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सूर्यास्त

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सोचता हूँ आज आपको अपनी दोयम दर्ज़े कि ग़ज़ल पढ़वाने के बजाय एक ऐसी अद्भुत रचना पढ़वाई जाय जिसकी मिसाल हिंदी साहित्य में ढूंढें नहीं मिलती ( कम से कम मुझे ). इस बार दिल्ली के पुस्तक मेले में मुझे बरसों से तलाशी जा रही सूर्य भानु गुप्तसाहब कि किताब "एक हाथ की ताली"मिल गयी। इस किताब में गुप्त जी की ग़ज़लें, दोहे, कवितायेँ, त्रिपदियाँ, हाइकू, चतुष्पदिआं आदि सब कुछ है। वाणी प्रकाशन से इस किताब के सन 1997 से 2002 के अंतराल में चार संस्करण निकल चुके हैं। ये किताब बाज़ार में सहजता से उपलब्ध नहीं है। (कम से कम मेरी जानकारी में )

इस किताब के पृष्ठ 104 पर छपी गुप्त जी की लम्बी कविता "सूर्यास्त"के कुछ अंश आपको पढ़वाता हूँ।


 
 
चेहरे जले -अधजले जंगल
चेहरे बहकी हुई हवाएँ।
चेहरे भटके हुए शिकारे
चेहरे खोई हुई दिशाएँ।
 
चेहरे मरे हुए कोलम्बस
चेहरे चुल्लू बने समंदर।
चेहरे पत्थर की तहज़ीबें
चेहरे जलावतन पैगम्बर।
 
चेहरे लोक गीत फ़ाक़ों के
चेहरे ग़म की रेज़गारियां।
चेहरे सब्ज़बाग़ की शामें
चेहरे रोती मोमबत्तियाँ।
 
चेहरे बेमुद्दत हड़तालें
चेहरे चेहराहट से ख़ाली।
चेहरे चेहरों के दीवाले
चेहरे एक हाथ की ताली।
 
चेहरे दीमक लगी किताबें
चेहरे घुनी हुई तकदीरे।
चेहरे ग़ालिब का उजड़ा घर
चेहरे कुछ ख़त कुछ तस्वीरें।
 
चेहरे खुली जेल के क़ैदी
चेहरे चूर चूर आईने।
चहरे चलती फिरती लाशें
चेहरे अस्पताल के ज़ीने।
 
चेहरे ग़लत लगे अंदाज़े
चेहरे छोटी पड़ी कमीज़ें।
चेहरे आगे बढ़े मुक़दमे
चेहरे पीछे छूटी चीज़ें।
 
चेहरे चेहरों के तबादले
चेहरे लौटी हुई बरातें।
चेहरे जलसाघर की सुबहें
चेहरे मुर्दाघर की रातें।
 
चेहरे घुटनों घुटनों पानी
चेहरे मई जून की नदियां।
चेहरे उतरी हुई शराबें
चेहरे नस्लों कि उदासियाँ।
 
चेहरे ख़त्म हो चुके मेले
चेहरे फटे हुए गुब्बारे।
चेहरे ठन्डे पड़े कहकहे
चेहरे बुझे हुए अंगारे।
 
चेहरे सहरा धूप तिश्नगी
चेहरे कड़ी क़ैद में पानी।
चेहरे हरदिन एक करबला
चेहरे हर पल इक कुर्बानी।
 
चेहरे एक मुल्क के टुकड़े
चेहरे लहूलुहान आज़ादी।
चेहरे सदमों की पोशाकें
चेहरे इक बूढ़ी शहज़ादी।
 
चेहरे पिटी हुई तश्बीहें
चेहरे उड़े हाथ के तोते।
चेहरे बड़े मज़े में रहते
चेहरे अगर न चेहरे होते।
 
चेहरे अटकी हुई पतंगें
चाहों के सूखे पेड़ों पर
चेहरे इक बेनाम कैफियत
ऊन उतरवाई भेड़ों पर।
 
चेहरे एक नदी में फिसली
शकुन्तलाओं की अंगूठियां
उनको निगल गयीं जो, वे तो
मछली घर की हुई मछलियां।
 
चेहरे लादे हुए सलीबें
अपने झुके हुए कन्धों पर.
सहमे सहमे रैंग रहे हैं
जीवन की लम्बी सड़कों पर.
 
चेहरे सड़कें-छाप उँगलियाँ
पकडे पकडे ऊब चुके हैं
फ़िक्रों के टीलों के
पीछे चेहरे सारे डूब चुके हैं।
 
( सम्पूर्ण कविता में 31 छंद हैं )
 


किताबों की दुनिया -92

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नगर में प्लास्टिक की प्लेट में खाते तो हैं लेकिन
मुझे वो ढाक के पत्तल ओ दोने याद आते हैं
 
कभी मक्का की रोटी साग या फिर मिर्च की चटनी
पराठें माँ के हाथों के तिकोने याद आते हैं
 
मेरा बेटा तो दुनिया में सभी से खूबसूरत है
कहा माँ ने लगा के जो डिठौने याद आते हैं
 
यहाँ तो 'वज्र'अब बिस्तर पे बस करवट बदलता है
उसे वो गाँव के सादे बिछौने याद आते हैं

शायरी में देशज शब्दों जैसे ढाक ,पत्तल, डिठौने , बिछौने आदि का प्रयोग बहुत मुश्किल से पढ़ने में आता है। रोजी रोटी या अन्य कारणों से शहर आने के बाद बहुत से शायरों ने अपने गाँव की याद में बेहतरीन शेर कहें हैं। आज हम आपका परिचय एक ऐसे ही शायर और उसकी किताब से करवा रहे हैं जो दिल्ली जैसे महानगर में आने के बाद अपने गाँव को बहुत शिद्दत से याद करता है। अपने शेरों में गवईं शब्दों के माध्यम से उसने गाँव की खुश्बू फैलाई है।

खेल खिलोने लकड़ी का घोडा सब ओछे थे
मुझको तो अम्मा की कोली अच्छी लगती थी
 
कमरख आम करौंदे इमली आडू और बड़हल
झरी नीम से पकी निबोली अच्छी लगती थी
 
रोज बुलाता था मैं जिसको आवाजें दे कर
वो नन्हीं प्यारी हमजोली अच्छी लगती थी

ये शायरी पाठक को एक ऐसे संसार में ले जाती है जिसे समय अपने साथ कहीं ले गया है। इस संसार कि अब सिर्फ दिलकश यादें ही हम सब के जेहन में ज़िंदा हैं. बहुत से युवा पाठक शायद इस शायरी को आत्मसात न कर पाएं क्यूँ कि इसकी गहराई समझने के लिए संवेदनशील होने के अलावा उस वक्त को समझना भी जरूरी है जब ज़िन्दगी में भागदौड़ नहीं थी और रिश्तों में गहराई थी।

कभी मीठा कभी तीखा कभी नमकीन होता था
हमारे गाँव का मौसम बहुत रंगीन होता था
 
सवेरे छाछ के संग रात की बासी बची रोटी
वहाँ हर शख्स रस की खीर का शौक़ीन होता था
 
वहाँ गोबर लिपे चौके कि चौरे पर उगी तुलसी
उबलता दूध चूल्हे पर अजब सा सीन होता था

गाँव को इस अनूठे अंदाज़ में अपनी शायरी में पिरोने वाले शायर का नाम है श्रीपुरुषोतम'वज्र'जिनकी किताब "कागज़ कोरे"का जिक्र हम"किताबों की दुनिया"श्रृंखला में करने जा रहे हैं .


पंडित “सुरेश नीरव” जी ने ‘वज्र’ साहब कि शायरी के बारे में किताब की भूमिका में लिखा है कि "गाँव,बचपन, माँ ,पर्यावरण और मानवीय रिश्ते वज्र जी कि ग़ज़लों के केंद्रीय तत्व हैं. मनुष्यता इन ग़ज़लों के ऋषि प्राण हैं. माँ किसी जिस्म का नाम नहीं है यह वो अहसास है जो हमारी धमनियों में बसता है. मुश्किल में जो सुरक्षा कवच की तरह तरह हमेशा साथ देता है :-

मुश्किल में जब जाँ होती है
तब होठों पर माँ होती है
 
गर हों साथ दुआएं माँ की
हर मुश्किल आसाँ होती है
 
****
 
हवाएं साथ चलती हैं फ़िज़ायें साथ चलती हैं
मुझे रास्ता दिखाने को शमाएँ साथ चलती हैं
डरूँ मैं आँधियों से क्यूँ कि तूफाँ क्या बिगाड़ेगा
कि मेरे सर पे तो माँ कि दुआएं साथ चलती हैं
 
****

पुरुषोतम जी पिछले चार दशकों से पत्रकारिता से सम्बन्ध रहे हैं उन्होंने सांध्य वीर अर्जुन समाचार पत्र के मुख्य संवाददाता के रूप में पत्रकारिता की उल्लेखनीय सेवाएं कीं।वे पत्रकारिता में भारतीय विद्द्या भवन द्वारा "कन्हैया लाल माणिक लाल "पुरूस्कार के अलावा ''मैत्री मंच' ,'मातृ श्री' , 'आराधक श्री', 'संवाद पुरूस्कार ' , 'भारती रत्न ' , 'राजधानी गौरव' , जैसे 40 से अधिक सम्मानों से पुरुस्कृत किये गए हैं। राजनैतिक आन्दोलनों में 32 से अधिक बार जेल यात्रा की और आपातकाल में 16 माह तक जेल में रहना पड़ा। वज्र जी के ग़ज़लों के अलावा हास्य व्यंग और कविता संग्रह भी छप चुके हैं।

अब पहले सी बात कहाँ
तख्ती कलम दवात कहाँ
 
कुआँ बावड़ी रहट नहीं
झड़ी लगी बरसात कहाँ
 
धुआँ भरा है नगरों में
तारों वाली रात कहाँ
 
चना-चबैना , गुड़ -धानी
अब ऐसी सौगात कहाँ

"कागज़ कोरे "वज्र जी का तीसरा ग़ज़ल संग्रह है , इस से पूर्व सन 2001 में "इक अधूरी ग़ज़ल के लिए "और सन 2005 में "हाशिये वक्त के "ग़ज़ल संग्रह आ चुके हैं। इसका प्रकाशन "ज्योति पर्व प्रकाशन " 99 , ज्ञान खंड -3 , इंदिरापुरम , गाज़ियाबाद ने किया है। आप इस पुस्तक की प्राप्ति के लिए प्रकाशक को 9811721147 पर संपर्क कर सकते हैं।

रहज़न भी घूमते हैं अब खाकी लिबास में
कातिल छिपे हुए थे विधायक निवास में
 
औरत के हक़ में उसने जब आवाज़ की बुलंद
अस्मत उसी की लुट गयी थाने के पास में
 
हम तुमको सराहें और तुम हमको सराहो
यूँ ही गुज़ारी उम्र बस वाणी विलास में

हाल ही में दिल्ली में संपन्न हुए विश्व पुस्तक मेले के दौरान खरीदी इस किताब को पढ़ने के बाद मुझसे रुका नहीं गया और बधाई देने के लिए 14 अक्टूबर 1953 को मेरठ में पैदा हुए , पुरुषोतम जी को उनके मोबाइल न 9868035267 पर फोन लगाया। उधर से हेलो कि आवाज सुनते ही मैंने अपना संक्षिप्त परिचय दिया और एक ही सांस में उनकी किताब से शेर पढ़ते हुए ग़ज़लों की धारा-प्रवाह प्रशंशा शुरू कर दी , जब मैंने अपनी बात पूरी कर ली तो उधर से जवाब आया ग़ज़लों और किताब की प्रशंशा के लिए बहुत बहुत धन्यवाद नीरज जी मैं पुरुषोतम जी का बेटा बोल रहा हूँ , पापा का देहावसान 30 दिसंबर 2013 को हो गया था। आज अगर पापा आपकी बातें सुनते तो बहुत खुश होते। मैं बहुत देर तक कुछ बोल ही नहीं पाया . संवेदना के शब्द जबान से चिपक से गए, जेहन में रहे तो उनकी ग़ज़ल के ये शेर :-

लड़ते-लड़ते इन अंधेरों में कहीं खो जायेंगे
पीढ़ियों के वास्ते हम रौशनी बो जायेंगे
 
दुश्मनी कि इन्तहा जब एक दिन हो जायेगी
फिर हमेशा के लिए हम दोस्तों सो जायेंगे
 
याद आएगी हमारी इस सफ़र के बाद भी
उम्र का लम्बा सफ़र है एक दिन तो जायेगें

आईये हम सब ऐसे विलक्षण ग़ज़लकार की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करें।
 

किताबों की दुनिया - 93

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देश इस समय चुनावी दौर से गुज़र रहा है। हर दल अपनी अपनी पुंगी बजा कर मत दाता को लुभाने में लगे हैं। बहुत कम हैं जो देश के विकास की बात कर रहे हैं अधिकाँश को दूसरों के धर्म भाषा सूरत सीरत आदि में कमियां निकालने से फुर्सत नहीं मिल रही। आने वाले कल में कौन देश की कमान को सम्भालता है ये तो वक्त ही बतायेगा हम कुछ नहीं कहेंगे क्यूँ कि ये मंच राजनीति पे टिप्पणी करने का नहीं है सिर्फ शायरी के माध्यम से हकीकत बताने के लिए है :

कोई काम उन को जो आ पड़ा, हमें आसमाँ पे चढ़ा दिया
जो निकल गया मतलब, तभी हमें रास्ता भी दिखा दिया

वही राज है, वही ताज है, ये चुनाव सिर्फ रिवाज है
कहीं दाम दे के मना लिया, कहीं डर दिखा के बिठा दिया

ये जहां फरेब का नाम है, यहाँ झूठ ही को सलाम है
जो हकीकतों पे अड़ा रहा उसे ज़हर दे के मिटा दिया

इन सीधे सादे सच्चाई बयां करते हुए मारक शेरों के शायर हैं जनाब "कुमार साइल"साहब, जिनकी किताब "हवाएं खिलाफ थीं"का जिक्र हम आज अपनी "किताबों की दुनिया"श्रृंखला में करने जा रहे हैं।



दालान में दीवार तो खिंचावा दी है तुमने
ये धूप , ये बरसात, ये तूफ़ान भी बांटों

लाशें तो उठा लोगे कि पहचान हैं चेहरे
धरती पे पड़े खून की पहचान भी बांटों

क्यूँ थाप पे मेरी हो तेरे पाँव में थिरकन
हम तुम जो बंटें हैं तो ये सुर-तान भी बांटों

24 नवम्बर 1954 को हिसार (हरियाणा ) में जन्में साइल साहब ने दिल्ली यूनिवर्सिटी से मौसिकी में एम् ऐ किया। इन दिनों आप राजकीय स्नातकोत्तर महिला महाविद्यालय, भोडिया खेड़ा, फतेहाबाद (हरियाणा) में प्राचार्य के पद पर कार्यरत हैं। अपनी शायरी में आम इंसान कि खुशियां ग़म तकलीफें उत्सव समेटने वाले साइल साहब फरमाते है कि मेरी ग़ज़लों कि इस लहलहाती फ़सल के तबस्सुम के पीछे हज़ारों अफ़साने, सैंकड़ों कहानियां और न जाने कितने दर्दो-अलम पोशीदा हैं।

ऐ यार तेरे शहर का दस्तूर निराला है
इक हाथ में खंज़र है इक हाथ में माला है

मतलब के लिए खुद ही बारूद थमाते हैं
फिर आप ही कहते हैं, बम किसने उछाला है

किस किस को सजा देगी , अदालत ये जरा देखें
शामिल तो मेरे क़त्ल में हर देखने वाला है

इस किताब को पढ़ते वक्त ये बात बखूबी साफ़ हो जाती है कि शायर ने अपने अशआर में अपने दिली एहसास को बड़े सलीके से सजा कर पेश किया है. उनके हर शेर में एक हस्सास शायर का दिल धड़कता हुआ महसूस होता है. उनके ख़यालात अछूते हैं और शेर कहने का अंदाज़ भी निराला है.

बहुत सोचते थे हमीं से जहाँ है
मगर मर के पाया जहाँ का तहाँ है

इसी इक वहम ने किया हम को रुसवा
लबों पे हो कुछ भी मगर दिल में हाँ है

इबादत के घर में करे है सियासत
ये इन्सां की सूरत में इन्सां कहाँ है

ये माना गले से लगाओगे लेकिन
ये क्या शै है जो आस्तीं में निहाँ है

'हवाएं खिलाफ थीं'के अलावा साइल साहब का एक और शेरी मज़मूआ "रेशमी ज़ंज़ीर "मंज़रे आम पर आने के बाद खासी मकबूलियत हासिल कर चुका है. एक बहुत छोटी सी जगह का ये बड़ा सा शायर भले ही लोकप्रियता के उस मुकाम तक न पहुंचा हो जिस पर उनके समकालीन शायर कायम हैं लेकिन उनकी शायरी अपने समकालीन शायरों के मुकाबले उन्नीस नहीं कही जा सकती। इसीलिए वो जब भी रिसाले या अखबार में छपते हैं तो किसी भी प्रबुद्ध पाठक की निगाह से ओझल नहीं होते।

उस से भागें तो कि तरह भागें
साथ अपने वो कब नहीं होता

कौनसा दे है साथ वो अपना
क्या बिगड़ता जो रब नहीं होता

जैसे उग आये बेसबब सब्ज़ा
प्यार का भी सबब नहीं होता

ये किताब यकीनन मेरे हाथ नहीं आती अगर मैं इस साल के दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में नहीं गया होता। चलते रुकते देखते मुझे आधार प्रकाशन दिखा जहाँ ये किताब मुझे एक शेल्फ में रखी दिखाई दी। शायर का नाम परिचित नहीं था और ये ही इस किताब को शेल्फ से उठा कर देखने का कारण था. मुझे ऐसे शायर जिनके बारे में न अधिक पढ़ा हो और न सुना को पढ़ना बहुत पसंद है. नए शायर के प्रति आप की कोई पूर्व निर्मित धारणा नहीं होती इसीलिए पढ़ने में आनंद आता है। आधार प्रकाशन पर पुस्तकें खरीदने के दौरान हिंदी के प्रसिद्ध लेखक श्री एच आर हरनोट साहब से भी मुलाकात हुई जिनकी सादगी और अपनेपन ने मुझे भाव विभोर कर दिया। ये कहानी फिर सही।

इन फफोलों का गिला कीजे तो किस से कीजे
हम ही बैचैन थे दिल आग में धर देने को

ग़र्क़ होने का खतरा तो उठाना होगा
मौज आती नहीं हाथों में गुहर देने को
गुहर : मोती

पाँव काँटों से हुए जाते हैं छलनी 'साइल'
पेड़ तो खूब लगाए थे समर देने को

बात आधार प्रकाशन की तो हुई लेकिन आधार प्रकाशन है कहाँ इसकी चर्चा नहीं हुई। तो जनाब इस किताब की प्राप्ति के लिए आप आधार प्रकाशन, एस सी एफ 267 सेक्टर -16 पंचकूला -134113 (हरियाणा) को लिखें या aadhar_prkashan@yahoo.com पर ई-मेल करें और अगर आप लिखत पढ़त के झंझट से बचना चाहते हैं तो 0172 - 2566952 पर फोन करें। मेरी राय में तो आपको साइल साहब को 09812595833 पर फोन कर इस लाजवाब किताब के लिए बधाई देते हुए किताब प्राप्ति की फरमाइश कर देनी चाहिए। यकीन कीजिये इस किताब की हर ग़ज़ल आप के दिल पर असर करेगी।

चलते चलते उनकी एक ग़ज़ल के चंद शेर और पढ़िए :

अगर आदमी दिल से काला न होता
ख़ुदा ने अदन से निकाला न होता
अदन : स्वर्गीय उपवन

तुम्हारी ये तस्वीर कुछ और होती
लबों पे हमारे जो ताला न होता

पकाते न गर सब अलग अपनी खिचड़ी
सियासत के मुंह में निवाला न होता

किताबों की दुनिया -94

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सावन को जरा खुल के बरसने की दुआ दो 
हर फूल को गुलशन में महकने की दुआ दो 

मन मार के बैठे हैं जो सहमे हुए डर से 
उन सारे परिंदों को चहकने की दुआ दो 

वो लोग जो उजड़े हैं फसादों से, बला से 
लो साथ उन्हें फिर से पनपने की दुआ दो 

जिन लोगों ने डरते हुए दरपन नहीं देखा 
उनको भी जरा सजने संवारने की दुआ दो 

अपने अशआर के माध्यम से ऐसी दुआ करने वाले शायर को फरिश्ता, फकीर या नेक इंसान ही कहा जायेगा । शायर अवाम का होता है और सच्चा शायर वो है जो अवाम के भले की सोचे , अवाम को सिर्फ आईना ही नहीं दिखाए उनके जख्मों पे मरहम के फाहे भी रखे और उन्हें जीने का सलीका भी समझाए ।

जीना है तो मरने का ये खौफ मिटाना लाज़िम है 
डरे हुए लोगों की समझो मौत तो पल पल होती है 

कफ़न बांध कर निकल पड़े तो मुश्किल या मज़बूरी क्या 
कहीं पे कांटे कहीं पे पत्थर कहीं पे दलदल होती है 

इतना लूटा, इतना छीना, इतने घर बर्बाद किये 
लेकिन मन की ख़ुशी कभी क्या इनसे हासिल होती है 

इन खूबसूरत अशआर के शायर हैं जनाब "अज़ीज़ आज़ाद"जिनकी किताब "चाँद नदी में डूब रहा है"का जिक्र आज हम करने जा रहे हैं। शायरी की ये किताब गागर में सागर की उक्ति को चरितार्थ करती है.


