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किताब मिली - शुक्रिया - 4

उम्र गुज़री रेत की तपते हुए सहराओं में 
क्या ख़बर थी रेत के नीचे छुपा दरिया भी है
*
बुराई सुनना और ख़ामोश रहना 
बुराई करने से ज़्यादा बुरा है
*
ऐसी ऐसी बातों पर हम प्यार की बाज़ी हारे हैं 
उनकी मस्जिद के मंदिर से ऊंचे क्यों मीनारे हैं
*
चुभने लगते हैं तो फिर और मज़ा देते हैं
तेरी यादों के भी हैं कितने निराले कांटे 

ये तुझे वक्त का एहसास न होने देंगे 
घर के गुलदान में थोड़े से सजा ले कांटे
*
आप में से बहुतों को याद होगा कि 1988 की हिंदी फिल्म 'क़यामत से क़यामत तक'का गाना 'पापा कहते हैं बड़ा काम करेगा, बेटा हमारा बड़ा नाम करेगा'बहुत लोकप्रिय हुआ था। हमारे आज के शाइर जनाब 'मजीद खान'साहब, जो 12 अक्टूबर 1954 को आगरा की एक नर्सरी में पैदा हुए थे, पर ये गाना एकदम सटीक बैठता है क्योंकि 'मजीद खान'ने बड़ा काम भी किया और नाम भी। ये अलग बात है कि उन्होंने वो नहीं किया जो उनके पापा चाहते थे। 
'मजीद खान'साहब के अब्बा मरहूम 'अलीमुद्दीन'साहब, आगरा के 'तकिया'अखाड़े के मशहूर पहलवान थे और चाहते थे कि उनका बेटा भी पहलवानी के दांव पेंच सीखे और फिर अखाड़े में बड़े से बड़े पहलवानों को धूल चटाकर नाम कमाए। ऐसा नहीं है की 'मजीद खान'साहब ने कोशिश नहीं की लेकिन अखाड़े की मिट्टी से ज्यादा मोहब्बत उन्हें उस मिट्टी से थी जिसमें पेड़-पौधे, फूल-पत्ते उगते थे, उस मिट्टी से थी जो जमुना के किनारे पर थी जिस पर बैठकर वो चांद सितारे देखा करते और लहरें गिनते थे या फिर उस मिट्टी से थी जो जमुना नदी के पास बनी सूफी संत हज़रत 'अब्दुल्लाह शाह'की दरगाह के इर्द-गिर्द फैली हुई थी। वो घंटों दरगाह में बैठे रहते जहां दरगाह के गद्दीनशीन बाबा 'मुस्तफा'उनको अपने पास प्यार से बिठाकर सूफी मत के बारे में विस्तार से बताते।

धूप में चलने का लोगो सीख लो कुछ तो हुनर 
जा रहे हो दूर घर के सायबां को छोड़कर
*
वही लोग दुनिया में पिछड़े हुए हैं 
नहीं सुन सके जो किताबों की आहट
*
न दुनिया की समझ है और न दीं की 
वो करने को इबादत कर रहा है
*
जहां भी तीरगी बढ़ी नए चिराग़ जल उठे 
है शुक्र इस ज़मीन पर अभी ये सिलसिला तो है

आगरा के जिस स्कूल में 'मजीद खान'पढ़ते थे वहां हर साल 'रसिया'प्रतियोगिता होती थी। 'रसिया'सुन-सुन कर 'मजीद खान'भी अच्छी खासी तुकबंदी करने लगे। ये तुकबंदी तब तक चलती रही जब तक वो ग्रेजुएशन करने के बाद 'यू.पी. स्टेट वेयरहाउसिंग में नौकरी के दौरान 1979 में सिकंदराबाद (बुलंदशहर )ट्रांसफर नहीं हो गये।

बुलंदशहर में उनकी मुलाकात उस्ताद शायर जनाब 'फ़ितरत अंसारी'साहब से हुई जिन्होंने उन्हें अपना शागिर्द तस्लीम कर लिया। अगले 4 साल यानी 1983 का वक्त माजिद खान की जिंदगी का अहम वक्त रहा। इन चार सालों में 'फ़ितरत अंसारी'साहब ने 'मजीद खान'साहब को एक मुकम्मल कामयाब शायर जनाब 'एन.मीम.कौसर'में तब्दील कर दिया। जिनका हिंदी में छपा पहला ग़ज़ल संग्रह "आईने ख्वाहिशों के"हमारे सामने है।

'मजीद खान'साहब की 'ऐन.मीम. कौसर'बनने की कहानी भी सुन लीजिए। हुआ यूं कि एक दिन 'फ़ितरत अंसारी'साहब ने फरमाया की देखो बरखुरदार 'मजीद'अल्लाह का नाम है इसलिए अगर कोई तुम्हें ए 'मजीद'कह कर पुकारे तो क्या तुम्हें अच्छा लगेगा? ऐसा करो कि तुम मजीद के आगे 'अब्दुल'लगा लो अब्दुल याने बंदा और अपना नाम 'अब्दुल मजीद'याने अल्लाह का बंदा रख लो। 'कौसर'तुम्हारा तख़्ल्लुस रहेगा। फिर कुछ सोच कर बोले कि ऐसा करो 'अब्दुल मजीद को छोटा करके 'अब्दुल'के 'अ'का ऐन, 'मजीद'के 'म'का मीम लेकर अपना नाम ऐन.मीम.कौसर रख लो। सारी दुनिया 'मजीद खान'को भूल उन्हें सिर्फ़ 'ऐन.मीम.कौसर'के नाम से ही जानती है जिनकी ग़ज़लों की हिंदी में छपी किताब 'आईने ख़्वाहिशों के'हमारे सामने है।

कश्ती के डूबने का मुझे कोई ग़म नहीं 
गम ये है मेरे साथ कोई नाख़ुदा न था
*
मेरी अना की धूप ने झुलसा दिया मुझे 
निकला हूं अपनी ज़ात के जब भी सफर को मैं
*
बदल डाले परिंदों ने बसेरे
शजर सूखा तो फिर तनहा हुआ है
*
बदन पर दिन के पंजों की ख़राशें 
हर इक शब मेरा बिस्तर देखता है

कौसर साहब पिछले 40 सालों से शायरी कर रहे हैं। उनके उर्दू में तीन और हिंदी में ये पहला ग़ज़ल संग्रह छपा है। इसके अलावा मुल्क़ के सभी बड़े रिसालों में वो लगातार छपते आ रहे हैं। अनेक संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित किया है। 
कौसर साहब का कहना है कि शाइरी आसान ज़बान में ही होनी चाहिए और शेर बोलचाल की भाषा में कहे जाने चाहिएं ताकि वो सीधे दिल में उतर सकें। उनकी नज़रों में कामयाब शेर वो है जो एक बार सुन लेने के बाद आपको हमेशा याद रहता है। 

रिटायरमेंट के बाद 'कौसर'साहब बुलंदशहर में ही बस गए हैं और अपना पूरा वक्त शायरी लिखने-पढ़ने में बिताते हैं। उनकी ये किताब आप समन्वय प्रकाशन गाजियाबाद से 991166 9722 पर संपर्क कर मंगवा सकते हैं। 'कौसर'साहब से आप उनके मोबाइल नंबर 941238 7790 पर संपर्क कर बात कर सकते हैं।

रोज़ होती है यहां जंग महाभारत की 
तू इसे गुज़रे हुए वक्त का किस्सा न समझ
*
तीरगी न मिट पाई आदमी के ज़हनों की 
की तो थी बहुत हमने रोशनी की तदबीरें
*
दूर तक पहाड़ों पर सिलसिले चिनारों के 
एक अज़ीम शाइर की शाइरी से लगते हैं
*
बाहर से दिख रहा है सलामत मगर जनाब 
अंदर से अपने आप में बिखरा है आदमी
*
खुशबू पिघल-पिघल कर फूलों से बह रही है 
कितनी तमाज़तें हैं तितली की इक छुअन में
तमाज़तें: गर्मी
*
फूल से लोग संग सी फ़ितरत 
आईने ख्वाहिशों के टूट गए













किताब मिली - शुक्रिया -5


मुतमइन था दिन के बिखराव से मैं लेकिन ये रात 
दाना दाना फिर अ'जब ढंग से पिरोती है मुझे
*
इश्क़ में मैं भी बहुत मुहतात था सब झूठ है 
और ये साबित कर गया कल रात का रोना मेरा 
मोहतात:सावधान
*
समझ में कुछ नहीं आता मगर दिलचस्पी क़ायम है 
यही तो कारनामा है इस अलबेले मदारी का
*
कई दिनों से मैं एक बात कहना चाहता हूं 
तू लब हिला तो सही हां कोई सवाल तो कर

मैं चाह कर भी तेरे साथ रह नहीं पाऊं 
तू मेरे ग़म मेरी मजबूरी पर मलाल तो कर
*
हमारे ज़ेहन में ये बात भी नहीं आई 
कि तेरी याद हमें रात भी नहीं आई 

बिछड़ते वक़्त जो गरजे तो कैसे बादले थे 
ये कैसा हिज़्र कि बरसात भी नहीं आई
*
सुकून चाहता हूं मैं सुकून चाहता हूं 
खुली फिज़ा में नहीं तो क़फ़स में दे दे तू
*
उस पे तक़्सीम तो कीजे खुद को
क्या ज़रूरी है कि हासिल आए
*
मैं बांध ही रहा था ग़ज़ल में उसे अभी 
वो ज़ीना ए ख़्याल से नीचे उतर गया
*

आपको याद ही होगा की सन 2019 में एक भयंकर बीमारी ने पूरी दुनिया को अपनी गिरफ़्त में ले लिया था। उस बीमारी ने न गरीब देखा न अमीर, न गोरे देखे न काले, न देश देखे न मज़हब, उसने सबको, बिना भेदभाव के, अपनी चपेट में ले लिया था। 

उस बीमारी का इलाज तो खैर इंसान ने बहुत हद तक ढूंढ लिया है लेकिन एक और इससे भी बड़ी बीमारी का इलाज कोई इंसान अब तक नहीं ढूंढ पाया है। ढूंढ लिया होता तो आप, जो मैं लिख रहा हूं, यकीनन न पढ़ रहे होते। जी आप सही समझे, मैं 'सोशल मीडिया'की बात कर रहा हूं।जहां हर कोई 'मुझे देखो, मुझे पढ़ो, मुझे सुनो'की गुहार लगाता नज़र आता है।इसकी पकड़ में भी बहुत कम लोग ही आने से बच पाए हैं। जो लोग 'फेसबुक''यूट्यूब''ट्विटर''इंस्टाग्राम'आदि से बच गए वो 'व्हाट्सएप'की भेंट चढ़ गए। सोशल मीडिया में कोई बुराई नहीं है, बुराई सिर्फ इसकी अति में है। 

वैसे साहब ये पोस्ट 'सोशल मीडिया'के बारे में ज्ञान बांटने के लिए नहीं है क्योंकि पसंद अपनी अपनी ख़्याल अपना अपना। दरअसल ये पोस्ट उस शाइर के बारे में है जो 'सोशल मीडिया'में होकर भी वहां नहीं है। 

जनाब "शहराम सरमदी"साहब जिनकी किताब "किताब गुमराह कर रही है"पर लिखने का मन तो दो सालों से था लेकिन उनके बारे में कहीं से कोई सुराग नहीं मिल रहा था। 'फेसबुक'पर भी वो हैं 'इंस्टा'पर भी और 'यू ट्यूब'पर भी लेकिन बस हैं। वहां से आप उनके बारे में कुछ पता नहीं लगा सकते। यूं समझें हो कर भी नहीं हैं ।इंटरनेट पर कहीं उनका कोई इंटरव्यू या उन पर आर्टिकल भी देखने सुनने को नहीं मिलता, मुशाइरों के वीडियोज की बात तो भूल ही जाइए। 

हमने भी थक हार कर सोचा कि अगर 'शहराम सरमदी'साहब, एकांत में रहना चाहते हैं तो क्यों बेवजह उनकी प्राइवेसी में दखल दिया जाए।

आप 'रेख़्ता'से या 'अमेजन'से "किताब गुमराह कर रही है"को मंगवाइए और इत्मीनान से पढ़िए। याने आम खाइए, पेड़ मत गिनिए।
और हां,जब तक वो किताब आपके हाथ आए तब तक यहां 'सरमदी'साहब के ये चंद अशआर पढ़िए और पढ़िए फिर वो जहां, जैसे भी हैं, उन्हें दुआ दीजिए:

तो ज़मीं को आसमां करने की कोशिश ठीक है
सुनते हैं हर चीज हो जाती है मुमकिन वक्त पर
*
याद की बस्ती का यूं तो हर मकां खाली हुआ 
बस गया था जो खला सा वो कहां खाली हुआ

रफ़्ता रफ़्ता भर गया हर सूद से अपना भी जी 
रफ़्ता रफ़्ता दिल से एहसास ए जियां खाली हुआ 
सूद: फायदा, एहसास ए जियां: नुकसान
*
मैं अपनी फ़त्ह पर नाजां नहीं हूं 
प सुनता हूं कि थी दुनिया मुक़ाबिल
*
आज भी रोशन है वो इक नाम ताक़ ए याद में 
आज भी देती है जो इक लौ दिखाई उससे है
*
पहलू में कोई बैठ गया है कुछ इस तरह 
गोया किसी का साथ नहीं चाहिए हमें
*
हमेशा मुझसे ख़फा ही रही है तन्हाई 
सबब ये है कि तेरी याद जो बचा ली है
*
बस सलीक़े से जरा बर्बाद होना है तुम्हें 
इस ख़राबे में अगर आबाद होना है तुम्हें 
*
कई दिनों से बहुत काम था सो दफ़्तर में 
तेरे ख़्याल की लौ मैंने थोड़ी मद्धम की
*
उसने कहा था कि दिल का कहा मान इश्क़ है 
उस दिन खुला के वाकई आसान इश्क़ है 

हैरान मत हो देख के दीवानगी मेरी
तू महज़ तू नहीं है मेरी जान इश्क़ है

ऐसा नहीं है कि 'शहराम सरमदी'साहब के बारे में कुछ भी नहीं मालूम लेकिन जितना मालूम है वो मालूम होने की हद से बहुत दूर है। रेख़्ता की साइट पर जो जानकारी मौजूद है वो सिर्फ़ इतनी सी ही है
"शहराम सरमदी 1975 को अ’लीगढ़ में पैदा हुए। अ’लीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से एम. ए. किया। मुम्बई यूनिवर्सिटी से डाक्टरेट की डिग्री हासिल की और वहीं कई बर्सों तक तदरीसी फ़राएज़ भी अनजाम दिए। बा’द-अज़ाँ वज़ारत-ए-उमूर-ए-ख़ारजा, हुकूमत-ए-हिन्द से वाबस्ता हुए और इन दिनों हुकूमत-ए-हिन्द की जानिब से ताजिकिस्तान में मामूर हैं।"
हांलांकि मेरे पास उनका वाट्सएप नंबर है लेकिन मैं उसे आपसे शेयर करने से परहेज़ करूंगा। मैं नहीं चाहता कि मेरी वज़्ह से उनकी प्राइवेसी में खलल पड़े।
आखिर में आपको इस किताब से कुछ और अशआर पढ़वाता चलता हूं:

तेरे जुनून ने इक नाम दे दिया वरना 
मुझे तो यूं भी ये सहरा उबूर करना था 
उबूर: पार
*
कभी जो फुर्सत ए लम्हा भी मिले तो देख 
कि दश्त ए याद में बिखरा पड़ा है तू कैसा
*
क्या मजा देता है बा'ज औक़ात कोई झूठ भी 
जैसे ये अफ़वाह दिल से ग़म की सुल्तानी गई
*
वो देख रोशनियों से भरा है पस मंजर 
मलूल क्यों है अगर सामने उजाला नहीं
मलूल: उदास
*
लग गई क्या इसके भी बैसाखियां 
तेज़ी से वक्त ढलता क्यों नहीं









किताब मिली - शुक्रिया - 6


सभी का हक़ है जंगल पे कहा खरगोश ने जब से 
तभी से शेर, चीते, लोमड़ी, बैठे मचनों पर
*
जिस घड़ी बाजू मेरे चप्पू नज़र आने लगे
झील, सागर, ताल सब चुल्लू नज़र आने लगे 

हर पुलिस वाला अहिंसक हो गया अब देश में
पांच सौ के नोट पे बापू नज़र आने लगे
*
तन में मन में पड़ी दरारें, टपक रहा आंखों से पानी 
जब से तू निकली दिल से हम सरकारी आवास हो गये

ऐसे डूबे आभासी दुनिया में हम सब कुछ मत पूछो 
नाते, रिश्ते और दोस्ती सबके सब आभास हो गये,

बात सन 2006 की है, जब इंटरनेट पर ब्लॉग जगत का प्रवेश हुआ ही था बहुत से नए पुराने लिखने वाले इससे जुड़े, उन्होंने अपने ब्लॉग खोले उसमें लिखा, जिसे बड़ी आत्मीयता से पढ़ने वाले पढ़ते थे। ब्लॉग की पोस्टस को अख़बार वालों ने भी स्थान देना शुरू कर दिया था। 

उन्हीं दिनों देश के ख़्यातिनाम साहित्यकार 'पंकज सुबीर'ने अपने ब्लॉग 'सुबीर संवाद सेवा'पर ग़ज़ल के व्याकरण की पाठशाला चलाई थी जिससे बहुत से नए ग़ज़ल सीखने वाले जुड़े। उसी कक्षा से निकलने वाले बहुत से छात्र आज स्थापित ग़ज़लकार हो गए हैं और अपनी क़लम का लोहा मनवा रहे हैं।उन्हीं छात्रों में मेरे सहपाठी रहे हमारे आज के ग़ज़ल कार हैं 'सज्जन'धर्मेंद्र।

निरीक्षकता अगर इस देश की काफूर हो जाए 
मज़ारों पर चढ़े भगवा हरा सिंदूर हो जाए
*
पसीना छूटने लगता है सर्दी का यही सुनकर 
अभी तक गांव में हर साल मां स्वेटर बनाती है
*
एक तिनका याद का आकर गिरा है 
मयकदे में आंख धोने जा रहा हूं
*
सभी नदियों को पीने का यही अंजाम होता है
समंदर तृप्ति देने में सदा नाकाम होता है

छत्तीसगढ़'के 'रायगढ़'टाउन से लगभग 55 किलोमीटर दूर 'तलाईपल्ली'गांव में 'एनटीपीसी'द्वारा संचालित ओपन कोल माइन है, जहां 22 सितंबर 1979 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में जन्मे 'सज्जन'धर्मेंद्र उप महाप्रबंधक (सिविल) के पद पर कार्यरत हैं। इस भारी जिम्मेदाराना पोस्ट पर काम करते हुए भी, 'सज्जन'धर्मेंद्र अपनी साहित्यिक अभिरुचियों को पूरा करने के लिए समय निकाल लेते हैं। 

'धर्मेंद्र कुमार सिंह', इनका पूरा नाम है, ने प्रारंभिक शिक्षा 'राजकीय इंटर कॉलेजेज प्रतापगढ़'से प्राप्त करने में बाद 'काशी हिंदू विश्वविद्यालय'से बी.टेक और 'भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान रुड़की'से 'एम.टेक'की उपाधि प्राप्त की । इसी के चलते इन्हें 'ग़ज़लों का इंजीनियर'भी कहा जाता है।

जाने किस भाषा में चौका बेलन चूल्हा सब
उनको छूते ही उनसे बतियाने लगते हैं
*
खूं के दरिया में जब रंगों का गोता लगता है 
रंग हरा हो चाहे भगवा तब काला लगता है  
*
मत भूलिए इन्हें भले आदत को लिफ़्ट की 
लगने पे आग जान बचाती है सीढ़ियां
*
रात ने दर्द ए दिल को छुपाया मगर 
दूब की शाख़ पर कुछ नमी रह गई
*
दे दी अपनी जान किसी ने धान उगाने में 
मजा न आया साहब को बिरयानी खाने में

आप जो अशआर यहां पर पढ़ रहे हैं ये सभी उनकी ग़ज़लों की पहली किताब 'ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर'से लिए गए हैं जिसे 'अंजुमन प्रकाशन'ने सन 2014 में छापा था। इसे आप 'कविता कोष'की साइट पर ऑनलाइन भी पढ़ सकते हैं। इसके बाद उनका एक और ग़ज़ल संग्रह 'पूंजी और सत्ता के ख़िलाफ़'सन 2017 में प्रकाशित हो कर धूम मचा चुका है। 'सज्जन'जी की ग़ज़लों में आप भले ही 'दुष्यंत कुमार'और 'अदम गोंडवी'की शैलियों की झलक देखें लेकिन उनकी अधिकांश ग़ज़लों में ज़िंदगी और उससे जुड़ी समस्याओं पर अनूठे और असरदार ढंग से शेर कहे गए हैं। 

'धर्मेंद्र'जी ने अपना लेखन ग़ज़लों तक ही सीमित नहीं रखा, उन्होंने 'नवगीत'भी लिखे जो उनकी 2018 में प्रकाशित किताब 'नीम तले'में संकलित हैं । सन 2018 में उनकी कहानियों की किताब 'द हिप्नोटिस्ट'पाठकों द्वारा बहुत पसंद की गई। सन 2022 में प्रकाशित उनका पहला उपन्यास 'लिखे हैं ख़त तुम्हें'अपनी अनूठी शैली के कारण बहुत चर्चित रहा है। उनकी सभी किताबें आप अमेजॉन से ऑनलाइन मंगवा सकते हैं। आप सज्जन धर्मेंद्र जी को उनके 9981994272 पर बधाई संदेश भेज सकते हैं।

संगमरमर के चरण छू लौट जाती 
टीन के पीछे पड़ी है धूप 'सज्जन'

खोल कर सब खिड़कियां आने इसे दो 
शहर में बस दो घड़ी है धूप 'सज्जन'
*
कितना चलेगा धर्म का मुद्दा चुनाव में 
पानी हो इसकी थाह तो दंगा कराइए

चलते हैं सर झुका के जो उनकी जरा भी गर 
उठने लगे निगाह तो दंगा कराइए






किताब मिली - शुक्रिया - 7

तो क्यों रहबर के पीछे चल रहे हो 
अगर रहबर ने भटकाया बहुत है 
मैं छोड़ कर चला आया हूं शहर में जिसको 
मुझे वो गांव का कच्चा मकान खींचता है 
ज़ालिम को ज़ुल्म ढाने से मतलब है ढायेगा 
तुम चीखते रहो की गुनहगार हम नहीं 
तलाशे ज़र में भटकता फिरा ज़माने में 
जो मेरे पास था मैं वो ख़ज़ाना भूल गया 
मंजिल मिली न हमको मगर ये भी कम नहीं 
हमसे किसी के पांव का कांटा निकल गया 

