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किताबों की दुनिया -163

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ग़ज़ल ऐसी कि ग़ज़लें सिर धुनें बेसाख़्ता उसपे 
कि जब कहना नयी कहना हरी ताज़ी ग़ज़ल कहना 

ग़ज़ल कहनी है बस इस वास्ते कहना नहीं ग़ज़लें
कोई इक बात कहनी हो अगर साथी ग़ज़ल कहना 

जुबां ऐसी कि जैसे बोलते हैं बोलने वाले 
अदा ऐसी कि जैसे वो चले, वैसी ग़ज़ल कहना 

अगर आप ईमानदारी से देखें तो आजकल अधिकतर ग़ज़लें चाहे वो सोशल मिडिया के माध्यम से सामने आएं या प्रिंट मिडिया के, ऐसी कही जा रही हैं जो ऊपर दिए शेरों के ठीक विपरीत हैं। सीधे शब्दों में कहूं तो ग़ज़लें या तो बरसों से बयां किये जा रहे विषयों की जुगाली करती नज़र आती हैं या ग़ज़ल कहनी है ये सोच कर कही जाती हैं या फिर क्लिष्ट भाषा और उलझे विचारों से पाठक को चौंकाती नज़र आती हैं.बहुत कम ऐसी ग़ज़लें नज़र आती हैं जिन्हें सुन या पढ़ कर बेसाख्ता मुंह से वाह निकल जाय। एक बात तो स्पष्ट है कि इस से पहले इतनी तादाद में ग़ज़लें नहीं कही जा रही थीं। सोशल मिडिया था नहीं और प्रिंट मिडिया भी आसानी से सबको उपलब्ध नहीं था। अब आज का ये दौर ग़ज़ल के लिए अच्छा है या बुरा बहस का विषय हो सकता है।

मुल्क तो दिखता नहीं है मुल्क में यारों कहीं 
दिख रही लेकिन है उसकी राजधानी हर तरफ 

सोचता हूँ नस्लेनौ कल क्या पढ़ेगी ढूंढकर 
पानियों पर लिख रही दुनिया कहानी हर तरफ

उग रहे हैं सिर्फ़ कांटे, सिर्फ कांटे शाख में 
आंय ! कैसी हो रही है बागवानी हर तरफ

ग़ज़ल अब महबूब से बातें करने ,उसके रूप का वर्णन करने और उसकी बेवफाई पर आंसू बहाने जैसे विषयों को कब का पीछे छोड़ छाड़ कर इंसान के दुःख सुख और सामाजिक बुराइयों का पर्दाफाश करने की और मुड़ गयी है। ग़ज़ल की सशक्त विधा का प्रयोग अब इंसान और उसके द्वारा बनाये समाज को आइना दिखाने और कमियों पर चोट करने में किया जाने लगा है। दुष्यंत कुमार से पहले भी ग़ज़ल चोट तो करती थी पर शायद इतने धारदार तरीके से नहीं। दुष्यंत के बाद बहुत से शायरों ने इस विधा को हथियार की तरह इस्तेमाल किया ,अदम गौंडवी साहब का नाम इस फेहरिश्त में काफी ऊपर आता है। हमारे आज के शायर भी अदम साहब की परम्परा के ही हैं।

भूख जब वे गाँव की पूरे वतन तक ले गए 
मामला हम भी ये फिर शेरो-सुख़न तक ले गए 

आग भी हैरान थी शायद ये तेवर देख कर 
जब उसे तहज़ीबदां घर की दुल्हन तक ले गए 

हम पिलाते रह गए अपना लहू हर लफ्ज़ को 
और वे बेअदबियां सत्तासदन तक ले गए 

दर असल हमारे आज के शायर जनाब नूर मुहम्मद 'नूर'जिनकी किताब "सफर कठिन है "का जिक्र हम करने जा रहे हैं ,की ग़ज़लों को पढ़ना हिंदुस्तान के समकालीन सफर को पढ़ना है। हिंदुस्तान का समकालीन सफर बहुत कठिन रहा है और इस किताब में संकलित ग़ज़लों का सफर भी। "सफर कठिन है"की ग़ज़लों को पढ़ते हुए हम कई बार सफर में पेश आयी अपनी कठिनाइयों को भी पहचानने का हौसला हासिल करते हैं। इस किताब की ग़ज़लें आम इंसान के दुःख दर्द ,राजनीती और हमारे समाज में घर कर गयी बुराइयों की और इंगित करती हैं और साथ ही हमें इनसे निपटने का हौसला भी देती हैं : 


उधर इस्लाम ख़तरे में, इधर है राम ख़तरे में 
मगर मैं क्या करूँ है मेरी सुबहो-शाम खतरे में 

ये क्या से क्या बना डाला है हमने मुल्क को अपने 
कहीं हैरी, कहीं हामिद, कहीं हरनाम ख़तरे में 