तू जरा ऊंचाइयों को छू गया अच्छा लगा 
हो गया मगरूर तो फिर लापता हो जायेगा 

मैं न कहता था ये पत्थर काबिले-सज़दा नहीं 
एक दिन ये सर उठा कर देवता हो जाएगा 

बस अभी तो आईना ही है तुम्हारे रू-ब-रू 
क्या करोगे जब ये चेहरा आईना हो जायेगा 

अज़ीज़ साहब 21 मार्च 1944 को बीकानेर, राजस्थान में पैदा हुए और थोड़े से दिन बीमार रहने के बाद 20 सितम्बर 2006 को इस दुनिआ-ऐ=फानी को अलविदा कह गए. उन की शायरी चाहे उस्तादाना रंग लिए हुए नहीं थी लेकिन वो अवाम की ज़बान के शायर थे और सीधे दिल में उतर जाने वाले अशआर कहते थे. सच्ची और खरी बात कहने में उनका कोई सांनी नहीं था चाहे वो बात सुनने में कड़वी लगे , अब आप ही देखिये ऐसी तल्ख़ बयानी आपने कहीं पढ़ी है ?

मेरा मज़हब तो मतलब है मस्जिद और मंदिर क्या 
मेरा मतलब निकलते ही ख़ुदा को भूल जाता हूँ 

मेरे जीने का जरिया हैं सभी रिश्ते सभी नाते 
मेरे सब काम आते हैं मैं किसके काम आता हूँ 

मेरी पूजा-इबादत क्या सभी कुछ ढोंग है यारों 
फकत ज़न्नत के लालच में सभी चक्कर चलाता हूँ 

 "उम्र बस नींद सी "और "भरे हुए घर का सन्नाटा "ग़ज़ल संग्रह के अलावा उनका उपन्यास "टूटे हुए लोग " , "हवा और हवा के बीच "काव्य संग्रह और "कोहरे की धूप "के नाम से कहानी संग्रह भी मंज़रे आम पर आ चुके हैं। गायक रफीक सागर की आवाज़ में उनकी ग़ज़लों का अल्बम "आज़ाद परिंदा"भी मकबूलियत हासिल कर चुका है।

इस दौर में किसी को किसी की खबर नहीं 
चलते हैं साथ साथ मगर हमसफ़र नहीं 

अपने ही दायरों में सिमटने लगे हैं लोग 
औरों की ग़म ख़ुशी का किसी पे असर नहीं 

दुनिया मेरी तलाश में रहती है रात दिन 
मैं सामने हूँ मुझ पे किसी की नज़र नहीं 

महामहिम राज्यपाल, जिला प्रशाशन, नगर विकास न्यास बीकानेर सहित कई साहित्यिक, सामाजिक व् सांस्कृतिक संस्थाओं से पुरुस्कृत व सम्मानित अज़ीज़ साहब का "चाँद नदी में डूब रहा है "ग़ज़ल संग्रह "सर्जना" , शिव बाड़ी रोड बीकानेर - 334003 द्वारा प्रकाशित किया गया है जिसे sarjanabooks@gmail.com पर इ-मेल कर मंगवाया जा सकता है। इसके अलावा अज़ीज़ साहब की रचनाओंके लिए आप जनाब मोहम्मद इरशाद , मंत्री ,अज़ीज़ आज़ाद लिटरेरी सोसाइटी मोहल्ला चूनगरान , बीकानेर -334005 पर लिख सकते हैं या 9414264880 पर फोन से संपर्क कर सकते हैं.

सिर्फ मुहब्बत की दुनिया में सारी ज़बानें अपनी हैं 
बाकी बोली अपनी-अपनी खेल-तमाशे लफ़्ज़ों के 

आँखों ने आँखों को पल में जाने क्या क्या कह डाला 
ख़ामोशी ने खोल दिए हैं राज़ छुपे सब बरसों के 

नयी हवा ने दुनिया बदली सुर संगीत बदल डाले 
हम आशिक 'आज़ाद'हैं अब भी उन्हीं पुराने नग्मों के 

साम्प्रदायिक सौहार्द और इंसानी भाईचारे के अव्वल अलमबरदार अज़ीज़ साहब की शायरी के अलम पर शहरे बीकानेर की मुहब्बत और अमन पसंदगी का पैगाम अमिट सियाही में लिखा हुआ है। उनकी एक ग़ज़ल के चंद अशआर आपकी नज़र करते हुए अभी तो आप से रुखसत होते हैं फिर जल्द ही लौटेंगे एक नए शायर की किताब के साथ।

बारहा वो जो घर में रहते हैं 
कितने मुश्किल सफर में रहते हैं 

दूर रहने का ये करिश्मा है 
हम तेरी चश्मे तर में रहते हैं 

वो जो दुनिया से जा चुके कब के 
हम से ज्यादा खबर में रहते हैं 

दूर कितने भी हों मगर 'आज़ाद' 
बच्चे माँ की नज़र में रहते हैं

किताबों की दुनिया - 95

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दिन एक सितम, एक सितम रात करो हो  
वो दोस्त हो, दुश्मन को भी तुम मात करो हो 

हम को जो मिला है वो तुम्हीं से तो मिला है 
हम और भुला दें तुम्हें ? क्या बात करो हो 

दामन पे कोई छींट न खंज़र पे कोई दाग़ 
तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो 

आज के दौर में ग़ज़ल लेखन में बढ़ोतरी तो जरूर हुई है पर "तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो"जैसा खूबसूरत मिसरा पढ़ने को नहीं मिलता। ये कमाल ही रिवायती शायरी को आज तक ज़िंदा रखे हुए है। वक्त के साथ साथ इंसान की मसरूफियत भी बढ़ गयी है।  आज रोटी कपडा और मकान के लिए की जाने वाली मशक्कत शायर को मेहबूबा की जुल्फों की तरफ़ देखने तक की इज़ाज़त नहीं देती सुलझाना तो दूर की बात है। शायर अपने वक्त का नुमाइन्दा होता है इसीलिए हमें आज की शायरी में इंसान पर हो रहे जुल्म, उसकी परेशानियां, टूटते रिश्तों और उनके कारण पैदा हुआ अकेलेपन, खुदगर्ज़ी आदि की दास्तान गुंथी मिलती है।  

रखना है कहीं पाँव तो रखो हो कहीं पाँव  
चलना ज़रा आया है तो इतराय चलो हो 

जुल्फों की तो फितरत ही है लेकिन मेरे प्यारे 
जुल्फों से ज़ियादा तुम्हीं बल खाय चलो हो 

मय में कोई खामी है न सागर में कोई खोट 
पीना नहीं आये है तो छलकाए चलो हो 

हम कुछ नहीं कहते हैं कोई कुछ नहीं कहता 
तुम क्या हो तुम्हीं सब से कहलवाए चलो हो

ऐसे दौर में सोचा क्यों न रिवायती शायरी के कामयाब शायर जनाब "कलीम आज़िज़"साहब के कलाम की मरहम आज के पाठकों की जख्मी हुई रूहों पर रखीं जाएँ ताकि उन्हें थोड़ी बहुत राहत महसूस हो। इसीलिए हमने आज" किताबों की दुनिया "श्रृंखला में उनकी किताब "दिल से जो बात निकली ग़ज़ल हो गयी "का चयन किया है । कुछ भी कहें साहब रिवायती शायरी का अपना मज़ा है जो सर चढ़ कर बोलता है। कलीम साहब को तो यकीन जानिये इस फन में महारत हासिल है.   



आज अपने पास से हमें रखते हो दूर दूर 
हम बिन न था क़रार अभी कल की बात है

इतरा रहे हो आज पहन कर नई क़बा 
दामन था तार तार अभी कल की बात है 
क़बा =एक प्रकार का लिबास 

अनजान बन के पूछते हो है ये कब की बात 
कल की है बात यार अभी कल की बात है 
   
11 अक्टूबर 1924 को तेलहाड़ा (जिला पटना )में जन्में कलीम साहब की शायरी को पढ़ते हुए बरबस 'मीर'साहब याद आ जाते हैं क्यों की उनकी ग़ज़लों का तेवर मीरसाहब की बेहतरीन ग़ज़लों के तेवर की याद दिलाता है। मीर साहब की ग़ज़लों के तेवर की नक़ल बहुत से शायरों ने समय समय पर की है लेकिन कोई भी न इन तेवरों को दूर तक निभा पाया और न ही उसमें कुछ इज़ाफ़ा कर पाया । कलीम साहब ने ही मीर की शैली को पूरी कामयाबी साथ अपनाया और उसे अपने रंग और अंदाज़ से ताजगी भी प्रदान की।             
  
बंसी तो इक लकड़ी ठहरी लकड़ी भी क्या बोले है  
बंसी के परदे में प्यारे कृष्ण कन्हैया बोले है       
    
घर की बातें घर के बाहर भेदी घर का बोले है 
दिल तो है खामोश बेचारा लेकिन चेहरा बोले है 

अब तक शे'र -ओ-ग़ज़ल में उनकी गूँज रही हैं आवाज़ें 
सहरा से मजनूं बोले है शहर से लैला बोले है 

कलीम साहब की शायरी में , जिसका दामन उन्होंने छोटी उम्र से ही पकड़ लिया था , 1946 में तेलहाड़ा में हुए ख़ूनी साम्प्रदायिक दंगों बाद जिसमें उनका पूरा परिवार तबाह हो गया था, दर्द छलकने लगा । इसी दर्द ने उनकी शायरी को वो आग प्रदान की जिसकी आंच बहुत तेज थी और जिसकी टीस आजतक सुनाई देती है. उनकी कहानी जमाने की नहीं उनकी अपनी है। 

दिल टूटने का सिलसिला दिन रात है मियां 
इस दौर में ये कौन नयी बात है मियां 

नाराज़गी के साथ लो चाहे ख़ुशी से लो 
दर्दे जिगर ही वक्त की सौगात है मियां 

देने लगेंगे ज़ख्म तो देते ही जाएंगे 
वो हैं बड़े , बड़ों की बड़ी बात है मियां 

फूलों से काम लेते हो पत्थर का ऐ 'कलीम'
ये शायरी नहीं है करामात है मियां   

हिंदी भाषी पाठकों को ध्यान में रखते हुए जनाब 'ज़ाकिर हुसैन'साहब ने 'कलीम'साहब की लगभग चार सौ ग़ज़लों में से जो उनके दो ग़ज़ल संग्रह 'वो जो शायरी का सबब हुआ 'और 'जब फैसले बहाराँ आई थी 'में दर्ज़ हैं, करीब 150 ग़ज़लें इस किताब में सहेजी हैं। अच्छी शायरी के लिए जरूरी तीन कसौटियों - सांकेतिक,सार्थक और संगीतात्मक पर खरी उतरती इन सभी ग़ज़लों को बार बार पढ़ने का दिल करता है.

पूछो हो जो तुम हमसे रोने का सबब प्यारे 
हम काहे नहीं कहते गर हमसे कहा जाता 

गुज़री है जो कुछ हम पर गर तुम पे गुज़र जाती 
तुम हमसे अगर कहते हमसे न सुना जाता 

होती है ग़ज़ल 'आज़िज़'जब दर्द का अफ़साना 
कहते भी नहीं बनता चुप भी न रहा जाता        

भारत सरकार द्वारा 1989 में 'पद्मश्री'से सम्मानित कलीम साहब को दूसरे और ढेरों सम्मान प्राप्त हुए हैं जिनमें इम्तियाजे मीर - कुल हिन्द मीर अकादमी अल्लामा मिशिगन उर्दू सोसायटी अमेरिका ,प्रशंशा पत्र -उर्दू काउन्सिल आफ केनेडा , बिहार उर्दू एकेडेमी पुरूस्कार उल्लेखनीय हैं। कलीम साहब  ने 31 साल तक पटना कालेज में अध्यापन का कार्य किया और 1986 में सेवा निवृत हुए।        
     
मिरी बरबादियों का डाल कर इल्ज़ाम दुनिया पर 
वो ज़ालिम अपने मुंह पर हाथ रख कर मुस्कुरा दे है 

अब इंसानों की बस्ती का ये आलम है कि मत पूछो 
लगे है आग इक घर में तो हमसाया हवा दे है 

कलेजा थाम कर सुनते हैं लेकिन सुन ही लेते हैं 
मिरे यारों को मेरे ग़म की तल्खी भी मज़ा दे है 

वाणी प्रकाशन -दिल्ली ने सन 2014 में इस पुस्तक का प्रकाशन किया है।  आप वाणी प्रकाशन को इस किताब की प्राप्ति के लिए  +91 11 23273167 पर फोन करें या फिर मेल करें।  हज़ारों की भीड़ में अपनी पहचान बनाने वाली इस सलीकेमन्द शायर की ग़ज़लें सीधे दिल को छूती हैं। आप इस किताब को प्राप्त करने की जुगत करें तब तक हम निकलते हैं एक और किताब की तलाश में। 

उसे लूटेंगे सब लेकिन इसे कोई न लूटेगा 
न रखियो जेब में कुछ दिल में लेकिन हौसला रखियो 

मुहब्बत ज़ख्म खाते रहने ही का नाम है प्यारे 
लगाये तीर जो दिल पर उसी से दिल लगा रखियो 

न जाने कौन कितनी प्यास में किस वक्त आ जाए  
हमेशा अपने मयखाने का दरवाज़ा खुला रखियो 

यही शायर का सबसे कीमती सरमाया है प्यारे 
शिकस्ता साज़ रखियो दर्द में  डूबी सदा रखियो 

आसमाँ किस सहारे होता है ?

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एक ग़ज़ल यूँ ही बैठे -ठाले 




कौन कहता है छुप के होता है 
क़त्ल अब दिन दहाड़े होता है 

गर पता है तुम्हें तो बतलाओ 
इश्क कब क्यों किसी से होता है 

ढूंढते हो सदा वहाँ उसको 
जो हमेशा यहाँ पे होता है 

धड़कनें घुँघरुओं सी बजती हैं 
दिल जब उसके हवाले होता है 

आरज़ू क्यों करें सहारे की 
आसमाँ किस सहारे होता है ? 

चीख कर क्यों सदायें देते हो 
जब असर बिन पुकारे होता है 

उम्र ढलने लगी समझ 'नीरज ' 
दर्द अब बिन बहाने होता है

किताबों की दुनिया - 96

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जिस को भी अपने जिस्म में रहने को घर दिया 
उन्हीं के हाथ से मिरी मुठ्ठी में जान बंद 

जिन की ज़बान मेरी खमोशी ने खोल दी 
उन को गिला कि क्यों रही मेरी ज़बान बंद 

बाज़ार असलेहे का रहे रात भर खुला 
राशन की दिन ढले ही मगर हर दुकान बंद 
असलेहे = शस्त्र 

'अशरफ'ग़ज़ल को अपनी कभी तेग़ भी बना 
कर सर क़लम सितम का दुखों की दुकान बंद 

रिवायती शायरी की बात को पिछली पोस्ट से आगे बढ़ाते हुए आज किताबों की दुनिया श्रृंखला की इस कड़ी में ज़िक्र करते हैं जनाब'अशरफ गिल'साहब की किताब "सुलगती सोचों से"का।


कल तलक जिस में रह न पाएंगे 
उसको अपना मकान कहते हैं 

अपने बस में न अपने काबू में 
जिसको अपनी ज़बान कहते हैं 

हो ख़िज़ाँ और बहार का हमदम 
तब उसे गुलसितान कहते हैं 

उसके ज़ोर-ओ-सितम से हूँ वाक़िफ़ 
सब जिसे मेहरबान कहते हैं 

अशरफ गिल साहब का खमीर पंजाब की सर जमीं से उठा है। अशरफ जोड़ासियान गाँव , तहसील वज़ीराबाद , जिला गुज़राँवाला , (अब पाकिस्तान) में सन 1940 में पैदा हुए। पंजाब यूनिवर्सिटी , लाहौर से बी ऐ करने के बाद आप अकाउंटिंग की शिक्षा के लिए सिटी कालेज फ़्रिज़नो , केलिफोर्निया अमेरिका चले गए और वापस पाकिस्तान लौट कर यूनाइटेड बैंक में अफसर की हैसियत से बरसों नौकरी की। बाद में निजी कारोबार अपना कर अमेरिका में ही बस गए।

रहा जोश हमको कमाल का न रहा ध्यान कोई ज़वाल का 
यही भूल की न समझ सके क्या हलाल है क्या हराम है 

मेरे पास आएं जो एक क़दम, बढूँ उनकी सिम्त मैं दो क़दम 
जो मिलाएं मुझसे नहीं क़दम , उन्हें दूर ही से सलाम है 

वही ज़िंदगानी मिरी हुई, मेरे हुक्म पर जो चली रुकी 
जो बिखर गयी न सिमट सकी, वही आप लोगों के नाम है 

अशरफ साहब हर फ़न मौला इंसान हैं वो ग़ज़लें तो लिखते ही हैं उन्हें बखूबी गाते भी हैं क्यूंकि वो खुद मौसिकी के रसिया हैं। वो आम और खास के दिलों में उतरने का हुनर और मिडिया के भरपूर इस्तेमाल का सलीका भी जानते हैं। उन्होंने पंजाबी गाने न सिर्फ लिखे ,बल्कि उन्हें गाया भी। उर्दू फिल्मों के गीत भी लिखे। 'सुलगती सोचों से 'उनकी देव नागरी में छपी पहली किताब है जिसके ज़रिये अब वो हिंदी पाठकों से भी रूबरू हो रहे हैं। चूँकि गिल साहब पंजाबी , उर्दू , फ़ारसी और अंग्रेजी ज़बान से वाकिफ हैं इसलिए इन ज़बानों की मिठास उनकी शायरी में भी आ गयी है।

