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Channel: नीरज
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किताबों की दुनिया - 168

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जिस ग़म से दिल को राहत हो उस ग़म का मुदावा क्या मानी
जब फ़ितरत तूफ़ानी ठहरी, साहिल की तमन्ना क्या मानी
 मुदावा =उपचार

इश्रत में रंज की आमेज़िश ,राहत में अलम की आलाइश
जब दुनिया ऐसी दुनिया है फिर दुनिया-दुनिया क्या मानी
इश्रत =सुख , आमेज़िश =मिलावट अलम=दुःख आलाइश= मिलावट

इख़्लास-ओ-वफ़ा के सिज्दों की जिस दर पर दाद नहीं मिलती
ऐ ग़ैरते-दिल ऐ अज़्मे-ख़ुदी उस दर पर सिज्दा क्या मानी
इख़्लास-ओ-वफ़ा=शुद्ध हृदयता और प्रेम में पूर्ण , ग़ैरते-दिल=दिल की शर्म , अज़्मे ख़ुदी =आत्म सम्मान (रखने के )संकल्प

बहुत बहुत साल पहले रेडिओ सीलोन से बिनाका गीत माला आया करती थी जिसे अमीन सयानी अपनी दिलकश आवाज़ में प्रस्तुत किया करते थे। उसमें हर हफ्ते कुछ बहुत लोकप्रिय गीत सरताज़ गीत की हैसियत से बजा करते थे। लोग ऐसे सरताज गीतों का हिसाब अपनी कापियों -डायरियों में रखा करते थे ,लेकिन जो गीत सरताज़ गीत की हैसियत नहीं प्राप्त कर पाते थे वो भी सरताज गीतों से कम लोकप्रिय नहीं होते थे। ऐसे ही गीतों को इकठ्ठा करके अमीन सायानी ने बरसों बाद 'गीत माला की छाँव में "नाम से सी.डी. यों की श्रृंखला भी निकाली जो बहुत प्रसिद्ध हुई। ठीक इसीतरह उर्दू शायरी में भी बहुत से सरताज़ शायर हुए हैं जिनके कलाम लोगों की कापियों -डायरियों में कलम -बंद किये जाते रहे हैं और ऐसे भी शायर हुए हैं जिन्हें सरताज़ की हैसियत तो नहीं मिल पायी लेकिन वो प्रसिद्ध खूब हुए.

जितना वो मेरे हाल पे करते हैं जफ़ाएँ
आता है मुझे उनकी मुहब्बत का यकीं और

मैखाने की है शान इसी शोर-ए-तलब से
हर "और नहीं"पर है तकाज़ा कि "नहीं और"

तकरार का ऐ शैख़ यही तो है नतीजा
तुमने जो कही और तो हमसे भी सुनी और

रदीफ़ में 'और'का जादुई इस्तेमाल करने वाले हमारे आज के शायर भी गीतमाला की छाँव में शामिल किये किये गए उन गीतों की तरह के शायर हैं जो सरताज़ की हैसियत नहीं प्राप्त कर पाए लेकिन मक़बूल खूब हुए। आज के दौर में ख़ास तौर पर हिंदी पाठक,शायद उनके नाम से ज़्यादा वाकिफ़ न हों लेकिन कभी उनके नाम की तूती भी सरताज़ शायरों के नाम के साथ साथ बजा करती थी। बात हो रही है जनाब "बालमुकंद 'अर्श'मल्सियानी"साहब की जिनकी प्रमुख रचनाओं को "प्रकाश पंडित"ने "लोकप्रिय शायर"श्रृंखला के अंतर्गत संग्रहित किया और राजपाल ऐंड संस ने प्रकाशित किया था।



हमको राह-ए-ज़िन्दगी में इस क़दर रहज़न मिले 
रहनुमा पर भी गुमान-ए-रहनुमा होता नहीं 

सिज्दे करते भी हैं इन्सां खुद दर-ए-इन्सां पे रोज़ 
और फिर कहते भी हैं बंदा ख़ुदा होता नहीं 

तर्क-ए-उल्फ़त भी मुसीबत है अब इसका क्या इलाज 
वो जुदा होकर भी तो दिल से जुदा होता नहीं 

अपने जन्म और जन्मभूमि के बारे में एक जगह अर्श साहब ने यूँ लिखा है : "पंजाब के ज़िला जालंधर का एक छोटा सा क़स्बा,जिसे मेरे पिता अक्सर 'ख़राबाबाद'के नाम से याद करते हैं मेरा जन्म स्थान है। इस क़स्बे का नाम है मल्सियान। ज्ञान और विद्वता की दृष्टि से इस क़स्बे में मेरे माननीय पिता से पूर्व ऐसा कोई व्यक्ति नहीं हुआ जिसे थोड़ा बहुत भी विद्वान कहा जा सके. 20 सितम्बर 1908 ई. को इसी दूर-दराज़ और असाहित्यिक वातावरण में मेरा जन्म हुआ।"मज़े की बात ये है कि जन्म ही नहीं उनकी युवावस्था का अधिकतर भाग भी ऐसे ही असाहित्यिक वातावरण में गुज़रा।

जब उल्फ़त का दम भर बैठे जब चाल ही उलटी चल बैठे 
नादान हो फिर क्यों कहते हो इस चाल में बाज़ी मात नहीं 

कुछ रंज नहीं कुछ फ़िक्र नहीं दुनिया से अलग हो बैठे हैं 
दिल चैन से है, आराम से है, आलाम नहीं आफ़ात नहीं 
आलाम=दुःख , आफ़ात=मुसीबतें 

तुम लुत्फ़ को जौर बताते हो, तुम नाहक शोर मचाते हो 
तुम झूठी बात बनाते हो, ऐ 'अर्श'ये अच्छी बात नहीं 
 जौर=ज़ुल्म 

इस असाहित्यिक वातावरण में उनके घर का माहौल घोर साहित्यिक था क्यूंकि उनके पिता जनाब जोश मलसियानी ,उर्दू और फ़ारसी के बहुत बड़े विद्वान थे जिन्हें भारत सरकार ने उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए अभिनन्दन ग्रन्थ भी भेंट किया था. सिवाय शायरी के अर्श साहब की बाकी सभी आदतें अपने पिता के ठीक विपरीत थीं। उनकी आदतों के बारे में मशहूर शायर जनाब 'जोश'मलीहाबादी ने एक बार कहीं लिखा था कि "अर्श न खाने की चीज़ें खाते हैं, न टटोलने की चीज़ें टटोलते हैं, न बरतने की चीज़ें बरतते और न झपट पड़ने की चीज़ों पर झपटते हैं। चारे और घास-फूंस से विटामिन हासिल करते हैं और बेज़रर चरिन्द ( अहानिकारक पशु -गाय बकरी आदि ) की ज़िन्दगी जीते हैं "

ऐ जोश-ए-तलब तू हो तो परवा नहीं मुझको 
सहरा मेरे आगे हो कि दरिया मेरे आगे 
जोश-ऐ-तलब =इच्छा का वेग 

मरकर भी गिरफ्तार-ए-सफ़र है मेरी हस्ती 
दुनिया मेरे पीछे है तो उक़्बा मेरे आगे 
उक़्बा =परलोक 

हंगामा-ए-आलम की हक़ीक़त है यही 'अर्श' 
होता है मेरे इश्क का चर्चा मेरे आगे 
हंगामा-ए-आलम =संसार चक्र 

कैसी अचरज की बात है कि जो खुद बहुत बड़ा शायर है-यानी कि उनके पिता-वो ये चाहे कि उसका बेटा-यानी कि 'अर्श' -शायरी से दूर रहे। पिता की नज़र में बेटे की पढाई-लिखाई बहुत जरूरी थी सो उन्होंने अर्श साहब को एफ.ऐ (अब की ग्यारवीं क्लास) करने के बाद सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिले के लिए हो रही प्रतियोगिता में बिठा दिया। बहुत बेमन से अर्श साहब ने परीक्षा दी और दुर्भाग्य वश पास हो गए। रोते-कलपते-झींकते-झुंझलाते किसी तरह इंजीनियरिंग की पढाई पूरी की और नहर विभाग में ओवरसियर की नौकरी करने लगे। मन से शायर इंसान को अगर गैर-शायराना नौकरी में बंधना पड़ जाए तो सोचिये कैसा लगेगा ? जी सही समझे, बुरा लगेगा इसीलिए उन्होंने साल में तीन बार त्यागपत्र दे दिया लेकिन हर बार किसी न किसी कारण से जहाज के पंछी तरह फिर फिर वहीँ लौट आते थे।

ये है इक वाक़ई तफ़सील मेरी आप-बीती की 
बयान-ए-दर्द-ए-दिल को इक कहानी कौन कहता है 

तुझे जिसका नशा हरदम लिए फिरता है जन्नत में 
बता है शैख़ ! उस क़ौसर को पानी कौन कहता है 
क़ौसर=जन्नत की नदी 

बला है, क़हर है, आफ़त है, फ़ित्ना है क़यामत का 
हसीनों की जवानी को जवानी कौन कहता है 

हज़ारों रंज इसमें 'अर्श', लाखों कुल्फ़तें इसमें 
मुहब्बत को ज़रूर-ऐ-ज़िंदगानी कौन कहता है 
कुल्फ़तें=कष्ट 

नहर विभाग की नौकरी किसी तरह छोड़ी तो "आसमान से गिरा खजूर में अटका"कहावत को सिद्ध करते हुए अर्श साहब ,लुधियाना के औद्योगिक स्कूल में ,एक बार फिर अपने मिज़ाज़ के ख़िलाफ़, शिक्षक की हैसियत से पढ़ाने लगे और लगातार 12 साल तक पढ़ाते रहे। कहावत है कि बारह साल बाद तो कूड़े की भी सुनवाई हो जाती है अर्श साहब तो शायर थे सो सुनवाई होनी ही थी -हुई और उन्हें तब पकिस्तान के भूतपूर्व गवर्नर जनरल जनाब गुलाम मुहम्मद साहब अपनी रहनुमाई में दिल्ली ले गए जहाँ वो पहले सरकारी सप्लाई विभाग में फिर सोंग ऐंड पब्लिसिटी फिर लेबर विभाग और उसके बाद मिनिस्ट्री ऑफ इन्फर्मेशन एंड ब्राडकास्टिंग में नौकरी भी करते रहे और शायरी भी। सन 1948 में उन्हें भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से निकलने वाली उर्दू पत्रिका "आज-कल"का सहायक संपादक बना दिया ,1956 में उन्हें , जनाब 'जोश'मलीहाबादी साहब जो उस वक्त तक पत्रिका के संपादक थे, के पाकिस्तान चले जाने के बाद, संपादक बना दिया। आखिर उन्हें वो काम मिला जो उन्हें बेहद पसंद था याने पढ़ने लिखने का याने सौ फीसदी साहित्यिक।

बयां हो भी तो हों आखिर कहाँ जो दिल की बातें हैं 
न तन्हाई की बातें हैं न ये महफ़िल की बातें हैं 

वो महफ़िल से जुदा भी हो चुके महफ़िल को गर्माकर 
मगर महफ़िल में अब तक गर्मी-ऐ-महफ़िल की बातें हैं 

ज़बाँ से कुछ कहो साहब मगर मालूम है हमको 
तुम्हारे दिल की सब बातें हमारे दिल की बातें हैं 

तो साहब सन 1948 से लेकर 1968 तक याने बीस बरस के अर्से में जब तक वो "आज-कल"पत्रिका से रिटायर नहीं हो गए, उन्होंने खूब जी भर के लिखा और शोहरत पायी। उनकी कविताओं-शायरी के चार संग्रह कुंदा रंग, चांग ओ अहंग, शरार ए संग और अहंग ए हिजाज़ प्रकाशित हुए है और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद पर लिखी उनकी आत्मकथा की पुस्तक 1976 में प्रकाशित हुई जो बेहद मकबूल हुई । इसके अलावा ढेरों रेडियो नाटक और हास्य-व्यंग के लेखों का संकलन "पोस्ट मार्टम "भी प्रकाशित हो कर चर्चित हो चुका है। सन 1979 में वो इस दुनिया-ऐ-फ़ानी से रुखसत फ़रमा गए। अफ़सोस इस बात का है कि उनकी कोई पुस्तक हिंदी में उपलब्ध नहीं है -ऐसा मुझे लगता है और जरूरी नहीं कि वो सही भी हो।

अभी तो आरज़ू-ऐ-मुज़्तरिब का अहद-ऐ-तिफ्ली है
ख़ुदा जाने ये क्या-क्या हश्र ढायेगी जवाँ होकर 
आरज़ू-ऐ-मुज़्तरिब=व्याकुल कामना , अहद-ऐ-तिफ्ली =बाल्य काल 

ज़रा कम हो चली है गर्मियां शौक-ऐ-मुहब्बत की
ख़फ़ा हो जाओ फिर इक बार हमसे बदगुमां होकर 

मेरी अर्ज़-ऐ-तमन्ना में भी आखिर कुछ तो जादू है 
नहीं भी अब निकलती है तुम्हारे मुंह से हाँ होकर 

किताबों की दुनिया श्रृंखला में इस उस्ताद शायर को शामिल करने का मक़सद उस ज़माने की शायरी का लुत्फ़ उठाना है ,इस तरह की कहन, लफ़्ज़ों को बरतने का हुनर और रवानी अब बहुत कम नज़र आती है। आज के युवा पाठकों को गुज़रे दौर की इस शायरी को पढ़कर अच्छा लगेगा ऐसा मैं समझता हूँ हालाँकि मुझे अपनी समझ पर शक ही रहता है। ये, इस 168 पुरानी, श्रृंखला में शामिल पहली किताब है जिसकी प्राप्ति का रास्ता मुझे भी नहीं मालूम क्यूंकि राजपाल ऐंड संस् से पता करने पर मालूम पड़ा कि डेढ़ रूपये मूल्य की ये किताब जो 1961 में छपी थी अब आउट ऑफ प्रिंट हो चुकी है और इसके प्रिंट में जाने की अभी तो कोई सम्भावना भी नहीं है। अर्श साहब का कलाम पढ़ने के लिए आपको रेख़्ता या कविता कोष की साइट की शरण में जाना होगा। अगर किस्मत से ये किताब आपको मिल जाए तो इसमें आपको अर्श साहब की ढेरों ग़ज़लें नज़्में और रुबाइयाँ पढ़ने को मिलेंगी। चलते चलते उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर भी पढ़वाता देता हूँ आप भी क्या याद रखेंगे ? रखेंगे क्या याद ?

हमारा जिक्र भी इसमें है गैरों का चहकना भी 
तुम्हारी अंजुमन को अंजुमन कहना ही पड़ता है 

बुतान-ऐ-संगदिल में है नज़ाकत का भी इक पहलू 
उन्हें सीमीं-बदन, गुल-पैरहन , कहना ही पड़ता है 
बुतान-ऐ-संगदिल =पत्थर दिल सुंदरियों , सीमीं-बदन = चांदी जैसा बदन , गुल-पैरहन =फूलों के वस्त्र 

जबां समझे न समझे कोई अपनी 'अर्श'इस पर भी
वतन अपना है ये ,इसको वतन कहना ही पड़ता है

अरे अरे तनिक रुकिए न चले जाइएगा लेकिन जाते जाते उनकी एक खूबसूरत ग़ज़ल के ये दो शेर अपने साथ लेते जाइएगा ,क्या कहा हाथ खाली नहीं है ? कोई बात नहीं मेरी खातिर इसे दिल में बसा लीजियेगा। दरअसल मुझे लगा कि इन शेरों को आप तक पहुंचाए बिना ये पोस्ट कुछ अधूरी सी रह जाएगी और फिर ये भी लगा कि जरुरी नहीं कि ये बात सही ही हो , मुझे गलत भी लग सकता है -है ना ?

आह वो बात कि जिस बात पे दिल बैठा है 
याद करने पे भी आती नहीं अब याद मुझे 

न निशेमन है न है शाख़-ए- निशेमन बाक़ी 
लुत्फ़ जब है कि करे अब कोई बर्बाद मुझे 
निशेमन=घोंसला

किताबों की दुनिया - 169

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खुद भी आखिर-कार उन्हीं वादों से बहले 
जिन से सारी दुनिया को बहलाया हमने 

मौत ने सारी रात हमारी नब्ज़ टटोली 
ऐसा मरने का माहौल बनाया हमने 

घर से निकले चौक गए फिर पार्क में बैठे 
तन्हाई को जगह जगह बिखराया हमने 

मुशायरों के बारे में साहित्य अकादमी पुरूस्कार से सम्मानित आज के मशहूर शायर जनाब 'अमीर इमाम'ने अपने एक लेख में लिखा था कि "मुशायरे एक समारोह की तरह हैं जहां शायर अपनी शायरी लोगों तक पहुँचाता है। इस समारोह में शायरी वहां उपस्थित हर इक व्यक्ति के दिल पर अलग अलग तरीके से पहुँचती है। कुछ शायर अपनी शायरी को प्रत्येक के दिल तक पहुँचाने के प्रयास में अति नाटकीयता से काम लेते हैं तो कुछ अपने सुरीले गले से। ज्यादातर वो शायर जिनके पास कहने सुनने के लिए नया कुछ नहीं होता वो ही ऐसे हथकंडे अपनाते हैं, वो नाटकीयता और तरन्नुम से अपनी कमज़ोर शायरी को ढांपने का प्रयास करते हैं."अगर आप मुशायरों में जाते हैं तो अमीर की इस बात से सहमत जरूर होंगे।

तिरे ग़म से उभरना चाहता हूँ 
मैं अपनी मौत मरना चाहता हूँ 

ये फ़न इतना मगर आसाँ कहाँ है 
जरुरत भर बिखरना चाहता हूँ 

नहीं ढोना ये बूढ़ा जिस्म मुझको 
सवारी से उतरना चाहता हूँ 

तभी मैं मश्वरा करता हूँ सब से 
जब अपने दिल की करना चाहता हूँ

'अमीर'की ही बात को मुंबई के बड़े मशहूर शायर “शमीम अब्बास” साहब ने उर्दू स्टूडियो को दिए एक इंटरव्यू में यूँ कहा है कि "आजकल के मुशायरों से शायरी का भला नहीं होता हाँ उर्दू ज़बान जरूर बहुत से लोगों तक पहुँचती है , मुशायरा सुनने जो लोग आते हैं उनमें से ज्यादातर मनोरंजन के लिए आते हैं इसलिए जो शायर उनका चुटकुले सुना कर ,अदाएं दिखा कर या गा कर मनोरंजन करता है वो मुशायरा लूट लेता है। ऐसे मुशायरा लूटने वाले शायरों की शायरी सिर्फ उसी मुशायरे तक महदूद या सीमित रहती है और फिर भुला दी जाती है। अदब से जुड़ा हुआ तबका उनकी शायरी पर कभी गुफ़्तगू नहीं करता। लेकिन ऐसे शायरों की तादाद भी कम नहीं जिन्हें दुनिया भले न जाने ,अदब से, लिटरेचर से जुड़े लोग जानते हैं और उनके बारे में गुफ़्तगू करते हैं, उनकी शायरी की चर्चा करते हैं, एक दूसरे को सुनाते हैं जो बहुत बड़ी बात है। अच्छी या बुरी शायरी तो हमेशा से होती आयी है लेकिन पिछले कुछ सालों में मुशायरों का मयार इस क़दर गिरा है कि अब उन्हें मुशायरा कम तमाशा कहना ज्यादा मुनासिब होगा।"

 मैं भी क़तरा हूँ तिरि बात समझ सकता हूँ 
ये कि मिट जाने के डर से कोई दरिया हो जाय 

सब को होना है बड़ा और बड़ा और बड़ा 
कौन है इतना समझदार कि बच्चा हो जाय 

जिस्म की सतह पे मिलते ही नहीं हम वर्ना 
दो मुलाकातों में ये इश्क पुराना हो जाय 

आज हम जिस शायर की बात करने वाले हैं उन्हें अदब या लिटरेचर से जुड़े लोग तो सम्मान देते ही हैं साथ ही आम लोग जिनमें आज की युवा पीढ़ी भी शामिल है उनके अशआर की दीवानी है। तन्हाई को जगह जगह बिखराने वाले ,अपने दिल की सुनने वाले और रूहानी इश्क की बातें करने वाले इस अद्भुत शायर को मुशायरों में न आप अदाकारी करते देखेंगे ,न तरुन्नम में पढ़ते और न ही सामईन से अपने शेरों पर दाद देने की भीख मांगते। चौड़े माथे पर चश्मा लगाए,ज़बान से होंठ तर करते हुए जब वो माइक पर आ कर निहायत सादगी से अपना कलाम पढ़ते हैं तो सुनने वालों को लगता है जैसे जून-जुलाई की उमस में किसी ठन्डे झरने के नीचे आ बैठे हों। अशआर की फुहारों से सामईन भीग भीग जाते हैं.वो सुनाते जाते हैं और श्रोता झूमते जाते हैं। मैं बात कर रहा हूँ जनाब "शारिक़ कैफ़ी"साहब की जिनकी किताब "खिड़की तो मैंने खोल ही ली"मेरे सामने है। चलिए अब इस किताब के सफ्हे पलटते हैं :


 हासिल करके तुझ को अब शर्मिंदा सा हूँ
 था इक वक़्त कि सचमुच तेरे क़ाबिल था मैं 

कौन था वो जिसने ये हाल किया है मेरा 
किस को इतनी आसानी से हासिल था मैं 

सारी तवज्जो दुश्मन पे मर्कूज़ थी मेरी 
अपनी तरफ़ से तो बिल्कुल ग़ाफ़िल था मैं 
मर्कूज़ = केंद्रित 

कभी किसी हसीना का बाजार में झुमका खोने के कारण मश्हूर हुए 'बरेली'के उस्ताद शायर जनाब कैफ़ी वजदानी ( सैय्यद रिफ़ाक़त हुसैन ) के यहाँ पहली जून 1961 को जो बेटा पैदा हुआ उसका नाम सय्यद शारिक़ हुसैन रखा गया। विरासत में हासिल हुई शायरी के चलते शारिक़ छुटपन से ही शेर कहने लगे। पिता के साये में शायरी करते तो रहे लेकिन मन में रिवायत से हट कर कुछ अलग सा कहने की ठान ली। रिवायती शायरी को बिलकुल नए रंग और जाविये से संवारने की मशक्कत के साथ साथ वो बरेली कॉलेज से बी.एस.सी की पढाई भी करते रहे और शारिक़ कैफ़ी के नाम से शायरी भी करने लगे । बी एस सी करने के बाद उर्दू में एम् ऐ की डिग्री भी हासिल कर ली।

कांच की चूड़ी ले कर जब तक लौटा था 
उस के हाथों में सोने का कंगन था 

रो-धो कर सो जाता लेकिन दर्द तिरा 
इक-इक बूँद निचोड़ने वाला सावन था 

तुझ से बिछड़ कर और तिरि याद आएगी 
शायद ऐसा सोचना मेरा बचपन था 

 उर्दू, शारिक़ साहब ने नौकरी के लिए नहीं ,अपनी शायरी को माँजने के लिए सीखी थी तभी उनकी शायरी में न सिर्फ विचार ,कला का अनूठा सामंजस्य और एक जज़्बाती ज़िंदगी फैली हुई है बल्कि उर्दू ज़बान की मिठास भी घुली हुई है। नौकरी के लिए उन्होंने अपनी बी एस सी की डिग्री का सराहा लिया और बरेली की एक कैमिकल फैक्ट्री में बतौर चीफ केमिस्ट काम करने लगे शायद इसी कारण से उनके शेरों के मिसरा-ए-ऊला और सानी में इतनी जबरदस्त केमिस्ट्री है। अपने खास दोस्तों 'खालिद जावेद'जो जामिया मिलिया में पढ़ाते हैं और 'सोहेल आज़ाद'साहब की सोहबत और पड़ौस में रहने वाले 1956 में जन्में कद्दावर शायर जनाब "आशुफ़्ता चंगेज़ी"जो 1996 में अचानक ग़ायब हो गए, की रहनुमाई में शारिक़ कैफ़ी साहब ने ग़ज़ल की बारीकियों को तराशा।

वो जुर्म इतना जो संगीन उसको लगता है 
किया था मैं ने कोई पल गुज़ारने के लिए 

उसी पे वुसअतें खुलती हैं दश्त-ओ-सहरा की
जिसे कोई भी न आये पुकारने के लिए 
वुसअत=फैलाव , दश्त-ओ-सहरा =जंगल और रेगिस्तान 

इक और बाज़ी मुझे उसके साथ खेलना है 
उसी की तरह सलीक़े से हारने के लिए 

आखिर वो लम्हा 1989 में आया जो किसी भी शायर की ज़िन्दगी में बहुत अहम मुकाम रखता है याने उनकी पहली किताब का प्रकाशित होना ।"आम सा रद्द-ऐ-अमल"मंज़र-ऐ-आम पर क्या आई खलबली सी मच गयी. लोग चौंक उठे। एक बिलकुल नए शायर का रिवायत को अपने ढंग से संवारने का अनूठा अंदाज़ पाठकों को बहुत भाया। किताब की हर किसी ने भूरी भूरी प्रशंशा की ,पाठकों ने उसे हाथों हाथ उठा लिया। उर्दू के नामवर शायर जनाब 'शहरयार'साहब ने चिठ्ठी लिख कर उनकी हौसला अफ़ज़ाही की। किसी भी नए शायर के लिए ये बात बायसे फ़क्र हो सकती है ,ये भी मुमकिन है की इतनी तारीफ बटोरने के बाद शायर के पाँव जमीन पर न पड़ें लेकिन साहब शारिक़ कैफ़ी कोई यूँ ही शारिक़ कैफ़ी नहीं बनता क्यूंकि हुआ इसके बिलकुल ठीक उल्टा। पहली ही किताब के इतने मकबूल होने के बाद शारिक़ साहब जो शेर कहें वो उन्हें अपनी पहली किताब में शाया हुए शेरों से उन्नीस ही लगें, उनका मुकाबला अब किसी और से नहीं खुद अपने आप से था. लिहाज़ा बहुत कोशिशों के बाद भी जब उन्हें अपनी शायरी, जितना वो चाहते थे उस, स्तर की नहीं लगी तो उन्होंने तंग आ कर शेर कहना ही छोड़ दिया। आप यकीन करें न करें लेकिन हक़ीक़त ये है कि उन्होंने फिर 17 सालों तक एक भी शेर नहीं कहा।

पढाई चल रही है ज़िन्दगी की 
अभी उतरा नहीं बस्ता हमारा 

किसी को फिर भी मंहगे लग रहे थे 
फ़क़त साँसों का ख़र्चा था हमारा 

तरफ़दारी नहीं कर पाए दिल की 
अकेला पड़ गया बंदा हमारा 

हमें भी चाहिए तन्हाई 'शारिक़' 
समझता ही नहीं साया हमारा 

ऐसा नहीं है कि एकांत वास के इस लम्बे सत्रह सालीय दौर में वो चुप बैठे रहे, उन्होंने लिखा और अपने लिखे को तब तक तराशते रहे जब तक कि उन्हें पूरी तसल्ली नहीं हो गयी। खुद के लिखे को बड़ी बेरहमी से ख़ारिज करते रहे ,घिसते रहे और आखिर हिना की तरह घिस घिस कर कहे शेर जब मंज़र-ए -आम पर आये तो पढ़ने वालों को ऐसी खुशबू और रंग से सराबोर कर गए जो आसानी से छूटता नहीं। मैं कोई नक्काद या आलोचक तो हूँ नहीं एक साधारण सा पाठक हूँ और उसी हैसियत से अपनी बात आपके सामने रखता हूँ। मुझे ये कहने में कोई हिचक नहीं है कि आज के दौर में जो शायर मेरे सामने आये हैं उनमें शारिक़ साहब की शायरी मुझे बिलकुल अलग और दिलकश लगी।इस शायरी के तिलस्म से बाहर आने को दिल ही नहीं करता।

उम्र भर जिसके मश्वरों पे चले 
वो परेशान है तो हैरत है 

अब संवरने का वक्त उसको नहीं 
जब हमें देखने की फुर्सत है 

क़हक़हा मारने में कुछ भी नहीं 
मुस्कुराने में जितनी मेहनत है 

शारिक़ साहब की चुप्पी आखिर 2008 में आये उनके दूसरे शेरी मज़्मुए "यहाँ तक रौशनी आती कहाँ थी"के मंज़र-ऐ-आम पर आने से टूटी। लोगों ने उसे दिलचस्पी से पढ़ा और देखा कि इन 17 सालों के अज्ञातवास के दौरान उनकी शायरी के तेवर जरा भी नहीं बदले बल्कि उन्होंने उसमें बेहतरीन इज़ाफ़ा ही किया है। ज़िन्दगी को उन्होंने सतही तौर पर नहीं बल्कि गहरे उतर कर देखा है। उसकी तल्खियों और खुशियों का बारीकी से ज़ायज़ा लिया है। मोहब्बत को एक नए जाविये से बयान किया है। दूसरी किताब के आने के साथ ही शारिक़ साहब की शोहरत को पंख लग गए।अदबी हलकों में उनकी चर्चा होने लगी , इतना सब होते हुए भी शारिक़ दिखावे से दूर अपनी ज़िन्दगी सुकून से बसर करते रहे। बेहपनाह शोहरत का उनकी जाति ज़िन्दगी पर कोई असर दिखाई नहीं दिया।

भीड़ छट जाएगी पल में ये ख़बर उड़ते ही 
अब कोई और तमाशा नहीं होना है यहाँ 

क्या मिला दश्त में आ कर तिरे दीवाने को 
घर के जैसा ही अगर जागना सोना है यहाँ 

कुछ भी हो जाये न मानूंगा मगर जिस्म की बात 
आज मुज़रिम तो किसी और को होना है यहाँ 

फिर आया सन 2010 जिसमें शारिक़ साहब का तीसरा मज़्मुआ "अपने तमाशे का टिकट"शाया हुआ इसमें उनकी नज़्में संग्रहित थीं। नज़्म कहना शेर कहने से ज्यादा मुश्किल काम है, इसी मुश्किल काम को इस ख़ूबसूरती से शारिक़ साहब ने अंजाम दिया कि उर्दू के नामी नक्काद याने आलोचक जनाब "शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी"साहब ने हैरत और ख़ुशी में मिले जुले तास्सुरात एक मजमून की सूरत में कलम बंद किये थे। जहाँ उनके दो ग़ज़ल संग्रहों पर किसी आलोचक का एक हर्फ़ भी पढ़ने को नहीं मिलता वहीँ उनकी नज़्मों के बारे में बड़े बड़े नक्कादों का ढेर सारा लिखा पढ़ने को मिलता है। इस तीसरी किताब के बाद उनकी पहचान एक ग़ज़लकार के रूप में कम और लाजवाब नज़्म निगार के रूप में ज्यादा हुई. नज़्मों ने जो पहचान दी वो किसी भी बड़े शायर के लिए इर्षा का विषय हो सकता है।

खूब तर्कीब निकाली न पीने की मगर 
जाम टूटा ही नहीं जाम से टकराने में 

भूलने में तो उसे देर ज़ियादा न लगी 
ग़म-गुसारों ने बहुत वक़्त लिया जाने में 
ग़म-गुसारों =हमदर्द 

हैं तो नादान मगर इतने भी नादान नहीं 
बात बनती हो तो आ जाते हैं बहकाने में 

मुशायरों के मंचों से शारिक़ साहब का नाता बहुत पुराना नहीं है। इंटरनेट पर सन 2012 के पहले का शायद ही कोई वीडियो आपको देखने को मिले। पब्लिक में बेहद संजीदा और खामोश रहने वाले शारिक़ पूरे मोहल्ला बाज़ हैं और ज़िन्दगी के हर लम्हे का लुत्फ़ लेते हुए जीते हैं। उनका कहना है कि शायरी उनके लिए बहुत जरूरी काम नहीं है बल्कि जब वो हर तरफ से पूरे सुकून में होते हैं तभी शायरी करते हैं। जब मूड और फुर्सत में होते हैं तभी शायरी करते हैं और उनपर एक तरह से शायरी के दौरे पड़ते हैं जिसके चलते वो लगातार इतना लिखते हैं कि एक किताब का मसौदा तैयार हो जाता है और फिर वो एक लम्बी चुप्पी ओढ़ लेते हैं।सन 2010 से उनके लेखन में रवानी आयी है और मंचों पर वो दिखाई भी देने लगे हैं। हिंदुस्तान के अलावा पाकिस्तान और दूसरे उन देशों में जहाँ उर्दू बोली या समझी जाती है ,शारिक़ साहब का नाम बहुत इज़्ज़त से लिया जाता है।

झूट पर उस के भरोसा कर लिया 
धूप इतनी थी कि साया कर लिया 

बोलने से लोग थकते ही नहीं 
हम ने इक चुप में गुज़ारा कर लिया 

सारी दुनिया से लड़े जिसके लिए 
एक दिन उस से भी झगड़ा कर लिया 

शारिक़ साहब के प्रशंसकों में हिंदी और उर्दू पढ़ने वाले दोनों तरह के लोग हैं। उनकी तीनों किताबें उर्दू में हैं इसलिए रेख़्ता फाउंडेशन की और से चलाई गयी "रेख़्ता हर्फ़-ऐ-ताज़ा सीरीज "के अंतर्गत छपी शारिक़ साहब की शायरी की किताब "खिड़की तो मैंने खोल ही ली "का देवनागरी लिपि में प्रकाशन एक प्रशंसनीय कदम है। इस किताब में आप उनकी 82 ग़ज़लें ,कुछ फुटकर शेर और 21 चुनिंदा नज़्में पढ़ सकते हैं। किताब की प्राप्ति के लिए या तो आप रेख़्ता से उनके ई-मेल contact@rekhta.orgपर लिखें या सीधे अमेज़न से ऑन लाइन मंगवा लें। ये मान के चलें कि अगर आपकी लाइब्रेरी के ख़ज़ाने में ये कोहिनूर हीरा नहीं है तो फिर क्या है। इस किताब पर लिखने के लिए इतना कुछ है की मैं लिखते-लिखते थक जाऊंगा और आप पढ़ते-पढ़ते फिर भी बहुत कुछ छूट जायेगा।

याद आती है तिरि सन्जीदगी
और फिर हँसता चला जाता हूँ मैं 

बिन कहे आऊंगा जब भी आऊंगा 
मन्तज़िर आँखों से घबराता हूँ मैं 

अपनी सारी शान खो देता है ज़ख्म 
जब दवा करता नज़र आता हूँ मैं 

अपने चार भाइयों के साथ बरेली में सयुंक्त परिवार की तरह रहने वाले शारिक़ कैफ़ी साहब यारों के यार हैं। मेरी आपसे दरख़्वास्त है कि आप उन्हें उनके मोबाईल न. 9997162395पर बात कर बधाई दें क्यूंकि किसी भी शायर का सबसे बड़ा तोहफा उसके पाठकों का प्यार ही होता है।चाहता तो था कि उनकी कुछ लाजवाब नज़्में भी आपतक पहुंचाता लेकिन उनकी नज़्मों के लिए तो एक अलहदा पोस्ट चाहिए जो फिर कभी सही, फ़िलहाल आपके कीमती वक़्त का लिहाज़ करते हुए मैं खुद को यहीं रोक रहा हूँ और अगली किताब तलाशने के पहले आईये आपको उनके कुछ बहुत मशहूर शेर पढ़वाता हूँ :

 तुम तो पहचानना ही भूल गए 
 लम्स को मेरे रौशनी के बग़ैर
*** 
ये तिरे शहर में खुला मुझ पर 
मुस्कुराना भी एक आदत है 
*** 
एक दिन हम अचानक बड़े हो गए 
खेल में दौड़ कर उस को छूते हुए 
*** 
होश खोए नहीं मोहब्बत में 
बंद कमरे में मुस्कुराता हूँ 
*** 
बुरा लगा तो बहुत ज़ख्म को छुपाते हुए 
मगर गिरे थे सो उठना था मुस्कुराते हुए 
*** 
अधूरी लग रही है जीत उस को 
उसे हारे हुए लगते नहीं हम
 *** 
रात थी जब तुम्हारा शहर आया 
फिर भी खिड़की तो मैंने खोल ही ली




किताबों की दुनिया - 170

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क़ैद हो कर रह गया है अपने घर में हर कोई 
झाँकती हैं दूर तक कुछ खिड़कियाँ बरसात में 

इस जवाँ मौसम में आओ भीगने का लें मज़ा 
कब तलक थामे रहोगे छतरियाँ बरसात में 

कट गया हूँ आज कल दुनिया से मैं कुछ इस तरह
जैसी कटती हैं पहाड़ी वादियाँ बरसात में 

अहा !! "झांकती हैं दूर तक कुछ खिड़कियाँ बरसात में"वाले मिसरे में इंतज़ार का मंज़र कुछ इस तरह से बयाँ हुआ है की सोच कर ही कलेजे में हूक सी उठने लगती है ,लेकिन कुछ हैं जो इसे पढ़ कर खुश नहीं है, कह रहे हैं साहब इस शेर में मयार नहीं है ,शेर समझ जल्दी आ रहा है याने जब तक शेर में उलझाव न हो बात की गेंद टप्पा कहीं खाये और घूम कहीं और जाय तब तक वो वाह वाह करने से परहेज करते हैं। सीधी सरल सहज बात करने के अंदाज़ को बहुत से उस्ताद शायरी मान ने से साफ़ इंकार करते हुए उसे तुकबंदी कहते हुए मुंह फेर लेते हैं। खैर साहब पसंद अपनी अपनी ख़्याल अपना अपना। मुझे तो वो ही शेर पसंद आते हैं जो दिल के ज़ज़्बात ख़ूबसूरती से पेश करते हैं, अब आपकी आप जानें ।

ख़ुशी का अश्क हो कोई कि ग़म का हो कोई आंसू 
कि जिन आँखों से हंसना है उन्हीं आँखों से रोना भी 

करूँ तो और क्या ख़िदमत करूँ तेरी बता मुझको 
तेरा हथियार भी हूँ तेरे हाथों का खिलौना भी 

मुसीबत में रहूं ये भी नहीं उसको ग़वारा है 
नहीं मंज़ूर है उसको मेरा खुशहाल होना भी 

हमारे आज के शायर के बारे में दिल्ली के कामयाब और मशहूर शायर जनाब "इक़बाल अश्हर"साहब ने लिखा है कि "पंजाब की ज़िंदा दिली ,हिमाचल की मुसव्विरी, जम्मू कश्मीर का हुस्न , घुट्टी में शामिल पुरानी तहज़ीब की जादूगरी ,अदब की भूल-भुलैय्यां में जनाब "राजिन्दर नाथ रहबर की रहबरी, घर-आँगन में बसी सच्चे रिश्तों की महकार, कुछ बन पाने का ख़्वाब , कुछ कर गुजरने की तमन्ना इन तमाम अनासिर के जहूर-ऐ-तरतीब ने जनाब "नरेश 'निसार'साहब का शेरी पैकर तराशा है। "हम उनकी किताब "सौदा"की बात करेंगे जिसे अप्रेल 2016 में दर्पण पब्लिकेशन , पठानकोट ने प्रकाशित किया था।


किसी भी ज़ाविये से देख लेती हैं मिरी आँखें 
तिरी आँखों से अच्छी हैं तिरी तस्वीर की आँखें 

हो तुम तो आँख वाले, जंग से तुम बाज़ आ जाओ 
नहीं होतीं नहीं होतीं किसी शमशीर की आँखें 

वो हैं किस काम की आँखें नहीं हो रौशनी जिनमें 
यूँ होने को तो होती हैं बहुत ज़ंजीर की आँखें 

पठानकोट से लगभग 19 कि मी दूर काँगड़ा जिले की इंदौरा तहसील में एक छोटा सा गाँव है 'सूरजपुर'जहाँ 14 फरवरी ,जी ठीक वेलेंटाइन वाले दिन ही, सं 1968 को जनाब नरेश'निसार'का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ। ये परिवार भले आर्थिक दृष्टि से साधारण रहा हो लेकिन मानवीय मूल्यों और सामाजिक सरोकारों को निभाने में असाधारण था। तभी आज के इस युग में भी 21 जनों का ये आदर्श परिवार इकठ्ठे रहता है, इनके सुख-दुःख सांझे हैं. शायरी ने नरेश जी को कब और कैसे प्रभावित किया ये तो पता नहीं लेकिन उनकी शायरी को निखारने में उनके उस्ताद जनाब "राजिन्दर नाथ रहबर'साहब का बहुत बड़ा योगदान रहा। रहबर साहब को कौन नहीं जानता ? उनकी नज़्म "तेरे खुशबू में भरे खत मैं जलाता कैसे..."को महान ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह जी ने अपनी आवाज़ दे कर अमर कर दिया था।

हज़ारों बार उभरा हूँ हज़ारों बार डूबा हूँ 
मुझे लगता है मैं कोई समन्दर का किनारा हूँ 

नहीं है राबिता मुझ से ही मेरा इन दिनों कोई 
न जाने आज-कल मैं कौन सी दुनिया में रहता हूँ 

मिली है हमको दरवेशी की ये दौलत विरासत में 
मिरा बेटा है मुझ जैसा मैं अपने बाप जैसा हूँ 

नरेश 'निसार'जैसा कि मैंने बताया हिमांचल की ऐसी सुदूर जगह से हैं जहाँ अदब का कोई नाम लेवा भी नहीं है, शायरी तो दूर की बात है लेकिन उसी जगह नरेश निसार साहब के जज़्बे के कारण ही "मंथन अदबी अंजुमन"जैसी संस्था को खड़ी हुई । इस संस्था के अंतर्गत कुल हिन्द मुशायरों का सफलता पूर्वक सञ्चालन होता है। मुंबई के शायर "इब्राहीम अश्क "ने इस बात को यूँ कहा है "''इंदौरा'कांगड़ा जिले की वो जगह है जहाँ शायरी और मुशायरों का कभी नामो-निशान तक नहीं रहा। ऐसे बंज़र माहौल में कोई ग़ज़लों की फसलें उगाने और उसकी आबयारी (पानी देना ) करने का फ़र्ज़ अदा करता है , शेरो-सुख़न का माहौल बनाता है और मुशयरों की रिवायत को आम करके 'मंथन अदबी अंजुमन, कायम करता है तो ये काम आसान नहीं ,जूऐ-शीर (दूध की नहर) लाने जैसा है। इसे तो कोई फ़रहाद ही अंजाम दे सकता है जो कभी-कभी ही पैदा होता है। 'नरेश निसार'मौजूदा दौर के ऐसे ही फ़रहाद हैं."

