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Channel: नीरज
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किताबों की दुनिया - 129

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उर्दू के बेहतरीन शायरों की शायरी का हिंदी में तर्जुमा हो चुका है और हो भी रहा है। हिंदी का एक विशाल पाठक वर्ग है जो शायरी से उतनी ही मोहब्बत करता है जितनी कि उर्दू पढ़ने समझने वाले लोग। इसी सिलसिले में एक और लाजवाब शायर की किताब बाजार में आयी है ,जो बहुत पहले आ जानी चाहिए थी पर चलिए देर आये दुरुस्त आये या यूँ कहें-"देर लगी आने में तुमको शुकर है फिर भी आये तो ".... ये शायर यूँ तो जन्में हिन्दुस्तान में, जा बसे पकिस्तान में, लेकिन ऐसा कहना गलत होगा क्योंकि शायर किसी मुल्क का नहीं होता उसे सरहदों या ज़ुबानों की हद में नहीं बाँधा जा सकता, वो तो अपने उन सभी पाठकों का होता है जो दुनिया में कहीं भी बसे हों, कारण आपको इस शायर की एक ग़ज़ल के इन शेरों में मिल जायेगा :--

सारे मंज़र एक जैसे, सारी बातें एक-सी 
सारे दिन हैं एक से और सारी रातें एक-सी 

बेनतीजा बेसमर जंगो-जदल सूदो-जियाँ 
सारी जीतें एक जैसी, सारी मातें एक-सी 
बेनतीजा=परिणामहीन , बेसमर=फल रहित, जंगो-जदल=लड़ाई-झगड़ा, सूदो-जियाँ=लाभ-हानि 

अब किसी में अगले वक़्तों की वफ़ा बाक़ी नहीं 
सब कबीले एक हैं अब, सारी जातें एक-सी

एक ही रुख़ की असीरी ख़्वाब है शहरों का अब 
उनके मातम एक-से, उनकी बरातें एक-सी 
असीरी =बाध्यता ,मज़बूरी 

 "गाँव कनेक्शन "ब्लॉग पर इस शायर के बारे में जो जानकारी मिलती है वो इस तरह है "साल 1928 में पंजाब के होशियारपुर में मुहम्मद फ़तह खान के घर में एक बेटे ने जन्म लिया। उसका नाम रखा गया मुहम्मद मुनीर खान नियाज़ी। साल भर ही गुज़रा था कि फ़तह खान साहब का इंतकाल हो गया। ज़रा सी उम्र में वालिद के इंतकाल से मुनीर के घर के हालात बदल गए। जब मुनीर बड़ा हुआ तो उसने अपना नाम बदल लिया अब वो मुहम्मद मुनीर खान नियाज़ी नहीं, सिर्फ मुनीर नियाज़ी हो गया।
पाकिस्तान की जदीद शायरी में मुनीर नियाज़ी, फैज़ अहमद फैज़ और नूनकीम राशिद के बाद आने वाला नाम है। उनका लहजा बेहद नर्म और ख्याल मख़मल की तरह मुलायम थे। न उनकी आवाज़ में कभी तल्खी सुनी गई न उनकी शायरी में। बड़ी से बड़ी बात को बिना हंगामे के आसानी से कहने के लिए पहचाने जाने वाले मुनीर नियाज़ी की शायरी में एक नयापन है। उनकी शायरी में ज़बान की ऐसी रिवायत है कि जिसमें कई मुल्की और ग़ैरमुल्की ज़बानों की विरासत मिलती है।"

आज हम उनकी किताब "देर कर देता हूँ मैं"जिसे वाणी प्रकाशन ने "दास्ताँ कहते कहते "श्रृंखला के अंतर्गत पेपरबैक में छापा है की बात करेंगे



कल मैंने उसको देखा तो देखा नहीं गया 
मुझसे बिछुड़ के वो भी बहुत ग़म से चूर था 

शामे-फ़िराक़ आयी तो दिल डूबने लगा 
हमको भी अपने आप पे कितना गुरूर था 

निकला जो चाँद, आयी महक तेज़ सी 'मुनीर ' 
मेरे सिवा भी बाग़ में कोई जरूर था 

ज़िन्दगी के बेशुमार रंग अपनी पूरी पॉजिटिविटी के साथ जिस तरह मुनीर साहब की शायरी में दिखाई देते हैं वैसे और किसी शायर की शायरी में नहीं। हिंदी पाठकों में उनका नाम अभी तक उतना लोकप्रिय नहीं हुआ जितना कि उनके समकालीन शायरों का हुआ है इसका कारण खोजने के लिए आपको मुनीर साहब को पढ़ना पड़ेगा। आप पाएंगे कि मुनीर नियाज़ी की शायरी चौंकाती नहीं बल्कि उनकी ही तरह धीरे धीरे मद्धम ठहरे हुए लहज़े में ख़ामोशी से अपनी बात कहती है। आज के तड़क भड़क और शोरोगुल वाले माहौल में ख़ामोशी की आवाज़ को सुनने के लिए धीरज चाहिए , जो है नहीं।

तुझसे बिछुड़ कर क्या हूँ मैं, अब बाहर आ कर देख 
हिम्मत है तो मेरी हालत आँख मिला कर देख 

दरवाज़े के पास आ आ कर वापस मुड़ती चाप 
कौन है इस सुनसान गली में, पास बुला कर देख 

शायद कोई देखने वाला हो जाए हैरान 
कमरे की दीवारों पर कोई नक़्श बना कर देख 

तू भी मुनीर अब भरे जहाँ में मिल कर रहना सीख 
बाहर से तो देख लिया अब अंदर जा कर देख 

उनकी शायरी में कुछ खास लफ्ज़ जैसे हवा, शाम जंगल बार बार आते हैं। परवीन शाक़िर साहिबा के साथ एक गुफ़्तगू में उन्होंने बताया कि उनकी शायरी में एक नए शहर का तसव्वुर आता है एक ऐसा शहर जो इस शहर से जिसमें वो रह रहे हैं बिलकुल अलग हो जिसमें मुहब्बत की फ़िज़ां हो नफ़रत दुःख उदासी का नामों निशाँ न हो जिसकी हवाएं अलग हों गुलशन अलग हो बहारें अलग हों। ये तसव्वुर हर अच्छे इंसान का होता है और उसे पता होता है कि इसका पूरा होना मुश्किल है लेकिन नामुमकिन नहीं इसीलिए वो ताउम्र वो इसे पाने की कोशिश में लगा रहता है !

एक नगर ऐसा बस जाए जिसमें नफ़रत कहीं न हो 
आपस में धोखा करने की, ज़ुल्म की ताक़त कहीं न हो 

उसके मकीं हों और तरह के, मस्कन और तरह के हों 
उसकी हवाएं और तरह की ,गुलशन और तरह के हों 
मकीं =निवासी , मस्कन =घर 

 मुनीर नियाज़ी साहब के 11 उर्दू और 4 पंजाबी संकलन प्रकाशित हैं, जिनमें ‘तेज हवा और फूल’, ‘पहली बात ही आखिरी थी’ और ‘एक दुआ जो मैं भूल गया था’ जैसे मशहूर नाम शामिल हैं. उनकी किताबें उनकी ज़िन्दगी की मुख़्तलिफ़ मंज़िलें हैं जिन्हें उन्होंने ने अपनी किताबों की शक्ल में रक़म किया है। हिंदी में शायद पहली बार वाणी प्रकाशन की ये किताब आयी है।

उस हुस्न का शेवा है जब इश्क नज़र आये 
परदे में चले जाना शर्माए हुए रहना 

इक शाम सी कर रखना काजल के करिश्मे से 
इक चाँद सा आँखों में चमकाए हुए रहना 

आदत सी बना ली है तुमने तो 'मुनीर'अपनी 
जिस शहर में भी रहना उकताए हुए रहना 

नियाज़ी साहब बंटवारे के बाद साहिवाल में बस गये थे और सन 1949 में ‘सात रंग’ नाम के मासिक का प्रकाशन शुरु किया. बाद में आप फिल्म जगत से जुड़े और अनेकों फिल्मों में मधुर गीत लिखे. आपका लिखा मशहूर गीत ‘उस बेवफा का शहर है’ फिल्म ‘शहीद ‘ के लिये स्व. नसीम बेगम ने १९६२ में गाया. बकौल शायर इफ़्तिकार आरिफ़, मुनीर साहब उन पांच उर्दू शायरों में से एक हैं, जिनका कई यूरोपियन भाषाओं में खुब अनुवाद किया गया है. उनकी ग़ज़लों को पाकिस्तान के ग़ज़ल गायकों ने अपनी आवाज़ दी है. आप में से जो ग़ुलाम अली साहब के दीवाने हैं उन्होंने उनकी दिलकश आवाज़ में मुनीर साहब की ये ग़ज़ल जरूर सुनी होगी :-

चमन में रंगे-बहार उतरा तो मैंने देखा 
नज़र से दिल का ग़ुबार उतरा तो मैंने देखा

ख़ुमारे-मय में वो चेहरा कुछ और लग रहा था 
दमे-सहर जब खुमार उतरा तो मैंने देखा 
ख़ुमारे-मय=शराब का खुमार , दमे-सहर=सुबह के वक्त 

इक और दरिया का सामना था 'मुनीर'मुझको 
मैं एक दरिया के पार उतरा तो मैंने देखा

मुनीर साहब ज़िन्दगी भर शायरी के किसी कैम्प में शामिल नहीं हुए उनके अनुसार सिर्फ कमज़ोर विचारधारा और सोच के इंसान ही अपना एक ग्रुप बनाते हैं जिन्हें अपने फ़न पर ऐतबार होता है वो अकेले ही चलते हैं। बहुत धीर गंभीर तबियत के मालिक मुनीर साहब जब मंच से अपनी बेहद लोकप्रिय नज़्म "हमेशा देर कर देता हूँ मैं" -सुनाते थे तो इस छोटी सी नज़्म को सुनते वक़्त शायद ही कोई इंसान हो जिसकी आँखें नहीं भर आती थी। मेरी आपसे गुज़ारिश है कि यदि आपने इस नज़्म को उनकी ज़बानी नहीं सुना है तो एक बार यू ट्यूब पर इसे सर्च करके देखें और सुनें :-

हमेशा देर कर देता हूँ मैं 
जरूरी बात करनी हो कोई वादा निभाना हो 
उसे आवाज़ देनी हो उसे वापस बुलाना हो 
हमेशा देर कर देता हूँ मैं 
मदद करनी हो उसकी, यार की ढारस बँधाना हो 
बहुत देरीना रस्तों पर किसी से मिलने जाना हो 
देरीना = पुराने 
हमेशा देर कर देता हूँ मैं 
बदलते मौसमों की सैर में दिल को लगाना हो 
किसी को याद रखना हो किसी को भूल जाना हो 
हमेशा देर कर देता हूँ मैं 
किसी को मौत से पहले किसी ग़म से बचाना हो 
हक़ीक़त और थी कुछ उसको जा के ये बताना हो 
हमेशा देर कर देता हूँ मैं हर काम करने में i

इस किताब की भूमिका में प्रसिद्ध शायर 'शीन काफ़ निज़ाम'साहब लिखते हैं कि 'मुनीर की शायरी में बनावट और बुनावट नहीं सीधे-सीधे अहसास को अलफ़ाज़ और ज़ज़्बे को ज़बान देने का अमल है. उनकी शायरी का ग्राफ बाहर से अंदर और अंदर से अंदर की तरफ है एक ऐसी तलाश जो परेशां भी करती है और प्राप्य पर हैरान भी जो हर सच्चे और अच्छे शायर का मुकद्दर है।

इतने खामोश भी रहा न करो
ग़म जुदाई में यूँ किया न करो 

ख़्वाब होते हैं देखने के लिए 
उन में जा कर मगर रहा न करो 

कुछ न होगा गिला भी करने से 
ज़ालिमों से गिला किया न करो 

अपने रूत्बे का कुछ लिहाज़ 'मुनीर' 
यार सब को बना लिया न करो 

जनाब 'मुनीर'बरसों पाकिस्तान टीवी के लाहौर केंद्र से जुड़े रहे उन्हें 1992 में पाकिस्तान सरकार द्वारा 'प्राइड ऑफ परफॉर्मेंस 'के खिताब से और मार्च 2005 में ‘सितार-ए-इम्तियाज’ के सम्मान से नवाज़ा गया.कौन जानता था कि मंच से गूंजती यह आवाज़ 26 दिसम्बर 2006 की रात में दिल का दौरा पड़ने से हमेशा के लिये चुप हो जायेगी. वैसे नियाज़ी साहब साँस की बीमारी से एक अर्से से परेशान थे. 

अपनी ही तेग़े-अदा से आप घायल गया 
चाँद ने पानी में देखा और पागल हो गया 

वो हवा थी शाम ही से रस्ते खाली हो गए 
वो घटा बरसी कि सारा शहर जल-थल हो गया 

मैं अकेला और सफ़र की शाम रंगों में ढली 
फिर ये मंज़र मेरी आँखों से भी ओझल हो गया 

अब कहाँ होगा वो और होगा भी तो वैसा कहाँ 
सोच कर ये बात जी कुछ और बोझल हो गया 

 "देर कर देता हूँ मैं"किताब में मुनीर साहब की लगभग 85 ग़ज़लें और 43 नज़्में संगृहीत हैं जिन्हें पढ़ कर उनकी शायरी के मैयार का अंदाज़ा होता है, उन्हें सरापा पढ़ने के लिए तो उर्दू सीखनी ही पड़ेगी क्यों की हिंदी में उनका लिखा बहुत ज्यादा उपलब्ध नहीं है।वाणी प्रकाशन ने किताब को ख़ूबसूरती से छापा है लेकिन आवरण के साइड में "मुनीर नियाज़ी"की जगह "मुनीर जियाज़ी"छाप देने की गलती अखरती है। आप इस किताब को वाणी प्रकाशन को sales@vaniprakashan.in पर मेल लिख कर या फिर अमेज़न से ऑन लाइन मंगवा सकते हैं। चलते चलते उनकी ग़ज़ल के ये शेर पढ़ें, सोचें कि ये शेर किसी उर्दू शायर के हैं या हिंदी शायर के और फिर हिंदी /उर्दू ग़ज़ल की दीवार को हमेशा के लिए गिरा दें :

घुप अँधेरे में छिपे सूने बनों की ओर से 
गीत बरखा के सुनो रंगों में डूबे मोर से 

लाख पलकों को झुकाओ, लाख घूंघट में छुपो 
सामना हो कर रहेगा दिल के मोहन चोर से 

भाग कर जाएँ कहाँ इस देस से अब ऐ 'मुनीर' 
दिल बँधा है प्रेम की सुन्दर, सजीली डोर से

किताबों की दुनिया -130

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आज आत्म प्रशंशा, आत्म मुग्धता और आत्म स्तुति के इस संक्रमक दौर में जहाँ हर बौना अपने आपको अमिताभ से ऊंचा और हर तुक्के बाज़ अपने को ग़ालिबो मीर से बेहतर मानता हो अगर कोई ताल ठोक कर सोशल मीडिया के सार्वजनिक मंच पर ये कहे कि "मैं बेतुका ,बेहूदा, बदतमीज़, वाहियात ,अनपढ़ ,गँवार,ज़ाहिल और मुँहफट हूँ "तो आप हैरान नहीं हो जायेंगे ?
हमारे आज के शायर अपने बारे में ऐसा बयान सनसनी फैलाने के कारण नहीं दे रहे बल्कि ऐसा कहना उनकी निराली शख्शियत का हिस्सा है।

फिर तुझे सोच लिया हो जैसे 
तार बिजली का छुआ हो जैसे 

धड़कनें तेज़ हुई जाती हैं 
कोई ज़ीने पे चढ़ा हो जैसे 

लाख अपने को समेटा हमने 
फिर भी कुछ छूट गया हो जैसे 

याद बस याद फ़क्त याद ही याद 
और सब भूल गया हो जैसे 

हमारे आज के शायर हैं जनाब "शमीम अब्बास"साहब जिनकी किताब "बाँट लें,आ कायनात"का जिक्र हम करेंगे। हिंदी पाठकों के लिए शमीम साहब का नाम शायद बहुत अधिक जाना पहचाना न हो लेकिन उर्दू शायरी से मोहब्बत करने वाले हर शख्श ने उन्हें पढ़ कर बिजली के तार को छू लेने जैसे अनुभव जरूर हासिल किये होंगे क्योंकि इनके शेर कभी कभी जोर का झटका धीरे से देते हैं । किताब के फ्लैप पर ब्रेकेट में लिखा है "उर्दू ग़ज़लें"जबकि इस किताब की ग़ज़लें न उर्दू और न हिंदी में बल्कि उस ज़बान में हैं जिसे हम रोजमर्रा की ज़िन्दगी में इस्तेमाल करते हैं।


प्यारे तेरा मेरा रिश्ता 
इक उड़ती तितली और बच्चा 

उस ने हामी भर ली आखिर 
बिल्ली के भागों छींका टूटा 

तेरी कहानी कहते कहते 
अच्छे अच्छे का दम फूला 

दुनिया भर के शग्ल पड़े हैं 
पर जिसको हो तेरा चस्का 

सन 1948 में फैज़ाबाद उत्तर प्रदेश में जन्में शमीम साहब जब कुल 2 साल के थे तो परिवार के साथ मुंबई आ बसे और तब से अब तक मुंबई में भिंडी बाजार की जामा मस्जिद के पास बड़े ही सुकून से रह रहे हैं। हाईस्कूल के बाद मुंबई के ही महाराष्ट्र कॉलेज से उन्होंने तालीम हासिल की और वहीँ छुटपुट काम करते हुए शायरी करने लगे। पूछने पर वो हँसते हुए कहते हुए कहते हैं कि वो खालिस मुम्बइया टपोरी हैं। निहायत दिलचस्प शख्सियत के मालिक शमीम साहब न केवल अपने आचार व्यवहार में बल्कि शायरी करने में भी बेहद बिंदास हैं.

ये नहीं ये भी नहीं और वो नहीं वो भी नहीं 
दूसरा तुझसा कोई मिल जाए मुमकिन ही नहीं 

तू पसारे पाँव बैठा है मेरे लफ़्ज़ों में यूँ 
अब कोई आए कहाँ कोई जगह खाली नहीं 

इम्तेहां मेरा न ले इतना कि रिश्ता टूट जाए 
तू बहुत कुछ है ये माना कम मगर मैं भी नहीं 

क्या है तू और क्या नहीं जैसा है क्या वैसा है तू
बात हर पहलू से की तुझ पर मगर चिपकी नहीं 

इस तरह का लहज़ा, रंग और तेवर इस से पहले उर्दू शायरी में पढ़ा सुना नहीं गया। शमीम साहब ने अपनी खुद की ज़मीन तलाश की, वो ज़बान इस्तेमाल की जो सुनने पढ़ने वाले को अपनी लगी। उर्दू शायरी की सदियों पुरानी रिवायत को तोड़ना कोई आसान काम नहीं था लेकिन शमीम साहब ने ये काम बहुत दिलकश अंदाज़ में किया और छा गए। अपने चाहने वालों में 'दादा'के नाम से मशहूर और नौजवान शायरों के चहेते शमीम साहब की शिरकत के बिना मुंबई की कोई नशिस्त मुकम्मल नहीं मानी जाती

छाई रहती है घनी छाँव मुसलसल कहिये 
बेसमर पेड़ है इक याद का पीपल कहिये 

सर्दियाँ हों तो रज़ाई की जगह होता है 
गर्मियां हो तो उसी शख्स को मलमल कहिये 

छुइए उस को तो मरमर सा बदन होता है 
जब बरतीये तो यही लगता है दलदल कहिये 

शमीम साहब ने "रेख्ता"की साइट पर फ़रहत एहसास साहब को दिए एक इंटरव्यू में बताया कि बचपन में बड़े और प्रसिद्द शायरों की शायरी पढ़ते या सुनते हुए उन्हें लगता था कि उर्दू शायरी की भाषा बहुत औपचारिक है, वो सोचते थे कि क्यों हम आम बोलचाल की भाषा में बेतकल्लुफी से जैसे हम अपने यार दोस्तों से या घर में भाई अम्मी से या बाजार में दुकानदार से या दुकानदार हम से बात करते हैं , शायरी नहीं कर सकते ?

इतने बखेड़े पाल लिए कब फुरसत मिलती है 
आज की तय दोनों में थी अब कल पर रख्खी है 

वो अपने झंझट में फंसा मैं अपने झमेले में 
वक्त न उसके पास है और न मुझको छुट्टी है 

अच्छे खासे लोगों से यह बस्ती है आबाद 
तेरे सिवा जाने क्यूँ अपनी सब से कट्टी है 

लगा तो तीर नहीं तो तुक्का सीधी सी है बात 
कोशिश वोशिश काहे की अंधे की लाठी है 

ये सोच उस वक्त बहुत क्रांतिकारी थी क्यूंकि इस तरह पहले किसी ने या तो सोचा नहीं था या फिर उसे अमल में लाने का जोखिम नहीं उठाया था हालाँकि कुछ हद तक अल्वी साहब ने ये कोशिश की जरूर लेकिन वो शमीम साहब की तरह बिंदास नहीं हो पाए .शमीम साहब ने ये ज़ोखिम उठाया और खूब उठाया जिसकी वजह से शुरू में उन्हें नकारा गया लेकिन धीरे धीरे दाद के साथ हौसला अफ़ज़ाही भी मिलने लगी और फिर तो वो खुल कर अपना जलवा दिखने लगे।

यूँ ही ये ज़िन्दगी चलती रही है
तवायफ़ भी कहीं बेवा हुई है 

किसी जानिब किसी जानिब बढूं मैं 
तुम्हारी याद रस्ता काटती है 

लगाए घात बैठी है तमन्ना 
जहाँ मौका मिले मुंह मारती है 

शमीम साहब के बड़े भाई शफ़ीक़ अब्बास साहब भी बहुत बड़े शायर हैं लेकिन उनकी शायरी की जो ज़बान है वो शमीम साहब से बिलकुल अलहदा है।"शमीम"साहब फरमाते है की जो ज़बान वो इस्तेमाल करते हैं वो उनकी माँ की ज़बान है जिसे वो अपने साथ रदौली उत्तरप्रदेश से ले आयीं और जो बरसों बरस मुंबई में रहने के बावजूद भी उनके होंठो पे रही। शमीम साहब कहते हैं कि उनकी शायरी में जो फ़िक्र आती है, ख्याल आते हैं वो उनकी ही ज़बान में जिसे वो रोजमर्रा की गुफ्तगू में इस्तेमाल करते हैं, आते हैं , उन्हें लफ्ज़ तलाशने नहीं पड़ते वो इसी ज़बान में सोचते हैं और कहते हैं।

मुद्दतों बाद रात दर्द उठा 
ज़िन्दगी तेरा कुछ पता तो चला 

तुम मदावे की शक्ल आ धमके 
मैं कुढ़न का मज़ा भी ले न सका 
मदावे : इलाज़ , कुढ़न : कष्ट , तकलीफ 

यह तो तय है कि रात था कोई 
तू नहीं था तो कौन था बतला 

आज किस मुंह से तुम को झुठलाएं 
हम को पहचानते नहीं ! अच्छा 

उर्दू में शमीम साहब की शायरी के शायद दो मज़मुए आ चुके हैं ,"बाँट लें, आ क़ायनात "शायद मेरी समझ में उनका हिंदी में पहला मज़्मुआ है जिसे "हलक फाउंडेशन ,12, इंद्रप्रस्थ, फ्लाईओवर ब्रिज अँधेरी (पूर्व) मुंबई ने शाया किया है. मुझे तो ये किताब जयपुर के बेजोड़ नामवर शायर और गीतकार जनाब लोकेश सिंह 'साहिल'साहब की मेहरबानी से पढ़ने को मिली है लेकिन आप इस किताब की प्राप्ति के लिए शमीम साहब को उनके घर 022-28113418 पर या उनके मोबाईल न 9029492884 पर संपर्क करके पूछ सकते हैं।दिल्ली में तुफैल साहब के यहाँ "लफ्ज़"के सन 2015 में हुए मुशायरे में उनसे एक बार बात हुई थी।बेहद हंसमुख दोस्ताना तबियत के मालिक शमीम साहब यकीनन किताब के बारे में आपकी जरूर मदद करेंगे।

लफ़्ज़ों चंगुल में फंस कर रह जाता है ख्याल 
बात उलझ कर रह जाती है हाय रे मज़बूरी 

तेरे कर्ब ने आनन् फानन मौसम बदला है 
हर सू पेड़ घनेरे हैं और सूरज में खुनकी 
कर्ब =निकटता , खुनकी =शीतलता 

जाने क्या है जब जब उस से नज़रें पलटी हैं 
सारे शहर की कोई गुल कर देता है बिजली 

पेपर बैक में छपी इस छोटी सी किताब में शमीम साहब की लगभग 84 ग़ज़लें और फुटकर शेर हैं। हिंदी में उनकी इन ग़ज़लों और शेरों का जिसने भी तर्जुमा किया है उसने या फिर प्रकाशक ने हिज्जों की बहुत सी गलतियां की हैं जो शमीम साहब की लाजवाब शायरी को पढ़ते वक्त अखरती हैं।हर कमी के बावजूद ये किताब हाथ में लेने के बाद किसी भी शायरी प्रेमी के लिए पूरी ख़तम किये बिना छोड़नी मुश्किल है। उनके बहुत से शेर पढ़ने वाले के दिलो दिमाग में हमेशा से बस जाने वाले हैं. आप इस किताब को मंगवाने का जतन करें तब तक मैं उनकी एक बहुत मकबूल ग़ज़ल के ये शेर पढ़वा कर अगली किताब की तलाश में निकलता हूँ.

