ अपने तीन बच्चों के साथ ह्यूस्टन, टेक्सास में रहती हैं। उनकी उर्दू में तीन किताबें 'कुंज पीले फूलों का' 1985 में ,'धूप अपने हिस्से की' 2005 में और 'दिया जलाती शाम'सं 2017  मंज़र-ऐ आम पर आयीं और बहुत चर्चित हुईं। हाल ही में उनकी कुलियात 'ज़र्द पत्तों का बन'भी मंज़र-ऐ-आम पर आयी है। 'उनकी नयी किताब 'परिंदे चहचहाते हैं'जल्द ही मंज़र-ऐ-आम पर आने वाली है। 
 
पूरी दुनिया की उन यूनिवर्सिटीज में जहाँ जहाँ 'जेंडर स्टडीज़'पढाई जाती हैं वहाँ वहाँ इ'शरत साहिबा की नज़्में और ग़ज़लें उनके सिलेबस में शामिल हैं। इशरत साहिबा को दुनिया के कोने में होने वाले सेमिनार, फेस्टिवल्स और मुशायरों में अपना कलाम पढ़ने को बड़े आदर से बुलाया जाता है।       

इशरत साहिबा को मिले अवार्ड्स की लिस्ट भी ख़ासी लम्बी है. आखिर में पेश हैं उनकी ग़ज़लों के कुछ और चुनिंदा शेर।   .
    
वही बेचैन रखते हैं ज़ियादा 
अभी तक हर्फ़ जो लिक्खे नहीं हैं 

ये दरिया ख़ुश्क है ऐसा नहीं बस 
किसी के सामने रोते नहीं हैं 

समझ में आ गई जिस रोज दुनिया 
उसी दिन से तो दुनिया के नहीं हैं
*
पंख पखेरू डाली डाली चहक रहे हैं 
आदमी के हिस्से में ऐसा सन्नाटा 

अनजानी दीवार खड़ी है हर घर में 
अंदर बैठा है अनदेखा सन्नाटा
*
इसे कुरेद के देखो तो शहर निकलेगा 
तुम्हारे सामने ये रेत का जो टीला है
*
जिंदगी देर से हम पर तेरे असरार खुले 
इतनी सादा भी न थी जितना समझते रहे हम 
असरार: रहस्य, भेद
*
कुछ हमीं कार-ए-जहांँ में उन दिनों उलझे न थे 
हमसे मिलने में उसे भी काम याद आए बहुत
*
कैसा होगा आधी उम्र सफर में रहना 
आधी उम्र अकेले एक ही घर में रहना
*
खोखला पेड़ खड़ा है लेकिन 
उसका एहसास-ए-अना रक़्स में है
एहसास-ए-अना: स्वत्व का भाव

किताबों की दुनिया - 249

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हर ख़ुशी क़दम चूमे कायनात की उसके
रास आ गईं जिसको सुहबतें फ़क़ीरों की

सूर, जायसी, तुलसी और कबीर, ख़ुसरो को
बेबसी से तकती हैं दौलतें अमीरों की

जिस्म की सजावट में रह गए उलझ कर जो
रूह तक नहीं पहुंची फ़िक्र उन हक़ीरों की
हक़ीर : तुच्छ
*
वो अरमाँ अब तो निकलेंगे रहे जो मुद्दतों दिल में
ख़ुदा के फ़ज़्ल से चलने लगा मेरा क़लम कुछ-कुछ

मेरे एहसास पर भी छा गई वहदानियत देखो
मुझे भी आ रही है अब तो ख़ुशबू-ए-हरम कुछ कुछ
वहदानियत: ईश्वर के एक होने का सिद्धांत
*
बला की शोख़ है सूरज की एक-एक किरन
पयामे ज़िंदगी हर इक किरन की ख़ुशबू है

गले मिली कभी उर्दू जहांँ पे हिंदी से
मेरे मिज़ाज में उस अंजुमन की ख़ुशबू है
*
रोएंँगे तन्हाई में
क़ुर्बत में तो हंसलें हम
क़ुर्बत:सामीप्य

छोटी छोटी चीज़ों से
बच्चों जैसे बहलें हम
*
जिसकी फ़ितरत थी हमेशा से सताइश करना
क्या पता कैसे उसे आ गया साज़िश करना
सताइश: तारीफ़

नब्बे के दशक की एक ख़ुशनुमा सुबह। महालक्ष्मी रेसकोर्स मुंबई में एक शख़्स पीच कलर की टी शर्ट और ख़ाकी पैंट पहने मॉर्निंग वॉक पर है। चलते हुए लोगों से मुस्कुरा कर बातें करते हुए घोड़ों की पीठ पर प्यार से धौल जमाते हुए और जॉकियों की भीड़ में क़हक़हे लगाते हुए इसे रोज़ देखा जा सकता है। वॉक के बाद घोड़ों के ट्रेनर और जॉकियों से गप्पे लगाते हुए ये शख़्स वहीं के मशहूर गैलोप रेस्टॉरेंट में नाश्ता करता है। रेसकोर्स ही नहीं दुनिया के हर कोने में ग़ज़ल का शायद ही कोई ऐसा दीवाना हो जो इसे न जानता हो। इस हरदिल अज़ीज़ शख़्स का नाम जगजीत सिंह है जो घुड़दौड़ का आशिक़ है। आज गैलोप में ज़्यादा भीड़भाड़ नहीं है ,जगजीत सिंह साहब दो तीन दोस्तों के साथ अपनी पसंद की टेबल पर जा बैठे हैं। उनकी नज़रें अभी हाल ही में खरीदे घोड़े पर हैं जिसे ट्रेनर अपने हिसाब से दौड़ा रहा है। तभी एक लम्बा दुबला पतला इंसान टेबल पर आ कर जगजीत सिंह साहब से कहता है 'देख लेना सर, जल्द ही आपका घोड़ा रेस जीतेगा।'जगजीत साहब ने मुस्कुराते हुए उस शख़्स की और देख कर कहा 'आपके मुँह में घी शक्कर हुज़ूर लेकिन आपकी तारीफ़ ?'जवाब में उस लम्बे दुबले पतले शख़्स ने कहा कि सर आपके सवाल का जवाब अपने दो शेर में देने की गुस्ताख़ी कर रहा हूँ :

यूँ तो लोगों के बीच रहता हूँ
पर हक़ीक़त में मैं अकेला हूँ

मुझको दुनिया 'रक़ीब'कहती है
क्या बताऊँ किसी से मैं क्या हूँ

'अरे वाह वाह !! सुभानअल्लाह आप तो ग़ज़ब के शायर हैं, बैठिये कुछ और भी सुनाइए'। जगजीत साहब चहकते हुए बोले।'जी नहीं, मैं गैलोप का एडमिनिस्ट्रेशन देखता हूँ बहुत दिनों से आपसे बात करना चाहता था लेकिन हिम्मत ही नहीं हो रही थी आज पता नहीं कैसे अचानक अपने आपको रोक नहीं पाया उस शख़्स ने शर्माते हुए जवाब दिया। इस पर जगजीत जी ने हँसते हुए कहा 'अरे नहीं नहीं आज तो आप मेरे साथ बैठिए, मैं आपको चाय बना कर पिलाता हूँ फिर आप अपने दोस्त अहबाब से कहना कि मैं वो शायर हूँ जिसे जगजीत जी ने अपने हाथों से चाय बना कर पिलाई'उस दिन के बाद से इस शख़्स का जगजीत जी के साथ एक आत्मीय रिश्ता सा बन गया।

अक़्ल पर पत्थर हमारी पड़ गए हैं इसलिए
ख़ुद समझते ही नहीं औरों को समझाते हैं हम

लुत्फ़ आता है सितम तक़दीर के सहकर बहुत
मेहरबाँ तक़दीर होती है तो घबराते हैं हम
*
रस्मन हैं साथ-साथ वो चाहत नहीं है अब
रिश्तों में पहले जैसी तमाज़त नहीं है अब
तमाज़त: गर्मी की शिद्दत, तीव्रता
*
ख़ुदा को दैरो-हरम में कब से, तलाश करते हैं उसके बंदे
हर एक ज़र्रे के लब पे ख़ालिक़ की चारसू बंदगी मिलेगी

जहाने फ़ानी में रस्मे उल्फ़त का ख़्वाब लेकर 'रकी़ब'आया
नहीं पता था, नहीं ख़बर थी, यहांँ भी बेगानगी मिलेगी
*
कुछ को तो शबो-रोज़ कमाने की पड़ी है
पानी की तरह कुछ को बहाने की पड़ी है

झुकती ही चली जाए कमर बोझ से फिर भी
मुफ़लिस को अभी और उठाने की पड़ी है
*
गर्दिश ए वक़्त ख़ुद ही पशेमान हो
राहे पुरख़ार से यूंँ गुज़र जाइए
*
उम्र भर जो रहे देखते आईना
आईने से उन्हें आज परहेज़ है
*
डसा है सांंप ने अक्सर किसी को
मुक़द्दर में किसी के सीढ़ियांँ हैं

आप सोच रहे होंगे कि इस घटना का ज़िक्र ज़रूर इस शख़्स ने ख़ूब नमक मिर्च लगा कर लोगों से किया होगा क्यूंकि ये कोई साधारण घटना नहीं है। नब्बे के दशक में जगजीत साहब की तूती बोलती थी। उनके कॉन्सर्ट के टिकटों की कालाबाज़ारी हुआ करती थी और जिसके हाथ टिकट आ जाता वो अपने आप को ख़ुश-क़िस्मत समझता। उनके नए रेकार्डों और कैसेटों के आते ही ख़रीदारों की भीड़ लग जाती थी। जिसकी एक झलक पाने को लोग घंटों इंतज़ार करते थे ऐसे जगजीत सिंह आपको ख़ुद चाय बना कर ऑफर करें क्या ये साधारण बात है ? नहीं हरगिज़ नहीं लेकिन शायद आप इस शख़्स को अच्छे से नहीं जानते। इस स्वभाव से शर्मीले शख़्स ने जिसे लोग 'सतीश शुक्ला 'रक़ीब'के नाम से जानते हैं इस बात का ज़िक्र शायद ही एक आध जने से किया होगा। मुझे से भी इन्होंने अचानक एक दिन मेरे साथ खोपोली जाते हुए कार में इस घटना का ज़िक्र बेहद सरसरी तौर पर किया था तब तक जगजीत साहब इस दुनिया-ए-फ़ानी को अलविदा कह चुके थे और ताकीद भी की थी कि ये बात हर किसी को न बतायें क्यूंकि लोग विश्वास नहीं करेंगे और बातें बनाएंगे।

आज हम उन्हीं सतीश शुक्ला 'रक़ीब'साहब के पहले ग़ज़ल संग्रह "सुहबतें फ़क़ीरों की"को पढ़ रहे हैं और आपसे शेयर भी कर रहे हैं। इस सजिल्द किताब को 'भारतीय साहित्य संग्रह'नेहरू नगर, कानपुर ने सन् 2021 अगस्त में प्रकाशित किया है। ये किताब अमेज़न पर ऑन लाइन उपलब्ध है इसे आप प्रकाशक से 7007810944 पर फ़ोन कर के भी मँगवा सकते हैं।
   

       बनकर जो उड़ा भाप तो बरसात में लौटा
इक बूंद हूँ पानी की समंदर में मिला हूँ

हंँस-हंँस के सितम अपनों के झेले हैं मुसलसल
रिश्तो की अज़िय्यय का सफ़र काट रहा हूँ
अज़िय्यत :यातना
*
नहीं कुछ गिला कि तूने मुझे ठोकरों पे रक्खा
मगर आरज़ू यही है कि गले का हार होता
*
है ज़रूरी इबादत में दिल भी झुके
बेसबब सर झुकाने से क्या फ़ायदा
*
सुनो ए जुगनुओ तुम जाओ जा के सो जाओ
मेरे नसीब में है जागरण ख़ुदा के लिए

रक़ीब ख़ार सिफ़त लोग मुश्तइल होंगे
न छेड़ ज़िक्रे-गुले ख़ंदा-ज़न ख़ुदा के लिए
*
शेख़ हम होंगे जुदा वादा बिरहमन यार का
जब मुझे भगवान या तुझको ख़ुदा मिल जाएगा
*
देर से जाऊंँगा दफ़्तर तो कटेगा वेतन
वो इसी डर से मुझे जल्दी जगा देते हैं

क्यों न बीमार के हक़ में हों दुआएं भी 'रक़ीब'
कुछ तबीब ऐसे हैं जो सिर्फ़ दवा देते हैं
तबीब: चिकित्सक
*
अल्लाह इस अज़ाब से हम को बचाए रख
बनती बिगाड़ सकता है एहसासे कमतरी

चुंबकीय व्यक्तित्व के स्वामी सतीश शुक्ला जी से मेरी पहचान मुंबई की नशिस्त की दौरान सन् 2009 में हुई थी। मुझे वो पुराने क्रिकेट खिलाड़ी सलीम दुर्रानी जैसे लगे जो दर्शकों की फ़रमाइश पर छक्का जड़ दिया करते थे। पहली नज़र में ही मैं उनकी सादा और शालीन शख़्सियत का क़ायल हो गया। मुंबई जैसे महानगर में इस क़दर दूसरों के लिए प्यार और आदर से भरा इंसान मिलना मुश्किल है।

चार अप्रेल 1961 को लख़नऊ में सतीश जी का जन्म हुआ। पिता सिविल इंजिनियर होने के साथ साथ अच्छे तैराक और कवि भी थे। उर्दू लिपि (नस्तलीक़ ) से भी वाक़िफ़ थे उर्दू शायरी की किताबें बड़े चाव से पढ़ते थे। जिस मोहल्ले में घर था वो मोहल्ला मुस्लिम बहुल था सिर्फ़ 5-7 हिन्दू परिवार रहते थे। मोहल्ले में उनके घर के पास ही मस्जिद थी और मस्जिद से पांच मकान आगे शिव मंदिर। पाँच वक़्त की अज़ान और सुबह-शाम आरती की घंटियों की आवाज़ का असर सतीश जी के दिल-ओ-दिमाग़ में कुछ इस तरह घर कर गया कि उन्हें पूजा, अर्चना और नमाज़ में कोई फ़र्क़ ही महसूस नहीं होता। लखनऊ की गंगा-जमुनी तहज़ीब उनमें रच बस गयी, यही कारण है कि उनकी ग़ज़लें उर्दू प्रेमियों को भी अच्छी लगती हैं और हिंदी के आशिक़ों को भी। सन् 1980-81 में अलीगढ़ के संक्षिप्त प्रवास के दौरान ही उर्दू शायरी उनकी ज़िन्दगी अहम हिस्सा बन गयी जो मुंबई आ कर परवान चढ़ी।
मुझे लगता है कि सतीश जी की कुंडली में कुछ चक्कर है तभी वो एम.ए., बी.एड. और कम्यूटर में डी.सी.पी.एस. की डिग्रियाँ हासिल करने के बावज़ूद कहीं टिक कर नौकरी कर नहीं पाए। फ़तेहगढ़, उत्तर प्रदेश के एस.जी.एन.डिग्री कॉलेज में प्रवक्ता की नौकरी छोड़ छाड़ के ये मुंबई चले आये और यहीं के हो कर रह गए। मुंबई में भले ही उन्होंने रोज़गार के लिए ख़ूब पापड़ बेले लेकिन हार नहीं मानी। ज़िन्दगी की जद्दोजहद को वो अपनी शायरी में ढालते रहे। शायरी की बदौलत ही मुंबई में उनके चाहने वालों की तादाद में ख़ूब इज़ाफ़ा हुआ।

मुझे लगता है कि सतीश जी की कुंडली में कुछ चक्कर है तभी वो एम.ऐ. बी.एड. और कम्यूटर में डी सी पी एस की डिग्रियाँ हासिल करने के बावज़ूद कहीं टिक कर नौकरी कर नहीं पाए। फतेहगढ़, उत्तर प्रदेश के एस.जी.एन.डिग्री कॉलेज में प्रवक्ता की नौकरी छोड़ छाड़ के ये मुंबई चले आये और यहीं के हो कर रह गए। मुंबई में भले ही उन्होंने रोजगार के लिए खूब पापड़ बेले लेकिन हार नहीं मानी। ज़िन्दगी की जद्दोज़हद को वो अपनी शायरी में ढालते रहे। शायरी की बदौलत ही मुंबई में उनके चाहने वालों की तादाद में खूब इज़ाफ़ा हुआ

होठों पे कभी जिनके दुआ तक नहीं आती
जीने की उन्हें कोई अदा तक नहीं आती

मुश्किल से महीने में बचाता है वो जितना
उतने में तो खांँसी की दवा तक नहीं आती

पछतायेगा मज़लूम पर ज़ालिम न जफ़ा कर
क़ुदरत की तो लाठी की सदा तक नहीं आती
*
है ज़रूरी बहुत समझ लेना
बंदगी क्या है और ख़ुदा क्या है

है अमानत ये ज़िंदगी उसकी
ये बतायें कि आपका क्या है

दिल किसी का कभी नहीं रखता
इक मुसीबत है, आईना क्या है
*
बता सको तो बताओ ये क़ाफ़िले वालों
कि तुमसे पहले यहांँ पर क़याम किसका था
*
बस ख़ुदा का शुक्र कह कर टाल देता है हमें
हाल जब भी पूछते हैं इस दिले-बिस्मिल से हम

कुछ तो है, जो कुछ नहीं तो, फिर ये उठता है सवाल
पास रहकर दूर क्यों हैं दोस्तो मंज़िल से हम
*
रिश्ता गुलों से है न गुलिस्तांँ से रब्त है
गुलशन में जी रहे हैं मगर ख़ार की तरह


अपनी शायरी के हवाले से सतीश जी ने इस किताब की भूमिका में लिखा है कि 'माया नगरी मुंबई में मेहनत मज़दूरी करके जीवन यापन करने वाले मुझ जैसे व्यक्ति के लिए किसी उस्ताद का गंडाबंद शागिर्द बन कर रह पाना तो मुमकिन नहीं हुआ सिर्फ़ कुछ बुज़ुर्ग मित्रों की रहनुमाई हासिल हुई जिनमें सर्वप्रथम श्री गणेश बिहारी 'तर्ज़'साहिब , कृष्ण बिहारी 'नूर'साहिब क़मर जलालाबादी साहिब, नक़्श लायलपुरी साहिब, इब्राहिम 'अश्क'साहिब, आरिफ़ अहमद साहिब ओबैद आज़म आज़मी साहिब और सादिक़ रिज़वी साहिब वो नाम हैं जिन्होंने न सिर्फ़ ख़्याल और अरूज़ के ऐतबार से मेरी काविशों पर नज़र रखी बल्कि बेशुमार लोगों से बड़ी आत्मीयता से परिचय भी कराया। सतीश जी 'तर्ज़'साहब को अपना उस्ताद मानते थे और उनका ज़िक्र अक्सर मुझसे किया करते थे। 'तर्ज़'साहब की 'किताब से मेरा परिचय भी उन्होंने ही करवाया जिस पर मैंने अपने ब्लॉग पर लिखा भी था। 'तर्ज़'साहब की याद में इस्कॉन मंदिर मुंबई, जहाँ सतीश जी सहायक प्रबंधक पर कार्यरत हैं, के हॉल में सतीश जी द्वारा कराये गए मुशायरे का मैं चश्मदीद गवाह हूँ जिसमें मुंबई के नामी शायरों ने शिरक़त की थी।

सतीश जी को मुंबई और मुंबई के बाहर बहुत से पुरुस्कारों और सम्मानों से नवाज़ा जा चुका है और ये सिलसिला मुसलसल जारी है। उनकी रचनाएँ शाइर, द उर्दू टाइम्स, बे-बाक (उर्दू ), जहाँनुमा (उर्दू), नया दौर (उर्दू), अदबी देहलीज़ ,ग़ज़ल के बहाने, अरबाबे क़लम छंद प्रभा, गीत गागर जैसी प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में छप चुकी हैं और छप रही हैं। आकाशवाणी-प्रसार भारती मुंबई के संवादिता चैनल से काव्यपाठ का प्रसारण भी हो चुका है। जल्द ही उनका दूसरा काव्य संग्रह 'अभी सीख रहा हूँ'मंज़र-ऐ-आम पर आने वाला है उसके लिए मैं उन्हें अग्रिम बधाई देता हूँ। आप भी सतीश जी को उनके वर्तमान और आने वाले ग़ज़ल संग्रह के लिए उन्हें 9892165892पर फ़ोन कर के बधाई दे सकते हैं।

सतीश जी के जीवन का सम्बल उनकी विदुषी पत्नी अनुराधा और मेधावी बेटी सागरिका हैं जो हर परिस्थिति में उनके साथ चट्टान की तरह खड़ी नज़र आती हैं।

अंत में प्रस्तुत हैं उनकी किताब से लिए कुछ और चुनिंदा अश'आर-

फ़ज़ाओं में जो तल्ख़ी है जलाकर ख़ाक कर डालो
बुझाओ फिर उसे ऐसे न हो कोई शरर पैदा

सिवाए ख़ार के हासिल न होगा कुछ बबूलों से
शजर ऐसे लगाओ जिनपे हों मीठे समर पैदा
*
कम पड़े जब हाथ मेरे मांँ का आंँचल मिल गया
है सितमगर भी पशेमाँ ज़ुल्म अब ढाए कहांँ
*
दूरियांँ कम कीजिए करते नहीं क्यों
जाने कब से कह रहा है शामियाना

धूप, बारिश और हवा के ज़ुल्म सारे
मुस्कुरा कर सह रहा है शामियाना
*
दिल ही मेरा तोड़ा है सोचता हूंँ यारों ने
शुक्र है ख़ुदा मेरे सर मेरा सलामत है
*
पूछूँगा मैं लुक़मान से ये रोज़े-क़यामत
कैसा है मरज़ इश्क़, दवा क्यों नहीं आती
*
मैं तुझे डूबने नहीं दूंगा
सिर्फ़ कहने को एक तिनका हूंँ
*
दूरी भी रही और नहीं दूर रहे हम
ये साथ गुज़ारे हुए लम्हों का असर था
*
दौलत का चंद रोज़ में यूं जादू चल गया
कल तक जो आदमी था वो पत्थर में ढल गया।





किताबों की दुनिया - 250

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इश्क़ का राग जो गाना हो, मैं उर्दू बोलूंँ 
किसी रूठे को मनाना हो, मैं उर्दू बोलूंँ 

बात नफरत की हो करनी तो ज़बानें हैं कई 
जब मुझे प्यार जताना हो, मैं उर्दू बोलूंँ 

उर्दू ज़बान से बेइंतहा मुहब्बत करने वाले हमारे आज के शायर से तमाम उर्दू और हिंदी पढ़ने वाले तो मुहब्बत करते ही हैं इसके अलावा जितने भी देश-विदेश के बड़े ग़ज़ल गायक हैं वो भी इनकी ग़ज़लों के दीवाने हैं । यही कारण है कि इनकी ग़ज़लों को इतने जाने माने गायकों ने अपना स्वर दिया है कि यहाँ उन सब का नाम देना तो संभव नहीं है अलबत्ता कुछ का नाम बता देता हूँ ताकि सुधि पाठकों को उनके क़लाम के मयार और लोकप्रियता का अंदाज़ा हो जाये। इस फेहरिश्त की शुरुआत जनाब चन्दन दास जी से होती है जो जगजीत सिंह जी, पंकज उधास,अनूप जलोटा, तलत अज़ीज़ ,भूपेंद्र -मिताली, अनुराधा पौडवाल, सुरेश वाडेकर, रेखा भारद्वाज, पीनाज़ मसानी , ग़ुलाम अब्बास खान , शिशिर पारखी और सुदीप बनर्जी पर भी ख़तम नहीं होती बल्कि ग़ज़ल गायक राजेश सिंह तक जाती है। यहाँ मैं ख़ास तौर पर गायक 'राजेश सिंह'साहब का ज़िक्र जरूर करना चाहूंगा जिन्होंने हमारे आज के शायर के क़लाम को जिस अनूठे अंदाज़ में गाया है उसकी मिसाल ढूंढें नहीं मिलती।
 
उम्र भर कुछ न किया जिसकी तमन्ना के सिवा 
उसने पूछा भी नहीं मेरी तमन्ना क्या है 

इश्क़ इक ऐसा जुआ है जहांँ सब कुछ खोकर 
आप ये जान भी पाते नहीं खोया क्या है
*
मेरे अंदर जो इक फ़क़ीरी है 
यही सबसे बड़ी अमीरी है 

तुझसे रिश्ता कभी नहीं सुलझा 
इसकी फ़ितरत ही काश्मीरी है
*
अश्क का नाम भी हंसी रख कर 
हमने ग़म से निजात पायी है
*
काश लौटे मेरे पापा भी खिलौने लेकर 
काश फिर से मेरे हाथों में ख़ज़ाना आए
*
इल्म आए ना अगर काम किसी मुफ़लिस के 
आ के मुझसे मेरी दानाई को वापस ले ले 

या तो सच कहने पर सुक़रात को मारे न कोई 
या तो संसार से सच्चाई को वापस ले ले
*
हर सम्त क़त्ले आम है मज़हब के नाम पर 
सारी अक़ीदतों की खुदापरवरी की ख़ैर 

उर्दू ग़ज़ल के नाम पर चलते हैं चुटकुले 
फ़ैज़ो-फ़िराक़ो-मीर की उस साहिरी की ख़ैर
साहिरी: जादूगरी

हमारे आज के शायर जनाब अजय पांडेय 'सहाब'का जन्म 29 अप्रेल 1969 को रायपुर, छत्तीसगढ़, में हुआ जहाँ उस समय वहाँ न तो कोई उर्दू बोलता था न लिखता था और न ही कोई समझता था। हर तरफ सिर्फ़ और सिर्फ़ हिंदी का ही बोलबाला था। उनके घर का माहौल भी हिन्दीमय था। उनके परदादा श्री मुकुटधर पांडेय ने अपना समस्त जीवन हिंदी को समर्पित कर दिया था। मात्र 14 वर्ष की उम्र में उनकी पहली कविता आगरा से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'स्वदेश बांधव'में प्रकाशित हुई तथा 24 वर्ष की आयु में उनका पहला कविता संग्रह ‘पूजा के फूल’प्रकाशित हुआ। श्री मुकुटधर पांडेय जी की कविता 'कुरकी के प्रति'को पहली छायावादी कविता और उन्हें छायावाद का जनक माना जाता है। भारत सरकारद्वारा उन्हें सन् 1976 में `पद्म श्री’से नवाजा गया। पं० रविशंकर विश्‍वविद्यालयद्वारा भी उन्हें मानद डी लिटकी उपाधि प्रदान की गई। परदादा के अलावा दादा और पिता भी हिंदी प्रेमी थे और तो और स्वयं अजय जी ने भी हिंदी साहित्य की नेशनल कॉम्पिटिशन में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। तो फिर ऐसा क्या हुआ कि अजय जी हिंदी छोड़ उर्दू से मुहब्बत करने लगे ?

बात तब की है जब अजय जी कोई दस-बारह बरस के रहे होंगे। अजय जी की माताजी को गीत, ग़ज़ल और संगीत का बेहद शौक था,अभी भी है । घर के कैसेटप्लेयर पर अक्सर संगीत के कैसेट बजते। उन्हीं दिनों जगजीत सिंह-चित्रा सिंह जी की गायी ग़ज़लों का कैसेट 'दी अनफॉर्गेटबल'धूम मचा रहा था। अजय जी की माताजी उसे खूब सुना करतीं । एक दिन उस कैसेट में सईद राही जी की ग़ज़ल 'दोस्त बन बन के मिले --'पर अजय जी का ध्यान गया। उस ग़ज़ल में एक शेर है 'मैं तो अख़लाक़ के हाथों ही बिका करता हूँ, और होंगे तेरे बाज़ार में बिकने वाले', बालक अजय ने अख़लाक़ शब्द को इकलाख समझा और दौड़ते हुए अपनी माताजी के पास गए और उन से बोले कि देखिये ये गायक 'इक लाख'को कैसे गलत तरीके से 'अख़लाक़'बोल रहे हैं। माताजी ने हँसते हुए उन्हें बताया कि नहीं ये लफ्ज़ 'इक लाख'नहीं 'अख़लाक़'याने नैतिकता है और ये उर्दू ज़बान का लफ्ज़ है।

अगर यूँ कहा जाय कि अजय जी की शायरी की गंगा का गोमुख 'अख़लाक़'लफ्ज़ है तो ये गलत न होगा। इस एक लफ्ज़ ने उन्हें उर्दू ज़बान सीखने को प्रेरित किया।

वही ग़ालिब है अब तो जो ख़रीदे शोहरतें अपनी 
रुबाई बेचने वाला उमर ख़य्याम है साक़ी 
*
उम्र गुज़री है जैसे कानों से 
सरसराती हवा गुज़र जाये
*
क्या लोग हैं दे जाते हैं अपनों को भी धोके 
हमको कभी दुश्मन से भी नफ़रत नहीं होती 

हर सच की ख़बर इसको हर इक झूठ पता है 
दिल से बड़ी कोई भी अदालत नहीं होती
*
दिल में हज़ार दर्द हों आंँसू छुपा के रख 
कोई तो कारोबार हो, बिन इश्तहार के
*
क्यों-कर करूं उमीद तू मुझ सा बनेगा दोस्त 
जैसा मैं चाहता हूंँ वो ख़ुद भी न बन सका 

रह कर भी दूर सुन सके अब्बा की खांसियाँ 
बेटा कभी भी बाप की बेटी न बन सका
*
वो दौर आया कि नन्हा सा एक जुगनू भी 
चमकते चांँद में कीड़े निकाल देता है
*
जिसके आने से कभी मिलती थी राहत दिल को 
आज उस शख़्स के जाने से है राहत कितनी
*
भीड़ घोंघों की है और रहबरी कछुओं को मिली 
कोई बतला दे मैं रफ़्तार कहांँ से लाऊंँ

'अख़लाक़'लफ्ज़ ने कुछ ऐसा जादू अजय साहब पर किया कि वो सब छोड़ छाड़ कर उर्दू ज़बान सीखने की क़वायद में रात-दिन एक करने लगे। जिस उम्र के लड़के सड़क पे क्रिकेट, फ़ुटबाल खेलते हैं, पार्कों में मटरगश्तियाँ करते हैं,रोमांटिक कहानियां और शायरी पढ़ते हैं उस उम्र में अजय साहब बाजार से मिर्ज़ा ग़ालिब का दीवान ख़रीद लाये। ग़ालिब की शायरी जो आज भी उर्दू के कथाकथिक धुरन्दरों को समझ में नहीं आती भला कच्ची उम्र के बच्चे को कहाँ पल्ले पड़ती ? एक हिंदी भाषी घर और हिंदी भाषी शहर में ग़ालिब को उन्हें कोई समझाता तो समझाता कौन ? सभी पहचान वाले कन्नी काट जाते। किसी ने उन्हें सलाह दी कि मस्जिद के मौलवी साहब से मिलो शायद वो समझा देंगे। एक दिन मौलवी साहब अजय साहब को सड़क पर साइकिल से आते नज़र आ गए। अजय साहब ने जब उन्हें ग़ालिब का दीवान समझाने को कहा तो वो साईकिल वहीँ पटक भागते हुए बोले तौबा करो बरखुरदार उर्दू रस्मुलख़त (याने लिपि ) पढ़ाने को कहो तो वो मैं कर सकता हूँ लेकिन ग़ालिब को समझाना मेरे बस में नहीं , मेरे ही क्या ,पूरे शहर में शायद ही किसी के बस में ग़ालिब को समझाने की समझ हो।    

अजय साहब की हिम्मत, जिद और हौंसले को सलाम क्यूंकि इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी उनकी उर्दू ज़बान सीखने की ललक जरा सी भी कम नहीं हुई। । गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर के गीत 'एकला चालो रे --"से प्रेरणा ले कर लेकर वो अकेले ही उर्दू सीखने के इस मुश्किल मिशन को पूरा करने में व्यस्त हो गए। इस मिशन की शुरुआत उन्होंने मोहम्मद मुस्तफ़ा खां मद्दाह की उर्दू-हिंदी डिक्शनरी खरीदने से की।उसके बाद अपनी एक डायरी बनाई जिसमें मुश्किल उर्दू अल्फ़ाज़ और उनके अर्थ उसमें नोट करने शुरू किये। अजय साहब को जल्द ही समझ में आ गया कि अगर उर्दू लफ़्ज़ों को याद करने और उनके अर्थ जानने से ही शायरी का फ़न आ जाता तो डिक्शनरी लिखने वाले लोग ही सबसे बड़े शायर होते।

डिक्शनरी के अलावा पंडित अयोध्या प्रसाद गोयलीय की उर्दू शायरी पर लिखी लम्बी सीरीज़ जो 'शेरो सुख़न'के नाम से छपी है ने भी अजय जी को उर्दू शायरी समझने का रास्ता दिखाया। कच्ची उम्र में उनके 'साहिर'फ़िराक़ और फ़ैज़ साहब की शायरी की किताबें इकठ्ठा हो गयीं। किताबें तो इकठ्ठा हो गयीं लेकिन शायरी समझना अभी भी टेढ़ी खीर थी।

इस ज़माने का चलन हमको सिखाता है यही 
अच्छा होने से बुरा कुछ नहीं होता यारो
*
इसमें खबरें हैं मुहब्बत की रफ़ाक़त की हुजूर 
ये मेरे मुल्क का अख़बार नहीं हो सकता 
रफ़ाक़त: मित्रता
*
जब तलक अश्क थेआंँखों में, तबस्सुम ढूंँढा 
आज होठों पर हंँसी है तो मैं आंँसू खोजूं
*
सुब्ह होते ही जिसे छोड़ गए हम दोनों 
रह गया रिश्ता भी हम दोनों का बिस्तर बनकर
*
दुनिया से तो छुपा गया, अपने सभी गुनाह 
लेकिन मेरे ज़मीर ने नंगा रखा मुझे
*
सारे जहांँ की आफ़तें और एक तेरी याद 
जैसे अकेली शमअ हो सूने मज़ार में
*
उस मुसाफिर ने नहीं पाई कभी भी मंजिल 
जिस की आदत है हर इक गाम से शिकवा करना
*
कैसा दुश्वार है रिश्ता कोई बुनना देखो 
जैसे काग़ज़ कोई बारिश में उड़ाया जाए

