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किताबों की दुनिया -160

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(ये मेरे ब्लॉग की चारसौ वीं (400th) पोस्ट है)

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अपना हर अंदाज़ आँखों को तरोताज़ा लगा
कितने दिन के बाद मुझको आईना अच्छा लगा

सारा आराईश का सामां मेज़ पर सोता रहा
और चेहरा जगमगाता जागता, हँसता लगा
आराईश :सजावट

मलगजे कपड़ों पे उस दिन किस ग़ज़ब की आब थी
सारे दिन का काम उस दिन किस क़दर हल्का लगा

मैं तो अपने आपको उस दिन बहुत अच्छी लगी
वो जो थक कर देर से आया उसे कैसा लगा

आदाब !! मैं ही इन अशआर की शायरा हूँ और आज मैं अपनी बात आपसे खुद करने वाली हूँ, चूँकि मुझे हिंदी लिखनी नहीं आती इसलिए टाइपिंग के लिए नीरज की मदद ले रही हूँ। नीरज ने बहुत से मशहूर और अनजान शायरों का तआर्रुफ़ आपसे करवाया है अब इस सिलसिले को आगे बढ़ाने के इरादे से जब उन्होंने मेरी किताब  उठाई तो मैंने कहा आप ज़हमत मत कीजिये और मुझे खुद अपनी बात ख़ुद कहने दीजिये क्यूंकि आप अतिरेक से काम लेंगे और ये बात मुझे गवारा नहीं होगी। मुझे नहीं पता कि जो मैं कह रही हूँ नीरज वही सब लिख रहे हैं क्योंकि मुझे हिंदी पढ़नी भी नहीं आती लेकिन मुझे नीरज की ईमानदारी पर पूरा भरोसा है,आगे अल्लाह जाने।

हर ख़ार इनायत था हर संग सिला था
उस राह में हर ज़ख़्म हमें राहनुमा था
राहनुमा : पथ प्रदर्शक

उन आँखों से क्यों सुबह का सूरज है गुरेज़ाँ
जिन आँखों ने रातों में सितारों को चुना था
गुरेज़ाँ =बचना 

क्यों घिर के अब आये हैं ये बादल ये घटायें 
हमने तो तुझे देर हुई याद किया था 

आप सोचते होंगे कि मैं हूँ कौन ,बताती हूँ, बताने के लिए ही तो आपसे गुफ़्तगू कर रही हूँ लेकिन पहले मैं खुद तो ये तय करूँ कि मैं हिंदुस्तानी हूँ या पाकिस्तानी क्यूंकि मैं पैदा तो 14 मई 1937में दख्खन हैदराबाद में हुई जो हिंदुस्तान में है और जब पैदाइश के 10 साल बाद देश का बंटवारा हुआ तो मेरा परिवार कराँची चला गया जो पाकिस्तान में है। तो यूँ समझें कि मैं पैदाइशी हिंदुस्तानी हूँ लेकिन निवासी पाकिस्तान की हूँ। मुझ पर भले ही पाकिस्तानी नागरिक होने का ठप्पा लगा है लेकिन मैं हक़ीक़त में इस खूबसूरत दुनिया की निवासी हूँ। इस दुनिया के हर इक कोने में रहने वाले लोग मेरे अपने हैं ,उनके दुःख दर्द तकलीफ़ें परेशानियां खुशियाँ सब मेरी हैं। मैं सोचती हूँ शायर का कोई वतन नहीं होता ,पूरी दुनिया उसकी होती है। मैंने दुनिया में होने वाली हर अच्छी बुरी घटनाओं पर अपनी कलम चलाई है.

जुदाईयां तो ये माना बड़ी क़यामत हैं
रफ़ाक़तों में भी दुःख किस क़दर हैं क्या कहिये
रफ़ाक़त: दोस्ती

हिकायते-ग़मे-दुनिया तवील थी कह दी
हिकायते-ग़मे-दिल मुख़्तसर है क्या कहिये
हिकायते-हमे- दुनिया :सांसारिक दुखों की कहानी, तवील : लम्बी , हिकायते-ग़मे-दिल : दिल के दुखों की कहानी

मजाले-दीद नहीं हसरते-नज़ारा ही सही
ये सिलसिला भी बहुत मोतबर है क्या कहिये
मजाले-दीद : देखने का साहस , हसरते-नज़ारा : देखने की इच्छा , मोतबर : विश्वसनीय