मैं वोट मर्ज़ी के इक रहनुमा को दे बैठा 
तभी हुकूमती दरबारियों की ज़द में हूँ 

किताबें भेजूं जिन्हें वो जवाब देते नहीं 
मैं उन की रद्दी की अलमारियों की ज़द में हूँ 

मसीहा भेज दो घर मेरे तुम न आओ 
भले तुम्हारी याद की बीमारियों की ज़द में हूँ 

जो देखा लिख दिया शेरोँ में हू ब हू शायद 
किया है जुर्म जो अखबारियों की ज़द में हूँ 

गिल साहब की ग़ज़लों से गुज़रते हुए आपको शायरी के अनेक रंग दिखाई देंगे। इंसानी ग़म -ख़ुशी , दर्द -राहत , प्यार- नफरत ,जफ़ा -वफ़ा ,गुल-कांटे , अमीरी गरीबी , दोस्ती-दुश्मनी , आशिक-माशूक ही नहीं बल्कि अपने आस पास घटती अच्छाई-बुराई को भी उन्होंने अपनी ग़ज़लों में समेटा है।

मिरी ग़ज़ल के हज़ार मानी , मिरी ग़ज़ल के हज़ार पैकर 
मिरे ज़माने के सानी भी , रंग मेरी ग़ज़ल के देखेँ 

सदा सहारों के आसरे पर हुए हैं बे आसरा जहां में 
बहुत चले राह पर किसी की अब अपनी मर्ज़ी से चल के देखें 

जिन्होंने बख्शी हैं सर्द आहें , भरी हैं अश्कों से ये निगाहें 
हम उनकी खातिर, ना फिर भी चाहें, पटक के सर हाथ मल के देखें 

जो मुल्क एटम बना रहे हैं , वो मुफलिसी को बढ़ा रहे हैं 
दिलों की धरती हसीं तर है , दिलों का नक्शा बदल के देखें 

दुनिया भर में इस बेमिसाल शायरी के लिए गिल साहब को ढेरों सम्मान और पुरूस्कार नवाज़े गए हैं। ये लिस्ट बहुत लम्बी है इसलिए उसे पूरी यहाँ दे पाना संभव नहीं है , बानगी के तौर पर 'अदबी अवार्ड 1999 - केलिफोर्निया-अमेरिका ' , 'ग़ज़ल अवार्ड , लाहौर ' , अवार्ड ऑफ ऑनर , पंजाब साहित्य अकेडमी -लुधियाना ' , सम्मान निशानी , लुधियाना , पंजाब ' , सम्मान पत्र , पंजाब साहित्य सभा , नवां शहर , पंजाब , आदि का जिक्र खास तौर पर करना चाहूंगा।

वो हम को भूल जाने से पेश्तर बताएं 
हम अपनी चाहत में कैसे कमी करेंगे 

इस दिल पे ज़ख्म मैंने यूँ ही नहीं सजाये 
दिल में कभी तो मेरे ये रौशनी करेंगे 

कुछ देर अक्ल को भी देते रहे हैं छुट्टी 
कुछ काम हमने सोचा बेकार भी करेंगे 

गिल साहब की लाजवाब 105 ग़ज़लों, जिनकी तरतीब और तर्जुमा जनाब एफ एम सलीम ( 9848996343 ) ने किया है, से सजी, एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस , दिल्ली -6 द्वारा प्रकाशित इस किताब की प्राप्ति टेडी खीर है। भला हो मेरे मुंबई निवासी प्रिय मित्र और बेहतरीन शायर जनाब 'सतीश शुक्ला 'रकीब'साहब का जिन्होंने बिन मांगे ही ये कीमती तोहफा डाक से मुझे भेज दिया। किताब के चाहने वाले अलबत्ता जनाब गिल साहब को ,जो फिलहाल अमेरिका रहते हैं, उनके ई-मेल ashgill88@aol.com पर संपर्क कर इस किताब की प्राप्ति का रास्ता पूछ सकते हैं। आप उनकी बेहतरीन ग़ज़लों का लुत्फ़ उनकी साइट www.asssshrafgill.com पर पढ़ और youtube:ashrafgill1 पर क्लिक करके देख सुन सकते हैं. जो लोग अमेरिका में उनसे संपर्क के इच्छुक हैं वो उन्हें उनके इस पते पर लिखे ASHRAF GILL , 2348, W.CARMEN AVE, FRESNO, CA, 93728,USA या 5593896750 / 559233126 पर फोन करें। आखिर में , अगली किताब की खोज पर चलने से पहले उनकी एक ग़ज़ल के ये अशआर भी पढ़वाता चलता हूँ .

दिल में जिस वक्त ग़म पिघलते हैं 
अश्क आँखों से तब ही ढलते हैं 

जब मुहब्बत की बात चलती है 
गुफ्तगू का वो रुख बदलते हैं 

चन्द लम्हें कि उम्र भर के लिए 
दर्द बन कर बदन में पलते हैं 

जैसे तैसे गुज़ार ले 'अशरफ' 
तेरी खुशियों से लोग जलते हैं 

किताबों की दुनिया - 97

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गलियों गलियों दिन फैलाता हूँ लेकिन 
घर में बैठी शाम से डरता रहता हूँ 

पेड़ पे लिख्खा नाम तो अच्छा लगता है 
रेत पे लिख्खे नाम से डरता रहता हूँ 

बाहर के सन्नाटे अच्छे हैं लेकिन 
अंदर के कोहराम से डरता रहता हूँ 

"किताबों की दुनिया"श्रृंखला धीरे धीरे जिस मुकाम पर पहुँच रही है उसकी कल्पना इसके शुरू करते वक्त कम से कम मुझे तो नहीं थी। अब इसके पीछे आप जैसे सुधि पाठकों का प्यार है , मेरा जूनून है या फिर उन किताबों में छपी शायरी की कशिश है जिनका जिक्र इस श्रृंखला में हो चुका है, हो रहा है या होगा ये बहस का मुद्दा हो सकता है लेकिन यकीन जानिये इस वक्त मैं इस बहस के मूड में कतई नहीं हूँ , इस वक्त तो बस मेरा मूड उस किताब का जिक्र करने का हो रहा है जिसका नाम है "आस्मां अहसास"और शायर हैं जनाब "निसार राही"साहब।


लफ़्ज़ों से तस्वीर बनाते रहते हैं 
जैसे तैसे जी बहलाते रहते हैं 

जब से चेहरा देखा उनकी आँखों में 
आईने से आँख चुराते रहते हैं 

बारिश, पंछी, खुशबू, झरना, फूल, चराग़ 
हम को क्या क्या याद दिलाते रहते हैं 

नक़्शे-पा से बच कर चलता हूँ 
अक्सर ये रस्ता दुश्वार बनाते रहते हैं 

जोधपुर, राजस्थान में 3 अगस्त 1969 को जन्में निसार साहब ने एम एस सी (बॉटनी) करने के बाद उर्दू में एम ऐ और पी.एच.डी की डिग्रियां हासिल कीं जो हैरत की बात है, हमारे ज़माने में ऐसे लोग कम ही मिलेंगे । निसार साहब ने अपने शेरी-सफ़र की शुरुआत ग़ज़ल से की । जोधपुर के हर छोटे बड़े मुशायरे का आगाज़ उनके मुंतख़िब शेरों की किरअत से होता था। बचपन में स्टेज से मिली दाद ही ने उन्हें शेर कहने पर उकसाया होगा।

ये चाहता हूँ कि पहले बुलंदियां छू लूँ 
फिर उसके बाद मैं देखूं मज़ा फिसलने का 

कभी तो शाम के साये हों उसके भी घर पर 
कभी हो उसको भी अहसास खुद के ढलने का 

सुनाई देती है आवाज़ किस के क़दमों की 
बहाना ढूंढ रहा है चराग जलने का  

'निसार',जोधपुर से ताल्लुक रखते हैं जहाँ बारिश औसत से भी कम होती है और तीसरे साल अकाल पड़ता है बावजूद इसके उनकी शायरी में आप समंदर, बारिश, पेड़ नदी हरियाली का जिक्र पूरी शिद्दत से पाएंगे। उनकी शायरी ज़िंदादिली से जीने की हिमायत करती शायरी है। वो अपने शेरों में गहरी बातें बहुत ही सादा ज़बान में पिरोने के हुनर से वाकिफ हैं।

दिल में हज़ार ग़म हों मगर इस के बावजूद 
चेहरा तो सब के सामने शादाब चाहिए 

खुशबू, हवा, चराग़, धनक, चांदनी, गुलाब 
घर में हर एक किस्म का अस्बाब चाहिए 

बादल समन्दरों पे भी बरसें हज़ार बार 
लेकिन 'निसार'सहरा भी सेराब चाहिए 

भारतीय जीवन बीमा निगम में मुलाज़मत कर रहे निसार साहब का एक और ग़ज़ल संग्रह 'रौशनी के दरवाज़े'सन 2007 में मंज़रे आम पर आ कर मकबूलियत पा चुका है। निसार साहब के इस ग़ज़ल संग्रह में भी चौकाने वाले खूबसूरत शेर बहुतायत में पढ़ने को मिल जाते हैं। सबसे बड़ी बात है के निसार साहब के शेरों में सादगी है पेचीदगी नहीं और इसी कारण उनका कलाम सहज लगता है बोझिल नहीं।

इस तरह धूप ने रख्खा मिरे आँगन में क़दम 
जैसे बच्चा कोई सहमा हुआ घर में आये 

ज़र्द पत्तों को जो देखा तो ये मालूम हुआ 
कितने मौसम तेरी यादों के शजर में आये 

जाने ये कौनसा रिश्ता है मिरा उस से 'निसार' 
उसके आंसू जो मिरे दीदा-ऐ-तर में आये

'निसार'साहब ने ग़ज़लों के आलावा नात, सलाम, मंतकब, दोहे, माहिये और नज़्में भी लिखीं और खूब लिखीं। सर्जना प्रकाशक बीकानेर द्वारा प्रकाशित किताब 'आस्मां अहसास'में आप निसार साहब की करीब 60 चुनिंदा ग़ज़लों के अलावा 50 बेहतरीन नज़्में भी पढ़ सकते हैं। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप सर्जना प्रकाशक को उनके इस मेल आई डी sarjanabooks@gmail.comपर मेल करें या फिर निसार साहब को उनकी खूबसूरत शायरी के लिए 09414701789पर फोन कर बधाई देते हुए उनसे किताब की प्राप्ति का आसान रास्ता पूछें। मैं तो भाई इस किताब को दिल्ली में हुए विश्व पुस्तक मेले से खरीद कर लाया था।

बारिश के इस मौसम में आईये मैं उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाते हुए अब आपसे विदा लेता हूँ।

आग लगी है सपनों में 
बरसा पानी बारिश कर 

झूट ज़मीं से बह जाए 
ऐसी सच्ची बारिश कर 

बेकाबू हो उसका प्यार 
उस दिन जैसी बारिश कर 

भूल न जाएँ लोग 'निसार' 
जल्दी जल्दी बारिश कर

किताबों की दुनिया - 98

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अक्सर मुझे ही शायरी की किताब ढूंढने के लिए इधर उधर भटकना पड़ता है , बहुत सी किताबें देखता हूँ ,खरीदता हूँ पढता हूँ और उन में से मुझे जो किताब पसंद आती है उसका जिक्र अपनी इस 'किताबों की दुनिया'श्रृंखला में करता हूँ। ये सिलसिला पिछले छै:- सात सालों से लगातार चल रहा है। कभी कभी ऐसा भी होता है कि कोई किताब भी मुझे अचानक ढूंढ लेती है। और जब ऐसा होता है तो उस ख़ुशी को बयां करना लफ़्ज़ों के बस में नहीं होता।

नतीजा कुछ न निकला उनको हाल-दिल सुनाने का 
वो बल देते रहे आँचल को ,बल खाता रहा आँचल 

इधर मज़बूर था मैं भी, उधर पाबन्द थे वो भी 
खुली छत पर इशारे बन के लहराता रहा आँचल 

वो आँचल को समेटे जब भी मेरे पास से गुज़रे 
मिरे कानों में कुछ चुपके से कह जाता रहा आँचल 

दरअसल हुआ यूँ कि इंदौर निवासी कामयाब कवयित्री और उभरती शायरा 'पूजा भाटिया 'प्रीत'जो अब नवी मुंबई के बेलापुर बस गयी हैं ,ने अपने घर एक दिन चाय पे बुलाया। उनके पति 'पंकज'जो खुद कविता और शायरी के घनघोर प्रेमी हैं ने अपने हाथ से बनाई लाजवाब नीम्बू वाली चाय पिलाई। गपशप के दौरान जब किताबों का जिक्र आया तो उन्होंने ने कहा कि नीरज जी आज आपको हम एक ऐसे शायर की किताब पढ़ने को देते हैं जिसे आपने अभी तक अपनी किताबों की दुनिया श्रृंखला में शामिल नहीं किया है। अंधे को क्या चाहिए ? दो आँखें। तो साहब आज मैं उसी किताब का जिक्र कर रहा हूँ जिसका शीर्षक है "याद आऊंगा"और शायर हैं जनाब 'राजेंद्र नाथ रहबर'


तू कृष्ण ही ठहरा तो सुदामा का भी कुछ कर 
काम आते हैं मुश्किल में फ़क़त यार पुराने 

फाकों पे जब आ जाता है फ़नकार हमारा 
बेच आता है बाजार में अखबार पुराने 

देखा जो उन्हें एक सदी बाद तो 'रहबर ' 
छालों की तरह फूट पड़े प्यार पुराने 

शकरगढ़ पाकिस्तान में पैदा हुए रहबर साहब मुल्क के बटवारे के बाद अपने माता -पिता के साथ पठानकोट में चले आये और यहीं के हो कर रह गए.हिन्दू कॉलेज अमृतसर से बी.ऐ , खालसा कॉलेज अमृतसर से एम.ए और पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ से एल.एल बी के इम्तिहान पास किये। शायरी का शौक उन्हें लकड़पन से ही हो गया जो फिर ता-उम्र उनका हमसफ़र रहा।

आइना सामने रक्खोगे तो याद आऊंगा 
अपनी जुल्फों को संवारोगे तो याद आऊंगा 

ध्यान हर हाल में जाएगा मिरि ही जानिब 
तुम जो पूजा में भी बैठोगे तो याद आऊंगा 

याद आऊंगा उदासी की जो रुत आएगी 
जब कोई जश्न मनाओगे तो याद आऊंगा 

शैल्फ में रक्खी हुई अपनी किताबों में से 
कोई दीवान उठाओगे तो याद आऊंगा 

मशहूर शायर 'प्रेम कुमार बर्टनी'फरमाते हैं कि 'राजेंद्र नाथ'के अशआर निहायत पाकीज़ा , सच्चे और पुर ख़ुलूस हैं और उनकी शायरी किसी गुनगुनाती हुई नदी की लहरों पर बहते हुए उस नन्हे दिए की मानिंद है जो किसी सुहागिन ने अपने रंग भरे हाथों से बहुत प्यार के साथ गंगा की गोद के हवाले किया हो। आप हो सकता है 'रहबर'साहब के नाम से अधिक वाकिफ न हों लेकिन अगर आप ग़ज़ल प्रेमी हैं और जगजीत सिंह जी को सुने हैं तो उनकी ये नज़्म जरूर आपके ज़हन में होगी :

तेरे खुशबू में बसे ख़त मैं जलाता कैसे 
प्यार में डूबे हुए ख़त मैं जलाता कैसे 
तेरे हाथों के लिखे ख़त मैं जलाता कैसे 
तेरे ख़त आज मैं गंगा में बहा आया हूँ 
आग बहते हुए पानी में लगा आया हूँ 

इस नज़्म से रहबर साहब को वो मकबूलियत हासिल हुई जो जनाब हफ़ीज़ जालंधरी को 'अभी तो मैं जवान हूँ ...."और साहिर लुधियानवी साहब को 'ताजमहल'से हुई थी। ऐसी ही कई और बेमिसाल नज़्में और ग़ज़लें कहने का फ़न आपने पंजाब के उस्ताद शायर प. रतन पंडोरवी जी की शागिर्दी में सीखा।

दुनिया को हमने गीत सुनाये हैं प्यार के 
दुनिया ने हमको दी हैं सज़ाएं नयी नयी 

ये जोगिया लिबास , ये गेसू खुले हुए 
सीखीं कहाँ से तुमने अदाएं नयी नयी 

जब भी हमें मिलो ज़रा हंस कर मिला करो 
देंगे फकीर तुम को दुआएं नयी नयी 

उर्दू ज़बान की टिमटिमाती लौ को जलाये रखने का काम रहबर साहब ने खूब किया है. उनकी सभी किताबें 'तेरे खुशबू में बसे खत' , 'जेबे सुखन' ,' ..... और शाम ढल गयी''मल्हार', 'कलस'और 'आग़ोशे गुल 'उर्दू ज़बान में ही प्रकाशित हुई थीं। 'याद आऊंगा 'उनकी देवनागरी में छपी पहली किताब है , जो यक़ीनन हिंदी में शायरी पढ़ने वालों को खूब पसंद आ रही है क्यूंकि इसमें शायरी की वो ज़बान है जो आजकल पढ़ने को कम मिलती है

तुम जन्नते कश्मीर हो तुम ताज महल हो
'जगजीत'की आवाज़ में ग़ालिब की ग़ज़ल हो 

हर पल जो गुज़रता है वो लाता है तिरी याद 
जो साथ तुझे लाये कोई ऐसा भी पल हो 

मिल जाओ किसी मोड़ पे इक रोज अचानक 
गलियों में हमारा ये भटकना भी सफल हो 

किसी भी ज़बान को ज़िंदा रखने के लिए जरूरी है कि उसे अवाम के करीब तर लाया जाय लिहाज़ा रहबर साहब ने अपनी उर्दू ग़ज़लों में भारी भरकम अल्फ़ाज़ इस्तेमाल नहीं किये हैं। सादगी और रेशमी अहसास उनकी हर ग़ज़ल में पढ़ने को मिलते हैं। अपनी पूरी शायरी में वो एक बेहतरीन इंसान, दोस्त और पुर ख़ुलूस रूमानी शायर के रूप में उभर कर सामने आते हैं.

