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आसमाँ किस सहारे होता है ?

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एक ग़ज़ल यूँ ही बैठे -ठाले 




कौन कहता है छुप के होता है 
क़त्ल अब दिन दहाड़े होता है 

गर पता है तुम्हें तो बतलाओ 
इश्क कब क्यों किसी से होता है 

ढूंढते हो सदा वहाँ उसको 
जो हमेशा यहाँ पे होता है 

धड़कनें घुँघरुओं सी बजती हैं 
दिल जब उसके हवाले होता है 

आरज़ू क्यों करें सहारे की 
आसमाँ किस सहारे होता है ? 

चीख कर क्यों सदायें देते हो 
जब असर बिन पुकारे होता है 

उम्र ढलने लगी समझ 'नीरज ' 
दर्द अब बिन बहाने होता है

किताबों की दुनिया - 96

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जिस को भी अपने जिस्म में रहने को घर दिया 
उन्हीं के हाथ से मिरी मुठ्ठी में जान बंद 

जिन की ज़बान मेरी खमोशी ने खोल दी 
उन को गिला कि क्यों रही मेरी ज़बान बंद 

बाज़ार असलेहे का रहे रात भर खुला 
राशन की दिन ढले ही मगर हर दुकान बंद 
असलेहे = शस्त्र 

'अशरफ'ग़ज़ल को अपनी कभी तेग़ भी बना 
कर सर क़लम सितम का दुखों की दुकान बंद 

रिवायती शायरी की बात को पिछली पोस्ट से आगे बढ़ाते हुए आज किताबों की दुनिया श्रृंखला की इस कड़ी में ज़िक्र करते हैं जनाब'अशरफ गिल'साहब की किताब "सुलगती सोचों से"का।


कल तलक जिस में रह न पाएंगे 
उसको अपना मकान कहते हैं 

अपने बस में न अपने काबू में 
जिसको अपनी ज़बान कहते हैं 

हो ख़िज़ाँ और बहार का हमदम 
तब उसे गुलसितान कहते हैं 

उसके ज़ोर-ओ-सितम से हूँ वाक़िफ़ 
सब जिसे मेहरबान कहते हैं 

अशरफ गिल साहब का खमीर पंजाब की सर जमीं से उठा है। अशरफ जोड़ासियान गाँव , तहसील वज़ीराबाद , जिला गुज़राँवाला , (अब पाकिस्तान) में सन 1940 में पैदा हुए। पंजाब यूनिवर्सिटी , लाहौर से बी ऐ करने के बाद आप अकाउंटिंग की शिक्षा के लिए सिटी कालेज फ़्रिज़नो , केलिफोर्निया अमेरिका चले गए और वापस पाकिस्तान लौट कर यूनाइटेड बैंक में अफसर की हैसियत से बरसों नौकरी की। बाद में निजी कारोबार अपना कर अमेरिका में ही बस गए।

रहा जोश हमको कमाल का न रहा ध्यान कोई ज़वाल का 
यही भूल की न समझ सके क्या हलाल है क्या हराम है 

मेरे पास आएं जो एक क़दम, बढूँ उनकी सिम्त मैं दो क़दम 
जो मिलाएं मुझसे नहीं क़दम , उन्हें दूर ही से सलाम है 

वही ज़िंदगानी मिरी हुई, मेरे हुक्म पर जो चली रुकी 
जो बिखर गयी न सिमट सकी, वही आप लोगों के नाम है 

अशरफ साहब हर फ़न मौला इंसान हैं वो ग़ज़लें तो लिखते ही हैं उन्हें बखूबी गाते भी हैं क्यूंकि वो खुद मौसिकी के रसिया हैं। वो आम और खास के दिलों में उतरने का हुनर और मिडिया के भरपूर इस्तेमाल का सलीका भी जानते हैं। उन्होंने पंजाबी गाने न सिर्फ लिखे ,बल्कि उन्हें गाया भी। उर्दू फिल्मों के गीत भी लिखे। 'सुलगती सोचों से 'उनकी देव नागरी में छपी पहली किताब है जिसके ज़रिये अब वो हिंदी पाठकों से भी रूबरू हो रहे हैं। चूँकि गिल साहब पंजाबी , उर्दू , फ़ारसी और अंग्रेजी ज़बान से वाकिफ हैं इसलिए इन ज़बानों की मिठास उनकी शायरी में भी आ गयी है।

मैं वोट मर्ज़ी के इक रहनुमा को दे बैठा 
तभी हुकूमती दरबारियों की ज़द में हूँ 

किताबें भेजूं जिन्हें वो जवाब देते नहीं 
मैं उन की रद्दी की अलमारियों की ज़द में हूँ 

मसीहा भेज दो घर मेरे तुम न आओ 
भले तुम्हारी याद की बीमारियों की ज़द में हूँ 

जो देखा लिख दिया शेरोँ में हू ब हू शायद 
किया है जुर्म जो अखबारियों की ज़द में हूँ 

गिल साहब की ग़ज़लों से गुज़रते हुए आपको शायरी के अनेक रंग दिखाई देंगे। इंसानी ग़म -ख़ुशी , दर्द -राहत , प्यार- नफरत ,जफ़ा -वफ़ा ,गुल-कांटे , अमीरी गरीबी , दोस्ती-दुश्मनी , आशिक-माशूक ही नहीं बल्कि अपने आस पास घटती अच्छाई-बुराई को भी उन्होंने अपनी ग़ज़लों में समेटा है।

मिरी ग़ज़ल के हज़ार मानी , मिरी ग़ज़ल के हज़ार पैकर 
मिरे ज़माने के सानी भी , रंग मेरी ग़ज़ल के देखेँ 

सदा सहारों के आसरे पर हुए हैं बे आसरा जहां में 
बहुत चले राह पर किसी की अब अपनी मर्ज़ी से चल के देखें 

जिन्होंने बख्शी हैं सर्द आहें , भरी हैं अश्कों से ये निगाहें 
हम उनकी खातिर, ना फिर भी चाहें, पटक के सर हाथ मल के देखें 

जो मुल्क एटम बना रहे हैं , वो मुफलिसी को बढ़ा रहे हैं 
दिलों की धरती हसीं तर है , दिलों का नक्शा बदल के देखें 

दुनिया भर में इस बेमिसाल शायरी के लिए गिल साहब को ढेरों सम्मान और पुरूस्कार नवाज़े गए हैं। ये लिस्ट बहुत लम्बी है इसलिए उसे पूरी यहाँ दे पाना संभव नहीं है , बानगी के तौर पर 'अदबी अवार्ड 1999 - केलिफोर्निया-अमेरिका ' , 'ग़ज़ल अवार्ड , लाहौर ' , अवार्ड ऑफ ऑनर , पंजाब साहित्य अकेडमी -लुधियाना ' , सम्मान निशानी , लुधियाना , पंजाब ' , सम्मान पत्र , पंजाब साहित्य सभा , नवां शहर , पंजाब , आदि का जिक्र खास तौर पर करना चाहूंगा।

वो हम को भूल जाने से पेश्तर बताएं 
हम अपनी चाहत में कैसे कमी करेंगे 

इस दिल पे ज़ख्म मैंने यूँ ही नहीं सजाये 
दिल में कभी तो मेरे ये रौशनी करेंगे 

कुछ देर अक्ल को भी देते रहे हैं छुट्टी 
कुछ काम हमने सोचा बेकार भी करेंगे 

गिल साहब की लाजवाब 105 ग़ज़लों, जिनकी तरतीब और तर्जुमा जनाब एफ एम सलीम ( 9848996343 ) ने किया है, से सजी, एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस , दिल्ली -6 द्वारा प्रकाशित इस किताब की प्राप्ति टेडी खीर है। भला हो मेरे मुंबई निवासी प्रिय मित्र और बेहतरीन शायर जनाब 'सतीश शुक्ला 'रकीब'साहब का जिन्होंने बिन मांगे ही ये कीमती तोहफा डाक से मुझे भेज दिया। किताब के चाहने वाले अलबत्ता जनाब गिल साहब को ,जो फिलहाल अमेरिका रहते हैं, उनके ई-मेल ashgill88@aol.com पर संपर्क कर इस किताब की प्राप्ति का रास्ता पूछ सकते हैं। आप उनकी बेहतरीन ग़ज़लों का लुत्फ़ उनकी साइट www.asssshrafgill.com पर पढ़ और youtube:ashrafgill1 पर क्लिक करके देख सुन सकते हैं. जो लोग अमेरिका में उनसे संपर्क के इच्छुक हैं वो उन्हें उनके इस पते पर लिखे ASHRAF GILL , 2348, W.CARMEN AVE, FRESNO, CA, 93728,USA या 5593896750 / 559233126 पर फोन करें। आखिर में , अगली किताब की खोज पर चलने से पहले उनकी एक ग़ज़ल के ये अशआर भी पढ़वाता चलता हूँ .

दिल में जिस वक्त ग़म पिघलते हैं 
अश्क आँखों से तब ही ढलते हैं 

जब मुहब्बत की बात चलती है 
गुफ्तगू का वो रुख बदलते हैं 

चन्द लम्हें कि उम्र भर के लिए 
दर्द बन कर बदन में पलते हैं 

जैसे तैसे गुज़ार ले 'अशरफ' 
तेरी खुशियों से लोग जलते हैं 

किताबों की दुनिया - 97

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गलियों गलियों दिन फैलाता हूँ लेकिन 
घर में बैठी शाम से डरता रहता हूँ 

पेड़ पे लिख्खा नाम तो अच्छा लगता है 
रेत पे लिख्खे नाम से डरता रहता हूँ 

बाहर के सन्नाटे अच्छे हैं लेकिन 
अंदर के कोहराम से डरता रहता हूँ 

"किताबों की दुनिया"श्रृंखला धीरे धीरे जिस मुकाम पर पहुँच रही है उसकी कल्पना इसके शुरू करते वक्त कम से कम मुझे तो नहीं थी। अब इसके पीछे आप जैसे सुधि पाठकों का प्यार है , मेरा जूनून है या फिर उन किताबों में छपी शायरी की कशिश है जिनका जिक्र इस श्रृंखला में हो चुका है, हो रहा है या होगा ये बहस का मुद्दा हो सकता है लेकिन यकीन जानिये इस वक्त मैं इस बहस के मूड में कतई नहीं हूँ , इस वक्त तो बस मेरा मूड उस किताब का जिक्र करने का हो रहा है जिसका नाम है "आस्मां अहसास"और शायर हैं जनाब "निसार राही"साहब।


लफ़्ज़ों से तस्वीर बनाते रहते हैं 
जैसे तैसे जी बहलाते रहते हैं 

जब से चेहरा देखा उनकी आँखों में 
आईने से आँख चुराते रहते हैं 

बारिश, पंछी, खुशबू, झरना, फूल, चराग़ 
हम को क्या क्या याद दिलाते रहते हैं 

नक़्शे-पा से बच कर चलता हूँ 
अक्सर ये रस्ता दुश्वार बनाते रहते हैं 

जोधपुर, राजस्थान में 3 अगस्त 1969 को जन्में निसार साहब ने एम एस सी (बॉटनी) करने के बाद उर्दू में एम ऐ और पी.एच.डी की डिग्रियां हासिल कीं जो हैरत की बात है, हमारे ज़माने में ऐसे लोग कम ही मिलेंगे । निसार साहब ने अपने शेरी-सफ़र की शुरुआत ग़ज़ल से की । जोधपुर के हर छोटे बड़े मुशायरे का आगाज़ उनके मुंतख़िब शेरों की किरअत से होता था। बचपन में स्टेज से मिली दाद ही ने उन्हें शेर कहने पर उकसाया होगा।

ये चाहता हूँ कि पहले बुलंदियां छू लूँ 
फिर उसके बाद मैं देखूं मज़ा फिसलने का 

कभी तो शाम के साये हों उसके भी घर पर 
कभी हो उसको भी अहसास खुद के ढलने का 

सुनाई देती है आवाज़ किस के क़दमों की 
बहाना ढूंढ रहा है चराग जलने का  

'निसार',जोधपुर से ताल्लुक रखते हैं जहाँ बारिश औसत से भी कम होती है और तीसरे साल अकाल पड़ता है बावजूद इसके उनकी शायरी में आप समंदर, बारिश, पेड़ नदी हरियाली का जिक्र पूरी शिद्दत से पाएंगे। उनकी शायरी ज़िंदादिली से जीने की हिमायत करती शायरी है। वो अपने शेरों में गहरी बातें बहुत ही सादा ज़बान में पिरोने के हुनर से वाकिफ हैं।

दिल में हज़ार ग़म हों मगर इस के बावजूद 
चेहरा तो सब के सामने शादाब चाहिए 

खुशबू, हवा, चराग़, धनक, चांदनी, गुलाब 
घर में हर एक किस्म का अस्बाब चाहिए 

बादल समन्दरों पे भी बरसें हज़ार बार 
लेकिन 'निसार'सहरा भी सेराब चाहिए 

भारतीय जीवन बीमा निगम में मुलाज़मत कर रहे निसार साहब का एक और ग़ज़ल संग्रह 'रौशनी के दरवाज़े'सन 2007 में मंज़रे आम पर आ कर मकबूलियत पा चुका है। निसार साहब के इस ग़ज़ल संग्रह में भी चौकाने वाले खूबसूरत शेर बहुतायत में पढ़ने को मिल जाते हैं। सबसे बड़ी बात है के निसार साहब के शेरों में सादगी है पेचीदगी नहीं और इसी कारण उनका कलाम सहज लगता है बोझिल नहीं।

इस तरह धूप ने रख्खा मिरे आँगन में क़दम 
जैसे बच्चा कोई सहमा हुआ घर में आये 

ज़र्द पत्तों को जो देखा तो ये मालूम हुआ 
कितने मौसम तेरी यादों के शजर में आये 

जाने ये कौनसा रिश्ता है मिरा उस से 'निसार' 
उसके आंसू जो मिरे दीदा-ऐ-तर में आये

'निसार'साहब ने ग़ज़लों के आलावा नात, सलाम, मंतकब, दोहे, माहिये और नज़्में भी लिखीं और खूब लिखीं। सर्जना प्रकाशक बीकानेर द्वारा प्रकाशित किताब 'आस्मां अहसास'में आप निसार साहब की करीब 60 चुनिंदा ग़ज़लों के अलावा 50 बेहतरीन नज़्में भी पढ़ सकते हैं। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप सर्जना प्रकाशक को उनके इस मेल आई डी sarjanabooks@gmail.comपर मेल करें या फिर निसार साहब को उनकी खूबसूरत शायरी के लिए 09414701789पर फोन कर बधाई देते हुए उनसे किताब की प्राप्ति का आसान रास्ता पूछें। मैं तो भाई इस किताब को दिल्ली में हुए विश्व पुस्तक मेले से खरीद कर लाया था।

बारिश के इस मौसम में आईये मैं उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाते हुए अब आपसे विदा लेता हूँ।

आग लगी है सपनों में 
बरसा पानी बारिश कर 

झूट ज़मीं से बह जाए 
ऐसी सच्ची बारिश कर 

बेकाबू हो उसका प्यार 
उस दिन जैसी बारिश कर 

भूल न जाएँ लोग 'निसार' 
जल्दी जल्दी बारिश कर

किताबों की दुनिया - 98

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अक्सर मुझे ही शायरी की किताब ढूंढने के लिए इधर उधर भटकना पड़ता है , बहुत सी किताबें देखता हूँ ,खरीदता हूँ पढता हूँ और उन में से मुझे जो किताब पसंद आती है उसका जिक्र अपनी इस 'किताबों की दुनिया'श्रृंखला में करता हूँ। ये सिलसिला पिछले छै:- सात सालों से लगातार चल रहा है। कभी कभी ऐसा भी होता है कि कोई किताब भी मुझे अचानक ढूंढ लेती है। और जब ऐसा होता है तो उस ख़ुशी को बयां करना लफ़्ज़ों के बस में नहीं होता।

नतीजा कुछ न निकला उनको हाल-दिल सुनाने का 
वो बल देते रहे आँचल को ,बल खाता रहा आँचल 

इधर मज़बूर था मैं भी, उधर पाबन्द थे वो भी 
खुली छत पर इशारे बन के लहराता रहा आँचल 

वो आँचल को समेटे जब भी मेरे पास से गुज़रे 
मिरे कानों में कुछ चुपके से कह जाता रहा आँचल 

दरअसल हुआ यूँ कि इंदौर निवासी कामयाब कवयित्री और उभरती शायरा 'पूजा भाटिया 'प्रीत'जो अब नवी मुंबई के बेलापुर बस गयी हैं ,ने अपने घर एक दिन चाय पे बुलाया। उनके पति 'पंकज'जो खुद कविता और शायरी के घनघोर प्रेमी हैं ने अपने हाथ से बनाई लाजवाब नीम्बू वाली चाय पिलाई। गपशप के दौरान जब किताबों का जिक्र आया तो उन्होंने ने कहा कि नीरज जी आज आपको हम एक ऐसे शायर की किताब पढ़ने को देते हैं जिसे आपने अभी तक अपनी किताबों की दुनिया श्रृंखला में शामिल नहीं किया है। अंधे को क्या चाहिए ? दो आँखें। तो साहब आज मैं उसी किताब का जिक्र कर रहा हूँ जिसका शीर्षक है "याद आऊंगा"और शायर हैं जनाब 'राजेंद्र नाथ रहबर'


तू कृष्ण ही ठहरा तो सुदामा का भी कुछ कर 
काम आते हैं मुश्किल में फ़क़त यार पुराने 