आप सोचते होंगे की आसान है, जी नहीं आप ग़लत सोचते हैं, चूड़ी बनाना और वो भी कांच की, बेहद मुश्किल काम है. कांच को न जाने कितनी बार आग में तपना, गलना और फिर पिटना पड़ता है तब कहीं जाकर वो तार बनता है जिसे एक गोल घूमते हुए पाइप पर लपेटकर चूड़ी बनाई जाती है.चूड़ी बनाने से कम मुश्किल नहीं है शेर कहना...अच्छा शेर कहना समझिए सबसे मुश्किल कामों में से एक है. 
इंसान की फितरत है कि उसे मुश्किल काम करने में मजा आता है, जितना ज्यादा मुश्किल काम उतना ही ज्यादा मजा. तभी एक अच्छा शेर शायर को तो दिली सुकून देता ही है पढ़ने सुनने वाले के दिलों दिमाग पर भी छा जाता है.आप सोच रहे होंगे कि मैं चूड़ी और शेर इन दोनों की बात एक साथ क्यों कर रहा हूं। सही सोच रहे हैं, मैं बताता हूं। 
 हमारे आज के शाइर जनाब अनवर कमाल 'अनवर'जिनकी किताब "जहां लफ़्ज़ों का"हमारी सामने है, फिरोजाबाद की कांच की चूड़ी के व्यवसाय से जुड़े है इसीलिए तो उनके शेर चूड़ियों की तरह ही नाज़ुक दिलकश और खनखनाते हुए हैं। उस्ताद शायर जनाब 'हसीन फिरोजाबादी'साहब के शागिर्द 'अनवर कमाल'साहब फिरोजाबाद ही नहीं इसके बाहर भी पूरी दुनिया में अपनी बेहतरीन शायरी का डंका बजवा चुके हैं। बड़ा फनकार वो है जो अपने लहज़े में अपनी बात कहने का हुनर जानता हो और ये हुनर 'अनवर कमाल'साहब को खूब आता है। 

 नहीं था कोई खरीददार खुशबुओं का 'कमाल' 
 मगर चमन में वो पैदा गुलाब करता रहा 
बेकार जिसको जान के हमने गंवा दिया 
वो वक्त क़ीमती था बहुत अब पता चला 
यूं तो मुझे तलाश उजाले की है मगर 
जो भीख में मिले महे कामिल नहीं पसंद 
महे कामिल: चौदहवीं का चांद 
हज़ार कांटों ने एहसास को किया जख़्मी 
मुझे पसंद थी ख़ुशबू गुलाब उगाता रहा 
चांद से प्यार करके ये हासिल हुआ 
नींद आंखों की अक्सर गंवानी पड़ी

 'अनवर'साहब की शायरी के बाबत डॉक्टर 'अपूर्व चतुर्वेदी 'साहब लिखते हैं की 'इजाफ़त से परहेज और बातचीत की भाषा में शाइरी 'अनवर'साहब की ख़ासियत रही है। वो शेर, बल्कि चुभते हुए शेर इतनी सफाई से कहते हैं कि मुंह से वाह वाह निकल जाए। शाइरी में बोलचाल की भाषा के जनाब अनवर कमाल 'अनवर'भी कायल हैं।
 'अनवर'साहब के बहुत से कामयाब शागिर्द भी हैं जिनमें से एक हैं जनाब 'हरीश चतुर्वेदी'जी जिन्होंने 'अनवर'साहब की शाइरी को हिंदी में 'जहां लफ़्ज़ों का'के नाम से प्रकाशित करवा कर उसे उन लोगों तक पहुंचाने में मदद की है जो उर्दू लिख पढ़ नहीं सकते। हिंदी में प्रकाशित इस किताब से पहले 'अनवर'साहब के दो दीवान 'धूप का सफर'और 'बूंद बूंद समंदर'उर्दू में छप कर पूरी दुनिया में मशहूर हो चुके हैं। उनकी ग़ज़लों की हिंदी में दूसरी किताब 'इब्तिदा है ये तो इश्क़ की'सन 2021 में निखिल पब्लिशर आगरा से प्रकाशित होकर धूम मचा चुकी है। 

अनवर साहब को शाइरी विरासत में नहीं मिली, उनके वालिद मोहतरम जनाब बसीरउद्दीन का फिरोजाबाद में चूड़ियों का बहुत बड़ा व्यवसाय है जिसे अब 'अनवर'साहब और उनके बेटे संभालते हैं।भले ही उन्हें शाइरी विरासत में नहीं मिली लेकिन उर्दू शाइरी से मुहब्बत तो उन्हें बचपन से ही हो गई थी जिसे बाद में उसे उनके उस्ताद ए मोहतरम ने तराशा और उसमें पुख्तगी पैदा की। 

 'अनवर'साहब की किताब 'जहां लफ़्ज़ों का'को आप उनके शागिर्द जनाब 'हरीश चतुर्वेदी'जी को 9760014590 पर फोन कर मंगवा सकते हैं। वैसे इस किताब को 'रेख़्ता'की साइट पर ऑनलाइन भी पढ़ा जा सकता है। आप पढ़िए और 'अनवर'साहब को 9837775811 पर फोन कर दाद देना मत भूलियेगा। 

बताओ ऐसी सूरत में बुझाये प्यास किसकी कौन 
समंदर भी यह कहता है कि पानी ढूंढ कर लाओ
 * 
ऐसी सूरत में बताओ क़ाफ़िला कैसे बने 
साथ कोई भी किसी के दो क़दम चलता नहीं
 * 
ख़ाक वो दिन में मिलायेंगे नजर सूरज से 
रात में जिन से सितारे नहीं देखे जाते 
मसअला तो यही है लोगों को 
मसअले करने हल नहीं आते 
मेरा दामन मिल गया जब से तुम्हें 
आंसुओं क़ीमत तुम्हारी बढ़ गई 
*



किताब मिली - शुक्रिया - 8


अपने दुश्मन तो हम खुद हैं 
हमसे हमको कौन बचाए
*
बेवजह जो दाद देते हैं
कैक्टस को खाद देते हैं
*
इस नदी का जल कहीं भी अब लगा है फैलने
बांध कोई इस नदी पर अब बनाना चाहिए
*
लोग कुर्सी पर जो बैठे हैं ग़लत हैं माना
प्रश्न ये है जो सही हैं वो कहां बैठे हैं
*
ज़माने से तुमको शिक़ायत बहुत
क्या तुमसे किसी को शिकायत नहीं

आपको याद होगा कि देश में 1975 में इमरजेंसी घोषित हुई थी, यानी अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबंदी।1977 में जैसे ही इमरजेंसी हटी, जनता का गुस्सा फूट कर सामने आया और सत्ता के विरोध में कहानियों, उपन्यासों कविताओं और ग़ज़लों की बाढ़ सी आ गई जैसे कोई बांध टूट गया हो। 

सत्ता के विरोध में और आम इंसान के दुख- तकलीफों पर लिखने वाले सफल रचनाकारों में से एक थे 'दुष्यंत कुमार'जिनकी ग़ज़लों ने जनमानस पर गहरा प्रभाव डाला। बहुत से नए ग़ज़ल कारों ने उन्हें अपना आदर्श माना। आम बोलचाल की भाषा में हुस्न और इश्क़ के रुमानी संसार से निकल कर हक़ीक़त की खुरदरी ज़मीन पर ग़ज़ल कहने का दौर आया। 

हमारे आज के ग़ज़लकार श्री सुरेश पबरा 'आकाश'ने भी दुष्यंत जी को आदर्श मानते हुए ग़ज़लें कहना शुरू किया। उन्होंने अपनी ग़ज़लों की किताब 'वो अकेला'जो अभी हमारे सामने है में लिखा है कि 'ग़ज़ल अब केवल मनोरंजन ही नहीं कर रही बल्कि समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभा रही है। कभी-कभी किसी ग़ज़ल का एक शेर भी आदमी की जीने की दिशा बदल देता है। मेरी ग़ज़लें आम आदमी की भाषा में कही गई आम आदमी की ग़ज़लें हैं। ये ग़ज़लें ईमानदार आदमी पर हुए अत्याचार की, उसके साथ हुई पक्षपात की ग़ज़लें हैं। आम ईमानदार आदमी इन ग़ज़लों में अपनी पीड़ा महसूस करेगा और बेईमान आदमी इनको पढ़कर तिलमिलाएगा और ये तिलमिलाहट ही इन ग़ज़लों की सफलता होगी।'

बहुत मिले रावण से भी बढ़कर रावण
पर इस युग में नकली सारे राम मिले
*
अपनी तो ये इच्छा है सब दुष्टों को
जल्द सुदर्शन चक्र लिए घनश्याम मिले
*
शराफ़त से सहना ग़लत बात को
मियां बुजदिली है शराफ़त नहीं
*
साफ कहने का मुझे अंजाम भी मालूम है
जानता हूं मैं कहां हूं और कहां हो जाऊंगा
*
ये सही है मैं बहुत तन्हा रहा हूं उम्र भर
एक दिन तुम देखना मैं कारवां हो जाऊंगा

स्व.श्रीमति विद्यावती एवं स्व.श्री कर्म चंद पबरा के यहां चार जून 1954 को सुरेश जी का जन्म हुआ। अपने बारे में सुरेश जी बताते हैं कि "मैंने 1973 से व्यंग्य कवितायें लिखना प्रारम्भ किया मैंने दुष्यन्त कुमार की ग़ज़लें पत्रिकाओं में पढ़ी उनसे प्रभावित हुआ। मैं मंचों पर भी जाया करता था एक कवि सम्मेलन में 'माणिक वर्मा'जी ने व्यंग के साथ कुछ ग़ज़लें भी सुनायीं बाद में उनमें से एक ग़ज़ल सारिका में भी छपी थी जिसका मिसरा था 'आज अपनी सरहदों में खो गया है आदमी'मैंने इसी  बहर पर एक ग़ज़ल लिखी 'जुल्म हँस हँस के सभी सहने लगा है आदमी'और सारिका को भेजी । ये ग़ज़ल 1977 में लिखी थी जो 1979 में सारिका में प्रकाशित हुई। उसके बाद मैंने ग़ज़लें कहना शुरू किया और आज तक कह   रहा हूँ ।

मेरी ग़ज़लें कादम्बिनी एवं नवनीत आदि बहुत सी पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। मेरा कोई उस्ताद नहीं रहा। 'डा आज़म'की आसान उरूज़'एवं 'वीनस केसरी'की किताब 'ग़ज़ल के बहाने'से बहर सीखी। अधिकांश ग़ज़लें स्वतः ही बहर में आयीं। शंका समाधान मैंने कइयों से किया।

मैंने 2003 में भेल (BHEL)शिक्षा मण्डल, भोपाल से व्याख्याता के रूप में VRS लिया उसके बाद पन्द्रह वर्षों तक विभिन्न विद्यालयों में प्राचार्य रहा सन् 2020 में, मैं प्राचार्य के रूप में सेवानिवृत्त हुआ फिर उसके बाद वकालत करने लगा जो अभी तक कर रहा हूँ ।"
'वो अकेला'सुरेश जी का पहला ग़ज़ल संग्रह है जो 'पहले पहल प्रकाशन'भोपाल से सन 2018 में प्रकाशित हुआ था। उनका दूसरा ग़ज़ल संग्रह 'सितारों को जगाना है'सन 2022 में प्रकाशित हुआ है।

सुरेश जी की ग़ज़लें पढ़ कर आप उन्हें उनके मोबाइल +91 98932 90590 पर बात कर बधाई दे सकते हैं।

जाग कर इक रात काटी यार तेरी याद में
याद महकी रात भर और रात रानी हो गई
*
पल भर जिधर ठहरना हमको लगता है दूभर
मजबूरी में उधर उम्र भर रहना पड़ता है
*
भाईचारे की बात होती है
भाईचारा जहां नहीं होता
*
उम्र भर तन्हा रहा है जो
भीड़ में वो खो नहीं सकता
*
मखमल के गद्दों पर बैठे गीत गरीबी पर लिखते
बातें करते इंकलाब की दारू पीकर जाड़े में







किताब मिली - शुक्रिया 9


कभी तो इनकी गर्माहट मिलेगी मेरे अपनों को 
जो रिश्ते बुन रहा हूं मैं मुहब्बत की सलाई से
*
उसूलों की तरफ़दारी का यह इनाआम है 
उधर सारा जमाना है, इधर तन्हा है हम
*
जहां से हम चले थे फिर वहीं आखिर में जा पहुंचे
हमारी सोच ने हमको क़बीलाई बना डाला
*
उसे हम पूछते हैं रोटियों का घर 
वो हमको चांद का रस्ता बताता है
*
यूं तो हमारी बेटियां बेटों से कम न थीं
हम ही थे बदनसीब कि बेटों के साथ थे

किसी भी शाइर या लेखक की पहचान उसकी स्पष्टवादिता से होती है। मेरी नज़र में जो भी अपनी बात बिना लाग लपेट के सबके सामने रखने में सक्षम है वही सच्चा साहित्यकार है।

हमारे आज की शाइर 'श्री संजीव गौतम'  की यही ख़ासियत सबसे पहले आकृष्ट करती है। पहली बात तो ये है कि वो ग़ज़ल की भाषा को लेकर किसी भ्रम में नहीं है इसलिए लिखते हैं कि "तमाम विद्वानों ने ग़ज़ल को हिंदी या उर्दू होने पर एतराज़ किए हैं लेकिन वे मात्र आभासी तौर पर ही सही प्रतीत होते हैं। मुझे लगता है कि ये बात सिर्फ़ हिंदी और उर्दू के सगेपन के कारण ऐसी महसूस होती है। एक अर्थ में ग़ज़ल तो ग़ज़ल ही है और हिंदी ग़ज़ल अलग कोई विद्या नहीं है।"दूसरी बात, वो देश की आज की स्थिति पर बेबाकी से अपनी राय रखते हुए कहते हैं कि "आज सबसे बड़ा अंतर जो उत्पन्न हुआ है और जो आजादी के संघर्ष काल एवं आपातकाल के दिनों से भी अलग है वो है कि आज समाज में उदार तत्व कम होता जा रहा है। जैसे-जैसे हम महात्मा गांधी से दूर होते जा रहे हैं वैसे-वैसे भारतीय समाज से नैतिकता का ह्रास होता जा रहा है। वर्तमान समय को यदि मैं एक पंक्ति में व्यक्त करना चाहूं तो आज नकारात्मकता वैद्यानिकता हासिल करना चाहती है। आपके चारों ओर ऐसे व्यक्तियों का बहुमत है जो अन्य के विषय में उदारता से नहीं सोचते। आज चिंतनशील होना अभिशाप जैसा है और बुद्धिजीवी होना गाली।

सीधी सरल बात है कि ऐसी सोच और विचारधारा का शाइर अनूठा ही होगा। धारा के विपरीत बहने का साहस करने वाले बिरले ही हुआ करते हैं और 'संजीव गौतम'उन बिरले शाइरों में से एक है।

अगर चाहें कि धरती पर रहे इंसान ज़िंदा तो
बचानी ही पड़ेंगी नरमिंया हमको जबानों में
*
समझता था तुझे मैं सिर्फ़ शाइर 
ग़ज़ब है तू भी हिंदू हो रहा है
*
हमें तो फ़िक्र है उसकी सो हम तो टोकेंगे 
हमें पता है वो हमको बुरा समझता है
*
हुई है दोस्ती जो ज़िंदगी से 
भरेंगे उम्र भर चालान हम भी
*
ज़रूरत आ पड़ी है जब तभी खामोश है ये 
हमारे दौर की भी शाइरी क्या शाइरी है

उनकी ग़ज़लें पढ़ते हुए वरिष्ठ ग़ज़ल कार श्री 'अशोक रावत'जी की इस किताब में 'संजीव गौतम'के बारे में लिखी बात पर आसानी से यक़ीन किया जा सकता है की 'संजीव गौतम की ग़ज़लों में जो आत्मविश्वास नज़र आता है वो किसी के लिए भी ईर्ष्या का विषय हो सकता है। इस आत्मविश्वास के पीछे ग़ज़ल के शिल्प का पूरा ज्ञान तो है ही उनकी स्पष्ट दृष्टि और मानवीय मूल्यों के प्रति गहरा लगाव भी है। उनके विचार और आचरण में फ़ासले नहीं है इसलिए कथ्य स्वत: ही विश्वसनीय बन जाता है जो पाठक के दिल तक पहुंचता है।

जाने माने ग़ज़ल कार 'ओमप्रकाश नदीम'जी लिखते हैं कि आम तौर पर इतिहास शासक वर्ग के आसपास ही चक्कर लगाता है लेकिन आम जन के पक्षधर प्रगतिशील चेतना के रचनाकार शोषित पीड़ित मानवता के प्रतिरोध को आवाज़ देकर प्रजा का इतिहास भी लिखते हैं। व्यवस्था के प्रति आक्रोश के साथ-साथ परिवर्तन की उम्मीद से लबरेज़ चिंतन को नुमायां करती हैं 'संजीव गौतम'की ग़ज़लें।

अब तो रिश्तों की हवेली में कहां शर्मो- हया 
सारे दरवाज़े खुले हैं कोई पर्दा ही नहीं
*
चलो तुम आखिरश खुश तो हुए 
हमें रोना पड़ा तो क्या हुआ
*
बंद करते जा रहे हो सारे दरवाज़े तो तुम
ये बताओ कैसे होगी फिर तुम्हारी वापसी
*
दुनिया जिससे दुनिया है
वो ढाई आखर हूं मैं
*
मई और जून में भी क्या पिघलना
दिसंबर में पिघल कर देखिए तो

श्री 'संजीव गौतम'का जन्म 3 जनवरी 1973 को आगरा में हुआ था। आपने हिंदी में एम.ए. किया है और अब सहकारिता विभाग में अपर जिला सहकारी अधिकारी के रूप में कार्यरत हैं। 

'बुतों की भीड़ में'उनका पहला ग़ज़ल संग्रह है जो सन 2021 में 'अयन प्रकाशन'महरौली से प्रकाशित हुआ था। इस ग़ज़ल संग्रह में उनकी 90 बेहतरीन ग़ज़लें संग्रहीत हैं। उनकी रचनाएं देश की प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में नियमित रूप से छपती रहती हैं।
 
इस किताब को आप 'अयन प्रकाशन'से 92113 12372 पर फोन करके या अमेजॉन से ऑनलाइन मंगवा सकते हैं और पढ़ कर संजीव जी को उनके मोबाइल नं 94562 39706 पर बात कर बधाई दे सकते हैं।

बेहतरीन शाइर डॉक्टर 'त्रिमोहन तरल'साहब की इस बात से पूरी तरह सहमत होते हुए मैं आपसे विदा लेता हूं कि "हम यहां कितना भी लिख ले अंततः इन ग़ज़लों का असली मूल्यांकन तो इनके पाठकों को ही करना है और वही आंकलन सबसे अधिक महत्वपूर्ण होता है।

इसे मुश्किल तो हम ही मान बैठे हैं नहीं तो 
अभी भी झूठ को ललकारना कुछ भी नहीं है
*
ये दुनिया जैसी थी अब भी वैसी है 
अच्छे-अच्छे आये आकर चले गये
*
जाने कितने ख़तरे सर पर रहते हैं
हम अपने ही घर में डर कर रहते हैं

मेरे चुप रहने की वजहें पूछो मत
मेरे भीतर कई समंदर रहते हैं
*
बात बिल्कुल साफ़ है अब आइने सी
दीमको की ज़द में अब अल्मारियां हैं















किताब मिली - शुक्रिया - 10


तुम्हीं ने बनाया तुम्हीं ने मिटाया
मैं जो कुछ भी हूं बस इसी दरमियां हूं
*
उंगली तो उठाना है आसां
पर कौन यहां कब कामिल है
कामिल: पूर्ण, पूरा
*
गुमराह हो गया तू भटक कर इधर-उधर
इक राह ए इश्क़ भी है कभी इख़्तियार कर
*
ऐ शेख! सब्र कर तू नसीहत न कर अभी
आता हूं मैकदे से जरा इंतज़ार कर
*
जब से तुम हमराह हुए हो 
साथ हमारे खुद ही मंज़िल

सबसे पहले रुबरु होते हैं हमारे आज के शाइर जनाब *आनन्द पाठक'आनन* साहब के इन विचारों से जिन्हें उन्होंने अपनी ग़ज़लों की किताब *मौसम बदलेगा* के फ्लैप पर प्रकाशित किया है :-

प्रकृति का यही नियम है और यही जीवन दर्शन भी कि मौसम एक सा नहीं रहता। वक्त भी एक सा नहीं रहता।
पतझड़ है तो बहार भी, उम्र भर किसी का इंतज़ार भी, मिलन के लिए बेकरार भी। जीवन में सुख-दुख आशा-निराशा विरह-मिलन का होना, नई आशाओं के साथ सुबह का होना, शाम का ढलना, एक सामान्य क्रम और एक शाश्वत प्रक्रिया है, फिर विचार करना कि जीवन में क्या खोया क्या पाया। दिन भर की भाग दौड़ का क्या हासिल रहा और यही सब हिसाब किताब करते-करते एक दिन आदमी सो जाता है। यही जीवन का क्रम है यही शाश्वत नियम है। बहुत सी बातों पर हमारा आपका अधिकार नहीं होता। सब नियति का खेल है। कोई एक अदृश्य शक्ति है जो हम सबको संचालित करती है।

सुख का मौसम दुख का मौसम, आंधी पानी का हो मौसम
मौसम का आना-जाना है, मौसम है मौसम बदलेगा

दांव पर दांव चलती रही ज़िंदगी
शर्त हारे कभी हम, कभी ज़िंदगी
*
मिलेगी जब कभी फुर्सत तुम्हें रोटी भी दे देंगे
अभी मसरूफ़ हूं तुमको नए सपने दिखाने में
*
'आनन'तू खुशनसीब है दस्तार सर पे है 
वरना तो लोग बेच कमाई में आ गए
*
पूछ लेना जमीर ओ ग़ैरत से 
पांव पर जब किसी के सर रखना
*
आप जो मिल गए मुझको
आप से और क्या मॉंगू

उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में 31 जुलाई 1955 को जन्मे आनंद पाठक ने सिविल इंजीनियरिंग क्षेत्र में देश के सर्वश्रेष्ठ इंजीनियरिंग कॉलेजों में से एक आई.आई.टी. रुड़की से सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। 

सन 1978 में ऑल इंडिया इंजीनियरिंग सर्विस में चयनित होने के बाद बिहार, बंगाल, असम, झारखंड, गुजरात एवं राजस्थान राज्यों में योगदान दिया और अंततः जयपुर से मुख्य अभियंता (सिविल) भारत संचार निगम लिमिटेड के पद से रिटायर हुए। 

सिविल इंजीनियरिंग के क्षेत्र में दक्षता के साथ-साथ उनकी अभिरुचि कविता, गीत, ग़ज़ल, माहिया, व्यंग, अरूज तथा अन्य विविध लेखन में भी रही। एक ही व्यक्ति में इतने गुण होना साधारण बात नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं कि वो विलक्षण प्रतिभा वान हैं। सबसे बड़ी बात तो ये है कि इतनी उपलब्धियां प्राप्त करने के बाद भी वो बेहद सरल सहज सच्चे इंसान हैं। उनसे बात करके आपको लगेगा जैसे आप अपने किसी परिवार जन से ही बात कर रहे हैं। उनका ये गुण उन्हें सबसे अलग करता है। 

इश्क़ भी क्या अजब शै है 
रोज़ लगता नया क्यों है
*
ज़ाहिरी तौर पर हों भले हमसुखन 
आदमी आदमी से डरा उम्र भर 
हमसुखन: आपस में बात करने वाला
*
जादूगरी थी उसकी दलाइल भी बाकमाल
उसके फ़रेब को भी ज़हानत समझ लिया 
दलाइल: दलीलें, ज़हानत: प्रतिभा
*
जब सामने खड़ा था भूखा गरीब कोई 
फिर ढूंढता है किसको दैर ओ हरम में जाकर
*
जहां सर झुक गया आनन वहीं काबा वहीं काशी 
वो चलकर खुद ही आएंगे, बड़ी ताकत मुहब्बत में

