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Channel: नीरज
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किताबों की दुनिया -148

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आज ग़ज़ल बहुत सी भारतीय भाषाओँ में कही जा रही है लेकिन जिस भाषा के साथ ग़ज़ल का जिक्र हमेशा आएगा वो है "उर्दू'. शायरी पर बात करने से पहले आईये उसे पढ़ते हैं जो हमारे आज के शायर ने इस किताब की भूमिका में एक जगह लिखा है "दुनिया की सब सभ्यताएं भाषाओँ पर टिकी हैं। उर्दू ही एक भाषा थी जो धर्म और सभ्यता की सभी सीमाओं को पार कर चुकी थी। इस फैलती हुई भाषा को एक दम से समेट दिया गया। उर्दू एक भाषा है, वोटों की किसी संस्था में नहीं आती। लोग तो बहु या अल्पसंख्यकों में बंटे और ढूंढें जा सकते हैं लेकिन भाषा को हम कहाँ ढूंढें ? वोटो की राजनीति ने भाषा को हमसे छीन लिया और धीरे धीरे उर्दू भाषा को मुस्लिम मज़हब के साथ चस्पां कर दिया। भाषा के साथ ऐसा दुर्व्यवहार शायद ही कहीं दुनिया में हुआ होगा। उर्दू भाषा को अमीर बनाने में सिर्फ मुसलमान शायरों अदीबों और नक्कादों का ही नहीं गैर-मुस्लिम विशेषतः हिंदू शायरों अदीबों और आलोचकों का योगदान कभी भी कम नहीं रहा"

मेरे घर में सब मेहमाँ बन संवर के आते हैं
इक तेरा ही गम है जो, नंगे पाँव आता है

अब तिरा तसव्वुर भी, मुझसा हो गया शायद 
शब को खूब हँसता है, सुबह टूट जाता है 

किस तरह करूँ शिकवा वक़्त से मैं ऐ 'ज़ाहिद' 
वो भी तेरे जैसा है, यूँ ही रूठ जाता है 

हमारे शायर ने आगे लिखा है "आज के इस दौर में, मैं जिसे उर्दू ज़बान के ज़वाल का दौर मानता हूँ , उर्दू शाइरी के पौधों को सींचने वाले उस्ताद भी कम रह गए हैं। उर्दू भाषा और उर्दू लिपि लगभग लुप्त हो गयी है "शायर का ये कथन मुझे आंशिक रूप से सत्य लगता है क्यूंकि आज की नयी पीढ़ी फिर से उर्दू भाषा और उसकी लिपि में दिलचस्पी लेने लगी है और अगर ऐसा ही चलता रहा तो उर्दू पढ़ने लिखने वालों में शर्तिया इज़ाफ़ा होगा। हमारे आज के शायर की मादरी ज़बान पंजाबी है और उन्होंने उर्दू किसी उस्ताद से नहीं बल्कि उर्दू के कायदे खरीद कर सीखी है और शायरी किताबों से।

क्यों बढ़ाये रखता है उसकी याद का नाखुन 
रोते रोते अपनी ही आँख में चुभो लेगा 

आँख, कान, ज़िहन-ओ-दिल बेज़बाँ नहीं कोई 
जिसपे हाथ रख दोगे, खुद-ब-खुद ही बोलेगा 

तू ख़िरद के गुलशन से फल चुरा तो लाया है 
उम्र भर तू अब खुद को खुद में ही टटोलेगा 
ख़िरद=अक्ल , बुद्धि 

 20 दिसम्बर 1950 को चम्बा हिमांचल प्रदेश में जन्में जनाब "विजय कुमार अबरोल"जो "ज़ाहिद अबरोल"के नाम से लिखते हैं हमारे आज के शायर हैं , उनकी ग़ज़लों की किताब "दरिया दरिया-साहिल साहिल"की बात हम करेंगे। इस किताब को जिसमें अबरोल साहब की 101 ग़ज़लें संकलित हैं ,सन 2014 में सभ्या प्रकाशन ,मायापुरी , नई दिल्ली ने प्रकाशित किया था। ज़ाहिद साहब ग़ज़लों के अलावा नज़्में भी लिखते हैं।


दिल में किसी के दर्द का सपना सजा के देख 
खुशबू का पेड़ है इसे घर में लगा के देख 

सच और झूठ दोनों ही दर्पण हैं तेरे पास 
किस में तिरा ये रूप निखरता है जा के देख 

जो देखना है कैसे जिया हूँ तिरे बगैर 
दोनों तरफ से मोम की बत्ती जला के देख 

मेरी हर एक याद से मुन्किर हुआ है तू 
गर खुद पे एतिमाद है मुझको भुला के देख 
मुन्किर=असहमत , एतिमाद=भरोसा 

दिलचस्प बात ये है कि "ज़ाहिद"साहब ने भौतिक विज्ञान से एम् एस सी की और उसके बाद बरसों पंजाब नेशनल बैंक में काम करते रहे याने विज्ञान और बैंक दोनों ही बातें गैर शायराना हैं उसके बावजूद उन्होंने शायरी का दामन पकडे रखा और अनवरत लिखते रहे। उनका ये शौक उनकी तालीम और नौकरी से बिलकुल मुक्तलिफ़ रहा। उन्होंने सिद्ध किया की अगर आप में हुनर और ज़ज़्बा है तो रेगिस्तान में भी आप पानी से छलछलाती नदी ला सकते हैं।

खुद को लाख बचाया हमने दिल को भी समझाया हमने
लेकिन बस में कर ही बैठा गोरे बदन का काला जादू 

बरसों तेरी याद न आई आज मगर अनजाने में ही 
मुरझाये फूलों में जैसे नींद से जाग पड़ी हो खुशबू

'ज़ाहिद"कौन से अंधियारे में फेंक आएं यह धूप बदन की 
ज़ेहन पे हर पल छाए हुए हैं इस के आरिज़ उस के गेसू 

पंजाब के ख्यातिनाम शायर जनाब 'राजेंद्र नाथ रहबर 'जो अपनी नज़्म, जिसे जगजीत सिंह साहब ने अपनी मखमली आवाज़ दी थी "तेरे खुशबू से भरे ख़त मैं जलाता कैसे "के हवाले से पूरी दुनिया में जाने जाते हैं ने इस किताब की भूमिका में लिखा है कि "ज़ाहिद अबरोल का कलाम सुबह की पहली किरण की तरह तरो-ताज़ा और ताबनाक है। उन्होंने एक लम्बा अदबी सफर तय किया है जिस ने उन की महबूबियत को चार चाँद लगा दिए हैं. उनके सीने में एक सच्चे फनकार का दिल धड़कता है। वो शुहरत और नामवरी की तमन्ना किये बगैर अपना साहित्यिक सफर जारी रखे हुए हैं। कलाम का बांकपन ,रंगों की बहार ,विषयों की नूतनता और अछूतपन प्रभावित करते हैं और पाठक को अपनी गिरफ्त में ले लेते हैं। सच्ची और उम्दा शायरी की पहचान भी यही है

दिल को जैसे डसने लगे हैं इंद्रधनुष के सातों रंग 
जब से हमने तेरी हंसी को दर्द में ढलते देखा है 

बादल, आंसू, प्यास, धुआं, अंगारा, शबनम, साया, धूप 
तेरे ग़म को जाने क्या क्या भेस बदलते देखा है

'ज़ाहिद'इस हठयोगी दिल को हमने अक्सर सुबह-ओ-शाम
नंगे पाँव ही दर्द के अंगारों पर चलते देखा है 

नज़्में 'ज़ाहिद अबरोल 'साहब का पहला प्यार हैं। उनकी नज़्मों का पहला संग्रह 1978 में और दूसरा 1986 में उर्दू और हिंदी दोनों ज़बानों में प्रकाशित हुआ। सन 2003 में उन्होंने बाहरवीं सदी के महान संत कवि शैख़ फ़रीद के पंजाबी कलाम को उर्दू और हिंदी में अनुवादित कर धूम मचा दी। उनका 'फरीदनामा'सर्वत्र सराहा गया। 'दरिया दरिया -साहिल साहिल उनका पहला ग़ज़ल संग्रह है जो पहले हिंदी में प्रकाशित हुआ और बाद में ये संग्रह उर्दू में भी प्रकाशित किया गया। इस संग्रह की कुछ ग़ज़लें उर्दू की मुश्किल और तवील बहरों पर भी कही गयी है जो दूसरे ग़ज़ल संग्रहों में आसानी से पढ़ने में नहीं आतीं .

जी में है इक खिलौना सा बन कर कभी एक नन्हें से बच्चे का मन मोह लूँ 
जानता हूँ कि मासूम हाथों से मैं, टूट कर रेज़ा रेज़ा बिखर जाऊंगा 

तश्नगी का समुन्दर है ये ज़िन्दगी इस की हर लहर तलवार से तेज़ है 
आस की नाव के डूब जाने पे भी हौसला है मुझे पार उतर जाऊंगा

मुझको 'ज़ाहिद'इस उखड़े हुए दौर में आइनों का मुहाफ़िज़ बनाते हो क्यों 
नरम-ओ-नाज़ुक तबीयत है मेरी, कि मैं पत्थरों के तसव्वुर से डर जाऊंगा 

किताब की एक और भूमिका में जनाब बी.डी.कालिया 'हमदम'ने लिखा है कि 'ज़ाहिद साहब के शेरों यह अहसास होता है कि यदि आपको किसी भाषा से मुहब्बत है तो उसे सीखने में और भाषा के समंदर में तैरने में कोई मुश्किल सामने नहीं आ सकती। ज़ाहिद अबरोल साहित्यिक रूचि के मालिक हैं। ज़ाहिद अबरोल के कलाम में शब्द एवम अर्थ-सौंदर्य भी है और बंदिश का सौंदर्य भी। अच्छे शेर कहने के बावजूद वो सादगी और नम्रता से यह बात मानते हैं कि वो अभी भी एक विद्यार्थी हैं और उन्हें मंज़िल तक पहुँचने के लिए काफ़ी फ़ासला तय करना है

झुकने को तैयार था लेकिन जिस्म ने मुझको रोक दिया  
अपनी अना ज़िंदा रखने का बोझ जो सर पर काफ़ी था 

तीन बनाये ताकि वो इक दूजे पर धर पायें इलज़ाम 
वरना गूंगा, बहरा, अँधा, एक ही बन्दर काफ़ी था 

ग़म, दुःख, दर्द, मुसीबत,ग़ुरबत सारे यकदम टूट पड़े 
इस नाज़ुक से दिल के लिए तो एक सितमगर काफ़ी था

किताब की सौ ग़ज़लों से चुनिंदा शेर छांटना कितना मुश्किल काम है ये मैं ही जानता हूँ और ये भी जानता हूँ कि मैं हर शेर के साथ इन्साफ नहीं कर सकता इसीलिए बहुत से ऐसे शेर आप तक पहुँचाने से छूट जाते हैं जो कि यहाँ होने चाहियें थे तभी तो आपसे गुज़ारिश करता हूँ कि आप किताब मंगवा कर पढ़ें और सभी शेरों का भरपूर आनंद लें. इस किताब को मंगवाने के लिए आप ज़ाहिद साहब की शरीक-ऐ-हयात मोहतरमा रीटा अबरोल साहिबा से उनके मोबाईल न 97363 23030पर बात करें । ज़ाहिद साहिब ने उनका ही मोबाईल न नंबर शायद इसलिए दिया है क्यूंकि उन्होंने ही ज़ाहिद साहब के अंदर के इंसान और शायर को ज़िंदा रखने में मदद की है। आप से मेरी ये गुज़ारिश है कि उनके खूबसूरत कलाम के लिए आप ज़ाहिद साहब को उनके मोबाईल न 98166 43939पर संपर्क कर बधाई जरूर दें।

चलते चलते पेश हैं उनके कुछ चुनिंदा शेर :-

एक घर में तो फ़क़त एक जला करता था
घर में बेटे जो हुए जल उठे चूल्हे कितने 
*** 
बज़ाहिर ओढ़ रक्खा है तबस्सुम 
मगर बातिन सरापा चीखता है 
बज़ाहिर : सामने , बातिन : पीछे 
*** 
मैं नए अंदाज़ से वाकिफ हूँ लेकिन शायरी 
और भी कुछ है फ़क़त लफ़्ज़ों के जमघट के सिवा 
*** 
खत्म कर बैठा है खुद को भीड़ में 
जब तलक तन्हा था वो मरता न था 
*** 
तू मेरी कैद में है मैं भी तेरी कैद में हूँ 
देखें अब कौन किसे पहले रिहा करता है
*** 
काठ के फौलाद के हों या लहू और मांस के
एक से हैं सारे दरवाज़े कहीं दस्तक न दो

किताबों की दुनिया -149

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घिरती हुई है बाढ़ भी आँखों के गाँव में 
फैला हुआ चारों तरफ़ सूखा भी देखिये 

ये धूल के बादल भी छुएँ आसमान को 
मिटटी में ये रुला हुआ सोना भी देखिये 

बेमौसमी खिले हुए 'सुमन'भी हैं कई 
बेमौसमी ये रूप पिघलता भी देखिये 

16 नवम्बर 1942 को जन्में बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री लक्ष्मी खन्ना 'सुमन'हमारे आज के शायर हैं जिनकी किताब 'ग़ज़लों की नाव में'की बात हम करेंगे। लक्ष्मी जी ये का ये पाँचवा ग़ज़ल संग्रह है जिसे 'हिन्द युग्म'प्रकाशन ,नयी दिल्ली ने सन 2014 में प्रकाशित किया था। इस से पहले उनके "दायरों के पार" , "इस भरे बाज़ार में" , "ग़ज़लों की छाँव में"और "याद भी ख्वाब भी हकीकत भी"ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो कर धूम मचा चुके हैं। लक्ष्मी जी की प्रतिभा का आंकलन महज़ एक पोस्ट में नहीं हो सकता।



बेवजह सूखे जो लम्हे थे दिलों के दरमियाँ 
आँख की बारिश उन्हें झर-झर बहाकर ले चली 

मस्तियों की गंध ले ऋतुओँ की रानी आ रही 
फ़ागुनी झंकार पतझर को बहाकर ले चली 

फिर समय की वादियों में खिल उठे हैं मन-'सुमन'
धूप, कोहरे के बुझे मंज़र बहाकर ले चली 

हल्द्वानी के एम्. बी इंटर कॉलेज से स्कूली शिक्षा ग्रहण करने के बाद लक्ष्मी जी ने डी बी एस कॉलेज नैनीताल से बी एस सी तक की पढाई पूरी की और फिर इंडियन इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलॉजी रुड़कीसे न्यूक्लियर फिजिक्स में स्नातक की डिग्री हासिल करने के पश्चात् पंतनगर यूनिवर्सिटी में कार्यरत रहे। लेखन उनका प्रिय शौक रहा इसीलिए उन्होंने अबाध लेखन किया। ग़ज़लों के अलावा उनकी कलम गीत ,नवगीत ,दोहे, मुक्तक और बाल साहित्य रचने में लगातार चल रही है।

 मैं लहज़ों की बारीकियाँ चुन रहा हूँ 
तभी तो मैं हैरान रहने लगा हूँ 

मुहब्बत, इनायत, मुरव्वत,सखावत 
मैं सब सीढ़ियों से फिसलता रहा हूँ 
मुरव्वत = दिल में किसी के लिए जगह होना। सखावत=दानशीलता 

मुझे साथ ही तुम जो ले लो तो बेहतर
मैं अपने ख्यालों में पक-सा गया हूँ 

वो आये हैं भरकम खिताबों को लेकर 
मैं हाथों को बांधे खड़ा हो गया हूँ

इस किताब पर प्रतिक्रिया देती हुई डा. निर्मला जैन लिखती हैं कि "लक्ष्मी सुमन ग़ज़लों की सबसे बड़ी खासियत यह है कि धरती से उनका गहरा रिश्ता है। इन्हें पढ़कर आसानी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इनके कवि को ज़िन्दगी से प्यार है और शायरी उनकी लगन है। सहजता इन ग़ज़लों का प्राण है। कहीं कोई बनावट नहीं, शैली का ऐसा कोई करिश्मा नहीं जो पाठक के लिए दिक्कत पैदा करे। ये ग़ज़लें अनुभव से पैदा हुई हैं और सीधे पाठक के दिल में उतरती चली जाती हैं। "

दिन भर खटता रहता है वह कड़ी धूप के मैदाँ में
सुखी रहे घर इस कोशिश में रहता है घरवाला 'पेड़'

सरल हवा को दिया गरल जब मनुज के ओछे लोभों ने
नीलकंठ बन अमृत देता पी कर उसे निराला 'पेड़'

कहीं सुमन संग कलियाँ नटखट कहीं फलों संग कांटे भी
जीवन धन से हरा-भरा है सब का देखा-भाला 'पेड़' 

 लक्ष्मी सुमन जी इस किताब की भूमिका में लिखते हैं कि "यदि ग़ज़ल की भाषा में रवानी हो उसमें आम बोलचाल के शब्द ही प्रयोग किये जाएँ तभी पाठक या श्रोता उससे तारतम्य बैठा पाता है। इस संग्रह की ग़ज़लों में सामाजिक, आर्थिक,राजनैतिक तथा आम आदमी के सरोकार तो हैं ही पर श्रृंगार रस से ओतप्रोत कोमल अहसासों से भरे भी कई अशआर पिरोये गए हैं ,इसमें प्रकृति के कई अद्भुत करिश्में भी अपने विशेष रंग में हैं. 

बैठ सब्र की छाँव तले 
अंगूरों को खट्टा मान 

लगा फ़कीरी का तकिया 
सो जा सुख की चादर तान

'सुमन'सरीखा हँसता जा 
दर्द न काटों का पहचान 

 प्रकृति के धरती, खेत, जंगल, पहाड़, बादल, कोहरा, वर्षा,ओस, धूप,छाया, सूर्य,वृक्ष , पक्षी आदि विभिन्न अवयवों का मानवीकरण करते हुए लक्ष्मी जी ने इनके सुन्दर बिम्ब प्रस्तुत किये हैं तो कभी इन्हें प्रतीकों के रूप में प्रस्तुत करते हुए मनुष्य जीवन के किसी सत्य का उद्घाटन किया है। किताब की भूमिका में दिवा भट्ट जो कुमाऊँ यूनिवर्सिटी के हिंदी विभाग की विभागाध्यक्ष हैं लिखती हैं कि "भाषा के साथ नए नए प्रयोग करना सुमन की आदत है , नए प्रयोगों के साथ भी स्वाभाविकता तथा सम्प्रेषण की सार्थकता वे कभी नहीं चूकते, खास तौर पर शब्द चयन में आंचलिक प्रयोग ताज़गी का अहसास कराते हैं :

रस भरे फलों का बनें पेड़ एकदिन 
करती हैं प्राणपण यही प्रयास 'गुठलियां' 

तोड़कर उन्हें मिलीं 'गिरी 'की लज़्ज़तें 
पत्थर को तभी आ गयीं हैं रास 'गुठलियां' 

 "ग़ज़लों की नाव में"सुमन जी की 72 ग़ज़लें संग्रहित हैं जिनमें से अधिकांश छोटी बहर में हैं , छोटी बहर के बादशाह जनाब विज्ञान व्रत जी ने सुमन जी के लिए लिखा है कि "सादगी लक्ष्मी खन्ना सुमन का स्थाई भाव है। सादा ज़बान में बात कहने के फन में शायर को महारत हासिल है। बात को इस तरह से कहना कि श्रोता , पाठक चौंक जाएँ उनका विशेष गुण है। उनकी ग़ज़लें अपनी ख़ामोशी और सादगी के साथ पाठकों के दिल में जगह बनाने में और उन्हें विशेष पहचान दिलाने में सक्षम हैं। "

वही मैं आम जन का पोस्टर हूँ 
सियासत जिसपे लिखी जा रही है 

जो ठोकर से उठी वो धूल क्या है 
ये गिर कर आँख में समझा रही है 

हवा ने कान में जाने कहा क्या 
ये क्यारी इस क़दर लहरा रही है 

इस किताब को आप अगर चाहें तो अमेजन से ऑन लाइन मंगवा सकते हैं या फिर हिन्दयुग्म से उनके मोबाईल न 9873734046 या 9968755908 पर संपर्क कर सकते हैं। मेरा निवेदन तो ये ही रहेगा कि आप लक्ष्मी खन्ना सुमन जी से जो गुरुगांव (गुड़गांव ) में रहते हैं को उनके मोबाईल न 9719097992 अथवा 9312031565 पर संपर्क कर बधाई दें और किताब प्राप्ति का रास्ता पूछें और बिलकुल अलग तरह की इन ग़ज़लों की किताब को अपनी निजी लाइब्रेरी में जगह दें।
चलते चलते पढ़िए उनकी एक छोटी बहर की प्यारी सी ग़ज़ल :

मन सागर में ज्वार उठा 
आते देखा अपना 'चाँद' 

फिर अम्मी की ईद हुई 
छुट्टी पर घर आया 'चाँद' 

दाग़ छुपाने की खातिर 
शक्लें रोज बदलता 'चाँद' 

चुरा रौशनी सूरज की 
ढीठ बना मुस्काता 'चाँद' 

किताबों की दुनिया -150

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तुमसे पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्तनशीं था 
उसको भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यकीं था 

ये उस शायर का शेर है जिसके इंतकाल के 15 साल बाद याने 2008 की फरवरी के अंतिम सप्ताह में मुशर्रफ़ समर्थक पाकिस्तान मुस्लिम लीग की हार के बाद पेशावर से कराँची तक लाखों लोगों ने दोहराया। ये कालजयी शेर है जिसे किसी एक मुल्क की हदों में नहीं बाँधा जा सकता। ये शेर हर उस मुल्क के हुक्मरां पर लागू होता है जो सत्ता के नशे में अपने अवाम को भूल जाता है और एक दिन अर्श से फ़र्श पर औंधे मुँह आ गिरता है।जिस ग़ज़ल का ये शेर है उस ग़ज़ल के बाकी शेर भी इसी मिज़ाज़ के हैं ,गौर फरमाएं :

कोई ठहरा है जो लोगों के मुकाबिल तो बताओ 
वो कहाँ हैं कि जिन्हें नाज़ बहुत अपने तईं था 

आज सोये हैं तरे-ख़ाक न जाने यहाँ कितने 
कोई शोला, कोई शबनम कोई मेहताब-जबीं था 
तरे-ख़ाक=ज़मीन के नीचे , मेहताब-जबीं=चाँद जैसे माथे वाला

ये वो शायर था जिसने अपनी शायरी ही नहीं, अपनी ज़िन्दगी भी अवाम के लिए वक़्फ़ कर दी थी और जो मरते मरते मर गया लेकिन न तो कैदो-बंद से उसके इरादे डाँवाडोल हुए और न ही तानाशाही के अत्याचार उसे अपनी राह से हटा सके। इस शायर ने बेख़ौफ़ हो कर अय्यूब खान,याह्या खान,ज़िआउल-हक़ और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की सरकारों के खिलाफ लिखा। पाकिस्तान के 70 सालों के इतिहास में शायद ही कोई दूसरा ऐसा शायर होगा जिसने इतने बरस जेल की सलाखों के पीछे काटे,जितने कि इस शायर ने।

हर रोज़ क़यामत ढाते हैं तेरे बेबस इंसानों पर
ऐ ख़ालिक़े-इन्सां, तू समझा अपने खूनी इंसानों को 
ख़ालिक़े-इन्सां=इंसान के सृष्टा (खुदा )

दीवारों से सहमे बैठे हैं, क्या खूब मिली है आज़ादी 
अपनों ने बहाया खूं इतना, हम भूल गए बेगानों को 

 इक-इक पल हम पर भारी है ,दहशत तकदीर हमारी है 
घर में भी नहीं महफूज़ कोई , बाहर भी है खतरा जानों को 

 इस हर-दिल-अज़ीज़ और अवाम के मशहूर शायर का नाम था 'हबीब जालिब"जिनकी ग़ज़लों नज़्मों और गीतों के संकलन "प्रतिनिधि शायरी"श्रृंखला के अंतर्गत "राधा कृष्ण प्रकाशन "ने पेपर बैक में सन 2010 में प्रकाशित किया था। आज हम इसी किताब और इसके शायर की बात करेंगे जिसकी शायरी में ले-देकर कुल एक पात्र नज़र आता है और उस पात्र का नाम जनता है -सिर्फ पाकिस्तान की जनता नहीं, पूरे संसार की जनता। और ठीक यही वो जनता है जिसके हक़ में वे बार बार अपनी किताबें ज़ब्त कराते हैं और बार बार जेल जाते हैं।


और सब भूल गए हर्फ़े-सदाक़त लिखना 
रह गया काम हमारा ही बग़ावत लिखना 
हर्फ़े-सदाक़त=सच्चाई का अक्षर 

लाख कहते रहें ज़ुल्मत को न ज़ुल्मत लिखना 
हमने सीखा नहीं प्यारे ब-इजाज़त लिखना 
ब-इजाज़त=किसी के आदेश पर 

न सिले की न सताइश की तमन्ना मुझको 
हक़ में लोगों के हमारी तो है आदत लिखना 
सताइश=पुरस्कार 

हमने जो भूल के भी शह का क़सीदा न लिखा 
शायद आया इसी खूबी की बदौलत लिखना 
शह =बादशाह 

कुछ भी कहते हैं, कहें शह के मुसाहिब 'जालिब' 
रंग रखना यही अपना, इसी सूरत लिखना 

हबीब अहमद के नाम से 24 मार्च 1928 को होशियार पुर पंजाब में जन्में जालिब साहब अपनी किशोरावस्था और चढ़ती जवानी के दिनों में, मुस्लिम लीग के एक सरगर्म कार्यकर्ता रह चुके थे और उन्हें आशा थी कि पाकिस्तान के बनते ही मुस्लिम जनता के सारे दुःख-दर्द दूर हो जायेंगे और यही कारण था कि वो पाकिस्तान बनने के साथ ही याने 14 अगस्त 1947 को अपनी पैतृक धरती छोड़ कर इस नए देश में पहुँच गए। लेकिन फिर वहां जो कुछ उन्होंने देखा उससे उनका मोहभंग होते देर नहीं लगी- ठीक उसी तरह जैसे भारत में भी आज़ादी के बाद जल्द ही बहुत से वतनपरस्तों के सपने चूर-चूर होकर बिखर गए।

वतनपरस्तों को कह रहे हो वतन के दुश्मन,डरो ख़ुदा से  
जो आज हमसे ख़ता हुई है ,यही ख़ता कल सभी करेंगे 

वज़ीफ़ाख़्वारों से क्या शिकायत हज़ार दें शाह को दुआएं  
मदार जिनका है नौकरी पर, वो लोग तो नौकरी करेंगे 
वज़ीफ़ाख़्वारों=वज़ीफ़ा पाने वाले , मदार=निर्भरता 

लिए, जो फिरते हैं तमग़-ए-फ़न, रहे हैं जो हमख़याले-रहज़न 
हमारी आज़ादियों के दुश्मन हमारी क्या रहबरी करेंगे 
तमग़-ए-फ़न=कला का तमगा ,हमख़याले-रहज़न=लुटेरों की सोच वाले 

जालिब की शायरी सीधी दिल से निकली हुई शायरी है वो अपनी रचनाओं में बेहद आसान लफ़्ज़ों का इस्तेमाल करते थे उन्होंने इस बात का इज़हार अपने एक शेर में यूँ किया है :
जालिब मेरे शेर समझ में आ जाते हैं 
इसलिए कम-रुतबा शायर कहलाता हूँ 
दरअसल सच्चाई ये है कि सीधी-सादी भाषा को लोग घटियापन की अलामत मानते हैं। सदियों पहले दार्शनिक कुमारिल भट ने कहा था कि कुछ लोग मूढ़ता को छिपाने के लिए जान-बूझकर जटिल और दुरूह भाषा का प्रयोग करते हैं। लेकिन बात यहीं तक नहीं रहती , जो लोग 'मीर'की सीधी-सादी और दिल को छू लेनेवाली शायरी की दाद देते हैं और आहें भरते हैं वे भी अपने समकालीनों पर वैसे ही मानदंड लागू करने से इंकार करते हैं।

जिसकी आँखें ग़ज़ल, हर अदा शेर है 
वो मिरि शायरी है ,मिरा शे'र है 

अपने अंदाज़ में बात अपनी कहो
'मीर'का शे'र तो मीर का शे'र है 

मैं जहाने-अदब में अकेला नहीं 
हर क़दम पर मिरा हमनवा शे'र है 
जहाने-अदब=साहित्य का संसार, हमनवा=साथी 

इक क़यामत है 'जालिब'ये तनक़ीदे नौ 
जो समझ में न आये बड़ा शे'र है 
तनक़ीदे नौ=नयी आलोचना 

1959 की बात है अय्यूब खान को सत्ता हथियाये एक साल बीत चुका था इस एक साल के डिक्टेटरशिप वाले मिलेट्री शासन में हर सच बोलने वाले और शासक से अलग सोच वाले को जेल की दीवारों के पीछे बंद कर दिया गया था. सेंसरशिप लागू हो गयी थी। शायर, अय्यूब खान और मिलेट्री शासन के गीत गा रहे थे और तमाम अखबारें , रिसाले उसकी प्रशंशा में रँगे जा रहे थे। एक साल बीत जाने की ख़ुशी में पाकिस्तान रेडिओ से लाइव मुशायरा ब्रॉडकास्ट किया जा रहा था जिसमें सभी शायरों को महबूबा या देश की ख़ूबसूरती पर पढ़ने का फरमान जारी किया गया था। तभी एक दुबले पतले शायर ने सरकारी फरमान की धज्जियाँ उड़ाते हुए ये नज़्म पढ़ी जिसका एक बंद कुछ यूँ था :
बीस रूपय्या मन आटा
इस पर भी है सन्नाटा 
गौहर, सहगल, आदमजी 
बने हैं बिरला और टाटा 
मुल्क के दुश्मन कहलाते हैं 
जब हम करते हैं फ़रियाद 
सद्र अय्यूब ज़िन्दाबाद 
 फिर क्या था सन्नाटा छा गया ,वर्दीधारी सैनिकों के मुंह सफेद हो गए मुशायरा बीच में ही बंद कर दिया गया , रेडिओ स्टेशन के उच्च अधिकारी को फ़ौरन सस्पेंड कर दिया गया और शायर को जेल में बंद कर दिया , लेकिन जो होना था हो गया , लोगों की जबान पर "20 रुपैय्या मन आटा ,इस पर भी है सन्नाटा"चढ़ गया। ये शायर था "हबीब जालिब"जो सबक हुक्मरां उसे जेल भेज कर देना चाहते थे जालिब साहब ने उसका उल्टा ही समझा। जब जब वो जेल जाते बाहर आ कर दुगने जोश से सत्ता के ख़िलाफ़ लिखने लगते।

जीने की दुआ देने वाले ये राज़ तुझे मालूम नहीं 
तख़लीक़ का इक लम्हा है बहुत, बेकार जिए सौ साल तो क्या 
तख़लीक़ -रचना 

हर फूल के लब पर नाम मिरा, चर्चा है चमन में आम मिरा 
शोहरत की ये दौलत क्या कम है गर पास नहीं है माल तो क्या 

हमने जो किया महसूस , कहा ,जो दर्द मिला हंस हंस के सहा 
भूलेगा न मुस्तक़बिल हमको, नालां है, जो हमसे हाल तो क्या 
मुस्तकबिल=भविष्य , नालां =नाराज़ ,हाल =वर्तमान 

1964 में अचानक मोहतरमा फ़तिमाः जिन्ना ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति के चुनाव में लड़ने का फैसला किया। अपने भाषणों में उन्होंने हबीब साहब की नज़्म "सद्र अय्यूब ज़िंदाबाद "को शुमार कर लिया। वो जीत भी जातीं लेकिन उनके खिलाफ सत्ता धारियों द्वारा रचे षड्यंत्र के चलते उन्हें हार का सामना करना पड़ा। उनके चुनाव हारते ही हबीब साहब पर सत्ता धारी गिद्ध की मानिंद टूट पड़े ,आये दिन उन्हें जेल की हवा खानी पड़ी। उनका पासपोर्ट भी जब्त कर लिया गया लेकिन हबीब जालिब , हबीब जालिब ही रहे जरा सा भी नहीं बदले।

दुश्मनों ने जो दुश्मनी की है 
दोस्तों ने भी क्या कमी की है 

अपनी तो दास्ताँ है बस इतनी
ग़म उठाये हैं, शायरी की है 

अब नज़र में नहीं है एक ही फूल
फ़िक्र हमको कली कली की है 

 पा सकेंगे न उम्र भर जिसको 
जुस्तजू आज भी उसी की है 

हबीब साहब ने उस दौर में सत्ता धारियों से लोहा लिया जिस दौर में नासिर काज़मी और हफ़ीज़ जालंधरी जैसे शायर हुक्मरानो के कसीदे पढ़ रहे थे। सुना है कि एक बार पाकिस्तान के राष्ट्रकवि हफ़ीज़ साहब जब अपनी चमचमाती सरकारी कार से कहीं जा रहे थे तो उनको जालिब साहब फ़टे पुराने कपड़ों में राह पर चलते मिले उन्होंने कार रुकवाई और कहा की उन्होंने हुक्मरानों से बात कर ली है अगर वो अपना सुर बदल दें तो उनके भी वारे न्यारे हो सकते हैं ,हबीब साहब मुस्कुराये और आगे बढ़ गए। उन्होंने इस वाकये पर बिना हफ़ीज़ साहब का नाम लिए एक तन्ज़िया नज़्म "मुशीर "लिखी जिसका अर्थ होता है 'सलाहकार'जो आगे चल कर बहुत प्रसिद्ध हुई। ये नज़्म आपको इस संकलन में पढ़ने को मिलेगी , यहाँ नहीं।

लाख कहते रहें वो चाक गिरेबां न करूँ
कभी दीवाना भी पाबंद हुआ करता है

इज़्न से लिखने का फ़न हमको न अब तक आया
वही लिखते हैं जो दिल हमसे कहा करता है 
इज़्न =आदेश 

उसके ममनून ही हो जाते हैं दरपै उसके 
क्या बुरा करता है जो शख़्स भला करता है 
उसके ममनून ही हो जाते हैं दरपै उसके=उसके कृतज्ञ ही उसे कष्ट देने पर आमादा हो जाते हैं 

हबीब साहब जैसा खुद्दार शायर शायद ही कोई दूसरा हुआ हो। उनकी बीमारी में एक बार बेनज़ीर भुट्टो उनकी मिजाज़पुर्सी को हॉस्पिटल तशरीफ़ लाईं तो उन्होंने किसी भी तरह की सरकारी मदद के लिए साफ़ मना कर दिया और कहा कि अगर आप को मदद ही करनी है मेरे इस वार्ड के और ऐसे ही दूसरे वार्डों के मरीज़ों की मदद करें जिनकी मदद को कोई नहीं है। मुल्क में हो रहे हर अन्याय के खिलाफ उन्होंने कलम उठाई। ये हरदिल अज़ीज़ शायर जब 12 मार्च 1993 को दुनिया से रुख़्सत हुआ तो पूरे शहर में इनकी मैय्यत को कांधा देने वालों में होड़ मच गयी और "शायरे अवाम हबीब जालिब ज़िंदाबाद "के नारों से फ़ज़ायें गूँज उठी।

बीत गया सावन का महीना ,मौसम ने नज़रें बदली 
लेकिन इन प्यासी आँखों से अब तक आंसू बहते हैं 

एक हमें आवारा कहना कोई बड़ा इलज़ाम नहीं 
दुनिया वाले दिल वालों को और बहुत कुछ कहते हैं 

वो जो अभी इस राहगुज़र से चाक-गरेबाँ गुज़रा था 
उस आवारा दीवाने को जालिब-जालिब कहते हैं 

आखिर इस बेमिसाल शायर को पाकिस्तान की सरकार ने पहचाना और उन्हें 23 मार्च 2009 को पाकिस्तान का सर्वश्रेष्ठ सिविलियन अवार्ड दिया गया.हबीब साहब की शायरी का ये अनूठा संकलन हर इन्साफ पसंद इंसान के पास होना चाहिए। इस संकलन में जालिब साहब की 80 ग़ज़लें 65 नज़्में और 12 गीत हैं। ये सभी रचनाएँ बार बार पढ़ी जाने लायक हैं। उनकी बेजोड़ नज़्मों को पढ़े बिना हबीब साहब की शायरी को नहीं समझा जा सकता। राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित ये किताब अमेजन पर भी उपलब्ध है और इसके 209 पेज वाले पेपरबैक संस्करण की कीमत इतनी कम है कि आप विशवास नहीं करेंगे।
चलते चलते हबीब साहब की एक छोटी सी नज़्म आपको पढ़वाता हूँ जो उन्होंने लता मंगेशकर पर ,हैदराबाद ,सिंध की दमघोटूं जेल में लिखी - कौन कहेगा ये एक पाकिस्तानी शायर की रचना है ? 