फाकों पे जब आ जाता है फ़नकार हमारा 
बेच आता है बाजार में अखबार पुराने 

देखा जो उन्हें एक सदी बाद तो 'रहबर ' 
छालों की तरह फूट पड़े प्यार पुराने 

शकरगढ़ पाकिस्तान में पैदा हुए रहबर साहब मुल्क के बटवारे के बाद अपने माता -पिता के साथ पठानकोट में चले आये और यहीं के हो कर रह गए.हिन्दू कॉलेज अमृतसर से बी.ऐ , खालसा कॉलेज अमृतसर से एम.ए और पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ से एल.एल बी के इम्तिहान पास किये। शायरी का शौक उन्हें लकड़पन से ही हो गया जो फिर ता-उम्र उनका हमसफ़र रहा।

आइना सामने रक्खोगे तो याद आऊंगा 
अपनी जुल्फों को संवारोगे तो याद आऊंगा 

ध्यान हर हाल में जाएगा मिरि ही जानिब 
तुम जो पूजा में भी बैठोगे तो याद आऊंगा 

याद आऊंगा उदासी की जो रुत आएगी 
जब कोई जश्न मनाओगे तो याद आऊंगा 

शैल्फ में रक्खी हुई अपनी किताबों में से 
कोई दीवान उठाओगे तो याद आऊंगा 

मशहूर शायर 'प्रेम कुमार बर्टनी'फरमाते हैं कि 'राजेंद्र नाथ'के अशआर निहायत पाकीज़ा , सच्चे और पुर ख़ुलूस हैं और उनकी शायरी किसी गुनगुनाती हुई नदी की लहरों पर बहते हुए उस नन्हे दिए की मानिंद है जो किसी सुहागिन ने अपने रंग भरे हाथों से बहुत प्यार के साथ गंगा की गोद के हवाले किया हो। आप हो सकता है 'रहबर'साहब के नाम से अधिक वाकिफ न हों लेकिन अगर आप ग़ज़ल प्रेमी हैं और जगजीत सिंह जी को सुने हैं तो उनकी ये नज़्म जरूर आपके ज़हन में होगी :

तेरे खुशबू में बसे ख़त मैं जलाता कैसे 
प्यार में डूबे हुए ख़त मैं जलाता कैसे 
तेरे हाथों के लिखे ख़त मैं जलाता कैसे 
तेरे ख़त आज मैं गंगा में बहा आया हूँ 
आग बहते हुए पानी में लगा आया हूँ 

इस नज़्म से रहबर साहब को वो मकबूलियत हासिल हुई जो जनाब हफ़ीज़ जालंधरी को 'अभी तो मैं जवान हूँ ...."और साहिर लुधियानवी साहब को 'ताजमहल'से हुई थी। ऐसी ही कई और बेमिसाल नज़्में और ग़ज़लें कहने का फ़न आपने पंजाब के उस्ताद शायर प. रतन पंडोरवी जी की शागिर्दी में सीखा।

दुनिया को हमने गीत सुनाये हैं प्यार के 
दुनिया ने हमको दी हैं सज़ाएं नयी नयी 

ये जोगिया लिबास , ये गेसू खुले हुए 
सीखीं कहाँ से तुमने अदाएं नयी नयी 

जब भी हमें मिलो ज़रा हंस कर मिला करो 
देंगे फकीर तुम को दुआएं नयी नयी 

उर्दू ज़बान की टिमटिमाती लौ को जलाये रखने का काम रहबर साहब ने खूब किया है. उनकी सभी किताबें 'तेरे खुशबू में बसे खत' , 'जेबे सुखन' ,' ..... और शाम ढल गयी''मल्हार', 'कलस'और 'आग़ोशे गुल 'उर्दू ज़बान में ही प्रकाशित हुई थीं। 'याद आऊंगा 'उनकी देवनागरी में छपी पहली किताब है , जो यक़ीनन हिंदी में शायरी पढ़ने वालों को खूब पसंद आ रही है क्यूंकि इसमें शायरी की वो ज़बान है जो आजकल पढ़ने को कम मिलती है

तुम जन्नते कश्मीर हो तुम ताज महल हो
'जगजीत'की आवाज़ में ग़ालिब की ग़ज़ल हो 

हर पल जो गुज़रता है वो लाता है तिरी याद 
जो साथ तुझे लाये कोई ऐसा भी पल हो 

मिल जाओ किसी मोड़ पे इक रोज अचानक 
गलियों में हमारा ये भटकना भी सफल हो 

किसी भी ज़बान को ज़िंदा रखने के लिए जरूरी है कि उसे अवाम के करीब तर लाया जाय लिहाज़ा रहबर साहब ने अपनी उर्दू ग़ज़लों में भारी भरकम अल्फ़ाज़ इस्तेमाल नहीं किये हैं। सादगी और रेशमी अहसास उनकी हर ग़ज़ल में पढ़ने को मिलते हैं। अपनी पूरी शायरी में वो एक बेहतरीन इंसान, दोस्त और पुर ख़ुलूस रूमानी शायर के रूप में उभर कर सामने आते हैं.

शायरी और खास तौर पर उर्दू साहित्य को अपनी अनोखी प्रतिभा से चार चाँद लगाने वाले रहबर साहब को हाल ही में पंजाब सरकार ने अपने सर्वोच्च साहित्यक पुरूस्कार 'शिरोमणि उर्दू साहित्यकार अवार्ड'से सम्मानित किया है। दूरदर्शन द्वारा उन पर निर्मित 23 मिनट की डाक्यूमेंट्री फिल्म भी बनाई गयी है जिसे डी डी पंजाबी व् डी डी जालंधर केन्द्रों से प्रसारित किया गया है। 

फेंका था जिस दरख़्त को कल हमने काट के 
पत्ता हरा फिर उस से निकलने लगा है यार 

ये जान साहिलों के मुकद्दर संवर गए 
वो ग़ुस्ले-आफताब को चलने लगा है यार 
ग़ुस्ले-आफताब = सन बॉथ ( सूर्य -स्नान ) 

उठ और अपने होने का कुछ तो सबूत दे 
पानी तो अब सरों से निकलने लगा है यार 

दर्पण पब्लिकेशन बी -35 /117 , सुभाष नगर , पठानकोट -145001 द्वारा प्रकाशित इस किताब इस किताब में 'रहबर'साहब की सौ से अधिक ग़ज़लें संकलित की गयी हैं। दर्पण वालों ने इस किताब में न तो अपना ई -मेल एड्रेस दिया है और न ही फोन नंबर लिहाज़ा आप के पास इस किताब की प्राप्ति के लिए सिवा उन्हें चिट्टी लिखने के यूँ तो कोई दूसरा विकल्प नहीं है लेकिन फिर भी आप एक काम कर सकते हैं आप सीधे राजेंद्र नाथ रहबर साहब से उनके मोबाइल न. 09417067191 या 01862227522 पर बात करके उनसे इस किताब की प्राप्ति का रास्ता पूछ सकते हैं। यकीन माने रहबर साहब की बुलंद परवाज़ी और उम्दा ख़यालात-ओ-ज़ज़्बात से लबरेज़ ग़ज़लें आपकी ज़िन्दगी में रंग भर देंगीं।

चलते चलते आईये पढ़ते हैं उनकी एक नज़्म जिसके बारे में प्रेम वार बर्टनी साहब ने कहा था कि 'पांच मिसरों की इस नज़्म में पचास मिसरों की काट है " 

फर्क है तुझमें, मुझमें बस इतना, 
तूने अपने उसूल की खातिर, 
सैंकड़ों दोस्त कर दिए क़ुर्बा, 
और मैं ! एक दोस्त की खातिर , 
सौ उसूलों को तोड़ देता हूँ।

किताबों की दुनिया - 99

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नर्म लहज़े में दर्द का इज़हार
गो दिसंबर में जून की बातें 
**** 
जुर्म था पर बड़े मज़े का था 
जिसको चाहा वो दूसरे का था 
**** 
ज़ेहन की झील में फिर याद ने कंकर फेंका 
और फिर छीन लिया चैन मिरे पानी का
**** 
जब भी चाहें उदास हो जाएँ 
शुक्र है इतना इख़्तियार मिला 
**** 
कोई मंज़िल न मुझको रोक सकी 
खुद मिरा घर भी मेरी राह में है 
**** 
जो छुपाने की थी बात बता दी मुझको 
ज़िन्दगी तूने बहुत सख्त सज़ा दी मुझको 

हमारी "किताबों की दुनिया "श्रृंखला की ये पोस्ट इस लिहाज़ से अनूठी है कि हमारे आज के शायर के मशहूर वालिद साहब की किताब का जिक्र भी हम इस श्रृंखला में पहले कर चुके हैं। इस श्रृंखला में पिता के बाद उसके पुत्र की किताब का जिक्र पहली बार हो रहा है । मज़े की बात ये है कि इनके बड़े भाई भी आज हिन्दुस्तानी फिल्मों के बहुत बड़े लेखक और गीतकार हैं और साथ ही बेहतरीन शायर भी। इस शायर के नाम पर से पर्दा उठे उस से पहले आईये एक नज़र उनकी एक ग़ज़ल के इन शेरों पर डाल लें :

अंदर का शोर अच्छा है थोड़ा दबा रहे 
बेहतर यही है आदमी कुछ बोलता रहे 

मिलता रहे हंसी ख़ुशी औरों से किस तरह 
वो आदमी जो खुद से भी रूठा हुआ रहे 

बिछुडो किसी से उम्र भर ऐसे कि उम्र भर 
तुम उसको ढूंढो और वो तुम्हें ढूंढता रहे 

उस्ताद शायर जाँ निसार अख्तर के 31 जुलाई 1946 को लखनऊ में जन्में बेटे और जावेद अख्तर साहब के छोटे भाई "सलमान अख्तर"साहब की किताब "नदी के पास"का जिक्र हम आज इस श्रृंखला में करेंगे। ज़ाहिर सी बात है सलमान साहब को अदबी माहौल विरासत में मिला।


कौन समझा कि ज़िन्दगी क्या है 
रंज होता है क्यों, ख़ुशी क्या है 

जिन के सीनों पे ज़ख्म रोशन हों 
उनके रातों की तीरगी क्या है 

लोग, किस्मत, खुदा, समाज, फ़लक 
आगे इन सबके आदमी क्या है 

हम बहुत दिन जियें हैं दुनिया में 
हम से पूछो कि ख़ुदकुशी क्या है 

बहुत ज्यादा के हकदार इस बेहतरीन शायर की चर्चा बहुत कम हुई है क्यों की 'शायद उन्हें अपने आपको बेचने का हुनर नहीं आया। सलमान साहब पर उनकी माँ 'सफ़िया 'की बीमारी का बहुत गहरा असर हुआ शायद इसीलिए उन्होंने पांच साल की कच्ची उम्र में में डाक्टर बनने की ठान ली। पहले उन्होंने कॉल्विन तालुकदार कालेज से पढाई की और फिर अलीगढ विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान चिकित्सा में एम.डी की डिग्री हासिल की.

कब लौट के आओगे बता क्यों नहीं देते 
दीवार बहानों की गिरा क्यों नहीं देते 

तुम पास हो मेरे तो पता क्यों नहीं चलता 
तुम दूर हो मुझसे तो सदा क्यों नहीं देते 

बाहर की हवाओं का अगर खौफ है इतना 
जो रौशनी अंदर है, बुझा क्यों नहीं देते 

सलमान साहब ने अपनी शायरी की शुरुआत अपने बड़े भाई जावेद से पहले ही कर दी थी तभी तो जावेद साहब ने उनकी इस हिंदी-उर्दू लिपि में छपी किताब की भूमिका में लिखा है कि "उम्र में तो ये मुझसे कोई ढेढ़ साल छोटा है लेकिन शायरी में मुझसे पूरे दस साल बड़ा है "इनकी पहली किताब जो सं 1976 में प्रकाशित हुई थी जिसका आमुख उनके वालिद जाँ निसार अख्तर साहब ने लिखा था।

तीर पहुंचे नहीं निशानों पर 
ये भी इल्ज़ाम है कमानों पर 

जिस ने लब सी लिए सदा के लिए 
उसका चर्चा है सब ज़बानों पर 

सर झुकाये खड़े हैं सारे पेड़ 
और फल सज गए दुकानों पर 

सच की दौलत न हाथ आई कभी 
उम्र कटती रही बहानों पर 

मनो विज्ञान विषय पर उनकी 13 किताबें और 300 से अधिक आलेख विभिन्न देशों के मेडिकल जर्नल्स में छप कर प्रसिद्धि पा चुके हैं। शायरी में 'नदी के पास'उनका तीसरा संकलन है जो "कूबकू "और 'दूसरा घर "के बाद शाया हुआ है। ये किताब देवनागरी और उर्दू दोनों लिपियों में प्रकाशित हुई है. इस किताब में सलमान साहब की कुछ नज़्में और पचास के ऊपर ग़ज़लें संग्रहित हैं।

थोड़े बड़े हुए तो हकीकत भी खुलगयी 
स्कूल में सुना था कि भारत महान है 

देखूं मिरे सवाल का देता है क्या जवाब 
सुनता हूँ आदमी बड़ा जादू बयान है 


गो देखने में मुझसे बहुत मुख्तलिफ है वो 
अंदर से उसका हाल भी मेरे समान है 

सन 2004 में स्टार पब्लिकेशन 4 /5 आसफ अली रोड नई दिल्ली -110002 द्वारा प्रकाशित इस किताब को मंगवाने के लिए आपके पास सिवा उन्हें पत्र लिखने के और कोई दूसरा रास्ता मुझे नहीं मालूम। मुझे ये किताब अलबत्ता उभरती शायरा और स्थापित कवयित्री "पूजा प्रीत भाटिया 'जी के सौजन्य से प्राप्त हुई थी बहुत ही दिलकश अंदाज़ में जावेद अख्तर द्वारा लिखी भूमिका और सलमान साहब की बेहतरीन ग़ज़लों को समेटे ये किताब हर शायरी के प्रेमी को पढ़नी चाहिए। आखिर में सलमान साहब की एक ग़ज़ल के ये शेर आपके हवाले कर मैं अब चलता हूँ अगली किताब की तलाश में। खुश रहें।

फर्क इतना है कि आँखों से परे है वर्ना 
रात के वक्त भी सूरज कहीं जलता होगा 

खिड़कियां देर से खोलीं, ये बड़ी भूल हुई 
मैं ये समझा था कि बाहर भी अँधेरा होगा 

कौन दीवानों का देता है यहाँ साथ भला 
कोई होगा मिरे जैसा तो अकेला होगा


किताबों की दुनिया - 100

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मुंह पर मल कर सो रहे काली कीचड़ ज़िन्दगी 
जैसे यूँ धुल जाएँगी होने की रूसवाइयां 

गिर कर ठंडा हो गया हिलता हाथ फकीर का 
जेबों में ही रह गयीं सब की नेक कमाईयां 

फिरता हूँ बाज़ार में , रुक जाऊं लेता चलूँ 
उसकी खातिर ब्रेज़ियर , अपने लिए दवाइयाँ 

चलता -फिरता गोद में नीला गोला ऊन का 
गर्म गुलाबी उँगलियाँ , गहरी सब्ज़ सलाइयां 

कहन में अलग अंदाज़ और नए लफ़्ज़ों के प्रयोग के कारण अपने बहुत से साथी शायरों की आँख की किरकिरी बने पाकिस्तान के जिस शायर की किताब 'बिखरने के नाम पर'का जिक्र हम आज करने जा रहे हैं उनका नाम है 'ज़फर इक़बाल'


रात फिर आएगी, फिर ज़ेहन के दरवाज़े पर 
कोई मेहँदी में रचे हाथ से दस्तक देगा 

धूप है , साया नहीं आँख के सहरा में कहीं 
दीद का काफिला आया तो कहाँ ठहरेगा 
दीद : दृष्टि 

आहट आते ही निगाहों को झुका लो कि उसे 
देख लोगे तो लिपटने को भी जी चाहेगा 

पाकिस्तान के ओकारा में 1933 को जन्में ज़फ़र साहब ने पिछले चार दशकों में जितना लिखा है उतना आज के दौर के किसी और उर्दू शायर ने शायद ही लिखा हो। उन्होंने उर्दू ग़ज़ल की पारम्परिक भाषा उसके रूपकों, प्रतीकों, उपमाओं और दूसरे बंधे बंधाये सांचो को तोड़ते हुए अपनी अलग ही ज़मीन तैयार की। शायरी में नए प्रयोग किये जो बहुत सफल रहे।

जिस्म जो चाहता है, उससे जुदा लगती हो 
सीनरी हो मगर आँखों को सदा लगती हो 
सदा : आवाज़ 

सर पे आ जाये तो भर जाए धुंआ साँसों में 
दूर से देखते रहिये तो घटा लगती हो 

ऐसी तलवार अँधेरे में चलाई जाए 
कि कहीं चाहते हों, और कहीं लगती हो 

छठी दहाई में उभरने वाले शायरों में ज़फर इक़बाल सबसे चर्चित शायर रहे हैं। उन्होंने बोलचाल की शैली को साहित्यिक भाषा के रूप में प्रस्तुत किया और रचनात्मक स्तर पर एक नयी काव्यात्मक भाषा की रचना की। उनकी ग़ज़लों में कुछ बातें अटपटी जरूर लगती हैं लेकिन ये सभ्य समाज की अलंकृत भाषा एवं काल्पनिक विषयों से आगे आम आदमी की मानसिक स्थिति की सीधी अभिव्यक्ति करती हैं।