*आनन्द पाठक* जी का गीत- ग़ज़ल संग्रह, *मौसम बदलेगा* जिसमें उनकी 99 ग़ज़लें और 9 गीत हैं सन 2022 में 'अयन प्रकाशन'नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ था। इससे पूर्व आनंद पाठक जी की 9 किताबें मंजर ए आम पर आ चुकी हैं जिन में चार 'व्यंग्य संग्रह'तीन 'गीत-ग़ज़ल संग्रह एक गीति काव्य संग्रह और एक माहिया संग्रह है। इससे पता चलता है कि उनके लेखन का कैनवास कितना विशाल है।

यूं तो मैं उनकी प्रतिभा का कायल उनके ब्लॉग लेखन के दौर से ही रहा हूं ।सन 2018 के विश्व पुस्तक मेले में उनसे पहली मुलाकात हुई जब उन्होंने रोष जताते हुए कहा था कि क्या भाईसाहब जयपुर रहते हुए भी नहीं मिलते हो।जयपुर में उनसे जब जब बात हुई तो ठहाकों से शुरू हो कर ठहाकों पर ही रुकी। उनके बार बार "घर पर आइए"के निमंत्रण को मूर्त रूप देने से पहले ही वो रिटायरमेंट के बाद जयपुर छोड़ कर गुरुग्राम बस गये। देखिए अब कब उनसे मुलाक़ात होती है। खैर!! हमारा उनसे दुबारा मिलना तो जरूर होगा , लेकिन हां आप चाहें तो उनसे उनके मोबाइल नं 8800927181 पर फोन कर उन्हें बधाई दे सकते हैं।


किताब मिली - शुक्रिया - 11



यूं तो माना जाता है की ग़ज़ल का इतिहास सातवीं शताब्दी से शुरू हुआ लेकिन यदि हम अमीर खुसरो से इसकी शुरुआत मान लें तो भी ये अब तक 1200 साल पुराना हो चुका है। इन 1200 सालों में ग़ज़ल की ज़मीन पर हज़ारों की तादाद में शाइरों ने खेती की है। अब आलम ये है की खेती छोड़िए एक पौधा तक लगाने के लिए खाली ज़मीन तलाशे नहीं मिलती। इस ज़मीन पर जहां ग़ालिब, मीर, दाग़, इक़बाल, फ़िराक़, फ़ैज़ जैसे कालजयी शाइरों के जहां लहलहाते बाग़ हैं वहीं पर ढेरों शाइरों की उगाई खरपतवार की भी कमी नहीं है। अब इस ज़मीन पर अपना एक भी बूटा लगाना, जो अलग से नज़र आए, आसान काम नहीं रहा है। बड़े-बड़े बरगदों की छांव में छोटे-मोटे पौधे तो वैसे भी दम तोड़ देते हैं इस बात को जानते हुए भी बहुत से जांबाज शाइर कोशिश करना नहीं छोड़ते। उन्हीं में से एक है हमारी आज की शाइरा *आशा पांडे ओझा 'आशा'*।

अब 'आशा'जी के बारे में क्या कहूं ? क्योंकि मैं जो कहूंगा, जितना कहूंगा वो कम ही पड़ेगा। दरअसल बात ये है कि 'आशा'जी एक ज़िंदा ज्वालामुखी हैं जिसमें से प्रतिभा का लावा लगातार बहता रहता है। इस ज्वालामुखी से लावे के रूप में कभी गीत, कभी कविता, कभी हाइकु, कभी दोहे, कभी व्यंग, कभी लघु कथाएं, कभी शोध पत्र, कभी समीक्षाएं, कभी छंद, कभी कहानी तो कभी ग़ज़लें रह-रह कर फूटती रहती हैं। उनकी इस प्रतिभा से हम सब हतप्रभ हैं और दुआ करते हैं कि ये रंग-बिरंगा लावा सदा यूं ही लगातार फूटता ही रहे।

जीने को है जरूरी 
आंखों में ख़्वाब रखना

तलवार तीर तज कर 
घर में किताब रखना
*
अब मिलते हैं अक्सर दुश्मन
बांह गले में डाले पगले

चोर सभी हैं भाई भाई 
या फिर जीजा साले पगले
*
जरा ग़म के आते दफ़ा हो गई
खुशी दांव हारी जुआरी लगे

हंसता, रुलाता, नाचता वही 
ख़ुदा भी ग़ज़ब का मदारी लगे
*
फिर महकने से लगे हैं सांस के ये मोगरे 
नैन की पंखुरी तले कुछ सरसराहट सी हुई 

लौट आने से तेरे महसूस ये होने लगा 
बांझ घर में बाद में मुद्दत खिलखिलाहट सी हुई
*
कोरी छत खाली दीवारें 
प्यार बिना फिर ये घर क्या है

मन से ज्यादा क्या उपजाऊ 
मन से ज्यादा ऊसर क्या है

यदि आप उनसे परिचित हैं तो 'आशा'जी की प्रशंसा के लिए उपयुक्त शब्द आपको किसी भी शब्दकोश में नहीं मिलेगा। उनके व्यक्तित्व के इतने आयाम है कि उसे एक शब्द में व्यक्त करना असंभव है, इसलिए इस असंभव काम पर वक्त जाया करने से बेहतर मुझे लगा कि मैं उनके बारे में कुछ और बात करूं। 

सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात जो 'आशा'जी में है वो है उनकी ज़िंदादिली। उनसे बात करते वक्त तो आप हंसे बिना रह ही नहीं सकते, बातचीत ख़त्म होने के महीनों बाद तक उनकी बातों को याद कर आप हंसते रहते हैं। ऐसा लगता है जैसे उनको बनाते वक्त ईश्वर इतना खुश हुआ होगा कि उसने उनमें सौ-दो सौ लोगों की बुद्धि एक साथ डाल दी।

ग़ज़लों पर उनकी कलम हाल ही में चलनी शुरू हुई है और आप उनकी किताब "कहां सांस लें खुलकर"पढ़ते हुए पाएंगे कि किस खूबी से ग़ज़ल की इस पहले से ही भरी पूरी ज़मीन पर उन्होंने अपने बूटों को रोपने के लिए जगह तलाश की और वो बूटे अलग से दिखाई भी देते हैं। 

आपके दांत न हो और उंगलियों पर चोट लगी हो तो अलग बात है वरना उनके ये आंकड़े आपको दांतों तले उंगलियां दबाने पर मजबूर कर देंगे। आप ध्यान से पढ़ें:

उनके चार काव्य संग्रह, दस साझा संग्रह, एक हाइकू संग्रह, एक दोहा संग्रह और एक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 
वो पचास से अधिक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय साहित्य गोष्ठियों में शिरकत कर चुकी हैं।
उनके बीस से अधिक शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं। 
उनकी 250 से अधिक विभिन्न पत्र पत्रिकाओं एवं ई पत्रिकाओं में रचनाएं छप चुकी हैं। 
वो रेडियो और टेलीविजन पर न जाने कितनी बार आ चुकी हैं और 
वो 150 से अधिक विभिन्न संस्थाओं व अकादमियों द्वारा सम्मानित हो चुकी हैं 

इतना सब कुछ हो चुकने की बावजूद भी वो कभी फोन करके कहती हैं कि "भाई जी कोई काम हो तो बताओ टाइम ही पास नहीं हो रहा"इससे आप उनमें बह रही ऊर्जा का अंदाजा लगा सकते हैं।

रोकना चाहती हूं तुझे ज़िंदगी 
तू पिघलने लगी कुल्फ़ियों की तरह

रूपकों की तरह गीत में तू रहा 
हर ग़ज़ल में रहा काफ़ियों की तरह
*
लोग रस्ता बना के निकलेंगे
दिल की गलियों आम मत करना
*
किसने सोचा देख दुपहरी चढ़ते तेवर सूरज के
शाम ढले तक कोई इतना धीमा भी हो सकता है
*
तोता-मैना जिसमें प्रीत रचा करते 
बाग़ हमारा कौओं की जागीर हुआ
*
ज़बान खोलने से टूटती है ज़ंजीरें
रहे क्यों बर्फ के जैसे, उबल के देखते हैं

25 अक्टूबर को ओसियां जिला जोधपुर में पैदा हुई 'आशा'जी ने बी.ए. के बाद लाॅ किया और जोधपुर हाई कोर्ट में प्रैक्टिस भी की। इसी दौरान स्वयं पाठी के रूप में हिंदी साहित्य में एम.ए. किया। साहित्यिक अभिरुचियों के चलते वकालत को उन्होंने नमस्कार किया और लेखन को समर्पित हो गईं।

मुझे गर्व है कि वो मुझ जैसे अनाड़ी को अपना बड़ा भाई मानती हैं। लोग कहते हैं 'नीरज'जी आपके पांव ज़मीन पर क्यों नहीं है? आप हवा में क्यों रहते हो? तो मैं कहता हूं कि जिसकी इतनी प्रतिभाशाली छोटी बहन हो उस भाई के पांव जमीन पर टिक ही नहीं सकती चाहे वो कितना भी जोर लगा ले। 

अब बात उनकी ग़ज़लों की पहली किताब "कहां हम सांस लें खुलकर"की। ये किताब 'श्वेत वर्ण'प्रकाशन नई दिल्ली से राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर के आर्थिक सहयोग से सन 2023 में प्रकाशित हुई थी, जिसे आप प्रकाशक से 8447540078 पर फोन कर मंगवा सकते हैं। वैसे ये किताब अमेजॉन से ऑनलाइन भी मंगवाई जा सकती है। इस किताब की ग़ज़लों में मुहावरे दार भाषा और दिलचस्प रदीफ़ काफियों के प्रयोग से कमाल की ग़ज़लें कहीं गई हैं। अधिकतर ग़ज़लें छोटी बहर में है और उनके लिए "सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर। देखन में छोटे लगै, घाव करें गंभीर"वाली बात सटीक बैठती है।

जहां तक 'आशा'जी से बात का प्रश्न है तो उसके लिए आप उनके फेसबुक पेज Asha Pandey Ojha Asha के लिंक https://www.facebook.com/kavyatri.asha?mibextid=ZbWKwL से जुड़कर उनसे संपर्क कर सकते हैं अथवा उन्हें उनके ई मेल asha09.pandey@gmail.com पर मेल कर सकते हैं।

पीपल बड़ से बाबा मेरे 
तुलसी केली जैसी अम्मा 

न्यारी न्यारी उंगली बच्चे 
और हथेली जैसी अम्मा
*
रिश्ते नाटक ऐसे करते 
बिगड़ी जैसे घोड़ी साहब

टूट टूट फिर से जुड़ जाती 
होती आस निगोड़ी साहब
*
समय नहीं था पल भर हमको भागा दौड़ी इतनी थी 
आज समय को काटे कैसे प्रश्न पकड़ कर कान खड़ा
*
उसने पहले ईट उठाई हमने पत्थर फिर मारा 
जैसे को तैसा करने की अपनी भी लाचारी है






किताब मिली - शुक्रिया - 12


सूरज का साथ देने में नुक्सान ये हुआ
हम रात की नज़र में गुनाहगार हो गए

इस बार मेरे पास मुहब्बत की ढाल थी
इस बार उसके तीर भी बेकार हो गए
*
ख़याल ज़िद भी करें उनको टाल देता हूं 
मैं हल्का शेर ग़ज़ल से निकाल देता हूं
*
फ़ज़ायें एक सी रहती नहीं कभी दिल की
हमेशा चांद भी पूरा नहीं निकलता है
*
हटा लो मील का पत्थर हमारे राहों से 
हमारे ज़ौक़े-सफ़र को थकान देता है
*
हम हैं शायर हमें तफ़रीक़ नहीं आती है
ढलते सूरज को भी हम लोग दुआ देते हैं 
तफ़रीक़: मतभेद 

हमको इंसाफ़ की उम्मीद नहीं है लेकिन 
आप कहते हैं तो ज़ंजीर हिला देते हैं
*
जवाब देना है अपनी ज़मीर को भी मुझे
मैं शायरी को पहेली नहीं बनाऊंगा

ख़याल जिद भी करें उनको टाल देता हूं 
मैं हल्का शेर ग़ज़ल से निकाल देता हूं


शायरी और मुहब्बत दोनों ही "इक आग का दरिया है और डूब के जाना है"वाला काम है। जो लोग मुश्किल काम को अंजाम देने का हौंसला रखते हैं और साथ ही जुनूनी हैं उन्हें ही इस और क़दम बढ़ाने चाहिएं 

आप उस्ताद शायरों की शायरी को ग़ौर से पढ़ें तो महसूस करेंगे कि उन्होंने किस कमाल से हर शेर के मिसरों में लफ़्ज़ों को इस तरतीब से रखा है कि किसी भी लफ़्ज़ को आप अपनी जगह से हटा नहीं सकते। लफ़्ज़ों की तरतीब बदलते ही आपको उस शेर की रवानी में फ़र्क साफ़ नज़र आ जाएगा।

शायरी और तुकबंदी में बहुत फ़र्क है और ये फ़र्क आपको हमारे आज के शायर जनाब "कशिश होशियारपुरी"साहब की ग़ज़लों की किताब "मंज़िलों से दूर"पढ़ते वक्त साफ़ नज़र आ आएगा। उनकी ग़ज़ल के हर शेर में लफ़्ज़ नौलखा हार में जड़े नगीनों की तरह तराश कर बड़ी कारीगरी से टांके गए हैं। शेरों में रवानी किसी अल्हड़ नदी की तरह कलकल बहती हुई सी है। नए ग़ज़लकारों के साथ साथ उनको जो ग़ज़ल कहने का फ़न अभी सीख रहे हैं, "कशिश होशियारपुरी"साहब की इस किताब को बार-बार पढ़ना चाहिए ताकि वो समझें कि शेर कहने का शऊर और हुनर क्या होता है और इसके लिए कितनी मेहनत मशक्कत करनी पड़ती है। "कशिश होशियारपुरी"साहब कहते हैं कि :

'शेरो सुख़न की मंजिलें पाने के वास्ते 
मैंने पहाड़ काटा है फ़रहाद की तरह 

सीधी सी बात है जो लोग पहाड़ काटकर रास्ता बनाने की बजाय बनी बनाई सड़क या पगडंडी पर चलने में विश्वास रखते हैं उन्हें शायरी करना छोड़ ही देना चाहिए क्योंकि ऐसी शायरी, जिसमें पहाड़ तोड़कर रास्ता बनाने जैसी मशक्कत ना करनी पड़े, भले ही सोशल मीडिया पर तुरंत वाह वाही बटोर ले लेकिन वो वक्त की आंधी में बहुत जल्दी और आसानी से उड़ जाती है और भुला दी जाती है। 

"मंज़िलों से दूर"की ग़ज़लों में "कशिश"साहब ने एक से बढ़कर एक नए रदीफ़ और काफियों का इस्तेमाल किया है जो कारी को हैरान भी करता है और उनकी ग़ज़लों को पढ़ने में दिलचस्पी भी बनाए रखता है।
उसूल होते हैं सबको बहुत अज़ीज़ मगर 
कभी-कभी ये परेशान करने लगते हैं
*
हम ये पूछेंगे लहू से की कभी क़त्ल के बाद
क्या किसी तीर का ख़ंजर का बदन दुखता है
*
वो मुझे तोड़ गया आज इसलिए रिश्ता 
मैं उसकी एक भी आदत बुरी न देख सका
*
कहीं कहीं पे ज़रूरी है थोड़ी तल्ख़ी भी
क़फ़स में है वह परिंदे जो मीठा बोलते हैं
*
अपनी ग़ैरत का उसे करना है सौदा लेकिन
मुझसे कहता है ख़रीदार भी मैं ला कर दूं

कशिश होशियारपुरी"साहब जिनका वैसे नाम 'कुलतार सिंह'है वैसे तो होशियारपुर, पंजाब के बाशिंदे हैं लेकिन इन दिनों वो 'अमेरिका'के 'शिकागो'शहर में रहते हैं। आइए उनके बारे में उन्हीं द्वारा इस किताब में लिखी भूमिका से जानते हैं, वो लिखते हैं कि:

जैसा कि आप जानते हैं पंजाब का एक शहर होशियारपुर, जिसे हल्का-ए-अरबाबे-ज़ौक का शहर कहा जाता है, इस अदबी और तारीखी शहर की ज़रखे़ज़ ज़मीन से बड़े अदीब पैदा हुए जिनके नाम आज भी जहाने-अदब के फ़लक पर रौशन हैं उनमें 'मुनीर नियाज़ी', 'हफ़ीज होशियारपुरी', 'हबीब जालिब', 'नरेश कुमार शाद'वगै़रह नुमायां हैं। मेरा ख़मीर भी इसी शहर के तारीख़ी ही गांव खड़ियाला सैणीयां की ज़मीन से 1 मार्च 1965 को उठा। मैंने अपने शहर की इस अज़ीम अदबी विरासत को संभालने में ही अपने आप को खर्च कियाहै

यहां से गुज़रे हैं साहिर, नज़र, मुनीर, 'कशिश' 
हमारे नाम को निस्बत उसी दयार से है

मेरे खानदान का शायरी से कहीं दूर का भी रिश्ता नहीं था मेरी मिट्टी खराब की मैंने यह सख्त राह इख़्तियार कर ली। यह मेरी ख़ुशबख़्ती कह लें कि ज़िंदगी मुझे उत्तर प्रदेश के बहुत ही ज़रख़ेज़ इलाके बाराबंकी की फ़ज़ाओं में ले गई वहां मैंने क़रीब 12 साल गुज़ारे वहीं मेरे फ़न ने तरबियत पाई। इब्तिदाई दिनों में मैंने उस्ताद-ए-मोहतरम 'बादल सुल्तानपुरी'साहब से उर्दू ज़ तयबान, उर्दू ग़ज़ल और उरूज़ के बारे में इल्म हासिल किया। 'बादल'साहब ने बहुत सख्त इम्तिहान लिए यहां तक की 7 साल बाद मुझे अपना शागिर्द तस्लीम किया। 'बादल'साहब के इंतकाल के बाद माहिरे फ़न उस्ताद हज़रते 'रहबर ताबानी'साहब की शफ़क़्त हासिल हुई ।आपने मेरे लहजे और फ़न को निखारा।

शायरी मेरे नज़दीक इबादत का फ़न है, शायरी ज़िंदगी को पाकीज़गी बख़्शती है, शायरी मेरे जीने का मक़्सद है, मेरी ज़िंदगी का हिस्सा है। शायरी ज़िंदगी की रा'नाई है, शायरी आदमी को तहज़ीब सिखाती है, शायरी आसमानों से उतरती है और आलिम बनती है। शायरी तेज सूरज की रोशनी का गुज़र नहीं बल्कि नर्म चांदनी का जादू है।

मैं शायरी के दावेदारों की फ़ेहरिस्त में कहां पर हूं मैंने इस पर कभी और नहीं किया ना हाथ फैला कर शोहरत मांगने की कोशिश की मैंने अपनी हर ग़ज़ल को पिछली ग़ज़ल से बेहतर करने की कोशिश की है। मुझे 'मज़रूह सुल्तानपुरी', 'कैफ़ी आज़मी', 'ख़ुमार बाराबंकवी', 'बशीर बद्र', 'राहत इंदौरी', 'मुनव्वर राणा', 'गोपाल दास नीरज'जी जैसी कद्दावर शायरों के साथ मुशायरे पढ़ने का फ़क़्र हासिल है। मेरी ग़ज़लें आकाशवाणी जालंधर और लखनऊ एवम दूरदर्शन दिल्ली और जालंधर से प्रसारित हो चुकी हैं।

'टाइम्स पब्लिकेशन'होशियारपुर से सन 2022 में प्रकाशित"मंज़िलों से दूर"से किताब से पहले भी 'कशिश'साहब की किताब "एहसास की परतें" 1994 में छप कर मक़बूल हो चुकी है। 
आप 'टाइम्स पब्लिकेशन'से 9888033233 पर संपर्क कर इस किताब को मंगवा सकते हैं और 'कशिश'साहब को उनके फेसबुक पेज https://www.facebook.com/kashish.hoshiarpuri?mibextid=ZbWKwL पर अथवा उनके ईमेल kashishhoshiarpuri123gmail.com पर बधाई दे सकते हैं।

आप हर बात सलीक़े से कहें घर में भी 
आपकी बातों का बच्चों पे असर पड़ता है 

सारे इस फ़र्क को महसूस नहीं कर सकते 
चांदनी का जो सितारों पे असर पड़ता है
*
फ़ायलातुन फ़ायेलुन में लोग तो उलझे रहे
आपका ग़म आके मेरा शेर पूरा कर गया
*
चलो, उठो कि ज़माने के साथ-साथ चलें 
अब इस मक़ाम पे ख़तरा दिखाई देता है
*
तूने दुनिया को बनाया था मुहब्बत के लिए
तेरी दुनिया से मुहब्बत नहीं देखी जाती
*
हरे पहाड़ों की चोटियों पर झुके झुके ये सफ़ेद बादल 
नदी के तन पे हवा अज़ल से जो नाचती है वो शायरी है

ये बात मौजे-तरब से पूछो, यक़ीन कर लो या रब से पूछो 
कि ज़िंदगानी में हादसों की जो चाशनी है वो शायरी है
मौजे-तरब: ख़ुशी की लहर
*
उर्दू सीख के सबसे पहले 
मैंने तेरा नाम लिखा था
*
इश्क़ जो दे उसे क़ुबूल करें
दर्द हो, वस्ल हो, जुदाई हो



किताब मिली - शुक्रिया - 13


लखनऊ'में देश के कद्दावर उर्दू शायर के घर की बैठक है, जिसमें आए दिन देश-विदेश के नामवर शोअरा आते रहते हैं, गुफ़्तगू करते हैं, अपनी शायरी सुनाते हैं। इन शोअरा से मिलने और उन्हें सुनने वालों का हर वक्त मंजूर साहब के घर तांता लगा रहता है। इन सब मेहमानों की ख़िदमत में इस घर का जो बच्चा लगा हुआ है वो बड़ी हैरत से उर्दू शाइरी के इन बड़े सितारों को देखता है, सुनता है और सोचता है और कि वो भी बड़ा होकर इनके जैसा बनेगा। 

बात उर्दू के उस्ताद शायर जनाब 'मलिकजादा मंजूर अहमद'साहब के उस घर की हो रही है जहां उनके बेटे, हमारे आज के शाइर जनाब "मलिक जादा जावेद"साहब की परवरिश हुई। 'मंजूर'साहब ने 'जावेद'साहब को शायरी करने के लिए कभी नहीं उकसाया बल्कि ये कहा कि, बरखुरदार पहले पढ़ाई लिखाई करो, अपने पांव पर खड़े हो जाओ फिर कर लेना शायरी- वायरी। 'जावेद'साहब पढ़ते भी रहे और अपने अब्बा से छुप-छुप कर शायरी भी करने लगे जो। छुपछुपा कर मुशायरे भी पढ़ने लगे। ऐसे ही किसी मुशाइरे में लखनऊ के आला अफसर 'अनीस अंसारी'साहब ने भी उन्हें सुना और उनके बगावती तेवरों से बड़े मुत्तासिर हुए। उन्होंने ने 'जावेद'को बुलाया और पूछा कि बरखुरदार आप करते क्या हो, तो 'जावेद'साहब ने कहा कि उर्दू में पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद पीएचडी कर रहा हूं जिसमें तीन साल तो लग ही जाएंगे उसके बाद अल्लाह मालिक है। बात आई गई हो गई। 