तेरे मधुर गीतों के सहारे 
बीते हैं दिन रैन हमारे 
तेरी अगर आवाज़ न होती 
बुझ जाती जीवन की ज्योति 
तेरे सच्चे सुर हैं ऐसे 
जैसे सूरज-चाँद-सितारे 

क्या क्या तूने गीत हैं गाये
सुर जब लागे मन झुक जाए 
तुमको सुनकर जी उठते हैं 
हम जैसे दुःख-दर्द के मारे 

मीरा तुझमें आन बसी है 
अंग वही है रंग वही है 
जग में तेरे दास हैं इतने 
जितने हैं आकाश में तारे 
तेरे मधुर गीतों के सहारे 
बीते हैं दिन रैन हमारे

किताबों की दुनिया -151

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जो लोग बनारस में रहते हैं वो बनारस का गुणगान क्यों करते हैं ,ये बात अभी हाल ही में संपन्न बनारस यात्रा के बाद ही पता लगी। हालाँकि बनारस में हमारा सामना भीड़, धूल ,गर्मी, उमस ,पसीना ,गन्दगी और प्रदूषण जैसी और उस पर ऊबड़खाबड़ टूटी फूटी जगह जगह खुदी सड़कों पर उछलते कूदते ऑटो ने शरीर में मौजूद सभी अंगों को झुनझुने सा बजा कर कोढ़ में खाज का काम किया लेकिन पता नहीं क्यों मन कर रहा है कि एक बार फिर से वहाँ जाया जाए , वहां क्यों जाया जाय इसका कोई संतोष जनक जवाब नहीं है मेरे पास बस जाया जाए ये मन कर रहा है। कुछ तो है जो आपको अपने मोहपाश में बांध लेता है , कुछ तो है जो हमारे आज के शायर से ये लिखवाता है :

मैं बनारस का निवासी काशी नगरी का फ़क़ीर
हिन्द का शायर हूँ ,शिव की राजधानी का सफ़ीर 

लेके अपनी गोद में गंगा ने पाला है मुझे 
नाम है मेरा नज़ीर और मेरी नगरी बेनज़ीर 

शायरी से मोहब्बत करने वाले मेरे जैसे जिनके बाल सफ़ेद चुके हैं या हो रहे हैं शायद इस मुक्तक से शायर के नाम तक पहुँच जाएँ लेकिन युवा पाठकों के लिए उनका नाम पता करना आसान नहीं होगा क्यूंकि वो फेसबुक या ट्वीटर पर सक्रिय होने की सम्भावना से परे जा चुके हैं। उनकी शायरी को जन-जन तक फैलाने वाला कोई ग्रुप भी किसी सोशल मिडिया पर उपस्थित नहीं है वरना गंगा पर उनकी एक लम्बी रचना की ये पंक्तियाँ आपको याद रहतीं :

मिला है गंगा का जल जो निर्मल ,उतरके उषा नहा रही है 
हवा है या रागिनी है कोई ,टहलके वीणा बजा रही है 
अँधेरे करते हैं साफ़ रस्ता ,सवारी सूरज की आ रही है
किरण-किरण अब कलश-कलश को सुनहरी माला पिन्हा रही है 

हुई है कितनी हसीन घटना नज़र की दुनिया संवर रही है 
किरण चढ़ी थी जो बन के माला वो धूप बन कर उतर रही है 

सबसे दुखद बात ये है कि जिस शायर ने बनारस में बहने वाली गंगा की ख़ूबसूरती का इस तरह बखान किया है उसी शायर को अपने ही जीवन काल में इसी गंगा के प्रदूषण पर ऐसी बात भी लिखनी पड़ी जिसे लिखते वक्त उसके दिल पर न जाने क्या गुज़री होगी.

डरता हूँ रुक न जाए कविता की बहती धारा 
मैली है जबसे गंगा , मैला है मन हमारा 

कब्ज़ा है आज इसपर भैंसों की गन्दगी का 
स्नान करने वालो जिस पर है हक़ तुम्हारा 

किस आईने में देखें मुंह अपना चाँद-तारे 
गंगा का सारा जल हो जब गन्दगी का मारा 

बूढ़े हैं हम तो जल्दी लग जायेंगे किनारे 
सोचो तुम्हीं जवानो क्या फ़र्ज़ है तुम्हारा 

हमारे शायर ने गंगा की स्वच्छता की बात आज के सरकारी "स्वच्छता अभियान"के शुरू होने के 25-30 साल पहले ही छेड़ दी थी ,अगर उनकी बात पर तब ध्यान दिया जाता तो आज गंगा का जल निर्मल होता। शायर वही होता है जो अवाम को चेताये झकझोरे सोते से उठाये और ये काम हमारे आज के शायर ने भरपूर किया। प्रदूषण ,फ़िरक़ापरस्ती ,आतंकवाद के साथ साथ उन्होंने समाज की हर बुराई पर कलम चलाई।

बाज़ार के हर शीशे को दर्पण नहीं कहते 
बिन प्यार के दीदार को दर्शन नहीं कहते 
उपवन से परे पुष्प को उपवन नहीं कहते 
गुलशन से अलग फूल को गुलशन नहीं कहते 

राहत भी उठाएंगे मुसीबत भी सहेंगे 
सब अहद करें आज कि हम एक रहेंगे 

हमारे आज के शायर का कविता शायरी की दुनिया में उर्दूमुखी हिंदी और हिंदीमुखी उर्दू के अकेले कवि के रूप में सबसे अधिक जाना हुआ और ग़ज़ल, रुबाई और कविताओं के क्षेत्र में भाषा और रचना की बारीकियों के लिए चर्चित ,नाम है और एक ऐसा नाम जो साहित्यिक दुनिया में भारत का प्रतिनिधित्व कर सकता है। अब चूँकि आज के शायर का मिज़ाज़ ग़ज़ल का है इसलिए उनकी ग़ज़लों के अलग अलग रंगों से आपको रूबरू करवाने का इरादा है ,लिहाज़ा पोस्ट अगर लम्बी हो जाय तो मुझे माफ़ कर दीजियेगा और इसे तभी पढियेगा जब आपके पास फुरसत हो।

मैं हूँ और घर की उदासी है ,सुकूते शाम है 
ज़िन्दगी ये है तो आखिर मौत किसका नाम है 
सुकूते शाम =सन्नाटा भरी शाम 

मेरी हर लग़ज़िश में थे तुम भी बराबर के शरीक़ 
बन्दा परवर सिर्फ़ बन्दे ही पे क्यों इलज़ाम है 
लग़ज़िश =ग़लती 

ख़ुशनसीबी ये कि ख़त से ख़ैरियत पूछी गयी 
बदनसीबी ये कि ख़त भी दूसरे के नाम है 

जिस प्रकार गौतम बुद्ध को ये ज्ञान हुआ था कि वीणा के तार इतने भी नहीं कसने चाहियें कि वो टूट जाएँ और इतने ढीले भी नहीं छोड़ने चाहियें कि उनमें से संगीत ही न निकले उसी तरह मुझे भी अभी ये ज्ञान हुआ कि पोस्ट में शायर के नाम को इतनी देर तक भी नहीं छुपाना चाहिए कि पाठक को उसका नाम जानने कि रूचि ही ख़तम हो जाय और न इतनी जल्दी बताना चाहिए कि पाठक की जिज्ञासा ही खतम हो जाय। समय आ गया है कि आपको बता दूँ कि हमारे आज के शायर हैं जनाब "नज़ीर बनारसी"जिनकी रचनाओं का संकलन पेपर बैक में राजकमल प्रकाशन, दिल्ली ने "नज़ीर बनारसी की शायरी"के नाम से किया है। इस किताब का प्रकाशन सन 2010 में किया गया था। किताब का संपादन जनाब "मूलचंद सोनकर"साहब ने किया है जो स्वयं भी प्रसिद्ध शायर,कवि,समीक्षक और दलित चिंतक हैं।


परदे की तरह मुझको पड़ा रहने दीजिये
उठ जाऊँगा तो साफ़ नज़र आइयेगा आप

दर पर हवा की तरह से दीजेगा दस्तकें
कमरे में आहटों की तरह आइयेगा आप

मेरे लिए बहुत है ये ज़ादे सफ़र 'नज़ीर'
वो पूछते हैं लौट के कब आईयेगा आप
ज़ादे सफ़र=सफ़र का सामान 

नज़ीर बनारसी साहब की पैदाइश बनारस के एक मध्यवर्गीय परिवार में 25 नवम्बर 1909 को हुई। ये परिवार हक़ीमों का परिवार कहलाता था। 'नज़ीर'साहब के पिता, दादा, परदादा सभी हकीम थे। इनके बड़े भाई 'मुहम्मद यासीन'तिब्बिया कॉलेज लखनऊ के पढ़े हुए सुप्रसिद्ध हकीम होने के साथ ही साथ एक अच्छे शायर भी थे। नज़ीर साहब ने रूचि न होते हुए भी जबरदस्ती पढ़ते हुए उस्मानिया तिब्बिया कॉलेज से जैसे तैसे हकीम की डिग्री हासिल की। कहा जाता है कि नज़ीर साहब बहुत पढ़े लिखे नहीं थे, उनके पास किसी डिग्री का दुमछल्ला भी नहीं था उन्होंने जो सीखा अपने घरेलू माहौल से सीखा।

तिरि मौजूदगी में तेरी दुनिया कौन देखेगा 
तुझे मेले में सब देखेंगे मेला कौन देखेगा 

अदाए मस्त से बेख़ुद न कीजे सारी महफ़िल को 
तमाशाई न होंगे तो तमाशा कौन देखेगा 

मुझे बाज़ार की ऊँचाई-नीचाई से क्या मतलब
तिरे सौदे में सस्ता और महँगा कौन देखेगा 

तुम्हारी बात की ताईद करता हूँ मगर क़िब्ला 
अगर उक़्बा ही सब देखेंगे तो दुनिया कौन देखेगा 
उक़्बा =परलोक

'नज़ीर'आती है आने दो सफेदी अपने बालों पर 
जवानी तुमने देखी है बुढ़ापा कौन देखेगा 

नज़ीर साहब की प्रतिभा विलक्षण थी ,उन्होंने उस वक्त शायरी करनी शुरू की जिस वक्त उन्हें लिखना भी नहीं आता था। बचपन से ही वो श्रोता की हैसियत से शायरी की महफ़िलों में जाने लगे थे ,वहीँ उस्तादों को सुनते सुनते उनमें शेर कहने का सलीका आने लगा जिसे उनके ख़ालाज़ाद भाई 'बेताब'बनारसी ने उस्ताद की हैसियत से और संवारा। अपने शायराना मिज़ाज़ के चलते उन्होंने अपने शेर कहने के हुनर में इतनी महारत हासिल कर ली कि वो बिना किसी पूर्व तैयारी के हाथों हाथ महफिलों में शेर कहने लगे। उनकी एक ग़ज़ल के जरा ये शेर देखें और उनके हिंदी लफ़्ज़ों को बरतने के खूबसूरत ढंग पर दाँतों तले उँगलियाँ दबाएं :

है जो माखनचोर वो नटखट है हृदयचोर भी 
इक नज़र में लूट कर पूरी सभा ले जायेगा 

अपने दर पर तूने दी है जिसको सोने की जगह
वो तिरि आँखों से नींदें तक उड़ा ले जाएगा 

हद से आगे बढ़ के मत दो दान हो या दक्षिणा 
वरना तुमको वक्त का रावण उठा ले जायेगा 

सहज सरल बोधगम्य भाषा नज़ीर साहब की बहुत बड़ी विशेषता है। अगर उर्दू के सभी शायर नज़ीर की बनाई राह पर चलते तो शायद उर्दू को आज ये दिन ना देखने पड़ते। सहज सरल भाषा में शेर कहना आसान नहीं होता तभी अपनी कमज़ोरी को छुपाने के लिए शायर मुश्किल लफ़्ज़ों का इस्तेमाल करते हैं। नज़ीर साहब की सबसे बड़ी खूबी उनकी हिंदी उर्दू की मिलीजुली भाषा है जो सुनने वाले को अपनी सी लगती है.

तुम हाल पूछते हो इनायत का शुक्रिया 
अच्छा अगर नहीं हूँ तो बीमार भी नहीं 

जो बेख़ता हों उनको फरिश्तों में दो जगह 
इंसान वो नहीं जो ख़तावार भी नहीं 

जीने से तंग आ गया हर आदमी मगर 
मरने के वास्ते कोई तैयार भी नहीं 

तेज तर्रार पत्रकार "भास्कर गुहा नियोगी "अपने ब्लॉग "भड़ास 4 मिडिया "में लिखते हैं कि "नज़ीर की शायरी उनकी कविताएं धरोहर है, हम सबके लिए। संकीर्ण विचारों की घेराबन्दी में लगातार फंसते जा रहे हम सभी के लिए नज़ीर की शायरी अंधरे में टार्च की रोशनी की तरह है, अगर हम हिन्दुस्तान को जानना चाहते है, तो हमे नज़ीर को जानना होगा, समझना होगा कि उम्र की झुर्रियों के बीच इस साधु, सूफी, दरवेश सरीखे शायर ने कैसे हिन्दुस्तान की साझी रवायतों को जिन्दा रखा। उसे पाला-पोसा, सहेजा। अब बारी हमारी है, कि हम उस साझी विरासत को कैसे और कितना आगे ले जा सकते है "

मिरे सर क़र्ज़ है कुछ ज़िन्दगी का 
नहीं तो मर चुका होता कभी का 

न जाने इस ज़माने के दरिंदे 
कहाँ से लाये चेहरा आदमी का 

क़ज़ा सर पर है लब पर नाम उनका 
यही लम्हा है हासिल ज़िन्दगी का 

वहां भी काम आती है मुहब्बत 
जहां कोई नहीं होता किसी का

 'नज़ीर'आती है बालों पर सफेदी 
सवेरा हो रहा है ज़िन्दगी का 

23 मार्च 1996 को दुनिया से रुखसत होने वाले नज़ीर साहब के कुल जमा छह काव्य संग्रह "गंगो जमन ", "जवाहर से लाल तक", ग़ुलामी से आज़ादी तक", "चेतना के स्वर", "किताबे ग़ज़ल "और "राष्ट्र की अमानत राष्ट्र के हवाले"मंज़र-ऐ-आम पर आये है , दुःख की बात है कि इन में से हिंदी में शायद ही कोई संग्रह उपलब्ध हो. हमें शुक्रगुज़ार होना चाहिए राजकमल प्रकाशन और सोनकर साहब के संयुक्त प्रयास का जिसकी बदौलत हमें नज़ीर साहब की चुनिंदा 51 लाजवाब ग़ज़लें और 36 नज़्में इस किताब के माध्यम से पढ़ने को मिल रही हैं।

दुनिया है इक पड़ाव मुसाफिर के वास्ते
इक रात सांस लेके चलेंगे यहाँ से हम

आवाज़ गुम है मस्जिदो-मंदिर के शोर में 
अब सोचते हैं उनको पुकारें कहाँ से हम 

है आये दिन 'नज़ीर'वफ़ा का मुतालबा 
तंग आ गए हैं रोज के इस इम्तिहाँ से हम
वफ़ा=निष्ठा , मुतालबा=मांग

इस किताब को आप अमेजन से ऑन लाइन तो मंगवा ही सकते हैं इसके अलावा राजकमल की साइट पर जाकर भी आर्डर कर सकते हैं। आपका कोई मित्र परिचित दिल्ली रहता हो तो वो आपको राजकमल प्रकाशन 1-बी नेताजी सुभाष मार्ग ,नयी दिल्ली से इसे ला कर भी दे सकता है। किताब का मूल्य इतना कम है कि जान कर आप हैरान हुए बिना नहीं रह पाएंगे। यूँ समझिये कि ये वो खज़ाना है जो सिर्फ 'खुल जा सिम सिम "बोलने मात्र से आप को हासिल हो सकता है. इस किताब की सभी रचनाएँ न केवल आज के सन्दर्भ में प्रासंगिक हैं बल्कि भविष्य के सन्दर्भों से भी संवाद करने में सक्षम हैं।
आप इस किताब को हासिल करने का कोई सा भी तरीका सोचें लेकिन मंगवा लें , अब मैं चलता हूँ उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर आपके हवाले करके किसी नयी किताब की तलाश में :

जाओ मगर इस आने को एहसाँ नहीं कहते 
जो दर्द बढ़ा दे उसे दरमाँ नहीं कहते 
दरमाँ=इलाज़ 

जो रौशनी पहुंचा न सके सबके घरों तक 
उस जश्न को हम जश्ने चराग़ाँ नहीं कहते 

हर रंग के गुल जिसमें दिखाई नहीं देते 
हम ऐसे गुलिस्तां को गुलिस्तां नहीं कहते

किताबों की दुनिया -152

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अक्सर देखा गया है कि शायर सामाजिक जिम्मेवारियों को दरकिनार कर इश्क-मुश्क की रंगीन मिज़ाज़ी शायरी करते हुए मदमस्तीयों और मौजों में अपनी ज़िन्दगी तमाम कर देते हैं और खो जाते हैं। ऐसा नहीं है कि इश्क-मुश्क या रंगीन मिज़ाज़ियाँ ज़िन्दगी की जरूरतें नहीं, हैं, लेकिन इनके इतर भी बहुत कुछ है जिस पर भी साथ साथ लिखा जाना चाहिए , जो लिखते हैं वो ही मुकम्मल शायर कहलाते हैं और बरसों बरस अपनी रचनाओं के माध्यम से याद रहते हैं। किसी भी शायर या रचनाकार को अपनी सामाजिक जिम्मेवारिओं को दर-किनार नहीं करना चाहिए बल्कि पूरी तरह निभाना चाहिए।

तबाही और होती है - तमाशा और होता है 
नगर कब से जलाया जा रहा है फिर खड़े क्यों हो 

मुसीबत कब तलक झेलोगे तुम दुःख झेलने वालों 
बग़ावत का तो वक़्त अब आ गया है फिर खड़े क्यों हो 

जो तूफ़ां से बचा कर तुम को लाया अपनी कश्ती में 
तुम्हारे सामने वो डूबता है फिर खड़े क्यों हो 

हमारे आज के शायर हसीं ख्वाबों को देखने वाले रचनाकार नहीं बल्कि एक खूबसूरत मानवीय ज़िन्दगी की रचना का ताना-बाना बुनने वाले संवेदनशील शायर हैं जो अपनी बात निहायत सादगी और सीधेपन से करते हैं। आज की पीढ़ी के लिए उनका नाम शायद अब जाना पहचाना न हो लेकिन एक समय था जब उनको हरियाणा,पंजाब और दिल्ली के मुशायरों, गोष्ठियों और नशिस्तों में बहुत आदर के साथ बुलाया जाता था।

इक तस्वीर के हट जाने से कैसा रूप बदल जाता है 
कितना बे-रौनक लगता है इतनी रौनक वाला कमरा 

जाने किस दिन आकर कोई एक महक सी छोड़ गया था
हर मौसम में रहता है अब कितना महका-महका कमरा 

रख जाता है तस्वीरों को जाने किस अंदाज़ से कोई 
कैसे रंगों से भर जाता है, खाली-खाली सा कमरा 

हरियाणा के रोहतक जिले के लाखनमाजरा गांव में अप्रैल 1933 को जन्में हमारे आज के तरक्की पसंद शायर हैं जनाब "बलबीर सिंह राठी"जिनकी रचनाओं को किताब की शक्ल में चयनित किया है डा. ओमप्रकाश करुणेश जी ने "बलबीर राठी की चुनिंदा ग़ज़लेँ व नज़्में"शीर्षक से। ये किताब 'आधार प्रकाशन -पंचकूला (हरियाणा) से सं 2010 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में राठी जी की 110 ग़ज़लें, 10 कतआत और 31 नज़्में शामिल है। इस किताब के माध्यम से हम बलबीर जी के रचना संसार को अच्छी तरह से समझ सकते हैं :


झूट से मरऊब होकर हम बहक जाते हैं वरना 
सच अभी कायम है यारों लोग सच्चे भी बहुत हैं 
मरऊब =रौब में आना 

क्यों बुरा होने की तोहमत धर रहे हो हर किसी पर 
हमने देखा है यहाँ तो लोग अच्छे भी बहुत हैं 

यूँ अगर देखें तो दुनिया खूबसूरत भी बहुत है 
बदनुमा इस को मगर हम लोग करते भी बहुत हैं 

राठी साहब बातचीत के लहज़े में पूरी सादगी से अपने पाठकों से संवाद करते हैं। वे जटिल संकेतों , उलझे हुए बिम्बों-दृश्यों, रूपकों,प्रतीकों से अपनी बात कहने में परहेज बरतते हैं. गहरी-से-गहरी बातें सादे और साफ़ ढंग से करना उनकी रचनाओं की फितरत है। उनकी ग़ज़लें जिस सरलता से अपना मुकाम हासिल करती है वो कबीले तारीफ़ है। वो दिल की जुबान में बोलते हैं आँखों की खिड़कियों को खुला रखते हैं और हर तरफ चौकस निगाहें डालते हैं। उनकी जद्द से कोई भी नहीं बचता ,यहाँ तक कि वे खुद को भी लपेट लेते हैं।

जुगनुओं ने आज माँगा है उजालों का हिसाब 
ये बताओ , उनको सूरज का पता किस ने दिया 

रंजो-ग़म तो ख़ूब हमको उस ख़ुदा ने दे दिए 
इतना पत्थर दिल मगर हम को खुदा किसने दिया 

कारवां को रोक लेता है वो हर इक मोड़ पर 
हम को घबराया हुआ ये रहनुमा किसने दिया 

बलबीर जी सं 1950 से साहित्य सृजन में जुट गए , मूल रूप से उर्दू में लेखन 'प्रताप'और 'मिलाप'जैसी उच्च स्तरीय पत्रिकाओं से प्रारम्भ किया। ग़ज़ल लेखन से ख्याति अर्जित की। उनके अजीज दोस्त,डा हरिवंश अनेजा उर्फ़ 'जमाल कायमी 'जो सं 2008 से "दरवेश भारती"के नाम से लिखते हैं और 'ग़ज़ल के बहाने"पत्रिका निकालते हैं,ने उनपर हुई बातचीत में बताया कि "राठी बहुत संकोची और सरल स्वभाव के व्यक्ति हैं , मैंने ही उनकी रचनाओं को सब से पहले रोहतक शहर की साप्ताहिक और मासिक पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ भेजा। मैं उन्हें अपनी साईकिल पर बिठा कर शहर में जहाँ कहीं कोई नशिस्त होती वहां ले जाता। उस वक्त राठी जी जाट कालेज रोहतक में पढ़ाते थे।उनकी झिझक मिटाने के लिए मैंने पत्रकारों को एक कवि सम्मलेन के लिए मनाया और राठी साहब को शायरे-ख़सूसी की हैसियत से बुलाया। रोहतक में उनकी प्रसिद्धि के लिए मैंने अपने और उनके चुनिंदा कलाम को 'ज़ज़्बात'नाम से एक किताब की शक्ल में छपवाया। इस किताब के मंज़र-ऐ-आम पर आने के बाद राठी जी का नाम बतौर शायर लिया जाने लगा।"
आज के इस दौर में जहाँ लोग एक दूसरे की टांग खींचने में लगे हैं और पूरा प्रयास करते हैं कि कोई दूसरा शायर उनसे आगे न जा पाए 'दरवेश भारती जी द्वारा अपने साथी शायर को प्रसिद्धि दिलाने को किये गए ये प्रयास किसी अजूबे से कम नहीं। ऐसे सच्चे और खरे लोग अब ढूंढें नहीं मिलते।

यही खुशफ़हमियाँ मुझ को यहाँ तक खींच लाईं
तुम्हारे शहर में अब तक वही मन्ज़र मिलेँगे

न मंज़िल की खबर जिनको न राहों का पता है 
जिधर भी जाओगे तुमको वही रहबर मिलेंगे 

चले आना किसी दिन उसको अपना घर समझ कर 
तुम्हारे सब पुराने ख्वाब मेरे घर मिलेंगे 

दिल्ली के ज़दीद शायरी के लिए मशहूर शायर जनाब 'राजेंद्र मनचंदा "बानी"ने इस किताब में राठी जी के लिए लिखा है कि "राठी के पूरे कलाम से सच्ची शायरी की खुशबू आती है। मैं उनके शे 'अरों की तशतर आमेज़ सादगी से घायल हुआ हूँ। सच कह रहा हूँ कि ऐसा लहजा काश मुझे नसीब होता " .'बानी'साहब जिनके प्रशंकों में डा. गोपी चंद नारंग साहब का नाम भी शामिल है , दिल्ली में एक मासिक पत्रिका 'तलाश"निकालते थे जिसमें  ग़ज़ल का छपना किसी भी शायर के लिए फ़क्र की बात हुआ करती थी. दरवेश भारती जी के प्रयास से 'बानी"साहब ने अपनी पत्रिका में राठी जी ग़ज़लों को विशेष जगह दी। धीरे धीरे डा. दरवेश भारती , मनचंदा बानी , मख्मूर सईदी, अमीक हनफ़ी और सलाम मछली शहरी जैसे शायरों के साथ राठी जी को गोष्ठियों में बुलाया जाने लगा। दरवेश भारती जी के कारण ही उनके रिश्ते नरेश कुमार 'शाद'साहब के साथ मजबूत हुए। अपनी जनवादी सोच के कारण राठी साहब ने अपनी अलग पहचान बनाई।

छेड़ न किस्से अब वुसअत के दीवारों की बातें कर 
बस्ती में सब सौदागर हैं, बाज़ारों की बातें कर 
वुसअत=फैलाव 

दिल वालों के किस्से आखिर तेरे किस काम आएंगे
ख़ुदग़रज़ों की , अय्यारों की, मक्कारों की बातें कर 

लोग जो पत्थर फेंक रहे हैं इस पे खफ़ा क्यों होता है 
किस ने कहा था वीरानों में गुलज़ारों की बातें कर 

राठी साहब किस्मत वाले हैं तभी उन्हें डा.दरवेश भारती जैसे दोस्त , महावीर सिंह 'दुखी', डा.सुभाष चंद्र -रीडर, हिंदी विभाग कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय और डा.ओमप्रकाश करुणेश जैसे प्रशंसक मिले जिन्होंने न केवल उनकी उर्दू रचनाओं का हिंदी में अनुवाद किया बल्कि उसे जन-जन तक पहुँचाने में अहम् भूमिका भी निभाई। मशहूर शायर स्व. जनाब नरेश कुमार 'शाद'साहब ने राठी साहब के कलाम के बारे में कहा है कि "बलबीर राठी के लबो-लहजे में बड़ा ख़ुशगवार और सेहतमंद रसीलापन है और इस रसीले पन के परदे से जब इनके समाजी शऊर का नूर छान-छनकर आता है तो इसकी ज़ात में छिपी हुई शे'अरी सलाहतों का ऐतराफ़ करते ही बनती है।"

मेरे पीछे सूनी राहें और मेरे आगे चौराहा 
मैं ही मंज़िल का दीवाना मुझको ही रोके चौराहा 

हर कोई अपनी मंज़िल के ख्वाब सजा कर तो चलता है 
क्या कर ले जब वक्त किसी के रस्ते में रख दे चौराहा 

जिन दीवानो के क़दमों में मंज़िल अपनी राह बिछा दे 
'राठी'ऐसे दीवानों को खुद रास्ता दे दे चौराहा 

राठी साहब के पहले ग़ज़ल संग्रह "क़तरा-क़तरा"को भाषा विभाग हरियाणा सरकार द्वारा प्रथम पुरूस्कार दिया गया था जबकि उनके दूसरे ग़ज़ल संग्रह "लहर-लहर"को सन 1992-93 में उर्दू अकादमी हरियाणा सरकार ने पुरुस्कृत किया। उन्हें हरियाणा और दूसरे प्रदेशों में वहां की विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं ने सम्मानित किया है। राठी जी का असली सम्मान तो उनके लाखों मेहनतकश पाठकों श्रोताओं ने किया है जिन्होंने उनकी ग़ज़लों नज़्मों के माध्यम से एक मुकम्मल ज़िन्दगी को जीने का हुनर सीखा है और सीखा है कि किसतरह निराशा के काले घटाघोप अँधेरे से आशा के उजाले की और बढ़ना चाहिए किसतरह अपने हक़ के लिए लड़ना चाहिए और किसतरह अपनी मंज़िल का रस्ता खुद तलाशना चाहिए .
किताब की प्राप्ति के लिए जैसा ऊपर बताया है आप आधार प्रकाशन को उनके पते "आधार प्रकाशन प्राइवेट लिमिट , एस.सी.एफ. 267,सेक्टर -16 पंचकुला -134113 (हरियाणा) को लिखें या वहां से ऑन लाइन मंगवाए या उन्हें aadhar_prakashan@yahoo.com पर इ-मेल करें।
"राठी जी "को उम्र के इस दौर में सुनाई नहीं देता इसलिए उनका मोबाईल नम्बर यहाँ नहीं दे रहा अलबत्ता अगर उनके बारे में कुछ कहना सुनना चाहें तो उनके अज़ीज़ दोस्त "दरवेश भारती"जी से उनके मोबाईल नंबर 9268798930पर संपर्क कर सकते हैं.
अगली किताब की खोज से पहले प्रस्तुत हैं उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर :

गुज़र तो हो ही जाती है संभल कर चलने वालों की 
मगर फिर ज़िन्दगी में ज़िन्दगी बाक़ी नहीं रहती 

तुम्हें अच्छी नहीं लगतीं मेरी बेबाकियाँ लेकिन 
तक़ल्लुफ़ में भी अक्सर दोस्ती बाकि नहीं रहती 

कई लम्हात ऐसे भी तो आते हैं मोहब्बत में 
कि दिल में दर्द , आँखों में नमी बाकी नहीं रहती

किताबों की दुनिया -153

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वो कहते हैं रंजिश की बातें भुला दें 
मुहब्बत करें, खुश रहें, मुस्कुरा दें 

जवानी हो गर जाविदानी तो या रब
तिरि सादा दुनिया को जन्नत बना दें 
जाविदानी =अनश्वर 

शबे-वस्ल की बेखुदी छा रही है 
कहो तो सितारों की शमएँ बुझा दें 
शबे-वस्ल=मिलन की रात 

तुम अफ़सान-ए-क़ैस क्या पूछते हो
इधर आओ, हम तुमको लैला बना दें 
अफ़सान-ए-क़ैस =मजनू की कहानी 

आप ऐसा करें अब इस ग़ज़ल को मलिका पुखराज जी की आवाज़ में यू ट्यूब या नेट पर सर्च करके सुनें। अमां माना ज़िन्दगी में बहुत मसरूफियत है लेकिन क्या आप अपने लिए 3 मिनट भी नहीं निकाल सकते ?