मिल न मिल मर्ज़ी तेरी
चित तेरी पट भी तेरी 

बाँट ले आ कायनात 
तू मेरा बाकी तेरी 

उसके बिन ऐ ज़िन्दगी 
ऐसी की तैसी तेरी 

इक मेरी भी मान ले 
मैंने सब रक्खी तेरी 

मैं सभी पर खुल चुका 
बंद है मुठ्ठी तेरी

किताबों की दुनिया -131

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आसमानों की बुलंदी में कहाँ आया ख्याल 
इक नशेमन भी बना लूँ चार तिनके जोड़कर 

बेयक़ीनी ने ये कैसा ख़ौफ़ मुझमें भर दिया 
अब कहीं जाता नहीं मैं खुद को तनहा छोड़कर 

कम से कम दस्तक ही देकर देख लेता एक बार 
मुझमें दाख़िल क्यों हुआ वो शख़्स मुझको तोड़कर 

ये बाकमाल लहज़ा , लफ़्ज़ों को बरतने का ये हुनर और कहन का ये दिलचस्प अंदाज़, शायरी के दीवाने बखूबी जानते हैं कि ये लखनऊ स्कूल की देन है जो जनाब 'मीर तकी मीर'साहब से शुरू हुई. इसी 'लखनऊ स्कूल'की गंगा जमुनी तहज़ीब की गौरव शाली परम्परा को उनके बाद सौदा ,नासिख़ ,मज़ाज़ ,जोश, आनंद नारायण मुल्ला ,वाली आसी, कृष्ण बिहारी नूर जैसे शायरों ने आगे बढ़ाया और अब उसी परम्परा को मुनव्वर राणा, भारत भूषण पंत और सुखबीर सिंह शाद के साथ युवा शायर अभिषेक शुक्ला और मनीष शुक्ला बहुत ख़ूबसूरती से आगे बढ़ा रहे हैं।
हमारे आज के मोतबर शायर हैं जनाब 'सुखबीर सिंह शाद"साहब जिनकी हाल ही में देवनागरी लिपि में एनीबुक द्वारा प्रकाशित किताब 'शहर के शोर से जुदा'की बात हम करेंगे।


ये भी मुमकिन है कि खुद ही बुझ गए हों चराग़ 
बेगुनाही किसलिए अपनी हवा साबित करे 

तेरे सजदे भी रवा, तेरी इबादत भी क़ुबूल 
शर्त ये है ख़ुद को तू पहले ख़ुदा साबित करे 

अपने ख़द्दो- खाल की ख़ुद ही गवाही दूंगा मैं 
क्यों मिरि पहचान कोई दूसरा साबित करे 

लखनऊ स्कूल की गंगा जमुनी शायरी की तहज़ीब को सुखबीर साहब ने अपने उस्ताद 'वाली आसी'साहब की शागिर्दी में सीखा। जनाब 'वाली आसी'साहब के बारे में हम 'भारत भूषण पंत'साहब की किताब 'बेचेहरगी'की चर्चा के दौरान बता चुके हैं , उनके शागिर्दों में मुनव्वर राणा भी शामिल थे। मुशायरों के मंच पर अंधड़ की तरह चल रही शायरी के बीच 'शाद'साहब की शायरी सुबह के वक्त मंद मंद चलती पुरवाई की तरह महसूस होती है।

हो तो गए बहाल तअल्लुक़ सभी मगर  
दिल में जो इक ख़लिश थी पुरानी, नहीं गयी 

वो रात इक कनीज़ के सपनो की रात थी 
उस रात ख़्वाब गाह में रानी नहीं गयी 

लफ़्ज़ों को फिर गवाह बनाया गया है 'शाद' 
अश्कों की इक दलील भी मानी नहीं गयी 

4 सितम्बर 1954 को सीतापुर उत्तर प्रदेश में जन्में शाद ने अपनी पढाई 'सिटी मोंटेसरी स्कूल'लखनऊ और 'क्राइस्ट चर्च कॉलेज'लखनऊ से की। उनके पिता चाहते थे कि वो उनकी आलमबाग ,जहाँ वो रहते थे, वाली प्रिंटिंग प्रेस को संभालें लेकिन उनका भाग्य उन्हें कोई दूसरी ही दिशा में ले गया। बचपन से ही उन्हें कविताओं से प्रेम था तभी उन्होंने हिंदी के लगभग सभी कवियों की रचनाओं को पढ़ डाला। शायरी की तरफ झुकाव हुआ तो उन्होंने 'सुल्तान खान 'साहब से बाकायदा उर्दू की तालीम ली। धीरे धीरे शेर कहने लगे। अमीनाबाद में उन दिनों साहित्य प्रेमियों की महफ़िल लगा करती थी ,वहीँ 'शाद'साहब ने जनाब 'वाली आसी'साहब को अपने शेर सुनाये। उनके शेरों और कहन से प्रभावित हो कर 'वाली आसी 'साहब ने उन्हें अपनी शागिर्दी में रख लिया।

मैं आज़िज़ आ चुका हूँ अपनी गैरत की नसीहत से 
ये कहती है कि जो करना वो मुझसे पूछ कर करना

मिरि मिटटी तुझे चूमूँ कि आँखों से लगाऊं मैं 
तिरा ही हौसला है एक कोंपल को शजर करना

बहुत समझाया मैंने हाशियों की क्या जरुरत है 
मगर वो चाहता था दास्ताँ को मुख़्तसर करना 

मुझे मालूम है मेरे बिना वो रह नहीं सकता 
कहीं भटका हुआ मिल जाय तो मुझको ख़बर करना 

अपनी पहली किताब 'जाने कब ये मौसम बदले'जो 1992 में शाया हुई थी के बाद उन्होंने मुड़ कर नहीं देखा और लगातार शेर कहते रहे नतीज़ा ये हुआ कि अब तक उनके नौ मज़्मुए शाया हो चुके हैं जिन में से तीन तो उर्दू अकेडमी उत्तर प्रदेश द्वारा पुरुस्कृत हो चुके हैं। उनकी शेष किताबों के उन्वान इस तरह हैं "गीली मिटटी (1998) ", 'ज़रा ये धूप ढल जाय (2005)", "बेख्वाबियाँ (2007) ","जहाँ तक ज़िन्दगी है (2009)","बिखरने से जरा पहले (2011)", "लहू की धूप (2012)", "बात अंदर के मौसम की (2014)"इसके अलावा उनकी एक किताब "चलो कुछ रंग ही बिखरे (2000)"को पाकिस्तान के जाने माने प्रकाशक 'वेलकम बुक पोर्ट'ने प्रकाशित किया है।

मिरि दरियादिली उतरे हुए दरिया की सूरत है 
ये हसरत ही रही दिल में किसी के काम आऊं मैं 

ये कैसी कश्मकश ठहरी हमारे दरमियाँ दुनिया 
न मुझको रास आये तू, न तुझको रास आऊं मैं 

किसी दिन लुत्फ़ लूँ मैं भी तिरे हैरान होने का 
किसी दिन बिन बताये ही तिरी महफ़िल में आऊं मैं 

बस इक ज़िद ही तो हाइल है हमारे दरमियाँ वरना 
अगर पहले मनाये वो तो शायद मान जाऊं मैं 

बहुत ही कम शायर हैं जो मुशायरों में सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए अपनी शायरी से समझौता नहीं करते और ख़ास तौर पर ऐसे शायर जिनकी रोज़ी रोटी ही इस से चलती हो वो तो बहुत ही संभल कर मंच पर अपनी रचनाएँ सुनाते हैं। जनाब सुखबीर सिंह साहब अपवाद हैं उन्होंने कभी शायरी के मेयार से समझौता नहीं किया,तालियां बटोरने के लिए हलकी शायरी नहीं की क्यूंकि इसकी उन्हें कभी जरुरत ही महसूस नहीं हुई। उनकी शायरी इतनी खूबसूरत और दिलकश होती है कि श्रोता बार बार तालियां बजाते हुए और और सुनने की फरमाइश करते हैं। हक़ीक़त ये है कि आज भी लोग अच्छी शायरी के दीवाने हैं लेकिन क्यूंकि अच्छा कहने वाले बहुत कम हैं इसलिए वो लफ़्फ़ाज़ी सुनने के लिए मज़बूर हैं।

तिरि कुर्बत भी मुझको रास हो ऐसा नहीं फिर भी 
अकेलेपन से डरता हूँ मुझे तनहा न छोड़ा कर 
कुर्बत =समीपता 

नहीं ! अच्छा नहीं लगता मुझे यूँ मुन्तशिर होना
मेरी लहरों में अपनी याद के पत्थर न फेंका कर 
मुन्तशिर = बिखर हुआ 

तुझे अलफ़ाज़ के पैकर ही में हर बात दिखती है 
कभी खामोशियों को भी सुना कर और समझा कर 

शाद साहब के चाहने वाले पूरी दुनिया में फैले हुए हैं उन्हें 'अमेरिका , यूनाइटेड अरब एमिराईट , पाकिस्तान ,दोहा, ओमान, बेहरीन,दुबई, अबू धाबी और सिंगापुर आदि में अपनी शायरी सुनाने का मौका मिल चुका है. उनके इंटरव्यू और शायरी भारत और पाकिस्तान के प्रमुख अखबारों और पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती है। दोनों मुल्कों के टी वी पर भी उन्हें चाव से देखा सुना जाता है। दूरदर्शन पंजाबी ने तो उन पर एक वृत्त चित्र का निर्माण कर उसे प्रदर्शित भी किया है। जम्मू यूनिवर्सिटी ने एक विद्यार्थी को उनके साहित्य पर शोध के लिए 'एम् फिल'की डिग्री प्रदान की है।

किसी के बस में कहाँ था कि आग से खेले 
मिरे क़रीब कोई इक मिरे सिवा न गया 

मैं एक फूल की वुसअत में रह के जी लेता 
मगर हवा ने पुकारा तो फिर रहा न गया 
वुसअत =फैलाव 

था मेरे गिर्द बहुत शोर मेरे होने का 
मैं जब तलक तेरी खामोशियों में आ न गया 

शाद साहब को उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए जो पुरूस्कार मिले हैं अगर उनकी गिनती की जाय तो ये पोस्ट छोटी पड़ जाएगी सारे तो नहीं लेकिन कुछ चुनिंदा पुरूस्कार इस तरह हैं नार्थ अमेरिका की अंजुमन-ऐ-तरक्की द्वारा पोएट ऑफ दी ईयर अवॉर्ड ,अमेरिकन इस्लामिक कांग्रेस अवार्ड ,हसरत मोहानी अवॉर्ड पकिस्तान ,जश्ने अदब ऐज़ाज़ अवॉर्ड श्री गोपी चंद नारंग द्वारा,लोक लिखारी अवॉर्ड पंजाब ,और उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा दिया गया 'यश भारती'अवॉर्ड।

उसी वुसअत से जिसके पार जाना गैर मुमकिन था 
मैं आगे बढ़ गया हद्दे-नज़र से मश्विरा करके 
वुसअत = फैलाव 

मसाइल ज़िन्दगी के खुद ब खुद आसान हो जाएँ 
कभी देखो किसी आशुफ्ता सर से मश्विरा करके 
मसाइल =समस्या , आशुफ्ता सर =पागल, सिरफिरा 

जवाँ बच्चों की अपनी ज़िन्दगी है उनसे क्या शिकवा 
जुदा होते हैं क्या पत्ते शजर से मश्विरा करके 

"शहर के शोर से जुदा"में शाद साहब की लगभग 90 ग़ज़लें संग्रहित हैं , एनीबुक के पराग अग्रवाल ने गागर में सागर भरने का प्रयास किया है जिसमें वो बहुत हद तक क़ामयाब भी हुए हैं. शाद साहब के कलाम को किसी भी एक किताब में समेटा ही नहीं जा सकता ,इस किताब में पराग साहब ने ग़ज़लों ने बाद उनकी कुछ और ग़ज़लों के फुटकर शेर भी प्रकाशित किये हैं जिनमें से अधिकतर उनकी पहचान बन चुके हैं। किताब में मुश्किल उर्दू लफ़्ज़ों का हिंदी में अर्थ न देना आम पाठक को अखर सकता है, हो सकता है कि अगले संस्करण में इस कमी को प्रकाशक द्वारा पूरा लिया जाय।
इस किताब की प्राप्ति के लिए आप पराग को उनके मोबाइल 9971698930 पर संपर्क करें और शाद साहब को, जो अब जालंधर रहते हैं, उनके मोबाइल 09872011882 पर संपर्क कर दिल से बधाई दें। वैसे ये किताब अमेज़न पर भी उपलब्ध है

आईये आपको चलते चलते खुशबीर साहब के कुछ ऐसे शेर पढ़वाता हूँ जो उनकी पहचान बन चुके हैं :-

मिरी मर्ज़ी के मुझको रंग देदे 
तो फिर तस्वीर मेरी ज़िम्मेवारी 
*** 
कैसी बेरंगियों से गुज़रा हूँ 
ज़िन्दगी तुझमें रंग भरते हुए 
*** 
थकन जो जिस्म की होती उतार भी लेते 
तमाम रूह थका दी है इस सफर ने तो 
*** 
तुमने इक बात कही दिल पे क़यामत टूटी 
इक शरर कम तो नहीं आग लगाने के लिए 
*** 
मुठ्ठी में किर्चियों को ज़रा देर भींच लो 
फिर उसके बाद पूछना कैसे जिया हूँ मैं 
*** 
ये तेरा ताज नहीं है हमारी पगड़ी है 
ये सर के साथ ही उतरेगी सर का हिस्सा है

अगर भीग जाने की चाहत नहीं है

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"आया है मुझे फिर याद वो ज़ालिम ....गुज़रा ज़माना ब्लॉग्गिंग का " --- मैं तो ब्लॉग्गिंग से गया ही नहीं, बस ये गाना गाता रहा "तेरा पीछा न मैं छोडूंगा सोनिये --भेज दे चाहे जेल में"कुछ हलचल फिर से दिखाई दे रही है आज ब्लॉग्गिंग पर कितने दिन रहेगी कोई नहीं जानता --जैसे अच्छे दिन कब आएंगे कोई नहीं जानता। अब आ ही गए हैं तो एक पुरानी सी ग़ज़ल को धो पौंछ कर फिर से पेश कर रहा हूँ , पढ़ कर जो टिपियाये उसका भला और जो ना टिपियाये उसका भी भला।




नहीं है अरे ये बग़ावत नहीं है 
मुझे सर झुकाने की आदत नहीं है 

छुपाये हुए हैं वही लोग खंजर 
जो कहते किसी से अदावत नहीं है 

करूँ क्या परों का अगर इनसे मुझको 
फ़लक़ नापने की इज़ाज़त नहीं है 

इसी का नया नाम जम्हूरियत है 
यहाँ सर किसी का सलामत नहीं है 

तुम्हारे दिए ज़ख्म गर मैं भुला दूँ 
अमानत में क्या ये खयानत नहीं है 

अकेले नहीं तुम मियां इस जहाँ में 
किसे ज़िन्दगी से शिकायत नहीं है 

घटाओं का 'नीरज'भला क्या करोगे 
अगर भीग जाने की चाहत नहीं है

किताबों की दुनिया -132

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अमिताभ बच्चन की एक पुरानी फिल्म "नसीब"का ये गाना शायद नयी पीढ़ी ने न सुना हो लेकिन हम जैसे पुराने लोग इसे अब भी कभी कभी गुनगुना लेते हैं "ज़िन्दगी इम्तिहान लेती है...."ये गाना महज़ गाना नहीं एक सच्चाई है , दरअसल सच तो ये है कि ज़िन्दगी हर घड़ी इम्तिहान लेती है और मजे की बात ये है कि ये इम्तिहान सब के लिए एक सा नहीं होता ,किसी को बहुत सरल पेपर मिलता है तो किसी की किस्मत में हमेशा कठिन पेपर ही आता है। सरल पेपर वाले खुश होते हैं और कठिन पेपर वाले इम्तिहान में पास होने के तनाव में रहते हैं। लेकिन... लेकिन.... लेकिन.... कुछ लोग ज़िन्दगी के इम्तिहान में पास फेल की चिंता किये बगैर बैठते हैं और पास या फेल दोनों स्थितियों में प्रसन्न रहते हैं , ज़ाहिर सी बात है ऐसे लोग विरले ही होते हैं।

लोग हमसे पूछते हैं साथ क्या ले जाएंगे 
हाथ ख़ाली आए थे भर कर दुआ ले जाएंगे 

हाँ, बग़ावत भी करेंगे ज़िन्दगी के वास्ते 
इस मुहीम में सर हथेली पर कटा ले जाएंगे

है बहुत कुछ ख़ुल्द में, मुमकिन हुआ तो देखिये 
वापसी में साथ अपने इक ख़ुदा ले जाएंगे 
ख़ुल्द =स्वर्ग 

ख़ुल्द से अपने साथ इक खुदा को ले जाने वाले और ज़िन्दगी के इम्तिहान में पास फेल की चिंता किये बगैर हर स्थिति में मस्त रहने वाले हमारे आज के लाजवाब शायर हैं जनाब 'सुरेश स्वप्निल'साहब, लाजवाब इसलिए क्यूंकि इनकी शायरी मुझे लाजवाब लगी, उन्ही की एक छोटी सी पेपर बैक में "दखल प्रकाशन , पड़पड़ गंज दिल्ली"से छपी ग़ज़ल की किताब "सलीब तय है"की चर्चा आज हम करेंगे।


 मिट गयी तहज़ीब जबसे क़ैस-औ-फ़रहाद की 
रोज करते-तोड़ते हैं लोग वादा इश्क का 

कुछ बहारों की अना तो कुछ गुरुरे-बागबां 
आशिके-गुलशन सजाते हैं जनाज़ा इश्क का 

साफ़ कहिये आपको अब रास हम आते नहीं 
क्या ज़रूरी है किया जाए दिखावा इश्क का 

अगर कहूं कि मैं सुरेश जी को जानता हूँ तो ये बात झूठ होगी, मैं ही क्या मेरे बहुत से परिचित जो दिन रात शायरी ओढ़ते बिछाते हैं भी सुरेश जी के बारे में पूछने पर चुप्पी साध गए। ग़ज़ल के बड़े बड़े मठाधीश भी उनका नाम सुन कर बगलें झांकते नज़र आये , भला हो मेरी आदत का जिसके तहत मैं अनजान शायरों की किताब उठा कर उलटता पलटता हूँ मुझे ये किताब इसी साल के विश्व पुस्तक मेले दिल्ली में दिखाई दी जिसे मैंने उल्टा पलटा और खरीद लिया।।
उन्हें कोई जाने भी कैसे ? अत्यधिक संकोची स्वभाव के सुरेश जी को अपने आपको बेचने की कला शायद आती नहीं, तभी वो कहते हैं की "मुशायरों-कवि सम्मेलनों में लोग न बुलाते हैं, न मैं जाता हूं I "फेसबुक पर उनकी रचनाएँ और विचार जरूर पढ़ने को मिल जाते हैं।

वो आज शहंशाह सही, हम भी क्या करें 
होता नहीं है इश्क हमें ताज़दार से 

अल्लाह से कहें कि कहें आईने से हम 
उम्मीद नहीं और किसी ग़म-गुसार से 

आएँगे तिरि ख़ुल्द भी देखेंगे किसी दिन 
फ़ुर्सत कभी मिले जो ग़मे-रोज़गार से 

10 मार्च 1958 को झाँसी उत्तर प्रदेश में जन्में सुरेश साहब को ग़मे-रोज़गार से कभी फ़ुर्सत नहीं मिली ,रोज़ी-रोटी के लिए पहला जतन उन्होंने महज़ 5 (पांच) साल की उम्र में फुटपाथ पर बैठ कर भुट्टे बेचने से किया।सुरेश जी उन लोगों में शुमार रहे जिनको ज़िन्दगी ने इम्तिहान में कभी आसान सवाल नहीं दिए। उनकी क्षमताओं और धैर्य की हर पल परीक्षा ली। थोड़ा होश सँभालने पर कुछ दिन एक बैंक की केंटीन में लोगों को पानी चाय नमकीन बिस्कुट आदि पकड़ाने वाले छोटू की नौकरी की। बारह साल के सुरेश ने अपने से छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने के काम से किसी तरह गुज़ारा किया। इन सब अभावों के बावजूद उनकी आगे पढ़ते रहने की ललक कम नहीं हुई।

हम जरा और झुक गए होते 
अर्श के मोल बिक गए होते 

साथ देते तिरि हुकूमत का 
तो बहुत दूर तक गए होते 

राह की मुश्किलें गिनी होतीं 
सोचते और थक गए होते 

सच में सुरेश जी ने पीछे मुड़ कर देखा ही नहीं ,राह की मुश्किलों को याद भी नहीं रखा और आगे बढ़ते रहे। सोलह साल की उम्र में उन्होंने पत्रकारिता क्षेत्र का दामन थामा और 19 वर्ष की अवस्था में भोपाल के एक निजी विद्यालय में शिक्षक की नौकरी के साथ साथ सब्ज़ी और अखबार भी बेचे। ये सब करते हुए वो लगातार पढ़ते रहे और उन्होंने हिंदी साहित्य में एम्.ऐ के अलावा अर्थ शास्त्र में भी एम्.ऐ किया। जब 20 वर्ष के हुए तो एक बैंक में क्लर्की करना शुरू किया लेकिन उनका मन वहां रमा नहीं , जैसे तैसे लगभग दस साल वहां गुज़ारे और फिर एक दिन बैंक की नौकरी को राम राम बोल कर 1989 में पूना फिल्म इंस्टीट्यूट में निर्देशन का कोर्स करने चले गए।

तहज़ीब तिरे शह्र से कुछ दूर रुक गयी 
मिलते हैं लोग रस्म-अदाई के वास्ते 

अच्छे दिनों से क़ब्ल हमें अक़्ल आ गयी 
कासा मँगा लिया है गदाई के वास्ते 
क़ब्ल=पहले ,कासा=भिक्षा पात्र , गदाई =भिक्षा-वृत्ति 

फ़रमाने-शाह है कि सर-ब-सज्द सब रहें 
वो कत्ल कर रहे हैं भलाई के वास्ते 
सर-ब-सज्द =नतमस्तक 

रिश्वत से मुअज़्जिन की जिन्हें नौकरी मिली 
देते हैं अज़ाँ नेक कमाई के वास्ते 
मुअज़्जिन=अज़ान देने वाला 

विचारों से वामपंथी,नास्तिक और घोर अराजकतावादी सुरेश साहब ने कुछ समय पूना फिल्म संसथान में फिल्म शोध अधिकारी की नौकरी की अचानक नौकरी शब्द से मोह भांग हो गया। वो अपने बारे में कहते हैं कि "मैं एक बेहद मामूली इंसान हूं, किसी भी आम मज़दूर की तरह I फ़िलहाल, अनुवाद से रोज़ी-रोटी चला रहा हूं। "
लेखन उनका शौक है ,अभिव्यक्ति का माध्यम है । उन्होंने अब तक लगभग 300 कवितायेँ 50 के करीब व्यंग आलेख, कुछ कहानियां और तीन चार नाटक लिखे हैं। उन्होंने पहली ग़ज़ल 1975 में लिखी,बाद में 1996 में उर्दू ग़ज़लगोई की तरफ़ तवज्जो देना शुरू किया . ब्लॉग 'साझा आसमान' 2012 में और 'साझी धरती'उसके कुछ समय बाद लिखना शुरू किया.
"सलीब तय है"उनका पहला ग़ज़ल संग्रह है जिसमें उनकी मुख्य रूप से सन 2013 -14 में लिखी ग़ज़लें संगृहीत हैं।

मुश्किलें दर मुश्किलें आती रहीं 
जिस्म दिल ने कर दिया फ़ौलाद का 

मुफ़लिसी में कर रहा है शायरी 
क्या कलेजा है दिल-बर्बाद का 

वक्त मुंसिफ है, इसे मत छेड़िये 
सर कटेगा एक दिन जल्लाद का 

उनकी शायरी में वामपंथी तेवर बहुत उभर कर सामने आते हैं , व्यवस्था से उनकी सीधी टकराने की प्रवृति पढ़ने वाले को प्रभावित कर जाती है। इस किताब की लगभग 90 ग़ज़लों में से अधिकांश छोटी बहर में हैं और बहुत असरदार हैं. आज के हालात की नुमाइंदगी भी उनकी ग़ज़लें बहुत बेलौस अंदाज़ में करती हैं।

हो बात एक दिन की तो झेल लें जिगर पर 
जुल्मो-सितम ख़ुदा के दस्तूर हो न जाएँ 

सीरत से तरबियत से हैं आदतन लुटेरे 
ये रहनुमा वतन के नासूर हो न जाएँ 

अशआर पर हमारे सरकार की नज़र है 
सच बोल कर किसी दिन मंसूर हो न जाएँ 

जुझारू प्रवृति के सुरेश जी अपने बारे में आगे कहते हैं "अपनी रचनाओं के प्रसार-प्रचार के लिए कुछ नहीं करता I मित्र गण अपने पत्र-पत्रिकाओं में मेरे ब्लॉग्स से रचनाएं चुन कर छाप लेते हैं I सूचना आम तौर पर छपने के बाद मिलती है, कई बार कभी नहीं मिलती I "सुरेश जी विलक्षण प्रतिभा के धनी हैं, कविता, कहानियां, नाटक लिखने के अलावा उन्होंने दर्ज़नो नाटकों का निर्देशन किया है और कइयों में अभिनय भी। अभिनय की कार्य-शालाएं भी उन्होंने आयोजित की हैं.