एक दिन 'जावेद'साहब की पहचान के जनाब 'बशीर फ़ारुक़ी'साहब जो सचिवालय में काम करते थे, उन्हें ढूंढते हुए आए और कहा कि जावेद भाई आपको 'अंसारी साहब'ने याद किया है। 'अंसारी'साहब तब 'उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक वित्तीय विभाग'जो कि नया ही बनाया गया था के, एम.डी. बनाए गये थे। 'जावेद'साहब उनसे मिलने गए तो उन्होंने कहा, बरखुरदार सरकारी नौकरी करोगे? और उनका ज़वाब सुनने से पहले ही विभाग के जनरल मैनेजर'शर्मा जी'को बुला कर कहा कि ये नौजवान 'मलिकजादा जावेद'बहुत होशियार है और इससे पहले कि ये फ्रस्ट्रेशन का शिकार हो जाए इसे अपने विभाग में नौकरी दे दो। आनन-फानन में उन्हें नौकरी पर रख लिया गया। इस तरह 'जावेद'साहब को अपनी शायरी की बदौलत सरकारी नौकरी मिल गई।

बेतरतीबी ठीक नहीं
कमरे में अलमारी रख

सबको बांट के खे़मों में 
अपने घर सरदारी रख
*
सुखन में दस्तकारी बढ़ रही है
ग़ज़ल के कारखाने लग रहे हैं

ये दुनिया एक पल में ख़त्म होगी 
मगर इसमें ज़माने लग रहे हैं
*
ज़ुबां एजाज़ देकर काट लेगा
ये हाकिम कुछ अजब किरदार का है एजाज़: इनाम
*
बारिश का मौसम तो बीत गया लेकिन 
उजली दीवारों पर धब्बे उग आए 
*
ख़त लिखने को जी चाहे अल्फ़ाज़ बगैर
इतनी भी शिद्दत से तुम याद आना मत

देश के नामवर शायर जनाब 'बशीर बद्र'साहब 'मलिकजादा जावेद'साहब की शायरी के काइल थे।लखनऊ में नौकरी के साथ-साथ जावेद साहब मुशायरे तो पढ़ते थे लेकिन उन्हें उतनी शोहरत नहीं मिलती जिसके वो हकदार थे। सब जानते हैं कि एक बड़े दरख़्त के नीचे छोटे पौधों का पनपना मुश्किल होता है वही हाल 'जावेद'साहब का था। लखनऊ में लोग उनकी शायरी पे दाद तो देते लेकिन साथ ये भी कहते कि ये एक बहुत बड़े शायर का बेटा है अपने अब्बा जैसा तो कभी कह नहीं पाएगा। कभी किसी अच्छी शेर पर लोग ये भी कमेंट करते कि ये शेर इसने अपने अब्बा से लिखवा लिया होगा। 

ये सब देखकर एक बार 'जावेद'साहब ने 'बशीर बद्र'साहब से कहा कि वो उन्हें दिल्ली के डी.सी.एम. के मुशायरे में पढ़ने का मौका दिलवाएं। उस वक्त डी.सी.एम. का मुशायरा पढ़ने वाला शायर ही असली शायर समझा जाता था। 'बशीर बद्र'साहब की सिफ़ारिश पर 'जावेद'साहब को मुशायरे में बुलाया गया जिसकी निजामत 'मलिकजादा मंजूर'करने वाले थे। 'जावेद'साहब चाहते थे कि उनके उस मुशायरे में शिरकत की बात उनके अब्बा तक मुशायरा से पहले ना पहुंच पाए। ऐसा हुआ भी, 'मंजूर'साहब जिस ट्रेन से दिल्ली गए 'जावेद'साहब उस ट्रेन की बजाए दूसरी ट्रेन से दिल्ली पहुंचे और उनसे अलग होटल में रुके। मुशायरे की स्टेज पर सबसे छुपते-छुपाते आख़िरी सफ़ जा कर बैठ गए। जब शायरों की लिस्ट मंजूर साहब को निजामत से पहले सौंपी गई तो वो उसमें 'जावेद'साहब का नाम देखकर हैरान हुए और पलट कर पीछे देखा। 'जावेद'उन्हें बैठे दिखाई दिये। 'मंजूर'साहब ने मुशायरे का आगाज़ ये कह कर किया कि मैं सबसे पहले उस नौजवान को दावते-सुखन दे रहा हूं जो मेरा बेटा है लेकिन इसे यहां बुलाने में मेरा कोई हाथ नहीं है। इससे ज़्यादा इनका तार्रुफ़ इनकी शायरी ही आपको करवाएगी। 'जावेद'साहब माइक पर आए और अपनी तीन ग़ज़लें पढ़ी। मजे की बात ये हुई कि अगले दिन अख़बारों में जहां नामवर शायरों का एक एक ही शेर कोट किया गया वहीं 'जावेद'के तीन शेर कोट किए गए। उस दिन के बाद से 'जावेद'साहब शोहरत की बुलंदियां छूने की और बढ़ चले।

अब तो ख़त लिख कर ही होगी गुफ़्तगू 
फ़ोन पर करता है वो बातें बहुत
*
मौसम तक पैग़ाम ये लेकर जाए कौन
सूखे शजर पत्तों की चाहत करते हैं
*
एक भी तस्वीर एल्बम में नहीं
मेरी यादों का सफ़र है मुख़्तलिफ़
*
मैं भी पंजों पर खड़ा हो जाऊंगा 
हैसियत से वो अगर बढ़ कर मिले
*
सभी कमरों में घुस जाते हैं आकर
कहां होती है कोई बात घर में

नौकरी लगने के कुछ ही सालों बाद 'जावेद'साहब का लखनऊ से नोएडा ट्रांसफर हो गया और यहीं से 'जावेद'साहब को अपनी असली पहचान मिली। उन्होंने अपने पिता की रिवायती शैली से बिल्कुल अलग ग़ज़ल की शैली अपनाई। बड़े भाई समान'बशीर बद्र'साहब की इस सलाह को हमेशा याद रखा की "शायरी उस ज़बान में की जानी चाहिए जिसको समझने के लिए किसी को लुगत का सहारा ना लेना पड़े, यानी आम बोलचाल की सीधी सरल ज़बान।

उन्होंने ग़ज़लें न सिर्फ़ आम ज़बान में कहीं बल्कि उनमें सामाजिक सरोकारों को, इंसानी फितरत को, आम इंसान के सुख-दुख को बड़े दिलकश अंदाज में जोड़ा। 

"धूप में आईना"'जावेद'साहब का दूसरा ग़ज़ल संग्रह है, जिसमें उनकी 101 बेहतरीन ग़ज़लें शामिल हैं ।ये ग़ज़ल संग्रह 'आदम पब्लिशर्स'नई दिल्ली से 2005 में प्रकाशित हुआ था। इस ग़ज़ल संग्रह में ज्यादातर ग़ज़लें छोटी बहर में है और जैसा सब जानते हैं कि छोटी बहर में ग़ज़ल कहना बहुत हुनर का काम होता है। 'जावेद'हुनर इनमें सर चढ़कर बोलता है। इस संग्रह से पहले सन 1992 में उर्दू में उनका पहला ग़ज़ल संग्रह "खंडर में चिराग"छपकर मक़बूल हो चुका है। इस संग्रह को उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी ने पुरस्कृत भी किया था।

हाल ही में नोएडा से, रिटायर होकर, 'जावेद'साहब अब अपने लखनऊ के पुश्तैनी मकान में जाकर बस गए हैं। आप 'जावेद'साहब से उनके मोबाइल नंबर 9312439228 पर संपर्क कर इस किताब को प्राप्त करने का तरीका पूछ सकते हैं।

कहां तुम आ गए बैसाखियों की नगरी में 
यहां तो पांव से चलता नहीं है कोई भी
*
इल्म के मांझे से क्या हासिल 
लफ़्फ़ाज़ी की डोर बहुत है
*
इकट्ठा हो गए वो एक पल में 
मगर बच्चों की मांए लड़ रही हैं
*
खिड़की के बाहर मत झांक 
अपने घर के अंदर देख
*
मेरी गली के शिवाले में कीर्तन भी हो
तेरे पड़ोस की मस्जिद में भी अज़ान रहे 





किताब मिली - शुक्रिया -14


सच में,बहुत दुविधा पूर्ण स्थिति है साहब!!! दुविधा ये है कि क्या लिखूं ?जी हां मैं उस किताब पर क्या लिखूं जिस पर मुझसे अधिक समझदार लोग मुझसे पहले बहुत बेहतरीन लिख चुके हैं। मेरा मानना है कि जो कुछ लिखा जा चुका है जब आप उसे बेहतर या इतर नहीं लिख सकते तो आपको नहीं लिखना चाहिए।

फिर भी मैं क्यों लिख रहा हूं ? वो इसलिए कि ये जो दिल है न, ये कमबख़्त नहीं मान रहा। कह रहा है कि तू लिख और हम तो मुकेश जी के इस गाने के शुरू से मुरीद रहे हैं कि "दिल जो भी कहेगा मानेंगे, दुनिया में हमारा दिल ही तो है"इसलिए दिल की मान कर लिख रहे हैं। अब आप अपने दिल से पूछ लें कि आपको आगे पढ़ना है या नहीं। वैसे मुझे यक़ीन है कि आपका दिल मना नहीं करेगा यदि करना होता तो अब तक कर चुका होता और आप ये सब नहीं पढ़ रहे होते। है न ?

यह तो हुआ अनर्गल प्रलाप, अब मुद्दे पर आते हैं। मुद्दा है, हमसे ठीक एक साल एक महीने पहले याने, 14 सितंबर 1951 को मथुरा में पैदा हुए जनाब रवि खंडेलवाल साहब की पहली ग़ज़लों की किताब "तज कर चुप्पी हल्ला बोल"का। आप कहेंगे इसमें मुद्दा क्या है? मुद्दा वो है जो मैं ऊपर बयान कर चुका हूं यही कि इस किताब पर क्या लिखूं? पर लिखना है तो सोचा कि इस किताब में छपी शायरी पर तो आप इंटरनेट से बहुत आला विद्वानों द्वारा की गई समीक्षा में सब कुछ पढ़ ही लेंगे इसलिए  क्यों न मैं उस पर लिखूं जिसने इस अनूठी शायरी को इस किताब में पेश किया है याने इस किताब के शायर जनाब "रवि खंडेलवाल"साहब पर।
शायर और उसके संघर्ष को यदि आपने जान लिया तो समझिए कि आपने उसकी शायरी को भी जान लिया हालांकि इसमें अपवाद हो सकते हैं। कई बार शायर का चरित्र अपनी शायरी के विपरीत भी मिलता है लेकिन सौभाग्य से 'रवि खंडेलवाल'भाई अपवाद नहीं है क्योंकि वो खरे हैं और तप कर कुंदन बने हैं।

वो खा रहे हैं एकता की क़समें बारहा 
हाथों में जिनके अपने-अपने इश्तिहार हैं
*
कांच का मंदिर बना है 
और पत्थर पूजना है

आइज खुशियां मनाएं https 
आंख ने आंसू जना है
*
सर झुका कर ज़ुल्म सहना नहीं है ज़िंदगी
ज़िंदगी के तौर बदलो और हल्ला बोल दो
*
ये मध्यम वर्ग का जो आदमी दिखता है चमकीला 
मुझे मालूम है है कोट के पीछे नहीं अस्तर
*
ज़िंदगी एक ऐसी ग़ज़ल दोस्तो 
जिसमें सब कुछ मगर क़ाफ़िया ही नहीं

बात शुरू से शुरू करते हैं, याने मथुरा से। मथुरा में रवि खंडेलवाल जी के पिताजी का कारोबार था जो किन्हीं कारणों से कानपुर ले जाना पड़ा। उनके पिता स्वांत:सुखाय के लिए कविताएं लिखा करते थे। पिता को देख कर बालक रवि ने भी तुक बंदी शुरू कर दी। कानपुर के एक कवि सम्मेलन में रवि जी को उनके भाई साथ ले गए जहां उन्होंने पहली बार श्री गोपाल दास 'नीरज'जी को सुना। उस छोटी सी उम्र में वो 'नीरज'के दीवाने हो गए।

पिता के आकस्मिक देहावसान के बाद पूरा परिवार फिर से वापस मथुरा आ गया। आर्थिक स्थिति बिगड़ गई, संघर्ष का कठिन दौर शुरू हो गया, लेकिन इस सब के बावजूद रवि जी का कविता प्रेम कम होने की बजाय बढ़ता गया।

रवि जी ने ढूंढ ढूंढ कर नीरज जी की किताबें पड़ी और उन्हीं की तरह लिखने की कोशिश जारी रखी सौभाग्य से ग्रेजुएशन के दौरान उन्हें डॉक्टर वेद प्रकाश शर्मा 'अमिताभ'जैसे शिक्षक मिले जिनका पढ़ने का अंदाज निराला था। वेद जी बात-बात पर क्लास में किसी कवि की कविता या किसी शायर का शेर सुनाया करते थे। एक दिन एक शेर वेद प्रकाश जी ने क्लास में सुनाया जो रवि जी के दिल ओ दिमाग पर हमेशा के लिए चस्पां हो गया और वो उसकी गिरफ्तार से आज भी नहीं निकल पा रहे।शेर था:-

समझो न दागे चेचक इस नाज़नी के मुख पर 
देखा है आशिकों ने नज़रें गड़ा गड़ा कर

मुझे यक़ीन है कि आप में से शायद ही किसी ने ये शेर सुना होगा, यदि सुना है तो कमेंट बॉक्स में शायर का नाम बता दें बड़ी मेहरबानी होगी। इस एक शेर से रवि भाई शायरी की ओर बढ़ गए। ट्रांजिस्टर पर ग़ज़लें सुनने लगे और 

आपको देख के बेगौर भी अच्छा लगा 
गौर से देखा तो फिर और भी अच्छा लगा 

या फिर 

जब ख़्याल आया कि मैंने रात छत पर क्या किया 
सोच कर देखा तो पाया चांद को देखा किया 

जैसे शेर कहने लगे और उन्हें सुना सुना कर गोष्ठियों में दाद पाने लगे ।

जब सह सका ना ज़ुल्म तो आख़िर यही हुआ 
ज़ालिम के ज़ोर-ज़ुल्म से टकरा गया हूं मैं
*
बुराई अगर आप देखेंगे मुझ में 
दिखेगी सदा ही बुराई-बुराई
*
ग़लती तो आखिर ग़लती है चाहे जिसकी हो 
फ़र्क नहीं पड़ता किसने कम-ज्यादा ग़लत कहा
*
बुत बनके रह गया क़सम से आम आदमी 
देखा है दोनों हाथ से मैंने झिंझोड़ कर 

सुखी तलाश में 'रवि'निकला था घर से मैं 
दुनिया खंगाल डाली मैंने, ख़ुद को छोड़कर

साहित्यिक के अलावा मथुरा में वो रंगमंच से भी जुड़ गये। उन दिनों स्वर्गीय श्री अमृतलाल नागर जी की सुपुत्री डॉ अचला नागर 'स्वास्तिक'नाट्यसंस्था के अंतर्गत नाटकों का मंचन किया करती थीं। रवि खंडेलवाल जी उनके साथ जुड़ कर नाटकों में अभिनय करने लगे और अपनी अभिनय क्षमता का लोहा उन्होंने 'खामोश अदालत जारी है', 'सिंहासन खाली है'तथा 'गांधी जी की बकरी'जैसे नाटकों में अभिनय कर मनवाया। उनके साथ के अभिनेता बृजेंद्र काला आज नाट्य और सिने जगत के प्रसिद्ध कलाकारों में से एक हैं।

किसी का जीवन एक गति से नहीं चलता, रवि जी भी अपवाद नहीं थे। मथुरा में जो कारोबार ठीक ठाक चल रहा था वो अपरिहार्य कारणों से डांवाडोल हो गया। आय के विकल्प जब मथुरा में नहीं दिखे तो उन्होंने इंदौर जाना तय किया वहां उनकी ससुराल भी है। इंदौर में व्यापार ज़माने में वक्त लगता इसलिए नौकरी का विकल्प सूझा और वो इंदौर की 'फैरों कंक्रीट कंस्ट्रक्शन कम्पनी'में काम करने लगे। ये सन 1993 की बात है। अपनी लगन और मेहनत के चलते अब वो इस कंपनी में महाप्रबंधक के पद पर कार्यरत हैं और आज भी उसी ऊर्जा से काम कर रहे जिस ऊर्जा से वो सन् 1993 में किया करते थे। 

1993 से 2013 यानी 20 साल वो नौकरी में इस कदर व्यस्त रहे कि साहित्य एक कोने में धरा रह गया। उन्हें लगने लगा कि उनके अंदर की साहित्यिक प्रतिभा धीरे-धीरे मर रही है। लेकिन ऐसी बात नहीं थी। वो प्रतिभा अंदर ही अंदर प्रगाढ़ हो रही थी ।

सन 2013 में रवि खंडेलवाल फेसबुक से जुड़े और फिर एक विस्फोट हुआ। फेसबुक के माध्यम से वो अपने उन साहित्यिक मित्रों से जुड़े जो कहीं पीछे छूट गए थे। मित्रों ने उन्हें फिर से साहित्य की धारा में बहने को प्रेरित किया।

2013 से अब तक उनका लेखन अबाध गति से चल रहा है। फेसबुक और स्थानीय गोष्ठियों में उनकी रचनाएं चर्चित होने लगीं। उनकी कलम साहित्य की सभी प्रचलित विधाओं में जैसे गीत, नवगीत, दोहे, समकालीन कविताएं और ग़ज़ल आदि पर सफलतापूर्वक चलने लगी। सन 2022- 23 में उनकी तीन पुस्तकें 'उजास की एक किरण'जिसमें समकालीन कविताएं हैं, 'मौत का उत्सव'जिसमें कोरोना कल की त्रासदी पर लिखी कविताएं हैं और 'तज कर चुप्पी हल्ला बोल'ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुईं।

रवि जी के आकाशवाणी से कई एकल काव्य पाठ हो चुके हैं। इनके बहुत से काव्यात्मक संगीत रूपकों एवं लगभग 100 गीतों का विभिन्न गायको द्वारा समय-समय पर संगीत बद्ध प्रसारण हुआ है।

युवाओं को मात देने वाली ऊर्जा वाले रवि जी की 9 पुस्तकें, जिनमें तीन ग़ज़ल संग्रह, तीन कविता संग्रह दो नवगीत संग्रह और एक दोहा संग्रह है, प्रकाशनाधीन है। अंतर्जाल और पत्र पत्रिकाओं में छपी उनकी विभिन्न रचनाओं का ज़िक्र किसी एक पोस्ट में करना असंभव है।

यहां इस बात का उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि रवि जी ने ब्रजभाषा में भी ग़ज़ले कही हैं। बृज ग़ज़लो को लोकप्रिय बनाने में 'नवीन चतुर्वेदी'भाई के योगदान की जितनी प्रशंसा की जाए कम है।ब्रज ग़ज़लों की भाषा में वो मिठास है जो मधुमक्खी के छत्ते से टपकते शहद में होती है।

निर्वसन लगने लगी है आत्मा जब से 
संस्कारों ने हैं पहने वस्त्र झीने से
*
मौन धारण कर नहीं कुछ भी तुझे मिल पाएगा 
है अगरचे चाहिए हक़ रार कर, तकरार कर
*
आदमी को और ना, बदनाम कर ऐ आदमी 
आदमी बनकर ही रहना, आदमी के वेश में
*
फूल ऐसा भी 'रवि'किस काम का 
आप फ़ेंके और पत्थर सा लगे
*
क्या आम आदमी इसी को बोलते हैं हम
आंखें खुशी में और जिसकी ग़म में भी है नम

रवि जी के इस पहले संग्रह की ग़ज़लें दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी की परम्परा की तो हैं ही साथ ही इनमें गिरते मानवीय मूल्यों के प्रति आक्रोश के अलावा सामाजिक सरोकार की बातें भी हैं। अलग से तेवर वाली ये ग़ज़लें पाठक को सोचने पर मजबूर करती हैं।
'तज कर चुप्पी हल्ला बोल'की ग़ज़लों के लिए आप विलक्षण प्रतिभा के धनी रवि खंडेलवाल जी को उनके मोबाइल नंबर 7697900225 पर बधाई दे सकते हैं और श्वेत वर्णा प्रकाशन से प्रकाशित इस अद्भुत किताब को 84475 40078 पर फोन कर मंगवा सकते हैं।







किताब मिली - शुक्रिया - 15

लगभग तीन-चार साल पुरानी बात होगी, शाम का समय था जब अमेरिका से श्री अनूप भार्गव जी का फोन आया। अनूप जी बिट्स पिलानी से केमिकल इंजीनियरिंग और आईआईटी दिल्ली से सिस्टम एवं मैनेजमेंट का कोर्स किए हुए हैं और वर्षों से अमेरिका में रह रहे हैं। प्रतिभाशाली अनूप जी का साहित्य प्रेम विशेष रूप से हिंदी के प्रति अनुकरणीय है। विदेश में रह कर जिस तरह उन्होंने हिंदी की सेवा की है उसकी दूसरी कोई मिसाल नहीं मिलती। हम दोनों एक दूसरे को उस समय से जानते हैं जब इंटरनेट पर ब्लॉग लेखन बहुत लोकप्रिय हुआ करता था।

अनूप जी की इच्छा थी कि एक ऑनलाइन ग़ज़ल की पाठशाला आरंभ की जाए जिससे देश विदेश के ग़ज़ल सीखने वाले जुड़कर ग़ज़ल कहना सीख सकें। उन्होंने मुझसे इस काम को अंजाम देने में मदद करने को कहा। विचार उत्तम था लेकिन ग़ज़ल कहने और सिखाने में ज़मीन आसमान का अंतर होता है। ग़ज़ल का व्याकरण अपने आप में एक वृहद विषय है।मुझे अपनी सीमाएं पता थीं इसलिए अपने बचाव में मैंने कुछ उस्तादों के नाम उनको सुझाए जो इस काम को बहुत अच्छे से अंजाम दे सकते थे। उस्तादों से उन्होंने संपर्क किया तो कुछ ने साफ ही ना किया कुछ ने नुकुर, किसी ने कहा देखते हैं तो किसी ने कहा सोचते हैं। यानी एक-एक करके सब के सब उस्ताद पतली गली से निकल लिए।

अनूप जी ने कहा कि आप शुरुआत तो करो मैं और लोगों को भी आपके साथ जोड़ने का प्रयास करता हूं भला हो अनूप जी का जिन्होंने इस कार्य में मेरे साथ एक ऐसे शख़्स को जोड़ा जिनका ग़ज़ल व्याकरण का ज्ञान मुझसे कई गुना बढ़कर था। वो शख़्स थे हमारे आज के शायर, एक बेहतरीन इंसान, जनाब "अनिल कुलश्रेष्ठ"साहब।
अनिल जी ने ग़ज़ल के व्याकरण को जिस धैर्य,सरलता और अंदाज से ग्रुप में सीखने वालों को सिखाया और आज भी सिखा रहे हैं, उसकी प्रशंसा के लिए मेरे पास शब्द नहीं है।