न बोलो सच जियादा 'नूर'वर्ना लोग देखेंगे 
तुम्हारी जान-जोखिम में तुम्हारा नाम खतरे में 

नूर साहब का जन्म 17 अगस्त 1954 में गाँव महासन, जिला –देवरिया (आजकल कुशीनगर) उत्तर प्रदेश में हुआ था.प्रारंभिक शिक्षा कुशीनगर में पूरी करने के बाद वो कलकत्ता आ गए जहाँ उन्होंने कलकत्ता यूनिवर्सिटी से स्नातक की डिग्री हासिल की। इसके बाद दक्षिण-पूर्व रेलवे मुख्यालय के दावा विधि विभाग में नौकरी की और 2014 में सेवा मुक्त हो कर कलकत्ता में रहने के बजाये अपने गाँव वापस लौट गए और अब वहीँ इन दिनों स्वतंत्र लेखन कार्य कर रहे हैं।

हरा भरा है अजब हौसला मगर उनका 
गो अब भी धूप के साये में है सफर उनका 

अभी न दर है न दीवार है न घर है अभी 
अभी ख़्याल है ,पौधा है ,घर का घर उनका 

है लब पे गाँव किसी गीत की तरह अब भी 
तो मौसिक़ी की तरह पाँव में शहर उनका 

नूर मुहम्मद नूर हिंदी, उर्दू , अरबी, बांग्ला के साथ –साथ अंग्रेजी में भी समान अधिकार रखते हैं और लिखते हैं |कविता, ग़ज़ल और कहानी-तीनों विधाओं पर उनकी बराबर की पकड़ है । अपनी मातृ भाषा भोजपुरी में भी वो खूब लिखते हैं। हंस, कथादेश, वर्तमान साहित्य, अक्षर पर्व समेत देश की तमाम पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं लगातार प्रकाशित होती रही हैं, होती रहती हैं। नूर मुहम्मद 'नूर'का एक कविता संग्रह 'ताकि खिलखिलाती रहे पृथ्वी', दो ग़ज़ल संग्रह-'दूर तक सहराओं में'और 'सफ़र कठिन है'प्रकाशित हो चुकी है। एक कहानी संग्रह 'आवाज़ का चेहरा'भी छप चुका है।

जिस तरह सहरा में पानी ढूंढते हैं तिश्नालब 
दोस्तों के बीच रह कर दोस्ताना ढूंढना 

आदमी में आदमियत और खुशबू फूल में
हो सके तो शहर में अब ये खज़ाना ढूंढना 

शेर कहना अब अदब के वास्ते ऐसा लगे
जैसे गूंगों के लिए कोई तराना ढूंढना 

नूर साहब की शख्सियत किसी भी गाँव के आम सीधे सादे इंसान की सी है। लम्बे बाल ,गहरी काली आँखों पर लगा मोटे फ्रेम का चश्मा और होंठों पर मुस्कराहट उनके फक्कड़ अंदाज़ से बहुत मेल खाती है। कुछ कुछ वामपंथी विचारधारा से प्रभावित उनकी शायरी में सामाजिक सरोकार उभर कर सामने आते हैं। वो पिछले चार दशकों से ग़ज़ल कह रहे हैं। "सफर कठिन है "को उनकी ग़ज़लों का प्रतिनिधि संग्रह कहा जा सकता है। प्रतिनिधि इस अर्थ में कि इस संग्रह से नूर की ग़ज़लों का मिज़ाज़ पाठकों के सामने खुलता है।

सुब्ह का चावल नहीं है रात का आटा नहीं
किसने ऐसा वक़्त मेरे गाँव में काटा नहीं 

शोर है कमियों ही कमियों का हरइक लम्हा यहाँ 
मेरे घर में आजकल कोई भी सन्नाटा नहीं 

वक़्तेबद, यारे अदब, हुस्ने ग़ज़ब, ऐ मेरे रब 
किसने मेरे मुंह पे मारा खींच कर चांटा नहीं 

दर्दोग़म है भूख है पीड़ा है चोटें और दुक्ख 
इस नदी में ज्वार तो आया मगर भाटा नहीं 

नूर साहब खूब लिखते हैं ग़ज़ल के अलावा उनकी नज़्मों का रेंज भी बहुत विशाल है। उनकी नज़्में उनके फेसबुक की वाल पर पढ़ी जा सकती हैं। छोटी छोटी नज़्मों की मारक क्षमता बेमिसाल है। किताब के अंतिम पृष्ठ पर उनकी ग़ज़लों के बारे में लिखा है कि "बारिश में जले मकान की जलन नूर की ग़ज़ल में है तो गंभीर पीड़ाओं के साथ साथ जंगल-बस्ती में घूमने का एहसास भी एक और जो संभाल कर रखा था गाँठ में उसे भी रहनुमाई और बन्दानवाज़ी के जरिये लुट जाने की हाय हाय इन ग़ज़लों में है तो शब्द से सुन्दर पहचान नहीं सुन्दर हिंदुस्तान की तमन्ना भी है। "