शायरी और खास तौर पर उर्दू साहित्य को अपनी अनोखी प्रतिभा से चार चाँद लगाने वाले रहबर साहब को हाल ही में पंजाब सरकार ने अपने सर्वोच्च साहित्यक पुरूस्कार 'शिरोमणि उर्दू साहित्यकार अवार्ड'से सम्मानित किया है। दूरदर्शन द्वारा उन पर निर्मित 23 मिनट की डाक्यूमेंट्री फिल्म भी बनाई गयी है जिसे डी डी पंजाबी व् डी डी जालंधर केन्द्रों से प्रसारित किया गया है। 

फेंका था जिस दरख़्त को कल हमने काट के 
पत्ता हरा फिर उस से निकलने लगा है यार 

ये जान साहिलों के मुकद्दर संवर गए 
वो ग़ुस्ले-आफताब को चलने लगा है यार 
ग़ुस्ले-आफताब = सन बॉथ ( सूर्य -स्नान ) 

उठ और अपने होने का कुछ तो सबूत दे 
पानी तो अब सरों से निकलने लगा है यार 

दर्पण पब्लिकेशन बी -35 /117 , सुभाष नगर , पठानकोट -145001 द्वारा प्रकाशित इस किताब इस किताब में 'रहबर'साहब की सौ से अधिक ग़ज़लें संकलित की गयी हैं। दर्पण वालों ने इस किताब में न तो अपना ई -मेल एड्रेस दिया है और न ही फोन नंबर लिहाज़ा आप के पास इस किताब की प्राप्ति के लिए सिवा उन्हें चिट्टी लिखने के यूँ तो कोई दूसरा विकल्प नहीं है लेकिन फिर भी आप एक काम कर सकते हैं आप सीधे राजेंद्र नाथ रहबर साहब से उनके मोबाइल न. 09417067191 या 01862227522 पर बात करके उनसे इस किताब की प्राप्ति का रास्ता पूछ सकते हैं। यकीन माने रहबर साहब की बुलंद परवाज़ी और उम्दा ख़यालात-ओ-ज़ज़्बात से लबरेज़ ग़ज़लें आपकी ज़िन्दगी में रंग भर देंगीं।

चलते चलते आईये पढ़ते हैं उनकी एक नज़्म जिसके बारे में प्रेम वार बर्टनी साहब ने कहा था कि 'पांच मिसरों की इस नज़्म में पचास मिसरों की काट है " 

फर्क है तुझमें, मुझमें बस इतना, 
तूने अपने उसूल की खातिर, 
सैंकड़ों दोस्त कर दिए क़ुर्बा, 
और मैं ! एक दोस्त की खातिर , 
सौ उसूलों को तोड़ देता हूँ।

किताबों की दुनिया - 99

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नर्म लहज़े में दर्द का इज़हार
गो दिसंबर में जून की बातें 
**** 
जुर्म था पर बड़े मज़े का था 
जिसको चाहा वो दूसरे का था 
**** 
ज़ेहन की झील में फिर याद ने कंकर फेंका 
और फिर छीन लिया चैन मिरे पानी का
**** 
जब भी चाहें उदास हो जाएँ 
शुक्र है इतना इख़्तियार मिला 
**** 
कोई मंज़िल न मुझको रोक सकी 
खुद मिरा घर भी मेरी राह में है 
**** 
जो छुपाने की थी बात बता दी मुझको 
ज़िन्दगी तूने बहुत सख्त सज़ा दी मुझको 

हमारी "किताबों की दुनिया "श्रृंखला की ये पोस्ट इस लिहाज़ से अनूठी है कि हमारे आज के शायर के मशहूर वालिद साहब की किताब का जिक्र भी हम इस श्रृंखला में पहले कर चुके हैं। इस श्रृंखला में पिता के बाद उसके पुत्र की किताब का जिक्र पहली बार हो रहा है । मज़े की बात ये है कि इनके बड़े भाई भी आज हिन्दुस्तानी फिल्मों के बहुत बड़े लेखक और गीतकार हैं और साथ ही बेहतरीन शायर भी। इस शायर के नाम पर से पर्दा उठे उस से पहले आईये एक नज़र उनकी एक ग़ज़ल के इन शेरों पर डाल लें :

अंदर का शोर अच्छा है थोड़ा दबा रहे 
बेहतर यही है आदमी कुछ बोलता रहे 

मिलता रहे हंसी ख़ुशी औरों से किस तरह 
वो आदमी जो खुद से भी रूठा हुआ रहे 

बिछुडो किसी से उम्र भर ऐसे कि उम्र भर 
तुम उसको ढूंढो और वो तुम्हें ढूंढता रहे 

उस्ताद शायर जाँ निसार अख्तर के 31 जुलाई 1946 को लखनऊ में जन्में बेटे और जावेद अख्तर साहब के छोटे भाई "सलमान अख्तर"साहब की किताब "नदी के पास"का जिक्र हम आज इस श्रृंखला में करेंगे। ज़ाहिर सी बात है सलमान साहब को अदबी माहौल विरासत में मिला।


कौन समझा कि ज़िन्दगी क्या है 
रंज होता है क्यों, ख़ुशी क्या है 

जिन के सीनों पे ज़ख्म रोशन हों 
उनके रातों की तीरगी क्या है 

लोग, किस्मत, खुदा, समाज, फ़लक 
आगे इन सबके आदमी क्या है 

हम बहुत दिन जियें हैं दुनिया में 
हम से पूछो कि ख़ुदकुशी क्या है 

बहुत ज्यादा के हकदार इस बेहतरीन शायर की चर्चा बहुत कम हुई है क्यों की 'शायद उन्हें अपने आपको बेचने का हुनर नहीं आया। सलमान साहब पर उनकी माँ 'सफ़िया 'की बीमारी का बहुत गहरा असर हुआ शायद इसीलिए उन्होंने पांच साल की कच्ची उम्र में में डाक्टर बनने की ठान ली। पहले उन्होंने कॉल्विन तालुकदार कालेज से पढाई की और फिर अलीगढ विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान चिकित्सा में एम.डी की डिग्री हासिल की.

कब लौट के आओगे बता क्यों नहीं देते 
दीवार बहानों की गिरा क्यों नहीं देते 

तुम पास हो मेरे तो पता क्यों नहीं चलता 
तुम दूर हो मुझसे तो सदा क्यों नहीं देते 

बाहर की हवाओं का अगर खौफ है इतना 
जो रौशनी अंदर है, बुझा क्यों नहीं देते 

सलमान साहब ने अपनी शायरी की शुरुआत अपने बड़े भाई जावेद से पहले ही कर दी थी तभी तो जावेद साहब ने उनकी इस हिंदी-उर्दू लिपि में छपी किताब की भूमिका में लिखा है कि "उम्र में तो ये मुझसे कोई ढेढ़ साल छोटा है लेकिन शायरी में मुझसे पूरे दस साल बड़ा है "इनकी पहली किताब जो सं 1976 में प्रकाशित हुई थी जिसका आमुख उनके वालिद जाँ निसार अख्तर साहब ने लिखा था।

तीर पहुंचे नहीं निशानों पर 
ये भी इल्ज़ाम है कमानों पर 

जिस ने लब सी लिए सदा के लिए 
उसका चर्चा है सब ज़बानों पर 

सर झुकाये खड़े हैं सारे पेड़ 
और फल सज गए दुकानों पर 

सच की दौलत न हाथ आई कभी 
उम्र कटती रही बहानों पर 

मनो विज्ञान विषय पर उनकी 13 किताबें और 300 से अधिक आलेख विभिन्न देशों के मेडिकल जर्नल्स में छप कर प्रसिद्धि पा चुके हैं। शायरी में 'नदी के पास'उनका तीसरा संकलन है जो "कूबकू "और 'दूसरा घर "के बाद शाया हुआ है। ये किताब देवनागरी और उर्दू दोनों लिपियों में प्रकाशित हुई है. इस किताब में सलमान साहब की कुछ नज़्में और पचास के ऊपर ग़ज़लें संग्रहित हैं।

थोड़े बड़े हुए तो हकीकत भी खुलगयी 
स्कूल में सुना था कि भारत महान है 

देखूं मिरे सवाल का देता है क्या जवाब 
सुनता हूँ आदमी बड़ा जादू बयान है 


गो देखने में मुझसे बहुत मुख्तलिफ है वो 
अंदर से उसका हाल भी मेरे समान है 

सन 2004 में स्टार पब्लिकेशन 4 /5 आसफ अली रोड नई दिल्ली -110002 द्वारा प्रकाशित इस किताब को मंगवाने के लिए आपके पास सिवा उन्हें पत्र लिखने के और कोई दूसरा रास्ता मुझे नहीं मालूम। मुझे ये किताब अलबत्ता उभरती शायरा और स्थापित कवयित्री "पूजा प्रीत भाटिया 'जी के सौजन्य से प्राप्त हुई थी बहुत ही दिलकश अंदाज़ में जावेद अख्तर द्वारा लिखी भूमिका और सलमान साहब की बेहतरीन ग़ज़लों को समेटे ये किताब हर शायरी के प्रेमी को पढ़नी चाहिए। आखिर में सलमान साहब की एक ग़ज़ल के ये शेर आपके हवाले कर मैं अब चलता हूँ अगली किताब की तलाश में। खुश रहें।

फर्क इतना है कि आँखों से परे है वर्ना 
रात के वक्त भी सूरज कहीं जलता होगा 

खिड़कियां देर से खोलीं, ये बड़ी भूल हुई 
मैं ये समझा था कि बाहर भी अँधेरा होगा 

कौन दीवानों का देता है यहाँ साथ भला 
कोई होगा मिरे जैसा तो अकेला होगा


किताबों की दुनिया - 100

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मुंह पर मल कर सो रहे काली कीचड़ ज़िन्दगी 
जैसे यूँ धुल जाएँगी होने की रूसवाइयां 

गिर कर ठंडा हो गया हिलता हाथ फकीर का 
जेबों में ही रह गयीं सब की नेक कमाईयां 

फिरता हूँ बाज़ार में , रुक जाऊं लेता चलूँ 
उसकी खातिर ब्रेज़ियर , अपने लिए दवाइयाँ 

चलता -फिरता गोद में नीला गोला ऊन का 
गर्म गुलाबी उँगलियाँ , गहरी सब्ज़ सलाइयां 

कहन में अलग अंदाज़ और नए लफ़्ज़ों के प्रयोग के कारण अपने बहुत से साथी शायरों की आँख की किरकिरी बने पाकिस्तान के जिस शायर की किताब 'बिखरने के नाम पर'का जिक्र हम आज करने जा रहे हैं उनका नाम है 'ज़फर इक़बाल'


रात फिर आएगी, फिर ज़ेहन के दरवाज़े पर 
कोई मेहँदी में रचे हाथ से दस्तक देगा 

धूप है , साया नहीं आँख के सहरा में कहीं 
दीद का काफिला आया तो कहाँ ठहरेगा 
दीद : दृष्टि 

आहट आते ही निगाहों को झुका लो कि उसे 
देख लोगे तो लिपटने को भी जी चाहेगा 

पाकिस्तान के ओकारा में 1933 को जन्में ज़फ़र साहब ने पिछले चार दशकों में जितना लिखा है उतना आज के दौर के किसी और उर्दू शायर ने शायद ही लिखा हो। उन्होंने उर्दू ग़ज़ल की पारम्परिक भाषा उसके रूपकों, प्रतीकों, उपमाओं और दूसरे बंधे बंधाये सांचो को तोड़ते हुए अपनी अलग ही ज़मीन तैयार की। शायरी में नए प्रयोग किये जो बहुत सफल रहे।

जिस्म जो चाहता है, उससे जुदा लगती हो 
सीनरी हो मगर आँखों को सदा लगती हो 
सदा : आवाज़ 

सर पे आ जाये तो भर जाए धुंआ साँसों में 
दूर से देखते रहिये तो घटा लगती हो 

ऐसी तलवार अँधेरे में चलाई जाए 
कि कहीं चाहते हों, और कहीं लगती हो 

छठी दहाई में उभरने वाले शायरों में ज़फर इक़बाल सबसे चर्चित शायर रहे हैं। उन्होंने बोलचाल की शैली को साहित्यिक भाषा के रूप में प्रस्तुत किया और रचनात्मक स्तर पर एक नयी काव्यात्मक भाषा की रचना की। उनकी ग़ज़लों में कुछ बातें अटपटी जरूर लगती हैं लेकिन ये सभ्य समाज की अलंकृत भाषा एवं काल्पनिक विषयों से आगे आम आदमी की मानसिक स्थिति की सीधी अभिव्यक्ति करती हैं।

कोई सूरत निकलती क्यों नहीं है 
यहाँ हालत बदलती क्यों नहीं है 

ये बुझता क्यों नहीं है उनका सूरज 
हमारी शमअ जलती क्यों नहीं है 

अगर हम झेल ही बैठे हैं इसको 
तो फिर ये रात ढलती क्यों नहीं है 

मुहब्बत सर को चढ़ जाती है, अक्सर 
मेरे दिल में मचलती क्यों नहीं है 

'वाणी प्रकाशन'दिल्ली से प्रकाशित 'ज़फर'साहब की पहली देवनागरी भाषा में छपी शायरी की इस किताब में उनके छ: अलग अलग संग्रहों से चुनी हुई ग़ज़लों को संकलित किया गया है। ज़फर साहब की शायरी को हिंदी पाठकों तक पहुँचाने का भागीरथी प्रयास जनाब 'शहरयार'और 'महताब हैदर नकवी'साहब ने मिल कर किया है।

जिस से चाहा था, बिखरने से बचा ले मुझको 
कर गया तुन्द हवाओं के हवाले मुझ को 
तुन्द : तेज़ 

मैं वो बुत हूँ कि तेरी याद मुझे पूजती है 
फिर भी डर है ये कहीं तोड़ न डाले मुझको 

मैं यहीं हूँ इसी वीराने का इक हिस्सा हूँ 
जो जरा शौक से ढूढ़ें वही पा ले मुझको 

ज़फर साहब को पूरा पढ़ने की हसरत रखने वालों को उर्दू पढ़ना आना जरूरी है क्यों की उनकी कुलियात जो चार भागों में 'अब तक 'के शीर्षक से छपी है उर्दू में है। हालाँकि उन्होंने जितना लिखा है उसका एक छोटा सा अंश ही इस किताब में शामिल है फिर भी इस किताब में छपी उनकी सवा सौ ग़ज़लें पढ़ कर उनकी शायरी के मिज़ाज़ का अंदाज़ा उसी तरह हो जाता है जैसे कुऐं के पानी के स्वाद का उसकी एक बूँद चखने से हो जाता है।

खोलिए आँख तो मंज़र है नया और बहुत 
तू भी क्या कुछ है मगर तेरे सिवा और बहुत 

जो खता की है जज़ा खूब ही पायी उसकी 
जो अभी की ही नहीं, उसकी सज़ा और बहुत 
जज़ा : नेकी का बदला 

खूब दीवार दिखाई है ये मज़बूरी की 
यही काफी है बहाने न बना, और बहुत 

सर सलामत है तो सज़दा भी कहीं कर लूँगा 
ज़ुस्तज़ु चाहिए , बन्दों को खुदा और बहुत 

अंत में अपने पाठकों का मैं दिल से आभार व्यक्त करता हूँ जिनके लगातार उत्साह वर्धन, सहयोग और प्रेम ने मुझे इस श्रृंखला को 100 के जादुई आंकड़े तक पहुँचाने में मदद की।

किताबों की दुनिया - 101

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इंसान में हैवान , यहाँ भी है वहां भी 
अल्लाह निगहबान, यहाँ भी है वहां भी 

रहमान की कुदरत हो या भगवान की मूरत 
हर खेल का मैदान , यहाँ भी है वहां भी 

हिन्दू भी मज़े में हैं, मुसलमां भी मज़े में 
इन्सान परेशान , यहाँ भी है वहां भी 

अपने और सरहद पार के मुल्क में जो समानता है उसको हमारी "किताबों की दुनिया "के 100 वें शायर के अलावा शायद ही किसी और शायर ने इतनी ख़ूबसूरती और बेबाकी से पेश किया हो। सुधि पाठक इस बात से चौंक सकते हैं कि जब ये इस श्रृंखला की 101 वीं कड़ी है तो फिर शायर 100 वें कैसे हुए ? सीधी सी बात है हमने ही तुफैल में या समझें जानबूझ कर हमारे शहर और बचपन के साथी राजेश रेड्डी का जिक्र दो बार कर दिया था जो इस श्रृंखला की अघोषित नीति के अनुसार गलत बात थी। अब जो हो गया सो हो गया, उस बात को छोड़ें और जिक्र करें हमारे आज के शायर का जो इस दौर के सबसे ज्यादा पढ़े और सुने जाने वाले शायरों में से एक हैं। शायर का नाम बताने से पहले पढ़िए उनकी ये रचना जिसे पढ़ कर मुझे यकीन है आप फ़ौरन जान जायेंगे कि मैं आज किस शायर की किताब का जिक्र करने वाला हूँ :-

बेसन की सौंधी रोटी पर ,खट्टी चटनी जैसी माँ 
याद आती है चौका-बासन, चिमटा, फुकनी -जैसी माँ

बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन थोड़ी थोड़ी सी सब में 
दिन भर इक रस्सी के ऊपर चलती नटनी - जैसी माँ 

बाँट के अपना चेहरा, माथा, आँखें जाने कहाँ गयी 
फ़टे  पुराने इक अलबम में चंचल लड़की - जैसी माँ 


"निदा फ़ाज़ली" - एक दम सही जवाब और किताब है साहित्य अकादमी पुरूस्कार से सम्मानित "खोया हुआ सा कुछ ". ग़ज़ल हो या नज़्म,गीत हो या दोहे हर विधा में रचनाकार निदा फ़ाज़ली अपनी सोच,शिल्प, और अंदाज़े बयां में दूसरों से अलग ही दिखाई नहीं देते , पूरी उर्दू शायरी में अकेले नज़र आते हैं। इस किताब की अधिकतर रचनाओं मसलन "कहीं कहीं पे हर चेहरा तुम जैसा लगता है ", "ग़रज़-बरस प्यासी धरती पर फिर पानी दे मौला" ,"अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफर के हम हैं" ,"धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो", "मुंह की बात सुने हर कोई", आदि को जगजीत सिंह जी ने अपने स्वर में ढाल कर हर खास-ओ-आम तक पहुंचा दिया है इसीलिए हम आज उनकी उन ग़ज़लों का जिक्र करेंगे जो इनसब से अलग हैं :

निकल आते हैं आंसू हँसते - हँसते 
ये किस ग़म की कसक है हर ख़ुशी में 

गुज़र जाती है यूँ ही उम्र सारी 
किसी को ढूंढते हैं हम किसी में 

सुलगती रेत में पानी कहाँ था 
कोई बादल छुपा था तिश्नगी में 

बहुत मुश्किल है बंजारा मिज़ाजी 
सलीका चाहिए आवारगी में 

आधुनिक शायर निदा फ़ाज़ली साहब की आधुनिकता उनके पाठकों और श्रोताओं से कभी दूर नहीं होती। निदा जी की पहचान उनकी सरल सहज ज़मीनी भाषा है जिसमें हिंदी उर्दू का फर्क समाप्त हो जाता है और यही उनकी लोकप्रियता का राज़ भी है ।

उठके कपडे बदल , घर से बाहर निकल , जो हुआ सो हुआ 
रात के बाद दिन , आज के बाद कल , जो हुआ सो हुआ 

जब तलक सांस है, भूख है प्यास है , ये ही इतिहास है  
रख के काँधे पे हल , खेत की और चल , जो हुआ सो हुआ 

मंदिरों में भजन, मस्जिदों में अजां , आदमी है कहाँ 
आदमी के लिए एक ताज़ा ग़ज़ल, जो हुआ सो हुआ 

किताब के रैपर पर सही लिखा है कि 'निदा फ़ाज़ली की शायरी एक कोलाज़ के सामान है। इसके कई रंग और रूप हैं। किसी एक रुख से इसकी शिनाख्त मुमकिन नहीं। उन्होंने ज़िन्दगी के साथ कई दिशाओं में सफर किया है उनकी शायरी इस सफर की दास्तान है। जिसमें कहीं धूप कहीं छाँव है कहीं शहर कहीं गाँव है। '

इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी 
रात जंगल में कोई शमअ जलाने से रही 

फासला चाँद बना देता है हर पत्थर को 
दूर की रौशनी नज़दीक तो आने से रही 

शहर में सबको कहाँ मिलती है रोने की जगह 
अपनी इज़्ज़त भी यहाँ हंसने हंसाने से रही 

12 अक्टूबर 1938 को दिल्ली के एक कश्मीरी परिवार में जन्में निदा की स्कूली शिक्षा ग्वालियर में हुई। 1947 के भारत पाक विभाजन में उनके माता पिता पाकिस्तान चले गए जबकि निदा भारत में रहे। बचपन में एक मंदिर के पास से गुज़रते हुए उन्होंने सूरदास का भजन किसी को गाते हुए सुना और उससे प्रभावित हो कर वो भी कवितायेँ लिखने लगे। रोजी रोटी की तलाश उन्हें 1964 में मुंबई खींच लायी जहाँ वो धर्मयुग और ब्लिट्ज के लिए नियमित रूप से लिखने लगे।