उनकी ग़ज़लों की दूसरी किताब "नक्श-ए- पा रह जाएगा"मेरे सामने है।

हासिले जम्हूरियत तो ये भी है अपने यहां
खूब तलवारे खिचेंगी मुद्दआ रह जाएगा

रोज ताला बंद करके जाने वाले जान ले
घर तो क्या ये हाथ आंखें, सब खुला रह जाएगा
*
पिछली जो कमाई थी अब तक वो गंवा बैठे 
आगे के सफ़र को भी कुछ दाम कमाने हैं
*
हर सुबह की दोपहर फिर शाम होगी 
मत कहो इसको कि सूरज ढल रहा है
*
वक्त की मरहम का बेशक काम उम्दा है मगर 
घाव भरना था भरा लेकिन निशान बनता गया

गजल की सैकड़ो बेहतरीन किताबें बाजार में उपलब्ध हैं तो फिर अनिल जी किस किताब में ऐसा क्या अलग है जो और किताबों में नहीं है? चलिए इस विषय में अनिल जी के ही शब्दों से आपको बताते हैं, वो लिखते हैं कि:
"मेरी यह किताब एक मायने में लीक से बिल्कुल अलग है। कोशिश है कि इसके केंद्र में सामान्य पाठकगण हों इसलिए प्रस्तुत किताब में मैंने हर ग़ज़ल के साथ ही मिसरे का वज़्न भी लिखा है। इसका मक़सद ही ये है कि जो पाठक ग़ज़ल की बहर को न पकड़ पा रहे हो उन्हें आसानी हो। मैंने बहर के साथ साथ ग़ज़ल के अरकान भी लिख दिए हैं"

इसके चलते ग़ज़ल सीखने वालों के लिए ये किताब बहुत उपयोगी है। इसे पढ़कर उन्हें बहरों का ज्ञान तो हो ही जाएगा साथ में ये भी समझना आसान हो जाएगा कि वज़्न कहां कैसे गिराया जा सकता है। जिन्हें व्याकरण का ज्ञान है वो इस किताब की ग़ज़लों में पिरोए भाव से आनंदित होंगे। कहने का मतलब ये है कि इस किताब को ग़ज़ल सिखाने वाले और ग़ज़ल सीख चुके दोनों ही पाठक पसंद करेंगे।

15 नवंबर 1953 को जन्मे अनिल जी पेशे से बैंकर रहे हैं और भारतीय स्टेट बैंक के मुख्य प्रबंधक के पद से रिटायर होकर आजकल ग़ज़ल लेखन और ग़ज़ल प्रशिक्षण में व्यस्त रहते हैं। जिस लगन और मेहनत से वो ग़ज़ल सीखने वालों को ग़ज़ल की बारीकियां और सुझाव देते हैं उसकी तारीफ़ शब्दों में संभव नहीं।
जिस ग्रुप को अनूप जी ने आरंभ किया था उसके सदस्य अनिल जी के मार्गदर्शन में बेहतरीन ग़ज़लें कह रहे हैं ।एक साल के अंतराल में ही उन सदस्यों की ग़ज़लों का एक साझा संकलन "आग़ाज़"मंज़र ऐ आम पर आना किसी उपलब्धि से कम नहीं।

रोशनी जिसने अता की है शमा को इतनी 
वोही भरता है जुनूं इश्क़ का परवाने में
*
तीरगी चांद पर पड़े भारी 
उस पहले ही तू सहर कर दे
*
जां बचाकर भागता जो चाक के चक्कर से वो
ढेर मिट्टी का कभी बढ़कर घड़ा होता नहीं
*
न कोई इब्तदा मेरी न कोई इंतिहा मेरी 
मुसलसल जो चलेगा उस सफ़र का सिलसिला हूं मैं
*
कुछ तो उसमें कमी यक़ीनन है 
जो बुरे को बुरा नहीं कहता

कभी नोएडा तो कभी सिंगापुर में निवास करने वाली अनिल जी को छात्र जीवन से ही कविताएं लिखने का शौक रहा जो धीरे-धीरे ग़ज़लों तक आ पहुंचा। इस विधा में पारंगत होने के बावजूद भी वो अपने आप को अभी भी ग़ज़ल का एक विद्यार्थी ही मानते हैं। जहां आजकल एक मिसरा लिखकर लोग खुद को उस्ताद समझने लगते हैं वहीं अनिल जी जैसे अपवाद भी हैं जो स्वयं को हमेशा ग़ज़ल का विद्यार्थी ही समझते हैं। हम ये भूल जाते हैं कि सीखना एक सतत क्रिया है जो जीवन भर पूरी नहीं होती।

कभी पत्नी "अनुपम"ही उनकी रचनाओं की प्रथम श्रोता हुआ करती थीं। उनकी असामयिक मृत्यु के बाद 'अनिल जी'ने अपना ये ग़ज़ल संग्रह उन्हीं को इस शेर के साथ समर्पित किया है :

मिसरे मेरे, ग़ज़लें मेरी, पर पूरा दीवान तेरा 
पन्ना पन्ना चेहरा तेरा, अक्षर अक्षर आंख तेरी

पर्यटन के शौकीन रहे अनिल जी ने देश-विदेश के अनेक दौरे किए हैं अब उन्होंने अपनी अधिकतर यात्राएं नोएडा और सिंगापुर तक ही सीमित कर ली हैं।

आप उन्हें इस संग्रह के लिए 9999781298 पर बात कर बधाई दे सकते हैं अथवा 9897066711 पर वाट्सएप पर जुड़ सकते हैं। इस किताब की प्राप्ति के लिए आपको जिज्ञासा प्रकाशन गाज़ियाबाद से 9958426855 पर संपर्क करना होगा।

पुरानी एक चिट्ठी है कभी भेजी थी बेटे ने 
मैं जितनी बार पढ़ता हूं अधूरी छूट जाती है
*
हर्फ़ ढाई हैं इश्क़ में लेकिन 
इससे गहरी कोई किताब नहीं
*
सारी बातें न मानिए सबकी
कुछ तो बाकी अगर मगर रखिए

ज़िन्दगी भी ग़ज़ल के जैसी है
सारे मिसरों को बा-बहर रखिए
*
खुद को बदल सके ना जमाने के साथ जो
वालिद वो कह रहे हैं कि बच्चे बदल गए
*
सांस, आंखें और जुबां भी बंद हो जाएंगे जब
अपनी ग़ज़लों से ही शायर बोलता रह जाएगा






किताब मिली - शुक्रिया -16


लगाया था किसी ने आंख से काजल छुटाकर जो 
मेरे बचपन के अल्बम में वो टीका मुस्कुराता है 

दिया था उनको हामिद ने कभी लाकर जो मेले से 
अमीना की रसोई में वो चिमटा मुस्कुराता है 

किताबों से निकलकर तितलियां ग़ज़लें सुनाती हैं 
टिफिन रखती है मेरी मां तो बस्ता मुस्कुराता है
*
मुझे रदीफ़ बनानी पड़ी उदासी की 
कि काफ़ियों से तो बनना था क्या उदासी का
*
किसी के हाथ में सिक्के कभी नहीं डाले 
जो हाथ ख़ाली थे उनको कुदाल दी मैंने
*
निहारता रहा दरिया वो देर तक बैठा 
फिर उसके बाद उठा और उसी में डूब गया
*
एलान फ़त्ह का न अभी से करें रक़ीब 
ज़ख़्मी हुआ हूं क़ब्र के अंदर नहीं हूं मैं

ये शेर जो आपने अभी पढ़े हमारे आज के शायर की उस किताब से नहीं है जिसकी बात हम करने वाले हैं। अब आप पूंछेंगे ही तो फिर किस किताब से हैं? बताते हैं, ये हमारे आज के शायर की पहली किताब "क्या तुम्हें याद कुछ नहीं आता"से हैं जो 2021 में 'एनी बुक्स'इंदौर से छपी थी और मक़बूल हुई थी। इससे पहले कि आप पूछें हम बता देते हैं कि इन शेरों को पढ़वाने का मक़सद आपको सिर्फ़ युवा शायर 'सिराज़ फ़ैसल ख़ान'की शायरी की बानगी देने का था। 

अपनी पहली किताब से ही हमारे आज की युवा शायर ने अपनी कलम का लोहा मनवा लिया था। जिस युवा शायर को 'मयंक अवस्थी'और 'सर्वत जमाल'जैसे कद्दावर शायरों का मार्गदर्शन मिला हो उसकी शायरी तो पुख़्ता होनी ही है।

हमारे सामने 'सिराज फ़ैसल ख़ान'साहब की दूसरी किताब "चांद बैठा हुआ है पहलू में"खुली हुई है। ये किताब हाल ही में याने इसी साल One Align Publication - Delhi से प्रकाशित हो कर मंजर ए आम पर आई है और धूम मचा रही है। इस किताब को आप अमेज़न से ऑन लाइन मंगवा सकते हैं या प्रकाशक को उनके मोबाइल नंबर 6264443917 पर फोन कर मंगवा सकते हैं।

रात हर कोई बिता लेगा मगर उम्र नहीं 
उसको ये बात समझ आई मगर मेरे बाद
*
मानता हूं नहीं मिली मंज़िल 
दाद दीजे कि चल रहा हूं मैं 
*
ग़ज़ल के फूल अपनी डायरी में टांक देता हूं 
किसी की गोद में बच्चा कोई जब मुस्कुराता है
*
क्यों मरें अश्क बहते हुए हम सहरा में 
आइए पेड़ लगाते हुए मर जाते हैं
*
न जाने उसको सिखाया है किस रक़ीब ने ये 
कि हो ख़फ़ा तो बुके में गुलाब कम कर दे

शहीदों के नगर 'शाहजहांपुर'के गांव 'महानंदपुर'में 10 जुलाई 1991 को 'सिराज'का जन्म हुआ। 'सिराज'अपने पुराने दिनों को याद करते हुए लिखते हैं कि "ना तो घर ना ही गांव में शायरी पढ़ने लिखने का कोई माहौल था और ना ही कहीं साहित्यिक किताबें मिलती थीं। कोर्स की हिंदी की किताबों के अलावा साहित्य पढ़ने के लिए उस वक्त कुछ भी नहीं होता था। ये वो दौर था जब गांव में अख़बार भी नहीं पहुंचते थे। वालिद साहब तहसील में 'संग्रह अमीन'के पद पर कार्यरत थे और वो इतवार का 'अमर उजाला'सोमवार को घर लाया करते थे। साहित्य से मेरा परिचय इस इतवार की अख़बार से हुआ था क्योंकि उस दिन उसमें कहानियां, कविताएं और ग़ज़लें प्रकाशित होती थीं। मैं उन्हें काटकर एक फाइल में रख लेता था। कोर्स की किताबों में मेरी सबसे पसंदीदा किताब हिंदी की होती थी और मैं अपने से बड़े बच्चों की भी हिंदी की किताबें घर लाकर पढ़ा करता था।"

सिराज आगे लिखते हैं की "पांचवी क्लास के बाद मैं शाहजहांपुर चला गया और इस्लामिया इंटर कॉलेज में दाखिला ले लिया यहां मुझे मोइनुद्दीन आजाद मिले जिनकी दिलचस्पी साहित्य में थी। हमने साथ मिलकर बहुत सी किताबें खरीदी।"
साहित्य में उनकी रुचि इस क़दर बढ़ती चली गई की हाई स्कूल में आते-आते उन्होंने अपने हॉस्टल की सीनियर साथियों की भी और एम.ए की अंग्रेजी किताबों तक में शामिल सभी कहानियां, कविताएं गाइड की मदद से पढ़ डालीं।

राहत इंदौरी साहब की किताब 'चांद पागल है'पढ़ने के बाद सब कुछ बदल गया। जैसे बारूद के ढेर में कोई चिंगारी गिरे, ठीक इसी तरह राहत साहब की शायरी ने सिराज की मन को छुआ। वो अपने दोस्तों और सहपाठियों को राहत साहब के शेर सुनाया करते थे। उन दिनों उनकी कॉपियां पर नोट्स कम और राहत साहब के शेर ज्यादा लिखे मिलते थे।

आज ढीला था बाजुओं में वो 
इब्तिदा है ये क्या जुदाई की 
*
उतर जाता है कुछ नोटों पे सब कुछ 
तवायफ़ की अदा क़ानून में है 

वतन दुनिया मैं रुसवा हो रहा है 
रिआया धर्म की पतलून में है
*
अगर मतलब है केवल जीत से तो 
करो पीछे से उस पर वार अब के 

बहुत महंगा पड़ेगा ख़ूं बहाना 
कि हैं मज़लूम भी तैयार अब के 
*
फिर कोयले सुलग उठे उसके ख़्याल के 
फिर आज मैं घुटन में बहुत देर तक रहा
*
जाने कब के मर गए होते बिछड़ कर उससे हम 
'मीर'के शेरों ने जीने के वसीले कर दिए

सिराज अपनी इस किताब की भूमिका में आगे लिखते हैं कि "मैं अपने आसपास जो घटित होते देखता था या अखबारों में पढ़ता था वो मेरी शायरी का हिस्सा बनता चला गया। इसके चलते अक्सर मुझे कई लोगों के मैसेज मिला करते थे कि मैं जो लिख रहा हूं वह ग़ज़ल नहीं है बल्कि ग़ज़ल की रवायत से खिलवाड़ है। कई बार इस तरह के मैसेज मुझे डिमोटिवेट भी करते थे लेकिन मैं खुशनसीब रहा कि मुझे "मयंक अवस्थी"भाई और "सर्वत जमाल"साहब का साथ और मार्गदर्शन मिला जिन्होंने मेरी रचनात्मकता को किसी दायरे में सीमित नहीं किया और ना ही हिंदी उर्दू ग़ज़ल के बंटवारे में उलझने दिया।"

उर्दू के मशहूर शायर जनाब "हसीब सोज़"साहब लिखते हैं की "नई नस्ल के शायरों की एक लंबी फेहरिस्त है मगर कभी-कभी कोई नाम इस तरह चौंकाता है कि मजबूरन पन्ने पलटना पढ़ते हैं। 'सिराज फ़ैसल ख़ान'उन्हीं शायरों में शामिल हैं जिनके लिए पन्ने पलटना पढ़ते हैं।"

अपनी तरह के अकेले लाज़वाब शायर जनाब 'मयंक अवस्थी'साहब ने इस किताब की भूमिका में लिखा है की "जिस तरह एक फूल सिर्फ पंखुड़ियां और खुशबू का जोड़ नहीं है बल्कि उससे अधिक है ठीक उसी तरह ग़ज़ल के शेर के दो मिसरों के बीच अगर शायर खुद मौजूद नहीं है तो उसकी शायरी भावानुवाद से अधिक कुछ नहीं होती और मुझे फ़ख़्र है कि सिराज अपनी शायरी में अपने इब्तिदाई दौर से ही मौजूद था। मुकम्मल मिसरों की टहनियां, पत्ते पत्ते, बूटे बूटे में मिज़ाज का तसलसुल,जदीदियत की कोंपलें ,सड़क पर चलने वाले लफ़्ज़ों को ऐशो इशरत की छांव अता करना अपने अशआर में और पूरी ग़ज़ल में शेरियत की फ़ज़ा क़ायम रखने के हुनर ने सिराज को बेहद खूबसूरत शायरी का दरख़्त बना दिया है।

सिराज खूबसूरत शायरी ही नहीं करते बल्कि बेखौफ हो कर ऐसे तमाम लोगों को गरियाते भी हैं जो इंसानियत के दुश्मन हैं। मुहब्बत में यकीन रखने वाले युवा सिराज फेसबुक के अपने चाहने वालों के ही नहीं बल्कि इस दौर के कद्दावर शायरों के भी चहेते हैं।
"चांद बैठा हुआ है पहलू में"से पहले उनकी नज़्मों की किताब 'परफ्यूम'बहुत चर्चित हो चुकी है।
'सिराज'जी को आप उनकी बेहतरीन ग़ज़लों के लिए 
+91 76686 66278 पर फोन कर मुबारकबाद दे सकते हैं।

इसका नहीं मलाल उन्हें ख़ुद ना उठ सके 
उनको ख़ुशी ये है कि मुझे भी गिरा दिया 

ये डर भी इब्तिदा से मोहब्बत में साथ है 
इक रोज़ तुम कहोगी मुझे तुमने क्या दिया
*
पहले पहल तो सबने दिखाई बड़ी ही फ़िक्र 
कुछ दिन में ऊब हर कोई बीमार से गया 
*
बात तो कोई बची नहीं है कहने को 
फिर भी दोनों फ़ोन लगाए बैठे हैं
*
जो शख़्स अंजुमन में हुआ ही नहीं शरीक 
वो शख़्स अंजुमन में बहुत देर तक रहा






किताब मिली - शुक्रिया - 17


ऐसे तन मन पावन रखना 
दिल में ही वृंदावन रखना 

ठगिनी माया दाग लगाती 
उजाला अपना दामन रखना
*
किसी को भी कभी कमतर न आंकें आज ये कह दो 
समुंदर सूख जाता गर उसे दरिया नहीं मिलता
*
सुकूं पाया उसे यूं याद करने में 
थके पंछी के रस्ते में शजर आया
*
कुर्सी की अदला-बदली है 
लेकिन कहां निशाने बदले 

खेल वही है चौसर का ये 
गोटी के बस खाने बदले
*
मकां बन के रह जाए कभी ये 
अभी हम सब जिस घर बोलते हैं

इसमें कोई संदेह नहीं कि आप तीर्थराज 'पुष्कर'के बारे में जरुर जानते होंगे। वो, राजस्थान के अजमेर शहर के पास एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है, लेकिन मुझे इस बात पर जरूर संदेह है कि आप 'पुरातत्व के पुष्कर'के बारे में भी जानकारी रखते हों। 'गणेश्वर धाम'को 'पुरातत्व का पुष्कर'कहा जाता है। गणेश्वर से ताम्र युगीन संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। यहां की खानों से तांबा लगभग 2800 ईसा पूर्व से याने आज से कोई 4800 वर्ष पूर्व,निकाला जाता रहा है।। यह भी निष्कर्ष निकाला गया है कि हड़प्पा, मोहनजोदड़ो तथा कालीबंगा जैसे विकसित सांस्कृतिक केन्द्रों को भी ताम्र एवं ताम्र सामग्री गणेश्वर से ही प्राप्त होती थी।

आप सोच रहे होंगे कि मैं अचानक गणेश्वर की चर्चा क्यों कर रहा हूं। दरअसल 'गणेश्वर'राजस्थान के 'नीम का थाना'जिले में आता है, हमारे आज के शायर श्री 'राजेन्द्र कुमार टेलर 'राही'भी 'नीम का थाना'के ही निवासी हैं। 'राही'जी का रचनात्मक काम ऐसा है जिसे तांबे की तरह कभी जंग नहीं लगेगा।
राजेंद्र जी का ताजा ग़ज़ल संग्रह 'ये ज़िन्दगी का सफ़र'हमारे सामने है जिसे 2024 में रवीना प्रकाशन, दिल्ली ने प्रकाशित किया है।

राजेंद्र जी की ग़ज़लों का मयार तो उनकी इस किताब से लिए गए चंद अशआर पढ़ कर आप को लग ही जाएगा। उनकी ग़ज़लों का कैनवस विशाल है और ये ग़ज़लें मेरी प्रशंसा की मोहताज नहीं हैं।

ये है मजबूरियां उसकी सियासत में 
जो दीवारें गिराओगे उठा देगा
*
हैं रिश्ते फीके फीके से 
तू लफ़्ज़ों में गुड़़धानी लिख 

इस दुनिया की दुनिया जाने 
ढाई आखर के मानी लिख
*
अब जाने क्यों झगड़े होते हैं इन पर 
मनते आए सब त्यौंहार बराबर 

जनहित के मुद्दों पर कब तक जागेंगे 
यूं पढ़ते हैं सब अख़बार बराबर
*
वो डरता ही नहीं जितना उछालो तुम 
वो बच्चे का यूं अम्मी पे यकीं हूं मैं

कभी मंदिर में ढूंढे औ कभी मस्जिद 
बदन तेरा मकां है औ मकीं हूं मैं
*
जब सही को भी सही कहना हो मुश्किल 
बेबसी ऐसी न देना रब किसी को 

आइए राजेन्द्र जी के बारे में उन्हीं की जबानी जानते हैं। वो लिखते हैं कि :
'ग्रामीण परिवेश में बचपन बीता है। वहां से सादगी, सरलता, अपनापन, श्रमशीलता, सहकार, उदारता, सदाशयता जैसे विचार ग्रहण किये।जो बेचैनी, अंतर्वेदना दिल में महसूस की उसका असर लेखन पर रहा है। ग्रेजुएशन के बाद एम ए के लिए जयपुर आ गया। राजस्थान विश्वविद्यालय से एम ए करना वाक़ई अविस्मरणीय अनुभव रहा।

आदरणीय विश्वम्भरनाथ उपाध्याय सुरेंद्र उपाध्याय जैसे उदभट विद्वान कभी कोई भी नहीं भूल सकता।
बाद में शीघ्र ही राजस्थान लोक सेवा आयोग ने लेक्चरर बना दिया।करीब 22 बरस हिंदी साहित्य पढ़ाया।प्रिंसीपल का दायित्व दिया गया।वहां भी बच्चों के मन पढ़ने का अवसर मिला।

जाने कब लिखने का मन हुआ और एक बार शुरुआत हुई तो अब तक जारी है।खूब लिखा। कविताएं, बच्चों के गीत, लम्बी कविताएं, दोहे, कुण्डलिया, भर्तृहरि के नीति शतक का भावानुवाद भी किया है।

बच्चों के गीत की दो किताबें हैं।उनका अच्छा स्वागत हुआ।मगर मन है कि ग़ज़लों की तरफ बार बार जाता है।ग़ज़लें लिखकर एक खास सुकून मिलता है।

ग़ज़ल की संक्षिप्तता, सांकेतिकता विषय वैविध्य, चौंकाने की प्रवृत्ति, सब उसे लोकप्रिय बनाते हैं। कुछ कहना कुछ छुपाना ग़ज़ल की खासियत रहती है। शेर की दो लाइनों के बीच भी बहुत कुछ ऐसा रहता है जो कहा नहीं गया मगर पाठक महसूस करता है।

अच्छी शायरी वो है जब पाठक पढ़ने के बाद देर तक उसी भावभूमि में में विचरण करे।या कहें कि जेहन में शेर गूंजता रहे।'

ये तेरा प्यार मिसरी के जैसा रहा 
घुल गया है मगर जायक़ा रह गया 

वो नगर थे जो आगे निकलते गए 
मैं रहा गांव जो ताकता रह गया
*
सफ़र इस ज़िंदगी का तुम जरा यूं भी समझ लेना 
बड़ा गहरा है दरिया औ तेरी कश्ती पुरानी है
*
टूट पड़ती है हवा अक्सर पुराने पेड़ पर 
इस ज़माने में जिधर देखो यही किस्सा मिला 
*
ग़ज़ल सी जिंदगी पहले से तय है औ मुकम्मल है 
ये हम नादान हैं जो ख़ामख़ा इस्लाह करते हैं
*
ज़रा पढ़ के कभी यूं छोड़ देना भी अखरता है 
ज़माने में बुजुर्गों का भी बस अखबार हो जाना
*
हवा ने गुफ्तगू की है गुलों से यूं 
है खुशबू को तो आदत ही बिखरने की