जिसके दामन में न हों दाग़ लहू के लोगो 
एक मज़हब मुझे ऐसा तो बताया जाए 

उम्र भर रेंगते रहने से कहीं बेहतर है 
एक लम्हा जो तहे दिल से बिताया जाए

एक कहावत आपने ज़रूर सुनी होगी 'हिम्मत-ए-मर्दां मदद-ए-ख़ुदा'याने हिम्मत वाले मर्द की मदद ख़ुदा करता है , इसी कहावत के चलते ख़ुदा ने अजय साहब की मदद को अपना नुमाइंदा उर्दू के महान विद्वान नागपुर के डॉ.'विनय वाईकर'साहब के रूप में भेज दिया। डॉ वाईकर साहब की डॉ ज़रीना सानी साहिबा के साथ हिंदी और मराठी भाषा में लिखी उर्दू-हिंदी डिक्शनरी की क़िताब 'आईना-ए-ग़ज़ल', ग़ज़ल सीखने वालों के लिए किसी वरदान से कम नहीं। तो हुआ यूँ कि 'देशबंधु'अख़बार में डॉ विनय वाईकर'जी का लेख हफ्तावार छपने लगा जिसमें वो हर हफ्ते ग़ालिब की किसी एक ग़ज़ल की विस्तार से चर्चा करते, उस ग़ज़ल में प्रयुक्त मुश्किल उर्दू फ़ारसी के लफ़्ज़ों का अर्थ समझाते और उन लफ़्ज़ों को बरतने के पीछे छुपे कारण भी बताते। उनका लेख ग़ालिब की ग़ज़ल और उसके भाव को सरल भाषा में पूरी तरह से अपने पाठक तक पहुंचाने में क़ामयाब होता। अफ़सोस की बात है कि वो लेख कहीं क़िताब की शक्ल में हिंदी में उपलब्ध नहीं हैं ,शायद मराठी में उनकी किताब 'क़लाम-ए-ग़ालिब'अमेजन पर जरूर उपलब्ध है। ख़ैर !! उन लेखों को काट काट कर अजय जी ने एक फ़ाइल बना ली जिसे वो जब समय मिलता पढ़ते। नतीज़ा ये निकला कि उन्हें न केवल ग़ालिब की ग़ज़लें याद हो गयीं बल्कि उनके अर्थ भी समझ में आ गए। यही कारण है कि उनसे ग़ालिब की ग़ज़लों पर बहस करने से उर्दू के बड़े बड़े शायर भी घबराते हैं।

एक बार का वाक़या है कि किसी मुशायरे में जहाँ उर्दू के बहुत से नामचीन शायर भी शिरक़त कर रहे थे ,अजय साहब ने ग़ालिब की एक मुश्किल ज़मीन पर कही ग़ज़ल के मिसरे पर फिलबदीह ग़ज़ल पढ़ी। ग़ज़ल इस क़दर पुख्ता थी कि अगर उसे कोई कहीं बिना उसका बैक ग्राउंड जाने पढता तो उस ग़ज़ल को ग़ालिब की ही ग़ज़ल समझता। अजय साहब को मंच पर बैठे उस्ताद शायरों से दाद की उम्मीद थी लेकिन वहाँ तो जैसे सबको साँप सा सूँघ गया लगता था। कारण ? या तो उन्हें ग़ालिब की ज़मीन पर कही ग़ज़ल समझ नहीं आयी या वो अहसास-ए-कमतरी के शिकार हो गए। मंच पर नौटंकी कर वाह वाह बटोरना अलग बात है और ग़ालिब को समझना अलग।

संक्षेप में कहूँ तो डॉ विनय वाईकर साहब के ग़ालिब की ग़ज़लों पर लिखे लेखों से अजय साहब में ग़ज़ल कहने की इच्छा बलवती हो गयी और वो बाकायदा शेर कहने लगे। दोस्तों ने तारीफ़ की तो ख़ुद को शायर भी समझने लगे। उन्हीं दिनों रायपुर में एक मुशायरा हुआ जिसमें मशहूर शायर निदा फ़ाज़ली साहब भी तशरीफ़ लाये। मुशायरे के बाद अजय साहब उनसे मिलने गए और उन्हें अपना एक शेर सुनाया जिसकी निदा साहब ने भरपूर तारीफ़ की और कहा की बरखुरदार तुम अपना कोई तख़ल्लुस रखो और उन्होंने फिर ख़ुद ही 'सहाब'याने बादल तख़ल्लुस सुझाया जो अजय जी को भी बेहद पसंद आया। तब से अजय पांडेय जी अजय 'सहाब'हो गए।  

अब तक कभी आया न वो आएगा बचाने 
किस दौर-ए-मुसीबत में ख़ुदा ढूंढ रहे हो
*
टूट जाता है ये शीशे का तसव्वुर मेरा 
याद तेरी किसी पत्थर की तरह आती है 

सिर्फ़ क़तरों की तरह बूंँद में मिलती है ख़ुशी 
और उदासी तो समंदर की तरह आती है
*
मैंने लगाए आज उदासी में क़हक़हे
 रोना भी इस जहान में दुश्वार देखकर 

मैं शर्म से मरा हूंँ , मेरे क़त्ल से नहीं 
सब दोस्तों के हाथ में तलवार देखकर
*
हर रिंद में अभी तक इंसानियत बची है 
इन पर नहीं पड़े हैं दैर-ओ हरम के साए
*
तू कितना लाजवाब है तुझ क पता चले 
इक बार ख़ुद को देख तू मेरी निगाह से
*
कुछ भी मजबूरियां न थी उसकी 
फिर भी वो बेवफ़ा हुआ हमसे
*
तनहाई की क़मीज़ है यादों की एक शॉल 
मेरा यही लिबास है मौसम कोई भी हो
*
रोक लूंँ मैं न कहीं हाथ पकड़ कर उसको 
अब तो तन्हाई भी घर आने से कतराती है

अक्सर ऐसा होता है कि जब आप बहुतसी किताबें पढ़ कर या शायरों को सुनकर ग़ज़ल कहने की कोशिश करते हैं तो अधिकतर ग़ज़लें ग़ज़ल के व्याकरण याने अरूज़ पर ठीक उतरती हैं। मंच के ऐसे बहुत से कामयाब शायर जो बे-बहर ग़ज़लें कहते हैं भले ही अपनी ग़ज़लों की वाह वाही के नशे में अरूज़ सीखने को महत्व न देते हों वो मंच से दूर होते ही भुला दिए जाते हैं। किसी भी ग़ज़लकार को ग़ज़ल का अरूज़ आना ही चाहिए। अजय जी को इस बात का पता तब चला जब वो बहुत सी ग़ज़लें कह चुके थे। उनकी जगह कोई और होता तो शायद इस बात को महत्त्व नहीं देता लेकिन अजय जी उर्दू ग़ज़ल के सच्चे आशिक़ हैं इसलिए उन्होंने अरूज़ सीखने के लिए ऐड़ी से चोटी तक का जोर लगा दिया। अरूज़ सीखने के इस प्रयास में उन्हें भिलाई के जनाब 'साकेत रंजन'मिल गए जिनके बारे में अजय साहब ने लिखा है कि "हिंदुस्तान में उनसे आसान ज़बान में अरूज़ समझा सकने वाला उस्ताद शायद ही कोई हो।"
 
उस्ताद शायरों के क़लाम को दिल से पढ़ कर और अरूज़ का पूरा ज्ञान लेकर जब अजय 'सहाब जी ने ग़ज़लें कहने शुरू पहली की तो छा गए। उनकी उनकी शायरी की पहली किताब 'उम्मीद'सन 2014 में मंज़र-ए-आम पर आयी दूसरी 'मैं उर्दू बोलूँ'सन 2019 में दुबई से उर्दू रस्मुलख़त में और यही किताब हिंदी में सं 2021 में विजया बुक्स दिल्ली से प्रकाशित हुई है। आप इस किताब को विजया बुक्स से सीधे ही 9910189445 पर फ़ोन करके मँगवा सकते हैं। ये किताब अमेजन से ऑन लाइन भी मंगवाई जा सकती है।


घर-घर से ठुकराई अम्मा 
वृद्धाश्रम में आई अम्मा 

यूँ तो कोई हाल न पूछे 
पर गीतों मैं छाई अम्मा 

कितने ही बेटों ने बनाया 
तुझको आया, दाई अम्मा 

रिश्तों का तू देख ले चेहरा 
आएगी उबकाई अम्मा
*
सारे भगवान हैं इंसान के डर की तख़लीक़ 
तल्ख़ सच मैं यहांँ इरशाद करूं या न करूंँ 
तख़लीक़: रचना
*
उसका अपना ही सामने कर दो 
आदमी को अगर हराना हो 

पहले रोना तो सीख लो यारो 
इससे पहले कि खिलखिलाना हो
*
घोंघे रहे हैं हर तरफ यहांँ इन्सां के भेष में 
कुछ भी हुआ तो खोल में अपनी सिमट गए
*
बस सांस लिए जाते हैं इक रस्म है ये भी 
ज़िंदा हमें कहती है यह दुनिया का भरम है
*
न तो लफ़्ज़ खूँ से रंँगे हुए न शराब है कहीं अश्क की
ये सुखनवरी भी नमाज़ है इसे पढ़ सकोगे न बेवुज़ू

अजय 'सहाब'जी की ग़ज़लों के एक दर्ज़न से अधिक अल्बम बाजार में आ चुके हैं जिसमें पंकज उधास के स्वर में 'सेंटीमेंटल', 'ख़ामोशी आवाज़'और 'मदहोश'विशेष हैं , मदहोश अल्बम की सभी ग़ज़लें 'सहाब'जी की लिखी हुई हैं। एक मिलियन व्यूज के जादुई आंकड़े को फेसबुक पर पार करने वाली पहली ग़ज़ल 'काश'जिसे अनूप श्रीवास्तव साहब ने स्वर दिया अजय 'सहाब'जी की क़लम का ही करिश्मा है। इसके अलावा सुदीप बनर्जी 'के साथ  'धड़कन-धड़कन', शिशिर पारखी जी के साथ वन्स मोर'और रुमानियत, गुलाम अब्बास खान साहब के साथ रूहे ग़ज़ल'आदि उल्लेखनीय हैं।

अजय 'सहाब'जी की ग़ज़लों के एक दर्ज़न से अधिक अल्बम बाजार में आ चुके हैं जिसमें पंकज उधास के स्वर में 'सेंटीमेंटल', 'ख़ामोशी की आवाज़'और 'मदहोश'विशेष हैं , 'मदहोश'अल्बम की सभी ग़ज़लें 'सहाब'जी की लिखी हुई हैं। एक मिलियन व्यूज के जादुई आंकड़े को फेसबुक पर पार करने वाली पहली ग़ज़ल 'काश'जिसे अनूप श्रीवास्तव साहब ने स्वर दिया अजय 'सहाब'जी की क़लम का ही करिश्मा है। इसके अलावा सुदीप बनर्जी 'के साथ 'धड़कन-धड़कन', शिशिर पारखी जी के साथ 'वन्स मोर'और 'रुमानियत', गुलाम अब्बास खान साहब के साथ 'रूहे ग़ज़ल'आदि उल्लेखनीय हैं।

जैसा मैंने बताया कि सभी जाने-माने ग़ज़ल गायकों ने अजय जी की ग़ज़लों को स्वर दिया लेकिन उनमें श्री राजेश सिंह जी का विशेष उल्लेख करना जरूरी है। श्री राजेश सिंह एक छोटी सी नशिस्त में कहीं गा रहे थे जिसे अजय जी ने सुन कर सोचा कि इतनी मधुर आवाज़ को जन-जन तक पहुँचना चाहिए। ये सोच कर उन्होंने 'अल्फ़ाज़ और आवाज़' ( https://www.youtube.com/channel/UCDVgZQ9dEe5lKgzFO2yORqQ/featured) कार्यक्रम की कल्पना की जिसमें राजेश जी, अजय जी की ग़ज़लें तो गाते ही हैं साथ में कुछ पुराने गाने और उस्ताद शायरों की ग़ज़लें भी गाते हैंइन गानों और ग़ज़लों में 'अजय'जी अपने लिखे नए अशआर कुछ इस तरह पिरोते हैं कि वो ओरिजिनल गाने या ग़ज़ल का ही हिस्सा लगते हैं। ये अपनी तरह का का एक अनूठा और हैरत अंगेज़ काम है जिसकी, बिना सुने और देखे, आप कल्पना भी नहीं कर सकते। यू ट्यूब पर 'अलफ़ाज़ और आवाज़'सर्च करें और इन दोनों को परफॉर्म करते देखें-सुनें तो आप दांतों तले उँगलियाँ दबाये बगैर नहीं रह पाएंगे।मुझे यक़ीन है कि जिस तरह अजय जी ने साहिर साहब की कालजयी नज़्म 'चलो इक बार फिर से...'में अपने क़लम का जलवा दिखाया उसे राजेश जी और ज्ञानिता द्विवेदी जी की आवाज़ में अगर साहिर साहब सुन पाते तो अजय जी को दाद देने से ख़ुद को नहीं रोक पाते।ये दुधारी तलवार पर चलने जैसा काम था जिसे अजय जी क्या खूब कर दिखाया है। ये नज़्म यू ट्यूब पर देखें और आप भी दाद दें.( https://youtu.be/QqFynaqDwak)

इस कार्यक्रम का आगाज़ हैदराबाद के सालारजंग म्यूजियम से हुआ उसके बाद इस कार्यक्रम ने देश में ही नहीं विदेशों में भी धूम मचा रखी है। 

अजय जी छत्तीसगढ़ में कमीश्नर और एडिशनल डायरेक्टर जनरल जी.एस.टी के रसूख़दार और अतिव्यस्त ओहदे पर होने के बावजूद अपने पैशन के लिए समय निकालते हैं और राजेश जी के साथ देश-विदेश घूमते हैं। उर्दू ज़बान के प्रति उनके समर्पण को लफ़्ज़ों में बयाँ करना मुमकिन नहीं। उर्दू से इसक़दर मुहब्बत करने वाले अजय जी को आप 9981512285पर फोन कर बधाई दे सकते हैं।       

मुशायरे के मंचों पर जाने से अजय जी बचते हैं। उर्दू, जिसे एक धर्म विशेष की भाषा मान लिया गया है में किसी दूसरे मज़हब के इंसान को आगे बढ़ता देख कुछ संकीर्ण प्रवर्ति के तथाकथिक महान शायर असहज हो कर घटिया हरकतें करने लगते हैं। उनकी ओछी हरकतें अजय जी को बर्दाश्त नहीं होतीं। शायरी 'अजय'जी का पेशा नहीं शौक है इसलिए वो किसी से दबते नहीं और उस शायर की हैसियत की परवाह किये बगैर जिसने छींटाकशी या घटिया हरक़त की है, मुँह-तोड़ जवाब देते हैं। मुशायरों के बाज़ार में अब शायरी को भाव नहीं मिलता उसकी जगह अदाकारी और गुलूकारी को अच्छी क़ीमत मिलती है। हो सकता है ये बात किसी को ग़वारा न हो इसलिए इसे यहीं छोड़ आपको अंत में उनकी ग़ज़लों के कुछ और चुनिंदा शेर पढ़वाते हैं :- 

मेरे हमदम तू मुझे काट के छोटा कर दे 
यही चारा है तेरे क़द को बढ़ाने के लिए
*
इन्किसार आया तो चूमा है ज़मीं को मैंने 
जब तकब्बुर था, मेरा अर्श से सर लगता था
इन्किसार: नम्रता, तकब्बुर: घमंड
*
सिर्फ़ शैतान को दिखता है नतीजा इसमें 
जो है इंसान उसे जंग से डर लगता है
*
तुझको देखे बिना धड़कता है 
अब तो इस दिल पे शर्म आती है 
*
अभी भी वक्त है यलगार रुको इन अंधेरों की 
वगरना भूल जाओगे उजाला किसको कहते हैं 
यलगार: हमला
*
कितना दुश्वार है अंदाज समझना तेरा 
जिंदगी तू मुझे ग़ालिब की ग़ज़ल लगती है 
*
वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन
मुझे हिस्सा नहीं बनना कभी ऐसी कहानी का 
*
तेरे जाने की दास्ताँ लिखकर 
मेरे लफ्जों ने ख़ुदकुशी कर ली
*
रोटी पे सुनके शेर वो भूखा तो चुप रहा 
भरपेट खाए लोगों ने बस वाह-वाह की
(ये ही वो शेर है जिसे सुनकर निदा फ़ाज़ली साहब ने तारीफ़ की और अजय पांडेय जी को 'सहाब'तख़ल्लुस रखने का मशवरा दिया था )    


किताबों की दुनिया -251

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क्या पूछो हो ! सन्यासी की दौलत को 
एक कमंडल इक मृगछाला जय सियाराम 

खुले किवाड़ों सोए तेरे दीवाने 
कैसी साँकल ! किसका ताला, जय सियाराम
*
कोई बुरा भी कहे, तो जवाब क्या देना !
ये मान लीजिए, ऊंँचा सुनाई देता है 

तेरी गली में तुझे, देखते ही दिल ने कहा 
यहां तो चांँद भी, दिन में दिखाई देता है
*
हटाई नफ़रतों की पट्टियां जब अपनी आंखों से 
मुझे हर आदमी में कुछ न कुछ अच्छा नज़र आया
*
होश वाले भी तो किस, दीवानगी में लग गए 
अपनी कमियांँ छोडकर, मेरी कमी में लग गए

इस बदलते दौर के ये नौजवाँ भी खूब हैं !
मौत से डरते भी हैं और आशिक़ी में लग गए
*
यह आंँधियांँ मेरी आंँखों का क्या बिगाड़ेंगी 
कि इतनी धूल मेरी, जूतियों में रहती है
*
सोहबत से भी किस्मत का बदलना नहीं मुमकिन 
असरात न फूलों के कभी खार में आए 
हसरात :प्रभाव
*
राम बनकर क्यों कोई जंगल में कांटे चौदह साल 
कैसी कुर्बानी ! सभी को, राजधानी चाहिए

सबसे पहले पढ़िए जो हमारे आज के शाइर.ने 28 जनवरी 2006 को लाल किले दिल्ली में आयोजित गणतंत्र दिवस पर होने वाले अखिल भारतीय मुशायरे में अपनी रचनाएँ पढ़ने हे पहले लोगों से कहा कि 'जैसे भी हो सके अदब यानी साहित्य को प्रोपेगैंडा होने से बचाइए । तमाम इंसानियत के लिए कोई पैग़ाम होना चाहिए। मानव मूल्यों को समझकर काव्य में रखा जाना चाहिए । नमक-मिर्च सी चटपटी बातें या क़ौम-ओ-मज़हब का सहारा बैसाखियों की तरह इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए । ये कमज़ोरी है, गिरावट है और साहित्य में रंगे सियारों का आ जाना है। साहित्य, और वो भी विशेष रूप से काव्य के गिरते हुए स्तर को देखकर आज दुख होता है। कवि सम्मेलनों और मुशायरों का मेयार भी दिन-ब-दिन नीचे आ रहा है ।वो कुछ लिखा और पढ़ा जा रहा है जो न तो लिखा ही जाना चाहिए न पढ़ा ही जाना चाहिए। अग्रिम श्रेणी के लोग पिछली पंक्ति में खड़े हैं ।इस सब का कारण है कवियों-शायरों का एक मात्र व्यवसायिक हो जाना और धड़े बाज़ियों में तक़्सीम हो जाना। पाठकों और श्रोताओं की मामूली सोच भी ऐसे-वैसों को सफल बना रही है।'

एक इतने बड़े साहित्यिक मंच से ऐसी सच्ची ख़री बात वही कर सकता है जिसके लिए काव्य साधना एक इबादत है, जो किसी धड़े से जुड़ा हुआ नहीं है और न जिसे झूठी शोहरत और उससे कमाए पैसे की परवाह है। शायद यही कारण है कि उसे जिंदगी में वो बुलंदी हासिल नहीं हुई जिसका वो हक़दार है क्योंकि इस गला काट स्पर्धा से वो बाहर है लेकिन उसे वो सुकून हासिल है जो न शोहरत से आता है न पैसे से। उसे चाहने वालों की तादाद भले कम हों पर जितनी भी है वो सब उसे दिल से चाहने वाले हैं।

नहीं रोने से कुछ हासिल तो फिर किस वास्ते रोएं 
हम ऐसे कामगर ठहरे जो बेगारी नहीं करते
*
तुझे जब देखता हूंँ तो दिखाई कुछ नहीं देता 
तेरी सूरत मुझे महफ़िल में तन्हा डाल देती है
*
कहीं महफ़ूज़ रह जाते हैं तिनके बिजलियों तक में 
कहीं फूलों की बारिश में भी पत्थर टूट जाते हैं

सियासत कैसे कैसे रंग दुनिया में बदलती है 
यहां तो रहज़नों के हक़ में रहबर टूट जाते हैं
*
मैंने जिस रोज़ तेरे हंँसने की तारीफें कीं 
कितने फूलों ने तेरे घर का पता पूछा है
*
इस बार कर तू सोच-समझ कर मदद की बात 
ऐसा न हो कि फिर मैं अकेला खड़ा रहूंँ 

हंँस-हंँस के मुश्किलों का मजज़ा ले रहा हूंँ मैं 
पलकों पै आंँसुओं की तरह क्यों सजा रहूँ
*
जो एक कांटे के चुभने का ग़म मनाते हैं 
मुझे सलीब की क़ीमत पै आज़माते हैं 

हम अपने आप पै फिर किसलिए न इतराएं!
फ़रेब देते नहीं हैं फ़रेब खाते हैं
*
इस शहर के लोगों की हर इक फूँक है आंँधी 
हाथों में चराग़ों को लिए, कौन खड़ा है!

हमारे आज के शायर जनाब 'विजेंद्र सिंह परवाज'साहब का जन्म 28 मार्च 1943 को 'मेरठ'जिले के तहसील 'सरधना'के गांँव 'भूनी'के त्यागी ब्राह्मण परिवार के यहां हुआ। घर का वातावरण धार्मिक था ।पिता को उर्दू साहित्य से बेहद लगाव था। विजेन्द्र जी का कविता लिखने की ओर रूझान जब वो छठी कक्षा में पढ़ते थे तब से ही हो गया था। सबसे पहले जो कविता उन्होंने लिखी उसकी पहली पंक्ति थी 'कितना सुंदर मेरा फूल'ये पंक्ति ही वो गुमुख है जिससे उनके जीवन में अब तक काव्य की गंगा लगातार बह रही है।

'परवाज़'साहब का कहना है कि शायरी एक पैदाइशी फन है जो आपमें जन्म से ही ऊपर वाला अता कर देता है बाद में जिंदगी के हादसात और वाक़यात इसे और डवलप कर देते हैं। प्राइमरी शिक्षा 'भूनी'में पूरी करने के बाद आगे पढ़ने के लिए इन्हें 'सरधना'आना पड़ा। सरधना में इंटरमीडिएट के दौरान ये अच्छी खासी शायरी करने लगे थे। शायरी करते तो थे लेकिन उसमें पुख़्तगी नहीं थी। उर्दू के अल्फ़ाज़ तो सीख लिए लेकिन शायरी के जरूरी इल्मे अरूज की जानकारी बिल्कुल नहीं थी। उन्होंने इस बात का ज़िक़्र अपने वालिद जनाब विष्णु दत्त त्यागी साहब से किया। पिता उन्हें हापुड़ के मशहूर और मुकम्मल शाइर स्व. जनाब क़ाज़ी मुफ़्ती अमीर अहमद 'सरीर'साहब के पास ले गये। एक अच्छा उस्ताद बहुत मुश्किल से मयस्सर होता है ,परवाज़ साहब इस मामले में खुशकिस्मत निकले क्योंकि उस्ताद से मिल कर उन को लगा जैसे उन्हें अपनी मंजिल,जिसकी तलाश थी, मिल गई। उन्हीं के क़दमों में बैठ कर परवाज़ साहब ने अपनी शायरी का आग़ाज़ किया।

भंँवर का और किनारे का फ़र्क़ मत पूछो 
मैं डूबता था वो आँचल संवारने में रहा
*
अब मेरे इख़लाक़ की परवाज़ ऊँची हो गई 
रास्ते में जो भी घर आया वो अपना घर लगा 
इख़लाक़: चरित्र
*
मैं दीप बनके जिनके, अंँधेरों में जल उठा 
वो दिन की रोशनी में, मुझे भूल जाएंँगे

ज़ंजीर टूट जाएगी उस रोज ज़ब्त की 
जब वो मेरे क़रीब मुझे छोड़ जाएंगे
*
हंँसने का कोई लुत्फ़, न रोने का कुछ मज़ा 
यूंँ भी तो कहकहे हैं यहांँ !सिसकियों के बीच 

ये ताक-झांक छोड़िए अंदर तो आईए 
दरवाज़ा किस लिए है! मेरी खिड़कियों के बीच
*
हम खरा सोना थे जब तक इस ज़मीं में दफ़्न थे 
हाथ में लोगों के जब आए, तो पीतल हो गए
*
किसी के साथ लड़ाई भी मुस्तकिल तो नहीं 
न दुश्मनी को हमेशा दिमाग़ में रखना 

किसी को पाने का अरमाँ, तो जान ले लेगा
ये एक जिन है, इसे तुम चराग़ में रखना
*
तुम मेरे किरदार को रुस्वा न कर पाओगे दोस्त 
बहते पानी पर महल कर पाएगा तामीर कौन

उस्ताद की रहनुमाई में सबसे पहले उन्होंने उर्दू रस्मुल ख़त लिखने पढ़ने में महारत हासिल की। उसके बाद उर्दू के शायरों को एक एक करके पढ़ा ।उन शायरों पर की गई तनक़ीद को भी पढ़ा। उस्ताद उनको उर्दू शायरों के क़लाम की बारीकियों समझाते उनके इस्तेमाल किये लफ़्ज़ों पर गौर फरमाने को कहते। शायरी में ख़्यालों को सरलता से पिरोने का हुनर सिखाते। बी.ए. और एम.ए. मेरठ से करने के दौरान उन्होंने मीर, ग़ालिब, इक़बाल और मज़ाज की कुलियात एक बार नहीं कई कई बार पढ़ी। विजेंद्र सिंह परवाज पहले ऐसे छात्र हैं जिन्होंने मेरठ विश्विद्यालय से पोस्ट ग्रेजुएट की पहली डिग्री हासिल की थी.जिस समय उन्होंने एनएएस कॉलेज से एमए अंग्रेजी किया था.तब चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय में एक ईट तक नहीं लगी थी.उस दौर में सभी परीक्षाएं आगरा विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित होती थीं.इन चारों शायरों के क़लाम के अलावा जनाब मज़रूह सुल्तान पुरी साहब की शायरी से भी बहुत मुत्तासिर हुए। उर्दू के इन शोअरा के अलावा आपने हिंदी में कबीर, निराला, बच्चन और दिनकर जी और अंग्रेज़ी में शैक्सपियर, मिल्टन और कीट्स को पढ़ा और कॉलेजो़ में पढ़ाया भी ।इतना सब अधय्यन करने के बाद ही आपने शेर कहने शुरू किये। उन्होंने एक पुरानी कहावत कि 'एक मेट्रिक टन पढ़ो और दस ग्राम लिखो'का जीवन में पूरा पालन किया।

हमारे सामने विजेन्द्र सिंह 'परवाज़'साहब की ग़ज़लों, नज़्मों, गीत और दोहों की अनूठी किताब 'ग़ज़ल की बात करूँ'खुली हुई है। इस किताब को रवि पब्लिकेशन, मेरठ ने प्रकाशित किया है, इसे आप फ्लिपकार्ट से ऑन लाइन भी मँगवा सकते हैं। उनके दिलकश क़लाम के लिए आप उन्हें 9412285618पर बधाई भी दे सकते हैं।


तुम अपने प्यार का किस्सा उठा के बैठ गए 
हज़ार कश्तियां दरियाओं में उतरती हैं 

जो बात ख़त्म हुई उस पै लड़ रहे हैं लोग 
यहांँ तो डूब के लाशें, बहुत उभरती हैं !
*
मेरे ख़िलाफ सारा मोहल्ला है आज-कल 
तू मुझसे खुश रहे तो कोई क्यों ख़फ़ा न हो
*
उम्र भर खाए हैं हमने यूंँ सराबों के फ़रेब 
होंठ रखवाए हमारे, तिश्नगी ने रेत पर 
*
ज़रा सी बात की ख़ातिर ज़मीर क्यों बेचें!
ज़रूरतों का सफ़र सिर्फ़ ज़िंदगी तक है
*
ख़्वाहिश का मारा हुआ इंसाँ ऊंँचे दाम लगाता है 
एक तवायफ़ के कोठे पर, बिक जाते हैं मँहगे फूल
*
तितलियों का पर हिलाना भी कहां बर्दाश्त है 
बनके शबनम, फूल की पत्ती पै सोती है ग़ज़ल
*
अश्कों को पौंछने लगा खंजर की नौक से 
क़ातिल के रू-ब-रू मेरा रोना फ़िज़ूल था
*
नीम की टहनी से बच्चा खेलता है धूप में 
छाँव का अहसास मर जाए, तो तन जलता नहीं
*
वह मेरे ज़नाजे में, शामिल नहीं है 
उसे ज़िंदगी से कुछ उम्मीद होगी

मशहूर शायर निदा फ़ाज़ली साहब ने अख़बार इंकलाब में उन पर एक लेख लिखा था जिसमें वो लिखते हैं कि 'विजेन्द्र परवाज़'साहब मेरठ की मुश्तरका अदबी तहज़ीब के नुमाइंदे हैं ।इनकी उर्दू ग़ज़लें भी इस नुमाइंदगी की वाज़ह तर्जुमान हैं। उर्दू इन्हें विरसे में नहीं मिली । इसे उन्होंने अपनी ज़ाति दिलचस्पी और मेहनत से हासिल किया है। परवाज़ उर्दू को किसी मज़हब से जोड़ने के अमल को सियासत का तमाशा समझते हैं। 

मुरारी बापू ने इस किताब में परवाज़ के साहब बारे में लिखा है कि 'हमारे आदरणीय परवाज़ साहब की लेखनी में कलम तो है ही - साथ साथ बलम और सदा सदा मस्ती में डूबने वाली चलम की फूँक भी है। वैसे शब्द तो ब्रह्म है लेकिन कभी कभी सिद्ध कवि से निकला शब्द परब्रह्म का अनुभव करा देता है।'

मेरठ के जनाब तालिब ज़ैदी साहब विजेंद्र सिंह जी के बारे में लिखते हैं कि 'परवाज़ साहब कौम से त्यागी, पेशे से लेक्चरर, खानदान से ज़मींदार और मज़हब से इंसान हैं ।परवाज़ के सीने में एक हस्सास और दर्दमंद दिल है। परवाज़, सहल, आसान और हल्के अल्फाज़ से बड़ा भारी काम लेते हैं ।उनके यहां बादलों की घन गरज नहीं, वादे सबा की सुबुक ख़रामी है। उनकी बात आँखो के ज़रिये दिल के रास्ते होती हुई ज़हन में उतर जाती है।

लोकप्रिय 'भड़ास'ब्लॉग पर यशवंत जी लिखते हैं कि वे उम्दा शायर हैं, लड़ाकू शख्सीयत है, क्रांतिकारी व्यक्तित्व है, आध्यात्मिक मन है, मोरारी बापू के अनन्य भक्त हैं, औघड़ों का तन है, फकीरी रास आती है। परवाज साहब बेहद यारबाज आदमी हैं। जिसको दिल दिया फिर उसी के हो गए। जिसको अपनाया तो कभी छोड़ा नहीं। दोस्त कम बनाए लेकिन चुनकर बनाए। दुश्मनों की कभी परवाह नहीं की। परवाज साहब में गजब की विविधता है। उनके शेर में रेंज बहुत है। अध्यात्म से लेकर राजनीति तक, हर विषय पर उन्होंने गजब की लाइनें कहीं हैं।।

जब अमीरी में मुझे, गुर्बत के दिन याद आ गए 
कार में बैठा हुआ, पैदल सफ़र करता रहा
*
बाज़ारों तक आते-आते जंग लगा बेकार हुआ 
हमने लोहे के टुकड़े पर, बरसों मीनाकारी की
*
ऐसे ज़ालिम के, मैं क़ैदखाने में हूंँ 
एक ज़ंजीर तोड़ूँ दूं तो दो डाल दे
*
दामन पै दाग़ आए न आए मेरा नसीब 
कीचड़ उछाल कर तेरी हसरत निकल गई
*
जिसकी तक़दीर का हासिल है अंँधेरा उसको 
एक जुगनूँ का चमकना भी बुरा लगता है
*
ख़राब लोगों में, गुमनाम है मेरी नेकी 
घने धुएंँ में उजाला नज़र नहीं आता
*
यूंँ लगा जैसे मेरे हाथों से जन्नत छिन गई 
बेचकर बाजार से लौटा जो तेरी बालियांँ
*
सीपियांँ कौन किनारे से उठा कर भागा 
ऐसी बातों को समंदर नहीं देखा करते
*
हिलने लगे तख़्त उछलने लगे हैं ताज 
शाहों ने जब सुना कोई क़िस्सा फ़क़ीर का
*
शेरों की दहाड़ों से जंगल तो हिले लेकिन 
इक फूल के खिलने का अंदाज़ नहीं बदला