लगो न शाह के मुँह ,दूर रहो हाकिम से 
ज़रा बताएं कि हम क्या करें सलाहों का

ख़्याल नेक नहीं है तिरि अदालत का 
मिज़ाज ठीक नहीं है मिरे गवाहों का 

कहीं बहार न बादे-सबा, न अच्छे दिन 
फ़रेब है हुज़ूर आपकी निगाहों का 

उनके और उनकी शायरी के बारे में मात्र एक पोस्ट में लिखना संभव नहीं। मेरी आप से गुज़ारिश है कि आप उनकी किताब "दख़ल प्रकाशन से ,08375072473पर फोन करके मंगवाएं या सुरेश जी को मोबाइल न.09425624247 पर बधाई देते हुए इसे आसानी से मंगवाने का रास्ता पूछें।
और अब चलते चलते आप उनकी एक ग़ज़ल के कुछ शेर पढ़ते हुए अगली किताब की खोज में निकलने के लिए मुझे इज़ाज़त दें :-

अपने अंदर बच्चा रह 
गुरबानी सा सच्चा रह 

तूफाँ है पतवार उठा
गिर्दाबों से लड़ता रह
गिर्दाबों =भंवर

जिन्सों की महँगाई में 
खुशफ़हमी-सा सस्ता रह 
जिन्सों=वस्तु 

मुफ़लिस है लाचार नहीं 
सजता और सँवरता रह

किताबों की दुनिया - 133

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सिर्फ बातों से ही मैं कितना भरम रक्खूँगा 
सामने आ कि मुझे होश हुआ जाता है 

कुछ तो रफ़्तार भी कछुवे की तरह है अपनी 
और कुछ वक्त भी खरगोश हुआ जाता है 

सोने वाले हमें किस्सा तो सुनाते पूरा 
यार ऐसे कहीं ख़ामोश हुआ जाता है 

जयपुर के लाजवाब शायर जनाब 'लोकेश सिंह 'साहिल'साहब ने मुझसे बातचीत के दौरान एक बार कहा कि "पुराने दौर में अगर 'ऐ नरगिसे मस्ताना ---"या "निगाहे गरामी दुआ है आपकी ---"या "हम हैं मताये कूचा --"जैसे गाने फिल्मों के लिए लिखे गए तो सिर्फ इसलिए क्यूंकि उस वक्त उर्दू मुल्क की ज़बान थी ,सरकारी या गैर सरकारी काम उर्दू में होते थे लोग उर्दू अखबार या रिसाले शौक से पढ़ते थे। आज हालात जुदा हैं आज इस तरह के गाने नहीं लिखे जा सकते क्यूंकि आज उर्दू की तो बात दूर की है लोग ढंग से हिंदी भी नहीं बोल पाते।

दरार और तिरे मेरे दरमियाँ आ जाय 
तिरी तरह जो मिरे मुँह में भी जबाँ आ जाय 

ये और बात कि खुद में सिमट के रहता हूँ 
उठाऊं हाथ तो बाहों में आसमाँ आ जाय 

मिरे पड़ोस में जलती हैं लकड़ियां गीली 
न जाने कब मिरे कमरे में धुआँ आ जाय 

ज्यादातर युवा आज जो ज़बान बोलते हैं वो न उर्दू है न हिंदी और ना ही अंग्रेजी , तभी फ़िल्मी गानों की ही नहीं कविता या शायरी की ज़बान भी बदल गयी है। इसमें कोई बुराई भी नहीं ,भाषा तो सिर्फ आपके ख्याल दूसरों तक प्रभावी रूप से पहुँचाने का माध्यम भर है अगर आप आसान समझी जा सकने वाली ज़बान में बात कहेंगे तो ज्यादा लोगों तक पहुंचेंगे और अगर आप भाषा की शुद्धि या भारी भरकम लफ़्ज़ों को बरतने को ही अहम् मानेंगे तो आपका लिखा या तो आप पढ़ेंगे या फिर आप जैसे मुठ्ठी भर लोग।"

छत दुआ देगी किसी के लिए ज़ीना बन जा 
डूबता देख किसी को तो सफ़ीना बन जा 

ज़िन्दगी देती नहीं सबको सुनहरे मौके 
तुझको अंगूठी मिली है तो नगीना बन जा 

शौक़ खुशबू में नहाने का बहुत है जो तुझे 
आ मिरे जिस्म से मिल मेरा पसीना बन जा 

मैं भी साहिल साहब की बात से सहमत हूँ और ये भी मानता हूँ -जो जरूरी नहीं सभी को मंज़ूर हो --कि सरल सीधी ज़बान में असरदार बात कहना बहुत मुश्किल हुनर है जो उस्तादों की रहनुमाई और सतत साधना से हासिल होता है।भाषा आसान हो और बात ऐसी हो की सुनने पढ़ने वाले के मुंह से अपने आप वाह निकल जाय तो ये सोने में सुहागा जैसा मामला होगा। शायरी में अचानक आये सोशल मिडिया वाले इस विस्फोटक दौर में शायरी किसी सैलाब की तरह सब को अपने आगोश में लिए हुए है। फेसबुक या व्हाट्सअप जहाँ देखो वहीँ शायरी ऐ.के फोर्टी सेवन की बन्दूक से निकली गोलियों की तरह तड़ातड़ लोगों पर दागी जा रही है। ये सुखद स्थिति भी है और दुखद भी। सुखद इसलिए क्यूंकि हमें कुछ बेहतरीन युवा और नामचीन शायरों को आसानी से पढ़ने सुनने का मौका मिल रहा है और दुखद बात -- अभी इसे जाने दीजिये इस पर चर्चा फिर कभी -- आप तो ये शेर पढ़ें : ।

तन-मन डोले, बर्तन बोले, छन-छन करता तेल है पैसा 
घर से बाहर तक की दुनिया जो भी है सब खेल है पैसा 

जेब में आकर आँख दिखाए , मूंछ बढाए , ताव धराये 
लाठी खड़के, गोली तड़के थाना-चौकी-जेल है पैसा 

तेरा है न मेरा है ये सदियों से इक फेरा है ये 
इस स्टेशन उस स्टेशन आती जाती रेल है पैसा 

जो शायर- साहिल साहब की बात को ज़ेहन में रखते हुए- आम बोलचाल की भाषा को अपनी शायरी की ज़बान बनाते हैं वो जल्द मकबूलियत हासिल कर सबके चहेते बन जाते हैं। अगर आपके पास साफ़ सुथरी ज़बान है और ख्यालों में पुख्तगी है तो फिर आपकी तरक्की को कोई नहीं रोक सकता-हमारे आज के शायर सीधी सरल भाषा में असरदार बात करने वालों की फेहरिश्त में आते हैं-- नाम है "शकील आज़मी "जिनकी देवनागरी में मंजुल पब्लिशिंग हाउस भोपाल से प्रकाशित किताब "परों को खोल"की बात हम करेंगे। "शकील"आज अदब और मुशायरों की दुनिया में एक चमकता हुआ नाम है।


हमारे गाँव में पत्थर भी रोया करते थे
यहाँ तो फूल में भी ताज़गी बहुत कम है

जहाँ है प्यास वहां सब गिलास ख़ाली हैं
जहाँ नदी है वहां तिश्नगी बहुत कम है

ये मौसमों का नगर है यहाँ के लोगों में
हवस ज़ियादा है और आशिक़ी बहुत कम है

20 अप्रेल 1971 को सहरिया ,आज़मगढ़ उत्तर प्रदेश में जन्में शकील मुंबई में रहते हैं. मात्र 13 साल की उम्र में अपनी पहली ग़ज़ल कहने वाले शकील ने अपना पहला मुशायरा जावेद अख्तर ,निदा फ़ाज़ली और बशीर बद्र जैसे दिग्गज शायरों के साथ सूरत में पढ़ा, तब वो महज़ 23 साल के थे। उस मुशायरे में शकील अपने कलाम की सादगी, ताज़गी और कहने के अंदाज़ से छा गए। उसके बाद शकील ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। उनकी शायरी की खुशबू पूरे हिन्दुस्तान से होती हुई सरहद के पार तक पहुँचने लगी। विदेशों से बुलावों का ताँता लग गया। वो जहाँ जहाँ गए वहीँ के लोगों को अपनी शायरी का दीवाना बना दिया। ये सिलसिला बदस्तूर जारी है। कैफ़ी आज़मी साहब का ये बयान काबिले गौर है "शकील वहां से शायरी शुरू कर रहे हैं जहाँ पहुँच कर मेरी शायरी दम तोड़ने वाली है। उनकी शायरी में जो ताज़ाकारी है उसने खास तौर से मुझे मुतास्सिर किया है "

मैं अकेला कई लोगों से लड़ नहीं सकता 
इसलिए खुद से झगड़ना मिरी मजबूरी है 

वरना मर जाएगा बच्चा ही मिरे अन्दर का 
तितलियाँ रोज पकड़ना मिरी मजबूरी है 

कहाँ मिटटी का दिया और कहाँ तेज़ हवा 
जलते रहना है तो लड़ना मिरी मजबूरी है 

उर्दू के बहुत बड़े स्कॉलर "गोपी चंद नारंग"साहब ने कहा है कि "शकील आज़मी के यहाँ अहसास की जो आग नज़र आती है वो नयी नस्ल के बहुत कम शायरों यहाँ मिलती है "शकील साहब की उर्दू में "धूप दरिया" (1996 ), "ऐश ट्रे" (2000 ), "रास्ता बुलाता है "(2005 ), "ख़िज़ाँ मौसम रुका हुआ है "(2010), "मिटटी में आसमान"(2012), "पोखर में सिंघाड़े"(2014) किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं , "परों को खोल "देवनागरी में उनका पहला संकलन है। इसमें उनकी लगभग 85 ग़ज़लें ,40 के करीब नज़्में और 20 से अधिक फ़िल्मी अशआर भी संकलित हैं.
शकील की शायरी की छोटी सी बानगी प्रस्तुत करती है ये किताब, जो पाठक को उन्हें और और पढ़ने की प्यास जगा देती है। ये किताब अमेजन पर उपलब्ध है। आप चाहें तो शकील साहब को उनके मोबाईल न 9820277932 पर फोन करके मुबारक बाद देते हुए किताब पाने का आसान रास्ता पूछ सकते हैं।

परों को खोल ज़माना उड़ान देखता है 
ज़मीं पे बैठ के क्या आसमान देखता है 

कनीज़ हो कोई या कोई शाहज़ादी हो 
जो इश्क करता है कब ख़ानदान देखता है 

मैं जब मकान के बाहर क़दम निकलता हूँ 
अजब निगाह से मुझको मकान देखता है 

अपनी शायरी के छोटे से सफर में अब तक शकील साहब ने ढेरों अवार्ड हासिल किये हैं जिनमें गुजरात गौरव अवार्ड गुजरात उर्दू साहित्य अकादमी , कैफ़ी आज़मी अवार्ड , उत्तर प्रदेश उर्दू साहित्य अकादमी अवार्ड, बिहार उर्दू साहित्य अकादमी अवार्ड और महाराष्ट्र उर्दू साहित्य अकादमी अवार्ड उल्लेखनीय हैं। इन अवार्ड्स के साथ जो सबसे बड़ा अवार्ड उन्हें मिला है वो है अपने श्रोताओं और पाठकों का प्यार। वो जहाँ जाते हैं उनके दीवाने हमेशा वहां मौजूद हो जाते हैं।

फूल का शाख़ पे आना भी बुरा लगता है 
तू नहीं है तो ज़माना भी बुरा लगता है 

ऊब जाता हूँ ख़मोशी से भी कुछ देर के बाद 
देर तक शोर मचाना भी बुरा लगता है 

इतना खोया हुआ रहता हूँ ख्यालों में तिरे 
पास मेरे तिरा आना भी बुरा लगता है 

अब बिछुड़ जा कि बहुत देर से हम साथ में हैं 
पेट भर जाए तो खाना भी बुरा लगता है 

लगभग 20 सालों के छोटे से इस अदबी सफर में जो शोहरत शकील को मिली है वो किसी के लिए भी हैरत की बात हो सकती है। उनके प्रति उनके प्रशंशकों की भीड़ का राज़ है उनकी सादा बयानी , इंसानी फितरत और मसाइल से जुड़े उनके अशआर जो सबको अपने से लगते हैं।मजे की बात ये है शोहरत ने उन्हें सबका दोस्त हमदर्द और बेहतरीन इंसान बना दिया है। मुहम्मद अलवी साहब उनके लिए कहते हैं "शकील आज़मी की शायरी में उनका अपना रंग है जो दिल को भाता है ,इस कम उम्र में ये पुख्तगी बहुत कम लोगों को नसीब होती है "
शकील की ग़ज़ल के इन चंद अशआरों को आपकी नज़र कर के मैं अब निकलता हूँ अगली किताब की तलाश में :

आगे परियों का देश हो शायद
दूर तक राह में चमेली है 

अब भी सोते में ऐसा लगता है 
सर के नीचे तिरी हथेली है 

रंग के तजरबे में हमने 'शकील' 
एक तितली की जान ले ली है

किताबों की दुनिया -134

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"बीकानेर" - जिसका नाम लोकप्रिय बनाने में "बीकानेरवाला"के नाम से जगह जगह खुले रेस्टॉरेंट ने अहम् भूमिका निभाई है , राजस्थान का पाकिस्तान की सीमा से लगा एक अलमस्त शहर है। लगभग 8-10 लाख की जनसँख्या वाले बीकानेर शहर को आप शायद इसके स्वादिष्ट रसगुल्ले और चटपटी भुजिया सेव के कारण जानते होंगे लेकिन ये नहीं जानते होंगे कि इसके लगभग 500 साल पुराने इतिहास में एक बार भी साम्प्रदायिक दंगा फ़साद होने की वारदात दर्ज नहीं है। यहाँ के लोग गंगा-जमुनी तहज़ीब की सिर्फ बात ही नहीं करते बल्कि इसे जीते हैं और बड़ी बेफिक्री से अपना जीवन यापन करते हैं । हमारे आज के शायर इसी बीकानेर के निवासी है और गंगा जमुनी तहज़ीब को अपने अशआर में बहुत ख़ूबसूरती से पिरोते हैं :

वो जिनके जलने से हरसू धुआँ-धुआं हो जाय 
चिराग़ ऐसे जहाँ भी जलें, बुझा देना 

तुम्हें लगे कि यहाँ शान्ति हो गई क़ायम 
तो क्या हुआ कोई अफ़वाह फिर उड़ा देना 

ज़रूरत आपको जब भी पड़े उजाले की 
मैं कह रहा हूँ मेरा आशियाँ जला देना 

जिन्हें समझ ही नहीं इम्तिहान लेने की 
'अदीब'उनको कोई इम्तिहान क्या देना 

एक जुलाई 1963 को बीकानेर में जन्में ,जनाब 'ज़ाकिर अदीब"साहब जिनकी किताब "मैं अभी कहाँ बोला"की बात आज हम करेंगे, का नाम मैंने पहले नहीं सुना था। ये किताब मुझे जयपुर के प्रसिद्ध शायर जनाब 'लोकेश साहिल'साहब की निजी लाइब्रेरी में दिखाई दी। एक-आध पृष्ठ पलटने और कुछ अशआर पढ़ने के बाद ही मुझे लगा कि ये किताब मुझे पूरी पढ़नी चाहिए क्यों की इसमें हिंदी के शब्दों का उर्दू के साथ प्रयोग और गहरे भावों को सरलता से अशआरों में ढालने का हुनर अद्भुत लगा।


मुझको अना परस्त वो कहते हैं तो कहें 
क्यों सरफिरों के सामने सर को झुकाऊं मैं 

ले जा रहे हैं इसलिए मुन्सिफ़ के सामने 
मेरी खता नहीं है मगर मान जाऊं मैं 

पहलू में मेरे दिल है ये अहसास है मुझे 
तुम चाहते हो क्यों इसे पत्थर बनाऊं मैं 

मैंने या हो सकता है आपने भी ज़ाकिर भाई का कलाम या नाम न सुना पढ़ा हो लेकिन अपने शहर बीकानेर में उनकी मौजूदगी के बिना किसी नसिश्त या मुशायरे की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अहमद अली खां जो राजस्थान उर्दू अकादमी के संस्थापक सदस्य हैं लिखते हैं कि "ज़ाकिर के निकट अलफ़ाज़ की जोड़-तोड़ या क़ाफ़िया पैमाई का नाम शायरी नहीं है, शायरी को वो अहसासो-ज़ज़्बात की भरपूर तर्जुमानी का बेहतरीन ज़रीआ समझता है, इसके शेरों में इस किस्म के अलफ़ाज़ जा-ब-जा मिलते हैं जो अलामत का काम और मा'नी की लहरें पैदा करते हैं "

उसे न घेर सकेंगे अँधेरे ग़ुरबत के 
हैं प्रज्वलित किसी घर में अगर हुनर के चिराग़ 

हमें भरोसा है इक रोज़ दूर कर देंगे 
तुम्हारे घर के अँधेरे हमारे घर के चिराग 

ये आरज़ू है कि ताज़िन्दगी रहें रोशन 
मेरी दुआओं की देहलीज़ पर असर के चिराग 

ज़माना याद रखेगा उसे हमेशा 'अदीब' 
वतन की राह में जिसने जलाये सर के चिराग

 "तुम्हारे घर के अँधेरे हमारे घर के चिराग "मिसरा अपने आप में कौमी एकता का जबरदस्त सन्देश देता है , जिस तरह इक बेहद अहम् बात को बिना लफ़्फ़ाज़ी के बहुत सरलता से 'ज़ाकिर'साहब ने बयां किया है वो बेजोड़ है।इस बात को कहने में हमारे हुक्मरां घंटो भाषण देते हुए भी असरदार ढंग से अवाम को नहीं कह पाते उसी बात को एक अच्छी शायरी एक मिसरे में कह देती है। ज़ाकिर साहब की शायरी की इस किताब में मुझे में ऐसे कई मिसरे पढ़ने में आये हैं जो सीधे दिल में उतर जाते हैं। भले ही ज़ाकिर भाई आज सोशल मिडिया के जरुरत से ज्यादा प्रचलित दौर में शामिल नहीं हैं क्यूंकि वो फेसबुक या ट्वीटर से कोसों दूर हैं लेकिन फिर भी उनकी शायरी की पहुँच दूर दूर तक है। फूल की खुशबू अपने चाहने वालों तक पहुँचने के लिए फेसबुक व्हाट्स ऐप या टवीटर की मोहताज़ नहीं होती।

इक्क्सीसवीं सदी का बहुत शोर था मगर 
इसमें किसी के चेहरे पे कुछ ताज़गी रही ? 

कांधों से सर गया अरे जाना ही था उसे 
दस्तार बच गई यही ख़ुशक़िस्मती रही 

जुगनू थे तेरी याद के हमराह इस क़दर 
जैसे सफ़र में साथ कोई रौशनी रही 

रक्खूँ न क्यों ख़्याल क़लम के वक़ार का 
अब तक मेरे क़लम से मेरी ज़िन्दगी रही 

 ज़ाकिर भाई ने क़लम के वक़ार का खूब ख़्याल रखा है तभी डा. मोहम्मद हुसैन, जो राजस्थान उर्दू अकादमी के सदस्य हैं उनके बारे में कहते हैं कि "ज़ाकिर बुनियादी तौर पर एक प्रतिरोधी शायर हैं ये प्रतिरोध राजनितिक और सामाजिक स्तर पर की जाने वाली नाइंसाफियों के ख़िलाफ़ अधिक तीव्र है। वो ज़ात के खोल में बंद नहीं हैं बल्कि समाज के दुःख दर्द से सरोकार रखते हैं। ज़ाकिर अगरचे अपनी प्रतिक्रिया को तुरंत अभिव्यक्त करते हैं फिर भी उन्हें शिकायत है कि "मैं अभी कहाँ बोला ", इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि उनके सीने में कैसे-कैसे तूफ़ान अंगड़ाई ले रहे होंगे, जिन्हें वो दबाये बैठे हैं।

जमीं निगल नहीं सकती हमें किसी सूरत 
हमारे सर पे अभी आसमान बाक़ी है 

उड़ान भरने नहीं दे रहा है अब मौसम 
परों में वरना अभी तक उड़ान बाक़ी है 

खुलेंगे राज़ कई और इस अदालत में 
मियां अभी तो हमारा बयान बाक़ी है 

अमीरे- शहर की नींदें उचाटता है "अदीब" 
अभी जो शहर में मेरा मकान बाक़ी है 

 ज़ाकिर भाई को शायरी विरासत में मिली है उनके वालिद जनाब 'रफ़ीक अहमद रफ़ीक साहब बहुत मकबूल शायर थे। जहाँ घुट्टी में मिली शायरी की बदौलत उन्होंने 18 -19 साल की उम्र से ही शेर कहने शुरू कर दिए वहीँ उन्हें जनाब दीन मोहम्मद 'मस्तान'बीकानेरी ,जनाब अहमद अली खां 'मंसूर चुरूवी और जनाब 'शमीम'बीकानेरी साहब जैसे उस्ताद मिले जिन्होंने उन्हें अपने रास्ते से कभी भटकने नहीं दिया, उनकी शायरी में जो लफ्ज़ बरतने का सलीका, नए विचारों को अपने शेरों का हिस्सा बनाने का हुनर, परम्परा का ख़्याल और नए रुझान की झलक दिखाई देती है वो इन्हीं उस्तादों की बदौलत है।

बच्चे नहीं थे घर में तो खामोश था ये घर 
लेकिन वो आये घर में तो घर बोलने लगा 

हमदर्द अपना जान लिया उसको दोस्तो 
कोई मेरे ख़िलाफ़ अगर बोलने लगा 

पतझड़ का दौर था तो वो गुमसुम खड़ा रहा 
फूटी जो कोपलें तो शजर बोलने लगा 

मैं फन के रास्ते पे था चुपचाप अग्रसर 
फिर यूँ हुआ कि मेरा हुनर बोलने लगा 

ज़ाकिर साहब के इसी हुनर का एहतराम करते हुए बीकानेर जिला प्रशासन ने उन्हें 2002 के स्वतंत्रता दिवस पर सम्मानित किया और 2011 के गणत्रंत्र दिवस पर नगर निगम बीकानेर ने उन्हें सम्मानित किया। ज़ाकिर साहब राजस्थान उर्दू अकादमी के सदस्य हैं , मस्तान अकेडमी बीकानेर के संस्थापक सदस्य हैं , कमेटी बज़्मे-मुसलमा, बीकानेर के कन्वीनर और समवेत बीकानेर संयुक्त सचिव हैं। माध्यमिक शिक्षा निदेशालय राज. बीकानेर में कार्यरत ज़ाकिर भाई बीकानेर की साहित्यिक विधियों की जान हैं. अपनी भावनाओं और एहसास को सच्चाई और ईमानदारी के साथ शेरों में ढाल कर लोगों तक पहुँचाने में सतत प्रयत्नशील रहते हैं।

अभी से किसलिए हंगामा हो गया बरपा 
हिले न लब ही मेरे मैं अभी कहाँ बोला 

जब अपने चेहरे को देखा है उसने हैरत से 
तब आईना जो बज़ाहिर है बेज़बाँ, बोला 

अमीरे-शहर की अपनी ज़बान क्या थी ''अदीब" 
वो जब भी बोला किसी ग़ैर की ज़बां बोला 

 "मैं अभी कहाँ बोला "किताब कामेश्वर प्रकाशन बीकानेर ने प्रकाशित की है जिसे आप उनके तेलीवाड़ा चौक ,बीकानेर -334005 पर लिख कर मंगवा सकते हैं या फिर इसे मंगवाने का तरीका ज़ाकिर साहब को उनके फोन न 09461012509 पर बधाई देते हुए पूछ सकते हैं। दिलकश कवर में हार्ड बाउंड वाली इस 80 पृष्ठों वाली किताब में ज़ाकिर साहब की लगभग 65 ग़ज़लें शामिल हैं। अगली किताब की तलाश में निकलने से पहले उनकी एक छोटी बहर की ग़ज़ल के ये शेर आपको पढ़वा देता हूँ :

इक दूजे के दुश्मन हैं 
साया-सहरा, पानी-आग 

सावन की ऋतु आते ही 
हो जाता है पानी आग 

सब्र के छींटे पड़ते ही 
हो गयी पानी पानी आग

किताबों की दुनिया -135

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अच्छे बुरे का मेरे, जमा ख़र्च तुम रखो 
मैं तो जीऊंगा ज़िन्दगी अपने हिसाब से 

आदत सी पड़ न जाय कहीं जीत की मुझे 
सो चाहता हूँ खेलना बाज़ी जनाब से 

दौरे-ख़िज़ाँ का पहरा है गुलशन में चारसू 
कैसे मैं हाल खुशबू का पूछूं गुलाब से 

ऐसा नहीं है कि ये पहली बार हुआ है इस श्रृंखला में ऐसा पहले भी हो चुका है कि जिस शायर की किताब की हम चर्चा करने जा रहे हैं उस शायर के उस्ताद मोहतरम की किताब की चर्चा भी पहले कर चुके हैं। ये बात दोनों, याने उस्ताद और शागिर्द, के लिए बाइसे फ़क्र है। उस्ताद के लिए इसलिए कि उनका शागिर्द इस लायक हो गया है कि दुनिया उसकी शायरी की चर्चा करे और शागिर्द के लिए इसलिए कि उसकी किताब की चर्चा भी वहां हो रही हैं जहाँ उसके उस्ताद मोहतरम की हुई है,एक ही प्लेटफार्म पर। हमारे आज के शायर हैं जनाब 'चन्दर वाहिद'साहब जिनकी किताब 'समय कुम्हार है'की बात हम करेंगे। इनके उस्ताद दिल्ली के जाने माने शायर जनाब 'मंगल नसीम'साहब हैं जिनकी किताब 'तीतरपंखी 'की चर्चा हम पहले कर चुके हैं।


मैंने भूले से छू दिया गुल को 
पत्ती-पत्ती सिसक-सिसक उठ्ठी 

साज़ छेड़ा चटक के गुंचों ने 
ओस पत्तों पे फिर थिरक उठ्ठी 

याद क्या है? दरख़्त पर जैसे 
नन्हीं चिड़िया कोई चहक उठ्ठी 

याद को नन्हीं चिड़िया की चहक सा बताने वाले जनाब चन्दर वाहिद साहब का जन्म गाँव बादशाहपुर, जो उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड जिले में पड़ता है, में 5 अगस्त 1958 को हुआ। चन्दर साहब ने अपने शेरी सफर की शुरुआत सन 1996 में याने ज़िन्दगी के लगभग 38 वसंत देख चुकने के बाद की। इस से पहले उनके अहसास और तसव्वुरात ग़ज़ल की शक्ल में बाहर आने को बैचैन तो रहते थे लेकिन रास्ता नहीं मिल रहा था। चन्दर साहब को एक मुकम्मल उस्ताद की तलाश थी जो उनका हाथ पकड़ कर शायरी के जोख़िम भरे टेड़े मेढे रास्तों पर चलना सिखाये। उनकी ये तलाश उस्तादे मोहतरम जनाब मंगल नसीम साहब पर जा कर ख़तम हुई। उस्ताद ने हाथ क्या पकड़ा चन्दर साहब के दिल में घुमड़ते शायरी के बादल अशआर की शक्ल अख्तियार कर बरसने लगे।

झिलमिलाये जैसे लहरों पर किरन 
आस लेती दिल में यूँ अंगड़ाइयां 

पलक की पाज़ेब के घुँघरू थे अश्क 
टूटने पर बज उठी शहनाइयाँ 

जब नगर की धूप में जलना पड़ा 
याद आयी गाँव की अमराइयाँ 

'टूटने पर बज उठी शहनाइयां/ जैसे मिसरे बिना उस्ताद की रहनुमाई के दिमाग में नहीं आ सकते। ग़ज़ल के कारवां का हिस्सा होने की इजाज़त देते हुए मंगल साहब ने वाहिद साहब को सफर के तौर तरीके समझते हुए कहा था कि 'मेरे अज़ीज़ ग़ज़ल कहना आग के दरिया से गुज़ारना है. सब कुछ फूंक सकने का हौसला रखते हो तो आओ मेरे साथ वर्ना वापस लौट जाओ कि अनगिनत खुशियां तुम्हारी राह तकती हैं। वाहिद साहब ज़ाहिर सी बात है वापस लौटने के लिए तो मंगल साहब के पास आये नहीं थे सो बस उनके घुटनों पर सर रख कर अपना सब कुछ उन पर न्योछावर कर दिया। ऐसे धुनि शागिर्द को पा कर उस्ताद को कितनी ख़ुशी मिलती है इसका अंदाज़ा भी नहीं लगाया जा सकता।