[9/24, 6:34 PM] Neeraj: जुलाई 1964 में जन्मे राजेंद्र कुमार टेलर 'राही'जी के साथी श्री 'हितेश व्यास'जी इस पुस्तक के बारे में लिखते हैं कि:
 'राही जी की ग़ज़लों में वर्तमान की नब्ज पकड़ते हुए झूठ का बोलबाला, जड़ों की अनदेखी, नकलियत की बहुतायत, मोबाइल का शिकार बच्चे और उनका बचपन, सब कुछ हड़पने की दिली ख्वाहिश, बाहरी आकर्षण, आत्म केंद्रितता, कमाऊ की हक़ीक़त, वृद्धो की उपेक्षा और अकेलापन आदि खूबसूरती से रेखांकित हुए हैं।'

वर्तमान ग़ज़ल संग्रह से पूर्व राही जी की निम्न कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं , 'अहसास' , 'ये खुशबू का सफ़र' , 'ये दस्तक दिल के दर पर',( सभी ग़ज़ल संग्रह), ये लम्हों का सफ़र (गीत एवं ग़ज़ल संग्रह), 'वक्त की दहलीज पर' (लंबी कविताओं का संग्रह), भर्तृहरि मंजरी (भावानुवाद), 'बच्चों के गीत'भाग एक एवं दो।
इसके अतिरिक्त राही जी की ग़ज़लों को भारत के अनेक राज्यों से प्रकाशित पत्रिकाओं में विशेष स्थान मिला है।उनका एक और ग़ज़ल संग्रह शीघ्र ही प्रकाशन के लिए तैयार है।

इतना कुछ लिख लेने के बावजूद भी 'राही'जी अपने आप को ग़ज़ल का विद्यार्थी ही मानते हैं और लगातार कुछ नया सीखने की कोशिश में लगे रहते हैं।

'ये जिंदगी का सफ़र'ग़ज़ल संग्रह जिसमें राही जी की 69 ग़ज़लें शामिल हैं, पढ़ने के इच्छुक पाठक इस किताब को 'अमेजॉन'से ऑनलाइन मंगवा सकते हैं। आप 'राही'जी को मुबारकबाद देने के लिए आप उनसे 9680183886 पर संपर्क कर सकते हैं।





किताब मिली -शुक्रिया -18


घर जब धीरे-धीरे मरने लगते हैं 
दीवारों पर अक्स उभरने लगते हैं 
*
मिली है अहमियत सांपों को इतनी 
सपेरा विष उगलना चाहता है 
*
सिर्फ हंस कर नहीं दिखाओ मुझे 
जी रहे हो यकीं दिलाओ मुझे 
*
दरिया अपनी गहराई पर फक़्र न कर 
मैं तेरी लहरों पर चलने वाला हूं 
*
भले ही हाथ जला तेरी लौ बढ़ाते हुए 
मगर चराग तू जंचता है जगमगाते हुए 
*
मैं उसे पर इल्ज़ाम लगाऊंगा तो कैसे 
उसके पास मेरा ही फेंका पत्थर होगा
*
मेरे अपनों ने ही गत ऐसी बनाई मेरी 
नब्ज चलती है तो दुखती है कलाई मेरी

ये किताब मैं सामने खोले बैठा हूँ और दिमाग में पाकिस्तान के लाजवब शायर जनाब 'मुनीर नियाज़ी'साहब की नज़्म 'हमेशा देर कर देता हूँ मैं 'घूम रही है. 'मुनीर'साहब का सुनाने का अंदाज़ जानलेवा है , अगर आपने उन्हें सुनाते हुए नहीं देखा तो अभी इसी वक़्त इस लेख पढ़ना बंद करें और यू ट्यूब पर ढूंढ कर उन्हें सुनें, तब आपको समझ आएगा कि देर कर देने से बाद में कितनी पीड़ा होती है. मैंने भी देर की और मैं भी उसी पीड़ा को महसूस कर रहा हूँ। वक़्त के साथ सबसे बड़ी दिक्कत ये है की न तो उसे रिवाइंड कर सकते हैं न फारवर्ड। जो बीत गया उसे याद करके या तो दुखी हो सकते हैं या ख़ुश। मैं दुखी हूँ. सच में।

17 फरवरी 2022 की बात है , व्हाट्सएप पर मेसेज आया 'प्रणाम सर जी, अपना पोस्टल एड्रेस भेज दें अपनी किताब भेजनी है।'थोड़ी देर बाद उनका फोन आ गया बोले 'सर जी आप भी हैरान होंगे क्यूंकि मैंने आपसे पोस्टल एड्रेस माँगा है जबकि मुझे याद होना चाहिए था, जब आपके घर के खाने का स्वाद याद है तो पोस्टल एड्रेस भी तो याद होना चाहिए था। वैसे मुझे अगर जयपुर में कहीं छोड़ देंगे तो आपके घर पहुँच जरूर जाऊंगा क्यूंकि वो मोती डूंगरी का गणेश मंदिर मुझे याद है जिसके पास आपका घर है लेकिन पोस्टल एड्रेस ध्यान में नहीं है 'मैंने हँसते हुए कहा कि 'भाई जी अभी तुरंत एड्रेस भेजता हूँ उस से पहले आप अपनी पहली किताब के प्रकाशन की बधाई स्वीकार करें, मैं दुआ करता हूँ की आपकी ऐसी ढेरों किताबें समय समय पर भविष्य में आती रहें।'थोड़ी देर के मौन के बाद वो बोले 'सर जी ढेरों की क्या बात करते हैं दूसरी आ जाये तो गनीमत समझें अब स्वास्थ्य साथ नहीं देता, आप इस पर लिखेंगे तो कृपा होगी।'मैंने झिझकते हुए कहा कि 'भाई आप तो देख ही रहे हैं मैंने पिछले चार सालों से लिखना बंद कर रखा है इसलिए लिखने की गारंटी नहीं देता, हाँ इसे पढूंगा जरूर'। वो बोले 'आप पढ़ेंगे ये ही बहुत है, आप इत्मीनान से पढ़िए फिर बताइये'।    

आज जब इस किताब पर लिखने बठा हूँ तो दुःख हो रहा है, मुझे दो साल पहले ये काम करना चाहिए था। 'शेषधर तिवारी'जी की ग़ज़लों की किताब 'तितलियों के रंग'मेरे सामने है लेकिन उस पर मेरा लिखा पढ़ने को शेषधर जी अब हमारे बीच नहीं हैं. इसीलिए मुवोऔर 'मुनीर नियाज़ी'साहब की नज़्म 'हमेशा देर कर देता हूँ मैं'बहुत शिद्दत से याद आ रही है.

मैं तेरे लम्स की शिद्दत से कहीं जी न उठूं 
मेरी तस्वीर को सीने से लगाने वाले 
*
देखने का सही नजरिया रख 
चांद छोटा बड़ा नहीं होता 
*
उम्मीद हमसे आपकी बेजा नहीं मगर 
जां है नहीं तो कोई कैसे जांनिसार हो 
*
आईने की साफ़गोई देख कर 
हम हुए राज़ी संवरने के लिए
*
मेरे आंगन में धूप आती है ऐसे 
कि जैसे वो नवेली ब्याहता है 

हवा फिरती है हर सू पागलों सी 
कि जैसे उसका बेटा लापता है
*
तारीफ़ों के पुल के नीचे 
मतलब का दरिया बहता है

 'शेषधर'जी से मेरा राब्ता लगभग दस-बारह साल पहले हुआ। ये सोशल मिडिया के शुरुआत के दौर की बात है तब मैं और वो याने दोनों ग़ज़ल लेखन, उम्र के उस दौर में सीख रहे थे जब लोग लिखना पढ़ना छोड़ कर मंदिर मस्जिद की शरण में चले जाते हैं. हम दोनों को ही किस्मत से मार्गदर्शन के लिए मिले जनाब 'मयंक अवस्थी'और 'द्विजेन्द्र द्विज'साहब। बाद में मुझे श्री 'पंकज सुबीर, जी ने अपनी शरण में लिया और शेषधर जी 'आदिक भारती'जी से भी दिशा निर्देश प्राप्त करने लगे। 

जैसा की आम तौर पर होता है रेस में एक साथ दौड़ते बहुत से बच्चे हैं लेकिन आगे दमखम वाले ही निकलते हैं। मुझे ये स्वीकार करने से कोई गुरेज़ नहीं है कि जहाँ मैं चंद कदम चल कर हाफने लगा वहीँ 'शेषधर'जी छलांगे लगाते हुए बहुत आगे निकल गए. मुझे अपनी सीमाएं पहले से पता लग गयीं इसलिए मैंने लेखन से अधिक रूचि पढ़ने में ली और ढेरों किताबें पढ़ी, उन पर लिखा और बरसों लिखा।  

'शेषधर'जी ने लिखा ही नहीं बल्कि नए लिखने वालों को बहुत प्रोत्साहन भी दिया, उनकी मदद की. वो हमेशा दूसरों की मदद को आगे रहते और सबके लिए हमेशा उपलब्ध रहते। वो एक बेहद नेक और सच्चे शायर थे ,दुनिया दारी उन्हें न कभी आयी न उन्होंने खुद को बेचने का हुनर सीखा। सच कहूं तो आज सोशल मिडिया और मुशायरे के मंचों पर धूम मचा रहे शायर उनके सामने कहीं नहीं टिकते। उन्होंने 'सुख़नवर इंटरनेशनल'की स्थापना अपने कुछ हमख़याल मित्रों के साथ मिल कर की.  इस के अंतर्गत वो देश के विभिन्न शहरों में मुशायरों का आयोजन करते थे और उस शहर तथा आसपास के युवा शायरों को श्रोताओं के सामने आने का मौका देते थे । आज जहाँ कोई किसी को आगे नहीं आने देता वहां बिना किसी स्वार्थ के दूसरों को आगे लेन जैसा काम करना बहुत बड़ी बात है. अगस्त 2019 में उन्होंने 'सुख़नवर इंटरनेशनल'का बारवां आयोजन जयपुर में किया था और उसके आयोजन की जिम्मेदारी मुझे सौंपी. उस वक्त वो एक गंभीर बीमारी से लगभग सोलह साल लड़ने के बाद थोड़ा ठीक हुए ही थे. वो तब अस्वस्थ नहीं थे लेकिन पूर्ण रूप से स्वस्थ भी नहीं थे।उस हाल में भी उनकी ऊर्जा युवाओं को मात करने वाली थी।
हमारी बज़्म में आ कर तो देखें
चरागों के तले भी रौशनी है    
वो अक्सर इन मुशयरों में अपने कलाम का आगाज़ इस शेर से करते थे :
आप शायर हैं शायरी करिये
हम सुख़नवर हैं मश्क करते हैं

जानते हैं ख़ामियां हैं अपनी फ़ितरत में बहुत 
लेकिन अब इस उम्र में तो हम सुधरने से रहे 
*
तुम्हारी क़ैद में रहना मुझे आराम ही देगा 
बशर्ते तुम करो मंज़ूर ख़ुद ज़ंजीर हो जाना 
*
ये न हो जख़्म दिल का भर जाए 
और तू जह्न से उतर जाए 
*
जिसे जो रास आये, रास्ता कर ले इबादत का 
अक़ीदत पर कभी छींटाकशी अच्छी नहीं लगती 
*
जो शाख़े समरदार है दीवार के उस पार 
वो मेरे मुक़द्दर में नहीं है तो नहीं है
*
अश्क आंखों में न हो और खुशी भी छलके 
हार जाओगे, कभी शर्त लगा कर देखो
*
मेरे सीने पर रख कर पांव बढ़ जा 
तेरी मंज़िल नहीं मैं रास्ता हूं

'शेषधर'जी का जन्म 16 जुलाई 1952 को उत्तर प्रदेश के भदोही जिले के छोटे से गाँव  उदयकरनपुर में हुआ. उनके पिता जूनियर हाईस्कूल के प्रधानाध्यपक थे और पढ़ने में विशेष रूचि रखते थे।वो शेषधर जी को भी पढ़ने के लिए प्रेरित करते. उनकी प्रेरणा से 'शेषधर'जी में बचपन से ही पढ़ने लिखने की रूचि जागृत हो गयी. छोटी उम्र से ही वो कविता लिखने लगे। उनके लेखन का स्तर देख उनके पिता बनारस से छपने वाले हिंदी अखबार 'आज'को उनकी रचनाएँ भेजते जिस में वो छपती। अखबार में छपी रचना को देख शेषधर जी और उनके पिता गौरवान्वित महसूस करते। हाई स्कूल के बाद उन्होंने गणित विषय में बी.एस सी पास की और इसी दौरान कालेज की लाइब्रेरी में पड़ी डाक्टर कुंअर बैचैन और गोपाल दास 'नीरज'जी की लिखी लगभग सभी किताबें पढ़ डालीं। इन दोनों की कविताओं से प्रभावित होकर लिखी उनकी कविताएँ तब की शीर्ष मैगजीन 'धर्मयुग'में छपने लगीं। 'धर्मयुग'से मिले पच्चीस रुपये के चेक उन्हें अनमोल लगते.  

बी.एस सी. के बाद उन्होंने इंजीनियरिंग में दाखिला लिया और 1977 में बीटेक (यांत्रिकी) की डिग्री हासिल की। इंजिनीयरिंग की कठिन पढाई और उसके बाद स्टील अथॉरटी आफ इंडिया की नौकरी के चलते उनसे लिखने लिखाने का सिलसिला छूट गया। नौकरी की बंदिशें उन्हें  आयीं लिहाज़ा मात्र चार साल  के बाद स्टील अथॉरटी ऑफ इंडिया जैसी शानदार सरकारी नौकरी छोड़ वो प्रयागराज में खुद का व्यवसाय करने लगे। इससे उनकी झुझारू और अपने उसूलों के साथ समझौते न करने की प्रवृति का पता चलता है। लगभग चालीस वर्षों तक वो सफलतापूर्वक अपने व्यवसाय को चलाते रहे।  

सन 2011 से एक गंभीर बीमारी ने शेषधर जी को अपने गिरफ्त में ले लिया जिसके चलते उनके परिवार जन ने उन्हें अपना व्यवसाय बंद करने का आग्रह किया। उसके बाद शेषधर जी ने अपना पूरा समय साहित्य को समर्पित कर दिया।  सन 2019 के बाद वो फिर गंभीर रूप से बीमार पड़े और बिस्तर पकड़ लिया। प्रयागराज जहाँ वो बरसों रहे छोड़ कर उन्होंने अपने स्थाई निवास उदयकरनपुर जाने का निर्णय लिया लेकिन उसे क्रियान्वित 18 जून 2023 को ही कर पाए। उनके जीवन का निर्णय आखिर बहुत भरी पड़ा। अपने ही पैतृक घर में अपनों की उपेक्षा, तिरस्कार और लगतार किये गए अमानवीय व्यवहार से वो टूट गए और 29 सितम्बर 2024 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया। 18 जून 2023 से लेकर 25 अगस्त 2024 तक के अपने उदयकरनपुर गाँव के पैतृक घर में बिताये समय और वहां उन पर हुए अत्याचार को शेषधर जी ने फेसबुक पर डाली अपनी अंतिम पोस्ट में विस्तार से बयाँ किया है। इसे पढ़कर कोई भी संवेदनशील व्यक्ति खून के आंसू रो देगा। एक अच्छे और सच्चे इंसान के साथ उसके अपने और समाज कितना दुर्व्यवहार कर सकते हैं इसकी कल्पना बिना उस पोस्ट को पढ़े नहीं की जा सकती। उस पोस्ट का लिंक ये है अगर आप भी पढ़ना चाहें तो क्लिक करें.      


हद हो गई जब आज मेरे इंतज़ार की
बाहर निकल के मैंने ही दर खटखटा लिए
*
कौड़ियों के भाव तो बिकना नहीं है
इसलिए नीलाम होना चाहता हूं
*
तैरती लाशों को जब देखा तो आया ये ख़्याल
ज़िंदगी भर जिस्म को बस बोझ सांसों का मिला
*
तितलियों के रंग से ख़ाइफ़ हैं बच्चे आजकल
मज़हबी तालीम का उन पर असर तो देखिए
ख़ाइफ़: भयभीत
*
ख़बर लेता है वो औरों से मेरी
बुरा तो है मगर उतना नहीं है
'शेषधर'जी की ग़ज़लों पर श्री द्विजेन्द्र द्विज जी ने लिखा है कि 'उनके शेर ज़िन्दगी के किसी भी शोबे में अपूर्णता से काम लेने वालों पर बेहद करारा तंज़ हैं। विभिन्न प्रचलित बहरों में कहने के नयेपन व् अलग अलग दृष्टिकोण के साथ ग़ज़लें कहने वाले इस शायर के पास बड़ी से बड़ी बात को आसान से आसान और आमफहम शब्दों में कहने की आसानी है।'
प्रसिद्ध ग़ज़लकार 'विजय स्वर्णकार'जी ने इस किताब में लिखा है कि 'ग़ज़ल के तमाम पहलुओं को पूरा सम्मान देते हुए उसके रंग-रूप को और निखारना और इस खूबी से निखारना कि वो वर्तमान परिदृश्य में सभी सुधि जनों का धयान आकर्षित कर सके ये इस ग़ज़ल संग्रह में शेषधर जी ने कर दिखाया है। बेजोड़ शिल्प इन ग़ज़लों की विशिष्टता है। पंक्तियों में शब्द संयोजन की दुर्लभ कलाकारी है और जहां एक ओर संवेदनाओं का लबालब सागर है तो दूसरी ओर तार्किकता की ठोस जमीन भी है। '
शेषधर जी को ग़ज़ल के शिल्प की जानकारी देने वाले और मार्गदर्शन करने वाले हम दोनों के ही प्रारंभिक गुरु प्रिय 'मयंक अवस्थी'जी ने लिखा है कि 'शेषधर जी ने ऐसे मिसरे और और ऐसे ऐसे शेर कहे जिनको सुनकर कोई विश्वास ही नहीं करेगा इस व्यक्ति ने ग़ज़ल उस आयु में सीखना आरम्भ किया जब लोगों के अवकाश प्राप्ति की उम्र होती है। उनकी ग़ज़लों की भाषा में एक परिष्कृत और परिमार्जित शिष्ट और भद्र व्यक्ति हमेशा ही संवाद में उपस्थित है। '
सोनीपत निवासी देश के प्रसिद्ध शायर जनाब ''आदिक भारती'जो 'शेषधर'जी की ग़ज़ल यात्रा के हमेशा मार्गदर्शक बने रहे, लिखते हैं कि 'सटीक और सार्थक शायरी का दूसरा नाम तिवारी जी हैं। लफ़्ज़ों का तालमेल मिसरों में रवानी और मज़मून की बेसाख़्तगी पुख़्तगी और बेबाकी जो उनके अशआर में नज़र आती है वो बहुत कम देखने को मिलती है।'
ये किताब भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली से प्रकाशित हुई है जिसे अमेज़न से ऑन लाइन मंगवाया जा सकता है।








किताब मिली -शुक्रिया - 19


ऐ हमसफ़र ये याद रख, तेरे बिना यह ज़िंदगी 
कि सिर्फ़ धड़कनों की खींच-तान है, थकान है 

रहे जब उसके दिल में हम, तो हम को ये पता चला 
वो बंद खिड़कियों का इक मकान है, थकान है
*
अगर जो देना ही चाहते हो तो साथ देना 
वग़रना दुनिया में मशवरों की कमी नहीं है 
*
जितना मैं बात करती हूं बढ़ती है ख़ामुशी 
इस ख़ामुशी को और बढ़ा मुझसे बात कर 

शब भर में देखती रही तारों की सम्त और 
शब भर चराग़ कहता रहा, मुझसे बात कर
*
सफ़र में नींद के मुमकिन न था ठहरना कहीं 
तो हमने ख़्वाब तेरे रक्खे साथ, चलने लगे
*
अजब है मौत का यह ख़ौफ़ उम्र भर जिसने 
का ज़िंदगी से मेरा राब्ता न होने दिया 

बना के अपना, मिटाया मेरे वजूद को यूं 
कि उसने ख़ुद से मेरा सामना न होने दिया

बात काफी पुरानी है। शायद 2014 की , मैं प्रगति मैदान के राष्ट्रीय पुस्तक मेले के हॉल नंबर 2 में शिवना प्रकाशन जहाँ मेरा ठिकाना था दोपहर को उठ कर बाहर आया। हल्की हल्की भूख लगी थी सोचा कुछ खाते हैं तभी पीछे से आवाज़ आयी 'नीरज जी नमस्ते'मैंने पीछे मुड़ के देखा तो बेहद सलीके से सजी एक लड़की मुस्कुराती नज़र आयी , नज़र मिलते ही बोली 'पहचाना ?  मैं मीनाक्षी'. मुझे हतप्रभ देख हंसी और सहजता से बोली 'अरे मैं आपसे कभी मिली नहीं तो पहचानेगें कैसे ?'  मैं आपके ब्लॉग की नियमित पाठक हूँ जिसमें आप ग़ज़ल की किताबों पर लिखते हैं, मैंने एक लिस्ट बना रखी है, वो किताबें मुझे इस पुस्तक मेले से खरीदनी हैं,आप मेरी मदद करेंगे ?'उसने वो लिस्ट मुझे पकड़ाई जिसमें वो सब किताबें थीं जो एक अच्छे शायर को पढ़नी चाहियें। लिस्ट से एक बात साफ़ हो गयी की 'मीनाक्षी'एक संजीदा पाठक है। लेखक के लिए संजीदा पाठक मिलना किसी भी पुरूस्कार से कम नहीं। 'चलिए ढूंढते हैं इन किताबों को, आपकी मदद कर मुझे बहुत ख़ुशी होगी'मैंने कहा, तो वो हँसते हुए बोली पहले 'थोड़ी पेट पूजा हो जाये सुबह से घूम रही हूँ थक भी गयी हूँ और भूखी भी हूँ' . मैंने कहा ,शौक से खाइये मैं आपका  शिवना प्रकाशन के स्टॉल पर इंतज़ार करता हूँ, तो वो तपाक से बोली 'ऐसे कैसे सर आप भी आईये वैसे आप पता नहीं कैसा खाना खाते हैं मैं तो जो घर से बना कर लायी हूँ वही खिला सकती हूँ शायद आपको पसंद आ जाये आईये न'। जिस अपने पन से मीनाक्षी ने आग्रह किया उस से या फिर पेट में उछलकूद मचा रहे चूहों के आतंक से, कारण कुछ भी रहा हो, मैं इस निमंत्रण को ठुकरा नहीं सका। यकीन मानिये, उस दिन मीनाक्षी के हाथ की बनी आलू गोभी की सब्ज़ी का स्वाद आज भी ज़बान पर है। 

मीनाक्षी से उसके बाद कभी कबार फोन पे बात होती रही। उसे मलाल रहता कि उसे लिखने का वक़्त बहुत कम मिलता है। बात सही भी थी उसके दो स्कूल जाने वाले बच्चे थे, खुद भारतीय जीवन बीमा निगम में अधिकारी थी और  फरीदाबाद के घर से उसके दिल्ली के दफ्तर की दूरी भी बहुत थी। घर गृहस्ती सँभालते हुए भी उसने लिखना पढ़ना नहीं छोड़ा। शायरी के प्रति ये जूनून बहुत कम देखने को मिलता है। 

अभी खुशी से ही दूर हुए हैं मगर किसी दिन 
हमें उदासी की भी ज़रूरत नहीं हुई तो?
*
लम्स तेरी उंगलियों का चाहते हैं हर घड़ी 
तू मेरे इन उलझे उलझे गेसुओं की ज़िद समझ
*
हमने हर उड़ते परिंदे को दुआएं दी हैं 
जब भी सूखे हुए तालाब की जानिब देखा 
*
इक रोज़ हम आएंगे तेरे ख़्वाब से बाहर 
इक रोज़ तो हम खुद पे ये एहसान करेंगे
*
बिछड़ के सामने आई है दोनों की फ़ितरत 
वो क़िस्सा गो है उधर और हम इधर चुप हैं 