मैं उसको देखता रहता हूँ छू नहीं सकता 
वो मेरे सामने रहता है आसमाँ की तरह 

अगर मैं देर से लौटूँ तो डाँटती है मुझे
ख़ुदा ने बख़्शी है बेटी भी मुझको माँ की तरह

वो बात जो कि हमारे न दरमियां थी कभी 
बना लिया है उसे हमने दास्तां की तरह 

आप उनकी शायरी के बारे में चाहे जो कहें लेकिन उनके शायरी के प्रति जूनून के बारे में कुछ कहने को है ही नहीं। नरेश का अपना "स्टोन क्रशिंग"का व्यापार है याने दिमाग पत्थर तोड़ने में लगा है और उनका दिल फूल सी नाज़ुक शायरी करने में । खूबसूरत व्यक्तित्व के मालिक, बड़े दिल वाले ,हर परिस्थिति में सच और सिर्फ सच बोलने को प्रतिबद्ध, झुझारू प्रकृति के और हर किसी पर आँख मूँद कर भरोसा करने वाले 'नरेश'पूरी तरह परिवार को समर्पित इंसान हैं। अपनी पत्नी ममता जी के लिए उन्होंने जो घर बनवाया उसका नाम रखा "ममता'ज़ महल "वो इस किताब में अपने पाठकों को निमंत्रण देते हुए लिखते हैं कि "ताज महल तो आप ने देखा होगा लेकिन कभी वक्त मिले तो किसी रोज़ मेरे गरीबखाने ममता'ज़ महल "जरूर आइयेगा।

किसी बच्चे को माँ की गोद में सोते हुए देखा 
भला इस से भी बढ़ कर कोई जन्नत और होती है

नहीं मिलते हैं हम उनसे तो सालों तक नहीं मिलते 
अगर मिलते हैं तो मिलने की चाहत और होती है 

यही रोना रहा उनके हमारे दरमियाँ अक्सर 
हमारी और तो उनकी मसर्रत और होती है 
मसर्रत=ख़ुशी 

नरेश ग़ज़लों के अलावा नज़्में और गीत भी लिखते हैं। "सौदा"उनकी ग़ज़लों की दूसरी किताब है, इस से पहले सं 2008 में उनका पहला ग़ज़ल संग्रह "बरसात में"शाया हो कर बहुत चर्चित हो चुका है। उनकी ग़ज़लें , नज़्में और गीत देश की प्रतिष्ठित हिंदी और उर्दू पत्र पत्रिकाओं में छपती रहती हैं। कुल हिन्द मुशायरों के आयोजन के अलावा वो देश भर में होने वाले मुशायरों में शिरकत भी करते हैं। उनकी ग़ज़लों का प्रसारण आकाशवाणी और दूरदर्शन से भी होता रहता है। दुनिया की 125 ज़बानों में गाने वाले गिनीज़ वर्ल्ड रेकार्ड होल्डर प्रसिद्ध गायक डा. ग़ज़ल श्रीनिवास ने उनकी ग़ज़लों को आवाज़ दी है और अपने अमेरिका ,कैनेडा और यूरोप के दौरे के दौरान सुना कर खूब वाह वाही बटोरी है।

एक इन्सां को खुदा मान लिया क्या हमने 
हम पे करता है सितम भी वो इनायत की तरह 

तेरा इन्साफ़ तेरा हुक्म तिरा रहमो-करम 
तेरी महफ़िल नज़र आती है अदालत की तरह

मेहरबां होगा खुदा हम पे तो कैसे होगा 
हम इबादत ही नहीं करते इबादत की तरह 

नरेश जी की ग़ज़लों की ज़बान निहायत सादा है ,हालाँकि उन्होंने उर्दू सीखी है लेकिन भाषा को अपनी ग़ज़लों पर कभी हावी नहीं होने दिया। अपनी ग़ज़लों के बारे में उन्होंने लिखा है कि "व्यापार के सिलसिले में रोज़ मुझे तीन सूबों से होकर गुज़ारना पड़ता है। हिमांचल से पंजाब (पठानकोट) पंजाब से जम्मू-कश्मीर (कठुआ), शायद यही वजह है कि मैं गंगा-जमनी भाषा और साँझा तहज़ीब में यकीन रखता हूँ। मैंने अपनी शायरी में भी उसी आम ज़बान का इस्तेमाल किया है जो पूरे हिंदुस्तान को एक दूसरे से जोड़ती है। मुझे दूसरों से जियादा मेहनत करनी पड़ती है क्यूंकि जानकारों के मुताबिक सादा ज़बान में शायरी करना एक बेहद मुश्किल काम है. मेरे ख्याल में किसी का अच्छा इंसान होना अच्छा शायर होने से अधिक मायने रखता है। न तो जीते जी कोई इंसान मुकम्मल हो सकता है न ही शायर। बहुत सारी खामियों के बीच अच्छा इंसान बनने की क़वायद के साथ साथ जनाब रहबर साहब की रहनुमाई में पिछले सत्रह से अधिक सालों से मेरा अदबी सफ़र जारी है "

न जाने किस तरफ ले जायेंगे मेरे कदम मुझको 
मिरि मंज़िल है वो मुझको जो इक सीढ़ी समझता है 

बड़े क़द से नहीं रुतबा किसी का भी बड़ा होता 
बहुत नादान है चींटी को जो चींटी समझता है 

कोई इज़हार अपने इश्क का करता है बढ़-चढ़ कर 
कोई खामोश रहने में समझदारी समझता है 

इस किताब की प्राप्ति के लिए जिसमें नरेश जी की चुनिंदा 88 ग़ज़लें संग्रहित हैं के लिए सबसे सरल रास्ता है 'नरेश निसार'साहब को उनके मोबाईल न. 9815741931 या 9779831310 पर बात कर उन्हें इन खूबसूरत ग़ज़लों के लिए बधाई देते हुए किताब पाने का सबसे आसान रास्ता पूछें। आखिर में नरेश जी के उस्ताद-ऐ-मोहतरम जनाब रहबर साहब के उनके बारे में लिखे इन लफ़्ज़ों के साथ आपसे विदा लेता हूँ "'निसार'एक अनुभवी कारोबारी इंसान हैं और बिजनेस के मुआमलात में घाटे का सौदा नहीं करते लेकिन कारोबार-ऐ-इश्क में वो घाटे का सौदा करने से भी गुरेज़ नहीं करते। वो शायरी की राह के रौशन चिराग हैं और एक लम्बी मुद्दत से अदब की राहों को पुर नूर कर रहे हैं। उनके काव्य में ज़िन्दगी की गर्माहट महसूस की जा सकती है। "
आईये पढ़ते हैं उनके कुछ फुटकर अशआर :

उनसे बस इक बार मिलने के लिए 
फिर नहीं मिलने का सौदा कर लिया
*** 
अब यही बेहतर है उसके ख़्वाब लेना छोड़ दें 
दिन में जो मिलता नहीं वो क्या मिलेगा रात को
*** 
कपड़े पसंद के हुए उस उम्र में नसीब 
जिस वक़्त चेहरे पर कोई रंगत नहीं रही
*** 
लगाया था किसी पर दाव हमने सोच कर लेकिन
किसे मालूम था सोने की क़ीमत टूट जाएगी 
*** 
वो अँधेरे में मुझको रखता है मैं 
जिसे आफ़ताब लिखता हूँ 
*** 
लो कड़ी धूप में होता है सफ़र अपना तमाम 
किसने देखा तेरी ज़ुल्फ़ों का घटा हो जाना
*** 
किस तरफ़ रुख है हवाओं का ये पूछो उनसे
 ख़ाक बन-बन के जो हर रोज़ उड़ा करते हैं

किताबों की दुनिया - 171

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चलिए एक बार फिर से अतीत में झांकते हैं। अतीत, जहाँ शायरी के उस्ताद हैं, कहन का निराला अंदाज़ है, लफ़्ज़ों का जादू है, एहसास की गहराई है, रिवायत का नशा है. आज के युवाओं को पता होना चाहिए कि पहले शायरी कैसी थी अब कैसी है। हिंदी के पाठक उर्दू के पुराने शायर जैसे ग़ालिब, मीर, दाग, जफ़र, मज़ाज़, इक़बाल, फ़िराक़ आदि के नामों से बखूबी वाकिफ़ हैं लेकिन शायरी के लम्बे इतिहास में ऐसे बेमिसाल शायरों की कमी नहीं जिन्हें हिंदी के पाठकों ने अधिक पढ़ा सुना नहीं। नाम सुना भी हो तो उन्हें पढ़ा नहीं होगा क्यूंकि ऐसे शायरों का कलाम आसानी से पढ़ने को नहीं मिलता। इस श्रृंखला में ऐसे शायरों ज़िक्र होता रहा है उसी कड़ी को आज आगे बढ़ाते हैं :

मरने की दुआएं क्यों माँगूँ जीने की तमन्ना कौन करे 
ये दुनिया हो या वो दुनिया अब ख्वाइशे-दुनिया कौन करे 

जब कश्ती-साबित-ओ-सालिम थी साहिल की तमन्ना किसको थी 
अब ऐसी शिकस्ता कश्ती पर साहिल की तमन्ना कौन करे 

जो आग लगाई थी तुमने उसको तो बुझाया अश्कों ने  
जो अश्कों ने भड़काई है उस आग को ठंडा कौन करे

शायद आपको याद होगा कुछ इसी तरह के ज़ज्बात 1972 में आयी फिल्म "अमर प्रेम "में गीतकार आनंद बक्शी साहब ने "चिंगारी कोई भड़के तो सावन उसे बुझाये..."गीत में पिरोये थे जो खूब मशहूर हुआ था. हो सकता है कि मेरी सोच गलत हो लेकिन मुझे ग़ज़ल ये शेर पढ़ते वक्त वो ही गाना याद आया है। खैर !!ये ग़ज़ल सन 1934 में याने आज से लगभग 84 साल पहले लाहौर से छपने वाले मासिक रिसाले "हुमायूँ"में जब प्रकाशित हुई तो एक-दम से पाठक और लेखक सभी चौंक उठे और उस शायर की गणना अचानक आधुनिक काल के प्रथम श्रेणी के शायरों में होने लगी। दिलचस्प बात ये है कि इस से पहले जो पत्र-पत्रिकाएं इस शायर की रचनाओं को कूड़ा पात्र में डाल रहीं थी वो ही लाइन लगा कर उसका कलाम छापने को लालाइत रहने लगीं। और तो और इस ग़ज़ल को 1948 में आयी हिंदी फिल्म 'जिद्दी'में किशोर कुमार की आवाज़ में देवआनंद साहब पर फिल्माया गया था।

इस तरफ़ इक आशियाने की हक़ीक़त खुल गयी 
उस तरफ़ इक शोख़ को बिजली गिरना आ गया 

रो दिए वो खुद भी मेरे गिरया-ए-पैहम पे आज 
अब हक़ीक़त में मुझे आंसू बहाना आ गया 
गिरया-ए-पैहम=लगातार रोने पर 

मेरी ख़ाके-दिल भी आखिर उनके काम आ ही गई 
कुछ नहीं तो उनको दामन ही बचाना आ गया 

हमारे आज के शायर जनाब "मुईन अहसन 'जज़्बी'जिनकी रचनाओं का संकलन श्री प्रकाश पंडित ने "राजपाल ऐंड संस"की लोकप्रिय सीरीज़ "उर्दू के लोकप्रिय शायर"के अंतर्गत किया था, का जन्म 21 अगस्त 1912 में जिला आजमगढ़ के पास के एक गाँव 'मुबारकपुर"में हुआ। उनके दादा डाक्टर अब्दुल गफ़ूर खुद शायर थे और 'मतीर'उपनाम से ग़ज़लें कहते थे। घर के साहित्यिक माहौल में 'जज़्बी'ने मात्र नौ-दस साल की उम्र से तुकबंदी शुरू कर दी और पन्द्रह-सोलह की उम्र से तो बाकायदा मयारी ग़ज़लें कहने लगे। बचपन में ज़िन्दगी जज़्बी साहब पर बहुत मेहरबान नहीं रही। शायरी के शौक ने पढाई से दिल हटा दिया नतीजा ये निकला कि जनाब ने मेट्रिक पास करने में चार साल लगा दिए। वो ही हुआ जो अक्सर ऐसे हालात में होता है -पिता नाराज़ और सौतेली माँ ताने मार मार कर जीना हलकान करने लगी। जब सब्र की इंतिहा हो गयी तो हुज़ूर घर से भाग खड़े हुए। 


अपनी निगाहे-शौक को रुसवा करेंगे हम 
हर दिल को बेक़रारे-तमन्ना करेंगे हम 

ऐ हुस्न हमको हिज़्र की रातों का ख़ौफ़ क्या
तेरा ख्याल जागेगा सोया करेंगे हम 

ये दिल से कह के आहों के झोंके निकल गए 
उनको थपक-थपक के सुलाया करेंगे हम 

घर से भागना जितना आसान है उतना ही भाग कर ज़िंदा रहना मुश्किल। ग़ालिब के शेर को नकारते हुए उन पर मुश्किलें भी इतनी पड़ीं कि आसान नहीं हुई। उन्होंने ऐसे दिन भी देखे जब उन्हें सुबह की चाय तो किसी तरह मिल जाती लेकिन दोपहर के खाने के लिए पांच-छै मील पैदल चल कर किसी मित्र-मुलाकाती का मुंह देखना पड़ा और न जाने कितनी रातों को फाकों की नौबत आई। ट्यूशनें करके और पेट पर पत्थर बांधकर उन्होंने आगरा के सेंट जोंस कॉलेज से इंटर किया। स्कूल के दिनों और फिर उसके बाद भी जनाब गफ़्फ़ार और सादिक़ के रूप में उन्हें उस्ताद मिले। गफ़्फ़ार साहब उनके लिखे को देखते सुधारते और फिर सादिक़ साहब को दिखाते जो थोड़ी फेर बदल से उनकी शायरी को चमका देते। स्कूल के बाद उन्होंने आगरा के ही एंग्लो अरेबिक कॉलेज में दाखिला लिया और वहीँ से बी.ऐ की डिग्री हासिल की।

ऐश से कुछ खुश हुए क्यों ग़म से घबराया किये
ज़िन्दगी क्या जाने क्या थी और क्या समझा किये 

वो हवाएं, वो घटायें, वो फ़ज़ा वो उनकी याद 
हम भी मिज़राबे-अलम से साज़े-दिल छेड़ा किये 
मिज़राबे-अलम =दुःख रूपी सितार बजाने का छल्ला 

काट दी यूँ हमने 'जज़्बी'राहे मंज़िल काट दी 
गिर पड़े हर गाम पर, हर गाम संभला किये 
गाम=डग 

कॉलेज के दिनों में उनकी दोस्ती लाजवाब शायर मज़ाज़ से हुई और फ़ानी बदायूनी से पहचान। इन दोनों के सानिध्य से जज़्बी साहब की शायरी में सुधार आया। एक महफ़िल में उन्हें जनाब जिगर मुरादाबादी साहब ने कलाम पढ़ते सुना और खुश हो गए। वो उन्हें जनाब मैकश अकबराबादी से मिलवाने ले गए। मैकश साहब की रहनुमाई में जज़्बी साहब की शायरी बराबर संवरती रही। उनका व्यक्तिगत ग़म सामूहिक ग़म में परिवर्तित हो गया।सन 1941 में जज़्बी साहब अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ने चले गए और वहां से एम् ऐ की डिग्री हासिल की। फ़ाक़ा मस्ती और शायरी का दौर साथ साथ चलता रहा।

रूठने वालों से इतना कोई जाकर पूछे 
खुद ही रूठे रहे या हमसे मनाया न गया 

फूल चुनना भी अबस, सैर-बहारां भी फ़जूल 
दिल का दामन ही जो काँटों से बचाया न गया 
अबस=व्यर्थ 

उसने इस तरह मुहब्बत की निगाहें डालीं 
हमसे दुनिया का कोई राज़ छुपाया न गया 

अलीगढ़ में पढाई करने के दौरान उनका लख़नऊ आना जाना भी लगा रहा जहाँ उनकी मुलाकात अली सरदार ज़ाफ़री और सिब्ते हसन साहब से हुई। इन लोगों ने उनका परिचय प्रगतिवादी विचारधारा से करवाया जिसके बाद जज़्बी अलीगढ़ में एम.ए. के दौरान आंदोलन के सक्रिय सदस्यों में गिने जाने लगे. एम.ए. करने के बाद कुछ अर्से तक जज़्बी ने माहनामा ‘आजकल’ में सहायक सम्पादक के रूप में अपनी सेवाएँ दीं. 1945 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में लेक्चरर के रूप में नियुक्ति हो गयी जहाँ वह अंतिम समय तक विभन्न पदों पर रहे. अलीगढ़ में लगी इस नौकरी ने उनके माली हालात अच्छे कर दिए और ज़िन्दगी में कुछ सुकून के पल हासिल होने लगे। नौकरी लगने के बाद उन्होंने अपनी बूढ़ी बीमार सौतेली मां को ,जिसने बचपन में जज़्बी साहब को बहुत सताया था ,अपने पास ले आये और उनकी खूब सेवा की।

शिकवा ज़बान से न कभी आशना हुआ
नज़रों से कह दिया जो मेरा मुद्दआ हुआ 

अल्लाह री बेखुदी कि चला जा रहा हूँ मैं
मंज़िल को देखता हुआ कुछ सोचता हुआ 

फिर ऐ दिल-शिकस्ता कोई नग्मा छेड़ दे 
फिर आ रहा है कोई इधर झूमता हुआ 

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हुए उन्होने सन 1956 में ‘हाली का सियासी शुऊर’ विषय पर पी.एच. डी. हासिल की । यह किताब हाली अध्ययन में एक संदर्भ ग्रंथ के रूप में भी स्वीकार की गयी. इसके अतिरिक्त ‘फ़ुरोज़ां’, ‘सुखन-ए-मुख्तसर’ और ‘गुदाज़ शब’ उनके काव्य संग्रह हैं. जज़्बी साहब 'प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा संचालित 'तरक्की पसंद तहरीक "से लम्बे वक्त तक जुड़े रहे।जज़्बी साहब ने अपने समकालीनों के मुकाबले बहुत कम लिखा है लेकिन जो लिखा पुख्ता लिखा है । उनके बारे में कहा जाता है कि वो अपने एक एक शेर को महीनों मांझते थे और उस वक्त तक सामने नहीं लाते थे जब तक कि उन्हें विश्वास न हो जाय कि किसी भी दृष्टि से उस शेर में अब काट-छाँट की गुंजाइश नहीं बची है। फ़ेसबुक पे फ़टाफ़ट अपनी ग़ज़ल चिपका कर लाइक पाने वाले इस दौर में ,इतनी मेहनत करने वाले शायर अब हैं कहाँ ?

यही ज़िन्दगी मुसीबत यही ज़िन्दगी मसर्रत 
यही ज़िन्दगी हक़ीक़त यही ज़िन्दगी फ़साना 

कभी दर्द की तमन्ना, कभी कोशिशे-मुदावा 
कभी बिजलियों की ख्वाइश कभी फ़िक्रे-आशियाना 
कोशिशे-मुदावा=उपचार की कोशिश 

जिसे पा सका न ज़ाहिद, जिसे छू सका न सूफ़ी 
वही तार छेड़ता है, मेरा सोज़े-शायराना 

जज़्बी की शायरी को आलोचकों ने सही से परखा नहीं किसी ने उन्हें 'केवल शब्दों का जौहरी'कह कर ख़ारिज किया तो किसी ने उसकी शायरी को उर्दू के महान निराशावादी शायर 'फ़ानी बदायूनी'की शायरी का चर्बा माना। जबकि असलियत ये है कि जज़्बी के यहाँ हमें अन्तर्गति और कला का ऐसा सुन्दर समावेश मिलेगा जो उर्दू की नई पीढ़ी के बहुत कम शायरों के हिस्से में आया है और जिसके लिए एक-दो दिन की नहीं बरसों की तपस्या चाहिए। उर्दू के इस कद्दावर शायर ने जीवन भर कभी शोहरत और आलोचकों की परवाह नहीं की और अपने काम पर लगे रहे। जज़्बी साहब की याद में नवंबर 2017 को आगरा के सेंट जॉन्स कॉलेज में दो दिन की संगोष्ठी का आयोजन किया गया था जहाँ देश भर से आये उर्दू अदब के नामी गरामी साहित्यकारों ने शिरकत की थी। वहां आये सभी लोग इस बात से सहमत थे कि 'उनकी ज़िन्दगी और उनकी शायरी एक है। जब तक उर्दू शायरी ज़िंदा है जज़्बी का नाम अज़मत से लिया जाएगा "

मुस्कुरा कर डाल ली रुख पर नक़ाब
मिल गया जो कुछ कि मिलना था जवाब 

दिल की इक हल्की सी जुम्बिश चाहिए 
किसका पर्दा और फिर कैसी नक़ाब 

अब तो मंज़िल की भी कुछ पर्वा नहीं 
मैं कहाँ हूँ ऐ दिले-नाकामियाब 

जज़्बी साहब इस दुनिया-ऐ-फ़ानी से 13 फरवरी 2005 से रुख़्सत हो गए और पीछे छोड़ गए ऐसी लाजवाब शायरी जो उर्दू शायरी के फ़लक पर हमेशा जगमगाती रहेगी। मुझे अफ़सोस है कि मैं आपको इस किताब तक पहुँचने का रास्ता नहीं बता सकता क्यूंकि राजपाल वालों के यहाँ ये आउट ऑफ प्रिंट हो चुकी है। किसी लाइब्रेरी में पड़ी मिल जाए तो मिल भी जाय वरना रेख़्ता की साइट पर आप जज़्बी साहब की कुछ चुनिंदा ग़ज़लें पढ़ सकते हैं। इस किताब में आप जज़्बी साहब की लगभग 21 नज़्में और 45 के करीब ग़ज़लें पढ़ सकते हैं। जज़्बी साहब की नज़्म "मौत"उर्दू की सर्वकालीन बेहतरीन नज़्मों में से एक मानी जाती है। ये नज़्म इंटरनेट पर उपलब्ध है , इसे एक बार जरूर पढ़ें। अगली किताब की तलाश पर निकलने से पहले हाज़िर हैं उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर :

अजल से लरज़ते रहे हैं मिज़ां पर 
खुदा जाने टूटेंगे कब ये सितारे 
मिज़ां=पलकें 

तुझे आस्मां नाज़ है इक शफ़क़ पर
ज़मीं पर तो हैं कितने खूनीं नज़ारे 

वहां से भी तूफ़ान उठ्ठे हैं ऐ दिल
जिन्हें लोग समझा किये हैं किनारे 

सियह रात क्यों काँप उठती है 'जज़्बी' 
सहर के तो होते हैं दिलकश इशारे

किताबों की दुनिया - 172

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उसे तो जाना था , वो जा चुकी, है शिकवा क्या
वो कितना खींच भी सकती थी मेरी व्हील चेयर 

वो जिसको पाँव के नीचे से कब का खींच लिया 
बना रहा हूँ मैं अब भी उसी ज़मीन पे घर

फ़िराक़ में था वो दीवारो-छत बनाने की
मैं फिर भी कह नहीं पाया कि कोई नींव तो धर 

आज के दौर में जो चाहो वो जानकारी सहजता से उपलब्ध है। कुछ भी अब अनजाना नहीं रह गया है ,भला हो इंटरनेट के गूगल महाराज का जिसने हर बात की गोपनीयता को सार्वजनिक करने का ठेका ले रखा है -वो भी मुफ़्त में। ऐसे में आपको 13 सितंबर 1879 को बदायूं जिले के एक मोतबर शायर का नाम मालूम न हो ऐसा हो ही नहीं सकता जब तक कि आपमें उसे जानने की रूचि ही न हो। लेकिन मैं मान के चलता हूँ कि 26 अगस्त 1940 को इस दुनिया-ऐ-फ़ानी से रुख़्सत फ़रमाने वाले उर्दू के महानतम शायरों में से एक ,जिनका ये शेर "मौत का इंतज़ार बाक़ी है; आप का इंतज़ार था,न रहा"आज भी उतना ही मक़बूल जितना कि ये आज से करीब 100 साल पहले था,ये शेर जनाब ज़नाब "फ़ानी बदायूनी"का है जिनका नाम तो आपने सुना ही होगा। क्या कहा ? नहीं सुना ? ओह !! कोई बात नहीं अब सुन लिया ना , लेकिन इनकी शायरी की बात हम आज नहीं करने वाले , कभी करेंगे , लेकिन आज नहीं , तो फिर आज उनका जिक्र क्यों ? बताते हैं , बताते हैं सब्र तो कीजिये :

चाँद तारों को पुकारूंगा मैं अपनी छत से 
जो भी चाहे मेरी आवाज़ में शामिल हो जाय 

धूप बिखरी है जो सड़कों पे उठा लो इसको 
कल इसे देखना शायद यहाँ मुश्किल हो जाय 

सर झुकाये हुए बैठा हूँ मैं कब से 'फ़ानी" 
हो जिसे शौक़ वो आ के मेरा क़ातिल हो जाय 

दरअसल 'फ़ानी'का जिक्र आते ही जो नाम ज़ेहन में गूंजा वो 'फ़ानी बदायूनी'साहब का ही था इसलिए उनका जिक्र करना पड़ा। सोच लिया है कि बात तो आज हम 'फ़ानी'साहब की ही करेंगे लेकिन "फ़ानी बदायूनी"की नहीं "फ़ानी जोधपुरी"की, जो हमारे पहले वाले 'फ़ानी'साहब से पूरे 106 सालों के बाद याने 24 फ़रवरी 1985 को जोधपुर में पैदा हुए। इन 106 सालों में पूरी दुनिया बदल चुकी है ,इंसान की सोच भी बदल चुकी है लेकिन इंसान के सुख-दुःख, परेशानियां, फ़ितरत आदि में कोई खास बदलाव नहीं आया है। आपके व्हील चेयर पर बैठे होने पर पुराने ज़माने वाली महबूबा आपको छोड़ के नहीं जाती इसकी कोई गारंटी नहीं है ,ये हो सकता है कि सामाजिक दबाव के चलते वो जबरदस्ती मन मार के आपकी चेयर का हैंडल पकडे रहती जबकि आज की महबूबा हैंडल छोड़ने का निर्णय बिना दबाव के ले सकती है और महबूब भी प्रेक्टिकल सोच रखते हुए उसे जाने दे सकता है। ये उस बदलाव का फल है जो इंसानी फितरत में आया है। इंसान अब दिल से कम दिमाग से ज्यादा काम लेने लगा है।

ऋषि दधीचि सा आओ सलूक़ मुझसे करो 
जो तुमको चाहिए भरपूर मेरे अंदर है 

बनाता रहता है बेचैनियों के महलों को 
जो तेरी याद का मज़दूर मेरे अंदर है 

न कोई चेहरा न साया न अक्स है 'फ़ानी'  
तो किसकी मांग का सिन्दूर मेरे अंदर है 

'फ़ानी बदायूनी'और 'फ़ानी जोधपुरी'में सिर्फ फ़ानी ही कॉमन है बाक़ी दोनों की शायरी में ज़मीन आसमान का अंतर है। फ़ानी जोधपुरी की शायरी के तेवर कुछ नए से हैं। रिवायत से दूर लेकिन हक़ीक़त के पास। मध्य प्रदेश उर्दू अकादमी की सेकेट्री जनाब 'नुसरत मेहदी'साहिबा ने, जो खुद भी देश की अव्वल दर्ज़े की शायरा हैं और जिनकी किताब "मैं भी तो हूँ "का जिक्र हम इस श्रृंखला में बहुत पहले कर चुके हैं,'फ़ानी जोधपुरी'साहब की किताब "पानी बैसाखियों पे'जिसका हम आज जिक्र कर रहे हैं, की भूमिका में लिखा है कि "कोई भी फ़नकार अपने ज़माने का आईना होता है उसे जो कुछ उस आईने में दिखाई देता है उसे वो अपने फ़नकारा अंदाज़ में पेश करता है। इस तरह कोई भी शायर अपने कलाम में ज़िन्दगी के रोज़मर्रा के मसाइल के साथ समाज में आई गिरावट का ज़िक्र करने के साथ साथ उनके इस्लाह की तदबीरों को भी अपने अंदाज़ में पेश करता है। उर्दू ज़बान को सलासत आमफ़हम होने और हरदिल अज़ीज़ बनाने के हवाले से एक नयी शक्ल देना भी शायर अपना अख़लाक़ी फ़र्ज़ समझता है। फ़ानी जोधपुरी ने हुस्नो-इश्क के साथ अपने मुआशरे की बेराहरवी का बहुत सलीके और हुनरमंदी से अपने अशआर में ढाला है


बदल डालूंगा मैं जब खोखले रस्मो-रिवाज़ों को 
मेरे अंदर बसी कमज़ोर औरत जीत जाएगी 

मुझे इक डर सताता है सदा बाज़ार जाने से 
मेरे बटुवे से मेरी हर जरुरत जीत जाएगी 

हिफ़ाज़त से नहीं रक्खा अगर तहज़ीब को 'फ़ानी' 
ज़हानत हार जाएगी, जहालत जीत जायेगी 
ज़हानत =विद्व्ता, जहालत=अज्ञानता 

शायद अप्रेल या जून 2013 में "लफ्ज़"के पोर्टल पर फ़ानी जोधपुरी को पहली बार पढ़ने का मौका मिला था उनके ये शेर मुझे अभी तक याद हैं "फक़त इक दायरे में घूमती है , मगर क्या वक़्त बदला है घड़ी से"और "मैं ही अपनी वफ़ा का क़ैदी हूँ,वो ज़मानत पे छूट जाती है" .जब लोगों से उनके बारे में पता किया तो मालूम पड़ा कि हज़रत सिर्फ 28 साल के युवा है, जोधपुर से तअल्लुक़ रखते हैं अंग्रेजी में एम् ऐ किये हुए हैं और उर्दू-हिंदी में बहुत मयारी शायरी करते हैं। मात्र 28 साल की उम्र में ऐसे उस्तादाना शेर ? फिर ख़्याल आया की प्रतिभा उम्र की मोहताज़ नहीं होती। आपको तो पता ही होगा कि शकेब जलाली ने उर्दू शायरी को मात्र 32 साल की अपनी अल्प उम्र में जिस तरह से मालामाल किया है वैसा करने में लोगों को सदियाँ लग जाती हैं. युवाओं को पढ़ना और उनके बारे में लिखना मुझे बहुत पसंद है क्यूंकि अब ये प्रतिभावान युवा ही शायरी का मुस्तकबिल संवारने का हौंसला रखते हैं और अपनी बात को नए मौलिक अंदाज़ में पेश करते हैं। सोचा था कि इस होनहार शायर की कोई किताब कभी मंज़र-ऐ-आम पे आयी तो जरूर लिखूंगा। किताब आयी लेकिन मुझे पता ही नहीं चला , लेकिन जब जब जो जो होना है तब तब सो सो होता है इसलिए जो पहले होना चाहिए था वो अब हो रहा है :

मैं लैम्प पोस्ट का मध्दम सा बल्ब हूँ जिस पर 
तमाम शहर की रातों की ज़िम्मेदारी है 

मैं ख़्वाब, अक्स, नज़रों में चाहे जो भी हूँ 
मुझे संभालना आँखों की ज़िम्मेदारी है 

दवा को जिस्म के बीहड़ में डाल आया हूँ 
अब इसके बाद दुआओं की ज़िम्मेदारी है 

लैम्प पोस्ट का बल्ब और जिस्म के बीहड़ जैसे लफ्ज़ उर्दू शायरी के लिए नए हैं और नया है कहन का ये दिलचस्प अंदाज़। मैंने देखा कि ,फ़ानी की सभी 85 ग़ज़लों में, जो इस किताब में संग्रहित हैं , उनके लहज़े की ये जादूगरी नज़र आती है। मासूम से चेहरे और दिलकश व्यक्तित्व के मालिक सरताज अली रिज़वी उर्फ़ फ़ानी जोधपुरी (जैसा वो फोटो और वीडियो में दिखाई देते हैं ) ये मानते भी हैं कि "आदमी जब होशियार हो जाता है तो रचना की मासूमियत पर खतरा हो जाने का डर भी रहता है। इसलिए रचना के लिए लेखक के भीतर एक बच्चा जरूरी है..."हम दुआ करते हैं की उनके भीतर का बच्चा कभी बड़ा न हो ताकि वो अपनी लाजवाब शायरी से हमें बरसों बरस सराबोर करते रहें। उस्ताद शायर जनाब 'शीन काफ़ निज़ाम"साहब के फ़ानी साहब के लिए कहे ये लफ्ज़ किसी सर्टिफिकेट या पुरूस्कार से कम नहीं है "कि इल्म की उतरन और अखबार की कतरन शायरी नहीं होती फ़ानी की शायरी में चिंगारियां-शरारे हैं। फ़ानी में सीखने का हौसला है"
"
किसी की ख़ुश्बू कॉलर पे मैं जब घर ले के आता था 
मुझ ही से रात भर फिर मेरा कमरा बात करता था 