समय कुम्हार है जो चाक पर नचाता है 
ये ज़िन्दगी तो सुराही का नाचना भर है 

जो खाली हाथ है आया वो क्या खरीदेगा 
उसे तो दुनिया के मेले को देखना भर है 

ग़मों की आग से खुद को ज़रा बचा रखना 
कि जिसमें रहते हो 'वाहिद'वो मोम का घर है 

ग़मों की आग से खुद को बचाये रखने का संदेशा देने वाले चन्दर साहब खुद उसकी लपटों में घिर गए और उनका मोम का घर पिघलने लगा। हुआ यूँ कि एक दिन सुबह जब बिस्तर से उठने लगे तो उन्होंने पाया कि उनका आधा जिस्म बेहरकत हो चुका है। पैरालिसिस के इस अटैक ने उनकी ग़ज़ल यात्रा को विराम सा लगा दिया। लगभग ढेड़ दो बरस के इस यातना भरे दौर का उन्होंने दवाओं ,दुआओं और दोस्तों रिश्तेदारों की सेवाओं के साथ डट कर मुकाबला किया और आखिर कार विजयी हुए। ये अलग बात है कि ज़िन्दगी वैसी नहीं रही जैसी फ़ाज़िल से पहले थी।

सूरत उतर न जाय कहीं माहताब की 
कह दो कि बात झूठ है उनके शबाब की 

मंज़िल क़रीब आई तो भटका दिया गया 
इन रहबरों ने ज़िन्दगी मेरी ख़राब की 

हालात ने बिगाड़ दी 'वाहिद'की शक्ल यूँ 
जैसे ख़राब जिल्द हो अच्छी किताब की 

'समय कुम्हार है'का प्रकाशन 2001 में हुआ था याने आज से 16 साल पहले लेकिन इसके अशआर आज भी उतने ही ताज़ा हैं जितने कि ये इन्हें लिखते वक्त थे। शायरी वही ज़िंदा रहती है जो इंसान की जद्दोजहद की उसके गुण-दोष की, ऊंच-नीच की उसकी फ़िक्र की नुमाइंदगी करे. पढ़ने वाले और सुनने वाले को उसमें अपना अक्स नज़र आना चाहिए । आज सदियों बाद भी तभी ग़ालिब को वैसे ही पसंद किया जाता है बल्कि ज्यादा पसंद किया जाता है जितना कि उसके वक्त में उसे पसंद किया गया होगा।

लौट आ जाती है पिंजरे में पलट कर बुलबुल 
ये जिस्मों-जां के भी क्या खूब ताने-बाने हैं 

बेबसी प्यास तड़प दर्द घुटन और थकन 
मैं जो टूटा तो सभी मोती बिखर जाने हैं 

खुद से हर रोज़ मैं लड़ता हूँ सुलह करता हूँ 
मेरे अशआर इसी जंग के अफ़साने हैं 

हिंदी और उर्दू दोनों लिपियों में याने एक पृष्ठ पर हिंदी और सामने वाले पर उर्दू में इस किताब को अमृत प्रकाशन शाहदरा दिल्ली ने प्रकाशित किया है जिसमें वाहिद साहब की लगभग 40 ग़ज़लें संगृहीत हैं ।आप अमृत प्रकाशन से 011 -223254568 पर बात करके किताब प्राप्त करने का तरीका पूछ सकते हैं। बेहतर तो ये रहेगा कि आप चन्दर वाहिद साहब को उनके मोबाइल न 09891782782 पर संपर्क करें और उन्हें उनकी लाजवाब शायरी पर बधाई दें और उनके उस्ताद मोहतरम जनाब मंगल नसीम साहब से उनके मोबाइल न 9968060733संपर्क कर उनसे किताब प्राप्ति का रास्ता पूछें। चलते चलते उनकी एक ग़ज़ल के चंद शेर और पढ़वाता चलता हूँ :-

टूटे दीपक को हटा मत तू मिरे आगे से 
मेरी नज़रों को उजाले का भरम रहने दे 

अक्स अपना कोई देखे है मेरे अश्कों में 
और कुछ देर मिरी आँखों को नम रहने दे 

शाइरे-वक़्त हक़ीक़त में वही होता है 
अपने अशआर को जो आम फ़हम रहने दे

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धुंध ठिठुरन चाय स्वेटर और तुम 
मुझको तो इस रुत का चस्का लग गया 

किस तरह पीछा छुड़ाऊं चाँद से 
क्यों मिरे पीछे ये गुंडा लग गया 

बस अभी ही नींद आई है हमें 
और साज़िश में सवेरा लग गया 

उत्तर प्रदेश का एक जिला है गाज़ीपुर, हो सकता है आप जानते हों लेकिन शायद ये नहीं जानते होंगे कि वहां दुनिया का सबसे बड़ा लीगली अफीम बनाने का कारखाना है जो लगभग दो सो साल पुराना है. आप सोचते होंगे कि ग़ाज़ीपुर तक की बात तो चलो ठीक थी पर ये अफ़ीम वाली बात का क्या औचित्य है ? ठहरिये हम बताते हैं, बात दरअसल ये है कि हमारे आज के शायर की पैदाइश गाज़ीपुर की है और उनकी शायरी अफ़ीम के नशे जैसी है , जो एक बार लग जाय तो छूटता नहीं। हमारे आज के शायर की शायरी में ये तासीर घुट्टी में वहां से मिली मिट्टी से आयी है या किसी और वजह से ये शोध का विषय हो सकता है पर इस में कोई संदेह नहीं कि पाठक पर इसका नशा जब चढ़ता है तो फिर उतरने का नाम नहीं लेता।

खुली आँखें तो देखा हर तरफ थीं 
हमारे ख़्वाब से निकली हुई तुम 

तुम्हारे बाद मेरे साथ होगी 
तुम्हारे लम्स में महकी हुई तुम 

है बाहर तेज़ बारिश और घर में 
घटाओं की तरह छाई हुई तुम 

मैं अपनी आग में 'आतिश'घिरा था 
वहीँ नज़दीक थी पिघली हुई तुम 

अपने अशआरों में चाँद ,शाम ,याद, नदी ,शब ,नींद, ख़्वाब,सहर, समंदर , साहिल ,झील ,सूरज और दिल आदि लफ़्ज़ों से तिलिस्म रचने वाले हमारे आज के युवा शायर का नाम है स्वप्निल तिवारी 'आतिश'जिनके लिए उनके उस्ताद मोहतरम जनाब तुफैल चतुर्वेदी ने एक जगह लिखा है "स्वप्निल आपकी ग़ज़ल पढ़ना लफ़्ज़ों की पेन्टिंग देखने का ख़ूबसूरत काम है विद्यापति ने भगवान कृष्ण के लिये अपनी एक कविता में कहा है ‘तोहि सरिस तोहि माधव’ यानी माधव तुम्हारी उपमा केवल तुमसे ही दी जा सकती है। वही आपकी ग़ज़ल का हाल है आप कहां से लाते हैं ये लफ़्ज़ ? ? ? ? ?आपके शेर शब्द-चित्र बनाते हैं। सीधे-साधे लफ़्ज़, छोटे-छोटे बिम्ब मगर एक बड़े कोलाज को शक्ल देते हुए।“
आईये हाल ही में प्रकाशित हुई उनकी किताब "चाँद डिनर पर बैठा है"की बात करते हैं जिसने शायरी की दुनिया में धूम मचा दी।


सुना है जलाये गए शहर कल 
धुआं तक नहीं लेकिन अखबार में 

कहानी वहां है जहाँ मौत ही 
नई जान डालेगी किरदार में 

अब इनके लिए आँखें पैदा करो 
नए ख़्वाब आये हैं बाजार में 

संभल कर मिरि नींद को छू सहर 
हैं सपने इसी कांच के जार में 

लाजवाब शायर और बेहतरीन समीक्षक जनाब मयंक अवस्थी साहब ने उनके बारे में टिप्पणी करते हुए 'लफ़्ज़'के पोर्टल पर लिखा था कि "एक चीज़ काबिले गौर ये भी है कि बेहद जटिल विचारों को भी 'स्वप्निल'की भाषा सुलझा कर आसान कर देती है यही हुनर यही शीशागरी बार बार मुंह से वाह वाह निकलवाती है और इसी तस्वीरी सिफत के लिये ज़माना उनका मुरीद है सबसे कमाल की बात तो ये है कि स्वप्निल के अशार मे हताशा भी धनक रंग मिलती है.

देखते रहने से ही शायद ख़ुदा इक शक्ल ले 
सोचता हूँ और ख़ला में देखता रहता हूँ मैं 

चुन के रख लेता हूँ वक्फ़ा भीगने का मैं तेरे 
बारिशों के बाद उसमें भीगता रहता हूँ मैं 

देखकर तुझको पिघलते हैं ग़मों के ग्लेशियर 
सामने हो तू तो आँखों तक भरा रहता हूँ मैं 

वज्ह अगले पल ही कुछ से और कुछ हो जाती है 
क्या बताऊँ किसलिए इतना डरा रहता हूँ मैं 

मयंक अवस्थी जी आगे लिखते हैं कि "स्वप्निल कुदरत के जब भी नज़दीक जाते हैं बहुत उजली और बहुत खूबसूरत तस्वीर शेर मे ले कर आते हैं !! गज़लो की अगर मिस इण्डिया प्रतियोगिता हो तो स्वप्निल की ग़ज़लें निश्चित रूप से ये क्राउन पहनेगी !! कहाँ कहाँ के मनाज़िर हैं स्वप्निल के पास !!! और कितने शेडस हैं ??!! सभी एक से बढकर एक !!यह तय है कि लफ़्ज़ स्वप्निल के इख़्तियार में रहते हैं और वो उनसे जैसा चाहते हैं वैसा मआनी निकाल लेते हैं – यह हुनर और फन ईश्वरीय देन भी है और रियाज़ ने इसमें इज़ाफा किया है . उनके खयाल नए नहीं हैं लेकिन जिस खूबी से वो कहते हैं वो काबिले तारीफ है "

शाम होते ही उदासी चल पड़ी चुनने उन्हें 
दिन के साहिल पर पड़ी हैं ग़म की मारी मछलियां 

दिल के दरिया में जो आयी शाम चारा फेंकने 
सतह पर आने लगीं यादों की सारी मछलियां 

इक जज़ीरा बस वही सारे समंदर में है पर 
ताक में बैठी हुई हैं वां शिकारी मछलियां 

6 अक्टूबर 1985 को जन्में मंझले कद और गठीले बदन के स्वप्निल ने बलिया के ऐ एस बी एस इंटर कॉलेज से स्कूलिंग करने के बाद आई. एम्. एस. गाज़ियाबाद से बी एस सी बॉयोटेक की डिग्री हासिल की लेकिन इस क्षेत्र में काम करने की रूचि उनमें पैदा नहीं हुई। नौकरी के बारे उन्होंने सोचा नहीं और अपने दिल की आवाज़ पर वो काम करने लगे जो उन्हें बहुत प्रिय है याने स्वतंत्र लेखन का। फक्कड़ प्रकृति के स्वप्निल पहली नज़र में ही हर किसी को अपने से लगते हैं उनकी चश्मे से झांकती आँखें वो मंज़र देख लेती हैं जो आम इंसान को दिखाई ही नहीं देते। मैं उनके बारे में ज्यादा नहीं कहूंगा क्यूंकि वो मुझे बहुत प्रिय हैं और उनके बारे में लिखते वक्त मैं अतिरेक से शायद बच न पाऊं इसलिए आईये उनके वो शेर पढ़ते हैं जो उन्हें भीड़ से अलग रख कर स्वप्निल बनाते हैं :

उसका मुझसे यूँ ही लड़ लेना और 
घर की चीजों से शिकायत करना 

इस से पहले के उसे देखो तुम 
ठीक से सीख लो हैरत करना 

मेरे ता'वीज़ में जो काग़ज़ है 
उस पे लिखा है 'मुहब्बत'करना 

किताब की भूमिका में प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक विमल चंद्र पांडेय ने लिखा है कि "जिस तारीक वक़्त में स्वप्निल ग़ज़लें कह रहे हैं, मुनासिब ही है कि उनकी ता'वीज़ में रखे कागज़ पर मोहब्बत करने की नसीहत लिखी हुई है। ये कागज़ दरअस्ल शायर का ज़ेहन है जिसमें वो पूरे जहाँ की मोहब्बतें लेकर फिक्रमंद घूम रहे हैं कि कोई बोट ऐसी भी हो जो समंदर को फतह करे। स्वप्निल की भाषा किसी भी तरह के आग्रह और दबाव से मुक्त है और उनकी ग़ज़लें एक शायर की अवाम से गुफ्तगू वाली आमफ़हम भाषा अख्तियार कर हमारे सामने आती है जो बेहद अपनी सी लगती है "

ये वक्त लम्बे दिनों का है सो ये रातें अब 
बढ़ा रही है उदासी ही रातरानी की 

तिरा ख्याल हुआ कैनवस पे मेहमाँ 
कल तमाम रंगों ने मिलजुल के बेज़बानी की 

गुनाहे-इश्क किया और कोई सज़ा न हुई 
जरूर तुम ने सुबूतों से छेड़खानी की 

"चाँद डिनर पर बैठा है"किताब का साइज भी उसमें छपी ग़ज़लों की तरह अलग और दिलकश है "एनीबुक"ने इस किताब को जिसमें स्वप्निल की लगभग 150 से अधिक ग़ज़लें हैं ,बहुत ही आकर्षक अंदाज़ में प्रकाशित किया है। इसके पहले संस्करण के तुरंत बाद दूसरे संस्करण का मन्ज़रे आम पर आना इसकी लोकप्रियता का ठोस प्रमाण है। सबसे पहले ये किताब उर्दू में प्रकाशित हो कर धूम मचा चुकी है इसका हिंदी संस्करण तो बहुत महीनों बाद प्रकाशित हुआ। इसमें छपी लगभग सभी ग़ज़लें ऐसी हैं जिन्हें बार बार पढ़ने का, उनमें डूब जाने का मन करता है, अगर मुझे इस पोस्ट की लम्बाई और आपके कीमती वक्त का ध्यान नहीं होता तो यकीनन उनकी सभी ग़ज़लें आपको यहीं पढ़वा देता।

कोई मौसम हो ये फबता है तुझपर 
तेरा ये पैरहन माँ ने सिया क्या 

नए पत्ते ने पूछा है चमन से 
ख़िज़ाँ का भी यही है रास्ता क्या 

है पुर-असरार तेरी मुस्कराहट 
तिरा ही नाम है मोनालिसा क्या 

जड़ा है मुस्कुराता चाँद इसमें 
तो फिर ये रात है शिव की जटा क्या

'स्वप्निल'और उन जैसे आज के बहुत से युवा शायरों की शायरी ताज़ी हवा के झौंके जैसी है। मेरी गुज़ारिश है कि बुजुर्ग शायरों को उन्हें आज शायरी में हो रहे बदलाव को समझने लिए और नए शायरी सीखने वाले युवाओं को लफ्ज़ बरतने का हुनर सीखने के लिए ,पढ़ना चाहिए। बदलाव जरूरी है वो चाहे ज़िन्दगी में हो चाहे शायरी में। बदलाव बिना साहस और हौंसले के लाया नहीं जा सकता और जिनमें साहस और हौंसले की कमी है वो लीक पर ही चलते रहते हैं बिना अपने पदचिन्ह छोड़े। स्वप्निल और उनके हमराह कई युवा शायर शायरी में बदलाव ला रहे हैं जो काबीले तारीफ़ है।

सूत हैं घर के हर कोने में 
मकड़ी पूरी बुनकर निकली 

ताज़ादम होने को उदासी 
लेकर ग़म का शॉवर निकली 

जब भी चोर मिरे घर आये 
एक हंसी ही ज़ेवर निकली 

 'स्वप्निल' ,जो इनदिनों मुंबई में रहते हुए फिल्मों के लिए स्क्रीनप्ले और गीत लिख रहे हैं ,को सोशल मिडिया से जुड़े लोग तो पढ़ते ही आये हैं अब उनकी किताब आने से वो लोग जो सोशल मिडिया से नहीं जुड़े हैं ,भी उन्हें पढ़ सकते हैं. एक बात तो है कम्यूटर लैपटॉप या मोबाइल पर ग़ज़ल पढ़ने का वो मज़ा नहीं आता जो हाथ में किताब लेकर पढ़ने में आता है। अगर आप को शायरी से जरा सी भी मोहब्बत है तो देर मत कीजिये एनीबुक के पराग अग्रवाल से उनके मोबाइल न 9971698930पर संपर्क कीजिये और किताब हासिल करने का आसान तरीका पूछिए, ये नहीं करना चाहते तो अमेजन से मंगवा लीजिये और हाँ स्वप्निल को उनके मोबाइल न 9425624247पर बधाई देना मत भूलिए। मन तो नहीं कर रहा लेकिन अगली किताब की तलाश में निकलना ही पड़ेगा ,चलते चलते स्वप्निल की पहचान बन चुके उनके ये अशआर पढ़वाता चलता हूँ :-

अक्स मिरा आईने में 
लेकर पत्थर बैठा है 

उसकी नींदों पर इक ख़ाब 
तितली बन कर बैठा है 

रात की टेबल बुक करके 
 चाँद डिनर पर बैठा है

किताबों की दुनिया - 137

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ब्याह तो मेरा हुआ, पर दे रहा था हर कोई 
मेरे दुश्मन को बधाई रात के बारह बजे 

तब हुआ एहसास मुझको हो गयी बेटी जवान 
कंकरी जब घर पे आयी रात के बारह बजे 

और 

कहा था मैंने गंगाजल का लाया बोतल 'रम'की 
अब ढक्कन क्यों लगा रहा है तू उल्लू के पठ्ठे 

अभी तो तेरे पूज्य पिताजी अस्पताल पहुंचे हैं 
अभी से सर क्यों मुंडा रहा है तू उल्लू के पठ्ठे 

बहुत जल्द अपने भारत से होगी दूर गरीबी 
किसको उल्लू बना रहा है तू उल्लू के पठ्ठे 

सामान्य स्तिथि में, मुझे यकीन है कि, ऊपर पोस्ट किये शेर पढ़ कर आपके चेहरे पर मुस्कान जरूर आयी होगी। ये भी हो सकता है कि आपने सोचा हो कि आज "किताबों की दुनिया"में किसी मज़ाहिया ग़ज़लों की किताब का जिक्र होने वाला है। अफ़सोस ऐसा नहीं है , हमारे आज के शायर हिंदुस्तान के मशहूर हास्य कवि जरूर हैं लेकिन उनकी शायरी संजीदा और कुछ अलग से मिज़ाज़ की है। आज भले युवा पीढ़ी में उनका नाम अधिक जाना पहचाना न हो लेकिन कभी कवि सम्मेलनों में उनकी तूती बोलती थी। उनकी कुछ एक हास्य व्यंग से सरोबार ग़ज़लें अलबत्ता इस किताब में आपको पढ़ने को जरूर मिल सकती हैं ,जिसका जिक्र मैं करने वाला हूँ। शायर और उनकी किताब का नाम बताने से पहले आईये मैं आपको उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाता हूँ : 

हमने मांगी थी ज़रा सी रोशनी घर के लिए 
आपने जलती हुई बस्ती के नज़राने दिए 

ज़िन्दगी खुशबू से अब तक इसलिए महरूम है 
हमने जिस्मों को चमन, रूहों को वीराने दिए 

हाथ में तेज़ाब के फ़ाहे थे मरहम की जगह 
दोस्तों ने कब हमारे ज़ख्म मुरझाने दिए 

गंभीर ग़ज़लें कहने वाले हमारे आज के शायर "माणिक वर्मा "को जब लगा कि अनेक उदगार ऐसे भी हैं जिन्हें उनके मन की बेचैनी और तल्ख़ तजुर्बतों को ग़ज़लों के माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सकता तब उन्होंने अपनी दिशा बदल ली और हास्य सृजन करने लगे। हास्य कविताओं के माध्यम उन्होंने अनेक गंभीर सामाजिक समस्याओं, राजनीति की बुराइयों और इंसांन की कमज़ोरियों को उजागर किया। "किताबों की दुनिया "श्रृंखला में चूँकि सिर्फ ग़ज़लों की बात होती है इसलिए हम उनकी किताब "ग़ज़ल मेरी इबादत है"में प्रकाशित ग़ज़लों की ही बात करेंगे.


सिर्फ दिखने के लिए दिखना कोई दिखना नहीं 
आदमी हो तुम अगर तो आदमी बनकर दिखो 

ज़िन्दगी की शक्ल जिसमें टूटकर बिखरे नहीं 
पत्थरों के शहर में वो आईना बनकर दिखो 

आपको महसूस होगी तब हरिक दिल की जलन 
जब किसी धागे-सा जलकर मोम के भीतर दिखो 

मुझे माणिक जी की ग़ज़ल के बारे में कही ये बात सौ प्रतिशत सही लगती है कि "ग़ज़ल कोशिशों का नाम नहीं है ! ग़ज़ल नाम है उस पके हुए फ़ल का जो पत्थरों की चोट से नहीं अपनी मर्ज़ी से अपने आप टपकता है"माणिक जी की ग़ज़लें पढ़ते वक्त उनकी इस बात का हमें ऐतबार होने लगता है। सहज सरल भाषा में किसी अल्हड़ नदी सा बहाव लिए उनकी ग़ज़लें सीधी दिल में उतर जाती हैं। उनकी ग़ज़लों में मुश्किल लफ़्ज़ों का जमावड़ा और घुमावदार दर्शन आपको ढूंढें नहीं मिलेगा।

धूप के पौधे लगा कर लोग अपने बाग़ में 
चाहते हैं गुलमुहर की छाँव रमजानी चचा 

ये भटकते पंछी मुझसे पूछते हैं क्या कहूं 
क्यों कटे बरगद के बूढ़े पाँव रमजानी चचा 

आप कहते हैं किसी के पास भी माचिस नहीं 
जल गया फिर कैसे अपना गाँव रमजानी चचा 

माणिक जी को लेखन विरासत में मिला उनके पिता स्व. प्यारे लाल वर्मा हिंदी के अतिरिक्त उर्दू फ़ारसी और अंग्रेजी के विद्वान ही नहीं बल्कि धार्मिक एवं राष्ट्रिय धारा के प्रखर कवि भी थे लेकिन दुर्भाग्य से माणिक जी जब मात्र छै वर्ष के ही थे तभी उनका देहावसान हो गया। खंडवा में जन्में माणिक जी ने शिक्षण के अतिरिक्त उर्दू की शिक्षा सेठ हारून रशीद साहब से और शायरी की मुकम्मल तालीम उस्ताद जेहन खान 'नूर'से हासिल की। बाद के दिनों में जनाब बशीर बद्र साहब ने भी उनकी रहनुमाई की।

प्रतीक्षा क्यों दधीची की करें हम 
हमारे तन में भी तो हड्डियां हैं 

जलाने हैं कई नफ़रत के रावण 
तुम्हारे पास कितनी तीलियाँ हैं 

हज़ारों इन्कलाब आये हैं लेकिन 
अभी तक झोपडी में सिसकियाँ हैं 

माणिक जी की ग़ज़लें हमें कभी कभी दुष्यंत कुमार और अदम गौंडवी साहब जैसी लगती जरूर हैं लेकिन अगर उन्हें समग्र पढ़ें तो पता लगता है कि उनके पास विषयों की अधिकता है और प्रस्तुति करण में मौलिकता है। उनकी ग़ज़लों में हिंदी अपने स्वाभाविक रूप में नज़र आती है और मुहावरों का प्रयोग भी वो अद्भुत ढंग से करते हैं. बशीर बद्र साहब फरमाते हैं कि "माणिक वर्मा जी की ग़ज़लें पुरानी यादों को ताज़ा करती हैं नए ज़माने की खूबसूरत शायराना तजुर्बों से रची बसी होती है और ऐसी ग़ज़ल बन जाती है जो ग़ज़ल हिंदी -उर्दू के सरमाये इज़ाफ़ा करती है

सूरज हुआ फकीर तुम्हारी ऐसी तैसी 
जुगनू को जागीर तुम्हारी ऐसी तैसी 

झूठे आंसू बने तुम्हारे सच्चे मोती 
हम रोयें तो नीर तुम्हारी ऐसी तैसी 

खाक मुहब्बत करें रोटियों के लाले हैं 
कहाँ के रांझा-हीर तुम्हारी ऐसी तैसी 

जनता का है देश मगर तुमने समझा है 
अब्बा की जागीर तुम्हारी ऐसी तैसी 

दरअसल 'ग़ज़ल मेरी इबादत है 'पारम्परिक ग़ज़लों की किताब से इस मायने में अलग है कि इसमें माणिक जी की ग़ज़लों के अलावा हज़लों और एक आध नज़्मों का भी समावेश है। अगर हम हज़लों की बात करें तो उसपर एक अलग से पोस्ट लिखनी होगी। ग़ज़लों में भी वो बहुत चुटीली भाषा का प्रयोग करते हैं। डायमंड बुक्स द्वारा प्रकाशित इस पेपर बैक में छपी इस किताब को आप अमेजन से ऑन लाइन मंगवा सकते हैं वैसे डायमंड बुक्स की किताबें आपको किसी भी अच्छे बुकस्टोर से आसानी से मिल जाएँगी। गूगल ने माणिक जी तक पहुँचने में मेरा सहयोग नहीं दिया वरना मैं उनका नंबर या पोस्टल अड्रेस आप तक जरूर पहुंचा देता ,हाँ अगर किसी पाठक के पास उनका नंबर हो तो मुझे बता दे मैं उसे पोस्ट में जोड़ दूंगा। आप माणिक जी की लगभग 94 ग़ज़लों और 28 के लगभग हज़लों से सजी इस किताब को पढ़ने की जुगत करें और मैं निकलता हूँ अगली किताब की तलाश में , चलते चलते उनकी एक छोटी बहर की ग़ज़ल के ये शेर आप सब के लिए प्रस्तुत हैं :-

हमें दुनिया का नक्शा मत दिखाओ 
हमारा घर कहाँ है , ये बता दो 

गुलामी का असर बच्चों पे होगा 
ये पिंजरे में रखा पंछी उड़ा दो 

गरीबी देन है परमात्मा की 
जो ये पोथी कहे उसको जला दो 

और अब ये पढ़िए सोचिये मुस्कुराइए और इन शेरो को रोजमर्रा की ज़िन्दगी में मुहावरों की तरह इस्तेमाल करिये।

वो तो चस्का लग गया था जाम का 
वरना मैं भी आदमी था काम का 

हैसियत सड़ियल से बैंगन की नहीं 
पूछता है भाव लंगड़े आम का 

मत करे तू इश्क मुझको देख ले 
एक क्विन्टल से हुआ दस ग्राम का 

हुक्म है सरकार का जल्दी भरो 
आज उद्घाटन है मुक्तिधाम का

किताबों की दुनिया - 138

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मेरा चेहरा वही ,वही हूँ मैं 
बात इतनी है वक्त दुश्मन है 