सच !!अगर जवानी जाविदानी याने हमेशा रहने वाली होती तो हमारे आज के शायर यकीनन इस सादा दुनिया को जन्नत बना देते, लेकिन जवानी ही क्या, ये ज़िन्दगी ही नश्वर है। उस उम्र में जब इंसान जीने का सलीका थोड़ा बहुत सीखने लगता है ,हमारे आज के शायर दुनिया से कूच फरमा गए। पीछे रह गयीं उनकी कुछ उदास कुछ रोमांस से भरी ग़ज़लें और नज़्में ,चंद हसीनो के ख़ुतूत (चिठ्ठियां ) और टूटे पैमाने। पता नहीं क्यों ऊपर वाला किसी किसी की ज़िन्दगी के साथ खिलवाड़ करता है ,जानबूझ कर उसकी झोली अधूरी हसरतें, घुटन,तड़पन,भटकन,बैचनी और ढेर सी प्यास से भर देता है। जिसके जीते जी उसका बेटा ,दामाद और जिगरी दोस्त एक के बाद एक इस दुनिया से रुखसत हुआ हो उसकी मानसिक स्तिथि का अंदाज़ा आप लगा ही सकते हैं।

यारों से गिला है न अज़ीज़ों से शिकायत 
तक़दीर में है हसरतों-हिरमां कोई दिन और 
हसरतों-हिरमां =अधूरी इच्छाएं और दुःख 

मर जायेंगे जब हम तो बहुत याद करेगी 
जी भर के सता ले शबे-हिजरां कोई दिन और 
शबे-हिजरां=वियोग की रात 

आज़ाद हूँ आलम से तो आज़ाद हूँ ग़म से 
दुनिया है हमारे लिए ज़िन्दाँ कोई दिन और 
ज़िन्दाँ=कैदखाना

4 मई 1905 को राजस्थान के टोंक जिले में पैदा हुए हमारे आज के शायर का नाम मोहम्मद दाऊद खां था जब वो शायरी करने लगे तो अपना नाम "अख्तर शीरानी'रख लिया। आज हम जनाब नरेश नदीम द्वारा संकलित उन्हीं की ग़ज़लों और नज़्मों से सजी किताब जिसे "प्रतिनिधि शायरी:अख्तर शीरानी"राधाकृष्ण प्रकाशन ने सन 2010 में प्रकाशित किया था ,की बात करेंगे।11 सितम्बर 1951 में जन्में नरेश साहब स्वयं उर्दू के नामी शायर और लेखक हैं साथ ही अंग्रेजी में पत्रकारिता भी करते हैं। नरेश साहबने उर्दू पंजाबी और अंग्रेजी से लगभग 150 किताबों का हिंदी में अनुवाद किया है ,उन्हें हिंदी अकेडमी दिल्ली का साहित्यकार सम्मान और उर्दू अकेडमी दिल्ली द्वारा भाषायी एकता पुरूस्कार से सम्मानित किया गया है।


 उनको बुलाएँ और वो न आएँ तो क्या करें
बेकार जाएँ अपनी दुआएँ तो क्या करें

माना की सबके सामने मिलने से है हिजाब
लेकिन वो ख़्वाब में भी न आएँ तो क्या करें 
हिजाब=पर्दा

हम लाख कसमें खाएँ न मिलने की ,सब ग़लत 
वो दूर ही से दिल को लुभाएँ तो क्या करें 

नासिह हमारी तौबा में कुछ शक नहीं मगर 
शाना हिलाएँ आके घटाएँ तो क्या करें 
नासिह =नसीहत करने वाला, शाना =कंधा 

 रोमांस से भरी ऐसे ग़ज़लों के शायर की ज़िन्दगी में रोमांस कभी आया ही नहीं। उनके पिता हाफ़िज़ मेहमूद शीरानी लंदन में पढ़े थे और फ़ारसी साहित्य के साथ साथ इतिहास के बड़े विद्वान थे। वो चाहते थे कि उनका बेटा पढ़ लिख कर किसी बड़े सरकारी ओहदे पर काम करे लेकिन जनाब मोहम्मद दाऊद खां को जवानी की देहलीज़ पर पाँव रखते ही शायरी ने अपनी गिरफ्त में ले लिया। अख़्तर कोई 15 बरस के रहे होंगे तभी घर के हालात कुछ ऐसे बने कि उन सब को टोंक छोड़ कर दर दर भटकना पड़ा। टोंक छोड़ने का दुःख वो कभी भुला नहीं पाए। अपने इस दर्द को उन्होंने अपनी एक नज़्म से ज़ाहिर किया है जिसे बाद में 'आबीदा परवीन "ने अपनी दर्द भरी दिलकश आवाज़ में गाया है:

ओ देस से आने वाले बता 
किस हाल में है याराने वतन ? 

क्या अब भी वहां के बागों में 
मस्ताना हवाएँ आती हैं ? 
क्या अब भी वहां के परबत पर 
घनघोर घटाएँ छाती हैं 
क्या अब भी वहां की बरखाएँ
वैसे ही दिलों को भाती हैं ? 
ओ देस से आने वाले बता !!

अख़्तर साहब के पिता चूँकि लन्दन में पढ़े लिखे थे इसलिए उन्हें लाहौर कालेज में प्रोफ़ेसर की नौकरी मिल गयी। अख़्तर साहब की पढाई लिखाई में कोई रूचि नहीं थी लिहाज़ा उनकी अपने पिता से हमेशा तकरार चलती रहती थी। वो अपने पिता के रूबरू होने से कतराते थे। 19 वर्ष के होते होते अख़्तर शीरानी ने पंजाब और विशेष रूप से लाहौर में अपने कलाम से धूम मचा दी। वो बड़े बड़े नामवर शायरों की सोहबत में उठने बैठने लगे। बहुत सी पत्र पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ छपने लगी। प्रशंकों की तादाद में लगातार इज़ाफ़ा होता चला गया। उनके प्रशंकों में सलमा नाम की एक महिला भी थी जिसके इश्क में वो दीवानावार गिरफ्तार हो गए। उनकी रचनाओं में सलमा का जिक्र अक्सर आने लगा। हकीकत में ये सलमा कौन थी कैसी थी इसकी किसी को खबर हो पायी। सलमा आज तक एक रहस्य ही है।

उन्हें जी से मैं कैसे भुलाऊँ सखी, मिरे जी को जो आके लुभा ही गए 
मिरे मन में दर्द बसा ही गए, मुझे प्रीत का रोग लगा ही गए 

कभी सपनों की छाँव में सोई न थी कभी भूल के दुःख से मैं रोई न थी
मुझे प्रेम के सपने दिखा ही गए , मुझे प्रीत के दुःख से रुला ही गए

मिरे जी में थी बात छिपाये रखूं सखी चाह को मन में दबाए रखूं 
उन्हें देख के आंसू जो आ ही गए मिरी चाह का भेद वो पा ही गए 

अब ये सलमा थी रेहाना थी अजरा थी जिनका जिक्र उनकी नज़्मों ग़ज़लों में आता है जो उन्हें हासिल नहीं हुईं या वतन से दूर चले जाने का दर्द था या पारिवारिक परेशानियां थी या अकेलापन था कुछ था जिसने उन्हें शराब खोरी की और धकेल दिया। दिन की शुरुआत से रात सोने तक वो शराब के नशे में गर्क रहते। शादी भी हुई लेकिन सलमा का भूत सर से न उतरा। उनकी शराबखोरी से तंग आकर पिता ने घर से निकाल दिया तब वो टोंक से लाहौर चले आये। घर छूटा लेकिन बोतल हाथ में रही और तसव्वुर में रही सलमा।

शर्म रोने भी न दे बेकली सोने भी न दे 
इस तरह तो मिरी रातों को न बर्बाद करो

याद आते हो बहुत दिल से भुलाने वालो 
तुम हमें याद करो ,तुम हमें क्यों याद करो 

हम कभी आएँ तिरे घर मगर आएँगे जरूर
तुमने ये वादा किया था कि नहीं , याद करो 

शायरी के अलावा उस ज़माने में कुछ समय तक जनाब अख्तर शीरानी ने उर्दू के मशहूर मासिक रिसाले "हुमायूँ"के संपादन का काम किया। फिर सन 1925 में एक और रिसाले 'इंतिखाब'का भी संपादन किया। संपादन का ये सिलसिला "'ख़यालिस्तान""रोमान"से होता हुआ "शाहकार"पर जा कर खत्म हुआ। बहुत से नए शायरों को उन्होंने अपने रिसालों में छाप कर मक़बूल किया,उसमें अहमद नदीम कासमी साहब का भी नाम है.उनका मन लेकिन इस काम में रमा नहीं। वो और शराब पीने लगे ,मयनोशी का ये दौर सन 1943 तक जबरदस्त तरीके से चलता रहा। 1943 में उनके पिता उन्हें लाहौर से किसी तरह मना कर वापस टौंक ले आये। कहते हैं कि 1943 से 1947 तक वो टौंक में गुमनामी की ज़िन्दगी बसर करते रहे।

उम्र भर कम्बख्त को फिर नींद आ सकती नहीं 
जिसकी आँखों पर तिरी जुल्फें परीशाँ हो गयीं 

दिल के पर्दों में थीं जो-जो हसरतें पर्दानशीं 
आज वो आँखों में आंसू बनके उरियाँ हो गयीं 
उरियाँ=प्रकट 

बस करो, ओ मेरी रोनेवाली आँखों बस करो 
अब तो अपने जुल्म पर वो भी पशेमाँ हो गयीं 

भले ही मंटो उन्हें कॉलेज के लड़कों का शायर माने जो हलकी फुलकी रोमंटिक शायरी करता है लेकिन कालेज के लड़कों वाली शायरी तो साहिर और मजाज ने भी की है लेकिन शीरानी की शायरी में एक तरह का पलायनवाद नज़र आता है। अगर इस पलायनववद को हम नकार दें तो अख्तर शीरानी की शायरी हमें मोह लेती है और दाद देने पर मजबूर करती है। उर्दू के मशहूर लेखक नय्यर वास्ती जो शीरानी साहब के दोस्त भी थे उन्हें उर्दू का सबसे बड़ा शायर मानते हैं। वर्ड्सवर्थ की 'लूसी'और कीट्स की 'फैनी'की तरह उन्होंने 'सलमा'को अमर कर दिया।

जो तमन्ना बर न आये उम्र भर 
उम्र भर उसकी तमन्ना कीजिये 
बर न आये =पूरी न हो 

इश्क की रंगीनियों में डूब कर 
चांदनी रातों में रोया कीजिये 

पूछ बैठे हैं हमारा हाल वो 
बेखुदी, तू ही बता क्या कीजिये 

हम ही उसके इश्क के काबिल न थे 
क्यों किसी ज़ालिम से शिकवा कीजिये 

सन 1947 में जब शीरानी फिर से लाहौर पहुंचे तो उनकी हालत बहुत ख़राब थी। उनका परिवार बिखर और टूट चुका था, टौंक में भी सब उजड़ गया था। उर्दू के इस महान रोमांसवादी शायर ने 9 सितम्बर 1948 को लाहौर के एक सरकारी अस्पताल में पैसों के अभाव में बिना इलाज़ करवाए बहुत दर्दनाक अवस्था में दम तोड़ दिया। तब वो मात्र 43 वर्ष के थे। आज उनकी कहानियों और ग़ज़लों से कई प्रकाशनों ने काफ़ी धन राशि कमाई लेकिन जीते जी अख्तर बदहाली में ही ज़िन्दगी बसर करते रहे। उन्हें अपने वतन में दो गज़ ज़मीन भी नसीब नहीं हुई। सन 2005 में पाकिस्तान की सरकार ने "पोएट्स ऑफ पाकिस्तान"श्रृंखला के अंतर्गत उनपर "पोस्टेज स्टैम्प"निकाल कर फ़र्ज़ अदायगी जैसा कुछ औपचारिक काम कर दिया।

शबे-बहार में जुल्फों से खेलने वाले 
तिरे बग़ैर मुझे आरज़ू-ए-ख़्वाब नहीं 

चमन में बुलबुलें और अंजुमन में परवाने 
जहाँ में कौन ग़मे-इश्क़ से ख़राब नहीं 
ख़राब =बरबाद 

वही हैं वो, वही हम हैं , वही तमन्ना है 
इलाही,क्यों तिरी दुनिया में इन्कलाब नहीं 

नागरी लिपि में अख़्तर साहब का कलाम आसानी से पढ़ने को नहीं मिलता , इस किताब में जिसमें उनकी लगभग 42 ग़ज़लें और 80 नज़्में शामिल हैं जिनको पढ़ना एक अद्भुत अनुभव से गुजरने जैसा है। इस किताब को आप राधाकृष्ण प्रकाशन से ऑन लाइन मंगवा सकते हैं। ये हर दृष्टिकोण से एक दुर्लभ किताब है जिसमें ऐसी शायरी है जो अब कहीं पढ़ने को नहीं मिलती। अख़्तर साहब अपनी रचनाओं के प्रति हमेशा उदासीन रहे और इसी वजह से उनकी कोई किताब जीते जी मंज़र-ए-आम पर नहीं आयी। उनकी रचनाओं का संकलन उनकी मृत्यु के बाद ही हुआ।
लीजिये गुनगुनाइए उनकी एक छोटी बहर की ग़ज़ल के ये शेर , हम चले आपके लिए तलाशने एक और किताब :

ये सब्ज़ा ये बादल ये रुत ये जवानी
किधर है मिरा साग़रे-खुसरवानी 
साग़रे-खुसरवानी=बादशाही प्याला 

ये हसरत रही वो कभी आके सुनते 
हमारी कहानी हमारी ज़बानी 

मिरा इश्क़ बदनाम है क्यों जहां में ? 
है मशहूर 'अख़्तर' :जवानी दीवानी

किताबों की दुनिया -154

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मौसम है बहारों का मगर खानये दिल में 
सूखे हुए इक पेड़ की तस्वीर लगी है 

अरमाँ का शजर सूख चला ज़र्द हैं पत्ते 
लगता है कि इस पर भी अमर बेल चढ़ी है 

हम शहरे-तमन्ना में उसे ढूंढ रहे हैं 
आहट है कि तन्हाई के ज़ीने पे खड़ी है 

मात्र तीन चार सौ ग़ज़लों की किताबें पढ़ लेने से कोई शायरी का जानकार नहीं बन जाता लेकिन मैं अपने लिए ये यकीन से कह सकता हूँ कि मैंने "आहट है कि तन्हाई के ज़ीने पे खड़ी है "जैसे बेमिसाल मिसरे बहुत ही कम पढ़े हैं। आप हो सकता हैं मेरी बात से इत्तेफ़ाक़ न रखें लेकिन जो बात मेरे लिए सच है उसे लिखने में गुरेज़ नहीं करूँगा। मेरे ख़्याल से ऐसे मिसरे सोच कर नहीं कहे जा सकते ये सीधे ऊपर से उतरते हैं जिन्हें आमद का मिसरा कहा जा सकता है। ऐसे मिसरे पढ़ने के बाद आप तुरंत आगे नहीं बढ़ सकते। शायरी का सौंदर्य और मिसरे का तिलिस्म आपको ठिठका देता है।

दिल के वीराने में सर सब्ज़ है यादों का शजर 
गर्मियों में भी हरा रहता है पीपल जैसे 

याद इक बीते हुए लम्हें की यूँ आज आई 
संग को तोड़ के फूटे कोई कोपल जैसे 
संग =पत्थर

जिस्म का अब मेरी साँसों से तअल्लुक़ ये है 
डाल कर काँटों पे खींचे कोई आँचल जैसे 

एक एक शेर एक एक मिसरा पढ़ कर आप रुकते हैं सोचते हैं दाद देते हैं फिर से उसे पढ़ते हैं फिर से दाद देते हैं और फिर बामुश्किल आगे बढ़ते हैं और अगला शेर पढ़ कर बेसाख़्ता कह उठते हैं अरे वाह सुभानअल्लाह !!! ऐसा मेरे साथ हुआ जब मैंने हमारी किताबों की दुनिया श्रृंखला की इस कड़ी में शायरा "मलका नसीम"की हिंदी में पहली बार शाया हुई किताब "शहर काग़ज़ का "को पढ़ा। आज हम उसी किताब की बात आपसे करेंगे जिसे मुझे मेरे छोटे भाई समान बेहतरीन शायर जनाब "अखिलेश तिवारी "जी ने ये कहते हुए दी कि भाई साहब अगर आपने मलका नसीम जी को नहीं पढ़ा तो क्या पढ़ा।


हमारी आँख में यूँ इंतज़ार रोशन है 
नदी में जैसे कई दीप झिलमिलाते हैं 

तेरे बग़ैर कुछ ऐसे बिखर गयी हूँ मैं 
कि जैसे साज़ के सब तार टूट जाते हैं 

धुंधलका शाम का छाने लगा है सोचती हूँ मैं
कि इस समय तो परिंद भी लौट आते हैं 

ये ज़िन्दगी वो कड़ी धूप है 'नसीम'जहाँ 
न जाने कितने हरे पेड़ सूख जाते हैं 

इलाहाबाद के संपन्न सैय्यद घराने में 1 जनवरी 1954 को जन्मी मलका नसीम को पढ़ने का बचपन से ही बेहद शौक था। एक टीवी इंटरव्यू के दौरान उन्होंने बताया कि अगर उन्हें बाजार से कुछ सामान लाने भेजा जाता तो वो उस कागज़ को जिसमें सामान लिपटा होता था रास्ते भर पढ़ती आतीं और पढ़ते हुए इतना खो जातीं की उसमें लिपटा सामान कब कहाँ गिर गया उन्हें पता ही नहीं चलता था। लगभग 15-16 साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली ग़ज़ल कही और उस वक्त के मशहूर और मयारी रिसाले "बीसवीं सदी "में बिना किसी को घर में बताये छपने को भेज दी। वो ग़ज़ल छप गयी और उस रिसाले की कॉपी घर पर आ गयी। मलका जी को ग़ज़ल छपने की ख़ुशी तो हुई ही साथ में और आगे लिखना जारी रखने का हौसला भी मिला। घर का माहौल यूँ तो अदबी था लेकिन थोड़ा रूढ़िवादी भी था याने लड़कियों का ग़ज़ल कहना, घर के बाहर मुशायरों या नशिस्तों आदि में सुनाना अच्छा नहीं माना जाता था, लेकिन मलका जी ने लिखना जारी रखा।

पत्ते तो वो भी थे जो गिरे हैं बहार में
इल्ज़ाम मौसमों के हवाओं के सर गए

जैसे थका परिंद ठहर जाए शाख़ पर 
इस तरह अश्क-ए-ग़म सरे मिज़गाँ ठहर गए
मिज़गाँ =पलकें 

आँखों ने तीरगी में बड़ा काम कर दिया 
ग़म की अँधेरी रात में जुगनू बिखर गए 

मात्र 17 साल की उम्र में मलका जी की शादी जयपुर के मुअज़्ज़म अलीसाहब से हो गयी जो खुद उर्दू ज़बान और अदब के दीवाने थे । एक सच्चे जीवन साथी की तरह उन्होंने मलका जी के हुनर को न सिर्फ पहचाना बल्कि उसे और भी निखारने में भरपूर मदद की। मलका जी ने शादी के बाद उर्दू में एम.ऐ. किया, वो हँसते हुए एक इंटव्यू में कहती भी हैं कि मेरी उर्दू मेरे मियां से अच्छी है। मुअज़्ज़म अली साहब, जिन्होंने राजस्थान उर्दू अकेडमी के सचिव पद पर रहते हुए उर्दू अदब की जिस तरह से ख़िदमत की है और कर रहे हैं उसकी जितनी भी तारीफ़ की जाय कम है, ने मलका जी को उड़ने के लिए न सिर्फ पर दिए बल्कि फ़लक नापने का हौसला भी दिया।

सुलगती शाम की दहलीज़ पर जलता दिया रखना 
हमारी याद का ख्वाबों से अपने सिलसिला रखना 

सदा बन कर, घटा बन कर,फ़ज़ा बन कर, सबा बन कर 
न जाने कब मैं आ जाऊँ दरीचा तुम खुला रखना 

न पढ़ लें कोई तहरीरें तुम्हारे ज़र्द चेहरे की 
दरो दीवार घर के शोख़ रंगों से सजा रखना 

जो बहनें मुफ़लिसी से भाइयों पर बोझ बनती हैं 
वो मर जाएँ तो उनके हाथ में शाख़े हिना रखना 

औरत के दर्द को जिस शिद्दत से एक औरत बयां कर सकती है वैसे किसी पुरुष के लिए करना लगभग नामुमकिन सा काम है। मलका जी जब अपने अशआर में औरत का दर्द बयाँ करती हैं तो आप उस दर्द को दुःख को तकलीफ़ को मज़बूरी को धड़कते लफ़्ज़ों से महसूस कर सकते हैं। उन्होंने अपने कलाम से न केवल उर्दू अदब को मालामाल किया है बल्कि जयपुर शहर का नाम भी पूरी दुनिया में रोशन किया है। उज्जैन में अपना पहला मुशायरा सं 1981 में पढ़ने वाली मलका नसीम साहिबा आज तमाम भारत और दुनिया के उन शहरों में जहां उर्दू के दीवाने रहते हैं , में बड़े अदब और अहतराम के साथ मुशायरे में अपना कलाम पढ़ने को बुलाई जाती हैं। उनकी मौज़ूदगी किसी भी मुशायरे की कामयाबी मानी जाती है।

अहले दानिश को इसी बात की हैरानी है 
शहर कागज़ का है शोलों की निगहबानी है 
अहले दानिश : अकलमंद 

इस तरह घेर लिया मुझको ग़मों ने जैसे 
मैं जज़ीरा हूँ मेरे चारों तरफ़ पानी है 

अब किसी और को देखूं भी तो कैसे देखूं 
तेरे ख्वाबों की इन आँखों पे निगहबानी है 

यूँ तो मलका साहिबा ने 26 जनवरी और 15 अगस्त को होने वाले देश के मशहूर लाल किले के मुशायरों में लगातार शिरकत की है लेकिन वो "डी.सी.एम द्वारा आयोजित मुशायरों को इन सब से श्रेष्ठ मानती हैं। पुराने लोग जानते हैं कि डी.सी.एम. मुशायरों में शिरकत करने में शायर अपनी शान समझता था क्यूंकि उस मंच से हलकी फुलकी शायरी कभी नहीं पढ़ी गयी। बहुत पुरानी बात है कि जब मलका साहिबा को पहली बार डी सी एम वालों ने मुशायरे में शिरकत का न्योता भेजा तो लोग विश्वास ही नहीं कर पाए कि जयपुर की एक शायरा इस मुकाम पर भी पहुँच सकती है लेकिन उन्होंने न केवल धमाकेदार शिरकत की बल्कि बाद में मुशायरों में वो मुकाम हासिल किया जिसका ख़्वाब हर शायर देखता है।

ये कौन आया रिदा खुशबुओं की ओढ़े हुए 
मैं जश्ने हिज़्र मनाऊं कि वस्ले यार करूँ
रिदा :कम्बल ,चादर ,हिज़्र :जुदाई

लिए हुए हूँ मैं कश्कोल खाली हाथों में 
अमीरे शहर का अब कितना इंतज़ार करूँ 

जो मुन्तज़िर है किसी का और वो चाहता है 
तमाम उम्र उसी का मैं इंतिज़ार करूँ 

जनाबे फ़ैज़ से सीखा है ये हुनर हमने 
ख़िज़ाँ की रुत में भी गुलशन का कारोबार करूँ 

मलका साहिबा को राजस्थान और उत्तर प्रदेश की उर्दू अकादमियों ने पुरुस्कृत किया है। 3 फरवरी 2017 को मध्य प्रदेश उर्दू अकादमी की तरफ से उन्हें रविंद्र भवन भोपाल में हुए शानदार समारोह में जावेद अख्तर साहब ने सन 2015-16 के लिए प्रसिद्ध "हामिद सय्यद खां "पुरूस्कार से नवाज़ा। उनकी शायरी के बारे में उर्दू अदब के मशहूर लेखक जनाब "अली सरदार जाफरी "साहब ने इस किताब की भूमिका में जो लिखा है उसके बाद और कुछ लिखने को नहीं रह जाता ,वो लिखते हैं कि "मलका नसीम की शायरी में निसवानी लताफत है इंसानी मसाईल का विक़ार -इसके एहसास में शिद्दत है और बयान में सादगी है। तशबीहात तरोताज़ा हैं जिनमें क्लासिक रख-रखाओं के साथ रोज़मर्रा की घरेलू ज़िन्दगी की आंच है। पूरी शायरी पर कुछ खूबसूरत यादों की धनक साया फ़िगन है और शाम की परछाइयाँ एक रोमानी कैफियत पैदा कर रही है। "

पलकें हर शाम सितारों से सजाया न करो 
अपनी आँखों को हंसी ख़्वाब दिखाया न करो

सुब्हा तक साथ न देगी शबे तनहाई में 
शम्मे उम्मीद सरे शाम जलाया न करो 

झिलमिलाती हुई आँखों में गुहर ठहरे हैं 
ये बिखर जायेँगे पलकों को झुकाया न करो 

पिछले तीन दशकों से भी अधिक समय से उर्दू अदब की खिदमद कर रही मलका साहिबा की अब तक आधा दर्ज़न किताबें मन्ज़रे आम पर आ चुकी हैं। "शहर काग़ज़ का"जैसा मैंने पहले बताया उनकी हिंदी में शाया होने वाली पहली किताब है जिसमें उनकी बेहतरीन ग़ज़लें और नज़्में संकलित हैं। इस किताब का इज़रा याने विमोचन 21 फरवरी 2016 को जयपुर में पाकिस्तान के मशहूर शायर जनाब "अब्बास ताबिश "साहब की मौजूदगी में हुआ था। इस किताब को लिटरेरी सर्किल जयपुर ने "जवाहर कला केंद्र जयपुर "की पुस्तक प्रकाशन योजना के अंतर्गत प्रकाशित किया है. किताब की प्राप्ति का रास्ता पूछने के लिए आप जनाब मोअज़्ज़म अली साहब को उनके मोबाईल न 9828016152 पर संपर्क कर सकते हैं। रिवायती शायरी के प्रेमियों के पास ऐसी लाजवाब और मयारी शायरी की दिलकश किताब जरूर होनी चाहिए। अभी तो मैंने मलका साहिबा की नज़्मों की बात आपसे नहीं की क्यूंकि उसके लिए एक अलहदा पोस्ट चाहिए। उनकी नज़्में बेहतरीन हैं और पाठक को बार बार पढ़ने को मज़बूर करती हैं उनके विषयों का विस्तार भी बहुत अधिक है।

शब की तन्हाई मुझसे कहती है 
मेरे शानों पे अपना सर रख दे 

रौशनी क़र्ज़ माँगता है क्यों 
उठ अँधेरा निचोड़ कर रख दे

ख़्वाब की आरज़ू से बेहतर है 
रात की गोद में सहर रख दे 

वो जो परदेश जा रहा है 'नसीम' 
उसकी आँखों में अपना घर रख दे 

अपनी शायरी ही की तरह सीधी, सरल, सलीकेदार, नफ़ासत पसंद, संवेदनशील, पुर ख़ुलूस 'मलका नसीम'साहिबा की शायरी पर जितना लिखा जाय कम ही होगा। उनकी किताब की हर ग़ज़ल यहाँ पेश करने लायक है लेकिन मैं ऐसा कर नहीं सकता , ये काम आपको किताब मंगवा कर खुद ही करना होगा। अभी तो मेरी गुज़ारिश है आप मलका साहिबा को इस बाकमाल शायरी के लिए उनके मोबाईल न. 8290303163पर बात कर भरपूर दाद दें।
आपके लिए अगली किताब की तलाश में निकलने से पहले मैं उनकी एक और ग़ज़ल के ये शेर पेश करता हूँ ,पढ़िए और उन्हें दुआएं दीजिये :

 उसे देखा नहीं सोचा बहुत है 
तसव्वुर में सही चाहा बहुत है 

मुझे छूकर जो पत्थर कर गया था 
वो इस एहसास से पिघला बहुत है 

झुका है जो दरे इन्सानियत पर 
ज़माने में वो सर ऊंचा बहुत है 

तबस्सुम तो लबों तक आ न पाया 
ये काजल आँख में फैला बहुत है

किताबों की दुनिया -155

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घर तो हमारा शोलों के नरग़े में आ गया
लेकिन तमाम शहर उजाले में आ गया
नरग़े = घेरे

यह भी रहा है कूच-ए-जानां में अपना रंग
आहट हुई तो चाँद दरीचे में आ गया
कूच-ए-जानां=महबूब की गली , दरीचे =खिड़की

कुछ देर तक तो उस से मेरी गुफ़्तगू रही
फिर यह हुआ कि वह मेरे लहजे में आ गया

"आहट हुई तो चाँद दरीचे में आ गया "जैसा शायरी का ये बेपनाह हुस्न बरसों ग़ज़ल के पाँव दबाने और उस्तादों की जूतियाँ उठाने के बाद भी किसी किसी को ही मयस्सर होता है। उर्दू शायरी को परवान चढाने में दिल्ली और लखनऊ के बाद रामपुर का नाम आता है। दरअसल दिल्ली और लखनऊ से उजड़े शायर रामपुर में आ बसे और उन्होंने दिल्ली वालों की दिल और लखनऊ वालों की शराब में डूबी ग़ज़ल को मर्दाना लहजे और बांकपन से परिचय करवाया। दाग देहलवी और अमीर मीनाई की ही अगली कड़ी हैं रामपुर के हमारे आज के शायर।

हम तो पैरों में समझते थे मगर
आप के ज़ेहन में कांटे निकले

जितना पथराव अंधेरों का हुआ
मेरे लहजे से उजाले निकले

लोग संजीदा समझते थे जिन्हें
वह भी बच्चों के खिलोने निकले

क्या ज़माना है कि अपने घर से
प्यार को लोग तरसते निकले

15 अप्रेल 1946 को रामपुर के पठान सफ़दर अली खां के यहाँ जिस बच्चे का जन्म हुआ उसका नाम रखा गया अज़हर अली खां। बच्चे के वालिद और दादा तो शायरी नहीं करते थे लेकिन परदादा मौलाना नियाज़ अली खां बेहतरीन शायर थे जिनके उस्ताद मौलवी अब्दुल क़ादिर खां रामपुर के बड़े उस्ताद शायर जनाब अमीर मीनाई साहब के शागिर्द थे. बचपन से ही शायरी की और उनका झुकाव शायद अपने परदादा के गुणों का खून में आ जाने की वज़ह हो गया और उन्होंने मात्र 12 साल की उम्र में ही रामपुर के ख्याति नाम शायर जनाब महशर इनायती साहब को अपना उस्ताद मान लिया। उन से बाकायदा तालीम हासिल शुरू कर दी की और अपना नाम भी अज़हर अली खां से 'अज़हर इनायती'रख लिया और अब इसी नाम से विख्यात हैं। आज हम रामपुर रज़ा लाइब्रेरी द्वारा प्रकाशित किताब "अज़हर इनायती और ग़ज़ल"की बात करेंगे।