किसी की उँगलियाँ बालों से मेरे बात करती थीं 
मेरी बातों में जब तक एक बच्चा बात करता था 

मेरी आँखों में पलते ख़्वाब पढ़ लेता था जब भी वो 
तो लब खामोश हो जाते थे, झुमका बात करता था 

ये जो फ़ानी की शायरी में अजीब सी मिठास है ये जोधपुर में रहने के कारण है ,आप में इस बात को कितने लोग जानते हैं ये मेरे लिए कहना मुश्किल है कि जोधपुर में बोली जाने वाली राजस्थानी भाषा की मिठास की तुलना आप बंगाली या मैथिलि से कर सकते हैं , जोधपुरी भाषा वो भाषा है जिसमें दुश्मन को भी सम्मान से पुकारा जाता है. उनकी शायरी में जो नए मिज़ाज़ के तेवर हैं वो 'फ़ानी'की जड़ों याने ददिहाल और ननिहाल से आये हैं, जो इलाहबाद से ताल्लुक रखते हैं। उनकी वालिदा ,जिनकी मौजूदगी में फ़ानी हमेशा बेफ़िक्र बच्चे से बने रहे ,ने उन्हें ज़िन्दगी ज़िंदादिली से जीने का हुनर सिखाया और सिखाया कि कैसे विपरीत परिस्थितियों में हौंसला बरकरार रखा जा सकता है। उनकी बड़ी बहन ने उन्हें सलीके से जीना सिखाया। फ़ानी की शायरी को संवारने में उनके उस्ताद मोहतरम जनाब 'हसन फतेहपुरी'का बहुत बड़ा हाथ है। उस्ताद ने सिखाया कि कैसे कलम की छैनी-हथौड़ी से लफ़्ज़ों के पत्थर तराश कर ग़ज़ल का हसीन और दिलकश मुजस्समा गढ़ा जाता है:

 ये दिन और रात की आवारगी का है सबब इतना 
सफ़र इक तयशुदा है और तैयारी से बचना है 

सज़ाएं काटते हैं अनगिनत मासूम खत जिसमें 
मुझे लोहे की उस बदरंग अल्मारी से बचना है 

बितानी है मुझे ये ज़िन्दगी अपनी तरह 'फ़ानी' 
गुज़िश्ता दौर की बासी समझदारी से बचना है 

प्रसिद्ध ब्लॉगर, शायर और आलोचक जनाब के.पी अनमोल साहब ने अपने ब्लॉग पर फ़ानी साहब के बारे में लिखा है कि "यह नौजवान शायर इतनी कमसिनी में भी ऐसी ज़हीन बातें कह जाता है कि एकबारगी इसकी उम्र पर शक़ होने लगता है। लेकिन यह सच है कि अनुभव उम्र के आंकड़ों से नहीं बल्कि दुनिया में खाये धक्कों से आता है। इस शायर ने कम उम्र में ही कई बड़े-बड़े धक्के खा लिये हैं कि इसे दुनिया के फ़ानी होने का अंदाज़ा बखूबी हो गया है। फ़ानी जोधपुरी की ग़ज़लों को पढ़कर यह सहज ही समझा जा सकता है कि ख़ुदा ने इन्हें दुनिया को देखने/समझने की कितनी बारीक नज़र अता की है। इनकी शायरी में एक नयापन है जो इन्हें आधुनिक ग़ज़लकारों की पहली सफ (पंक्ति) में खड़ा करने में सक्षम है।"

खुद पे नाज़िल तुझे करवा लिया आयत की तरह 
मैं न कहता था कि ईज़ाद करूँगा तुझको 
ईज़ाद =आविष्कार 

नब्ज़ चलती है मेरी मुझ में तेरे होने से 
क्या मैं पागल हूँ जो आज़ाद करूँगा तुझको 

एक चेहरे के सिवा कुछ न दिया 'फ़ानी'को 
ज़िन्दगी फिर भी बहुत याद करूँगा तुझको 

"पानी बैसाखियों पे"फ़ानी साहब का दूसरा ग़ज़ल संग्रह है इस से पहले उनका मजमुआ "आसमां तक सदा नहीं जाती "सन 2016 में प्रकाशित हो कर चर्चित हो चुका है। शेरो-अदब की ख़िदमद के लिए फ़ानी साहब को 'दलित साहित्य अकादमी अवार्ड' ,'निशाने-लतीफ़ सम्मान''हिंदुस्तान गौरव सम्मान 'और 'भारतेंदु सम्मान'से नवाज़ा जा चुका है। इसके अलावा देश भर में फैले उनके हज़ारों प्रशंसकों का प्यार सबसे बड़ा सम्मान है। रेडियो और दूरदर्शन के प्रोग्राम्स में शिरकत करने के अलावा उन्हें देश भर में होने वाले ऑल इण्डिया मुशायरों में बहुत एहतराम से बुलाया जाता है। मुल्क की सभी आला उर्दू-हिंदी के रिसालों और अखबारों में उनका कलाम छपता रहता है। इतनी कम उम्र में इतनी शोहरत किसी का भी दिमाग ख़राब कर सकती है लेकिन फ़ानी ज़मीन से जुड़ा शायर है उसे पता है कि जरा सी हवा से भरे, आसमान में उड़ने वाले, गुब्बारे हवा के निकलते ही ज़मीन पे आ गिरते हैं.

अपने अतराफ़ में कुछ फूल से बच्चे रखना 
ज़िन्दगी कितनी है आसान समझ जाओगे 
अतराफ़ = आसपास 

कांच के सामने रख देना किसी पत्थर को 
फिर ये जीवन का घमासान समझ जाओगे

ख़्वाब को अपने जला देना किसी की खातिर 
तुम सुलगता हुआ लोबान समझ पाओगे

बोधि प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित इस किताब के बारे में लिखने का उद्देश्य फ़ानी साहब की शायरी का आंकलन करना नहीं है बल्कि उनके कुछ खूबसूरत अशआर आप तक पहुँचाना है। शायरी पसंद करना न करना हर व्यक्ति की निजी रूचि पर निर्भर करता है। अपनी पसंद को किसी पर आरोपित करना ठीक नहीं होता। आप से गुज़ारिश है कि आप ये किताब बोधि प्रकाशन से जनाब मायामृग साहब को 9829018087 पर फोन करके मंगवाएं और जनाब फ़ानी जोधपुरी साहब को उनके लाजवाब कलाम के लिए 9829270098पर फोन करके बधाई दें। मुझे पूरी उम्मीद है कि "दस्तख़त पत्रिका"जिस के कि वो संपादक हैं ,के काम से फुर्सत निकाल कर आपसे जरूर बात करेंगे। चलते चलते आपको पढ़वाता हूँ ,उनकी कमाल की ग़ज़लों में से किसी एक ग़ज़ल के ये शेर :-

प्यास तक दौड़ के नहीं आता 
पानी बैसाखियों पे चलता है 

वहशतें, तीरगी, अकेलापन 
चाँद कितने सवाल करता है 

ये पतंगे तो खुद लिपटती हैं 
पेड़ तो अपनी हद में रहता है   

किताबों की दुनिया -173

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सोये सपनों को जगाने की ज़रूरत क्या है 
बे सबब अश्क बहाने की ज़रूरत क्या है 

तेरा एहसास ही काफ़ी है मेरे जीने को 
तेरे आने कि न आने की ज़रुरत क्या है 

यह फ़िजा तेरी ज़मीं तेरी हवा भी तेरी 
सरहदें इस पे बनाने की ज़रूरत क्या है 

आज अपनी पोस्ट की शुरुआत हम जनाब 'अज़हर जावेद'साहब की बात से करते हैं जो उन्होंने उस किताब के फ्लैप पे लिखी है जिसका जिक्र आज होने जा रहा है। वो लिखते हैं कि "जदीदियत की लहर और मुशायरों की भरमार ने ग़ज़ल का बांकपन बिगाड़ने में बहुत बड़ा किरदार अदा किया है। मगर कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने तग़ज़्ज़ुल को संभाला ही नहीं उजाला भी है,उनमें जाखू 'साहिल'का नाम भी बहुत नुमाया और बेहद अहम हैं। "जाखू 'साहिल' ? अरे ? ये कौन है ?ये नाम तो मैंने कभी पढ़ा सुना नहीं। फिर अपने आप को समझाया कि शायरी का समंदर बहुत विशाल है 'नीरज'बाबू ,अभी तो आप इसकी सतह पर ही तैर रहे हैं ,अभी आपने डुबकी लगाई कहाँ हैं? सच्ची बात है ,सिर्फ सतह पर तैरने भर से समंदर की गहराई का अंदाज़ा थोड़े होता है।

जन्नत मिरे ख्याल की है, मेरी मुन्तज़िर लेकिन 
मैं हूँ कि जिसको ख़राबे ही रास हैं 

होती हैं मुद्दतों में कभी मेरी उनसे बात 
कहने को घर हमारे बहुत पास पास हैं 

बस है वही ख़ुलूस का परचम लिए हुए 
रहने को जिन के घर न बदन पर लिबास हैं 

अब जब उनके बारे में पता करना शुरू किया तो अपनी कमअक्ली पर शर्म सी आयी क्यूंकि रमेंद्र जाखू 'साहिल'तो बड़े नामी गरामी शायर और कवि निकले। अपने आप को फिर ये कह कर सांत्वना दी कि कोई बात नहीं -'नहीं'से देर भली या देर आये दुरुस्त आये। तो लीजिये पेश है उनके बारे में पता की गयी जानकारी के साथ साथ उनकी ग़ज़लों की किताब "एक जज़ीरा धूप का"का थोड़ा सा जिक्र। शुरुआत पंजाब के खूबसूरत शहर जालंधर के पास के क़स्बे "नकोदर"से करते हैं ,नकोदर नाम पर्शियन शब्द 'नेकी का दर"से पड़ा है ,जहाँ 17 अप्रेल 1953 को श्री ऊधोराम और श्रीमती करम देवी के यहाँ जिस बालक का जन्म हुआ उसका नाम रखा गया "रमेंद्र". तब ये किसे पता था कि 'रमेंद्र"नकोदर का नाम आगे जाकर खूब रौशन करने वाला है।"रमेंद्र"ने वहीँ नकोदर के स्कूलों में उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण की और फिर आगे पढ़ने के लिए 49 कि.मी. दूर बसे जालंधर चले गए।


 आपने ऐसा मसीहा भी कभी देखा है क्या 
 ज़ख़्म दे कर जो यह पूछे दर्द-सा होता है क्या 

कोई भी उम्मीद उसके घर से बर आती नहीं 
अब खुदा के घर सिफ़ारिश का चलन चलता है क्या 

जाने कैसे लोग थे जो मर मिटे इक बात पर 
अब किसे मालूम दस्तूर-ऐ-वफ़ा होता है क्या 

कॉलेज के दिनों में जब वो मात्र 17 साल के थे उन्हें कवितायेँ और नज़्में कहने और संगीत का शौक चढ़ा। उन्हें लगता था जैसे कवितायेँ और नज़्में उनसे कान में हलके से आ कर कह रही हैं कि हमें कागज़ पर उतारो। कॉलेज में लगातार तीन सालों तक उन्हें कविता प्रतियोगिता में प्रथम स्थान मिलता रहा। काव्य की रसधार जो उनमें उस समय से बही वो अभी तक अबाध गति से बहे जा रही है। भारतीय प्रशासनिक अधिकारी की परीक्षा में वो उत्तीर्ण हुए और मसूरी ट्रेनिंग पर चले गए जहाँ उनकी मुलाकात शकुंतला जी हुई जो अंग्रेजी की लेक्चररशिप की नौकरी छोड़ कर के प्रशासनिक अधिकारी की परीक्षा पास कर मसूरी में ट्रेनिंग पर आयी हुई थीं। शंकुन्तला जी उनसे एक साल सीनियर थीं। मुलाकातें दोस्ती में बदलीं, दोस्ती प्यार में और प्यार शादी में। शकुंतला जी की प्रेरणा से शादी के लगभग 10 साल बाद उन्होंने ग़ज़लें कहनी शुरू कीं।

जाने कितनी सरहदों में बट गई है ज़िन्दगी 
बस ज़रा-सी बात पर खुद से लड़ाई हो गई 

भूल जाना हादसों को भीड़ का दस्तूर है 
एक पल में बात सब आई गई सी हो गई

क्या मिलेगा तुझको 'साहिल'रोने धोने से यहाँ 
थी समन्दर ही की कश्ती जो उसी में खो गई 

साहिल साहब के बारे में मशहूर ग़ज़लकार जनाब 'बशीर बद्र'साहब ने इस किताब में लिखा है कि "जाखू ज़िम्मेदार ज़हीन और खूबसूरत शख्सियत के मालिक हैं। ज़िम्मेदार और भरपूर ज़िन्दगी जीना प्रेक्टिकल ग़ज़ल है। ग़ज़ल जी लेने के बाद ग़ज़ल लिख लेना बहुत दुश्वार नहीं होता। आप ज़रा सी देर साहिल की ग़ज़लों के साथ रहिये फिर उनकी ग़ज़लों के कितने ही मिसरे ज़िन्दगी के सुख-दुःख की बहुत खूबसूरत इमेज बनकर आपके साथ रहेंगे। साहिल ग़ज़ल और नज़्म के सच्चे शायर हैं। आज की ग़ज़ल का एक खूबसूरत नाम जाखू साहिल है"इस किताब को पढ़ते वक्त बशीर बद्र साहब की उक्त पंक्तियाँ अक्षरशः सच्ची लगती हैं। पहले जाखू साहब हिंदी में ग़ज़लें लिखते थे लेकिन धीरे धीरे उन्हें लगा कि बिना उर्दू सीखे अच्छी ग़ज़ल नहीं कही जा सकती इसलिए उन्होंने बाकायदा उर्दू पढ़ने लिखने की तालीम हासिल की और फिर उर्दू में ग़ज़लें कहने लगे। उन्होंने सिद्ध किया कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती सिर्फ आपने सीखने ज़ज़्बा होना चाहिए बस।

शिकवा ही क्या जो उम्र भर राहत मिली नहीं 
जैसी भी है ये ज़िन्दगी हरगिज़ बुरी नहीं 

तनक़ीद आपकी तो बहुत खूब है जनाब 
लेकिन किताब आपने शायद पढ़ी नहीं 

जब दोस्त कह दिया है तो फिर खामियां न देख
टुकड़ों में जो क़ुबूल हो , वो दोस्ती नहीं 

मैं इतना खो गया था खुदाओं की भीड़ में 
असली खुदा पे मेरी नज़र ही पड़ी नहीं 

ये तो आपको भी पता होगा कि शायरी महज़ उर्दू ज़बान सीखने भर से नहीं आ जाती उसके लिए आपको ये पता होना चाहिए कि आपके एहसास किस लफ्ज़ की सवारी करके दिल पर दस्तक देने में कामयाब होंगे। कुछ लोगों में ये हुनर जन्मजात होता है वो लोग उस्ताद कहलाते हैं जिनके पास ये हुनर नहीं होता वो उस्ताद की शरण में जाते हैं।आज सोशल मिडिया के इस दौर में आपको उस्ताद आसानी से मिल जायेंगे लेकिन जब मोबाईल और इंटरनेट का ज़माना नहीं था तब उस्ताद को ढूंढ निकालना टेढ़ी खीर हुआ करता था ,खास तौर पे सही उस्ताद का मिलना तो किस्मत की बात होती थी। रमेंद्र जाखू जी किस्मत के धनी थे तभी उन्हें जनाब "गोपाल कृष्ण"'शफ़क'जैसे गुणी उस्ताद मिले जिन्होंने उनका शायरी की तकनीक के साथ-साथ ग़ज़ल की ख़ूबसूरती से परिचय करवाया।शायर की असली परख उसके द्वारा छोटी बहर में कही ग़ज़लों से होती है क्यूंकि ये गागर में सागर भरने जैसा दुष्कर काम होता है। छोटी बहर में कही जाखू जी की ग़ज़लें पढ़ कर पता चलता है कि उन्होंने अपने उस्ताद जी की रहनुमाई में कितना कुछ सीखा है :

ख़फ़ा ही सी रहती है क्यों मुझसे अक्सर 
बता ज़िन्दगी क्या मैं इतना बुरा हूँ 

मुझे गैर से कोई शिकवा नहीं है 
मैं अपनी अना का सताया हुआ हूँ 

हवस का जुनूं है मुहब्बत पे भारी 
हैं जिस्मों के मेले जिधर भी गया हूँ 

जाखू साहब की शायरी में एक रवानी है,सादगी है सरलता है जो ग़ज़ल गायकों को अपनी और खींचती है। उनकी शायरी आम आदमी की ज़िन्दगी के एहसासात और मुश्किलात को छू कर गुज़रती है और ज़िन्दगी के बहुत पास पास है। उनकी ग़ज़लें पढ़ कर जब आम पाठक ही गुनगुनाने लगता है तो गायकों की क्या बात करनी। ये ही कारण है कि उनकी ग़ज़लें "ग़ुलाम अली" , जगजीत सिंह ", "पीनाज़ मसानी" , "राजकुमार रिज़वी""रूप कुमार राठौड़"और "परवीन मेहदी"जैसे श्रेष्ठ ग़ज़ल गायकों ने गायी हैं। साहिल साहब खुद जब मुशायरों में अपनी ग़ज़लें तरन्नुम से पढ़ते हैं तो श्रोता झूम-झूम जाते हैं। देश ही नहीं लाहौर, दुबई,अबुधाबी,मस्कट और कतर जैसे दूसरे मुल्कों में जहाँ उर्दू बोली या समझी जाती है साहिल साहब के चाहने वालों की कमी नहीं।

 मज़हब हज़ारों बन गये आदम की ज़ात के 
रस्में बदल के रह गईं, फितरत मगर नहीं 

इस दौरे खुद परस्ती में बदली है वो हवा 
अपनों से खौफ है मुझे गैरों का डर नहीं 

'साहिल'मुहब्बतों की रविश हो गई तमाम 
अब राह-ए-आशिक़ी में वफ़ा का शजर नहीं 

भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधीन हरियाणा सरकार में वित्तायुक्त एवं प्रधान सचिव के पद से सेवामुक्त होने पर रमेंद्र जाखू साहब ने हरियाणा सरकार के अनुरोध पर उन्होंने हरियाणा उर्दू अकेडमी के सचिव पद पर तीन वर्षों तक सफलता पूर्वक कार्य किया। उन्हें ,उनकी साहित्य सेवाओं के लिए अनेको पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त हुए जिनमें सन 2003 में मिला "बलराज साहनी अवार्ड और 2012 में मिला 'सरस्वती सम्मान"प्रमुख है। एक जज़ीरा धूप का"जाखू साहब की ग़ज़लों की दूसरी और यूँ तीसरी किताब है। इस से पूर्व सन 1987 में उनकी कविताओं का संग्रह "शब्द सैलाब"और सन 2001 में प्रकाशित पहला ग़ज़ल संग्रह "मेरे हिस्से की ग़ज़ल "साहित्यिक जगत में धूम मचा चुका है. उसी साल याने 2001 में ही उनकी चुनिंदा 12 ग़ज़लों का ऑडियो संग्रह बहुत लोकप्रिय हुआ था। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप आधार प्रकाशन पंचकूला हरियाणा को aadhar_prakashan@yahoo. com पर मेल कर सकते हैं या नेट पर ढूंढ सकते हैं , जाखू साहब का नंबर मुझे पता नहीं इसलिए आप तक पहुँचाने में असमर्थ हूँ ,अगर किसी पाठक को पता हो तो मुझे बताये ताकि मैं इस पोस्ट में उसे दूसरों के लिए जोड़ सकूँ। चलते-चलते मैं आपको उनकी एक ग़ज़ल के शेर पढ़वाता चलता हूँ :

 कोई साजिश कहीं हुई होगी 
आग यूँ ही नहीं लगी होगी 

ज़र्द पत्तों से भर गया आँगन 
कोई उम्मीद मर गयी होगी 

कश्मकश कब तलक छुपी रहती 
 बात हद से गुज़र गयी होगी

किताबों की दुनिया-174

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माली चाहे कितना भी चौकन्ना हो 
फूल और तितली में रिश्ता हो जाता है 

गुलशन गुलशन हो जाने की ख़्वाहिश में 
धीरे-धीरे सब सहरा हो जाता है 

अब लगता है ठीक कहा है ग़ालिब ने 
बढ़ते बढ़ते दर्द दवा हो जाता है 

घर के बाहिरी कोने में एक कमरा है जिसे मैंने अपना ऑफिस बनाया हुआ है , मिलने जुलने वाले वहीँ आते हैं, बैठते हैं, गप्पें मारते हैं, चाय पीते हैं और चले जाते हैं। एक दिन एक सज्जन आये तब मैं किसी किताब पर लिख रहा था, वो बैठे बैठे मुझे देखते रहे फिर अचानक बोले "नीरज जी आपको मिलता क्या है ? "मैंने चौंकते हुए पूछा "किस से क्या मिलता है ?"वो बोले "ये ही किताब के बारे में लिखने से " , मैंने कहा "आनंद" .अब चौंकने की बारी उनकी थी बोले "आनंद ? कैसे ? इसे पढता भी है कोई ". मैंने कहा भाई आनंद मुझे लिखने से मिलता है किसी के पढ़ने या न पढ़ने से नहीं। इसे यूँ समझें जैसे कोई शार्क के साथ तैरने में आनंद लेता है कोई ऊंची जगह से बंगी जम्पिंग करने में तो कोई पैराशूट पहन कर कूदने में , शार्क के साथ तैरने वाले या बंगी जम्पिंग करने वाले या पैराशूट के साथ कूदने वाले लोग दर्शकों के मोहताज़ नहीं होते। वो ये काम सिर्फ अपने आनंद के लिए करते हैं, बस वैसे मैं भी करता हूँ. मुझे लगता है , जरूरी नहीं कि जो मुझे लगे वो सही ही हो ,कि ये बात सभी क्रिएटिव काम करने वालों पर लागू होती है जिनमें शायर भी शामिल हैं. शायर, शायरी अपने आनंद के लिए करते हैं।जो शायर, शायरी आनंद पाने के लिए करता है उसे मकबूलियत अपने आप मिल जाती है। अच्छे शायर कभी पाठक को ध्यान में रख कर ग़ज़ल नहीं कहते ऐसा काम सिर्फ मज़मेबाज़ करते हैं।“

गुज़रता ही नहीं वो एक लम्हा 
इधर मैं हूँ कि बीता जा रहा हूँ 

मुहब्बत अब मुहब्बत हो चली है 
यही तो सोच कर घबरा रहा हूँ 

ये नादानी नहीं तो और क्या है 'दानिश' 
समझना था जिसे, समझा रहा हूँ 

ग़ज़ल के जानकार तो मक्ते में शायर का नाम पढ़ कर ये पहचान ही गए होंगे कि हमारे आज के शायर हैं 'दानिश'साहब। जी हाँ बिलकुल सही पहचाना ,आज हम शायर 'मदन मोहन मिश्र 'दानिश'साहब की ग़ज़लों की किताब 'आस्मां फ़ुर्सत में है"का जिक्र करेंगे जिसे 2018 में मंजुल पब्लिशिंग हॉउस भोपाल ने प्रकाशित किया था। 'दानिश'साहब के लिए शायरी आनंद प्राप्त करने का जरिया है। अगर किसी दिन कोई मनचाहा शेर शायर के ज़ेहन में आ जाये तो समझिये कि उस का दिन बन जाता है और कहीं पूरी ग़ज़ल ही कागज़ पर उतर जाए तो फिर जो ख़ुशी मिलती है उसकी तुलना उस माँ की ख़ुशी से की जा सकती है जिसने प्रसव पीड़ा के बाद अपने बच्चे का पहली बालक मुंह देखा हो। मुझे यकीन है कि 'दानिश'भाई भी इस तरह की ख़ुशी से जरूर रूबरू हुए होंगे।


मेरे खुश रहने पे हंगामा है क्यूँ
ख़ामशी भी मुद्दआ होती है क्या 

दिल में गर अफ़सोस ही न हो तो फिर 
जुर्म की कोई सज़ा होती है क्या 

इंतिहा साँसों की होती हो तो हो 
ज़िन्दगी की इंतिहा होती है क्या 

खूबसूरत शख़्सियत के मालिक "दानिश"का जन्म 8 सितम्बर 1961 को उत्तर प्रदेश के ज़िला बलिया के रामगढ़ गाँव में हुआ था। ये इत्तेफ़ाक़ ही है कि इसी गाँव में हिंदी के मूर्धन्य विद्वान आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का भी जन्म हुआ था।उनका गाँव छोटा था लेकिन उसके एकमात्र प्राइमरी स्कूल, की लाइब्रेरी बहुत बड़ी थी। हिंदी के लगभग सभी श्रेष्ठ साहित्यकारों की पुस्तकें वहां बहुतयात में थीं। दानिश जी को पढ़ने की रूचि वहीँ से पड़ी। छंद और काव्य के रस का चस्का उन्हें अपने पूज्यनीय दादा जी की सोहबत से लगा जो हर शाम घर के आँगन में गाँव के बच्चों से रामायण की चौपाइयां गवाया करते थे। चूँकि आस पड़ौस में बहुत से मुस्लिम परिवार भी थे लिहाज़ा उर्दू शेरो शायरी के दौर भी चलते, इसके चलते मदन जी का शायरी से परिचय भी बचपन में ही हो गया।

मैं अपनी गूँज को महसूस करना चाहता हूँ 
उतर के मुझमें ,मुझे जोर से पुकारे कोई 

अब आरज़ू है वो हर शय में जगमगाने लगे 
बस एक चेहरे में कब तक उसे निहारे कोई 

है दुःख तो कह लो किसी पेड़ से परिंदे से 
अब आदमी का भरोसा नहीं है प्यारे कोई 

वो ज़िन्दगी ही क्या जो सीधी सपाट राह पर चले। 'दानिश'साहब की ज़िन्दगी भी पेचो ख़म से भरपूर रास्तों पर चली। हालात ऐसे हुए कि उन्हें दसवीं के बाद अपनी पढाई दूरस्त पाठ्यकर्मो याने कॉरेस्पोंडेंस के माध्यम से जारी रखनी पड़ी। ज़िन्दगी की मुश्किलों को उन्होंने सहजता से लिया और उस पर पार पाते चले गए। झुझारू प्रवति के मदन जी ने ज़िन्दगी की तल्खियों पर आंसू नहीं बहाये बल्कि उसे ख़ूबसूरती से अपनी शायरी में ढालने का हुनर सीख लिया। अपनी शुरूआती परवरिश के बारे में वो लिखते हैं कि "उस दौर में ज़िन्दगी इस क़दर सहमी हुई और खामोश नहीं थी। वो सबकी हमजोली हुआ करती थी.....रोज़ रोज़ की तमाम मुश्किलों और चुनौतियों के बावजूद भी हँसती-खिलखिलाती, अल्हड़ और अलमस्त। बाग़-बगीचे खेत-खलियान दरिया-झरने हम सब के थे। रिश्ते-नाते इंसानों के थे जातियों और मज़हबों के नहीं। बहुत थोड़े में भी खुश रहने की न जाने कितनी वजहें थीं।"ये ही कारण है कि हमें उनकी शायरी में ज़िन्दगी के सभी रंग दिखाई देते हैं।

मुहब्बतों में नए क़र्ज़ चढ़ते रहते हैं 
मगर ये किसने कहा है कभी हिसाब करो 

तुम्हें ये दुनिया कभी फूल तो नहीं देगी 
मिलें हैं कांटें तो काँटों को ही गुलाब करो 

कई सदायें ठिकाना तलाश करती हुईं 
फ़िज़ा में गूँज रही हैं उन्हें किताब करो

'दानिश'साहब की शायरी पर उर्दू के कद्दावर शायर जनाब निदा फ़ाज़ली साहब ने लिखा था कि "दानिश आज के शायर हैं। आज की ज़िन्दगी से उनका ग़ज़ल का रिश्ता है। जो जिया है उसे ग़ज़ल में दर्शाया है। उन्होंने अपने लिए जिस भाषा का इंतख़ाब किया है वो सड़क पर चलती भी है ,वक़्त के साथ बदलती भी है , चाँद के साथ ढलती भी है-सूरज के साथ निकलती भी है। ये वो भाषा है जो घर की बोली में खनकती है,गली-चौराहों में महकती है, परिंदों की उड़ानों में चहकती है ,दरख़्तों की शाखों में लहकती है और अपने एकांत में अपने ग़म के साथ सिसकती भी है। "उनके इस ग़ज़ल संग्रह को पढ़ते वक्त आप अपने आप को निदा साहब से शत- प्रतिशत सहमत पाएंगे।

मसअला तो इश्क का है ,ज़िंदगानी का नहीं
यूँ समझिये प्यास का शिकवा है ,पानी का नहीं

क्या सितम है वक़्त का, इस दौर का हर आदमी
है तो इक किरदार पर अपनी कहानी का नहीं

अनसुना करने से पहले सोच लो तुम एक बार
ख़ामशी का शोर है ये बेजुबानी का नहीं

वक़्त को क्या हो गया है, क्यों सुनाता है हमें
जंगली फूलों का किस्सा, रातरानी का नहीं

दानिश साहब की ज़िन्दगी में सुकून की घड़ियाँ तब दाखिल हुईं जब उन्हें सन 1992 में उन्हें ऑल इण्डिया रेडियो में स्थाई नौकरी मिल गयी। ऑल इंडिया रेडियों की नौकरी में आने के बाद वो शायरी में पूरी तरह डूब गए।‌ नतीज़तन सन 2005 में उनकी ग़ज़लों की पहली किताब "अगर"मेधा बुक्स द्वारा प्रकाशित हो कर मंज़र-ऐ-आम पर आयी और बहुत चर्चित हुई। 'अगर'के बाद एक लम्बा वक्फ़ा बीत गया और अब 13 सालों बाद उनकी शायरी की दूसरी किताब 'आसमां फुर्सत में है'आयी है । इस किताब में दानिश साहब की 83 ग़ज़लें और 9 नज़्में संगृहित हैं। किताब पेपरबैक में और बहुत ख़ूबसूरती से प्रकाशित की गयी है। अधिकतर ग़ज़लें बहुत आसान ज़बान में कही गयी हैं जिनके शेर पढ़ते पढ़ते याद होते जाते हैं। आसान ज़बान में ज़िन्दगी के तजुर्बों को बयां करना एक बेहद मुश्किल हुनर है जो बहुत मेहनत से हासिल होता है।

कोई ये लाख कहे मेरे बनाने से मिला 
हर नया रंग ज़माने को पुराने से मिला 

उसकी तक़दीर अंधेरों ने लिखी थी शायद 
वो उजाला जो चिरागों को बुझाने से मिला 

फ़िक्र हर बार ख़मोशी से मिली है मुझको 
और ज़माना ये मुझे शोर मचाने से मिला 

और लोगों से मुलाकात कहाँ मुमकिन थी 
वो तो ख़ुद से भी मिला है तो बहाने से मिला 

सरल भाषा के छोटे छोटे मिसरों में ज़िन्दगी के रंग भरने का हुनर हर किसी को नहीं आता,हर कोई 'देखन में छोटे लगें घाव करें गंभीर"वाली कला को नहीं साध पाता उसके लिए बहुत प्रयत्न करने पड़ते हैं। दानिश साहब ने इस असाधारण कला पर सफलता से हाथ आज़माये हैं। ।छोटी बहर के उस्ताद शायर मरहूम जनाब मुहम्मद अल्वी साहब ने उनके बारे में लिखा था कि "दानिश की शायरी पर दिल से वाह निकलती है , उनकी शायरी और मेरी शायरी के लफ़्ज़ों के स्टाइल में कोई फ़र्क नज़र नहीं आता। उनकी शायरी सोचने समझने और कुछ हासिल करने की तहरीक देती है। मैं उनकी शायरी से बहुत मुतास्सिर हूँ ". अल्वी साहब के दानिश साहब की शायरी को लेकर कहे ये लफ्ज़ किसी भी शायर को मिले बड़े से बड़े अवार्ड से ज्यादा महत्व रखते हैं।

वो भी मेरे ही जैसा है 
हँसते-हँसते रो पड़ता है

लिख लो हथेली पर चाहो तो 
इतना सा तो नाम पता है 

जिस को बाँट नहीं सकते हम 
उस ग़म को पीना पड़ता है 

तुम तो चाहे जब आ जाते 
वक्त बता कर सितम किया है

'वक्त बता कर सितम किया है "जैसा मिसरा बताता है कि दानिश किस पाए के शायर हैं। आप इस मिसरे पर घंटों सर धुन सकते हैं ,ऐसा कमाल इस किताब में जगह जगह बिखरा पड़ा है। आप अगर शायरी के प्रेमी हैं तो इस किताब की ग़ज़लों से गुज़रते हुए आप को बार बार ठिठकना पड़ेगा। कभी कोई मिसरा तो कभी कोई शेर आपकी बांह पकड़ के अपने पास बिठा लेगा और आप चाह कर भी नहीं उठ पाएंगे। मदन मोहन 'दानिश'साहब ने शायरी नहीं की, जादू किया है। जादू भी ऐसा जो सर चढ़ कर बोलता है। जनाब सचिन चौधरी इस किताब में लिखते हैं कि "दानिश की शायरी ज़िन्दगी के मुख़्तलिफ़ रंगों से सजा हुआ एक ऐसा कोलाज़ है जिसमें हर आदमी को अपना रंग नज़र आता है। यही वजह है कि दानिश की शायरी की खुशबू मुल्क की सरहदों से होती हुई दुनिया के तमाम मुल्कों में फ़ैल चुकी है।अमेरिका, पकिस्तान, दुबई, शारजाह, दोहा, क़तर कर आबूधाबी जैसे कई मुल्कों, कई शहरों के अदबी मुशायरों में दानिश की शिरकत इसकी मिसाल है "

 रंगे दुनिया कितना गहरा हो गया 
आदमी का रंग फीका हो गया 

रात क्या होती है हमसे पूछिए 
आप तो सोए , सवेरा हो गया 

डूबने की ज़िद पे कश्ती आ गयी 
बस यहीं मज़बूर दरिया हो गया 

दानिश साहब को मध्यप्रदेश उर्दू अकेडमी , जयपुर के भगवत शरण चतुर्वेदी स्मृति और राष्ट्रीय अनामिका साहित्य परिषद् जैसे प्रतिष्ठित अवार्ड्स से नवाज़ा जा चुका है। उनकी ग़ज़लें अंतरजाल की लगभग सभी महत्वपूर्ण साहित्यिक साइट पर मौजूद हैं। देश के पत्र- पत्रिकाओं में भी वो निरंतर छपते रहते हैं। आप इस किताब को अमेज़न से तो ऑन लाइन मंगवा ही सकते हैं यदि ऐसा न करना चाहें तो मंजुल पब्लिशिंग हॉउस को 'सेकंड फ्लोर, उषा प्रीत काम्प्लेक्स ,42 मालवीय नगर भोपाल-462003 "के पते पर लिख सकते हैं। मंजुल की साइट www. manjulindia.com से भी इसे मंगवाया जा सकता है। मेरा तो आपसे ये ही अनुरोध है कि आप 'मदन मोहन दानिश साहब को, जो ग्वालियर में "ऑल इण्डिया रेडियो"के प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव के पद पर कार्यरत हैं, उनके मोबाईल न. 09425114435पर संपर्क कर उन्हें इन खूबसूरत अशआरों के लिए भरपूर बधाई दें।

मंदिर-मस्जिद गिरिजाघर और गुरुद्वारा 
लफ्ज़ कई हैं , एक मआनी हम दोनों

ज्ञानी-ध्यानी, चतुर-सियानी दुनिया में 
जीते हैं अपनी नादानी हम दोनों 

तू सावन की शोख घटा, मैं प्यासा बन 
चल करते हैं कुछ मनमानी हम दोनों 

अब जिस शायर के लिए उस्ताद शायर जनाब "शीन काफ़ निज़ाम"ये लिखते हों कि "मदन मोहन दानिश का शुमार हमारे उन शायरों में होता है , जो आपबीती को जगबीती बनाना जानते हैं। यही सबब है कि उनकी शायरी पढ़ने वालों को अच्छी लगती है और सुनने वालों को भी पसंद आती है।"उसके बारे में और क्या लिखा जा सकता है ? अगली किताब की तलाश पर निकलने से पहले आईये पढ़ते हैं दानिश साहब की उस ग़ज़ल के कुछ शेर जिसने उन्हें बुलंदियों पर पहुंचा दिया और हर कहीं लोग उनसे ये ग़ज़ल बार बार सुनने की फरमाइश करते नहीं थकते :