ऊर्ज़ा से भरपूर परवाज़ साहब आज भी सृजन में पल पल व्यस्त रहते हैं और अपनी रचना धर्मिता को पूर्णरूप से समर्पित हैं।  ग़ज़ल के अलावा वो मुक्तक दोहे नज़्म नात खंड काव्य आदि हर विधा पर कलम चला कर अपने हुनर का लोहा मनवा चुके हैं। सं 1970  पहली किताब 'हिंदी ग़ज़लें और मुक्तक'मन्ज़रे-आम पर आयी थी। उसके बाद 'रोटी का पेड़'जिसमें हिंदी उर्दू कवितायेँ हैं , 'शहद भगत सिंह'पर खंड काव्य, 'अंतिम दर्शन' (शोक गीत ), 'उर्दू अदब' (उर्दू नज़्म ) 'प्यासा रहा दरिया'जिसमें उनकी 201 ग़ज़लें संकलित हैं , 'मेरा प्याला'जो बच्चन साहब की मधुशाला के 69 वर्षों के बाद शराब के माध्यम से जीवन की बात करती रचनाएँ हैं जो मुरारी बापू को समर्पित है तथा 'मानस रुद्राक्ष'जिसमें मुरारी बापू की ओंकारेश्वर में पढ़ी रामकथा का अंग्रेजी में अनुवाद किया गया है किताबें प्रकाशित हो कर पाठकों में बहुत लोकप्रिय हो चुकी हैं। इनकी बहुत सी ग़ज़लें कराची पाकिस्तान में भी छपी हैं। अब तक उनकी हिंदी उर्दू और अंग्रेजी में 44 किताबें मंज़र-ऐ-आम पर हैं। इससे इनकी रचना धर्मिता का आप अंदाज़ा लगायें। रेडिओ टेलीविजन पर भी वो निरंतर अपना क़लाम पढ़ते आये हैं। दुनिया के 26 देशों में उनकी शायरी  का डंका  बज रहा है। अभी यू के में नॉटिंघम में उनसे स्वतंत्रता दिवस पर झंडा फहराने को बुलाया गया जहाँ सुनाये उनके शेरों ने लोगों को दीवाना बना दिया। रियाद के एक मुशायरे में उनके शेर सुन कर वसीम बरेलवी अपने आप को नहीं रोक पाए और उन्हें गले लगा लिया। प्रसिद्ध ग़ज़ल गायक अनूप जलोटा जी ने भी उनकी ग़ज़ल को अपना स्वर दिया है।     

परवाज़ साहब का अमृत महोत्सव 23 जून को मोहन नगर ग़ज़िआबाद में बहुत धूमधाम से मनाया गया था। शहर के तकरीबन सभी गणमान्य लोग इसमें शरीक़ हुए थे। ये इनका तीसरा अमृत महोत्सव था इससे पूर्व 17 जून को राज कौशिक जी ने गुरुग्राम में भी ऐसा ही विशाल आयोजन किया था। पहले अमृत महोत्सव का आयोजन संत मुरारी बापू ने 27 मई 2018 को अपनी रामकथा के दौरान फरीदाबाद में  किया था।   

आखिर में पेश हैं उनकी इस किताब से कुछ और अशआर :       

आह! इस हसरत ने, हम दोनों को बूढ़ा कर दिया 
बात करने को यहांँ थोड़ी सी तन्हाई मिले
*
मुसीबत क्या बिगाड़ेगी भला ! ईमानवालों का
दरख़्तों की बुलंदी से फ़लक छोटा नहीं होता
*
किसी ग़रीब की मय्यत को देके हम कांँधा 
समझ रहे हैं, ज़माना बदलने वाला है
*
चढ़ता था पेड़ पर कोई छूने को आसमान 
और लोग कह रहे थे, बड़ा होशियार है
*
अपनी ख़राबियों को छुपाना पड़ा मुझे 
भूले से जब किसी ने,समझदार कह दिया
*
ज़िंदगी भर वो ग़ज़ल का शेर कह सकता नहीं 
सुब्ह से पहले जो कमरे का बुझाता है चराग़
*
मैं नाहक ही अपनी ग़ज़लों पर यूंँ इतराता फिरता हूंँ 
जैसे अपनी जुल्फ़ किसी ने, पहले-पहले सँवारी हो

किताबों की दुनिया -252

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मोहब्बत बोझ बन कर ही भले रहती हो काँधों पर
मगर यह बोझ हटता है तो काँधें टूट जाते हैं 

बहुत दिन मस्लिहत की क़ैद में रहते नहीं जज़्बे 
मोहब्बत जब सदा देती है पिंजरे टूट जाते हैं
मस्लिहत: लाभ-हानि सोचकर निर्णय लेना
*
घरों का हुस्न हँसते-बोलते रिश्तों से क़ायम है
अगर पत्ते न हो तो टहनियांँ अच्छी नहीं लगतीं
*
तेरी हर बात हंँसकर मान लेना 
मोहब्बत है ये समझौता नहीं है
*
अ'जीब लोग थे सूरज की आरजू लेकर 
तमाम उम्र भटकते रहे अंधेरे में
*
मोहब्बत को वफ़ा को जानता हूंँ 
ये सब कपड़े मेरे पहने हुए हैं 

इसी को तो हवस कहती है दुनिया 
कि तन भीगे हैं मन सूखे हुए हैं
*
ये ख़्वाहिशों का असर है तमाम दुनिया पर 
हर आदमी जो अधूरा दिखाई देता है 
*
पथरीले रास्तों पर सफ़र कर रहे हैं हम 
रिश्तों की नर्म घास कहीं छोड़ आए हैं
*
ये देखना है किस घड़ी दफ़नाया जाऊंँगा 
मुझको मरे हुए तो कई साल हो गए

तुम सारी उम्र कैसे सँभालोगे नफ़रतें 
हम तो ज़रा सी देर में बेहाल हो गए  

शाम के 7:00 बजे की बात का वक्त है कि जिस शख़्स के मोबाइल पर घंटी बजती है वो लपक कर उसे उठाता है, किसका फोन है ये देखता है और फिर मुस्कुराता है । खिचड़ी दाढ़ी, चौड़े माथे और मोटे प्रेम का चश्मा लगाए इस इंसान के मोबाइल पर अब रात 12:00 और कभी-कभी तो 1 या 2 बजे तक ये मोबाइल पर घंटियाँ बजने का सिलसिला यूंँ ही चलता रहेगा। फोन पर बातचीत कुछ यूँ शुरु होती है 'कैसे हो बरखुरदार? खैरियत!! आज नया क्या कहा ?और फिर ये गुफ़्तगू चलती रहती है। किसी को शायरी की बारीकियां समझाई जा रही हैं किसी को लफ़्जों को बरतने का तरीका सिखाया जा रहा है ।ये गुफ़्तुगू एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी और उसके बाद चौथी कॉल पर इसी तरह चलती रहती है। इन चार पांच घंटों में यह शख़्स मुकम्मल तौर पर शायरी में डूबा रहता है। घर वालों को वर्षों से चल रहे इस सिलसिले का पता है और उन्हें ये भी पता है कि इस गुफ़्तगू से इस शख़्स को रूहानी सुकून मिलता है, खुशी मिलती है आराम मिलता है ।

कौन है यह शख़्स? इस दुनिया का तो नहीं लगता। आज के दौर में जब हर इंसान सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने पर ही फोकस चाहता है अपनी ही बात करता है और अपनी ही बात सुनना चाहता है, ये इंसान दूसरों को इत्मीनान से न सिर्फ़ सुन रहा है बल्कि उन्हें अपनी बेशकीमती राय से नवाज़ता भी है। पूछने पर मुस्कुराते हुए कहता है कि मैं उन पौधों को खाद और पानी दे रहा हूं जो आगे चलकर एक विशालकाय पेड़ बनेंगे। ऐसे पेड़ जो फूल और फलों से लदे हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करेंगे। जिनकी छाया में बैठकर लोगों को अच्छा लगेगा। मैं तो हमेशा नहीं रहूंगा मेरे बाद ये हरे भरे पेड़ ही मेरी पहचान बनेंगे। ऐसे ही गिने-चुने इंसानों की वजह से ये दुनिया अभी तक खूबसूरत बनी हुई है। ऐसे इंसान जो अपने वजूद की परवाह किए बिना दूसरों का मुस्तकबिल सँवारने में लगे हैं तालियों के हक़दार हैं। ये नींव के वो पत्थर हैं जिन पर आने वाले कल की खूबसूरत इमारत तामीर होने वाली है। 

किसे बताऊंँ कि अंदर से तोड़ देता है 
कभी-कभार ये बाहर का रख रखाव मुझे 
*
ये ज़िंदगी भी अ'जब इम्तिहान लेती है 
जिसे मिज़ाज न चाहे उसी के साथ रहो 
*
बहुत से राज भी आएंगे आ'ली-जाह फिर बाहर 
ख़फ़ा होकर हवेली से अगर नौकर निकल आए
*
तुम्हारे नाम के आंँसू है मेरी आंँखों में 
ये बात भूल न जाना मुझे रुलाते हुए
*
पुराने ज़ख़्म कहीं फिर न मुस्कुरा उठ्ठें 
मैं डर रहा हूं तअ'ल्लुक बहाल करते हुए
*
अदाकारी हर इक इंसान के बस की नहीं होती 
ज़ियादा देर तक हंँसने में दुश्वारी भी होती है 

मोहब्बत फूल देगी आपको तब होगा अंदाज़ा 
कि दुनिया में कोई शय इस क़दर भारी भी होती है 
*
तुम से बिछड़े तो कोई ख़्वाब न देखा हमने 
रख लिया आंँखों का उस दिन से ही रोज़ा हमने 

क्या हिमाक़त है कि बस एक अना की ख़ातिर 
कर लिया तुमसे बिछड़ना भी गवारा हमने
*
धूल से महफ़ूज़ रखना था मुझे तेरा बदन 
इसलिए मुझको तेरी पोशाक होना ही पड़ा

आज हम ऐसे ही एक शायर की किताब खोल कर बैठे हैं जो शायरी जीता है, ओड़ता है बिछाता हैऔर अपना इल्म दूसरों में बाँटता है ।

अफ़सोस आज बाजार में पैकिंग पर सारा ध्यान दिया जाता है ,पैक की हुई चीज़ पर नहीं। लुभावने चमकीले पैकेट में जो कुछ भी बिक रहा है उसकी गुणवत्ता या क्वालिटी कैसी है यह सोचने का वक्त खरीददार के पास नहीं है ।इसीलिए असली हीरे धूल खा रहे हैं और नकली शोरूम में महंगे दाम बिक रहे हैं।

बाजार रोज़मर्रा की चीजों पर ही नहीं अदब पर भी कब्जा किए बैठा है ।आज शायर की उसकी शायरी की वजह से नहीं उसके इंस्टाग्राम, यूट्यूब या फेसबुक पर उसकी फॉलोअर्स की संख्या की वजह से पूछ है। तभी फालोअर की संख्या बढ़ाने के लिए स्टेज पर नौटंकी का सहारा लिया जाता है शायरी अब परफॉर्मिंग आर्ट हो चुकी है ।

ये बहस का विषय है इसलिए इस बात को यहीं छोड़ कर हम हमारे आज के शायर जनाब वसीम नादिर (वसीम अहमद खाँ )साहब की किताब रंगो की मनमानीपर आते हैं जिसे रेख़्ता बुक्स ने प्रकाशित किया है ।


तुझे भुलाने को सीखा था शाइ'री का हुनर 
हर एक शे'र में अब तुझको याद करते हैं 

तेरा ख़याल सलामत तो क्या है तन्हाई 
चराग़ वाले कहीं तीरगी से डरते हैं
*
मैं भटकता ही रहा भूख के सहराओं में 
मेरे कमरे में सजा मेरा हुनर रक्खा रहा
*
बीती रूतों का एल्बम लेकर बैठ गए 
हम आंँधी में रेशम लेकर बैठ गए 

दिल की बातें दुनिया को समझाओगे
 तुम भी धूप में शबनम लेकर बैठ गए
*
बिछड़ते ही किसी से हो गया एहसास ये हमको 
कि रस्ता किस तरह इक मील का सौ मील होता है 

ये ऊंँचे लोग खुल कर मिल नहीं सकते कभी तुमसे 
समंदर भी सिमट कर क्या कहीं पर झील होता है
*
लपेट रक्खा है खुद को अना की चादर में 
सबब यही है कि अंदर से दाग़-दाग़ हैं हम
*
इतना हुआ कि आप जो सांँसों में बस गए 
सांँसो का एहतराम भी करना पड़ा मुझे 

इस दिल की रहनुमाई में चलने से ये हुआ 
दलदल में ख़्वाहिशों की उतरना पड़ा मुझे

15 जुलाई 1974 को उत्तर प्रदेश के जिले बदाऊं के कस्बे ककराला में जन्मे वसीम साहब को शायरी विरसे में नहीं मिली। घर में उर्दू पढ़ने बोलने का चलन जरूर था, जिसके चलते उन्हें इस शीरीं ज़बान से बेपनाह मोहब्बत हो गयी । उनके बुजुर्ग वहां के जाने माने हक़ीम थे लेकिन उन में से किसी का शायरी से कोई सीधा ताल्लुक़ नहीं था। शायरी वसीम साहब के भीतर कहीं छुपी बैठी थी। लड़कपन से ही उन्हें घर के आस-पास और दूर-दराज़ होने वाले ऑल इण्डिया लेवल के मुशायरों में जाने और वहां सारी-सारी रात बैठ कर शायरी सुनने का शौक़ था। इब्तिदाई तालीम उन्होंने ककराला और बदाऊं में हासिल की।

इसी बीच 1997 में उन्हें सऊदी अरब जाने का मौका मिला। वतन से दूर जा कर वतन की याद आना एक बहुत स्वाभाविक बात है। तन्हाई और उदासी को कम करने के लिहाज़ से उन्होंने बाकायदा रोज डायरी लिखना शुरू किया। इसी लेखन के दौरान यूँ ही अचानक एक दिन उन्होंने ये शेर कहा :'बस्ती तो दूर मुझको वतन छोड़ना पड़ा ,मुझको कहाँ कहाँ मेरे हालात ले गए'। जब उन्होंने इसे दोस्तों को सुनाया तो बहुत दाद मिली। इस शेर के कहने तक उन्हें शायरी के उरूज़ के बारे में कोई इल्म नहीं था लेकिन उन्हें लगने लगा था कि शायरी करने का हुनर उनके अंदर कहीं मौजूद है। जल्द ही सऊदी से वो शायरी के फ़न को अपने दिल में बसाये वापस अपने वतन लौट आये। घर आकर वो बाकायदा शेर कहने लगे। शायरी के लिए बेहद जरूरी उरूज़ की तालीम के लिए उन्हें अपने आस-पास जब कोई उस्ताद नहीं मिला तो उन्होंने किताबों का सहारा लिया और उन्हें रात-दिन पढ़ पढ़ कर ग़ज़ल का व्याकरण सीखा।        .         
ठहर गया मेरी आंँखों में दर्द का मौसम 
तेरा ख़याल मुझे जाने कब रुलाएगा 

वो जिनके घर में किताबों को खा गई दीमक 
उन्हें बताओ कहांँ से शऊ'र आएगा 
*
ग़म तो हर हाल में आंँखों से छलक जाएगा 
लाश सीने में समंदर भी छुपाने से रहा 

रूठना है तो बड़े शौक़ से तू रूठ मगर 
ज़िंदगी मैं तुझे इस बार मनाने से रहा
*
मेरा वजूद है क़ायम इसी तअ'ल्लुक से 
हवाएंँ उसकी हैं और बादबान मेरा है 

अभी तो पर भी नहीं खोले उसने उड़ने को 
अभी से कहने लगा आसमान मेरा है 
*
सितम ये है कि मैं जिनके लिए मसरूफ़ रहता हूंँ 
उन्हीं से बात करने की मुझे फ़ुर्सत नहीं मिलती
*
ऐ ज़िंदगी ये सितम है कि तेरे होते हुए 
ज़माना आने लगा मेरी ताज़ियत के लिए 
ताज़ियत: शोक प्रकट करना
*
इतना भी बेकार न समझो याद-ए-माज़ी को नादिर 
ये तिनका ही एक न इक दिन दरिया पार कराएगा
*
तेरे बग़ैर भी कहती है मुझसे जीने को  
ये ज़िंदगी भी सही मशवरा नहीं देती

बदाऊं से कारोबार के सिलसिले में वसीम साहब का दिल्ली जाना हुआ।  दिल्ली में जल्द ही उनके बहुत से शायर दोस्त बन गए जिनके साथ वहां होने वाली अदबी बैठकों और  नशिस्तों में आना जाना होने लगा। सीनियर शायरों से गुफ़तगू का सिलसिला जारी हो गया। ऐसी ही अदबी महफिलों में उनकी मुलाक़ात जनाब इक़बाल अशर से हुई जो जल्द ही बेतकल्लुफ़ दोस्ती में तब्दील हो गयी। हालाँकि इक़बाल अशर साहब वसीम साहब से उम्र में बड़े हैं लेकिन जब ख़्यालात मिलने लगें तो उम्र दोस्ती के बीच नहीं आती। हफ्ते में चार पाँच दिन दोनों रात आठ बजे मिलते और किसी चाय खाने में चाय की चुस्कियां लेते शायरी पर बातचीत करते हुए रात के एक या दो बजा देते। ऐसी ही बेतकल्लुफ़ दोस्ती वसीम साहब की जनाब हसीब सोज़ साहब से भी है। इन सीनियर शायरों से हुई बातचीत से वसीम साहब के सामने शायरी के खूबसूरत मंज़र खुलने लगे। हालाँकि वसीम साहब ने इन शायरों को कॉपी नहीं किया बल्कि उनसे अपने शेर कहने और लफ़्ज़ों को सलीक़े से बरतने के इल्म में इज़ाफ़ा किया।   

वसीम साहब को शेर में बरती गयी ज़बान बहुत अपील करती है। जनाब बशीर बद्र और नासिर काज़मी साहब उनके पसंदीदा शायर इसीलिए हैं। पानी की तरह बहती ज़बान और आसान लफ़्ज़ों में मफ़हूम को लपेटे शेर उनको बेहद पसंद हैं। आसान लफ़्ज़ों में गहरी बात कह देने का  फ़न बहुत मुश्किल से हासिल होता है. इसके लिए बड़ी मश्क़ करनी पड़ती है। अपने लिखे के प्रति कड़ा रुख अपनाना पड़ता है। ज़बान पसंद न आने पर दस में से अपनी आठ ग़ज़लें खारिज़ कर देने से वसीम साहब को जरा भी गुरेज़ नहीं होता। उनका मानना है कि अगर आप अपने कहे हर शेर से मोहब्बत करेंगे तो बेहतर शायर नहीं बन सकते। यही बात वो हर उस नौजवान को समझाते हैं जो उनसे ग़ज़ल कहने का फ़न सीखता है। शायरी में मफ़हूम तो है ही लेकिन सारा हुस्न ज़बान का है। वसीम साहब के देश विदेश में फैले 35-40 शागिर्द एक दिन अपने साथ साथ अपने उस्ताद का नाम तो रौशन करेंगे ही, उर्दू अदब को अपनी शायरी से मालामाल भी करेंगे। यहाँ उनके सभी शागिर्दों के नाम देना तो मुमकिन नहीं लेकिन बानगी के तौर पर आप जनाब यासिर ईमान , बालमोहन पांडेय, सलमान सईद और सरमत खान जैसे युवा शायरों को यू-ट्यूब  पर अपना कलाम पढ़ते हुए सुनिए।   
 
बहुत तेजाब फैला है गली कूचों में नफ़रत का 
मोहब्बत फिर भी अपने काम से बाहर निकलती है
*
लाख तरक्की कर लें बच्चे फिर भी फ़िक्रें रहती हैं 
बुनियादों पर दीवारों का बोझ हमेशा रहता है

बाहर निकलूँ तो अन्जानी भीड़ डराती है दिल को 
घर के अंदर सन्नाटों का शोर सताता रहता है
*
वो अगर ख्वाब है आंँखों में रहे बेहतर है 
और हक़ीक़त है तो आंँखों से निकल कर आए 

हमको हालात ने शर्मिंदा किया किस हद तक
बारहा अपने ही घर भेस बदल कर आए
*
दुनिया तेरी लिखाई समझ में न आ सकी 
अनपढ़ रहे हम इतनी पढ़ाई के बाद भी 
*
गिरवी रखे हैं कान ज़रूरत की सेफ़ में 
अब हम बहल न पाएंगे लफ़्ज़ों की बीन से
*
तुम्हारे बा'द अब जिसका भी जी चाहे मुझे रख ले 
ज़नाज़ा अपनी मर्जी से कहां कांँधा बदलता है
*
उस सम्त जा रहे हैं जिधर ज़िंदगी नहीं 
आंखें खुली हुई है मगर सो रहे हैं लोग
*
किसी ने देखा नहीं आस पास थी जन्नत 
थे आस्माँ की तरफ़ हाथ सब पसारे हुए
*
आख़िर मैंने ख़ून से अपने वो तस्वीर मुकम्मल की 
कब तक बेबस बैठा रहता रंगों की मनमानी पर

आज के इस दौर में जब हर कोई ज्यादा से ज्यादा लाइक्स या व्यूज बटोरने के फेर में लगा है वसीम साहब सोशल मिडिया पर उतने एक्टिव नहीं हैं जितने उनके हमउम्र दूसरे शायर हैं। ये बात उनसे पूछने पर उन्होंने बड़ी मासूमियत से कहा कि 'कुछ शायर बहुत प्रेक्टिकल होते हैं , अपने आप को बड़ा मार्केटिंग का आदमी बना लेते हैं हालाँकि इसमें कोई बुराई भी नहीं है ,लेकिन कुछ फ़नकारों में बड़ी बेज़ारी होती है अपने आप में ग़ुम रहने की, जैसा हो रहा है चलने दो वाली ,शायद मैं भी उसी खाने का आदमी हूँ।'उनकी ये बात सही भी है सोशल मिडिया पर बहुत एक्टिव रहने से या मुशायरों के मंच से भीड़ की वाह वाह पाने से आप बड़े शायर नहीं बनते अलबत्ता लोकप्रिय जरूर हो जाते हैं लेकिन ये लोकप्रियता बहुत थोड़े वक़्त तक साथ देती है। शायर बड़ा अपनी शायरी की वजह से कहलाता है लोकप्रियता की वजह से नहीं। लम्बे समय तक आप नहीं आपकी शायरी ज़िन्दा रहती है। वसीम साहब कहते हैं कि 'शायरी वो बड़ी शायरी है जो कागज़ पर पढ़ने वाले से दाद लेले।'वसीम साहब का मानना है कि 'ये कहना कि अब पहले जैसी शायरी नहीं होती ग़लत है।'ये जरूर है कि अब शायर पहले जैसी मेहनत नहीं करते और रातों रातों रात मशहूर होना चाहते हैं। ये सूरते हालात सिर्फ शायरी में ही नहीं बल्कि ज़िन्दगी में हर कहीं है। एक अजीब सी बेचैनी और घुटन में लोग जी रहे हैं किसी को किसी से कोई मतलब नहीं है धीरे धीरे इंसान छोटे छोटे जज़ीरों में तब्दील होता जा रहा है अपने आप में सिमटा हुआ। उन्हें ज़माने और इंसान में होने वाले इस बदलाव से गिला नहीं है वो जनाब शौकत साहब के इस शेर से दिल को तसल्ली दे लेते हैं :'शौकत हमारे साथ अजब हादसा हुआ , हम रह गए हमारा ज़माना चला गया।'

वसीम साहब का पहला ग़ज़ल संग्रह 'शाम से पहले'सं 2015 में उर्दू रस्मुलख़त में मंज़र-ऐ-आम पर आया। इस किताब को बेहद मक़बूलियत मिली और ये अदबी हलक़ों में चर्चित भी रही। इसे उर्दू अकादमी देहली ने सम्मानित भी किया।

हिंदी में 'रंगो की मनमानी' 2021 में पाठकों के हाथों में पहुंची। इस किताब का इज़रा आगामी 26 मार्च 2022 को बदाऊं में होना है। मेरी आप सभी पाठकों से गुज़ारिश है कि खूबसूरत शायरी और किताब के इज़रे की अग्रिम बधाई वसीम साहब को उनके मोबाइल न. 8851953082पर जरूर दें।

आखिर में पेश हैं इसी किताब से कुछ और शेर :-

सब अपने नाम की तख़्ती लगाए बैठे हैं 
पता सभी को है ये सल्तनत ख़ुदा की है
*
जिसे चिराग़ मिले हों जले जलाए हुए 
वो रोशनी का ज़रा भी अदब करेगा क्यों
*
कितने दरवाजों पे झुकता है तुम्हें क्या मालूम 
वो जो इक शख़्स किसी घर का बड़ा होता है 

उसने ता'रीफ़ के पत्थर से किया है जख़्मी 
ये निशाना बड़ी मुश्किल से ख़ता होता है 
ख़ता: चूकना
*
बस एक गुज़रा तअ'ल्लुक़ निभाने बैठे हैं 
वरना दोनों के कप में ज़रा भी चाय नहीं
*
क़ैद- ख़ाने में यही सोच के वापस आया 
मुझको मालूम है तन्हा पड़ी ज़ंजीर का दुख
*
थकन से चूर होकर गिर गया बिस्तर पे मैं अपने 
मगर अब तक तेरी तस्वीर से बाज़ू नहीं निकले
*
धुएँ से शक्ल बनाना उदास लम्हों की 
नए ज़माने तेरी सिगरेटों ने छोड़ दिया
*
सुब्ह तक सरगोशियों का रक़्स कमरे में रहा 
रात एल्बम से कई चेहरे निकल कर आ गए 
*
अब इससे बढ़ के मोहब्बत किसी को क्या देगी 
किसी की आंँख का आंँसू किसी की आंँख में है


किताबों की दुनिया - 253

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गर हो तेरा इशारा सेराब हो ये सहरा 
पलकों प एक आँसू कब से मचल रहा है 
*
बुलंदियों के मुसाफ़िर तुझे खबर भी है 
ये रास्ते में है आगे ढलान किसके लिए

इसी ज़मीन प जब तेरा आबो- दाना है 
फिर आसमान में ऊँची उड़ान किसके लिए
*
ज़ात के ग़म में कायनात के ग़म 
एक दरिया में कितने धारे थे

कैसे-कैसे निशान मिलते हैं 
क्या घरोंदे नदी किनारे थे
*
झुलसती रेत प इक बूंद ही उछाल कभी 
ये बारिशों में तो दरिया उबलते रहते हैं
*
वो हिज्र था कि अँधेरा सा छा गया दिल में 
वो याद थी कि चमकने लगे थे जुगनू से 

मेरे लिए तो वो दीवाने-मीर जैसा था 
हुआ था नम कभी काग़ज़ जो पहले आंँसू से 

तो आंँख भर के उन आंँखों में देखना होगा 
तो होगा ऐसे ही जादू का तोड़ जादू से 

हवा का ज़ोर है क्या धूप की है क्या शिद्दत 
कि आँसुओं की दुआएंँ बंँधी हैं बाज़ू से

बात थोड़ी घुमा फिरा के करते हैं। आप ये बताएँ कि भारत की भूतपूर्व राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल, उप राष्ट्रपति श्री भैरूसिंह जी शेखावत और उद्योगपति श्री जमनालाल बजाज जी का आपस में क्या सम्बन्ध है ? बहुत से लोग जवाब में शायद राजस्थान कहें ,  जवाब सही भी है लेकिन मेरे ख़्याल से बहुत कम लोग 'सीकर'तक पहुंचेंगे। जी हाँ ,ये तीनों सीकर जिले से सम्बंधित हैं । भैरूसिंह जी और जमना लाल जी का जन्मस्थान सीकर जिला है वहीँ प्रतिभा जी का ये जिला ससुराल है। हमारे आज के शायर भी सीकर जिले के ही हैं बल्कि यूँ कहूं कि सीकर शहर के हैं । 'सीकर'जिला जयपुर से 114 की मी दूर है और शेखावाटी क्षेत्र में आता है। सीकर अपने आसपास बने विशालकाय किलों और हवेलियों के लिए प्रसिद्द है जिसे देखने दूर दूर से पर्यटक आते हैं। 'सीकर'की ऐसी ही एक बहुत विशालकाय हवेली के पास आपको लिए चलते हैं। ये सीकर के एक बड़े जागीरदार साहब की हवेली है जिसका ये बड़ा सा दरवाज़ा आप देख रहे हैं वो किसी ज़माने में कभी नाच, गाने जैसी दूसरी ललित कलाओं के लिए नहीं खुलता। शायरी की तो बात ही छोड़ दें। लेकिन साहब अपवाद स्वरुप ही सही, चट्टानों में भी फूल खिलते हैं। जो अब तक नहीं हुआ था वो 15 अगस्त 1960 को हुआ को जब इस किलेनुमा हवेली में एक बहुत ही प्यारे बच्चे की किलकारी गूँजी। इस बच्चे ने आगे चल कर वो किया जो पहले इस हवेली में जन्मे किसी बच्चे ने नहीं किया था। उसने शायरी की। बंजर ज़मीन को फूलों से भर दिया। किसी अंदाज़ा नहीं था कि बच्चा आने वाले वक़्त में 'सीकर'की शान बनेगा। 

कितने सूरज ज़मीन में सोये 
नूर फूटेगा ज़र्रे ज़र्रे से 

आँख में आ गया है इक आँसू 
दश्त सेराब एक क़तरे से 
दश्त :जंगल ,  सेराब :पानी से भरा हुआ , सींचा हुआ  

उम्र कितनी भी हो मगर शुहरत 
बाज़ आती कहाँ है नख़रे से 
*
बेज़रूरत घर से निकलें और फिर 
शय ख़रीदें कोई महँगे दाम पर 
*
दिल ढले होगा जश्ने-तन्हाई 
इल्तिजा है ग़मों से शिरकत की 
*
है बर्गो-बार का गिरना तो क़र्ज़ मौसम का 
हवा-ए-तुन्द! परिंदे कहाँ शजर के गये 
बर्गो-बार : पत्ते और फल , हवा-ऐ-तुन्द : तेज हवा 
*
वो साथ छोड़ गया तो मलाल क्या उस का 
बिछड़ गया जो कहीं उस का ग़म किया जाये 
*
सलीक़े से रक्खा हर चीज़ को 
यूँ कमरे को अपने कुशादा किया 
कुशादा: खुला हुआ या फैला हुआ   
*
बहुत शौक़ घर को सजाने का था 
मगर क्या करें अपना घर ही नहीं 
*
तजस्सुस अब नज़र का और क्या है 
जिधर सब देखते हैं देखता हूँ 
तजस्सुस :जिज्ञासा, तलाश 

बच्चे का नाम रखा गया 'मोहम्मद फ़ारूक़ निरबान'। फ़ारूक़ देखने में तो ख़ूबसूरत था ही पढ़ाई लिखाई में भी बहुत तेज़ था। हवेली वालों को उस पर फ़क्र था तो स्कूल वाले उसे देख फूले नहीं समाते थे। 'फ़ारूक़'पढाई के साथ साथ डिबेट और ड्रामा में भी किसी से कम नहीं था। डिबेट में उसके बोलने का अंदाज़ और ड्रामा में किये सहज अभिनय को देख उसके प्रसंशकों में लगातार इज़ाफ़ा होता रहा। पंद्रह-सोलह बरस की उम्र होगी जब फ़ारूक़ को उसके ड्रामा टीचर ने 'साहिर लुधियानवी'की किताब पढ़ने को दी। जैसे अलीबाबा को 'खुल जा सिमसिम'ने ख़ज़ाने का रास्ता दिखाया वैसे ही 'साहिर'ने फ़ारूक़ को शायरी के उस ख़ज़ाने से रूबरू करवाया जिसका उसे कभी इल्म ही नहीं था। कहते हैं कोई न कोई फ़न इंसान के भीतर होता है जरुरत उसे तराश कर बाहर लाने की होती है। अगर आपके भीतर कोई फ़न नहीं है तो आप उस्ताद से सीख कर उसे सिर्फ सतही तौर पर ही हासिल कर सकते हैं उसमें मास्टरी हासिल नहीं कर सकते। 'साहिर'को पढ़ कर ही फ़ारूक़ को अपने भीतर छुपी शायरी के फ़न का पता चला। 'साहिर'के बाद 'फ़ारूक़'ने 'फैज़'और दूसरे शायरों को पढ़ने का सिलसिला जारी रखा। शायरी से फ़ारूक़ को मोहब्बत सी हो गयी। मज़े की बात है कि घर में इसकी भनक भी किसी को नहीं लगी।

फ़ारूक़ जैसा मैंने बताया पढाई में होशियार था हायर सेकेंडरी के बाद उसका एडमिशन जोधपुर के एम.बी.एम. इंजीनियरिंग कॉलेज में हो गया , ब्रांच मिली 'इलेक्ट्रॉनिक्स ऐंड टेलिकमन्यूकेशन,, जो उस वक़्त सिर्फ अव्वल छात्रों को ही मिला करती थी।

ज़माने की दिल को हवा लग गयी है 
वगरना ये लड़का भले घर का है 
*
यादें उसकी ग़म अपने और दर्द ज़माने का 
छोटे से कमरे में आख़िर क्या क्या रक्खूँ मैं 
*
आँख हो और कोई ख़्वाब न हो 
नाज़िल ऐसा कहीं अज़ाब न हो 
नाज़िल:अवतरित , अज़ाब: पीड़ा 

सर्फ़ कीजे न इस क़दर ख़ुद को 
लाख चाहो तो फिर हिसाब न हो 
सर्फ़: खर्च 

कुछ तो महफूज़ रखिये सीने में 
ज़िंदगानी खुली किताब न हो 
*  
ग़म से ऐसे निढाल हूँ जैसे 
एक बच्चे की पीठ पर बस्ता 

एक जुगनू था आस की सूरत 
भर गया रौशनी से सब रस्ता 

बारिश की दुआएँ माँगी हैं 
और दीवार घर की है ख़स्ता 

बाँध रक्खा है कब से रख़्त-ए-सफ़र 
कभी आवाज़ दे कोई रस्ता 
रख़्त-ए-सफ़र: सफ़र का सामान 

इश्क़ को बीमारी यूँ ही नहीं कहते। अव्वल तो ये हर किसी लगती नहीं और कहीं लग जाय तो कमबख़्त छूटती नहीं। मख़्मूर देहलवी साहब का ये शेर तो आपने पढ़ा ही होगा :

मोहब्बत के लिए कुछ ख़ास दिल मख़सूस होते हैं
ये वो नग़मा है जो हर साज़ पे गाया नहीं जाता