मेरा नाम "ज़ोहरा निगाह"है , शायद आपमें से बहुतों ने मेरा नाम नहीं सुना होगा मैं वैसे भी अब बहुत पुरानी हो चुकी हूँ आज के दौर में जहाँ लोग कल की बात भूल जाते हैं वहां मुझ जैसी नाचीज़ को याद रखना मुमकिन भी नहीं है। मेरे पिता सिविल सर्वेंट थे और उनका साहित्य, खास तौर से काव्य से गहरा लगाव था। हमारा परिवार प्रगतिशील विचारधारा वाला बुद्धि जीवियों का परिवार है। मेरी बड़ी बहन सुरैय्या बाजी बहुत प्रसिद्ध लेखिका थीं उनके लिखे नाटक बहुत चर्चित हुए ,मेरा बड़ा भाई अनवर मसूद पाकिस्तानी टीवी का एक जाना पहचाना नाम है ,उसे शायद आप लोगों ने जरूर देखा सुना होगा। मेरा छोटा भाई अहमद मसूद सरकारी महकमे में बहुत ऊँचे ओहदे पर रहा। मेरी शादी माजिद अली से हुई जो सिविल सर्वेंट थे और जिनकी रूचि सूफी काव्य में है। ये तो हुई मेरे परिवार की बात, अब बात करती हूँ पहले अपनी शायरी की और साथ साथ अपनी पहली किताब "शाम का पहला तारा "की जिस पर नीरज लिखने वाले थे लेकिन मेरे कहने पर जो अब सिर्फ टाइपिंग का काम कर रहे हैं :


ये क्या सितम है कोई रंगो-बू न पहचाने 
बहार में भी रहे बंद तेरे मैख़ाने 

तिरि निगाह की जुम्बिश में अब भी शामिल हैं 
मिरि हयात के कुछ मुख़्तसर से अफ़साने 

जो सुन सको तो ये दास्ताँ तुम्हारी है 
हज़ार बार जताया मगर नहीं माने 

शायरी मैंने 10-11साल की उम्र से ही शुरू कर दी थी। मेरी माँ ने, जिन्होंने मेरे वालिद के 1949 में दुनिया ऐ फ़ानी से रुखसत होने के बाद हम चारों भाई बहनों की बड़ी हिम्मत से परवरिश की और किसी बात की कमी नहीं महसूस होने दी थी , मेरी बहुत हौसला अफ़ज़ाही की। सबसे पहले मैंने अपने स्कूल की प्रिंसिपल के लन्दन तबादले पर नज़्म कही थी जिसे सुन कर मेरी एक टीचर ने मेरा नाम शहर में होने वाले ख़्वातीनो के मुशायरे में भेज दिया। लगभग 12-13 बरस की उम्र में मैंने अपना पहला मुशायरा पढ़ा। उस वक्त लड़कियों के ग़ज़ल लिखने को अच्छी बात नहीं माना जाता था क्यूंकि तब ग़ज़लें अधिकतर तवायफ़ें कहा करती थीं। मुझसे पहले मुझसे 13 साल बड़ी"अदा ज़ाफ़री"ही ग़ज़लें कहा करती थीं। खैर !! एक बार हुआ यूँ कि 1953 - 54 में जब मैं महज़ 16 -17 बरस की थी , हिंदुस्तान में होने वाले वाले डी सी एम् के मुशायरे में शिरकत करने के लिए मुझे दिल्ली से बुलावा आया। मैं डरते डरते गयी। मुशायरा के.एन.काटजू साहब की सदारत में हुआ जिसमें जिगर मुरादाबादी , फ़िराक़ गोरखपुरी, सरदार ज़ाफ़री , मज़रूह सुल्तानपुरी और कैफ़ी आज़मी जैसे कद्दावर शायरों ने शिरकत की थी. काटजू साहब को मेरी शायरी बहुत पसंद आयी और उन्होंने इसका जिक्र अगले दिन पंडित जवाहर लाल जी से किया। पंडित नेहरू ने मुझे सुनने की इच्छा ज़ाहिर की। अगले दिन रात दस बजे सब कामों से फ़ारिग हो कर पंडित नेहरू काटजू साहब के यहाँ तशरीफ़ लाये और मुझे एक घंटे तक बैठ कर सुना। किसी शायरा के लिए इस से बढ़ कर ख़ुशी की बात और क्या हो सकती है? आज के दौर में ये बात एक सपना लगती है .बताइये आज किस वज़ीर-ऐ-आज़म के पास इस काम के लिए इतनी फ़ुरसत है ?