ये कहाँ की रीत है ,जागे कोई सोए कोई 
रात सबकी है तो सबको नींद आनी चाहिए 

क्यों जरूरी है किसी के पीछे-पीछे हम चलें 
जब सफर अपना है तो अपनी रवानी चाहिए 

कौन पहचानेगा दानिश अब तुझे किरदार से 
बेमुरव्वत वक़्त को ताज़ा निशानी चाहिए

किताबों की दुनिया - 175

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शायरी की दीवानगी से मुझे वो ईनाम मिला है जो किसी भी इनाम से बहुत बड़ा है। ये वो ईनाम है जो मिलने के बाद किसी खूबसूरत अलमारी में बंद हो कर दम नहीं तोड़ता ना ही किसी दीवार पर खूबसूरत फ्रेम में टंगा टंगा अपनी अहमियत खो देता है। ये ईनाम हमेशा ज़िंदा रहता है और मेरे साथ धड़कता है। ये ईनाम है कुछ बहुत ही प्यारे लोगों की सोहबत जो मुझे सिर्फ अपनी इसी दीवानगी की वजह से हासिल हुई है। ये प्यारे लोग मेरी हौसला अफजाही भी करते हैं तो मौका पड़ने पर टांग भी खींचते हैं। इनके साथ कायम हुए राबते से मिलने वाले आनंद को लफ़्ज़ों में बयाँ नहीं किया जा सकता। ऐसे प्यारे इंसानों में से एक हैं लुधियाना निवासी, बेहतरीन शायर जनाब 'सागर सियालकोटी'साहब जिनकी किताब "अहतिजाज़-ए-ग़ज़ल"पर की गयी चर्चा को आप पढ़ चुके हैं। सागर साहब गाहे बगाहे फोन करते हैं, कभी कभी मूड में बेहतरीन तरन्नुम के साथ अपनी ग़ज़लें भी सुनाते हैं। ऐसी ही किसी बात चीत के दौरान उन्होंने मुझे चंद शेर सुनाये :

किसी किसी को थमाता है चाबियाँ घर की 
ख़ुदा हरेक को अपना पता नहीं देता
***
हवेलियाँ भी हैं कारें भी कार-खाने भी 
बस आदमी की कमी देखता हूँ शहरों में 
*** 
फलदार था तो गाँव उसे पूजता रहा 
सूखा तो क़त्ल हो गया वो बे-जबाँ दरख़्त
*** 
तुमने क्यों बारूद बिछा दी धरती पर 
मैं तो दुआ का शहर बसाने वाला था 
 *** 
तू कलमा पढ़ के परिंदों को ज़िबह करता है 
खुदा मुआफ करे सब इबादतें तेरी 

इन शेरों को सुन कर मैं उछल पड़ा और सागर साहब से पूछा ये शेर किसके हैं ? तो सागर साहब कहने लगे आपने "परवीन कुमार अश्क"का नाम नहीं सुना ? उनके हैं। मैं झूठ बोल कर अपनी इज़्ज़त बचा सकता था लेकिन इससे मेरा ही नुक्सान ज्यादा होता लिहाज़ा जो सच था मैंने वही कहा कि "नहीं -मैंने तो जी नहीं सुना"। मेरे जवाब से वो थोड़े निराश जरूर हुए, होना भी चाहिए था क्यूंकि 'अश्क'साहब जिस पाए के शायर हैं उस लिहाज़ से उनका नाम मुझे पता होना चाहिए था। इसमें दोष 'अश्क'साहब का नहीं मेरी नासमझी का है। वो बोले मेरे पास उनकी किताब 'ग़ज़ल तेरे शहर में "है, आप पढ़ना चाहेंगे ? अँधा क्या मांगे ? दो आँखें ? मैंने फ़ौरन हाँ कर दी और साहब कमाल की बात ये है कि बात ख़त्म होने के एक घंटे के अंदर सागर साहब का फिर फोन आया और उन्होंने बताया कि "नीरज जी किताब कोरियर कर दी है "अब आप ही बताइये दुनिया का कौनसा ईनाम इस मोहब्बत और अपनेपन से बड़ा है ? तीसरे दिन किताब आ भी गयी जिसे पढ़ने के बाद आज उसे आपके सामने रख रहा हूँ।


दवा, दुआ की कमी तो नहीं मगर यह दर्द 
जो आँख उठा के भी देखे न दूसरों की तरफ 

सवाल करते हैं सहरा-ए-बेगुनाह कब से 
हर इक नदी है रवाँ क्यों समुंदरों की तरफ

मज़ार छोड़ के तनहा, मुरादें मांग के 'अश्क' 
तमाम शहर पलट जाएगा घरों की तरफ 

जनाब 'परवीन कुमार अश्क'साहब का जन्म लुधियाना में 1 नवम्बर 1951 को हुआ। उनके वालिद जनाब कुलवंत राय कँवल होशियारपुरीसाहब उस्ताद शायर थे। घर में उर्दू-अंग्रेजी की हज़ारों किताबें थीं। डॉक्टर का बेटा डॉक्टर, इंजीनियर का बेटा इंजीनियर, वकील का बेटा वकील होते हुए तो बहुत देखा है सुना है लेकिन शायर का बेटा भी अपने वालिद की तरह कद्दावर शायर बने ऐसा बहुत कम होता है। पर ऐसा हुआ और खूब हुआ। वो बचपन से शायर बन गए ऐसा नहीं हुआ लेकिन शायरी के जींस उनमें बचपन से ही आ गए थे। पिता के ये कहने पर कि पहले कोई अच्छी सी तालीम हासिल करो फिर शायरी करना, उन्होंने इंजिनीरिंग की पढाई की और सरकारी नौकरी में लग गए. 1971 में जब वो मात्र 20-21 बरस के थे तभी उनके पिता का आकस्मिक निधन हो गया, जो अश्क साहब के लिए बहुत बड़ा झटका था। सदमे से उबरने के बाद उनकी नज़र घर की लाइब्रेरी पर गयी जिसमें किताबों का ज़खीरा था। वो सोच में पड़ गए कि अब इन 20-25 हज़ार किताबों का क्या होगा ? अधिकांश किताबें उर्दू में थीं।

कि एक ख़ुश्बू हूँ क्या जाने कब मैं दर आऊँ 
तुम अपने घर का दरीचा ज़रा खुला रखना 

ख़ुशी का एक भी सिक्का न अपनी जेब में रख
खज़ाना दर्द का हर आँख से छुपा रखना 

बहुत करीब के रिश्ते ही ज़ख़्म देते हैं 
दिलों के दरम्याँ थोड़ा सा फ़ासला रखना 

अब परवीन साहब के सामने दो ही रास्ते थे पहला या तो इन किताबों को बेच दिया जाय और दूसरा ये कि इन्हें पढ़ा जाय। बेचना उनके ज़मीर को गवारा नहीं हुआ और पढ़ने के लिए उर्दू जानना जरूरी था। उन्होंने उर्दू सीखने का फैसला लिया। उर्दू पढ़ना सीखने के लिए वो बाजार से किताबें ले आये और पढ़ने में जुट गए। बुजुर्गों से अपनी समस्याओं का निदान पाया। मेहनत का फल मीठा ही होता है सो हुआ, धीरे धीरे उन्हें उर्दू लिखना पढ़ना आ गया। फिर शुरू हुआ किताबें पढ़ने का सिलसिला जो बरसों बरस चला। परवीन साहब ने खूब पढ़ा और सीखा। जब उन्हें लगा कि अब वो अपने ख्यालात को लफ़्ज़ों का ज़ामा पहना सकते हैं तो उन्होंने लिखना शुरू किया। हज़ारों किताबों की पढाई काम आई और वो पुख्ता शेर कहने लगे। परवीन साहब ने शुरू से ही ये तय कर लिया था कि वो किसी शैली की नक़ल नहीं करेंगे और अपने ज़ज़्बात को नए अनूठे ढंग से ही कहने की कोशिश करेंगे। इस सोच से उन्हें बहुत फ़ायदा पहुंचा और उनके अशआर जल्द ही लोकप्रिय होने लगे। सन 1973 में शिमला के गेयटी थियेटर में उन्होंने अपना पहला मुशायरा पढ़ा और उसे लूट लिया।

बर्फ मुझे जब आग दिखाने लगती है 
सूरज मेरे सर पर साया करता है 

लहू समंदर में उसने दिल फेंक दिया 
अब वो सबसे हाथ मिलाया करता है 

पेड़ के पत्ते आंसू आंसू गिरते हैं 
जब कोई शाख-ए-दर्द हिलाया करता है 

परवीन साहब कहते हैं कि 'ग़ज़ल सबसे मुश्किल ग़ज़ल सबसे शफ़्फ़ाक़ सिन्फ़े-सुखन है और ये हर ऐरे-गैरे के बस का रोग नहीं है, आप अपनी ग़ज़लें इस्लाह के लिए किसी उस्ताद को दिखा जरूर सकते हैं लेकिन उसका मफ़हूम और शिल्प आपका अपना ही होना चाहिए।उस्ताद आपका काफिया रदीफ़ बहर तो ठीक कर देगा लेकिन अगर उसने आपकी सोच और कहन को भी ठीक किया तो फिर वो शेर आपका नहीं रह जायेगा वो उस्ताद का हो जायेगा भले ही नाम आपका रहे। किसी भी फितरती फ़नकार को आप फ़नकारी नहीं सीखा सकते क्यूंकि फ़नकार तो उसके भीतर छुपा हुआ होता है । मैं किसी उस्ताद के पास नहीं गया ,उरूज मैंने खुद सीखा और मेरे पास जो किताबों का ज़खीरा था उसने मेरी कहन को पुख्ता किया " 

बहुत रोया मैं दीवारों से मिल कर 
मकाँ ख़ाली हुआ जब साथ वाला 

उठाले अपने चलते फिरते पत्थर 
कोई इंसान दे ज़ज़्बात वाला 

ला मेरे चाँद सूरज मुझको दे दे 
तमाशा खत्म कर दिन रात वाला 

उनका पहला शेरी मजमुआ 'दर-बदर"जिसे भाषा विभाग -पंजाब ने छपवाया था ,जब सन 1980 में मंज़र-ए-आम पर आया तब तक वो देश के जाने माने जदीद या मॉडर्न शायरों की लिस्ट में तस्लीम किये जा चुके थे। उनके शेर खास-ओ-आम की जुबाँ पर आ चुके थे,जो किसी भी शायर की मकबूलियत की सबसे पुख्ता निशानी मानी जाती है। आप भले हज़ारों अवार्ड ले लें, रिसालों, किताबें में छपें लेकिन अगर आपके अशआर आम लोगों की जबान पर नहीं हैं या आपके अशआर आपसी बातचीत में कोट नहीं किये जाते तो समझ लीजिये कि आप अभी मकबूलियत से दूर हैं।"दर-बदर"को हर खास-ओ-आम ने हाथों हाथ लिया। इस किताब की उस्ताद शायर जनाब महमूद हाश्मी साहब, कुमार पाशी साहब ,मशहूर नक़्क़ाद जनाब शम्सुर्रहमान फारुखी साहब और बलराज कोमल साहब जैसे बहुत से उर्दू अदब से जुड़े लोगों ने भरपूर तारीफ़ की.

हवा की आँख से भी जो छुपाकर हमको रखता था 
उसी को अब हमारी जग हंसाई अच्छी लगती है 

मैं अश्कों में बहा देता हूँ अपने दर्द की मिट्टी 
कि बारिश में दरख्तों की धुलाई अच्छी लगती है 

ज़माने की तरह अब बेवफ़ा मैं भी न हो जाऊँ 
कि अपने आप से अब आशनाई अच्छी लगती है 

अश्क साहब कभी किसी गिरोह किसी टोले या अदबी सियासत से नहीं जुड़े न ही किसी सियासी पार्टी से उनका राब्ता रहा। टोले और गिरोह उन लोगों के होते हैं जो बैसाखियों का सहारा लेकर आगे बढ़ते हैं। परवीन साहब ने ग़ज़ल की देवी को पूजा है। उनके शेरों में हमारी रोजमर्रा की ज़िन्दगी की परेशानियां खुशियां तकलीफें झलकती हैं।हमारा समाज उसमें सांस लेता नज़र आता है। बशीर बद्र ने उनके लिए कहा है कि "परवीन कुमार अश्क ने ग़ज़ल में अनोखे अहसास को बड़ी मुहब्बत से अपना लिया है। वो किसी बाहरी मंज़र , निशाँ या सामने की चीज को ऐसी अंदरूनी प्यारी और ज़ाती तख़्लीक़ीयत (सृजनता ) से ग़ज़ल बनाते हैं कि उनके बहुत से शेर पढ़ने से ज्यादा दिल में छुपा कर रखने का तोहफा बन जाते हैं। " 

सुना है साथ रहता है वो मेरे 
मगर मैंने उसे देखा नहीं है

मुरव्वत की तिजोरी बंद रखना 
ये सिक्का शहर में चलता नहीं है 
मुरव्वत=वफ़ादारी 

ये हो सकता है वो आ जाये मुड़कर 
मगर ऐसा कभी होता नहीं है

"चांदनी के खुतूत"उनका दूसरा ग़ज़ल संग्रह था जो सन 1992 में प्रकाशित हुआ। इसी साल ही उनकी उर्दू ज़बान में कही चुनिंदा ग़ज़लों को "ग़ज़ल तेरे शहर में"के नाम से उर्दू न जानने वाले पाठकों के लिए देवनागरी में प्रकाशित किया गया। इस किताब में उनकी 52 ग़ज़लें हैं जो पाठक को बाँध लेती हैं। उनके ख़्याल पाठक को उद्वेलित करते हैं। हालाँकि किताब की छपाई आजकल प्रकाशित होने वाली ग़ज़ल की किताबों से बिलकुल अलग है लेकिन फिर भी इस के जादू से बाहर निकलना बहुत मुश्किल है। परवीन साहब को देश विभाजन की त्रासदी ने भीतर से तोड़ कर रख दिया था। उनके बहुत से शेरों में विभाजन का दर्द बहुत शिद्दत से उबरकर नज़र आता है। उन्होंने पंजाबी में भी ग़ज़लें और कवितायेँ लिखी जो पाकिस्तान में भी उतनी ही लोकप्रिय हुईं जितनी कि हिंदुस्तान में।

उसने भी आँखों में आंसू रोक लिए 
मैं भी अपने ज़ख्म छुपाने वाला था 

पार के मंज़र ने मौके पर आँखें दीं 
मैं अँधा दीवार उठाने वाला था 

बच्चे 'अश्क'को पागल कह कर भाग गए 
वो परियों की कथा सुनाने वाला था 

सन 2005 में उनका तीसरा शेरी मजमुआ दुआ ज़मीनमंज़र-ए-आम पर आया जिसने जनाब 'परवीन कुमार अश्क'साहब को देश का बेहतरीन सूफ़ी शायर सिद्ध कर दिया। उनकी ग़ज़लों और शख्सियत पर मिथिला यूनिवर्सिटी दरभंगा बिहार की छात्रा ने 2014 में पी एच डी की डिग्री हासिल की। परवीन कुमार अश्क अपनी पीढ़ी के पहले उर्दू शायर है जिनकी शायरी पर उनके अपने प्रांत पंजाब के बाहर की उर्दू यूनिवर्सिटी पीएचडी करवा रही है. उन्हें ढेरों अवार्ड से नवाज़ा गया जिनमें पंजाब सरकार के मुख्य मंत्री द्वारा दिया गया "शहनशाहे ग़ज़ल अवार्ड और पंजाब लोकसभा के स्पीकर साहब द्वारा दिया गया 'ग़ज़ल हीरो'अवार्ड ,बिहार उर्दू अकेडमी अवार्ड ,उत्तरप्रदेश अकादमी अवार्ड ,दिल्ली से 'ग़ज़ल भास्कर'अवार्ड आदि प्रमुख हैं. अश्क साहब ने लगभग 200 टीवी प्रोग्रामस और 150 से भी अधिक कुल हिन्दो पाक मुशायरों में भी शिरकत की।अश्क साहब की अनोखी गजलों पर निदा फ़ाज़ली , बशीर बद्र , गोपीचंद नारंग, साकी फ़ारूक़ी , वज़ीर आगा , अमजद इस्लाम, शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी जैसी विश्व प्रसिद्ध उर्दू शख्शियत ने बहुत खूबसूरती के साथ लिखा है। अश्क साहब के लगभग तीन सौ शेयर पूरी दुनिया में मशहूर है।

सफ़र में मुझसे वो लड़ता रहा था 
बिछड़ते वक्त फिर क्यों रो पड़ा था 

न पकड़ी काफ़िले की जिसने ऊँगली
वो बच्चा सबसे आगे चल रहा था 

समुन्दर चीखता उस वक्त पहुंचा 
मकाँ पूरी तरह जब जल चुका था 

उनकी ग़ज़लों और गीतों को मशहूर गायक दिलेर मेहंदी, जसविंदर नरूला, शंकर साहनी, रूपकुमार राठौर, सोनाली राठोर, अल्ताफ राजा, अनुराधा पौडवाल, जावेद अली, अरविंद्र सिंह, घनश्याम वासवानी जैसे गायक आवाज दे चुके हैं । उनके सूफियाना कलाम को कराची में पाकिस्तान के मशहूर कव्वाल फरीद गुलाम और गायक खलील हैदर ने भी महफिलों में खूब गाया है उनके कई गीतों के वीडियो यू ट्यूब पर भी लोगों की पसंद बने हुए हैं। उन्होंने कुछ फिल्मों के लिए भी गीत लिखे। परवीन साहब जुलाई 2017 में इस दुनिया-ए-फ़ानी से अचानक रुख़सत हो गए और अपने पीछे शायरी का एक ऐसा नायाब खज़ाना छोड़ गए जिस से आने वाली नस्लें बरसों बरस मालामाल होती रहेंगी।

ज़मीं को या खुदा वो जलजला दे 
निशाँ तक सरहदों के जो मिटा दे 

बुजुर्गों का बस इक कमरा बचा कर
तू जब चाहे पुराना घर गिरा दे 

मैं सूरज तोड़ लाऊंगा नहीं तो 
मुझे ऐ रौशनी अपना पता दे 

मैं आपको इस किताब की प्राप्ति का रास्ता नहीं बता सकता क्यूंकि 1992 में समीक्षा प्रकाशन पठानकोट से छपी इस किताब की कोई प्रति कहीं मिलेगी भी या नहीं कह नहीं सकता। हाँ आप चाहे तो उनके छोटे भाई जनाब 'अनिल पठानकोटी'जो खुद भी बेहतरीन शायर हैं और जिनकी ग़ज़लों की किताब"आवाज़ के साये"का कभी हम यहाँ जिक्र करेंगे,से उनके मोबाईल न 9465280779 पूछ सकते हैं। आप उनकी ग़ज़लों को रेख़्ता की साइट पर जरूर पढ़ सकते हैं। अगली किताब की तलाश में निकलने से पहले हाज़िर हैं उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर :

सूरज उसको निगल गया
मेरे पास इक जुगनू था 

एक सहारा बस तू है 
एक सहारा बस तू था 

मेरे पास धड़कता दिल 
उसकी जेब में चाकू था

किताबों की दुनिया -176

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 हमें जब काटनी पड़ती हैं सारी रात आँखों में 
अँधेरे आसमाँ में इक सितारा ढूंढ लेते हैं 

बरामद होती है वो चीज आखिर कार कमरे में 
जब उसके वास्ते संसार सारा ढूंढ लेते हैं 

ख़सारे में हमें वो फ़ायदा बतलाने आये हैं 
किसी भी फ़ायदे में जो ख़सारा ढूंढ लेते हैं 
ख़सारा=नुक्सान 

ये कोई सन 2005-2006 की बात होगी जब मैंने पहली बार अपने एक मित्र से ब्लॉग का नाम सुना था। मेरी समझ में ही नहीं आया कि वो क्या कह रहा है। धीरे धीरे बात समझ में आने लगी तो देखा मेरी तरह बहुत से लोग ब्लॉग खोले बैठे हैं जो समझ नहीं पा रहे कि इस विधा का उपयोग किया कैसे जाय। कुछ लोग कवितायेँ लिख रहे थे कुछ लघुकथाएं कुछ व्यंग तो कुछ राजनीती से जुड़े लेख। इस भीड़ में हमारे जैसे कुछ लोग शायरी ,खास तौर पर ग़ज़ल सीखने में लगे हुए थे। ग़ज़ल सीखने वालों का एक बड़ा सा कुनबा बन गया था। इससे जुड़े लोग ग़ज़ल के उरूज़ से वाबस्ता होते और किसी एक तरही मिसरे पर ग़ज़ल कहते और टिप्पणियाँ करते। पुराने लोग नयों की हौसला अफ़ज़ाही करते। वो दिन बहुत अच्छे थे। उसी दौर के लोग अब फेसबुक पर छाये हुए हैं और वाहवाहियां बटोर रहे हैं। अब ब्लॉग की अपेक्षा फेसबुक पर बहुत त्वरित गति से टिप्पणियां आ जाती हैं और लोकप्रियता मिल जाती है। आज के शायर हमारे उसी ब्लॉग कुनबे के सदस्य थे जो अब ग़ज़ल की बारीकियां सीख कर एक पुख्ता ग़ज़लकार की श्रेणी में आ चुके हैं।

दीवार आहनी थी, सभी नाउमीद थे
धूप आई और उसमें भी रौज़न बना लिया 
आहनी :लोहे की ,रौज़न: झिर्री 

इक नींद में ज़रा सी इसे क्या पनाह दी 
इस ख़्वाब ने तो मुझमें नशेमन बना लिया 
नशेमन : घर 

अफ़्सुर्दगी पहन के निकलते हैं घर से लोग 
लोगों ने क्या उदासी को फैशन बना लिया 
अफ़्सुर्दगी=उदासी

एक बिलकुल ही अलहदा लबो लहज़े के 7 जनवरी 1977 में मुज़फ्फ़रपुर बिहार में जन्में इस युवा शायर का नाम है "सौरभ शेखर"जिनकी हाल ही में बोधि प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित हुई ग़ज़लों की किताब "एक रौज़न"की हम बात कर रहे हैं। सौरभ ने अंग्रेजी साहित्य में एम् ऐ किया है और वर्तमान में राज्यसभा सचिवालय में अपर निदेशक के पद पर कार्य करते हुए ग़ज़लें कह रहे हैं। ग़ज़लों की तरफ उनका झुकाव दुष्यंत कुमार साहब की प्रसिद्ध किताब "साये में धूप"पढ़ने के बाद हुआ। कॉलेज के वो रुमानियत से भरपूर दिन और ग़ज़ल का साथ याने सोने में सुहागा। बीस बरस की जोशो-खरोश से भरी उम्र में उनकी ग़ज़लें पत्र पत्रिकाओं में छपने लगीं और लोगों के दिलों को गुदगुदाने लगीं। अब जवानी कब किसी नियम कानून को मानती है सो जनाब के जो दिल में आता उसे ग़ज़ल की शक्ल में पिरो कर वो यार दोस्तों को सुनाते ,ब्लॉग पर डालते और वाहवाहियां बटोरते।


मैं न कहता था कि थोड़ी सी हवस बाक़ी रखो 
देख लो अब किस तरह आसूदगी चुभने लगी 
आसूदगी : तृप्ति 

तीरगी का दश्त नापा रौशनी के वास्ते 
रौशनी फैली तो मुझको रौशनी चुभने लगी 
दश्त :जंगल 

सख़्त इक लम्हे की रौ में आ के तौबा कर लिया
हल्क़ में मेरे मगर अब तिश्नगी चुभने लगी 

इस से पहले कि तारीफ़ और वाह वाही के बेशुमार जुमले सौरभ का दिमाग सातवें आसमान पर पहुंचाते और वो भटकते, एक दिन किसी 'नीरज गोस्वामी'नाम के शख़्स ने उनके ब्लॉग पर उन्हें ग़ज़ल कहने से पहले उसके व्याकरण को अच्छे से सीखने की सलाह दे डाली। अक्सर युवा किसी बुजुर्ग की सलाह को भी हर फ़िक्र की तरह धुएं में उड़ा देने में विश्वास रखते हैं लेकिन सौरभ ने नीरज जी की बात को पता नहीं क्यों गंभीरता से लिया ( इस बात से नीरज जी अभी तक हैरान हैं क्यूंकि इससे पहले उनकी किसी बात को कभी किसी और ने गंभीरता से नहीं लिया था ) और संजीदगी से उरूज़ सीखने लगे। इसके नतीज़े जल्द ही सामने आने लगे। उनकी ग़ज़लों में निखार आने लगा और सोच में पुख़्तगी झलकने लगी. उनकी, ग़ज़ल से मुहब्बत अब दीवानगी की हद तक जा पहुंची।

ख़ता ज़रा भी नहीं रास्तों के काँटों की 
गुनाहगार मिरे पाँव का ही छाला है 

ये सर्द रात, ये ख़लवत,अलाव माजी का 
बदन पे गुज़रे दिनों का मिरे दुशाला है 
ख़लवत =एकांत

ज़माने भर की जुटा लेगा बदगुमानी वो 
उसे सचाई से क्या और मिलने वाला है 

उस्ताद ग़ज़लकार जनाब 'ज्ञानप्रकाश विवेक'इस किताब की भूमिका में लिखते हैं कि "सौरभ शेखर की ग़ज़लों में एक नई ज़मीन दिखाई देती है। एक ऐसा भावबोध जो जटिल होते संबंधों, मुश्किल होते जीवन और कुटिल होते तंत्र को बड़ी सूक्ष्मता से व्यक्त करने में सफल होता है। यहाँ नए समय का संज्ञान है और बदलते समय की गूँज। यथार्थ बेशक कर्कश हुआ है लेकिन इन ग़ज़लों में खुरदरे और कर्कश यथार्थ को बड़ी निपुणता से व्यक्त किया गया है। यहाँ वेदना भी अपने गाढ़े रूप में मौजूद है। लहजा बेतकल्लुफ अभिव्यक्ति में व्यंजना का पुट लेकिन शेर में थरथराती बैचनी। ये जो शेरगोई का अंदाज़ है यही सौरभ शेखर का मुहावरा है। वो नए प्रयोग करते हैं और सफल होते हैं

जिस से भी मिल रहा हूँ उसी को करार है 
चैनो-सुकूँ के शह्र में उजलत का क्या हुआ 
उजलत=जल्दबाज़ी  

सौ सदमे खा के ख़ैर मुहब्बत तो बच गई
तलवार भांजती हुई नफ़रत का क्या हुआ 

वो आदमी तो हो गया मशहूर इश्क में 
रुसवाइयों की आग में औरत का क्या हुआ 

हम तो हक़ीर थे हमें मिटटी निगल गई 
पर यार बादशाह सलामत का क्या हुआ 

सौरभ ने सन 2009 में औपचारिक तौर पर ग़ज़ल कहना शुरू किया अपने ब्लॉग से, धीरे धीर उनकी ग़ज़लें सन 2012 से लफ्ज़ के पोर्टल पर होने वाले तरही मुशायरों में भी दिखाई देने लगीं। उस पोर्टल पर ग़ज़ल का पोस्ट होना उसके मयार का सर्टिफिकेट हुआ करता था। सौरभ की ग़ज़लें वहां उर्दू के कामयाब शायरों की नज़रों में आयीं और वाहवाही बटोरने लगीं। बेहतरीन शायर और ग़ज़ल के पारखी जनाब मयंक अवस्थीसाहब ने उनकी ग़ज़लों के बारे में कहा कि "नावल्टी सौरभ की ग़ज़लों की पहचान है। सामाजिक चैतन्य,शिल्पगत ख़ूबसूरती और ज़बान की कहन सौरभ की ग़ज़लों की विशेषता है। सौरभ ने कम समय में ही ग़ज़ल के दुश्वार मरहले सर कर लिए हैं। ये सौरभ की उपलब्धि है। दुष्यंत कुमार ने अपनी पुस्तक ” साये में धूप” में लिखा है कि हिन्दी और उर्दू जब आम आदमी के पास जाती हैं तो वो अपना सिंहासन छोड़ कर हिदुस्तानी बन जाती हैं ,सौरभ की ग़ज़लों की भाषा खालिस हिंदुस्तानी है।"

सच झूठ की कहानी मुकम्मल न जानिये
कुछ आखरी ग़लत है न कुछ आखरी सही

रहबर ने बार-बार ही भटका दिया मुझे
साबित हुई हमेशा मिरी गुमरही सही

इक आपके अलावा ग़लत है हरेक शख्स
अच्छा ये आप समझे हैं, अच्छा यही सही

उर्दू ग़ज़ल को हिंदी पाठकों तक ले जाने में लफ्ज़ पत्रिका और उसके संपादक बेहतरीन शायर जनाब 'तुफैल चतुर्वेदी "साहब का योगदान अविस्मरणीय रहा है. तुफैल साहब के शागिर्दों की संख्या बहुत बड़ी है और उन में कुछ एक नौजवान शायर तो आज उर्दू अदब में अपनी कलम का लोहा मनवा रहे हैं। तुफैल साहब ने ही सन 2016 में सौरभ की ग़ज़लों को लगातार चार साल पढ़ते रहने के बाद उन्हें लिखा कि "सौरभ आपका लहजा सबसे अलग सबसे जुदा जा रहा है। आपके बिम्ब अनोखे और आपके अपने हैं। आपका लहजा ग़ज़ल का भी है और उससे अलग भी है।आप के लिये बानी की पंक्ति कुछ तब्दील करके सादिक़ आती है-बोलता इक लफ़्ज़ मंज़र में मगर सबसे हटा सा. ये आपकी ज़बरदस्त कामयाबी है कि जहां मैं ग़ज़ल के 36 बरस पांव दबाने के बाद आ पाया हूं, वहां आप कुछ बरस के सफ़र में ही पहुँच गये। अब वक़्त आ गया है कि आपको किताब ले आनी चाहिये। "मैं समझता हूँ कि एक उस्ताद शायर द्वारा सरे आम ये कहना कि जिस मुकाम पर वो 36 सालों की मेहनत के बाद पहुंचे हैं वहां एक युवा शायर चंद सालों में ही पहुँच गया है ,बहुत बड़ी बात है। ये उस्ताद शायर का बड़प्पन तो है ही एक युवा शायर के लिए सबसे बड़ा ईनाम भी है।

पाक़ लोगों की सुहबतें तौबा 
कुफ़्र ही कुफ़्र सूझता है मुझे 

मुझको आँखें बचा के रखनी हैं
कितना कुछ और देखना है मुझे 

घर में फुर्सत का आज इक लम्हा 
इत्तिफ़ाक़न गिरा मिला है मुझे 

युवा सौरभ की इस पहली किताब को पढ़ते वक्त अंदाज़ा हो जाता है कि इनका भविष्य बहुत उज्जवल है. इस किताब में सौरभ की 88 ग़ज़लें संगृहीत हैं जो बार-बार पढ़ने लायक हैं. अधिकतर छोटी बहर की ग़ज़लों की मारक क्षमता का तो कहना ही क्या। ग़ज़ल में भाषा का सौंदर्य आपको बांध लेता है। उन्होंने हिंदी-उर्दू के अलावा अंग्रेजी के रोजमर्रा इस्तेमाल होने वाले शब्दों को बहुत ख़ूबसूरती से अपनी ग़ज़लों में पिरोया है। यूँ अंग्रेजी शब्द आजकल की ग़ज़लों में खूब प्रचलन में हैं लेकिन सौरभ ने जिस तरह उन्हें बरता है उसे पढ़ कर लगता है कि जैसे इस लफ्ज़ के सिवाय अगर और किसी भाषा का लफ्ज़ आता तो वो मिसरे का सौंदर्य धूमिल कर देता।

बीच भंवर वालों की क्या हालत होगी 
ख़ौफ़ज़दा जब छिछले पानी में हूँ मैं 

ज़द में हूँ मैं दिल की सी.सी.टी.वी.की 
चौबीसों घंटे निगरानी में हूँ मैं  

महसूस हुआ कल इक नॉविल पढ़ कर 
ये मेरा क़िरदार, कहानी में हूँ मैं 

तुफैल साहब के अलावा एक और शख़्स का नाम लिए बिना बात पूरी नहीं होगी जिसने सौरभ को शायर सौरभ बनने में पूरी मदद की, वो हैं मशहूर शायर जनाब 'सर्वत जमाल'साहब। सर्वत मेरे मित्र हैं इसलिए नहीं कह रहा बल्कि वो हकीकत में जितने बेहतरीन शायर हैं उस से कहीं ज्यादा अच्छे इंसान हैं. उन्होंने सौरभ की हर उस कदम पर मदद की जहाँ जहाँ उसे अपने सफर का रास्ता उबड़-खाबड़ और दुश्वार लगा। चढाई पर चढ़ने वाले इंसान की लाठी बनना सर्वत जमाल की फितरत में है। उस्ताद लोग सिर्फ रस्ते में आयी रुकावटों को दूर करने में आपकी मदद करते हैं लेकिन अपनी मंज़िल का रास्ता खुद को ही तलाशना पड़ता है। सौरभ ने जो रास्ता तलाशा वो उसका अपना है जिस पर पहले किसी के चलने के निशान नहीं मिलते ,तभी तो उन्हें जो मंज़र दिखाई देते हैं वो बहुत अलग और दिलकश हैं।

उदासी के रुतों के फूल हैं हम 
ग़मों में देखना जलवा हमारा 

बहुत बारीक़ हैं उनके इशारे 
बढ़ाना तो ज़रा चश्मा हमारा 

खराबी कोई तो हम में है जिस से 
कहीं भी जी नहीं लगता हमारा 

इस किताब की सभी ग़ज़लें बेहद खूबसूरत हैं। मेरे देखे शायरी के प्रेमियों के पास ये किताब जरूर होनी चाहिए। आपसे गुज़ारिश है कि इन बेहतरीन ग़ज़लों के लिए सौरभ शेखर, जो फिलहाल इंद्रापुरम गाज़ियाबाद के निवासी हैं , को उनके मोबाईल न 9873866653पर फोन करके बधाई दें और किताब प्राप्ति के लिए 'बोधि प्रकाशन जयपुर के जनाब 'माया मृग 'जी से 9829018087पर संपर्क करें। सौरभ की ग़ज़लें आप 'रेख़्ता'की साइट पर भी पढ़ सकते हैं। ये किताब अमेज़न पर भी उपलब्ध है.सौरभ पर जितना लिखा जा सकता है उसका मात्र 20 -25 प्रतिशत ही आप तक पहुंचा पाया हूँ। पोस्ट की सीमा को नज़र-अंदाज़ भी तो नहीं किया जा सकता इसलिए उनके कुछ फुटकर शेर आपको पढ़वाता चलता हूँ:

लक़ीरें फ़क़त खेंचता जा वरक़ पर 
कोई शक्ल तैयार हो कर रहेगी
*** 
कुछ इच्छा भी तो हो मिलने-जुलने की 
वर्ना ऐसा थोड़ी है कि फुर्सत नईं 
*** 
वैसे पैसा ही सब कुछ है दुनिया में 
लेकिन पैसे पर भी थूका जा सकता है
*** 
वो बार-बार पूछ रहा था वही सवाल 
मजबूर हो के झूठ मुझे बोलना पड़ा
*** 
बच्चे ने सजाई है कोई और ही दुनिया 
खींचा है जहां बाघ वहीँ रक्खा हिरन भी
*** 
फ़िक्र मुझे अपने बच्चों के सर की होती थी 
जर्जर घर था सच्चाई का आखिर छोड़ दिया
*** 
मैं हकलाता नहीं हूँ बोलने में 
मैं नर्वस था तिरी मौजूदगी से 
*** 
यही एक मौका मिरे पास है 
गिराना है ग़म को इसी वार में
*** 
गौर से देखिये पाज़ेब की खुशफ़हमी में
आप जंज़ीर की झंकार संभाले हुए हैं

किताबों की दुनिया - 177

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मौन के ये आवरण मुझको बचा ले जायेंगे 
वरना बातों के कई मतलब निकले जायेंगे 

अब अंधेरों की हुकूमत हो चली है हर तरफ 
अब अंधेरों की अदालत में उजाले जायेंगे 

प्यार का दोनों पे आखिर जुर्म साबित हो गया 
ये फ़रिश्ते आज जन्नत से निकाले जायेंगे 

नशा कोई भी हो बुरा नहीं होता -आप सोचेंगे हैं ? ये क्या कह रहे हैं नीरज जी ?अरे सठियाये हुए तो ये थे ही लगता है अब पगलाय भी गए हैं क्यूंकि पगलाना सठियाने के बाद की सीढ़ी है ,वैसे कुछ कुछ लोग सठियाने से पहले भी पगला जाते हैं। नशा चाहे शराब का हो, भांग का, दौलत का हो या सत्ता का बुरा नहीं होता -अगर -जी हाँ इस अगर के बाद ही मेरी बात पूरी होगी - अगर-वो एक निश्चित सीमा में किया जाय। सीमा पार की नहीं कि इन सभी नशों में दोष दिखाई देने शुरू हो जायेंगे। लेकिन एक नशा है जिसकी सीमा का कोई निर्धारण नहीं किया जा सकता और वो है किताब का नशा। जिसे इसका नशा चढ़ गया उसके लिए बाकि के नशे धूल बराबर हैं। किसी लाइब्रेरी की खुली रेक्स पर सजी पुरानी किताबों के पास से गुज़रें उसमें से उठती गंध को गहरी सांस के साथ अपने भीतर खींचे-अहा-ये गंध आपको मदहोश कर देगी। मुझे तो करती है - सब को करे ये जरूरी तो नहीं। किताबों से उठने वाली ये खुशबू ही मुझे जयपुर की पुरानी लाइब्रेरियों और हर साल होने वाले दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले तक खींच के ले जाती है। इस गंध में डूबा हुआ मैं तलाशता हूँ शायरी, खास तौर पर ग़ज़ल की कोई किताब जिस पर लिखा जा सके।