होती हैं रोज़ रोज़ कहाँ ऐसी बारिशें 
आओ कि सर से पाँव तलक भीग जायें हम 

उकता गया है साथ के इन कहकहों से दिल 
कुछ रोज़ को बिछड़ के अब आंसूं बहायें हम 

कब तक फुजूल लोगों पे हम तजर्बे करें 
काग़ज के ये जहाज़ कहाँ तक उड़ायें हम 

अज़हर साहब ने बी.ऐ. एल.एल. बी. करने के बाद कुछ साल रामपुर में बाकायदा वकालत की लेकिन एक शायर का दिल कानूनी दांवपेच में भला कब तक रमता सो उसे जल्द ही छोड़ छाड़ के पूरी तरह शायरी के समंदर में उतर गए। अज़हर साहब के बारे में जानकारी मुझे सबसे पहले दिल्ली के मेरे मित्र और शायरी के सच्चे दीवाने जनाब प्रमोद कुमार जी से मिली। उनके कहे को मैं कभी हलके में नहीं लेता इसलिए अज़हर साहब को जब मैंने इंटरनेट पे खोजा, पढ़ा और सुना तो लगा कि मैं कितना बदनसीब था जो अब तक इनसे दूर रहा। उनकी ग़ज़लों की किताबों की तलाश शुरू की तो हाथ कुछ लगा ही नहीं क्यूंकि मेरी जहाँ तक जानकारी है ,हिंदी में उनका कलाम शायद अभी तक शाया नहीं हुआ है। अगर हुआ भी है तो मुझे उसका पता नहीं चल पाया है।

ख़बर एक घर के जलने की है लेकिन 
बचा बस्ती में घर कोई नहीं है 

कहीं जाएँ किसी भी वक्त आएँ 
बड़ों का दिल में डर कोई नहीं है 

मुझे खुद टूट कर वो चाहता है 
मेरा इसमें हुनर कोई नहीं है 

अज़हर साहब का कलाम पढ़ने की मेरी हसरत आखिर कार जयपुर के नामवर शायर जनाब 'मनोज कुमार मित्तल 'कैफ़'साहब के घर पर एक मुलाकात के दौरान पूरी हुई जहाँ उनकी अलमारी में ढेरों किताबों में पड़ी ये किताब बिलकुल अलग से नज़र आ रही थी। अपने ढीठ पने का पक्का सबूत देते हुए मैंने ये किताब उनकी अलमारी से उठा ली और घर ले आया। और तब से ये किताब है और मैं हूँ।

कोई मौसम ऐसा आये 
उसको अपने साथ जो लाये 

हाल है दिल का जुगनू जैसा 
जलता जाये , बुझता जाये 

आज भी दिल पर बोझ बहुत है 
आज भी शायद नींद न आये 

बीते लम्हें कुछ ऐसे हैं 
ख़ुशबू जैसे हाथ न आये 

 डा बृजेन्द्र अवस्थी साहब इस किताब की एक भूमिका में लिखते हैं कि "अज़हर ज़िन्दगी को बहुत क़रीब से देखते हैं और उसकी अदाओं और समस्याओं को अपनी ग़ज़ल के दिल में बहुत सरल और अनूठी भाषा के माध्यम से उतार देते हैं। वह सच्चे शायर हैं इसलिए उनकी शायरी दिल-ओ -दिमाग़ पर गहरा असर डालती है और उनके शेरों की छाप देर तक बनी रहती है. उन्होंने अपने अंदाज़ और फूलों जैसे कोमल लहजे से ग़ज़ल को एक नयी दिशा दी है। मशहूर शायर जनाब अहमद नदीम कासमी साहब लिखते हैं कि अज़हर इनायती की ग़ज़ल सहरा में नख्लिस्तान की हैसियत रखती है ,उनका लहजा सरासर जदीद और नया है लेकिन वो अपनी रोशन रिवायत और धरती से पूरी तरह जुड़े हैं।

इस रास्ते में जब कोई साया न पायेगा 
ये आखरी दरख़्त बहुत याद आयेगा 

तख़्लीक़ और शिकस्त का देखेंगे लोग फ़न 
दरिया हुबाब सतह पे जब तक बनायेगा 
तख़्लीक़ और शिकस्त = बनना और मिटना , हुबाब =बुलबुला 

तारीफ़ कर रहा है अभी तक जो आदमी 
उठा तो मेरे ऐब हज़ारों गिनायेगा 

अज़हर इनायती साहब की शायरी समझने के लिए हमें सबसे पहले उन्हें समझना होगा।जिसतरह वो निहायत सलीकेदार और बेहद उम्दा कपडे पहनते हैं ठीक वैसी ही वो शायरी भी करते हैं। अपने बारे में उन्होंने लिखा है कि "मैं ग़ज़ल को टूट कर चाहता हूँ लेकिन अपने अहद, अपनी नस्ल और अपनी ज़िन्दगी की सच्चाइयों को सादा ज़बान और पुर-तासीर लहजे में ढाल कर सच्ची ग़ज़ल की पैकर तराशी की कोशिश करता हूँ। ज़िन्दगी की वादियों में माज़ी के दिलचस्प और यादगार मनाज़िर को हैरत और हसरत से मुड़ कर देखता जरूर हूँ लेकिन रुकने के लिए नहीं उफ़क़ के उस पार रोशनियों की तरफ़ बढ़ने के लिए।"

क्या जाने उन पे कितने गुज़रना हैं हादसे 
शाखों पे खिल रहे हैं जो गुंचे नये नये 

उन आंसुओं को देख के ग़म भी तड़प उठा 
दामन की आरजू में जो पलकों पे रह गये 

सदियों से चल रहा है ये इन्सां इसी तरह 
लेकिन हुनूज़ कम नहीं मंज़िल से फ़ासले 

यूँ तो इस किताब में अज़हर साहब की शान में उनके बहुत से दोस्तों और चाहने वालों ने लिखा है मैं उन सब का जिक्र यहाँ नहीं करूँगा क्यूंकि दोस्त और चाहने वाले अक्सर थोड़ा अतिरेक से काम लेते हैं ( मैं भी लेता हूँ ) लेकिन मेरी नज़र में आज उर्दू के बहुत बड़े स्कॉलर जनाब गोपी चंद नारंग साहब के उनके वास्ते लिखे लफ्ज़ बहुत मानी रखते हैं , वो लिखते हैं कि "अज़हर इनायती अपनी आवाज़, अपनी अदा और अपनी तर्जीहात रखते हैं। हर चंद कि इस ज़माने में जब फ़िज़ा में हर तरह ज़हर है, तहज़ीबी एहसास को आवाज़ देना बक़ौल किसी के "काग़ज़ के सिपाही काट कर लश्कर बनाना"है, ताहम शायर को हक़ बात कहना और आवाज़ दिए जाना है। बिलाशुबा अज़हर इनायती बहैसियत एक मुनफ़रिद अदाशनास शायर के हम सब की तवज्जो और मुहब्बत का हक़ रखते हैं।"

लहू जो बह गया वो भी सजा के रखना था 
जो तेग़-ओ-तीर अजायब घरों में रखे हैं 

हमें उड़ान में क्या हो रुतों का अंदेशा 
ज़माने भर के तो मौसम परों में रखे हैं 

हमें जुनून नहीं बाहरी उजालों का 
हमारे चाँद हमारे घरों में रखे हैं 

इस किताब का पहला भाग शायर को समर्पित है जिसमें उनके दोस्तों और चाहने वालों ने उनके बारे में लिखा है इसमें सबसे दिलचस्प लेख उनकी शरीके-हयात मोहतरमा सूफ़िया अज़हर साहिबा का है जिसमें उन्होंने अज़हर साहब की बहुत सी खूबियां गिनायीं है जो बहुत निजी हैं दूसरे भाग में अज़हर साहब की लगभग 175 चुनिंदा ग़ज़लें ,मुक्तलिफ़ अशआर आदि हैं. किताब में उनके बहुत से रंगीन फोटो भी हैं जिनमें वो एवार्ड लेते हुए, मुशायरा पढ़ते हुए और यार दोस्तों के साथ बेतकल्लुफ़ अंदाज़ में बैठे दिखाई देते हैं। अज़हर इनायती को पूरी तरह से जानने में ये किताब आपकी मदद करती है।

कुछ और तजरबे अपने बढ़ा के देखते हैं 
उसे भी जिल्ल-ऐ-इलाही बना के देखते हैं 

गुलाम अब न हवेली से आएंगे लेकिन 
हुज़ूर आज भी ताली बजा के देखते हैं 

इसी तरह हो मगर हल तो हो मसाइल का
किसी मज़ार पे चादर चढ़ा के देखते हैं 

अमेरिका, क़तर, दुबई, अबूधाबी , शारजाह, मस्क़त, पाकिस्तान आदि देशों में एक बार नहीं अनेकों बार अपनी शायरी से सुनने वालों के दिल में राज करने वाले अज़हर साहब को ढेरों अवार्ड मिले हैं जिनमें पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह जी के हाथों मिला मौलाना मु. अली जौहर अवार्ड , बंगाल उर्दू अकेडमी अवार्ड , उत्तर प्रदेश उर्दू अकेडमी अवार्ड ,निशान-ऐ-बलदिया अवार्ड कराची, ग़ालिब इंस्टिट्यूट दिल्ली से मिला मेहशर इनायती अवार्ड विशेष हैं। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप रामपुर रज़ा लाइब्रेरी , रामपुर -244901 को लिखें या अज़हर साहब को उनके मोबाईल न. 9412541108 पर बधाई देते हुए संपर्क करें। कुछ भी करें और किताब मंगवाएं क्यूंकि ये किताब आपको निराश नहीं करेगी।
चलते चलते अज़हर साहब की एक नाज़ुक सी ग़ज़ल चंद शेर आपके हवाले कर निकलता हूँ किसी नयी किताब की तलाश में :

 गुड़ियाँ जवान क्या हुई मेरे पड़ौस की 
आँचल में जुगनुओं को छुपाता नहीं कोई 

जब से बता दिया है नजूमी ने मेरा नाम 
अपनी हथेलियों को दिखता नहीं कोई 
नजूमी =ज्योतिषी 

देखा है जब से खुद को मुझे देखते हुए 
आईना सामने से हटाता नहीं कोई 

अज़हर यहाँ है मेरे घर का अकेलापन 
सूरज अगर न हो तो जगाता नहीं कोई

किताबों की दुनिया - 156

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जो पसीने से इबारत पे यकीं रखता है 
वो भला कैसे हथेली पे लिखा याद रखे 

जिसके सीने से निकलता है निरंतर लावा 
मैं दिया हूँ उसी मिटटी का हवा याद रखे 

अब मुहब्बत भी गुनाहों में गिनी जाती है 
हर गुनहगार यहाँ अपनी सज़ा याद रखे 

इस ग़ज़ल के शेर 'जिसके सीने से ..."पर उर्दू शायरी के उस्ताद शायर जनाब किशन बिहारी नूर साहब ने फ़रमाया था कि "किस क़दर हौसला मंदी से और बेबाक होकर इस शेर में शायर ने यह बता ही दिया कि हवा मेरे वजूद को ख़तम करने की कोशिश न करे क्यूंकि मेरे वजूद को बुझा पाना उसके लिए आसान नहीं होगा। "एक नए उभरते शायर द्वारा इस तरह का कद्दावर शेर कहना क़ाबिले जिक्र बात थी। ये शेर इस और भी इशारा कर रहा था कि आने वाले वक्त में उर्दू शायरी के आसमान में एक नया सितारा जगमगाने वाला है. इस सितारे की चमक बहुत पहले एक मुशायरे के दौरान दिखाई दी, हुआ यूँ ....नहीं नहीं अभी नहीं ये किस्सा उनकी एक ग़ज़ल के इन शेरों के बाद...

मिल जायेगा मुझे भी समंदर का पैरहन 
मैं चल रहा हूँ साथ जहाँ तक नदी चले 

इस तरह तैरती रही अश्कों पे ज़िन्दगी 
पानी पे जैसे नाव कोई काग़ज़ी चले 

हम यूँ निकल चुके हैं कफ़स अपना तोड़ कर 
बादल से ज्यूँ निकल के कभी चांदनी चले 

बात बहुत पुरानी है हुआ यूँ कि दिल्ली के पास शाहदरा में एक मुशायरे का आयोजन किया गया था जिसमें गंगा-जमुनी तहज़ीब सभी बड़े शुअरा शिरकत कर रहे थे उन्हीं में सबसे पीछे एक गुमनाम सांवले से रंग का खोये खोये वुजूद वाला लड़का भी बैठा था। एक के बाद एक बड़े बड़े तमाम शुअरा अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद सामअईन से दाद हासिल करने में नाकामयाब हो रहे थे। सामअईन जैसे सोच के बैठे थे कि इस मुशायरे को हर हाल में क़ामयाब नहीं होने देना है। मायूसी पूरे मंच पर फैली हुई थी ,किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि मुशायरे को उठाने के लिए किया क्या जाय ? निज़ामत कर रहे शायर ने मरे मन से उसी पीछे बैठे लड़के का नाम पुकारा और बिना किसी तआर्रुफ़ के माइक के आगे खड़ा कर दिया। सामअईन तो जैसे हूट करने को तैयार ही बैठे थे लेकिन जैसे ही इस लड़के ने गला साफ़ कर एक खुशगवार तरन्नुम में ये शेर पढ़े तो महफ़िल अचानक पूरे रंग में आ गयी :

आते रहे वो याद भुलाने के बाद भी 
जलता रहा चिराग़ बुझाने के बाद भी 

फिर उसके बाद ज़ुल्फ़ के हम पर हुए करम
पर्दा रहा, नक़ाब उठाने के बाद भी 

जादू है मेरी आँख में या उनके नाम में 
उनका मिटा न नाम मिटाने के बाद भी 

उस गुमनाम लड़के "गोविन्द गुलशन"का नाम रातों रात शायरी के दीवानों के ज़ेहन में हमेशा के लिए दर्ज़ हो गया. आज "किताबों की दुनिया "श्रृंखला की इस कड़ी में उनकी ग़ज़लों की किताब "जलता रहा चिराग"की बात करेंगे जिसे चित्रांश प्रकाशन, चिरंजीव विहार, गाज़ियाबाद ने सन 2001 में प्रकाशित किया था। सोलह से भी अधिक बरस पहले लिखी ये ग़ज़लें आज भी अपनी कहन के कारण उतनी ही ताज़ा लगती हैं जितनी उस वक्त थीं.


आदमी जब-जब ग़मों की भीड़ में खो जायेगा 
आदमी सच पूछिए तो आदमी हो जायेगा 

आइने के रू-ब-रू जाने से घबराता है क्यूँ 
आईना रख सामने तू आइना हो जायेगा 

लाएगी चूनर के बदले रोटियां मुमकिन है वो 
रोज़ भूखा लाल बेवा का अगर सो जायेगा

7 फ़रवरी 1957, मोहल्ला ऊँची गढ़ी, गंगा तट अनूप शहर , ज़िला- बुलन्द शहर में जन्में गोविन्द जी ने कला विषयों में स्नातक की डिग्री हासिल की और नेशनल इन्श्योरेंस की गाज़ियाबाद शाखा में विकास अधिकारी के पद पर काम किया। गोविन्द जी को शायरी उनके पिता स्व. श्री हरिशंकर जी से विरासत में मिली। उनके बाबूजी खुद तो शेर नहीं कहते थे लेकिन उन्हें सैंकड़ो शेर याद थे जिन्हें वो रोजमर्रा की बातचीत के दौरान इस्तेमाल किया करते थे। बचपन से ही शेर सुनते सुनते गोविन्द जी का रुझान शायरी की तरफ हो गया और ये दीवानगी उन्हें सूफ़ियाना महफ़िलों तक ले गयी। वो डिबाई बुलंद शहर स्तिथ आस्ताने पर हाज़री देने लगे जहाँ देश भर से आये कव्वाल अपनी कव्वालियां सुनाया करते थे। इससे उन पर चढ़ा शायरी का रंग और गहरा हो गया।

इस बरस सैलाब में मिटटी के घर सब बह गये 
रह गए ऊंचे महल इस पार भी उस पार भी 

छीन कर सच्ची किताबें और हाथों से क़लम 
नस्ल को सौंपे गये बारूद भी हथियार भी 

दर्मियाँ बरसात का मौसम बना कर देखिये 
ख़ुद-ब-ख़ुद गिर जायेगी नफ़रत की ये दीवार भी 

ऐसा नहीं है कि गोविन्द जी सीधे ही ग़ज़ल कहने लगे। सबसे पहले उन्होंने भजन लिखने शुरू किये और देखते ही देखते उनके पांच भजन संग्रह छप कर लोकप्रिय हो गए। पहली ग़ज़ल उन्होंने शादी के एक बरस बाद सं 1987 में अपनी लखनऊ यात्रा के दौरान लिखी और ये सिलसिला 1994 तक अबाध गति से चलता रहा।ग़ज़ल के इस सफर के दौरान उन्हें बहुत से रहनुमा मिले जिन्होंने समय समय पर उनकी लेखनी को संवारा। डायरी में दर्ज़ ग़ज़लें धीरे धीरे उनके मुशायरों और नशिस्तों में शिरकत करने की वजह से लोगों तक पहुँचने लगीं। प्रतिभा छुपती नहीं इसीलिए उनका नाम गाज़ियाबाद में होने वाले हर बड़े छोटे मुशायरों और नशिस्तों में लिया जाने लगा।

क़ुसूरवार वही है ये कौन मानेगा 
सबूत भी है ज़रूरी बयान से पहले 

यक़ीन कैसे दिलाऊँ कि मेरे हाथों में 
कभी गुलाब रहे हैं कमान से पहले 

न मिल सका न मिलेगा कभी कहीं 'गुलशन'
सुकून तुझको ख़ुदा की अमान से पहले 

गुलशन जी की शायरी की सबसे बड़ी खूबी है उसकी सरलता। बिना कठिन शब्दों का सहारा लिए वो बहुत बड़ी बात भी आसानी से कह देते हैं। उनकी शायरी हमारे सामाजिक और राजनीतिक परिवेश के साथ साथ मानवीय कमज़ोरियों और खूबियों को ख़ूबसूरती से बयां करती है। शायरी में ये परिपक्वता उन्होंने अपने मार्गदर्शक डा कुँअर बैचैन और जनाब इशरत किरतपुरी साहब के प्रोत्साहन और जनाब किशन बिहारी 'नूर'साहब की सोहबत से प्राप्त की। इनके अलावा जनाब गुलज़ार देहलवी , जनाब शरर जयपुरी , जनाब ओम प्रकाश चतुर्वेदी 'पराग', जनाब तुफैल चतुर्वेदी , जनाब कुमार विश्वास , जनाब सीमाब सुल्तानपुरी जैसे बहुत से दिग्गजों की रहनुमाई से भी उन्हें लाभ मिला।

घोंसलों में बंद हैं पंछी है ख़ाली आस्मां 
होने वाली है यहाँ आमद किसी तूफ़ान की 

उनके आने की खबर ने आज इतना तो किया 
हो गयी ज़िंदा लबों पर ख़्वाइशें मुस्कान की 

काग़ज़ी फूलों से अब सजने लगी हर अंजुमन 
है बहुत खतरे में 'गुलशन'आबरू गुलदान की

गोविन्द गुलशन साहब ने ग़ज़ल और भजनों के अलावा गीत और दोहो की रचना भी की है। साहित्य में उनके द्वारा किये गए योगदान पर उन्हें युग प्रतिनिधि सम्मान,सारस्वत सम्मान,अग्निवेश सम्मान,साहित्य शिरोमणि सम्मान, कायस्थ कुल भूषण सम्मान,निर्मला देवी साहित्य स्मॄति पुरस्कार,इशरत किरत पुरी एवार्ड आदि से नवाज़ा गया है.उनकी रचनाएँ इंटरनेट की सभी प्रमुख साहित्यिक साइट पर उपलब्ध हैं। अनेक पत्र पत्रिकाओं में भी उनकी रचनाएँ लगातार प्रकाशित होती रहती हैं और उनकी लोकप्रियता में लगातार इज़ाफ़ा करती रहती हैं। 

वो एक अश्क का क़तरा जरूर है लेकिन 
मुकाबले में समंदर ग़ुलाम हो जाये 

रवायतें नहीं मालूम आदमीयत की 
वो चाहता है फ़रिश्तों में नाम हो जाये 

किसी पे तेज़ दवाएं असर नहीं करतीं 
किसी का सिर्फ दुआओं से काम हो जाये

गुलशन जी की के इस पहले संग्रह में उनकी लगभग 70 ग़ज़लें शामिल हैं,सभी पठनीय हैंऔर अपने कथ्य शिल्प तथा भाषा की सरलता के कारण पाठक को बाँध लेती हैं. संग्रह की प्राप्ति के लिए आप गुलशन जी से 0120/2766040,01204552440 मोबाइल -: 09810261241 ई-मेल आइ डी -: govindgulshan@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं। जनाब 'इशरत किरतपुरी'साहब के इन अल्फ़ाज़ के साथ कि "जनाब गोविन्द गुलशन ने मुझे ही नहीं पूरी गाज़ियाबाद की पूरी अदबी बिरादरी को मुताअसिर किया है लेकिन बहैसियत इंसान वो अपने अंदर के शायर से भी ज्यादा बुलंद हैं। मैंने उनसे कभी किसी की शिकायत नहीं सुनी वो बुजुर्गों का बड़ा एहतराम करते हैं , जब भी उन्हें मुफ़्लिसाना मशवरा दिया जाता है वो उसे क़ुबूल कर लेते हैं "मैं आपको उनके कुछ फुटकर शेर पढ़वाता चलता हूँ और निकलता हूँ अगली किताब की तलाश में ::

उनके शानों से लिपट कर आज आई है हवा
वर्ना पहले तो कभी खुशबू भरी इतनी न थी
***
मुझको मुजरिम तो कर दिया साबित
उसके चेहरे पे इतना डर क्यों है
***
तुम घर की कहानी को दीवार पे मत लिखना
दिल में जो शिकायत हो रुख़सार पे मत लिखना
***
भूख बढ़ती जा रही है आज के इंसान की
क़ीमतें गिरने लगीं हैं दिन ब दिन ईमान की
***
बस यही सोच के पलकें न उठाईं मैंने
ढूंढ लेगा मेरी आँखों में ठिकाना कोई
***
खुली आँखें रखें तो नींद गायब
पलक झपकें तो मंज़र टूटता है
*** 
तुम कैसे सुन लेते हो 
जब मैं हिचकी लेता हूँ

किताबों की दुनिया - 157

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नदी, झरने, किताबें, चाँद, तारे और तन्हाई 
वो मुझसे दूर हो कर हर किसी के पास जा बैठा 

मैं जब घबरा गया हर रोज़ के सौ बार मरने से 
उठा शिद्दत से और फिर ज़िन्दगी के पास जा बैठा 

ये मेरी बेख़ुदी है या है उसके प्यार का आलम 
उसी के पास से उठ कर उसी के पास जा बैठा 

आप ये बात तो मानेंगे कि सोशल मिडिया ने शायरी को फायदा भी पहुँचाया है और नुक्सान भी। फायदा तो ये कि पहले बहुत से लोग जो अच्छी शायरी करते थे बिना अपनी पहचान बनाये गुमनामी के अँधेरे में खो जाते थे किसी रिसाले ने मेहरबानी करदी और छप गए तो और बात वरना उनकी शायरी अपनी गली मोहल्ले तक ही महदूद रहती , अब अच्छी शायरी करने वाले सोशल मिडिया की बदौलत अपनी पुख्ता पहचान बनाने में कामयाब हो रहे हैं, उनका कलाम गली, मोहल्ले, शहर को छोड़ देश की हद पार करने में कामयाब हो रहा है. नुक्सान ये हुआ है बहुत से गैर शायराना किस्म के लोग भी फ़टाफ़ट नाम कमाने के चक्कर में शायरी का सरे आम बेड़ा गर्क कर रहे हैं। शायरी फ़क़त काफिया पैमाइश, रदीफ़ और बहर का ही नाम नहीं है ये अपने ज़ज़्बात को इज़हार करने का अनूठा फ़न है। ये फ़न जितना आसान नज़र आता है उतना होता नहीं तभी तो बहुत कम लोग हैं जो इस भीड़ में अपनी पहचान बना पा रहे हैं। :

ख़ुदा, वाइज़,दरिंदे, देवता और जाने क्या क्या थे 
मिला कोई नहीं मुझको अभी तक आदमी जैसा 

जो चौराहे पे बच्चे खेलते हैं रोज़ मिटटी में 
कोई गौहर तो लाओ ढूंढ के उनकी हंसी जैसा 

कभी चूड़ी की बंदिश थी कभी पाजेब की बेड़ी 
हमारे पास से गुज़रा न कुछ भी ज़िन्दगी जैसा 

मैं अपनी बात को जां निसार अख्तर साहब के एक शेर के हवाले से , जिसे हो सकता है आपने पढ़ा हो ,आप तक पहुँचाने की कोशिश करता हूँ, वो कहते हैं "हम से पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या ,चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाये "और साहब लफ़्ज़ों में आग छुपाने का फ़न हर किसी को नहीं आ सकता। आप अंदर से शायर होने चाहियें तभी बात बन सकती है। किताबें पढ़ कर ,किसी की नक़ल कर के या किसी उस्ताद को गंडा बाँधने भर से शायरी नहीं आ सकती। हाँ , तुकबंदी जरूर आ सकती है और उस तुकबंदी पर आपके मित्र मंडली के सदस्य सोशल मिडिया की साइट पर लाइक या कमेंट्स की झड़ी लगा सकते हैं जिसकी बदौलत आपमें शायर होने का मुगालता पैदा हो सकता है । ।

हथेली पर मेरी लगता है उग आये हैं कांटे 
लकीरों में हर इक रिश्ता तभी उलझा रहे अब

 तू मेरा है ,नहीं है , है, नहीं है , है नहीं है 
 सरे-महफ़िल हमारा ही फ़क़त चर्चा रहे अब

गली में खेलते बच्चों में बाँटी कुछ किताबें 
किसी खुशबू से मेरा घर सदा महका रहे अब 

हमारी "किताबों की दुनिया "श्रृंखला की इस कड़ी की शायरा "रेणु नय्यर"जी ने, जिनका जन्म पंजाब के अबोहर जिले में 9 अगस्त 1970 हुआ था , अपना शेरी सफर सन 2007 में सोशल मिडिया की साइट ऑरकुट से शुरू किया। शुरू में हलकी फुलकी तुकबंदी से शुरू हुआ ये सफर पंजाबी नज़्मों और ग़ज़लों से होता हुआ उर्दू शायरी तक पहुंचा और सन 2017 के आते आते उनका पहला शेरी मज़्मुआ "अभी तो हिज़्र मरहम है"जिसकी हम आज बात करेंगे ,मंज़रे आम पर आ गया। यूँ तो हर साल न जाने कितनी ही ग़ज़लों की किताबे प्रकाशित होती हैं लेकिन उनमें से बहुत कम पाठकों की अपेक्षाओं पर खरी उतरती हैं। ये वो किताबें होती हैं जिनकी एक्सपायरी डेट नहीं होती , ये किताबें सदा बहार होती हैं और इनमें शाया अशआर जिन्हें आप कभी भी कहीं भी पढ़ें हमेशा ताज़ा लगते हैं।



चराग़-ए-ज़ीस्त मद्धम है अभी तू नम न कर आँखें 
अभी उम्मीद में दम है , अभी तू नम न कर आँखें 

किसी दिन वस्ल की चारागरी भी काम आएगी 
अभी तो हिज़्र मरहम है , अभी तू नम न कर आँखें 

अभी तो सामने बैठी हूँ, बिलकुल सामने तेरे 
अभी किस बात का ग़म है , अभी तू नम न कर आँखें 

रेणु जी की किताब बिलकुल वैसी ही है जिसकी एक्सपायरी डेट नहीं होती याने सदाबहार। ये किताब शायरी की किताबों के विशाल रेगिस्तान में नखलिस्तान जैसी है जिसे पढ़ते हुए वैसी ही ठंडक और सुकून हासिल होता है। कामयाब शायर वो होता है जो इंसान के सुख-दुःख ,उसकी फितरत और समाज की अच्छाइयों बुराइयों को एक नए दृष्टिकोण से हमारे सामने रखता है। विषय वही हैं जो हज़ारों साल पहले थे लेकिन उन्हें शायरी में अगर अलग और नए अंदाज़ में ढाला जाय तो ही दिल से वाह निकलती है। बशीर बद्र साहब की शायरी से मुत्तासिर रेणु जी की शायरी में ये बात बार बार नज़र आती है। उनके कहन का निराला पन ही उन्हें भीड़ से अलग करता है। रेणु जी को उर्दू शायरी करते अभी कुलजमा तीन-चार साल ही हुए हैं लेकिन उनके अशआर बरसों से शायरी कर रहे उस्तादों से कम नहीं है। कारण ? जैसा मैंने पहले कहा "वो अंदर से शायरा हैं "शायरी उनकी रूह में बसी हुई है, ओढ़ी हुई नहीं है।

किसी मुश्किल को आसाँ बोल देना है बड़ा आसाँ 
वो मेरी ज़िन्दगी जी कर दिखाये , मान जाऊँगी 

बस इतना फासला है दरमियाँ अपने तअल्लुक़ में 
किसी दिन आ के मुझको तू मनाये , मान जाऊँगी 

तली पर ज़िन्दगी रक्खा है तुझ को आबलों जैसा 
मेरे नख़रे किसी दिन तू उठाये , मान जाऊँगी 

इस किताब की भूमिका में प्रसिद्ध शायर जनाब ख़ुशबीर सिंह 'शाद'ने लिखा है कि "मौजूदा दौर में उग रही शायरों की बेतरतीब खरपतवार में कुछ ख़ुदरौ पौधे ऐसे भी हैं जो अपनी अलग रंगत और ख़ुश्बू से पहचाने जा रहे हैं , रेणु भी उनमें से एक है। अच्छा शेर तभी होता है जब आप अंदर से शायर हों। शायरी की बुनियादी शर्त अपने एहसास का ईमानदाराना इज़हार है। रेणु अपने एहसास के पिघले सोने को ज़ेवर बनाने का हुनर जानती है। सफर लम्बा और दुश्वार है ,मंज़िल भी दूर है लेकिन रेणु ने अपने लिए रास्ता बना लिया है और ये कोई मामूली बात नहीं " 

दुनिया को हर चीज़ दिखाई जा सकती है 
पत्थर में भी आँख बनाई जा सकती है 

हिज़्र का मौसम वो मौसम है जिसमें अक्सर 
आँखों में भी रात बिताई जा सकती है 

पत्थर को ठोकर तक ही महदूद न समझो 
पत्थर से तो आग लगाई जा सकती है 

बहुत कम शायर होते हैं जिनकी ग़ज़लें लोग पढ़ते भी चाव से हैं और सुनते भी चाव से हैं। रेणु जी को लोग पढ़ते भी हैं और सुनते भी हैं । कुल हिन्द मुशायरों की मकबूल उर्दू शायरा रेणु जी के कलाम को उनके उस्ताद, जो हालाँकि उम्र में उनसे कम हैं ,जनाब 'शमशीर गाज़ी"ने संवारा। गाज़ी साहब हालांकि अपने आपको उस्ताद कहलवाना पसंद नहीं करते लेकिन रेणु जी को उन्हें सरे आम अपना उस्ताद मानने में कोई गुरेज़ नहीं क्यूँकि उनकी नज़र में उस्ताद का हुनर देखा जाता है उम्र नहीं। गाज़ी साहब ने ही रेणु जी को शायरी में सलीके से अपने एहसासात, ज़ज़्बात और तख़य्युलात का इज़हार करना सिखाया। उन्हीं की रहनुमाई में रेणु जी ने शायरी में ज़िन्दगी के तल्ख़-ओ-तुर्श तजुर्बात की कसक , हुस्न-ओ-इश्क की रानाई ,अंदाज़े बयां में बेसाख़्तगी , नग्मगी और शाइस्तगी पिरोना सीखा।

अजब हूँ मैं, मुझे ये सोच कर भी डर नहीं लगता 
मेरा घर क्यों मुझे अक्सर मेरा ही घर नहीं लगता 

मिला है ज़ख्म तुमको आज सच कहने पे दुनिया से 
अगर तुम झूठ कह देते तो ये पत्थर नहीं लगता 

सभी मखमल के रिश्तों को हिफाज़त की जरूरत है 
कभी खद्दर के कपड़ों में कोई अस्तर नहीं लगता 

18 वर्षों तक शिक्षण के क्षेत्र में प्रबंधन का काम सँभालने वाली और सन 2012 से अपने घर को समर्पित रेणु जी ग़ज़लों के अलावा खूबसूरत नज़्में भी कहती हैं। नज़्में कहना शेर कहने से मुश्किल काम होता है लेकिन रेणु जी ने ये साहस किया है और खूब किया है।'एनीबुक'प्रकाशन नोएडा से प्रकाशित इस पेपर बैक संस्करण में रेणु जी की 68 ग़ज़लेँ और 11 नज़्में संगृहीत हैं। एनीबुक ने प्रकाशन के क्षेत्र में अभी क़दम रखा ही है लेकिन उनके यहाँ से प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह, नामी गरामी प्रकाशकों से मीलों आगे हैं। नफ़ा-नुकसान की फ़िक्र किये बग़ैर एनीबुक ने जिस तरह से नए-पुराने शायरों के क़लाम को मन्ज़रे आम पर लाने का काम किया है उसकी जितनी तारीफ़ की जाय कम है। 'अभी तो हिज़्र मरहम है "की प्राप्ति के लिए आप एनीबुक के पराग अग्रवाल साहब को उनके मोबाइल न. 9971698930पर संपर्क करें और खूबसूरत ग़ज़लों के लिए रेणु जी को उनकी ई मेल आई डी renu.nayyar@ gmail.com  पर बधाई सन्देश भेजें।
नयी किताब की तलाश में निकलने से पहले आपको रेणु जी की, छोटी बहर में कही कुछ एक ग़ज़लों के शेर पढ़वाता चलता हूँ , सूचनार्थ बता दूँ कि इस संग्रह में रेणु जी की बहुत सी छोटी बहर में कही अद्भुत ग़ज़लें संगृहीत हैं :

ये मरज़ हड्डियों को खाता है 
हिज़्र को नाम और क्या देदूं 

काट के वो निकल ही जाता है 
जिसको खुद में से रास्ता दे दूँ 
*** 

ये ख़ामोशी अचानक लग गयी जो 
मुसलसल गुफ़्तगू है और क्या है 

वहां बस मैं नहीं हूँ, और सब हैं 
यहाँ बस तू ही तू है , और क्या है 
*** 

रेत होने तलक का क़िस्सा हूँ 
बस तेरी याद तक संभलना है

इश्क है, हाँ ये इश्क ही तो है 
इसमें अब और क्या बदलना है ?