नहीं नहीं हमें अब तेरी जुस्तजू भी नहीं 
तुझे भी भूल गए हम तिरि ख़ुशी के लिए 

कहाँ के इश्को-मुहब्बत किधर के हिज्रो विसाल 
अभी तो लोग तरसते हैं ज़िन्दगी के लिए 

जहाने-नौ का तसव्वुर, हयाते नौ का ख्याल 
बड़े फ़रेब दिए तुमने बंदगी के लिए 

मैं खुशकिस्मत हूँ कि मुझे जिगर साहब और फैज़ अहमद फैज़ साहब जैसे शायरों की कुर्बत हासिल हुई। जिगर साहब जब कभी भी पाकिस्तान आ कर मुझसे मिलते तो 10 रु बतौर ईनाम अता किया करते। वो तरन्नुम के बादशाह थे और कहा करते थे कि तरन्नुम कभी लफ़्ज़ों पर हावी नहीं होना चाहिए। फैज़ साहब कहते थे कि लफ्ज़ का इस्तेमाल शायरी की सबसे अहम् बात होती है। लफ्ज़ तो वो ही होते हैं जिसे हम एक दूसरे से बात करने में बरतते हैं शायर उन्ही लफ़्ज़ों को आगे पीछे कर अपनी शायरी में इस तरह मोती सा पिरो देता है कि वो जगमगाने लगते हैं और उनके अलग ही मआनी निकल आते हैं। जिसने ये हुनर सीख लिया वही कामयाब शायर होता है।

खूब है साहिबे महफ़िल की अदा
कोई बोला तो बुरा मान गए 

उस जगह अक्ल ने धोके खाये 
जिस जगह दिल तेरे फ़रमान गए 

तेरी एक एक अदा पहचानी 
अपनी एक-एक ख़ता मान गए 

कोई धड़कन है न आंसू न उमंग 
वक़्त के साथ ये तूफ़ान गए 

अक्सर लोग मुझसे पूछते हैं कि आप सं 1950 से लिख रही हैं और अभी तक आपके कुल जमा 3 मजमुए पहला "शाम का पहला तारा "दूसरा "वर्क"और तीसरा "फ़िराक़"ही शाया हुए हैं, ऐसा क्यों ? तो मैं कहती हूँ कि ये ही बहुत हैं। शायरी क्या है ?कुछ तो नेचर की तरफ़ से आपको गिफ़्ट है कि आप अल्फ़ाज़ की तुकबंदी कर लेते हैं ,उसमें वज़्न पैदा कर लेते हैं और उसके बाद आप उसको जोड़ लेते हैं। आप समझते हैं कि आपने कुछ लिखा है जिसमें तरन्नुम है एक मीटर है अगर ये काम आपको आता है तो फिर ये काम आपके लिए बहुत आसान है आप जब चाहें जितना चाहें लिख सकते हैं लेकिन सवाल ये है कि सबसे बड़ा नक्काद मैं समझती हूँ कि शायर खुद होता है इसलिए कि वो अपने शेर को खुद जांचता है परखता है कि ये शेर उसने अच्छा कहा है उसके दिल को लगा है या उसने कोई भर्ती के लफ्ज़ उसमें डाल दिए हैं इस तरह से उसकी कतर ब्योंत जो होती है न वो बहुत ज्यादा करनी पड़ती है और जो ऐसा करता है वोही बड़ा शायर बन पाता है। जिगर साहब, फ़िराक़ साहब, फ़ैज़ साहब को यही सब करते मैंने देखा है. ये सब अपने अशआर के साथ मेहनत करते थे। ज्यादा लिखना जरूरी नहीं होता ज्यादा पढ़ना जरूरी होता हैमैं भी पढ़ती हूँ खूब पढ़ती हूँ और चाहती हूँ कि लिखने से पहले आप दूसरों को पढ़ने की आदत डालें।

वक़्त की फ़ज़ाओं पर कौन हो सका हाकिम 
कितने चाँद चमके थे कितने चाँद गहनाये 

इशरते-मोहब्बत के ज़ख़्म रह गए बाक़ी 
तल्ख़ि-ऐ-ज़माना को कोई कैसे समझाये 
इशरते-मोहब्बत =प्रेम का सुख 

मंज़िलो ! कहाँ हो तुम आओ अब क़दम चूमो 
आज हम ज़माने को साथ अपने ले आये 

आप ज़िन्दगी में कोई पेशा इख़्तियार कर लें चित्रकार बनें, संगीतकार बनें, डाक्टर, इंजिनियर, वक़ील या सरकारी मुलाज़िम बनें अगर आप थोड़ा बहुत अपने क्लासिक के साथ दिलचस्पी रखते हैं तो वो आपको तहज़ीब के संवारने में मदद देती है। फैज़ साहब कहते थे कि अच्छे अदब की एक निशानी ये भी है कि उसमें अपने पिछले ज़माने की इको जिसे सदाए बाज़गश्त कहते हैं आनी चाहिए। मैं फुर्सत के लम्हों में पुराना क्लासिकल साहित्य पढ़ती हूँ ,और ऐसा करना मुझे अच्छा लगता है।