अभी दीवारो-दर से दिल के, वीरानी नहीं झलकी
ग़मों के वास्ते इस घर में आसाइश अधूरी है
आसाइश = सुविधा

अभी से थक गए हो क्यूँ , अभी हारा नहीं हूँ मैं
सितम में भी इज़ाफा हो अभी सोज़िश अधूरी है
सोज़िश=जलन

मेरे लब सी दिए उसने क़लम है फिर भी हाथों में 
ये हाकिम से कहो जाकर तेरी बंदिश अधूरी है 

दिल्ली में सं 2018 की जनवरी को प्रगति मैदान में चल रही अभूतपूर्व प्रगति के कारण वहां आयोजित पुस्तक मेले तक पहुंचना एक टेढ़ी खीर थी। पुस्तक प्रेमी परेशान जरूर हुए लेकिन निराश नहीं। बड़ी तादाद में पहुंचे। देश में पुस्तकों के प्रति लोगों की दीवानगी देख कर बहुत अच्छा लगा। खास तौर पर युवाओं की। मेरे साथ मेरे प्रिय विकास गुप्ता थे। 'विकास'रेख़्ता के एडिटोरियल बोर्ड में कार्यरत हैं उनका उर्दू साहित्य के प्रति समर्पण और ज्ञान अभूतपूर्व है। किताब ढूंढने में वो भी मेरी मदद करते हुए इधर से उधर घूम रहे थे तभी उनकी भेंट एक चुंबकीय व्यक्तित्व के धीर गंभीर व्यक्ति से हुई। दोनों एक दूसरे को देख मुस्कुराये हाथ मिलाया और बातें करने लगे। विकास ने मेरी और देखा और कहा 'नीरज जी आप इन्हें नहीं जानते ? ये आलोक यादवहै -बेहतरीन शायर और यादव जी ये नीरज जी है "हमने हाथ मिलाया और बातें करने लगे।बातों ही बातों में जब मैंने उनसे पूछा कि क्या आपकी कोई किताब मंज़र-ऐ-आम पर आयी है तो मुस्कुराते हुए वो मुझे स्नेह से हाथ पकड़ कर  उस स्टाल पर ले गए जहाँ उनकी किताब "उसी के नाम"रैक पर करीने से सजी हुई दिखाई दे रही थी। उन्होंने किताब उठाई उस पर कुछ लिखा अपने हस्ताक्षर किये और मुझे दी .मैंने उनके लाख मना करने के बावजूद तुरंत काउंटर पर जा कर उसका भुगतान किया। जहाँ तक संभव हो मुझे किताब खरीद कर पढ़ने में ही मज़ा आता है। जहाँ मेरा बस नहीं चलता वहां भेंट में मिली किताबें भी स्वीकार कर लेता हूँ। आज हम इसी किताब और इसके अनूठे शायर की चर्चा करेंगे।



 अब न रावण की कृपा का भार ढोना चाहता हूँ 
आ भी जाओ राम मैं मारीच होना चाहता हूँ 

 है हक़ीक़त से तुम्हारी आशनाई खूब लेकिन 
 मैं तुम्हारी आँख में कुछ ख़्वाब बोना चाहता हूँ 

 है क़लम तलवार से भी तेज़तर 'आलोक'तो फिर 
 मैं किसी मजबूर की शमशीर होना चाहता हूँ 

 राम रावण और मारीच के माध्यम से बहुत कुछ कहता उनकी एक ग़ज़ल के मतले का ये शेर विलक्षण है। ऐसे शेर कहाँ रोज रोज पढ़ने को मिलते हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी अलोक यादव का जन्म 30 जुलाई 1967 को उनके ननिहाल कायमगंज जनपद फर्रुखाबाद में हुआ। उनके पिता फर्रुखाबाद के मुख्यालय फतेहगढ़ में रहते थे जहाँ उन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण की और लख़नऊ विश्वविद्यालय से बी एस सी करने के बाद इलाहबाद विश्वविद्यालय से एम् बी ऐ किया। 1989 में कानपुर की लोहिया स्टार्लिंगर में अनमने से मन से नौकरी आरम्भ की क्यूंकि बचपन से ही उन्होंने सिविल सेवा में जाने की ठान रखी थी। लिहाज़ा इस नौकरी को उन्होंने साल भर में ही छोड़ दिया और अर्जुन की तरह अपना लक्ष्य सिविल सेवा रूपी मछली की आँख पर गड़ाए हुए इसको पाने के लिए संघर्ष का एक लम्बा दौर जिया। बच्चन जी की प्रसिद्ध रचना की इन पंक्तियाँ "लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती , हिम्मत करने वालों की कभी हार नहीं होती "को 9 सालों (1989 -1998 ) की अथक मेहनत से साकार करते हुए वो आखिर 1999 में संघ लोक सेवा आयोग से सहायक भविष्य निधि आयुक्त के पद पर चयनित हुए। (Regional Commissioner at Employees Provident Fund Organisation of India)

 तेरे रूप की उपमा मैं उसको दे तो देता 
 होता जो थोड़ा भी तेरे मुखड़े जैसा चाँद 

 चंचल चितवन मंद हास की किरणें बिखराता 
 मेरे घर, मेरे आँगन में मेरा अपना चाँद 

 सांझ ढली पंछी लौटे चल तू भी घर 'आलोक' 
बैठ झरोखे कब से देखे तेरा रस्ता चाँद 

संवेदनशील और अंतर्मुखी 'आलोक'को अपने भावों के सम्प्रेषण के लिए ग़ज़ल या गीत का सहारा लेना सुगम लगा। वो किशोर वय से ही कवितायेँ लिखने लगे थे जिनमें ग़ज़लों का अंश बीज रहा करता था। उन्हें ग़ज़ल कहने की विधिवत शिक्षा फतेहगढ़ के श्री कृष्ण स्वरुप श्रीवास्तव जी से मिली जो किसी सरकारी विभाग में कार्यरत थे। अभी उन्होंने रदीफ़ काफिया और बहर का ज्ञान लिया ही था कि कृष्ण जी का ट्रांसफर किसी दूसरे शहर में हो गया। अब जिस तरह अंग्रेजी के 'ऐ'से लेकर 'जेड'तक के वर्णाक्षर पढ़-लिख लेने से अंग्रेजी नहीं आती वैसे ही रदीफ़, काफिया और बहर के ज्ञान से ग़ज़ल कहनी नहीं आ सकती। ये तीन तो महज़ शरीर हैं जिसमें जब तक भाव की आत्मा न डाली जाय तब तक प्राण नहीं आते। तो हुआ यूँ कि नयी नौकरी और पारिवारिक जिम्मेदारियों ने उनकी संवेदनशील और रचनात्मक वृति को बैक फुट पे धकेल दिया। बैकफुट क्रिकेट की भाषा में उस स्थिति को कहते हैं जहाँ खिलाड़ी शॉट मारने की जगह अपना विकेट बचाने को खेलता है।

हवा के दम पे है जब ज़िन्दगी का दारोमदार 
तो क्यूँ ग़ुरूर तुझे ऐ हुबाब रहता है 
हुबाब =बुलबुला 

मेरे लिए हैं मुसीबत ये आईनाख़ाने
यहाँ ज़मीर मेरा बेनक़ाब रहता है 

हसीन ख़्वाब हों कितने ही पर कोई 'आलोक' 
तमाम उम्र कहाँ महवे-ख़्वाब रहता है 
महव=तल्लीन 

 जब परिस्थितियां थोड़ी अनुकूल हुईं तो आलोक जी की बरसों से दबी रचनात्मकता बाहर आने को छटपटाने लगी। तभी उनकी मुलाकात हुई मोतबर और मकबूल शायर जनाब 'अकील नोमानी'साहब से। अकील साहब ने न केवल उन्हें ग़ज़ल कहने का सलीका सिखाया बल्कि अपनी इस्लाह से उनकी ग़ज़ल में प्राण फूंके और वो बोलने लगी।आलोक जी की ग़ज़ल को निखारने में बरेली के जनाब सरदार जिया साहब ने भी बहुत मदद की।इन दो साहबान के सहयोग से आलोक की ग़ज़लों ने वो मुकाम हासिल किया जो किसी भी शायर का सपना होता है। 'उसी के नाम'में आलोक जी की महज़ तीन सालों याने 2012 से 2015 के बीच कही गयी ग़ज़लों का ही संग्रह किया गया है। बकौल आलोक "इस किताब में पाठक को एक शायर के शैशव से युवावस्था तक की यात्रा का आनंद मिलेगा , साथ ही वे रचनाकार के रूप में मेरी विकास यात्रा का भी अवलोकन कर सकेंगे"

नयी नस्लों के हाथों में भी ताबिन्दा रहेगा 
मैं मिल जाऊंगा मिटटी में क़लम ज़िंदा रहेगा 
ताबिन्दा=स्थाई 

ग़ज़ल कोई लिखे कैसे लबो-रुख़्सार पे अब
समय से अपने कब तक कोई शर्मिंदा रहेगा 

बना कर पाँव की बेड़ी को घुंघरू ज़िंदगानी 
करेगी रक्स जब तक दर्द साज़िन्दा रहेगा 

आज आलोक एक बेहतरीन ग़ज़लकार के रूप में स्थापित हो चुके हैं। उनकी ग़ज़लें इंटरनेट की सभी श्रेष्ठ ग़ज़ल या काव्य से सम्बंधित साइट्स जिसमें रेख़्ता भी है, पर उपलब्ध हैं। इन दिनों वो मयारी मुशायरों में कद्दावर शायर जनाब वसीम बरेलवी , ताहिर फ़राज़ , मंसूर उस्मानी और कुंअर बैचैन आदि के साथ शिरकत कर वाहवाहियां बटोरते नज़र आ जाते हैं। देश की लगभग सभी प्रतिष्ठित हिंदी-उर्दू की पत्र पत्रिकाओं में उनकी ग़ज़लें छपती रहती हैं। आकाशवाणी और दूरदर्शन के विभिन्न केंद्रों से उनकी ग़ज़लों का प्रसारण होता रहता है। इतना सब कुछ होने के बावजूद भी आलोक जमीन से जुड़े इंसान हैं ,अहम् उन्हें छू भी नहीं गया है। हर छोटे को प्यार और बड़े को सम्मान देना उनकी फितरत में है तभी उनकी लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है। अच्छा इंसान होना अच्छे शायर से ज्यादा जरूरी है और आलोक तो एक अच्छे इंसान भी हैं और बहुत अच्छे शायर भी । उनकी 'बेटी'पर कही एक मुसलसल ग़ज़ल बहुत लोकप्रिय हुई है जो उनके अच्छे इंसान और अच्छे ग़ज़लकार होने का पुख्ता सबूत है :

घर में बेटी जो जनम ले तो ग़ज़ल होती है 
दाई बाहों में जो रख दे तो ग़ज़ल होती है 

उसकी किलकारियों से घर जो चहकता है मेरा 
सोते सोते जो वो हँस दे तो ग़ज़ल होती है 

छोड़कर मुझको वो एक रोज़ चली जाएगी 
सोचकर मन जो ये सिहरे तो ग़ज़ल होती है 

यूँ तो अधिकतर सम्मान, वज़ीफ़े, उपाधियों और अवार्ड्स की कोई अहमियत नहीं होती लेकिन कुछ सम्मान या अवार्ड्स की वाकई कीमत होती है क्यूंकि वो जिन शख्सियतों को दिया जाता है उनमें खास बात होती है। आलोक को मिले सम्मान उन सम्मानों से अलग हैं जो थोक के भाव लोगों को खुश करने के लिए हर साल बाँटे जाते हैं। उन्हें वर्ष 2014 में 'इंटरनेशनल इंटेलेचुअल पीस अकेडमी 'द्वारा डा इक़बाल उर्दू अवार्ड एवं डा. आसिफ़ बरेलवी अवार्ड से नवाज़ा गया था. इसके बाद वर्ष 2015 में उन्हें प्रतिष्ठित 'दुष्यंत कुमार सम्मान 'मिला एवं वर्ष 2016 में विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ,भागलपुर द्वारा 'विद्या वाचस्पति'की मानद उपाधि प्रदान की गयी।

 ऐसे सिस्टम की अहमियत क्या है 
इसमें इन्सां की हैसियत क्या है

नौकरी जब मिले सिफ़ारिश पर 
कौन पूछे सलाहियत क्या है 
सलाहियत = योग्यता 

फूल से जिस्म बोझ बस्तों का 
क्या है तालीम तरबियत क्या है 

 उनके उस्ताद मोतरम जनाब अकील नोमानी साहब द्वारा उनके बारे में कहे इन अलफ़ाज़ को पढ़ने के बाद मेरे पास कहने को कुछ नहीं रह जाता कि "आलोक के पास काबिलीयत भी है और सलाहियत भी ,हस्सास दिल भी है और दुनिया को उसके तमाम रंगों के साथ देखने वाली नज़र भी। उनकी शायरी में ख़ुलूसो-मुहब्बत के ज़ज़्बों,समाजी क़द्रों, आला उसूलों और इंसानी रिश्तों का एहतराम भी है और ज़ुल्म,ज़ब्र ,नाइंसाफी और इस्तहाल के ख़िलाफ़ मोहज़्ज़ब एहतिजाज भी. उनके अशआर एक तरफ उर्दू से वालिहाना लगाव का एलान करते नज़र आते हैं तो दूसरी तरफ हिंदी से उनके मज़बूत रिश्ते और गहरी रग़बत के गम्माज़ भी है।"

   अपने ही जादू में जकड़े रखता है 
 जाने जंतर-मंतर मौसम बारिश का 

 बिछड़ गया जाते बसंत सा पल भर में 
 आखों को वो दे के मौसम बारिश का 

 उससे पूछो जिसकी मज़दूरी छूटी 
 काँटों का है बिस्तर मौसम बारिश का 

 आलोक जी ने ग़ज़लें थोक के भाव में नहीं कही हैं लेकिन जो कहीं है पुख्ता कहीं हैं तभी तो तीन साल के दौरान कही महज़ 74 ग़ज़लें ही इस किताब में शुमार की गयी हैं। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप "लोक भारती प्रकाशन "दरबारी बिल्डिंग महात्मा गाँधी मार्ग इलाहाबाद को लिख सकते हैं या उन्हें info@lokbhartiprakashan.comपर मेल करें।ये किताब हार्ड बाउन्ड और पेपर बैक में भी उपलब्ध है जिसे आप www. pustak.orgया फिर amazon.inसे ऑन लाइन मंगवा सकते हैं। इस खूबसूरत किताब के लिए आलोक जी को उनके मोबाईल न. 9412736688पर फोन करके बधाई दें या alokyadav1 @rediffmail.comपर मेल से बधाई सन्देश भेजें। आप अपना ये काम करें तब तक आलोक जी के चंद शेर आप तक पहुंचा कर मैं निकलता हूँ किसी और नयी किताब की तलाश में:

 अब भी सोफे में है गर्मी बाक़ी
 वो अभी उठ के गया हो जैसे
 ***
वाइज़ सफ़र तो मेरा भी था रूह की तरफ़
पर क्या करूँ कि राह में ये जिस्म आ पड़ा
 ***
न वो इस तरह बदलते न निगाह फेर लेते
 जो न बेबसी का मेरी उन्हें ऐतबार होता
 ***
तुम हुए हमसफ़र तो ये जाना
 रास्ते मुख़्तसर भी होते हैं
 ***
गोपियों ने सुनी राधिका ने पढ़ी
 बांसुरी से लिखी श्याम की चिठ्ठियां
 ***
कर लेंगे खुद तलाश कि मंज़िल है किस तरफ 
 उकता गए हैं यार तेरी रहबरी से हम 
 *** 
ख्वाइशों के बदन ढक न पायी कभी 
 कब मिली है मुझे नाप की ज़िन्दगी ?

किताबों की दुनिया - 178

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इच्छाओं पर प्रश्नचिन्ह हैं अरमानों पर पहरे हैं 
संबंधों से हमें मिले जो घाव बहुत ही गहरे हैं 

सहमत जो न हुआ राज्य से दंड मृत्यु का उसे मिला 
राजमहल की नींव के पत्थर नरमुंडों पर ठहरे हैं 

नई क्रांति की आज घोषणा कर दी है कुछ गूंगों ने 
सुनकर जो दौड़े आये वे सब के सब ही बहरे हैं 

अब 'क्या अर्ज़ करूँ..."अर्ज़ करने से होगा भी क्या ? आप तो मान ही बैठे हैं कि आज किसी हिंदी ग़ज़लों वाली किताब की चर्चा होने वाली है क्यूंकि हमने ग़ज़ल को भाषाओँ में बाँट दिया है। हिंदी ग़ज़ल उर्दू ग़ज़ल, गुजराती ग़ज़ल, हरियाणवी ग़ज़ल, पंजाबी ग़ज़ल, ब्रज ग़ज़ल आदि आदि जबकि ग़ज़ल ग़ज़ल होती है। हर ग़ज़ल में बहर काफिया रदीफ़ और भाव का होना जरुरी होता है। सम्प्रेषण की भाषा अलग हो सकती है बाकि कुछ नहीं। सम्प्रेषण की भाषा कोई भी हो अगर कमज़ोर है तो उसमें कही ग़ज़ल भी कमज़ोर ही होगी। भाषाएँ अलग हो सकती हैं लेकिन उनसे व्यक्त भाव तो एक ही होते हैं। क्यूंकि बोलने वाला या लिखने वाला इंसान है जो इस दुनिया का हिस्सा है और इस दुनिया के लोगों के ,वो चाहे किसी भी जगह के हों दुःख-सुख परेशानियां कमोबेश एक जैसी होती हैं। खैर !! तो आपको ये बता दूँ कि हमारी आज के शायर सिर्फ हिंदी ग़ज़ल वाले नहीं हैं बल्कि वो भाषा विशेषज्ञ हैं और हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू और सिरायकी -जो पाकिस्तान के मुल्तान इलाके में बोली जाती है -में समान अधिकार से लिखते हैं।

जो खुल के हँस नहीं सकते जो खुल कर रो नहीं सकते 
ये दुनिया क्या कभी उनकी भी मजबूरी समझती है 

किनारे बैठ कर तुम तब्सिरा करते रहो लेकिन 
है पानी सर्द या फिर गर्म बस मछली समझती है 

ख़िरद हर चीज़ से इंकार करने पर है आमादा 
अक़ीदत गोल पत्थर को भी ठाकुर जी समझती है 
ख़िरद=बुद्धिमता, अक्ल ,अक़ीदत =श्रद्धा 

हमारे आज के शायर खूबसूरत शख्शियत के स्वामी मृदुभाषी 28 दिसम्बर 1952 को देहरादून में जन्में जनाब ओम प्रकाश खरबंदा हैं ,जो पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तरप्रदेश,उत्तराखंड, बिहार, हिमाचलप्रदेश में होने वाले राष्ट्रीय और अंतर राष्ट्रिय हिंदी और उर्दू के कार्यक्रमों का कभी आयोजन भी करते हैं तो कभी उनमें शायर या नाज़िम याने संचालक की हैसियत से "अम्बर खरबंदा"के नाम से शिरकत करते हैं.आज हम "अंबर खरबंदा"साहब की ग़ज़लों, कत'आत, नज़्मों ,गीतों और दोहों से सजी किताब "क्या अर्ज़ करूँ"की बात करेंगे जिसे "असीम प्रकाशन , 602 मालीवाड़ा, ग़ाज़ियाबाद ने एक बेहद खूबसूरत आवरण के साथ सन 2014 में प्रकाशित किया था। इस किताब में खरबंदा साहब की 50 ग़ज़लें 45 कत'आत 9 नज़्में और गीत तथा 20 दोहे संकलित किये गए हैं।ये किताब हमें खरबंदा साहब की बहुमुखी प्रतिभा से रूबरू करवाती है। इसे पढ़ कर लगता है कि ऊपर वाला किसी किसी को वाकई जब कुछ देने पे आता है तो छप्पर फाड़ कर देता है।



ये सच है मैं वहां तनहा बहुत था 
मगर परदेश में पैसा बहुत था

वो कहता था बिछुड़ कर जी सकोगे 
वो शायद अबके संजीदा बहुत था

बिछड़ते वक्त चुप था वो भी, मैं भी
हमारे हक़ में ये अच्छा बहुत था 

ये जो कम लफ़्ज़ों में गहरी बात करने का हुनर है ये ऐसे ही नहीं आता। गागर में सागर भरना हर किसी के बस का रोग नहीं। मुझे लगता है इस काम को अंजाम देने में अंबर जी का इलेक्ट्रॉनिक्स ज्ञान बहुत काम आया होगा। आपको को तो पता ही है कि इलेक्ट्रॉनिक्स ने किस तरह विज्ञान जगत में क्रांति का सूत्रपात किया है। एक छोटी सी माइक्रोचिप में हज़ारों लाखों सूचनाएँ इकठ्ठा की जा सकती हैं। उदाहरण के लिए आज मोबाईल से हम जो दुनिया भर की जानकारियां लेते हैं फ़िल्में देखते हैं गाने सुनते हैं एक दूसरे को देखते सुनते हैं इस सब के पीछे इलेक्ट्रॉनिक्स है और हमारे 'अंबर खरबंदा'जी इलेक्ट्रॉनिक्स के इंजीनियर हैं। उन्होंने न केवल इलेक्ट्रॉनिक्स पढ़ी है बल्कि बरसों बरस शिक्षण संस्थाओं में पढाई भी है।

कैसे कैसे क्या से क्या होते गए 
इब्तिदा थे इन्तिहा होते गए 
इब्तिदा =प्रारम्भ, इन्तिहा =अंत

ग़म मिले इसका भी बेहद ग़म रहा 
और फिर ग़म ही दवा होते गए 

हम नहीं समझे के क्या है ज़िन्दगी 
आप जीने की अदा होते गए

'अंबर'जी के जीन में शायरी है। इनका परिवार 'मियाँवाली'जो अब पाकिस्तान में है से, 1947 में देश को मिली खूनी आज़ादी के कारण ,पलायन कर देहरादून में आ कर बस गया। अंबर जी के पिता स्वर्गीय श्री 'जीवनदास खरबंदा'उर्दू से बेहद मुहब्बत रखते थे। उनके पास बेशुमार मयारी शायरी का खज़ाना था और उन्हें न जाने कितने ही शेर ज़बानी याद थे। मियांवाली के जिस स्कूल में वो पढ़ते थे वहां के हैडमास्टर उर्दू शायरी के कद्दावर शायर और स्कॉलर जनाब 'त्रिलोक चंद 'महरूम'साहब थे और सहपाठी जनाब 'जगन्नाथ' , जी हाँ वही जो बाद में 'जगन्नाथ आज़ाद'के नाम से उर्दू अदब में मशहूर हुए। अंबर साहब को घर और स्कूल में ऐसा माहौल मिला कि उनकी उर्दू से मोहब्बत दीवानगी की हद तक जा पहुंची।

मेरे लिए ऐ दोस्त ! बस इतना ही बहुत था 
जैसा तुझे सोचा था तू वैसा निकल आता 

मैं जोड़ तो देता तेरी तस्वीर के टुकड़े 
मुश्किल था के वो पहला-सा चेहरा निकल आता 

ऐसा हूँ मैं इस वास्ते चुभता हूँ नज़र में 
सोचो तो , अगर मैं कहीं वैसा निकल आता 

थोड़ा होश सँभालते ही खरबंदा जी देहरादून में होने वाले मुशायरों में रात रात भर बैठे रहते। उस वक्त रेकार्डिंग की आज जैसी सुविधा तो थी नहीं सो अपनी डायरी में मयारी शेरों को लिखते और गुनगुनाते रहते। मुशायरों में उनकी लगातार रहने वाली मौजूदगी से बहुत से शायर उन्हें पहचानने लगे थे। ऐसे ही किसी एक मुशायरे के बाद उनकी शायरों से हो रही उनकी गुफ्तगू के दौरान उन्हें देहरादून के मोतबर शायर जनाब 'कँवल ज़ियाईसाहब का पता चला और वो जा पहुंचे उनकी शागिर्दी में। कँवल साहब ने अंबर साहब को अपने क़दमों में जगह दी और फिर बाक़ायदा उनके शेरी हुनर को तराशने लगे।कँवल साहब के यहाँ शायरों का आना जाना लगा ही रहता था एक दिन उनकी मुलाकात देहरादून के ही एक और उस्ताद शायर जनाब नाज़ कश्मीरी से हुई जिनकी मौजूदगी में उनका तख़ल्लुस 'अंबर'रखा गया।

गवाहों को तो बिक जाने की मजबूरी रही होगी 
हमें भी फैसला मंज़ूर हो ऐसा नहीं होता 

मुहब्बत जुर्म है तो फिर सज़ा भी एक जैसी हो 
कोई रुसवा कोई मशहूर हो ऐसा नहीं होता 

कोई मिसरा अगर दिल में उतर जाए ग़नीमत है 
तग़ज़्जुल से ग़ज़ल भरपूर हो ऐसा नहीं होता

"तग़ज़्जुल से ग़ज़ल भरपूर हो ऐसा नहीं होता"बहुत ही सही बात की है अंबर जी ने. उर्दू शायरी के बड़े से बड़े उस्ताद शायर की किसी भी ग़ज़ल को उठा कर देखिये आपको शायद ही उनकी कोई ऐसी ग़ज़ल मिलेगी जिसके सारे शेर ग़ज़ब के हों। सच तो ये है कि कभी कभी एक अच्छा या सच्चा मिसरा कहने में उम्र निकल जाती है शेर तो बहुत दूर की बात है। आप कितना लिखते हैं इस से कोई फर्क नहीं पड़ता आप क्या लिखते हैं ये बात मायने रखती है। अम्बर साहब ने अपने तवील शेरी सफर में बहुत ज्यादा नहीं लिखा लेकिन जो लिखा वो पुख्ता लिखा। शायरी में उन्हें जो मुकाम हासिल हुआ है वो उन्हें किताबें पढ़ने और अपने उस्ताद की रहनुमाई के साथ साथ मित्तर नकोदरी ,डा.श्यामनन्द सरस्वती 'रोशन'नाज़ कश्मीरी ,विज्ञान व्रत, शाहिद हसन 'शाहिद', सरदार पंछी,ओम प्रकाश 'नदीम', इकबाल आज़र, नरेश शांडिल्य, महेंद्र प्रताप 'चाँद'जैसे बहुत से कामयाब शायरों की सोहबत से हासिल हुआ।

कितना नफ़ा है, क्या है नुक्सान सोच लेगा 
फिर दोस्ती करेगा , आखिर वो आदमी है 

सब धर्म सारे मज़हब जब उसने रट लिए हैं 
मिल-जुल के क्यों रहेगा आखिर वो आदमी है 

भूले से भी न रखना आईना उसके आगे 
खुद से बहुत डरेगा आखिर वो आदमी है 

धर्म और मज़हब के कारण एक इंसान की दूसरे इंसान के बीच जो दूरी बढ़ी है, नफ़रत बढ़ी है उस पर आपको सैंकड़ों शेर मिल जाएंगे लेकिन अंबरी साहब ने उसी बात को बिलकुल अलग ढंग से अपने शेर में पिरोया है- 'मिल-जुल के क्यों रहेगा आखिर वो आदमी है '. शायरी दरअसल हज़ारों सालों से चली आ रही इंसानी फितरत को अलग अपने नज़रिये से शेर में पिरोने का नाम है। जो इस काम को सही ढंग से अंजाम दे देता है वो ही कामयाब शायर कहलाता है। आप कोई नयी बात नहीं कह सकते लेकिन नए ढंग से जरूर कह सकते हैं। अंबर साहब की इस किताब को पढ़ते हुए आप को कई जगह किसी बात को नए ढंग से कहने का हुनर नज़र आता है और यही इस किताब की कामयाबी भी है।

देखिये कैसे चमकती है नगीने की तरह 
सौ ग़मों के बीच छोटी सी ख़ुशी रख लीजिये 

रहबरों की रहबरी को आज़माने के लिए 
अपने क़दमों में जरा सी गुमरही रख लीजिये 

आप 'अंबर'जी न बन जाएँ फ़रिश्तें यूँ कहीं 
अपने किरदार-ओ-अमल में कुछ कमी रख लीजिये 

पहले सामिईन के बीच बैठ कर शायरों को सुनना और फिर शायरों के बीच बैठ कर सामिईन को सुनाना एक ऐसा अनुभव है जिसे लफ़्ज़ों में बयाँ नहीं किया जा सकता। इस सफ़र को तय करने में बहुत मेहनत लगती है। इस दुनिया में अपनी अलग पहचान बनाना आसान काम नहीं है तभी तो अधिकतर लोग भीड़ का हिस्सा बनकर ही ज़िन्दगी काट देते हैं। जो मज़ा परचम उठा कर आगे आगे चलने में है वो पीछे पीछे चलते हुए नारे लगाने में नहीं। अंबर साहब की अब अपनी पहचान है और इसी के चलते उन्हें 2005 में अंतर्राष्ट्रीय प्रवासी सम्मलेन में 'अक्षरम सम्मान' , 2008 में गुंजन साहित्य सम्मान, 2009 में नागरिक परिषद् सम्मान, 2010 में एस.पी.गौहर सम्मान, 2011 में लोक लिखारी सम्मान, 2012 में हंसराज हंस सम्मान और 2013 में प्राइड ऑफ उत्तराखंड सम्मान से सम्मानित किया गया है। सम्मान प्राप्ति की ये लिस्ट अभी अधूरी है क्यूंकि उन्हें मिले सम्मानों की लिस्ट के लिए एक पोस्ट अलग से लिखनी पड़ेगी।

मौसम की तब्दीली कहिये या पतझड़ का बहाना था 
पेड़ को तो बस पीले पत्तों से छुटकारा पाना था 

रेशा-रेशा हो कर अब बिखरी है मेरे आँगन में
रिश्तों की वो चादर जिसका वो ताना मैं बाना था 

बादल,बरखा, जाम, सुराही, उनकी यादें, तन्हाई 
तुझको तो ऐ मेरी तौबा ! शाम ढले मर जाना था

रेडिओ -टीवी पर प्रसारित होने वाले शायरी से सम्बंधित लगभग सभी कार्यक्रमों में शिरकत करने वाले और देश के प्रसिद्ध रिसालों -अख़बारों में नियमित रूप से छपने वाले 'अंबर खरबंदा'साहब की किताब "क्या अर्ज़ करूँ'को प्राप्त करने के लिए आपको 'असीम प्रकाशन ग़ाज़ियाबाद के आफिस नंबर 0120-4560628 पर फोन करना पड़ेगा या फिर अंबर साहब को उनकी लाजवाब शायरी के लिए बधाई देते हुए उनके मोबाईल न. 9411512333पर फोन करना पड़ेगा। अंबर साहब, जो दून क़लम संगम के जनरल सेकेट्री भी हैं, को आप ई -मेल से ambarkharbanda@gmail.comसे भी सम्पर्क कर सकते हैं। मैंने रास्ता बता दिया है ,चलने का काम तो आपको ही करना पड़ेगा। लीजिये आखिर में उनके दो कतआत पेश हैं :

यही इक जुर्म है ऐ मेरे हमदम 
के मैं खुशबू को खुशबू बोलता हूँ 
तेरी आँखों को देखा था किसी दिन 
उसी दिन से मैं उर्दू बोलता हूँ 
*** 
सर्दी बहुत है दोस्तो ! हालत ख़राब है 
बाज़ार चल के ढूंढ लें इसका कोई जवाब 
माँ के लिए खरीद लें सस्ती-सी एक शाल 
ले आएं अपने वास्ते मँहगी कोई शराब

किताबों की दुनिया - 179

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जलो जिसके लिए उस तक भी थोड़ी सी तपिश पहुंचे 
ये जीना भी कोई जीना है के बस चुपचाप जल जाओ 

फ़क़त उसके लिए जीना बहुत अच्छा सही लेकिन 
कभी अपने लिए भी सामने उसके मचल जाओ 

यहाँ हर रास्ता बस एक ही मंज़िल को जाता है 
सो, आँखें बंद करके तुम जिधर चाहो निकल जाओ 

हमारे प्यार को तुम प्यार रहने दो तो अच्छा है 
ना लाओ अपनी पेशानी पे टेढ़ा सा ये बल, जाओ 

कल्पना कीजिये - क्यूंकि शायद इंसान ही ऐसा प्राणी है जो कल्पना कर सकता है और जनाब कल्पना करने में जो आनंद है उसे लफ़्ज़ों में बयां भी तो नहीं किया जा सकता- तो कल्पना कीजिये कि आप अमेरिका के लॉस ऐंजल्स शहर में हैं - देखिये आया न मज़ा कल्पना करने में खास तौर पर उन्हें जिन्होंने अभी तक लॉस एंजल्स देखा नहीं हैं - और फिर आगे देखिये कि वहां के रेडियो स्टेशन के ऑडिशन रुम से एक 23 वर्षीय खूबसूरत बांका नौजवान मुस्कुराते हुए बाहर निकल रहा है, जिसे स्टूडियो के बाहर बैठे उस नौजवान के वालिद की उम्र के बुजुर्गवार शख़्स ने तपाक से उठकर सलाम किया और पूछा कि "बरखुरदार क्या स्टूडियो में आप ही ग़ज़ल पढ़ रहे थे ?"नौजवान ने हैरत से बुजुर्गवार को देखते हुए कहा कि "जी हाँ हुज़ूर , मैं ही पढ़ रहा था -कहें ? कुछ गुस्ताखी हुई ?"बुजुर्गवार हँसते हुए बोले "अरे नहीं नहीं ऐसी कोई बात नहीं ,बरखुरदार मैं तो ये कह रहा था कि क्या आप मुझे इस ग़ज़ल को गाने की इज़ाज़त देंगे ?"ये सुनकर उस नौजवान के चेहरे पर उभर आये ख़ुशी के भावों की कल्पना कीजिये।

तबियत क्या है एक नादान बच्चे की कहानी है 
बिखर जाए तो फिर आसां नहीं है उसको बहलाना 

दीवानापन नहीं तो और क्या है ये 'दिल-ए-पागल' 
कभी पतझड़ में खिल उठना, कभी सावन में कुम्हलाना

ग़ज़ल होती नहीं जादूगरी बे-शक्ल लफ़्ज़ों की 
ग़ज़ल है ज़ज़्बा-ऐ-दिल को कबा-ए-सौत पहनाना 
कबा-ए-सौत=आवाज़ का लिबास 

हमारा क्या है हम तो हर घडी मिलना तुम्हें चाहें 
कभी हाँ दिल तुम्हारा खुद कहे तो जान, आ जाना 

अब कल्पना करना छोड़िये और जहाँ हैं वहीँ रह कर आगे पढ़िए जो हकीकत है और हक़ीक़त ये है कि वो बुजुर्गवार जिनका जिक्र ऊपर किया जा रहा था कोई और नहीं ग़ज़ल गायकी के उस्ताद-ए-मौतरम जनाब मेहदी हसन साहब थे और जिस युवा शायर से ,जो अपनी ग़ज़ल पढ़ कर स्टूडियो से निकल रहा था , वो थे जनाब "फ़रहत शहज़ाद"साहब जिनकी किताब "कहना उसे"की बात आज हम करने जा रहे हैं। ये पहली छोटी सी मुलाक़ात आगे जा कर क्या गुल खिलाने वाली है इसका एहसास दोनों में से किसी को नहीं था। हमारी ज़िन्दगी में कोई पल ऐसा जरूर आता है जिससे ज़िन्दगी का रुख़ ही बदल जाता है। फ़रहत शहज़ाद साहब की ज़िन्दगी का रुख़ बदलने वाला पल यही था। मेहदी हसन साहब ने उनकी 9 ग़ज़लों गा कर "कहना उसे "के नाम से अल्बम निकाला जो बहुत लोकप्रिय हुआ। इसके बाद लगभग 32 सालों तक दोनों एक दूसरे के रंग और मौसम में शरीक़ रहे। आईये पढ़ते हैं वो ग़ज़ल जिसने मेहदी हसन साहब को मुत्तासिर किया था : 


प्यार घड़ी भर का भी बहुत है 
झूठा, सच्चा मत सोचा कर 

वो भी तुझसे प्यार करे है 
फिर दुःख होगा , मत सोचा कर 

दुनिया के ग़म साथ हैं तेरे 
खुद को तन्हा मत सोचा कर 

जीना दूभर हो जायेगा 
जानां इतना मत सोचा कर 

फ़रहत साहब अपने बारे में लिखते हैं कि "स्कूली तालीम का हाथ सातवीं जमात से पहले ही छूट गया था फिर प्राइवेट स्टूडेंट की हैसियत से कराची यूनिवर्सिटी से उर्दू में एम्.ऐ.और इंग्लिश में एम् ए की अधूरी डिग्री तक मैं पहले मुसलमान और थोड़ा सा इंसान रहा। फिर एक खुशकिस्मत दिन मुझे एक "अदबी-बेअदब"इंसान ने किसी और देश की तरफ़ एक बेहतर ज़िन्दगी जीने की तलाश में रवाना कर दिया। बहुत सी ख़ारदार और फूलों से लदी तवील राहों से चल कर आखिर मैं लेबनॉन से अमेरिका आ पहुँचा। वहां ज़िंदा रहने के लिए डोनट बनाये , सॉफ्ट वेयर इंजीनियरिंग की पढाई कर प्रोग्राम बनाये ,इंटरनेशनल बिजनेस में एम् बी ऐ किया और तो और हवाई जहाज उड़ाने के लिए पायलेट का लाइसेंस भी लिया। यहाँ मेरी सोच की आँखों पर बंधी मज़हब की सब्ज़ पट्टी की गिरफ्त कमज़ोर पड़ना शुरू हुई। आज मैं ये कहने के क़ाबिल हुआ हूँ कि "जी हाँ मैं अव्वल आखिर सिर्फ एक इंसान हूँ।मैं किसी मुल्क से मुतअल्लिक़ नहीं। मेरा ताअल्लुक़ 'प्लानेट अर्थ 'से है और इसी सबब मैं इस ज़मीन पर बसने वाले हर इंसान को पहले अपना हमवतन समझता हूँ और फिर कोई और। "

आवाज़ मेरी बैठ तो सकती है थकन से 
लहजे में मगर मेरे गुज़ारिश नहीं होगी

हो फ़िक्र जिसे खुद वो मेरा हाल परख ले 
मुझ से तो मेरे ग़म की नुमाइश नहीं होगी 

धड़कन में तेरा नाम बहर हाल रहेगा 
होठों पे मेरे हाँ , तेरी ख़्वाहिश नहीं होगी 

फ़रहत साहब के पिता जो हरियाणा के कैथल जिले के थे खुद बहुत बेहतरीन शायर थे. उनका ननिहाल लख़नऊ था। याने उनकी जड़ें हिंदुस्तान में हैं। विभाजन के बाद उनका परिवार पाकिस्तान चला गया जहाँ उनके पिता क्लेम डिपार्टमेंट में काम करने लगे। वो अपने वालिद के बारे में एक जगह कहते हैं कि "जो लोग कहते थे कि मेरी हिन्दुस्तान में इतनी बड़ी जमीन-जायदाद थी उन्हें मेरे वालिद से मिलवाया जाता था. वालिद साहब को असलियत पता होती थी. लिहाजा जल्द ही कुछ लोग उनकी ईमानदारी की वजह से उन्हें नापसंद करने लगे. ईमानदारी की सजा के तौर पर उन्हें पाकिस्तान के कालापानी समझे जाने वाले इलाके डेरा गाजी खान में ट्रांसफर कर दिया गया. हम चार भाइयों के जवान होने तक हमारा अपना घर नहीं था. हम किराये के मकान में रहते थे. वहीँ 1955 में मेरा जन्म हुआ।"जिसकी हिंदुस्तान में जड़ें हों ,पाकिस्तान में जन्म हुआ हो और अमेरिका में रिहाइश हो उसे तो किसी एक मुल्क का नहीं कहा जा सकता। वो वाकई 'प्लानेट अर्थ 'के बाशिंदे हैं।

ऐसा नहीं कि मुझको जुदाई का ग़म नहीं 
लेकिन ये बात और, मेरी आँख नम नहीं 

तेरे हुज़ूर लाए मुझे प्यार माँगने 
इतना तो जान मेरी तेरे ग़म में दम नहीं 

तन्हाई, ज़ख्म, रंज-ओ-अलम सब ही साथ हैं 
सोचो अगर तो इतने अकेले भी हम नहीं 

फ़रहत साहब को लोग इण्डिया परस्त मानते हैं , उनके बेबाक कथनों से पाकिस्तान के बहुत से लोग आहत भी हुए हैं वो कहते हैं कि : "मेरा ख्याल है कि हिंदुस्तान की आम जनता काफी समझदार है. मैं आम हिंदुस्तानी की इस बात के लिए बहुत तारीफ करता हूं. ये वो मुल्क है जिसने हर तहजीब को, हर मजहब, हर शफ़ाकत को पाला है, सीने से लगाया है. इस मुल्क में वसीम बरेलवी और नीरज हैं तो इस मुल्क ने अहमद फ़राज को भी गले लगाया था, फरहत शहजाद को गले लगाया है. हिन्दुस्तान से मेरा गहरा रिश्ता रहा है. इसकी वजह रही है कि मेरी पहली शादी हिन्दुस्तानी लड़की से हुई थी. उनके देहांत के बाद मेरी दूसरी शादी भी हिन्दुस्तानी लड़की से ही हुई. अल्लाह के करम से मुझे हिन्दुस्तान में पाकिस्तान से ज्यादा इज़्ज़त और मोहब्बत मिली है. इसलिए वहां राय बन गयी कि ये हिन्दुस्तान का शायर है. इसलिए जब भारत पाकिस्तान में तनाव बढ़ता है तो पीटीवी वाले सबसे पहले मेरी ग़ज़लें काट देते हैं."

