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किताबों कि दुनिया -89


मिरी ज़िन्दगी किसी और की, मेरे नाम का कोई और है
मिरा अक्स है सर-ए-आईना, पसे -ए -आईना कोई और है

न गए दिनों कि ख़बर मिरी, न शरीके हाल नज़र तिरी
तिरे देश में, मिरे भेष में कोई और था कोई और है  

न मकाम का, न पड़ाव का, ये हयात नाम बहाव का
मिरी आरज़ू न पुकार तू, मिरा रास्ता कोई और है

ऐसे दिलकश शेरों से जड़ी ग़ज़ल के शायर "मुज़फ्फ़र वारसी"साहब की ऐसी कई लाज़वाब ग़ज़लों का संपादन किया है जनाब सुरेश कुमार जी ने और जिसे "दर्द चमकता है"शीर्षक से किताब की शक्ल में छापा है "डायमंड बुक्स -दिल्ली ने। आज हम "किताबों कि दुनिया"श्रृंखला की इस कड़ी में इसी किताब का जिक्र करने वाले हैं .


ग़म से छुप कर इज़हार-ए -ग़म करते हैं
पाँव में घुँघरू बाँध के मातम करते हैं

काँटा भी तलवे का निकाल लें कांटे से
दर्द को दर्द कि शिद्दत से कम करते हैं

अपनी प्यास के हाथों हम बदनाम हुए
दरिया पीकर शबनम शबनम करते हैं

एटम बम ईज़ाद मुज़फ्फ़र इंसां की
और कीड़े तख़लीक़-ए-रेशम करते हैं
तख़लीक़-ए-रेशम= रेशम कि रचना

मेरठ के सूफी वारसी नाम से प्रसिद्द जमींदार परिवार में 20 दिसम्बर 1933 को मुज़फ्फर साहब का जन्म हुआ .बचपन से ही उन्हें सूफियाना माहौल मिला . घर में अक्सर जमतीं शायरी की महफिलों में अल्लामा इक़बाल, जोश मलीहाबादी, कुंअर महिंदर सिंह बेदी सहर, हसरत मोहानी जैसे कद्दावर शायरों की संगत में शायरी की बारीकियां सीखीं .

नक्श दिल पर कैसी कैसी सूरतों का रह गया
कितनी लहरें हमसफ़र थीं फिर भी प्यासा रह गया

कैसी कैसी ख्वाइशें मुझसे जुदा होती गयीं
किस क़दर आबाद था और कितना तनहा रह गया

उससे मिलना याद है मिलकर बिछड़ना याद है     
क्या बता सकता हूँ क्या जाता रहा क्या रह गया

मैं ये कहता हूँ कि हर रूख़ से बसर की ज़िन्दगी
ज़िन्दगी कहती है हर पहलू अधूरा रह गया

साधारण बोलचाल की भाषा के लफ़्ज़ों को अपनी ग़ज़लों में ढालने के हुनर से वारसी साहब को उर्दू अदब में बहुत ऊंचा स्थान मिला है . यही वजह है की उनके कलाम को पकिस्तान और हिंदुस्तान के मशहूर ग़ज़ल गायकों ने गा कर लोकप्रिय किया है। पाकिस्तान जो उनका वतन था की बात क्या करनी, उनकी शायरी को हिंदुस्तान से प्रकाशित होने वाली प्रायः सभी उर्दू पत्रिकाओं ने छापा है.      

शोला हूँ भड़कने की गुज़ारिश नहीं करता
सच मुंह से निकल जाता है कोशिश नहीं करता

गिरती हुई दीवार का हमदर्द हूँ लेकिन
चढ़ते हुए सूरज की परस्तिश नहीं करता
परस्तिश =पूजा

लहरों से लड़ा करता हूँ दरिया में उतर के
साहिल पे खड़े हो के मैं साज़िश नहीं करता

हर हाल में खुश रहने का फ़न आता है मुझको
मरने कि दुआ, जीने की ख्वाहिश नहीं करता    

'बर्फ की नाव', 'खुले दरीचे बंद हवा', 'कमंद', 'लहू कि हरियाली', 'लहज़ा', आदि उनकी प्रसिद्द किताबें हैं। उनकी आत्मकथा "गए दिनों का सुराग "उर्दू अदब में क्लासिक का दर्ज़ा रखती है."दर्द चमकता है "देवनागरी में उनकी ग़ज़लों का पहला संग्रह है जिसमें उनकी मशहूर ग़ज़लों में से 90 को शुमार किया गया है।

तमाम उम्र मिरी इस तरह कटी जैसे
कमर पे हाथ बंधे हैं गले में फंदा है

जहाँपनाह भी मुझको पनाह क्या देगा
खुदा जो बनता है वो भी खुदा का बन्दा है

हर एक चीज़ मुज़फ्फ़र है किस क़दर महंगी
बस आदमी की शराफ़त का भाव मंदा है   

वारसी जी ने अपने लेखन कि शुरुआत पाकिस्तानी फिल्मों के गीत लिखने से की और फिर धीरे धीरे नज़्म,हम्द और नात लेखन की और मुड़ गए. नात लेखन और उसे गाने के अंदाज़ से उन्हें बहुत मकबूलियत हासिल हुई .इन्हीं सब के बीच उनका ग़ज़ल लेखन का सिलसिला भी चलता रहा.

      
मेरा किरदार है मिरी पहचान
लूं न खैरात दास्तानो से

मुझको ऊंचा उछाल दो लहरो
मेरा क़द कम न हो चटानों से

घिर गया दोस्ती के जंगल में
तीर आने लगे मचानों से 

पाकिस्तान सरकार द्वारा "प्राइड आफ परफॉर्मेंस"पुरूस्कार से सम्मानित मुज़फ्फ़र साहब ने 28 जनवरी 2011 को लाहोर में इस दुनिया-ए -फ़ानी को अलविदा कह दिया. वो चाहे अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी लिखी हज़ारों हम्द ,नात,नज़्म और ग़ज़लें हमेशा ज़िंदा रहेंगी.   

वो अपने ज़ेहन में रहते हैं घर नहीं रखते
दिया जला के जो दीवार पर नहीं रखते
****
वो यूँ खामोश रहा, बोलता रहा जैसे
मैं बोलता रहा और कुछ न कह सका जैसे
****
अब तो कुछ यूँ हमें तस्वीर हमारी देखे
हार कर जैसे जुआरी को जुआरी देखे
****
सर से गुज़रा भी चला जाता है पानी की तरह
जानता भी है कि बरदाश्त की हद होती है
****
पहले रग रग से मिरी खून निचोड़ा उसने
अब ये कहता है कि रंगत ही मिरी पीली है


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