तो साहब यूँ समझें कि ये बीमारी फ़ारूक़ को भी लग गयी। हज़रत दिमाग से इंजीनियरिंग की मुश्किल पढाई करते और दिल से शायरी। साथ में डर भी कि इस बीमारी का किसी को पता न चल जाय। कहते हैं इश्क़ मुश्क़ छुपाये नहीं छुपते ,धीरे धीरे ही सही दोस्तों को खबर लग गयी कि फ़ारूक़ शायरी के इश्क़ में गिरफ़्तार हो चुका है। एक दोस्त ने सलाह दी कि वो अपना क़लाम विजिटिंग प्रोफ़ेसर जनाब डी डी हर्ष साहब को दिखाएँ जो शायरी के जानकार माने जाते थे। हिम्मत करके फ़ारूक़ ने अपना कलाम उन्हें दिखाया , देख कर वो चौंके और बोले कि बरख़ुरदार तुम तो खूब कहते हो। हर्ष साहब की बात से फ़ारूक़ का हौंसला बुलंद हुआ। हर्ष साहब ने आगे कहा कि मैं एक पर्ची पर तुमको एक पता लिख के देता रहा हूँ तुम इस पते पर जाओ और वहाँ रहने वाले शख़्स से मिलो। 'फ़ारूक़'अगले ही दिन सुबह सुबह हर्ष साहब की पर्ची लेकर उस पर लिखे पते पर जा पहुँचे। घर की घंटी बजाई और जिसने दरवाज़ा खोला वो थे उर्दू अदब के बहुत बड़े आलिम जनाब 'शीन काफ़ निज़ाम'साहब। जो बने 'फ़ारूक़'के पहले उस्ताद।
  .    
मुअत्तर है तुम्हारी याद से शब का हर इक पहलू 
महकना रात में कब रात-रानी का बदलता है   

बदलती ही नहीं सूरत किसी भी तौर गावों की 
यहाँ नक्शा तो अक्सर राजधानी का बदलता है 

बदल जाते हैं सब अपने पराये राज रजवाड़े 
मगर घनश्याम कब 'मीरा'दीवानी का बदलता है 
*
मैं अपने आप में गुम हूँ तो क्या जरूरी है 
हर एक काम का कोई न कोई मक़सद हो 

सुकून हमसे न खो जाये इस तरह इक दिन 
तलाश उस को करें और न वो बरामद हो 

तमाम उम्र न देखे किसी की राह कोई 
हो इंतज़ार तो फिर इंतज़ार की हद हो    

हंगामें दो चार क़दम 
फिर मीलों वीरानी है 
*
घर छोड़ आये आप भी अच्छा किया हुज़ूर 
ये तो जुनूँ की राह में पहला क़दम हुआ 
*
देखता हूँ बिखरते फूलों को 
अपना अंजाम भूल जाता हूँ 

निज़ाम साहब ने फ़ारूक़ को प्यार से घर में बिठाया और पूछा कैसे आये ?जब फ़ारूख़ ने बताया कि वो शायरी सीखना चाहते हैं और फ़िलहाल जोधपुर में इंजिनीयरिंग कर रहे हैं तो निज़ाम साहब मुस्कुराते हुए बोले तुमने भी मेरी तरह ये क्या रास्ता इख़्तियार कर लिया बरखुरदार ? निज़ाम साहब खुद भी इंजीनियरिंग ग्रेजुएट थे। अब तो फ़ारूख़ रोज ही निज़ाम साहब से मिलने लगे। कॉलेज ख़त्म करने के बाद लंच करते और साइकिल उठा कर सीधे निज़ाम साहब के ऑफिस पहुँच जाते और उनका ऑफिस ख़त्म होने पर साइकिल पर उनके घर तक साथ जाते। निज़ाम साहब ने उन्हें उरूज़ की जानकारी के साथ साथ क्या लिखना चाहिए कैसे लिखना चाहिए सिखाया और भरपूर ज़िन्दगी जीने के गुर भी बताये। पढ़ने के लिए ढेरों किताबें दीं। निज़ाम साहब के साथ जोधपुर में बिताये तीन साल 'फ़ारूक़' को 'मोहम्मद फ़ारूक़ निरबान'से 'फ़ारूक़ इंजिनियर'बना गए।

हमारे सामने जनाब 'फ़ारूक़ इंजिनियर'साहब की दूसरी ग़ज़लों की किताब 'कितने सूरज'खुली हुई है जिसे सं 2018 में माई बुक्स पब्लिकेशन नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है। इस किताब का संपादन श्रेष्ठ युवा ग़ज़लकार जनाब 'इरशाद खान सिकन्दर' साहब ने किया हैआप ये किताब, जो अमेजन पर भी मौजूद है, माई बुक्स को 9910482906/ 99104 91424 पर फोन कर मँगवा सकते हैं।


उसी की है अदालत उसी के मुंसिफ़ हैं 
उसी के सब हैं तो मेरा बयान किसके लिये 
*
जां से बढ़कर नहीं कोई लेकिन 
लोग कुछ जान से भी प्यारे थे  
*
लिखूँ ज़ख़्म को फूल दिल को चमन 
नहीं मुझमें ऐसा हुनर ही नहीं 
*
कोई चराग़ सरे-रहगुज़र भी रौशन हो 
मुँडेर पर तो दिये सबकी जलते रहते हैं 
*
इसे अब भी 'फ़ारूक़'कहते हो घर 
अब इस में तो घर सा बचा कुछ नहीं 
*
अगर हुनर है तो सर चढ़ के बोलता है ज़रूर 
गो लाख ऐब निकाले निकालने वाला  
*
इश्क़ है तो फिर इश्क़ ही रहे 
खेल ख़त्म हो जीत हार का
*
ख़ज़ाने कर दिए क्या क्या अता मुझे उस ने 
कुछ और ढूंँढने निकला था मैं समंदर में 

अजीब धुन है गले से लगा के देखता हूंँ
तुम्हारा लम्स हो जैसे हर एक मफ़्लर में
*
इस से बढ़कर क्या दिलासा है कोई 
हाथ उसने रख दिया है हाथ पर

इंजीनियरिंग के बाद 'फ़ारूक़'साहब को कोटा थर्मल प्लांट में नौकरी मिल गयी। नौकरी के साथ-साथ बाकायदा शायरी भी चलने लगी। अपने दिलकश और बिलकुल अलहदा लबो-लहज़े की वज़ह से जल्द ही लोग उन्हें जानने, पसंद करने लगे। इस्लाह के लिए उनकी निज़ाम साहब से खतो क़िताबत होती रहती थी। धीरे धीरे उनका कलाम अख़बारों और रिसालों में भी छपने लगा। अस्सी के बाद वाले दौर में आये नए मोतबर शायरों में उनका नाम लिया जाने लगा। तभी उन्होंने अपनी कुछ ग़ज़लें ऐवाने उर्दू दिल्ली से छपने वाले मशहूर रिसाले को भेजीं। मख्मूर सईदी साहब उस रिसाले के संपादक थे। बाद मख़्मूर साहब का फोन 'फ़ारूक़'साहब के पास आया बोले की ग़ज़लों की तारीफ़ करते हुए बोले 'बरखुरदार तुम कौन हो जो इतनी पुख्ता ग़ज़लें कहते हो हमने तो तुम्हारा नाम भी नहीं सुना था। इसके बाद उन्होंने ग़ज़लों में थोड़ी बहुत तब्दीली कर के कहा कि देखो इस हलकी सी फेर बदल से तुम्हारी ग़ज़ल कितनी खूबसूरत बन पड़ी है।'इसके बाद तो दोनों के बीच ऐसा राब्ता कायम हुआ जो मख़्मूर साहब के दुनिया-ऐ-फ़ानी से रुख़्सत होने के बाद ही टूटा। मख़्मूर सईदी साहब को फ़ारूक़ साहब अपना दूसरा उस्ताद मानते हैं। जब भी मख़्मूर साहब किसी मुशायरे में शिरकत के सिलसिले में कोटा आते तो अपना वक़्त 'फ़ारूक़'साहब के साथ ही गुज़ारते। लफ़्ज़ों को ख़ूबसूरती से बरतने का सलीका फ़ारूक़ साहब ने मख़्मूर सईदी साहब से ही सीखा। उन्होंने ही'फ़ारूक़'साहब का पहला शेरी मजमुआ 'सहरा में गुम नद्दी'नाज़िश पब्लिकेशन दिल्ली से छपवाया।उनके पहले मजमुए को सं 1999-2000 को उत्तर प्रदेश का उर्दू अकादमी पुरूस्कार मिल चुका है। इस से पूर्व राजस्थान उर्दू अकादमी ने भी उन्हें 1997-1998 में सम्मानित किया था।

अपनी शायरी के आगाज़ के 19 साल के बाद याने सं 1999 में 'फ़ारूक़'साहब का पहला शेरी मजमुआ शाया हुआ और फिर उसके दस साल बाद 2019 में ये दूसरा। इससे अंदाज़ा हो जाता है कि जब तक फ़ारूक़ साहब को अपने कलाम से तसल्ली नहीं हो जाती वो उसे प्रकाशित करने की जल्दी नहीं करते। ये ही एक बड़े शायर की पहचान है।
स्वभाव से बेहद शर्मीले शोर शराबे और अपनी मशहूरी को लेकर बेहद ठन्डे 'फ़ारूक़'साहब एक बेहतरीन इंसान हैं। इस पोस्ट के सिलसिले में वादा करने के बावजूद वो अपने बारे में ज्यादा कुछ बताने से बचते रहे हैं। उनके बारे में इतनी सी जानकारी भी जयपुर के शायर जनाब 'आदिल रज़ा मंसूरी साहब'से हुई उनकी एक गुफ़्तगू से मिल पायी है। आप उन्हें उनकी इस लाजवाब शायरी के लिए 9414203120 पर फोन कर बधाई दे सकते हैं। यकीन मानिये आपको उनसे गुफ़्तगू कर अच्छा अनुभव होगा।

'फ़ारूक़'साहब नज़्में भी कमाल की लिखते हैं। उम्मीद है उनकी नज़्मों का संकलन जल्द ही हमें पढ़ने को मिलेगा

आखिर में उनके कुछ और शेर पढ़िए :

सुबह का नूर, फब शाम की, रात की नींद, दिल का सुकूँ
एक बाज़ी थी दिल की मगर दाव पर जाने क्या क्या लगा
*
अब वो मौसम भी कहांँ आएगा 
जुल्फ़ उसकी है न शाना मेरा
*
 अभी मसरूफ हूंँ ऐ याद थम जा 
इबादत भी तो फ़ुर्सत चाहती है 

गज़ब ये है जहाने- इल्मो- फ़न पर 
जहालत भी हुकूमत चाहती है
*
जिसमें आबाद हो न विरानी 
घर में ऐसा है कोई गोशा भी 

कोई उम्मीद, आरज़ू , न उमंग 
और कहते हैं ख़ुद को ज़िंदा भी
*
ये सच है कि मसरूफ़ रहा कारे जहाँ में 
ये बात ग़लत है कि तेरा ध्यान नहीं था


किताबों की दुनिया - 228

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फटी पुरानी सियाह रात की रिदा के लिए 
अभी सुई से मुझे रोशनी गुज़ारनी है 

तमाम उम्र जुदाई की साअते नाजुक
कभी निबाहनी है और कभी गुज़ारनी है 
साअते : समय 

तो क्या यह तय है कि वो फैसला न बदलेगा 
तो क्या यह कै़द मुझे वाकई गुज़ारनी है
*
कोई कुछ भी गुमान कर लेगा 
चुप की चिलमन है गर हमारे बीच
*
बहते बहते एक दरिया से कहीं मिल जाएगा 
बारिशों के बाद पानी बे निशांं होता नहीं 

रोशनी के पैरहन में आ गई ताज़ा महक 
रात में कलियों का खिलना रायगां होता नहीं 
राएगां :व्यर्थ, बेकार

यह ख़्याले ख़ाम कब तक थपकियाँ देता रहे 
जो यहां पर हो रहा है वो कहां होता नहीं

मोअतबर ठहरा वही आबादियों की आंख में 
लफ़्ज़ के चेहरे से जो मानी बयां होता नहीं
*
खुद है मुश्किल पसंद मुश्किल में
उसकी मुश्किल कुशाई ही मुश्किल है 
मुश्किल कुशाई: मुश्किल से निकलना

मंजिलों तक पहुंचने वालों ने 
जो रियाज़त बताई मुश्किल है 
रियाज़त :मेहनत

मुश्किलों से निकल के जान लिया 
मुश्किलों से रिहाई मुश्किल है

आज मौसम कुछ ज्यादा ही खुशग़वार था, यूँ तो नैरोबी में अमूमन मौसम खुशग़वार ही रहता है लेकिन जुलाई से अक्टूबर तक बाकि महीनों से कुछ ज्यादा ठंडा। सूट पहने हुए बुजुर्ग ने अपनी टाई को ठीक किया और अपने लग्ज़री आफ़िस की सीट से उठ कर सामने लगी शीशे की विशाल दीवार से पर्दा हटा कर बाहर देखने लगा। 75 साल की उम्र के बावजूद इस बुजुर्ग़ के चेहरे की चमक नौजवानों को मात कर रही थी। ऑफिस के मेन गेट से बाहर वाली सड़क पर कारें तेजी से आ जा रहीं थी। 'सर आपकी कॉफी'बुजुर्ग की सेकेट्री ने ऑफिस में अंदर आते हुए कहा 'इसे आपकी मेज़ पर रख दूँ ?' बुज़ुर्ग ने बिना चेहरा घुमाये बाहर देखते हुए कहा ,नहीं मुझे यहीं देदो, सुबह से सीट पर बैठे-बैठे थक गया हूँ। सेकेट्री, कॉफी का मग बुज़ुर्ग को पकड़ा कर धीरे से ऑफिस के बाहर चली गयी। मग से उठती कॉफी की खुशबू से उसके ज़ायके का अंदाज़ा लगाया जा सकता था। बुज़ुर्ग ने हलके से एक सिप लिया और मुस्कुराया। कॉफी बेहद ज़ायकेदार थी। अगला सिप लेते वक्त उसने देखा कि सड़क पर एक बच्चा अपने साथ सूट बूट में चल रहे रोबीली शख़्सियत के एक बुजुर्ग की ऊँगली थामे उछलता हुआ चल रहा है। बुजुर्ग की आँखें बच्चे के साथ चल रहे बुज़ुर्ग पर टिक गयीं। अरे मेरे नाना जान भी बिलकुल ऐसे ही थे। 

'नाना'का ध्यान आते ही बुज़ुर्ग की यादों में सियालकोट की वो कोठी आ गयी जिसके बरामदे की आराम कुर्सी पर उसके नाना हुक्का गुड़गुड़ाते हुए किसी से बतिया रहे थे।'अस्सलाम वालेकुम' नाना ,बुज़ुर्ग जो उस वक़्त 22 साल के नौजवान थे, ने कहा। 'वालेकुम अस्लाम'बरख़ुरदार जीते रहिये। मुबारक़ हो सुना है तुम्हारा पंजाब यूनिवर्सिटी लाहौर से बी फार्मेसी का रिजल्ट आया है'। नाना मुस्कुराते हुए बोले। 'जी , ठीक सुना है आपने तभी तो आपके लिए आपकी पसंदीदा मिठाई लाया हूँ 'कहते हुए नौजवान ने पीठ पीछे छुपाया मिठाई का डिब्बा आगे करते हुए कहा। नाना ने एक टुकड़ा मुंह में डाला और मुस्कुराते हुए सामने बैठे शख़्स को देते हुए बोले 'ये नौजवान मेरा नवासा है'। 'नाना ,आप रिजल्ट क्या आया पूछेंगे नहीं ? युवक ने हैरान होते हुए पूछा। 'पहले कभी पूछा है जो आज पूछूँ ?'नाना हँसते हुए बोले। 

अब हैरान होने की बारी नाना के सामने बैठे शख़्स की थी वो नाना की और मुख़ातिब होते हुए बोला  'मियां जमशेद अली राठौर साहब आप पूछेंगे नहीं कि रिज़ल्ट क्या रहा ? 'यार रहमत अली कम से कम मेरा नाम तो पूरा बोला करो बोलो जमशेद अली राठौर पी.एच.डी.। , सियालकोट में जमशेद अली राठौर हज़ारों होंगे लेकिन पी.एच.डी. मैं अकेला हूँ, नाना ठहाका लगाते हुए बोले। 'बेशक बेशक'सकपकाते हुए रहमत साहब ने फ़रमाया 'मैं आइंदा इस बात का ख़्याल रखूँगा। 'मियां रहमत जिस नौजवान का नाना पी.एच.डी हो और जिसके ख़ानदान की निस्बत 'अल्लामा इक़बाल'से हो उस से मैं रिजल्ट पूछूँ ? लानत है , नाना मुस्कुराते हुए बोले 'हमारे यहाँ इम्तिहान का नतीजा नहीं पूछा जाता सिर्फ पोज़ीशन पूछी जाती है,और मैं इसकी शक्ल देख कर बता सकता हूँ कि इसे फर्स्ट पोज़ीशन मिली है  क्यों बरख़ुरदार ? ''जी आप ने सही कहा'नौजवान ने कहा। नाना उठे और अपने नवासी को गले लगा लिया। 

याद है वो आशना जो उन्स आंखों में भरे 
राह तकता था किसी की खिड़कियों की ओट से

क्या शरीके ज़ात है कुछ साअतों का आदतन 
देखना मीठी नज़र से तल्ख़ियों की ओट से 

रात चिड़ियां जुगनुओं से क्यों तलब करती रहींं 
कुछ तसल्ली की शुआएं डालियों की ओट से 

मैली मैली इस फिज़ा में चांद भी खदशे में है 
मुश्किलों से झांकता है बादलों की ओट से
*
बस्ती, दरिया, सहरा, जंगल देख चुके तो सीखा है
शब में तन्हा चलते रहना, डर में सोच समझ कर रहना

जानी पहचानी शक्लें हैं देखे भाले से हथियार 
हमला आवर घर वाले हैं, घर में सोच समझ कर रहना
*
फ़क़त तुम्हारा नहीं इसमें मेरा ज़िक्र भी है 
गये दिनों की मोहब्बत को मोअतबर रखना 

वफ़ा की बात मुफ़स्सल बयान करनी है 
अदावतों की कहानी को मुख़्तसर रखना
मुफ़स्सल: विस्तृत, ब्योरे से

मुझे खबर है तुझे आंधियो का खौफ नहीं 
मगर संभाल के अल्फ़ाज़ज का यह घर रखना
*
ज़मींं पे ख़ाक की चादर बिछाने वाले ने 
बुलंदी आंख में रक्खी तो साथ डर भी दिया
*
इस ग़म को ग़मे यार का हासिल न कहो तुम
 ये दायमी ग़म मेरी तबीअत का सिला है
दायमी: चिरस्थाई

बुज़ुर्ग कॉफी का मग लिए ऑफिस में करीने से लगे ख़ूबसूरत सोफे पे बैठ गए. यादों का सिलसिला जो एक बार शुरू हुआ तो उसने रुकने का नाम ही नहीं लिया। बी-फार्मा  करने के बाद नौजवान ने पाकिस्तान की फार्मेसी कंपनियों में मुलाज़मत की लेकिन दिल को तसल्ली नहीं मिली। हर जगह करप्शन का बोल बाला दिखा। नौजवान के वालिद मोहतरम मोहम्मद बशीर बट सियालकोट में डिप्टी सैटलमेंट कमिश्नर थे हज़ारों को उन्होंने प्लाट एलाट किये, अगर वो चाहते तो अपने अपने रिश्तेदारों को एक नहीं कई प्लाट दिला देते लेकिन नहीं न उन्होंने अपने लिए कोई प्लाट लिया न अपने किसी रिश्तेदार को दिलवाया। ऐसे वालिद की औलाद का करप्शन से कोई नाता कैसे हो सकता था। पढ़े लिखे नाना, एम ऐ पास वालिद और बी ऐ पास वालिदा ने उनकी तरबियत में ईमानदारी घोट कर मिला दी थी। नौजवान को अच्छे से याद है जब एक दिन उनके वालिद ने उन्हें कहा था कि "बरख़ुरदार वसीम बट ज़िन्दगी में कितनी भी मुश्किलें आयें ,सह लेना लेकिन याद रखना जब कभी मुँह में लुक्मा डालो वो हलाल का हो, लफ्ज़ सच का हो और अमल में दियानतदारी हो।"वो दिन है और आज का दिन वसीम ने वालिद की इस सीख का हमेशा पालन किया है। 

ये मेरी तारीख़ का तारीक पहलू बन गया 
मैं रहा ग़ाफिल उसी से जो मेरे नज़दीक था 

रात भर अहबाब मेरे दिल को बहलाते रहे 
एक चेहरे की कमी थी वरना सब कुछ ठीक था
*
मैं एक उम्र से तेरे दिलो दिमाग़ में हूं 
मुझे कुबूल न कर मेरा एअतेबार तो कर
*
पुर सुकूं कितना था वो जब फ़ासले थे दरमियां 
रंग फीका पड़ गया अब कुर्बतों के ख़ौफ़ से 
कुर्बत: निकटता 

जब सरे महफ़िल अना की मुफ़्त सौगातेंं बटींं 
बा वफ़ा सारे अलग थे रंजिशों के ख़ौफ़ से 

ना गहानी सानहों के हो गए वह भी शिकार 
घर से जो बाहर न निकले हादसों के ख़ौफ़ से
ना गहानी सानहे: अचानक होने वाली दुर्घटना
*
कैसी मुश्किल में आ गया है वो 
जिसको आसानियाँ समझनी हैंं 

बस्तियों की चहल-पहल देखूं 
घर की वीरानियां समझनी हैंं 

मुझको खुद से तो आशनाई हो 
अपनी नादानियां समझनी हैंं
*
जब अंधेरों ने पुकारा घर से बस हम ही गये 
अब उजालों ने बुलाया है तो हमसाये गए
हमसाये: पड़ौसी

वालिद की अचानक हुई वफ़ात से नौजवान वसीम पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। आठ छोटे बड़े भाई बहनों को उन्हीं का सहारा था। उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और तब तक राहत की सांस नहीं ली जब तक उन्होंने अपनी सारी जिम्मेवारियां पूरी नहीं कर लीं। 

सं 1974 में अचानक किस्मत ने करवट ली और वो पाकिस्तान छोड़ कर कीनिया के नैरोबी शहर में आ गए। बुज़ुर्ग, जो अब वसीम बट वसीम के नाम से पूरे कीनिया में जाने जाते हैं, कॉफी के मग को गौर से देखते हुए फिर यादों के गलियारों में गश्त करने लगते हैं। उन्हें नैरोबी में बिताये शुरू के संघर्ष के दिन अच्छे से याद हैं जब एक अजनबी शहर में अपने पाँव जमाने के लिए रात दिन कितनी जद्दोजहद की थी। कोशिशों का नतीजा अच्छा निकला उन्होंने दो साल की अथक मेहनत के बाद 'ग्लोब फार्मेसी'के नाम से कम्पनी खोली और 1977 में पूर्वी अफ्रीका में इंजेक्शन बनाने का पहला कारखाना लगाया। 

ईमानदारी सच्चाई और दयानतदारी के चलते कारोबार में बरकत होने लगी। इसी दौरान वसीम साहब को शायरी का शौक चढ़ा। यूँ शायरी वो सियालकोट में सं 1973 से ही करने लगे थे लेकिन एक बार नैरोबी में जब उनके पाँव जम गए और घर के सभी लोग खुशहाल ज़िन्दगी जीने लगे तो ये शौक़ परवान चढ़ता गया। नतीज़तन उनकी शायरी की पहली किताब 'धनक के सामने'सं 2001 में लाहौर से प्रकाशित हुई। इस किताब ने दुनिया भर में फैले उर्दू प्रेमियों को बहुत प्रभावित किया।  देश विदेश में फैले उर्दू साहित्य के आलोचकों ने इस किताब पर प्रशंसात्मक लेख लिखे जिनमें जयपुर के जनाब फ़राज़ हामिदी भी शामिल हैं। फ़राज़ साहब को वसीम साहब की शायरी पढ़ कर ख़्याल आया कि इसे उन लोगों तक भी पहुँचाया जाना चाहिए जो उर्दू नहीं पढ़ सकते लिहाज़ा उन्होंने इस किताब का हिंदी में लिप्यांतरण किया और फिर अपनी इस ख़्वाइश का इज़हार करते हुए वसीम साहब से फोन पर इस किताब को हिंदी में प्रकाशित करने की इज़ाज़त मांगी जो वसीम साहब ने ख़ुशी से दे दी। नवम्बर 2008 में अदबी दुनिया पब्लिकेशन जयपुर से इसका प्रकाशन हुआ।नवम्बर 2008 में अदबी दुनिया पब्लिकेशन जयपुर से इसका प्रकाशन हुआ। अफ़सोस की बात है कि अब अदबी दुनिया प्रकाशन में अब ये किताब उपलब्ध नहीं है , आपकी किस्मत बुलंद हो तो हो सकता है आपको ये किसी बड़ी लाइब्रेरी में मिल जाए। 


मुझे यह वहम था हमसाये पानी लाएंगे 
मैं वरना घर में लगी आग बुझने क्यों देता 

पुरानी सोच की सादा हथेलियों पे कभी 
नए खयाल की मेंंहदी लगाने क्यों देता
*
जो रो रहे थे, वो पत्ते थे, ख़्वाब थे, क्या थे 
मैं कच्ची नींद से जागा तो चल रही थी हवा 

उसी मुक़ाम से अपनी उड़ान तेज़ हुई
कि जिस मुक़ाम पे लहजा बदल रही थी हवा
*
बस एक बात मेरी उसको नापसंद रही 
कि मेरी सोच का एक ज़ाविया अलग सा है

खुशी की दस्तकें मुझसे ही क्यों गुरेज़ां हैं 
लिखा जो दर पे है शायद पता अलग सा है
*
मैं अपने आप को अक्सर झिड़क भी देता हूं 
तभी तो मुझसे मेरी बात बनती जाती है 

वही दरख़्त है अब भी सफेद फूलों का
मगर तने से वो तहरीर मिटती जाती है 

ये आसमान तो सदियों से अपना दुश्मन था 
जमींं भी पांव तले से निकलती जाती है
*
इतनी सारी राहतों को अब न भेजो एक साथ 
सुख को सहने की अनोखी आदतें होने तो दो

अचानक टेबल पर पड़े फोन की घंटी बजने से बुज़ुर्ग वसीम बट साहब की यादों का सिलसिला टूटा। कॉफी का मग टेबल पर रखते हुए फोन उठाया और धीरे से बोले 'हैलो वसीम दिस साइड'दूसरी तरफ सेकेट्री थी बोली 'कल शाम चार बजे केन्या उर्दू सेंटर के सदस्य आपकी सदारत में एक मीटिंग करना चाहते हैं उनको आपसे मंज़ूरी चाहिए ,क्या बोलूं ? वसीम साहब ने एक पल सोचा और कहा 'मंज़ूरी देदो'। सन 1992 में जब वसीम साहब ने केन्या उर्दू सेंटर की बुनियाद रक्खी तो किसी ने नहीं सोचा था कि ये सेंटर चलेगा, क़ामयाबी तो दूर की बात है। ये सेंटर आज भी चल रहा है और यहाँ बच्चों को उर्दू की बाक़ायदा तालीम देने के लिए क्लासेस चलाई जाती हैं। जिसके अपने मुल्क़ के बच्चों में उर्दू पढ़ने लिखने का शौक धीरे धीरे कम होता जा रहा है वहीँ एक ऐसे मुल्क़ में जहाँ उर्दू न बोली जाती है न समझी ये शख़्स पिछले 30 सालों से बच्चों को इसे सिखाने के लिए सेंटर चला रहा है। उर्दू सेंटर की तरफ़ से समय पर होने वाले सेमीनार, ड्रामा और मुशायरे उर्दू ज़बान को केन्या में ज़िंदा रखे हुए हैं। मीर ग़ालिब इक़बाल और फैज़ पर हुए ख़ास प्रोग्राम आज भी केन्या वासियों की याद में ताज़ा हैं। 

सच की मशअल हाथ में है आंधियों की ज़द में हूं 
दुश्मनों से लड़ रहा हूं दोस्तों की ज़द में हूं 

सर छुपाना था मुकद्दम हादसों को भूलकर 
आईनोंं की छत चुनी थी किरचियों की ज़द में हूँ 
मुकद्दम: पुराने

क्या जरूरी है कि जो मैं चाहता हूं वो मिले 
रोशनी का घर बनाकर जुल्मतों की ज़द में हूँ
*
उलझनों से अब रिहाई सोचते हो, देख लो 
गर्दनों में निस्बतों की भारी जंजीरे भी हैं 
निस्बत: लगाव
*
बे ख़बर आराम की चादर लपेटे सो गए 
जागते बिस्तर में तन्हा बा ख़बर मुश्किल में है

वसीम साहब  के बारे में इफ़्तेख़ार आरिफ़ साहब ने लिखा है कि ' वसीम बट्ट की शायरी के अशआर पढ़ते वक़्त ये ख़्याल भी नहीं आता कि वो कितने अर्से से वतन और एहले वतन से दूर हैं।  ऐसा मालूम होता है कि उनके अशआर का इलाक़ा अपने मुले सुख़न की मानूस और आशाना सरहदों ही में कहीं वाक़ेअ है। अपनी ज़मीने निकालना और नए ख्यालो नये मिज़ाज की शायरी करना वसीम की तख़्लीक़ी सुरवत मंदी की मोतबर गवाहियाँ हैं।' 
जनाब अमजद इस्लाम अमजद साहब लिखते हैं कि 'मेरे इल्म के मुताबिक़ वसीम अफ्रीक़ा के पहले ऐसे साहिबे दीवान शाइर हैं जिनका कलाम पूरे एतेमाद के साथ और बगैर किसी रिआयत के हम अस्र शाइरी के नुमाइन्दा नमूनों के साथ रखा जा सकता है। 
लाख कोशिशों के बावजूद मुझे वसीम साहब का कलाम इंटरनेट पर हिंदी लिपि में कहीं नहीं मिला और तो और 'रेख़्ता'की साइट पर भी वो मुझे कहीं नज़र नहीं आये जहाँ हज़ारों छोटे बड़े शायरों का क़लाम पढ़ा जा सकता है। उनके बारे में कोई जानकारी भी कहीं से हासिल नहीं हो पायी। लिहाज़ा किताब में जो जानकारियां थीं उन्हीं को कल्पना का सहारा ले कर आपके सामने पेश किया है। 
आखिर में उनके कुछ और शेर आपको पढ़वाता हूँ :   

तेरी चश्मे तर में रहना 
जैसे एक सफ़र में रहना 

सब दीवारें रोशन करके 
डर के पस मंज़र में रहना 

मेरी तन्हाई की रौनक 
दीमक का इस दर में रहना 

आंखों पर इक पट्टी बांधे 
ख़्वाबों के बिस्तर में रहना
*
अपने नाम से पहले कोई नाम लिखा 
फिर उस काग़ज़ पर दिन भर का काम लिखा 

जलती रेत के रेज़े कितने बेकल थे 
धूप की तख़ती पर जब लफ़्ज़े आराम लिखा 
*
बजा के अपने ठिकाने से हट के रहता है 
मगर ये दर्द है आख़िर पलट के रहता है 

वो शख़्स जिस की हदें दूरियों से मिलती हैं 
अजीब बात है दिल में सिमट के रहता है 
*
ये मोअजिज़ा भी दिखाते हैं अब हुनर वाले 
भले न आग लगे पर धुआं बना लेना

ग़मों की धूप में ताजा हवा जरूरी है 
खुशी के घर में जरा खिड़कियां बना लेना








किताबों की दुनिया - 253

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गर हो तेरा इशारा सेराब हो ये सहरा 
पलकों प एक आँसू कब से मचल रहा है 
*
बुलंदियों के मुसाफ़िर तुझे खबर भी है 
ये रास्ते में है आगे ढलान किसके लिए

इसी ज़मीन प जब तेरा आबो- दाना है 
फिर आसमान में ऊँची उड़ान किसके लिए
*
ज़ात के ग़म में कायनात के ग़म 
एक दरिया में कितने धारे थे

कैसे-कैसे निशान मिलते हैं 
क्या घरोंदे नदी किनारे थे
*
झुलसती रेत प इक बूंद ही उछाल कभी 
ये बारिशों में तो दरिया उबलते रहते हैं
*
वो हिज्र था कि अँधेरा सा छा गया दिल में 
वो याद थी कि चमकने लगे थे जुगनू से 

मेरे लिए तो वो दीवाने-मीर जैसा था 
हुआ था नम कभी काग़ज़ जो पहले आंँसू से 

तो आंँख भर के उन आंँखों में देखना होगा 
तो होगा ऐसे ही जादू का तोड़ जादू से 

हवा का ज़ोर है क्या धूप की है क्या शिद्दत 
कि आँसुओं की दुआएंँ बंँधी हैं बाज़ू से

बात थोड़ी घुमा फिरा के करते हैं। आप ये बताएँ कि भारत की भूतपूर्व राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल, उप राष्ट्रपति श्री भैरूसिंह जी शेखावत और उद्योगपति श्री जमनालाल बजाज जी का आपस में क्या सम्बन्ध है ? बहुत से लोग जवाब में शायद राजस्थान कहें ,  जवाब सही भी है लेकिन मेरे ख़्याल से बहुत कम लोग 'सीकर'तक पहुंचेंगे। जी हाँ ,ये तीनों सीकर जिले से सम्बंधित हैं । भैरूसिंह जी और जमना लाल जी का जन्मस्थान सीकर जिला है वहीँ प्रतिभा जी का ये जिला ससुराल है। हमारे आज के शायर भी सीकर जिले के ही हैं बल्कि यूँ कहूं कि सीकर शहर के हैं । 'सीकर'जिला जयपुर से 114 की मी दूर है और शेखावाटी क्षेत्र में आता है। सीकर अपने आसपास बने विशालकाय किलों और हवेलियों के लिए प्रसिद्द है जिसे देखने दूर दूर से पर्यटक आते हैं। 'सीकर'की ऐसी ही एक बहुत विशालकाय हवेली के पास आपको लिए चलते हैं। ये सीकर के एक बड़े जागीरदार साहब की हवेली है जिसका ये बड़ा सा दरवाज़ा आप देख रहे हैं वो किसी ज़माने में कभी नाच, गाने जैसी दूसरी ललित कलाओं के लिए नहीं खुलता था। शायरी की तो बात ही छोड़ दें। लेकिन साहब अपवाद स्वरुप ही सही, चट्टानों में भी फूल खिलते हैं। जो अब तक नहीं हुआ था वो 15 अगस्त 1960 को हुआ को जब इस किलेनुमा हवेली में एक बहुत ही प्यारे बच्चे की किलकारी गूँजी। इस बच्चे ने आगे चल कर वो किया जो पहले इस हवेली में जन्मे किसी बच्चे ने नहीं किया था। उसने शायरी की। बंजर ज़मीन को फूलों से भर दिया। किसी अंदाज़ा नहीं था कि बच्चा आने वाले वक़्त में 'सीकर'की शान बनेगा। 