नज़र उससे न मिलती काश, अब 
वो लिए हाथों में पत्थर रह गया है 

शिकस्ता है मेरा आईना या फिर 
मेरा चेहरा बिखर कर रह गया है 

नमाज़ी जा चुके अपने घरों को 
ख़ुदा मस्जिद में फँस कर रह गया है 

वो किस्मत के धनी हैं या मुनाफ़िक 
के जिन शानों पे अब सर रह गया है
मुनाफिक़=पाखंडी 

 फ़रहत साहब की शायरी रिवायती शायरी नहीं है उनकी शायरी के बारे में दिल्ली युनिवर्सिटी के उर्दू विभाग के जनाब खालिद अल्वी साहब ने लिखा है कि "किसी भी साहित्य का मूल्यांकन केवल समय करता है ग़ालिब के समय में ज़ौक का दर्ज़ा बहुत बुलंद था लेकिन समय ने ग़ालिब को जिस सिंहासन पर बिठाया है किसी ने उस समय कल्पना भी नहीं की होगी। इसलिए फ़रहत को साहित्य में कौनसा स्थान दिया जाता है इसका निर्णय समय पर ही छोड़ देना चाहिए। लेकिन इतना जरूर कहना चाहूंगा कि हिंदुस्तान के बाहर ग़ज़ल को फ़रहत शहज़ाद जैसा अभिभावक मिला हुआ है इसलिए ग़ज़ल परदेश में भी मथुरा की गाय की तरह प्रसन्नचित नज़र आती है। हम हिन्दुस्तानियों को कभी कभी बुरा भी लगता है कि अमेरिका जैसी समंदर पार बस्ती में भी ग़ज़ल अपने प्राचीन वतन हिंदुस्तान की तरह घमंडी नज़र आती है"

कोंपलें फिर फूट आयीं शाख पर कहना उसे 
वो न समझा है ,न समझेगा मगर कहना उसे 

राह में तेरी घडी भर की रिफ़ाक़त के लिए 
जल रहा है धूप में पागल शजर कहना उसे 
रिफ़ाक़त =साथ

रिस रहा हो खून दिल से, लब मगर हँसते रहें 
कर गया बर्बाद मुझको ये हुनर कहना उसे

 "कहना उसे"में ,जिसे वाणी प्रकाशन ने अपनी "दास्ताँ कहते कहते"सीरीज के अन्तर्गत प्रकाशित किया है , फ़रहत शहज़ाद साहब की उर्दू में छपने वाली पहली पांच किताबों में से सिर्फ कुछ चुनिंदा ग़ज़लें ही शामिल की गयीं हैं। फ़रहत कहते हैं कि "मेरी शायरी मेरी ज़िन्दगी का मन्जूम सफरनामा है। मैंने जो जिया, वो लिखा और जो जिए बगैर लिखा वो बाद में जिया या शायद यूँ कहना ज़्यादा दुरुस्त होगा कि जीना पड़ा। मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि अगर आप अपने ज़हन-ओ-दिल पर पड़े रिवायती शायरी के ताले खोलकर इन ग़ज़लों को पढ़ेंगे तो अक्सर जगहों पर आपकी खुद से मुलाकात जरूर होगी"

कभी यूँ हो कि पत्थर चोट खाये 
ये हर दम आईने ही चूर क्यों हैं 

फ़क़त इक शक्ल आँखों से छिनी थी 
ये सारे ख़्वाब चकना चूर क्यों हैं 

कोई पूछे तो दिल के हुक्मरां से 
मुहब्बत का एवज़ नासूर क्यों है 

 जोश ,फ़राज़ बशीर बद्र और वसीम बरेलवी जैसी शख्सियतों से राब्ता रखने वाले जनाब फ़रहत शहज़ाद की इस किताब को, जिसमें उनकी 200 से ज्यादा ग़ज़लें संकलित हैं ,देवनागरी में तैयार करने में डाक्टर मृदुला टंडन साहिबा का बहुत बड़ा हाथ है। उन्होंने फ़रहत साहब की उर्दू में प्रकाशित सभी ग़ज़लों की किताबों में से चुनिंदा ग़ज़लें छांटी उनका लिप्यांतर किया और ख्याल रखा कि ग़ज़लें ऐसी हों जिसे हिंदी का पाठक ठीक से समझ सके. कुछ ग़ज़लों में आये उर्दू के मुश्किल लफ़्ज़ों का हिंदी अनुवाद भी उस ग़ज़ल के अंत में दिया। इस किताब को पढ़ते वक्त पाठक ज़ज़्बात के समंदर को खंगालता हुआ गुज़रता है। 

बू-ए-गुल फूल का मोहताज नहीं है , लेकिन 
फूल खुशबू से जुदा होगा तो मर जाएगा 

किसको मालूम था जानां के तेरे जाते ही 
दर्द खंज़र की तरह दिल में उतर जायेगा 

शेर कहते रहो शायद के करार आ जाये 
ज़ख्म-ए-दिल ज़ख्म-ए-बदन कब है के भर जाएगा

 "कहना उसे "की प्राप्ति के लिए आपको वाणी प्रकाशन की साइट पर जाना पड़ेगा और उसके लिए आप www. vaniprkashan.inपर क्लिक करें या फिर +91 11 23273167 पर फोन करें वैसे ये किताब अमेज़ॉन पर भी हार्ड बाउन्ड और पेपर बैक में उपलब्ध है आप इसे वहां से भी ऑन लाइन मंगवा सकते हैं। ये एक ऐसी किताब है जिसका हर सफ़्हा बेहतरीन शायरी से लबालब भरा हुआ है। शायरी प्रेमियों को ये किताब कतई निराश नहीं करेगी। किताब पढ़ कर आप फ़रहत शहज़ाद साहब को उनके ई -मेल farhatalishahzad@yahoo.comपर लिख कर बधाई जरूर दें। फ़रहत साहब फेसबुक पर भी हैं वहां भी उन्हें बधाई दी जा सकती है। 

 मैं अब भी मुन्तज़िर रहता हूँ तेरा 
मगर अब वो परेशानी नहीं है 

अकेला है बहुत सहरा भी लेकिन 
मेरे दिल जैसी वीरानी नहीं है

सुनाऊँ हाले दिल मैं अंजुमन में 
मेरे ग़म में वो अरजानी नहीं है 

चलो शहज़ाद दिल के ज़ख़्म खुरचें 
के यूँ भी नींद तो आनी नहीं है 

फरहत शहज़ाद और उनकी ग़ज़लों पर खूब लिखा जा सकता है। उनकी ग़ज़लों में संगीत खनकता है तभी मेहदी हसन साहब के अलावा भी तमाम बड़े ग़ज़ल गायकों जैसे गुलाम अली ,जगजीत सिंह आबिदा परवीन ,शफ़क़त अली खान , नुसरत फ़तेह अली खान, शकील अहमद , हरिहरन इत्यादि ने कुल मिला कर उनकी 400 से ज्यादा ग़ज़लों को गाया है। उनकी एक यादगार ग़ज़ल को "तेरा मिलना अच्छा लगे है "को मेहदी हसन साहब ने स्वर कोकिला लता मंगेशकर साहिबा के साथ मिल कर सन 2010 में गाया है। सन 2016 में उन्हें लुधियाना में "साहिर लुधियानवी"आवार्ड से नवाज़ा गया। नयी किताब की तलाश में निकलने से पहले पेश हैं उनकी ग़ज़लों के कुछ फुटकर शेर :

 कुछ ज़र्द हो चले थे तिरे हिज़्र के शजर
फिर शहर-ए-दिल में याद की बरसात हो गयी
*** 
जब न तरकश में कोई तीर बचा 
हाथ उसका सलाम तक पहुंचा
*** 
क्या हुआ गर ख़ुशी नहीं बस में 
मुस्कुराना तो इख़्तियार में है 
*** 
याद में तेरी आँख से गिर कर 
रात अश्कों ने ख़ुदकुशी कर ली 
*** 
तमाम उम्र मुझे संगसार करता रहा 
वो मेरा यार जो शीशे के घर में रहता था 
संगसार =पत्थरों से मारना
*** 
ज़िन्दगी कट गयी मनाते हुए 
अब इरादा है रूठ जाने का 
*** 
एक पल में ज़िन्दगी मेरी समझने के लिए 
सर्दियों की चांदनी रातों में बाहर देखिये 
*** 
उँगलियाँ फेरना बालों में मेरे देर तलक 
उन दिनों मुझसे तुम्हें कितनी मुहब्बत थी ना 
*** 
ये पागलपन नहीं तो और क्या है 
मैं सचमुच मुस्कुराना चाहता हूँ 
*** 
लगा कर ज़ख्म खुद मरहम भी देगा 
उसे इतना क़रीना आ गया है

किताबों की दुनिया - 180

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फिर इस दुनिया से उम्मीद-ए-वफ़ा है 
तुझे ऐ ज़िन्दगी क्या हो गया है 

बड़ी ज़ालिम निहायत बे-वफ़ा है 
यह दुनिया फिर भी कितनी खुशनुमा है 

हर इक अपने ही ग़म में मुब्तिला है 
किसी के दर्द से कौन आशना है 

बात 1969 की है ,20 मई का एक गर्म दिन ,दिल्ली में यमुना के किनारे लोगों की भीड़ लगी थी क्यूंकि एक लाश बहती हुई किनारे आ लगी थी। तब यमुना में पानी हुआ करता था ,कचरा नहीं , वो भी गर्मियों के दिनों में। लोग डुबकियां लगा लगा कर नहाया करते थे. किनारे खड़े लोग अधिकतर वही होंगे जो गर्मी से निज़ात पाने को नहाने आये होंगे और किनारे पर लाश देख कर शोर मचा दिया होगा। हम भारतीय पैदाइशी तमाशबीन हैं कोई हादसा हो या उत्सव कहीं झगड़ा हो या प्यार, फ़ौरन सब काम छोड़छाड़ कर उसे देखने खड़े हो जाते हैं. किसी ने पुलिस को खबर कर दी क्यूंकि उस वक्त मोबाईल तो होता नहीं था इसलिए शायद कहीं फोन करने की सुविधा तलाश की होगी या किसी और प्रकार से बताया होगा । अच्छे लोग हुआ करते थे उन दिनों क्यूंकि उनके पास ये सब करने की फुर्सत हुआ करती थी। अब किसी के पास फुर्सत कहाँ ?अब तो हम सड़क पर किसी को तड़पता देख बगल से गुज़र जाने का हुनर सीख गए हैं ,कौन रुके ? कौन पुलिस को बताये ? कौन झंझट में पड़े ? छोडो जी, चलो -देर हो रही है। ऐसा नहीं है कि अच्छे लोग अब नहीं हैं -हैं -जरूर हैं लेकिन पहले वो बहुतायत में थे अब वो लुप्तप्राय: प्राणियों की श्रेणी में आ गए हैं।

तू ऐ निगाह-ए-नाज़ कहाँ ले गयी मुझे 
मेरी नज़र भी अब नहीं पहचानती मुझे 

इस दिल-शकस्तगी में भी यह मेरा बांकपन 
हैरत से देखती है मेरी ज़िन्दगी मुझे 
दिल-शकस्तगी=घायल मन 

कुछ ऐसा खो गया हूँ तेरी जलवा-गाह में 
महसूस हो रही है खुद अपनी कमी मुझे 

खैर साहब पुलिस आयी-शायद कुछ देर से, क्यूंकि जैसा कि हमने उस दौर की फिल्मों में देखा है पुलिस वाले सीटियां बजाते तब आते थे जब हीरो विलेन की धुलाई कर चुका होता था. पुलिस वाले जैसा वो आमतौर पर करते हैं लाश को थाने ले गए। पोस्ट मार्टम करवाया, जिस्म पर कोई घाव नहीं मिला और दिल, ज़हन पर पड़े घाव पोस्टमार्टम में नज़र आते नहीं इसलिए इसे सीधासादा आत्महत्या का मामला समझ कर फ़ाइल बंद कर दी। पोस्टमार्टम से ये जरूर पता चला कि लाश के पेट में शराब भरी थी और शायद इसीलिए लिवर सिरोसिस की बीमारी से पीड़ित था। ये भी नज़र में आया कि लाश को कभी फालिज का दौरा भी पड़ा था। बस। हक़ीक़त ये है कि ये आत्महत्या का नहीं सौ फीसदी हत्या का मामला था और हत्या का ज़िम्मेदार कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि व्यक्तियों का वो समूह था जिसे हम आम तौर पर समाज के नाम से जानते हैं। समाज पर चाहे वो कहीं का कोई भी हो कभी हत्या का इल्ज़ाम नहीं लगता। कौन लगाएगा इल्ज़ाम ? लगाने वाले भी तो उसी का हिस्सा होते हैं।

काँटों से मैंने प्यार किया है कभी कभी 
फूलों को शर्मसार किया है कभी कभी 

अल्लाह रे बे-खुदी कि तेरे पास बैठ कर 
तेरा ही इंतज़ार किया है कभी कभी 

इतना तो असर है कि मेरे इज़्तिराब ने 
उनको भी बेकरार किया है कभी कभी 
इज़्तिराब=बेचैनी 

कौन था ये शख्स जो सिर्फ 42 साल की कम उम्र में यमुना में कूद कर अपनी ज़िन्दगी से किनारा कर गया ? और क्यों ? इसका जवाब पाने के लिए हमें फ्लैश बैक तकनीक का सहारा लेना पड़ेगा। तो चलते हैं जालंधर से लगभग 37 किलोमीटर दूर रेत के टीबों को पार कर एक कच्चे रस्ते पर जो हमें 'नकोदर'नाम के छोटे से कस्बे के अधबने मकान में ले जायेगा। इस मकान में "नोहरा राम"अपने परिवार के साथ रहते हैं। इस कच्चे अधूरे से मकान की हालत देख कर से हमें नोहरा राम जी की माली हालत समझने में ज्यादा दिमाग नहीं लगाना पड़ता। कस्बे में नोहरा राम जी'दर्द'नकोदरी के नाम से जाने जाते हैं। ये इसी कस्बे से निकलने वाले एक अखबार में मुलाज़िम हैं जो वहां के राजा महाराजाओं की तारीफ़ में लिखे कसीदे छापने के लिए मशहूर है। वैसे यहाँ ये बताना भी मुनासिब होगा कि ऐसा नेक काम आज के दौर में भी बहुत से अखबार रिसाले वाले बेशर्मी से करते हैं। 'दर्द'साहब अपना थोड़ा दर्द तो शायरी के माध्यम से और बहुतेरा दर्द शराब के माध्यम से दूर करते थे। आज 11 दिसंबर 1927 की दोपहरी में शराब नोशी करते हुए किसी को कह रहे हैं कि जाओ मेरे उस्ताद-ए-मोहतरम हज़रत जोश मलसियानीसाहब को खबर कर दो की ईश्वर की कृपा से मेरे घर बेटा हुआ है।

चल तो पड़े हो राह को हमवार देख कर 
लेकिन ये राह-ए-शौक़ है , सरकार देख कर 
हमवार=समतल 

जैसे मेरी निगाह ने देखा न हो कभी 
महसूस ये हुआ तुझे हर बार देख कर 

ऐ अज़मत-ऐ-बशर मैं तेरा राज़दार हूँ 
पहचान ले मुझे मेरे अश'आर देख कर 
अज़मत-ऐ-बशर=मानव की महानता 

कहते हैं बच्चे की पहली पाठशाला घर होती है, सही कहते हैं। इस बच्चे ने जिसका नाम नरेश रखा गया था पांचवी क्लास तक आते आते ग़ज़ल कहना शुरू कर दिया था - ये बात सुनने में अजीब लगती हो लेकिन सच है। वो अपने शेर अपने पिता को दिखाने लगे। पिता ने उनका नामकरण "शाद नकोदरी"रख दिया। पिता के कहने पर वो अपना कलाम पत्राचार के माध्यम से रावलपिंडी में में बसे जनाब त्रिलोक चंद 'महरूम'साहब को दिखाने लगे. महरूम साहब उनकी शायरी के मयार को देखते हुए पहले तो उन्हें कोई बड़ा उस्ताद शायर ही समझते रहे और इस्लाह करते रहे बाद में उन्होंने शाद साहब को अपना कलाम जनाब जोश मलसियानी साहब को दिखाने की गुज़ारिश की। इस तरह पिता पुत्र दोनों गुरु भाई भी हो गए।

ज़िस्म साकित, रूह मुज़तर, आँख हैराँ, दिल उदास 
ज़िन्दगी का मज़हका है, ये हमारी ज़िन्दगी 
साकित=गतिहीन , रूह मुज़तर=बैचैन आत्मा ,मज़हका=मज़ाक 

ले के शबनम का मुकद्दर आये थे दुनिया में हम 
गुलशन-ऐ-हस्ती में रो-रो कर गुज़ारी ज़िन्दगी 

ज़िन्दगी को मौत कह देना उसे मुश्किल नहीं 
गौर से देखे अगर कोई हमारी ज़िन्दगी 

जोश साहब की रहनुमाई में शाद की शायरी परवान चढ़ने लगी और उन्होंने अब अपनी शायरी नरेश कुमार 'शाद'के नाम से करनी शुरू कर दी। आज हम उनकी चुनिंदा ग़ज़लों से सजी किताब "शाद की शायरी"की बात करेंगे जिसे जनाब 'अमर'देहलवीने संकलित किया है और स्टार पब्लिकेशन (प्रा) लि ने सं 1984 में प्रकाशित किया था। इस किताब में शाद साहब की लगभग 70 ग़ज़लें उर्दू और हिंदी लिपि में मुद्रित हैं। मैं यकीन से नहीं कह सकता कि अब ये किताब वहां से उपलब्ब्ध हो सकेगी या नहीं। शाद का लिखा हिंदी में शायद डायमंड बुक्स वालों ने शाद और अख्तर शिरानी की शायरी के नाम से प्रकाशित किया था। जो उर्दू पढ़ना जानते हैं उनके लिए तो शाद की ढेरों किताबें बाजार में हैं लेकिन हिंदी वालों के लिए बहुत ज्यादा कुछ नहीं है । चलिए लौटते हैं वापस इसी किताब पर जो मुझे जयपुर शहर के अज़ीम शायर और उर्दू साहित्य पर अधिकार रखने वाले मेरे मित्र जनाब मनोज मित्तल 'कैफ़'साहब की बदौलत मिली :


होंठों की मुस्कान में ढलके
ग़म आया है भेस बदल के

देख के तुझको सोई आशा
जाग उठी है आँखें मल के

तेरे प्यार भरे नयनों में
आंसू हैं या शेर ग़ज़ल के 

मन में तेरे प्रेम की यादें 
आग में छीटें अमृत जल के 

लाहौर से मेट्रिक में फर्स्ट डिवीजन पाने के बाद घर लौटने पर , घर की बदहाली और पिता की शराब खोरी ने शाद को बेहद परेशान कर दिया और वो कर नौकरी की तलाश में रावलपिंडी और जालंधर जा कर धक्के खाते रहे लेकिन लिखते रहे। सरकारी नौकरी लगी तो सही लेकिन उसमें मन नहीं लगा लिहाज़ा उसे छोड़ छाड़ कर लाहौर लौट आये और वहां की एक मासिक पत्रिका 'शालीमार'का संपादन करने लगे। वहां रोज़ाना शाया होने वाली अख़बारों प्रताप और अजीत में होने वाले तरही मुशायरों में अपनी ग़ज़लें भेज वाह वाही लूटने लगे। सब कुछ थोड़ा ठीकठाक सा चल रहा था कि मुल्क का बंटवारा हो गया। उसके बाद जो हुआ वो शाद के लिए अकल्पनीय था। धर्म के नाम पर हिंसा के ऐसे तांडव की भला किसने कल्पना की होगी ? शाद का विश्वास पंडित मौलवियों पर से उठ गया। मन में गहरे घाव लिए वो एक अजनबी की तरह पाकिस्तान से हिंदुस्तान के शहर कानपुर अपने दोस्त हफ़ीज़ होशियारपुरी के पास आ गए। ये मुल्क अब वैसा नहीं था जैसा वो छोड़ कर गए थे। दोनों मित्रों ने मिल कर एक पत्रिका 'चन्दन'निकाली जो जल्द ही बंद हो गयी और शाद पर फिर से फ़ाकाकशी की नौबत आ गयी।

मेरे ग़म को भी दिलावेज़ बना देता है 
तेरी आँखों से मेरे ग़म का नुमायाँ होना 

क्यों न प्यार आये उसे अपनी परेशानी पर 
सीख ले जो तेरी ज़ुल्फ़ों से परेशां होना 

ये तो मुमकिन है किसी रोज खुदा बन जाए 
गैर मुमकिन है मगर शेख का इंसां होना 

खैर इसी मुश्किल दौर में उनकी मोहब्बत भी परवान चढ़ी तो कई नए दोस्त भी बने नए तजुर्बात भी हुए और तो और उनकी शादी भी हो गयी। शादी के बाद जीवन जीने की जद्दोज़ेहद बढ़ गयी। शराबी बाप, बूढी बीमार माँ और पत्नी। बाप की मयनोशी की आदत ने घर जैसे तबाह सा कर डाला। तभी उनकी मुलाकात उर्दू के नामवर शायर 'मज़ाज़'से हुई और उसके बाद उनका जो शराब से याराना हुआ वो उनकी मौत के बाद ही छूटा।

हम अपने दर्द की तौहीन कर गए होते 
अगर शराब न होती तो मर गए होते 

कहाँ निशात-ए-ग़म-ए-जाविदां हमें मिलती 
तेरी नज़र से जो बचकर गुज़र गए होते 
निशात-ए-ग़म-ए-जाविदां=अमिट ग़म की ख़ुशी 

हमारा राज़-ए-मोहब्बत तो खैर छुप जाता 
तेरी नज़र के फ़साने किधर गए होते 

हमें निगाह-ए-तमसखुर से देखने वालो 
ये हादसात जो तुम पर गुज़र गए होते ? 
निगाह-ए-तमसखुर=उपेक्षित नज़र 

शाद ने खूब लिखा। वो एक बार जो ग़ज़ल लिखना शुरू करते तो तो उसे मतले से मक़्ते तक पूरा कर के ही उठते।अगर नस्र की बात करें तो उनकी ढेरों किताबें उर्दू में उपलब्ध है जैसे :सुर्ख हाशिये, राख तले, सिर्क़ा और तावारुद, डार्लिंग, जान पहचान, मुताला-ए-ग़ालिब और उसकी शायरी ,पांच मक़बूल शायर और उनकी शायरी ,पांच मक़बूल तंज़ व मिज़ाह निगार. बाल साहित्य: शाम नगर में सिनेमा आया ,चीनी बुलबुल और समुन्द्री शहज़ादी. मुशायरों में भी उनकी भागेदारी होने लगी लेकिन इस सब से घर चलना मुमकिन नहीं हो पा रहा था. जिस पर भरोसा किया उसी ने धोका दिया। जिस से मदद की गुहार की उसी ने दुत्कार दिया।

जब बेखुदी से होश का याराना हो गया 
दैरो-ओ-हरम का नाम भी मयखाना हो गया 
दैरो-ओ-हरम=मंदिर-मस्जिद 

इन गुलरुखों को जब से हुआ शौक़-ऐ-मयकशी 
जो फूल था चमन में वो पैमाना हो गया 
गुलरुखों=फूल से चेहरे वालों 

ये रौनकें कहाँ मेरे दिल को नसीब थीं 
आबाद तेरे ग़म से ये काशाना हो गया 
काशाना=झोंपड़ी 

 दिल्ली में रहते हुए उनकी मुलाकात जनाब महेंद्र सिंह बेदी 'सहर'साहब से हुई जिन्होंने उन्हें सरकारी प्रकाशन विभाग में नौकरी पर लगा दिया। सरकारी नौकरी बिना चापलूसी के चलनी मुश्किल लगने लगी। तनख्वाह भी कुछ ऐसी नहीं थी कि गुज़र बसर सही ढंग से हो पाता। सारी दुनिया में उन्हें सिर्फ शराब ही एक मात्र सहारा लगती। धीरे धीरे यूँ हुआ कि शराब उन्हें पीने लगी और वो एक दिन फालिज के ऐसे शिकार हुए कि सात दिनों तक बेहोश रहे। बीमारी और उसके इलाज़ के खर्चे ने उनकी कमर तोड़ दी ,लिहाज़ा वो दूसरे ऐसे शायरों के लिए लिखने लगे जिनमें खुद लिखने की कुव्वत नहीं थी लेकिन उनके पास पैसा था। एक जनाब ने तो उन्हें अपने लिए 60 ग़ज़लें लिखने की एवज़ में 60 रु देने का वादा किया तो उन्होंने पूरी रात जग कर 60 ग़ज़लें लिख डालीं ,क्यों की 60 रु से उनके घर का खर्चा किसी तरह एक महीने चल जाता। उन हज़रात ने वो ग़ज़लें तो ले लीं लेकिन बाद में पैसा देने के नाम पर मुकर गए। अजनबी तो अजनबी उनके दोस्तों ने भी उनके हुनर को खरीदा। अपनी अना बेचने के बाद भी उनके हाथ खाली ही रहे।

दुश्मनों ने तो दुश्मनी की है 
दोस्तों ने भी क्या कमी की है 

जिसने पैदा किये हंसी उसने 
क्या दिलावेज़ शायरी की है 
दिलावेज़= मनभावन 

आपसे यूँ तो और भी होंगे 
आपकी बात आप ही की है 

लोग लोगों का खून पीते हैं 
हमने तो सिर्फ़ मयकशी की है 

मुश्किलें जितनी बढ़ती गयीं उनके लेखन की रफ़्तार भी उसी के साथ बढ़ती रही ग़ज़लों के अलावा उनके लिखे कत'आत उर्दू शायरी में बहुत ऊंचा मुकाम रखते हैं। शाद मुशायरों के भी शायर रहे ,शराब के नशे में धुत्त उन्हें लोग उठा कर लाते वो कलाम पढ़ते और फिर लोग उन्हें उठा कर ले जाते। उन्हें शायद ही कभी किसी ने होश में देखा होगा। जिस तरह किसी ने भी एल्युमीनियम धातु को नहीं देखा है जिसे हम एल्युमीनियम कहते हैं दरअसल वो एल्युमीनियम पर चढ़ी एल्युमीनियम ऑक्साइड की परत होती है उसी तरह शाद साहब को भी किसी ने पूरा नहीं देखा उन पर कभी दुःख की तो कभी शराब की परत चढ़ी मिलती।

यही सीखा है मैंने ज़िन्दगी से
कि नादानी है बेहतर आगही से
आगही=ज्ञान

बता दो आबिदान-ऐ-बे-अमल को
खुदा उकता चुका है बंदगी से 
आबिदान-ऐ-बे-अमल =दिखावे की इबादत करने वाले 

खुदा से क्या मुहब्बत कर सकेगा 
जिसे नफरत है उसके आदमी से 

शाद जिनकी पहली किताब 'दस्तक़'तब मंज़र-ए-आम पर आयी जब वो सिर्फ 22 साल के थे।'दस्तक'ने उन्हें शोहरत की बुलंदियों पे जा बिठाया। उसके बाद तो उनके 'बुतकदा','फरियाद' , 'ललकार', 'आहटें', 'क़ाशें', 'आयाते जुनूं', 'फुवार', 'संगम', 'मेरा मुन्तखिब कलाम', 'मेरा कलाम नौ ब नौ'और 'विजदान'मजमूओं ने उन्हें उर्दू लेखकों की पहली कतार में जा बिठाया। जिसकी शायरी की तारीफ जोश मलीहाबादी , फ़िराक़ गोरखपुरी और साहिर लुधियानवी जैसे शायरों ने खुले दिल से की उसी शायर की शायरी की चमक को शराब और उनके हलके शेरों पर मुशायरों में बजने वाली तालियों ने धीरे धीरे धुंधला कर दिया,अगर ऐसा न होता तो वो आज उर्दू के अमर शायरों की जमात में खड़े नज़र आते।

दिल-ए-पुर आरज़ू नाकाम हो कर 
ज्यादा खूबसूरत हो गया है 
दिल-ए-पुर आरज़ू =अभिलाषाओं से भरा मन 

करम ऐसे किये हैं दोस्तों ने 
कि हर दुश्मन पे प्यार आने लगा है 

जब आये तो उजाला हो गया था 
गए तो फिर वही घर की फ़ज़ा है 

आखिर वही हुआ जिसका डर था , शराब जीत गयी और नरेश कुमार शाद हार गए। शराब छोड़ देने की तमाम कोशिशें भी नाकाम हो गयीं। सिरोसिस ऑफ लिवर की बीमारी ने रही सही कसर पूरी कर दी। मुकम्मल इलाज़ के लिए पैसे नहीं होने से बीमारी बढ़ती गयी और एक दिन इस बीमारी से लड़ने की बजाये वो ज़िन्दगी की जंग हारने के इरादे से यमुना के पुल से कूद गए। सिर्फ वो अपने उपनाम में ही शाद (प्रसन्न ) रहे वैसे सारी उम्र नाशाद (उदास ) रहे। उनकी मौत के बाद तो उनकी याद में बहुत से कार्यक्रम देश में ही नहीं विदेश में भी होते हैं। हम लोग हैं ही ऐसे ज़िंदा लोगों को दुत्कारते हैं और मुर्दा लोगों के गले में हार डालते हैं। खैर शायद ये सब ही उनकी किस्मत में लिखा था सोच कर इस किस्से को यहीं विराम देते हैं और नयी किताब की तलाश के लिए निकलने से पहले पढ़वाते हैं उनके कुछ फुटकर शेर :

हक़ उसी को है मुस्कुराने का 
जिसके दिल में है ग़म ज़माने का 
*** 
चौंक उठे हादसात दुनिया के
मेरे होंठों पे जब हंसी आयी 
हादसात=दुर्घटनाएं 
*** 
सीने में दिल नहीं कोई नासूर है 
मगर मैं फिर भी जी रहा हूँ ये मेरा कमाल है 
*** 
इन ज़ाहिदों का ज़ोहद तकाज़ा है उम्र का
वरना ये हम से कम तो नहीं थे शबाब में 
 ज़ाहिदों=भक्तों , ज़ोहद= भक्ति 
*** 
तुम तो मिल जाओगे कहीं न कहीं 
हम मेरी जान ! फिर कहाँ होंगे
*** 
जैसे मेरी निगाह ने देखा न हो कभी
महसूस ये हुआ तुझे हर बार देख कर
*** 
शेख साहब का बस नहीं चलता 
वरना परवर दिगार हो जाएँ 
*** 
पीता हूँ इस ग़रज़ से कि जीना है चार दिन
मरने के इंतज़ार ने पीना सिखा दिया 
*** 
हमने समां लिया है तुझे सांस सांस में 
ये और बात है कि तुझे आगही नहीं
आगही =ज्ञान

किताबों की दुनिया - 181

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क्यों दिखी नहीं तुझे खूबियां कभी खुद से भी ये सवाल कर 
तूने खूब नाम कमा लिया, मेरी खामियों को उछाल कर 

मुझे चुप्पियों से न मार यूँ कोई बददुआ ही तू दे भले 
तेरी गालियां भी अज़ीज़ हैं मैं इन्हें रखूंगा संभाल कर 

यूँ समा जा मेरे वजूद में कोई फासला न हो दरम्यां 
मेरी मैं न हो तेरी मैं न हो ,इन्हें रख दे दिल से निकाल कर 

कामयाब शायरी क्या है ? वो जिसे पाठ्य पुस्तकों में पढ़ाया जाता है या वो जिसे सुनाकर मुशायरों में वाहवाही लूटी जाती है या वो जो सिर्फ नशिस्तों में सराही जाती जाती या वो जो आम-जन द्वारा आपसी बातचीत में मुहावरों की तरह दोहराई जाती है या वो जो समूह द्वारा नारों की तरह इस्तेमाल की जाती है ? नहीं नहीं आप मेरी तरफ उतर की अपेक्षा से नहीं देखें क्यूंकि मैं कुछ भी कहूंगा उसको खारिज़ करने में आप पूरा दम लगा देंगे - चलो आप न भी लगाएं वो तो लगा ही देंगे जो इसे पढ़ कर मुस्कुरा रहे हैं।। इसका जवाब कोई भी हो उस से फर्क नहीं पड़ता क्यूंकि हमारे आज के शायर ऐसे हैं जिनकी शायरी और रचनाएँ ऊपर दिए सभी विकल्पों पे सटीक बैठती है। ये शायर किसान हैं, वामपंथी विचारधारा के पक्षधर है और किसी राजनितिक पार्टी से भी जुड़े रह चुके हैं.आज हम चर्चा इस अनूठे शायर और इनकी लिखी किताब पर करेंगे जो अभी मेरे सामने खुली हुई है :-