आ गयी फिर ख़ुशी मिरे दिल में 
ये मेरी शायरी की सौतन है 

चंद कतरे हैं मेरी आँखों में 
मेरा सावन भी कितना निर्धन है 

ये तो इत्तेफ़ाक़ ही है -आप इसे हसीन कहें तो आपकी मर्ज़ी लेकिन ये है इत्तेफ़ाक़ ही। आपको बताऊंगा तो आप भी कहेंगे क्या ग़ज़ब का इत्तेफ़ाक़ है। बताइये आज तारीख़ क्या है ? जी हाँ चौदह अगस्त सोमवार और चौदह अगस्त के दिन याने आज ,मैं जिस शायर की किताब की चर्चा मैं करने वाला हूँ वो भी चौदह अगस्त को पैदा हुए थे ,बात यहीं रुक जाती वहां तक भी ठीक था लेकिन रुकी नहीं आज याने चौदह अगस्त को ख़ाकसार का भी जनम दिन है। यूँ जन्मदिन का जीवन में कोई विशेष महत्त्व नहीं होता ,जिसने जनम लेना है वो आज नहीं तो कल लेगा ही, जनम लेने और जनम देने वाले का इस क्रिया में कोई विशेष योगदान नहीं होता। ये सब प्रकृति के नियमानुसार होता है। पर इस पोस्ट की तिथि का पोस्ट के शायर की जन्म तिथि और ब्लॉग लेखक की जनम तिथि के साथ पड़ना महज एक संजोग है जो पहली बार इस 8 साल पुरानी श्रृंखला में हो रहा है।

इस तथ्यहीन बात को यहीं छोड़ आईये आज उनकी ग़ज़लों की किताब से कुछ और ग़ज़लों के शेर पढ़ते हैं :-

थोड़ी सस्ती है थोड़ी महंगी है 
ज़िन्दगी भी तो खीर टेढ़ी है 

जब लिपटता है चाँद से सूरज 
बर्फ जलती है आग बुझती है 

एक जुगनू बता गया मुझको 
तीरगी उससे खौफ खाती है 

तुझसे बिछुड़ा तो हो गया शायर 
तुझसे बेहतर तेरी जुदाई है 

जुदाई को वस्ल से बेहतर बताने वाले हमारे आज के अलबेले शायर हैं जनाब 'शाहजहाँ 'शाद'साहब जिनकी किताब 'हम'की बात आज हम करेंगे। 14 अगस्त 1961 को शाहजहाँ शाद साहब सूबा-ए-उत्तर प्रदेश में मर्दुम-खेज जिला गाज़ीपुर के महेंद्र गाँव में पैदा हुए ,इल्मो- अदब के शहर आज़मगढ़ में पल-बढ़ एवम लिख कर रोजी रोटी की तलाश में सूबा-ए-गुजरात के हीरों की मंडी वाले शहर सूरत में बस गए और हीरे की तरह तराशे चमकदार शेर कहने लगे।


वो सलीके से जान लेते हैं 
हम जिन्हें अपना मान लेते हैं 

एक डाली पे फिर नहीं रहते 
जब परिंदे उड़ान लेते हैं 

लोग झूठी अना की इक चादर 
ओढ़ लेते हैं तान लेते हैं

'शाद'इन्साफ यूँ भी होता है 
बेजुबां से बयान लेते हैं 

जनाब 'अहद प्रकाश'ने इस किताब की एक भूमिका में उनके लिए लिखा है कि "किसी किसी पर ग़ज़ल मेहरबान होती है और खुदा का शुक्र है कि शाहजहाँ 'शाद'पर भी ग़ज़ल मेहरबान है। 'शाद'मोहब्बत और इंसानियत के शायर हैं। उनके शेरों में आम आदमी का दिल धड़कता है, सच्चे और मीठे शेर कहने में उनका शुमार होता है। उनके शेरों में हमारी आप बीती मिलती है।

सपनों की जागीर हमारी 
इतने भी कंगाल नहीं हम 

ये मौसम ही रोने का है 
मत समझो, खुशहाल नहीं हम 

जो भी चाहे पकडे, झूले 
उन पेड़ो की डाल नहीं हम 

'शाद'अपने बारे में कहते हैं की 'शायरी भी अजीब शै या बीमारी है। कब, कहाँ और कैसे अपनी जुल्फों का असीर बना ले कुछ कहा नहीं जा सकता। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. मैं तकरीबन उम्र के 45 साल पूरे करने के बाद इस खूबसूरत बीमारी में मुब्तिला हुआ और अब तो ऐसा महसूस हो रहा है कि यह मर्ज़ आखिरी उम्र तक मेरे साथ ही रहेगा "

आप कहते हैं छोड़ दूँ पीना 
आप क्या मयकशी समझते हैं 

क्यों बुलाते हो प्यार से उनको 
वो जुबाँ दूसरी समझते हैं 

हम भटकते रहे हैं सहरा में 
'शाद'हम तिश्नगी समझते हैं 

 भले ही शाद साहब ने 45 साल की उम्र से शेर कहना शुरू किया हो लेकिन मुझे लगता है कि शायरी उनके जहन में होश सँभालते ही पनपने लग गयी होगी , अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो महज चार पांच साल के छोटे से वक़्फ़े में उनके चार शेरी मजमुए 'वो'सन 2013 में 'तुम'सन 2014 में 'हम'सन 2015 में और 'कागज़ी फूल'सन 2016 में मन्ज़रे आम पर नहीं आ पाते। चार सालों में चार मजमुए इस बात का सबूत हैं कि बरसों से रुकी हुई शायरी की नदिया एक दिन बाँध तोड़ कर जबरदस्त रफ़्तार से बह निकली। हाल ही में गुजरात सरकार द्वारा उनके शेरी मजमुए 'तुम'को सन 2014 के गुजरात साहित्य अकादमी के प्रथम पुरूस्कार के लिए चुना गया है ये सम्मान उन्हें अगले हफ्ते याने 22 अगस्त को अहमदाबाद में प्रदान किया जायेगा।

तेरे निज़ाम को जब चाहेगा बदल देगा 
मियां ये वक्त है , बिगड़ा तो फिर कुचल देगा 

जहाँ भी जाओ मोहब्बत के बीज बो देना 
कहीं तो पेड़ उगेगा कहीं तो फल देगा 

कभी न कहना 'शाद'उससे राज की बातें 
यहाँ सुनेगा वहां जा के वो उगल देगा

'शाद'साहब की फितरत में ही शेर कहना है उनकी कहने की रफ़्तार हैरत में डाल देती है वो इंटरनेट फेसबुक व्हाट्सअप और ट्वीटर पर नियमित रूप से अपने नए नए मयारी शेर पोस्ट करते रहते हैं इसका नतीजा ये है कि अदब की दुनिया में उनका नाम बहुत इज़्ज़त से लिया जाता है । ज़िन्दगी का शायद ही कोई पहलू हो जिसपर 'शाद'साहब ने शेर न कहा हो।

इतनी कुर्बत हो इस मोहब्बत में 
तुम जुबाँ दो मगर निभाएं हम 

इतना रिश्ता रहे बिछड़ के भी 
तुम पुकारो तो लौट आएं हम 

वक्त आएगा 'शाद'वो कब तक 
बेसबब तुम को याद आये हम

'हम'को 'शेरी'अकादमी, भोपाल ने प्रकाशित किया है। आप इस किताब की प्राप्ति के लिए शेरी अकादमी को उनके पते '४-आम वाली मस्जिद रोड , जहांगीर बाद , भोपाल -462008 पर लिखें या 9425377323 पर संपर्क करें। इस किताब के लिए आप शाद साहब को उनके मोबाइल न 9879506884 पर बधाई दें और किताब प्राप्ति का रास्ता पूछें। हमेशा की तरह अगली किताब की तलाश में निकलने से पहले उनकी एक ग़ज़ल के चंद शेर पढ़वा कर आपसे विदा लेता हूँ :

मेरी खुशियों की एक चाबी है 
जो तेरे पास कबसे गिरवी है 

फिर कभी प्यार-प्यार खेलेंगे 
आज जाने दे पेट खाली है 

तेरी चौखट पे मर गए कितने 
ऐ मोहब्बत तू कितनी भूकी है

'शाद'हासिल नहीं अगरचे कुछ 
पास रहने से बस तसल्ली है

किताबों की दुनिया - 139

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गर्दने खिदमत में हाज़िर हैं हमारी लीजिये 
भोंतरे ही ठीक हैं, चाकू न पैने कीजिये 

दाना-पानी तक को ये पिंजरा नहीं खोला गया 
जब से मैंने कह दिया है -मेरे डैने दीजिये 

हम हुए सुकरात सारे दोस्तों के बीच में
'एक प्याला और'कोई कह रहा था लीजिये 

आपको चेहरे नहीं बिखरी मिलेंगी बोटियाँ 
आदमी को आदमी के सामने तो कीजिये 

जब कभी भी हिंदी ग़ज़ल की बात होती है तो सिर्फ एक नाम सबसे पहले हमारे ज़ेहन में आता है और वो है -दुष्यंत कुमार का जबकि उनकी तरह ही कानपुर का एक युवा शायर ऐसी ही धारदार तल्ख़ ग़ज़लें हिंदी में निरंतर कह रहा था। दुष्यंत उस उस वक्त हिंदी की लोकप्रिय पत्रिका 'सरिता'में छपने के साथ साथ अपनी चुटीली भाषा के कारण, जो उनसे पहले हिंदी ग़ज़लों में बहुत कम या न के बराबर नज़र आयी थी , चर्चित हो गए । आज हम किताबों की दुनिया में हिंदी ग़ज़ल के एक उसी तरह के बागी तेवरों वाले सशक्त हस्ताक्षर 'विजय किशोर मानव'की ग़ज़लों की किताब "आँखें खोलो"की बात करेंगे जिसे किताब घर प्रकाशन वालों ने सन 2005 में प्रकाशित किया था।


कुनबों के दरबार हमारी बस्ती में 
उनके ही अखबार हमारी बस्ती में 

आज राजधानी जाने की जल्दी में 
मिलता हर फनकार हमारी बस्ती में 

सुनें हवा की या आँखों की फ़िक्र करें 
तिनके हैं लाचार हमारी बस्ती में 

घास फूस के घर अलाव दरवाज़े पर 
आंधी के आसार हमारी बस्ती में 

रवायती और रोमांटिक शायरी जिसमें गुलशन फूल खुशबू तितली झील नदी पहाड़ समंदर दिल चाँद सितारे रात नींद ख़्वाब जैसे मखमली लफ़्ज़ों का भरपूर इस्तेमाल होता है से किनारा करते हुए विजय किशोर जी ने अपनी ग़ज़लों में ज़िन्दगी और समाज की तल्ख़ हकीकतों पर सीधे चोट करते हुए खुरदरे लफ़्ज़ों का इस्तेमाल किया और लाजवाब शायरी की। उनकी शायरी हमारे समाज का आईना हैं।

बारूद, नक़ाबें , सलीब, माचिसें तमाम 
क्या क्या जमा किये हैं हमारे शहर में लोग 

पांवों पे पेट, पीठ पर निशान पाँव के 
कंधे पर घर लिए हैं हमारे शहर में लोग 

इंसान गुमशुदा है फरेबों के ठिकाने 
फिर होंठ क्यों सिये हैं हमारे शहर में लोग 

जनाब शेर जंग गर्ग ने किताब के फ्लैप पर लिखा है कि "आँखें खोलो की ग़ज़लों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि मानव ने ग़ज़ल की प्रचलित बहरों के साथ साथ नए अंदाज़ एवं नए रंग में भी कई ग़ज़लें कही हैं। इस लिहाज़ से उन्होंने ग़ज़ल को भी घिसे-पिटे ढांचे से एक हद तक बाहर निकाला है। उनकी ग़ज़लों में ऐसी अनेक पंक्तियाँ हैं जो उनके भाषाई बांकपन, गहन संवेदनशीलता एवं सहज कथन कौशल को उजागर करती है।"

बेड़ी न हथकड़ी है, दिखती नहीं सलाखें 
हर मोड़ पर जेलें हैं हम किस शहर में हैं 

सच कह के चूर होते आईने खौफ में हैं 
हर हाथ में ढेले हैं हम किस शहर में हैं 

ये कौन से जलवे हैं ये कैसा उजाला है 
सब आग से खेले हैं हम किस शहर में हैं 

9 अक्टूबर 1950 को कानपूर के रामकृष्ण नगर मुहल्ले में जन्में विजय जी ने भौतिकी रसायन शास्त्र और गणित विषयों से स्नातक की डिग्री हासिल की और प्रिंट मिडिया से जुड़ गए और लगभग 25 वर्षों तक हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप की प्रसिद्ध पत्रिका कादम्बिनी के एग्जीक्यूटिव एडिटर रहे। उनका लेखन इस दौरान सतत चलता रहा। अपनी विलक्षण प्रतिभा के बल पर उन्होंने गीत ग़ज़ल कहानी तथा समीक्षा जैसी विधाओं पर दक्षता हासिल की जिसके फलस्वरूप उनकी हर विधा की रचनाओं का देश की लगभग सभी छोटी बड़ी पत्र -पत्रिकाओं में लगभग तीन दशकों से अब तक प्रकाशन होता आ रहा है।

युग का सच बारूदी गंधें 
खुशबू के फव्वारे झूठे 

सब के मुंह पर पूंछ लगी है 
इंकलाब के नारे झूठे 

अब सच्चे लगते बाज़ीगर 
गाँधी गौतम सारे झूठे 

नौकरी के झमेले से मुक्त हो कर विजय जी ने अपनी प्रतिभा का झंडा एस्ट्रोलॉजी के क्षेत्र में गाड़ दिया। मैंने किताबों की दुनिया की श्रृंखला के लिए कम से कम 200 -300 शायरों के बारे में तो पढ़ा ही होगा लेकिन मेरी नज़र में ऐसा कोई शायर नहीं गुज़रा जिसने शायरी के अलावा इंसान की बीमारी, नौकरी, शिक्षा , पारिवारिक समस्याओं ,व्यापार या रिश्तों के सुधार के लिए भविष्यवाणियां की हों और उनसे निबटने के रास्ते सुझाये हों। विजय जी ने हिंदी साहित्य के अध्ययन के अलावा वेदों पुराने और रहस्यमय विज्ञान का गहन अध्ययन किया और ज्योतिष विज्ञान में महारत हासिल कर ली।

बगुले चलें यहाँ हंसो की चाल सुना तुमने 
लोहे की तलवार काठ की ढाल सुना तुमने 

दांव-पेच के दाम बढे कौड़ी में दीन-धरम 
लोग कि जैसे धेले में हर माल सुना तुमने 

बेशुमार फुटपाथ घूम आये अपने चूल्हे 
कारिंदों के महल बनें हर साल सुना तुमने

"आँखे खोलो"ग़ज़ल संग्रह की भूमिका में विजय जी का हिंदी ग़ज़ल पर लिखा आलेख भी पढ़ने लायक है। उन्होंने बहुत सारगर्भित ढंग से हिंदी ग़ज़ल की यात्रा की विवेचना की है।अपनी ग़ज़लों के बारे में उनका कहना है कि "मेरी ग़ज़लें हिंदी की हैं। इस अर्थ में भी कि इनमें मैट्रिक छंद का अनुशासन है, पूरी रवानी है काफियों का निर्वाह हिंदी गीतों की तर्ज़ पर है और इन ग़ज़लों में विषय वस्तु के अनेक प्रयोग हैं।

बौने हुए विराट हमारे गाँव में 
बगुले हैं सम्राट हमारे गाँव में 

घर घर लगे धर्म कांटे लेकिन 
नकली सारे बाँट हमारे गाँव में 

मुखिया का कुरता है रेशम का 
भीड़ पहनती टाट हमारे गाँव में 

आपको ऐसी अनेक अलग मिज़ाज़ की ढेरों ग़ज़लें इस संग्रह में पढ़ने को मिलेंगी , इस किताब को पढ़ने के लिए आपको किताब घर प्रकाशन को उनके अंसारी रोड दरियागंज वाले पते पर लिखना पड़ेगा या फिर उन्हें उनके फोन न (+91) 11-23271844 पर पूछना पड़ेगा , आप किताब घर वालों को पर ईमेल करके भी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं ,सबसे बढ़िया तो ये है कि आप विजय जी को उनके मोबाईल न. 098107 43193पर संपर्क इन लाजवाब ग़ज़लों के लिए पहले बधाई दें और फिर किताब प्राप्ति का रास्ता पूछें। चलते चलते उनकी एक और ग़ज़ल के चंद शेर आपको पढ़वाता चलता हूँ :

कब से ये शोर है शहर भर में 
हो रही भोर है शहर भर में 

सलाम, सजदे हाँ हुज़ूरी का 
आज भी जोर है शहर भर में 

एक मादा है कोई भी औरत 
मर्द हर ओर है शहर भर में

किताबों की दुनिया - 140

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शेर एक तितली है
ज़ेहन के गुलिस्ताँ की रंग-रंग दुनिया में
पंखुड़ी से पर लेकर
नाचता ही रहता है

शायर एक बच्चा है
ज़ेहन के गुलिस्ताँ की रंग-रंग दुनिया में
उस हंसीं पैरों वाली बेक़रार तितली के पीछे-पीछे चलता है
गिरता है
संभलता है
आस्तीन फटती है
दामन-ओ-गिरेबाँ के तार झनझनाते हैं
टूट टूट जाते हैं

धीरे धीरे लफ़्ज़ों की उँगलियाँ संभलती हैं
और वो हसीं तितली
उन पे बैठ जाती है
अपने पर हिलाती है
रंग छोड़ जाती है

ये नज़्म उस शायर की है जिन पर इतना कुछ लिखा जा सकता है कि ऐसी एक नहीं ढेरों पोस्ट्स लिखें तो भी कम पड़ेगीं। उनके लिए तो ये कहना भी मुश्किल है कि वो नस्र के बादशाह थे या शायरी के सुलतान ? इंसान ऐसे कि फांसी के तख़्ते पर खड़े हो कर सच बोलें और जिस काम को दिल न माने वो किसी भी कीमत पर करने को तैयार न हों। टी.वी सीरियल हों या फ़िल्में उन्होंने जिस विधा में लिखा अपनी अमिट छाप छोड़ दी। खूबसूरत इतने की लड़कियां उनकी तस्वीर अपने तकिये के नीचे रख के सोया करती थीं इस से पहले इस तरह के किस्से सिर्फ और सिर्फ मज़ाज़ के लिए मशहूर थे।

ये फ़न-ए-शेर है बेहिसों के बस का नहीं 
हो दिल में आग तो अलफ़ाज़ से धुआं निकले 

तुम्हारी बज़्म नहीं ये हमारी दुनिया है 
तुम आस्तीन चढ़ाये हुए कहाँ निकले 

कई उफ़क़ कई रातें कई दरीचे हैं 
तुम्हारे शहर में सूरज कहाँ कहाँ निकले 

क्रीम कलर की शेरवानी सफ़ेद कुरता पायजामा और उस पर पान से लाल होंठ उनकी पहचान थी। पोलियो के कारण उनके एक पाँव में खराबी आ गयी जिसकी वजह से वो लचक कर चलते थे लेकिन जिधर से गुजरते, देखने वालों के चेहरे उधर ही मुड़ जाया करते थे। लोगों ने उनके मुँह से शायद ही उनका कलाम सुना हो क्यूँकि वो कभी मुशायरे में नहीं जाते थे , क्यों नहीं जाते थे ये भी बताता हूँ , आप पहले उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर तो जरा पढ़ें :

जख्म-ए-दिल का ये शजर सबसे जुदा होता है 
धूप लगती है तो ये और हरा होता है 

अब सियासत की दुकानों का ये दस्तूर हुआ 
वही सिक्का नहीं चलता जो खरा होता है 

अब कोई रास्ता पूछे कि न पूछे उससे 
वरना हर शख़्स में इक राहनुमा होता है 

तो बताता हूँ की वो मुशायरों में क्यों नहीं जाते थे , हुआ यूँ कि हमारे आज के शायर साहब की बेगम को घुड़सवारी का बेहद शौक था इसके चलते उनके कभी घुटने छिलते कभी कमर तो कभी हाथ जख्मी हो जाते तो कभी गर्दन में बल पड़ जाता ,रोज रोज होने वाले इन हादसों से तंग आ कर उन्होंने अपनी बेग़म को घुड़सवारी से तौबा कर लेने का फ़रमान सुना दिया , अब साहब वो बेग़म ही क्या जो शौहर की बात आँख मूँद कर मान ले तो उन्होंने पलट वार करते हुए उनसे ये वादा लिया कि वो भी कभी किसी मुशायरे में नहीं जाएंगे। बस उसके बाद न बेगम घोड़े पे बैठीं न ये हजरत मुशायरा पढ़ने कहीं गए जबकि उनके पास पूरी दुनिया से बुलावे आते थे। अब वक्त आ गया है कि आप पर हमारे आज के शायर का नाम जाहिर कर दिया जाय लेकिन उसके पहले उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर पढ़िए जिसने उन्हें और जगजीत दोनों को जबरदस्त मकबूलियत बक्शी :

हम तो हैं परदेस में ,देश में निकला होगा चाँद 
अपनी रात की छत पर कितना तनहा होगा चाँद 

जिन आँखों में काजल बन कर तैरी काली रात 
उनमें शायद अब ऑंसू का क़तरा होगा चाँद 

रात ने ऐसा पेच लड़ाया टूटी हाथ की डोर 
आँगन वाले नीम में जाकर अटका होगा चाँद 

चाँद बिना हर दिन यूँ बीता जैसे युग बीते 
मेरे बिना किस हाल में होगा कैसा होगा चाँद 

आया कुछ याद ? चलिए मैं ही बता देता हूँ क्यूंकि "किताबों की दुनिया"कोई सस्पेंस थ्रिलर तो है नहीं जिसमें कातिल का नाम आखरी पन्ने पर पता चलता है, तो हमारे आज के शायर हैं डाक्टर "राही मासूम रज़ा"साहब जिनकी ग़ज़लों और नज़्मों की किताब "ख्यालों के कारवाँ "का जिक्र आज हम करने जा रहे हैं।इस किताब में उनकी चुनिंदा ग़ज़लों और नज़्मों का संकलन किया है जनाब "सुरेश कुमार "साहब ने और प्रकाशित किया है "डायमंड बुक्स "नै दिल्ली ने।


इस सफर में नींद ऐसी खो गयी
हम न सोये रात थक कर सो गयी

हाय इस परछाइयों के शहर में
दिल-सी ज़िंदा इक हकीकत खो गयी

हमने जब हँसकर कहा मम्नून हैं 
ज़िन्दगी जैसे पशेमाँ हो गयी 
मम्नून - आभारी 

"राही"साहब को अधिकतर लोग उनके कालजयी टी.वी. सीरियल "महाभारत" ,जो 2 अक्टूबर 1988 से 24 जून 1990 तक हर रविवार को सुबह 10 बजे से 11 बजे तक दूरदर्शन से लगातार प्रसारित होता रहा ,के लेखक के रूप में अधिक जानते हैं। "महाभारत"की लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रसारण के एक घंटे के दौरान पूरा कामकाज ठप्प हो जाता था सड़कें वीरान हो जाया करती थीं और लोग टी वी से चिपक जाया करते थे। "महाभारत"ने एक ऐसी भाषा को जन्म दिया जिसे पहले कभी सुना नहीं गया था। लोग हैरत में थे कि कैसे एकदम नयी शैली में रचे गए संवादों के बल पर एक गैर हिन्दू ने इस महाकाव्य को देश के घर घर में इतना लोकप्रिय बना दिया जिसकी मिसाल ढूंढें नहीं मिलती।

प्यास बुनियाद है जीने की बुझा लें कैसे 
हमने ये ख़्वाब न देखे हैं न दिखलाये हैं 

याद जिस चीज को कहते हैं वो परछाईं है 
और साये भी किसी शख़्स के हाथ आये हैं 

हाँ उन्हीं लोगों से दुनिया में शिकायत है हमें
हाँ वही लोग जो अक्सर हमें याद आये हैं 

ज़मीन पर पेट के बल लेट कर गाव तकियों के सहारे कोहनी टिकाये राही साहब एक साथ तीन-चार फिल्मों ,टी.वी. सीरियल की स्क्रिप्ट लिखा करते थे। एक बार उन्हें एक प्रोडूसर अपनी फिल्म की कहानी लिखवाने एक महीने के लिए कश्मीर ले गया वहां के शानदार होटल में पूरा महीना बिना एक लफ्ज़ लिखे वो वापस आ गए और घर आते ही अपने निराले पोज़ में लेट कर कहानी लिख डाली। "महाभारत"की अपार सफलता ने उनके घर के बाहर टी.वी फिल्म वालों की लाइन लगवादी लेकिन उन्होंने कभी पैसे के लिए अपनी कलम नहीं बेची जिसपे मेहरबान हुए उसके लिए महज़ एक पान की एवज़ में फ़िल्मी स्क्रिप्ट लिख के दे दी।

ये खुशबू है किसी मौजूदगी की 
अभी शायद कोई उठ कर गया है 

सलीब आवाज़ की कन्धों पे रख लो 
कि सन्नाटा हर आँगन में खड़ा है 

ये राही तो अजब इंसान निकला 
हमेशा किसलिए सच बोलता है 

मजे की बात है की जब जब उन्होंने हिंदी में लिखा तो हिंदी वाले उन्हें हिंदी का लेखक समझने लगे और जब कलम उर्दू में चलाई तो उर्दू वाले उनके मुरीद हो गए। भाषा पर ऐसा अधिकार बिरलों को ही होता है। उनका उपन्यास "आधा गाँव"हिंदी साहित्य में मील के पत्थर की हैसियत रखता है। ये उपन्यास जिला गाज़ीपुर के "गंगोली"गाँव की कहानी बयां करता है जहाँ 1 सितम्बर 1927 को उनका जन्म हुआ था। बाद में गाज़ीपुर में उन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा पूरी की। उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को चुना और हिंदी साहित्य में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की।