कितने सूरज ज़मीन में सोये 
नूर फूटेगा ज़र्रे ज़र्रे से 

आँख में आ गया है इक आँसू 
दश्त सेराब एक क़तरे से 
दश्त :जंगल ,  सेराब :पानी से भरा हुआ , सींचा हुआ  

उम्र कितनी भी हो मगर शुहरत 
बाज़ आती कहाँ है नख़रे से 
*
बेज़रूरत घर से निकलें और फिर 
शय ख़रीदें कोई महँगे दाम पर 
*
दिल ढले होगा जश्ने-तन्हाई 
इल्तिजा है ग़मों से शिरकत की 
*
है बर्गो-बार का गिरना तो क़र्ज़ मौसम का 
हवा-ए-तुन्द! परिंदे कहाँ शजर के गये 
बर्गो-बार : पत्ते और फल , हवा-ऐ-तुन्द : तेज हवा 
*
वो साथ छोड़ गया तो मलाल क्या उस का 
बिछड़ गया जो कहीं उस का ग़म किया जाये 
*
सलीक़े से रक्खा हर इक चीज़ को 
यूँ कमरे को अपने कुशादा किया 
कुशादा: खुला हुआ या फैला हुआ   
*
बहुत शौक़ घर को सजाने का था 
मगर क्या करें अपना घर ही नहीं 
*
तजस्सुस अब नज़र का और क्या है 
जिधर सब देखते हैं देखता हूँ 
तजस्सुस :जिज्ञासा, तलाश 

बच्चे का नाम रखा गया 'मोहम्मद फ़ारूक़ निरबान'। फ़ारूक़ देखने में तो ख़ूबसूरत था ही पढ़ाई लिखाई में भी बहुत तेज़ था। हवेली वालों को उस पर फ़क्र था तो स्कूल वाले उसे देख फूले नहीं समाते थे। 'फ़ारूक़'पढाई के साथ साथ डिबेट और ड्रामा में भी किसी से कम नहीं था। डिबेट में उसके बोलने का अंदाज़ और ड्रामा में किये सहज अभिनय को देख उसके प्रसंशकों में लगातार इज़ाफ़ा होता रहा। पंद्रह-सोलह बरस की उम्र होगी जब फ़ारूक़ को उसके ड्रामा टीचर ने 'साहिर लुधियानवी'की किताब पढ़ने को दी। जैसे अलीबाबा को 'खुल जा सिमसिम'ने ख़ज़ाने का रास्ता दिखाया वैसे ही 'साहिर'ने फ़ारूक़ को शायरी के उस ख़ज़ाने से रूबरू करवाया जिसका उसे कभी इल्म ही नहीं था। कहते हैं कोई न कोई फ़न इंसान के भीतर होता है जरुरत उसे तराश कर बाहर लाने की होती है। अगर आपके भीतर कोई फ़न नहीं है तो आप उस्ताद से सीख कर उसे सिर्फ सतही तौर पर ही हासिल कर सकते हैं उसमें मास्टरी हासिल नहीं कर सकते। 'साहिर'को पढ़ कर ही फ़ारूक़ को अपने भीतर छुपी शायरी के फ़न का पता चला। 'साहिर'के बाद 'फ़ारूक़'ने 'फैज़'और दूसरे शायरों को पढ़ने का सिलसिला जारी रखा। शायरी से फ़ारूक़ को मोहब्बत सी हो गयी। मज़े की बात है कि घर में इसकी भनक भी किसी को नहीं लगी।

फ़ारूक़ जैसा मैंने बताया पढाई में होशियार था हायर सेकेंडरी के बाद उसका एडमिशन जोधपुर के एम.बी.एम. इंजीनियरिंग कॉलेज में हो गया , ब्रांच मिली 'इलेक्ट्रॉनिक्स ऐंड टेलिकमन्यूकेशन,, जो उस वक़्त सिर्फ अव्वल छात्रों को ही मिला करती थी।

ज़माने की दिल को हवा लग गयी है 
वगरना ये लड़का भले घर का है 
*
यादें उसकी ग़म अपने और दर्द ज़माने का 
छोटे से कमरे में आख़िर क्या क्या रक्खूँ मैं 
*
आँख हो और कोई ख़्वाब न हो 
नाज़िल ऐसा कहीं अज़ाब न हो 
नाज़िल:अवतरित , अज़ाब: पीड़ा 

सर्फ़ कीजे न इस क़दर ख़ुद को 
लाख चाहो तो फिर हिसाब न हो 
सर्फ़: खर्च 

कुछ तो महफूज़ रखिये सीने में 
ज़िंदगानी खुली किताब न हो 
*  
ग़म से ऐसे निढाल हूँ जैसे 
एक बच्चे की पीठ पर बस्ता 

एक जुगनू था आस की सूरत 
भर गया रौशनी से सब रस्ता 

बारिशों की दुआएँ माँगी हैं 
और दीवार घर की है ख़स्ता 

बाँध रक्खा है कब से रख़्त-ए-सफ़र 
कभी आवाज़ दे कोई रस्ता 
रख़्त-ए-सफ़र: सफ़र का सामान 

इश्क़ को बीमारी यूँ ही नहीं कहते। अव्वल तो ये हर किसी लगती नहीं और कहीं लग जाय तो कमबख़्त छूटती नहीं। मख़्मूर देहलवी साहब का ये शेर तो आपने पढ़ा ही होगा :

मोहब्बत के लिए कुछ ख़ास दिल मख़सूस होते हैं
ये वो नग़मा है जो हर साज़ पे गाया नहीं जाता

तो साहब यूँ समझें कि ये बीमारी फ़ारूक़ को भी लग गयी। हज़रत दिमाग से इंजीनियरिंग की मुश्किल पढाई करते और दिल से शायरी। साथ में डर भी कि इस बीमारी का किसी को पता न चल जाय। कहते हैं इश्क़ मुश्क़ छुपाये नहीं छुपते ,धीरे धीरे ही सही दोस्तों को खबर लग गयी कि फ़ारूक़ शायरी के इश्क़ में गिरफ़्तार हो चुका है। एक दोस्त ने सलाह दी कि वो अपना क़लाम विजिटिंग प्रोफ़ेसर जनाब डी डी हर्ष साहब को दिखाएँ जो शायरी के जानकार माने जाते थे। हिम्मत करके फ़ारूक़ ने अपना कलाम उन्हें दिखाया , देख कर वो चौंके और बोले कि बरख़ुरदार तुम तो खूब कहते हो। हर्ष साहब की बात से फ़ारूक़ का हौंसला बुलंद हुआ। हर्ष साहब ने आगे कहा कि मैं एक पर्ची पर तुमको एक पता लिख के देता रहा हूँ तुम इस पते पर जाओ और वहाँ रहने वाले शख़्स से मिलो। 'फ़ारूक़'अगले ही दिन सुबह सुबह हर्ष साहब की पर्ची लेकर उस पर लिखे पते पर जा पहुँचे। घर की घंटी बजाई और जिसने दरवाज़ा खोला वो थे उर्दू अदब के बहुत बड़े आलिम जनाब 'शीन काफ़ निज़ाम'साहब। जो बने 'फ़ारूक़'के पहले उस्ताद।
  .    
मुअत्तर है तुम्हारी याद से शब का हर इक पहलू 
महकना रात में कब रात-रानी का बदलता है   

बदलती ही नहीं सूरत किसी भी तौर गावों की 
यहाँ नक्शा तो अक्सर राजधानी का बदलता है 

बदल जाते हैं सब अपने पराये राज रजवाड़े 
मगर घनश्याम कब 'मीरा'दीवानी का बदलता है 
*
मैं अपने आप में गुम हूँ तो क्या जरूरी है 
हर एक काम का कोई न कोई मक़सद हो 

सुकून हमसे न खो जाये इस तरह इक दिन 
तलाश उस को करें और न वो बरामद हो 

तमाम उम्र न देखे किसी की राह कोई 
हो इंतज़ार तो फिर इंतज़ार की हद हो    

हंगामें दो चार क़दम 
फिर मीलों वीरानी है 
*
घर छोड़ आये आप भी अच्छा किया हुज़ूर 
ये तो जुनूँ की राह में पहला क़दम हुआ 
*
देखता हूँ बिखरते फूलों को 
अपना अंजाम भूल जाता हूँ 

निज़ाम साहब ने फ़ारूक़ को प्यार से घर में बिठाया और पूछा कैसे आये ?जब फ़ारूख़ ने बताया कि वो शायरी सीखना चाहते हैं और फ़िलहाल जोधपुर में इंजिनीयरिंग कर रहे हैं तो निज़ाम साहब मुस्कुराते हुए बोले तुमने भी मेरी तरह ये क्या रास्ता इख़्तियार कर लिया बरखुरदार मैं तो ये पढाई बीच छोड़ आया लेकिन तुम मत छोड़ना। बहुत कम लोग जानते हैं कि शायरी से मोहब्बत के चलते निज़ाम साहब इंजीनियरिंग की पढाई बीच ही में छोड़ आये थे , बाद में उन्होंने ग्रेजुएशन की। अब तो फ़ारूख़ रोज ही निज़ाम साहब से मिलने लगे। कॉलेज ख़त्म करने के बाद लंच करते और साइकिल उठा कर सीधे निज़ाम साहब के ऑफिस पहुँच जाते और उनका ऑफिस ख़त्म होने पर साइकिल पर उनके घर तक साथ जाते। निज़ाम साहब ने उन्हें उरूज़ की जानकारी के साथ साथ क्या लिखना चाहिए कैसे लिखना चाहिए सिखाया और भरपूर ज़िन्दगी जीने के गुर भी बताये। पढ़ने के लिए ढेरों किताबें दीं। निज़ाम साहब के साथ जोधपुर में बिताये तीन साल 'फ़ारूक़' को 'मोहम्मद फ़ारूक़ निरबान'से 'फ़ारूक़ इंजिनियर'बना गए।

हमारे सामने जनाब 'फ़ारूक़ इंजिनियर'साहब की दूसरी ग़ज़लों की किताब 'कितने सूरज'खुली हुई है जिसे सं 2018 में माई बुक्स पब्लिकेशन नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है। इस किताब का संपादन श्रेष्ठ युवा ग़ज़लकार जनाब 'इरशाद खान सिकन्दर' साहब ने किया हैआप ये किताब, जो अमेजन पर भी मौजूद है, माई बुक्स को 9910482906/ 99104 91424 पर फोन कर मँगवा सकते हैं।


उसी की है अदालत उसी के मुंसिफ़ हैं 
उसी के सब हैं तो मेरा बयान किसके लिये 
*
जां से बढ़कर नहीं कोई लेकिन 
लोग कुछ जान से भी प्यारे थे  
*
लिखूँ ज़ख़्म को फूल दिल को चमन 
नहीं मुझमें ऐसा हुनर ही नहीं 
*
कोई चराग़ सरे-रहगुज़र भी रौशन हो 
मुँडेर पर तो दिये सबकी जलते रहते हैं 
*
इसे अब भी 'फ़ारूक़'कहते हो घर 
अब इस में तो घर सा बचा कुछ नहीं 
*
अगर हुनर है तो सर चढ़ के बोलता है ज़रूर 
गो लाख ऐब निकाले निकालने वाला  
*
इश्क़ है तो फिर इश्क़ ही रहे 
खेल ख़त्म हो जीत हार का
*
ख़ज़ाने कर दिए क्या क्या अता मुझे उस ने 
कुछ और ढूंँढने निकला था मैं समंदर में 

अजीब धुन है गले से लगा के देखता हूंँ
तुम्हारा लम्स हो जैसे हर एक मफ़्लर में
*
इस से बढ़कर क्या दिलासा है कोई 
हाथ उसने रख दिया है हाथ पर

इंजीनियरिंग के बाद 'फ़ारूक़'साहब को कोटा थर्मल प्लांट में नौकरी मिल गयी। नौकरी के साथ-साथ बाकायदा शायरी भी चलने लगी। अपने दिलकश और बिलकुल अलहदा लबो-लहज़े की वज़ह से जल्द ही लोग उन्हें जानने, पसंद करने लगे। इस्लाह के लिए उनकी निज़ाम साहब से खतो क़िताबत होती रहती थी। धीरे धीरे उनका कलाम अख़बारों और रिसालों में भी छपने लगा। अस्सी के बाद वाले दौर में आये नए मोतबर शायरों में उनका नाम लिया जाने लगा। तभी उन्होंने अपनी कुछ ग़ज़लें ऐवाने उर्दू दिल्ली से छपने वाले मशहूर रिसाले को भेजीं। मख्मूर सईदी साहब उस रिसाले के संपादक थे। बाद मख़्मूर साहब का फोन 'फ़ारूक़'साहब के पास आया बोले की ग़ज़लों की तारीफ़ करते हुए बोले 'बरखुरदार तुम कौन हो जो इतनी पुख्ता ग़ज़लें कहते हो हमने तो तुम्हारा नाम भी नहीं सुना था। इसके बाद उन्होंने ग़ज़लों में थोड़ी बहुत तब्दीली कर के कहा कि देखो इस हलकी सी फेर बदल से तुम्हारी ग़ज़ल कितनी खूबसूरत बन पड़ी है।'इसके बाद तो दोनों के बीच ऐसा राब्ता कायम हुआ जो मख़्मूर साहब के दुनिया-ऐ-फ़ानी से रुख़्सत होने के बाद ही टूटा। मख़्मूर सईदी साहब को फ़ारूक़ साहब अपना दूसरा उस्ताद मानते हैं। जब भी मख़्मूर साहब किसी मुशायरे में शिरकत के सिलसिले में कोटा आते तो अपना वक़्त 'फ़ारूक़'साहब के साथ ही गुज़ारते। लफ़्ज़ों को ख़ूबसूरती से बरतने का सलीका फ़ारूक़ साहब ने मख़्मूर सईदी साहब से ही सीखा। उन्होंने ही'फ़ारूक़'साहब का पहला शेरी मजमुआ 'सहरा में गुम नद्दी'नाज़िश पब्लिकेशन दिल्ली से छपवाया।उनके पहले मजमुए को सं 1999-2000 को उत्तर प्रदेश का उर्दू अकादमी पुरूस्कार मिल चुका है। इस से पूर्व राजस्थान उर्दू अकादमी ने भी उन्हें 1997-1998 में सम्मानित किया था।

अपनी शायरी के आगाज़ के 19 साल के बाद याने सं 1999 में 'फ़ारूक़'साहब का पहला शेरी मजमुआ शाया हुआ और फिर उसके 20 साल बाद 2019 में ये दूसरा। इससे अंदाज़ा हो जाता है कि जब तक फ़ारूक़ साहब को अपने कलाम से तसल्ली नहीं हो जाती वो उसे प्रकाशित करने की जल्दी नहीं करते। ये ही एक बड़े शायर की पहचान है।
स्वभाव से बेहद शर्मीले शोर शराबे और अपनी मशहूरी को लेकर बेहद ठन्डे 'फ़ारूक़'साहब एक बेहतरीन इंसान हैं। इस पोस्ट के सिलसिले में वादा करने के बावजूद वो अपने बारे में ज्यादा कुछ बताने से बचते रहे हैं। उनके बारे में इतनी सी जानकारी भी जयपुर के शायर जनाब 'आदिल रज़ा मंसूरी साहब'से हुई उनकी एक गुफ़्तगू से मिल पायी है। आप उन्हें उनकी इस लाजवाब शायरी के लिए 9414203120 पर फोन कर बधाई दे सकते हैं। यकीन मानिये आपको उनसे गुफ़्तगू कर अच्छा अनुभव होगा।

'फ़ारूक़'साहब नज़्में भी कमाल की लिखते हैं। उम्मीद है उनकी नज़्मों का संकलन जल्द ही हमें पढ़ने को मिलेगा

आखिर में उनके कुछ और शेर पढ़िए :

सुबह का नूर, फब शाम की, रात की नींद, दिल का सुकूँ
एक बाज़ी थी दिल की मगर दाव पर जाने क्या क्या लगा
*
अब वो मौसम भी कहांँ आएगा 
जुल्फ़ उसकी है न शाना मेरा
*
 अभी मसरूफ हूंँ ऐ याद थम जा 
इबादत भी तो फ़ुर्सत चाहती है 

गज़ब ये है जहाने- इल्मो- फ़न पर 
जहालत भी हुकूमत चाहती है
*
जिसमें आबाद हो न वीरानी 
घर में ऐसा है कोई गोशा भी 

कोई उम्मीद, आरज़ू , न उमंग 
और कहते हैं ख़ुद को ज़िंदा भी
*
ये सच है कि मसरूफ़ रहा कारे जहाँ में 
ये बात ग़लत है कि तेरा ध्यान नहीं था


किताबों की दुनिया - 254

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शबे ग़म की सहर नहीं होती 
हो भी तो मेरे घर नहीं होती 

हल्क़ से घूंट भर जहां उतरी 
तौबा फिर उम्र भर नहीं होती 

वस्ल में ये बला भी होती है 
रात पिछले पहर नहीं होती
*
न सजदागह न कोई जलवागह बची हमसे 
वो दिल में थे उन्हें हमने कहाँ कहांँ देखा
*
खाते थे अपनी भूख तो सोते थे अपनी नींद 
माना क़फ़स में थे हमें खटका तो कुछ न था
*
है अभी मेरे बुढ़ापे में जवानी कैसी
है अभी उनकी जवानी में लड़कपन कैसा
*
सितम भी लुत्फ़ हो जाता है भोलेपन की बातों से 
तुझे ऐ जान अंदाज़े-खफ़ा अब तक नहीं आया 

जिसे तुम कोसते हो उम्र उसकी और बढ़ती है 
तुम्हें सब कुछ तो आया कोसना अब तक नहीं आया
*
किसी से कहने ये आए हैं वो सहर होते 
तमाम रात कटी मेरे इंतज़ार में क्या 

शराब से भी सिवा ख़ुशगवार है हमको 
बताएंँ क्या कि मज़ा पड़ गया उधार में क्या

कौन है यह नौजवान जो दिल्ली की सड़कों के किनारे लगे बाज़ार में किताबों के ढेर के पास बैठा कुछ ढूंढ रहा है ? मजे की बात है कि ये जिस ढेर के पास बैठा किताबों में ग़ुम है वो ढेर अंग्रेजी किताबों का नहीं है | अंग्रेजी किताबों का ढेर तो कुछ आगे लगा है, जिस पर अंग्रेजी बोलते युवा लड़के लड़कियां भीड़ लगाए खड़े हैं | जिस ढेर के पास ये नौजवान है वो तो हिंदी और उर्दू किताबों का है | दो ऐसी भाषाएं जो मौसेरी बहने हैं और जिन्हें बोलने वाले भले कम न हो पढ़ने वाले निश्चित रूप से बहुत कम हैं | उर्दू का हाल तो बहुत ही ख़स्ता है | कभी हिंदुस्तान का शान रही ये भाषा अब एक धर्म विशेष की भाषा करार दी गई है | अब कौन किसे ये बात समझाए कि भाषा का कोई धर्म नहीं होता | अगर थोड़ा गौर से देखें तो आप पाएंगे कि इस नौजवान ने जिन किताबों को छाँटा है उन पर धूल जमी हुई है और कागज़ वक्त की मार से पीले पड़ चुके हैं | 

पूछने पर यह नौजवान अपना नाम 'अजय नेगी'बताता है जो पौड़ी गढ़वाल का रहने वाला है और फिलहाल फरीदाबाद रहते हुए मनोविज्ञान में बीए ऑनर्स के फाइनल वर्ष की तैयारी कर रहा है | फिल्मी गानों का शौकीन 'अजय'किसी दिन फिल्मों में गाने लिखने का ख़्वाब देखता है |

उर्दू जबान से बेइंतहा मोहब्बत करने वाले इस नौजवान ने इस ज़बान को सीखने के लिए बहुत पापड़ बेले | जब कोई ढंग का उस्ताद नहीं मिला तो अजय ने किताबों की मदद से इस ज़बान को सीखा | अजय ने ये सिद्ध किया कि यदि आपमें जुनून है तो फिर दुनिया का कोई काम मुश्किल नहीं होता | ऐसे ही एक दिन ढूंढते ढूंढते उसे वो किताब हाथ लगी जो फटेहाल लेकिन नायाब थी | उर्दू शायरी की इस किताब को पढ़ते हुए अजय को ख़्याल आया कि इसे हिंदी में भी लाना चाहिए और वो इस काम में जुट गया | हिम्मत ए मर्दां मदद ए खुदा, 'अजय'के इस सपने को साकार किया एनी बुक के 'पराग अग्रवाल'ने, जिन्होंने 'अजय'को हिम्मत और हौंसला दिया और उसकी मेहनत को किताब की शक्ल में मंज़रे आम पर लाने की जिम्मेदारी उठाई|
 
आज ज़नाब रियाज़ ख़ैराबादीसाहब की ग़ज़लों की वही किताब  'शब-ए-ग़म की सहर नहीं होती'जिसका अजय नेगीसाहब ने लिप्यंतरण और सम्पादन किया है हमारे सामने खुली हुई है :


कमबख़्त जब क़ुबूल न हो कोई क्या करे 
मुद्दत हुई कि हाथ दुआ से उठा लिया 

दिल लाख पाक साफ़ है दामन का क्या करूंँ
जा जा के मयकदे में ये धब्बा लगा लिया 

खाने में क़ैदे वक्त न अच्छे बुरे से काम 
जब मिल गया तो शुक्र किया और खा लिया
*
वो पूछते हैं शौक़ तुझे है विसाल का 
मुंँह चूम लूँ जवाब ये है इस सवाल का 

रूठे हुए भी छोड़ के सुनते हैं मेरे शेर 
मेरे कलाम में है मज़ा बोलचाल का
*
घर मेरा कहते हैं जिसको कोई जिंदाँ होगा 
दरो दीवार न होते जो मेरा घर होता 
जिंदाँ: कैदखाना
*
 मेरे सिवा नज़र आए न कोई दोज़ख मे 
किसी का जुर्म हो मालिक मुझे सज़ा देना
*
कमबख़्त वही दिल है कि था हार गले का 
अब हार के फूलों में भी शामिल नहीं होता
*
अब ये जाना कि इसे कहते हैं आना दिल का 
हम हसीं खेल समझते थे लगाना दिल का 

दर्दे दिल आज सुनाया जो उन्हें रो-रो कर 
हंँस के बोले कि ये किस्सा है पुराना दिल का

ख़ैराबाद उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले का एक नगर है। इसी ख़ैराबाद में लगभग एक ही कालखंड में दो ऐसे बेमिसाल शायर हुए जिन्होंने अपनी शायरी से पूरे देश में अपने नाम का डंका बजा दिया। पहले थे सं 1853 में पैदा हुए जनाब 'रियाज़ ख़ैराबादी'और दूसरे उसके 12 साल बाद याने 1865 में पैदा हुए जनाब 'मुज़्तर खैराबादी'। हालाँकि रियाज़ साहब 84 वर्ष तक जिए जबकि मुज़्तर साहब महज़ 62 साल बाद ही इस दुनिया-ए-फ़ानी से रुख़्सत हो गए लेकिन उनका नाम फिर भी देश में ज्यादा लोग जानते हैं। दरअसल मुज़्तर साहब का नाम उनके बाद उनके बेटे मशहूर शायर जनाब 'जां निसार अख़्तर'और फिर उनके पोते शायर 'जावेद अख़्तर'साहब ने ज़िंदा रखा जबकि रियाज़ साहब के बाद की पीढ़ी में ऐसी कोई मशहूर हस्ती नहीं हुई। पुरखों की विरासत को सँभालने की ज़िम्मेदारी अगली पीढ़ी की होती है जो रियाज़ साहब को नसीब नहीं हुई। ये तो भला हो 'अजय नेगी'जैसे जुनूनी नौजवान का जिसने रियाज़ साहब की शायरी से हमें रूबरू होने का मौका दिया। 

रियाज़ साहब के वालिद जनाब सैयद तुफ़ैल अहमद अपने वक़्त के बड़े आलिम थे। अरबी और फ़ारसी के विद्वान् तुफ़ैल साहब गोरखपुर में अंग्रेजी हुकूमत के पुलिस विभाग में बड़े ओहदे पर थे। रियाज़ साहब ने अरबी और फ़ारसी की शुरुआती तालीम अपने वालिद से ली और आगे की पढाई खैराबाद के मदरसा अरबिया से की। रियाज़ साहब लड़कपन से ही शेर कहने लगे और अपनी शायरी का आगाज़ 'असीर'साहब की शागिर्दी में किया। अपना तख़ल्लुस पहले 'आशुफ़्ता'रखा फिर उस्ताद के कहने पर 'रियाज़'के नाम से शायरी करने लगे। ग़ालिब को पढ़ा तो उनके क़ायल हो गए और लगे उन जैसी मुश्किल ज़बान में शेर कहने। उस्ताद ने समझाया कि मियाँ तुम कितनी भी कोशिश कर लो ग़ालिब तो बनने से रहे इसलिए मुश्किल ज़बान छोडो और आम बोलचाल की भाषा में शेर कह कर अपनी अलग पहचान बनाओ। रियाज़ साहब को उस्ताद की बात अच्छे से समझ में आ गयी और  वो आम ज़बान में शेरगोई करने लगे।                        
घर में दस हों तो ये रौनक़ नहीं होती घर में 
एक दीवाने से आबाद है सहरा कैसा

अब ये आलम है कि पलकें भी नहीं तर होतीं 
इन्हीं आंँखों से बहा देते थे दरिया कैसा
*
कमजोर हुए अश्कों से घर के दरो-दीवार 
रोने के लिए लेंगे किराए का मकाँ अब 

धोके से पिला दी थी उसे भी कोई दो घूंँट 
पहले से बहुत नर्म है वाइज की  जुबाँ अब
*
मयख़ाना हमारा कोई मस्जिद तो नहीं है 
तस्बीह लिए कौन बुजुर्ग आए इधर आज
*
हो भी कुछ तो है बहुत बेजा घमंड 
चार दिन की जिंदगी पर क्या घमंड 

ख़ाक़ में छुपना है तो कैसा गुरुर 
ख़ाक में मिलना है तो कैसा घमंड

इज्ज़ से बढ़कर नहीं है कोई चीज
कैसी नख़वत किब्र कैसा क्या घमंड 
इज्ज़: नम्रता, नख़वत: बहादुरी, किब्र: बड़ी उम्र
*
मुश्किल हमारी नज़्अ में आसान हो गई 
वो कह गए हम आएंँगे तेरे मज़ार पर 
नज्अ: मौत के समय

बेकस सी रात दिन मेरे घर में पड़ी रही 
आया ना तुमको रहम शबे-इंतज़ार पर 
बेकस: बेबस

वालिद साहब ने जब देखा कि उनके बरखुरदार दीन -दुनिया से बेखबर शायरी के गहरे समंदर में गोते लगा कर सीपियाँ ढूंढने में लगे हुए हैं तो उन्हें चिंता हुई। ये चिंता हर बाप को अपनी उस औलाद के कारण होती है जो उनकी नहीं सुनता और अपनी खुद की राह बनाना चाहता है। इसलिए उन्होंने रियाज़ को, राह पर लाने के लिए अपने रसूख़ और ताल्लुक़ात का इस्तेमाल करते हुए, गोरखपुर के पुलिस विभाग में सब इस्पेक्टर के पद पर लगा दिया। कोई और शख़्स होता तो सब-इन्स्पेक्टर बन कर इतराता फिरता लेकिन रियाज़ साहब को ये मुलाज़मत पाँव की ज़ंज़ीर लगी। चौबीसों घंटे शायरी में मुब्तिला रहने वाला उनका दिमाग पुलिस की गैर शायराना ड्यूटी से मुक्ति पाने को छटपटाने लगा।आख़िर एक दिन उन्होंने अपना इस्तिफा दे कर चैन की सांस ली।

नौकरी से फ़ारिग हो कर रियाज़ साहब ने अपना पूरा ध्यान शायरी पर लगा दिया। इसी बीच उनके एक दोस्त ने उनकी मुलाक़ात उस्ताद शायर 'अमीर मीनाई'से करवाई। रियाज़ साहब को लगा कि 'अमीर मीनाई'ही वो उस्ताद हैं जिनकी उन्हें बरसों से तलाश थी। 'अमीर'साहब की शागिर्दी में रियाज़ साहब की शायरी में ग़ज़ब का निखार आया यूँ समझें कि लोहे का एक मामूली सा टुकड़ा पारस के छूने से सोना हो गया। बेहद दिलकश और खूबसूरत शख़्सियत के मालिक रियाज़ साहब अपनी शायरी की बदौलत हर दिल अजीज़ होते चले गए। रियाज़ खैराबादी ने शराब पर कहे अपने शेरों में शायद ही ऐसा कोई पहलू छोड़ा हो जिस पर तबअ-आज़माई न की हो।रियाज़ खैराबादी ने कभी शराब को मुँह नहीं लगाया और न ही अपने मज़हब से ग़ाफ़िल हुए।

जो अदा पर मर रहे हैं शौक़ से मरते रहें 
जाए बन-बन कर क़ज़ा उनकी अदा को क्या ग़रज़

दुख़्तरे-रज़ शब को आ जाती है छुपकर मेरे घर 
मयकदे में जाऊँ मुझसे पारसा को क्या ग़रज़
दुख़्तरे-रज़: शराब
*
शगुफ़्ता फूल हसीनों के हार के का़बिल
जो ख़ुश्क हों तो हमारे मज़ार के क़ाबिल 

फ़लक की तारों भरी कहकशाँ बुरी क्या है 
ये चादर अच्छी है मेरी मज़ार के क़ाबिल
*
जो पूछा जान लोगे दिल्लगी में 
तो बोले हंँस के है क्या आदमी में 

रहा तक़दीर का रोना हमेशा 
हमारी उम्र तो गुज़री इसी में
*
अदू के काम आई तू शबे हिज्र 
तेरा काला हो मुँह दोनों जहांँ में 

जब उतरे हल्क़ से दो घूंट मय के 
फले फूले चमन देखे ख़िज़ाँ में
*
रात दिन दोनों है मेरे काम के 
चाँद हो इक चाँद सी तस्वीर हो 

ग़ैर के आगे अगर बैठे हो आप 
आपके आगे मेरी तस्वीर हो

रियाज़ साहब की लड़कपन से शायरी के साथ साथ नस्र में भी बहुत रूचि थी। वो पत्रकार बनना चाहते थे। गोरखपुर से पुलिस की वर्दी उतार कर और आमिर मीनाई से शायरी के सारे गुर सीख कर जब वो वापस ख़ैराबाद आये तो रोजगार के लिए उन्होंने पत्रकारिता को ही चुना। महज़ 19 की उम्र में उन्होंने 'रियाजुल-अख़बार'के नाम से साप्ताहिक अख़बार निकाला। ये अखबार बाद में गोरखपुर और लखनऊ स्थानांतरित हो गया। इस अखबार के अलावा उन्होंने 'तारे-बर्क़ी'और 'सुल्हे-कुल'नाम से अखबार शाया किये जो अधिक नहीं चले। उनका उर्दू तंजो-मिज़ाह पर टिका अखबार 'फ़ित्ना-इत्रे-फ़ित्ना'लगभग तीस साल तक चला।

रियाज़ साहब ग़ज़ब के अनुवादक भी थे उन्होंने ब्रिटिश नॉवलिस्ट रेनॉल्ड्स के दो उपन्यासों 'द लव्स आफ द हरम'और 'ऐलन पर्सी'का अनुवाद 'हम असरा'और 'नज़ारा'नाम से किया जो उर्दू अदब में बहुत पसंद किया गया। वो उनके तीसरे उपन्यास 'ब्रॉन्ज़ स्टेचू'पर काम कर रहे थे जो पूरा नहीं हो पाया।

लिखने लिखाने का ये सिलसिला अभी चल ही रहा था कि उनके वालिद साहब ने उनकी शादी सीतापुर जिले के बिस्वां क़स्बे में तय कर दी। रियाज़ इस शादी के लिए बिलकुल तैयार नहीं थे लेकिन वो ज़माना और था वालिद का कहा पत्थर पर लकीर हुआ करता था, आजकल भी अधिकांश घरों में ऐसा ही होता है। इस शादी के बाद रियाज़ की ज़िन्दगी से ख़ुशी ने किनारा कर लिया। जैसे तैसे कुछ वक़्त बीता और उनकी बीवी का एक बीमारी के चलते इंतकाल हो गया। रियाज़ साहब जैसे आज़ाद हो गए।

फल मैं पा जाऊँ इबादत का बना दे यारब 
दाना अंँगूर का तस्बीह के हर दाने को
*
जो आज पी हो तो साक़ी हराम शै पी हो 
ये यह कल की पी हुई मय का ख़ुमार बाक़ी है 

कोई भी अश्क सा दुख-दर्द का शरीक नहीं 
यही तो अब मेरा बचपन का यार बाक़ी है
*
शबे-वस्ल उठाए ये बाहम मजे़
न वो होश में है न हम होश में

रियाज़ अब कहां वो जवानी के दिन
कहांँ अब हसीं कोई आगोश में
*
सता रहा है हमें तो ख़्याले-रोज़े-शुमार 
वो हमने पी भी तो क्या पी जो बे-हिसाब न पी
ख़्याले-रोज़े-शुमार: कयामत के दिन का ख्याल

गुनाह कोई न करते शराब ही पीते 
ये क्या किया कि गुनह तो किए शराब न पी
*
न पीने को खुम में न खाने को घर में 
कहीं ऐसे में शायरी सूझती है 

ये काफ़िर लिए साथ आती है बोतल 
घटा आते ही मयकशी सूझती है
*
चुभती हुई इक फाँस है हर साँस सुकूँ की 
दुनिया में किसी के लिए आराम नहीं है