बैठे बैठे कैसा दिल घबरा जाता है 
जाने वालों का जाना याद आ जाता है 

दफ्तर मन्सब दोनों ज़हन को खा लेते हैं 
घर वालों की किस्मत में तन रह जाता है
मन्सब =ओहदा 

अब इस घर की आबादी मेहमानों पर है 
कोई आ जाए तो वक्त गुजर जाता है 

हज़ारों बातें हैं जो आपसे करने को दिल कर रहा है लेकिन नीरज की लगातार टाइप करती उँगलियाँ थक कर मुझे चुप रहने का इशारा कर रही हैं। आपको ये बता दूँ कि ये किताब जिसमें मेरी लगभग 40 ग़ज़लें और उतनी ही नज़्में हैं को राधाकृष्ण प्रकाशन दिल्ली ने सन 2010 में शाया किया था, इसे आप अमेजनसे आन लाइन मंगवा सकते हैं । मेरे पास तो इसकी कोई प्रति भी नहीं है।
मुझे अनेक देशों में शायरी पढ़ने का मौका मिला है लेकिन मेरा मन हमेशा हिंदुस्तान आ कर अपनी शायरी सुनाने को करता है।यूँ तो मुझे पाकिस्तान के प्रेजिडेंट के हाथों "प्राइड ऑफ परफॉरमेंस"अवार्ड मिल चुका लेकिन मेरा सबसे बड़ा अवार्ड मेरी शायरी के चाहने वाले प्रसंशकों की बेपनाह मोहब्बत है। अब मैं चलती हूँ और नीरज से गुज़ारिश करती हूँ कि मेरी एक ग़ज़ल के चंद शेर आप तक पहुंचा कर आराम करें। इंशाअल्लाह फिर मिलेंगे -ख़ुदा हाफिज !!

ये उदासी ये फैलते साए 
हम तुझे याद करके पछताए 

मिल गया सुकूँ निगाहों को 
की तमन्ना तो अश्क भर आये 

हम जो पहुंचे तो रहगुज़र ही न थी 
तुम जो आये तो मंज़िलें लाये 

 ( दोस्तों ज़ोहरा निग़ाह साहिबा तो चली गयीं लेकिन मेरी इल्तिज़ा है कि अगर वक्त मिले तो उनकी 3 नज़्में एक जिसमें कोख़ ही मार दी गयी लड़की की पुकार है "मैं बच गयी माँ ", दूसरी में बांग्ला देश में फौजियों द्वारा किये गए रेप का जिक्र है "भेजो नबी जी बरकतें "और तीसरी जिसमें युद्ध के बाद बर्बाद हुए अफगानिस्तान के बच्चे का जिक्र है "कागज़ के जहाज "यू ट्यूब पर सुनें और देखें कि कैसे बेहद साधारण लफ्ज़ ऐसी इमेजरी पेश करते हैं कि आँखें भर आती हैं। ज़ोहरा जी ने तो इस किताब में छपी ग़ज़लों में से कुछ के शेर आप तक पहुंचाए , मैं आपको उनके कुछ फुटकर शेर पढ़वा कर विदा लेता हूँ और निकलता हूँ अगली किताब की तलाश में :

 भूले अगर तुझे तो कहाँ जाएँ क्या करें 
हर रहगुजर में तेरे गुजरने का हुस्न है 
*** 
उसने आहिस्ता से ज़ोहरा कह दिया, दिल खिल उठा 
आज से इस नाम की खुशबू में बस जायेंगे हम 
*** 
कड़े सफर में मुझको छोड़ देने वाला हमसफ़र 
बिछड़ते वक़्त अपने साथ सारी धूप ले गया
*** 
कब तक जां को ख़ाक करोगे कितने अश्क़ बहाओगे 
इतने महँगे दामों आख़िर कितना क़र्ज़ चुकाओगे
*** 
तुमने बात कह डाली कोई भी न पहचाना
हमने बात सोची थी बन गए हैं अफ़साने
*** 
यही मत समझना तुम्हीं ज़िन्दगी हो 
 बहुत दिन अकेले भी हमने गुज़ारे 
*** 
कौन जाने तिरा अंदाज़े-नज़र क्या हो जाए 
दिल धड़कता है तो दुनिया को ख़बर होती है )

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