किताबों की दुनिया -158

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इबादतों के तरफ़दार बच के चलते हैं 
किसी फ़क़ीर की राहों में गुल बिछा कर देख 

ये आदमी है ,रिवाजों में घुल के रहता है 
न हो यकीं तो समंदर से बूँद उठा कर देख 

तनाव सर पे चढ़ा हो तो बचपने में उतर 
खुद अपने हाथों से पानी को छपछपा कर देख 

आज किताबों की दुनिया श्रृंखला में जिस किताब का जिक्र हम करने जा रहे हैं वो अब तक इस श्रृंखला में आयी सभी किताबों से अलग है। ये एक अनूठी किताब है। ग़ज़ल जैसा कि आप सभी जानते ही हैं अनेक भाषाओँ में लिखी जा रही है और उन्हीं भाषाओँ में किताबें प्रकाशित भी हो रही हैं जैसे उर्दू ,हिंदी ,पंजाबी ,गुजराती , सिंधी आदि का तो सब को पता ही है लेकिन ब्रज भाषा में ग़ज़ल की कोई किताब प्रकाशित हुई है -ये बात मेरी जानकारी में नहीं, हो सकता है कि मेरी जानकारी अधूरी हो लेकिन साहब ऐसी किताब, जिसके एक पृष्ठ पर ग़ज़ल ब्रज भाषा में है और सामने वाले पृष्ठ पर वो ही ग़ज़ल हिंदी में ,मैंने तो न कभी सुनी, देखी या पढ़ी। ये प्रयोग उर्दू के साथ हिंदी में तो बहुत हुआ है लेकिन ब्रजभाषा के साथ हिंदी में - बिलकुल नहीं।

अगर तू बस दास्तान में है अगर नहीं कोई रूप तेरा 
तो फिर फ़लक से ज़मीं तलक ये धनक हमें क्या दिखा रही है 

सभी दिलो-जां से जिस को चाहें उसे भला आरज़ू है किसकी 
ये किस से मिलने की जुस्तजू में हवा बगूले बना रही है 

चलो कि इतनी तो है ग़नीमत कि सब ने इस बात को तो माना 
कोई कला तो है इस ख़ला में जो हर बला से बचा रही है 

हर भाषा की अपनी मिठास होती है और ये ग़लत होगा अगर आप ब्रज भाषा की मिठास की बांग्ला ,उर्दू या मैथिलि के साथ तुलना करें। भले ही इसे खड़ी बोली का नाम दिया गया है लेकिन इस भाषा के काव्य को सूरदास, रहीम, रसखान, केशव, बिहारी जैसे कवियों ने मालामाल किया है। इस भाषा के काव्य में कृष्ण की बांसुरी सुनाई देती है। ब्रज बहुत समृद्ध भाषा है लेकिन इस भाषा में अब तक किसी ने लगातार ग़ज़ल कहने का जोख़िम नहीं उठाया। हमारे आज के शायर न केवल ब्रज में ग़ज़लें कहते हैं बल्कि ताल ठोक कर महफ़िलों में सुनाते हैं और वाह वाही लूट लाते हैं।

मीठे बोलों को सदाचार समझ लेते हैं 
लोग टीलों को भी कुहसार समझ लेते हैं 

कोई उस पार से आता है तसव्वुर ले कर 
हम यहाँ खुद को कलाकार समझ लेते हैं 

एक दूजे को बहुत घाव दिए हैं हमने 
आओ अब साथ में उपचार समझ लेते हैं 

मुंबई जैसी नगरी में ब्रजभाषा की मिठास में ग़ज़लें कहने वाले हमारे आज के शायर हैं जनाब "नवीन सी चतुर्वेदी "जिनकी ब्रज-हिंदी ग़ज़लों की किताब "पुखराज हबा में उड़ रए ऐं"की बात हम करेंगे। जैसा कि मैंने पहले कहा ये अपनी तरह का अनोखा ग़ज़ल संग्रह है और इसके पीछे नवीन जी की ब्रजभाषा की ग़ज़ल को सम्मान दिलाने की दृढ़ इच्छा शक्ति प्रकट होती है। 'नवीन'जी इस संग्रह में संकलित ग़ज़लों के माध्यम से ये सिद्ध कर देते हैं कि उनका ब्रज , हिंदी और उर्दू भाषा पर समान अधिकार है। ब्रज भाषा की ग़ज़लों को हिंदी उर्दू में ढालने का जो कौशल उन्होंने दर्शाया है वो हैरान कर देने वाला है।



रूह ने ज़िस्म की आँखों से तलाशा जो कुछ 
सिर्फ़ आँखों में रहा दिल में समाया ही नहीं 

लड़खड़ाहट पे हमारी कोई तनक़ीद न कर 
बोझ को ढोया भी है सिर्फ उठाया ही नहीं 

एक बरसात में ढह जाने थे बालू के पहाड़ 
बादलों तुमने मगर ज़ोर लगाया ही नहीं 

27 अक्टूबर 1968 को मथुरा के माथुर चतुर्वेदी परिवार में जन्में जुझारू प्रकृति के 'नवीन'ने प्रारम्भिक शिक्षा मथुरा में पूरी की और वाणिज्य विषय में स्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद बड़ौदा में नौकरी करने लगे, साल भर बाद ही नौकरी से उनका मन उचट गया और वो 1988 में मुंबई आ गए। मुंबई नगरी में उन्होंने अपना सेक्युरिटी-सेफ्टी- एक्विपमेंट व्यवसाय आरम्भ किया जो अब उनकी कड़ी महनत और ईश्वर की कृपा से फल फूल रहा है और जिसे उनके दो होनहार पुत्र बहुत कुशलता से संभाल रहे हैं। ज़िन्दगी संवारने की कवायद के बीच उन्होंने अपने साहित्य प्रेम को कभी नज़र अंदाज़ नहीं किया और उनकी लेखनी सतत चलती रही।

ये न गाओ कि हो चुका क्या है 
ये बताओ कि हो रहा क्या है 

इस ज़माने को कौन समझाये 
अब का तब से मुक़ाबला क्या है

हम फ़क़ीर इतना सोचते ही नहीं 
बन्दगी का मुआवज़ा क्या है 

झुक के बोला कलम से इरेजर 
यार तुझको मुगालता क्या है

'नवीन'जी का रचना संसार बहुत बड़ा है वो ग़ज़लों के साथ साथ साहित्य की अनेक विधाओं पर भी अपनी लेखनी कुशलता से चलाते हैं। मुंबई में होने वाली नशिस्तों और मुशयरों में उनकी उपस्तिथि चार चाँद लगा देती है। अपनी मनभावन मुस्कान से किसी को भी अपना बना लेने का हुनर उन्हें खूब आता है। मुंबई में जहाँ हर इंसान सिर्फ और सिर्फ अपने आप तक ही सिमित रहता है 'नवीन'जैसा बिंदास बेलौस फक्कड़ और सबको गले लगाने वाला इंसान इक अजूबा है। उन्होंने ब्रज की मिटटी की खुशबू को कभी अपने से अलहदा नहीं किया। उनके चुंबकीय व्यक्तित्व का सारा श्रेय उनके गुरु आदरणीय यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम'और माँ-पिता से मिले संस्कारों को जाता है।

पीर-पराई और उपचार करें अपना 
संत-जनों के रोग अलहदा होते हैं 

रोज नहीं पैदा होती मीरा-शबरी 
जोगनियों के जोग अलहदा होते हैं 

सीधे मुंह में भी गिर सकते हैं अंगूर
पर ऐसे संजोग अलहदा होते हैं 

इस किताब में नवीन जी की ब्रजभाषा की 52 ग़ज़लें संग्रहित हैं ,जाहिर सी बात है की वो ही ग़ज़लें हिंदी में भी कही गयी हैं। ब्रजभाषा और हिंदी दोनों के पाठक इन ग़ज़लों का भरपूर आनंद उठा सकते हैं। ब्रजभाषा की ग़ज़लों में भी कहीं कहीं नवीन जी ने देशज शब्दों का विलक्षण प्रयोग किया है जो शहर से दूर गाँव देहात के कस्बों में बोली जाती है। मजे की बात ये है कि किसी किसी ग़ज़ल में अंग्रेजी के शब्द भी बहुत ख़ूबसूरती से पिरोये गए हैं जो पढ़ने का आनंद दुगना कर देते हैं।ग़ज़ल लेखन की बारीकियों को उन्होंने जनाब तुफ़ैल चतुर्वेदी साहब से सीखा और उसे अपेक्षित दिशा दी उनके मित्र और पथ प्रदर्शक मयंक अवस्थी साहब ने। उनकी एक बहुत मजेदार रदीफ़ वाली ग़ज़ल के ये शेर देखें ,जिनका असली आनंद तो ब्रजभाषा में ही उठाया जा सकता है और इस आनंद के लिए तो आपको ये किताब ही पढ़नी पड़ेगी क्यूंकि इस श्रृंखला के पाठक हिंदी बोलने समझने वाले अधिक हैं इसलिए मैंने सिर्फ हिंदी में अनुवादित ग़ज़लों का ही चयन किया है :

बीस बार बोला था तुझसे दाना-पानी कम न पड़े 
अब क्या करता है हैया हैया भैंस पसर गयी दगरे में 

ऐसी वैसी चीज समझ मत ये तो है सरकार की सास 
जैसे ही देखे नक़द रुपैय्या भैंस पसर गयी दगरे में 

या फिर 

खेतों में बरसात का पानी भर भी गया तो क्या चिंता 
थोड़ा पानी यहाँ बहाओ थोड़ा उलीचो परली तरफ़ 

कितनी पुश्तें गिनोगे भाई ये है बहुत पुराना रिवाज़ 
अपना आँगन साफ़ करो और धूल उड़ाओ परली तरफ़ 

'नवीन'जी की रचनाएँ देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर छपती रहती हैं इसके अलावा आकाशवाणी दूरदर्शन से भी उनका कलाम प्रसारित हो चुका है. अंतरजाल की लगभग समस्त साहित्यिक साइट पर उनका कलाम मौजूद है। फेसबुक पर वो निरंतर अपनी ताज़ा रचनाऐं पोस्ट करते हैं जिन्हें भरपूर वाहवाही मिलती है. इस किताब की एक बहुत बड़ी खूबी भी आपको अब बता ही दूँ। ग़ज़ल के छात्रों के लिए ये किताब एक वरदान समझें क्यूंकि इसमें नवीन जी ने ग़ज़ल लेखन के बारे में संक्षेप में जिस सरलता से जानकारी दी है वो अन्यत्र मिलनी दुर्लभ है। उसे पढ़कर ग़ज़ल सीखने वालों को बहुत सी उपयोगी जानकारी मिल जाएगी।
अंजुमन प्रकाशन इलाहबाद से प्रकाशित इस किताब की प्राप्ति के लिए आप वीनस केसरी जी से उनके मोबाइल न 9453004398 पर संपर्क करें और साथ ही नवीन जी को उनके मोबाइल न 9967024593 पर बात कर बधाई दें ,यकीन मानिये नवीन जी से बात कर यदि आपका मन गदगद न हो जाये तो मुझे बताएं।
आपसे विदा लेने से पहले नवीन जी की एक छोटी बहर की ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाता चलता हूँ

बाकी सब सच्चे हो गये 
मतलब हम झूठे हो गये 

सब को अलहदा रहना था 
देख लो घर महँगे हो गये 

कहाँ रहे तुम इतने साल 
आईने शीशे हो गये

किताबों की दुनिया -159

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कल रात गुदगुदा गई यादों की उँगलियाँ
दिल पे मेरे वो भरती रही नर्म चुटकियाँ

झोंका हवा का आयेगा कर जायेगा उदास
इस डर से खोलते नहीं यादों की खिड़कियाँ

मैं सोचता हूँ तुझको ही सोचा करूँ मगर
इक शै पे कैसे ठहरें ख्यालों की तितलियाँ

जिगर साहब ने फ़रमाया था के शेर इतना आसान कहो कि सुनने वाला कहे के ये तो मैं भी कह सकता हूँ लेकिन जब कहने वाला कहने बैठे तो कह न पाये। ये बात हमारे आज के शायर डा. प्रेम भंडारी जी , जिनकी ग़ज़लों की किताब "खुशबू-रंग,सदा के संग"की हम बात करेंगे, पर पूरी तरह सच साबित होती है। प्रेम जी कोई एलोपैथी या होम्योपैथी के डाक्टर नहीं हैं, उन्होंने ये पदवी संगीत में पी.एच.डी करके प्राप्त की है.


 तुम समंदर ही सही मैं भी तो इक दरिया हूँ 
मेरी बाहों में किसी रोज़ सिमट कर देखो 

तुम अगर मेरी तरह मुझको परखना चाहो 
मेरे साये की तरह मुझसे लिपट कर देखो 

कौन है कैसा यहाँ जान सकोगे तुम भी 
जिस जगह तुम हो वहां से कभी हट कर देखो 

उदयपुर, राजस्थान में 23 सितम्बर 1949 को श्री दलपत सिंह भंडारी के पुत्र के रूप में श्री प्रेम भंडारी जी का जन्म हुआ। बचपन से ही उनका रुझान संगीत की और था। उनके इस शौक को हवा दी उनकी माता श्रीमती दरियाव बाई कंवर जी ने। उन्होंने ही प्रेम जी को सब्र के सबक के साथ सबका शुक्रिया अदा करना और किसी से शिकायत नहीं करना भी सिखाया। प्रेम जी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा कंवरपाड़ा हायर सेकेंडरी स्कूल से पूरी की। संगीत से अगाध प्रेम होने की वजह से उन्होंने 1976 में संगीत से एम.ए किया और ग़ज़ल गायकी विषय पर 1991 में पी.एच.डी। "हिंदुस्तानी संगीत में ग़ज़ल गायकी "विषय पर प्रकाशित किया गया उनका शोध ग्रंथ देश विदेश के सभी संगीत एवं ग़ज़ल के उस्तादों द्वारा खूब सराहा गया। आज भी इसे इस विषय के सन्दर्भ ग्रंथ के रूप में ख्याति प्राप्त है।

ठीक से जाना, जल्दी आना, याद भी करना, भूल न जाना 
रुख़्सत करते वक़्त वो भीगी आँख से क्या-क्या कहती है 

आओ इक दूजे से होकर दूर ज़रा हम भी देखें 
रूहों को नज़दीक, सुना है जिस्म की दूरी करती है 

सोच-विचार तज़र्बा तो हर चीज़ में नुक्स निकलेगा 
बच्चे बन कर देखो हर शै कितनी अच्छी लगती है 

लगभग 15-16 की उम्र से ही प्रेम जी ने अपनी ग़ज़ल गायकी को सार्वजानिक मंचो से पेश करना शुरू कर दिया था। दूसरों की ग़ज़लों को गाते गाते वो अपने ख्यालों को भी सुर में ढालने लगे, इस कोशिश को लोगों ने बहुत सराहा। लोगों से मिले प्रोत्साहन के बाद से प्रेम जी ने शायरी को गंभीरता से लेना शुरू किया। सबसे पहले उन्होंने जनाब खुर्शीद नवाब साहब से उर्दू सीखनी शुरू की। खुर्शीद साहब ने शुरू के शेरों को सुनकर उनकी हौसला अफ़ज़ाई भी की। जैसे जैसे प्रेम जी का लेखन आगे बढ़ा उनको उस्ताद शायरों की रहनुमाई भी हासिल होने लगी जिनमें जनाब कैफ़ भोपाली और जनाब जमील कुरैशी का नाम प्रमुख है।

इश्क ने आँख से अश्कों की रवानी लेली 
जो समंदर थे कभी दश्त के मंज़र निकले 

था निगाहों का वो धोका के ख़ता मेरी थी 
फूल समझे थे जिन्हें बरता तो पत्थर निकले 

ख़ौफ़ ये था कि कहीं ज़िन्दगी पहचान न ले 
आख़री वक़्त में जो मुंह को छुपा कर निकले 

ग़ज़ल गायकी में डॉक्टरेट करने के दौरान ही प्रेमजी की ग़ज़लों का पहला मजमुआ सन 1990 में "झील किनारे तनहा चाँद "मन्ज़रे आम पर आ गया। ग़ज़ल के इस मजमूए ने धूम मचा दी और उन्हें बेहतरीन गायक के साथ साथ लाजवाब शायर भी कहा जाने लगा। इस मजमूए को डा.जमील जलिबी, बलराज कोमल, शहाब सरमदी , डा. गोपी चंद नारंग ,वाली आसी, कैसर-उल-जाफ़री ,डा.मुख़्तार शमीम और नौशाद अली जैसे अदीबों ने जी भर के सराहा। इस सराहना से प्रेम जी के ग़ज़ल लेखन का सिलसिला जोर पकड़ गया नतीजतन सन 2003 में उनकी ग़ज़लों का दूसरा मजमुआ मन्ज़रे आम पर आ गया , आज हम उसी मजमुए की ही तो बात कर रहे हैं।

इक उम्र अपने आप में, मैं देवता रहा 
मेरा ग़रूर टूटा तो इंसान हो गया

ऐसा समा गया है वो मेरे वजूद में 
यूँ लग रहा है उसकी मैं पहचान हो गया 

जिस्मों की आग के परे इक आग और है 
तुझसे मिला तो सोच के हैरान हो गया

प्रेम साहब ने ग़ज़ल गायकी और लेखन के साथ साथ सुखाड़िया विश्वविद्यालय में बरसों अध्यापन के बाद वहां के संगीत विभाग के अध्यक्ष के पद पर कार्य किया है 2009 में सेवा निवृत होने के बावजूद उनमें सीखने और सिखाने का ज़ज़्बा ज्यूँ का त्यूं है। उनके बहुत से शिष्यों ने गायकी के क्षेत्र में बहुत मकबूलियत हासिल की है। संगीत में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए उन्हें मेवाड़ फिल्म अकेडमी द्वारा "किंग ऑफ़ ग़ज़ल "के ख़िताब से सन 1984 में नवाज़ गया था इसके अलावा 1994 में राजस्थान उर्दू अकेडमी द्वारा , 2001 में मीरा संगीत सुधाकर सम्मान ,2002 में 'संगीत राज "सम्मान, 2002 में ही तैमूर सोसाइटी द्वारा ग़ालिब अवार्ड और 2004 में कलकत्ता में 'सुर नंदन अवार्ड "से सम्मानित किया जा चुका का है।

सच का ज़हर लबों से उगलना पड़ा मुझे
फिर यूँ हुआ सलीब पर चढ़ना पड़ा मुझे 

शंकर बना के लोग मुझे पूजते रहे 
मजबूरियों में ज़हर निगलना पड़ा मुझे 

मैं वो चराग़ हूँ के अँधेरे ज़हान में 
शब् की कहूँ क्या दिनमें भी जलना पड़ा मुझे

यूँ तो ग़ज़ल गायकी के लिए भारत और पाकिस्तान में एक से बढ़ कर एक नामवर गायक हुए हैं जिनमें मेहदी हसन ,गुलाम अली ,जगजीत सिंह आदि बहुत प्रसिद्ध हैं लेकिन प्रेम जी इन सब से अलग हैं क्यूंकि वो सिर्फ ग़ज़ल गायक ही नहीं हैं बल्कि एक मकबूल शायर भी हैं उन्होंने दूसरों की शायरी के साथ साथ अपनी शायरी को भी सुरों में ढाला है। वो सार्वजिनक मंचो पर कभी एक गायक तो कभी एक शायर की हैसियत से शिरकत करते हैं। भारत के अलावा विदेशों में भी उनकी शायरी और गायन के प्रशंसकों की कमी नहीं है।

दिल से दिल की बात हुई तो होंठों से क्या कहना है 
काग़ज़ पर होठों को रख दें फिर खत में क्या लिखना है 

पतझड़ के आते ही सारे साथी उनसे रूठ गए 
अगली रुत तक अब पेड़ों को तनहा तनहा रहना है 

कभी कभी बरतन टकराएं घर में अच्छा लगता है 
मुझको इससे ज्यादा तुझसे और नहीं कुछ कहना है 

एक ज़माना था जब कितने ज़ेवर पहने रहती थी 
मोती जैसा इक आंसू ही अब आँखों का गहना है 

मृदु भाषी ,मिलनसार आत्म प्रशंसा से दूर और हमेशा दूसरों की सहायताकरने को तत्पर प्रेम जी की शायरी पढ़ते हुए अब आपको भी जिगर साहब की उस बात से इत्तेफ़ाक़ हो गया होगा जिसका जिक्र मैंने शुरू में किया था। उनकी किताब का हर शेर निहायत सादगी से कहा गया है इसीलिए सीधा दिल पे असर करता है और ये ही उनकी मकबूलियत का कारण भी है। प्रेम जी के संगीत निर्देशन में उनकी ग़ज़ल को जगजीत सिंह साहब ने गाया है और ये बात किसी भी लिहाज़ से छोटी नहीं है। उनकी शायरी की जुबान ख़ालिस हिंदुस्तानी जुबान है इसलिए हिंदी और उर्दू जानने वालों को समान रूप से पसंद आती है। ग़ज़ल और ग़ज़ल गायन प्रेम जी की ज़िन्दगी का अहम् हिस्सा है।

काँटों की तासीर लिए क्यों 
फूलों जैसे लोग मिले थे

 प्यास बुझाना खेल नहीं था 
यूँ तो दरिया पाँव तले थे

शाम हुई तो सूरज सोचे 
सारा दिन बेकार जले थे 

इस किताब की सभी 115 ग़ज़लें हिंदी और उर्दू दोनों लिपियों में प्रकाशित की गयी हैं। ऐसा नहीं है कि एक पृष्ठ पर हिंदी में ग़ज़ल छपी हो और उसके सामने वाले पृष्ठ पर उर्दू में बल्कि सभी हिंदी की ग़ज़लें एक साथ और उर्दू की भी एक साथ छपी हैं जैसे किसी ने उर्दू और हिंदी में छपी अलग अलग किताबों को एक जिल्द में बांध दिया हो। इस किताब को पश्चिमी क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र उदयपुर एवं तामीर सोसाइटी उदयपुर द्वारा प्रकाशित किया गया हैहालाँकि उर्दू में पढ़ने वाले इसका इ-बुक संस्करण रेख़्ता की साइट पर ऑन लाइन पढ़ सकते हैं। ग़ज़लें और फुटकर शेर भी रेख़्ता की साइट पर उपलब्ध हैं.

 साँस मेरी जब अंदर से बाहर की जानिब आती है 
 और तो क्या कुछ उम्र का हिस्सा साथ में लेकर जाती है

जैसा भी हो अपना घर तो अपना घर ही होता है 
औरों के बिस्तर पे यूँ भी नींद कहाँ आ पाती है 

बचपन झरना ,नदी जवानी, सागर जैसी उम्र पकी 
एक समय के बाद ये सच है गहराई आ जाती है 

इस किताब की प्राप्ति जो रास्ता मुझे मालूम है वो एक ही है कि आप प्रेम भंडारी जी को उनकी खूबसूरत ग़ज़लों के लिए बधाई देते हुए उनके मोबाईल न 9414158358 पर बात करें और किताब प्राप्ति का रास्ता पूछें। मुझे तो ये किताब भाई विकास गुप्ता जी के माध्यम से मिली जो इंटरनेट पर उर्दू की सबसे बड़ी साइट "रेख़्ता"के आफिस में काम करते हैं और उर्दू शायरी से बेहद मोहब्बत करते हैं।
आपसे विदा लेने से पहले पढ़िए प्रेम जी की एक छोटी बहर की ग़ज़ल के ये शेर :

क्या हासिल है शम्मा जला कर 
परवाने को राख बना कर 

मैं तो सब कुछ भूल चूका हूँ 
तू भूले तो बात बराबर 

दीवारों की तन्हाई को
दूर करूँ तस्वीर लगा कर

किताबों की दुनिया -160

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(ये मेरे ब्लॉग की चारसौ वीं (400th) पोस्ट है)

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अपना हर अंदाज़ आँखों को तरोताज़ा लगा
कितने दिन के बाद मुझको आईना अच्छा लगा

सारा आराईश का सामां मेज़ पर सोता रहा
और चेहरा जगमगाता जागता, हँसता लगा
आराईश :सजावट

मलगजे कपड़ों पे उस दिन किस ग़ज़ब की आब थी
सारे दिन का काम उस दिन किस क़दर हल्का लगा

मैं तो अपने आपको उस दिन बहुत अच्छी लगी
वो जो थक कर देर से आया उसे कैसा लगा

आदाब !! मैं ही इन अशआर की शायरा हूँ और आज मैं अपनी बात आपसे खुद करने वाली हूँ, चूँकि मुझे हिंदी लिखनी नहीं आती इसलिए टाइपिंग के लिए नीरज की मदद ले रही हूँ। नीरज ने बहुत से मशहूर और अनजान शायरों का तआर्रुफ़ आपसे करवाया है अब इस सिलसिले को आगे बढ़ाने के इरादे से जब उन्होंने मेरी किताब  उठाई तो मैंने कहा आप ज़हमत मत कीजिये और मुझे खुद अपनी बात ख़ुद कहने दीजिये क्यूंकि आप अतिरेक से काम लेंगे और ये बात मुझे गवारा नहीं होगी। मुझे नहीं पता कि जो मैं कह रही हूँ नीरज वही सब लिख रहे हैं क्योंकि मुझे हिंदी पढ़नी भी नहीं आती लेकिन मुझे नीरज की ईमानदारी पर पूरा भरोसा है,आगे अल्लाह जाने।

हर ख़ार इनायत था हर संग सिला था
उस राह में हर ज़ख़्म हमें राहनुमा था
राहनुमा : पथ प्रदर्शक

उन आँखों से क्यों सुबह का सूरज है गुरेज़ाँ
जिन आँखों ने रातों में सितारों को चुना था
गुरेज़ाँ =बचना 

क्यों घिर के अब आये हैं ये बादल ये घटायें 
हमने तो तुझे देर हुई याद किया था 

आप सोचते होंगे कि मैं हूँ कौन ,बताती हूँ, बताने के लिए ही तो आपसे गुफ़्तगू कर रही हूँ लेकिन पहले मैं खुद तो ये तय करूँ कि मैं हिंदुस्तानी हूँ या पाकिस्तानी क्यूंकि मैं पैदा तो 14 मई 1937में दख्खन हैदराबाद में हुई जो हिंदुस्तान में है और जब पैदाइश के 10 साल बाद देश का बंटवारा हुआ तो मेरा परिवार कराँची चला गया जो पाकिस्तान में है। तो यूँ समझें कि मैं पैदाइशी हिंदुस्तानी हूँ लेकिन निवासी पाकिस्तान की हूँ। मुझ पर भले ही पाकिस्तानी नागरिक होने का ठप्पा लगा है लेकिन मैं हक़ीक़त में इस खूबसूरत दुनिया की निवासी हूँ। इस दुनिया के हर इक कोने में रहने वाले लोग मेरे अपने हैं ,उनके दुःख दर्द तकलीफ़ें परेशानियां खुशियाँ सब मेरी हैं। मैं सोचती हूँ शायर का कोई वतन नहीं होता ,पूरी दुनिया उसकी होती है। मैंने दुनिया में होने वाली हर अच्छी बुरी घटनाओं पर अपनी कलम चलाई है.

जुदाईयां तो ये माना बड़ी क़यामत हैं
रफ़ाक़तों में भी दुःख किस क़दर हैं क्या कहिये
रफ़ाक़त: दोस्ती

हिकायते-ग़मे-दुनिया तवील थी कह दी
हिकायते-ग़मे-दिल मुख़्तसर है क्या कहिये
हिकायते-हमे- दुनिया :सांसारिक दुखों की कहानी, तवील : लम्बी , हिकायते-ग़मे-दिल : दिल के दुखों की कहानी

मजाले-दीद नहीं हसरते-नज़ारा ही सही
ये सिलसिला भी बहुत मोतबर है क्या कहिये
मजाले-दीद : देखने का साहस , हसरते-नज़ारा : देखने की इच्छा , मोतबर : विश्वसनीय

मेरा नाम "ज़ोहरा निगाह"है , शायद आपमें से बहुतों ने मेरा नाम नहीं सुना होगा मैं वैसे भी अब बहुत पुरानी हो चुकी हूँ आज के दौर में जहाँ लोग कल की बात भूल जाते हैं वहां मुझ जैसी नाचीज़ को याद रखना मुमकिन भी नहीं है। मेरे पिता सिविल सर्वेंट थे और उनका साहित्य, खास तौर से काव्य से गहरा लगाव था। हमारा परिवार प्रगतिशील विचारधारा वाला बुद्धि जीवियों का परिवार है। मेरी बड़ी बहन सुरैय्या बाजी बहुत प्रसिद्ध लेखिका थीं उनके लिखे नाटक बहुत चर्चित हुए ,मेरा बड़ा भाई अनवर मसूद पाकिस्तानी टीवी का एक जाना पहचाना नाम है ,उसे शायद आप लोगों ने जरूर देखा सुना होगा। मेरा छोटा भाई अहमद मसूद सरकारी महकमे में बहुत ऊँचे ओहदे पर रहा। मेरी शादी माजिद अली से हुई जो सिविल सर्वेंट थे और जिनकी रूचि सूफी काव्य में है। ये तो हुई मेरे परिवार की बात, अब बात करती हूँ पहले अपनी शायरी की और साथ साथ अपनी पहली किताब "शाम का पहला तारा "की जिस पर नीरज लिखने वाले थे लेकिन मेरे कहने पर जो अब सिर्फ टाइपिंग का काम कर रहे हैं :


ये क्या सितम है कोई रंगो-बू न पहचाने 
बहार में भी रहे बंद तेरे मैख़ाने 

तिरि निगाह की जुम्बिश में अब भी शामिल हैं 
मिरि हयात के कुछ मुख़्तसर से अफ़साने 

जो सुन सको तो ये दास्ताँ तुम्हारी है 
हज़ार बार जताया मगर नहीं माने 

शायरी मैंने 10-11साल की उम्र से ही शुरू कर दी थी। मेरी माँ ने, जिन्होंने मेरे वालिद के 1949 में दुनिया ऐ फ़ानी से रुखसत होने के बाद हम चारों भाई बहनों की बड़ी हिम्मत से परवरिश की और किसी बात की कमी नहीं महसूस होने दी थी , मेरी बहुत हौसला अफ़ज़ाही की। सबसे पहले मैंने अपने स्कूल की प्रिंसिपल के लन्दन तबादले पर नज़्म कही थी जिसे सुन कर मेरी एक टीचर ने मेरा नाम शहर में होने वाले ख़्वातीनो के मुशायरे में भेज दिया। लगभग 12-13 बरस की उम्र में मैंने अपना पहला मुशायरा पढ़ा। उस वक्त लड़कियों के ग़ज़ल लिखने को अच्छी बात नहीं माना जाता था क्यूंकि तब ग़ज़लें अधिकतर तवायफ़ें कहा करती थीं। मुझसे पहले मुझसे 13 साल बड़ी"अदा ज़ाफ़री"ही ग़ज़लें कहा करती थीं। खैर !! एक बार हुआ यूँ कि 1953 - 54 में जब मैं महज़ 16 -17 बरस की थी , हिंदुस्तान में होने वाले वाले डी सी एम् के मुशायरे में शिरकत करने के लिए मुझे दिल्ली से बुलावा आया। मैं डरते डरते गयी। मुशायरा के.एन.काटजू साहब की सदारत में हुआ जिसमें जिगर मुरादाबादी , फ़िराक़ गोरखपुरी, सरदार ज़ाफ़री , मज़रूह सुल्तानपुरी और कैफ़ी आज़मी जैसे कद्दावर शायरों ने शिरकत की थी. काटजू साहब को मेरी शायरी बहुत पसंद आयी और उन्होंने इसका जिक्र अगले दिन पंडित जवाहर लाल जी से किया। पंडित नेहरू ने मुझे सुनने की इच्छा ज़ाहिर की। अगले दिन रात दस बजे सब कामों से फ़ारिग हो कर पंडित नेहरू काटजू साहब के यहाँ तशरीफ़ लाये और मुझे एक घंटे तक बैठ कर सुना। किसी शायरा के लिए इस से बढ़ कर ख़ुशी की बात और क्या हो सकती है? आज के दौर में ये बात एक सपना लगती है .बताइये आज किस वज़ीर-ऐ-आज़म के पास इस काम के लिए इतनी फ़ुरसत है ?