रियाज़ की मोहब्बत की दास्ताँ हमेशा एक मोड़ पर आ कर दुखांतिका में बदलती रही। गोरखपुर के एक गैर मुस्लिम परिवार में उनका बहुत आना-जाना था। वो परिवार रियाज़ की शायरी का दीवाना था और उन्हें भी बहुत पसंद करता था। उस परिवार की एक खूबसूरत लड़की से उन्हें मोहब्बत हो गयी वो भी दिलो-जान से उन्हें चाहने लगी। वो दिन सोने के और रातें चाँदी की थी लेकिन ऐसा कब तक चलता ? एक न एक दिन मज़हब की दीवार तो उनके बीच खड़ी होनी ही थी, सो हुई। रियाज खैराबादी चाहते तो मज़हब का ख्याल एक तरफ रख कर उस लड़की से शादी कर सकते थे क्योंकि लड़की अपना मज़हब तब्दील करने के लिए राजी थी लेकिन रियाज़ खैराबादी उस खानदान की बदनामी नहीं चाहते थे इसलिए उस लड़की से शादी के लिए तैयार नहीं हुए। रियाज़ अपने गम की हरारत को कम करने के लिए बिना किसी को बताए एक लंबे सफर पर रवाना हो गए, जब वापस लौटे तब तक उनकी महबूबा तपेदिक की बीमारी से रात-दिन लड़ते हुए इस दुनिया को अलविदा कह चुकी थी।

टूटा दिल और आँखों में आंसू लिए यूँ समझें कि देवदास बने रियाज़ एक तवायफ़ के कोठे पर जाने लगे। किस्मत देखिये कि उस कोठे की एक बला की खूबसूरत लेकिन दूसरे मज़हब की तवायफ़ इनपर मर मिटी। चूँकि यहाँ किसी ख़ानदान के बदनाम होने की फ़िक्र नहीं थी इसलिए रियाज़ साहब ने उस तवायफ़ का धर्म परिवर्तन करवा कर उससे शादी कर ली। दुल्हन के हाथ की मेहँदी अभी उतरी भी न थी कि एक दिन पुलिस धड़धड़ाती हुई उनके घर घुसी और उस तवायफ़ को किसी के क़त्ल के इलज़ाम में गिरफ़्तार कर ले गयी। रियाज़ साहब को तो जैसे काटो तो खून नहीं। मुक़दमा चला और उस तवायफ़ को सजाये मौत सुनाई गयी। रियाज़ साहब ने बहुत कोशिश की कहाँ कहाँ नहीं भागे आखिर बहुत कोशिशों से मौत की सज़ा 18 साल की क़ैदे बामशक़्क़त में तब्दील हो गयी। रियाज़ इस हादसे से बिलकुल टूट गए।

वस्ल की रात के सिवा कोई शाम 
साथ लेकर सहर नहीं आती 

अरे वाइज़ डरा न तू इतना 
क्या उसे दर-गुज़र नहीं आती 
दर गुज़र: माफी 

शर्म आती है दिल में सौ सौ बार  
तौबा लब पर मगर नहीं आती
*
लगी आग मेरी जिगर में यूँ न लगे किसी के भी घर में यूंँ 
न तो लौ उठी कि न चमक हुई न शरर उठे न धुआंँ उठा
*
आप आए तो ख़्याले-दिले-नाशाद आया 
आपने याद दिलाया तो मुझे याद आया

क्या कहा फिर तो कहो भूल गए हम किसको 
सदक़े उसके जो तुम्हें भूल के यूंँ याद आया
*
ये भी पीना है कोई चाल है ये भी कोई 
हर क़दम पर उन्हें सौ बार संँभलते देखा
*
ये मुझसे सख़्त-जाँ पर शौक़ ख़ंजर आज़माई का 
ख़ुदा हाफ़िज़ मेरे क़ातिल तेरी नाज़ुक कलाई का 

वो क्या सोएंगे ग़ाफ़िल हो के शब भर मेरे पहलू में 
उन्हें ये फ़िक्र है निकले कोई पहलू लड़ाई का
*
यूंँ भी हो शग़्ले-मय कि पिएँ हम पिलाओ तुम 
यूंँ भी हो शग़्ले-मय कि पियो तुम पिलाएँ हम

कहानी यहाँ ख़त्म नहीं हुई। रियाज़ दिन-ब-दिन कमज़ोर और बीमार रहने लगे। इस दौर की उनकी ग़ज़लें उनके टूटे दिल की कैफियत बयाँ करती हैं। 18 साल बाद जब वो ख़ातून जेल से रिहा हुई तो रियाज़ साहब ने उसे तलाक़ दे दिया। तलाक़ क्यों दिया इसका जवाब कहीं मिलता नहीं और कोई बताने वाला भी शायद नहीं है -कुछ तो मज़बूरियां रही होंगी --खैर साहब ढलती उम्र और बढ़ती बीमारियों ने रियाज़ को जर्जर कर दिया। रियाज़ की ये हालत देख उनके वालिद , जी हाँ वालिद ने उनके ग़म को कम करने के लिए उनकी फिर से शादी  करवा दी। ये नुस्ख़ा आज भी लोग आज़माते हैं। साठ साल की उम्र में रियाज़ फिर से दूल्हा बने। इस शादी ने जैसे चमत्कार कर दिया। सूखे पेड़ की टहनियां हरी हो गयीं उनमें फूल और फल लगने लगे। मुनीर फातिमा बेग़म से उन्हें छै बच्चे हुए। ज़िन्दगी गुलज़ार हो गयी। 

चौथी शादी के लगभग बीस साल बाद तक रियाज़ काम में जुटे रहे और फिर उम्र की मार से धीरे धीरे बीमार होते चले गए। ख़ैराबाद में ही 28 जुलाई 1934 को इस बेमिसाल शायर ने आख़री साँस ली। अफ़सोस की बात है कि वक़्त के साथ दुनिया इन्हें भूल गयी। मुझे यकीन है की जब तक अजय नेगी जैसे नौजवान हैं उर्दू का मुस्तक़बिल रौशन रहेगा और ऐसे बेमिसाल लेकिन अपेक्षाकृत गुमनाम शायर हमारे सामने आते रहेंगे।    

क्या ही अच्छा हो यदि आप श्री 'अजय नेगी'को +919315119977पर कॉल कर इस बेमिसाल काम के लिए बधाई दें ताकि इस नौजवान का हौंसला बढ़े और वो आने वाले वक्त में हमारे सामने ऐसे ही गुमनाम नायाब शायरों को खोज कर लाता रहे |

आप इस किताब को अमेज़न से आॕन लाइन या फिर ऐनीबुक से सीधे मंगवा सकते हैं | ऐनी बुक के लिए आप पराग अग्रवाल जी से +919971698930 नंबर पर संपर्क करें|

शैख़ ये कहता गया पीता गया 
है बहुत ही बदमज़ा अच्छी नहीं 

बाद जिसके हिज़्र हो वो वस्ल क्या 
दर्दे-दिल अच्छा दवा अच्छी नहीं
*
इतनी पी है कि बादे-तौबा भी 
बे पिए बेखुदी सी रहती है 

तेरी तस्वीर हो कि तेग़ तेरी 
हमसे हरदम खिंची सी रहती है
*
आ गया पीरी में भी रंगे शबाब 
घूँट उतरे जब मये-गुलफ़ाम के 
पीरी: बुढ़ापा

किताबों की दुनिया - 255

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देख लेंगे दुश्मनों की दोस्ती 
दोस्तों की दुश्मनी तो आम है 

जिस ने राहत की तमन्ना छोड़ दी 
बस उसे आराम ही आराम है 
राहत: सुख
*
इस  क़दर दिलकश कहां होती है फ़रज़ाने की बात 
बात में करती है पैदा बात दीवाने की बात 
फ़रज़ाने :बुद्धिमान

बात जब तय हो चुकी तो बात का मतलब ही क्या
बात में फिर बात करना है मुकर जाने की बात  

बात पहले ही न बन पाये तो वो बात और है 
सख़्त हसरत नाक है बन कर बिगड़ जाने की बात
*
मैंने जिस वक्त किनारों की तमन्ना छोड़ी 
खुद ब खुद लेने चले आए किनारे मुझको 

सोचता हूं तो सहारों का सहारा मैं हूं 
फिर कहांँ देंगे सहारा ये सहारे मुझको
*
इश्क में जब हमको जीना आ गया 
मौत को दांतों पसीना आ गया 

लब पे नाले है  आंसू आंख में 
मुझको जीने का क़रीना आ गया
*
तेग़े-अबरू, तेग़े-चीं, तेग़े-नज़र, तेग़े अदा 
कितनी तलवारों का पहरा रख लिया मेरे लिए 
तेग़े-अबरू: भौं रुपी तलवार, तेग़े-चीं: माथे की शिकन रूपी तलवार

हमारे आज के शायर के बारे में हिंदी के मूर्धन्य कवि स्वर्गीय श्री रमानाथ अवस्थी साहब के गीत का ये मुखड़ा मुझे सबसे सटीक लगता है :-
भीड़ में भी रहता हूँ वीरान के सहारे
जैसे कोई मंदिर किसी गाँव के किनारे
क़स्बा श्री हरगोविन्दपुर,तहसील बटाला,जिला गुरदासपुर,पंजाब का एक गाँव जिसके बाहर सुनसान इलाक़े में एक शिव मंदिर बना हुआ है। चारों और पेड़ और हरियाली से घिरे इस मंदिर में कभी कबार ही कोई भक्त आता है वर्ना ये वीरान ही रहता है। वीरानी का ये आलम था कि सुबह होने से पहले ही जंगली मोर इस मंदिर की मुंडेरों पर बैठ कर शोर मचाते हैं और इसके के प्रांगण में पंख फैला कर दिन भर नाचते हैं। गिलहरियां हर वक़्त पेड़ो से जमीन और फिर मंदिर की छत, दीवारों पर उधम मचाती दौड़ती फिरती हैं। मंदिर से थोड़ी ही दूर व्यास नदी कलकल बहती है। रात के सन्नाटे में उसकी लहरों से उठने वाला संगीत सुनाई देता है। इस मंदिर में रहने वाला जो एकमात्र इंसान है कायदे से उसे कोई महात्मा या साधू या जोगी या पुजारी होना चाहिए लेकिन वो एक शायर है।

अभी सुबह के 4:00 भी नहीं बजे हैं। एक इकहरे बदन का बुज़ुर्ग, मंदिर से पगडण्डी पर चलते हुए चारों और फैली बेलों और झाड़ियों से बचता हुआ, व्यास नदी के ठंडे पानी में गोते लगाता है। बाहर आ कर हल्के बादामी रंग का कुर्ता और सफेद धोती पहनता है, सर पर सफेद रंग की पगड़ी पहनता है, आँख पर मोटे फ्रेम का चश्मा लगाता है, कन्धों पर सफेद गमछा डालता है और गले में रुद्राक्ष की माला पहनता है | मंदिर आ कर शिव लिंग के समक्ष हाथ जोड़ कर बैठता है ,आँखें बंद करता है और ध्यान मग्न हो जाता है।ये उसका रोज का काम है।

तअज्जुब है तसव्वुर तो तेरा करता हूं ऐ हमदम 
मगर फिरती है मेरी अपनी ही तस्वीर आंखों मे
*
का'बे में भटकता है कोई दैर में कोई 
धोखे में हैं दोनों ही, ख़ुदा और ही कुछ है
*
हस्ती-ओ-मर्ग में कुछ फ़र्क न देखा हम ने 
अपने ही घर से चला अपने ही घर तक पहुंचा 
हस्ती-ओ-मर्ग: जीवन और मृत्यु

कितना दुश्वार है मंजिल पे पहुंचना या रब 
मिटने वाला ही मुसाफ़िर तेरे दर तक पहुंचा
*
ये खु़द अंधेरे में जा रहे हैं चिराग़े-ईमां जलाने वाले 
जनाबे-वाइज़ के दिल को देखो तो हर तरफ़ तीरगी मिलेगी
*
जब तुझ को मेरे सामने आने से आर है 
किस हौसले पे तुझको ख़ुदा मानता रहूं 
आर: लाज 

इक तू कि मेरे दिल ही में छुपकर पड़ा रहे 
इक मैं कि हर चहार तरफ ढूंढता रहूं
*
ये भी क्या उल्फ़त भी हो नफ़रत भी हो 
क्या हमारे दिल में है दिल एक और 

इश्क में मरने में क्या दिलचस्प है 
ज़िंदगी होती है हासिल एक और
*
नाकामियां तो शौक़े शहादत की देखना 
ख़ंजर ब-कफ़ वो सामने आकर चले गए 
ख़ंजर ब-कफ़ :हाथ में खंजर लिए हुए

हम जिस बुजुर्ग की बात कर रहे हैं उनका जन्म पंजाब के गुरदासपुर जिले की बटाला तहसील के छोटे से गाँव पंडोरी में 7 जुलाई 1907 को एक ग़रीब ब्राह्मण पंडित मथुरादास भारद्वाज खट शास्त्री के यहाँ हुआ। फ़रवरी 1922 में उन्होंने फ़ारसी मिडल अप्रेल 1925 में नार्मल की परीक्षा पास की। मात्र 18 वर्ष की उम्र में वो बोलेवाल गाँव के एक प्राइमरी स्कूल में सहायक अध्यापक की हैसियत से बच्चों को पढ़ाने लगे। गाँव में कोई लाइब्रेरी नहीं थी सबसे नज़दीक की लाइब्रेरी पचास मील दूर थी और वहाँ पहुँचने के बहुत से साधन भी नहीं थे। अपनी इल्म-ओ-फ़न की प्यास बुझाने वो पैदल सफ़र करते हुए लाइब्रेरी जाते अपनी पसंद की किताब लाते गाँव आ कर उसकी नक़ल एक रजिस्टर में उतारते और उसे वापस लौटा कर दूसरी क़िताब लाते। ऐसा जनून अब बहुत कम देखने को मिलता है। मोबाइल पर गूगल ने अब सब कुछ सहजता से घर बैठे ऊँगली की एक क्लिक पर उपलब्ब्ध करवा दिया है। जब कोई चीज़ सहजता से उपलब्ध हो तो उसे पाने की प्यास भी कम हो जाती है।    
      
किताबों की तलाश के शौक़ ने उन्हें लाहौर के ओरियंटल कॉलेज के प्रोफ़ेसर 'शादाँ बिलगीरामि'तक पहुँचाया वो प्रोफ़ेसर बीरभान कालिया संपर्क में भी आये। इन दो रहनुमाओं की ने मेहरबानी की वजह से ये 'मुंशी फ़ाज़िल'और सं 1936 में 'अदीब फ़ाज़िल'की परीक्षाएं भी पास कर लीं और डिस्ट्रिक्ट बोर्ड हाई स्कूल श्री हरगोविन्दपुर तहसील बटाला में फ़ारसी पढ़ाने लगे। ज़िन्दगी एक पटरी पर चलने लगी। इसी स्कूल से पचपन वर्ष की उम्र में आप रिटायर हुए।

दम भर में बुलबुले का घरौंदा बिगड़ गया 
कहता था किस हवा में कि फ़ानी नहीं हूं मैं

मंजिल पे जा के ग़ौर से देखा तो ये खुला 
पहले था जिस मक़ाम पर अब तक वहीं हूं मैं
*
अगर ये जानते हम भी उन्हीं की सूरत हैं 
कमाल शौक़ से अपनी ही जुस्तजू करते
*
अपने ही घर में मिला ढूंढ रहे थे जिस को 
उस को पाने के लिए खुद ही को पाये कोई 

ज़िंदगी क्या है फक़त मौत का जामे- रंगीं
हस्त होना है तो हस्ती को मिटाये कोई
*
भूल जाओ खुद को उनकी याद में 
उनसे मिलने की यही तदबीर है

सर को सज्दों से भला फुर्सत कहां 
 ज़र्रा ज़र्रा हुस्न की तस्वीर है
*
रौंद जाता है हर कोई मुझ को 
नक्शे-पा है कि मेरी हस्ती है

ख़ाकसारी की शान क्या कहिए 
किस क़दर औज पर ये बस्ती है 
औज: ऊंचाई
*
इंसां बना के अशरफ-ए-आलम बना दिया 
इस पर भी ये हरीस बशर मुतमइन नहीं 
अशरफ-ए-आलम: सब जीवों से उत्तम, हरीस: लालची

आप सोच रहे होंगे कि जिसका ज़िक्र हो रहा है आखिर वो शख़्स है कौन ? तो साहब जिनका ज़िक्र हो रहा है उनका नाम था जनाब 'रतन पंडोरवी'जिनका शुमार उर्दू के बड़े उस्तादों में होता है। 'रतन'साहब को फ़ारसी पढ़ते पढ़ते शायरी से इश्क़ हो गया और वो महज़ चौदह पंद्रह की उम्र से शेर कहने लगे। उन दिनों शिक्षा के पाठ्यक्रम की किताबों में जनाब उफुक़ लखनवी का क़लाम शामिल हुआ करता था। फ़ारसी पढ़ते हुए रतन साहब को उफ़ुक़ साहब का कलाम रट सा गया , वो सुबह शाम उसे ही गुनगुनाते और उनकी तरह ही शेर कहने की कोशिश करते। उनका पहला शेर कुछ यूँ हुआ :
ऐ बशर किस हस्ती-ए-बातिल पे तुझको नाज़ है
है अदम अंजाम इसका और फ़ना आग़ाज़ है
बातिल: व्यर्थ ,मिथ्या , अदम: परलोक , फ़ना: मिटना
स्कूल की नौकरी के दौरान उर्दू शायर जनाब 'जोश मल्सियानी'मशवरे पर 'रतन पंडोरवी'जी ने जनाब 'दिल शाहजहांपुरी'की शागिर्दगी इख़्तियार कर ली।रतन साहब की शायरी में सूफ़ी रंग है वो जनाब 'दिल शाहजहांपुरी'की देन है। दिल साहब जब बीमारी की वज़ह से रतन साहब के साथ ज्यादा नहीं रह पाए तो उनके जाने के बाद वो 'जोश मल्सियानी'साहब के शागिर्द हो गए बरसों इस्लाह लेते रहे।

'रतन पंडोरवी'साहब ने लगभग दो दर्ज़न किताबें लिखीं जिनमें 14 किताबें नस्र की और 9 किताबें शायरी की हैं जिनमें ग़ज़लें नज़्में रुबाइयाँ आदि शामिल हैं। हमारे सामने जो आज किताब है उसमें उनकी चुनिंदा ग़ज़लों को उनके अज़ीज़ और बेहद मशहूर शागिर्द शायर जनाब 'राजेंद्र नाथ 'रहबर'साहब ने 'हुस्ने-नज़र'नाम से संकलित किया है। ये किताब दर्पण पब्लिकेशन पठानकोट से सन 2009 में शाया हो कर बहुत मक़बूल हुई थी।   

ये पूरी किताब अब इंटरनेट पर 'कविताकोश'की साइट पर पढ़ी जा सकती है।   


किस-किस का दीन उसकी शरारत से लुट गया 
मुझसे न पूछ अपनी ही क़ाफ़िर नज़र से पूछ 

ढल जायेंगी ये हुस्न की उठती जवानियां 
ये राज़े-इंकलाब तू शम्स-ओ-क़मर से पूछ 
शम्स-ओ-क़मर :सूरज और चांद
*
तय हुआ यूं मोहब्बत का रस्ता 
कुछ इधर से हुआ कुछ उधर से 

ज़िंदगी क्या है चलना सफ़र में 
मौत क्या है पलटना सफ़र से
*
मेरा जीना भी कोई जीना है 
जिसने चाहा मिटा के देख लिया 

मुतमइन ऐ 'रतन'जबीं न हुई 
हर जगह सर झुका के देख लिया
*
बात चुप रह के भी नहीं बनती 
बात करते हुए भी डरता हूं 

मार डाला है मुझ को जीने ने 
ऐसे जीने पे फिर भी मरता हूं
*
ज़िंदगी मौत की आग़ोश में हंसती ही रही 
जीने वालों को ये नैरंग दिखाया हमने 
नैरंग :जादू 

बर्क़ का ख़ौफ़ न आंधी का रहा अब खटका 
अपने हाथों से नशेमन को जलाया हमने

स्कूल में नौकरी के दौरान अपने पहले उस्ताद जनाब 'दिल शाहजहांपुरी'और उनके बाद जनाब  'जोश मल्सियानी'साहब  की शागिर्दगी से 'रतन'साहब की शायरी में निरंतर सुधार आता गया और अदबी हलकों में उनके चर्चे होने लगे। वक़्त साथ उनकी शोहरत बटाला से निकल कर पूरे पंजाब में फैली और फिर पंजाब के बाहर देश के उन गली कूचों में भी फ़ैल गयी जहाँ उर्दू शायरी पढ़ी और पसंद की जाती है, यहाँ तक की पड़ौसी मुल्क़ में भी उनके चाहने वालों की तादात अच्छी खासी हो गयी। युवा शायर उनसे इस्लाह लिया करते ,होते होते उनके करीब तीन दर्ज़न शाग़िर्द ऐसे हुए जिन्होंने उनका नाम रौशन किया। उनमें से एक जनाब 'राजेंद्र नाथ 'रहबर'साहब हैं जिनकी एक नज़्म 'तेरे ख़ुश्बू से भरे ख़त मैं जलाता कैसे'जगजीत सिंह साहब ने गा कर पूरी दुनिया में मक़बूल कर दी। 

शायरी के अलावा 'रतन पंडोरवी'साहब को ज्योतिष में महारत हासिल थी। उनकी भविष्य वाणियाँ शत प्रतिशत सच साबित होतीं। देश के दूर-दराज़ हिस्सों से लोग उनके पास अपना भविष्य जानने आया करते थे। लोगों के पूछे प्रश्नों का वो एक दम सटीक उत्तर देते। रतन साहब की शायरी और ज्योतिष विद्या ने एक योगी की सिद्धि का दर्ज़ा इख़्तियार कर लिया था। वो तन्हा पसंद इंसान थे इसलिए उन्होंने स्कूल की नौकरी के बाद व्यास नदी के किनारे बने एक पुराने खंडहर से सुनसान वीरान मंदिर को अपने रहने और साधना का ठिकाना बनाया। मंदिर की साफ़ सफाई और उसके पास बनाये एक छोटे से बाग़ की देखभाल उनके नित्यकर्म का हिस्सा थी। उनके शागिर्द उसी मंदिर में उनके पास इस्लाह के लिए आते। उन्होंने किसी से कभी कुछ नहीं माँगा और फकीरों सी सादगी से ज़िन्दगी जी। हमेशा उन्होंने पूरे दिन में सिर्फ एक बार ही खाना खाया। उनके भतीजे श्री निशिकांत भारद्वाज ने उनसे ज्योतिष विद्या सीखी वो अब 'चामुंडा स्वामी'के नाम से मशहूर हैं।        

अज़ीज़ तर है हमें किस क़दर वतन की हवा 
क़फ़स में जिंदा रहे शाख़े-आशियां के लिए
*
रोते रोते सो गई हर शम्अ परवानों के साथ 
होते होते हो गई आखिर हर फुर्क़त की रात 
फुर्क़त की रात: विरह की रात

हर तरफ़ तारीकियां, खामोशियां, तन्हाइयां 
हू का आलम बन गया है घर का घर फुर्क़त की रात
*
दोनों ने थाम रक्खी है क़िस्मत की बागडोर 
कुछ आदमी के हाथ है कुछ है खुदा के हाथ 

तेरी निगाहों में है मेरे दिल की आरज़ू 
फिर तुझसे मांगता फिरुं मैं क्या उठा के हाथ
*
यह कौन सा मक़ाम है ऐ जोशे बे-खु़दी 
रस्ता बता रहा हूं हर इक रहनुमा को मैं

क्यों उसकी जुस्तजू का हो सौदा मुझे 'रतन' 
मुझ से अगर जुदा हो तो ढूंढू खुदा को मैं 
सौदा: पागलपन
*
उलझते हैं भला शैख़-ओ-बरहमन किसलिए 
हरम हो दैर हो दोनों में है तस्वीर पत्थर की
*
रंज, ग़म, हसरत, तमन्ना, दर्द, गिर्या फ़र्तै यास
 मेरे दिल ने परवरिश की है बराबर सात की 

देखिए मैदान किसके हाथ रहता है 'रतन' 
चश्मे-गिरिया के मुकाबिल है घटा बरसात की
 चश्मे गिरिया: रोती हुई आंख
*

जोगी शायर के नाम से मशहूर रतन साहब बेहद विनम्र स्वभाव के इंसान थे। एक बार जो उनसे मिलता बस उन्हीं का हो कर रह जाता। वो बड़े धार्मिक विचारों के थे। नियम से योग और शिव की आराधना करते। रहबर साहब लिखते हैं कि 'रतन साहब ने अपने इष्टदेव को सामने रख कर राज़ो-नियाज़ की बातें कीं और मज़ाज से हक़ीक़त को नुमायां करने की कोशिश की।'

उनकी किताबों पर बिहार उर्दू अकादमी, बंगाल उर्दू अकादमी और उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी ने एवार्ड दिए। भाषा विभाग पंजाब की तरफ़ से उन्हें 'शिरोमणि साहित्यकार'का ख़िताब, नक़दी, शॉल और प्रमाणपत्र भेंट किये गए। चंडीगढ़ की 'कला दर्पण'संस्था द्व्रारा 18 मई 1980 को टैगोर थियेटर में 'जश्न-ऐ-रतन पंडोरवी'मनाया गया। 19 मई 1981 को शाहजहांपुर में एक बहुत बड़ा जलसा हुआ जिसमें 'दिल शाहजहांपुरी'के बेटे शब्बीर हसन ने उन्हें दिल शाहजहांपुरी का जा-नशीन (उत्तराधिकारी) मुकर्रर किया।

रतन साहब 16 दिसंबर 1989 को पंडोरी को हमेशा हमेशा के लिए ख़ैरबाद कह कर पठानकोट जा कर बस गए और 4 नवम्बर 1990 को इस दुनिया-ऐ-फ़ानी को अलविदा कह गए। अफ़सोस ,गायत्री मंत्र और भगवत गीता का उर्दू नज़्म में अनुवाद करने वाले इस अपनी तरह के अकेले शायर को याद करने वाले अब बहुत कम लोग बचे हैं। इस किताब को मंज़र-ऐ-आम पर लाने के लिए आप रहबर साहब को 9417067191 पर फोन कर मुबारकबाद दे सकते हैं।
जब अपनी ज़िंदगी तुम हो फिर उसक मुद्दआ तुम हो
तो इसमें हर्ज ही क्या है अगर कह दे खुदा तुम हो

न होता आशियां तो बिजलियां पैदा ही क्यों होतीं
सुनो ऐ चार तिनको अस्ल में बर्के-बला तुम हो
*
इतनी कहां मजाल कि बेपर्दा देखते 
तेरे निशान हम को मिले हैं कहीं-कहीं

ऐ शैख़ मयकदे की मज़म्मत फुज़ूल है 
मिलती है क्या बहिश्त में ऐसी जमीं कहीं
*
इस तरफ आग कि सीने में भड़क उठ्ठी है 
उस तरफ हुक्म कि हरगिज़ न मिलेगा पानी



किताबों की दुनिया - 256

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जो भी कहूँगा सच कहूँगा 
ये झूठ तो आम चल रहा है 

हम तुम हैं जो चल रहे हैं तह में 
दरिया का तो नाम चल रहा है 
*
वो सामने था तो कम कम दिखाई देता था 
चला गया तो बराबर दिखाई देने लगा 

वो इस तरह से मुझे देखते हुए गुज़रा 
मैं अपने आप को बेहतर दिखाई देने लगा 

कुछ इतने ग़ौर से देखा चराग़ जलता हुआ 
कि मैं चराग़ के अंदर दिखाई देने लगा
*
मंजिलें ऐसी जहांँ जाना तो है इस इश्क़ में 
क़ाफ़िले ऐसे कि जिनके साथ जा सकते नहीं
*
ख़ाली दिल फिर ख़ाली दिल है ख़ाली घर की भी न पूछ 
अच्छे ख़ासे लोग हैं और अच्छा ख़ासा शोर है
*
हम में बाग़ों की सी बेबाकी कहांँ से आ गई 
यू महक उठना तुम्हारा और महकाना मेरा

अपनी अपनी ख़ामोशी में अपने अपने ख़्वाब में 
मुझक दोहराना तुम्हारा तुमको दोहराना मेरा
*
घरों से हो के आते जाते थे हम अपने घर में 
गली का पूछते क्या हो गली होती नहीं थी 

तुम्हीं को हम बसर करते थे और दिन मापते थे 
हमारा वक़्त अच्छा था घड़ी होती नहीं थी
*
अब जैसा भी अंजाम हो इस कूज़ागरी का
मिट्टी से मगर हाथ छुड़ाया नहीं जाता
कूज़ागरी: कुम्हार का काम

सोशल मिडिया का चारों और बोलबाला है। आपने कभी सोचा कि सोशल मिडिया किसका भला कर रहा है ? मेरे ख़याल से बहुत से ऐसे लोग,जो इस मुग़ालते में हैं कि दुनिया में उनके काम की वज़ह से उनके नाम का डंका बज रहा है, गुमनामी के अँधेरे में दफ़्न होते अगर सोशल मिडिया न होता। जिनके पास वाकई हुनर है कुछ नया करने को है वो सोशल मिडिया के मोहताज़ न कभी थे न कभी होंगे। लगता है बहुतों को मेरी ये बात नाग़वार गुज़रे क्यूंकि ये ज़रूरी नहीं कि मेरी हर बात से आप इत्तेफ़ाक़ रखें। तुलसीदास जी की रामायण , ग़ालिब की ग़ज़लें, सूरदास के दोहे , मीरा के भजन जैसे हज़ारों उदाहरण हैं जो जन जन तक पहुँचे तब, जब सोशल मिडिया तो दूर की बात है प्रिंट मिडिया भी नहीं था। इनकी लोकप्रियता के पीछे आम लोगों का योगदान रहा। दूसरे को दूसरे ने तीसरे को और तीसरे ने चौथे को इनके बारे में बताया। ये अलग बात है कि इनकी लोकप्रियता तुरंत नहीं फैली। उनके जीते जी उन्हें वो सम्मान या नाम नहीं मिला जो उन्हें उनके जाने बाद मिला। लेकिन जब मिला तो ऐसा मिला कि लोगों के दिलो-दिमाग़ पर अमिट हो गया। आप माने न माने लेकिन सोशल मिडिया की वजह से लोकप्रिय हुए लोग सोशल मिडिया से हटते ही भुला दिए जाते हैं। सोशल मिडिया आपको कुछ वक़्त तक ही लोकप्रियता की रौशनी में रख सकती है अगर हमेशा रौशन होने की चाह है तो आपको खुद दीपक की तरह जलना होगा। याद वो रहते हैं जो ओरिजिनल हैं . जिनके पास ऐसा कुछ नया है, अपना है जो दूसरों के पास नहीं है। हमारे आज के शायर उसी श्रेणी के हैं जिनकी सोच और कहन अनूठा और सबसे अलग है और जो लोकप्रिय होने के लिए सोशल मिडिया मोहताज़ नहीं हैं। ये पोस्ट न सोशल मिडिया के ख़िलाफ़ है और न उनके जो सोशल मिडिया पर छाये हुए हैं या छाने की कोशिश में लगे हुए हैं।

अश्क अंदर कभी देखा भी है पैदा होते 
आ तुझे ले चलें इस मौज की गहराई में हम
*
दिन ढले सब कश्तियां ओझल हुई आंँखों से और 
देखते रहने को दरिया की रवानी रह गई

हांँ क़बा-ए-जाँ बदलने से भी दिन बदले नहीं 
हांँ नए कपड़ों में भी ख़ुशबू पुरानी रह गई
क़बा-ए-जाँ: ज़िंदगी का लिबास
*
अचानक मिस्रा-ए-जाँ से बरामद होने वाले 
कहांँ होता था तू जब शाइरी होती नहीं थी 

कहो तो गुफ़्तगू सुनवाऊँ तुमको उन दिनों की 
हमारे दरमियांँ जब बात भी होती नहीं थी
*
अगर इस पार से आवाज़ें मेरे साथ न आएंँ 
मुझे उस पार उतरने में सहूलत रहेगी 

शजर-ए-जाँ से एक बार उड़ाने की है देर 
इन परिंदों को कहां मेरी ज़रूरत रहेगी
*
यह मस्अला अभी दरिया से तय नहीं होगा 
कहीं पे शाम किनारा कहीं किनारा दिन 

गुज़र गया तेरी आंखों में शाम होते ही 
गुज़ारे से जो गुज़रता न था हमारा दिन

हमारा कुछ भी नहीं दिल की धूप छांँव में 
ये रात रात तुम्हारी ये दिन तुम्हारा दिन

अगर आप सोशल मिडिया पर बहुत एक्टिव हैं लेकिन हिंदी भाषी हैं और उर्दू लिख पढ़ नहीं सकते तो हो सकता है आपने हमारे आज के शायर का कलाम शायद ही पढ़ा या सुना हो। ये तो एक दिन मैं मुंबई के युवा और बेजोड़ शायर स्वप्निल तिवारी को दुबई के एक मुशायरे में अपना क़लाम पढ़ते हुए की विडिओ देख रहा था कि उसी विडिओ में मैंने पहली बार हमारे आज के शायर का नाम और क़लाम सुना। पता चला कि ये पाकिस्तानी शायर 'शाहीन अब्बास'साहब हैं। इंटरनेट पर खोजने से पता लगा कि इनकी ग़ज़लों की एक क़िताब रेख़्ता से प्रकाशित हुई है। उनकी किताब 'शाम के बाद कुछ नहीं'जो अभी मेरे सामने खुली हुई है तुरंत अमेजन से मँगवाई गयी। बार बार पढ़ी गयी। फिर उनके बारे में जानने की खोज शुरू हुई। इंटरनेट खंगाल डाला।  उनके एक आध विडिओ जरूर यू ट्यूब पर मिले लेकिन उनके बारे में कहीं कोई लेख या उनका कोई इंटरव्यू नहीं मिला। 

आखिर स्वप्निल को ये काम सौंपा।  स्वप्निल उनके प्रशंशक हैं लिहाज़ा उन्होंने शाहीन साहब से संपर्क किया और उनके बारे में जो भी पता लगा सकते थे पता लगाया और मुझे भेजा। शाहीन साहब अपने बारे में बताने से संकोच करते हैं , लिहाज़ा उनकी प्राइवेसी का सम्मान करते हुए उनके बारे में जितना मुझे पता चला आपके साथ साझा कर रहा हूँ। थोड़े को बहुत समझें और उनकी लाजवाब शायरी का आनंद लें :