हम हैं कुछ अपने लिए कुछ हैं ज़माने के लिए 
घर से बाहर की फ़िज़ा हंसने हंसाने के लिए 

मेज़ पर ताश के पत्तों सी सजी है दुनिया 
कोई खोने के लिए है कोई पाने के लिए 

तुमसे छुट कर भी तुम्हें भूलना आसान न था 
तुमको ही याद किया तुमको भुलाने के लिए 

मुंबई की फ़िल्मी दुनिया ने भी उनकी लेखन प्रतिभा को पहचाना और उन्हें फिल्मों में गीत और स्क्रिप्ट लेखन का मौका दिया। फिल्म 'रज़िया सुलतान'के लिए लिखे उनके गानों ने धूम मचा दी। फ़िल्मी गीत लिखने में स्क्रिप्ट और मूड की बाध्यता उन्हें रास नहीं आई। वो लेखन को भी चित्रकारी और संगीत की तरह सीमा में बंधी हुई विधा नहीं मानते। इसी कारण उनका फ़िल्मी दुनिया से नाता सतही तौर पर ही रहा।

याद आता है सुना था पहले 
कोई अपना भी खुदा था पहले 

जिस्म बनने में उसे देर लगी 
इक उजाला सा हुआ था पहले 

अब किसी से भी शिकायत न रही 
जाने किस किस से गिला था पहले 

निदा साहब की हिंदी उर्दू गुजराती में लगभग 24 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं।"खोया हुआ सा कुछ"देवनागरी में उनके "मोर नाच"के बाद दूसरा संकलन है जिसे "वाणी प्रकाशन "दिल्ली ने प्रकाशित किया है। इस संकलन में निदा साहब की चुनिंदा ग़ज़लों के अलावा उनकी नज़्में और दोहे भी शामिल हैं।

निदा साहब को सन 1998 में साहित्य अकादमी और 2013 पद्म श्री के पुरूस्कार से नवाज़ा गया है। इसके अलावा भी खुसरो पुरूस्कार ( म,प्र ), मारवाड़ कला संगम (जोधपुर), पंजाब असोसिएशन (लुधियाना), कला संगम (मद्रास ), हिंदी -उर्दू संगम ( लखनऊ ), उर्दू अकेडमी (महाराष्ट्र), उर्दू अकेडमी ( बिहार) और उर्दू अकेडमी (उ.प्र ) से भी सम्मानित किया जा चुका है.
चलिए चलते चलते उनके उन दोहों का आनंद भी ले लिया जाय जिन्हें जगजीत सिंह जी ने नहीं गाया है और उनकी बहुमुखी प्रतिभा को सलाम करते हुए अगले शायर की तलाश पर निकला जाए।

जीवन भर भटका किये , खुली न मन की गाॅंठ 
उसका रास्ता छोड़ कर , देखी उसकी बाट 
**** 
बरखा सब को दान दे , जिसकी जितनी प्यास 
मोती सी ये सीप में, माटी में ये घास 
**** 
रस्ते को भी दोष दे, आँखे भी कर लाल 
चप्पल में जो कील है, पहले उसे निकाल 
**** 
मैं क्या जानू तू बता तू है मेरा कौन 
मेरे मन की बात को, बोले तेरा मौन

अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं

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दिपावली के शुभ अवसर पर पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर तरही मुशायरे का सफल आयोजन हुआ ,उसी में प्रस्तुत खाकसार की ग़ज़ल 

दुबक के ग़म मेरे जाने किधर को जाते हैं 
अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं 

हज़ार बार कहा यूँ न देखिये मुझको 
हज़ार बार मगर, देख कर सताते हैं 

उदासियों से मुहब्बत किया नहीं करते 
हुआ हुआ सो हुआ भूल, खिलखिलाते हैं 

हमें पता है कि मौका मिला तो काटेगा 
हमीं ये दूध मगर सांप को पिलाते हैं 

कमाल लोग वो लगते हैं मुझ को दुनिया में 
जो बात बात पे बस कहकहे लगाते हैं 

जहाँ बदल ने की कोशिश करी नहीं हमने 
बदल के खुद ही जमाने को हम दिखाते हैं 

बहुत करीब हैं दिल के मेरे सभी दुश्मन 
निपटना दोस्तों से वो मुझे सिखाते हैं 

गिला करूँ मैं किसी बात पर अगर उनसे 
तो पलट के वो मुझे आईना दिखाते हैं 

रहो करीब तो कड़ुवाहटें पनपती हैं 
मिठास रिश्तों की कुछ फासले बढ़ाते हैं 

नहीं पसंद जिन्हें फूल वो सही हैं, मगर 
गलत हैं वो जो सदा खार ही उगाते हैं 

ये बादशाह दिए रोंध कर अंधेरों को 
गुलाम मान के, अपने तले दबाते हैं 

बहुत कठिन है जहां में सभी को खुश रखना 
कि लोग रब पे भी अब उँगलियाँ उठाते हैं 

जिसे अंधेरों से बेहद लगाव हो 'नीरज' 
चराग सामने उसके नहीं जलाते हैं

किताबों की दुनिया -102

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उस पार से मुहब्बत आवाज़ दे रही है 
दरिया उफ़ान पर है दिल इम्तहान पर है 

ऊंचाइयों की हद पर जा कर ये ध्यान रखना 
अगला कदम तुम्हारा गहरी ढलान पर है 

'राजेंद्र'से भले ही वाक़िफ़ न हो ज़माना 
ग़ज़लो का उसकी चर्चा सबकी जुबान पर है 

हम अपनी आज की 'किताबों की दुनिया 'श्रृंखला में 2 मार्च 1960 में जन्मे उसी राजेंद्र तिवारी जी की किताब 'संभाल कर रखना'की चर्चा करेंगे और जानेंगे कि क्यों उनकी ग़ज़लें सबकी जबान पर हैं।


उठाती है जो ख़तरा हर क़दम पर डूब जाने का 
वही कोशिश समन्दर में खज़ाना ढूंढ लेती है 

हक़ीक़त ज़िद किये बैठी है चकनाचूर करने को 
मगर हर आँख फिर सपना सुहाना ढूंढ लेती है 

न कारोबार है कोई , न चिड़िया की कमाई है 
वो केवल हौसले से आबो-दाना ढूंढ लेती है 

कानपुर निवासी राजेंद्र जी को शुरू से ही शोहरत की कोई लालसा नहीं रही न मंचो के माध्यम से न प्रकाशनों के लेकिन जिस तरह फूल को अपने खिलने की सूचना किसी को देनी नहीं होती उसकी खुशबू उसके खिलने का पता दे देती वैसे ही लगनशील रचनाकार की उत्कृष्ट रचनाएँ उसकी शोहरत स्वयं फैला देती हैं। ऐसे ही रचनाकारों में शुमार किये जाते हैं राजेंद्र तिवारी जी। फ़िक्र और फ़न के सम्यक सामंजस्य के कारण उनकी ग़ज़लें एक अलग छाप छोड़ती हैं।

गृहस्थी में कभी रूठें -मनायें ठीक है, लेकिन 
हो झगड़ा रोज़ तो घर की ख़ुशी को चाट जाता है 

सिमट कर जैसे आ जाये समंदर एक क़तरे में 
कोई ऐसा भी लम्हा है, सदी को चाट जाता है 

ग़ज़ल की परवरिश करने पे खुश होना होना तो लाज़िम है 
ग़ुरूर आ जाये तो फिर शायरी को चाट जाता है 

चेहरे पे खिचड़ी दाढ़ी, गहरी आवाज, आकर्षक लहजा, लहज़े में ग़ज़ब का आत्म विशवास औरगुरूर से कोसों दूर राजेंद्र जी का शायरी से लगाव 18 साल की उम्र से हो गया था जिसे संवारा और परवान चढ़ाया उनके गुरु और मार्गदर्शक स्व.पं कृष्णानन्द जी चौबे ने। उनके स्नेहनिल संरक्षण, सम्यक मार्गदर्शन और उत्साह वर्धन ने उनकी रचनात्मकता को निखारने के साथ ही फ़िक्र को ग़ज़ल के साँचे में ढालने की कला सिखाई।

पर्वत के शिखरों से उतरी सजधज कर अलबेली धूप 
फूलों फूलों मोती टाँके, कलियों के संग खेली धूप 

सतरंगी चादर में लिपटी जैसे एक पहेली धूप 
जाने क्यों जलती रहती है, छत पर बैठ अकेली धूप 

मुखिया के लड़के सी दिन भर मनमानी करती घूमे 
आँगन -आँगन ताके - झाँके फिर चढ़ जाय हवेली धूप 

अपनी बेहतरीन और दिलफरेब शायरी के लिए राजेंद्र जी को सन 2000 में अली अवार्ड से और 2001 में वाक़िफ़ रायबरेली सम्मान से नवाजा गया. इसके अलावा अनुरंजिका ,सौरभ ,मानस संगम इत्यादि अनेक साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया। आपकी ग़ज़लों को देश की विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं जैसे हंस, कथालोक, नवनीत, अक्षरा, इंद्र प्रस्थ भारती, कथन और गगनांचल इत्यादि में भी प्रकाशित किया गया है।

न जाने कौनसी तहज़ीब के तहत हमको 
सिखा रहें हैं वो ख़ंजर संभाल कर रखना 

ख़ुशी हो ग़म हो न छलकेंगे आँख से आंसू 
मैं जानता हूँ समंदर संभाल कर रखना 

तुम्हारे सजने संवरने के काम आएंगे 
मेरे ख्याल के ज़ेवर संभाल कर रखना 

भला हो मेरे मुंबई निवासी शायर मित्र सतीश शुक्ला 'रकीब'साहब का जिनके माध्यम से मुझे राजेंद्र जी और उनकी की शायरी को जानने का मौका मिला। उत्तरा बुक्स केशम् पुरम दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस ग़ज़ल संग्रह में राजेंद्र जी की 101 ग़ज़लें संगृहीत हैं जिसे 09868621277 पर फोन कर प्राप्त किया जा सकता है। आप राजेंद्र जी से 9369810411 पर संपर्क कर के भी इस किताब को प्राप्त कर सकते हैं।

पत्थरोँ से सवाल करते हैं 
आप भी क्या कमाल करते हैं 

खुशबुएँ क़ैद हो नहीं सकतीं 
क्यों गुलों को हलाल करते हैं 

वे जो दावे कभी नहीं करते 
सिर्फ वे ही कमाल करते हैं 

बिना कोई दावा किये कमाल करने वाले इस सच्चे और अच्छे शायर की ये किताब हर शायरी प्रेमी पाठक को पढ़नी चाहिए ताकि इस बात की पुष्टि हो कि बाजार से समझौता किये बिना भी उम्दा शायरी के दम पर मकबूलियत हासिल की जा सकती है।
चलते चलते आईये पढ़ते हैं उनकी एक ग़ज़ल के चंद शेर और निकलते हैं एक और किताब की तलाश में :

दर्द के हरसिंगार ज़िंदा रख 
यूँ ख़िज़ाँ में बहार ज़िंदा रख 

ज़िन्दगी बेबसी की कैद सही 
फिर भी कुछ इख़्तियार ज़िंदा रख 

ख्वाइशें मर रही हैं, मरने दे 
यार खुद को न मार , ज़िंदा रख 

गर उसूलों की जंग लड़नी है 
अपनी ग़ज़लों की धार ज़िंदा रख

किताबों की दुनिया - 103 /1

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इस बार "किताबों की दुनिया"श्रृंखला में दो ऐसी बातें हो रहीं हैं जो इस से पहले मेरे ब्लॉग पर कभी नहीं हुई. अब आप पूछिए क्या ? पूछिए न ? आप पूछते नहीं तभी ये बातें होती हैं। चलिए हम बता देते हैं "सुनिए के ना सुनिए ...."

पहली तो ये कि इस पोस्ट के आने में दो महीने से भी ज्यादा का वक्त लग गया , इस विलम्ब का ठीकरा मैं चाहे सर्द मौसम , समय की कमी, अत्यधिक भ्रमण , उचित किताब का न मिलना आदि अनेक ऊटपटांग कारणों के सर पर फोड़ सकता हूँ लेकिन उस से हासिल क्या होगा ? आपने थोड़े पूछा है कि भाई "इतनी मुद्दत बाद मिले हो किन सोचों में गुम रहते हो "ये तो मैं अपनी मर्ज़ी से बता रहा हूँ और जब अपनी मर्ज़ी से बता रहा हूँ तो झूट क्यों बोलूं ? इस विलम्ब का कारण सिर्फ और सिर्फ आलस्य है।

दूसरी बात जो अधिक महत्वपूर्ण है वो ये कि इस बार हम किसी एक फूल जैसे शायर की किताब का जिक्र न करते हुए आपके लिए एक गुलदस्ता ले कर आये हैं जिसमें रंग रंग के फूल खिले हैं। इस गुलदस्ते का नाम है "खिड़की में ख्वाब "और इसे अलग अलग फूलों से सजाया है जनाब "आदिल रज़ा मंसूरी "साहब ने। इस गुलदस्ते की खास बात ये है कि इसमें शामिल फूल से शायर हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की सर जमीं से हैं ,सभी चालीस साल से कम उम्र के हैं और इन में से किसी भी शायर की किताब अभी तक मंज़रे आम पर नहीं आई है। इस किताब में कुल जमा 15 शायरों का कलाम दर्ज़ किया गया है अगर हर शायर का जिक्र हम एक ही पोस्ट में करेंगे तो ये पढ़ने वालों पर बहुत भारी पड़ेगा इसलिए हम इसे दो भाग में पोस्ट करेंगे। पहले भाग में 8 शायर और दूसरे में 7 शायरों जिक्र किया जायेगा।



तो चलिए शुरू करते हैं इस किताब के हवाले से शायरी का खुशनुमा सफर. सबसे पहले जिस शायर का कलाम आप पढ़ने जा रहें हैं वो हैं जनाब "तौक़ीर तक़ी "। आपका जन्म 6 जनवरी 1981 में नूरेवाला , पाकिस्तान में हुआ। मेरे कहने पे मत जाएँ आप खुद देखें ये किस पाये के शायर हैं। इस किताब में आपकी संकलित 5 ग़ज़लों में से कुछ के चंद अशआर पेश हैं :-

लफ़्ज़ की क़ैद से रिहा हो जा 
आ! मिरी आँख से अदा हो जा 

ख़ुश्क पेड़ों को कटना पड़ता है 
अपने ही अश्क पी हरा हो जा 

संग बरसा रहा है शहर तो क्या 
तू भी यूँ हाथ उठा दुआ हो जा 

तौक़ीर साहब की एक और ग़ज़ल के चंद अशआर पहुँचाने का मन हो रहा है। ये नौजवानों की शायरी है जनाब जिनके सोच की परवाज़ मुल्क की सरहदें नहीं देखती।

रूठ कर आँख के अंदर से निकल जाते हैं 
अश्क बच्चों की तरह घर से निकल जाते हैं 

सब्ज़ पेड़ों को पता तक नहीं चलता शायद 
ज़र्द पत्ते भरे मंज़र से निकल जाते हैं 

साहिली रेत में क्या ऐसी कशिश है कि गुहर 
सीप में बंद समंदर से निकल जाते हैं 

इस से पहले की हम अगले शायर का कलाम पेश करें आप जरा उनकी ग़ज़ल का ये एक शेर पढ़ते चलिए :-

दहलीज़ पर पड़ी हुई आँखें मिलीं मुझे 
मुद्दत के बाद लौट के जब अपने घर गया 

अब आ रहे हैं इस किताब के अगले शायर जनाब "अदनान बशीर "जो 6 सितम्बर 1982 को साईवाल ,पाकिस्तान में पैदा हुए और आजकल लाहौर में रहते हैं। इनके बारे में तो ज्यादा जानकारी हासिल नहीं हो पायी पर हाँ इनकी शायरी का अंदाज़ा उनकी ग़ज़लें पढ़ने से जरूर हो जाता है इस गुलदस्ते में बशीर साहब की 5 ग़ज़लें शामिल की गयी है , आईये पढ़ते हैं एक ग़ज़ल के चंद अशआर :-

तुम्हारी याद के परचम खुले हैं राहों में 
तुम्हारा जिक्र है पेड़ों में खानकाहों में 

शिकस्ता सहन के कोने में चारपाई पर 
तिरा मरीज़ तुझे सोचता है आहों में 

झुके दरख़्त से पूछा महकती डाली ने 
कभी गुलाब खिले हैं तुम्हारी बाहों में 

इस किताब के तीसरे शायर हैं 30 जून 1984 में संभल, उत्तर प्रदेश भारत में जन्मे जनाब "अमीर इमाम"साहब। अमीर अपनी पुख्ता शायरी की वजह से पूरे देश में अपना नाम रौशन कर चुके है। उनकी ग़ज़लें इंटरनेट पर उर्दू शायरी की सबसे बड़ी साइट "रेख़्ता "पर भी पढ़ी जा सकती हैं। आईये उनकी एक ग़ज़ल के इन अशआरों से रूबरू हुआ जाय :-

रहूँ बे सम्त फ़ज़ाओं में मुअल्लक़ कब तक 
मैं हूँ इक तीर जो अब अपना निशाना चाहूँ 
मुअल्लक़ = हवा में ठहरा हुआ 

अपने काँधे प'उठाऊँ मैं सितारे कितने 
रात हूँ अब किसी सूरज को बुलाना चाहूँ 

मसअला है कि भुलाने के तरीके सारे 
भूल जाता हूँ मैं जब तुझको भुलाना चाहूँ 

और अब पढ़ते हैं 5 सितम्बर 1985 को आजमगढ़ उत्तरप्रदेश भारत में जन्में शायर जनाब "सालिम 'सलीम'"साहब की ग़ज़ल के चंद अशआर। सालिम "रेख्ता"साइट से जुड़े हुए हैं और दिल्ली निवासी हैं। नए ग़ज़लकारों में सालिम साहब का नाम बहुत अदब से लिया जाता है।

क्या हो गया कि बैठ गई ख़ाक भी मिरी 
क्या बात है कि अपने ही ऊपर खड़ा हूँ मैं 

फैला हुआ है सामने सहरा -ऐ-बेकनार 
आँखों में अपनी ले के समंदर खड़ा हूँ मैं 

सोया हुआ है मुझमें कोई शख्स आज रात 
लगता है अपने जिस्म से बाहर खड़ा हूँ मैं 

15 जनवरी 1986 को आजमगढ़ उत्तर प्रदेश भारत में जन्में हमारे अगले शायर हैं जनाब "गौरव श्रीवास्तव 'मस्तो'" जिन्होंने अपनी तकनिकी शिक्षा लखनऊ में पूरी की। पूरे देश में अपनी विलक्षण प्रतिभा का डंका बजवाने वाले गौरव केवल कवितायेँ ग़ज़लें और नज़्में लिखने तक ही सिमित नहीं हैं , उन्होंने नए अंदाज़ में बहुत से नाटक भी लिखे हैं और उनमें अभिनय भी किया। फिल्म और मीडिया से सम्बंधित जानकारी देने के उद्देश्य से सन 2012 से उनके द्वारा चलाई जाने वाली संस्था "क्रो -क्रियेटिव "ने अल्प समय में ही अपनी पहचान स्थापित कर ली है। आईये उनकी ग़ज़ल के चंद अशआर पढ़ें जाएँ :-