नहीं नहीं हमें अब तेरी जुस्तजू भी नहीं 
तुझे भी भूल गए हम तिरि ख़ुशी के लिए 

कहाँ के इश्को-मुहब्बत किधर के हिज्रो विसाल 
अभी तो लोग तरसते हैं ज़िन्दगी के लिए 

जहाने-नौ का तसव्वुर, हयाते नौ का ख्याल 
बड़े फ़रेब दिए तुमने बंदगी के लिए 

मैं खुशकिस्मत हूँ कि मुझे जिगर साहब और फैज़ अहमद फैज़ साहब जैसे शायरों की कुर्बत हासिल हुई। जिगर साहब जब कभी भी पाकिस्तान आ कर मुझसे मिलते तो 10 रु बतौर ईनाम अता किया करते। वो तरन्नुम के बादशाह थे और कहा करते थे कि तरन्नुम कभी लफ़्ज़ों पर हावी नहीं होना चाहिए। फैज़ साहब कहते थे कि लफ्ज़ का इस्तेमाल शायरी की सबसे अहम् बात होती है। लफ्ज़ तो वो ही होते हैं जिसे हम एक दूसरे से बात करने में बरतते हैं शायर उन्ही लफ़्ज़ों को आगे पीछे कर अपनी शायरी में इस तरह मोती सा पिरो देता है कि वो जगमगाने लगते हैं और उनके अलग ही मआनी निकल आते हैं। जिसने ये हुनर सीख लिया वही कामयाब शायर होता है।

खूब है साहिबे महफ़िल की अदा
कोई बोला तो बुरा मान गए 

उस जगह अक्ल ने धोके खाये 
जिस जगह दिल तेरे फ़रमान गए 

तेरी एक एक अदा पहचानी 
अपनी एक-एक ख़ता मान गए 

कोई धड़कन है न आंसू न उमंग 
वक़्त के साथ ये तूफ़ान गए 

अक्सर लोग मुझसे पूछते हैं कि आप सं 1950 से लिख रही हैं और अभी तक आपके कुल जमा 3 मजमुए पहला "शाम का पहला तारा "दूसरा "वर्क"और तीसरा "फ़िराक़"ही शाया हुए हैं, ऐसा क्यों ? तो मैं कहती हूँ कि ये ही बहुत हैं। शायरी क्या है ?कुछ तो नेचर की तरफ़ से आपको गिफ़्ट है कि आप अल्फ़ाज़ की तुकबंदी कर लेते हैं ,उसमें वज़्न पैदा कर लेते हैं और उसके बाद आप उसको जोड़ लेते हैं। आप समझते हैं कि आपने कुछ लिखा है जिसमें तरन्नुम है एक मीटर है अगर ये काम आपको आता है तो फिर ये काम आपके लिए बहुत आसान है आप जब चाहें जितना चाहें लिख सकते हैं लेकिन सवाल ये है कि सबसे बड़ा नक्काद मैं समझती हूँ कि शायर खुद होता है इसलिए कि वो अपने शेर को खुद जांचता है परखता है कि ये शेर उसने अच्छा कहा है उसके दिल को लगा है या उसने कोई भर्ती के लफ्ज़ उसमें डाल दिए हैं इस तरह से उसकी कतर ब्योंत जो होती है न वो बहुत ज्यादा करनी पड़ती है और जो ऐसा करता है वोही बड़ा शायर बन पाता है। जिगर साहब, फ़िराक़ साहब, फ़ैज़ साहब को यही सब करते मैंने देखा है. ये सब अपने अशआर के साथ मेहनत करते थे। ज्यादा लिखना जरूरी नहीं होता ज्यादा पढ़ना जरूरी होता हैमैं भी पढ़ती हूँ खूब पढ़ती हूँ और चाहती हूँ कि लिखने से पहले आप दूसरों को पढ़ने की आदत डालें।

वक़्त की फ़ज़ाओं पर कौन हो सका हाकिम 
कितने चाँद चमके थे कितने चाँद गहनाये 

इशरते-मोहब्बत के ज़ख़्म रह गए बाक़ी 
तल्ख़ि-ऐ-ज़माना को कोई कैसे समझाये 
इशरते-मोहब्बत =प्रेम का सुख 

मंज़िलो ! कहाँ हो तुम आओ अब क़दम चूमो 
आज हम ज़माने को साथ अपने ले आये 

आप ज़िन्दगी में कोई पेशा इख़्तियार कर लें चित्रकार बनें, संगीतकार बनें, डाक्टर, इंजिनियर, वक़ील या सरकारी मुलाज़िम बनें अगर आप थोड़ा बहुत अपने क्लासिक के साथ दिलचस्पी रखते हैं तो वो आपको तहज़ीब के संवारने में मदद देती है। फैज़ साहब कहते थे कि अच्छे अदब की एक निशानी ये भी है कि उसमें अपने पिछले ज़माने की इको जिसे सदाए बाज़गश्त कहते हैं आनी चाहिए। मैं फुर्सत के लम्हों में पुराना क्लासिकल साहित्य पढ़ती हूँ ,और ऐसा करना मुझे अच्छा लगता है।

बैठे बैठे कैसा दिल घबरा जाता है 
जाने वालों का जाना याद आ जाता है 

दफ्तर मन्सब दोनों ज़हन को खा लेते हैं 
घर वालों की किस्मत में तन रह जाता है
मन्सब =ओहदा 

अब इस घर की आबादी मेहमानों पर है 
कोई आ जाए तो वक्त गुजर जाता है 

हज़ारों बातें हैं जो आपसे करने को दिल कर रहा है लेकिन नीरज की लगातार टाइप करती उँगलियाँ थक कर मुझे चुप रहने का इशारा कर रही हैं। आपको ये बता दूँ कि ये किताब जिसमें मेरी लगभग 40 ग़ज़लें और उतनी ही नज़्में हैं को राधाकृष्ण प्रकाशन दिल्ली ने सन 2010 में शाया किया था, इसे आप अमेजनसे आन लाइन मंगवा सकते हैं । मेरे पास तो इसकी कोई प्रति भी नहीं है।
मुझे अनेक देशों में शायरी पढ़ने का मौका मिला है लेकिन मेरा मन हमेशा हिंदुस्तान आ कर अपनी शायरी सुनाने को करता है।यूँ तो मुझे पाकिस्तान के प्रेजिडेंट के हाथों "प्राइड ऑफ परफॉरमेंस"अवार्ड मिल चुका लेकिन मेरा सबसे बड़ा अवार्ड मेरी शायरी के चाहने वाले प्रसंशकों की बेपनाह मोहब्बत है। अब मैं चलती हूँ और नीरज से गुज़ारिश करती हूँ कि मेरी एक ग़ज़ल के चंद शेर आप तक पहुंचा कर आराम करें। इंशाअल्लाह फिर मिलेंगे -ख़ुदा हाफिज !!

ये उदासी ये फैलते साए 
हम तुझे याद करके पछताए 

मिल गया सुकूँ निगाहों को 
की तमन्ना तो अश्क भर आये 

हम जो पहुंचे तो रहगुज़र ही न थी 
तुम जो आये तो मंज़िलें लाये 

 ( दोस्तों ज़ोहरा निग़ाह साहिबा तो चली गयीं लेकिन मेरी इल्तिज़ा है कि अगर वक्त मिले तो उनकी 3 नज़्में एक जिसमें कोख़ ही मार दी गयी लड़की की पुकार है "मैं बच गयी माँ ", दूसरी में बांग्ला देश में फौजियों द्वारा किये गए रेप का जिक्र है "भेजो नबी जी बरकतें "और तीसरी जिसमें युद्ध के बाद बर्बाद हुए अफगानिस्तान के बच्चे का जिक्र है "कागज़ के जहाज "यू ट्यूब पर सुनें और देखें कि कैसे बेहद साधारण लफ्ज़ ऐसी इमेजरी पेश करते हैं कि आँखें भर आती हैं। ज़ोहरा जी ने तो इस किताब में छपी ग़ज़लों में से कुछ के शेर आप तक पहुंचाए , मैं आपको उनके कुछ फुटकर शेर पढ़वा कर विदा लेता हूँ और निकलता हूँ अगली किताब की तलाश में :

 भूले अगर तुझे तो कहाँ जाएँ क्या करें 
हर रहगुजर में तेरे गुजरने का हुस्न है 
*** 
उसने आहिस्ता से ज़ोहरा कह दिया, दिल खिल उठा 
आज से इस नाम की खुशबू में बस जायेंगे हम 
*** 
कड़े सफर में मुझको छोड़ देने वाला हमसफ़र 
बिछड़ते वक़्त अपने साथ सारी धूप ले गया
*** 
कब तक जां को ख़ाक करोगे कितने अश्क़ बहाओगे 
इतने महँगे दामों आख़िर कितना क़र्ज़ चुकाओगे
*** 
तुमने बात कह डाली कोई भी न पहचाना
हमने बात सोची थी बन गए हैं अफ़साने
*** 
यही मत समझना तुम्हीं ज़िन्दगी हो 
 बहुत दिन अकेले भी हमने गुज़ारे 
*** 
कौन जाने तिरा अंदाज़े-नज़र क्या हो जाए 
दिल धड़कता है तो दुनिया को ख़बर होती है )

किताबों की दुनिया -161

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माफ़ कर दो जो ख़ता मुझसे हुई है अब तक 
क्या ज़रूरी है उसे हर्फ़े बयानी कह दूँ 

ये ख़ता मुझसे हुई उसको जो चाहा मैंने 
जो ख़ता उसने करी वो मेहरबानी कह दूँ 

ये सबब है मेरे जीने का तो बरसों 'सागर' 
आज उन यादों को कैसे मैं पुरानी कह दूँ 

शायद आपको पता होगा कि आज़ादी से पहले उर्दू सरकारी जुबां हुआ करती थी ,सारे सरकारी फ़रमान उर्दू में आया करते थे ,अदालत की जुबां तो बरसों तक उर्दू रही। सिनेमा के गाने और संवाद ख़ालिस उर्दू में लिखे जाते थे हर मजहब के लोग उर्दू बोलते समझते थे। देश के अधिकतर अख़बार और रिसाले या तो उर्दू में छपते थे या अंग्रेजी में ,लेकिन जब से किसी साज़िश के तहत इस शीरीं ज़बान को एक खास मजहब के साथ जोड़ दिया गया तब से इस ज़बान को ज़बरदस्त नुक़सान हुआ और ये हाशिये पर चली गयी । अब फिर से इसे पटरी पर लाने के लिए सेमिनार आयोजित किये जा रहे हैं जश्न मनाये जा रहे हैं ,मुझे नहीं पता कि इस से उर्दू को फायदा हो रहा है या संयोजकों को।

इक उम्र गुज़ारी थी बस हमने अज़ाबों में 
मैं पढता रहा जीवन को यूँ ही किताबों में 

जीने का सलीका तो अहबाब सीखा देंगे 
इज़हार मुहब्बत का मिलता है गुलाबों में 

चुप चाप करो ख़िदमत तहरीर अदब 'सागर' 
कुछ मोल नहीं दुनिया के झूठे ख़िताबों में 

उर्दू ऐसी ज़बान है जिसे सीखने से ज़िन्दगी में तहज़ीब और सलीक़ा अपने आप आ जाता है। जिस दिन हम इस ज़बान को किसी धर्म विशेष की न मानते हुए अपनाएंगे उस दिन से इसकी वापसी बिना किसी सेमिनार या जश्न मनाने से हो जाएगी। हमारे आज के शायर जनाब "सागर सियालकोटीउर्फ़ हिन्दराज भगत "साहब को उर्दू से उतनी ही मुहब्बत है जितनी शायद कभी मजनूँ को लैला से रही होगी। सागर साहब की शायरी पढ़ते वक्त ये बात साफ़ हो जाती है कि उर्दू ज़बान के इस्तेमाल से किसी भी मज़हब का इंसान बेहतरीन शायरी कर सकता है। आज हम उनकी निहायत ही खूबसूरत किताब "एहतिज़ाज़-ए-ग़ज़ल"की बात करेंगे जिसकी पंच लाइन है "सुराही जाम को झुक कर ही मिलती है : ग़ज़ल कोई भी हो 'सागर'मज़ा देगी। तो आईये मज़े की शुरुआत करते हैं : 


ग़लत को ठीक कहना तो कभी अच्छा नहीं होता 
सही शिकवा शिकायत हो ये निस्बत में ज़रूरी है 

ये तिनके का सहारा डूबने वाले को काफ़ी है 
किसी को हौसला देना मुसीबत में जरूरी है 

मिरा किरदार ही 'सागर'निशानी है बुजुर्गों की 
अदब से पेश आयें हम अदावत में ज़रूरी है 

18 जनवरी 1951 को लुधियाना में जन्मे सागर साहब की उर्दू ज़बान और शायरी से दिलचस्पी उनके पिता जनाब करतार चंद जी की वज़ह से हुई। घर के अदबी माहौल से ये दिलचस्पी जूनून में तब्दील होती चली गयी और उन्होंने अपने कॉलेज के दिनों से शेर कहना शुरू कर दिया। कॉलेज की मेगज़ीन में उनके कलाम गाहे बगाहे छपते रहे।साथ पढ़ने वाले दोस्तों और उस्ताद लोगों ने उनके कलाम को खूब पसंद किया। कालेज के बाद उन्होंने इंडियन ओवरसीज़ बैंक में नौकरी की और वहीँ से मैनेजर के पद से 2011 में रिटायरमेंट लिया। नौकरी के दौरान उन्हें जब भी थोड़ी बहुत फुर्सत मिलती वो लिखने पढ़ने बैठ जाते। ऊपर वाले की मेहरबानी से उन्हें जीवन साथी के रूप में निर्मल जी मिल गयीं जिन्होंने न सिर्फ उनके इस शौक की सराहा बल्कि हर कदम पर हौसला अफजाही भी की।

कभी लैला से पूछा था मुहब्बत चीज़ है कैसी 
कहा उसने ख़ुदा की ये इबादत ही इबादत है 

कहीं दंगे कहीं रिश्वत कहीं जिन्सी मसाइल हैं 
हकूमत में सभी अंधे सियासत ही सियासत है 

तुम्हारे पास जज़्बा है हकूमत को बदलने का 
सही इन्सान को चुन लो करामत ही करामत है 

सागर साहब ने शायरी की तालीम मरहूम जनाब याकूब मसीही सलाम लुधियानवी से हासिल की और सं 2000 से आप जनाब नामी नादरी साहब की सरपरस्ती में शेर कह रहे हैं। नादरी साहब की रहनुमाई में उनके दो ग़ज़ल संग्रह "एहसास"सं 2004 में और "आवाज़ें"सं 2013 में शाया हो कर मकबूलियत हासिल कर चुके हैं। "एहतिज़ाज़-ए-ग़ज़ल"याने ग़ज़ल की ख़ूबसूरती ,उनका तीसरा ग़ज़ल संग्रह है जो 2017 के शुरुआत में शाया हुआ है।सागर साहब ने अपने तीनों ग़ज़ल संग्रह "साहिर लुध्यानवी"साहब के इस शेर से मुत्तासिर हो कर लिखे हैं "दुनियां ने तजुर्बात-ओ-हवादिस की शक़्ल में : जो कुछ मुझे दिया वही लौटा रहा हूँ मैं"

परिंदे को हवा पत्ता शजर भी जानता है 
जो राही थक के बैठा है सफ़र भी जानता है 

बशर साहिल पे जो भी घर बनाता है यकीनन 
वो तूफानों से लड़ने का हुनर भी जानता है

मुहब्बत में कहाँ अन्जाम की परवाह किसी को
मरीज़े इश्क़ तेशे का असर भी जानता है 

सागर साहब के शेर सच्चे हैं क्यूंकि वो ज़िन्दगी की तल्ख़ सच्चाइयों से गुज़र कर कहे गए हैं। उन्होंने ज़िन्दगी में जो देखा सुना और भोगा है वो ही अशआर में पिरो दिया है इसलिए उनके शेर पढ़ने वाले को आपबीती-जगबीती का अहसास भी करवाते हैं।हो सकता है आपको उनके शेर खुरदरे सपाट और तल्ख़ लगें क्यूंकि सच्चाई बिना मुलम्मे के होती है। नींव के पत्थरों की तरह जिनमें नक्काशी नहीं होती पर ईमारत को मजबूती से थामने की शक्ति होती है। हर तरफ रियाकारी ,क़तल-ओ-ग़ारत ,बढ़ती बेरोज़गारी और इन्सानियत की कमी के बीच मुलायम घुमावदार और मीठी बातें करना एक ईंमानदार शायर के लिए मुमकिन नहीं.

खिलौना सब का दिल बहला नहीं सकता मगर फिर भी 
वो बूढ़ा है खिलौने के लिए फिर भी मचलता है 

जिसे मालूम है सब कुछ वही ख़ामोश है लेकिन 
जिसे कुछ भी नहीं आता वही ज्यादा उछलता है

किसी के इश्क़ में 'सागर'क़दम ये सोच कर रखना 
ये वो जंगल यहाँ से कोई वापस कब निकलता है 

मैं 'सागर'साहब की इस बात से पूरी तरह इत्तेफ़ाक़ रखता हूँ कि "बड़े से बड़ा शायर भी फ़िक्री तौर पर कुछ भी नया नहीं कह सकता क्यूंकि खुदा की इस क़ायनात में तमाम ख्याल पहले से मौजूद हैं"लेकिन फिर भी 'सागर'साहब ने अपनी तरह से कुछ नया कहने की कोशिश जरूर की है। बेहतरीन तरन्नुम के मालिक 'सागर'साहब मुशायरों में शिरकत नहीं करते ,मेरे ये पूछने पर कि "क्यों ?"उन्होंने बेबाक अंदाज़ में जवाब दिया "क्यूंकि नीरज जी कोई हमें बुलाता नहीं और हम बिन बुलाये कहीं जाते नहीं "उन्हें कोई इसलिए नहीं बुलाता कि वो किसी धड़े से नहीं जुड़े हुए हैं और उन्हें अपनी ख़ुद्दारी बहुत प्यारी है।
आज के इस दौर में जहाँ शायरी के नाम पर कुछ लोग बाजार सजा कर बैठे हैं, कुछ लोग मठाधीश बने बैठे हैं और कुछ लोग एक गुट बना लेते हैं वहीँ सागर साहब जैसे लोग भी हैं जो एकला चालो रे की तर्ज़ पर शायरी सिर्फ शायरी की खातिर कर रहे हैं। अदब की ख़ामोशी से ख़िदमत करने वाले सागर साहब जैसे इंसान बड़ी मुश्किल से मिलते हैं , मेरे दिल में उन लोगों के लिए बहुत आदर है जिनकी सोच कबीर दास जी की उस सोच से मेल खाती जिसे उन्होंने अपने एक दोहे में यूँ व्यक्त किया है :" .कबीरा खड़ा बाज़ार में, सबकी मांगे खैर ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर"
मज़ाहिब कब सिखाते हैं किसी से बैर तकरारी 
अगर फ़िरक़ा परस्ती है तो फिर लड़ना जरूरी है 

अदब का काम लोगों को तो बस बेदार करना है 
जो कर पायें न तहरीरें तो फिर जलना जरूरी है 

अदीबों में सियासत बढ़ गई एजाज़ पाने की 
यही हालत रही 'सागर'तो फिर बचना जरूरी है 

सागर साहब की इस किताब को 'साहित्य कलश पब्लिकेशन'पटियाला ने प्रकाशित किया है, इसकी प्राप्ति के लिए आप उन्हें 9872888174 पर संपर्क कर सकते हैं या फिर sahitykalash@gmail.comपर मेल कर सकते हैं। जैसा मैं हमेशा कहता आया हूँ बड़ा अच्छा हो अगर आप सागर साहब को इस किताब के लिए मुबारकबाद देते हुए उन्हें 9876865957पर कॉल करें। यकीन मानिये उनकी आवाज़ में उनकी ग़ज़ल सुनना एक ऐसा अनुभव है जिस से आप बार बार गुज़रना चाहेंगे। अगली किताब की तलाश में निकलने से पहले पेश हैं सागर साहब की एक छोटी बहर की ग़ज़ल के ये शेर :

आपका ख़त संभाल कर रख्खा 
और शिकवा निकाल कर रख्खा 

कब कहा था के वो पराया है 
सांप उसने जो पाल कर रख्खा 

फाश पर्दा कहीं ना हो 'सागर' 
जाल रिश्तों पे डाल कर रख्खा

किताबों की दुनिया -162

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तुम समुन्दर हो न समझोगे मिरी मजबूरियां 
एक दरिया क्या करे पानी उतर जाने के बाद 

आएगी चेहरे पे रौनक़ खिल उठेगी ज़िन्दगी 
ग़म के आईने में थोड़ा सज-सँवर जाने के बाद 

मुन्तज़िर आँखों में भर जाती है किरनों की चमक 
सुब्ह बन जाती है हर शब् मेरे घर आने के बाद 

भारत के पूर्वी प्रदेश बिहार के पश्चिम भाग में गंगा नदी के तट पर स्थित एक ऐतिहासिक शहर है। नाम है बक्सर जो पटना से ये ही कोई 75 कि.मी. दूर होगा। इसी बक्सर में ऋषि विश्वामित्र का आश्रम था और यहीं राम- लक्ष्मण ने उनसे शिक्षण-प्रशिक्षण लिया। यहीं पत्थर में परिवर्तित अहिल्या का राम ने उद्धार किया था। इसी जगह का एक शायर है जो पत्थर की तरह के मृतप्राय शब्दों को अपनी विलक्षण कलम से छू कर प्राणवान कर देता है। अपने में मस्त इस अद्भुत शायर को बहुत कम लोग शायद जानते हों। उनसे मेरा परिचय भी इस किताब से हुआ है जिसकी बात हम आज करेंगे।

मिरे नसीब में लिक्खी नहीं है तन्हाई 
जो ढूढ़ना तो हज़ारों में ढूंढ़ना मुझको 

मैं दुश्मनों के बहुत ही क़रीब रहता हूँ 
समझ के सोच के यारों में ढूंढना मुझको 

फ़क़त गुलों की हिफ़ाज़त का काम ही है मिरा
चमन में जाना तो ख़ारों में ढूंढना मुझको 

सही कहा है इस शायर ने ,इन्हें ढूंढना आसान काम नहीं। जिस जगह आज के बहुत से शायर आसानी से मिल जाते हैं वहां ये हज़रत नहीं मिलते। आज के युग का ये शायर न किसी धड़े से जुड़ा है न फेसबुक या ट्वीटर से न कोई इसकी बहुत बड़ी फैन फॉलोइंग नज़र आती है और न किसी अखबार पत्रिका में चर्चा। लेकिन फिर भी बिहार का शायद ही कोई सच्चा साहित्य प्रेमी होगा जिसने इनका नाम न सुना हो और इनके अपने क्षेत्र में तो इनका नाम बहुत ही आदर से लिया जाता है. मेरा इशारा हमारे आज के शायर जनाब "कुमार नयन"से है जिनकी किताब 'दयारे-हयात में"की बात हम करेंगे।


इतने थे जब क़रीब तो फिर क्यों मिरे रफ़ीक़ 
तुमको तलाशने में ज़माना लगा मुझे 

हर सू यहाँ पे दर्द के ही फूल हैं खिले 
रुकने का इसलिए ये ठिकाना लगा मुझे 

मेरी सलामती की दुआ दुश्मनों ने की 
सचमुच ये उनका मुझको हराना लगा मुझे 

बढ़ी हुई दाढ़ी उलझे रूखे बाल कबीर सी सोच और फक्कड़ तबियत के मालिक 'कुमार नयन'आपको बक्सर की सड़कें पैदल नापते कभी भी दिखाई दे सकते हैं। 5 जनवरी 1955 को डुमरांव में कुमार नयन का जन्म हुआ। उनके पिता गोपाल जी केशरी थे। दादा जी सीताराम केशरी जिनको पूरा बिहार स्वतंत्रता सेनानी के नाम से जानता था। नयन जी ने दसवीं तक की पढ़ाई हाई स्कूल डुमरांव से की। 1969 में इंटर पास किया। डीके कालेज से बीए, फिर एलएलबी व अंतत: हिन्दी से एमए किया। इस बीच 1975 में ही वे डुमरांव से बक्सर आ गए। यहां शहर में उनकी ननिहाल थी। यहीं बस गए।

सबकुछ है तेरे पास मेरे पास कुछ नहीं 
अब तेरे-मेरे बीच कोई फ़ासला नहीं 

मैं जी रहा हूँ कम नहीं इतना मिरे लिए 
सर पर मिरे ख़ुदा क़सम कोई ख़ुदा नहीं

मुन्सिफ़ बने हो तुम मिरे तो सोच लो ज़रा 
इन्साफ़ मांगने चला हूँ फ़ैसला नहीं 

आज बक्सर शहर की दलित बस्ती खलासी मुहल्ला में इनका आशियाना है। जीवट इतने हैं कि तब से लेकर आजतक शहर की सड़कों पर पैदल चलते आ रहें हैं। खुद के पास साइकल भी नहीं। नतीजा अब शहर की सड़के भी इनको पहचानने लगी हैं। इस तरह का इंसान खुद्दार किस्म का होता है और ऐसे इंसान की सोच भी सबसे अलग होती है ,ये अपने लिए नहीं समाज के लिए काम करता है। एमए व एलएलबी करने के बाद भी उन्होंने कैरियर के रूप में साहित्यक व सामाजिक क्षेत्र को चुना। 1987 में भोज थियेटर लोक रंगमंच की स्थापना की। इसके माध्यम से उन्होंने भिखारी ठाकुर के नाटकों एवं अन्य लोक संस्कृतियों का मंचन कर अलग ही पहचान बना ली।

दूर तक मंज़िल न कोई मरहला इस राह में 
मील का पत्थर नहीं फिर भी सफ़र अच्छा लगा 

आपने भी फाड़ डाली अपनी सारी अर्ज़ियाँ 
आप भी खुद्दार हैं यह जान कर अच्छा लगा 

हैं वो ही दीवारो-दर आँगन वो ही बिस्तर वो ही 
शख़्स इक आया तो मुद्दत बाद घर अच्छा लगा 

पढाई के बाद 1981 में कोलकत्ता से प्रकाशित होने वाले रविवार के लिए लिखना प्रारंभ किया। इस बीच अंग्रेजी की पत्रिका ब्लिट्ज में लिखना प्रारंभ किया। 1986 में नवभारत टाइम्स से जुड़े, इस क्रम में टाइम्स आफ इंडिया के लिए भी लिखते रहे। यह सफर 1991 में थम गया। लंबे समय अंतराल के बाद वर्ष 2004 में झारखंड के प्रमुख दैनिक समाचारपत्र प्रभात खबर में सीनियर सब एडीटर के तौर पर काम करना प्रारंभ किया। यह सफर भी साल दो साल से अधिक नहीं चला। इसके बाद 08 से 09 के बीच युद्धरत आम आदमी विशेषांक में काम किया।

मिले कभी भी तो करता है बात फूलों की 
वो एक शख्स जो पत्थर के घर में रहता है

निकल न पाऊं कभी उसकी सोच से बाहर 
कोई ख़याल हो उसकी डगर में रहता है 

तुम्हीं कहो न कि मैं क्या करूँ तुम्हारे लिए 
मिरा तो दिल ये अगर और मगर में रहता है 

1991 में पत्रकारिता से साथ छूटा तो मुंबई चले गए। वहां दो भोजपुरी फिल्मों के लिए गीत लिखे। एक के लिए डायलाग व पूरी कहानी लिखी। 93 में हमेशा के लिए माया नगरी को छोड़ दिया। शहर में सामाजिकी जीवन से जुड़े। 94-95 में अंजोर के सेक्रेटरी बने। 1999 में त्यागपत्र दे दिया। जरुरतें परेशान करती रहीं। वकालत शुरु कर दी। हाई कोर्ट के वरीय अधिवक्ता व्यासमुनी सिंह की नजर उनपर पड़ी। वे उन्हें पटना ले गए। 2002 में उनका निधन हो गया। तब नयन जी ने वकालत भी छोड़ दी.
"नयन"जी की एक ग़ज़ल के ये शेर लगता है उन्होंने अपने पर ही कहे हैं :

अजीब शख़्स है वो जो तबाह-हाल रहा 
तमाम उम्र मगर फिर भी बा-कमाल रहा 

मिला न वक़्त कभी ख़ुद से मिलने का ही मुझे 
कि सामने तो मिरे आपका सवाल रहा 

मुझे मुआफ़ करो ऐ मिरे अज़ीज़ ग़मों 
मैं सोचने में कोई शे'र बेख़याल रहा 

हालात ऐसे बने की नयन कलम से जुदा नहीं हो सके। रास्ते कई बदले पर कलम खींच कर अपने पास ले आती रही। यह बात अब उनको भी समझ में आने लगी। जीवन के सफर में जो लिखा था। उसे सहेजने लगे। 1993 में पहला कविता संग्रह पांव कटे बिम्ब प्रकाशित हुआ था। उसने रफ्तार पकड़ी। अब तक कुल पांच पुस्तकें आई हैं। जिनमें आग बरसाते हैं शजर (गजल संग्रह), दयारे हयात (गजल संग्रह), एहसास आदि प्रमुख हैं। उनकी अगली रचना "सोंचती हैं औरतें", प्रकाशित होने वाली है।
वर्ष 2017 फरवरी को पटना में आयोजित पुस्तक मेले में उनकी गजल की पुस्तक "दयारे हयात"सबसे अधिक बिकने वाली पुस्तक रही।

बहुत से लोग मुझसे पूछते हैं 
वतन में अपने ही अब हम नहीं क्या

ख़ुशी से आज भी क्यों जी रहा हूँ 
मुझे ग़म होने का कुछ ग़म नहीं क्या 

लहू क्यों खौलता रहता है हर दम 
सुकूँ का अब कोई मौसम नहीं क्या 

कुमार नयन साहब को ढेरों सम्मान और पुरूस्कार मिले हैं जिनमें बिहार भोजपुरी अकादमी सम्मान , कथा हंस पुरूस्कार, निराला सम्मान ,और ग़ालिब सम्मान उल्लेखनीय हैं।पिछले साल याने 2017 में , पटना में 30 मार्च को राजभाषा की ओर से शिक्षा मंत्री अशोक चौधरी की उपस्थिति में शीर्ष कवि केदारनाथ सिंह ने उन्हें राष्ट्रकवि दिनकर पुरस्कारप्रदान किया. साथ ही कुमार नयन को पुरस्कार की राशि एक लाख रुपए भी प्रदान की गयी। कुमार नयन साहब की शायरी में कई रंग हैं जिन्हें इस पोस्ट में समाया नहीं जा सकता , मैंने सिर्फ उनकी चंद ग़ज़लों के अशआर ही आप तक पहुंचाए हैं ,

मिरे घर में कहानी है अभी तक
मिरे बच्चों की नानी है अभी तक 

घड़ा मिटटी का पत्तों की चटाई
बुजुर्गों की निशानी है अभी तक 

कोई गिरधर यहाँ हो या नहीं हो 
मगर मीरा दीवानी है अभी तक 

वहां उम्मीद कैसे छोड़ दूँ मैं 
जहाँ आँखों में पानी है अभी तक

राधाकृष्ण प्रकाशन 7 /31 अंसारी मार्ग ,दरियागंज नै दिल्ली से प्रकाशित इस किताब में नयन जी की लगभग 111 ग़ज़लें संग्रहित हैं। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप राधाकृष्ण प्रकाशन की वेब साईट www.radhakrishnaprkashan.com पर जा कर इस किताब का आर्डर कर सकते या फिर आप कुमार नयन साहब को इस पते पर ई-मेल kumarnayan.bxr@gmail.com करें या फिर उन्हें 9430271604पर फोन कर के बधाई देते हुए पुस्तक प्राप्ति का रास्ता पूछें।
आखिर में चलते चलते आईये नयन जी की एक और ग़ज़ल के शेर आपको पढ़वाता हूँ :

मिरा दुश्मन लगा मुझसे भी बेहतर 
मैं उसके दिल के जब अंदर गया तो 

मिरे बच्चों से होंगी मेरी बातें 
किसी दिन वक़्त पर मैं घर गया तो

मैं ख़ाली ट्यूब हूँ पहिये का लेकिन
हवा बनकर तू मुझमें भर गया तो 

मन कर रहा है कि एक और ग़ज़ल के शेर आप तक पहुंचा दूँ ,मुझे बहुत अच्छे लगे उम्मीद है आप भी इन्हें पढ़ कर वाह करेंगे , देखिये न छोटी बहर में नयन जी ने क्या हुनर दिखाया है :