आपको तो आयतें या सिर्फ मंतर चाहिए 
यानी कि मशहूरियत ज्यादा भयंकर चाहिए 

रोटियां तालीम बच्चों को मिले या मत मिले 
उनका कहना है कि मस्जिद और मंदिर चाहिए 

रूप से व्यवहार से चाहे असुंदर लोग हों 
ज़ोर है इस बात पे कि शहर सुन्दर चाहिए 

ग़ज़ल को हिंदी और उर्दू के खेमों में बांटे वालों को नूर साहब की ग़ज़लें पढ़ कर सीखना चाहिए कि कैसे इन दोनों भाषाओँ के समन्वय से कहन में ख़ूबसूरती पैदा की जा सकती है। इन ग़ज़लों की भाषा अलंकृत भले न हो लेकिन खालिस हिंदुस्तानी है जो सीधे दिल पे दस्तक देती है। इस संग्रह की लगभग सभी सभी ग़ज़लें बेहद सीधी सादी बोलचाल की भाषा में कही गयी हैं। किसी किसी ग़ज़ल के रदीफ़ तो चौंकाने वाले हैं जिनमें ताज़गी है। ऐसे अलग से रदीफ़ वाले कुछ शेर मैं आपको आखिर में पढ़वाऊंगा, अभी तो उनकी एक ग़ज़ल में हिंदी-उर्दू भाषा का समन्वय देखिये :

क्या पूछो तुम हाल हमारा, घट घट के बंजारे हम 
घूम रहे हैं जंगल-बस्ती पीड़ाएँ गंभीर लिए 

ख़ाली-ख़ाली बर्तन लेकर पनघट-पनघट, लोग फिरें 
मन में विपदाओं की हलचल नयन कटोरे नीर लिए 

मरने वाले क़दम-क़दम पर रोज़ रोज़ ही मरते हैं 
जीने वाले जी जाते हैं आहों में तासीर लिए

 "सफर कठिन है "किताब जिसमें नूर साहब की लगभग 156 ग़ज़लें संग्रहित हैं को प्रतिश्रुति प्रकाशन 7 ऐ ,बेंटिक स्ट्रीट कोलकाता ने सं 2014 में प्रकाशित किया है। आप इस पेपर बैक किताब की प्राप्ति के लिए या तो प्रकाशक से 03322622499 पर फोन करें या mail.prkashan@gmail.comपर मेल करें साथ ही साथ नूर साहब को इस लाजवाब ग़ज़ल संग्रह के लिए 09433203786 अथवा 08334888146 पर फोन करें या उन्हें noorluckynoor@gmail.comपर मेल कर बधाई दें। यकीन माने इस संग्रह की ग़ज़लें आपके दिलो-दिमाग पर छा जाएँगी।
आखिर में आपको पढ़वाता हूँ नूर साहब के कुछ फुटकर शेर जो अपनी कहन और रदीफ़ के कारण देर तक याद रहेंगे :

वो रह रहा है बड़े ठाठ से जो बेघर था 
उसे ईनाम मिला बस्तियां जलाने का 
*** 
अब कोई क़ातिल कोई मुजरिम न बख़्शा जाएगा 
आपने क्या खूब फ़रमाया, बधाई ! हाय-हाय 
*** 
तोड़ देती है जो तटबंधों को बांधों को हमेश 
सच अगर पूछो तो मुझको वो नदी अच्छी लगी
 ***
फ़िक्र बिल्ली की तरह 'नूर'झपट्टा मारे 
चैन चिड़िया की तरह फुर्र से उड़ जाता है 
*** 
कभी डरता था घर की चिठ्ठियों से 
कि अब अख़बार से डर लग रहा है 
*** 
अब यही इस दौर के इंसान की पहचान है 
धड़ ही धड़ होते हैं खाली ,सर नहीं होते मियां 
*** 
फूल-पत्ते, चाँद, मौसम, शब, सुराही, औरतें 
अब कहीं अलफ़ाज़ में पत्थर नहीं होते मियां 
***
खूब हँसता हूँ देर तक उस पर 
वो समझता है आदमी मुझको 
*** 
मैं बड़ी देर तक रहा मसरूफ़ 
वो बड़ी देर तक दिखी मुझको 
*** 
औंधा पड़ा हुआ है हरइक मोर्चे पे मुल्क 
पर झंडे उड़ रहे हैं ग़ज़ब आसमान में 
*** 
घुटन कैसी गिला कैसा हुए जो बंद दरवाज़े 
मेरे ख़्वाबों में खुलती है अभी भी खिड़कियां सौ-सौ 
*** 
न्याय सामाजिक, दलित उत्थान, धरम निरपेक्षता 
पक चुके हैं कान सुन-सुनकर मियाँ ,रस्ता पकड़

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