फूल पर बैठा था भंवरा ध्यान में 
ध्यान से गहरा था उतरा ध्यान में 

उसकी आहट चूम कर ऐसा हुआ 
याद का इक फूल महका ध्यान में 

हाथ में सिगरेट मिरे घटती हुई 
और मैं बढ़ता हुआ सा ध्यान में 

उनकी एक छोटे बहर की खूबसूरत ग़ज़ल के दो चार शेर पढ़ें और उनकी प्रतिभा का अंदाज़ा लगाएं

मुद्दत बाद मिलेगा वो 
पूछ न बैठे कैसा हूँ 

गीली गीली आँखों वाला 
सूखा सूखा चेहरा हूँ 

सबके हाथों खर्च हुआ 
मैं क्या रुपया पैसा हूँ 

अब आपका परिचय करवाते हैं वसी गॉव महाराष्ट्र भारत में 17 जनवरी 1986 को जन्में युवा शायर जनाब "तस्नीफ़ हैदर " साहब की शायरी से जो आजकल दिल्ली निवासी हैं। उर्दू साइट "रेख्ता "में आपकी ग़ज़लें पढ़ी जा सकती हैं जिसमें इन्हें इस दौर का बहुत कामयाब उभरता शायर बताया गया है :-

आखिर आखिर तुझ से कोई बात कहनी थी मगर 
किसने सोचा था कि इतने फासले हो जायेंगे 

तू वफादारी के धोके में न रहना ए नदीम ! 
हम कहाँ अपने हुए हैं जो तिरे हो जायेंगे 

इक इसी अंदेशा -ऐ-दिल ने अकेला कर दिया 
प्यार होगा तो बहुत से मसअले हो जायेंगे 

नई नस्ल के सबसे प्रमुख शायरों में शामिल/उभरते हुए आलोचक जनाब महेंद्र कुमार 'सानी' जी जिनका जन्म 5 जून 1984 को जहांगीर गंज,फैज़ाबाद ,उत्तर प्रदेश में हुआ की ग़ज़ल के चंद शेर पढ़वाते हैं आपको , देखिये किस बला की सादगी से वो अपने ज़ज़्बात शायरी में उतारते हैं । सानी साहब आजकल चंडीगढ़ निवासी हैं।

उसे हमने कभी देखा नहीं है 
वो हमसे दूर है ऐसा नहीं है 

जिधर जाता हूँ दुनिया टोकती है 
इधर का रास्ता तेरा नहीं है 

सफर आज़ाद होने के लिए है 
मुझे मंज़िल का कुछ धोखा नहीं है 

हमारी इस पोस्ट के आखरी याने किताब के आठवें शायर हैं जनाब "अली ज़रयून " साहब जो 11 नवम्बर 1979 को फैसलाबाद पाकिस्तान में पैदा हुए। अली ने अपने लेखन का सफर सन 1991 याने मात्र 12 साल की उम्र से शुरू किया ।इनकी ग़ज़लों और नज़्मों की किताब शायद अब मंज़रे आम तक आ चुकी होगी क्यूंकि 2013 अंत तक वो प्रकाशन लिए तैयार थी। "अली"साहब का नाम अपनी शायरी के अलहदा अंदाज़ से पाकिस्तान और भारत में सम्मान से लिया जाता है। आईये अब उनकी ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाते हैं आपको .

औरों के फ़लसफ़े में तिरा कुछ नहीं छुपा 
अपने जवाब के लिए खुद से सवाल कर 

ख़्वाहिश से जीतना है तो मत इससे जंग कर 
चख इस का ज़ायका इसे छू कर निढाल कर 

आया है प्रेम से तो मैं हाज़िर हूँ साहिबा 
ले मैं बिछा हुआ हूँ मुझे पायमाल कर 
पायमाल: पाँव के नीचे मसलना 

मैं अली की एक और ग़ज़ल के चंद अशआर आप तक पहुँचाने में अपने आप को रोक नहीं पा रहा, उम्मीद है आपको इन्हें पढ़ कर अच्छा लगेगा। छोटी बहर में कमाल के शेर कहें हैं अली साहब ने:-

न जाने चाँद ने क्या बात की है 
कि पानी दूर तक हँसता गया है 

भला हो दोस्त तेरा ! जो तुझ से 
हमारा देखना देखा गया है 

हमें इंसां नहीं कोई समझता 
तुम्हें तो फिर खुदा समझा गया है 

तुम्हें दिल के चले जाने प'क्या ग़म 
तुम्हारा कौन सा अपना गया है 

उम्मीद है आपको ये पोस्ट इसके शायर और उनके अशआर पसंद आये होंगे , हमें आये तभी तो आपसे शेयर कर रहे हैं अगर आप को भी पसंद आये हैं तो आप भी इसे अपने इष्ट मित्रों से शेयर करें और अगर आपको पसंद नहीं आये तो बराए मेहरबानी इस पोस्ट की बात को अपने तक ही सीमित रखें। जल्द ही मिलते हैं इस किताब के बाकी सात शायरों और उनके चुनिंदा कलाम के साथ इसी जगह,इंतज़ार कीजियेगा।

किताबों की दुनिया -108

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उर्दू शायरी पर अगर आप एक नज़र डालें तो वो ज्यादातर गुल,गुलशन ,तितलियाँ, बहार , खार ,दश्त ,ख़िज़ाँ , बादल, हवा, फलक, चाँद, सितारे, ख़्वाब ,नीदें ,सहरा ,झील ,समंदर,दरिया,साहिल ,कश्ती ,तूफाँ ,महबूब ,आँखें ,होंट ,हिज्र , फ़िराक ,विसाल ,भूलना ,याद , मय ,सुबू , मयखाना, ज़ाहिद ,पाक ,होश ,रब ,जन्नत ,जहन्नुम , दोस्त ,दुश्मन ,रकीब ,वफ़ा ,बेवफाई ,शाम, रात ,शमअ, परवाना, अँधेरा,उजाला ,हार,जीत, खंज़र ,दवा ,ख़ामुशी ,शोर ,इंतज़ार ,इज़हार, परिंदा, तीर ,निशाना, मुस्कराहट ,आंसू या अश्क ,तबस्सुम ,ज़ख्म , बरसात ,मौसम , वैगरह वगैरह लफ़्ज़ों के इर्द गिर्द ही रची गयी है।

मज़े बात ये है कि इन्हीं लफ़्ज़ों के सहारे तमाम शायर पिछली तीन सदियों से अब तक और आने वाले कल को भी ऐसा तिलिस्म रचते रहे थे रचते रहे हैं और रचते रहेंगे जिसके हुस्न में गिरफ्तार लोग इसकी तरफ खिचते रहे थे , खिचते रहे हैं और खिचते रहेंगे।

हमारी आज "किताबों की दुनिया "श्रृंखला की शायरा "जया गोस्वामी"ने उर्दू के इन तमाम खूबसूरत लफ़्ज़ों के जुड़वाँ भाई जैसे हिन्दी शब्दों को लेकर अपनी ग़ज़लों की किताब "पास तक फासले"में वैसा ही तिलिस्म रचा है जैसा कि शायर उर्दू लफ़्ज़ों से रचते आये हैं।


कब अचानक शुष्क कांटे पुष्प डाली हो गये 
लौ लगी जब से अँधेरे दिन, दिवाली हो गये 

दिग्भ्रमित मन ने समर्पित प्रेम की जब राह पायी 
कामना बंजारने और तन मवाली हो गये 

सच समझ कर ज़िन्दगी भर तक जिन्हें संचित किया 
उस प्रवंचक मोह के अभिलेख जाली हो गये 

युग-युगों के मोह तम में प्रेम चन्द्रोदय हुआ 
ज्योति के वे क्षण युगों से शक्तिशाली हो गये 

भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का एक माध्यम है इसलिए अगर बात खूबसूरत होगी तो वो हर भाषा में खूबसूरत लगेगी। उर्दू हिंदी के झगडे में ग़ज़ल को घसीटने वालों को समझना चाहिए कि कोई शेर अगर बुरा है तो वो उर्दू में भी उतना ही बुरा लगेगा जितना हिंदी में और ये ही बात अच्छे शेर पर भी लागू होती है अच्छा शेर अच्छा ही लगेगा वो चाहे जिस भाषा में कहा गया हो।

जब से मन पर कंकरीट के बाँध रचे दुनियादारी ने 
आँखों से बहते पानी की बाढ़ रुक गयी, धीरे धीरे 

उधर कलुष रिश्तों के बरगद इधर अकेलेपन का आतप 
स्वाभिमान की आहत शाखा इधर झुक गयी ,धीरे धीरे 

उर्दू के शायरों जैसे ज़फर इकबाल , एहतराम इस्लाम आदि ने हिंदी भाषा में कमाल की ग़ज़लें कही हैं लेकिन चूँकि वो हिंदी में कही गयी हैं इसलिए उर्दू पसंद लोगों को हलकी लगती हैं।मुस्लिम शायरों की बात छोड़ें, अफसोस इस बात का है कि ग़ज़लों पर जान छिड़कने वाले हिंदी भाषी पाठक भी जो कि उर्दू भाषा न पढ़ सकते हैं न लिख सकते हैं, हिंदी या उर्दू में ग़ज़लें कहने वाले गैर मुस्लिम शायरों को शायर मानने तक को तैयार नहीं होते। ऐसे माहौल में एक ऐसी शायरी की किताब की चर्चा करना जिसमें शायरा ने शुद्ध हिंदी में कमाल की ग़ज़लें कही हैं ,एक जोखिम भरा काम है और मुझे इस जोखिम को उठाने में मज़ा आ रहा है।

आप क्या आये कि सम्मोहन नदी में बह गए हम
यह न जाना डूब कर 'स्व'से रहित हो जायेंगे 

शब्द जो अभिव्यक्ति के संचित किये थे उम्र भर 
क्या पता था देखते ही अनकहित हो जाएंगे 

स्वप्न पागलपन हताशा कामनाएं और मन 
ये सभी अब आप में अंतर्निहित हो जायेंगे 

स्नेह के दो बोल या फिर बोलती सी चितवनें 
आप फेंको तो सही हम अनुग्रहित हो जायेंगे 

पांच फ़रवरी 1939 को जयपुर में जन्मी जया जी ने प्रारम्भ में हिंदी साहित्य का अध्यन 'साहित्य सदावर्त'में पंजाब विश्व विद्ध्यालय से 'प्रभाकर'परीक्षा पास की तदुपरांत 1962 में जे जे स्कूल ऑफ आर्ट्स मुंबई से ड्राइंग और पेंटिंग में इंटर आर्ट किया। उसके बाद आपने राजस्थान विश्व विद्द्यालय से संस्कृत और समाजशास्त्र विषयों में एम ऐ किया। इतना ही नहीं आपने 'वैदिक सौर देवता 'विषय पर शोध कार्य भी किया है। उनकी ग़ज़लों में प्रस्तुत बिम्ब कैनवास पर बनी पेंटिंग का आभास कराते हैं।

बादलों की बीच उगते सूर्य का चित्रण किया तो 
तूलिका ने सूर्य में मुख केश में बादल उतारे 

नयन-खंजन गिरिशिखिर उत्तुंग वक्षों से बनाये 
इंद्रधनुषी ओढ़नी में टँक गए सब चाँद तारे 

नेह की चित्रित नदी पर अश्रु रंगों में बहे जो 
सेतु बन मिलवा दिए उसने नदी के दो किनारे 

राजस्थान आवासन मंडल में वरिष्ठ कार्मिक प्रबंधक पद से सेवानिवृत जया जी का काव्य लेखन खास तौर पर ग़ज़ल, उम्र के पचास बसंत पार करने के बाद जागा। उन्हीं के शब्दों में "आयु के पचासवें दशक में अचानक न जाने क्यों और कैसे कुछ छंद बद्ध रचने की ललक जागी, मैं स्वयं नहीं जान पायी। चुनौतियाँ स्वीकार करना अपनी फितरत में होने के कारण ही शायद मैं इस कठिन साध्य विद्द्या में प्रवेश करने की हिम्मत कर सकी। "उनकी इसी हिम्मत के फलस्वरूप उनके दो ग़ज़ल संग्रह "अभी कुछ दिन लगेंगे"और "पास तक फासले "क्रमश: 1995 और 2010 में प्रकाशित हो कर लोकप्रिय हो चुके हैं।

हों न हों वे पास उनकी याद अपने पास तो है 
वो नहीं अपने हमें अपनत्व का आभास तो है 

क्या हुआ जो हम तरसते ही रहे अपनी हंसी को 
आज अपनी ज़िन्दगी जग के लिए परिहास तो है 

भूल कर भी याद उनको हम कभी आएँ न आएँ 
याद हम करते उन्हें इस बात का विश्वास तो है 

बहुआयामी प्रतिभा की धनी जया जी की वार्ताओं का सतत प्रसारण आकाशवाणी से होता रहा है इसके अतिरिक्त ललित कला अकादमी एवं सूचना केंद्र की कला दीर्घाओं में उनकी एकल चित्र प्रदर्शनियां लगती रही हैं। उन्होंने चित्रकला में 'शिल्पायन'नामक नयी शैली का विकास भी किया है। राष्ट्रीय स्तर की सभी प्रमुख पत्र -पत्रिकाओं में उनकी ग़ज़लों ,गीतों ,कविता और लेखों का प्रकाशन होता रहा है।

देह की मैं थिरकने हूँ नृत्य में तो भाव हो तुम 
पायलों के बोल मैं हूँ और तुम रुनझुन रहे हो 

कामना की तकलियों पर नेह के धागे गुंथे जो 
मैं नयन से कातती तुम चितवनो से बुन रहे हो 

धड़कनों के स्वर तुम्हारे नाम के सम्बोधन बने हैं 
सांस की अनुगूंज से यूँ लग रहा तुम सुन रहे हो 

जया जी के इस ग़ज़ल संग्रह के पहले खंड में 32 ग़ज़लें शुद्ध हिंदी में है और दूसरे खंड में आम हिंदुस्तानी जबान में कही गयी 50 ग़ज़लें हैं। हिंदी ग़ज़लों की बानगी ऊपर प्रस्तुत की चुकी है आईये अब नज़र डालते हैं उन ग़ज़लों पर जो आम जबान में खास बातें कहती हैं। ये ग़ज़लें जया जी की व्यापक सोच को दर्शाती हैं मानव मन की वेदनाएं संवेदनाएं व्यथाएं तो इनमें हैं ही लेकिन इन सब के साथ प्रेम की अतल गहराईयों की झलक भी दिखाई देती है।

बिना विधिवत रूप से किसी गुरु की शरण में गए, उनकी लिखी कुछ ग़ज़लों में कहीं व्याकरण दोष मिल सकता है और शायद ये बात ग़ज़ल प्रेमियों को नागवार भी गुज़रे लेकिन मेरी गुज़ारिश है कि उसे नज़र अंदाज़ करते हुए उनके कहन की ईमानदारी पर तालियां बजाई जाएँ।   

तुम न थे दिल पास था तुम आ गए तो दिल गया 
है ग़ज़ब फिर भी रहे हम इस ठगी से बेखबर 

क्या अंधेरों की घुटन को जान पायेगी शमां 
जो सदा रोशन रही है तीरगी से बेखबर 

इस तरह भी याद में खोया हुआ कोई न हो 
सामने तुम और हम मौजूदगी से बेखबर 

कैनेडा से प्रकाशित होने वाली हिंदी पत्रिका "हिंदी चेतना"के पन्ने पलटते हुए मेरी नज़र जया जी की लिखी एक कविता पर पड़ी। परिचय में उनका फोटो ,पता ,टेलीफोन न. और ग़ज़ल संग्रहों की संक्षिप्त जानकारी दी गयी थी। ये पता लगने पर कि वो भी जयपुर निवासी हैं मैंने ग़ज़ल संग्रहों की प्राप्ति का रास्ता पूछने को उन्हें तुरंत फोन किया, औपचारिक बातचीत के दौरान ही मैं उनके अपनत्व से बाग़ बाग़ हो गया, लगा जैसे मुद्दतों बाद बड़ी बहन मिल गयी हो।उन्होंने बड़े स्नेह से आशीर्वचनों के साथ अपनी दोनों किताबें मुझे भेट में देदीं।

तू न था पर हाथ में खत देख कर 
फिर कबूतर पास आये आदतन 

जब किसी ने नाम तेरा ले लिया 
ज़ख्म सारे सनसनाये आदतन 

दे गया क़ासिद फटे खत हाथ में 
ले लिए , सर से लगाए आदतन 

आज के इस दौर में आत्म प्रशंशा और आत्म प्रचार से खुद को सर्वश्रेष्ठ साबित करने में लगी होड़ से कोसों दूर जया जी एक सच्चे साधक की तरह एकांत में बैठी साहित्य साधना में लगीं हैं। इस पुस्तक की प्राप्ति का रास्ता पूछने के लिए आप उन्हें 09829539330 अथवा उनके 206 ,पद्द्मावती कालोनी किंग रोड जयपुर स्तिथ घर के नंबर 01413224860 पर फोन करें और ऐसे श्रेष्ठ लेखन बधाई दें।

अंत में नयी किताब की तलाश में निकलने से पहले आईये उम्र के 76 वसंत देख चुकी दिल से युवा जया जी के उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घ सुखमय जीवन की कामना के साथ दुआ करें कि उनकी लेखनी सतत यूँ ही जवाँ रहे। 

आखरी में उनका ये शेर अपने साथ लेते जाइए :-

 जल चुकी दे कर महक वो धूप बत्ती हूँ 
 फर्क क्या अटकी रहूँ या फिर बिखर जाऊँ

किताबों की दुनिया -109

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अब जियादा तिश्नगी के सिलसिले पे हम मिलेंगे 
हम में अब तुम कम मिलोगे तुम में हम अब कम मिलेंगे 

इस नुकूशे ख्वाब की बस्ती से आँखों जल्द गुज़रो 
आ गया गर दिन तो सारे रास्ते मुब्हम मिलेंगे 
नुकूशे ख्वाब : सपनो की तस्वीर , मुब्हम : छुपे हुए 

भीड़ में दुनिया की आकर सारे आंसू खो गए हैं 
देखिये उनसे कहाँ आकर हमारे ग़म मिलेंगे 

मेरी मुठ्ठी में सिसकते एक जुग्नू ने कहा था 
देखना आगे तुम्हें सारे दिए मद्धम मिलेंगे 

उर्दू शायरी में ऐसा लबो लहज़ा , ऐसे तेवर, ऐसी सोच और ऐसा अंदाज़-ऐ-बयाँ बहुत कम दिखाई पड़ता है। आज के दौर के युवा शायरों की पूरी पीढ़ी अपने हुनर से शायरी की परम्परागत सोच में क्रान्तिकारी बदलाव कर रही है । युवा शायर, ग़ज़ल की तस्वीर में ऐसे रंग भर रहे हैं जिन्हें पहले कभी अपनाया ही नहीं गया था। ये रंग चटख भी हैं काले और घूसर भी । इन रंगों के प्रयोग से जो तस्वीर बन कर सामने आती है उसमें सबको अपना नक्श नज़र आता है। ये तस्वीर उन्हें अपनी बहुत अपनी लगती है।

मेरे जैसा कभी होने नहीं देता मुझको 
कौन है मुझमें जो रोने नहीं देता मुझको 

ख्वाब वो कब है जो सोते में नज़र आता है 
ख्वाब तो वो है जो सोने नहीं देता मुझको 

अपनी धूपों में जलाता है हर इक रोज मगर 
अपनी बारिश में भिगोने नहीं देता मुझको 

"अमीर इमाम"नाम है उस शायर का जिसकी किताब "नक्श -ए -पा हवाओं के"का जिक्र हम किताबों की दुनिया श्रृंखला की आज की कड़ी में करने जा रहे हैं। 30 जून 1984 को सम्भल उत्तर प्रदेश में जन्मे, अमीर ने बहुत कम समय में उर्दू शायरी में जो मुकाम हासिल किया है वो नए शायरों की तो बात ही छोड़िये पुराने उस्ताद शायरों के लिए भी इर्ष्या का विषय हो सकता है। ‘अमीर’ ने फिर से इस बात को सिद्ध किया है कि अच्छी शायरी के लिए उम्र दराज़ होना कतई जरूरी नहीं है ,जरूरी है ज़िन्दगी को करीब से जानने समझने का हुनर आना।