वहां पाखण्ड चल नहीं सकता 
जहाँ कोई कबीर ज़िंदा है 

इक पियादा हो जब तलक ज़िंदा 
तो समझना वज़ीर ज़िंदा है 

तेरी दुनिया में मर गयी होगी 
मेरी दुनिया में हीर ज़िंदा है

किताबों की दुनिया -163

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ग़ज़ल ऐसी कि ग़ज़लें सिर धुनें बेसाख़्ता उसपे 
कि जब कहना नयी कहना हरी ताज़ी ग़ज़ल कहना 

ग़ज़ल कहनी है बस इस वास्ते कहना नहीं ग़ज़लें
कोई इक बात कहनी हो अगर साथी ग़ज़ल कहना 

जुबां ऐसी कि जैसे बोलते हैं बोलने वाले 
अदा ऐसी कि जैसे वो चले, वैसी ग़ज़ल कहना 

अगर आप ईमानदारी से देखें तो आजकल अधिकतर ग़ज़लें चाहे वो सोशल मिडिया के माध्यम से सामने आएं या प्रिंट मिडिया के, ऐसी कही जा रही हैं जो ऊपर दिए शेरों के ठीक विपरीत हैं। सीधे शब्दों में कहूं तो ग़ज़लें या तो बरसों से बयां किये जा रहे विषयों की जुगाली करती नज़र आती हैं या ग़ज़ल कहनी है ये सोच कर कही जाती हैं या फिर क्लिष्ट भाषा और उलझे विचारों से पाठक को चौंकाती नज़र आती हैं.बहुत कम ऐसी ग़ज़लें नज़र आती हैं जिन्हें सुन या पढ़ कर बेसाख्ता मुंह से वाह निकल जाय। एक बात तो स्पष्ट है कि इस से पहले इतनी तादाद में ग़ज़लें नहीं कही जा रही थीं। सोशल मिडिया था नहीं और प्रिंट मिडिया भी आसानी से सबको उपलब्ध नहीं था। अब आज का ये दौर ग़ज़ल के लिए अच्छा है या बुरा बहस का विषय हो सकता है।

मुल्क तो दिखता नहीं है मुल्क में यारों कहीं 
दिख रही लेकिन है उसकी राजधानी हर तरफ 

सोचता हूँ नस्लेनौ कल क्या पढ़ेगी ढूंढकर 
पानियों पर लिख रही दुनिया कहानी हर तरफ

उग रहे हैं सिर्फ़ कांटे, सिर्फ कांटे शाख में 
आंय ! कैसी हो रही है बागवानी हर तरफ

ग़ज़ल अब महबूब से बातें करने ,उसके रूप का वर्णन करने और उसकी बेवफाई पर आंसू बहाने जैसे विषयों को कब का पीछे छोड़ छाड़ कर इंसान के दुःख सुख और सामाजिक बुराइयों का पर्दाफाश करने की और मुड़ गयी है। ग़ज़ल की सशक्त विधा का प्रयोग अब इंसान और उसके द्वारा बनाये समाज को आइना दिखाने और कमियों पर चोट करने में किया जाने लगा है। दुष्यंत कुमार से पहले भी ग़ज़ल चोट तो करती थी पर शायद इतने धारदार तरीके से नहीं। दुष्यंत के बाद बहुत से शायरों ने इस विधा को हथियार की तरह इस्तेमाल किया ,अदम गौंडवी साहब का नाम इस फेहरिश्त में काफी ऊपर आता है। हमारे आज के शायर भी अदम साहब की परम्परा के ही हैं।

भूख जब वे गाँव की पूरे वतन तक ले गए 
मामला हम भी ये फिर शेरो-सुख़न तक ले गए 

आग भी हैरान थी शायद ये तेवर देख कर 
जब उसे तहज़ीबदां घर की दुल्हन तक ले गए 

हम पिलाते रह गए अपना लहू हर लफ्ज़ को 
और वे बेअदबियां सत्तासदन तक ले गए 

दर असल हमारे आज के शायर जनाब नूर मुहम्मद 'नूर'जिनकी किताब "सफर कठिन है "का जिक्र हम करने जा रहे हैं ,की ग़ज़लों को पढ़ना हिंदुस्तान के समकालीन सफर को पढ़ना है। हिंदुस्तान का समकालीन सफर बहुत कठिन रहा है और इस किताब में संकलित ग़ज़लों का सफर भी। "सफर कठिन है"की ग़ज़लों को पढ़ते हुए हम कई बार सफर में पेश आयी अपनी कठिनाइयों को भी पहचानने का हौसला हासिल करते हैं। इस किताब की ग़ज़लें आम इंसान के दुःख दर्द ,राजनीती और हमारे समाज में घर कर गयी बुराइयों की और इंगित करती हैं और साथ ही हमें इनसे निपटने का हौसला भी देती हैं : 


उधर इस्लाम ख़तरे में, इधर है राम ख़तरे में 
मगर मैं क्या करूँ है मेरी सुबहो-शाम खतरे में 

ये क्या से क्या बना डाला है हमने मुल्क को अपने 
कहीं हैरी, कहीं हामिद, कहीं हरनाम ख़तरे में 

न बोलो सच जियादा 'नूर'वर्ना लोग देखेंगे 
तुम्हारी जान-जोखिम में तुम्हारा नाम खतरे में 

नूर साहब का जन्म 17 अगस्त 1954 में गाँव महासन, जिला –देवरिया (आजकल कुशीनगर) उत्तर प्रदेश में हुआ था.प्रारंभिक शिक्षा कुशीनगर में पूरी करने के बाद वो कलकत्ता आ गए जहाँ उन्होंने कलकत्ता यूनिवर्सिटी से स्नातक की डिग्री हासिल की। इसके बाद दक्षिण-पूर्व रेलवे मुख्यालय के दावा विधि विभाग में नौकरी की और 2014 में सेवा मुक्त हो कर कलकत्ता में रहने के बजाये अपने गाँव वापस लौट गए और अब वहीँ इन दिनों स्वतंत्र लेखन कार्य कर रहे हैं।

हरा भरा है अजब हौसला मगर उनका 
गो अब भी धूप के साये में है सफर उनका 

अभी न दर है न दीवार है न घर है अभी 
अभी ख़्याल है ,पौधा है ,घर का घर उनका 

है लब पे गाँव किसी गीत की तरह अब भी 
तो मौसिक़ी की तरह पाँव में शहर उनका 

नूर मुहम्मद नूर हिंदी, उर्दू , अरबी, बांग्ला के साथ –साथ अंग्रेजी में भी समान अधिकार रखते हैं और लिखते हैं |कविता, ग़ज़ल और कहानी-तीनों विधाओं पर उनकी बराबर की पकड़ है । अपनी मातृ भाषा भोजपुरी में भी वो खूब लिखते हैं। हंस, कथादेश, वर्तमान साहित्य, अक्षर पर्व समेत देश की तमाम पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं लगातार प्रकाशित होती रही हैं, होती रहती हैं। नूर मुहम्मद 'नूर'का एक कविता संग्रह 'ताकि खिलखिलाती रहे पृथ्वी', दो ग़ज़ल संग्रह-'दूर तक सहराओं में'और 'सफ़र कठिन है'प्रकाशित हो चुकी है। एक कहानी संग्रह 'आवाज़ का चेहरा'भी छप चुका है।

जिस तरह सहरा में पानी ढूंढते हैं तिश्नालब 
दोस्तों के बीच रह कर दोस्ताना ढूंढना 

आदमी में आदमियत और खुशबू फूल में
हो सके तो शहर में अब ये खज़ाना ढूंढना 

शेर कहना अब अदब के वास्ते ऐसा लगे
जैसे गूंगों के लिए कोई तराना ढूंढना 

नूर साहब की शख्सियत किसी भी गाँव के आम सीधे सादे इंसान की सी है। लम्बे बाल ,गहरी काली आँखों पर लगा मोटे फ्रेम का चश्मा और होंठों पर मुस्कराहट उनके फक्कड़ अंदाज़ से बहुत मेल खाती है। कुछ कुछ वामपंथी विचारधारा से प्रभावित उनकी शायरी में सामाजिक सरोकार उभर कर सामने आते हैं। वो पिछले चार दशकों से ग़ज़ल कह रहे हैं। "सफर कठिन है "को उनकी ग़ज़लों का प्रतिनिधि संग्रह कहा जा सकता है। प्रतिनिधि इस अर्थ में कि इस संग्रह से नूर की ग़ज़लों का मिज़ाज़ पाठकों के सामने खुलता है।

सुब्ह का चावल नहीं है रात का आटा नहीं
किसने ऐसा वक़्त मेरे गाँव में काटा नहीं 

शोर है कमियों ही कमियों का हरइक लम्हा यहाँ 
मेरे घर में आजकल कोई भी सन्नाटा नहीं 

वक़्तेबद, यारे अदब, हुस्ने ग़ज़ब, ऐ मेरे रब 
किसने मेरे मुंह पे मारा खींच कर चांटा नहीं 

दर्दोग़म है भूख है पीड़ा है चोटें और दुक्ख 
इस नदी में ज्वार तो आया मगर भाटा नहीं 

नूर साहब खूब लिखते हैं ग़ज़ल के अलावा उनकी नज़्मों का रेंज भी बहुत विशाल है। उनकी नज़्में उनके फेसबुक की वाल पर पढ़ी जा सकती हैं। छोटी छोटी नज़्मों की मारक क्षमता बेमिसाल है। किताब के अंतिम पृष्ठ पर उनकी ग़ज़लों के बारे में लिखा है कि "बारिश में जले मकान की जलन नूर की ग़ज़ल में है तो गंभीर पीड़ाओं के साथ साथ जंगल-बस्ती में घूमने का एहसास भी एक और जो संभाल कर रखा था गाँठ में उसे भी रहनुमाई और बन्दानवाज़ी के जरिये लुट जाने की हाय हाय इन ग़ज़लों में है तो शब्द से सुन्दर पहचान नहीं सुन्दर हिंदुस्तान की तमन्ना भी है। "

आपको तो आयतें या सिर्फ मंतर चाहिए 
यानी कि मशहूरियत ज्यादा भयंकर चाहिए 

रोटियां तालीम बच्चों को मिले या मत मिले 
उनका कहना है कि मस्जिद और मंदिर चाहिए 

रूप से व्यवहार से चाहे असुंदर लोग हों 
ज़ोर है इस बात पे कि शहर सुन्दर चाहिए 

ग़ज़ल को हिंदी और उर्दू के खेमों में बांटे वालों को नूर साहब की ग़ज़लें पढ़ कर सीखना चाहिए कि कैसे इन दोनों भाषाओँ के समन्वय से कहन में ख़ूबसूरती पैदा की जा सकती है। इन ग़ज़लों की भाषा अलंकृत भले न हो लेकिन खालिस हिंदुस्तानी है जो सीधे दिल पे दस्तक देती है। इस संग्रह की लगभग सभी सभी ग़ज़लें बेहद सीधी सादी बोलचाल की भाषा में कही गयी हैं। किसी किसी ग़ज़ल के रदीफ़ तो चौंकाने वाले हैं जिनमें ताज़गी है। ऐसे अलग से रदीफ़ वाले कुछ शेर मैं आपको आखिर में पढ़वाऊंगा, अभी तो उनकी एक ग़ज़ल में हिंदी-उर्दू भाषा का समन्वय देखिये :

क्या पूछो तुम हाल हमारा, घट घट के बंजारे हम 
घूम रहे हैं जंगल-बस्ती पीड़ाएँ गंभीर लिए 

ख़ाली-ख़ाली बर्तन लेकर पनघट-पनघट, लोग फिरें 
मन में विपदाओं की हलचल नयन कटोरे नीर लिए 

मरने वाले क़दम-क़दम पर रोज़ रोज़ ही मरते हैं 
जीने वाले जी जाते हैं आहों में तासीर लिए

 "सफर कठिन है "किताब जिसमें नूर साहब की लगभग 156 ग़ज़लें संग्रहित हैं को प्रतिश्रुति प्रकाशन 7 ऐ ,बेंटिक स्ट्रीट कोलकाता ने सं 2014 में प्रकाशित किया है। आप इस पेपर बैक किताब की प्राप्ति के लिए या तो प्रकाशक से 03322622499 पर फोन करें या mail.prkashan@gmail.comपर मेल करें साथ ही साथ नूर साहब को इस लाजवाब ग़ज़ल संग्रह के लिए 09433203786 अथवा 08334888146 पर फोन करें या उन्हें noorluckynoor@gmail.comपर मेल कर बधाई दें। यकीन माने इस संग्रह की ग़ज़लें आपके दिलो-दिमाग पर छा जाएँगी।
आखिर में आपको पढ़वाता हूँ नूर साहब के कुछ फुटकर शेर जो अपनी कहन और रदीफ़ के कारण देर तक याद रहेंगे :

वो रह रहा है बड़े ठाठ से जो बेघर था 
उसे ईनाम मिला बस्तियां जलाने का 
*** 
अब कोई क़ातिल कोई मुजरिम न बख़्शा जाएगा 
आपने क्या खूब फ़रमाया, बधाई ! हाय-हाय 
*** 
तोड़ देती है जो तटबंधों को बांधों को हमेश 
सच अगर पूछो तो मुझको वो नदी अच्छी लगी
 ***
फ़िक्र बिल्ली की तरह 'नूर'झपट्टा मारे 
चैन चिड़िया की तरह फुर्र से उड़ जाता है 
*** 
कभी डरता था घर की चिठ्ठियों से 
कि अब अख़बार से डर लग रहा है 
*** 
अब यही इस दौर के इंसान की पहचान है 
धड़ ही धड़ होते हैं खाली ,सर नहीं होते मियां 
*** 
फूल-पत्ते, चाँद, मौसम, शब, सुराही, औरतें 
अब कहीं अलफ़ाज़ में पत्थर नहीं होते मियां 
***
खूब हँसता हूँ देर तक उस पर 
वो समझता है आदमी मुझको 
*** 
मैं बड़ी देर तक रहा मसरूफ़ 
वो बड़ी देर तक दिखी मुझको 
*** 
औंधा पड़ा हुआ है हरइक मोर्चे पे मुल्क 
पर झंडे उड़ रहे हैं ग़ज़ब आसमान में 
*** 
घुटन कैसी गिला कैसा हुए जो बंद दरवाज़े 
मेरे ख़्वाबों में खुलती है अभी भी खिड़कियां सौ-सौ 
*** 
न्याय सामाजिक, दलित उत्थान, धरम निरपेक्षता 
पक चुके हैं कान सुन-सुनकर मियाँ ,रस्ता पकड़

किताबों कीदुनिया -164

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छल, कपट, पाखंड का कुछ झूठे आभासों का है 
सारा जीवन चन्द चालों और कुछ पासों का है 

ये मोहब्बत के तकाज़े दोस्ती रिश्तों की डोर 
वहम है सारा फ़क़त, ये खेल विश्वासों का है 

तैरती इक लाश को देखा तो दिल ने ये कहा 
आदमी का कुछ नहीं बस बोझ तो साँसों का है 

कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके बारे में कहा जाता है की फलां तो सर्व गुण संपन्न है या गुणों की खान है।ऊपर वाले का खेल भी अजीब है जिस पर मेहरबान हो जाये उसे छप्पर फाड़ कर देता है और साहब जिस पे नाराज़ हो जाए उसका रहा सहा छप्पर भी फाड़ देता है। हमारे आज के शायर पहली श्रेणी वाले हैं याने गुणों की खान हैं। जिन पर ऊपर वाले का करम रहा। मेरी ये समझ में नहीं आ रहा कि उनकी बात कहाँ से शुरू करूँ ? चलिए शुरू से उनकी बात शुरू करते हैं। 8 जुलाई 1946 को जयपुर के पास चौमूं में जन्मे हमारे शायर साहब ने अपने स्कूली जीवन का आगाज़ कालाडेरा, जो चौमूं से 10 कि.मी. की दूरी पर है, से किया। उसी स्कूल में 12 वीं पास करने के बाद अध्यापन का काम करते रहे। दस वर्ष याने सं 1964 से 1974 तक अध्यापन के साथ साथ अध्ययन भी करते रहे और एम्.ऐ., बी एड की डिग्री हासिल की।

पलकों पे आंसुओं को यूँ मेहमान मत रखो 
काग़ज़ की कश्तियों में ये सामान मत रखो 

दिल है,धड़क रहा है,कोई कम तो नहीं है 
पेशानी को हर वक़्त, परेशान मत रखो 

तुम चाहते हो घर को महकता हुआ अगर 
तो घर में फिर ये कागज़ी गुलदान मत रखो 

उसके बाद याने 1974 से आप उद्घोषक के रूप में आकाशवाणी की सेवा में प्रविष्ट हुए और निरंतर प्रगति करते हुए 2002 में आकाशवाणी के उपनिदेशक बन गए और सं 2006 में केंद्र निदेशक के पद से रिटायर हुए। बात अगर आकाशवाणी के कर्मचारी के रूप में उनकी लगातार प्रगति की होती तो मैं उसे बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत करने वाला नहीं था लेकिन उन्होंने इस दौरान अपनी सृजन यात्रा को भी अनेक पड़ाव पार करते हुए शिखर तक पहुँचाया। चलिए पहले उनके लेखन की चर्चा करते हैं उन्होंने हिंदी, उर्दू और राजस्थानी भाषा में अधिकारपूर्वक लेखन किया। जिसमें गीत, नवगीत, ग़ज़ल, छंद, दोहे , रुबाइयाँ आदि पद्ध विधा के अलावा गद्य में नाटक, कहानी, व्यंग , बाल साहित्य को भी उन्होंने अपनी कलम से समृद्ध किया है।

ऐ मेरे दोस्त रोक ले अब मत बढ़ा इसे
मुझको तो तेरा हाथ भी खंज़र दिखाई दे

अब ढूंढ रहा हूँ मैं किसी ऐसे शख़्स को
काँधे पे जिसके अपना ही इक सर दिखाई दे

 लाज़िम है अपनी जान को छिप कर बचाइए 
जब भी बचाने वालों का लश्कर दिखाई दे

"अक्षरों के इर्द गिर्द" , "सुकून" , "दर्द के रंग "हमारे आज के शायर जनाब "इकराम राजस्थानी"साहब के लोकप्रिय ग़ज़ल संग्रह हैं , "इस सदी का आखरी पन्ना" , "एक रहा है एक रहेगा अपना हिंदुस्तान" , "अमर है जिनसे राजस्थान"और "खुले पंख"आदि अनेक विचारोत्तेजक काव्य संग्रह हैं। राजस्थानी भाषा में उनके काव्य संग्रह "तारां छाई रात", "पल्लो लटके", शब्दां री सीख", आदि बहुत चाव से पढ़े जाते हैं। हज़रत शेख सादी की "गुलिस्तां" , रविंद्र नाथ टैगोर की "गीतांजलि"और हरवंश राय बच्चन की "मधुशाला"का राजस्थानी में काव्यानुवाद करने वाले वो एकमात्र व्यक्ति हैं।उन्होंने श्रीमदभगवत गीता और उपनिषदों का भी राजस्थानी भाषा में काव्यानुवाद किया है। इसके अलावा वो जिस काम के लिए हमेशा याद किये जायेंगे वो है "क़ुरान शरीफ़"का हिंदी भाषा में भावानुवाद। ऐसा करने वाले वो विश्व के पहले कवि हैं।

मन काले काले उजले उजले भेष हो गए 
जो शेष भी नहीं थे वो विशेष हो गए 

मीनारें चूमती थीं जिनकी आसमान को 
वो ऊंचे ऊंचे महल भी अवशेष हो गए 

वाहन के बराबर भी नहीं जो गणेश के 
वो लोग ये समझते हैं, गणेश हो गए 

इकराम राजस्थानी साहब की चुनिंदा ग़ज़लों, गीतों रुबाइयों दोहों और फुटकर शेरों का अनूठा संग्रह "कलम ज़िंदा रहे"जिसकी आज हम चर्चा कर रहे हैं , वाणी प्रकाशन ने अपनी पेपर बैक श्रृंखला "दास्ताँ कहते कहते "के अंतर्गत प्रकाशित किया है। इकराम साहब के लेखन की चर्चा तो हमने कर दी अब उनके अगले गुण पर प्रकाश डालते हैं और वो है उनका संगीत के प्रति लगाव। संगीत के क्षेत्र में भी उन्होंने अपनी अप्रतिम मेधा शक्ति का परिचय दिया है। वो आकाशवाणी के उच्च श्रेणी मान्यता प्राप्त राजस्थानी लोक संगीत गायकरहे हैं।उनकी लिखी, गायी और संगीत बद्ध की गयी रचनाएँ जो 100 से अधिक सीडी में उपलब्ध हैं ,आज भी उतनी ही लोकप्रिय हैं जितनी पहले थीं।


आप के दिन जब सुहाने आ गए 
लोग कितने दुम हिलाने आ गए 

खोजी कुत्ते चोर निकले ढूंढने 
घूम फिर कर सारे थाने आ गए 

जीत कर लीडर ने चमचों से कहा 
लूट लो अपने ज़माने आ गए 

शायद ही कोई राजस्थानी होगा जिसने उनका लिखा "अंजन की सीटी में मारो मन डोले ...चल्ला चल्ला रे डलावर गाड़ी हौले हौले "गीत नहीं सुना हो। इसकी लोकप्रियता का अंदाज़ा आप इस बात से लगाएं कि इसके मुखड़े और धुन को मशहूर फिल्म "खूबसूरत"के एक गीत में पिरोया गया था। इस से अधिक एक और लोकप्रिय गीत जिसका उपयोग "नौकर"फिल्म में संजीव कुमार पर किशोर कुमार की आवाज में रिकार्ड किया गया था "पल्लो लटके गोरी को पल्लो लटके "भी इकराम साहब की कलम का कमाल था।

हम सब को इंसान बना दे, ऐ अल्लाह 
सबकी इक पहचान बना दे, ऐ अल्लाह 

मंदिर में क़ुरआन हो, गीता मस्जिद में 
ऐसा हिन्दुस्तान बना दे, ऐ अल्लाह 

खुशबू का तो कोई धर्म नहीं होता 
मुझको तू लोबान बना दे, ऐ अल्लाह 

इकराम साहब खुद को अमीर खुसरो,जायसी,रसखान और रहीम की परम्परा का कवि मानते हैं. अभी हाल ही में संपन्न हुए जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में उन्होंने अशोक वाजपेयी , अरुंधति सुब्रमण्यम,इरा टाक, एड्रिआना लिस्बोआ , जेलिना और मोहिनी गुप्ता के साथ मंच साझा करते हुए अपनी बातों से उपस्तिथ श्रोताओं को ताली बजाने पर मजबूर कर दिया। जिस व्यक्ति की कृतियों के प्रशंसकों की लिस्ट में डा.शंकर दयाल शर्मा , श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल, प्रणव मुखर्जी,श्री श्री रवि शंकर , ममता बनर्जी जैसी विभूतियों का नाम हो उसको सुन कर भला कौन अपने आपको ताली बजाने से रोक पायेगा ?

जो शख्स मुहल्ले में पहलवान था कभी 
उसको, उठा , बिठाते हैं , दो चार पकड़ कर 

दुनिया में इबादत के लिए भेजा था तुझको 
तू आके यहाँ बैठा है, घर बार पकड़ कर 

कुछ लोग तो दरबार जा के झांकते नहीं 
कुछ काट गए ज़िन्दगी ,दरबार पकड़ कर 

इकराम साहब की ग़ज़लें सौ फीसदी खरे सोने जैसी हैं जिसमें ज़रा भी मिलावट नहीं है। वो जैसा देखते सुनते महसूस करते हैं वैसा ही अपने अशआर में पिरो देते हैं। उनकी कृतियों में लफ़्फ़ाज़ी के लिए बिलकुल जगह नहीं है। जिस इंसान को अपने नाम और किसी तरह के ईनाम की परवाह नहीं है वो क्यूँकर लेखन में समझौता करेगा ? दुनिया में अथाह पैसा और ताकत होते भी जहाँ इंसान खुश नहीं हैं वहीँ इकराम राजस्थानी जैसे अल्लाह के बन्दे खुल कर मुस्कुरा रहे हैं ख़ुशी से झूम रहे हैं क्यूंकि वो इक फ़क़ीर हैं. उनके सैंकड़ों मित्र है प्रशंसक हैं भक्त हैं परन्तु धनोपार्जन या लाभ उठाना इकराम साहब के बस की बात नहीं या यूँ समझें उनकी फितरत में ही नहीं।

 इबादत, रोज़ करता है यहाँ तू 
मगर पहुंचा नहीं अब तक वहां तू 

तेरी फ़रियाद सुन लेगा खुदा फिर 
अगर बोले परिंदों की ज़बाँ तू 

खुदा से बात कर लेते थे सीधी 
कहाँ वो लोग थे और है कहाँ तू 

अब चाहे आपको ईनाम की चाह हो न हो अपना नाम कमाने की तमन्ना हो न हो लेकिन अगर आप कुछ अच्छा कर रहे हैं तो ईनाम और नाम दोनों आपको स्वतः मिल जाते हैं। इसीलिए इकराम साहब को लोकमान्य पुरूस्कार ,राधा देवी स्मृति पुरूस्कार, राष्ट्रीय एकता पुरूस्कार ,तुलसी रत्न, रोटरी सेवा पुरूस्कार जैसे अनेक पुरुस्कारों से नवाजा जा चुका है।

बड़े दिलचस्प मंज़र हो गए हैं 
कई कतरे समंदर हो गए हैं 

इन्हें संसद का पूरा हक़ है यारों 
हज़ारों बार अंदर हो गए हैं 

गधों को कृष्ण चन्दर ने चढ़ाया 
गधे सब कृष्ण चन्दर हो गए हैं 
 (कृष्ण चन्दर उर्दू के बड़े अफसाना निगार रहे हैं उनकी "एक गधे की आत्म कथा"और "एक गधे की वापसी"बहुत मकबूल उपन्यास हुए हैं )

 इकराम साहब ने लेखन गायन और संगीत निर्देशन के अलावा नाटक लिखे और उनका मंचन भी किया है। वो कुशल अभिनेता भी हैं। लगभग 30 साल तक लगातार उन्होंने राष्ट्रीय समारोहों का आँखों देखा हाल लाल किले और राष्ट्रपति भवन से सुनाने के अलावा हल्दी घाटी जयंती और ख्वाजा साहब के 86 वे उर्स की कमेंट्री भी की है। तभी तो मैंने उन्हें "गुणों की खान"कहा है। "इकराम"साहब कहते हैं कि "मुझे ग़ज़ल से बहुत प्यार है। शायद वो बचपन से मेरे साथ चल रही है , मेरी सारी मुसीबतों को महसूस करती हुई मेरे साथ ही जवान भी हुई और अब उम्र के साथ ज़िन्दगी में घुमड़ती रहती है"।

तन तो केवल तन होता है 
जो होता है मन होता है 

बरखा की बूंदों से कह दो 
भीतर भी सावन होता है 

जिसके पास नहीं हैं सपने 
वो सबसे निर्धन होता है 

किताब की कोई ग़ज़ल रुबाई दोहा ऐसा नहीं है जिसे आप तक पहुँचाने में मुझे आनंद न आये लेकिन सारी की सारी किताब तो यहाँ नहीं प्रस्तुत की जा सकती। इसके लिए तो आपको "वाणी प्रकाशन"वालों को लिखना होगा या उन्हें 01123273167 पर फोन करना होगा , वैसे ये किताब ऑन लाइन भी उपलब्ध है। आप पढ़ना चाहें तो जरूर मंगवा ले और कुछ नहीं तो इकराम साहब को उनके मोबाईल न 09829078682 पर फोन करके उन्हें इस लाजवाब किताब के लिए बधाई दें। चलते चलते आईये आपको पढ़वाता हूँ इकराम साहब के कुछ चुनिंदा शेर :

चमन के पास से गुज़रो तो खुशबू लगने लगती है 
मैं हिंदी ऐसे लिखता हूँ कि उर्दू लगने लगती है 
*** 
विदा करते हैं जब माँ बाप घर से अपनी बेटी को
किसी कोने में छिप कर उस का बचपन बैठ जाता है 
*** 
काश फिर से वही दादी वही नानी आये 
लौट कर फिर से रजाई में कहानी आये 
*** 
चन्दन बना के खुद को ही पछता रहे हैं हम
सारे के सारे सांप हमीं से लिपट गए 
*** 
बताया नाम उसने राम अपना और यूँ बोला 
मैं घर का पेट भरने के लिए रावण बनाता हूँ 
***
तेरी सूरत अगर एक पल सोच ली 
ऐसा लगता है पूरी ग़ज़ल सोच ली

किताबों की दुनिया -165

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भूलना मैं चाहता तो किस क़दर आसान था 
याद रखने में तुझे, ये सारी दुश्वारी हुई 

तू अगर रूठा रहा मुझसे तो हैरत क्या करूँ 
इस जहाँ में किससे तेरी नाज़ बरदारी हुई 

सोचता हूँ एक पल में हो गया कैसे तमाम 
वो सफ़र जिसके लिए इक उम्र तैय्यारी हुई

"आधुनिकता के जोश में हमारी शायरी, ख़ास तौर पर गज़ल ने समाजी सरोकारों से जो दूरी बना ली थी उसे अपनी ग़ज़लों में इस रिश्ते को दोबारा बहाल करने का सराहनीय प्रयास इन्होने किया है "हमारे आज के शायर और उनकी शायरी के बारे में उस्ताद शायर शहरयार आगे लिखते हैं कि "हकीकत चाहे जो भी हो, शाइर और अदीब आज भी इस खुशफ़हमीमें मुब्तिला हैं कि वो अपनी रचनात्मकता के द्वारा इस दुनिया को बदसूरत होने से बचा सकते हैं और समाज में पाई जाने वाली असमानताओं को दूर कर सकते हैं, इनकी भी शायरी का एक बड़ा हिस्सा इसी खुशफ़हमी का नतीजा मालूम होता है "

ये हमनशीन मेरे खुश हैं कि ग़मज़दा हैं
मातम तो कर रहे हैं बाछें खिली हुई हैं 
हमनशीन =साथी 

देखा है तुमने ऐसा मंज़र कभी कहीं पर 
वीरान घर पड़े हैं सड़कें सजी हुई हैं 

साँसों की क़ैद में हूँ, अक्सर ये सोचता हूँ 
ये ज़िन्दगी है या फिर मुश्कें कसी हुई हैं 

अब क्या है उसके दिल में अंदाज़ा कर रहा हूँ 
आँखें चमक रही हैं पलकें झुकी हुई हैं 

शहरयार साहब जिस शायर की बात कर रहे थे वो हैं 27 मई 1957 को मेरठ में जन्में जनाब "उबैद सिद्दीक़ी", साहब जिनकी डॉल्फिन बुक्स नई दिल्ली द्वारा 2011 में प्रकाशित किताब "रंग हवा में फैल रहा है"का ज़िक्र करेंगे।उबैद साहब के बारे में जो जानकारी उनकी इस किताब और उनके फेसबुक एकाउंट से प्राप्त हुई है उसी को आपके साथ साझा कर रहा हूँ। दरअसल उबैद साहब के बारे में गूगल महोदय ने भी चुप्पी अख़्तियार कर रखी है, कारण बहुत साफ़ सा है , उबैद साहब अपने में मस्त और भीड़ से अलग रहने वाले लोगों में से हैं। शायरी वो छपवाने और प्रसारित करने के लिए नहीं करते ,शायरी उनके लिए इबादत की तरह है जो उनके और उनके आराध्य के बीच घटित होती है।


मौसम के बदलने से बदल जाता है मंज़र 
दुनिया में कोई चीज़ पुरानी नहीं होती 

उसको भी हुनर आ गया आँखों से सुखन का 
हमसे भी कोई बात ज़बानी नहीं होती 

हम भी कोई शै उससे छुपा लेते हैं अक्सर 
उसको भी कोई बात बतानी नहीं होती 

मजे की बात है कि उनके निकटतम रहने वाले लोगों भी ये पता नहीं चला की वो एक बेहतरीन शायर हैं। उन्होंने शायरी कभी शायरी करनी है ये सोच कर नहीं की। उनकी पहली ग़ज़ल सन 1969 में 'बीसवीं सदी'रिसाले में प्रकाशित हुई। उसके बाद वो कभी कभार ग़ज़लें कहते रहे और ये सिलसिला 1997 तक चला। आप यकीन नहीं करेंगे लेकिन ये सच है कि सन 1997 से सन 2009 याने 13 बरस तक उन्होंने एक भी ग़ज़ल नहीं कही। उन्हें लगने लगा था कि वो कभी दुबारा शेर नहीं कह पाएंगे क्यूंकि भरपूर कोशिशों के बावजूद उनकी तबियत शेर कहने की और अग्रसर नहीं होती थी। जो लोग शायरी करते हैं वो जानते हैं कि अच्छी ग़ज़ल दिमाग़ पर जोर देने से नहीं कही जा सकती। यही कारण है कि उबैद साहब का पहला ग़ज़ल संग्रह ,जिसकी हम बात कर रहे हैं ,उनके लेखन के आगाज़ के 25 साल बाद मंज़र-ऐ-आम पर आया है।