महफ़िल वाले जल्दी में हैं जाने की 
फिर हम क्यों तौहीन करें अफ़साने की 

या तो उसके ज़ख्मों का मरहम लाओ 
या फिर हालत मत पूछो दीवाने की 

नासेह साहब आप तो अपनी हद में रहें 
मंज़िल पीछे छूट गयी समझाने की 

डॉक्टरेट करने के बाद वे वहीँ यूनिवर्सिटी में पढ़ाने लगे लेकिन अपने प्रगतिशील विचारों के चलते उनकी पटरी अलीगढ के दकियानूसी लोगों के साथ बैठी नहीं और वो किस्मत आजमाने मुंबई आ गए। मुंबई में उनके पाँव ज़माने में उनके दोस्तों जिनमें अभिनेता भारत भूषण , लेखक कमलेश्वर और धर्मवीर भारती उल्लेखनीय हैं ,ने बहुत मदद की। मुंबई में ही साहित्य की लगातार साहित्य की सेवा करते हुए वो 15 मार्च 1992 को मात्र 64 साल की उम्र में इस दुनिया-ए-फ़ानी से रुख़सत हो गए। अपने पीछे वो साहित्य का बहुत बड़ा खज़ाना छोड़ गए हैं जिसे आगे आने वाली पीढ़ियां पढ़ उन पर गर्व करेंगी। 

 बैठ के उसके नाम कोई खत ही लिखिए 
रात को यूँ ही जागते रहना ठीक नहीं 

जुल्म का सहना भी आदत बन सकता है 
उसके भी हर जुल्म को सहना ठीक नहीं 

बादल झील में देख रहे हैं अपना हुस्न 
इस मौसम में घर पर रहना ठीक नहीं 

 मैंने शुरू में ही कहा था कि राही जी जैसी कद्दावर शख्सियत के बारे में जितना लिखा जाय कम ही होगा लेकिन पोस्ट की अपनी एक सीमा है इसलिए कहीं तो विराम देना ही पड़ेगा। आप तो इस किताब को डायमंड बुक्सवालों से मंगवा लें और फिर इत्मीनान से पढ़ें , इसमें संकलित राही साहब की नज़्में भी लाजवाब हैं।
चलते चलते उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर पेशे खिदमत हैं :

बाहर आते डरते हैं अपने-अपने अफ़साने से 
कल तक जो दीवाने थे अब लगते हैं दीवाने से 

सबके पास कई नासेह हैं और सभी समझाते हैं 
अक्सर लोग बिगड़ जाते हैं बहुतों के समझाने से 

क्यों इतने मगरूर हो राही क्यों इतने इतराते हो
गंगा-तट वीरान न होगा इक उनके उठ जाने से

किताबों की दुनिया -141

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तुम्हारी याद में आँखों से जब बरसात होती है 
तो खुशबू में नहाई चाँद-सी वो रात होती है 

किसी से हम मुख़ातिब हों कोई हो रूबरू अपने 
तुम्हीं को देखते हैं और तुम्हीं से बात होती है 

हमारे पास तो ले देके बस है दर्द की दौलत 
बड़े आराम से अपनी बसर औक़ात होती है 

मान लीजिये कि आप "कौन बनेगा करोड़पति "कार्यक्रम की हॉट सीट पे बैठे हैं और अमिताभ बच्चन आपसे पूछें कि दिल्ली में उर्दू की प्रथम महिला पत्रकार का नाम बताएं जो अपने समय की बेहतरीन शायरा भी रहीं हैं ,तो आप क्या जवाब देंगे ? आपके पास नाम बताने के लिए चार ऑप्शन भी अगर नहीं हैं तो हो सकता है कि अगर आप हिंदी भाषी हैं तो शायद इस सवाल पर सर खुजाएँ और किसी लाइफ लाइन जैसे "फोन ऐ फ्रेंड"या "ऑडियंस पोल"का चुनाव करें पर उर्दू प्रेमी और पुराने लोग मुमकिन है कि इसका जवाब दे पाएं।

गुमां यक़ीन की हद तक कभी नहीं आया 
भरोसा अपनी समझ पर मुझे ज़ियादा था 

न जाने कैसे हुई मात बादशाह को भी 
हमारे पास तो ले-देके इक पियादा था

तुम्हारे दौर से 'सर्वत'निबाह कर न सकी 
कि उसके पास रिवायत का लबादा था 

मक्ते में शायरा का नाम आने से हो सकता है आप में से कुछ को उनका का नाम याद आ गया हो लेकिन जिन्हें नहीं आया उन्हें बता दूँ कि हमारी आज की शायरा है 28 नवम्बर 1949 को दिल्ली में जन्मी "नूरजहां सर्वत"जिनकी किताब "बेनाम शजर"की बात आज हम करेंगे। ये किताब वाणी प्रकाशन से सन 2000 में प्रकाशित हुई थी।


वक़्त, अल्फ़ाज़ का मफ़हूम बदल देता है 
देखते-देखते हर बात पुरानी होगी 
मफ़हूम =अर्थ 

बेज़बाँ कर गया मुझको तो सवालों का हुजूम 
ज़िन्दगी आज तुझे बात बनानी होगी 

कर रही है जो मेरे अक्स को धुंधला 'सर्वत ' 
मैंने दुनिया की कोई बात न मानी होगी

'सर्वत'साहिबा ने अपनी तालीम की शुरुआत दिल्ली के बुलबुली खन्ना सीनियर सेकण्डरी स्कूल से की और फिर दिल्ली कालेज अजमेरी गेट से बी.ऐ. की डिग्री हासिल की। दिल्ली विश्विद्यालय से 1971 में उन्होंने एम.ऐ की डिग्री डिस्टिंक्शन से हासिल की। नूरजहां अपने समय की बहुत मेधावी छात्र रहीं। उन्होंने अपनी विलक्षण योग्यता का परिचय "जवाहर लाल नेहरू"यूनिवर्सिटी और उसके बाद ज़ाकिर हुसैन कॉलेज में लेक्चरर के पद पर छात्रों को पढ़ाते हुए दिया।

याद है उससे बिछुड़ने का समां 
शाख़ से फूल जुदा हो जैसे 

हर क़दम सहते हैं लम्हों का अज़ाब 
ज़िन्दगी कोई खता हो जैसे 
अज़ाब =यातना 

ज़िन्दगी यूँ है गुरेज़ाँ 'सर्वत' 
हमने कुछ मांग लिया हो जैसे 
गुरेज़ाँ =दूर दूर रहना 

कुछ समय तक वो आल इण्डिया रेडिओ के साथ रहीं और रेडिओ के लिए विभिन्न क्षेत्र से जुड़े लोगों से गुफ़्तगू की ज़िम्मेवारी सफलता से निभाई। सन 1980 से उन्होंने "कौमी एकता"अखबार के साथ बतौर पत्रकार काम करना शुरू कर दिया। उन्होंने बाद में उस पत्रिका के रविवारीय संस्करण के संपादक की हैसियत से भी काम संभाला। पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी निडरता और खुले विचारों ने सबको प्रभावित किया। मुंबई के "इंक़लाब "अखबार के दिल्ली रेजिडेंट संपादक पद पर भी उन्होंने काम किया और और इस तरह उन्होंने दिल्ली की प्रथम महिला संपादक होने का श्रेय हासिल किया।

गुरुर से सर उठा रहे थे, वो जश्ने-हस्ती मना रहे थे 
हवा ने खींचा जब अपना दामन, हवा हुए फिर हुबाब सारे 
हुबाब=बुलबुला 

वो खुशबुओं का लिबास पहने, मिला कुछ ऐसे कि एक पल में 
पड़े हुए थे जो जिस्मो-जां पर, उतर गए वो नकाब सारे 

सवाल सादा सा ज़िन्दगी से, किया था हमने भी एक 'सर्वत' 
वो पत्थरों की हुई है बारिश, कि मिल गए हैं जवाब सारे 

नूरजहां 'सर्वत'साहिबा के लिए प्रो शारिब रदौलवी साहब ने लिखा है कि "सर्वत उर्दू की एक अच्छी और मक़बूल शायरा हैं। उर्दू में ख़ासतौर से हिन्दुस्तान में शायरा का तसव्वुर बड़ा अजीब है, रिवायती किस्म के अशआर, मुतारन्नुम आवाज़, निजी कैफ़ियतों से आरी (रिक्त) शायरी। लेकिन 'नूरजहां'इससे बिलकुल मुख़्तलिफ़ हैं। पत्रकार की हैसियत से ज़िन्दगी को उन्होंने बहुत करीब से देखा है तभी इन अनुभवों ने उनकी शायरी में एक अजीब किस्म की बेचैनी और कर्ब पैदा कर दिया है। 

तन्हाइयों की बर्फ कि पिघली नहीं हनोज़ 
यादों के ऐतबार की भी धूप छंट गयी 

हमने वफ़ा निभाई बड़ी तम्कनत के साथ 
अपने ही बल पे ज़िंदा रहे उम्र कट गयी
तम्कनत = गर्व

'सर्वत'हरेक रुत में लपेटे रहे जिसे 
वो नामुराद आस की चादर भी फट गयी

 "बेनाम शजर"नूरजहां साहिबा का एक मात्र मजमुआ है जो 1995 में उर्दू में शाया हुआ और सन 2000 में वाणी प्रकाशन से हिंदी में। इस किताब में 'सर्वत'जी की 34 ग़ज़लें और 42 नज़्में संकलित हैं। उनकी नज़्में भी ग़ज़लों की तरह पूरी दुनिया में मकबूल हुईं। उन्होंने अपनी ही तरह की अलग सी शैली की में कही गयी ग़ज़लों और नज़्मों से पूरी दुनिया के उर्दू प्रेमियों को अपना दीवाना बना दिया। दुनिया के हर ऐसे देश में जहाँ उर्दू बोली या समझी जाती है उन्होंने अपने फ़न का झंडा गाड़ा है।

तय करो अपना सफर तन्हाइयों की छाँव में 
भीड़ में कोई तुम्हें क्यों रास्ता देने लगा 

कुरबतों की आंच में जलने से कुछ हासिल न था 
कैसे-कैसे लुत्फ़ अब ये फ़ासला देने लगा 
कुर्बत=निकटता

'सर्वत'साहिबा इस किताब की भूमिका में लिखती है कि 'शायरी की असल बुनियाद एहसासो-फ़िक्र है लेकिन आज का इंसान संवेदनाओं और कोमल भावनाओं से कोसों दूर हो गया है , इंसानी रिश्ते बेमानी हो गए हैं ,तहज़ीब के धागे में पिरोये मोती बिखर के टूट चुके हैं। हमारे बीच बड़ा से बड़ा हादसा यूँ गुज़र जाता है जैसे कुछ हुआ ही नहीं। किसी को किसी के लिए सोचने ठहरने की फुर्सत नहीं है ऐसे हालात में शायरी बहुत मुश्किल हो गयी है , अगर इंसान इसी तरह फ़िक्रों-एहसास से दूर होता चला गया तो शायरी नामुमकिन हो जाएगी।

भुला चुके थे मगर ये मुआमला कब था 
उसे न याद करें इतना हौसला कब था 

सहारा बख़्श दिया हमको यादे-माज़ी ने 
तुम्हारे दौर में जीने का वलवला कब था 
यादे-माज़ी =अतीत की याद ; वलवला =उत्साह 

उजाले जिसने बिखेरे हैं मेरी राहों में 
तिरि सदा थी सितारों का काफला कब था 

प्रोफ़ेसर 'गोपी चंद नारंग'साहब फरमाते हैं कि "नूरजहां सर्वत 'के यहाँ तुरंत चकाचौंध कर देने वाली दुनिया नहीं है, मानवीय रिश्तों के उतार चढ़ाव और दर्द का ऐसा धुंधला-धुंधला उजाला अवश्य है जो रूह में उतर जाता है और किसी न किसी कैफियत का पता देता है। ये शायरी जरुरत की पैदावार नहीं अंदर की आवाज़ है।

दिल्ली उर्दू अकेडमी ने उन्हें उर्दू की खिदमत करने पर अवार्ड भी दिया था। अपनी शायरी से उर्दू अदब को मालामाल कर देने वाली इस शायरा ने मात्र 60 साल की उम्र में ,17 अप्रेल 2010 को, इस दुनिया को अलविदा कह दिया। उनके पत्रकारिता और उर्दू अदब के क्षेत्र में दिए योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता और ना ही उनके द्वारा छोड़े गए रिक्त स्थान को कभी भरा जा सकता है।

बहुत डूबे रहे मन की चुभन में 
ज़रा अब जा के देखें अंजुमन में 

हुए हैं शहर इंसानों से खाली 
कि तहज़ीबें बसी हैं जा के बन में 

भला आईने को इसकी खबर क्या
कि कितना खोट है किस-किस के मन में 

कहूं क्या उसमें किस दर्ज़ा कशिश थी 
कि 'सर्वत'खो गयी जिसकी लगन में 

इस किताब की प्राप्ति के लिए आप वाणी प्रकाशन को लिखें जिसका पता और नंबर मैंने अपनी पिछली बहुत सी पोस्ट में दिया है। अगर वाणी से ये किताब नहीं मिले तो आप इस लिंक को कॉपी करें और गूगल कर लें ये लिंक आपको आन लाइन ऑर्डर करने की सुविधा देगा



हर उर्दू शायरी के दीवाने के पास ये किताब होनी चाहिए क्यों की इसमें कुछ ऐसी नज़्में हैं जो संग्रहणीय हैं और जिन्हें मैंने भी ज़ाहिर नहीं किया है. आखिर थोड़ा सस्पेंस भी बना रहना जरूरी है न। अगली किताब की तलाश से पहले चलते चलते उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर और पढ़वाता चलता हूँ :

आपबीती में भला किसको मज़ा आएगा
दास्ताँ अपनी यहाँ किसको सुनाने निकले

कितने कमज़र्फ थे वो लोग जो अपने घर से
बेबसी अपनी ज़माने को दिखाने निकले
कमज़र्फ =ओछे

दिल की दुनिया में अभी तक हैं अकेले 'सर्वत'
हम तो नादान रहे लोग सयाने निकले

किताबों की दुनिया - 142

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जो मंज़र आँख पर है ,लम्हा लम्हा 
मिरे सीने के अंदर खुल रहा है 

कभी खुद मौज साहिल बन गयी है 
कभी साहिल, कफ़-ऐ-दरिया हुआ है 
कफ़-ऐ-दरिया=नदी की हथेली 

पलट कर आएगा बादल की सूरत 
इसी खातिर तो दरिया बह रहा है 

महकते हैं जहां खुशबू के साये 
तसव्वुर भी वहां तस्वीर-सा है 

जो "किताबों की दुनिया"के नियमित पाठक हैं उन्हें तो पता है, लेकिन जो कभी कभार भूले भटके पढ़ने आते हैं उन्हें शायद नहीं पता होगा कि इस श्रृंखला में सरहद पार के मकबूल जिन शायरों /शायराओं की ग़ज़ल की किताबों का अब तक जिक्र किया गया है उनके नाम हैं : "नासिर काज़मी","परवीन शाकिर","शाहिदाहसन","शकेब जलाली", "इफ़्तिख़ार आरिफ़", "मुज़फ्फर वारसी", "अशरफ़ गिल","ज़फरइकबाल","इरफ़ाना अज़ीज़","जॉन एलिया",और जनाब "मुनीर नियाज़ी", इसी फेहरिश्त में हम आज एक और शायर की किताब को जोड़ने जा रहे हैं जिनका नाम इन सब से थोड़ा सा कम मकबूल जरूर है क्यूंकि इनकी ग़ज़लों को तब के मशहूर ग़ज़ल गायकों ने अपनी आवाज़ नहीं दी लेकिन जिनकी शायरी का मयार इस फेहरिश्त में आये सभी नामों से उन्नीस नहीं है।

खिले जो फूल उसे क़दमों में रोंदती है क्यों 
हवा से कोई तो पूछो कि सरफिरी है क्यों 

मलाल यूँ भी रहा यार से बिछुड़ने का 
कि उससे कह न सके हम उदास जी है क्यों 

अजीब लम्स-ऐ-खुनक है हवा की पोरों में 
जो तू नहीं है तो फिर दर्द में कमी है क्यों 
लम्स-ऐ-खुनक=ठंडा स्पर्श 

आधुनिक उर्दू शायरी को नया रंग रूप प्रदान करने में जिन पाकिस्तानी शायरों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है उनमें हमारी श्रृंखला के आज के शायर जनाब "तौसीफ़ तबस्सुम"का नाम बहुत ऊपर है ,आज हम उनकी किताब "घर की खुशबू"का जिक्र करने जा रहे हैं जिसे डायमंड बुक्स ने सन 2006 में शाया किया था. तौसीफ़ साहब का नाम मैंने सब से पहले सतपाल ख़्याल साहब के ब्लॉग "आज की ग़ज़ल"में सन 2010 में पढ़ा था उसके बाद उनकी ग़ज़लें रेख़्ता की साइट पर पढ़ कर इस किताब को अमेजन से ऑन लाइनमंगवा लिया।


यही हुआ कि हवा ले गयी उड़ा के मुझे 
तुझे तो कुछ न मिला ख़ाक में मिला के मुझे 

चिराग़ था तो किसी ताक़ ही में बुझ रहता 
ये क्या किया कि हवाले किया हवा के मुझे 

हो इक अदा तो उसे नाम दूँ तमन्ना का 
हज़ार रंग हैं इस शोला-ऐ-हिना के मुझे 

बलन्द शाख़ से उलझा था चाँद पिछले पहर 
गुज़र गया है कोई ख़्वाब सा दिखा के मुझे 

बदायूं उत्तर प्रदेश के सहसवान गाँव में 3 अगस्त 1928 को जन्में तौसीफ साहब ने प्रारंभिक शिक्षा दिल्ली में ग्रहण की और फिर देश विभाजन के बाद 21 सितम्बर 1947 को पाकिस्तान चले गए और वहीँ गोर्डन कालेज रावलपिंडी से एम ऐ. की डिग्री हासिल की। उन्होंने 1857 के ग़दर के वक्त के प्रसिद्ध शायर "मुनीर शिकोहाबादी"की शायरी पर गहरायी से शोध किया और डॉक्टरेट की डिग्री हासिल की। "मुनीर "न सिर्फ शायर थे बल्कि स्वतंत्रता संग्राम के सैनिक भी थे , अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लिखने के कारण उन्हें सात साल की काले पानी की सज़ा भी हुई। "मुनीर"साहब की शायरी पर किये गए उनके शोध ग्रन्थ की बहुत सराहना हुई।

करेगा कोई तो इस तीरा-खाकदाँ से रिहा 
बदल ही जाएगी ज़ंजीर खुद से कहता हूँ 
तीरा-खाकदाँ =संसार 

छुआ तो रह गया पोरों पे लम्स खुशबू का 
सो आज तक वही दर्दे-फ़िराक़ सहता हूँ 

मिरा लहू मिरा दुश्मन पुकारता है मुझे 
मैं अपने आप से सहमा हुआ सा रहता हूँ 

आम बोलचाल की शब्दावली से अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्ति देने और उसे साधारण जन की आवाज़ बना देने वाले तौसीफ़ तबस्सुम मुख्यतः ग़ज़ल के शायर हैं। "घर की खुशबू"हिंदी में छपने वाला उनका एक मात्र मजमुआ है जिसमें उनकी लगभग 75 ग़ज़लें और 20 नज़्में संकलित हैं। तौसीफ साहब ने शायरी भारत में रहते हुए शुरू कर दी थी जो उनके पाकिस्तान चले जाने के बाद परवान चढ़ी। 1952 बाद पकिस्तान का शायद ही कोई ऐसा अदबी रिसाला हो जिसमें तौसीफ़ साहब का कलाम न छपा हो।

जो सरबलन्द थे ,उन्हें फेंका है ख़ाक पर
जो ख़ाक पर थे उनको उठा ले गयी हवा

मिटटी से रंग,शाख़ से पत्ते, गुलों से बू
जो भी हवा के साथ गया, ले गयी हवा

पतझड़ में शाख़ शाख़ थी तलवार की तरह
हैरत है कैसे खुद को बचा ले गयी हवा

तौसीफ़ साहब की शायरी रिवायती होते हुए भी बिलकुल अलग हट के है। उनके यहाँ जो दर्शन और प्रतीक मिलते हैं वो और कहीं ढूंढने मुश्किल हैं ,हालाँकि उनका मानना है कि ग़ज़ल लेखन सबसे आसान फन है जो चलते फिरते भी निभाया जा सकता है जबकि नज़्म कहने में ज्यादा वक्त लगता है और अगर कहीं कहानी उपन्यास याने नस्र में कुछः कहना हो तो सबसे ज्यादा वक्त लगता है। उनकी शायरी के बारे में राजस्थान के प्रसिद्ध शायर राजेंद्र स्वर्णकार जी ने सतपाल जी के ब्लॉग पर कमेंट करते हुए बहुत सही लिखा है कि "जनाब तौसीफ़ तबस्सुम के कलाम से रू ब रू होना अपने आप में ज़ियारत जैसा है । उनका कलाम उस्तादाना है और जब तक एक ग़ज़ल को चार पांच बार न पढ़ लिया जाय तब तक तश्नगी-ऐ-सुखन बढ़ती ही रहती है "आईये फिर से उनकी शायरी की और मुड़ें :

आवाज़ों के फेर में कैसे हाल खुलेगा भीतर का 
दिल के अंदर हू का आलम, बाहर शोर समंदर का 
हू =ईश्वर 

बहता दरिया, उड़ता पंछी, दोनों ही सैलानी थे 
आँख के रस्ते क़ैद है दिल में इक-इक मंज़र बाहर का 

पहली बार सफर पर निकले, घर की खुशबू साथ चली 
झुकी मुँडेरें कच्चा रस्ता, रोग बने, रस्ते भर का 

"घर की खुशबू"की नज़्मों और ग़ज़लों को हिंदी लिपि में प्रस्तुत करने का सारा श्रेय सुरेश कुमार जी और डायमंड बुक्स को जाता है. सुरेश जी किताब की भूमिका में लिखते हैं कि तौसीफ साहब की शायरी को पढ़ते हुए हमें ऐसा बिलकुल महसूस नहीं होता कि हम किसी दूसरे मुल्क के शायर की रचनाएँ पढ़ रहे हैं। उनकी शायरी में आज भी भारतीय संस्कृति की झलक स्पष्ट दिखाई देती है क्यूंकि भले ही सरहदों ने मुल्क को दो हिस्सों में बाँट दिया हो लेकिन दोनों देशों के नागरिकों खास तौर पर आम इंसान की समस्याएं और हालात लगभग एक जैसे ही हैं तभी हमें वहां की शायरी में भी खुद की आवाज़ सुनाई देती है।

सुनो कवी तौसीफ़ तबस्सुम इस दुःख से क्या पाओगे 
सपना लिखते-लिखते आखिर खुद सपना हो जाओगे 

हर खिड़की में फूल खिले हैं पीले पीले चेहरों के 
कैसी सरसों फूली है, क्या ऐसे में घर जाओगे 

इतने रंगों में क्या तुमको एक रंग मन भाया है 
भेद ये अपने जी का कैसे औरों को समझाओगे 

दिल की बाज़ी हार के रोये हो तो ये भी सुन रक्खो 
और अभी तुम प्यार करोगे और अभी पछताओगे 

तौसीफ़ साहब ने जो लिखा बहुत पुख्ता और मयारी लिखा। उन्हें उनकी "कोई एक सितारा"किताब पर अल्लामा इक़बाल हिजरा अवार्ड से और उर्दू साहित्य में दिए उनके योगदान के लिए पाकिस्तान के "प्रेजिडेंट अवार्ड "से भी नवाज़ा गया। अगर आप गंभीर शायरी के रसिया हैं तो आपको उनकी हिंदी में छपी ये किताब जरूर पढ़नी चाहिए। उनकी चुनिंदा ग़ज़लों और नज़्मों को आप रेख़्ता की साइट पर भी पढ़ सकते हैं.
अगली किताब की तलाश में निकलने से पहले मैं आईये उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाता चलता हूँ :

दिल था पहलू में तो कहते थे तमन्ना क्या है 
अब वो आँखों में तलातुम है कि दरिया क्या है 
तलातुम :बाढ़ 

शौक़ कहता है कि हर जिस्म को सिजदा कीजे 
आँख कहती है कि तूने अभी देखा क्या है 

क्या ये सच है कि खिजाँ में भी चमन खिलता है 
मेरे दामन में लहू है तो महकता क्या है 

 सच कहूं तो आप को तौसीफ़ साहब की चंद ग़ज़लों से शेर पढ़वा कर मुझे तसल्ली नहीं मिली लेकिन अब पूरी की पूरी किताब तो यहाँ पेश नहीं की जा सकती न इसलिए तो सोचा चलो आपको कुछ फुटकर शेर भी पढ़वाता चलूँ , अच्छा लगे तो बताइए जरूर : 

सुना है अस्ल-ऐ-गुलिस्तां सिवा-ऐ-ख़ाक नहीं 
अगर ये सच है तो खुशबू कहाँ से आती है 
अस्ल-ऐ-गुलिस्तां=उपवन का आधार , सिवा-ऐ-ख़ाक =मिटटी के अतिरिक्त
 *** 
याद आएँगी बहुत नींद से बोझिल पलकें 
शाम के साथ ये दुःख और घनेरा होगा 
 *** 
ज़िन्दगी ख़्वाब के साये में बसर हो जाती 
सोचा होता तुझे ,ऐ काश न देखा होता 
 *** 
ज़ीस्त तपते हुए सहरा का सफर थी शायद 
 साया होता तो मुसाफ़िर कहीं ठहरा होता
 *** 
नश्शा-ऐ-कुर्ब से आँखों का गुलाबी होना 
 खून में उठती हुई लहर से डरना उसका 
नश्शा-ऐ-कुर्ब=निकटता का नशा 
   *** 
आइना हँसता है,हँसने दो,मिरे चेहरे पर
सैंकड़ों ज़ख्म हैं हाथों से छुपाऊँ कैसे 
 *** 
अगर ये होश की दीवार गिर जाये 
 मज़ा आये तमाशा देखने में 
 *** 
बरसे जो खुल के अब्र तो दिल का कँवल खिले 
 कब तक मिज़ा-मिज़ा पे समन्दर उठाइये 
 अब्र=बादल, मिज़ा-मिज़ा=पलक-पलक 
 *** 
आईना रूठ गया चेहरे से
 इस मकाँ में नहीं रहता कोई 
 *** 
जो मुझको छोड़ गया इतना बेख़बर तो न था
 जो हमसफ़र है, मिरा दर्द जानता ही नहीं 
 *** 
जो भी गुज़रनी है आँखों पर काश इक बार गुज़र जाये 
 सर्द हवा में जुल्म तो ये है पत्ता-पत्ता गिरता है

किताबों की दुनिया -143

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कल मेरे लफ़्ज़ों में मेरी जान रहेगी 
दुनिया जब देखेगी तो हैरान रहेगी 

जब दिल से तस्वीर तेरी हट जाएगी 
जीने और मरने में क्या पहचान रहेगी

रिश्ता जब यादों का दिल से टूटेगा 
मर जाने की मुश्किल भी आसान रहेगी 

हिज्र को शब् से ऐसी तो उम्मीद न थी 
पहचानेगी मुझको और अनजान रहेगी 
हिज्र =विरह , शब् =रात 

अब क्या लिखूं ? कैसे लिखूं ? कहाँ से लिखूं ? हमारे आज के शायर उर्दू साहित्य की वो कद्दावर शख्सियत रहे हैं जिनके के बारे में लिखने की सोचना ही बहुत बड़ी बात है। हिंदी पाठक भले ही उनके नाम से ज्यादा वाकिफ़ न हों लेकिन जिस किसी को भी उर्दू अदब में जरा सी दिलचस्पी है वो जनाब "मुग़न्नी तबस्सुम"के नाम से अनजान नहीं होगा। हम आज उनकी ग़ज़लों की किताब "मिटटी मिटटी मेरा दिल "पर बात करेंगे जिसका एक एक शेर रुक रुक कर पढ़ने, पढ़वाने और दिल में बसाने लायक है। इस किताब को वाणी प्रकाशन ने सन 2002 में शाया किया था।


मैं अपने ख़्वाबों की दुनिया में खोया रहा 
कब रात ढली कब चाँद बुझा मालूम नहीं 

जब भोर भये कोयल की सदा कानों में पड़ी 
क्यों मेरे दिल में दर्द उठा मालूम नहीं 

ये जान गए हंसने की सज़ा अब मिलती है 
इस रोने का अंजाम है क्या मालूम नहीं 

सच कहूं तो "जब भोर भये कोयल की सदा कानों में पड़ी"जैसा सुरीला सरल मिसरा उर्दू शायरी में बड़ी मुश्किल से ढूंढें मिलता है और ऐसे मिसरे इस किताब के वर्क वर्क में बिखरे हुए हैं। आप सर धुनते रहिये और बस पढ़ते रहिये। शायरी की ज़बान ऐसी मीठी जैसे शहद और क्यों न हो आखिर मुग़न्नी तबस्सुम उस्मानिया विश्वविद्यालय , हैदराबाद के ऐसे होनहार तालिबे-इल्म थे जो बाद में उसी यूनिवर्सिटी में उर्दू विभाग के अध्यक्ष रहे।

बेमानी सा लगता है घर जाना भी 
दीवारों से टकराना मर जाना भी 

रस्ता तकते रहना सारी रात कभी 
आहट सुनकर क़दमों की डर जाना भी 

बादल अब जो खेल तमाशे करता है 
उसने मेरी नाव डुबो कर जाना भी

मोहम्मद अब्दुल गनी जो "मुग़न्नी तबस्सुम"के नाम से जाने जाते हैं का जन्म 19 जून 1930 को हैदराबाद में हुआ। मात्र 14 वर्ष की उम्र से ही उन्होंने शायरी शुरू कर दी. मशहूर शायर अल्लामा इक़बाल साहब की शायरी से वो बहुत प्रभावित हुए। उर्दू की प्रगतिशील विचारधारा को अपनाते हुए उन्होंने ने लेखन कार्य किया और थोड़े समय तक आधुनिक विचारधारा के समर्थक भी रहे लेकिन बाद में फिर प्रगतिशील विचारधारा की और मुड़ गए.