वो भी क्या दिन थे कि जिस जिस मौज पर पड़ता था पाँव 
ख़ुद किनारे तक समंदर छोड़ने आता रहा 
*
राख सच्ची थी तभी तो सर उठाकर चल पड़ी 
शो'ला झूठा था दिलों के बीच बल खाता रहा 

इश्क़ आखिर इश्क़ था जैसा भी था जितना भी था 
सर ज़मीन-ए-दिल पे इक परचम तो लहराता रहा
*
बाग़-ए-दिल इस बार किस रफ़्तार से ख़ाली हुआ 
फूल मेरे गुम हुए खुशबू तेरी गुम हो गई 

दो किनारे ख़ामोशी के एक हम और एक तुम 
दरमियांँ जिस जिस की भी आवाज़ थी गुम हो गई
*
चलना पड़ता है मोहब्बत की सी रफ़्तार के साथ 
आप चल कर नहीं आ जाता ज़माना दिल का
*
था मगर ऐसा अकेला मैं कहांँ था पहले 
मेरी तन्हाई मुकम्मल तेरे आने से हुई

अपने बारे में वो इक बात जो होती नहीं थी 
तेरी आवाज़ में आवाज़ मिलाने से हुई
*
मैं बस एक जिस्म सा रह गया तुझे भूल कर 
ये वो मोड़ था जहांँ दिल भी हाथ छुड़ा गया 

तुझे बे-सबब नहीं देखते थे ये लोग सब 
तुझे देख कर इन्हें देखना भी तो आ गया

पाकिस्तान के मशहूर शहर लाहौर से अगर कोई कव्वा सीधा तीर की तरह उड़े तो वो 39 किलोमीटर उड़ता हुआ शेखुपुरा पहुँच सकता है, किसी इंसान के लिए ये दूरी लगभग 70 किलोमीटर होगी क्यूंकि इंसान सीधा चलता कब है ? इसी शेखुपुरा में 29 नवम्बर 1965 को 'शाहीन अब्बास'साहब का जन्म हुआ। एम.सी प्राइमरी स्कूल शेखुपुरा से अपनों पढाई का आगाज़ करने के बाद उन्होंने गोवेर्मेंट हाई स्कूल शेखुपुरा से मेट्रिक पास की और इंटरमीडिएट एफ.एस.सी की परीक्षा, प्री इंजीनियरिंग की परीक्षा के साथ गोवेर्मेंट डिग्री कॉलेज शेखुपुरा से बेहतरीन नंबरों के साथ पास की। प्री इंजीनियरिंग करने के बाद सिवा इंजीनियरिंग करने के और कोई विकल्प बचता ही नहीं और क्यूंकि शेखुपुरा में इंजीनियरिंग पढ़ने की सुविधा नहीं थी लिहाज़ा उन्हें घर छोड़ कर लाहौर के इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ने जाना पड़ा। प्री इंजीनियरिंग की परीक्षा में आये नंबरों के आधार पर उन्हें इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग ब्रांच में दाख़िला मिला। तब इंजीनियरिंग कालेजों में मेकेनिकल और इलेक्ट्रिकल दो विशेष ब्रांच हुआ करती थीं जिनमें हर किसी को दाखिला नहीं मिलता था। उस ज़माने में आज की तरह हर गली मोहल्ले में इंजीनियरिंग कॉलेज नहीं होता था बहुत कम कॉलेज हुआ करते थे जिनमें दाखिला मिलना बहुत फ़क्र की बात हुआ करती थी। इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला मिलने के साथ ही एक बड़ी ज़िम्मेदारी का एहसास भी जाग जाता था। क्यूंकि मैंने भी, 50 साल पहले ही सही, इंजीनियरिंग की है तो मैं जानता हूँ कि इंजीनियरिंग की पढाई आसान नहीं होती। आप रट कर पास नहीं हो सकते। ये पढाई आपका पूरा ध्यान और समय मांगती है।

तारीफ़ करनी होगी शाहीन साहब की जिन्होंने अपनी शायरी की शमअ मात्र 15 साल की उम्र में याने सं 1980 में रौशन की और जिसे उन्होंने इंजीनियरिंग की पढाई की तेज आँधियों में बुझने नहीं दिया बल्कि उसे और ज्यादा रौशन कर दिया। उनका इंजीनियरिंग की कठिन पढाई के साथ साथ अपनी  शायरी को ज़िंदा रखने का काम किसी करिश्मे से कम नहीं।  

पिछले पानी अभी आंखों ने संभाले नहीं थे 
दिल निकल आया है एक और समंदर की तरफ़ 

बाहर आवाजें ही आवाज़ें हैं और कुछ भी नहीं 
ख़मोशी खींच रही है मुझे अंदर की तरफ़
*
यूँ न हो मैं अपनी गहराई में गुम कर दूंँ तुझे 
जा किनारा कर अगर मुझसे किनारा हो सके
*
 बहते बहते उन्हीं आंखों में कहीं डूब गए 
चलिए अच्छा है किसी तौर ठिकाने लगे हम
*
वक़्त गुज़रे चला जाता है बस अपनी धुन में 
इक सदा आएगी और इसको ठहरना होगा
*
हिज़्र और वस्ल तेरे आने से पहले भी तो थे 
तेरा आना तो फ़क़त एक बहाना हुआ है 

तू भी चलता तो वहांँ तक नहीं जाता शायद 
तेरी आंँखों में जहांँ तक मेरा जाना हुआ है
*
मेरी आंँखों ने खो दिया था जो ख़्वाब 
तेरी आंँखों ने ला दिया है मुझे 

दश्त ओ दरिया ने मुझसे मिल मिल कर 
अपने जैसा बना दिया है मुझे
*
मैंने इस तरह भी उस शख़्स का रखा है ख़याल 
कहीं जाता ही नहीं अपने सिवा ध्यान मेरा

सवाल ये है कि ऐसा उन्होंने किया कैसे ? जवाब शायद ये होगा कि ये करिश्मा उनसे उनके जूनून ने करवाया। इंसान में अगर जूनून हो तो वो कुछ भी कर सकता है। शाहीन साहब लगता है ज़ज़्बाती इंसान हैं तभी वो अपने ज़ज़्बात के इज़हार के बहाने ढूंढते हैं कभी शायरी तो कभी नस्र के जरिये। उन्होंने ज्यादातर तो शायरी ही की, इब्तिदा में कम नस्र लिखी ,इंजीनियरिंग में एक अफ़साना 'छाजो'के नाम से लिखा जो कहीं छपा नहीं। इंजीनियरिंग करते ही उनकी नौकरी एक पॉवर प्लांट में लग गयी, जो आज तक चल रही है । नौकरी के बाद शादी और  बाद में उससे जुडी मसरूफ़ियात के चलते लिखने की रफ़्तार थोड़ी धीमी पड़ी लेकिन उसके बाद ज़िन्दगी पटरी पर आते ही लिखने का जूनून फिर से हावी हो गया जो अब तक मुसलसल चल रहा है।

पहला शेरी मज़्मुआ 'तहय्युर' 1998 में (ग़ज़लें )मंज़र-ए-आम पर आया उसके बाद 2002 में 'वाबस्ता'(ग़ज़लें ), 2009 में 'खुदा के दिन'(ग़ज़लें ), 2013 में 'मुनादी' (नज़्में ), 2014 में 'दरस धारा'(नज़्में), 2020 में 'पारे -शुमारे' (नॉवल ) , 2020 ही में 'गलियों गलियों (ग़ज़लें ) और 2021 में अफसानों का मज़्मुआ 'कहानी काफ़िर'भी मंज़र-ए-आम पर आ चुका है। उनका एक अफसाना 'सुरख़ाब सुपुर्दे ख़ाक'बेहद मक़बूल हुआ।     

 शाहीन अब्बास साहब का शुमार 1990 के बाद के अहम-तरीन पाकिस्तानी लेखकों में होता है। 

मैं था कि अपने आप में खाली सा हो गया 
उसने तो कह दिया मेरा हिस्सा जुदा करो 

इक नक़्श हो न पाए इधर से उधर मेरा 
जैसा तुम्हें मिला था मैं वैसा जुदा करो
*
इस बार तेरे ख़्वाब में रक्खा है अपना ख़्वाब 
इस बार रौशनी में संभाली है रौशनी
*
वो बेबसी है कि हर जख़्म भर गया जैसे 
मैं रो न दूंँ तेरे जीने से यूँ उतरता हुआ
*
नक़्ल करती है मेरे चलते में वीरानी मेरी 
ये जो मेरे शोर-ए-पा से मिलता-जुलता शोर है
शोर-ए-पा: चलने की आवाज़
*
जख़्म इक चौखटे पर जैसे मुजस्सम हो जाए 
मैं वो तस्वीर कि हर रंग रुलाता है मुझे 
मुजस्सम: साकार

आमद-आमद है ये किस आ'लम-ए-तन्हाई की 
एक इक जख़्म मेरा छोड़ता जाता है मुझे 
आमद: आना
*
किसी और ताल पर रक़्स मुझको रवा नहीं 
तू फिर आप अपने बदन की लय से विसाल कर 
रवा:उचित
*
गया जो मौज में उसकी वो डूबता ही गया 
उस आँख की किसी तैराक से नहीं बनती
*
रात बची न दिन बचे वक़्त बहुत सा बच गया 
वा'दे की रात काटकर वादे का दिन गुज़ार कर

एक बात अक्सर शाहीन साहब से पूछी जाती है कि इंजिनियर और शायर, इंजिनियर  और फिक्शन निगार -कैसे मुमकिन है ? पूछने वालों के दिमाग़ में शायद ये बात होती है किसी जुबान का इतिहास, उसकी पहचान, उस पर की गयी आलोचना को पढ़ने वाले और उस पर अनुसंधान  करने वाले लोग ही बेहतर लेखक हो सकते हैं। इस पर शाहीन साहब जवाब देते हैं कि 'मैं समझता हूँ कि लेखन एक बिलकुल अलग चीज का नाम है इसका आपकी तालीम से कोई सीधा रास्ता नहीं, ये बात दुनिया भर के डॉक्टरी से, सिविल सर्विसेज से, कंम्यूटर साइंस और बहुत से विभिन्न कामों से जुड़े लेखकों ने साबित कर दिया है इसलिए अच्छा शायर होने के लिये इंजीनियर या गैर इंजीनियर होना जरूरी नहीं, इंसान होना शर्त है

तो क्या इंसान शायर या लेखक हो सकता है ? जवाब है 'नहीं'। ये वो फ़न है जो ऊपरवाला किसी किसी को ही अता करता है। अगर आपके भीतर ये फ़न नहीं है तो आप चाहे कितनी ही किताबें पढ़ लें कितने ही उस्ताद बदल लें ,ढंग के दो लफ्ज़ नहीं लिख पाएंगे। किताबें या उस्ताद आपके भीतर छिपे इस फ़न को सिर्फ तराशने का काम कर सकते हैं ये फ़न आपके भीतर डाल नहीं सकते। 

लोग अक्सर 'शाहीन'साहब के अफ़साने नॉवल और शायरी पढ़ कर पूछते हैं कि जो लिखा गया है उसका मतलब क्या है , कुछ समझ नहीं आया इस पर शाहीन साहब फ़रमाते हैं कि मेरे लिए ये सवाल ऐसे ही है जैसे कोई मुझसे पूछे की ये क़ायनात क्या है ? इंसान और उसकी ज़ात किस चीज का नाम है और ज़ाहिर है इन सवालों का कोई एक जवाब नहीं।मैं समझता हूँ कि जब तक क़ायनात,ज़ात और क़ायनात का रहस्य बाकी है, शेर बाक़ी है,अदब बाक़ी है और ज़िन्दगी बाक़ी है। मैं तो क्रिएटिविटी या लेखन को बस इतना ही समझ सका हूँ कि हर बड़ा लिखने वाला जब अंदर छुपे रहस्य के साथ क़ायनात से जब हमकलाम होता है तो बात बनती है।'

शाहीन साहब की किताब जब भारत से छप कर आयी तो उसे पढ़ने और चाहने वालों की  तादात उनके पाकिस्तानी चाहने वालों से कई गुना ज्यादा मिली। ये तब है जब वो सोशल मिडिया पर बिलकुल एक्टिव नहीं हैं। ऐसा क्यों हुआ इसके जवाब के लिए आपको जो बात मैंने शुरू में लिखी है उसे फिर से पढ़ना होगा।  

हाल ही में शाहीन साहब के नॉवल 'पारे-शुमारे'को 'रशीद अमजद'अदबी अवार्ड मिला है, उनकी ग़ज़लों की किताब 'गलियों गलियों'को परवीन शाक़िर ट्रस्ट की तरफ से 'सर अब्दुल क़ादिर'अदबी अवार्ड मिल चुका है। इस से पहले उनकी नज़्मों  की दोनों किताबों को बाबा 'गुरुनानक'अदबी अवार्ड मिल चुका है। इन दिनों शाहीन साहब अपना दूसरा नॉवल लिख रहे हैं।

आईये आखिर में पढ़ते उनके चंद शेर इसी किताब से :

अपनी आंँखों की अमल दारी में रहने दे मुझे 
ये ठिकाना मेरे होने का बहाना ही न हो 
अलमदारी:शासन
*
ये बताना जरा मुश्किल है कि देखा क्यों है 
मैंने देखा है जहां तक नज़र आया है कोई
*
वस्ल गया तो हिज्र था हिज्र गया तो कुछ न था
 ख़ास के बा'द आ'म हूँ आ'म के बाद कुछ नहीं 

जिस्म का नश्शा पी चुके अपनी तरफ़ से जी चुके 
चलिए कि जाम उलट चुका जाम के बाद कुछ नहीं
*
इक शाम मेैं ढलते हुए सायों पे हंसा था 
अब तक नहीं निकली मेरे अंदर की उदासी
*
हवा से कहते तो रहते हैं क्यों बुझाया चराग़ 
कहीं चराग़ की अपनी हवा खराब न हो
*
कोई शय और भी होती है कि बस होती है 
घर ही काफ़ी नहीं घर-बार बनाने के लिए
*
हमें इतनी बड़ी दुनिया का पता थोड़ी था 
जहां हम तुम हुआ करते थे वहांँ रह गए हम 

एक आवाज के दो हिस्से हुए ठीक हुआ 
तुम वहां रह गए ख़ामोश यहांँ रह गए हम
*
यह दो बाजू हैं सो थोड़ी हैं खोलूँ और बता दूंँ 
मेरे अतराफ़ में किस-किस का आना रह गया है 
अतराफ़: आसपास




किताबों की दुनिया - 257

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तू वही नींद जो पूरी न हुई हो शब-भर 
मैं वही ख़्वाब कि जो ठीक से टूटा भी न हो
*
मेरी आंखे न देखो तुमको नींद आए तो सो जाओ 
ये हंगामा तो इन आँखों में शब भर होने वाला है
*
झिझक रहे थे बहुत ज़िंदगी के आगे हम 
सो आँख उठाई नहीं और सलाम कर लिया है
*
ज़िंदगी वो जो मेरे साथ ही करना थी उसे 
ज़िंदगी वो जो मेरे साथ नहीं की उसने
*
वहीं पे ज़िक्र हमारा किया गया अक्सर 
वो महफ़िलें जहां अक्सर नहीं गए हम लोग 

कहीं का सोग कहीं और क्या मनाते हम 
तो घर से रूठ के दफ़्तर नहीं गए हम लोग
*
जितनी जल्दी हो बस अब हम से किनारा कर ले 
तू सफ़ीना है मेरी जान भंँवर हैं हम लोग

कट तो सकते हैं तेरी राह से हट सकते नहीं 
तू ज़मीं है तो समझ ले कि शजर हैं हम लोग
*
इश्क़ आँगन में बरसता है विरह का बादल 
आस बर्तन है कोई जिसमें भरे दुख हैं हम 

खोल दरवाज़ा-ए-जाँ दिल में जगह दे अपने 
तूने पहचाना नहीं हमको ! अरे दुख हैं हम

मोबाइल की घंटी बजी , देखा जिगरी विडिओ कॉल पे था ! जिगरी अपना दोस्त है जो कभी भी फ़ोन कर सकता है। 
"बोल" ? मैंने कहा। 
"यार, अभी लख़नऊ में हूँ" -ज़वाब आया।
"तो" ? मैंने पूछा।
"मुझे जलेबी खानी है" - उसने कहा।
"तो खाले -परेशानी क्या है" ? मैंने कहा 
"ये ही तो परेशानी है , कहाँ खाऊँ ?"उसने कहा 
"गूगल से पूछ, मुझसे क्यों पूछ रहा है ?"मैंने झल्ला कर कहा 
"अरे यार गूगल तो पता नहीं क्या क्या बता रहा है किसी से पूछ के यहाँ आया हूँ यहाँ भी चार दुकानें हैं -देख"वो मोबाईल घुमा कर विडिओ से चारों तरफ़ दिखाने लगा।  
"रुक रुक -वो देख दाईं तरफ़ जो दो लोग जाते दिख रहे न हैं न तुझे" - मैं चिल्लाया 
"कौनसे ? वो एक सेहत मंद के साथ जो ठीक-ठाक सेहत वाला जा रहा है वो" ?- वो बोला  
"हाँ हाँ वही" -मैंने कहा 
"वो जो बातें कम कर रहे हैं और ठहाके ज्यादा लगा रहे हैं" - वो बोला 
"अरे हाँ , उनमें से जो सेहतमंद वाला है उससे पूछना, देखना वो फिल्म ,'मेरे हुज़ूर'के अभिनेता 'राजकुमार'की तरह शाल एक तरफ करते हुए कहेगा 'लख़नऊ में ऐसी कौनसी जलेबी की दूकान है जिसे हम नहीं जानते" - मैंने आगे कहा कि "जलेबी उनके नाम से मशहूर है या वो जलेबी के नाम से ये शोध का विषय हो सकता है लेकिन उनका जलेबी प्रेम किसी शोध का मोहताज़ नहीं क्यूंकि वो सबको पता है।"     
"दूसरे उसके साथ वाले से नहीं पूछूँ ?"उसने कहा 
"नहीं , वो हिमांशु बाजपेयी है उससे नहीं"- मैंने कहा 
"कौन हिमांशु बाजपेयी ?" - उसने चौंक कर पूछा 
"अमां यार लख़नऊ में हो और हिमांशु बाजपेयी नहीं जानते ? लानत है - किस्सागोई या दास्तानगोई कुछ भी कहो के उस्ताद, साहित्य अकादमी युवा पुरूस्कार 2021 से सम्मानित 'क़िस्सा क़िस्सा लखनऊवा'किताब के लेखक और ढेरों ख़ूबियों के मालिक" - मैंने बताया
  
जिगरी की शक्ल देख कर मुझे अंदाज़ा हो गया कि मैं भैंस के आगे बीन बजा रहा हूँ। आप तो जानते होंगे हिमांशु बाजपेयी को ? क्या कहा नहीं जानते ? फिर तो आप हमारे आज के शायर के बारे में भी बिल्कुल नहीं जानते होंगे।हिमांशु और इनकी जोड़ी लखनऊ में 'जय -वीरू'की जोड़ी के नाम से प्रसिद्ध है अलबत्ता इनमें से जय कौन और वीरू कौन है ये खुलासा अब तक कोई नहीं कर पाया।
 
दोस्त पहचाने गए अपने निशाने से, और 
हम भी सीने में लगे तीर से पहचाने गए 
*
होना था तुझको और नहीं है तू हाय-हाय 
मैं हूंँ अगर्चे मेरे न होने के दिन हैं ये 

दु:ख मोल ले रहा है जिन्हें कौड़ियों के भाव
क़ीमत लगाई जाए तो सोने के दिन हैं ये 

फीका है कायनात का हर रंग इन दिनों 
उनसे हमारी बात न होने के दिन हैं ये
*
उसी निगाह में अक्सर जुनून पलता है 
जो अपने ख़्वाब बड़ी बेदिली से मारती है
*
न ठहरी तुझ पे तो इस वाक़ये को तूल न दे 
ख़ुद अपने आप में इक सरसरी निगाह हूंँ मै
*
इरादतन तो कहीं कुछ नहीं हुआ लेकिन 
मैं जी रहा हूंँ ये साँसों की ख़ुशगुमानी है
*
हम ऐसे लोग कि मिट्टी हुए हैं इस धुन में 
कि उसके पांँव का हम पर निशान भी पड़ता 

हमीं जहान के पीछे पड़े रहें कब तक 
हमारे पीछे कभी ये जहान भी पड़ता
*
चंद लम्हों में यहाँ से भी गुज़र ही जाऊंँगा 
देर तक अपने ही अंदर कौन सा रहता हूं मैं

हमारा आज का शायर एक ऐसा शायर है जो सबमें शामिल होते हुए भी सब से अलग लगता है। वो अकेला शायर है जो किसी को अपने पर हँसने और अपनी मज़ाक बनाने का मौका ही नहीं देता क्यूंकि वो खुल्लमखुल्ला अपनी ख़ुद की मज़ाक इतनी बनाता है कि किसी दूसरे को अलग से कुछ करने /कहने की गुंजाईश ही नहीं बचती।

अब तो आप समझ ही गए होंगे कि मैं किसकी बात कर रहा हूँ। नहीं ? हद है जी। इतनी बात करने के बाद अगर अमिताभ बच्चन साहब 'कौन बनेगा करोड़पति'के सेट की हॉट सीट पर बैठे व्यक्ति से शायर के नाम का सवाल पूछते तो मेरा दावा है कि वो उनके चार ऑप्शन बताने से पहले ही बोल पड़ता 'अभिषेक शुक्ला'।

अभिषेक शुक्ला जी की पहली ग़ज़लों की किताब 'हर्फ़-ए-आवारा'जिसे राजकमल प्रकाशन ने सन 2020 में प्रकाशित किया था हमारे हाथ में हैं और हम इसके वर्क़ पलटते हुए इस बात से परेशान हो रहे हैं कि उनके कौनसे शेर छोड़े जाएँ और कौनसे आपको पढवाये जाएँ। ऐसी दुविधा पूर्ण स्तिथि हमारे सामने बहुत कम दफ़ा आयी है इसलिए सोचा है कि वर्क़ पलटते जाएँगे और जिस शेर पर नज़र टिकी आप तक पहुंचा देंगे। इस किताब में अभिषेक जी की क़रीब 125 ग़ज़लें शामिल हैं जो उन्होंने पिछले 7-8 सालों में कही हैं।

एक बात आपको बताता चलूँ कि अभिषेक शुक्ला जी की इस किताब का शीर्षक अभिषेक का नहीं बल्कि उनके दोस्त हिमांशु बाजपेयी का दिया हुआ है।      


ये इत्तिफ़ाक़ ज़रूरी नहीं दोबारा हो 
मैं तुझको सोचने बैठूंँ तो ज़ख्म भर जाए 

फिर उसके बाद पहनने को सारी दुनिया है 
मगर वो शख़्स मेरे ज़ेहन से उतर जाए
*
वस्ल होता भी तो हम दोनों फ़ना हो जाते 
आग उसमें में थी भरी मुझ में भरा था पानी 

बीच में ख़्वाब थे सहरा था मेरी आँखें थी 
उस कहानी का फ़क़त एक सिरा था पानी 

मुझको मालूम है दरिया की हक़ीक़त क्या है 
मुझसे तन्हाई में एक रोज़ खुला था पानी
*
तुमसे इक जंग तो लड़नी है सो लड़ते हुए हम
अपने खे़मे में किसी रोज़ मिला लेंगे तुम्हें
*
जो चुप रहूंँ तो यही इक ज़वाब काफ़ी है 
जो कुछ कहूंँ तो वो अपना सवाल बदलेगा
*
जिंदगी इक जुनून है माना 
ये जुनूँ कौन ता-हयात करे
*
मेरी क़ीमत न लगा पाएगी दुनिया लेकिन 
तू ख़रीदे तो मेरा दाम ज़ियादा नहीं है
*
घूम-फिर कर उसी इक शख़्स की ख़ातिर जीना 
ज़िंदगी तुझसे कोई और बहाना न हुआ

भगवत गीता का एक बहुत ही प्रसिद्ध श्लोक है 'यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत.....'  दुःख की बात है कि ये श्लोक अपना अर्थ खो चुका है क्यूँकि अब धर्म की हानि इस तेज़ रफ़्तार से हो रही है कि ईश्वर को समझ ही नहीं आ रहा कि वो कहाँ कहाँ कितने अवतार ले। ईश्वर ने धर्म को हानि पहुँचाने वालों को उनके हाल पर छोड़ दिया है नतीज़ा लोगों के जीवन में दुःख और असंतोष की मात्रा बढ़ती जा रही है। लेकिन जब उर्दू ज़बान के साथ खिलवाड़ हद से बढ़ने लगी जैसा कि 'फ़रहत एहसास'साहब ने इस किताब की भूमिका में अस्सी दशक के दशक में उर्दू शाइरी के बारे में लिखा है कि 'शाइरी का आसमान तेज़ी से अपने आफ़ताबोँ ,माहताबों और सितारों से ख़ाली होने लग गया था और उनकी जगह बरेलवियों, इन्दोरियों, भोपालियों,देबन्दियों और कानपुरियों से भरी जाने वाली थी। अदबी शाइरी की बिसात चंद रिसालों के औराक़ (पन्नो) तक महदूद (सिमटी हुई) थी और इस का बेशतर हिस्सा जितना ठंडा और बेमज़ा था ,उतने ही मुर्दा-ज़ौक़(आनंद) और कुहना-एहसास(मरे हुए अनुभव) उसके पढ़ने वाले थे।'ऐसे हालात में ईश्वर ने चंद लोगों को पृथ्वी पर इसलिए भेजा कि वो उर्दू ज़बान को फिर से सँवार कर अवाम के सामने लाएँ .उन लोगों में से एक हैं 14 सितम्बर 1985 को ग़ाज़ीपुर उत्तर प्रदेश में जन्में 'अभिषेक शुक्ला'

अभिषेक जी के घर का माहौल शायराना कतई नहीं था इसलिए उर्दू से उनको मोहब्बत भी नहीं थी , बचपन में वो हिंदी, जो उनकी मादरी ज़बान है'में छुट छूट-पुट कवितायेँ लिखा करते थे। शुरूआती तालीम सरस्वती शिशु मंदिर ग़ाज़ीपुर से लेने के बाद वो अपने पापा के लखनऊ ट्रांसफर होने के कारण लखनऊ चले आये और छठी से पोस्ट- ग्रेजुएशन तक की पढाई लखनऊ से की।  स्कूल कॉलेज के दिनों में वो नस्र लिखा करते और डिबेट में भाग लिया करते। डिबेट में उन्होंने बहुत से ईनाम जीते।  ऐसे ही किसी डिबेट कॉम्पिटिशन में उन्हें पहला स्थान मिला जिसका पुरूस्कार लेने वो जहाँ गए वहाँ पुरूस्कार वितरण से पहले एक मुशायरे का आयोजन किया गया था। कुछ करने को था नहीं इसलिए वो बेमन से मुशायरा सुनने बैठ गए। मुशायरे में पद्मश्री गोपालदास नीरज जी के अलावा  लख़नऊ के लोकप्रिय शायर जनाब निर्मल दर्शन साहब भी थे। मुशायरे में शाइरों के पढ़ने का अन्दाज़ ,शाइरी और उस पर मिलने वाली दाद से वो इतने मुतासिर हुए कि उन्होंने वहीं फैसला कर लिया कि वो भी इस विधा को सीखेंगे। ये सन 2004 की बात है तब अभिषेक 19 वर्ष के थे, वो अपने से 13 साल बड़े डा निर्मल दर्शन जी से पहली बार वहीँ मिले और फिर उसके बाद मिलते ही रहे। दुःख की बात ये है कि निर्मल जी का 48 वर्ष की आयु में अक्टूबर 2020 में कैंसर की वजह से देहांत हो गया।   

मैं उस पे खिलता न खिलता ये बहस बाद की थी 
वो एक बार पहन कर तो देखता मुझको
*
मैंने जब अपनी तरफ़ गौर से देखा तो खुला 
मुझको इक मेरे सिवा कोई परेशानी नहीं
*
अपनी सम्त पलट कर आना अच्छा है 
अच्छा है सब दुनियादारी खत्म हुई 

चेहरे पर आने वाली उदासी हो की ख़ुशी 
धीरे-धीरे बारी-बारी खत्म हुई
*
किसी की याद अगर ज़िंदगी हो ऐसे में 
किसी को याद न करना भी एक फ़न ही है 

बस इतना है कि मोहब्बत नहीं किसी से मुझे 
वगर्ना नाम तो मेरा भी कोकहन ही है 
कोकहनी : पहाड़ तोड़ने वाला
*
सबकी सुनोगे सबकी करोगे पागल हो 
अपने मिज़ाज़ में थोड़ी सी ना-फ़र्मानी लाओ 

ऐसे तो तुम हुस्न को रुसवा कर दोगे 
ग़ौर से देखो आँखों में हैरानी लाओ
*
मेरा मिलना भी न मिलना भी मेरी मर्ज़ी है 
मैं न चाहूं तो वो हासिल नहीं कर सकता मुझे
*
अक़्ल हर बार यह कहती थी ज़ियाँ है इसमें 
दिल ने हर बार तेरे ग़म की तरफ़दारी की
ज़ियाँ: नुक़सान
*
अजीब जंग लड़ी हमने भी ज़माने से 
न जीत पाए किसी से न ख़ुद को हारा गया

सब जानते हैं कि शाइरी पढ़ने सुनने में जितनी आसान नज़र आती है उतनी होती नहीं। एक ढंग का शेर कहने में पसीने आ जाते हैं और साहब कभी तो महीनों एक शेर नहीं होता। अभिषेक जी ने तय तो कर लिया कि शाइरी करनी है लेकिन कैसे ये बताने वाला कोई नहीं मिला। कुछ ने कहा उसके लिए उरूज़ सीखो तो कुछ ने कहा कि अगर उरूज़ के चक्कर में पड़े तो एक भी शेर नहीं कह पाओगे। ऐसे असमंजस के हालात में अभिषेक जी 2004 से 2008 तक तुकबंदी करते रहे आखिर एक दिन उन्होंने डा निर्मल से गुज़ारिश की कि वो उन्हें किसी ऐसे शख़्स से मिलवाएं जो उनकी ग़ज़लें ठीक कर सके। निर्मल साहब ने जिस शख़्स से उन्हें मिलवाया उनका मिज़ाज़ अभिषेक से बिल्कुल जुदा था इसलिए बात बनी नहीं। थक हार कर उन्होंने किताबों से दोस्ती की और उन्हें पढ़ पढ़ कर सीखने की कोशिश करते रहे। सन 2008 से 2011 के बीच अभिषेक बड़ी मुश्किल से चार पांच ग़ज़लें ही कह पाए।
2011 में उनकी मुलाक़ात उर्दू अरबी और फ़ारसी के विद्वान जनाब 'आजिज़ मातवी'साहब से हुई । आजिज़ साहब से अपनी मुलाक़ात को अभिषेक ने कुछ यूँ बयाँ किया है :

"आजिज़ साहब से मेरी पहली मुलाक़ात लखनऊ महोत्सव के युवा मुशायरे में हुई थी जहाँ मैं अपना “नामौज़ून” कलाम पढ़ने के लिए पहुँचा था। ज़ाहिर है सीखने की प्रक्रिया में ये सब होता ही है।वहाँ मेरे सामने डॉक्टर निर्मल दर्शन और आजिज़ साहब बैठे हुए थे, डॉक्टर निर्मल दर्शन ने कहा कि अभिषेक ख़ुशनसीब हो तुम के पंडित जी के सामने अपने शे’र पढ़ रहे हो मैं यह तो समझ गया कि पंडित जी कोई बड़ी शख़्सियत हैं मगर वह इतनी बड़ी शख़्सियत हैं यह उनके साथ रहकर धीरे धीरे मुझ पर खुला। मैंने बहुत हिम्मत करके एक रोज़ उनका मोबाइल नंबर लिया और फ़ोन करके कहा कि आपसे मिलना चाहता हूँ। वह लखनऊ से, जहाँ मेरा घर है,वहाँ से कोई 30 किलोमीटर दूर रहा करते थे, उन्होंने मुझसे कहा कि तुम इतनी दूर कहाँ आओगे बेटा, अपना पता दो मैं तुम्हारे पास आता हूँ। मैं उनके इस बर्ताव से हैरान रह गया लेकिन यह हैरत मज़ीद बढ़नी ही थी कि उनकी शख़्सियत में इतना कुछ था कि कोई सीखने वाला हैरान होने के सिवा कर भी क्या सकता था! वो घर आये, उनसे मुलाक़ात हुई। फिर तो उनसे मुलाक़ातों का एक लंबा सिलसिला रहा। मेरी जो भी दिलचस्पी है ज़बान में,अरुज़ की मेरी जितनी भी समझ है वह सब उनकी दी हुई है, उन्होंने ही मुझे अरूज़ की किताबें पढ़ने के लिए कहा और यह हौसला पैदा किया मुझ में कि मैं उसे सीख सकता हूँ। वो अक्सर कहा करते थे कि बड़ा आदमी वही है जिसके साथ बैठकर आप छोटा महसूस न करें और वो इसकी सबसे बड़ी मिसाल आप थे।"
 
मातवी साहब की रहनुमाई में अभिषेक का शायर अभिषेक में बदलने की क्रिया को आप अभिषेक के ही इस शेर से समझ पाएंगे
अब यूँ दमक रहा हूँ कि कुंदन को लाज आये 
मिट्टी का ढेर था मैं किसी के चरन लगे 

मातवी साहब के अलावा अभिषेक की जिन्होंने रहनुमाई की उनमें स्व. डा निर्मल दर्शन और जनाब फ़रहत एहसास साहब का नाम सबसे ऊपर है।अभिषेक ने फैज़ साहब के साथ अपनी ज़िन्दगी के बेहतरीन साल गुज़ारने वाले जनाब रमेश चंद्र द्विवेदी साहब के साथ भी काफी वक़्त गुज़ारा और उनसे बहुत कुछ सीखा।

कोई सुने न सुने कोई कुछ कहे न कहे 
तुम्हें तो बात ही रखनी है बात रक्खा करो
*
अजीब रिश्ता-ए-दीवार-ओ-दर बना हुआ है 
कि जिस में रहना नहीं है वो घर बना हुआ है