सवाल इश्क़ पर हम उसे कर तो लें लेकिन 
हम इस सवाल से आगे का सोच कर चुप हैं

सन 2018 के पुस्तक मेले में उस से फिर एक संक्षिप्त सी मुलाकात हुई बोली 'मैं भी चाहती हूँ कि मुशायरे पढूं लेकिन आयोजक बुलाते ही नहीं।  जो थोड़े बहुत बुलाते भी हैं वो समय नहीं देते।'उसका ये दुःख अकेले उसका नहीं है बल्कि हर उस शायर का है जो संजीदगी से लिखता है और सीधे सीधे अपनी बात कहता है। मैंने उसे कहा की आजकल ज़माना दिखावे का है , नौटंकी का है। आप क्या सुना रहे हो ये महत्वपूर्ण नहीं है, कैसे सुना रहे हो ये महत्वपूर्ण है.आप किसी भी मुशायरे में चले जाएँ आपको वहां दाद के लिए भीख मांगते , हाथ पाँव पटकते, उछलते, गाते और अपनी बरसों पुरानी शायरी सुनाते हुए शायर दिखाई देंगे। उनका, किसी भी कीमत पर दर्शकों से बैठे बैठे या खड़े हो कर हाथ उठा कर वाह वाह बुलवाना या तालियां बजवाना ही अंतिम उद्देश्य है। आयोजक पैसे भी उन्हें ही देता है। इसमें गलत कुछ नहीं क्यों की अब मुशायरे साहित्य की सेवा नहीं है, बाजार है और बाजार में जो चीज़ लोग पसंद करते हैं वो ही बिकती है। हर क्षेत्र में गलाकाट प्रतियोगिता है कोई किसी को आगे नहीं आने देता। अच्छे पढ़ने वालों को पीछे बैठे वरिष्ठ शायर ही घटिया जुमलों या फिर हिक़ारत भरी नज़र से देख ,मानसिक रूप से प्रताड़ित करते देखे गए हैं। कुछ मठाधीश अपने मठ के सदस्यों के साथ ही मंच आते हैं अगर आप उनके मठ के सदस्य नहीं हैं तो फिर आपके लिए अपनी जगह बनाना ही मुश्किल है।     

ऐसा आजकल ही नहीं हो रहा है ये चलन तो न जाने कब से है।  मुझे याद आती है 1965 में बानी एक मज़ेदार फिल्म 'भूत बंगला '। उस फिल्म में एक सीन है जिसमें किसी क्लब में संगीत प्रतियोगिता होती है और हीरोइन 'तनूजा',  हीरो 'मेहमूद'साहब फ़ाइनल में हैं। फैसला एक ताली मीटर से होना है।  याने एक यंत्र जिसकी सुई, तालियों की गड़गड़ाहट से चल कर अंक देती है। पहले 'तनूजा'जी 'लता'जी की आवाज़ में एक बेहद सुरीला गीत गाती हैं 'ओ मेरे प्यार आजा बनके बहार आजा' , इस पर तालियां बजती हैं और ताली मीटर की सुई 95 तक चली जाती है।  उसके बाद 'मेहमूद'साहब बहुत से लटके झटकों के साथ 'आओ ट्विस्ट करें गा उठा है मौसम'मन्नाडे की आवाज़ में गाते हैं , नतीजा ताली मीटर की सुई 100 तो पार करती ही है साथ में टूट के गिर भी जाती है। आज भी सलीके पर फूहड़ता हावी है। आप चाहें तो ये सीन यूट्यूब पर देख सकते हैं। 

खैर !! ये सब तो चलता रहेगा हम इस बात को यहीं छौड़ कर मीनाक्षी जिजीविषा साहिबा की ग़ज़लों की पहली किताब ''दरमियान'पर लौटते हैं जिसे श्वेतवर्णा प्रकाशन नयी दिल्ली ने 2022 में प्रकाशित किया था। आप इस किताब को प्रकाशक से 8447540078 पर फोन कर मंगवा सकते हैं।      'मीनाक्षी जी'की ग़ज़लों की ये भले ही पहली किताब हो लेकिन इस से पहले उनकी आठ जी हाँ आठ किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। वो हिंदी साहित्य का एक रौशन नाम हैं। उन्होंने उर्दू,, पंजाबी और अंग्रेजी ज़बानों में भी अपनी कलम चलाई है।    

चलो इश्क़ से आगे निकल के सोचें हम 
दिए बना लिए अब रौशनी बनाते हैं 

ग़ुलामी जहन से उनके नहीं गई अब तक 
जो लोग आज भी कठपुतलियां बनाते हैं
*
ये चांद करता है आराम जब अमावस में 
सियाह रात में तारों पे बोझ पड़ता है 

तुम्हारी याद की उजड़ी हुई हवेली में 
है इतनी धूल के सांसों पे बोझ पड़ता है
*
चलूं नक्श़-ए- क़दम पे मैं तो सब कुछ ठीक है लेकिन 
अलग रस्ते बनाती हूं तो रहबर रूठ जाता है
*
जलना नसीब में है मिट्टी के गर हमारी 
तो फिर चराग़ बनकर जलने में हर्ज क्या है
*
तुमको मालूम नहीं उसकी तड़प का आलम 
वो परिंदा की जो होता है रिहा आख़िर में

हरियाणा के हिसार में 19 मई को जन्मी 'मीनाक्षी'जी ने विज्ञान विषय में स्नातकोत्तर की शिक्षा प्राप्त की और अब फरीदाबाद में स्थाई रूप से रहती हैं। 'मीनाक्षी'जी की लेखन यात्रा के बारे में आईये उन्हीं के शब्दों में पढ़ते हैं। वो लिखती हैं कि 'अपने शेरी सफ़र के बारे में अपनी सुख़न-शनासी के बारे में अगर कुछ कहना है तो इसके लिए मुझे गुज़रे वक़्त का सिरा पकड़ कर बचपन की उन गलियों में जाना पड़ेगा जहाँ मैं बंद गली के आख़री मकान के सहन में एक चटख़ रंग की फ्राक पहने एक बेहद मासूम और चुपचाप सी लड़की को देखती हूँ जो दुनिया को बड़ी हैरत भरी नज़र से तकती है। उसके मन में हज़ारों सवाल हैं पर जवाब नदारद। जब मन की गहराइयों में से ये सवाल बादलों की तरह शोर करते तो वो कॉपी के आख़री पेज पर उन्हें दर्ज़ करती।  उसे पता नहीं था वो क्या है नज़्म, नस्र या ग़ज़ल। हाँ. लिखने के बाद एक सुकून सा जरूर मिलता था। मेरे पिताजी को पढ़ने का बहुत शौक था वो क़ायदे से रोज़ाना लुग़त के दस पेज पढ़ते उसके बाद हिंदी अंग्रेजी उर्दू में छपे अख़बार, रिसाले और किताबें। उन्हें मुशायरे सुनने का शौक था और वो सुनते ही नहीं थे बल्कि अपने पसंददीदा अशआर डायरी में नोट भी करते थे। आप यूँ कह सकते हैं कि उर्दू ज़बान और शायरी मुझे विरासत में मिली। बाहरी दुनिया के आडम्बरों, खोखलेपन,रिश्तों में पोशीदा खुदगर्ज़ी और ज़िन्दगी की जद्दोजहद से उपजे ख़ालीपन और उकताहट ने मुझे लफ़्ज़ों के और करीब ला दिया।ज़िन्दगी क्या है एक सफ़र ही तो है एक तलाश खुद को खोजने और पा लेने की।  इस सफ़र की मंज़िल तक पहुँचने के सबके अलग-अलग रास्ते हैं। कोई इबादत करता है तो कोई प्रेम कोई अक़ीदत से तो कोई इल्म के रास्ते पहुंचे तो कोई फ़न के रास्ते से इस मंज़िल को पाता है। ईश्वर ने मुझे ये हुनर दिया है कि मैं क़लम के रास्ते इस सफ़र को पूरा करूँ। मैं खुद को लफ़्ज़ों में ही पाती हूँ और लफ़्ज़ों में ही खुद को खो देना चाहती हूँ। अदब ही मेरी रूह की तस्कीन है। लफ्ज़ ही मेरी जिजीविषा (ज़िंदा रहने की चाह) को बनाये रखते हैं व् मुझे ज़िन्दगी और नजात की ख़ुशी देते हैं।'

मशहूर शायर 'फरहत एहसास'साहब इस किताब की भूमिका में लिखते हैं कि 'ग़ज़ल की शायरी कम से कम लफ़्ज़ों में ज़ियादा से ज़ियादा मानी अदा करने की कला है, लेकिन कुछ इस तरह, कि कला और भाव पक्ष एक दूसरे में पूरी तरह पैवस्त रहें अलग-अलग न रहें।  ये सूरत इस किताब के बहुत से श्रोण में नज़र आती है। 'मीनाक्षी'जी की ग़ज़लों का मिज़ाज क्लासिकी है।    
जनाब 'सैय्यद हुसैन ताज 'रिज़वी 'साहब लिखते हैं कि 'मीनाक्षी की शायरी में जहाँ आम इंसान हैं वहीँ ख़ास बन्दे भी हैं।  इनकी शायरी को किसी ख़ास फ़िक्री तबके में क़ैद नहीं किया जा सकता। 
जनाब 'इरशाद अज़ीज़'साहब इस किताब की भूमिका में लिखते हैं कि 'एक हस्सास तबियत की शायरा ज़माने के ग़म अपना बनाकर जब इतनी शिद्दत से बयां करती है तो ये तय कर पाना मुश्किल होता है कि दर्द ज़माने का है या शायरा का अपना जाती दर्द है।  सुनने वाला अपने दर्द को महसूस करता है तो आह वाह की सूरत इख़्तियार करती है ये किसी शायरा के लिए अहम् बात होती है। 
मीनाक्षी जी को अदब की ख़िदमत के लिए मुख़्तलिफ़ तंज़ीमों ने कई सारे अवार्ड से नवाज़ा जिनमें सन 2006 में 'अमृता प्रीतम'अवार्ड,   2014 में 'सुभद्रा कुमारी चौहान'अवार्ड , 2007 में हरियाणा के मुख्यमंत्री द्वारा, 2011 में यूनिवर्स संस्था दिल्ली द्वारा और 2017 में अदिति गोवित्रिकर के हाथों ''वूमन अचीवर अवार्ड'से सम्मानित किया गया है। 
मस'अले उठते अगर हम बात का देते जवाब 
हमने चुप रह कर ही उसकी होशियारी काट दी 

जख़्म खाये, दर्द झेले, शायरी की और बस 
पूछिए मत आपके बिन कैसे काटी, काट दी
*
जिंदगी है रदीफ़ मुश्किल सी 
इसका आसान क़ाफ़िया ढूंढो 
*
बड़े ही सब्र से दिल तक पहुंचना था तुम्हारे 
नहीं खुलते ये दरवाज़े अगर मैं बोल देती 
*
अब के हवा के एक इशारे में बुझ गए 
तूफ़ान तो वही है चराग़ों में फ़र्क है
*
हम पर लाज़िम है करें हम खुद को साबित इस तरह 
रोशनी में जैसे खुद को इक दिया साबित करे
*
ठहरने का कोई मक़ाम नहीं 
सख़्त मुश्किल है आसमान का सफ़र 
*
तर्क-ए-त'अल्लुक़ात नहीं वक़्फ़ा है फ़क़त 
तू इस क़दर न डर हमें तन्हाई चाहिए
*
सुख़न पे अपने हमें यूं तो है यक़ीन बहुत 
पर अब की बार कोई ख़ुश-कलाम सामने है

















































किताब मिली - शुक्रिया - 20


तू है सूरज तुझे मालूम कहां रात का दुख 
तू किसी रोज़ मेरे घर में उतर शाम के बाद 

लौट आए ना किसी रोज़ वो आवारा मिज़ाज 
खोल रखते हैं इसी आस पे दर शाम के बाद
*
हम इर्द-गिर्द के मौसम से जब भी घबराए 
तेरे ख़्याल की छांव में बैठ जाते हैं
*
आबादी से निकले तो मालूम हुआ 
आगे तन्हाई है, पीछे से साए हैं 
*
वो मेरे अंदर छुपा है और उसे 
बोलते रहने की आदत हो गई है
*
घर जाने से इतनी खौफ़-ज़दा हैं लोग 
रात गए तक बाज़ारों में फिरते हैं
*
तुम गए हो तो सर-ए-शाम ये आदत ठहरी 
बस किनारे पर खड़े हाथ हिलाते रहना

बात सन 1989 की है। लाहौर का फोर्ट्रेस स्टेडियम खचाखच भरा हुआ है।बहुत से करतब वहां दिखाए जा रहे हैं। तभी अनाउंसमेंट होता है 'ख़्वातीन ओ हज़रात , दिल थाम के बैठे अभी आपके सामने एक नौजवान अपनी कोहनी से बर्फ की सिल्लियां तोड़ेगा। ये नौजवान बर्मीज मार्शल आर्ट (Bando ) का मास्टर है जिसने ये आर्ट ग्रैंड मास्टर जनाब अशरफ़ ताई से सीखा है'। काले कपडे पहने एक दुबला पतला  लड़का लोगों के सामने आया और  झुक कर सबका अभिनन्दन किया। कुछ ने उसे देख हलके से तालियां बजाई लेकिन ज्यादातर उसकी कद काठी देख हंसने लगे। बर्फ की सिल्ली लाइ गयी , लोग उत्सुक थे देखने को कि लड़का इसे कैसे तोड़ेगा, तभी उस सिल्ली पे दूसरी सिल्ली रख दी गयी। लोग खुसरफुसर करने लगे और ये खुसर फुसर शोर में तब्दील तब हुई जब सिल्लियों की संख्या दो से दस हो गयी। लेकिन जब ग्यारवीं सिल्ली लायी लायी गयी तो  स्टेडियम में सन्नाटा पसर गया। लोगों ने दम साध लिया, हैरत से आँखें चौड़ी कर लीं क्यूंकि ऐसा कारनामा इस से पहले दुनिया में किसी ने नहीं किया था। लड़का सीढ़ियों से ग्यारवीं सिल्ली के तक पहुंचा गहरी सांस ली एक दो बार कोहनी को सिल्लियों तक लाया और फिर, लोगों को दिखाई ही नहीं दिया कि कब लड़के की कोहनी बिजली की रफ़्तार से सिल्ली पर गिरी और ग्यारह की ग्यारह सिल्लियां चूर चूर हो गयीं। लोगों को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ कि उन्होंने जो अभी देखा वो एक ऐसा विश्व रिकॉर्ड है जो आज तक नहीं टूटा।  इस करिश्मे को अंजाम देने के बाद ये लड़का लोगों की तालियां सुनने के लिए रुका नहीं बल्कि स्टेडियम के बाहर खड़ी कारों के पीछे गया और  घुटनों पे बैठ कर ऊपर वाले का शुक्रिया अदा किया। आज इस लड़के के लगभग 40000 से ज्यादा शागिर्द दुनियाभर में लोगों को 'बर्मीज मार्शल आर्ट' (Banda ) सिखा रहे हैं। 

आप सोच रहे होंगे कि किसी किताब का जिक्र करने के बजाय मैं आपको ये गैर शायराना किस्सा क्यों बता रहा हूँ ? मुझे याद है कि ऐसा आपने तब भी सोचा था जब मैंने एक पहलवान शायर जनाब 'क़तील शिफ़ाई'साहब की किताब का ज़िक्र किया था। हमारे आज के शायर पाकिस्तान के पहले ब्लैक बेल्ट निंजा ही नहीं हैं और भी बहुत कुछ हैं और ये बहुत कुछ उन्हें ऊपर वाले ने छप्पर फाड़ नहीं दिया बल्कि इन्होने अपनी मेहनत से कमाया है। उन्होंने जो कारनामे किये हैं उसे ठीक से बताने के लिए ऐसी न जाने कितनी पोस्ट मुझे लिखनी पड़ेंगी। 

चलिए शुरू से शुरू करते हैं। 

अपना दुख बस अपना ही होता है ये जान लिया 
अपने आप से अपनी सारी बातें कहना सीख लिया
*
कोई गुमान मुझे तुमसे दूर कैसे करे 
कि एतबार मेरे चार-सू अभी तक है 
*
दूर से कैसा हंसते-बसते शहरों जैसा लगता था 
लेकिन पास आए तो आया हाथ खंडर वीरान
*
खुशियां हमारे पास कहां मुस्तक़िल रहीं 
बाहर कभी हंसे भी तो घर आ के रो पड़े
मुस्तक़िल: हमेशा के लिए 
*
सच ना बोलो कि अभी शहर में मौसम ही नहीं 
इन हवाओं में चराग़ों का है जलना मुश्किल 
*
बारिश हुई तो घर के दारीचे से लग के हम 
चुपचाप सोगवार तुम्हें सोचते रहे

पाकिस्तान के झंग जिले में 15 नवम्बर 1964 को हमारे आज के शायर जनाब 'फरहत अब्बास शाह'का जन्म हुआ।उनके कोई बहन भाई नहीं था। माँ - बाप की मृत्यु भी जल्दी हो गयी। उनके मन और घर में गहरी उदासी ने घर कर लिया। ये उदास लड़का किसी से अपनी उदासी नहीं बांटता था। लोगों की टीका टिप्पणियों को कड़वे घूँट की तरह पी जाया करता था। अपनी घुटन को कम करने के लिए उसने लफ़्ज़ों का सहारा लिया। कोई आठ नौ साल की उम्र में बाकायदा लिखने लगा। तेरह चौदह साल की उम्र में उसकी रचनाएँ पाकिस्तान के बड़े बड़े अखबारों और रिसालों में छपने लगी। मात्र 25 साल की उम्र में याने जून 1989 में उनकी पहली किताब 'शाम के बाद'शया हुई और तहलका मच गया। ये किताब पाकिस्तान के इतिहास की, उर्दू में छपी ग़ज़लों और नज़्मों की अब तक की सबसे लोकप्रिय किताब साबित हुई। इस किताब के पिछले 35 सालों में इस कोई सवा सौ से अधिक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। दुनिया की बहुत सी भाषाओँ में ये छपी है और अब इसे अगस्त 2024 में 'नायाब बुक्स, नयी दिल्ली'ने अरब अमीरात के 'अप्लॉज़ अदब'के सहयोग से पहली बार हिंदी में प्रकाशित किया है।   

फरहत अब्बास कहते हैं कि 'मैं फ़ितरी शायर हूँ।  शायरी मुझ पर ऊपर से उतरती है।  अगर आपके अंदर शायरी नहीं है तो आप शायर नहीं हो सकते तुक्केबाज़ हो सकते हैं। आप शेर का ढांचा तो बना सकते हैं उसमें रूह नहीं डाल सकते। बड़ा शेर वो है जो इतनी आसानी से अता हो जाय कि आप बस वाह कर उठें , मसलन 'तुम मेरे पास होते हो गोया , जब कोई दूसरा नहीं होता। अच्छे शेर पर इंसान का इतराना बनता ही नहीं है , ये इल्हाम है।  पाकिस्तान के बहुत बड़े शायर जो आसानी से किसी भी शायर को गिनती में लाते ही नहीं थे ने कहा था कि 'फरहत अब्बास अहद ऐ हाज़िर में शायरी का वारिस है।'जनाब 'अहमद नदीम क़ासमी'ने कहा है कि 'अब्बास शाह जदीदतरीन नस्ल का जदीदतरीन शायर है।'उनके कुछ शेर जैसे :

हम तुझे शहर में यूँ ढूंढते हैं 
जिस तरह लोग सुकूँ ढूँढ़ते हैं 
*
बाद आँखों के मेरा दिल भी निकाला उसने 
उसको शक था कि मुझे अब भी नज़र आता है 
*
वो जो टल जाती रही सर से बला शाम के बाद 
कोई तो था कि जो देता था दुआ शाम के बाद  

लौट आती है मेरी शब की इबादत खाली 
जाने किस अर्श पे रहता है खुदा शाम के बाद 

सोशल मिडिया पर करोड़ों लोगों द्वारा पसंद किये जाने से वायरल हो गए हैं। आप यकीन करें न करें लेकिन हकीकत ये है कि 'फरहत अब्बास शाह की अब तक 75 किताबें मंज़र-ऐ आम पर आ चुकी हैं जिनमें से 52 तो सिर्फ उनकी शायरी की हैं। उनकी शोहरत  से कमज़ोर शायर ख़ौफ़ज़दा हो जाते हैं और उनके खिलाफ साज़िशें रचते रहते हैं। फरहत अब्बास शाह को इस से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता क्यूंकि वो दिल से लिखते हैं जो सुनने पढ़ने वाले के सीधा दिल में उतर जाता है। 

मैं उसकी आंखों में झांकूं तो जैसे जम जाऊं 
वो आंख झपके जब तो चाहूं ज़रा ठहर जाये
*
वह एक चेहरा जो आंखों में आ बसा था कभी 
तमाम उम्र मेरे आंसुओं में क़ैद रहा
*
इक ज़रा पांव में झंकार बजे सिक्कों की 
फिर मेरे नाम के हर शख़्स हवाले देगा
*
नींद नाराज़ हो गई हमसे 
हमने जिस रात तुमको याद किया
*
बहुत कठिन था पस-ए-चश्म रोकना सैलाब 
जो बोलते हुए आवाज़ फट गई तो क्या
*
मैंने उसका सोग मनाया कुछ ऐसे 
ख़ाली रखा पैमानों को शाम के बाद

फ़रहत चांद के ख़ौफ़ से कर लेता हूं बंद 
कमरे के रोशनदानों को शाम के बाद

झंग से साइक्लॉजी में एम एस सी करने के बाद फरहत साहब लाहौर चले आये जहाँ उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ पंजाब से फिलॉसफी में पोस्ट ग्रेजुएशन किया और उसके बाद अंग्रेज़ी में भी एम ऐ की डिग्री हासिल की।  बात यहीं ख़तम नहीं हुई उन्होंर इकोनॉमिक्स पढ़ी , माइक्रो इकोनॉमिक्स पढ़ी। उनके लिखे पेपर्स पर देश विदेश की यूनिवर्सिटीज में चर्चे हुए। उन्होंने इस्लामिक माइक्रो फाइनैंसिंग में अद्भुत काम किया और दस हज़ार से भी अधिक महिलाओं को बहुत कम पूँजी से व्यापर शुरू करवा कर उन्हें अपने पैरों पर खड़े होने में मदद की। 

फरहत अब्बास का रेडिओ चैनल 'ऍफ़ एम् 103'पाकिस्तान के बेहद मशहूर रेडिओ चैनलों में से एक रहा। रेडिओ से वो टेलीविज़न की और मुड़े और लाहौर टी वी की स्थापना की। इस टी वी चैनल पर प्रसारित होने वाले प्रैंक यूं ट्यूब पर लाखों की संख्या में पसंद किये जा रहे हैं। लाहौर टी वी पर उनका मज़ाहिया रूप देख कर हँसते हँसते लोटपोट हो जायेंगे। एक जनर्लिस्ट की हैसियत से उन्होंने पूरी दुनिया में अपनी खास पहचान बनाई। 

पाकिस्तान के मशहूर क्लासिकल गायक उस्ताद बदर उल ज़मां से फरहत साहब ने बरसों संगीत सीखा। रेडिओ पाकिस्तान से उनके गायन के प्रोग्राम लगातार आते रहे। उन्होंने बिना तबले के शास्त्रीय वाद्यों पर अपनी कविताएँ गाने का सफल प्रयोग किया जो सुखन सराय के नाम से लोकप्रिय हुआ। उन्होंने जितने काम अपनी 55 साल की उम्र में कर लिए हैं उतने कोई 55 जन्म लेकर भी नहीं कर पायेगा। .  

