ठीक उस वक्त जब मैं किताबों की दुनिया श्रृंखला बंद करने की सोच रहा था मेरी नज़र पोस्ट के उन आंकड़ों पर पड़ी जिसमें बताया गया था कि फलां पोस्ट को कितने लोगों ने विजिट किया या यूँ कहें कि पढ़ा और किस जगह से। मेरे ख्याल से ये आंकड़े चौकाने वाले थे। पहली "किताबों की दुनिया"में पोस्ट की किताब से अब तक (103 ) किताबों में से 12 % किताबों को एक हज़ार से अधिक ,36 % किताबों को दो हज़ार से अधिक , 15 % किताबों को तीन हज़ार से अधिक, 18 % किताबों को चार हज़ार से अधिक और 8 % किताबों को दुनिया भर से पांच हज़ार से अधिक पाठकों ने पढ़ा या देखा। मजे की बात ये भी देखी कि पाठक पुरानी पोस्ट्स को अब भी विजिट कर रहे हैं. किताबों की दुनिया की पहली और पांचवी पोस्ट को कल ही क्रमश: चार और सात लोगों ने विजिट किया। दुनिया के 27 देशों से लोगों का इन पोस्ट्स पर आना सुखद अहसास भर गया.
इन आंकड़ों ने एक नयी ऊर्जा का संचार किया और इस श्रृंखला को आगे बढ़ाने की चाह में, अगली किताब की और, मेरे हाथ अपने आप उठ गए। इस किताब और शायर का पता मुझे तब चला था जब इस वर्ष के दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में मेरे प्रिय मित्र और शायरी के जबरदस्त दिवाने जनाब प्रमोद कुमार मुझे लगभग घसीटते हुए अंजुमन प्रकाशन स्टाल पर ले जाकर खुद ही इस किताब को शेल्फ से निकाल कर बोले भाई साहब इन्हें पढ़ो।
आज हम उसी शायर "एहतराम इस्लाम " साहब की किताब "है तो है " का जिक्र करेंगे और देखें कि क्यों उनका नाम उर्दू ग़ज़ल के छंद शास्त्र का निर्वाह बेहतरीन तरीके से करने वाले हिंदी ग़ज़ल के शायर के रूप में इज़्ज़त से लिया जाता है।
आये न आये आपकी तस्वीर मन-पसन्द
मिलते ही कैमरे से नयन, मुस्कुराइए
नेवले के दाँत सांप की गर्दन में धँस गए
बोला मदारी भीड़ से, ताली बजाइए
मैं डूबने की चाह में बैठा हूँ 'एहतराम'
मेरे करीब आप नदी बन के आईये
हिंदी और उर्दू ज़बान में ग़ज़ल को तकसीम वाले लोगों को जनाब एहतराम साहब का कलाम पढ़ना चाहिए और समझना चाहिए कि ग़ज़ल भाषा की नहीं भाव की विधा है , जिसके पास भाव हैं वो ही अच्छी और कामयाब ग़ज़ल कह सकता है।
आँखों में भड़कती हैं आक्रोश की ज्वालायें
हम लाँघ गए शायद संतोष की सीमाएं
सीनों से धुआँ उठना कब बंद हुआ कहिये
कहने को बदलती ही रहती हैं व्यवस्थाएँ
तस्वीर दिखानी है भारत की तो दिखला दो
कुछ तैरती पतवारें, कुछ डूबती नौकाएँ
"है तो है "किताब का पहला संस्करण 1994 में छपा था फिर उसके बीस साल बाद याने 2014 में इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ। ये शायर के हुनर और कहन का विलक्षण अंदाज़ ही है जिसकी वजह से ये ग़ज़लें आज भी मौलिक और ताज़ा लगती हैं।
देश क्या अब भी नहीं पहुंचेगा उन्नति के शिखर पर
नित्य ही दो-चार उद्घाटन कराये जा रहे हैं
छिड़ गया है स्वच्छता अभियान शायद शहर भर में
गन्दगी के ढेर सड़कों पर सजाये जा रहे हैं
झूठ, तिकड़म, लूट, रिश्वत, रहज़नी, हत्या, डकैती
ज़िन्दा रहने के हमें सब गुर सिखाये जा रहे हैं