यह मेरा रोज़ भटकना तलाश में तेरी 
वह उसका रोज़ कहीं मुझमें मुश्क बू होना 

यह लग रहा है कि पहले भी मिल चुके हैं कहीं 
तुम एक गुज़रे ज़माने की आरज़ू हो ना 

बस एक तू ही भुलाने के फ़न में माहिर है 
मैं मानता हूँ कि मुम्किन नहीं है तू होना 

अमीर साहब के यहाँ पिछली पांच पीढ़ियों से शायरी का आबशार लगतार बह रहा है और उर्दू अदब के चमन को गुलज़ार किये हुए हैं। यूँ कहें तो ज्यादा सही होगा कि अमीर को शायरी घुट्टी में मिली है इसीलिए उन्होंने मात्र 19 साल की उम्र में मतलब सन 2003 से शायरी शुरू की जिसे तराशा उनके उस्ताद डा. महताब हैदर नक़वीसाहब ने। नक़वी साहब की किताब 'हर तस्वीर अधूरी'का जिक्र हम अपनी किताबों की दुनिया श्रृंखला में कर चुके हैं।
फिर ख्वाइशों को कोई सराय न मिल सकी 
इक और रात खुद में ठहरना पड़ा मुझे 

इस बार राहे इश्क कुछ इतनी तवील थी 
उसके बदन से होके गुज़ारना पड़ा मुझे 

पूरी अमीर इमाम की तस्वीर जब हुई 
उसमें लहू का रंग भी भरना पड़ा मुझे 

अमीर की शायरी में एक अजीब खुरदुरापन है ,वो जो जैसा है उसे वैसा ही कहने में विश्वास रखते हैं। वो ज़िन्दगी की तल्खियों को चीनी में लपेट कर प्रस्तुत नहीं करते। ये आज के पढ़े लिखे समझदार युवा की शायरी है जिसमें टूटते रिश्ते, जीने की जद्दोजहद, अकेलापन ,निराशा और अपनी अहमियत खोते आदर्शों के अंधेरों से बाहर निकलने की छटपटाहट है। उनकी शायरी में अना परस्ती है खुद्दारी है धड़कती ज़िन्दगी है मौत की सच्चाई है और इन सबसे ऊपर इश्क है।

कैसा अजब सितम कि मुकम्मल है ज़िन्दगी 
जब तक बस एक मौत की इसमें कमी रहे 

तुझसे ताल्लुक़ात निभाता रहूँ सदा 
गर मैं हँसूँ तो आँख में थोड़ी नमी रहे 

जिसने मुझे छुआ ही नहीं आजतक कभी 
मुझ में उसी के लम्स की खुश्बू बसी रहे 

किताब की एक मात्र भूमिका में युवा शायर 'अभिषेक शुक्ला'कहते हैं कि "इस संग्रह की ग़ज़लों में अमीर इमाम प्रेम के तमामतर रंग ज़ंज़ीर कर ले आये हैं … साथ ही उनकी शायरी कहीं कहीं तो सीधा संवाद है जो कभी ज़िन्दगी तो कभी दोस्तों -यारों और उनके दरमियान जारी है…ये संवाद भी कोई यूँ ही से संवाद नहीं बल्कि इंसानी ज़िन्दगी ,उसके सौंदर्य -बोध और ज्ञान की विभिन्न सतहों को लगातार तरंगित झंकृत करते रहने की कुव्वत रखने वाले संवाद हैं।“

मैंने रोका भी मगर अश्क न माने मेरे 
आ गये फिर से तबस्सुम के बहाने मेरे 

नींद आ जाय तो आँखों में बुला लूँ उनको 
कब से बैठे हैं यहाँ ख्वाब सिरहाने मेरे 

आ कि फिर हैं मुझे दरकार लहू की बूँदें 
आ कि फिर होने लगे जख्म पुराने मेरे 

इंग्लिश में एम.ऐ करने के बाद अमीर साहब ने बी.एड किया और अब वो उत्तर प्रदेश के किसी दूर दराज़ कसबे में बच्चों को पढ़ाने का काम कर रहे हैं। अमीर के बारे में कुछ जानने की ग़रज़ से जब मैंने उन्हें फोन करके उनसे कुछ जानकारी चाही तो बहुत सादगी से उन्होंने कहा कि मेरे पास अपने बारे में बताने को कुछ है ही नहीं, जो है वो सब मेरी शायरी में ही है बहुत कुरेदने पर उन्होंने संकोच के साथ बताया कि वो कभी कभी मुशायरों में भी शिरकत करते हैं और इसी सिलसिले में कराची भी जा चुके हैं। उन्हें साहित्य अकादमी की और से इस वर्ष के युवा शायर के ख़िताब से भी नवाज़ा गया है।

अभी तो और हवाओं को तेज होना है 
तो मेरी किश्तिये जां तेरा बादबां कब तक 

यह बात तै कि इक दिन जमीं को उड़ना है 
सिरे दबाये रखेगा यह आसमां कब तक 

कि एक रोज़ सभी को ठहरना होता है 
अमीर इमाम बताओ यहाँ वहां कब तक 

अमीर अपनी सोच में बहुत पुख्ता और जमीन से जुड़े हुए शायर हैं इसीलिए इतने कम समय में उन्होंने लोगों के दिलों में घर कर लिया है। 'रेख्ता'जैसी उर्दू की सबसे बड़ी और बेहतरीन साइट पर जहां सबको उनका कलाम पढ़ने की सुविधा है वहीँ उनके स्टूडियो में कलाम पढ़ते हुए का विडिओ भी देखा जा सकता है . 'रेख्ता'पर किसी भी शायर का कलाम मिलना उस शायर के लिए बाइसे फक्र बात होती है। हाल ही में संपन्न हुए रेख्ता के अखिल भारतीय मुशायरे में उस्ताद शायरों के बीच अमीर ने अपनी ग़ज़ल पढ़ कर हिंदुस्तान के तमाम युवा शायरों की नुमाइंदगी की है। रेख्ता की साइट ने इन्हें "भारतीय ग़ज़ल की नई नस्ल की एक रौशन आवाज़"घोषित किया है.

मुझमें ठहरा था गुज़रते हुए लम्हों सा कोई 
और गुज़रा मुझे इक गुज़रा ज़माना करके 

बिजलियों अश्कों की आओ कभी इक बार गिरो 
मेरी सूखी हुई आँखों को निशाना करके 

जाने कब आ के दबे पाँव गुज़र जाती है 
मेरी हर साँस मिरा जिस्म पुराना करके 

"नक्श -ए -पा हवाओं के "पेपर बैक में छपा अमीर का हिंदी में पहला ग़ज़ल संग्रह है जिसमें अमीर की 100 ग़ज़लें और 7 नज़्में शामिल हैं और जिसे बकौल अमीर बहुत जल्दबाज़ी में शाया किया गया है लिहाज़ा उसमें प्रिंटिंग की कुछ गलतियां भी हैं। इस किताब की एक बात जो अखरती है वो ये कि ग़ज़लों में आये मुश्किल उर्दू लफ़्ज़ों का सरल हिंदी में तर्जुमा नहीं दिया गया। मुझे उम्मीद है कि अमीर इस किताब के अगले संस्करण में ये सुविधा भी देंगे।

पूछा था आज मेरे तबस्सुम ने इक सवाल 
कोई जवाब दीद-ए -तर ने नहीं दिया 
दीद-ए-तर : आंसू भरी आँखें 

तुझ तक मैं अपने आप से हो कर गुज़र गया 
रस्ता जो तेरी राहगुज़र ने नहीं दिया 

कितना अजीब मेरा बिखरना है दोस्तों 
मैंने कभी जो खुद को बिखरने नहीं दिया 

कहते हैं अच्छी किताबें और अच्छे दोस्तों को संभाल के रखना चाहिए क्यों कि पता नहीं होता ये कब काम आ जाएँ। अब देखिये ना मेरे मित्र, छोटे भाई शायर "अखिलेश तिवारी" ,जिनकी शायरी की किताब "आसमाँ होने को था"का जिक्र हम इस श्रृंखला में कर चुके हैं ,ने मुझे अमीर साहब की ये बेजोड़ किताब उस वक्त भिजवायी जब मैं बाजार में किसी अच्छी शायरी की किताब की तलाश में इधर उधर भटक रहा था।

जिन लोगों के पास "अखिलेश तिवारी"जैसे मित्र हैं वो और जिनके पास नहीं हैं वो भी इस किताब की प्राप्ति के लिए BOOKSTAIR, 87, Jawahar Nagar,Rajendra Nagar, Indore +919721077774 पर संपर्क करें। वैसे ये किताब BOOKPINCH (http://bookpinch.com/nphk.html) साइट पर भी उपलब्ध है।

मुझसे पूछें तो आपको अमीर साहब से उनके मोबाइल न. +91 8755 593 144 पर किताब प्राप्ति का आसान रास्ता पूछते हुए उन्हें उनकी बेहद खूबसूरत और असरदार शायरी के लिए मुबारकबाद देनी चाहिए और साथ ही ऊपर वाले से दुआ मांगनी चाहिए कि जब ये होनहार शायर बुलंदियों की आखरी हद को छुए तब इसके पाँव जमीं पर ही हों.

आखिर में आपको उनकी एक छोटी बहर में कही ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाते हुए अगली किताब की तलाश में निकलता हूँ।

ओढ़ कर सर से पाँव तक चादर 
अपने अंदर टहल रही होगी 

अश्के ग़म दिल की आंच पर रख कर 
खुश्क लम्हों को तल रही होगी 

बल्ब सब ऑफ़ कर दिए होंगे 
साथ यादों के जल रही होगी 

और सब राख हो गया होगा 
सिर्फ इक लौ निकल रही होगी

किताबों की दुनिया -110

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आज हम अपनी बात मशहूर शायर "शकील ग्वालियरी "द्वारा लिखे लेख की इन पंक्तियों से करते हैं कि "उर्दू शायरी में ग़ज़ल ऐसी विधा है जिसे सैंकड़ों सालों से समझा जा रहा है। जिनका दावा है कि उन्होंने ग़ज़ल को उसके हक़ के मुताबिक समझ लिया है वो एक मुकाम पर ठहर गए हैं। और कुछ वो हैं जो ग़ज़ल को बकवास समझ कर ख़ारिज किये हैं , वो सब किनारे पर खड़े तमाशाई हैं। उन्हें ग़ज़ल की तूफानी ताकत का अंदाज़ा नहीं है। "

निकले हैं दीवार से चेहरे 
बुझे बुझे बीमार से चेहरे 

मेरे घर के हर कोने में 
आ बैठे बाजार से चेहरे 

दादी के संदूक से निकले 
चमकीले दीनार से चेहरे 

मज़हब की दस्तार पहन कर 
चमक रहे तलवार से चेहरे 
दस्तार : पगड़ी 

हमारे आज के शायर डा. ओम प्रभाकरउनमें से हैं जिन्हें ग़ज़ल की ताकत का बखूबी अंदाज़ा है तभी तो उन्होंने हिंदी भाषा में डाक्टरेट करने के बावजूद उर्दू सीखी और शेर कहने में महारत हासिल की उसी का नतीजा है उनका पहला ग़ज़ल संग्रह "ये जगह धड़कती है "जिसका जिक्र हम करने जा रहे हैं।


पुराने चोट खाए पत्थरों के चाक सीनो में 
लिए छैनी हथोडी हाथ में मैमार ज़िंदा हैं 
मैमार : भवन निर्माता ,मिस्त्री 

हैं टीले दीमकों के, था जहाँ पहले कुतुबखाना 
वहाँ कीड़े-मकौड़े-घास-पत्थर-खार ज़िंदा हैं 
कुतुबखाना :पुस्तकालय 

हैं इन गड्डों में शायद तख्ते-साही मसनदें-क़ाज़ी 
उधर वो ठोकरें खाती हुई दस्तार ज़िंदा हैं 
मसनदे-क़ाज़ी : न्यायाधीश का आसन , दस्तार : पगड़ी 

5 अगस्त 1941 को जन्मे श्री ओम प्रभाकर पी एच डी तक शिक्षा प्राप्त हैं। आप शासकीय स्नातकोत्तर (पोस्ट ग्रेजुएट ) महाविद्यालय एवम शोध केंद्र ,भिंड (म. प्र) में हिंदी के प्रोफ़ेसर एवम विभागाध्यक्ष रहे। बाद में जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर के डीन ऑफ फैकल्टी ऑफ आर्ट्स नियुक्त हुए। आजकल उनका स्थाई निवास स्थान 'देवास'म.प्र. है डा. प्रभाकर का रचना संसार बहुत विविधता पूर्ण है। उन्होंने अलग अलग विषयों पर लेख, कवितायेँ, शोध समीक्षाएं, कहानियां, नज़्में और ग़ज़लें कहीं हैं. देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रमुखता से प्रकाशित हुई हैं.
कुछ रचनाएँ उर्दू, बांग्ला,गुजराती,अंग्रेजी, पंजाबी, अरबी और ब्रेल लिपि में अनूदित हुई हैं .

कभी तेरे कभी मेरे सहारे 
मज़े से इश्क ने कुछ दिन गुज़ारे 

जहाँ दरया था अपना रेत है अब 
मगर फिर भी अलहदा हैं किनारे 

दुखी मत हो कि सूरज,चाँद तारे 
चलो आधे मेरे, आधे तुम्हारे 

शकील साहब किताब की भूमिका में आगे लिखते हैं कि "ओम प्रभाकर की ग़ज़ल के अलफ़ाज़ और बंदिशों पर भाषागत बुद्धिजीविता की छाप नहीं है। वो शब्दों की ऐसी संगती पेश करते हैं जो उनके सहज उपचेतन की सतह पर खुद-ब-खुद उभरती है। वो ज़िन्दगी की सच्चाइयों को कला के सत्य के साथ कबूल करते हैं। इसी वजह से उनकी ग़ज़ल हकीकत और ख्वाब के दरम्यान अपना रास्ता बनाती है। "

मोजिज़ा किस्मत का है या है ये हाथों का हुनर 
आ गिरा मेरा जिगर ही आज नश्तर पर मेरे 
मोजिज़ा : चमत्कार 

गो कि रखता हूँ मैं दुश्मन से हिफाज़त के लिए 
नाम तो मेरा मगर लिख्खा है खंज़र पर मेरे 

ढूंढता रहता हूँ अपना घर मैं शहरे-ख्वाब में 
रात भर सोता है कोई और बिस्तर पर मेरे 

उनकी लिखी 'पुष्परचित', 'कंकाल राग' ,'काले अक्षर भारतीय कवितायेँ ' (कविता संग्रह), एक परत उखड़ी माटी (कहानी संग्रह), 'तिनके में आशियाना' (उर्दू ग़ज़लों मज़्मुआ ), 'अज्ञेय का कथा साहित्य ', 'कथाकृति मोहन राकेश ' (शोध समीक्षा), 'कविता -64'और 'शब्द' (सम्पादन) पुस्तकें प्रकाशित हो कर चर्चित हो चुकी हैं।उन्हें 'पुष्परचित'और बयान पाण्डुलिपि पर म. प्र. साहित्य परिषद और उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा पुरस्कृृत किया चुका है. वर्ष 2010 -2011 के लिए म. प्र. उर्दू अकेडमी द्वारा गैर उर्दू शायर को दिया जाने वाला 'शम्भूदयाल सुखनअवार्ड'भी मिल चुका है।

याद रखने से भूल जाने से 
कट गए दिन किसी बहाने से 

घर में भूचाल आ गया गोया 
सिर्फ दरवाज़ा खटखटाने से 

कुल बगीचा ही बन गया नगमा 
एक पंछी के चहचहाने से 

ओम प्रभाकर साहब की ग़ज़लों में हमें अक्सर कुछ ऐसे चौकाने वाले शेर मिलते हैं जिससे उनका अपने वजूद में ग़ुम और उससे लबरेज़ होने के बजाय उस पर आलोचनात्मक निगाह डालने का हौसला भी दिखाई देता है और ये हौसला उन्हें अपने समकालीन शायरों से अलग करता है। हमारी सभ्यता के ह्रास और संस्कृति के पतन की पीड़ा भी उनकी शायरी में झलकती है।

मैं वो हूँ या तुम्हारा दौरे-हाज़िर 
सड़क पर कौन वो औंधा पड़ा है 

मवेशी हैं, न दाना है, न पानी 
कभी थे ,इसलिए खूंटा गडा है 

कुल आलम अक्स है मेरी जुबाँ का 
मेरे लफ़्ज़ों में आईना जड़ा है 

मशहूर शायर जनाब शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी साहब ने इसी किताब की दूसरी भूमिका में लिखा है कि "ओम जी की ग़ज़लों में बेतकल्लुफी का लहज़ा और एक तरह की साफगोई का अंदाज़ है। हालाँकि वो हिंदी से आये हैं लेकिन वो ग़ज़ल के लहज़े में शेर कहते हैं और ऐसे मज़्मून लाते हैं जिन्हें आमतौर पर ग़ज़ल में नहीं बरता जाता। ये बहुत बड़ी बात है और ये ऐसा इम्तिहान है जिसमें ग़ज़लगो शायर नाकाम रहते हैं।"

हमारी खिल्वतों की धुन दरो-दीवार सुनते हैं 
चमन में रंगो-बू की बंदिशों को खार सुनते हैं 
खिल्वतों :एकांत 

हवा सरगोशियाँ करती है जो चीड़ों के कानों में 
उसे उड़ते हुए रंगीन गुल परदार सुनते हैं 
रंगीन गुल परदार : पंख वाले रंगीन फूल 

सभी सुनते हैं घर में सिर्फ अपनी अपनी दिलचस्पी 
धसकते बामो-दर की सिसकियाँ बीमार सुनते हैं 

भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित "ये जगह धड़कती है "किताब में ओम जी की लगभग 99 ग़ज़लें संगृहीत हैं। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप 'भारतीय ज्ञानपीठ' , 18 , इंस्टीटूशनल एरिया ,लोदी रोड ,नयी दिल्ली -110003 को लिख सकते हैं , उन्हें sales@jnanpith.net पर मेल भेज सकते हैं या फिर सीधे ओम जी से उनके मोबाइल न 09977116433 पर संपर्क कर सकते हैं।

ओम जी की एक ग़ज़ल के इन शेरों को आपकी खिदमत में प्रस्तुत करते हुए अब मैं निकलता हूँ एक किताब की तलाश में।

जो अक्सर बात करता था वतन पर जान देने की 
उसे देखा तो पूरा पेट ही था सर नदारद था 

कहीं सर था, कहीं धड़ था, कहीं बाजू कहीं पा थे 
मगर कातिल न दीखता था कहीं, खंज़र नदारद था 