कोई सूरत निकलती क्यों नहीं है 
यहाँ हालत बदलती क्यों नहीं है 

ये बुझता क्यों नहीं है उनका सूरज 
हमारी शमअ जलती क्यों नहीं है 

अगर हम झेल ही बैठे हैं इसको 
तो फिर ये रात ढलती क्यों नहीं है 

मुहब्बत सर को चढ़ जाती है, अक्सर 
मेरे दिल में मचलती क्यों नहीं है 

'वाणी प्रकाशन'दिल्ली से प्रकाशित 'ज़फर'साहब की पहली देवनागरी भाषा में छपी शायरी की इस किताब में उनके छ: अलग अलग संग्रहों से चुनी हुई ग़ज़लों को संकलित किया गया है। ज़फर साहब की शायरी को हिंदी पाठकों तक पहुँचाने का भागीरथी प्रयास जनाब 'शहरयार'और 'महताब हैदर नकवी'साहब ने मिल कर किया है।

जिस से चाहा था, बिखरने से बचा ले मुझको 
कर गया तुन्द हवाओं के हवाले मुझ को 
तुन्द : तेज़ 

मैं वो बुत हूँ कि तेरी याद मुझे पूजती है 
फिर भी डर है ये कहीं तोड़ न डाले मुझको 

मैं यहीं हूँ इसी वीराने का इक हिस्सा हूँ 
जो जरा शौक से ढूढ़ें वही पा ले मुझको 

ज़फर साहब को पूरा पढ़ने की हसरत रखने वालों को उर्दू पढ़ना आना जरूरी है क्यों की उनकी कुलियात जो चार भागों में 'अब तक 'के शीर्षक से छपी है उर्दू में है। हालाँकि उन्होंने जितना लिखा है उसका एक छोटा सा अंश ही इस किताब में शामिल है फिर भी इस किताब में छपी उनकी सवा सौ ग़ज़लें पढ़ कर उनकी शायरी के मिज़ाज़ का अंदाज़ा उसी तरह हो जाता है जैसे कुऐं के पानी के स्वाद का उसकी एक बूँद चखने से हो जाता है।

खोलिए आँख तो मंज़र है नया और बहुत 
तू भी क्या कुछ है मगर तेरे सिवा और बहुत 

जो खता की है जज़ा खूब ही पायी उसकी 
जो अभी की ही नहीं, उसकी सज़ा और बहुत 
जज़ा : नेकी का बदला 

खूब दीवार दिखाई है ये मज़बूरी की 
यही काफी है बहाने न बना, और बहुत 

सर सलामत है तो सज़दा भी कहीं कर लूँगा 
ज़ुस्तज़ु चाहिए , बन्दों को खुदा और बहुत 

अंत में अपने पाठकों का मैं दिल से आभार व्यक्त करता हूँ जिनके लगातार उत्साह वर्धन, सहयोग और प्रेम ने मुझे इस श्रृंखला को 100 के जादुई आंकड़े तक पहुँचाने में मदद की।

किताबों की दुनिया - 101

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इंसान में हैवान , यहाँ भी है वहां भी 
अल्लाह निगहबान, यहाँ भी है वहां भी 

रहमान की कुदरत हो या भगवान की मूरत 
हर खेल का मैदान , यहाँ भी है वहां भी 

हिन्दू भी मज़े में हैं, मुसलमां भी मज़े में 
इन्सान परेशान , यहाँ भी है वहां भी 

अपने और सरहद पार के मुल्क में जो समानता है उसको हमारी "किताबों की दुनिया "के 100 वें शायर के अलावा शायद ही किसी और शायर ने इतनी ख़ूबसूरती और बेबाकी से पेश किया हो। सुधि पाठक इस बात से चौंक सकते हैं कि जब ये इस श्रृंखला की 101 वीं कड़ी है तो फिर शायर 100 वें कैसे हुए ? सीधी सी बात है हमने ही तुफैल में या समझें जानबूझ कर हमारे शहर और बचपन के साथी राजेश रेड्डी का जिक्र दो बार कर दिया था जो इस श्रृंखला की अघोषित नीति के अनुसार गलत बात थी। अब जो हो गया सो हो गया, उस बात को छोड़ें और जिक्र करें हमारे आज के शायर का जो इस दौर के सबसे ज्यादा पढ़े और सुने जाने वाले शायरों में से एक हैं। शायर का नाम बताने से पहले पढ़िए उनकी ये रचना जिसे पढ़ कर मुझे यकीन है आप फ़ौरन जान जायेंगे कि मैं आज किस शायर की किताब का जिक्र करने वाला हूँ :-

बेसन की सौंधी रोटी पर ,खट्टी चटनी जैसी माँ 
याद आती है चौका-बासन, चिमटा, फुकनी -जैसी माँ

बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन थोड़ी थोड़ी सी सब में 
दिन भर इक रस्सी के ऊपर चलती नटनी - जैसी माँ 

बाँट के अपना चेहरा, माथा, आँखें जाने कहाँ गयी 
फ़टे  पुराने इक अलबम में चंचल लड़की - जैसी माँ 


"निदा फ़ाज़ली" - एक दम सही जवाब और किताब है साहित्य अकादमी पुरूस्कार से सम्मानित "खोया हुआ सा कुछ ". ग़ज़ल हो या नज़्म,गीत हो या दोहे हर विधा में रचनाकार निदा फ़ाज़ली अपनी सोच,शिल्प, और अंदाज़े बयां में दूसरों से अलग ही दिखाई नहीं देते , पूरी उर्दू शायरी में अकेले नज़र आते हैं। इस किताब की अधिकतर रचनाओं मसलन "कहीं कहीं पे हर चेहरा तुम जैसा लगता है ", "ग़रज़-बरस प्यासी धरती पर फिर पानी दे मौला" ,"अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफर के हम हैं" ,"धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो", "मुंह की बात सुने हर कोई", आदि को जगजीत सिंह जी ने अपने स्वर में ढाल कर हर खास-ओ-आम तक पहुंचा दिया है इसीलिए हम आज उनकी उन ग़ज़लों का जिक्र करेंगे जो इनसब से अलग हैं :

निकल आते हैं आंसू हँसते - हँसते 
ये किस ग़म की कसक है हर ख़ुशी में 

गुज़र जाती है यूँ ही उम्र सारी 
किसी को ढूंढते हैं हम किसी में 

सुलगती रेत में पानी कहाँ था 
कोई बादल छुपा था तिश्नगी में 

बहुत मुश्किल है बंजारा मिज़ाजी 
सलीका चाहिए आवारगी में 

आधुनिक शायर निदा फ़ाज़ली साहब की आधुनिकता उनके पाठकों और श्रोताओं से कभी दूर नहीं होती। निदा जी की पहचान उनकी सरल सहज ज़मीनी भाषा है जिसमें हिंदी उर्दू का फर्क समाप्त हो जाता है और यही उनकी लोकप्रियता का राज़ भी है ।

उठके कपडे बदल , घर से बाहर निकल , जो हुआ सो हुआ 
रात के बाद दिन , आज के बाद कल , जो हुआ सो हुआ 

जब तलक सांस है, भूख है प्यास है , ये ही इतिहास है  
रख के काँधे पे हल , खेत की और चल , जो हुआ सो हुआ 

मंदिरों में भजन, मस्जिदों में अजां , आदमी है कहाँ 
आदमी के लिए एक ताज़ा ग़ज़ल, जो हुआ सो हुआ 

किताब के रैपर पर सही लिखा है कि 'निदा फ़ाज़ली की शायरी एक कोलाज़ के सामान है। इसके कई रंग और रूप हैं। किसी एक रुख से इसकी शिनाख्त मुमकिन नहीं। उन्होंने ज़िन्दगी के साथ कई दिशाओं में सफर किया है उनकी शायरी इस सफर की दास्तान है। जिसमें कहीं धूप कहीं छाँव है कहीं शहर कहीं गाँव है। '

इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी 
रात जंगल में कोई शमअ जलाने से रही 

फासला चाँद बना देता है हर पत्थर को 
दूर की रौशनी नज़दीक तो आने से रही 

शहर में सबको कहाँ मिलती है रोने की जगह 
अपनी इज़्ज़त भी यहाँ हंसने हंसाने से रही 

12 अक्टूबर 1938 को दिल्ली के एक कश्मीरी परिवार में जन्में निदा की स्कूली शिक्षा ग्वालियर में हुई। 1947 के भारत पाक विभाजन में उनके माता पिता पाकिस्तान चले गए जबकि निदा भारत में रहे। बचपन में एक मंदिर के पास से गुज़रते हुए उन्होंने सूरदास का भजन किसी को गाते हुए सुना और उससे प्रभावित हो कर वो भी कवितायेँ लिखने लगे। रोजी रोटी की तलाश उन्हें 1964 में मुंबई खींच लायी जहाँ वो धर्मयुग और ब्लिट्ज के लिए नियमित रूप से लिखने लगे।

हम हैं कुछ अपने लिए कुछ हैं ज़माने के लिए 
घर से बाहर की फ़िज़ा हंसने हंसाने के लिए 

मेज़ पर ताश के पत्तों सी सजी है दुनिया 
कोई खोने के लिए है कोई पाने के लिए 

तुमसे छुट कर भी तुम्हें भूलना आसान न था 
तुमको ही याद किया तुमको भुलाने के लिए 

मुंबई की फ़िल्मी दुनिया ने भी उनकी लेखन प्रतिभा को पहचाना और उन्हें फिल्मों में गीत और स्क्रिप्ट लेखन का मौका दिया। फिल्म 'रज़िया सुलतान'के लिए लिखे उनके गानों ने धूम मचा दी। फ़िल्मी गीत लिखने में स्क्रिप्ट और मूड की बाध्यता उन्हें रास नहीं आई। वो लेखन को भी चित्रकारी और संगीत की तरह सीमा में बंधी हुई विधा नहीं मानते। इसी कारण उनका फ़िल्मी दुनिया से नाता सतही तौर पर ही रहा।

याद आता है सुना था पहले 
कोई अपना भी खुदा था पहले 

जिस्म बनने में उसे देर लगी 
इक उजाला सा हुआ था पहले 

अब किसी से भी शिकायत न रही 
जाने किस किस से गिला था पहले 

निदा साहब की हिंदी उर्दू गुजराती में लगभग 24 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं।"खोया हुआ सा कुछ"देवनागरी में उनके "मोर नाच"के बाद दूसरा संकलन है जिसे "वाणी प्रकाशन "दिल्ली ने प्रकाशित किया है। इस संकलन में निदा साहब की चुनिंदा ग़ज़लों के अलावा उनकी नज़्में और दोहे भी शामिल हैं।

निदा साहब को सन 1998 में साहित्य अकादमी और 2013 पद्म श्री के पुरूस्कार से नवाज़ा गया है। इसके अलावा भी खुसरो पुरूस्कार ( म,प्र ), मारवाड़ कला संगम (जोधपुर), पंजाब असोसिएशन (लुधियाना), कला संगम (मद्रास ), हिंदी -उर्दू संगम ( लखनऊ ), उर्दू अकेडमी (महाराष्ट्र), उर्दू अकेडमी ( बिहार) और उर्दू अकेडमी (उ.प्र ) से भी सम्मानित किया जा चुका है.
चलिए चलते चलते उनके उन दोहों का आनंद भी ले लिया जाय जिन्हें जगजीत सिंह जी ने नहीं गाया है और उनकी बहुमुखी प्रतिभा को सलाम करते हुए अगले शायर की तलाश पर निकला जाए।

जीवन भर भटका किये , खुली न मन की गाॅंठ 
उसका रास्ता छोड़ कर , देखी उसकी बाट 
**** 
बरखा सब को दान दे , जिसकी जितनी प्यास 
मोती सी ये सीप में, माटी में ये घास 
**** 
रस्ते को भी दोष दे, आँखे भी कर लाल 
चप्पल में जो कील है, पहले उसे निकाल 
**** 
मैं क्या जानू तू बता तू है मेरा कौन 
मेरे मन की बात को, बोले तेरा मौन

अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं

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दिपावली के शुभ अवसर पर पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर तरही मुशायरे का सफल आयोजन हुआ ,उसी में प्रस्तुत खाकसार की ग़ज़ल 

दुबक के ग़म मेरे जाने किधर को जाते हैं 
अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं 

हज़ार बार कहा यूँ न देखिये मुझको 
हज़ार बार मगर, देख कर सताते हैं 

उदासियों से मुहब्बत किया नहीं करते 
हुआ हुआ सो हुआ भूल, खिलखिलाते हैं 

हमें पता है कि मौका मिला तो काटेगा 
हमीं ये दूध मगर सांप को पिलाते हैं 

कमाल लोग वो लगते हैं मुझ को दुनिया में 
जो बात बात पे बस कहकहे लगाते हैं 

जहाँ बदल ने की कोशिश करी नहीं हमने 
बदल के खुद ही जमाने को हम दिखाते हैं 

बहुत करीब हैं दिल के मेरे सभी दुश्मन 
निपटना दोस्तों से वो मुझे सिखाते हैं 

गिला करूँ मैं किसी बात पर अगर उनसे 
तो पलट के वो मुझे आईना दिखाते हैं 

रहो करीब तो कड़ुवाहटें पनपती हैं 
मिठास रिश्तों की कुछ फासले बढ़ाते हैं 

नहीं पसंद जिन्हें फूल वो सही हैं, मगर 
गलत हैं वो जो सदा खार ही उगाते हैं 

ये बादशाह दिए रोंध कर अंधेरों को 
गुलाम मान के, अपने तले दबाते हैं 

बहुत कठिन है जहां में सभी को खुश रखना 
कि लोग रब पे भी अब उँगलियाँ उठाते हैं 

जिसे अंधेरों से बेहद लगाव हो 'नीरज' 
चराग सामने उसके नहीं जलाते हैं

किताबों की दुनिया -102

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उस पार से मुहब्बत आवाज़ दे रही है 
दरिया उफ़ान पर है दिल इम्तहान पर है 

ऊंचाइयों की हद पर जा कर ये ध्यान रखना 
अगला कदम तुम्हारा गहरी ढलान पर है 

'राजेंद्र'से भले ही वाक़िफ़ न हो ज़माना 
ग़ज़लो का उसकी चर्चा सबकी जुबान पर है 

हम अपनी आज की 'किताबों की दुनिया 'श्रृंखला में 2 मार्च 1960 में जन्मे उसी राजेंद्र तिवारी जी की किताब 'संभाल कर रखना'की चर्चा करेंगे और जानेंगे कि क्यों उनकी ग़ज़लें सबकी जबान पर हैं।


उठाती है जो ख़तरा हर क़दम पर डूब जाने का 
वही कोशिश समन्दर में खज़ाना ढूंढ लेती है 

हक़ीक़त ज़िद किये बैठी है चकनाचूर करने को 
मगर हर आँख फिर सपना सुहाना ढूंढ लेती है 

न कारोबार है कोई , न चिड़िया की कमाई है 
वो केवल हौसले से आबो-दाना ढूंढ लेती है 

कानपुर निवासी राजेंद्र जी को शुरू से ही शोहरत की कोई लालसा नहीं रही न मंचो के माध्यम से न प्रकाशनों के लेकिन जिस तरह फूल को अपने खिलने की सूचना किसी को देनी नहीं होती उसकी खुशबू उसके खिलने का पता दे देती वैसे ही लगनशील रचनाकार की उत्कृष्ट रचनाएँ उसकी शोहरत स्वयं फैला देती हैं। ऐसे ही रचनाकारों में शुमार किये जाते हैं राजेंद्र तिवारी जी। फ़िक्र और फ़न के सम्यक सामंजस्य के कारण उनकी ग़ज़लें एक अलग छाप छोड़ती हैं।

गृहस्थी में कभी रूठें -मनायें ठीक है, लेकिन 
हो झगड़ा रोज़ तो घर की ख़ुशी को चाट जाता है 

सिमट कर जैसे आ जाये समंदर एक क़तरे में 
कोई ऐसा भी लम्हा है, सदी को चाट जाता है 

ग़ज़ल की परवरिश करने पे खुश होना होना तो लाज़िम है 
ग़ुरूर आ जाये तो फिर शायरी को चाट जाता है 

चेहरे पे खिचड़ी दाढ़ी, गहरी आवाज, आकर्षक लहजा, लहज़े में ग़ज़ब का आत्म विशवास औरगुरूर से कोसों दूर राजेंद्र जी का शायरी से लगाव 18 साल की उम्र से हो गया था जिसे संवारा और परवान चढ़ाया उनके गुरु और मार्गदर्शक स्व.पं कृष्णानन्द जी चौबे ने। उनके स्नेहनिल संरक्षण, सम्यक मार्गदर्शन और उत्साह वर्धन ने उनकी रचनात्मकता को निखारने के साथ ही फ़िक्र को ग़ज़ल के साँचे में ढालने की कला सिखाई।

पर्वत के शिखरों से उतरी सजधज कर अलबेली धूप 
फूलों फूलों मोती टाँके, कलियों के संग खेली धूप 

सतरंगी चादर में लिपटी जैसे एक पहेली धूप 
जाने क्यों जलती रहती है, छत पर बैठ अकेली धूप 

मुखिया के लड़के सी दिन भर मनमानी करती घूमे 
आँगन -आँगन ताके - झाँके फिर चढ़ जाय हवेली धूप 

अपनी बेहतरीन और दिलफरेब शायरी के लिए राजेंद्र जी को सन 2000 में अली अवार्ड से और 2001 में वाक़िफ़ रायबरेली सम्मान से नवाजा गया. इसके अलावा अनुरंजिका ,सौरभ ,मानस संगम इत्यादि अनेक साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया। आपकी ग़ज़लों को देश की विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं जैसे हंस, कथालोक, नवनीत, अक्षरा, इंद्र प्रस्थ भारती, कथन और गगनांचल इत्यादि में भी प्रकाशित किया गया है।