आसमाँ पर है अजब चाँद सितारों का समां 
दिल में देखो तो यहाँ रात का मंज़र है अलग 

पास तेरे हूँ कि क़तरा है निहाँ दरिया में 
दूर तुझसे हूँ कि सहरा से समंदर है अलग 

फुर्सते उम्र है कम, हर्फ़े तमन्ना सुन लो 
बात शिकवों की न पूछो कि वो दफ्तर है अलग
फुर्सते उम्र =ज़िन्दगी की फुर्सत , हर्फ़े तमन्ना =इच्छा की बात 

ज़िन्दगी के तजुर्बों को सीधे सरल अंदाज़ में शायरी में ढालने का हुनर जैसा तबस्सुम साहब के यहाँ मिलता है वैसा और कहीं मिलना मुश्किल है। उनके बारे में प्रोफ़ेसर शमीम ईफानफ़ी फरमाते हैं की "मुग़न्नी साहब निहायत धीमे अंदाज़ में लगभग फुसफुसाते हुए अपनी बात कहते हैं जो खरामा खरामा हमारे ज़ेहन में घर करती है और इसलिए न तो बोझ बनती है और न ही चौंकाती है , उनके अशआरों से अपनत्व का अहसाह उभरता है और हमें अपने आगोश में ले लेता है।"

तपते सहरा में ये खुशबू साथ कहाँ से आई
जिक्र ज़माने का था तेरी बात कहाँ से आई 

दिल मिटटी था आँखों में सौगात कहाँ से आई 
सावन बीत चला था ये बरसात कहाँ से आई 

बीते लम्हें टूटे भी तो याद बने या ख़्वाब 
परछाईं थी परछाईं फिर हाथ कहाँ से आई 

प्रोफ़ेसर तबस्सुम द्वारा "फ़ानी बदायूनी "पर किया गया शोध कार्य उर्दू में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज की हैसियत से जाना जाता है। एक आलोचक के रूप में जैसी प्रतिष्ठा मुगन्नि साहब ने पायी उसकी मिसाल ढूंढनी मुश्किल है। उर्दू साहित्य को नयी दिशा और उसके मयार में लगातार इज़ाफ़ा करने के उद्देश्य के लिए वो मुईनुद्दीन क़ादरी ज़ोर साहब द्वारा 1930 में हैदराबाद में स्थापित "इदारा-ऐ-अदबियत-ऐ-उर्दू"के साथ आखरी सांस तक जुड़े रहे। उर्दू भाषा में उनके द्वारा सम्पादित मासिक पत्रिका "सबरस"बहुत लोकप्रिय हुई ,उन्होंने नए लेखकों को प्रोत्साहन देने की गरज़ से छमाही पत्रिका "शेर-औ-हिक़मत"का संपादन भी सफलता पूर्वक किया।

तरस गया हूँ मैं सूरज की रौशनी के लिए 
वो दी है सायए दीवार ने सज़ा मुझको 

जो देखिये तो इसी से है ज़िन्दगी मेरी
मगर मिटा भी रही है यही हवा मुझको 

उसी नज़र ने मुझे तोड़ कर बिखेर दिया 
उसी नज़र ने बनाया था आईना मुझको 

एक बहुत लम्बी फेहरिस्त है उनकी विभिन्न विषयों जैसे शायरी , आलोचना , शोध ,जीवनी ,संकलन और संपादन पर प्रकाशित लगभग 23 किताबों की, जिनका नाम यहाँ देना संभव नहीं अलबत्ता शायरी पर उनकी ये किताबें बहुत मकबूल हैं जो उर्दू में हैं "'" : "नवा-ऐ-तल्ख़ (1946)", "पहली किरण का बोझ (1980)"'"मिटटी मिटटी मेरा दिल (1991) और "दर्द के खेमे के आसपास(2002)" .इसके अलावा देश विदेश के रिसालों में उनके लेखों की संख्या तो सैंकड़ों में है। लन्दन और अमेरिका की बड़ी बड़ी यूनिवर्सिटीज के तालिब-ऐ-इल्मों को वो उर्दू अदब के ढेरों विषयों पर हुए सेमिनारों में भाषण देने जाते थे।

तारे डूबें तो अच्छा है, चाँद बुझे तो बेहतर है 
कोई नहीं आएगा यहाँ, अब आँख लगे तो बेहतर है 

आइना वीरान खड़ा है ,अनजाना सा लगता है 
हमने चुप साधी है वो भी कुछ न कहे तो बेहतर है 

ख़्वाब में तुझसे मिलते हैं और बात दुआ में करते हैं 
तू भी हमको देखे और कुछ बोल सके तो बेहतर है 

उर्दू के इस खिदमतगार को उत्तर प्रदेश , बिहार , पश्चिमी बंगाल ,आंध्र प्रदेश , दिल्ली आदि अनेकों उर्दू अकादमियों के अलावा महाराष्ट साहित्य अकादमी ने भी पुरुस्कृत किया है। जनाब "स्वाधीन"जिन्होंने इस किताब को हिंदी में लिप्यांतर किया है लिखते हैं कि "इस शायर ने देश काल और इतिहास को अलग-थलग नहीं करते हुए अपने उस आदमी के साथ एकमेल कर दिया है जो रोज उसके भीतर जागा रहता है "

चढ़े हुए थे जो दरिया उतर गए अब तो 
मुहब्बतों के ज़माने गुज़र गए अब तो

न आहटें हैं, न दस्तक, न चाप क़दमों की 
नवाहे- जाँ से सदा के हुनर गए अब तो 
 नवाहे जाँ=प्राणो का विस्तार

सबा के साथ गयी बूए पैरहन उसकी 
ज़मीं की गोद में गेसू बिखर गए अब तो 
सबा=हवा , बुए पैरहन =गंध के वस्त्र गेसू =बाल 

उर्दू अदब का ये रौशन सितारा अपनी ज़िन्दगी के सत्तर से अधिक बरस तक अदब की खिदमत करते हुए आखिर 15 फरवरी 2012 की शाम को इस दुनिया-ऐ-फ़ानी से रुख़सत हो गया और पीछे छोड़ गया उनकी बसाई अदब की एक ऐसी पुरअसर दुनिया जो सदियों तक ज़िंदा रहेगी। डॉक्टर तबस्सुम जैसे शख्सियत कभी कहीं जाती नहीं हमेशा हमारे आसपास अपनी किताबों और रिसालों में मौजूद रहती है।
"मिटटी मिटटी मेरा दिल"में उनकी सिर्फ 60 ग़ज़लें संकलित हैं जिनमें कुल जमा 250-300 शेर होंगे लेकिन एक भी ऐसा शेर नहीं है जिसे यहाँ आपको पढ़वाने की मेरी इच्छा न हो, अफ़सोस ऐसा करना संभव नहीं। मेरी गुज़ारिश है कि आप इस किताब को वाणी प्रकाशन दिल्ली से मंगवा कर पढ़ें और देखें कि उर्दू शायरी का जादू किस तरह सर चढ़ कर बोलता है।
उनकी एक ग़ज़ल के चंद शेर पढ़वाता हूँ और फिर आपसे अगली किताब की तलाश करने को रुखसत होता हूँ :

एक अहदे विसाल चार सू है 
और दर्दे फ़िराक़ कू-ब-कू है
अहदे विसाल =मिलान का वादा , चार सू =चरों तरफ़, दर्दे फ़िराक़=जुदाई का दर्द , कू-ब -कू =गली गली 

जो सो न सके वो आँख हूँ मैं 
जो टूट गयी वो नींद तू है  

मैं सोच रहा हूँ, तू नहीं है
मैं देख रहा हूँ और तू है 

दुनिया के सारे सवाल मुझ पर
चुप हूँ कि मेरा जवाब तू है

किताबों की दुनिया -144

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पुरानी साइकल की हम मरम्मत को तरसते हैं 
हमारे गाँव का सरपंच नित कारें बदलता है 

पड़ौसी का जला कर घर तमाशा देखने वालों 
हवा का रुख बदलने में ज़रा सा वक़्त लगता है 

अंधेरों से ज़रा भी हिम्मतों को डर नहीं लगता 
हमारी आँख में उम्मीद का सूरज चमकता है 

उर्दू के भारी भरकम लफ़्ज़ों, बोझिल दार्शनिकता और लफ़्फ़ाज़ी से कोसों दूर सीधी सादी जबान में अपनी बात आप तक पहुँचाने वाले, आज हम उस शायर की किताब को आपके सामने ला रहे हैं जो अभी लोकप्रियता की सीढ़ियां ख़रामा ख़रामा चढ़ रहा है,  ये शायर खुद्दार है तभी इसका नाम किसी खेमे से नहीं जुड़ा और न ही इसकी किसी मठाधीश के चरणों में अपना माथा रगड़ने की ख़बर है। शायर का नाम है श्री "राम नारायण हलधर"और किताब का उन्वान है "अभी उम्मीद बाकी है"जिसे जयपुर के "बोधि प्रकाशन "ने जून 2017 में प्रकाशित किया है :


अलावों पर मुसीबत की, मुसल्सल मावठें बरसीं 
मग़र इस राख़ में उम्मीद का, शोला दबा सा है 

दिलासे और मत दो, दिल हमारा यार रो देगा 
ये बच्चा भीड़ में माँ-बाप से, बिछड़ा हुआ सा है 

कबूतर भी उसे लगता है मानो, बाज़ हो कोई 
वो जोड़ा हंस का, घर से अभी भागा हुआ सा है 

जब तक आप शायरी के घिसे पिटे बिम्ब और विषयों से अलग कुछ नया नहीं कहते तब तक आप कितना भी लिखें आपकी पहचान बनना मुश्किल है। नया विषय और नयी ज़मीन तलाशने के लिए जोख़िम उठाना पड़ता है ,गुलिवर की तरह अनजान जगहों की यात्रा करनी पड़ती है जो मन के अंदर और बाहर दोनों ओर होती है। युवा शायर हलधर जी ने इस जोख़िम को उठाया है और वो नए रास्तों की तलाश में चलते दिखाई देते हैं।

मुस्कानों का क़र्ज़ लिए हम चेहरा जोड़े बैठे हैं 
अंदर-अंदर सब कुछ टूटा इक बस्ती वीरान हुई 

चंदा जैसी हंसमुख लड़की जब देखो घर आती थी 
माथे पर सूरज चमका है, उस दिन से अनजान हुई 

जब सूरज ने बेमन से ये पूछा कौन कहाँ के हो 
इक जुगनू को अपने क़द की तब जा कर पहचान हुई 

राम नारायण हलधर 01 अप्रेल 1970 को राजस्थान के बारां जिला की छीपाबड़ौद तहसील के अंतर्गत आये गाँव तूमड़ा में पैदा हुए. राजकीय महाविद्यालय कोटा से उन्होंने हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल की। वर्तमान में राम नारायण जी आकाशवाणी कोटा में वरिष्ठ उद्घोषक हैं। उन्होंने अपने पिता के अदम्य साहस को जिसके बल पर वो प्राकृतिक आपदाओं से लड़ते हुए विजय प्राप्त करते रहे और माँ के मधुर कंठ से सुनी लोकगीत की स्वर लहरियों को अपनी ग़ज़लों में ढाला है।

ख़ुशी से दिल हमारा आज मीरा होने वाला है 
झुकी खेतों के ऊपर श्यामवर्णी मेघमाला है 

हिना का रंग उनके हाथ पे यूँ ही नहीं महका 
सुबह से शाम तक हमने, रसोई घर संभाला है 

वज़ीफ़ा कौन देता है हमें, हम गाँव वाले हैं 
हमारा इल्म केवल ढाई आखर वर्णमाला है 

हलधर जी ग़ज़लें पढ़ते वक्त वैसी ही ताज़गी का अहसास होता है जैसे भरी दोपहरी में किसी बरगद की छाँव में बैठने से होता है। गाँव की मिटटी और चूल्हे पर पकती रोटी की सी खुशबू आप उनकी ग़ज़लों से उठती महसूस कर सकते हैं। हो सकता है कि महानगर की चकाचौंध में रह रहे पाठकों को ये ग़ज़लें अपील न करें लेकिन जिन के मन में गाँव और उसकी सहजता सरलता बसी है वो तो जरूर पसंद करेंगे।

अभी हम लोग बच्चों से कई बातें छुपाते हैं 
किसी का तो हमें है डर, अभी उम्मीद बाकी है 

दिवाली की सजावट को घरों पे ईद तक रक्खा 
किसी मासूम की जिद पर , अभी उम्मीद बाकी है 

उसी से रूठ कर बैठा, उसी की राह तकता हूँ 
मना लेगा मुझे आकर, अभी उम्मीद बाकी है 

कोटा के वरिष्ठ कवि और समीक्षक अरविन्द सरल जी इस किताब की भूमिका में लिखते हैं कि "खेत-खलियान, किसान और उसके जीवन के दुःख-दर्द जितनी भरपूर मात्रा में हलधर के यहाँ हैं, ग़ज़ल में तो संभवतः और कहीं नहीं होंगे। "अरविन्द जी की बात इस संग्रह को पढ़ते वक्त मुझे सोलह आना सही लगी लेकिन मुझे उनकी ग़ज़लों में अद्भुत काव्य सौंदर्य और शिल्प की कलात्मकता के साथ साथ उनकी सकारात्मक सोच भी नज़र आयी। खेत खलियानो और गाँव के इतर रची उनकी ग़ज़लें भी जादू सा असर करने में सक्षम हैं .

तेरे पापा का कोई फोन आया 
बड़ी उम्मीद से, पूछा करो हो 

किसी ने सांवली कह दिल दुखाया 
घटा क्यों ,रात भर बरसा करो हो

न यूँ नाराज़ हो कर सोइयेगा 
सुबह तक करवटें बदला करो हो 

हम सब जानते हैं कि छोटी बहर में ग़ज़ल कहना दोधारी तलवार पर चलने के समान है इसपर चलने के लिए जबरदस्त अनुभव और संतुलन की जरुरत होती है। बहुत से शायरों ने छोटी बहर पर अच्छी ग़ज़लें कही हैं "विज्ञान व्रत"जी को तो इसमें महारत हासिल है लेकिन हलधर जी ने भी इस संग्रह में बहुत सी ग़ज़लें छोटी बहर में कही हैं उन्हीं में से एक ग़ज़ल के चंद शेर गौर करें और देखें की किसतरह उन्होंने शब्दों का चयन किया है

वो इक आकाश गंगा है 
मेरा मन वेधशाला है 

कई अनजान लिपियों सा 
तेरा मासूम चेहरा है 

न कर चर्चा सियासत की 
यहाँ इक पौधशाला है 

बहुमुखी प्रतिभा के धनी 'हलधर"जी ग़ज़लों के अलावा दोहे, गीत, गद्य-व्यंग और आधुनिक छंद मुक्त कवितायेँ भी लिखते हैं। उनकी रचनाएँ पिछले दो दशकों से देश की प्रसिद्ध अख़बारों और पत्रिकाओं जैसे पंजाब सौरभ , पाञ्चजन्य,दैनिक जागरण, नई दुनिया, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, सरिता, डेली न्यूज , जनसंदेश टाइम्स, व्यंग यात्रा , मधुमती आदि में निरंतर प्रकाशित होती रहती हैं। उनका दोहा संग्रह "शिखरों के हक़दार"सं 2012 में प्रकाशित हो कर चर्चित हो चुका है। "अभी उम्मीद बाक़ी है "उनका पहला ग़ज़ल संग्रह है।

रोज़ पत्थर उछालता मैं भी 
घर मेरा कांच का नहीं होता 

तितलियों के परों को देखो फिर 
हमसे कहना , खुदा नहीं होता 

क़र्ज़ लेकर उजास करता है 
हर कोई चाँद सा नहीं होता 

लोकप्रिय शायर "आलोक श्रीवास्तव"ने इस किताब की भूमिका में लिखा है कि "इस संग्रह की ज़्यादातर ग़ज़लें हिंदी ग़ज़ल के घराने से आती हैं ,इसलिए उर्दू-ग़ज़ल के खानदान वाले यहाँ थोड़ा रुक-रुक कर, ठिठक-ठिठक कर चलेंगे ऐसा मेरा ख्याल है।"आलोक जी का ख्याल हो सकता है सही हो लेकिन मेरा ख्याल है की पाठक चाहे उर्दू ग़ज़ल का हो या हिंदी ग़ज़ल का अगर कहन में ताज़गी है तो वो उसे पसंद करता है , बहुत कम पाठक हैं जो उर्दू-हिंदी के झमेले में पढ़ते हैं और भाषा के बिना पर ग़ज़ल को पसंद नापसंद करते हैं।

रोने के हैं लाख बहाने रो लीजे 
हंसने में आसानी हो तो ग़ज़लें हों 

विज्ञापन से कब तक प्यास बुझाएं हम 
बादल बांटे गुड़-धानी तो ग़ज़लें हों 

करवट लेकर चाँद अकेला सोया है 
छोड़े ज़िद-आनाकानी तो ग़ज़लें हों 

हलधर जी को उनकी काव्य यात्रा के दौरान भारतेन्दु समिति कोटा द्वारा "साहित्य श्री सम्मान ", सृजन साहित्य एवं सांस्कृतिक संस्था कोटा द्वारा "सृजन साहित्य सम्मान", डॉ.रतन लाल शर्मा स्मृति सम्मान और हिंदी साहित्य सभा आगरा द्वारा "ओम प्रकाश त्रिपाठी स्मृति सम्मान"प्राप्त हो चुका है। अगर आप हलधर जी लीक से हट कर लिखी ग़ज़लों का आनंद लेना चाहते हैं तो इस किताब को तुरंत अमेज़न से घर बैठे मंगवा लें या फिर जयपुर के बोधि प्रकाशन के श्री माया मृग जी से 9829018087 पर संपर्क करें , जैसा मैं हमेशा कहता आया हूँ आज फिर कहूंगा कि आप शायर से सीधा संपर्क कर उसे बधाई दें और किताब प्राप्ति का रास्ता पूछें। हलधर जी से संपर्क करने के विविध रास्ते ये हैं :

मोबाईल द्वारा : 9660325503 पर संपर्क करें
rnmhaldhar@gmail.com पर इ-मेल करें
डी -27, गली नंबर -1, कृष्णा नगर , पुलिस लाइन , कोटा-324001 पर पत्र लिखें

आप जो जी में आये रास्ता इख़्तियार करें मैं चलता हूँ उनके कुछ फुटकर शेर आपको पढ़वा कर :

दर्द घुटनों का मेरा जाता रहा ये देख कर
थामकर ऊँगली नवासा सीढ़ियां चढ़ने लगा 
*** 
बरी हो कर मेरा क़ातिल सभी के सामने खुश है 
अकेले में फ़फ़क कर रो पड़ेगा , देखना इक दिन 
*** 
मौन के शूल को पंखुड़ी से छुआ 
मुस्कुराने से मुश्किल सरल हो गयी
*** 
कभी है "चौथ"उलझन में, कभी रोज़े परेशां हैं 
किसी दिन चाँद के ख़ातिर, बड़ी दीवार टूटेगी
*** 
तेरा वादा सियासतदान ऐसा खोटा सिक्का है 
जिसे अँधा भिखारी भी सड़क पर फेंक देता है

किताबों की दुनिया -145

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आप तस्वीर में न मर जाएँ 
चलना फिरना बहुत जरूरी है 

ज़िन्दगी में बिना किताबो-क़लम 
पढ़ना-लिखना बहुत जरूरी है 

याद करना उसे जरूरी नहीं 
याद रखना बहुत जरूरी है 

मेरा होना पता नहीं चलता 
तुमको छूना बहुत जरूरी है 

जब कभी भी छोटी बहर में कही ग़ज़लों का जिक्र होगा तो वो जनाब "विज्ञान व्रत"का नाम लिए बिना मुकम्मल नहीं होगा। छोटी बहर में उन्होंने इतनी ग़ज़लें कही हैं कि आप सोच भी नहीं सकते तभी तो उनके पांच या शायद छै ग़ज़ल संग्रह छप कर चर्चित हो चुके हैं। आप सोचेंगे कि इस श्रृंखला में विज्ञान व्रत जी के ग़ज़ल संग्रह की चर्चा तो पहले हो चुकी है तो फिर आज दोबारा से उनका जिक्र क्यों ? वो इसलिए कि आज के हमारे शायर भी छोटी बहर में ग़ज़ल कहने वाले शायरों की फेहरिश्त में बहुत अहम् मुकाम रखते हैं। जैसा मैं हर बार कहता हूँ कि छोटी बहर में कही ग़ज़ल पढ़ने सुनने में बहुत आसान सी लगती है लेकिन होती नहीं। गागर में सागर भरने के लिए आपके पास अनोखा हुनर होना चाहिए, तभी बात बनेगी , थोड़ी सी चूक हुई और शेर ढेर हुआ।

तिरे नज़दीक आना चाहता हूँ 
मैं खुद से दूर जाना चाहता हूँ 

तुझे छूना मिरा मक़सद नहीं है 
मैं खुद को आज़माना चाहता हूँ 

वही तो सोचता रहता हूँ हर दम 
मैं तुमको क्या बताना चाहता हूँ 

अदाकारी बड़ा दुःख दे रही है 
मैं सचमुच मुस्कुराना चाहता हूँ 

ज़िला बदायूं के बिसौली क़स्बे के एक नीम सरकारी महकमे में मुलाज़िम ज़नाब अहमद शेर खां उर्फ़ मद्दन खां के यहाँ चार जनवरी 1952 को जिस बेटे का जन्म हुआ उसका नाम रखा गया "ज़मा शेर खान उर्फ़ पुत्तन खान "जो आगे चल कर शायर जनाब "फ़ेहमी बदायूंनी"के नाम से पहचाने जाने लगे, आज इस श्रृंखला में हम उनके "ऐनीबुक "गाज़ियाबाद द्वारा देवनागरी में बेहद ख़ूबसूरती से प्रकाशित पहले ग़ज़ल संग्रह "पांचवी सम्त"की बात करेंगे। पेपरबैक में छपे इस संग्रह का आवरण और छपाई बहुत दिलकश है , किताब हाथ में लेते ही इसे पढ़ने की चाहत बलवती हो उठती है।


 मिरी वादा-खिलाफ़ी पर वो चुप है 
उसे नाराज़ होना चाहिये था 

अब उसको याद करके रो रहे हैं 
बिछड़ते वक़्त रोना चाहिये था 

चला आता यक़ीनन ख़ाब में वो 
हमें इक रात सोना चाहिये था 

हमारा हाल तुम भी पूछते हो 
तुम्हें मालूम होना चाहिये था 

किताब की भूमिका में मशहूर शायर और आलोचक जनाब "मयंक अवस्थी"साहब लिखते हैं कि "फ़हमी साहब ने छोटी बहर में बेशतर ग़ज़लें कही हैं और लफ्ज़ को बरतने में भी और उसे मआनी देने में भी उनका जवाब नहीं। इनके हर शेर की रूह नूरानी है।ऊला-सानी का रब्त बेहद असरदार है और इनके शेर का जिस्म तो चुराया जा सकता है रूह कतई नहीं। बयान शफ़्फ़ाक़ पानियों जैसा है -किसी बेअदब ग़ैर जरूरी लफ्ज़ का रत्ती भर दख़्ल इनकी शायरी में नहीं हो सकता। इस बुलंद मफ़्हूम के नाख़ुदा ने बेहद आसान लफ़्ज़ों की नाव से गहरे अर्थों के बेशुमार समंदर सर किये हैं। "