उन्होंने पाकिस्तानी राइटर्स  यूनियन की स्थापना की जिस के अंतर्गत वो अदब की खिदमत कर रहे ऐसे गोलों को दुनिया के सामने लाने की कोशिश करते हैं जिनको कम अक़्ल लेकिन ताकतवर स्वार्थी बेईमान लोग आगे नहीं आने देते। फरहत साहब का मानना है कि ऐसे नौजवान जो हुनरमंद हैं उन्हें सामने आने का मौका मिलना चाहिए। उनका ये इदारा नॉन पोलिटिकल है। 

फ़रहत अब्बास शाह'साहब  पर एक पोस्ट में लिखना मुमकिन नहीं है। इसलिए आप थोड़े को ही ज्यादा लिखा माने और इस किताब को अमेज़न से  ऑन लाइन या फिर नायाब पब्लिकेशन से 9910482906 पर संपर्क करें।   
बना था रेतीली मिट्टी से जीवन 
बिखरता ही बिखरता जा रहा है
*
परायेपन की वसी-ओ-अरीज़ दुनिया में 
ये इक ख़ुशी ही बहुत है कि दर्द अपना है 
वसी-ओ-अरीज़: दूर तक फैली हुई
*
रो देता है आप ही अपनी बातों पर 
और फिर ख़ुद को आप हंसाया करता है 
*
तुम से पहले दिल से बुज़दिल कोई न था 
और फिर दिल से दुनिया डरती देखी है
*
हर इक ख़ानें में तेरे बुत सजे हैं 
किसी देवी का मंदिर हो रहा हूं
*
रुका हुआ है अजब धूप-छांव का मौसम 
गुज़र रहा है कोई दिल से बादलों की तरह
*
मेरी निगाह पे तूने बिठा दिया रास्ता 
नहीफ़ सीने पे रख दी पहाड़ हिज़्र की शाम
नहीफ़: कमज़ोर






















किताब मिली --शुक्रिया - 21

जो तू नहीं तो ये वहम-ओ-गुमान किसका है 
ये सोते जागते दिन रात ध्यान किसका है 

कहां खुली है किसी पे ये वुसअत-ए -सहारा 
सितारे किसके हैं ये आसमान किसका है 
वुसअत ए सहारा: रेगिस्तान का फैलाव 
वही इक शेर मुझ में सांस लेगा 
जिसे कहते ज़माने लग गए हैं 
*
खुद में रहने का ये भी ख़दशा है 
हो न जाऊं कहीं मैं अपना शिकार 

अब के तन्हाई जानलेवा है 
ख़ुद से बाहर निकल किसी को पुकार 
*
मैं जिसके साए से बचकर निकलना चाहता हूं 
वो मुझको राह में अक्सर दिखाई देता है 

हमारे बीच ये नज़दीकियां ही काफी हैं 
तुम्हारे घर से मेरा घर दिखाई देता है 
फूलों ने बदले रंग कई तेरे जैसा होने को 
तुमको पाकर सोचता हूं कितना कुछ है खोने को 
बड़ी गहराई में मिलते हैं लफ़्ज़ों के ख़ज़ाने 
गुहर भी क्या कभी पानी के ऊपर तैरते हैं 
बहुत मजबूत हो पाए न रिश्ते 
कि दोनों में कोई झगड़ा नहीं था 

अगर आप शायरी प्रेमी हैं तो ये मुमकिन नहीं है कि आपने 'रतन पंडोरवी', 'राजेंद्र नाथ रहबर'और 'परवीन कुमार अश्क़'का नाम न सुना हो। सौभाग्यवश मैंने इन तीनो पर लिखा भी है। इन तीनो का आपस में जो सम्बन्ध है वो शायरी के अलावा उस शहर से भी है जिसके ये तीनो ही बाशिंदे रहे हैं। वो शहर है 'पठानकोट', इस शहर से मात्र 14 किलोमीटर दूर के एक गाँव 'शाहपुर कंडी'में 23 नवम्बर 1976 को जन्मे 'सुनील आफ़ताब'का नाम अब पठानकोट में जन्में ख्यातिप्राप्त शायरों की लिस्ट में शामिल हो गया है। हालाँकि ये जरूरी नहीं है फिर भी बता दूँ की 'शाहपुर कंडी'गाँव 'सुनील आफ़ताब'की जन्म भूमि के अलावा 'रावी'नदी पर बने शाहपुर कंडी बाँध'के लिए भी प्रसिद्ध है।

'सुनील'को शायरी विरासत में नहीं मिली , उनके परिवार में दूर दूर तक किसी का शायरी से कोई नाता नहीं रहा। फिर सुनील क्यों शायरी की तरफ मुख़ातिब हुए ? इसका जवाब सुनील के पास भी नहीं है। मुझे लगता है कि इंसान में कोई न कोई गुण उसे जन्म से मिलता है। हमें ही अपने अंदर छिपे गुणों का सही से अंदाजा नहीं होता। हर किसी के, उसके अंदर छिपे, गुण सामने नहीं आ पाते। कई बार तो हमें अपने अंदर के गुणों का पता जब चलता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।'सुनील'को खुशकिस्मती से अपने इस गुण का पता तब चला जब वो कालेज में पढ़ रहे थे। वो लिखते, अपने दोस्तों को सुनाते और खुश होते। ये वो ज़माना था जब इंटरनेट नहीं आया था .लिहाज़ा जो जानकारी चाहिए होती उसके लिए किताबें ही एक मात्र जरिया थीं। 'सुनील'ने अपने कालेज की लाइब्रेरी में रखी शायरी की किताबों को गंभीरता से पढ़ना शुरू किया। शायरी क्या होती है? ग़ज़ल का व्याकरण क्या है? जैसे पेचीदा सवालों का जवाब वो किताबों से ढूंढने लगे और कामयाब भी हुए। ग़ज़ल सीखने के लिए उन्होंने किसी एक उस्ताद को नहीं तलाशा बल्कि किताबों और अपने साथ के शायरों के मशवरों से खुद को दुरुस्त किया।

'सुनील'बहुत ज़ज़्बाती इंसान हैं। मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता। वो अपने बारे में बार बार इसरार करने पर भी कुछ नहीं बताते। उन्हें अपने बारे में बढ़चढ़ कर बताने की बात तो छोड़िये कुछ भी बताने से परहेज़ है। ये जो सब मैं यहाँ उनके बारे में लिख रहा हूँ ये भी बड़ी मुश्किल से मैंने पता किया है। आज के इस दौर में जहाँ एक ज़र्रा अपने आप को पहाड़ बताने के लिए दिन रात एक कर रहा है वहां एक ऐसा नौजवान भी है जो ख़ामोशी से अपना काम कर रहा है। मज़े की बात ये है कि उसे चाहने वाले भी उतने ही हैं जितने अपने आपको बढ़ चढ़ कर बताने वालों के हैं। कहने का मतलब ये है कि अगर आपके पास हुनर है, बात कहने का सलीका है तो आपको अपने मुंह मियां मिठ्ठू बनने की जरुरत नहीं है। अगर फूल में खुशबू है तो वो चाहे जहाँ खिला हो उसकी खुशबू तो फैलेगी ही। इंटरनेट की हवा से खुशबू जरा जल्दी फैलती है लेकिन दिल में बसती तभी है जब वो दिलकश हो और दिल ओ दिमाग को तारो ताज़ा कर दे।'सुनील'की शायरी में ये खूबियां आपको मिल जाएँगी। 

'गुरु नानक देव'यूनिवर्सिटी से बी एस सी तथा 'जम्मू यूनिवर्सिटी'के 'रामिष्ट कालेज'से बीएड करने के बाद 'सुनील'अध्यापन करने लगे। ये सिलसिला लम्बा नहीं चला। क्यों ? शायद संवेदनशील, सच्चे, सिद्धांतवादी और खुद्दार व्यक्ति के लिए कोई भी नौकरी करना आसान नहीं होता। नौकरी में समझौते करने ही पड़ते हैं। मुझे नहीं मालूम कि उन्होंने नौकरी क्यों छोड़ी, हो सकता है कोई और कारण रहा हो लेकिन छोड़ दी ये पक्का है। उसके बाद उन्होंने अपना व्यवसाय शुरू किया। कौनसा ? ये सवाल मैंने भी सुनील जी से पूछा तो उन्होंने संक्षिप्त सा उत्तर दिया 'छोटा मोटा रंगों का' , इससे आगे पूछने की मुझे हिम्मत भी नहीं हुई। 

तुम्हारे साथ मेरी चाहतें तुम्हीं तक थीं 
तुम्हारे बाद सभी से मुझे मोहब्बत है 
*
ढूंढने निकले तो फिर हम ढूंढते ही रह गए 
ज़िंदगी तुझको तो अपने पास ही समझे थे हम 
अब एक घर ही में शामिल हैं जाने कितने घर 
मैं घर में आऊं तो घर को तलाश करता हूं 
रौशनी में तो चमकती है शराफ़त मेरी 
तीरगी में मेरा किरदार बदल जाता है 
*
डूब जाए न कहीं नाव मेरी 
बढ़ते जाते हैं मुसाफिर मेरे 
ज़िंदगी कुछ इस तरह बोझल हुई 
हमने जीने का इरादा कर लिया 

एक बात तो पक्का है कोई भी 'सुनील'ऐसे ही 'आफ़ताब'नहीं बन जाता।अपने अंदर लगातार आग पैदा करनी पड़ती है , तपना पड़ता है और निरंतर चलना पड़ता है। 'सुनील'अपने मुंह से चाहे कुछ न बताएं लेकिन उनकी शायरी से अंदाज़ा हो जाता है कि उन्होंने 'सुनील'से 'सुनील आफताब'बनने के लिए कितनी तपस्या की होगी। इस किताब की भूमिका में - जो कमाल है और बार बार पढ़ने लायक है -- प्रसिद्ध शायर 'अमीर इमाम'ने लिखा है कि 'अच्छा शेर किसी शाइर के दिल से निकलने और उसके क़लम से लिखे जाने के बाद मुकम्मल नहीं होता बल्कि आने वाली नस्लों में फूलता-फलता रहता है', 'सुनील'की इस किताब में ऐसे शेर इक्का दुक्का नहीं, ढेरों हैं और यही  इस किताब की खासियत है। 'सुनील'की शायरी में पुख़्तगी लाने में बेहतरीन शायर जनाब 'विकास शर्मा राज़',महेंद्र कुमार सानी'और 'अमीर इमाम'का बहुत बड़ा हाथ है।
अपनी तरह के अनूठे शायर 'विकास शर्मा राज़'साहब लिखते हैं कि 'सुनील की ग़ज़लों में 'नासिर काज़मी'साहब का असर कहीं कहीं दिखता है, खास तौर पर छोटी बहर की ग़ज़लों में। इस असर के बावजूद शाइर ने अपनी आवाज़ और अदा  को तलाशने की कामयाब कोशिश की है। 
उस्ताद शायर जनाब 'मयंक अवस्थी'ने सुनील की शायरी पर लिखा है कि 'लफ्ज़ बरतना सुनील की शायरी का सबसे मज़बूत पक्ष है। सुनील आफ़ताब की शायरी में कई लफ़्ज़ रईस हो गए हैं।' 
मारूफ़ शायर जिया ज़मीर साहब लिखते हैं कि'सुनील संजीदगी से शेर कह रहे हैं। उन्हें कहीं जाने की जल्दी नहीं है , कुछ बड़ा हासिल करने की भूख भी उनमें दिखाई नहीं देती यानी अभी वो सिर्फ शेर कहने में मशगूल हैं.' 
मैं ज़िया भाई की इस बात से इत्तिफ़ाक़ रखता हूँ क्यूंकि जहाँ मुशायरों के मंचो पर बहुत से शायर अपने अध पके शेर कह कर धूम मचा रहे हैं वहां सुनील को मुशायरों में शेर पढ़ कर दाद के लिए झोली फैलाते देखना संभव ही नहीं है। यू ट्यूब पर भी शायद उनका एक आधा छोटा सा विडिओ कहीं हो तो हो वर्ना वो शायरी अपनी फ़ेसबुक वाल पर पोस्ट कर के ही खुश हैं। 
लाजवाब युवा शायर 'महेंद्र सानी'जी ने इस किताब पर बहुत अद्भुत टिपण्णी की है वो लिखते हैं 'आफ़ताब धूप के रंग देखने के ख़ाहा हैं। धूप जो स्रोत्र भी है और विस्तार भी। धूप जो संसार भी है एकांत भी। इसी धूप की सादा रंगों की तर्जुमानी है 'सुनील आफ़ताब'की शायरी। वो सुबह का उजाला हो या शाम की मलगिजी रौशनी सबमें उसी धूप को कारफ़रमा देखते हैं।

 'धूप में बैठने के दिन आये 'सुनील आफ़ताब का पहला शेरी मज़्मुआ है जिसमें उनकी 87 ग़ज़लें शामिल हैं। ये किताब 'रेख़्ता पब्लिकेशन से सन 2024 में शाया होकर चर्चित हो चुकी है। आप इसे अमेज़न से ऑन लाइन मंगवा सकते हैं। 

दुआएं मांगी थी मैंने तो कामयाबी की 
ये कब कहा था मेरे इम्तिहान कम कर दे 
घर से निकलूं तो दूर जा निकले 
किसी जंगल में रास्ता निकले 

इश्क़ राहें बदलता रहता है 
क्या पता कौन बेवफ़ा निकले 
तुम्हारे बाद जितना रह गया था 
उसी में अब गुज़ारा कर रहा हूं 

कई बेकार बहसों में उलझ कर 
मैंअपना ही ख़सारा कर रहा हूं 
 ख़सारा: हानि 
*
तुम्हारी याद से रौशन है दिल की वीरानी
चराग़ बुझ गया तो फिर खंडर का क्या होगा
*
फ़त्ह कर ली बुलंदियां सारी 
अब तो सारा सफ़र ढलान का है 

घर तो तक़्सीम होते रहते हैं 
मसअला अब जो है मकान का है 
या इतनी भी बेरंग ये दुनिया नहीं होती 
या मेरी नज़र ने तुम्हें देखा नहीं होता 
तमाम राह ए सफ़र यूं तो ख़ुशनुमा थी मगर 
भर आई आंख तेरा शहर पार करते हुये

किताब मिली - शुक्रिया - 22

दुखों से दाँत -काटी दोस्ती जब से हुई मेरी 
ख़ुशी आए न आए जिंदगी खुशियां मनाती है 
किसी की ऊंचे उठने में कई पाबंदियां हैं 
किसी के नीचे गिरने की कोई भी हद नहीं है 

युगों से जिसकी गाथाएं सुनी जाती रही हैं 
न जाने क्यों मुझे लगता वही शायद नहीं है 
रुदन कर नैन पथराए कभी के 
भले ही आज टूटी चूड़ियां हैं 
हाथ गर आईना नहीं होता 
हाथ मेरे भी क्या नहीं होता 

आपका अपना इक नज़रिया है 
कोई अच्छा बुरा नहीं होता 
जब से रहबर के हाथ में आई 
सारे घर को डरा रही माचिस 

जल्द-ही वोट पड़ने वाले हैं 
देखिए कुलबुला रही माचिस 
गायकी हमने भी सीखी लेकिन 
राग दरबारी सुनाते न बने 

गैर तो छूट गए पहले ही 
अब तो अपनों से निभाते न बने
आज भी मिलते तपस्वी ऐसे 
जो अहिल्या को शिला करते हैं 

आपने ऊपर जो शेर पढ़े ये हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार श्री 'राजेंद्र वर्मा'जी की क़लम का चमत्कार हैं। वर्मा जी स्वयं को हिंदी ग़ज़लकार कहते हैं क्यूंकि उनकी ग़ज़लों में आप तत्सम (संस्कृत से बिना किसी बदलाव के आये ) और तद्भव (संस्कृत के कुछ बदलाव के साथ आये ) शब्दों के समावेश के साथ साथ हिंदी के मुहावरों में ढली भाषा, भारतीय पौराणिक मिथ, ऐतिहासिक सन्दर्भ और देशज बिम्ब-प्रतीक भी पाते हैं। वैसे हिंदी ग़ज़ल की शुरुआत तो अमीर खुसरो से मानी जाती है बाद में निराला, त्रिलोचन, शमशेर, नीरज आदि की ग़ज़लों से इसकी पहचान बनी जो दुष्यंत की ग़ज़लों से पुख्ता हुई। 

हमारे सामने श्री 'राजेंद्र वर्मा'जी की ग़ज़लों की किताब 'प्रतिनिधि ग़ज़लें'खुली हुई है जिसमें उनकी 95 ग़ज़लें संग्रहित हैं. इस किताब को 'प्रतिनिधि हिंदी ग़ज़ल संग्रह'योजना के अंतर्गत डॉ. 'गिरिराजशरण अग्रवाल'जी के प्रयास से 'हिंदी साहित्य निकेतन'बिजनौर द्वारा प्रकाशित किया गया है। आप इस किताब को प्रकाशक से 07838090732 पर संपर्क कर अथवा अमेज़ॉन से ऑन लाइन मंगवा सकते हैं। 

8 नवम्बर 1957 को ग्राम-सधई पुरवा ( धमसड़), जनपद बाराबंकी (उत्तर प्रदेश ) में जन्में 'राजेंद्र'जी विलक्षण प्रतिभा के धनि हैं। माँ सरस्वती की इनपर विशेष कृपा रही है। आपने हिंदी ग़ज़ल लेखन के क्षेत्र के अलावा साहित्य की अन्य विधाओं जैसे कवितायेँ ,हाइकु और तांका कवितायेँ ( ये दोनों जापान से आयी कविता की विधियां हैं ), दोहे , मुक्तक, नवगीत, उपन्यास, मुक्त छंद कवितायेँ, व्यंग, निबंध, आलोचना तथा कहानी आदि में भी सफलता पूर्वक लेखन किया है। इन सभी विधाओं पर उनकी किताबें प्रकशित हो कर प्रसिद्ध हो चुकी हैं। 

ये तो कहिए की कमर सीधी है 
वरना अपने भी पराए लगते 
हमीं उम्मीद रखें आंधियों से 
कि वे बरतेंगी दूरी बस्तियों से 

मुई ये भूख बढ़ती जा रही है 
हया ने बैर ठाना पुतलियां से 
जब से जाना कि मैं स्वयं क्या हूं 
मुझको दुनिया ही लग रही अपनी 
यूं तो हवन अनेक हुए जोर-शोर से 
अवगुण मगर मैं एक भी स्वाहा न कर सका 
देखा जो नयन मूंद के दुनिया का नज़ारा 
कोई न शहंशा यहां कोई रियाया 
रोटी की बात करना लेकिन अभी ठहर जा 
इतिहास से अभी वे गांधी मिटा रहे हैं 
शिशु है मां की गोद में 
दोनों में उल्हास है 

आकर्षण ही मिट गया 
आत्मन इतना पास है 

कविता से उनका लगाव विद्यार्थी जीवन से रहा लेकिन सृजन का संयोग देर से हुआ। उन्होंने 1977 में एक गद्य कविता लिखी और उसे अमृतलाल नगर जी को दिखाया तो उन्होंने कहा 'तेवर तो तुम्हारे निराला वाले हैं लेकिन अभी पढ़ो और हाँ ,कम से कम पाँच सालों तक कुछ मत लिखो'। 'नागर जी'का ये सूत्र उन सभी लेखकों के लिए है जो लिख कर रातों रात प्रसिद्द होना चाहते हैं। हर लेखक को, वो चाहे किसी भी विधा में लिखे, सबसे पहले खूब पढ़ने की आदत डालनी चाहिए। 'राजेंद्र'जी ने 'नागर'जी की बात को गंभीरता से लिया और अगले पांच साल सिर्फ और सिर्फ पढाई की। 

उसके बाद पहली कहानी सं 1982 में लिख कर जब उसे 'नागर'जी को दिखाया तो बड़े खुश हुए और कुछ सुझाव भी दिए। विधि स्नातक 'राजेंद्र'जी ने 'स्टेट बैंक आफ इंडिया'में नौकरी की और फिर वहीं से मुख्य प्रबंधक के पद से सेवा निवृत हुए। सेवा निवृति के बाद अब वो स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। भीमसेन जोशी जी के गाये ध्रुपद, हरी प्रसाद चौरसिया जी की बांसुरी और सेमी क्लासिकल फ़िल्मी गीतों के प्रेमी 'राजेंद्र जी की साहित्य साधना पर लखनऊ विश्व विद्यालय द्वारा एम् फिल भी दी गयी है। अनेक विश्वविद्यालयों के शोध ग्रंथों में उनका सन्दर्भ आया है। उनकी ग़ज़लों तथा लघु कथाओं का पंजाबी भाषा में अनुवाद भी हुआ है। राजेंद्र जी की रूचि सार्थक एवं मनोरंजक फ़िल्में देखने तथा समय मिलने पर पर्यटन में भी है। 

राजेंद्र जी को उनकी बहुमुखी साहित्यिक प्रतिभा के लिए 'उत्तर प्रदेश के हिंदी संस्थान का श्री नारायण चतुर्वेदी तथा महावीर प्रसाद द्विवेदी पुरस्कार, अखिल भारतीय लघु कथा सम्मान, पटना, तथा 'कथा बिम्ब (मुंबई) पत्रिका द्वारा कमलेश्वर कहानी सम्मान के अलावा वो देश की अनेक साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। आप राजेंद्र जी को उनके इस ग़ज़ल संग्रह तथा अन्य साहित्यिक उपलब्धियों के लिए 8009660096 पर फोन कर बधाई दे सकते हैं। 

धारा में बहते रहते हो 
तुम इसको जीवन कहते हो 

ये दुनिया तो फ़ानी ठहरी 
जिसमें तुम डूबे रहते हो 
सोच रहा है गुमसुम बैठा राम भरोसे 
कब तक आख़िर देश चलेगा राम भरोसे 

गांधी के तीनों बंदर, बंदर ही निकले 
बांच रहा बस उनका लेखा राम भरोसे 
यश की भी अभिलाषा का अंत हुआ 
अब जीवन को जीना परिहास नहीं 
मैंने भी पत्नी की जांच रिपोर्टे देखी हैं 
अपनों से भी दिल का हाल छुपाना पड़ता है 
चूरन, चुस्की, चाट-समोसा फिर बुढ़िया के बाल 
हामिद तो चिमटा ले आया, लाया कौन त्रिशूल 
सात दशकों की यही सबसे बड़ी उपलब्धि है 
पिस रहे गेहूं बराबर, पिस न पाया एक घुन 
आप 'कालिदास'से भी दो कदम आगे बढ़े 
वृक्ष ही को काट देंगे, ये कभी सोचा न था 
अब तो कौरव और पांडव एक हैं 
द्रोपदी का चीर हरने के लिए

जाप मृत्युंजय का करता है वही 
जो है जीवित मात्र मरने के लिए

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