ये और बात कि देखा भी है तो बस तुमको 
ये और बात कि ज़ौक़-ए-नज़र बना हुआ है 
ज़ौक़े नज़र: देखने की अभिरुचि
*
आड़े आ जाएगी हर बार मेरी नादानी 
मेरे आगे कोई दानाई न कर पाएगा तू 
दानाई: अक़्लमंदी
*
पहले मिसरे में तुझे सोच लिया हो जिसने 
जाना पड़ता है उसे मिसरा-ए-सानी की तरफ़

हम तो एक उम्र हुई अपनी तरफ़ आ भी चुके 
और दिल है कि उसी दुश्मन-ए-जानी की तरफ़
*
तुम भड़क कर जो न जल पाओ तो फिर दूर रहो 
ख़ुद को देखो कि ये लौ इश्क़ की मद्धम है अभी
*
सहर की आस लगाए हुए हैं वो कि जिन्हें 
कमान-ए-शब से चले तीर की ख़बर भी नहीं

यही हुजूम कि हाथों में तेग़ है जिसके 
यही हुजूम कि शाने पे जिसके सर भी नहीं
*
न जाने अब के बिछड़ना कहाँ हो दुनिया से 
न जाने अब के तेरी याद किस मक़ाम पर आए

पेशे से बैंकर 'अभिषेक'के परिवार में पत्नी 'जूली'और प्यारा सा बेटा 'मीर'है। ये अभिषेक का उर्दू के सबसे बड़े शायरों में से एक मीर तक़ी 'मीर'के प्रति प्रेम को प्रदर्शित करता है। अपने लेखन के बारे में पूछने पर एक इंटरव्यू में अभिषेक कहते हैं की 'आप जो कर रहे हैं उसमें झोल नहीं होना चाहिए। आपका विजन साफ़ होना चाहिए। मैं जो करता हूँ कन्विक्शन से करता हूँ। मुझे यूनिवर्सिटी के एक साहब ने कहा कि मैं एक किताब छाप रहा हूँ जिसमें उर्दू के ग़ैर मुस्लिम शायरों का काम होगा, आप अपनी ग़ज़लें भेजें तो मैंने उन्हें साफ़ मना कर दिया। मुझे शायरों को धर्म के नाम पर बाँटना गवारा नहीं। मेरी नज़र में जो शेर कहता है वो शायर है फिर वो चाहे किसी भी मज़हब भाषा या देश का हो।

घमंड अभिषेक को छू भी नहीं गया और ये ही उनकी सफलता और लोकप्रियता का राज़ है। वो कहते हैं कि मुझे लगता ही नहीं कि मैं कोई ऐसा काम कर रहा हूँ जो मुझे बाकि लोगों से अलग करे। दुनिया में हर आदमी की अपनी जंग है , हर कोई अपनी चीजों में काम कर रहा है मैं कहीं से ये नहीं मानता कि मैं शेर कह कर कोई अलग या बड़ा काम कर रहा हूँ। कोई मज़दूर अगर सड़क पर बैठा गिट्टी तोड़ रहा है तो मुझसे कमतर है , नहीं वो भी मेहनत कर रहा है और मैं भी मेहनत कर रहा हूँ। मैं उससे अलग नहीं हूँ और अलग होना भी नहीं चाहता।

शायरा 'अस्मा सलीम'अभिषेक को 'निरा शायर'कहती हैं जिसका अक़ीदा भरपूर इश्क़, भरपूर ज़िन्दगी और भरपूर शाइरी पर है।

एक तू है कि मयस्सर नहीं आने वाला 
एक मैं हूँ कि मचलता ही चला जाता हूँ
*
मुझ में भी चिराग़ जल उठेंगे 
तू खुद को अगर हवा बनाए 

मैं रात बना रहा हूँ खुद को 
है कोई कि जो दिया बनाए
*
मैं आबला था सो मेरी निजात का लम्हा 
मुझे मिला भी तो फिर नोक-ए-ख़ार हो के मिला 

यह बस्तियांँ है कि बाज़ार कुछ नहीं मालूम 
यहाँ तो जो भी मिला इश्तिहार हो के मिला
*
मौत आए तो यह मुमकिन है मेरे ज़ख़्म भरें
ज़िंदगी तू मेरा मरहम नहीं होने वाली
*
नमी थी जब तलक आँखों में मुस्कुराते रहे 
भर आई आंँख तो हम लोग खुल के हंँसने लगे 

न आई नींद तो आँखों से कर लिया झगड़ा 
न आए ख़्वाब तो नीदों पे हम बरसने लगे
*
इधर-उधर से पढ़ा जा रहा हूं मैं अफ़सोस 
न जाने कब वो तमन्ना का बाब देखेगी
बाब: अध्याय
*
मैं अपने आप से कुछ दूर छुपके बैठा हूँ 
ये देखने के लिए कौन देखता है मुझे

शायरी के अलावा अभिषेक आजकल सोशल मिडिया पर अपने चुस्त और चुटीले व्यंग्य लेखों से बहुतों को गुदगुदाते हैं तो कुछ को मन ही मन तिलमिलाने और खीझने पर मज़बूर भी करते हैं। वो इंसान को रंग, मज़हब और बोली की बिना पर बाँटने वालों के ख़िलाफ़ खुल कर बोलते हैं साथ ही अपनी सेहत और आदतों पे बेख़ौफ़ और दिलचस्प कमेंट भी करते हैं। आजकल नज़्म लिखने की कोशिश की कोशिशों में भी लगे हैं। देश-विदेश में अपनी शायरी से धूम मचाने वाले अभिषेक, युवाओं में तो लोकप्रिय हैं ही बुजुर्गों की भी हैं।

जनाब फ़रहत एहसास साहब लिखते हैं कि "अभिषेक चन्द ख़ुशक़िस्मतों में शामिल हैं जिन्हें शाइरी ने इस ज़माने में अपना तर्जुमान मुक़र्रर किया है। ख़ामोशी अभिषेक की शाइरी की जन्मभूमि है। उसके पास से ख़ामोशी की ख़ुश्बू और आँच आती है कि उसके अंदर तज्रबों का एक आतिशख़ाना है जो बाग़ की तरह खिला हुआ है। ख़ामोशी उसका चाक भी है जिस पर वो लफ्ज़ों की कच्ची मिट्टी से मा'नी की शक्लें बनाता है। "

शमीम हनफ़ी साहब ने उनके बारे में लिखा था कि "अभिषेक एक अनोखे अंदाज में सोचते हैं और अपने इज़हार के लिए नई ज़मीन ढूंढ लेते हैं इसलिए उनकी ज़मीन में, ज़हन में, ज़बान-ओ-बयान में और उस्लूब में एक अनोखी ताज़गी का एहसास होता है |उनकी शख्स़ियत अवध की मुश्तरका तहज़ीब और एक गहरी इंसानी दोस्ती की रिवायत के पसमंज़र पर मबनी है |वो कभी ग़ैर दिलचस्प नहीं हुए |"

आप अभिषेक से उनके मोबाइल नंबर 9559934440 पर बात कर उनको इस लाज़वाब शायरी के लिए बधाई दे सकते हैं। बेहतर तो ये रहेगा अगर आप उनसे सम्पर्क के लिए उन्हें shayar.abhishek @gmail.com पर मेल करें।

आख़िर में पढ़िए उनके कुछ और चुनिंदा शेर :

उसने तो बस यूँ ही पूछा था मेरे हो के नहीं 
और मैं डर गया इतना कि ज़बाँ देने लगा
*
बातें करता हूं तो करता ही चला जाता हूँ 
इन दिनों यूँ भी कोई दूसरा घर में नहीं है
*
ये जो कजलाई हुई लगती हैं आँखें मेरी 
मैंने उठ उठ के यहाँ आग जलाई है बहुत
*
यूँ टहनियों से हवा फूल लेकर आई है 
कि जैसे अपनी उदासी को पूजना है मुझे
*
तमाम शह्र पर इक ख़ामुशी मुसल्लत है 
अब ऐसा कर कि किसी दिन मेरी जबाँ से निकल 
मुसल्लत: छाई
*
तेरी कमी में रोज़ इज़ाफ़ा करेगी उम्र 
और इस कमी को कम भी नहीं कर सकूंँगा मैं

उनके ये ताज़ा शेर इस क़िताब का हिस्सा नहीं हैं लेकिन उनकी इस खूबी को भरपूर दर्शाते हैं कि वो बिना उर्दू अरबी और फ़ारसी ले लफ्ज़ इस्तेमाल किये बिना हिंदी में भी शायरी कर सकते हैं :
 
पानी में स्वाद आए पवन भी पवन लगे 
मैं क्या करूंँ कि तुझसे बिछड़ कर ये मन लगे 

पीड़ा के पेड़, दुख की लताएं, विरह के फूल 
मैं मैं लगूंँ लगूँ न लगूँ बन तो बन लगे 

सुध ली है जब से अपनी चला जा रहा हूंँ मैं 
कितना चलूंँ तुझ ओर कि मुझको थकन लगे 

बेआस भी अधीर भी प्यासे भी नीर भी 
मैं क्या कहूंँ कि क्या मुझे उनके नयन लगे


किताब मिली - शुक्रिया -1

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हुआ यूं कि जैसे ही मैं कल अपनी अलमारी में रखी ग़ज़लों की किताबों पर लिखने की बाबत फेसबुक पर पोस्ट डाली वैसे ही आप सबको लगा कि मैं फिर से "किताबों की दुनिया"श्रृंखला शुरू कर रहा हूं, जबकि मेरा आशय ऐसा बिल्कुल नहीं था। मैं इस बार उन किताबों को बड़े सीधे सादे संक्षिप्त शब्दों में आपके सामने रखूंगा जो मुझे मेरे मित्रों ने बड़े चाव से मुझे भेजी और मैं उनका 

माना कि ग़म के बाद मसर्रत जरूर है
लेकिन जिएगा कौन तेरी बेरुख़ी के बाद
मसर्रत:खुशी
*
किसी का दिल जो मुनव्वर न हो सके उनसे
चमकते चांद सितारों को क्या करे कोई
*
सबने हालत मरीज़ की देखी 
कोई लेकर दवा नहीं आया
*
मयकदे में नमाज़ पढ़ लेंगे
काश साक़ी इमाम हो जाए
*

दरमियाना कद, सलेटी रंग की कमीज, सफेद पजामा, काली अचकन, पैरों में कपड़े के जूते, सर्दी हुई तो सर पर फर वाली टोपी, चेहरे पर उम्र से पड़ी हुई गहरी झुर्रियां, काली गहरी आंखें, बुलंद आवाज़ और होठों पर फीकी सी मुस्कुराहट। ये पहचान थी हमारे आज की शाइर जनाब "नैरंग सरहदी"साहब की जो 6 फरवरी 1912 को पाकिस्तान के जिला डेरा इस्माइल खां के एक कस्बे मंदहरा में जन्मे और 5 फरवरी 1973 को अपना 61 वां जन्मदिन मनाने के चंद घंटे पहले ही इस दुनिया- ए-फ़ानी से कूच कर गये।

उनके बेटे 'नरेश नारंग'साहब उन्हें याद करते हुए बताते हैं कि 'नैरंग साहब की  अचकन और टोपी यानी उनकी पोशाक कुछ ऐसी थी जिसे बहुत से लोग पसंद नहीं करते थे। लोगों का कहना था कि हिंदू होते हुए भी नैरंग साहब मुसलमानों जैसी पोशाक क्यों पहनते हैं और ऊपर से शायरी भी उर्दू में करते हैं। ऐसी बचकानी सोच वाले तब भी थे, अब भी हैं, खैर!! 'नैरंग सरहद'साहब ऐसी सोच वालों की परवाह नहीं करते थे उन्होंने अपने वसीयतनामा में लिखा था कि "शाइर किसी ख़ास मज़हब का क़ायल नहीं होता। अच्छा अख़लाक़ ही उसका मज़हब होता है। मेरे मरने के बाद मेरा बेटा सर न मुंडवाए और मेरे नाम से किसी मज़हबी आदमी को कुछ देना मेरे अक़ीदे के ख़िलाफ़ होगा।"

अदा हक़ कर दिया है दुश्मनी का
हमारे दोस्तों ने दोस्ती में

कहां है लायके- सोहबत किसी के 
न हो जब आदमीयत आदमी में
*
दिल में है मेरे हसरतो- अरमान ज़ियादा 
अफसोस की घर तंग है मेहमान ज़ियादा
*
जब तक कि एक दैरो-हरम का हो फ़ैसला
मेरी जबीं है और तेरा संगे-दर तो है
*
एक मंजिल के लिए सैकड़ो रस्ते हैं मगर
देखना ये है कि जाना है कहां से बाहर
*
मुल्क के बंटवारे के बाद 1947 में नैरंग साहब रेवाड़ी आ बसे। वहां के हिंदू हाई स्कूल में पहले उर्दू, फ़ारसी और बाद में पंजाबी पढ़ाते हुए, फरवरी 1972 में रिटायर हुए।

मशहूर शायर 'मुंशी तिलोक चंद 'महरूम'के शागिर्द रहे  नैरंग साहब ने शायरी बहुत कम उम्र में ही शुरू कर दी थी। उनकी हौसला अफ़ज़ाई 'फ़ैज़ अहमद फ़ैज़'जैसे उस्ताद शायरों ने की। 

नैरंग साहब ने रिवाड़ी के गैर शाइराना माहौल में 'बज़्मेअदब'संस्था की नींव रखी जिसमें शायरी में दिलचस्पी रखने वालों को ढूंढ ढूंढ कर जोड़ा गया। 

उनकी रहनुमाई में रेवाड़ी में कामयाब मुशायरे होने लगे जिसमें हिंदुस्तान के कई शहरों से बड़े-बड़े शायर शिरकत करने आने लगे। कुंवर महेंद्र सिंह बेदी 'सहर'साहब की मौजूदगी में इन मुशायरों ने नई ऊंचाइयां हासिल की।

अफ़सोस, नैरंग साहब की शोहरत की खुशबू एक ख़ास इलाके में सिमट कर रह गई। तंगदस्ती की वजह से लाख चाहने के बावजूद वो अपना दीवान नहीं छपवा सके। उनके इंतकाल के 13 साल बाद 1986 में उनके बेटे 'नरेश'ने उनकी कुछ गजलों का मज्मूआ 'एक था शायर'नाम से छपवाया। मशहूर शायर जनाब 'विपिन सुनेजा 'शायक'उनके कामयाब शागिर्द हुए उन्हीं की बदौलत ये किताब "जिंदगी के बाद "मुझे दस्तयाब हुई ।

विपिन जी जो खुद एक बेहतरीन गायक हैं ने उनकी ग़ज़लों को आवाज़ दी है जिसे यूट्यूब पर सुना जा सकता है। 

नैरंग साहब के जीते जी तो सरकार ने उनकी सुध नहीं ली अलबत्ता उनकी मृत्यु के कई साल बाद, रिवाड़ी बस स्टैंड से उनके घर तक जाने वाले रास्ते का नाम 'नैरंग सरहदी मार्ग'रखकर उन्हें इज़्ज़त बख़्शी 

इस किताब को आप अमृत प्रकाशन शाहदरा से मंगवा सकते हैं या जनाब विपिन सुनेजा जी से 9991110222 पर संपर्क कर इस किताब के बारे में पता कर सकते हैं।

हर इक मक़ाम है तेरा हर इक तेरी मंज़िल 
कोई बता दे कि सजदा कहां-कहां करते
*
फ़क़त दीदे-बुतां से कुफ्र का इल्ज़ाम है मुझ पर 
जबीं पर मेरी ज़ाहिद देख सजदों का निशां भी है
*
मैं जितना यक़ीं करता गया अपने यक़ीं पर
उतना ही गुमां बढ़ता गया अपने गुमां में
*
आएगी मेरी याद मेरी ज़िंदगी के बाद 
होगी न रोशनी कभी इस रोशनी के बाद
*
पसे-हयात यही शे'र होंगे ऐ नैरंग 
अलावा इसके तेरी यादगार क्या होगी


किताब मिली - शुक्रिया- 2

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(ये पोस्ट फेसबुक के मापदंडों के अनुसार लंबी की श्रेणी में आएगी। अत: मेरा अनुरोध है कि इसे सिर्फ़ वही लोग पढ़े जिनके पास समय है और जो शायरी से "बेपनाह"मोहब्बत करते हैं। "बेपनाह"शब्द पर गौर करें मीलार्ड 🙏)

उत्तर प्रदेश का शहर 'रामपुर'जिसके अदब नवाज़ नवाबों के यहां कभी 'मिर्ज़ा ग़ालिब', 'दाग़ देहलवी'और 'अमीर मिनाई'जैसे शायरों ने वज़ीफ़े पाए, जिसका हर दूसरा बाशिंदा या तो शेर कहता या सुनता हुआ मिल जाएगा, जिसकी 'रज़ा लाइब्रेरी'दुनिया भर में मशहूर है उसी शहर 'रामपुर'के एक ऐसे परिवार में जहां शेर ओ सुखन का माहौल था 11 जून 1980 को हमारे आज के शायर का जन्म हुआ।

ढूंढने से ख़ुदा तो मिलता है
किसको मिलता है ये ख़ुदा जाने
*
दर्द घनेरा हिज़्र का सहरा घोर अंधेरा और यादें
राम निकाल ये सारे रावण मेरी राम कहानी से
*
उसके हाथ में ग़ुब्बारे थे फ़िर भी बच्चा गुमसुम था
वो ग़ुब्बारे बेच रहा हो ऐसा भी हो सकता है
*
परिंदों पर न तानो इसको लोगो
ये टहनी थी कमां होने से पहले
*
आगे बढ़ने से पहले थोड़ा पीछे चलते हैं बात करीब 3 साल से ज्यादा पुरानी है, जब मैं अपने ब्लॉग 'नीरज'के लिए जनाब 'सबाहत आसिम वास्ती'साहब की किताब 'लफ्ज़ महफूज़ कर लिए जाएं'पर लिखने की सोच रहा था।मेरी लाख कोशिशें के बावजूद भी जब मुझे जो जानकारी 'वास्ती'साहब के बारे में चाहिए थी वो कहीं से नहीं मिली तो मैंने जनाब 'सालिम सलीम'साहब को अपनी परेशानी बताई, उन्होंने आनन फानन में जनाब  'सय्यद सरोश आसिफ'साहब का नंबर भेजा और कहा की आप इनसे बात कर लें क्योंकि 'वास्ती'साहब सरोश साहब के उस्ताद हैं।

मैं यह बात 'वास्ती'साहब की किताब पर लिखी अपनी पोस्ट पर भी कर चुका हूं और यहां फिर से दोहराना चाहता हूं की 'वास्ती'साहब मेरी नजरों से गुज़री करीब पांच सौ से ज्यादा ग़ज़लों की किताबों में से ऐसे अकेले शायर हैं जिन्होंने अपनी किताब अपने शागिर्द के नाम की है।

तो आइए बिना वक्त जाया किए अब हम 'सय्यद सरोश आसिफ़'की ग़ज़लों की किताब, 'ख़ामोशी का मौसम'जिसे 'रेख़्ता बुक्स'ने प्रकाशित किया है, के सफ़हे पलटें। 

ख़ुशी है ये कि मेरे घर से फोन आया है 
सितम है ये कि मुझे खै़रियत बताना है
*
हमें जला नहीं सकती है धूप हिजरत की
हमारे सर पे ज़रूरत का शामियाना है
*
सभी जन्नत में जाना चाहते हैं 
ये दोज़ख़ के लिए अच्छा नहीं है

'रामपुर'के पास 'शाहाबाद'में शुरुआती स्कूली पढ़ाई के बाद आसिफ़ साहब दिल्ली आ गए और वहां से एमबीए की पढ़ाई मुकम्मल की। कुछ साल दिल्ली में नौकरी करने के बाद सन 2004 में उन्हें दुबई के एक बैंक में नौकरी मिल गई और वो दुबई चले गए। इन दिनों आप अबू धाबी के एक बड़े बैंक में आला अफसर हैं और अबू धाबी में ही रहते हैं। शायरी में दिलचस्पी की वजह से उनकी मुलाकात अबू धाबी के मशहूर डॉक्टर 'सबाहत आसिम वास्ती'साहब से हुई, जिनकी रहनुमाई में उनकी शायरी परवान चढ़ी।

बकौल 'सय्यद सरोश आसिफ़'साहब "अबू धाबी का अदबी माहौल बहुत अच्छा था। यहां की अदबी फ़जा में लोग आपस में मिलकर निशस्तें करते, लिटरेचर पर, नई किताबों पर, किसी शायर की ग़ज़ल पर या अदब की दूसरी किसी सिन्फ़ पर खुलकर गुफ्तगू किया करते थे। अदब को लेकर अबू धाबी में सबकुछ था सिवाय अंतरराष्ट्रीय मुशायरों के। दुबई में जहां लगातार मुशायरे होते थे वहीं आबूधाबी में साल में सिर्फ एक ही बड़ा अंतरराष्ट्रीय मुशायरा होता था और उसमें भी लोकल शायरों को शिरकत का मौका नहीं मिलता था।"

सन 2019 में 'डा. वास्ती'और 'सय्यद सरोश आसिफ़'साहब ने लोकल टैलेंट को बढ़ावा देने, वहां के युवाओं को अपने कल्चर की अलग अलग सिन्फ़ जैसे ड्रामे, अफ़साने, किस्सागोई, खाने, संगीत आदि से रुबरु करवाने की ग़रज़ से 'कल्चरल कारवां'नाम से एक ऑर्गेनाइजेशन का आगाज़ किया जिसमें उन्होंने बहुत बड़ी तादाद मे वहां के अदब नवाज़ लोगों को इसके साथ जोड़ा। इस आर्गेनाइजेशन के तहत आबूधाबी में सन 2022 में गल्फ का पहला 'उर्दू लिटरेचर फेस्टिवल'हुआ जो बेहद कामयाब रहा। ये फेस्टिवल उतनी ही धूमधाम से 2023 में भी हुआ और अब अक्टूबर 2024 में भी होने जा रहा है। इसी फेस्टिवल के तहत हुए मुशायरों में दुनियाभर से आए मशहूर शायरात के साथ आबूधाबी के लोकल शायरों ने भी शिरकत की और सामईन से भरपूर दाद हासिल की ।

वस्ल तो कम उम्री में जान गंवा बैठा
हिज़्र हमारा अमृत पी कर आया है
*
सांस मंजिल से क़ब्ल फूल गई 
तेज चलने का है ये कम ख़मयाज़ा
*
काश खो जाते किसी मेले में हम 
और फिर जी भर के मेला देखते
*
पेड़ पे तुमने इश्क़ लिखा था मेरी बाइक की चाबी से 
पेड़ तो कब का सूख गया वो इश्क़ हरा है जंगल में
*

यूएई में रहने वाले हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी लोग एक साथ मुशायरों में शिरकत करते हैं, मजेदार जुमले पर जोर से कहकहे लगाते हैं, अच्छे शेरों पर जमकर दाद देते हैं और कभी-कभी किसी बात पर ग़मजदा होकर साथ में आंसू भी बहाते हैं। ऊपर वाले का करम है कि उसने कहकहों और आंसू बहाने जैसे काम को सरहदों और मज़हबों में क़ैद नहीं किया बल्कि इनका ताल्लुक दिल से रखा और ये कमबख़्त दिल, किसी भी मुल्क़ या मज़हब के इंसान का हो, एक ही तरह से धड़कता है।

हमको एक और उम्र दे मौला 
लेकिन इस बार आगही के बगैर 
आगही: जागरूकता
*
बच्चे जब स्कूल से वापस आते हैं 
सड़कों का दिल भी बच्चा हो जाता है
*
जीतता हूं जिन्हें मोहब्बत से 
उनको गुस्से में हार जाता हूं
*
दिल की शैतानियों से आजिज़ हूं 
क्यों ये बच्चा बड़ा नहीं होता
*
आसिफ साहब की रहनुमा में में ही पहली बार अबू धाबी में सन 2022 में उर्दू लिटरेचर फेस्टिवल हुआ जिसमें शायरी के अलावा उर्दू ड्रामा अफसाना और किस्सा वीडियो को शामिल किया गया इस कार्यक्रम को बहुत मकबूलियत हासिल हुई ।

जूनियर स्टेट लेवल पर क्रिकेट खेलते रहे 'आसिफ़'साहब जानते हैं कि शेर कहना वैसी ही मेहनत मांगता है जैसी एक क्रिकेटर को परफेक्ट टाइम के साथ स्ट्रेट ड्राइव, कवर ड्राइव, स्क्वेअर ड्राइव या पुल शॉट लगाने के लिए करनी होती है। जरा सी कोताही या जल्दबाजी खिलाड़ी को पवेलियन का रास्ता दिखा देती है वैसे ही कमज़ोर मिसरे, भर्ती के लफ़्ज या सपाट कहन शायर को पहचान नहीं दिलवा सकती। जिस तरह किसी अच्छी शाॅट पर तालियां बजती हैं ठीक वैसे ही, अच्छा शेर भी तालियां बटोरता है।

हाथ ऊपर कर के जब घर को कहा था अलविदा 
तब हमें कब ये ख़बर थी हाथ से घर जाएगा
*
किसी का साथ अच्छा लग रहा है 
मुझे दुनिया बुरी लगने लगी है
*
आवाजों को सोच समझ कर ख़र्च करो
ख़ामोशी का मौसम आने वाला है
*
अब मुझे तैरना सिखाओगे 
अब तो सर से गुज़र गया पानी

'ख़ामोशी का मौसम'किताब आप अमेजॉन से या 'रेख़्ता बुक्स'से ऑनलाइन मंगवा सकते हैं। अशआर पसंद आने पर आप 'सय्यद सरोश आसिफ़'साहब को उनके व्हाट्सएप नंबर +971503053146पर दाद देना ना भूलें।



किताब मिली - शुक्रिया - 3

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तू चाहता है जो मंजिल की दीद सांकल खोल 
सदाएं देने लगी है उमीद सांकल खोल 

 बड़े मज़े में उदासी है बंद कमरे में 
 मगर हंसी तो हुई है शहीद सांकल खोल 
बाद इसके चराग़ लौ देगा 
पहले इक लौ चराग़ तक पहुंचे 
यार उकता गया हूं मैं खुद से 
यूं करो अब तुम्हीं जियो मुझको 
पास दरिया है प्यास फिर भी है 
बेबसी देखिए किनारों की 
अब आप लोगों को हो तो हो लेकिन सच बात तो ये है कि मुझे नहीं मालूम था कि मध्य प्रदेश के 'शिवपुरी'जिले में कोई 'करेरा'नाम का नगर भी है जिसके पास 'समोहा गांव है जहां लगभग 1500 साल पुराना 'हिंगलाज माता'का प्रसिद्ध मंदिर है। चलिए मान लेता हूं कि आपको यहां तक तो मालूम होगा लेकिन यह बात तो तय है कि आपको ये नहीं मालूम होगा कि 'हिंगलाज माता'का प्रसिद्ध मूल मंदिर जो हजारों साल पुराना है और 51 शक्तिपीठ में से एक है, पाकिस्तान के शहर 'कराची'से लगभग 250 किलोमीटर दूर बलूचिस्तान के बीहड़ पहाड़ों में स्थित है। आपके लिए ये विश्वास करना भी कठिन होगा कि इस मंदिर में हिंदू और मुसलमान दोनों समान रूप से पूजा/ इबादत करने हजारों की संख्या में आते हैं। बीहड़ पहाड़ों की गुफाओं में बने इन मंदिरों में 'हिंगलाज माता'के अलावा 'हनुमान जी''राम सीता लक्ष्मण'और 'शिव जी'के मंदिर भी हैं जहां रोज नियम से पूजा प्रार्थना होती है। यकीन नहीं हुआ ना ?मुझे भी नहीं हुआ था, जब तक मैंने यूट्यूब पर इसके वीडियोज ढूंढ कर नहीं देखे। आप भी चाहें तो देख सकते हैं, ये रहा लिंक:- 
https://dainik-b.in/uhq0M4q5Mtb 

अब के तो अश्क भी नहीं आए 
अबके दिल बेहतरीन टूटा है 
कुछ खबर ही नहीं है सीने को 
जब कि सीने के दरमियां है दिल 
*
 जिस्म बिस्तर पर ही रहा शब भर 
दिल न जाने कहां-कहां भटका 
जब कहें वो कहिए कुछ तो चुप रहूं मैं 
जब कहें वो कुछ ना कहिए तब कहूं क्या 

आप भी सोच रहे होंगे कि मैं कहां की बात ले बैठा हूं और यहां क्यों कर रहा हूं ? ये बात करना इसलिए जरूरी है क्योंकि हमारी आज के शाइर जनाब "सुभाष पाठक"'जिया'इसी गांव समोहा में 15 सितंबर 1990 को पैदा हुए थे। उन्होंने अपनी ग़ज़लों की जो किताब 'तुम्हीं से ज़िया है'मुझे भेजी थी । आज उसी किताब की बात करते हैं। इसे अभिधा प्रकाशन ने सन् 2022 में प्रकाशित किया था। इस किताब को आप अमेज़न से मंगवा सकते हैं। 

 समोहा'किसी भी आम भारतीय गांव की तरह ही एक गैर शायराना माहौल वाला गांव था। ऐसे ही गैर शायराना माहौल में 'सुभाष पाठक'जी के मन में शायरी के बीज पड़े। स्कूल के दिनों में जब आम बच्चे 'किशोर कुमार'के गानों पर ठुमके लगाते थे तब 'सुभाष'जी को 'उमराव जान'फिल्म के 'इन आंखों की मस्ती में', 'दिल चीज क्या है'और फिल्म 'गमन'के गाने 'सीने में जलन दिल में ये तूफान सा क्या है'सुनने में आनंद आता था। 'जगजीत चित्रा'और ग़ुलाम अली को लगातार सुनने के बावजूद भी उनका मन नहीं भरता था। याने उनमें कुछ तो ऐसा था जो उनके साथ वाले दूसरे बच्चों में नहीं था। क्या था ?ये बात उन्हें स्कूली शिक्षा के बाद जब वो 'शिवपुरी'ग्रेजुएशन करने गए, तब समझ में आई। वो था उनका ग़ज़ल के प्रति रुझान। 'शिवपुरी'के एक मुशायरे में 'निदा फ़ाज़ली'साहब को सुनने के बाद उनमें ग़ज़ल कहने की उनकी इच्छा बलवती हो गई। ग़ज़ल कहने की बात सोचने में और ग़ज़ल कहने में ज़मीन आसमान का फ़र्क है साहब। ग़ज़ल कहने के लिए तपस्या करनी पड़ती है जैसे गाना सीखने के लिए रियाज़। उसके लिए अच्छे उस्ताद का मिलना बहुत ज़रूरी होता है। कुछ होनहार ऐसे भी हैं जिन्होंने किताबों को उस्ताद बनाया और उन्हीं की मदद से कामयाब हुए। सुभाष साहब को ग़ज़ल की टेढ़ी मेढ़ी पगडंडियों पर हाथ पकड़ कर चलना सिखाने वाले दो उस्ताद मिले पहले जनाब महेंद्र अग्रवाल साहब जिन्होंने उनकी पहली ग़ज़ल अपने रिसाले में छापी और ग़ज़ल के व्याकरण पर लिखी किताबें भी पढ़ने को दीं और दूसरे ज़नाब इशरत ग्वालियरी साहब जिनसे वो हमेशा इस्लाह लिया करते हैं। 

यह ख़ुशी है छुईमुई जैसी 
मशवरा दो इसे छुऊं कि नहीं 
वो तितलियां बना रहा था इक वरक़ पे 
सो इक फूल इक वरक़ पे बनाना पड़ा मुझे 
तुम्हारी बज़्म में जाएंगे शादमा होकर 
ये राज़ घर में रहेगा कि खुश नहीं हैं हम 
रेशम विसाल का रखें दिल में संभाल कर 
यादों की धूप आए तो चादर बुना करे 

पेशे से अध्यापक 'सुभाष पाठक'जिनका तख़्ल्लुस 'ज़िया'उनके उस्ताद 'इशरत'साहब का दिया हुआ है, का शेरी सफ़र आसान नहीं रहा। लगातार मेहनत और कोशिश करते रहने का नतीजा तब सामने आया जब उन्हें दिल्ली के एक मुशायरे में पद्मभूषण स्व.श्री गोपाल दास 'नीरज'और पद्मश्री 'अशोक चक्रधर'के सामने पढ़ने का मौका मिला। 'नीरज'जी ने उनकी ग़ज़लों की तारीफ़ की, उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज सुभाष जी को पूरे भारतवर्ष से मुशायरों में पढ़ने के लिए बुलाया जाता है। दूरदर्शन और रेडियो से उनकी ग़ज़लों का प्रसारण होता रहता है। देश के प्रसिद्ध ग़ज़ल गायकों ने उनकी ग़ज़लों को गाया भी है‌ जिसमें 'सारेगामा'कार्यक्रम के विजेता देश के प्रसिद्ध गायक 'मुहम्मद वकील'विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। सुभाष जी ग़ज़ल के अलावा गीत भी सफलता पूर्वक लिखते हैं । उनका कोरोना पर लिखा गीत जिसे मुहम्मद वकील साहब ने स्वर दिया था 'कोरोना एंथम'के नाम से प्रसिद्ध हुआ जिसने लाखों लोगों के दिलों में आशा के दीप जलाए। 

इतनी कम उम्र में जिन बुलंदियों को सुभाष जी ने छुआ है वहां तक या उसके आसपास तक पहुंचना बहुतों के लिए मुमकिन नहीं होता। लगातार कुछ नया सीखने और करने को उत्सुक, अपनी ज़मीन से जुड़े, सुभाष जी कभी अपनी उपलब्धियों पर गर्व नहीं करते और यही उनकी निरंतर सफलता और लोकप्रियता का राज़ है। उन्हें और ज्यादा नज़दीक से जानने के लिए मैं आपसे सिर्फ़ इतना ही कहूंगा कि उनकी ये किताब आप सभी मंगवा कर इत्मीनान से पढ़ें। 


आओ कि साहिलों पे घरोंदे बनाएं हम 
तुम थपथपाओ रेत सनम पांंव हम रखें 
अगर तमाज़त को सह सको तुम 
 तो हसरते- आफ़ताब रखना 
तमाज़त: गर्मी 

जो बात कहनी हो ख़ार जैसी 
तो लहज़ा अपना गुलाब रखना 
मैं ऊबता हूं ना क़िस्से को और लम्बा खींच 
अगर है हाथ में डोरी तो फिर ये पर्दा खींच

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