जब रेतीले हो जाते हैं 
पर्वत टीले हो जाते हैं 

तोड़े जाते हैं जो शीशे 
वो नोकीले हो जाते हैं 

फूलों को सुर्खी देने में 
पत्ते पीले हो जाते हैं 

फ़हमी साहब ने बदायूं से इंटरमीडिएट तक की तालीम 1968 में हासिल की चूँकि उस वक्त बदायूं में कोई डिग्री कॉलेज नहीं था इसलिए तालीम हासिल करने के लिए तालिब-ऐ-इल्मों को बरेली या चंदौसी जाना पड़ता था ,फ़हमी साहब के घर की हालत इस लायक नहीं थी कि वो घर छोड़ कर बाहर जाते लिहाज़ा उन्होंने घर पर किताबें ला कर ग्रेजुएशन की पढाई करने की ठानी। घर पर पढाई चलती रही और इस बीच उन्हें 1970 में यू पी गवर्नमेंट के रेवन्यू महकमे में "चकबंदी लेखपाल"की नौकरी मिल गयी जो उन्हें हुए पीलिया के हमले के बाद ज़्यादा लम्बी नहीं खिंच पायी। इस बीच शादी भी हो गयी और बच्चे भी। बेरोज़गारी के आलम में उन्होंने स्कूली बच्चों के लिए गणित और साइंस विषयों की ट्यूशन लेनी शुरू की। उनके पढ़ाने का अंदाज़ और विषयों पर पकड़ इस कदर लोकप्रिय हुई की उनसे बीएससी और इंजीनियरिंग के छात्र भी ट्यूशन लेने आने लगे और ज़िन्दगी की गाड़ी पटरी पर दौड़ने लगी।

हर कोई रास्ता बताएगा 
कोई चल कर नहीं दिखायेगा 

जलना-बुझना भी और उड़ना भी 
चाँद जुगनू से हार जायेगा 

नाम दरिया है जब तलक तेरा 
हर समंदर तुझे बुलाएगा 

रिवायत से हट कर शायरी करना और बात कहने का नया सलीका ईज़ाद करना फ़हमी साहब की खासियत है।उनके बहुत से शेर मुहावरों की तरह इस्तेमाल किये जा सकते हैं। सब से बढ़िया बात जो उनकी शायरी में नज़र आती है वो ये कि आपको ऐसा एक भी लफ्ज़ उनकी शायरी का हिस्सा नहीं बनता नहीं दिखता जिसका मतलब खोजने के लिए पाठक को लुग़त मतलब डिक्शनरी का सहारा लेना पड़े. लियाकत ज़ाफ़री साहब ने फ़हमी साहब की शायरी के बारे में लिखा है कि "फ़हमी का शेर पहली ही रीडिंग में पकड़ लेता है... फिर सोचने पर मजबूर करता है.... उसके बाद परत दर परत खुलने लगता है ...और फिर जिस पाठक का जो मेयार है उसी के मुताबिक़ उसे मज़ा दे कर आगे निकल जाता है "

जब तलक तू नहीं दिखाई दिया 
घर कहीं का कहीं दिखाई दिया 

रोज़ चेहरे ने आईने बदले 
जो नहीं था नहीं दिखाई दिया

बस ये देखा कि वो परेशां है 
फिर हमें कुछ नहीं दिखाई दिया

"नदीम अहमद काविश"साहब ने इस संकलन में फ़हमी साहब की बेजोड़ 90 ग़ज़लें संगृहीत की हैं जो बार बार पढ़ी जाने योग्य हैं। बहुत से शेर तो पढ़ने के साथ ही आपके ज़ेहन में घर कर लेते हैं। लियाक़त ज़ाफ़री साहब ने इस किताब की भूमिका में फ़हमी साहब के लिए बहुत दिलचस्प अंदाज़ में लिखा है कि "फ़हमी एक ऐसा शायर जिसकी तबई-उम्र का अंदाज़ा उसकी शायरी से कर पाना तक़रीबन ना-मुमकिन है....फ़हमी की उम्र का उसके शेर से कोई लेना देना नहीं ... सिरे से उलट मामला है यहाँ.... आप में से पच्चीस-तीस वालों को ये साठ-सत्तर का कोई तज्रिबेकार बूढा लगेगा और साठ-सत्तर वालों को कोई नटखट रूमानी लौंडा जिसने अभी अभी इ-टीवी उर्दू के मुशायरे पढ़ने शुरू किये हैं....

लिख के रख लीजिये हथेली पर 
हाथ मलना शिकस्त खाना है 

ये जो तिल है तुम्हारे आरिज़ पर 
ये मुहाफ़िज़ है या खज़ाना है 
आरिज़=गाल , मुहाफ़िज़ =रक्षक 

बादलों से दुआ सलाम रखो 
हमको मिटटी का घर बनाना है 

आप कहते हैं पास तो आओ 
ये डराना है या बुलाना है

इस बाकमाल किताब के शेर पढ़वाने का लालच मुझे अब छोड़ना पड़ेगा क्यूंकि अगर सभी शेर यहाँ आपको पढ़वा दिए तो आप किताब मंगवाएंगे नहीं जबकि मेरा मक़सद इस किताब को आपकी किताबों की अलमारी में सजा हुआ देखना है। किताब मंगवाने के लिए आप अमेज़न की शरण में जा सकते हैं या फिर ऐनीबुक के पराग अग्रवाल से 9971698930पर संपर्क करें उन्हीं से आपको फ़हमी साहब का सम्पर्क सूत्र भी मिलेगा ताकि आप इस लाजवाब शायरी के लिए इसके शायर को मुबारकबाद दे सकें। देर मत कीजिये बस कोई सा भी रास्ता अख्तियार कर किताब मंगवा लीजिये उसे इत्मीनान से पढ़िए और फिर मुझे अगर चाहें तो धन्यवाद दीजिये। आखिर में उनकी कुछ और ग़ज़लों के चुनिंदा शेर आपकी खिदमत में पेश कर रुख़सत होता हूँ और निकलता हूँ अगली किताब की तलाश में :

छिपकली ने बचा लिया वरना 
रात तन्हाई जान ले लेती 
*** 
इक जनाज़े के साथ आया हूँ 
मैं किसी क़ब्र से नहीं निकला 
*** 
वहां फ़रहाद का ग़म कौन समझे 
जहां बारूद पत्थर तोड़ती है 
*** 
उसे लेकर जो गाड़ी जा चुकी है 
मैं शायद उसके नीचे आ गया हूँ 
*** 
बस वही लफ़्ज़ जानलेवा था 
ख़त में लिख कर जो उसने काटा था
*** 
शिकार आता है क़दमों में बैठ जाता है 
हमारे पास कोई जाल वाल थोड़ी है 
*** 
फूल को फूल ही समझते हो 
आपसे शायरी नहीं होगी 
*** 
तिरे मौज़े यहीं पर रह गए हैं 
मैं इनसे अपने दस्ताने बना लूँ 
*** 
नमक की रोज़ मालिश कर रहे हैं 
हमारे ज़ख़्म वर्जिश कर रहे हैं 
*** 
अदालत फ़र्शे-मक़्तल धो रही है 
उसूलों की शहादत हो गयी क्या 
फ़र्शे-मक़्तल = वध स्थल

किताबों की दुनिया -146

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तअल्लुक़ की नई इक रस्म अब ईजाद करना है 
न उसको भूलना है और न उसको याद करना है 

ज़बाने कट गईं तो क्या, सलामत उँगलियाँ तो हैं 
दरो-दीवार पे'लिख दो तुम्हें फ़रियाद करना है 

बना कर एक घर दिल की ज़मीं पर उसकी यादों का 
कभी आबाद करना है कभी बर्बाद करना है 

तक़ाज़ा वक़्त का ये है न पीछे मुड़ के देखें हम 
सो हमको वक़्त के इस फ़ैसले पर साद करना है 
साद =सही निशाना लगाना 

बनारस के पुस्तक मेले में राजपाल पब्लिकेशन के स्टॉल पर जब अचानक इस किताब पर नज़र पड़ी तो उठा लिया और इसके आख़री फ्लैप पर लिखी इस इबारत को पढ़ कर इस किताब को खरीदने में एक लम्हा भी ज़ाया नहीं किया ,लिखा था कि "ये शायद पाकिस्तानी और हिन्दुस्तानी औरत का मुश्तर्का अल्मिया (एक जैसी ट्रेजिडी) है कि औरत का कोई घर नहीं होता। वो हमेशा चार रिश्तों की मुहताज रहती है बाप, भाई, शौहर और बेटा।"वैसे ये बात सिर्फ हिंदुस्तान या पाकिस्तान की औरतों की ही नहीं है बल्कि ये सच्चाई कमोबेश पूरी दुनिया की औरतों पर लागू होती है .

कैसा अजीब दुःख है कि देखा न रात भर
आँखों ने कोई ख़्वाब भी, सोने के बावजूद

उगने लगी है फिर से अंधेरों की एक फ़स्ल
तारों को इस ज़मीन पर बोने के बावजूद

खूं से लिखा हुआ है कोई नाम आज भी
क़ातिल की आस्तीन पे'धोने के बावजूद

अहसास की कमी है कि इंतिहाए- कर्ब
आँखों में अश्क ही नहीं रोने के बावजूद
इंतिहाए- कर्ब =वेदना की चरम अवस्था 

'आँखों में अश्क ही नहीं रोने के बावजूद'जैसा मिसरा किसी शायर के लिए कहना मुश्किल काम है, ऐसे मिसरे कोई शायरा ही कह सकती है। स्त्री के दुःख को पुरुष समझ तो सकता है लेकिन उसे सही ढंग से शायद बयाँ नहीं कर सकता। किताबों की दुनिया में आज जिस किताब की बात होगी वो है "पांचवी हिजरत"जिसकी शायरा हैं पाकिस्तानी मशहूर शायरा "हुमैरा राहत"साहिबा। हिंदी के पाठकों के शायद ये नाम बहुत जाना पहचाना न हो क्यों की हिंदी में छपने वाली ये उनकी पहली किताब है।


रहे-दीवानगी से डर न जाये 
तुम्हारा इश्क मुझ में मर न जाये  

 खुदा के बाद जो है आस मेरी 
वही इक शख़्स तन्हा कर न जाये 

कभी ऐसा भी कोई मु'जिज़ा हो 
कि ये महताब अपने घर न जाये
मु'जिज़ा=चमत्कार 

 1959 में जन्मी हुमैरा राहत करांची में रहती हैं, घर-बार वाली ख़ातून शायरा हैं और स्कूल में पढ़ाती हैं। अदब की दुनिया में उनका रिश्ता शायरी के साथ साथ अफ़सानानिगारी से भी है और पाकिस्तान के अदबी हल्क़ों में अलग से पहचानी जाती हैं। इस किताब की भूमिका का आग़ाज़ वो जिस अंदाज़ से करती हैं वो बेहद दिलकश है उन्होंने लिखा है "ज़िन्दगी क्या है ! लम्ह-ऐ-अज़ल से लम्ह-ऐ-अबद तक ( पैदा होने से लेकर मरने तक का क्षण ) आँख की पुतली में जमी हुई हैरत ! पहले होने की फिर न होने की। इसी हैरत के आस-पास इश्क का कारखाना है। मगर इश्क ने भी हैरत की कोख़ से जनम लिया है , इश्क का अपना एक जहान -ऐ- हैरत है. मैंने जब अपने अंदर झाँका तो उसी जहान -ऐ-हैरत में मेरी शायरी भटक रही थी सो इसी शायरी का हाथ थाम कर मैं आपकी दुनिया में चली आयी हूँ।"

 हरेक ख़्वाब की ता'बीर थोड़ी होती है 
 मुहब्बतों की ये तक़दीर थोड़ी होती है 

 सफ़र ये करते हैं इक दिल से दूसरे दिल तक 
दुखों के पांवों में ज़ंजीर थोड़ी होती है 

 दुआ को हाथ उठाओ तो ध्यांन में रखना 
 हरेक लफ़्ज़ में तासीर थोड़ी होती है 

 हुमैरा साहिबा जब सार्क सम्मेलन में भाग लेने सन 2011 में पाकिस्तानी प्रतिनिधि मंडल के साथ आगरा तशरीफ़ लायी तो उनकी मुलाकात दिल्ली के मशहूर शायर आलोचक और अनुवादक जनाब सुरेश सलिलसाहब से हुई। सुरेश जी ने जब उन्हें एक महफ़िल में अपनी ग़ज़लें और नज़्में सुनाते सुना तो सोचा कि क्यों न इनकी ग़ज़लों और नज़्मों का हिंदी अनुवाद कर उसे एक बड़े पाठक वर्ग तक पहुँचाया जाय। बात हुई लेकिन अंजाम तक न पहुंची। एक लम्बे अर्से के बाद फिर से ये बात जनाब नूर ज़हीर के माध्यम से उठाई गयी ,सुरेश जी दुबारा हुमैरा साहिबा से मिले जिसका नतीजा "पांचवीं हिजरत"की शक्ल में मंज़र-ऐ-आम पर दिखाई दिया. 

 बारिश के कतरे के दुःख से नावाकिफ़ हो 
 तुम हँसते चेहरे के दुःख से नावाकिफ़ हो 

 साथ किसी के रह कर के जो तनहा कटता है 
 तुम ऐसे लम्हे के दुःख से नावाकिफ़ हो 

 इक लम्हे में किर्ची -किर्ची जो हो जाये 
 तुम उस आईने के दुःख से नावाकिफ़ हो 

 मुहब्बत के कई कई शेड्स आपको उनकी शायरी में दिखाई देते हैं हुमैरा कहती हैं "इश्क और मोहब्बत में मामूली सा फर्क है -मुहब्बत इब्तिदा है और इश्क इन्तहा , मुहब्बत रसाई (पहुँच, प्रवेश) है और इश्क नारसाई (पहुँच से परे), मुहब्बत दुआ है और इश्क इबादत ,मुहब्बत तलब है और इश्क हैरत। बहुत सारे रंग हैं इश्क के मगर जब आँखें उन रंगों में इम्तियाज़ पर क़ादिर (चुनने पर आमादा ) हो जाती हैं तो एक ही रंग बन जाता है -आंसुओं का रंग , तिश्नगी और आबलापाई का रंग।"

हिसारे-ज़ात से बाहर निकलना चाहती हूँ मैं 
अब हर हुक्म से इंकार करना चाहती हूँ 
 हिसारे-ज़ात =ख़ुदी के दायरे से 

 ज़मीं पर घर की बुनियादें बहुत कमज़ोर ठहरीं 
 मैं अब पानी पे'घर तामीर करना चाहती हूँ 

 किसी हरफ़े-सताइश की तलब दिल में नहीं है
 मैं खुद अपने लिए सजना-सँवरना चाहती हूँ 
 हरफ़े-सताइश की तलब =किसी से सराहना पाने की इच्छा 

 हुमैरा राहत की शायरी की तीन किताबें मंज़र-ऐ-आम पर आ चुकी हैं इन्हीं सब किताबों में से चुनिंदा 46 ग़ज़लें और 37 नज़्में सुरेश सलिल जी ने हिंदी में लिप्यांतर कर इस संग्रह में संकलित की हैं। किताब को राजपाल एंड सन्ज ने प्रकाशित किया है। सभी रचनाएँ अपने अलग रंग और लहज़े के कारण पढ़ने योग्य हैं। उनके कुछ शेर देर तक ज़ेहन में घूमते रहते हैं। 

 है चलन कितना अजब ये कि मिरे अहद में लोग 
 बीज बोते नहीं मिटटी में , समर मांगते हैं 
 समर=फल 

 इस क़दर घर को उजड़ते हुए देखा है कि अब
 घर की ख़्वाइश नहीं रखते हैं खंडहर मांगते हैं 

 संगदिल धूप में उम्मीद है बारिश की हमें 
 और साहिल पे'बना रेत का घर मांगते हैं 

 हुमैरा साहिबा ने शायरी के अलावा उपन्यास और कहानियां भी लिखी है लेकिन नज़्मों की और उनका झुकाव ज्यादा है। इस किताब में संग्रहित नज़्में कमाल की हैं कुछ तो बिलकुल नयी हैं जो इस किताब के अलावा अभी तक और कहीं प्रकाशित नहीं हुई। उनका कहना है कि"नज़्म अफ़साने से ज़्यादा क़रीब होती है ,वही पहली लाइन चौका देने वाली ,एहसास की नज़ाकत, ज़ज़्बात का इज़हार और फिर आखिर में एक अबूझ अपरिभाषित सी प्यास का रह जाना। नज़्म कभी मुकम्मल नहीं होती और अफ़साना भी हमेशा अधूरा ही रहता है शायद यही वजह है कि नज़्म लिखने में मुझे ज्यादा लुत्फ़ आता है "आईये पहले उनकी कुछ एक छोटी -छोटी नज़्मों का लुत्फ़ लें : 

1. तेरा नाम
 बारिशों के मौसम में 
 छत पे'बैठ के तन्हा 
 नन्ही नन्ही बूंदों से 
 तेरा नाम लिखती हूँ 

 2. काश 
 मेरे मालिक 
 बहुत रहमो-करम 
 मुझ पर किये तूने 
 मैं तेरा शुक्र अदा करते नहीं थकती 
 मगर, बस एक छोटी सी शिकायत है
 कि मेरी ज़िन्दगी में 
 इतने सारे 'काश' 
क्यों रक्खे 

 3. सवाल 
 मुहब्बत आशना लम्हे (प्रेम पूर्ण क्षण ) 
छिपाये इक अजब सा कर्ब (वेदना ) 
लहज़े में मुझी से पूछते हैं 
ये अगर हर ख़्वाब की किस्मत में 
 मर जाना ही लिखा है 
 तो आँखें देखती क्यों हैं 

 ये तो मैंने बता ही दिया है कि अगर आपको किताब चाहिए तो राजपाल एंड सन्ज दिल्ली से संपर्क करें , उनकी एक साइट भी है जी पर जा कर आप ऑन लाइन किताब मंगवा सकते हैं अगर वहां से नहीं तो अमेजन पर भी ये किताब उपलब्ध है , वैसे है तो myshopbazzar और universalbooksellers पर भी , आप जहाँ से चाहें मंगवा लें , पढ़ें और फिर फेसबुक पर हुमैरा जी के पेज पर जा कर बधाई भी दे आएं। आपकी सुविधा के लिए मैं ऑन लाइन मंगवाने के लिए तीन लिंक दे रहा हूँ आपको इनपर क्लिक करके ऑर्डर ही करना है बस।

 https://www.myshopbazzar.com/panchvin-hijrat-humaira-rahat.html

  
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 आखिर में जैसा कि हमेशा करता आया हूँ आपको उनकी एक ग़ज़ल के चंद शेर पढ़वाता चलता हूँ , शेर नहीं इस बार चलिए एक नज़्म पढ़वाता हूँ उम्मीद है पसंद आएगी : 

 क्या मोहब्बत एक पल है 

 मैं दिल से पूछती हूँ 
 क्या मोहब्बत को भुलाना 
 इस कदर आसान होता है
 "चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों " 
बस इस मिसरे की ऊँगली थाम कर 
 बरसों पुराना साथ पल में तोड़ देते हैं 
 मोहब्बत एक लम्हा तो नहीं
 जो ज़िन्दगी में आये 
 और वापस चला जाय 
 मोहब्बत उम्र है 
 और उम्र जां के साथ जाती है 
 मोहब्बत आईना कब है
 मोहब्बत अक्स है 
 जब आईना गिर कर ज़मीन पर 
 टूट जाता है 
 तो अपने अक्स को टूटे हुए टुकड़ों में भी 
 महफूज़ रखता है 
 तो फिर मुमकिन नहीं कि 
 अजनबियत का लबादा ओढ़ कर
 कोई ये कह दे कि 
चलो अब लौट जाते हैं.....

किताबों की दुनिया -147

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दूर से इक परछाईं देखी अपने से मिलती-जुलती
पास से अपने चेहरे में भी और कोई चेहरा देखा

सोना लेने जब निकले तो हर-हर ढेर में मिटटी थी
जब मिटटी की खोज में निकले सोना ही सोना देखा

रात वही फिर बात हुई ना हम को नींद नहीं आयी
अपनी रूह के सन्नाटे से शोर सा इक उठता देखा

हिंदी पाठकों ने नासिर काज़मी और इब्ने इंशा का नाम जरूर सुना होगा जिन्होंने ग़ज़ल को ऐसी लय दी जिसे नई ग़ज़ल का नाम दिया जाता है लेकिन शायद अधिकांश ने जनाब खलीलुर्रहमान आज़मी साहब का नाम नहीं सुना होगा जिनका नाम भी उन दोनों शायरों के साथ ही लिया जाता है। आज़मी साहब को सन 1950 के बाद लिखी जाने वाली ग़ज़ल का इमाम कहा जाता है। आज हम उनकी किताब "ज़ंज़ीर आंसुओं की"की बात करेंगे जिसे सन 2010 में वाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया था।



न जाने किसकी हमें उम्र भर तलाश रही 
जिसे करीब से देखा वो दूसरा निकला 

हमें तो रास न आयी किसी की महफ़िल भी 
कोई खुदा कोई हमसायए-खुदा निकला
हमसायए-खुदा=खुदा का पड़ौसी 

हमारे पास से गुज़री थी एक परछाईं 
पुकारा हमने तो सदियों का फासला निकला 

खलीलुर्रहमान आज़मी 9 अगस्त 1927 को जिला आज़मगढ़ के एक गाँव सीधा सुल्तानपुर के एक मध्यमवर्गीय परिवार में पैदा हुए। उनके पिता मोहम्मद शफ़ी बहुत धार्मिक प्रवृति के इंसान थे। प्रारम्भिक शिक्षा शिब्ली नेशनल हाई स्कूल से हासिल करने के बाद वह 1945 में अलीगढ आये ,1948 में बी.ऐ और उर्दू में एम् ऐ की तालीम, प्रथम स्थान प्राप्त कर,अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय से हासिल की। सन 1953 से वो अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में बतौर लेक्चरर पढ़ाते रहे। सन 1957 में उन्होंने "उर्दू में तरक्की पसंद अदबी तहरीक "विषय पर, जो उर्दू में आज भी बेहतरीन दस्तावेज माना जाता है, पी एच.डी की डिग्री पायी। जून 1978 को ब्लड कैंसर से लम्बी लड़ाई लड़ते हुए वो दुनिया-ऐ-फ़ानी से कूच फ़रमा गए।

हाँ तू कहे तो जान की परवा नहीं मुझे
यूँ ज़िन्दगी से मुझको मोहब्बत जरूर है

अपना जो बस चले तो तुझे तुझसे मांग लें 
पर क्या करें की इश्क की फितरत ग़यूर है
ग़यूर :स्वाभिमान 

आरिज़ पे तेरे मेरी मोहब्बत की सुर्खियां 
मेरी जबीं पे तेरी वफ़ा का गुरूर है 

अपने स्कूली दिनों से आज़मी साहब ने शायरी शुरू कर दी। उनकी लिखी रचनाएँ तब की बच्चों की प्रसिद्ध पत्रिका "पयामि तालीम "में छपती रहीं। उन्हें गद्य और पद्य दोनों विधाओं पर सामान रूप से अधिकार प्राप्त था. उर्दू साहित्य की परम्परागत लेखन शैली में उन्होंने आधुनिकता के पुट का समावेश किया। प्रगतिशील आंदोलन से वो जीवन पर्यन्त जुड़े रहे। वो प्रगतिशील लेखक संघ के सेक्रेटरी भी रहे।

हर खारों-ख़स से वज़अ निभाते रहे हैं हम 
यूँ ज़िन्दगी की आग जलाते रहे हैं हम 

इस की तो दाद देगा हमारा कोई रक़ीब 
जब संग उठा, तो सर भी उठाते रहे हैं हम 

ता दिल पे ज़ख़्म और न कोई नया लगे 
अपनों से अपना हाल छिपाते रहे हैं हम 

आलोचकों का विचार है कि खलीलुर्रहमान आज़मी एक ऐसे प्रगतिशील शायर थे जिन्होंने प्रगतिशीलता और आधुनिकता के दरमियान पुल का काम किया। उनकी शायरी के दो संग्रह "कागज़ी पैरहन (1955 )और "नया अहद नामा (1966 ) उनके जीवन काल में प्रकाशित हुए जबकि "ज़िन्दगी-ऐ-ज़िन्दगी" 1983 में उनके देहावसान के बाद। यूँ उनकी अनेक विषयों पर दर्जनों किताबें हैं और वो सभी उर्दू साहित्य की धरोहर हैं। प्रोफ़ेसर शहरयार ने उनकी कुलियात "आसमां-ऐ-आसमां"नाम से प्रकाशित करवाई।

तमाम यादें महक रहीं हैं हर एक गुंचा खिला हुआ है
ज़माना बीता मगर गुमां है कि आज ही वो जुदा हुआ है

कुछ और रुसवा करो अभी मुझको ता कोई पर्दा रह न जाए 
मुझे मोहब्बत नहीं जुनूँ है जुनूँ का कब हक़ अदा हुआ है 

वफ़ा में बरबाद होके भी आज ज़िंदा रहने की सोचते हैं 
नए ज़माने में अहले-दिल का भी हौसला कुछ बढ़ा हुआ है 

सन 1978 में ग़ालिब सम्मान से सम्मानित खलीलुर्रहमान साहब की ये किताब हिंदी में छपी उनकी पहली किताब है जिसे शहरयार और महताब हैदर नक़वी साहब ने सम्पादित किया है। इस किताब में आज़मी साहब की लगभग 40 ग़ज़लें और इतनी ही नज़्में आदि शामिल हैं। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप जैसा मैं पहले बता चूका हूँ ,आप दिल्ली के "वाणी प्रकाशन "से संपर्क कर सकते हैं चलते चलते आईये उनकी ग़ज़लों के कुछ शेर आपको पढ़वाता हूँ :-

तेरे न हो सके तो किसी के न हो सके 
ये कारोबारे-शौक़ मुक़र्रर न हो सका 
*** 
यूँ तो मरने के लिए ज़हर सभी पीते हैं 
ज़िन्दगी तेरे लिए ज़हर पिया है मैंने 
*** 
क्या जाने दिल में कब से है अपने बसा हुआ 
ऐसा नगर कि जिसमें कोई रास्ता न जाए
*** 
हमने खुद अपने आप ज़माने की सैर की 
हमने क़ुबूल की न किसी रहनुमा की शर्त 
*** 
कहेगा दिल तो मैं पत्थर के पाँव चूमूंगा 
ज़माना लाख करे आके संगसार मुझे 
*** 
ज़ंज़ीर आंसुओं की कहाँ टूट कर गिरी 
वो इन्तहाए-ग़म का सुकूँ कौन ले गया
*** 
उम्र भर मसरूफ हैं मरने की तैय्यारी में लोग 
एक दिन के जश्न का होता है कितना एहतमाम
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