न जाने कौनसी तहज़ीब के तहत हमको 
सिखा रहें हैं वो ख़ंजर संभाल कर रखना 

ख़ुशी हो ग़म हो न छलकेंगे आँख से आंसू 
मैं जानता हूँ समंदर संभाल कर रखना 

तुम्हारे सजने संवरने के काम आएंगे 
मेरे ख्याल के ज़ेवर संभाल कर रखना 

भला हो मेरे मुंबई निवासी शायर मित्र सतीश शुक्ला 'रकीब'साहब का जिनके माध्यम से मुझे राजेंद्र जी और उनकी की शायरी को जानने का मौका मिला। उत्तरा बुक्स केशम् पुरम दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस ग़ज़ल संग्रह में राजेंद्र जी की 101 ग़ज़लें संगृहीत हैं जिसे 09868621277 पर फोन कर प्राप्त किया जा सकता है। आप राजेंद्र जी से 9369810411 पर संपर्क कर के भी इस किताब को प्राप्त कर सकते हैं।

पत्थरोँ से सवाल करते हैं 
आप भी क्या कमाल करते हैं 

खुशबुएँ क़ैद हो नहीं सकतीं 
क्यों गुलों को हलाल करते हैं 

वे जो दावे कभी नहीं करते 
सिर्फ वे ही कमाल करते हैं 

बिना कोई दावा किये कमाल करने वाले इस सच्चे और अच्छे शायर की ये किताब हर शायरी प्रेमी पाठक को पढ़नी चाहिए ताकि इस बात की पुष्टि हो कि बाजार से समझौता किये बिना भी उम्दा शायरी के दम पर मकबूलियत हासिल की जा सकती है।
चलते चलते आईये पढ़ते हैं उनकी एक ग़ज़ल के चंद शेर और निकलते हैं एक और किताब की तलाश में :

दर्द के हरसिंगार ज़िंदा रख 
यूँ ख़िज़ाँ में बहार ज़िंदा रख 

ज़िन्दगी बेबसी की कैद सही 
फिर भी कुछ इख़्तियार ज़िंदा रख 

ख्वाइशें मर रही हैं, मरने दे 
यार खुद को न मार , ज़िंदा रख 

गर उसूलों की जंग लड़नी है 
अपनी ग़ज़लों की धार ज़िंदा रख

किताबों की दुनिया - 103 /1

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इस बार "किताबों की दुनिया"श्रृंखला में दो ऐसी बातें हो रहीं हैं जो इस से पहले मेरे ब्लॉग पर कभी नहीं हुई. अब आप पूछिए क्या ? पूछिए न ? आप पूछते नहीं तभी ये बातें होती हैं। चलिए हम बता देते हैं "सुनिए के ना सुनिए ...."

पहली तो ये कि इस पोस्ट के आने में दो महीने से भी ज्यादा का वक्त लग गया , इस विलम्ब का ठीकरा मैं चाहे सर्द मौसम , समय की कमी, अत्यधिक भ्रमण , उचित किताब का न मिलना आदि अनेक ऊटपटांग कारणों के सर पर फोड़ सकता हूँ लेकिन उस से हासिल क्या होगा ? आपने थोड़े पूछा है कि भाई "इतनी मुद्दत बाद मिले हो किन सोचों में गुम रहते हो "ये तो मैं अपनी मर्ज़ी से बता रहा हूँ और जब अपनी मर्ज़ी से बता रहा हूँ तो झूट क्यों बोलूं ? इस विलम्ब का कारण सिर्फ और सिर्फ आलस्य है।

दूसरी बात जो अधिक महत्वपूर्ण है वो ये कि इस बार हम किसी एक फूल जैसे शायर की किताब का जिक्र न करते हुए आपके लिए एक गुलदस्ता ले कर आये हैं जिसमें रंग रंग के फूल खिले हैं। इस गुलदस्ते का नाम है "खिड़की में ख्वाब "और इसे अलग अलग फूलों से सजाया है जनाब "आदिल रज़ा मंसूरी "साहब ने। इस गुलदस्ते की खास बात ये है कि इसमें शामिल फूल से शायर हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की सर जमीं से हैं ,सभी चालीस साल से कम उम्र के हैं और इन में से किसी भी शायर की किताब अभी तक मंज़रे आम पर नहीं आई है। इस किताब में कुल जमा 15 शायरों का कलाम दर्ज़ किया गया है अगर हर शायर का जिक्र हम एक ही पोस्ट में करेंगे तो ये पढ़ने वालों पर बहुत भारी पड़ेगा इसलिए हम इसे दो भाग में पोस्ट करेंगे। पहले भाग में 8 शायर और दूसरे में 7 शायरों जिक्र किया जायेगा।



तो चलिए शुरू करते हैं इस किताब के हवाले से शायरी का खुशनुमा सफर. सबसे पहले जिस शायर का कलाम आप पढ़ने जा रहें हैं वो हैं जनाब "तौक़ीर तक़ी "। आपका जन्म 6 जनवरी 1981 में नूरेवाला , पाकिस्तान में हुआ। मेरे कहने पे मत जाएँ आप खुद देखें ये किस पाये के शायर हैं। इस किताब में आपकी संकलित 5 ग़ज़लों में से कुछ के चंद अशआर पेश हैं :-

लफ़्ज़ की क़ैद से रिहा हो जा 
आ! मिरी आँख से अदा हो जा 

ख़ुश्क पेड़ों को कटना पड़ता है 
अपने ही अश्क पी हरा हो जा 

संग बरसा रहा है शहर तो क्या 
तू भी यूँ हाथ उठा दुआ हो जा 

तौक़ीर साहब की एक और ग़ज़ल के चंद अशआर पहुँचाने का मन हो रहा है। ये नौजवानों की शायरी है जनाब जिनके सोच की परवाज़ मुल्क की सरहदें नहीं देखती।

रूठ कर आँख के अंदर से निकल जाते हैं 
अश्क बच्चों की तरह घर से निकल जाते हैं 

सब्ज़ पेड़ों को पता तक नहीं चलता शायद 
ज़र्द पत्ते भरे मंज़र से निकल जाते हैं 

साहिली रेत में क्या ऐसी कशिश है कि गुहर 
सीप में बंद समंदर से निकल जाते हैं 

इस से पहले की हम अगले शायर का कलाम पेश करें आप जरा उनकी ग़ज़ल का ये एक शेर पढ़ते चलिए :-

दहलीज़ पर पड़ी हुई आँखें मिलीं मुझे 
मुद्दत के बाद लौट के जब अपने घर गया 

अब आ रहे हैं इस किताब के अगले शायर जनाब "अदनान बशीर "जो 6 सितम्बर 1982 को साईवाल ,पाकिस्तान में पैदा हुए और आजकल लाहौर में रहते हैं। इनके बारे में तो ज्यादा जानकारी हासिल नहीं हो पायी पर हाँ इनकी शायरी का अंदाज़ा उनकी ग़ज़लें पढ़ने से जरूर हो जाता है इस गुलदस्ते में बशीर साहब की 5 ग़ज़लें शामिल की गयी है , आईये पढ़ते हैं एक ग़ज़ल के चंद अशआर :-

तुम्हारी याद के परचम खुले हैं राहों में 
तुम्हारा जिक्र है पेड़ों में खानकाहों में 

शिकस्ता सहन के कोने में चारपाई पर 
तिरा मरीज़ तुझे सोचता है आहों में 

झुके दरख़्त से पूछा महकती डाली ने 
कभी गुलाब खिले हैं तुम्हारी बाहों में 

इस किताब के तीसरे शायर हैं 30 जून 1984 में संभल, उत्तर प्रदेश भारत में जन्मे जनाब "अमीर इमाम"साहब। अमीर अपनी पुख्ता शायरी की वजह से पूरे देश में अपना नाम रौशन कर चुके है। उनकी ग़ज़लें इंटरनेट पर उर्दू शायरी की सबसे बड़ी साइट "रेख़्ता "पर भी पढ़ी जा सकती हैं। आईये उनकी एक ग़ज़ल के इन अशआरों से रूबरू हुआ जाय :-

रहूँ बे सम्त फ़ज़ाओं में मुअल्लक़ कब तक 
मैं हूँ इक तीर जो अब अपना निशाना चाहूँ 
मुअल्लक़ = हवा में ठहरा हुआ 

अपने काँधे प'उठाऊँ मैं सितारे कितने 
रात हूँ अब किसी सूरज को बुलाना चाहूँ 

मसअला है कि भुलाने के तरीके सारे 
भूल जाता हूँ मैं जब तुझको भुलाना चाहूँ 

और अब पढ़ते हैं 5 सितम्बर 1985 को आजमगढ़ उत्तरप्रदेश भारत में जन्में शायर जनाब "सालिम 'सलीम'"साहब की ग़ज़ल के चंद अशआर। सालिम "रेख्ता"साइट से जुड़े हुए हैं और दिल्ली निवासी हैं। नए ग़ज़लकारों में सालिम साहब का नाम बहुत अदब से लिया जाता है।

क्या हो गया कि बैठ गई ख़ाक भी मिरी 
क्या बात है कि अपने ही ऊपर खड़ा हूँ मैं 

फैला हुआ है सामने सहरा -ऐ-बेकनार 
आँखों में अपनी ले के समंदर खड़ा हूँ मैं 

सोया हुआ है मुझमें कोई शख्स आज रात 
लगता है अपने जिस्म से बाहर खड़ा हूँ मैं 

15 जनवरी 1986 को आजमगढ़ उत्तर प्रदेश भारत में जन्में हमारे अगले शायर हैं जनाब "गौरव श्रीवास्तव 'मस्तो'" जिन्होंने अपनी तकनिकी शिक्षा लखनऊ में पूरी की। पूरे देश में अपनी विलक्षण प्रतिभा का डंका बजवाने वाले गौरव केवल कवितायेँ ग़ज़लें और नज़्में लिखने तक ही सिमित नहीं हैं , उन्होंने नए अंदाज़ में बहुत से नाटक भी लिखे हैं और उनमें अभिनय भी किया। फिल्म और मीडिया से सम्बंधित जानकारी देने के उद्देश्य से सन 2012 से उनके द्वारा चलाई जाने वाली संस्था "क्रो -क्रियेटिव "ने अल्प समय में ही अपनी पहचान स्थापित कर ली है। आईये उनकी ग़ज़ल के चंद अशआर पढ़ें जाएँ :-

फूल पर बैठा था भंवरा ध्यान में 
ध्यान से गहरा था उतरा ध्यान में 

उसकी आहट चूम कर ऐसा हुआ 
याद का इक फूल महका ध्यान में 

हाथ में सिगरेट मिरे घटती हुई 
और मैं बढ़ता हुआ सा ध्यान में 

उनकी एक छोटे बहर की खूबसूरत ग़ज़ल के दो चार शेर पढ़ें और उनकी प्रतिभा का अंदाज़ा लगाएं

मुद्दत बाद मिलेगा वो 
पूछ न बैठे कैसा हूँ 

गीली गीली आँखों वाला 
सूखा सूखा चेहरा हूँ 

सबके हाथों खर्च हुआ 
मैं क्या रुपया पैसा हूँ 

अब आपका परिचय करवाते हैं वसी गॉव महाराष्ट्र भारत में 17 जनवरी 1986 को जन्में युवा शायर जनाब "तस्नीफ़ हैदर " साहब की शायरी से जो आजकल दिल्ली निवासी हैं। उर्दू साइट "रेख्ता "में आपकी ग़ज़लें पढ़ी जा सकती हैं जिसमें इन्हें इस दौर का बहुत कामयाब उभरता शायर बताया गया है :-

आखिर आखिर तुझ से कोई बात कहनी थी मगर 
किसने सोचा था कि इतने फासले हो जायेंगे 

तू वफादारी के धोके में न रहना ए नदीम ! 
हम कहाँ अपने हुए हैं जो तिरे हो जायेंगे 

इक इसी अंदेशा -ऐ-दिल ने अकेला कर दिया 
प्यार होगा तो बहुत से मसअले हो जायेंगे 

नई नस्ल के सबसे प्रमुख शायरों में शामिल/उभरते हुए आलोचक जनाब महेंद्र कुमार 'सानी' जी जिनका जन्म 5 जून 1984 को जहांगीर गंज,फैज़ाबाद ,उत्तर प्रदेश में हुआ की ग़ज़ल के चंद शेर पढ़वाते हैं आपको , देखिये किस बला की सादगी से वो अपने ज़ज़्बात शायरी में उतारते हैं । सानी साहब आजकल चंडीगढ़ निवासी हैं।

उसे हमने कभी देखा नहीं है 
वो हमसे दूर है ऐसा नहीं है 

जिधर जाता हूँ दुनिया टोकती है 
इधर का रास्ता तेरा नहीं है 

सफर आज़ाद होने के लिए है 
मुझे मंज़िल का कुछ धोखा नहीं है 

हमारी इस पोस्ट के आखरी याने किताब के आठवें शायर हैं जनाब "अली ज़रयून " साहब जो 11 नवम्बर 1979 को फैसलाबाद पाकिस्तान में पैदा हुए। अली ने अपने लेखन का सफर सन 1991 याने मात्र 12 साल की उम्र से शुरू किया ।इनकी ग़ज़लों और नज़्मों की किताब शायद अब मंज़रे आम तक आ चुकी होगी क्यूंकि 2013 अंत तक वो प्रकाशन लिए तैयार थी। "अली"साहब का नाम अपनी शायरी के अलहदा अंदाज़ से पाकिस्तान और भारत में सम्मान से लिया जाता है। आईये अब उनकी ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाते हैं आपको .

औरों के फ़लसफ़े में तिरा कुछ नहीं छुपा 
अपने जवाब के लिए खुद से सवाल कर 

ख़्वाहिश से जीतना है तो मत इससे जंग कर 
चख इस का ज़ायका इसे छू कर निढाल कर 

आया है प्रेम से तो मैं हाज़िर हूँ साहिबा 
ले मैं बिछा हुआ हूँ मुझे पायमाल कर 
पायमाल: पाँव के नीचे मसलना 

मैं अली की एक और ग़ज़ल के चंद अशआर आप तक पहुँचाने में अपने आप को रोक नहीं पा रहा, उम्मीद है आपको इन्हें पढ़ कर अच्छा लगेगा। छोटी बहर में कमाल के शेर कहें हैं अली साहब ने:-

न जाने चाँद ने क्या बात की है 
कि पानी दूर तक हँसता गया है 

भला हो दोस्त तेरा ! जो तुझ से 
हमारा देखना देखा गया है 

हमें इंसां नहीं कोई समझता 
तुम्हें तो फिर खुदा समझा गया है 

तुम्हें दिल के चले जाने प'क्या ग़म 
तुम्हारा कौन सा अपना गया है 

उम्मीद है आपको ये पोस्ट इसके शायर और उनके अशआर पसंद आये होंगे , हमें आये तभी तो आपसे शेयर कर रहे हैं अगर आप को भी पसंद आये हैं तो आप भी इसे अपने इष्ट मित्रों से शेयर करें और अगर आपको पसंद नहीं आये तो बराए मेहरबानी इस पोस्ट की बात को अपने तक ही सीमित रखें। जल्द ही मिलते हैं इस किताब के बाकी सात शायरों और उनके चुनिंदा कलाम के साथ इसी जगह,इंतज़ार कीजियेगा।

किताबों की दुनिया - 103 / 2

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इसउम्मीदकेसाथकिआपनेइसश्रृंखलाकीपहलीकड़ीपढ़लीहोगीऔरअगरनहींभीपढ़ीतोभीये मानकर किपढ़ही लीहोगी ,हमअपनाअगला सफरजारीकरतेहैं। गरआपनेपिछलीपोस्टपढ़ीहैतो, यादहोगा,आठयुवाशायरोंकेकलामपढ़ेथेजिनकीउम्रइसकिताबकेछपनेतकचालीससेकमथीऔरउनकीअपनीकोईकिताबमंज़र--आमपरनहींआईथी।  आजहमबाकीकेसातशायरोंकेकलामसेरूबरूहोतेहैं। 

शुरुआतकरतेहैं 15 अगस्त 1978 कोमेरठउत्तरप्रदेशमेंजन्मेलेकिन आजकलजयपुरमेंरहरहे जनाबआदिलरज़ामंसूरीसाहबसेजिनकेप्रयाससेहीहमइसगुलदस्तेकेफूलोंकीमहककालुत्फ़उठापारहेहैं। आपनेकरीब 90 युवाशायरोंकीलिस्टसेये 15 शायरछांटकरइसकिताबकीशक्लमेंहमारेसामनेपेशकिये।येकामजितनाआसानलगताहैउतनाहैनहीं।सबसेपहलेहमउनकीइसअनूठीसोचकेलिएउन्हें सलामकरतेहैंऔरफिर उनका कलामआपकोपढ़वातेहैं।आदिलसाहबनज़्मऔरग़ज़लकहनेमेंकमालहासिलरखतेहैं :-



बस्तियांक्योंतलाशकरतेहैं 
लोगजंगलउगाकेकागज़पर 

जानेक्याहमकोकहगयामौसम 
खुश्कपत्तेगिराके कागज़पर 

हमने चाहाकिहमभीउड़ जाएँ 
एकचिड़ियाउड़ाकेकागज़पर 

लोगसाहिलतलाशकरतेहैं 
एकदरियाबहा के कागज़पर 

कोरग्रुपऑफकंपनीज़केग्रुपसीकीहैसियतसेकार्यरतआदिलसाहब बेल्सएजुकेशनएंडरिसर्चसोसाइटी ,चंडीगढ़एवमग्रूमर्सप्रोफेशनलस्टडीजएंडएजुकेशनकेएडवाइजरीमेंबरभीहैं।आपउन्हेंइसविलक्षणकिताबकेलिएउनकेमोबाइल 09829088001 परबधाईदेसकतेहैं ।आईयेउनकीएकऔर ग़ज़लचंदअशआरआपकोपढ़वाएं :-