5 जनवरी 1949 को मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश) में जन्मे एहतराम इस्लाम ने अपना कर्मक्षेत्र चुना प्रयाग को। एहतराम इस्लाम अब महालेखाकार कार्यालय के वरिष्ठ लेखा परीक्षक पद से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। वर्ष 1965 से हिन्दी-उर्दू-अंग्रेजी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में एहतराम इस्लाम की रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं
देता रहता है तू सफाई क्या
तेरे दिल में है कुछ बुराई क्या
आपने पर क़तर दिए मेरे
अब मेरी कैद क्या, रिहाई क्या
पाँव पड़ते नहीं हैं धरती पर
हो गयी आपसे रसाई क्या
तू जो रहज़न दिखाई देता है
मिल गयी तुझको रहनुमाई क्या
ज्ञान प्रकाश विवेक जी ने राष्ट्रीय सहारा के 22 मार्च 1994 अंक में पत्रिका में लिखा था कि "हिंदी के पहले दस महत्वपूर्ण ग़ज़लकारों में एहतराम इस्लाम का नाम शुमार होता है। उनकी ग़ज़लें अपने हिन्दीपन से पहचानी जाती हैं। एहतराम की ग़ज़लों का चेहरा खुरदुरा है। आप इन ग़ज़लों को पढ़ सकते हैं , बैचेन हो सकते हैं लेकिन गा नहीं सकते क्यूंकि ये ग़ज़लें 'ड्राइंग रूम का सुख'नहीं कर्फ्यूग्रस्त शहर की बैचेनी का मंज़र है।
पीर की आकाश-गंगा पार करती है ग़ज़ल
कल्पनाओं के क्षितिज पर तब उभरती है ग़ज़ल
आप इतना तिलमिला उठते हैं आखिर किसलिए
आपकी तस्वीर ही तो पेश करती है ग़ज़ल
हाथ में मेंहदी रचाती है न काजल आँख में
मांग में अफसां नहीं अब धूल भरती है ग़ज़ल
एहतराम इस्लाम को उर्दू वाले अपना शायर और हिन्दी वाले अपना कवि मानते हैं। क्रांतिकारी विचारों वाले कवि एहतराम इस्लाम एजी आफिस यूनियन में कई बार साहित्य मंत्री भी रह चुके हैं ।
हिंदी ग़ज़ल के नाम पर नाक भों सिकोड़ने वाले लोगों को बता दूँ कि उनकी खालिस उर्दू ग़ज़लों का संग्रह 'हाज़िर है एहतराम'भी अंजुमन प्रकाशन द्वारा मंज़रे आम पर लाया जा चुका है।
वार तो भरपूर था ढीला न था
हाँ मगर खंज़र ही नोकीला न था
ज़हर के आदी पे होता क्या असर
लोग समझे साँप ज़हरीला न था
चूस डाला ग़म की जोंकों ने लहू
वर्ना मेरा भी बदन पीला न था
ठोकरें लगती रहीं हर गाम पर
रास्ता कहने को पथरीला न था
आकर्षक आवरण साथ पेपर बैक में छपी इस किताब में एहतराम साहब की 91 ग़ज़लें संग्रहित हैं। इन खूबसूरत ग़ज़लों के लिए आप एहतराम साहब को उनके मोबाईल न 9839814279 पर बात कर मुबारक बाद दे सकते हैं और किताब प्राप्ति के लिए अंजुमन प्रकाशन से 9235407119 /9453004398 पर सम्पर्क कर सकते हैं।
अंत में मैं अपने मित्र प्रमोद कुमार जी को मुझे इस किताब तक पहुँचाने के लिए तहे दिल से धन्यवाद देते हुए , एहतराम साहब की एक ग़ज़ल के शेरों को पेश करता हूँ और अगली किताब की तलाश में निकलता हूँ
मूर्ती सोने की निरर्थक वस्तु है, उसके लिए
मोम की गुड़िया अगर बच्चे को प्यारी है तो है
हैं तो हैं दुनिया से बे-परवा परिंदे शाख पर
घात में उनकी कहीं कोई शिकारी है तो है
आप छल बल के धनी हैं , जितियेगा आप ही
आपसे बेहतर मेरी उम्मीदवारी है तो है
'एहतराम'अपने ग़ज़ल लेखन को कहता है कला
आप कहते हैं उसे जादू निगारी है, तो है