वहां पर एक आलिशान बंगला मुस्कुराता था 
मगर मेरे पिता की कब्र का पत्थर नदारद था

किताबों की दुनिया - 111

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पैशन और फैशन सुनने में तुकांत शब्द हैं लेकिन दोनों में बड़ा फर्क है। पैशन आत्मा /रूह का श्रृंगार है और फैशन बदन का। बिना किसी पैशन के ज़िन्दगी कागज़ के उस खूबसूरत फूल की तरह है जिसमें खुशबू नहीं होती। "पैशन"से इंसान का मन महकता है और महके मन से किये काम की प्रशंशा हर ओर होती है. आज हम जिस शायर की किताब का जिक्र "किताबों की दुनिया 'में करने जा रहे हैं उसको शायरी का 'पैशन'इस कदर है कि वो सिर्फ शायरी में ही जीता है उसे ही ओढ़ता बिछाता है. वो उन फैशनेबल शायरों से अलग है जो व्हाट्सऐप और फेसबुक पर वाह वाही और सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए आननफानन में ग़ज़लों की झड़ी लगा देते हैं :-

मिज़ाज़ अपना यही सोच कर बदल डाला 
दरख्त धूप को साये में ढाल देता है 

ये शायरी तो करिश्मा है दस्ते-कुदरत का 
हैं जिसके लफ्ज़ वही तो ख्याल देता है 
दस्ते कुदरत = कुदरत का हाथ 

ये काम अहले-ख़िरद के लिए है नामुमकिन 
दीवाना पल में समंदर खंगाल देता है 
अहले-ख़िरद = बुद्धिमान लोग 

हमारे दौर में वो शख्स अब कहाँ है 'ज़हीन' 
जो करके नेकियां दरिया में डाल देता है 

हमारे आज के शायर हैं ,10 अगस्त 1979 को जन्मे ,जनाब 'बुनियाद हुसैन'जो शायरी के हलके में 'ज़हीन बीकानेरी’ नाम से जाने जाते हैं जिनकी किताब 'हुनर महकता है'का जिक्र का हम करेंगे। युवा ‘ज़हीन’ ने थोड़े से ही वक्त में शायरी में बड़ा मुकाम हासिल किया है। ये मुकाम उनके पैशन, मेहनत और जूनून का मिला जुला नतीजा है।


उसने मेरे वजूद को ज़ेरो-ज़बर किया 
जब भी किया है वार तो एहसास पर किया 
जेरो-ज़बर : छिन्न भिन्न 

तूने भुला दिए वो सभी यादगार पल 
मैंने तो इंतज़ार तेरा टूटकर किया 

आये थे बिन लिबास ज़माने में हम 'ज़हीन' 
बस इक कफ़न के वास्ते इतना सफर किया 

'ज़हीन'बीकानेरी’ जैसा की उनके तखल्लुस से ज़ाहिर है बीकानेर के जवाँ शायर हैं और बीकानेर के ही अपने उस्ताद जनाब मोहम्मद हनीफ'शमीम'बीकानेरी साहब से उन्होंने ग़ज़ल की बारीकियां सीखीं। उनका पहला ग़ज़ल संग्रह 'एहसास के रंग 'सन 2008 में प्रकाशित हो कर चर्चित हो चुका है, दूसरा 'हुनर महकता है 'ग़ज़ल संग्रह 2013 में प्रकाशित हुआ था।

खरे उत्तर न सके जो कहीं किसी भी जगह 
ये क्या कि वो भी हमें आज़मा के देखते हैं 

तमाम रिश्तों में है कौन कितने पानी में 
ज़रा-सी तल्ख़नवाई दिखा के देखते हैं 

'ज़हीन'रहता है हर वक्त जिनकी नज़रों में 
वही 'ज़हीन'को नज़रें चुरा के देखते हैं 

'ज़हीन'साहब की कामयाबी का राज उनकी सकारात्मक सोच और बुलंद हौसलों में छुपा हुआ है ,वो कहते भी हैं कि :ज़मीं पे हैं कदम, ख़्वाब आसमान के हैं : शिकस्ता पर हैं मगर हौसले उड़ान के हैं "ज़हीन साहब की खासियत है कि वो शायरी में डूबने के साथ साथ अपने कार मेकेनिक के कारोबार को भी बखूबी संभाले हुए हैं। बहुत कम लोग जानते हैं की उन्हें कार के इंजिन हैड को ठीक करने में महारत हासिल है। जिस तरह वो इंजिन के कलपुर्जों की जटिलता से वाकिफ हैं वैसे ही उन्हें इंसानी फितरत उसके रंजो, ग़म, खुशिया, दुःख, बेबसी, उदासी, घुटन की भी जानकारी है तभी तो वो इन ज़ज़्बात अपनी को ग़ज़लों में बखूबी पिरो पाते हैं।

उसने अश्कों के दिए कैसे जला रखें हैं 
रात के घोर अंधेरों में वो तन्हा होगा 

याद आएगा तुम्हें गाँव के पेड़ों का हजूम 
जिस्म जब शहर की गर्मी से झुलसता होगा 

जब भी अंगड़ाई मेरी याद ने ली होगी 
'ज़हीन'उसने आईना बड़े गौर से देखा होगा

'सर्जना'प्रकाशन शिवबाड़ी बीकानेर द्वारा प्रकाशित "हुनर महकता है"किताब में 'ज़हीन'साहब की करीब 90 ग़ज़लें संगृहीत हैं। किताब में दी गयी एक संक्षिप्त भूमिका में डा.मोहम्मद हुसैन जो उर्दू डिपार्टमेंट ,डूंगर कालेज में सद्र हैं, लिखते हैं कि "शायरी महज़ ज़हन की तरंग नहीं बल्कि ये एक संजीदा तख्लीक़ी अमल है। बुनियाद हुसैन 'ज़हीन'में ये संजीदगी नज़र आती है जो उनके शै'री मुस्तकबिल की तरफ इशारा करती है। "

सारी खुशियां इसके पैरों में रहती हैं 
जब चिड़िया की चौंच में दाने रहते हैं 

रंजो-ग़म की धूप यहाँ आये कैसे 
इस बस्ती में लोग पुराने रहते हैं 

सिर्फ भरम उम्मीद का रखने की खातिर 
रिश्तों के सब बोझ उठाने रहते हैं 

बे-घर हैं दुःख-दर्द 'ज़हीन'इनके अक्सर 
खुशियों के घर आने जाने रहते हैं 

'ज़हीन'साहब की शायरी की सबसे बड़ी खासियत है उसकी सादा बयानी। वो जो कहते हैं सुनने पढ़ने वाले के दिल में सीधा उत्तर जाता है उनकी बात समझने के लिए न तो लुगद या शब्दकोष का सहारा लेना पड़ता है और न ही अधिक दिमाग लगाना पड़ता है। वो अपनी बात घुमा फिरा कर नहीं कहते, जो जैसा है सामने रख देते हैं। मेरी नज़र में ये बात एक कामयाब शायर की निशानी है। ये ऐसा हुनर है जो बहुत साधना और काबिल उस्ताद की रहनुमाई से हासिल होता है. जन-साधारण में लोकप्रिय होने के लिए यही खासियत काम आती है। शायरी में इस्तेमाल किये बड़े लफ्ज़ और उलझी फिलासफी की बातें आपको किसी कोर्स की किताब में शामिल जरूर करवा सकती हैं लेकिन किसी के दिल में घर नहीं।

निकहत, बहार, रंग, फ़ज़ा, ताज़गी, महक 
साँसों में तेरी आके गिरफ्तार हो गए 

उनके ख़ुलूसे-दिल का अजूबा न पूछिए 
सुनते ही हाल मेरा वो बीमार हो गए 

ऊंची लगी बस एक ही बोली ज़मीर की 
जितने थे बिकने वाले खरीदार हो गए 

खूबसूरत व्यक्तित्व के मालिक बुनियाद हुसैन साहब इन तमाम खूबसूरत ग़ज़लों के लिए दिली दाद के हकदार हैं। इस किताब की प्राप्ति लिए आप ज़हीन साहब को उनके मोबाइल न 09414265391 पर पहले तो इन लाजवाब ग़ज़लों के लिए बधाई दीजिये और फिर इस किताब को हासिल करने का आसान तरीका पूछिए। शायरी प्रेमियों का फ़र्ज़ बनता है के वो नए काबिल उभरते हुए शायरों की हौसला अफ़ज़ाही करें क्योंकि आने वाले कल में शायरी का मुस्तकबिल इन्ही के मज़बूत कन्धों पर टिकने वाला है।

आखिर में ज़हीन साहब की एक ग़ज़ल के इन शेरों के साथ विदा लेते हुए आपके लिए अगली किताब की तलाश में निकलता हूँ।

जिस्म लिए फिरते हैं माना हम लेकिन 
इक-दूजे की रूह के अंदर रहते हैं 

सदियों से बहते देखा है सदियों ने 
इन आँखों में कई समंदर रहते हैं 

हमदर्दी कमज़ोर बना देती है 'ज़हीन' 
हम ज़िंदा अपने ही दम पर रहते हैं

किताबों की दुनिया -112

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आँख भर आयी कि यादों की धनक सी बिखरी 
अब्र बरसा है कि कंगन की खनक सी बिखरी 
अब्र = बादल 

जब तुझे याद किया रंग बदन का निखरा 
जब तिरा नाम लिया कोई महक सी बिखरी 

शाख-ए -मिज़गां पे तिरी याद के जुगनू चमके 
दामन-ए-दिल पे तिरे लब की महक सी बिखरी 
शाख-ए -मिज़गां = पलकों की डाली 

उर्दू शायरी का पूरा आनंद लेने लिए यूँ तो उर्दू भाषा की जानकारी होनी चाहिए लेकिन भला हो "सुरेश कुमार "जैसे अनेक अनुवादकों का जिनकी बदौलत हम जैसे लोग देवनागरी में इसका आनंद उठा पा रहे हैं । आज उर्दू के हर छोटे बड़े शायर का कलाम देवनागरी में उपलब्ध है लेकिन फिर भी बहुत से ऐसे लाजवाब शायर अभी भी बचे हुए हैं जिन्हें पढ़ने की तमन्ना बिना उर्दू लिपि जाने पूरी नहीं हो पा रही।

मैं उर्दू सीख कर ऐसे शायर और उनकी किताबों का जिक्र इस श्रृंखला में कर भी दूँ तो भी उनकी किताबें मेरे पाठकों के हाथ शायद ना पहुंचे क्यूंकि सभी पाठकों से उर्दू लिपि सीखने की अपेक्षा रखना सही नहीं होगा। इसलिए मैं इस श्रृंखला में सिर्फ उन्हीं किताबों जिक्र करता हूँ जो जो देवनागरी में उपलब्ध हैं और मेरी समझ से पाठकों तक पहुंचनी चाहियें।

उस एक लम्हे से मैं आज भी हूँ ख़ौफ़ज़दा 
कि मेरे घर को कहीं मेरी बद्दुआ न लगे 
ख़ौफ़ज़दा = भयभीत 

वहां तो जो भी गया लौट कर नहीं आया 
मुसाफिरों को तिरे शहर की हवा न लगे 

परस्तिशों में रहे मह्व ज़िन्दगी मेरी 
सनमकदों में रहे वो मगर खुदा न लगे 
परस्तिशों = पूजाओं ; मह्व = लिप्त ; सनमकदों = मूर्ती गृहों 

शब-ए -फ़िराक की बेरहमियों से कब है गिला 
कि फ़ासले न अगर हों तो वो भला न लगे 
शब-ए -फ़िराक = विरह की रात 

रेशमी एहसास से भरी अपनी शायरी से जादू जगाने वाली हमारी आज की शायरा हैं मोहतरमा "इरफ़ाना अज़ीज़ "जिनकी सुरेश कुमार जी द्वारा सम्पादित किताब "सितारे टूटते हैं "का जिक्र हम करने जा रहे हैं। पड़ौसी मुल्क पाकिस्तान की जिन शायराओं ने आधुनिक उर्दू शायरी को नयी दिशा दी है उनमें “इरफ़ाना अज़ीज़” साहिबा का नाम बड़ी इज़्ज़त से लिया जाता है। उन्होंने अपनी ग़ज़लों और नज़्मों से उर्दू शायरी के विकास में बहुत अहम भूमिका अदा की है।



लगाओ दिल पे कोई ऐसा ज़ख्म-ए-कारी भी 
कि भूल जाये ये दिल आरज़ू तुम्हारी भी 
ज़ख्म-ए-कारी = भरपूर घाव 

कभी तो डूब के देखो कि दीदा-ए-तर के 
समन्दरों से झलकती है बेकिनारी भी 

मोहब्बतों से शनासा खुदा तुम्हें न करे 
कि तुमने देखी नहीं दिल की बेकरारी भी 
शनासा = परिचित 

शब-ए-फ़िराक में अब तक है याद शाम-ए-विसाल 
गुरेज़-पा थी मोहब्बत से हम-किनारी भी 
गुरेज़-पा =कपट पूर्ण , अस्पष्ट 

एक साध्वी की तरह, लगभग गुमनाम सी रहते हुए, उर्दू साहित्य की पचास सालों से अधिक खिदमत करने वाली इरफ़ाना साहिबा ने अपनी ज़िन्दगी के अधिकांश साल केनेडा में गुज़ारे जहाँ उनके पति प्रोफ़ेसर थे। केनेडा प्रवास के दौरान उनका घर पूरी दुनिया के शायरों की तीर्थ स्थली बना रहा. फैज़ अहमद फैज़ और अहमद फ़राज़ साहब उनके नियमित मेहमान रहे। लोग कहते हैं कि उनकी शायरी पर फैज़ साहब का रंग दिखाई देता है जबकि इरफ़ाना साहिबा ने इस बात से इंकार करते हुए कहा कि वो फैज़ साहब से प्रभावित जरूर हैं लेकिन इस्टाइल उनकी अपनी है।

हसरत-ए-दीद आरज़ू ही सही 
वो नहीं उसकी गुफ़्तगू ही सही 
हसरत-ए-दीद = देखने की इच्छा 

ए'तिमाद-ए-नज़र किसे मालूम 
वो तरहदार खूबरू ही सही 
ए'तिमाद-ए-नज़र = देखने का भरोसा ; तरहदार = छबीला ; खूबरू = रूपवान 

आदमी वो बुरा नहीं दिल का 
यूँ बज़ाहिर वो हीलाजू ही सही 
बज़ाहिर = देखने में , एप्रेंटली ; हीलाजू = बहाना ढूंढने वाला 

कोई आदर्श हो मोहब्बत का 
वो नहीं उसकी आरज़ू ही सही 

अनोखे रूपकों और उपमाओं से सजी उनकी आधा दर्ज़न उर्दू में लिखी शायरी की किताबे मंज़रे आम पर आ चुकी हैं, देवनागरी में ये उनका पहला और एक मात्र संकलन है ,अफ़सोस बात तो ये है कि इतनी बड़ी शायरा के बारे में कोई ठोस जानकारी हमें नेट से भी नहीं मिलती। गूगल, जो सबके बारे में जानने का ताल ठोक के दावा करता है ,भी इरफ़ाना साहिबा के बारे में पूछने पर बगलें झाकने लगता है। नेट पर आप इस किताब के बारे में भाई अशोक खचर के ब्लॉग के इस लिंक पर क्लिक करने से जान सकते हैं। http://ashokkhachar56.blogspot.in/2013/09/sitaretootatehaiirfanaaziz.html

छाँव थी जिसकी रहगुज़र की तरफ 
उठ गए पाँव उस शजर की तरफ 

चल रही हूँ समन्दरों पर मैं 
यूँ कदम उठ गये हैं घर की तरफ 

जब भी उतरी है मंज़िलों की थकन 
चाँद निकला है रहगुज़र की तरफ 

इरफ़ाना साहिबा की शायरी संगीतमय , असरदार चुनौती पूर्ण है और शांति, प्रेम ,न्याय की पक्षधर हैं इसीलिए उनकी शायरी का कैनवास बहुत विस्तृत है। उनकी सोच संकीर्ण न होकर सार्वभौमिक है. वो मानव जाति के कल्याण का सपना देखती हैं। मोहब्बत की हिमायती उनकी शायरी में प्रेम सीमाएं तोड़ कर वेग से नहीं वरन मंथर गति से हौले हौले बहता नज़र आता है और उसका असर अद्वितीय है ।

तिरी फ़ुर्क़त में ज़िंदा हूँ अभी तक 
बिछुड़ कर तुझसे तेरा आसरा हूँ 
फ़ुर्क़त = वियोग 

रही है फासलों की जुस्तजू क्यों 
मैं किसके हिज़्र में सबसे जुदा हूँ 
हिज्र = विछोह 

गिला है मुझको अपनी ज़िन्दगी से 
मैं कब तेरी मोहब्बत से खफा हूँ 

खुले सर आज निकली हूँ हवा में 
बरहना सर सदाक़त की रिदा हूँ 
बरहना सर = नंगे सर ; सदाक़त = सच्चाई ; रिदा = रजाई 

"सितारे टूटते हैं"पढ़ते वक्त इसके संपादक सुरेश कुमार से हमें सिर्फ एक ही शिकायत है कि उन्होंने किताब में इरफ़ाना साहिबा की सिर्फ 44 ग़ज़लें ही शामिल की हैं हालाँकि इसके अलावा किताब में उनकी 43 नज़्मेंभी हैं पर लगता है जैसे जो है बहुत कम कम है, भरपूर नहीं है। किताब पढ़ने के बाद एक कसक सी रह जाती है और और पढ़ने की। हमारी तो सुरेश साहब से ये ही गुज़ारिश है कि वो इरफ़ाना साहिबा की शायरी की एक और किताब सम्पादित करें। जिस शायरा के कलाम लिए फैज़ साहब ने फ़रमाया हो कि "इरफ़ाना अज़ीज़"हर एतबार से हमारे जदीद शुअरा की सफ-ऐ-अव्वल में जगह पाने की मुस्तहक है "उसकी चंद ग़ज़लें ही अगर को मिलें तो भला तसल्ली कैसे होगी ?

कहीं न अब्रे-ऐ-गुरेज़ाँ पे हाथ रख देना 
कि बिजलियाँ हैं अभी नीलगूँ रिदाओं में 
अब्रे-ऐ-गुरेज़ाँ = भागता हुआ बादल ; नीलगूँ = नीले रंग की ; रिदाओं = चादरों 

उसे तो मुझसे बिछुड़ कर भी मिल गयी मंज़िल 
मैं फासलों की तरह खो गयी ख़लाओं में 

अजीब बात है कि अक्सर तलाश करता था 
वो बेवफ़ाई के पहलू मिरी वफाओं में 

सबसे अच्छी बात ये है कि इस किताब को प्रकाशित किया है "डायमंड बुक्स "वालों ने ,जिनकी प्रकाशित पुस्तकें हर शहर में और उसके स्टेशन, बस स्टेण्ड पर मिल जाती हैं , याने इसे पाने लिए आपको पापड़ नहीं बेलने पड़ेंगे। अगर आपको किताब आपके घर के निकटवर्ती पुस्तक विक्रेता के पास न मिले तो आप डायमंड बुक्स वालों को उनके पोस्टल अड्रेस "एक्स -30 , ओखला इंडस्ट्रियल एरिया ,फेज -2 नई दिल्ली -110020"पर लिखें या 011 -41611861 पर फोन करें। आप किताब को http://pustak.org/home.php?bookid=3458 पर आर्डर कर के घर बैठे भी मंगवा सकते हैं।

अगली किताब की तलाश में निकलने से पहले आईये इरफ़ाना साहिबा की कलम का एक और चमत्कार आपको दिखाते चलें :-

जो हम नहीं हैं कोई सूरत -ऐ-करार तो है 
किसी को तेरी मोहब्बत पे ऐ'तबार तो है 

यही बहुत है कि इस कारज़ार-ऐ-हस्ती में 
उदास मेरे लिए कोई ग़मगुसार तो है 
कारज़ार-ऐ-हस्ती = जीवन संग्राम ; ग़मगुसार= सहानुभूति रखने वाला 

रह-ऐ-तलब में कोई हमसफ़र मिले न मिले 
निगाह-ओ-दिल पे हमें अपने इख्तियार तो है
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