येसुनाथाकिदेवताहैवो 
मेरेहक़हीमेंक्योंहुआपत्थर 

अबतो आबादहैवहांबस्ती         
अबकहाँतेरेनामका पत्थर

नामनेकामकरदिखायाहै 
सबदेखाहैतैरतापत्थर 

हमारेआज के दूसरेऔरकिताबकेदसवेंशायरहैं 11 फरवरी 1978 कोमुल्तानपाकिस्तानमेंजन्मेंजनाब"अहमदरिज़वान"साहब।आपइन्हेंभारतीयकविताओंसबसेबड़ीसाइट"कविताकोष"औरउर्दूअदबकीसबसेबड़ीसाइट"रेख्ता"परभीपढ़सकतेहैं।आपकीदो-बुक्सतुलु--शामइंटरनेटपरउपलब्धहै।आईयेपढ़तेहैंबानगीकेतौरपरउनकीग़ज़लकेकुछशेर :-

ख्वाबोंकाइकहुजूमथाआँखोंकेआसपास 
मुश्किलसेअपनेख्वाबकाचेहराअलगकिया 

जबभीकहींहिसाबकियाज़िन्दगीकादोस्त 
पहलेतुम्हारेनामकाहिस्साअलगकिया 

फिरयूँहुआकिभूलगएउसकानामतक 
जितनाकरीबथाउसेउतनाअलगकिया 

रिज़वानसाहबकीबेहतरीनग़ज़लोंमेंसे सिर्फएकग़ज़लकेअशआरआपतकपहुँचानातोआपलोगोंकेसाथना -इंसाफीहोगीइसलिए उनकीएकऔरग़ज़लके शेर पढ़ें :-  

येकौनबोलता हैमिरेदिलकेअंदरून 
आवाज़किसकीगूँजतीहैइसमकानमें 

उड़तीहैखाकदिलकेदरीचोंकेआसपास
शायदकोईमकीननहींइसमकानमें 

'अहमद'तराशताहूँकहींबादमेंउसे 
तस्वीरदेखलेताहूँपहलेचटानमें 

इसहसीनसफरमेंअबमिलतेहैंजनाब"फ़ैसलहाशमी"साहबसेजिनकाजन्मअगस्त 1976 मेंकबीरवाला (खानेवाल ) पाकिस्तानमेंहुआ।खूबसूरतशख्सियत केमालिकजनाब"फैसलहाश्मी"साहबकानाम पाकिस्तानके चुनिंदानौजवानशायरोंमेंशुमारहोताहैऔरक्योंहोजराउनकेअशआरपरनज़रडालेंखुदसमझजायेंगे :-

सुखनआगाज़तिरी नीमनिगाहीनेकिया  
वरनामुझमेंकोईखामोशहुआजाताथा 

कश्तियोंवालेकहींदूरनिकलजातेथे 
साफ़पानीमेंकोईरंगमिलाजाताथा 

अबबतातेहैंवहांखूनबहेजाताहै 
मेराहमख्वाबजहाँतेगछुपाजाताथा 

अबजिक्रकरतेहैंजनाबज़िया -उल-मुस्तफ़ा'तुर्क'साहबकाजिनका जन्म 29 अगस्त 1976 मुल्तानपाकिस्तानमेंहुआ।आपपाकिस्तानकीकिसीयूनिवर्सिटीकेउर्दूडिपार्टमेंट मेंलेक्चरर केपदपरकामकररहेहैं। लगभगतीनसालपहलेउनकीएककिताब"सहरपसेचिराग"मंज़रेआमपरचुकीहै।सादाज़बानमेंमारक शेरकहनाउनकीखासियतहै , मुलाहिज़ाफरमाएं :-

दिलतेरीराहगुज़रभीतोनहींकरसकते 
हमतिरीसम्तसफरभीतोनहींकरसकते 

अबहमेंतेरीकमीभीनहींहोतीमहसूस  
परतुझेइसकीखबरभीतोनहींकरसकते 

किसतरहसेनयीतरतीबभुला दीजाये 
कुछइधरसेहमउधरभीतोनहींकरसकते 

पत्रिका समूह के सृजनात्मक साहित्य पुरस्कार से सम्मानित शायर ब्रजेश'अंबर'जिनकाजन्म फरवरी 1975 कोजोधपुरराजस्थानमेंहुआइसकड़ीके हमारेअगलेशायरहैं। ब्रजेशसरलभाषामेंकमालकेशेर रचतेहैं :-

मुलाकातकासिलसिलाचाहताहूँ 
मगरउसमेंकुछफ़ासिलाचाहताहूँ 

गलीहोकिघरहोसफरहोकिमंज़िल 
उसेहरजगहदेखनाचाहताहूँ 

मुझेचैनघरमेंभी आतानहींहै 
मगरशामकोलौटनाचाहताहूँ 

उसेदेखकरजानेक्याहोगया है
किहरशख्ससेफ़ासिलाचाहताहूँ           

छोटीबहरमेंशेरकहनामुश्किलहोताहैलेकिनब्रजेशजीनेइसविधामेंभीमहारतहासिलकीहै। आपदेखेंकिधूपरदीफ़कोकिसख़ूबसूरतीसेउन्होंनेछोटीबहरमेंनिभायाहै :-

जीनाजीनाचढ़तीधूप 
छतपरकबजाबैठीधूप 

कितनीअच्छीलगतीहै 
घरमेंआती- जातीधूप 

तूसावनकीपहलीबूँद 
मैं सड़कोंकीजलतीधूप 

नौजवानशायरोंका जिक्रहोरहा होऔरउसमें 1 अगस्त 1974 में तालागंग ,चकवाललाहौर ,पाकिस्तानमेंजन्मेंजनाब"ह्मादनियाज़ी"कानाम शुमार होंऐसामुमकिननहींहै।उनकाएकशेरीमज़्मुआ"जरानामहो"मंज़रेआमपरचुकीहै :-

हुज़ूरे-ख्वाबदेरतकखड़ारहासवेरतक 
नशेबे-चश्मो-क़ल्बसेगुज़रतिराहुआनहीं 
नशेबे-चश्मो-क़ल्बसे = ह्रदयकीआँखोंसे

जानेकितनेयुगढलेजानेकितनेदुःखपले 
घरोंमेंहाँड़ियोंतलेकिसीकोकुछपतानहीं 

वोपेड़जिसकीछाँवमेंकटीथीउम्रगाँवमें 
मैंचूमचूमथकगयामगरयेदिलभरानहीं 

लीजियेसाहबअबआपकेसामनेपेशेखिदमतहैंहमारीइसकड़ीकेसातवेंऔरकिताबकेअंतिमयानेपन्द्रहवेंशायरजनाब"दिलावरअली'आज़र'साहबजिनकाजन्म 21 नवम्बर 1971 मेंहुसैनअब्दाल ,पाकिस्तानमेंहुआ। येजैसाकिआपनेदेखाहोगाइसकिताबकेसबसेउम्रदराज़शायरहैं।सन 2013 मेंउनकीपहलीकिताब"पानी"प्रकाशितहुईऔरबहुतमकबूलहुई।आपउनकीग़ज़लें उर्दूशायरीकीसाइट"रेख्ता"परपढ़सकतेहैं। आईयेलुत्फ़उठातेहैंउनकीग़ज़लकेकुछचुनिंदाशेरोंका :-

सबअपनेअपनेताक मेंथर्राकेरहगए 
कुछतोकहाहवानेचरागोंकेकानमें 

निकलीनहींहैदिलसेमिरेबद-दुआकभी 
रखेखुदाअदूकोभीअपनीअमानमें 

मंज़रभटकरहेथेदरो-बामकेक़रीब 
मैंसोरहाथाख़्वाबकेपिछलेमकानमें   

'आज़र'इसीकोलोगकहतेहोंआफ़ताब 
इकदाग़ साचमकताहैजोआसमानमें   

सर्जनाप्रकाशनशिवबाड़ीबीकानेरसेप्रकाशितइसकिताबकीएकप्रतिमुझेमेरेछोटेभाईबेहतरीनशायरअखिलेशतिवारीजीनेभेंटस्वरुपदीथी।आपइसकिताबकारास्ता"आदिलरज़ामंसूरी"साहबकोफोनकरकेपताकरसकतेहैं। 

उम्मीदहैआपकोयेपेशकशपसंदआईहोगी। अगलीकिताबकेसाथजल्दहीहाज़िरहोनेकी कोशिशकरेंगे, तबतककेलिएखुदाहाफ़िज़




इक रंग मुहब्बत का थोड़ा सा लगा दूँ तो

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आदरणीय पंकज जी के ब्लॉग पर हुई अद्भुत होली की तरही में भेजी खाकसार की ग़ज़ल। इसे जो पढ़े उसको भी जो न पढ़े उसको भी जो कमेंट करे उसको भी जो न करे उसको भी 
होली की शुभकामनाएं 




आँखों में तेरी अपने, कुछ ख़्वाब सजा दूँ तो 
फिर ख़्वाब वही सारे, सच कर के दिखा दूँ तो 

होली प लगे हैं जो वो रंग भी निखरेंगे 
इक रंग मुहब्बत का थोड़ा सा लगा दूँ तो 

जिस राह से गुजरो तुम, सब फूल बिछाते हैं 
उस राह प मैं अपनी, पलकें ही बिछा दूँ तो 

कहते हैं वो बारिश में, बा-होश नहायेंगे 
बादल में अगर मदिरा, चुपके से मिला दूँ तो ? 

फागुन की बयारों में, कुचियाते हुए महुए 
की छाँव तुझे दिल की, हर चाह बता दूँ तो 
(महुए के पेड़ की पत्तियां फागुन में गिरनी शुरू होती हैं और टहनियों में फूल आने लगते हैं ,इस प्रक्रिया को कुचियाना कहते हैं।) 

बस उसकी मुंडेरों तक, परवाज़ रही इनकी 
चाहत के परिंदों को, मैं जब भी उड़ा दूँ तो 

हो जाएगा टेसू के, फूलों सा तेरा चेहरा 
उस पहली छुवन की मैं, गर याद दिला दूँ तो 
( टेसू के फूल सुर्ख लाल रंग के होते हैं ) 

उफ़! हाय हटो जाओ, कहते हुए लिपटेगी 
मैं हाथ पकड़ उसका, हौले से दबा दूँ तो 

इन उड़ते गुलालों के, सुन साथ धमक ढफ की 
 इल्ज़ाम नहीं देना , मैं होश गँवा दूँ तो

छुपाये हुए हैं वही लोग खंज़र

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बहुत अरसे बाद एक साधारण सी ग़ज़ल हुई है



नहीं है अरे ये बग़ावत नहीं है 
 हमें सर झुकाने की आदत नहीं है 

 छुपाये हुए हैं वही लोग खंज़र
 जो कहते किसी से अदावत नहीं है 

 करूँ क्या परों का अगर इनसे मुझको 
 फ़लक़ नापने की इज़ाज़त नहीं है 

 उठा कर गिराना गिरा कर मिटाना 
 हमारे यहाँ की रिवायत नहीं है 

 मिला कर निगाहें ,झुकाते जो गर्दन 
 वही कह रहे हैं मुहब्बत नहीं है 

 बहुत करली पहले ज़माने से हमने 
 हमें अब किसी से शिकायत नहीं है 

 करोगे घटाओं का क्या यार 'नीरज' 
अगर भीग जाने की चाहत नहीं है

किताबों की दुनिया - 104

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ठीक उस वक्त जब मैं किताबों की दुनिया श्रृंखला बंद करने की सोच रहा था मेरी नज़र पोस्ट के उन आंकड़ों पर पड़ी जिसमें बताया गया था कि फलां पोस्ट को कितने लोगों ने विजिट किया या यूँ कहें कि पढ़ा और किस जगह से। मेरे ख्याल से ये आंकड़े चौकाने वाले थे। पहली "किताबों की दुनिया"में पोस्ट की किताब से अब तक (103 ) किताबों में से 12 % किताबों को एक हज़ार से अधिक ,36 % किताबों को दो हज़ार से अधिक , 15 % किताबों को तीन हज़ार से अधिक, 18 % किताबों को चार हज़ार से अधिक और 8 % किताबों को दुनिया भर से पांच हज़ार से अधिक पाठकों ने पढ़ा या देखा। मजे की बात ये भी देखी कि पाठक पुरानी पोस्ट्स को अब भी विजिट कर रहे हैं. किताबों की दुनिया की पहली और पांचवी पोस्ट को कल ही क्रमश: चार और सात लोगों ने विजिट किया।  दुनिया के 27 देशों से लोगों का इन पोस्ट्स पर आना सुखद अहसास भर गया.    

इन आंकड़ों ने एक नयी ऊर्जा  का संचार किया और इस श्रृंखला को आगे बढ़ाने की चाह मेंअगली किताब की औरमेरे हाथ अपने आप उठ गए। इस किताब और शायर का पता मुझे तब चला था जब इस वर्ष के दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में मेरे प्रिय मित्र और शायरी के जबरदस्त दिवाने जनाब प्रमोद कुमार मुझे लगभग घसीटते हुए अंजुमन प्रकाशन स्टाल पर ले जाकर खुद ही इस किताब को शेल्फ से निकाल कर बोले भाई साहब इन्हें पढ़ो।     

आज हम उसी शायर "एहतराम इस्लाम " साहब की किताब "है तो है "  का जिक्र करेंगे और देखें कि क्यों उनका नाम उर्दू ग़ज़ल के छंद शास्त्र का निर्वाह बेहतरीन तरीके से करने वाले हिंदी ग़ज़ल के शायर के रूप में इज़्ज़त से लिया जाता है।  




आये न आये आपकी तस्वीर मन-पसन्द 
मिलते ही कैमरे से नयन, मुस्कुराइए 

नेवले के दाँत सांप की गर्दन में धँस गए 
बोला मदारी भीड़ से, ताली बजाइए 

मैं डूबने की चाह में बैठा हूँ 'एहतराम
मेरे करीब आप नदी बन के आईये 

हिंदी और उर्दू ज़बान में ग़ज़ल को तकसीम वाले लोगों को जनाब एहतराम साहब का कलाम पढ़ना चाहिए और समझना चाहिए कि ग़ज़ल भाषा की नहीं भाव की विधा है , जिसके पास भाव हैं वो ही अच्छी और कामयाब ग़ज़ल कह सकता है। 

आँखों में भड़कती हैं आक्रोश की ज्वालायें 
हम लाँघ गए शायद संतोष की सीमाएं 

सीनों से धुआँ उठना कब बंद हुआ कहिये 
कहने को बदलती ही रहती हैं व्यवस्थाएँ 

तस्वीर दिखानी है भारत की तो दिखला दो 
कुछ तैरती पतवारें, कुछ डूबती नौकाएँ 

"है तो है "किताब का पहला संस्करण 1994 में छपा था फिर उसके बीस साल बाद याने 2014 में इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ। ये शायर के हुनर और कहन का विलक्षण अंदाज़ ही है जिसकी वजह से ये ग़ज़लें आज भी मौलिक और ताज़ा लगती हैं।  

देश क्या अब भी नहीं पहुंचेगा उन्नति के शिखर पर 
नित्य ही दो-चार उद्घाटन कराये जा रहे हैं 

छिड़ गया है स्वच्छता अभियान शायद शहर भर में 
गन्दगी के ढेर सड़कों पर सजाये जा रहे हैं 

झूठ, तिकड़म, लूट, रिश्वत, रहज़नी, हत्या, डकैती 
ज़िन्दा रहने के हमें सब गुर सिखाये जा रहे हैं          

5 जनवरी 1949 को मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश) में जन्मे एहतराम इस्लाम ने अपना कर्मक्षेत्र चुना प्रयाग को। एहतराम इस्लाम अब महालेखाकार कार्यालय के वरिष्ठ लेखा परीक्षक पद से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। वर्ष 1965 से हिन्दी-उर्दू-अंग्रेजी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में एहतराम इस्लाम की रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं

देता रहता है तू सफाई क्या 
तेरे दिल में है कुछ बुराई क्या 

आपने पर क़तर दिए मेरे 
अब मेरी कैद क्या, रिहाई क्या 

पाँव पड़ते नहीं हैं धरती पर 
हो गयी आपसे रसाई क्या 

तू जो रहज़न दिखाई देता है 
मिल गयी तुझको रहनुमाई क्या 

ज्ञान प्रकाश विवेक जी ने राष्ट्रीय सहारा के 22 मार्च 1994 अंक में पत्रिका में लिखा था कि "हिंदी के पहले दस महत्वपूर्ण ग़ज़लकारों में एहतराम इस्लाम का नाम शुमार होता है।  उनकी ग़ज़लें अपने हिन्दीपन से पहचानी जाती हैं। एहतराम की ग़ज़लों का चेहरा खुरदुरा है।  आप इन ग़ज़लों को पढ़ सकते हैं , बैचेन हो सकते हैं लेकिन गा नहीं सकते क्यूंकि ये ग़ज़लें 'ड्राइंग रूम का सुख'नहीं कर्फ्यूग्रस्त शहर की बैचेनी का मंज़र है। 