आग बुझी तो लोग ख़ुशी से नाचने गाने लगे 
मैंने ठंडी राख कुरेदी और शरर देखा 

इक मैं हूँ कि जिसने देखे जीते जागते लोग 
बाकी सारे सय्याहों ने एक खंडर देखा 
सय्याहों =पर्यटक 

सारी खुशियां कैसे अचानक बेमानी सी लगीं 
दिल के साथ ग़मों को जब से शीरो-शकर देखा 
शीरो-शकर =दूध और चीनी की तरह मिला हुआ

शुरुआती दौर में उबैद साहब की शायरी को संवारने में जनाब "हफ़ीज़ मेरठी"मरहूम जो उसी फैज़े-आम इंटर कॉलेज में क्लर्क थे जहाँ से उन्होंने बारहवीं क्लास तक तालीम हासिल की थी ,बहुत मदद की। हफ़ीज़ साहब मुशायरों के मकबूल शायर होने के बावजूद अदबी क़द्रो-क़ीमत की संजीदा ग़ज़ल कहते थे और शेर कहने के शास्त्र से बखूबी परिचित थे। एक और बुजुर्ग शायर जनाब "अंजुम जमाली"जो मेरठ के वाहिद अदीब और होम्योपैथ डॉक्टर भी थे से भी उबैद साहब ने शायरी की बारीकियां सीखीं। उनके क्लिनिक पर इलाहबाद से प्रकाशित उर्दू की मशहूर साहित्यिक पत्रिका "शब ख़ून"को उबैद साहब ने संजीदगी से पढ़ना शुरू किया।

दुनिया ही नहीं दिल को भी इस शहरे-हवस में 
मनमानी किसी हाल में करने नहीं देना 

महसूस नहीं होगी मसीहा की ज़रूरत 
ये ज़ख्म ही ऐसा है कि भरने नहीं देना

मुश्किल है मगर काम ये करना ही पड़ेगा 
इन्सान को इन्सान से डरने नहीं देना 

उनकी शायरी में उल्लेखनीय मोड़ तब आया जब उन्होंने ग्रेजुएशन के लिए सन 1975 में अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाख़िला लिया। वहां नौजवान शायरों और अदीबों का बहुत बड़ा हलका मौजूद था। उन नौजवानों में फ़रहत एहसास , महताब हैदर नकवी, असद बदायूँनी , जावेद हबीब ,आशुफ़्ता चंगेज़ी आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। फ़रहत एहसास साहब से दोस्ती होने के बाद ही उनको शहरयार साहब तक रसाई हासिल हुई. अलीगढ से ग्रेजुएशन के बाद उबैद साहब ने पी एच डी करने के लिए जामिया मिलिया इस्लामिया के उर्दू विभाग में दाख़िला लिया जिसके जनाब गोपी चंद नारंग विभागाध्यक्ष थे उन्हीं के निर्देशन में उन्हें मीराजी पर रिसर्च करनी थी लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। उबैद साहब ने अध्यापन के बजाय पत्रकारिता को अपना पेशा बनाने का फैसला किया और ऑल इण्डिया रेडिओ में नौकरी कर ली।

ये तो होना ही था इक दिन और ऐसा ही हुआ
ज़ुल्म जब हद से बढ़ा तो सामना करने लगे 

नींद आएगी तो ख़्वाबों के सफ़ीने लाएगी
ख़ौफ़ के मारे हुए हम रतजगा करने लगे 
सफ़ीने=नाव

दिल के मसरफ़ और भी हैं रंज करने के सिवा 
हम उसे किस काम में ये मुब्तला करने लगे 
मसरफ़=काम, व्यस्तता

ये नौकरी उन्हें रेडिओ कश्मीर ले गयी जहाँ श्रीनगर में उन्होंने छै साल गुज़ारे। श्रीनगर प्रवास के इस दौरान उन्होंने अच्छी खासी शायरी की फिर दो साल के लिए उनका ट्रांसफर लन्दन कर दिया गया। कश्मीर से लंदन ट्रांसफर के दौरान उनकी वो डायरियां जिनमें ग़ज़लें दर्ज़ थी गुम हो गयीं। इस तरह उनका बहुत कुछ लिखा मंज़र-ऐ-आम पर आने से रह गया। ऑल रेडिओ में दो साल लन्दन में गुज़ारने के बाद बी. बी. सी. वालों ने उन्हें और दो साल के वहाँ रोक लिया। जब ऑल इण्डिया रेडिओ ने उन्हें वापस इंडिया बुलाना चाहा तो वो इस्तीफ़ा दे कर लन्दन में बी.बी. सी की उर्दू सर्विस में काम करने लगे। इस दौरान उन्हें लन्दन में अक्सर होने वाले उर्दू मुशायरों और साहित्यिक गतिविधियों में हिस्सा लेने का खूब मौका मिला।

तभी तो मुस्कुराते फिर रहे हो 
तुम्हें जीने की आदत हो गयी है 

मुझे चेहरा बदलना पड़ गया है 
यहाँ सूरत ही सीरत हो गयी है 

तेरे सब चाहने वाले ख़फ़ा हैं
तुझे खुद से मोहब्बत हो गयी है 

उबैद साहब 2004 में दिल्ली वापस लौट आये और जामिया मिलिया इस्लामिया के मॉस कम्युनिकेशन रिसर्च सेंटर में प्रोफ़ेसर की हैसियत से पढ़ाने लगे। उनकी ग़ज़लों की पहली किताब "रंग हवा में फ़ैल रहा है "सबसे पहले सन 2010 में उर्दू लिपि में प्रकाशित हुई थी। एक साल बाद उसका हिंदी में जनाब रहमान मुसव्विर द्वारा लिप्यांतर किया संस्करण प्रकाशित हुआ। उबैद साहब मानते हैं कि उन साहित्य प्रेमियों का तबका बहुत बड़ा है जो उर्दू शायरी से मोहब्बत तो करते हैं लेकिन उर्दू लिपि पढ़ लिख नहीं सकते। ऐसे प्रेमियों के लिए ही है ये किताब जो दो हिस्सों में विभक्त है पहले हिस्से में वो ग़ज़लें हैं जो सन 2009 और 2010 याने लगभग एक साल के वक़्फ़े में कही गयीं और दूसरे भाग में सन 1975 से 1997 के बीच कही ग़ज़लें हैं।

अमीरे-शहर सुनता ही नहीं है 
उसे आँखें दिखा कर देखते हैं 

ये शाखें फिर भी क्या ऐसी लगेंगी 
परिंदों को उड़ा कर देखते हैं

बहुत मुमकिन है रोना सीख जाओ 
तुम्हें हंसना सिखा कर देखते हैं 

डॉ. महताब हैदर नक़वी साहब ने इस किताब की भूमिका में लिखा है कि "अपने आप में सिमटी और सिकुड़ी हुई उर्दू की आधुनिक शायरी के विपरीत उबैद की शायरी अपने अलावा बाहर की दुनिया की तरफ़ झांकती हुई भी दिखाई देती है। ये आदमी की तन्हाई के क्षणों में गाया जाने वाला ऐसा नग़्मा है जो हर उस शख्स से बात करना चाहता है जिसके पास कुछ ख़्वाब हैं और दुनिया की मृगतृष्णा में जीवन जी रहा है। सार्थक और ज़िंदा रहने वाली वही सदाबहार शायरी होती है जो इंसानी भलाई और बड़ाई के गीत गाती है तथा इसके लिए हर स्तर पर विपरीत परिस्थितियों में भी अपना पक्ष रखती है. आने वाले समय में उबैद की शायरी उनके संस्कारों एवं परम्परा से ही पहचानी जाएगी "

ये रौशनी के लिए कब जलाए जाते हैं 
यहाँ चराग़ हवा में सजाए जाते हैं 

मैं उनको देख के रोता हूँ जो सरे-महफ़िल 
हरेक बात प'बस खिलखिलाए जाते हैं 

हमारे जैसे बहुत लोग सारी दुनिया में 
न जाने किसलिए इतना सताए जाते हैं 

उबैद साहब की 131 बेजोड़ ग़ज़लों का ये संग्रह आप डॉल्फिन बुक्स ,4855-56 हरबंस स्ट्रीट अंसारी रोड दरियागंज नयी दिल्ली -110002 को पत्र लिख कर ही मंगवा सकते हैं या उबैद साहब से m_obaid_siddiqui@hotmail.comपर मेल कर के पूछ सकते हैं और सबसे बढ़िया तो ये ही रहेगा कि आप उनसे उनके मोबाईल न 9811270261पर बात कर उन्हें बधाई दें और किताब प्राप्ति का रास्ता पूछें। जनाब ज़ुबैर रज़वी साहब के इस कथन के साथ मैं आपसे विदा लेता हूँ कि "उबैद की हर ग़ज़ल समकालीन ग़ज़ल से कई क़दम आगे का सफर लगती है। बिलकुल अलग परिवेश की ग़ज़लें वर्तमान जीवन पर ऐसी ज्वलंत टिप्पणियां हैं जिनमें शाइर का स्व गहरे निरिक्षण और अनुभव की भांति कभी तहे-आब और कभी सतही-आब पर उछाल लेता नज़र आता है। "चलते चलते उनकी एक ग़ज़ल ये शेर भी पढ़वा देता हूँ :

ये नादानी मंहगी पड़ेगी तुम्हें 
घड़े फोड़ डाले घटा देख कर 

क़दम क्यों ज़मीं पर नहीं पड़ रहे 
वो आया है क्या आईना देख कर 

अजब लोग हैं इनको समझे ख़ुदा 
ख़ता कर रहे हैं सज़ा देख कर

किताबों की दुनिया - 166

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किसी तालाब की भी हैसियत कुछ कम नहीं होती
समंदर में कमल के फूल पैदा हो नहीं सकते 

उसूलों में कभी होता है इतना वज़्न जिनको हम 
ज़ियादा देर काँधों पर मुसल्सल ढो नहीं सकते 

बड़ा होने पे ये दिक्कत हमारे सामने आयी 
किसी के सामने खुलकर कभी अब रो नहीं सकते 

हमारी गैलेक्सी में जो तारे दिखाई देते हैं हम को उन्हीं का नाम पता मालूम है लेकिन हकीकत में ऐसी न जाने कितनी गैलेक्सियां हैं और अनगिनत तारे हैं जो हमें नज़र आने वाले तारों से भी बहुत अधिक चमकदार हैं, क्यूंकि वो हमें दिखाई नहीं देते इसलिए हमें उनके बारे में पता नहीं होता। हमारे आज के शायर भी ,खास तौर पर मेरे लिए , किसी दूर दराज़ की गैलेक्सी के उस तारे के समान हैं जिनका पता और चमक मेरे लिए अनजान ही थी। उनकी किताब पढ़ कर कसम से मजा आ गया।

तेरी खुशबू मुझे घेरे हुए अब तक नहीं होती 
तो काँटों से भरा अब तक मैं जंगल हो गया होता 

नहीं होता मुहब्बत के शजर की शाख से टूटा 
तो सूखा फूल इक रस से भरा फल हो गया होता 

उलझने में बहुत मश्ग़ूल थीं सुलझी हुई चीजें 
अगर मैं भी उलझ जाता तो पागल हो गया होता 

ये शायरी की ऐसी किताब है जिसमें किसी भी पेज पर या किसी भी शेर में आये मुश्किल लफ़्ज़ों के मानी उस पेज के नीचे ,जैसा की आम तौर पर दिखाई देते हैं,नज़र नहीं आये। आप सोचेंगे कि ये तो कोई अच्छी बात नहीं है ,इसका मतलब लफ़्ज़ों के मानी खोजने के लिए तो फिर लुग़त का सहारा लेना पड़ेगा ? जी नहीं ऐसी बात नहीं है। इस किताब के किसी शेर में ऐसा कोई लफ़्ज़ है ही नहीं जिसका मतलब ढूंढने के लिए आपको परेशां होना पड़े। दरअसल ये किताब न उर्दू में है और न ही हिंदी में इस किताब की ग़ज़लों की ज़बान हिन्दुस्तानी है जो सहज ही सबकी समझ में आ जाती है।मेरी नज़र में ये इस किताब की बहुत बड़ी खूबी है।

बहुत कुछ पा लिया लेकिन अधूरापन नहीं भरता
किसी से ऊब जाते हैं, किसी से मन नहीं भरता 

परिंदों, तितलियों, फूलों सभी का है कोई मक़्सद 
ख़ुदा कुदरत में रंगो-बू यूँ ही रस्मन नहीं भरता 

कभी भी लूटने वालों के आगे गिड़गिड़ाना मत 
दया की भीख से झोली कभी रहज़न नहीं भरता 

आज हम कृष्ण सुकुमार उर्फ़ कृष्ण कुमार त्यागीजिनका जन्म 15 अक्टूबर 1954 को रुड़की में हुआ था की अयन प्रकाशन द्वारा ग़ज़लों की किताब "सराबों में सफ़र करते हुए"का जिक्र करेंगे जिसमें सुकुमार साहब की अलग अंदाज़ और तेवर वाली 102 ग़ज़लों का संकलन किया गया है। मैं खुशनसीब हूँ कि सुकुमार साहब ने मुझे अपनी किताब पढ़ने को भेजी। सुकुमार साहब के बारे में हम आगे बात करेंगे ,अभी तो आप उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर पढ़ें :


कभी इक ज़ख्म दे जाता है ऐसी कैफ़ियत हमको 
हमें लगता है गोया लाज़िमी हो मुस्कुराना भी 

पड़े हैं आज भी महफूज़ फुर्सत के वो सारे पल 
कभी जिनको तेरे ही साथ चाहा था बिताना भी

सुखा देता है दरिया को किसी की प्यास का सपना 
कभी इक प्यास से मुम्किन है इक दरिया बहाना भी 

सुकुमार साहब केवल ग़ज़लें ही नहीं कहते उनके उपन्यास "इतिसिद्धम"जो 1988 में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था को "प्रेम चंद महेश "सम्मान मिल चुका है। इसके अलावा भी उनके दो उपन्यास "हम दोपाये हैं "और "आकाश मेरा भी "कहानी संग्रह "सूखे तालाब की मछलियां "एवं उजले रंग मैले रंग "के साथ साथ ग़ज़ल संग्रह "पानी की पगडण्डी"बहुत चर्चित हो चुके हैं। लेखन की लगभग सभी विधाओं में अपनी लेखनी का लोहा मनवाने वाले कृष्ण जी की रचनाएँ देश के विभिन्न प्रदेशों से प्रकाशित होने वाले सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी हैं ,छपती रहती हैं।

उसे पक्का यकीं है जो कहूंगा सच कहूंगा मैं 
मुझे अपनी इसी झूठी अदा से डर भी लगता है 

तुझे आंखों में सपनों की जगह रख कर भी सोया हूँ
मगर अपना समझने की ख़ता से डर भी लगता है 

बड़ी ही मुफ़लसी जिनके बिना महसूस होती है 
मुझे उस अपनेपन, यारी, वफ़ा से डर भी लगता है 

इस किताब की भूमिका में कृष्ण जी ने लिखा है कि "ज़िन्दगी प्यास का एक सफ़र है और यह सफ़र हमेशा किसी उम्मीद पर टिका है। एक अबूझ प्यास से सराबोर इस ज़िन्दगी और इसके एक मात्र आख़िरी सच यानी मौत के बारे में ख़्याल आते रहते हैं तो उलझन में पड़ जाता हूँ. कभी कभी प्यास खुद ही दरिया बन जाती है और कभी कभी यह सब कुछ गुम हुआ सा लगने लगता है और फिर ये प्यास बारहा मन को न जाने किन किन सराबों में भटकती रहती है। प्यास का यही सफ़र सराबों से गुज़रता रहा है- यानी प्यास बरकरार है। मरुस्थली रेत के चमकते कण पानी का भ्र्म पैदा करते हुए एक प्यासे को मुसल्सल उसी तरफ बढ़ते रहने को मज़बूर करते हैं। एक अनसुलझी और अनजानी इस सफर को अभिव्यक्ति देने के लिए ग़ज़ल से बेहतर मेरे पास कुछ भी नहीं है।

कभी शिद्दत से आती है मुझे जब याद उसकी तो 
किसी बुझते दिए जैसा ज़रा सा टिमटिमाता हूँ 

ग़ज़ल कहने की कोशिश में कभी ऐसा भी होता है 
मैं खुद को तोड़ लेता हूँ मैं खुद को फिर बनाता हूँ 

मेरी मज़बूरियां मेरे उसूलों से हैं टकराती 
जहाँ ये सर उठाना था, वहां ये सर झुकाता हूँ 

खुद को ग़ज़ल का विद्यार्थी मानने वाले सुकुमार साहब ने उस वक्त से काव्य की इस अद्भुत विधा के प्रति कशिश महसूस की जिस वक्त कि उन्हें ग़ज़ल का नाम तक नहीं पता था , बात सुनने में अजीब लग सकती है लेकिन है बिलकुल सच। ग़ज़ल के प्रति इस लगाव के चलते उन्होंने उर्दू लिखना पढ़ना सीखा और फिर अरूज़ का अध्यन किया क्यूंकि बिना छंद शास्त्र का ज्ञान प्राप्त किये ग़ज़ल नहीं कही जा सकती। ग़ज़ल की कहन संवारने में उनकी जनाब तुफैल चतुर्वेदी साहब ने बहुत मदद की। इसके अलावा ग़ज़ल लेखन की जानकारी उन्हें जनाब नासिर अली 'नदीम'और दरवेश भारती साहब द्वारा प्रकाशित लघु पत्रिका "ग़ज़ल के बहाने"के प्रत्येक अंक से मिली।

नतीजा प्यास की हद से गुज़र जाने का निकला ये 
उठीं फिर जिस तरफ नज़रें उधर दरिया निकल आया 

मज़ा आया तो फिर इतना मज़ा आया मुसीबत में 
ग़मों के साथ अपनेपन का इक रिश्ता निकल आया 

हटाई आईने से धूल की परतें पुरानी जब 
गुज़श्ता वक़्त की ख़ुश्बू का इक चेहरा निकल आया 

अंतरजाल की लगभग सभी साहित्यिक साइट पर सुकुमार साहब का कलाम आप आसानी से पढ़ सकते हैं। उर्दू की सबसे बड़ी साइट "रेख़्ता "पर भी उनकी ग़ज़लें उपलब्ब्ध हैं. उन्हें ढेरो सम्मान और पुरूस्कार प्राप्त हुए हैं जिनमें उत्तर प्रदेश अमन कमेटी, हरिद्वार द्वारा “सृजन सम्मान” 1994,साहित्यिक संस्था ”समन्वय,“ सहारनपुर द्वारा “सृजन सम्मान” 1994,मध्य प्रदेश पत्र लेखक मंच, “बैतूल द्वारा काव्य कर्ण सम्मान” 2000,साहित्यिक सँस्था "समन्वय,"सहारनपुर द्वारा “सृजन सम्मान” 2006 उल्लेखनीय हैं। सुकुमार साहब "भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान", रुड़की में बरसों कार्य करने के पश्चात् अब सेवा निवृत हो कर अपना समय लेखन में व्यतीत कर रहे हैं। .
वो मेरे साथ था दिन-रात अपने काम की खातिर 
ग़लतफ़हमी में उससे मैं कोई रिश्ता समझ बैठा 

ज़रा सी साफगोई जान की दुश्मन बनी मेरी 
उसे नंगा कहा तो वो मुझे ख़तरा समझ बैठा 

वो पत्थर बन के मेरी सम्त इस अंदाज़ से उछला 
कि जैसे टूट जाऊंगा, मुझे शीशा समझ बैठा 

इस किताब की प्राप्ति के लिए आप अयन प्रकाशन के भूपाल सूद साहब जो खुद भी शायरी की समझ रखते हैं ,से उनके मोबाईल 9818988613 पर संपर्क करें। भूपाल साहब से बात करना भी किसी दिलचस्प अनुभव से रूबरू होने जैसा है। मेरी आप सब से गुज़ारिश है की सुकुमार साहब को भी आप उनके मोबाईल न 9897336369पर बात कर इन खूबसूरत ग़ज़लों के लिए दिल से बधाई दें। आज के दौर में खरपतवार की तरह कही जा रही बेशुमार ग़ज़लों की भीड़ में सुकुमार साहब की किताब का मिलना यूँ है जैसे जैसे रेगिस्तान में नखलिस्तान का मिल जाना। कवर पेज पर बेहद खूबसूरत पेंटिंग, जिसे उनके होनहार बेटे "पराग त्यागी "ने बनाया है से सजी किताब "सराबों में सफ़र करते हुए"की सभी ग़ज़लें ऐसी हैं कि उन्हें यहाँ पढ़वाया जाय लेकिन मेरी मज़बूरी है कि मैं चाहते हुए भी ऐसा नहीं कर पाउँगा। मैंने इस किताब के पन्ने पलटते हुए रेंडम ग़ज़लों से कुछ शेर आपके लिए पेश किये हैं। आपसे विदा लेने से पहले उनकी एक और ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाता चलता हूँ :
 पिघलता एक दरिया था मगर बहता न था सचमुच
मेरी आँखों में ठहरा था मगर ठहरा न था सचमुच

मैं आड़े वक़्त बस गाहे-ब-गाहे झाँक आता था 
ख़ुदा के घर जहाँ कोई ख़ुदा रहता न था सचमुच 

हमें जिसके न होने की ग़लतफ़हमी रही अब तक 
वो केवल इक मुखौटा था, तेरा चेहरा न था सचमुच

किताबों की दुनिया -167

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धूप का जंगल, नंगे पाँवों, इक बंजारा करता क्या 
रेत के दरिया, रेत के झरने, प्यास का मारा करता क्या 

सब उसके आँगन में अपनी राम कहानी कहते थे 
बोल नहीं सकता था कुछ भी घर चौबारा करता क्या 

टूट गये जब बंधन सारे और किनारे छूट गये 
बीच भँवर में मैंने उसका नाम पुकारा करता क्या 

ग़ज़ल क्या है ? इस सवाल का जवाब हमें हमारे आज के शायर जनाब "अंसार कम्बरी"साहब की किताब "कह देना", जिसका जिक्र हम करने जा रहे हैं , में कुछ इसतरह से मिलता है "ग़ज़ल जब फ़ारस की वादियों में वजूद में आयी तब का वक्त प्रगतिशील नहीं रहा होगा।उस समय के हालात को देखते हुए कहा जा सकता है कि घोड़ों की हिनहिनाहट और तलवारों की झनझनाहट के बीच अपने मेहबूब से बात करने के लिए जो तरीका अपनाया गया उसको ग़ज़ल नाम दिया गया।ग़ज़ल ने तपते रेगिस्तानों में महबूब से बात कर ठंडक का एहसास कराया , चिलचिलाती धूप में जुल्फ़ों की छाँव सी राहत दी ,साक़ी बनकर सूखे होंठों की प्यास बुझाई, मुहब्बत के नग्मों की खुशबू बिखेरी और दिलों को सुकून पहुँचाया।


ये रेत का सफ़र है तुम तय न कर सकोगे 
चलने का अगर तुमको अभ्यास नहीं होगा 

सहरा हो, समंदर हो, इंसान हो, पत्थर हो 
कोई भी इस जहाँ में बिन प्यास नहीं होगा 

आये जो ग़म का मौसम, मायूस हो न जाना 
पतझर अगर न होगा, मधुमास नहीं होगा 

हालात बदलने के साथ-साथ ग़ज़ल के रंग भी बदलते चले गए और ज़बान भी बदलती गयी। यहाँ तक कि जैसी जरुरत वैसी बात वैसी ज़बान। ग़ज़ल दरअसल कोई नाम नहीं बल्कि बातचीत का सलीका है। इसे ज़िंदा रखने के लिए ज़बानों की नहीं सलीके को बचाये रखने की जरुरत है। ग़ज़ल कहने वालों की आज कोई कमी नहीं है लेकिन सलीके से ग़ज़ल कहने वाले बहुत कम लोग हैं। उन्हीं मुठ्ठी भर लोगों में से एक हैं 3 नवम्बर 1950 को कानपुर में पैदा हुए, जनाब अंसार कम्बरी साहब.

सारे मकान शहर में हों कांच के अगर 
पहुंचे न हाथ फिर कोई पत्थर के आसपास 

मीठी नदी बुझा न सकी जब हमारी प्यास 
फिर जा के क्या करेंगे समंदर के आसपास 

दुनिया में जो शुरू हुई महलों की दास्ताँ 
आखिर वो ख़त्म हो गयी खण्डहर के आसपास 

श्री हरी लाल 'मिलन'साहब किताब की भूमिका में अंसार साहब की शायरी के बारे में लिखते हैं कि "नवीनतम प्रयोग, आधुनिक बिम्ब विधान, यथार्थ की स्पष्टवादिता, सरल-सरस-सहज-संगमी भाषा एवं प्रत्यक्ष-समय-बोध कम्बरी की ग़ज़लों की विशेषता है "किताब के अंदरूनी फ्लैप पर मनु भारद्वाज'मनु'साहब ने लिखा है कि "अंसार साहब की फ़िक्र का दायरा इतना बड़ा है कि कहीं किसी एक रंग या सोच तक उसे सीमित रखना मुश्किल है। इस ग़ज़ल संग्रह की ग़ज़लों को पढ़ने के बाद 'मिलन'और 'मनु'साहब के ये वक्तव्य अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं लगते।

कहीं पे जिस्म कहीं सर दिखाई देता है 
गली-गली यही मंज़र दिखाई देता है 

दिखा रहे हैं वो प्यासों को ऐसी तस्वीरें 
कि जिनमें सिर्फ समन्दर दिखाई देता है

गुनाहगार नहीं हो तो ये बताओ हमें
तुम्हारी आँख में क्यों डर दिखाई देता है 

अंसार साहब को शायरी विरासत में मिली। उनके पिता स्व.जब्बार हुसैन रिज़वी साहब अपने जमाने के मशहूर शायर थे. शायरी के फ़न को संवारा उनके उस्ताद स्व.कृष्णानंद चौबे साहब ने जिनसे उनकी पहली मुलाकात सं 1972 में उद्योग निदेशालय,जहाँ दोनों मुलाज़िम थे,के होली उत्सव पर आयोजित काव्य समारोह के दौरान हुई। मुलाकातें बढ़ती गयीं और उनमें एक अटूट रिश्ता कायम हो गया। अंसारी साहब ने अपने उस्ताद चौबे साहब की रहनुमाई में पहला काव्यपाठ डा. सूर्य प्रकाश शुक्ल द्वारा आयोजित कार्यक्रम में किया और फिर उसके बाद मुड़ कर नहीं देखा।

चाँद को देख के उसको भी खिलौना समझूँ 
और फिर माँ के लिए एक खिलौना हो जाऊं

मैं तो इक आईना हूँ सच ही कहूंगा लेकिन 
तेरे ऐबों के लिए काश मैं परदा हो जाऊं 

काँटा कांटे से निकलता है जिस तरह मैं भी 
जिसपे मरता हूँ उसी ज़हर से अच्छा हो जाऊं 

अम्बरी साहब का लबोलहजा क्यों की उर्दू का था इसलिए हिंदी के काव्य मंचो पर उन्हें अपना प्रभाव जमाने में हिंदी कवियों जैसी लोकप्रियता नहीं मिल रही थी। इसका जिक्र उन्होंने चौबे जी से किया जिन्होंने उन्हें कविता से सम्बंधित बहुमूल्य सुझाव देने शुरू किये। चौबे जी के सानिद्य में उन्होंने कविता की बारीकियां सीखीं और गीत तथा दोहे लिखने लगे जिसे बहुत पसंद किया गया। "अंतस का संगीत "शीर्षक से उनका काव्य संग्रह शिल्पायन प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हो कर लोकप्रिय हो चुका है. कविता और दोहों में महारत हासिल करने के बाद कानपुर शहर के बाहर होने वाले कवि सम्मेलनों में भी आग्रह पूर्वक बुलाया जाने लगा।

कितना संदिग्ध है आपका आचरण 
रात इसकी शरण प्रातः उसकी शरण 

आप सोते हैं सत्ता की मदिरा पिए 
चाहते हैं कि होता रहे जागरण 

शब्द हमको मिले अर्थ वो ले गए 
न इधर व्याकरण न उधर व्याकरण 

आप सूरज को मुठ्ठी में दाबे हुए 
कर रहे हैं उजालों का पंजीकरण 

कानपुर के बाहर सबसे पहले उन्हें कन्नौज और उसके बाद देवबंद में हुए कविसम्मेलन के मंच पर जिसपर श्री गोपाल दास नीरज , कुंवर बैचैन और जनाब अनवर साबरी जैसे दिग्गज बिराजमान थे ,पढ़ने का मौका मिला। अपने लाजवाब सहज सरल कलाम और खूबसूरत तरन्नुम से उन्हें कामयाबी तो मिली ही साथ ही उनका हौसला भी बढ़ा। उसके बाद तो गुरुजनों शुभचिंतकों एवं मित्रों के सहयोग से वो सब मिला जिसकी अपेक्षा आमतौर पर प्रत्येक रचनाकार करता है। लखीमपुर खीरी के एक कविसम्मेलन में उनकी मुलाकात गोविन्द व्यास जी से हुई जिनके माध्यम से उन्हें अनेक प्रतिष्ठित और देश के बड़े मंचों पर काव्य पाठ का अवसर मिला जैसे "लाल किला ", "दिल्ली दूरदर्शन "सी. पी. सी आदि।

घर की देहलीज़ क़दमों से लिपटी रही 
और मंज़िल भी हमको बुलाती रही 

मौत थी जिस जगह पर वहीँ रह गयी 
ज़िन्दगी सिर्फ़ आती-औ-जाती रही 

हम तो सोते रहे ख़्वाब की गोद में
नींद रह-रह के हमको जगाती रही 

रात भर कम्बरी उनको गिनता रहा 
याद उसकी सितारे सजाती रही 

उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ द्वारा 1996 के सौहार्द पुरूस्कार एवं समय समय पर देश की अनेकानेक साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा पुरुस्कृत और सम्मानित कम्बरी साहब के श्रोताओं में पूर्व राष्ट्रपति माननीय ज्ञानी जैल सिंह ,पूर्व प्रधान मंत्री मा.वी.पी.सिंह ,मा.अटल बिहारी बाजपेयी, मा. शिवकुमार पाटिल, मा. मदन लाल खुराना, मा.सुश्री गिरिजा व्यास , मा. राजमाता सिंधिया इत्यादि जैसी न जाने कितनी महान विभूतियाँ शामिल हैं। उनके प्रशंसकों की संख्या में रोज बढ़ोतरी होती रहती है क्यूंकि उनकी रचनाएँ क्लिष्ट नहीं हैं और गंगा जमुनी संस्कृति की नुमाइंदगी करती हैं।

खुद को पहचानना हुआ मुश्किल 
सामने आ गए जो दर्पण के 

नाचने की कला नहीं आती 
दोष बतला रहे हैं आँगन के 

आप पत्थर के हो गए जब से 
थाल सजने लगे हैं पूजन के

"कह देना"कम्बरी साहब का पहला ग़ज़ल संग्रह है जिसमें उनकी 112 ग़ज़लें संगृहीत हैं। इस किताब को 'मांडवी प्रकाशन', 88, रोगनगरान,दिल्ली गेट, ग़ाज़ियाबाद ने सं 2015 में प्रकाशित किया था। 'कह देना'की प्राप्ति के लिए आप मांडवी प्रकाशन को mandavi.prkashan@gmail.comपर मेल कर के या 9810077830पर फोन करके मंगवा सकते हैं। इन खूबसूरत ग़ज़लों के लिए अगर आप कम्बरी साहब को उनके मोबाईल न.9450938689पर फोन करके या ansarqumbari@gmail.comपर मेल करके बधाई देंगे तो यकीनन उन्हें बहुत अच्छा लगेगा। आखिर में कम्बरी साहब की ग़ज़लों के कुछ चुनिंदा शेर आपको पढ़वा कर निकलता हूँ अगली किताब की तलाश में : 

आ गया फागुन मेरे कमरे के रौशनदान में 
चंद गौरय्यों के जोड़े घर बसाने आ गए 
 *** 
मौत के डर से नाहक परेशान हैं 
आप ज़िंदा कहाँ हैं जो मर जायेंगे 
*** 
कुछ भी नहीं मिलेगा अगर छोड़ दी ज़मीं 
ख़्वाबों का आसमान घड़ी दो घड़ी का है
*** 
रेत भी प्यासी, खेत भी प्यासे, होंठ भी प्यासे देखे जब 
दरिया प्यासों तक जा पहुंचा और समन्दर भूल गया 
*** 
मस्जिद में पुजारी हो तो मंदिर में नमाज़ी 
हो किस तरह ये फेर-बदल सोच रहा हूँ 
*** 
क़ातिल है कौन इसका मुझे कुछ पता नहीं 
 मैं फंस गया हूँ लाश से खंजर निकाल कर
 *** 
दीन ही दीन हो और दुनिया न हो 
कोई मतलब नहीं ऐसे संन्यास का
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