 फ़ासला करना है तय मुझको कलम से तेग तक 
बीच इसके बन के तू दीवार अब मुझसे न मिल 

ज़ख्म तूने ही दिए हैं जानता है हर कोई 
ले के तू हमदर्दियों के हार अब मुझसे न मिल 

ज़िंदगी त्योंहार बनकर भी कभी आ मिल के देख 
हादसा बन-बन के तू हर बार अब मुझसे न मिल 

हमारे आज के शायर से मिलने के लिए हमें काशीपुर चलना पड़ेगा, काशीपुर, जो उत्तराखंड के जिले उधमसिंह नगर की तहसील है, एक समय गहरा घना जंगल हुआ करता था। वहां का बेहद उमस वाला गर्म मौसम, महीनो चलने वाली बारिश, दलदल और जंगली जानवरों की बहुतायत और आने जाने के सुगम रास्तों के अभाव में इंसान के रहने लायक नहीं था। 1948 में सरकार ने इसकी सुध ली और इसका विकास किया गया। आपको बताता चलूँ कि विश्व प्रसिद्ध जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क यहाँ से मात्र 25 की.मी की दूरी पर ही है। काशीपुर में अवैध खनन माफियाओं का एक इलाका है सुल्तानपुर पट्टी, जहां चौराहे से दाहिनी ओर एक ऊबड़-खाबड़-सा रास्ता मड़ैया बक्शी गांव की ओर जाता है. यह गांव उस शायर/ कवि का स्थाई पता है, जिसका नाम चलिए मिटटी खोदते हुए इस मज़दूर से पूछते हैं। माथे से पसीना पोंछता हुआ ये किसान हमें बताता है कि इस गाँव क्या इस पूरे जिले में अगर कोई अपनी कविता या शायरी के नाम से पहचाना जाता है तो वो एक मात्र इंसान है "बल्ली सिंह चीमा "जिनकी लिखी ग़ज़लों की किताब "हादसा क्या चीज है"की बात हम करेंगे। 


 मंदिर में या मस्जिद में या रहता है गुरूद्वारे में 
मेरा बच्चा पूछ रहा था, आज ख़ुदा के बारे में 

प्यार के बंधन में बंधने में लग जाती हैं सदियां भी 
लेकिन दंगे हो जाते हैं, आँख के एक इशारे में 

तुम तो नेता नहीं हो 'बल्ली'फिर क्यों ये दो-मूँहापन 
कुछ तो सोचो, क्या सोचेंगे लोग तुम्हारे बारे में 

बल्ली सिंह जी काशीपुर के मड़ैया बक्शी गांव के नहीं हैं ये तो असल में अमृतसर जिले के चभाल तहसील के गाँव चीमा खुर्द के हैं जो कि पाकिस्तान बॉर्डर के बिलकुल पास है। इनका जन्म वहीँ 2 सितम्बर 1952 को हुआ। पिता मुरादाबाद-काशीपुर के रास्ते पर अपना ट्रक चलाते थे। बल्ली मात्र चार साल के ही थे कि इनकी माताजी का देहावसान हो गया। पिता ने तब पैतृक गाँव छोड़ा और ट्रक बेच कर 'मड़ैया बक्शी'में कोसी नदी के पास उपजाऊ जमीन खरीदी और खेती करने लगे। प्रारम्भिक शिक्षा काशीपुर में पूरी करने के बाद बल्ली जी को उनके चाचा आगे की पढाई के लिए चीमा खुर्द गाँव ले गए जहाँ उन्होंने पास ही तरन तारण जिले के 'बाबा बुड्ढा सिंह'कॉलेज में उनका दाखिला प्री यूनिवर्सिटी में करवा दिया। बल्ली जी ने कहीं बताया है कि जब वो पांचवीं क्लास में पढ़ते थे तब से किताबें पढ़ने का शौक उन्हें एक मज़दूर से पड़ा जो खाली वक्त में इब्ने सफ़ी के जासूसी उपन्यास पढ़ा करता था। बल्ली भी वही उपन्यास पढ़ने लगे, फिर तो उन्हें जैसे किताबें पढ़ने का नशा सा ही हो गया। 

मेरे दुश्मनों ने कहा मुझे कभी इस तरह से भी सोच तू 
ये भला-बुरा जो हुआ तेरा तेरी किस्मतों में लिखा न हो

तुझे चाहता हूँ मैं इस क़दर मेरे दिल में है इक आरज़ू 
करूँ काम वो मैं तेरे लिए किसी और ने जो किया न हो 

मुझे टोकता है जो रात-दिन बुरी बात से बुरे काम से  
मैं ये सोचता हूँ कभी कभी मेरे दिल कहीं ये ख़ुदा न हो 

कॉलेज में उनका संपर्क पंजाबी के शीर्ष कथाकार जनाब जोगिन्दर सिंह कैरों से हुआ जो वहां पढ़ाते थे और उन्हीं की वजह से चीमा साहब का झुकाव साहित्य की और हो गया। किस्मत की बात देखिये कि कुछ दिनों बाद उसी कॉलेज में पंजाबी साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ कवि श्री सुरजीत सिंह पातर साहब भी पढ़ाने आ गए जो अपने समकालीन कवि पाशकी चर्चा किया किया करते थे। पाश उन दिनों जेल में थे। चीमा जी ने पाश को पढ़ा और बहुत प्रभावित हुए। कॉलेज के इस साहित्यिक इसी माहौल ने उन्हें कवितायेँ लिखने को प्रेरित किया। वो अपनी रचनाएँ पातर साहब को पढ़वाते और बदले में शाबाशी पाते। पातर साहब ने ही सबसे पहले उनकी कविता एक द्वैमासिक पत्रिका "चर्चा "में छपवा दी , उसके बाद फिर बल्ली जी ने पीछे मुड़ के नहीं देखा .

 मुझको दुआ वो दे गए कुछ इस अदा के साथ 
 उनका  हो उठना बैठना जैसे खुदा के साथ 

सारा जहान आज दो खेमों में बंट गया 
कोई दिए के साथ है कोई हवा के साथ 

बल्ली अधूरे मन से ही करता रहा वफ़ा 
वो बेवफ़ाई कर गया पूरी वफ़ा के साथ 

यह सब उन दिनो की बात है, जब पंजाब में नौजवान भारत सभा गठित हो रही थी। बल्ली जी भी उसके सक्रिय सदस्य बन गये । गुरुशरण सिंह के नाटकों में पंजाबी भाषा में इंकलाबी गीत गाने लगे पंजाब स्टूडेंट यूनियन के भी सक्रिय नेता हो गये । पंजाबी में जनगीत लिखने लगे । तब तक उनकी पंजाबी में ही कविताएं सीखने-लिखने की प्रक्रिया चलती रही। इसी बीच देश में इमरजेंसी लग गई। एक्टिविस्ट होने के नाते उनके नाम से भी वारंट आ गया। उनके साथियों ने उन्हें कहा कि "तुम्हारा नैनीताल घर है तो वहां चले जाओ, वरना गिरफ्तार हो जाओगे।"ये 1976 की बात है। उसी साल कोसी नदी में भयंकर बाढ़ आयी जिसमें उनकी ज़मीन बह गयी. घर घोर आर्थिक संकट में डूब गया। उनका वापस अमृतसर कॉलेज जा कर पढाई करने और वहीँ अध्यापक के रूप में पढ़ाने का सपना भी उसी के साथ चूर चूर हो गया। जो इंसान विपरीत परिस्थितियों के सामने घुटने टेक दे उसका नाम 'बल्ली सिंह चीमा 'नहीं होता।उन्होंने हाथों में हल उठा लिया, लेकिन गीत जिंदा रहे. यहीं उन्होंने खेतों में धान के साथ-साथ कविताओं के बीज बोए और आज उस फसल की हरियाली हर ओर छाई है. सुदूर ऊंचे पहाड़ों, खेतों और गांव-गांव में लोग भले चीमा का नाम न जानें, लेकिन उनके गीत गुनगुनाते हैं.  

सर उठेगा तो आप देखेंगे 
रेंगना ज़िन्दगी नहीं होती 

गर लकीरों को पीटता मैं भी
मुझमें ये ताज़गी नहीं होती

क़त्ल होते नहीं तेरी खातिर 
तू अगर चाँद-सी नहीं होती 

उनकी ओज पूर्ण कविता "ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के"ने उन्हें लोकप्रियता की सबसे ऊंची पायदान पर बिठा दिया।आज भी देश भर के कॉलेजों, विश्वविद्यालयों व फैक्टरियों में उनके गीत गाए जाते हैं, पोस्टर बनाकर चिपकाए जाते हैं. अगर गीतों का जीवंत होना, गाया जाना कवि की लोकप्रियता का पैमाना हो तो वे हमारे दौर के सबसे लोकप्रिय हिंदी कवियों में हैं. उनकी परंपरा कबीर, फैज, साहिर और दुष्यंत कुमार से जुड़ती है. वे एक साथ बगावत और प्रेम जैसी कोमल भावनाओं के कवि हैं.उनकी ग़ज़लें जुलूसों और सभाओं में कुछ इस तरह गायी गईं कि गीत और ग़ज़ल का फ़र्क ही मिट गया।बल्ली सिंह ने झोपड़ों से उठ रही आवाज को अपनी ग़ज़ल से एकाकार कर दिया।

छाया की तो बात ही छोडो आग उगलते पेड़ 
हमने दिल्ली में देखें हैं कैसे-कैसे पेड़ 

मक्खन जैसी शक़्ल है इनकी चम्मच जैसे पत्ते 
उगते हैं कुर्सी के नीचे इस जाति के पेड़ 

पीले-पीले मुरझाये-से पेड़ थे जंगल में 
उनके गमलों में देखा तो हरे-भरे थे पेड़ 

उनके प्रशंसकों की सूची में बाबा नागार्जुन और ज्ञानरंजन के नाम सर्वोपरि हैं। ज्ञानरंजन जी ने उनकी ग़ज़लों को अपनी पत्रिका 'पहल'में विशेष रूप से प्रकाशित किया था। बाबा नागार्जुन से उनके घरेलू सम्बन्ध स्थापित हो गए थे। प्रसिद्ध कवि श्री वीरेन डंगवाल जी से भी उन्हें विशेष स्नेह मिला और उन्होंने भी अपनी पत्रिका "अमर उजाला "में बल्ली जी की ग़ज़लें प्रमुखता से प्रकाशित कीं। "इण्डिया टुडे'पत्रिका के जुलाई 2012 के एक अंक में बल्ली सिंह चीमा जी पर एक पूरा लेख प्रकाशित हुआ था जिसके कुछ अंश हमने अपनी इस पोस्ट में भी इस्तेमाल किये हैं।

तू समझता है अगर क़ौम का रहबर उनको 
या तू अँधा या तेरी सोच पे जाले होंगें 

अपने हर दोष को औरों से छुपाने के लिए 
उसने औरों में कई दोष निकाले होंगे 

इन अंधेरों ने किया और अँधेरा "बल्ली" 
तुम तो कहते थे बहुत जल्द उजाले होंगे 

"हादसा क्या चीज़ है"सं 2012 ,बल्ली जी का चौथा ग़ज़ल संग्रह है ,इसके पूर्व उनके तीन ग़ज़ल संग्रह "ख़ामोशी के खिलाफ"सं 1980 में ,ज़मीन से उठती आवाज़"सं 1990 में और "तय करो किस और हो"सं 1998 में प्रकाशित हो कर चर्चित हो चुके हैं। उनकी कविताओं की किताबों की लिस्ट भी छोटी नहीं है "हिलाओ पूँछ तो करता है प्यार अमरीका","मैं अमरीका का पिठ्ठू और तू अमरीकी लाला है""ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के"ऐसा भी हो सकता है"आदि प्रमुख हैं। "हादसा क्या चीज़ है "ग़ज़ल संग्रह पर उन्हें सं. 2014 में राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा "आचार्य निरंजन नाथ सम्मान"से सम्मानित किया गया था। इसके अलावा उन्हें अम्बिका प्रसाद दिव्य पुरूस्कार(मध्यप्रदेश ) , देवभूमि रत्न सम्मान (उत्तराखंड), कुमाऊं गौरव सम्मान (उत्तराखंड), कविता कोश सम्मान (जयपुर ) तथा राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के कर कमलों से केंद्रीय हिंदी संस्थान द्वारा दिया जाने वाला "गंगाशरण सिंह"पुरूस्कार मिल चुका है

हरेक साल नया साल आये है जब भी 
पुराने ग़म को नया ग़म विदाई देता है 

वो जब कभी भी ये कहता है मैं तो छोटा हूँ 
बड़े बडों से भी ऊंचा दिखाई देता है 

किसी तरह की हो, कुर्सी पे बैठकर 'बल्ली' 
हरेक शख़्स को ऊँचा सुनाई देता है 

इस छोटी सी पेपर बैक किताब को जयपुर के बोधि प्रकाशन ने 'बोधि जन संस्करण"श्रृंखला के अंतर्गत प्रकाशित किया है. जन संस्करण श्रृंखला बोधि का अनूठा प्रयास है इसकी जितनी भी तारीफ की जाय कम होगी। ये आम पाठक को किताबों से जोड़ने का अनुकरणीय प्रयास है. इस श्रृंखला के अंतर्गत प्रकाशित होने वाले किताबों का मूल्य अविश्विसनीय रूप से कम होता है।इस किताब का मूल्य मात्र 40 रु ही रखा गया है। किताब की प्राप्ति के लिए आप बोधि प्रकाशन के श्री माया मृग जी को इस अभिनव कार्य के लिए बधाई देते हुए 0141-2503989 पर फोन करें या उनके मोबाईल न. 9829018087 पर संपर्क करें। आप चीमा जी को जो आम आदमी पार्टी के विधायक पद से इस्तीफा दे कर अब आज़ाद हैं उनके मोबाईल न 09568881555 पर या balli.cheema@rediffmail.com पर संपर्क कर बधाई दे सकते हैं।
उनकी ग़ज़लें भले ही रवायती ग़ज़ल पसंद करने वालों को पसंद न आएं ,हो सकता है वो कहीं कहीं ग़ज़ल के व्याकरण पे भी खरी न उतरें लेकिन ग़ज़ल की लोकप्रियता का प्रमाण अगर स्मृति में उसका बैठ जाना है तो बल्ली जी की गज़लें इस बात पर खरी उतरती हैं।वो खुद एक ग़ज़ल में कहते हैं कि :

ये फ़ायलात ये फ़ेलुन न तुझसे संभलेगा 
संभाल खेत, ये कहती है शायरी मुझसे 

अगली किताब की खोज पे निकलने से पहले आईये पढ़वाता हूँ आपको उनकी एक और ग़ज़ल के ये शेर :

किस तरह समझाऊं तुमको हादसा क्या चीज़ है 
मेरे उजड़े घर से पूछो ज़लज़ला क्या चीज़ है 

झोंपड़ी तो जानती है घर किसे कहते हैं लोग 
या परिंदों को पता है घोंसला क्या चीज़ है 

पीपलों की छाँव में ठंडी हवाओं से मिलो 
कूलरों को क्या पता बहती हवा क्या चीज़ है 

लोग ज़िंदा जल गए जिनकी लगाई आग में 
वो बताते हैं हमें अच्छा-बुरा क्या चीज़ है

किताबों की दुनिया - 182

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तेज़ आंधी में किसी जलते दिए की सूरत 
मेरे होंठों पे लरज़ता है तिरा नाम अभी 
 *** 
पहले कहाँ थे हम में उड़ानों के हौसले 
ये तो कफ़स में आ के हमें बाल-ओ-पर लगे
*** 
अश्क देखा है तिरि आँखों में 
तब कहीं डूबना आया है मुझे 
*** 
मुतमइन मेरे बदन से कोई ऐसा तो न था 
जैसे ये तीर हैं, आराम से निकले ही नहीं
*** 
गुज़रे वक्त को याद करें अब वक़्त कहाँ 
कुछ लम्हे तो एक ज़माना चाहते हैं 
*** 
मैंने देखा ही नहीं था तिरे दर से आगे 
मैंने सोचा ही नहीं था कि किधर जाऊंगा 
*** 
नज़र भी तनफ़्फ़ुस का देती है काम 
ज़रा देखिये तो किसी की तरफ
तनफ़्फ़ुस=साँस 

क्या जरुरी है कि जो हमेशा करते आएं हैं वही किया जाय ? क्यों नहीं कुछ बदलाव किया जाय क्यूंकि बदलाव ही जीवन है। मज़ा ही लीक तोड़ने में है ,शायद आपको पता न हो "नीरज गोस्वामी "नाम के एक मामूली शायर का शेर है कि 'लुत्फ़ है जब राह अपनी हो अलग ,लीक पर चलना कहाँ दुश्वार है". तो आज लीक पर पूरी तरह से न चलते हुए उसके आसपास चलते हैं ,शायद इससे कुछ अलग सा लुत्फ़ आ जाये और नीरज जी की बात सच साबित हो जाय। शुरुआत तो हमने कर ही दी है, फुटकर शेर पहले दे दिए हैं जो अमूमन आखिरी में आते हैं। ऊपर दिए शेर पढ़ कर आप को ये अंदाज़ा तो हो ही गया होगा कि शायर का नाम जो हो उनका काम जरूर ख़ास है और इसी ख़ासियत की वजह ने ही मुझे उनका काम आप तक पहुँचाने पर मज़बूर किया है।

जाने क्या बातें करती हैं दिन भर आपस में दीवारें  
दरवाज़े पर क़ुफ़्ल लगा कर, हम तो दफ्तर आ जाते हैं 
क़ुफ़्ल=ताला 

अपने दिल में गेंद छुपा कर उनमें शामिल हो जाता हूँ 
ढूंढते ढूंढते सारे बच्चे मेरे अंदर आ जाते हैं 

नाम किसी का रटते रटते एक गिरह सी पड़ जाती है 
जिन का कोई नाम नहीं, वो लोग ज़बाँ पर आ जाते हैं 

मैं तो अपने तजुर्बे से ही कह सकता हूँ कि पढ़ना बहुत अच्छी आदत है। पढ़ते रहने से आप बहुत अच्छे शायर भले न हो पाते हों लेकिन आपकी शायरी की समझ जरूर बेहतर हो जाती है। आप अच्छे-बुरे में थोड़ा बहुत फ़र्क करना सीख जाते हैं और जब कभी इत्तेफ़ाकन कोई अच्छी शायरी नज़रों से गुज़रती है तो आपके मन में फील-गुड फैक्टर आ ही जाता है। एक अच्छा शेर आपके पूरे दिन को महका सकता है। मेरी बात से आप इत्तेफ़ाक़ रखें ये बिलकुल जरूरी नहीं है। आप तो बस शायरी का लुत्फ़ लें, ये बातें तो यूँ ही होती रहेंगी।

इसे ये घर समझने लग गए हैं रफ़्ता रफ़्ता 
परिंदों से क़फ़स आज़ाद करवाना पड़ेगा 
क़फ़स=पिंजरा 

उदासी वज़्न रखती है जगह भी घेरती है 
हमें कमरे को ख़ाली छोड़ कर जाना पड़ेगा 

कहीं संदूक ही ताबूत बन जाय न इक दिन
हिफाज़त से रखी चीज़ों को फैलाना पड़ेगा

परिंदे से कफ़स आज़ाद करने वाली बात ने तो कसम से मेरा दिल तो लूट ही लिया, आप पर क्या असर किया ये अब मुझे तो कैसे मालूम पड़ेगा ? खैर!! कहने का सीधा सा मतलब ये कि आज जिस किताब का जिक्र हो रहा है उसे मैंने पिछले एक महीने में बहुत आराम से पढ़ा एक एक पेज पर ठिठक कर लुत्फ़ लेते हुए। ये किताब है ही ऐसी कि इसे सरसरी तौर पर नहीं पढ़ा जा सकता। पता ही नहीं चलता कि अचानक कोई ऐसा शेर आपके सामने आ जाता है जो रास्ता रोक के अपने पास बैठा लेता है -कभी एक दोस्त की तरह, कभी किसी अज़ीज़ की तरह तो कभी उसकी तरह जिसका जिक्र दिल में घंटियां बजाने लगता है।

ये मेज़ ये किताब, ये दीवार और मैं 
खिड़की में ज़र्द फूलों का अंबार और मैं 

इक उम्र अपनी अपनी जगह पर खड़े रहे 
इक दूसरे के ख़ौफ़ से, दीवार और मैं 

ख़ुश्बू है इक फ़ज़ाओं में फैली हुई,जिसे
पहचानते हैं सिर्फ सग-ए-यार, और मैं 
सग-ए-यार=महबूब का कुत्ता 

एक बात बताऊँ, ज्यादा तो नहीं लेकिन मैंने करीब 300 ग़ज़लों की किताबें तो अब तक पढ़ ही डाली होंगी पर कहीं किसी किताब में मैंने महबूब के कुत्ते का ज़िक्र इस तरह से किया हुआ नहीं पढ़ा और तो और 'सग-ए -यार'लफ्ज़ भी मेरी नज़रों से नहीं गुज़रा , हो सकता है इसकी वजह मेरा उर्दू में हाथ तंग होना हो। अब आप पूछेंगे कि ऐसा अनूठा शायर है कौन और किस किताब का जिक्र किया जा रहा है ? तो जवाब है कि शायर हैं ज़नाब "ज़ुल्फ़िकार आ'दिल"और किताब है "मौसम इतना सर्द नहीं था". एक और बात भी बताये देता हूँ कि इस किताब को पढ़ने से पहले मैंने न तो जनाब "ज़ुल्फ़िकार आ'दिल "का नाम सुना था और न ही उनका लिखा कहीं पढ़ा था। इसका अगर कारण पूछेंगे तो मासूम सा चेहरा बना कर जवाब दूंगा कि इनका लिखा हिंदी में शायद आसानी से कहीं पढ़ने को उपलब्ब्ध नहीं है। ये बात सरासर गलत भी हो सकती है लेकिन मेरे लिए सही है।


इक तस्वीर मुकम्मल कर के उन आंखों से डरता हूँ 
फस्लें पक जाने पर जैसे दहशत इक चिंगारी की 

हम इन्साफ नहीं कर पाए, दुनिया से भी, दिल से भी 
तेरी जानिब मुड़ कर देखा ,या'नी जानिबदारी की 
जानिबदारी=पक्षपात 

अपने आप को गाली दे कर घूर रहा हूँ ताले को 
अल्मारी में भूल गया हूँ, फिर चाबी अल्मारी की 

कोई ज़माना था जब ग़ज़लों की कोई नयी किताब साल भर में नज़र आया करती थी तब लोग ग़ज़लें पढ़ते और सुनते ज्यादा थे अब आलम ये है कि ग़ज़ल की किताबें थोक में छप रही हैं, लोग पढ़ते सुनते कम हैं और लिखते ज्यादा हैं। ये जो सोशल मिडिया पे तुरंत लाइक और वाहवाही का दौर चला हुआ है उसकी बदौलत सामइन से ज्यादा शायर हो गए हैं मारकाट मची हुई है और इस से सबसे ज्यादा नुक़सान शायरी को ही हो रहा है. वो ही घिसे पिटे भाव वो ही हज़ारों बार बरते लफ्ज़ और उपमाएं अब तो उबकाई पैदा करने लगे हैं , ऐसे में किसी जुल्फ़िक़ार आ'दिल की शायरी बाज़ार में मिलने वाले रंग बिरंगे पानियों (कोल्ड ड्रिंक ) के बीच मख्खन की डली पड़ी हुई लस्सी की तरह है।

अश्क इस दश्त में, इस आँख की वीरानी में 
इक मोहब्बत को बचाने के लिए आता है 

यूँ तिरा ख़्वाब हटा देता है सारे पर्दे 
जिस तरह कोई जगाने के लिए आता है 

एक किर्दार की उम्मीद में बैठे हैं ये लोग 
जो कहानी में हँसाने के लिए आता है 

इस बेजोड़ शायर की पहली ग़ज़ल मैंने लफ़्ज़ पत्रिका के एक तरही मुशायरे में पढ़ी थी। ग़ज़ल ग़ज़ब थी और शायर अनजान। तब किसने सोचा था कि कभी इनकी किताब पे लिखने का मौका मिलेगा। ज़ुल्फ़िकार आ'दिल साहब के बारे में जानने की मेरी सभी तरकीबें नाकामयाब रहीं ,गूगल महाशय खामोश ही रहे यार दोस्तों ने अजीब सी शक्ल बना के कहा कौन ज़ुल्फ़िकार ? पाकिस्तान में अपना कोई परिचित है नहीं जिसके यहाँ गुहार लगाते। कहाँ कहाँ किसे किसे नहीं कहा लेकिन नतीज़ा -ठन-ठन गोपाल। ले दे के जितनी जानकारी मुझे इस किताब से हासिल हुई वो ही साझा कर रहा हूँ।पहली बात तो ये कि जनाब 15 फ़रवरी 1972 को पंजाब के शहर शुजाआ'बाद (मुल्तान) में पैदा हुए। ये बताने की जरुरत तो नहीं है न कि मुल्तान पकिस्तान में है। पेशे से हुज़ूर मेकैनिकल इंजिनियर हैं तभी तो इनकी शायरी में इतना परफेक्शन है , सब कुछ एक दम सही अनुपात में ,नपा-तुला। मेरे कहने पे शक हो तो आप उसी तरह ग़ज़ल के ये शेर पढ़ें जो मैंने लफ़्ज़ में पढ़ी थी :

अपने आग़ाज़ की तलाश में हूँ 
अपने अन्जाम का पता है मुझे 

बैठे-बैठे इसी ग़ुबार के साथ 
अब तो उड़ना भी आ गया है मुझे 

रात जो ख़्वाब देखता हूँ मैं 
सुब्ह वो ख़्वाब देखता है मुझे 

कोई इतने क़रीब से गुज़रा 
दूर तक देखना पड़ा है मुझे 

मुझे ये मानने में कतई गुरेज़ नहीं है कि ज़ुल्फ़िकार साहब की शायरी मीर-ओ-ग़ालिब या फिर फ़िराक़-ओ-जोश जैसी नहीं है और हो भी क्यों ? जब ओरिजिनल मौजूद हैं तो डुप्लीकेट की जरूरत क्यों हो ? उनकी शायरी ज़ुल्फ़िकार जैसी है और ये कोई छोटी मोटी बात नहीं। उर्दू शायरी के इस अथाह सागर में अपनी पहचान बनाना बहुत बड़ी बात है। अनुसरण वो करते हैं जिनके पास अपना खुद का कुछ नहीं होता। मज़ा तब है जब भीड़ आपके पीछे चले, आप किसी के पीछे भीड़ का हिस्सा बन के चलें इसमें क्या मज़ा है ? मैं पाकिस्तान के मशहूर शायर जनाब "ज़फ़र इक़बाल"साहब की इस बात से इत्तेफ़ाक़ रखता हूँ कि "शे'र तो वो होता है जिसे पढ़ कर दूसरों के साथ भी शेयर करने को जी चाहे। उम्दा शेर तो हमेशा रहने वाले दान की तरह होता है। शेर का दूसरों से मुख़्तलिफ़ होना ही इसकी अस्ल खूबी है "

तुम मुझे कुछ भी समझ सकते हो 
कुछ नहीं हूँ तो ग़नीमत समझो 

ये जो दरिया की ख़मोशी है इसे 
डूब जाने की इज़ाज़त समझो 

मैं न होते हुए हो सकता हूँ 
तुम अगर मेरी ज़रूरत समझो 

ज़ुल्फ़िकार सिर्फ शायर होते तो बात अलग थी लेकिन ये पूरा पैकेज हैं याने ये पूछिए कि क्या नहीं हैं। इंजिनियर हैं ये तो मैं बता ही चुका हूँ ,बिलकुल अलग किस्म के शायर हैं ये आपको अब तक अंदाज़ा हो ही गया होगा इसके अलावा हज़रत ने स्टेज के लिए न सिर्फ ड्रामे लिखे बल्कि उनका निर्देशन और उनमें अभिनय भी किया है। टी.वी ड्रामे भी लिखे और उनके लिए गीत भी। कहानियां तो खैर ढेरों लिखी ही हैं एक उपन्यास भी मुकम्मल करने में लगे हुए हैं। इन सब से जब फुर्सत मिलती है तो मुशायरों बाकायदा हाज़री बजाते हैं , मुशायरा चाहे पाकिस्तान में हो हिंदुस्तान में या किसी भी और मुल्क में।

कुछ बताते हुए, कुछ छुपाते हुए 
मैं हंसा, मा'ज़रत, रो दिया मा'ज़रत 
मा'ज़रत=क्षमा 

जो हुआ, जाने कैसे हुआ, क्या खबर
जो किया, वो नहीं हो सका, मा'ज़रत 

हमसे गिर्या मुकम्मल नहीं हो सका 
हमने दीवार पर लिख दिया मा'ज़रत 
गिर्या =विलाप 

मैं कि खुद को बचाने की कोशिश में था 
एक दिन मैंने खुद से कहा, मा'ज़रत 

भला हो रेख़्ता फाउंडेशन का जिसने रेख़्ता बुक्स की स्थापना की है। रेख़्ता बुक्स का उद्देश्य बुनियादी तौर पर उर्दू शायरी और उसके प्रेमियों के दरमियान किताब का पुल बनाने का प्रकाशन-प्रोजेक्ट है। इसी प्रोजेक्ट का हिस्सा है 'रेख़्ता हर्फ़-ए-ताज़ा सीरीज'जिसके अंतर्गत इस किताब का प्रकाशन हुआ है। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप रखता बुक्स को उनके पते "बी-37, सेक्टर-1, नोएडा -201301 पर पत्र लिखें या contact@rekhta.orgपर मेल करें। ये किताब अमेज़न से भी ऑन लाइन मंगवा सकते हैं। ये किताब पढ़ने लायक है इसमें कोई शक नहीं। पढ़िए और आनंद लीजिये। चलते चलते एक ग़ज़ल के ये शेर भी पढ़िए :

सोचा ये था वक़्त मिला तो टूटी चीज़ें जोड़ेंगे 
अब कोने में ढेर लगा है, बाकी कमरा खाली है 

बैठे-बैठे फेंक दिया है आतिश-दान में क्या क्या कुछ 
मौसम इतना सर्द नहीं था जितनी आग जला ली है 

अपनी मर्ज़ी से सब चीज़ें घूमती फिरती रहती हैं 
बे तरतीबी ने इस घर में इतनी जगह बना ली है 

ऊपर सब कुछ जल जायेगा कौन मदद को आएगा
जिस मंज़िल पर आग लगी है सब से नीचे वाली है 

यूँ तो मैं चला ही गया था लेकिन लौट के सिर्फ ये बताने आया हूँ कि अगर आप ये सोच रहे हैं कि जैसा मैंने शुरू में लिखा था कि इस बार थोड़ा लीक से हटते हैं तो हटा क्यों नहीं ?या कहाँ हटा ? सब कुछ वैसा ही तो है जैसा पुरानी पोस्ट्स में होता था इसमें नया है क्या ? तो जवाब दूंगा कि कुछ भी नया नहीं है जी ये तो आपको नए की खोज में पूरी पोस्ट पढ़वा ले जाने का एक घिसा-घिसाया, पिटा-पिटाया नुस्खा था जिसे मैं ही नहीं, सभी जब मौका मिले दोहराते रहते हैं। मैंने कहा और आपने मान लिया - हाय कितने भोले हैं आप !! ज़माना ख़राब है जी यूँ आँख बंद कर के लोगों पर भरोसा करना छोड़िये। बोनस के तौर पर ये शेर पेशे खिदमत हैं :

जितना उड़ा दिया गया 
उतना गुबार था नहीं 

पानी में अक्स है मिरा 
पानी मगर मिरा नहीं 

सोचा कि रात ढल गयी 
सोचा मगर कहा नहीं 

कश्ती तो बन गयी मगर 
कश्ती से कुछ बना नहीं

इस किताब में ढेरों शेर हैं जिसे आप तक पहुंचा कर मुझे ख़ुशी मिलती ,लेकिन ये संभव नहीं है। संभव ये है की आप इस किताब को मंगवाएं और फिर धीरे धीरे आराम से पढ़ें और ज़ुल्फ़िकार आ'दिल को दिल से दुआ दें।आदत से बाज़ न आते हुए कुछ फुटकर शेर और पढ़वाता चलता हूँ :

डर मिरे दिल से नहीं निकला तो अब क्या कीजिये 
जितना मर सकता था मैं, उस से ज़ियादा मर गया
*** 
खर्च कर देता हूँ सब मौजूद अपने हाथ से 
और नामौजूद की धुन में लगा रहता हूँ मैं 
*** 
दरिया, दलदल,परबत, जंगल अंदर तक आ पहुंचे थे 
इस बस्ती के रहने वाले तन्हाई से ख़त्म हुए 
*** 
दीवारों को दरवाज़े को आँगन को 
घर आने की आदत ज़िंदा रखती है
*** 
क्या देखा और क्या न देखा याद नहीं कुछ याद नहीं
नैनो के कहने में आ कर हम ने नीर बहाये नी 
 *** 
 जाने किस वक़्त नींद आयी हमें 
 जाने किस वक़्त हम तुम्हारे हुए 
 *** 
पलकें झपक झपक के उड़ाते हैं नींद को 
सोए हुओं का क़र्ज़ अदा कर रहे हैं हम

किताबों की दुनिया -183

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समझौते पहने मिले रेशम का परिधान
बे-लिबास पाए गए सारी उम्र उसूल 

जबसे खिली पड़ौस में सोनजुही उद्दाम 
रातें नागफनी हुईं दिन हो गए बबूल 

हर क्यारी में है यहाँ क्षुद्र स्वार्थ की बेल 
मूल्य सर्वथा हो गए उपवन से निर्मूल 

इस तरह की किताबें जिनमें हिंदी शब्दों का अनूठा प्रयोग किया गया हो हमारी 'किताबों की दुनिया'श्रृंखला में बहुत कम शामिल हुई है। एक आध ग़ज़ल में या मिसरों में हिंदी शब्दों का प्रयोग तो फिर भी आया है लेकिन पूरी की पूरी किताब जो शुद्ध हिंदी में कही ग़ज़लों को सहेजे हुए हो मुझे याद नहीं पड़ता कि कभी चर्चा में आयी हो। आप इसे हिंदी ग़ज़ल कहें ,हिंदी लिपि में प्रकाशित ग़ज़लों की किताब कहें या हिंदी लेखक की कलम से निकली ग़ज़लों दोहों कविताओं की किताब कहें ये आपकी मर्ज़ी। मुझे ये किताब भाषा और कथ्य के लिहाज़ से कुछ अलग हट के लगी इसलिए मैंने इसे आपके के लिए प्रस्तुत करने का फैसला किया। आप इसे इत्मीनान से पढ़ें और जिन्हें हिंदी के नाम पर नाक भौं चढाने की आदत है वो भी पढ़ने की कोशिश करें।

आरसी जब भी शरीफों को दिखाई है 
अक्षरों के वंशजों ने चोट खाई है 
आरसी= दर्पण 

संग्रहालय में रखो इस शख़्स को यारों 
आज भी कम्बख्त के स्वर में सचाई है 

एक मुद्दत से तिमिर की बंद मुठ्ठी में 
रौशनी की कंज कलिका की कलाई है 
कंज कलिका =कमल के फूल की कलि 

लेखनी होगी तुम्हारी दृष्टि में मित्रो 
हाथ में गंगाजली हमने उठाई है 

अब जिस लेखक ने लेखनी को गंगाजल की तरह हाथ में उठाया हो वो निश्चय ही साहसी होगा, स्पष्ट वादी होगा और सत्य का पक्षधर होगा। आगे बढ़ने से पहले जरा इस आरसी शब्द की बात करें।जिस किसी ने भारत के किसी भी स्कूल में हिंदी भाषा का अध्ययन किया है उसने 'हाथ कंगन को आरसी क्या 'वाला मुहावरा जरूर पढ़ा होगा। इसका अर्थ ये है कि हाथ में पहने कंगन को देखने के लिए दर्पण की क्या जरुरत है ?शायद ही कोई महिला हाथ में रची मेहँदी, उँगलियों में पहनी अंगूठी या फिर कलाई में पहने कंगन को देखने के लिए दर्पण का सहारा लेती है। तो उसी आरसी शब्द का विलक्षण प्रयोग यहाँ किया गया है। अगर आपने आरसी शब्द को कहीं और उपयोग में लेते पढ़ा सुना है तो आप वाकई महान हैं। कहने का मतलब ये है कि इस किताब में आपको ऐसे शब्द पढ़ने को मिलेंगे जो कभी प्रचलन में थे अब नहीं हैं।

दीमकों के नाम हैं बन्सीवटों की डालियाँ 
नागफनियों की कनीजें हैं यहाँ शेफालियाँ 
शेफालियाँ=चमेली के फूल 