पीर की आकाश-गंगा पार करती है ग़ज़ल 
कल्पनाओं के क्षितिज पर तब उभरती है ग़ज़ल 

आप इतना तिलमिला उठते हैं आखिर किसलिए 
आपकी तस्वीर ही तो पेश करती है ग़ज़ल 

हाथ में मेंहदी रचाती है न काजल आँख में 
मांग में अफसां नहीं अब धूल भरती है ग़ज़ल  

एहतराम इस्लाम को उर्दू वाले अपना शायर और हिन्दी वाले अपना कवि मानते हैं। क्रांतिकारी विचारों वाले कवि एहतराम इस्लाम एजी आफिस यूनियन में कई बार साहित्य मंत्री भी रह चुके हैं ।

हिंदी ग़ज़ल के नाम पर नाक भों सिकोड़ने वाले लोगों को बता दूँ कि उनकी खालिस उर्दू ग़ज़लों का संग्रह 'हाज़िर है एहतराम'भी अंजुमन प्रकाशन द्वारा मंज़रे आम पर लाया जा चुका है। 

वार तो भरपूर था ढीला न था 
हाँ मगर खंज़र ही नोकीला न था 

ज़हर के आदी पे होता क्या असर     
लोग समझे साँप ज़हरीला न था 

चूस डाला ग़म की जोंकों ने लहू 
वर्ना मेरा भी बदन पीला न था 

ठोकरें लगती रहीं हर गाम पर 
रास्ता कहने को पथरीला न था    

आकर्षक आवरण साथ पेपर बैक में छपी इस किताब में एहतराम साहब की 91 ग़ज़लें संग्रहित हैं। इन खूबसूरत ग़ज़लों के लिए आप एहतराम साहब को उनके मोबाईल न 9839814279 पर बात कर मुबारक बाद दे सकते हैं और किताब प्राप्ति के लिए अंजुमन प्रकाशन से 9235407119 /9453004398 पर सम्पर्क कर सकते हैं। 

अंत में मैं अपने मित्र प्रमोद कुमार जी को मुझे इस किताब तक पहुँचाने के लिए तहे दिल से धन्यवाद देते हुए , एहतराम साहब की एक ग़ज़ल के शेरों को पेश करता हूँ और अगली किताब की तलाश में निकलता हूँ 

मूर्ती सोने की निरर्थक वस्तु है, उसके लिए 
मोम की गुड़िया अगर बच्चे को प्यारी है तो है 

हैं तो हैं दुनिया से बे-परवा परिंदे शाख पर 
घात में उनकी कहीं कोई शिकारी है तो है 

आप छल बल के धनी हैं , जितियेगा आप ही 
आपसे बेहतर मेरी उम्मीदवारी है तो है 

'एहतराम'अपने ग़ज़ल लेखन को कहता है कला 
आप कहते हैं उसे जादू निगारी है, तो है  

किताबों की दुनिया -105

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हो रही है शाम से साकिन घड़ी की सुइयां 
पाँव फैलाता है क्या एक एक पल फ़ुर्क़त की रात 
साकिन : रुक जाना : फ़ुर्क़त : जुदाई 

सर्द सर्द आहों से यूँ आंसू मिरे जमते गए 
हो गया तामीर इक मोती-महल फ़ुर्क़त की रात 
तामीर : तैयार 

दर्द में डूबे हुए हैं शेर सारे ऐ 'वफ़ा' 
किस क़ियामत की कही तूने ग़ज़ल फ़ुर्क़त रात 

आप समझ ही गए होंगे की आज 'किताबों की दुनिया'श्रृंखला में हम किस तरह की शायरी की किताब की चर्चा करने वाले हैं। नहीं समझे ? हम समझाते हैं , आज हम उस तरह की रिवायती शायरी की चर्चा करेंगे जिस तरह की शायरी आजकल बहुत कम या बिलकुल ही पढ़ने सुनने को नहीं मिलती। शायरी का ये दौर खत्म हुए अरसा हो गया है लेकिन साहब इस शायरी का अपना नशा है जो सर चढ़ के बोलता है :

क्या मेहरबानियाँ थीं क्या मेहरबानियाँ हैं 
वो भी कहानियां थीं ये भी कहानियां हैं 

इक बार उसने मुझको देखा था मुस्कुराकर 
इतनी सी है हकीकत बाक़ी कहानियां हैं 

सुनता है कोई किसकी किसको सुनाये कोई 
हर एक की ज़बां पर अपनी कहानियां हैं 

कुछ बात है जो चुप हूँ मैं सब की सुन के वरना 
याद ऐ 'वफ़ा'मुझे भी सब की कहानियां हैं 

इन शेरों में आये तखल्लुस से आप इतना जो जान ही गए होंगे कि हम किसी 'वफ़ा'साहब की शायरी का जिक्र करने वाले हैं ,अब जब आप इतना जान गए हैं तो ये भी जान लें कि हमारे आज के बाकमाल शायर का पूरा नाम था "मेला राम 'वफ़ा'". चौंक गए ? क्यूंकि हो सकता है आपने ये नाम पहले न सुना हो , सच बात तो ये है कि हमारी या हमारे बाद की पीढ़ी में से बहुत कम ने शायद ही ये नाम सुना हो. इस नाम और इस किताब से अगर जनाब राजेंद्र नाथ 'रहबर 'साहब मेरा तार्रुफ़ न करवाते तो मैं भी आपकी तरह उनकी शायरी से अनजान रहता। 'रहबर'साहब ने बड़ी मेहनत से वफ़ा साहब की ग़ज़लों को 'संगे-मील'किताब की शक्ल में दर्ज़ किया है। 


नहीं,हाँ हाँ, नहीं आसां बसर करना शबे ग़म का 
शबे-ग़म ऐ दिले नादां बसर मुश्किल से होती है 

गुज़र जाती है राहत की तो सौ सौ उम्रें ब-आसानी 
घडी भी इक मुसीबत की बसर मुश्किल से होती है 

ये दर्दे इश्क है, ये जान ही के साथ जायेगा 
दवा इस दर्द की ऐ चारागर मुश्किल से होती है 
चारागर : चिकित्सक 

जनाब मेला राम जी का जन्म 26 जनवरी 1895 को गाँव दीपोके जिला सियालकोट (पाकिस्तान ) में हुआ। शायरी के अलावा उन्होंने पहले लाहौर के बहुत से उर्दू अखबारों जैसे 'दीपक' , 'देश' , 'वन्दे मातरम' , 'भीष्म' , 'वीर भारत'आदि में संपादक की हैसियत से काम कियाऔर फिर खुद के दैनिक अखबार 'भारत' , 'लाहौर', 'पंजाब मेल', 'अमृत'आदि नामों से निकलने लगे जो बहुत मकबूल हुए। आपने नेशनल कालेज लाहौर में उर्दू फ़ारसी के अध्यापन का काम भी किया। अख़बारों के साथ उनकी शायरी का शौक भी परवान चढ़ता रहा हालाँकि अख़बारों में अधिक ध्यान देने से उनकी शायरी की गुणवत्ता पर असर पढ़ा।

महफ़िल में इधर और उधर देख रहे हैं 
हम देखने वालों की नज़र देख रहे हैं 

भागे चले जाते हैं उधर को तो खबर क्या 
रुख लोग हवाओं का जिधर देख रहे हैं 

शिकवा करें गैरों का तो किस मुंह से करें हम 
बदली हुई यारों की नज़र देख रहे हैं '

वफ़ा'साहब बड़े देश भक्त थे , देश प्रेम का ज़ज़्बा कूट कूट कर उनके दिल में भरा हुआ था , देश को गुलामी की ज़ंजीरों से आज़ाद कराने के लिए शायरी के बे-खौफ इस्तेमाल में उर्दू का काबिले जिक्र शायर यहाँ तक की 'जोश मलीहाबादी 'भी वफ़ा साहब का मुकाबला नहीं कर सकते। उन्हें एक बागियाना नज़्म लिखने के जुर्म में दो साल की कैद भी भुगतनी पड़ी। बानगी के तौर पर पढ़ें उसी नज़्म के कुछ अंश :- 

ऐ फिरंगी कभी सोचा है ये दिल में तू ने 
और ये सोच के कुछ तुझ को हया भी आई 

तेरे क़दमों से लगी आई गुलामी ज़ालिम 
साथ ही उसके गरीबी की बला भी आई 

तेरी कल्चर में चमक तो है मगर इस में नज़र 
कभी कुछ रोशनिये -सिद्को सफ़ा भी आई 
सिद्को सफ़ा = सच्चाई 

तेरी संगीने चमकने लगी सड़कों पे युंही 
लब पे मज़लूमो के फरयाद ज़रा भी आई 

1941 में वफ़ा साहब की देश भक्ति और सियासी नज़्मों का संग्रह 'सोज-ऐ-वतन 'के नाम से प्रकाशित किया गया। 1959 में उनकी अदबी ,सियासी,और रूहानी ग़ज़लों का संग्रह 'संग-ऐ-मील'के नाम से उर्दू में प्रकाशित हुआ। संगे मील प्रकाशित अपने कलाम को वफ़ा साहब ने चार भागों में बांटा था 1 .महसूसात 2 .सियसियात 3 . रूहानियत और 4 . ग़ज़लियात , किताब में उनकी ग़ज़लियात वाला भाग ही प्रकाशित किया गया है। 

ये बात कि कहना है मुझे तुम से बहुत कुछ 
इस बात से पैदा है कि मैं कुछ नहीं कहता 

कहलाओ न कुछ ग़ैर की तारीफ़ में मुझसे 
समझो तो ये थोड़ा है कि मैं कुछ नहीं कहता 

कहने का तो अपने है 'वफ़ा'आप भी काइल 
कहने को ये कहता है कि मैं कुछ नहीं कहता 

"संग-ऐ-मील"ग़ज़ल संग्रह का संपादन और लिप्यंतरण मशहूर शायर जनाब राजेंद्र नाथ 'रहबर'साहब ने किया है और इसे जनाब तिलक राज 'बेताब'साहब ने प्रकाशित किया है। उर्दू शायरी के कद्रदानों के पास ये नायाब किताब जरूर होनी चाहिए।  इस किताब की प्राप्ति के लिए आप जनाब रहबर साहबसे 0186 -2227522या 09417067191पर संपर्क कर सकते हैं.

पंजाब सरकार से "राज कवि "का खिताब पाने वाले जनाब मेला राम 'वफ़ा'साहब 19 सितम्बर 1980 को इस दुनिया-ऐ -फानी को अलविदा कह गए और अपने पीछे शायरी की वो विरासत छोड़ गए जो आने वाली सदियों तक उनके नाम को ज़िंदा रखेगी। चलते चलते उनकी ग़ज़ल के ये चंद शेर और आपको पेश करता हूँ :

ग़मे- फ़िराक़, शदीद इस कदर न था पहले 
दुआ है अब न मिले राहते-विसाल मुझे 
ग़मे-फिराक : वियोग का दुःख , शदीद : तीव्र , राहते विसाल : मिलन का सुख 

तिरी ख़ुशी हो अदू की ख़ुशी के ताबे क्यों 
तिरी ख़ुशी का भी होने लगा मलाल मुझे 
अदू :दुश्मन , ताबे : अधीन 

कभी जो उसने इज़ाज़त सवाल की दी है 
जवाब दे गयी है ताकत-ऐ-सवाल मुझे

पालकी लिए कहार की

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ज़बान पर सभी की बात है फ़क़त सवार की 
 कभी तो बात भी हो पालकी लिए कहार की 

 गुलों को तित्तलियों को किस तरह करेगा याद वो 
कि जिसको फ़िक्र रात दिन लगी हो रोजगार की 

 बिगड़ के जिसने पा लिया तमाम लुत्फ़े-ज़िन्दगी 
 नहीं सुनेगा फिर वो बात कोई भी सुधार की 

वो खुश रहे ये सोच कर सदा मैं हारता गया 
 लड़ाई जब किसी के साथ लड़ी आरपार की

 जिसे भी देखिये इसे वो तोड़ कर के ही बढ़ा 
 कहाँ रहीं हैं देश में जरूरतें कतार की 

तुझे पढ़ा हमेशा मैंने अपनी बंद आँखों से 
 ये दास्तान है नज़र पे रौशनी के वार की 

 चढ़े जो इस कदर कि फिर कभी उतर नहीं सके 
 तलाश ज़िन्दगी में है मुझे उसी खुमार की

किताबों की दुनिया -106

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मैं समंदर हूँ मुझको नदी चाहिए 
ज़िन्दगी में मुझे भी ख़ुशी चाहिए 

तेरी खुशबू, तेरे जिस्म का नूर हो 
बंद कमरे में बस तीरगी चाहिए 

आशना थे जो उनका करम यूँ हुआ 
दिल कहे अब तो बस अजनबी चाहिए 

मेरे होंटों की नैया मचलने लगे 
तेरे गालों की ऐसी नदी चाहिए 

बहुत कम किताबें ऐसी होती हैं जो रुमानियत की खुशबू से लबरेज़ हों और जिन्हें बार बार पढ़ने को जी करे। आज "किताबों की दुनिया"श्रृंखला की इस कड़ी में हम एक ऐसी ही किताब का जिक्र करेंगे जिसमें रवायती और ज़दीद ग़ज़ल के बीच का फासला बहुत हद तक कम करने की कामयाब कोशिश की गयी है। ये किताब है "शोहरत की धूप"और जिसके हुनरमंद शायर हैं जनाब "रमेश कँवल" .


इक नशा सा जहन पर छाने लगा 
आपका चेहरा मुझे भाने लगा 

चांदनी बिस्तर पे इतराने लगी 
चाँद बाँहों में नज़र आने लगा 

रूह पर मदहोशियाँ छाने लगीं 
जिस्म ग़ज़लें वस्ल की गाने लगा 

रफ़्ता रफ़्ता यासमीं खिलने लगी 
मौसमे-गुल इश्क़ फ़रमाने लगा 

25 अगस्त 1953 को जीतौरा ,पीरो ,आरा ,बिहार में जन्मे जनाब रमेश कँवल को ग़ज़ल कहने का शौक बचपन से है ,फ़िल्मी गानों से प्रभावित हो कर उनमें गीत लिखने की इच्छा हुई जो ग़ज़ल लिख कर पूरी हुई। बेरोजगारी के दिनों में, लोक सेवा आयोग के इंटरव्यू के दौरान एक मेंबर ने जब उनसे उनका शगल पूछा तो जवाब में उन्होंने अपना ये शेर पढ़ दिया :-

अब तक न मिली नौकरी कोई भी कँवल को 
हाथों की लकीरों के अजब ठाट रहे हैं 

इस शेर की बदौलत मेम्बर्स ने वाह वाही के साथ साथ उनकी हाथों की वो लकीरें भी बदल दीं जिनमें नौकरी मिलना नहीं लिखा था। शायरी की बदौलत नौकरी पाने वाले विरले लोगों में से एक हैं रमेश कँवल साहब। प्रखंड विकास पदाधिकारी से शुरू डिप्टी कलक्टर का उनका सफ़र अपर जिला दंडाधिकारी की बुलंदियों तक जा पहुंचा। समस्त प्रशाशनिक जिम्मेवारियां निभाते हुए भी उनका शायरी प्रेम यथावत रहा।

रूठ जाने का कोई वक़्त नहीं 
पर मनाने में वक़्त लगता है 

ज़िद का बिस्तर समेटिये दिलबर 
घर बसाने में वक्त लगता है 

आज़मा मत भरोसा कर मुझ पर 
आज़माने में वक्त लगता है 

जनाब ‘अनवारे इस्लाम’ साहब ने किताब की भूमिका में कँवल साहब की शायरी के बारे में बहुत सटीक बात की है वो कहते हैं कि "कँवल के यहाँ ऐसा कतई नहीं लगता कि उन्होंने शौकिया ग़ज़लें कही हैं बल्कि उनके यहाँ एक फ़िक्र है और उसे व्यक्त करने का उनका अपना तरीका है जिसे वे शेर के ढांचे में सलीके से ढाल देते हैं जो इस बात की अलामत है कि वे ग़ज़ल की न केवल समझ बल्कि अच्छी पकड़ भी रखते हैं

गर तेरी बंदगी नहीं होती
ज़िन्दगी ज़िन्दगी नहीं होती 

बात क्या है कि आजकल मुझको 
तुझसे मिल कर ख़ुशी नहीं होती 

हाय बेचारगी-ओ-मज़बूरी 
जो करूँ बंदगी नहीं होती 

कितना दुश्वार है ये फ़न यारों
शायरी दिल्लगी नहीं होती     

"शोहरत की धूप"में रिवायती लबो लहजा से परहेज तो नहीं किया गया है , लेकिन जदीद अंदाज़ में नई उपमाओं और बिम्बों पेश करने की कोशिश की गयी है , ऐसी उपमाएं और बिम्ब जो आसानी से हमें कहीं और पढ़ने को नहीं मिलते मसलन "रिश्वत की अप्सरा ", "कहकहों के ट्यूब" , "खुशबुओं की मंडी "', "ज़िद का बिस्तर ""शोहरत की शहजादी ", होटों की नैया ", "जिस्म के अशआर ", "बेबसी की धुंध", "बेरोजगारी की सुलगती रेत", "यादों का टेप", अहसास की तितलियाँ ", "लम्हों की दीवार ", आदि आदि।

हर पल संवरने सजने की फुर्सत नहीं रही 
अब मुझको आईने की जरुरत नहीं रही 

अब मुन्तज़िर नहीं हूँ मैं खिड़की से धूप का 
अच्छा है मेरे सर पे कोई छत नहीं रही 

उसके बदन की गंध मुझे भा गयी 'कँवल' 
अब खुशबुओं की मंडी की चाहत नहीं रही 

रमेश कँवलसाहब हिंदी के ऐसे शायर हैं जिनकी पहली ग़ज़लों की किताब उर्दू लिपि में 'लम्स का सूरज"शीर्षक से सन 1977 में शाया हो कर बहुत मकबूल हुई। उसके एक साल बाद हिंदी में उनकी दूसरी किताब "सावन का कँवल "प्रकाशित हुई। उर्दू और हिंदी जबान पर उनकी पकड़ काबिले दाद है. उनकी शायरी को संवारने में उनके उस्ताद जनाब 'वफ़ा'सिकन्दरपुरी ,जनाब प्रोफ़ेसर हफ़ीज़ बनारसी साहब मरहूम और प्रोफ़ेसर तल्हा रिज़वी बर्क दानापुरी साहब का बहुत बड़ा हाथ रहा। जनाब डाक्टर मनाज़िर आशिक हरगान्वी साहब की कोशिशों से ही उनकी दोनों किताबें मंज़रे -आम पर आ सकीं।

गौहरे-नायाब है और कुछ नहीं 
ज़िन्दगी इक ख़्वाब है और कुछ नहीं 
गौहरे नायाब = दुर्लभ मोती 

मछलियों पर खिलखिलाती चाँदनी 
हमनवां तालाब है और कुछ नहीं 
हमनवां =सहमत 

ज़िस्म की हर शाख पर अठखेलियां 
जुर्रते -महताब है और कुछ नहीं 
जुर्रते-महताब = चाँद की धृष्टता 

तेरे मिलने का हंसी, मंज़र 'कँवल ' 
सुब्ह का इक ख्वाब है और कुछ नहीं 

बिहार हिंदी साहित्य सम्मलेन, पटना से 'साहित्य भूषण'साहित्यकार संसद समस्तीपुर से 'फ़िराक गोरखपुरी राष्ट्रिय शिखर सम्मान , भागलपुर से दुष्यंत कुमार स्मृति पुरूस्कार सहित अनेक संस्थानों से सम्मानित रमेश कँवल साहब की ग़ज़लें प्रकाश पंडित और मंसूर उस्मानी साहब द्वारा संपादित किताबों में भी प्रकाशित हुई हैं। । उनकी ग़ज़लें अनेक हिंदी उर्दू अख़बारों और रिसालों में भी शामिल होती रही हैं। आकशवाणी एवं दूरदर्शन पटना तथा भागलपुर से भी उनकी ग़ज़लें प्रसारित हुई हैं।

तुम्हारे जिस्म के अशआर मुझको भाते हैं 
मेरी वफ़ा की ग़ज़ल तुम भी गुनगुनाया करो 

बहुत अँधेरा है बिजली भी फेल है दिल की 
मुहब्बतों का दिया ले के छत पे आया करो 

शरीफजादों की बेजा खताओं से मिलने 
यतीमखानों के बच्चों बीच जाया करो 

अपनी दूसरी किताब "सावन का कँवल"के लगभग सोलह साल बाद अपनी शरीके हयात को मंसूब की गयी "शोहरत की धूप"रमेश कँवल साहब तीसरी किताब है जिसमें उन्होंने अपनी कुछ पुरानी ग़ज़लों के साथ साथ जो सावन का कँवल में शाया हुई थीं, नयी ग़ज़लों को भी शामिल किया है। इस संकलन में रमेश जी की 101 ग़ज़लों के अलावा उनके कुछ लाजवाब माहिए और गीत भी शामिल हैं जिन्हें पढ़ कर हमें उनकी बहुमुखी साहित्यिक प्रतिभा का पता चलता है । पोस्ट की लम्बाई की सीमा आड़े आ रही है वरना इस किताब की लगभग सभी ग़ज़लें आप तक पहुँचाने का मन हो रहा है।

ज्वालामुखी कहर ढाते रहे 
नदी पर्वतों से निकलती रही 

वरक़ दर वरक़ मैं ही रोशन रहा 
वो अलबम पे अलबम बदलती रही 

किसी दस्तखत की करामात थी 
मेरी ज़िन्दगी हाथ मलती रही 

हवस की निगाहें ख़रीदार थीं 
पकौड़ी वो मासूम तलती रही 

'शोहरत की धूप 'को 'पहले पहल प्रकाशन' 25 ऐ ,प्रेस काम्प्लेक्स , भोपाल ने प्रकाशित किया है। किताब की प्राप्ति के लिए आप पहले पहल प्रकाशन से उनके फोन न 0755 -2555789 पर संपर्क कर सकते हैं। श्रेष्ठ तो ये रहेगा कि आप रमेश जी को उनके मोबाईल 09334111547 पर संपर्क कर इन लाजवाब ग़ज़लों के लिए बधाई दें और फिर किताब प्राप्ति का आसान रास्ता पूछें। किसी भी शायरी प्रेमी की लाइब्रेरी में रखी ये किताब अलग से जगमगाती हुई नज़र आएगी।
अगली किताब की तलाश में निकलने से पहले हम आईये आपको उनकी ग़ज़ल के चंद अशआर पढ़वाते हैं :-

मैं सियासत की बेईमान गली 
और रिश्वत की अप्सरा तुम हो 

गालियों में तलाशता हूँ शहद 
राजनीति का ज़ायका तुम हो 

चौक पर की बहस चौके में 
सेक्युलर मैं हूँ, भाजपा तुम हो 

फ़स्ले-बेरोजगारी हैं दोनों , 
मैं हूँ स्कूल, शिक्षिका तुम हो 

तुम से शौकत, तुम्हीं से है शोहरत 
मैं ग़ज़ल हूँ, मुशायरा तुम हो

किताबों की दुनिया -107/1

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बन में जुगनू जग मग जग मग 
सपनों में तू जग मग जग मग 

जब से दिल में आग लगी है 
हर दम हर सू जग मग जग मग 

रैन अँधेरी यादें तेरी 
आंसू आंसू जग मग जग मग 

काले गेसू बादल बादल 
आँखें जादू जग मग जग मग 

मेरी ग़ज़लें गहरी नदिया 
मोती सा तू जग मग जग मग 

मेरे साथ बहुत कम ऐसा हुआ है कि किसी किताब पर लिखते वक्त मेरी कलम ठिठक जाए। जब दिल की बात कह सकने में लफ्ज़ कामयाब होते नज़र नहीं आते तब ऐसी हालत होती है। आज हम जिस किताब और शायर का जिक्र किताबों की दुनिया श्रृंखला में करने जा रहे हैं उसके बारे में लिखते वक्त कलम ठिठका हुआ है। आप ही ऊपर दी गयी ग़ज़ल के शेर पढ़ कर बताएं कि जिस किताब में ऐसे अनूठे ढंग से काफिये और रदीफ़ पिरोये गए हों उसकी तारीफ़ के लिए लफ्ज़ कहाँ से जुटाएँ जाएँ ? 

शेर हमारे नश्तर जैसे अपना फन है मरहम रखना 
क्या ग़ज़लों में ढोल बजाना, शाने पर क्यों परचम रखना 

उन पेड़ों के फल मत खाना जिनको तुमने ही बोया हो 
जिन पर हों अहसान तुम्हारे उनसे आशाएं कम रखना 

लुत्फ़ उसी से बातों में है, तेज उसी का रातों में है 
खुशियां चाहे जितनी बांटो घर में थोड़ा सा ग़म रखना 

जी तो ये कर रहा है की मैं हमारे आज के शायर जनाब 'मुज़फ़्फ़र हनफ़ी'साहब और उनकी किताब 'मुज़फ़्फ़र की ग़ज़लें 'के बीच से हट जाऊं लेकिन क्या करूँ अगर मैंने ऐसा किया तो ये उर्दू शायरी के दीवाने हिंदी पाठकों के साथ अन्याय होगा। दरअसल मुज़फ़्फ़र हनफ़ी साहब जैसे कद्दावर शायर के नाम से हिंदी का पाठक अधिक परिचित नहीं है। उर्दू भाषा में 90 से अधिक विभिन्न विषयों पर लिखी किताबों के लेखक की सिर्फ ये एक किताब ही ,जिसकी हम चर्चा करेंगे ,देवनागरी में उपलब्ध है।


हमें वो ढूंढता फिरता है सातों आसमानों में 
उसे हम आँख से मिटटी लगाकर देख लेते हैं 

ख़ुदा महफ़ूज़ रक्खे इस मोहल्ले को तअस्सुब से 
यहाँ हमसाए मुझको मुस्कुरा कर देख लेते हैं 
तअस्सुब= सम्प्रदायिकता 

मियाँ बेवज्ह तुम क्यों डूब जाते हो पसीने में 
अगर कुछ लोग तुमको तीर खा कर देख लेते हैं 

इस किताब पर आगे बात करने से पहले मेरा ये फ़र्ज़ बनता है कि मैं जनाब मुज़फ़्फ़र हनफ़ी साहब के साहबज़ादे जनाब फ़िरोज़ हनफ़ीसाहब का तहे दिल से शुक्रिया अदा करूँ जिन्होंने ये किताब मुझे भेजी वरना सच बात तो ये है कि मैं शायद ही इस किताब तक पहुँच पाता। फ़िरोज़ साहब से भी थोड़ी बहुत गुफ़्तगू व्हाट्स एप के उस ग्रुप के माध्यम से हुई जिसे मुंबई निवासी शायर मेरे अज़ीज़, छोटे भाई नवीन चतुर्वेदी चलाते हैं।

वो हमारे मकान पर आया 
तीर आखिर कमान पर आया 

रह गए दंग हाँकने वाले 
शेर सीधा मचान पर आया 

दोस्तों ने चलाये थे नेज़े 
और दोष आसमान पर आया 

मेज़ पर गेंद खेलता बच्चा 
धूप निकली तो लान पर आया 

अपना पहला शेर मात्र 9 साल की कच्ची उम्र में कहने वाले मुज़फ़्फ़र साहब का जन्म एक अप्रैल 1936 को खंडवा मध्य प्रदेश में हुआ। उनका असली वतन हस्वा फतेहपुर उत्तर प्रदेश है। प्रारम्भिक शिक्षा मध्य प्रदेश से पूरी करने के बाद उन्होंने बी.ऐ , एम. ऐ, एल. एल. बी , और पी एच डी की डिग्रियां क्रमश; अलीगढ और बरकतुल्लाह यूनिवर्सिटी भोपाल से हासिल कीं। चौदह वर्षों तक मध्य प्रदेश के फारेस्ट विभाग में काम करने के बाद हनफ़ी साहब दिल्ली आ गए। बहुत कम लोग जानते होंगे कि फारेस्ट विभाग में काम करने के दौरान हनफ़ी साहब की पहचान काव्य गोष्ठियों में दुष्यंत कुमार से हुई और उन्हें ग़ज़ल लेखन के लिए प्रोत्साहित किया।

सबकी आवाज़ में आवाज़ मिला दी अपनी 
इस तरह आप ने पहचान मिटा दी अपनी 

लोग शोहरत के लिए जान दिया करते हैं 
और इक हम है कि मिट्टी भी उड़ा दी अपनी 

देखिये, खुद पे तरस खाने का अंजाम है ये 
इस तरह आप ने सब आग बुझा दी अपनी 

1974 में जनाब मुज़फ्फ़र हनफ़ी साहब देहली गये और नेशनल कौंसिल ऑफ़ रिसर्च एंड ट्रैनिंग में असिस्टेंट प्रोडक्शन ऑफ़िसर पद पर 2 साल तक काम किया। फरवरी 1978 में जामिया मिलिआ यूनिवर्सिटी में उर्दू के अध्यापक नियुक्त हुऐ और 1989 तक जामिआ में रीडर के पद पर काम किया।

आग लगाने वालों में थे मेरे भाई भी 
जलने वाली बस्ती में था मेरा भी घर एक 

सोने की हर लंका उनकी और मुझे बनवास 
चतुर सयाने दस दस सर के मुझ मूरख सर एक 

गुलशन पर दोनों का हक़ है काँटा हो या फूल 
टकराने की शर्त न हो तो शीशा पत्थर एक 

ऐसे में भी कायम रक्खी लहज़े की पहचान 
ग़ज़लों के नक़्क़ाल बहुत हैं और मुज़फ़्फ़र एक 

1989 में कलकता यूनिवर्सिटी ने उन्हे इक़बाल चेयर प्रोफेसेर के पद पर नियुक्त किया और जून 1989 में वह यह पद क़बूल कर के कलकता पहुँचे। इक़बाल चेयर 1977 में स्थापित की गयी थी और इस पर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का चयन होगया था और वो यह पद स्वीकार करने को तैयार थे मगर ऑफिशियल करवाई में कुछ देरी हुई और वो लोटस के संपादक /एडिटर हो कर बैरूत चले गए। इक़बाल चेयर 12 साल तक खाली रही फिर 1989 में पहली बार मुज़फ्फर हनफी का चयन हुआ। मुज़फ्फर हनफी कलकता यूनिवर्सिटी के पहले इक़बाल चेयर प्रोफेसर हुऐ।

बहुत अच्छा अगर जम्हूरियत ये है तो हाज़िर है 
उन्हें आबाद कर देना, हमारे घर जला देना 

बुलंदी से हमेशा एक ही फ़रमान आता है 
शगूफ़े नोच लेना, तितलियों के पर जला देना 

वो हाथों हाथ लेना डाकिये को राह में बढ़ कर 
लिफ़ाफ़ा चूम लेना फिर उसे पढ़ कर जला देना 

हनफ़ी साहब के बारे में कहने के लिए एक पोस्ट काफी नहीं है , अभी तो बहुत सारी बातें बतानी हैं उनके ढेर सारे मकबूल शेर पढ़ने हैं लिहाज़ा हमें इस किताब का जिक्र अपनी अगली पोस्ट में भी करना होगा तभी कुछ बात बनेगी। आप तब तक इस पोस्ट को दुबारा तिबारा चौबारा पढ़िए, पढ़ते रहिये हम जल्द फिर हाज़िर होते हैं इस किताब की कुछ ग़ज़लों के शेर और हनफ़ी साहब के बारे में अधिक जानकारी लेकर।

आईये चलते चलते हम आप को उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर भी पढ़वाते चलते हैं : 

फूल की आँख में लहू कैसे 
ओस ने कह दिया है कान में क्या 

पूछना चाहता हूँ बेटों से 
मैं भी शामिल हूँ खानदान में क्या 

मौज, खुशबू, सबा, किरण, शबनम 
ये क़सीदे हैं तेरी शान में क्या


जनाब मुज़फ्फ़र हनफ़ी साहब 

किताबों की दुनिया -107/2

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हज़ारों मुश्किलें हैं दोस्तों से दूर रहने में 
मगर इक फ़ायदा है पीठ पर खंज़र नहीं लगता 

कहीं कच्चे फलों को संगबारी तोड़ लेती है 
कहीं फल सूख जाते हैं कोई पत्थर नहीं लगता 

हर इक बस्ती में उसके साथ अपनापन सा लगता है 
नहीं है वो तो अपना घर भी अपना घर नहीं लगता 

मुज़फ़्फ़र साहब की शायरी फ़लक से गुनगुनाती हुई गिरती बरसात की बूंदों की याद दिलाती है जिसमें लगातार भीगते रहने का मन करता है। भाषा की ऐसी मिठास ऐसी रवानी ओर कहीं मिलना दुर्लभ है। ये खासियत उनकी एक आध नहीं बल्कि सभी ग़ज़लों में दिखाई देती है।

कागज़ी फूल हैं उसकी तकदीर में 
जिसको फूलों में काँटा नहीं चाहिए 

ग़म बंटाने को इक आम सा आदमी 
दोस्ती को फ़रिश्ता नहीं चाहिए 

ज़ख़्म छिल जायेंगे ग़म बिफर जायेगा 
बेसबब मुस्कुराना नहीं चाहिए 

मात्र 14 साल की उम्र से अब तक लगातार ग़ज़लें कहने वाले मुज़फ़्फ़र साहब ने अब तक 1700 अधिक ग़ज़लें कह डाली हैं। मुज़फ्फ़र हनफी कि शायरी (ग़ज़ल) कि पहली किताब “पानी कि जुबां“ जो 1967 में प्रकाशित हुई थी , हिंदुस्तान में आधुनिक शायरी कि पहली किताब मानी जाती है।

दो बूंदों की हसरत ले कर चुप टीले पर रेत खड़ी है 
चारों जानिब घुँघरू बांधे रिमझिम रिमझिम बरसा पानी 

सूखी डालें सोच रहीं हैं अब आने से क्या होता है 
पत्ते ताली पीट रहे हैं आया पानी आया पानी 

अक्सर उसकी याद आती है रौ में तेज़ी आ जाती है 
वो परबत की ऊंची चोटी , मैं झरने का बहता पानी 

हनफी साहब के बारे में आज के दौर के कामयाब शायर और उर्दू शायरी पर पुख्ता जानकारी रखने वाले जनाब 'मयंक अवस्थी'साहब ने ठीक ही फ़रमाया है कि : "हर शायर गज़ल की तलाश करता है लेकिन हनफी साहब इकलौते शायर हैं जिनकी तलाश ग़ज़ल खुद करती है।आज के दौर के मंच के बड़े बड़े नाम –किसकी गज़लों की नकल करते हैं सब जानते हैं — गज़लों के नक्काल बहुत हैं और मुज़फ्फर एक — हनफी साहब से कई शायरों को बहुत रश्क है और उनपर ऐसे शायरों ने ज़बर्दस्त तंज़बारी की है लेकिन मुज़फ्फर हनफी साहब को न कोई पा सका है और न पा सकेगा “

अगर सोचो तो वजनी हो गयी है 
हमारी बात ना मंज़ूर हो कर 

किसी का पास आकर दूर होना 
कहीं अन्दर महकना दूर हो कर 

मुहब्बत की इज़ाज़त भी नहीं है 
बड़े घाटे में हूँ मशहूर हो कर 

हनफ़ी साहब की ग़ज़लें देवनागरी में यूँ तो इंटरनेट की बहुत सी लोकप्रिय साइट्स मसलन 'लफ्ज़ ', कविताकोश, रेख्ता के अलावा कुछ छुटपुट ब्लॉग पर भी पढ़ीं जा सकती हैं लेकिन एक मुश्त पढ़ने के लिए सिवा ''मुज़फ़्फ़र की ग़ज़लें" की किताब के दूसरा कोई रास्ता नहीं है। इस किताब में मुज़फ़्फ़र साहब की चुनिंदा 127 ग़ज़लें शामिल की गयी हैं। 


पूछता हूँ कि क्या कह रही थी हवा 
चांदनी रात बातें बनाने लगी 

इस तरह याद आने से क्या फायदा 
जैसे नागिन कहीं सरसराने लगी 

आओ लंगर उठायें मुज़फ़्फ़र मियाँ 
बादबाँ को हवा गुदगुदाने लगी 

'लफ्ज़'के पोर्टल पर जाने माने शायर जनाब तुफैल चतुर्वेदीसाहब ने लिखा है कि "मुज़फ्फ़र हनफ़ी साहब ग़ज़ल के दरबार के वो अमीर हैं कि उनसे दरबार ही धन्य नहीं है बल्कि उनकी किसी भी महफ़िल में मौजूदगी महफ़िल के सारे लोगों को बाशऊर बना देती है. मैंने उनकी सदारत में मुशायरे पढ़े हैं. बड़े-बड़े वाचाल शायर हाथ बांधे उनसे इजाज़त लेते देखे हैं.
ग़ज़ल के दो रंग जनाबे-मीर और जनाबे-सौदा से चले हैं. तीसरे रंग यानी व्यंग्यात्मकता का इज़ाफ़ा जनाबे-यास यगाना चंगेज़ी और शाद आरिफी साहब ने किया. मुज़फ्फर साहब उन शाद आरिफी साहब के शागिर्द हैं.

मेरे हाथों के छाले फूल बन जाते हैं कागज़ पर 
मेरी आँखों से पूछो रात भर तारे बनाता हूँ 

जिधर मिट्टी उड़ा दूँ आफताब-ऐ-ताज़ा पैदा हो 
अभी बच्चों में हूँ साबुन के गुब्बारे बनाता हूँ 

ज़माना मुझसे बरहम है मेरा सर इसलिए खम है 
कि मंदिर के कलश, मस्जिद के मीनारे बनाता हूँ 
 बरहम = नाराज , खम =झुका हुआ 

मेरे बच्चे खड़े हैं बाल्टी ले कर कतारों में 
कुएँ ,तालाब, नहरें और फ़व्वारे बनाता हूँ 

'मुनव्वर राना'साहब ने किताब के कवर फ्लैप पर क्या खूब लिखा है "मुज़फ़्फ़र साहब की हर ग़ज़ल अनोखी उपज और हुनरमंदी का सबूत देती है उनका हर शेर विश्वास और ज़िन्दगी करने की अलामत बन जाता है। 

जनाब 'गोपी चंद नारंग'साहब दूसरे फ्लैप पर लिखते हैं कि 'मुज़फ्फर हनफ़ी उन शायरों में हैं जो अपने लहजे और आवाज से पहचाने जाते हैं। तबियत की रवानी की वजह से उन के यहाँ ठहराव की नहीं बहाव की कैफियत है। किसी शायर का अपने लहजे और अपने तेवर से पहचाना जाना ऐसा सौभाग्य है जिस को कला की सब से बड़ी देन समझना चाहिए।

कुछ ऐसे अंदाज़ से झटका उस ने बालों को 
मेरी आँखों में दर आया पूरा कजरी बन 

उल्फ़त के इज़हार पे उस के होंटो पर मुस्कान 
पेशानी पर बेचैनी सी, आँखों में उलझन 

कैसे तेरे शेरों में हो जाते हैं आमेज़ 
पत्थर का ये दौर मुज़फ़्फ़र और ग़ज़ल का फ़न 

कुछ लोग होते हैं जो अवार्ड्स लेने की फ़िराक में दिन रात एक करते हैं लेकिन कुछ ऐसे होते हैं जिनकी तलाश में अवार्ड्स रहते हैं। मुज़फ़्फ़र साहब दूसरे तबके के लोगों में शुमार हैं जिनकी गिनती उँगलियों पर की जा सकती है। ज़िन्दगी में उन्होंने अवार्ड्स को कभी कोई अहमियत नहीं दी। पचास से ऊपर अवार्ड प्राप्त हनफ़ी साहब को हाल ही में सन2013 -14 के लिए उर्दू अकादमी की और से पुरुस्कृत किया गया।

अवार्ड लेने में उनकी बेरुखी उनके सुनाये इस सच्चे किस्से से बयाँ होती है " 1995 की बात है। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा उस दिन मुझे उर्दू के सर्वोच्च मिर्जा गालिब अवार्ड से सम्मानित करने वाले थे। उसी दिन खंडवा में आयोजित मुशायरे के लिए दोस्तों ने निमंत्रण भेजा था। जन्म स्थली और दोस्तों के बीच जो खुशी मिलती वह राष्ट्रपति के हाथों अवार्ड लेने से नहीं। मिर्जा गालिब अवार्ड लेने के लिए मैंने अपने बेटे फिरोज हनफी को दिल्ली भेजा और मैं खंडवा चला आया। (जैसा उन्होंने चर्चा में बताया)"

जब खाली बिस्तर लगता है काँटों का इक ढेर 
किरनों सा परदे से छन कर आ जाता है कौन 

फूलों की पंखुड़ियों से जब मन करता है बात 
कोमल कोमल टहनी में ये बल खाता है कौन 

चिड़ियों की चहकार से इतने भोलेपन के साथ 
हंस हंस कर कानों में अमृत छलकाता है कौन 

वो कहती है और किसी को अपने शेर सुना 
तेरी चिकनी चुपड़ी बातों में आता है कौन 

मुज़फ़्फ़र साहब की बुलंद शक्शियत और बेजोड़ शायरी पर ऐसी कई पोस्ट्स भी अगर लिखें तो भी कामयाबी हासिल नहीं होगी। मैंने तो सिर्फ 'टिप ऑफ द आइस बर्ग 'ही दिखाने कोशिश की है। इस किताब को हिंदी अकादमी (दिल्ली ) के सौजन्य से फ़रवरी 2003 में प्रकाशित किया गया था। इस संकलन के लिए मुज़फ़्फ़र साहब की ग़ज़लों का चयन उन के बेटे फ़ीरोज़ और जनाब फ़ुज़ैल ने किया है। किताब प्राप्ति के लिए आप अल किताब इंटरनेशनल ,मुरादी रोड, बटाला हाउस नई दिल्ली ,विजय पब्लिशर्स 9 मार्किट दरिया गंज और मॉडर्न पब्लिशिंग हाउस वगोला मार्किट नयी दिल्ली से सम्पर्क कर सकते हैं।

ये सब कुछ नहीं करना तो यूँ करें कि आप मुज़फ़्फ़र साहब के साहिब जादे जनाब फ़िरोज़ भाई को उनके मोबाईल न.09717788387 पर संपर्क कर किताब प्राप्ति का आसान रास्ता पूछें। कुछ भी करें एक बात पक्की है कि इस किताब के पन्नों को पलटते हुए आप जिस अनुभव से गुज़रेंगे उसे लफ़्ज़ों में बयां नहीं किया जा सकता। ,
इस पोस्ट के अंत तक आने के बाद मुझे महसूस हो रहा है कि अभी बहुत कुछ छूट गया है जिसका जिक्र होना चाहिए था सागर की एक बूँद से चाहे आप सागर में मौजूद अथाह पानी का स्वाद या उसमें मिले नमक और दूसरे मिनरल्स की मात्रा का भले पता लगा लें, लेकिन सागर की गहराई का अंदाज़ा नहीं लगा सकते उसके लिए तो आपको उसमें डुबकी ही लगानी पड़ेगी।

आखिर में उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर आपको पढ़वाते हैं और अगली किताब की खोज में निकलते हैं :

फन को महकाये रखते हैं ज़ख़्मी दिल के ताज़ा फूल 
टूटी तख्ती काम आती है नय्या पार लगाने में 

तितली जैसे रंग बिखेरो घायल हो कर काँटों से 
मकड़ी जैसे क्या उलझे हो ग़म के ताने बाने में 

बुझते बुझते भी ज़ालिम ने अपना सर झुकने न दिया 
फूल गयी है सांस हवा की एक चिराग़ बुझाने में 

 इस पोस्ट को अगर मुज़फ़्फ़र साहब के एक शेर से की नज़र से देखा जाय तो वो शेर होगा :

 अंदर से अच्छे होते हैं अक्सर आड़े तिरछे लोग 
 जैसे अफ़साना मंटो मन्टो का,जैसे शेर मुज़फ़्फ़र का


किताबों की दुनिया - 91

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"किताबों की दुनिया"श्रृंखला अब अपने शतक की और बढ़ रही है। मुझे लगता है कि जैसे अभी तो शुरुआत ही हुई है। न जाने कितने शायर और उनकी शायरी अभी जिक्र किये जाने योग्य है। मैं कितनी भी कोशिश करूँ पर फिर भी मेरी कोशिश समंदर से उसके सिर्फ एक कतरे को आप तक पहुँचाने से ज्यादा नहीं होगी।

इन दिनों मुनव्वर राना जी के संस्मरण की किताब "जो हम पे गुज़री सो -"का पहला भाग "बगैर नक़्शे का मकान " (उर्दू में इसी नाम से छपी किताब का हिंदी तर्जुमा )पढ़ रहा हूँ , जिसमें उन्होंने बहुत से उर्दू शायरों का जिक्र कुछ इस दिलचस्प अंदाज़ में किया है कि दिल करता है कहीं से उनकी किताबें मिले और मैं पढूं , हम हिंदी वालों ने उन शायरों का नाम या उनका लिखा (कम से कम मैंने ) अभी तक न सुना न पढ़ा था। अलबत्ता अगर आप गद्य में शायरी कैसे की जाती का हुनर देखना चाहते हैं तो वाणी प्रकाशन से प्रकाशित, राना साहब की इस किताब के दोनों भाग जरूर पढ़ें। कहने का मतलब ये कि ये श्रृंखला यदि सालों साल चले तब भी बहुत से बेहतरीन शायरों का जिक्र इसमें होने से रह जाएगा।

चलिए आज की चर्चा शुरू करते हैं और आपको मिलवाते हैं एक ऐसे शायर से जिसने ज़िन्दगी की दुश्वारियों से निपटने का तरीका ग़ज़लगोयी में तलाश किया।

अब कोई मज़लूम न हो हक़ बराबर का मिले
ख्वाब सरकारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
 
चल रहे भाषण महज़ औरत वहीँ की है वहीँ
सिर्फ मक्कारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
 
अमन भी हो प्रेम भी हो ज़िन्दगी खुशहाल हो
राग दरबारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
 
इश्क मिटटी का भुला कर हम शहर में आ गए
ज़िन्दगी प्यारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
 
ऐसे बहुत से खूबसूरत अशआर के शायर हैं 22 नवम्बर 1968 को उत्तर प्रदेश के रायबरेली जनपद के 'कसरावां'गाँव में एक बेहद गरीब किसान के घर में जन्मे जनाब आनंद कुमार द्विवेदीऔर किताब है "फुर्सत में आज".
 
 
बिन पते का ख़त लिखा है ज़िन्दगी ने शौक से
जो कहीं पहुंचा नहीं , मैं बस वही पैगाम हूँ
 
है तेरा एहसास जब तक ज़िन्दगी का गीत हूँ
बिन तेरे तन्हाइयों का अनसुना कोहराम हूँ
 
कुछ दिनों से प्रश्न ये आकर खड़ा है सामने
शख्शियत हूँ सोच हूँ या सिर्फ कोई नाम हूँ
 
दुश्मनों से क्या शिकायत दोस्तों से क्या गिला
दर्द का 'आनंद'हूँ मैं , प्यार का अंजाम हूँ

स्नातक शिक्षा प्राप्त आनंद साहब ने खेड़ा सेल्स कार्पोरेशन -नयी दिल्ली में सर्विस मैनेजर के पद पर कार्य करने से पूर्व जीविका के लिए पापड़ बेलते हुए पहले ओ आर जी - मार्ग नामक मार्किट सर्वे कंपनी में नौकरी की जब वहाँ मन नहीं लगा तो बैंक से लोन लेकर परचून की दुकान सफलता पूर्वक चलाई किन्तु एक सड़क दुर्घटना के हादसे ने उन्हें फाकाकशी की नौबत तक पहुंचा दिया।

दुनिया के ग़लत काम का अड्डा बना रहा
हम चौकसी में बैठे रहे जिस मकान के
 
जो अनसुने हुए हैं उसूलों के नाम पर
मेरे लिए वो स्वर थे सुबह की अज़ान के
 
'आनंद'मज़हबों में सुकूँ मत तलाश कर
झगडे अभी भी चल रहे गीत कुरान के
 
आनंद जी की ग़ज़लें उर्दू या हिंदी में नहीं बल्कि आम हिन्दुस्तानी ज़बान में गुफ्तगू करती हैं और सीधी दिल में उतर जाती हैं. अपनी ज़िन्दगी के खट्टे मीठे अनुभवों को उन्होंने में अपनी शायरी में ढाला है। आनंद जी ने ग़ज़ल गोई की अपनी एक अलग शैली विकसित की है , रवायती और मान्य प्रतीकों को भी उन्होंने अलग अंदाज़ से अपनी ग़ज़लों में पिरोया है . उनका ये अंदाज़ बेहद दिलचस्प और दिलकश है।

इसमें क्या दिल टूटने की बात है
ज़ख्म ही तो प्यार की सौगात है
 
दो घडी था साथ फिर चलता बना
चाँद की भी दोस्तों सी जात है
 
कौन कहता है कि राहें बंद हैं
हर कदम पर इक नयी शुरुआत है
 
मत चलो छाते लगा कर दोस्तो
ज़िन्दगी 'आनंद'की बरसात है
     
किताब की भूमिका में शायर 'सईद अय्यूब 'लिखते हैं कि "आनंद की ग़ज़लों में जो मिठास है , जो नफासत है , जो नज़ाकत है, जो पुरअसर ज़ज़बात हैं,जो ज़िन्दगी के तजुर्बे हैं, जो अपने दौर कि जद्दोजेहद है, जो ज़बान कि शाइस्तगी है ,जो साफगोई है , जो गुफ्तगू का दिलकश सलीका है वो तो उनका ये संग्रह पढ़ कर ही महसूस किया जा सकता है।

थक गया हूँ ज़िन्दगी को शहर सा जीते हुए
गाँव को फिर से मेरी पहचान होने दीजिये
 
रात को हर रहनुमा की असलियत दिख जायेगी
शहर की सड़कें जरा सुनसान होने दीजिये
 
बैठकर दिल्ली में किस्मत मुल्क की जो लिख रहे
पहले उनको कम-अज़-कम इंसान होने दीजिये
 
आनंद जी ने अपनी ग़ज़लों में रदीफ़ काफिये के बहुत दिलचस्प प्रयोग किये हैं जो पाठक को गुदगुदाते भी हैं और सोचने पर मज़बूर भी करते हैं। उन्होंने आज के माहौल पर व्यंग बाण भी चलाये हैं और कहीं वो व्यथित भी हुए हैं । आज की व्यवस्था के प्रति उनका विरोध और गुस्सा भी उनकी ग़ज़लों में झलकता है। एक जागरूक शायर और देश का सच्चा नागरिक होने का पूरा प्रमाण उनके कलाम में दिखाई देता है।

पापा को कोई रंज न हो, बस ये सोच कर
अपनी हयात ग़म में डुबोती हैं लड़किया
 
उनमें ... किसी मशीन में, इतना ही फर्क है
सूने में बड़े जोर से रोती हैं लड़कियां
 
फूलों का हार हो, कभी बाहों का हार हो
धागे कीजगह खुद को पिरोती हैं लड़किया

बोधि प्रकाशन , जयपुर (0141 -2503989 , 098290 18087 ) द्वारा पेपर बैक में प्रकाशित इस किताब में आनन्द जी की 98 ग़ज़लें संग्रहित हैं। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप बोधि प्रकाशन के श्री माया मृग जी से संपर्क करें या सीधे आनंद कुमार द्विवेदी जी से उनके मोबाइल 09910410436 पर संपर्क कर उन्हें इस बेहतरीन शायरी के लिए मुबारकबाद दें और अपनी प्रति भेजने का आग्रह करें।

सख्त असमंजस में हूँ बच्चों को क्या तालीम दूं
साथ लेकर कुछ चला था,काम आया और कुछ
 
इसको भोलापन कहूं या, उसकी होशियारी कहूं
मैंने पूछा और कुछ, उसने बताया और कुछ
 
सब्र का फल हर समय मीठा ही हो, मुमकिन नहीं
मुझको वादे कुछ मिले थे, मैंने पाया और कुछ

आप से गुज़ारिश है कि आप इस किताब को जरूर पढ़े और इस नौजवान शायर की हौसला अफजाही करें , उसे और अच्छा कहने को प्रेरित करें। हम निकलते हैं आपके लिए एक और किताब की तलाश में. अपना ख्याल रखियेगा क्यूँ कि आप हैं तभी तो ये किताबों की दुनिया है.
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