छोड़कर सर के दुपट्टे को किसी दरगाह में 
आ गयी हैं बदचलन बाज़ार में कव्वालियां 

घोंप ली भूखे जमूरे ने छुरी ही पेट में 
भीड़ खुश हो कर बजाये जा रही हैं तालियां 

हमारे समाज की बुराइयों और विडंबनाओं को निर्ममता से उधेड़ने वाले आज के रचनाकार हैं 23 सितम्बर 1952 को नुनहाई, फर्रुखाबाद उत्तर प्रदेश में जन्में श्री "शिव ओम अम्बर"साहब जिनकी किताब "विष पीना विस्मय मत करना"की आज हम बात करेंगे। शिव ओम अम्बर साहब बहुमुखी प्रतिभा के धनि हैं। माँ सरस्वती का वरद हस्त उनके सर पर है। उन्होंने आत्मकथात्मक डायरियां लिखी हैं , कविताओं और दोहों के अलावा उनकी गद्य रचनाएँ हिंदी साहित्य में विशेष स्थान रखती हैं। ग़ज़ल उनके लिए सबसे पहले अन्याय के प्रति आक्रोश प्रकट करने का माध्यम रही और उसके बाद गृहस्त जीवन में प्रेम की प्रस्तावना बनी सामाजिक जीवन की मंगल कामना बनी और अब ये उनके आराध्य की उपासना का माध्यम है।


 वेशभूषा पहन पुजारी की 
 है खड़ी शख़्सियत शिकारी की 

 इन दिनों है घिरी बबूलों से 
 पाटली नायिका बिहारी की 

 भोर से साँझ तक नचाती है 
 भूख है डुगडुगी मदारी की 

 शिकारी की शख़्सियत वाले शेर में शिव साहब ने देखिये किस ख़ूबसूरती से हमारे समाज में फ़ैल रही विकृति और कुरीति के खिलाफ खरी-खरी बात की है..आज यही खरा-खरा कहने की प्रवृति ही उनकी पहचान बन गयी है। पिछले चार दशकों से वाचक कविता -ग़ज़ल के मंच पर उनकी सक्रिय सहभागिता इस बात का प्रमाण है। वो मंच से अपनी कविताओं और ग़ज़लों से ऐसा सम्मोहन पैदा करते हैं कि श्रोता वाह वाह करता नहीं थकता। उनका कुशल मंच सञ्चालन अधिकतर कार्यक्रमों की सफलता का राज़ है। ये लोकप्रियता उन्होंने यूँ ही अर्जित नहीं की इसके पीछे बरसों की साहित्य सेवा और परिश्रम है। वो न गलत कहना पसंद करते हैं और न ही सुनना। जो बात उन्हें अच्छी नहीं लगती उसे सार्वजानिक रूप में स्वीकार करने में उन्हें डर नहीं लगता। 

घाट पे घर नहीं बना लेना 
हाट में आ उधार मत करना 

 चंद लम्हें जुनूं को भी देना 
 हर क़दम पे विचार मत करना 

 लफ़्ज़ मत घोलना इबादत में 
 इश्क को इश्तहार मत करना 

 लेखन उन्होंने बारहवीं कक्षा पास करने के बाद याने 15 वर्ष की आयु से प्रारम्भ किया। वो एक पारिवारिक विवाह समारोह में अल्मोड़ा गए। शादी के तुरंत बाद नवदम्पति के साथ उन्हें एक स्थानीय मंदिर में जाने का मौका मिला। वो दिन मंगलवार का था और उस दिन मंदिर में बकरों की बलि देने का रिवाज़ था जिसे देख कर युवा शिव का मन खिन्न हो गया। वो देवता को बिना प्रणाम किये ही गुस्से में घर लौट आये। वहां से लौट कर उन्होंने पहली बार अपने आक्रोश को व्यक्त करने के लिए शब्दों का लिबास पहनाया और पहली कविता लिखी । उसी शाम घर में हुए रंगारंग कार्यक्रम में उन्हें भी कुछ सुनाने को कहा तो उन्होंने उसी रचना को पढ़ कर सुनाया जिसमें उन्होंने इस कर्मकांड के जायज़ होने पर सवाल किया था , उनके विचार की सबने प्रशंसा की और स्थानीय कवि ने अपने पास बुला कर पीठ थपथपा कर कहा की तुम कवि हो कवितायेँ लिखा करो। बस उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। 

 सुविधा से परिणय मत करना 
 अपना क्रय-विक्रय मत करना 

 हँसकर सहना आघातों को 
 झुकना मत अनुनय मत करना 

 सुकरातों का भाग्य यही है
 विष पीना विस्मय मत करना 

 जैसा कि मैंने पहले लिखा है शिव ओम जी ने विविध विषयों पर सफलता पूर्वक कलम चलाई है। उनके लेखन का केनवास बहुत बड़ा है। आराधना अग्नि की (ग़ज़ल संग्रह) , शब्दों के माध्यम से अशब्द तक (गीत संग्रह),अंतर्ध्वनियाँ (लघु कवितायेँ), दोहा द्विशती, अक्षर मालिका आदि काव्य रचनाओं की किताबें बहुत चर्चित हुई हैं इसके अलावा उनकी गद्य रचनाएँ गवाक्ष दृष्टि , परिदृश्य ,आलोक अभ्यर्चन,सत्य कहूं लिखी कागद कोरे ,आस्वाद के आवर्त और साहित्य कोना -सात खंड आदि प्रसिद्ध पुस्तकें हैं। वो बरसों से फर्रुखाबाद से प्रकाशित राष्ट्रीय सहारा अखबार में नियमित रूप से "साहित्य कोना "के अंतर्गत लेख लिखते आ रहे हैं। इसके अलावा कलकत्ता से प्रकाशित हिंदी पत्रिका "द वेक"में भी वो नियमित रूप से छपते रहे हैं . उनकी रचनाएँ इंटरनेट की सभी कविता के लिए प्रसिद्ध वेब साइट जैसे 'कविता कोष' , अनुभूती आदि पर उपलब्ब्ध हैं। 

 यहाँ से है शुरू सीमा नगर की 
 यहाँ से हमसफ़र तन्हाईयाँ हैं 

 हुईं किलकारियां जब से सयानी 
 बहुत सहमी हुई अँगनाइयाँ हैं 

 हमारी हर बिवाई एक साखी 
 बदन की झुर्रियां चौपाइयाँ हैं 

 चालीस वर्ष के लेखकीय जीवन में अपने इलाके की मशहूर हस्ती के रूप में विख्यात प्रयोगधर्मी रचनाकार डा. शिव ओम यूँ तो अनेको बार विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित होते रहे हैं लेकिन उनमें "उप्र हिंदी संस्थान का साहित्य भूषण सम्मान ","श्री भानुप्रताप शुक्ल स्मृति राष्ट्र धर्म सम्मान, पंडित दीनदयाल उपाध्याय पुरूस्कार , कौस्तुभ सम्मान -उत्तराखंड , गैंग-देव सम्मान -इटावा , हेडगवार प्रज्ञा सम्मान -कोलकाता उल्लेखनीय हैं। तड़क भड़क से दूर अत्यंत सादगी से जीवन यापन करने वाले मृदु भाषी लेकिन खुद्दार डा. शिव ओम जमीन से जुड़े साहित्यकार हैं।उनका कहना है कि "कवि को अपनी कविता से ज्यादा महत्वपूर्ण होना चाहिए। कवि हिमालय हो कविता गंगा। दोनों अपनी अपनी जगह पूज्य हैं। आपने स्त्रियों को स्वेटर बुनते देखा होगा , घर के कामकाज के बीच अवसर मिलते ही वो कुछ सलाइयां बन लेती हैं और धीरे धीरे स्वेटर तैयार हो जाता है। मेरी ग़ज़लें भी ऐसे ही बुनी जाती हैं। " 

 जुलाहे तक रसाई चाहता हूँ 
 समझना हर्फ़ ढाई चाहता हूँ 

 नहीं मंज़ूर है खैरात मुझको 
 पसीने की कमाई चाहता हूँ 

 सजे जिसपर महादेवी की राखी 
 निराला-सी कलाई चाहता हूँ 

 सभा में गूंजती हों तालियां जब 
 सभागृह से विदाई चाहता हूँ

 "विष पीना विस्मय मत करना"को पांचाल प्रकाशन फर्रुखाबाद ने कॉफ़ी टेबल साइज़ में बहुत ही आकर्षक आवरण के साथ प्रकाशित किया है। इस किताब की प्राप्ति के लिए या तो आप पांचाल प्रकाशन को 9452012631पर संपर्क करें या श्री अम्बर को उनके घर के पते 4/10, नुनहाई ,फर्रुखाबाद -209625 पर पत्र लिखें। मेरी आपसे गुज़ारिश है कि इन अद्भुत ग़ज़लों से सजी किताब के लिए जो हिंदी ग़ज़ल के पुरोधा कवि दुष्यंत कुमार को समर्पित की गयी है श्री शिव ओम जी को उनके मोबाईल न 9415333059पर संपर्क कर बधाई दें। मुझे ये किताब उनके होनहार शिष्य श्री चिरंजीव उत्कर्ष जो स्वयं भी उभरते हुए ग़ज़लकार हैं ,के माध्यम से प्राप्त हुई। मैं श्री उत्कर्ष जी का दिल से आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे एक विलक्षण प्रतिभा के व्यक्ति की रचनओं से रूबरू होने का मौका दिया। चलते चलते लीजिये प्रस्तुत हैं शिव जी की एक ग़ज़ल के ये लाजवाब छोटी बहर के शेर : 

 जीने की ख़्वाहिश है तो 
 मरने की तैयारी रख 

 सबके सुख में शामिल हो 
 दुःख में साझेदारी रख 

 दरबारों से रख दूरी 
 फुटपाथों से यारी रख 

 श्रीमद्भगवद गीता पढ़ 
 युद्ध निरंतर जारी रख

किताबों की दुनिया - 184

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लायक़ कुछ नालायक़ बच्चे होते हैं 
शे'र कहाँ सारे ही अच्छे होते हैं 

बच्चोँ की खुशियाँ ढेरों सुख देती हैं 
हाथ में उम्मीदों के लच्छे होते हैं 

हम ही उल्टा-सीधा सोचा करते हैं 
रिश्ते थोड़े पक्के-कच्चे होते हैं 

जब आँखों का एक भरोसा ढहता है 
सपनों के लाखों परखच्चे होते हैं 

बहुत मुश्किल काम है भाई , बहुत मतलब हद से ज्यादा मुश्किल । मुझे लगता है इस से आसान तो बिना ऑक्सीजन के एवरेस्ट पर चढ़ना हो सकता है। आप ही बताएं जिस किताब पर इंटरनेट खोलते ही ढेरों समीक्षाएं पढ़ने को मिलें , वो भी एक से बढ़ कर एक धुरंदर समीक्षकों द्वारा लिखी हुई ,टी.वी अख़बारों और पत्रिकाओं में किताब की चर्चा छाई हो, और तो और लोगों की ज़बान पर जिस किताब के शे'र लोकोक्ति मुहावरों की तरह आएं ,उस किताब पर मुझ जैसा अदना सा नौसिखिया भला कैसे और क्या लिख पायेगा ? इसी सोच के चलते ये किताब मेरे पास काफी अर्से से मेरी अलमारी में बंद रही। तभी अन्तर्मन से आवाज़ आयी -कभी कभी आती है ,विशेष रूप से जब मैं उलझन में होता हूँ तब -इस बार जरा देर से आयी लेकिन आयी- कि, रे मूर्ख नीरज गोस्वामी तू किस दुविधा में घिरा है ? तू कोई समीक्षक है ? तू तो एक साधारण सा पाठक है तू अब तक भी तो एक पाठक की हैसियत से ही लिखता आया तो अब भी लिख। 

 घर से बाहर झाँकती कुछ खिड़कियाँ अच्छी लगीं 
खिलखिलाती, चहचहाती बेटियाँ अच्छी लगीं 

मैंने उस एक्वेरियम की घुटती साँसे देख लीं 
कैसे कह देता मुझे वो मछलियाँ अच्छी लगीं 

था वो बचपन या जवानी या कि फिर अब इन दिनों 
मुझको बालों में टहलती उँगलियाँ अच्छी लगीं 

कुछ भी कहें ये अंतरआत्मा की आवाज़ होती जबरदस्त है ,हालाँकि ये अलग बात है कि हम में से अधिकांश इस की बात नहीं सुनते। मैं सुनता हूँ इसलिए जो कुछ ग़ज़ल की इस किताब के बारे में यहाँ लिख रहा हूँ वो एक पाठक की दृष्टि से लिख रहा हूँ , एक ऐसे पाठक की दृष्टि से जिसका शायरी पढ़ना जूनून बन चुका है। इस किताब को पढ़ते वक्त यूँ लगता है जैसे लफ्ज़ बहुत हौले से मिसरे में पिरोये गए हैं , जरा सी भी आवाज़ नहीं करते जैसे कोई गहरी नदी मंथर गति से बहे जा रही हो। सिर्फ गहरी नदी ही मंथर गति से बहती है और उथली शोर मचाती हुई. सलीके से बरते हुए लफ्ज़ मिसरों में मोतियों से जड़े लगते हैं। शे'र इतने सरल हैं कि हैरानी होती है। मेरे देखे सरल लिखना सबसे मुश्किल काम है क्यूंकि सरल लिखने के चक्कर में शे'र के सपाट होने का डर बना रहता है जरा सा चूके नहीं कि शे'र का कचरा हुआ समझिये। 

दोनों में बने रहना अपने से भी धोखा है 
चाहे तो इधर जाएँ, चाहे तो उधर जाएँ 

पहचान बुरे दिन की ऐसे ही तो होती है 
कुछ लोग बिना देखे आगे से गुज़र जाएँ 

वे खोखले बादल थे पानी ही न था उनमें 
बस यूँ ही गरजते थे चाहें सभी डर जाएँ 

शायर का काम होता है भाव पर लफ़्ज़ का मुलम्मा चढ़ाना। मुलम्मा चढाने में जो शायर खूबसूरत रंगों का और चढ़ाई गयी परत की मोटाई का खास ध्यान रखता है वो कामयाब कहलाता है। कुछ शायर निहायत बदरंग मुलम्मा चढ़ाते हैं तो कुछ इतना मोटा मुलम्मा चढ़ा देते हैं कि भाव उसमें घुट कर दम तोड़ देते हैं।आप जो कहना चाहते हैं अगर वो खूबसूरत तरीके से पेश किया गया है और पाठक की समझ में आ रहा है तो पाठक से वाह-वाही की भीख नहीं मांगनी पड़ती वो खुद ही उत्साहित हो कर वाह वाह करने लगता है। हमारे आज के शायर जनाब "प्रताप सोमवंशी "जिनकी किताब "इतवार छोटा पड़ गया"की बात मैं कर रहा हूँ को ये हुनर बखूबी आता है. इस किताब की ग़ज़लों के शे'र बेहद सरल हैं लेकिन सपाट नहीं। 


नहीं कुछ और, नतीजा है अपनी कमियों का
खुद अपने आप के बारे में पूछते रहना 

थका ही जानिये हमको, हमारे बस का नहीं 
जिधर हो भीड़ उसी और दौड़ते रहना 

ये उसका खुद को छिपाने का इक तरीका है 
किसी भी शख़्स से मिलते ही बोलते रहना

20 दिसम्बर 1968 को गाँव हरखपुर,प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश में पैदा हुए प्रताप सोमवंशी ने हिंदी में एम् ऐ करने के बाद पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखा और इसी से उनकी समाज और इंसान की गतिविधियों को देखने, परखने की दृष्टि बदल गयी। हम जिन छोटी मोटी बातों पर अमूमन ध्यान नहीं देते उन्हीं को प्रताप जी अपने अनोखे अंदाज़ में अपनी ग़ज़लों में पिरो देते हैं। उन्हें पढ़ कर लगता है कि अरे ये तो जैसे मेरी या फिर मेरे आस पड़ौस में रहने वालों की ही बात कर रहे हैं. हमें कोई भी शायरी तब पसंद आती है जब हम उस से खुद को कनेक्ट कर लेते हैं वरना तो वो बे-पढ़े लिखे वालों के लिए फ़ारसी के समान है। 

राम तुम्हारे युग का रावण अच्छा था 
दस के दस चेहरे सब बाहर रखता था

शाम ढले ये टीस तो भीतर उठती है 
मेरा खुद से हर इक वादा झूठा था 

मेरे दौर को कुछ यूँ लिखा जायेगा 
राजा का किरदार बहुत ही बौना था 

राम तुम्हारे युग का - शेर तो बरसों से दशहरे पर बार बार व्हाट्सएप के ग्रुप्स में घूम घूम कर वॉयरल की श्रेणी में पहुँच चुका है. किस बला की सादगी से प्रताप जी ने रावण के माध्यम से आज के दौर के इंसान के दोगले-पन को नंगा किया है। इस विषय पर बहुत से शायरों ने क़लम चलाई है लेकिन जिस तरह प्रताप जी ने इसे बयां किया है वो विलक्षण है। इस किताब में ऐसे बहुत से शेर हैं जो पढ़ते ही झकझोर देते हैं और जेहन में अपनी जगह पक्की कर लेते हैं। विषय वही हैं जो बरसों बरस से चले आ रहे हैं लेकिन उनका प्रस्तुतिकरण ही उन्हें यादगार बना देता है। नए विषय खोजना आसान नहीं होता लेकिन हज़ारों बार कहे गए विषयों पर नए ढंग से कुछ कहना एक बहुत ही कठिन कला है और प्रताप जी इस कला के माहिर खिलाडी हैं। 

चोटी तक पहुँची राहों से सीखो भी 
कैसे पर्वत काट के आना पड़ता है 

सच का कपड़ा फूल-सा हल्का होता है 
झूठ को पर्वत लाद के जाना पड़ता है 

दिल का क्या है जो कह दो सुन लेता है 
आँखों को ज़्यादा समझाना पड़ता है

30 वर्षों के लेखन के पश्चात जब प्रताप जी ने अपने इस पहले ग़ज़ल संग्रह पर काम करना शुरू किया तब उनके पास अधिक ग़ज़लें नहीं थी क्यूंकि उन्होंने अपनी ग़ज़लों का कहीं संग्रह किया ही नहीं था ना किसी पत्रिका को जिसमें उनकी ग़ज़लें छपी सहेजा और न ही अखबार में छपी ग़ज़लों की कतरनों को लेकिन जब इस बात का पता उनके इष्ट मित्रों को चला तो बहुत से परिचितों ने उनकी पुरानी संग्रह कर रखी हुई ग़ज़लें जो कभी किसी अखबार या पत्रिका में बरसों पहले छपी होगी उन तक पहुँचाने का काम किया। उनकी पत्नी ने घर के कोने कोने से ढूंढ ढूंढ कर उनकी डायरियों और पर्चियों को इकठ्ठा किया और इस तरह उनकी लगभग 100 ग़ज़लें इकठ्ठा हो गयीं इसीलिए वो कहते हैं कि ये ग़ज़ल संग्रह सब का है सिर्फ लिखा हुआ मेरा है। लगभग तीस वर्षों के पत्रकारिता के अनुभव का निचोड़ हैं सोमवंशी जी की ग़ज़लें। 

हर मौके की, हर रिश्ते की ढेर निशानी उसके पास 
अल्बम के हर इक फ़ोटो की एक कहानी उसके पास 

कई ख़ज़ाने किस्से वाले इक बच्चे के पास मिले 
दादा-दादी उसके पास, नाना-नानी उसके पास 

सोच रहा हूँ गाँव में जाकर कुछ दिन अब आराम करूँ  
वहीँ कहीं पर रख आया हूँ नींद पुरानी उसके पास 

पत्रकारिता और ग़ज़ल या कविता लेखन यूँ तो दो विरोधभासी काम हैं लेकिन सोमवंशी जी ने दोनों को बहुत खूबी से अंजाम दिया है। पत्रकारिता ने उनके अनुभव का विस्तार किया जिसकी बदौलत उनके ग़ज़ल लेखन को नए आयाम मिले। पत्रकारिता ने उन्हें देश दुनिया के खूबसूरत -बदसूरत चेहरे देखने समझने का मौका दिया तो ग़ज़ल लेखन ने उन्हें शब्द बद्ध करने की संवेदना दी। बहुत अच्छी बुरी घटनाओं को और नयी पुरानी यादों को वो बहुत अद्भुत ढंग से अपनी ग़ज़लों में ले आते हैं। कविता या ग़ज़लें लिखना उन्हें सुकून देता है। 

आह, उदासी, बेचैनी, कोहराम लिखूं 
यादों के मैं आखिर क्या-क्या नाम लिखूं 

यादें ढोये ,ख्वाब भी पाले, धड़के भी 
इक बेचारे दिल को कितने काम लिखूं 

एक नया फ़रमान मुझे मिल जाता है 
जब ये चाहा इक पल का आराम लिखूं 

प्रताप जी के बारे में प्रसिद्ध शायर एहतराम इस्लाम साहब लिखते हैं कि "सोमवंशी जी की समाजी हैसियत कितनी भी बुलंद क्यों न हो गयी हो वो आज भी ज़मीन के ही आदमी हैं। आज भी उनका मुआमला यही है कि सामने चुने हुए पुर-तकल्लुफ़ दस्तरख़्वान पर सजी ढेर सारी आधुनिक थालियों के बीच किसी देसी थाली पर उनकी निगाह सबसे पहले पहुँचती है। तले हुए काजुओं पर भुने हुए चनों को तरजीह देना उनकी पहचान है। इसीलिए उनके अशआर में अवामी परिवेश अपनी तमामतर गर्माहट के साथ मौजूद नज़र आता है। उसमें भी 'बाज़ार'की तुलना में 'घर'पर बात करना प्रताप को अधिक प्रिय है " 

सब केवल अपनी कमज़ोरी जीते हैं 
रिश्ता तो कोई बीमार नहीं होता 

सुनना, सहना, चुप रहना फिर हंसना भी 
खुद पे इतना अत्याचार नहीं होता 

ये सच है वो हर हफ्ते ही आता है 
सबकी किस्मत में इतवार नहीं होता 

पत्रकारिता के अलावा उनकी रूचि कविता ,कहानी, कृषि, पर्यावरण, शिक्षा और राजनीती के क्षेत्र में भी है। बहु आयामी प्रतिभा के धनी प्रताप जी की मलाला युसुफ़ज़ई पर लिखी कविता का अनेक भाषाओँ में अनुवाद और प्रकाशन हुआ है। वो बुंदेलखंड में किसानों की आत्महत्या और खेती के सवालों पर लगातार लिखते आ रहे हैं। बच्चों के लिए भी उनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। प्रताप जी इनदिनों हिंदी दैनिक अखबार हिंदुस्तान में वरिष्ठ स्थानीय संपादक हैं और मयूर विहार फेज़ -1 दिल्ली में रहते हैं। 

रिश्तों के उलझे धागों को धीरे धीरे खोल रही है 
बिटिया कुछ-कुछ बोल रही है ,पूरे घर में डोल रही है 

दिल के कहे से आँखों ने बाज़ार में इक सामान चुना है 
हाथ बिचारा सोच रहा है जेब भी खुद को तोल रही है 

एक अकेला कुछ भी बोले कौन शहर में उसकी सुनता 
पेड़ पे एक अकेली कोयल जंगल में रस घोल रही है

 "इतवार छोटा पड़ गया "वाणी प्रकाशन की "दास्ताँ कहते कहते "श्रृंखला की किताब है जो हार्ड बाउन्ड और पेपरबैक दोनों में उपलब्ब्ध है। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप वाणी प्रकाशन को vaniprkashan@gmail.comपर मेल करें या इनकी वेब साइट www .vaniprkashan.inपर लॉग इन करके ऑन लाइन मंगवा लें। ये किताब अमेज़न के अलावा और भी साहित्य की बहुत सी इंटरनेट साइट पर उपलब्ध है। सबसे श्रेष्ठ तो ये है कि आप सोमवंशी जी को उनके मोबाईल न 9650938886पर संपर्क कर इन बेजोड़ ग़ज़लों के लिए बधाई दें। आप उन्हें pratapsomvanshi@gmail.com पर मेल से बधाई भेज सकते हैं। 

दर्जनों किस्से-कहानी खुद ही चलकर आ गये 
उससे मैं जब भी मिला इतवार छोटा पड़ गया 

उसने तो एहसास के बदले में सब कुछ दे दिया 
फायदा-नुक़सान का व्यापार छोटा पड़ गया 

चाहतों की उँगलियों ने उसका काँधा छू लिया 
सोने,चाँदी, मोतियों का हार छोटा पड़ गया 

सौ से अधिक ग़ज़लों से सजी इस किताब में से कुछ एक शेर छांटना बाकि के शेरों के साथ नाइंसाफी होती है।जो शेर इस पोस्ट में आ नहीं पाए उनसे माज़रत के साथ अर्ज़ करना चाहूंगा कि लॉटरी का टिकट सब खरीदते हैं लेकिन नंबर किसी-किसी का ही निकलता है इसका मतलब ये तो नहीं कि जिनका नंबर नहीं निकला वो निकम्मे हैं या उन्होंने टिकट के पैसे कम दिए हैं ये तो महज़ चांस की बात है। तो पाठको अगर आपको सभी शेरों का आनंद लेना है तो इस किताब की और हाथ बढ़ाना ही होगा ,आपके हाथ बढ़ाने से ये किताब आपको गले लगा लेगी। लीजिये चलते चलते पढ़िए इस किताब से लिए गए कुछ फुटकर शेर :  

कभी खत में कोई ख़्वाहिश न आयी 
ये घर मज़बूरियां पढता बहुत है 
*** 
छपा हो जिसके दोनों और मतलब 
वो सिक्का आजकल चलता बहुत है
*** 
पहले दिन छोटे पड़ते थे 
अब लगता है रात बड़ी है 
*** 
किसी के साथ रहना और उससे बच के रह लेना 
बताओ किस तरह से लोग ये रिश्ता निभाते हैं
***
 तेरा-मेरा , लेना-देना ,खोना-पाना कौन गिने
 इतना ज्यादा जोड़-घटाना मेरे वश की बात नहीं 
 ***
 हर कमरे की अपनी दुनिया होती है 
 आँगन ही बस तन्हा-तन्हा दिखता है 
*** 
दिन कुछ उलटी-सीधी हरकत करता है 
इसीलिए मन रात को बोझिल होता है

किताबों की दुनिया-185

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क्या और उससे मांगता जिसने तमाम उम्र
तुझसे बिछुड़ के जाने की हिम्मत न दी मुझे
***
मुझसे मिलने ही नहीं देती मुझको
 वो जो दीवार खड़ी है मुझ में
***
रात सोने के लिए दिन काम करने के लिए
वक़्त मिलता ही नहीं आराम करने के लिए
***
ये लोग तुझसे हमें दूर कर रहे हैं मगर
तिरे बग़ैर हमारा गुज़ारा थोड़ी है
***
चराग बुझते चले जा रहे हैं सिलसिला-वार
मैं खुद को देख रहा हूँ फ़साना होते होते
***
उसने बारिश में खिड़की खोल के देखा
नहीं भीगने वालों को कल क्या क्या परेशानी हुई 
 *** 
ज़मीन पैर से निकली तो ये हुआ मालूम 
हमारे सर पे कई दिन से आस्मां भी नहीं 
 *** 
उसीने सबको किया है लहूलुहान कि जो 
 किसी पे वार न करता हुआ नज़र आया 
 *** 

 मौसम में उमस है. अक्टूबर के महीने में कराची की रातें उमस भरी ही होती हैं। एक घर की छत पर तीन लोग बैठे शराब पी रहे हैं, साथ में धुएँ के छल्ले उड़ा रहे हैं ,आधे चाँद की रात है यही कोई ग्यारह बजे होंगे ,हवा भी नहीं चल रही है, अगर ये लोग नीचे किसी कमरे में बैठते तो ज्यादा सुकून मिलता लेकिन तीनों को पता है कि ये मुमकिन नहीं। जिसकी छत पे बैठे हैं ये लोग उसके परिवार के लिए पाँव पसारने की जगह भी कमरे में नहीं है लिहाज़ा छत पर बैठे रहने के अलावा और रास्ता भी क्या है ? हाँ- किसी छोटे मोटे रेस्त्रां या शराबखाने में बैठा जा सकता था लेकिन तीनों के पास अगर इतने पैसे होते तो शराब की एक बोतल और न खरीद लाते। तंगदस्ती के इस आलम की भनक तक नहीं लगायी जा सकती इन्हें देख कर। हल्की रौशनी में साफ़ तो नहीं दिख रहा लेकिन अंदाज़ा जरूर हो रहा है कि जिस शख़्स के लम्बे लम्बे बाल और पतला मरियल सा शरीर है वो बाकी के दोनों लोगों से उम्र में काफी बड़ा है -बोल भी ज्यादा वही रहा है और पी भी वही ज्यादा रहा है। बाकि के दोनों जवान उसकी बात को बड़े ध्यान से सुन रहे हैं। चलिए, लेकिन दबे पाँव-कोई आहट न हो -हम उनके पास चलते हैं।

 रुख़्सत हुआ है दिल से तुम्हारा ख़्याल भी 
 इस घर से आज आख़िरी मेहमान भी गया 

 ऐसा कहाँ वो मानने वाला था मेरी बात 
 बादल उमड़ के आए हैं तो मान भी गया 

 क्या कर सकेगा शहर कि मरने से पेश्तर 
 गर अपने क़ातिलों को मैं पहचान भी गया

 "जानी "लम्बे बाल वाले अधेड़ ने गिलास से एक लम्बा घूँट भरते हुए दोनों से कहा "शायरी क्या है ? शायरी पसमंज़र को देख पाने और उसे बयान करने का हुनर है। एक तो मंज़र होता है जिसे हमारी आँखें देखती हैं, उस मंज़र के पीछे क्या है उसे हमारे दिलो-दिमाग की आँख देखती है अल्फ़ाज़ चुनती है और शेर में पिरोती है। हँसते हुए आदमी या औरत के पीछे छुपी घुटन, तड़पन, उदासी और अकेलापन हर कोई नहीं देख सकता। मंज़र को बयां करना शायर का काम नहीं ये काम खबरनवीस करते हैं पसे मंज़र बयां करो तो नाम कमाओगे। पसमंज़र के नज़ारे जितनी सफाई से देख पाओगे उतना ही तुम्हारा नाम होगा।तो सबसे पहले वो नज़र पैदा करो जो वो देख पाए जो दूसरे नहीं देख पाते, दूसरी जो अहम् चीज है 'जानी'वो है इल्म -उसे मज़बूत करो- मतलब खूब पढ़ो फिर लिखो ,समझे ?"हम देख रहे हैं कि एक युवा उनकी बात को बड़ी शिद्दत से आत्मसात कर रहा है और दूसरा बीच बीच में उनके द्वारा सुनाये शेरों पर अँधेरे में ही स्केचिंग कर रहा है।

 इक आदमी से तर्क-ए-मरासिम के बाद अब 
 क्या उस गली से कोई गुज़ारना भी छोड़ दे 
 तर्क-ए-मरासिम=सम्बन्ध विच्छेद 

 आना अब उसने छोड़ दिया है अगर तो क्या 
 दिल बेसबब चराग़ जलाना भी छोड़ दे 

 मज़बूत कश्तियों को बचाने के वास्ते 
 दरिया में एक नाव शिकस्ता भी छोड़ दे 

 तीनों की गुफ़्तगू लगातार चल रही है ये रोज का काम है ,महीनो से चल रहा है और उसके साथ साथ ठहाके भी - कमाल के लोग हैं ये -चैन की एक भी सांस इन्हें ज़िन्दगी नहीं लेने दे रही फिर भी हंस रहे हैं और वहां देखें सब कुछ होते हुए भी लोग टसुए टपकाते रहते हैं -अपना रोना रोना भी एक फैशन हो गया है -कोई किसी बात से खुश ही नहीं होता -दुखी रहने के बहाने ढूंढता है -और एक तरफ ये हैं कि दुखी होने के सारे कारण पास में होने के बावजूद हंस रहे हैं - कौनसी दुनिया के हैं ये लोग ? लम्बे बालों वाले ने एक गहरा कश लेते हुए ढेर सा धुआं छोड़ा और कहा कि "जानी शायरी में सिर्फ इंसान तक मत पहुंचो उसके सब कांशियस माइंड तक जाओ -पता करो की जो वो कह रहा है या कर रहा है उसके पीछे क्या सोच रहा है -इंसान का दिमाग बहुत काम्प्लेक्स है उसका एनालिसिस करो-उसकी फ़ितरत को समझो फिर लिखो "

 हिज़्र में ऐसे अँधेरे भी न देखे कोई 
 दिल मुंडेरों पे दिये देख के डर जाता है 

 कैसी नींदें हैं कि बंद आँखें जगाती है मुझे
 कैसा सपना है कि हर रात बिखर जाता है 

 यूँ गुज़रता है बस अब दिल से तिरे वस्ल का ध्यान 
 जैसे परदेश में त्यौहार गुज़र जाता है 

 सोच रहे होंगे कि इस उमस भरी आधी रात को क्यों मैं टाइम मशीन में बिठा कर आप को इस छत पे ले आया हूँ -सोचना लाजमी भी है। दरअसल हमारे आज के शायर इस तिगड्डे में से ही कोई एक हैं। किसे पता था कि लम्बे बालों वाले इस बेतरतीब सी शख्सियत वाले इंसान के ये दो होनहार साथी आने वाले वक्त में अपना नाम रोशन करेंगे।आज तो हालात ये हैं कि इन्हें ये भी पता नहीं कि कल को रोटी भी मयस्सर होगी या नहीं। हमारे आज के शायर वो हैं जो लम्बे बालों वाले के दाहिनी और बैठे हैं नाम है "जमाल एहसानी"और बाएं और बैठे इस खूबसूरत से नौजवान का नाम है "शाहिद रस्सम"जिन्होंने अपनी पेंटिंगस से पूरी दुनिया में पहचान बनाई है। रंग इनके हाथों में आ कर रक्स करने लगते हैं -और ये जो इन सब से बड़े हैं वो हैं जनाब "जॉन एलिया "साहब। जॉन साहब उस यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं जहाँ शाहिद पढ़ते हैं। शाहिद और जमाल दोस्त हैं। दोनों ही जॉन साहब के जबरदस्त फ़ैन। उम्र इन तीनों के रिश्ते में कभी आड़े नहीं आयी।

 जो मेरे जिक्र पर अब क़हक़हे लगाता है 
 बिछड़ते वक्त कोई हाल देखता उसका 

 मुझे तबाह किया और सबकी नज़रों में 
 वो बेकुसूर रहा, ये कमाल था उसका 

 जो साया साया शब-ओ-रोज़ मेरे साथ रहा 
 गली गली मैं पता पूछता फिरा उसका 

 जनाब "जमाल एहसानी"जिनकी किताब "अकेलेपन की इन्तिहा"की हम बात कर रहे हैं का जन्म पाकिस्तान के "सरगोधा"जो लाहौर से 172 की मी दूर है में 21 अप्रेल 1951 को हुआ। उनके पूर्वज भारत के पानीपत जिले के थे जो 1947 में शायद रोजी रोटी के चक्कर में सरगोधा जा बसे।सरगोधा में प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद छोटी उम्र में ही वो कराची चले गए। कराची में उन्होंने आगे पढाई की , कॉलेज भी गए और बीए पास किया। शाहिद रस्सम जिसका जिक्र हमने ऊपर किया है ,से उनकी दोस्ती हुई। शाहिद ने ही उन्हें जॉन साहब से मिलवाया। ज़िन्दगी से उनकी जद्दोजेहद कराची पहुँचने के साथ ही शुरू हो गयी। क्या क्या पापड़ नहीं बेले उन्होंने। कैसे कैसे इम्तिहान नहीं दिए। पता नहीं क्यों अक्सर देखा गया है कि क्रिएटिव इंसान को ज़िन्दगी में सुकून नहीं मिलता। उसके अंदर का कोलाहल उसे शांत बैठने नहीं देता। वो नज़र, जो सबके पास नहीं होती, उन्हें बैचैन रखती है क्यूंकि उसकी वजह से उन्हें तल्ख़ हकीकतें दिखाई पढ़ती हैं जो जान लेवा होती हैं।


 ये ग़म नहीं है कि हम दोनों एक हो न सके 
 ये रन्ज है कि कोई दरमियान में भी न था 

 हवा न जाने कहाँ ले गयी वो तीर कि जो
 निशाने पर भी न था और कमान में भी न था 

 'जमाल'पहली शनासाई का वो इक लम्हा 
 उसे भी याद न था मेरे ध्यान में भी न था

 मैं तो क्या कहूं आप वो पढ़ें जो जॉन एलिया साहब उनके बारे में फ़रमा गए हैं "जमाल उन 'नामवर'शाइरों से कहीं ज़ियादा शुऊर रखता है जो अज़ीमुश्शान कहलाते हैं। 'जमाल'ज़बान-ओ-बयान के मामले के मुआमले में बहुत मोहतात (सतर्क) है। जमाल एहसानी जमालियात (सौंदर्य शास्त्र ) का काबिल-ए-रश्क़ शुऊर रखते हैं और उसे बड़ी हुनरमंदी के साथ काम में लाते हैं "यही कारण है कि उर्दू लिटरेचर के छात्रों ने जितना जमाल के काम को पसंद किया है उतना उनके साथ के शायरों को नहीं। उनके चाहने वाले पूरी दुनिया में फैले हुए हैं -अफ़सोस की बात है कि उस वक्त सोशल मिडिया का बोलबाला नहीं था वरना तो उनका नाम हर शायरी के चाहने वालों के घर में लिया जाता।

 अभी तो मंज़िल-ए-जानां से कोसों दूर हूँ मैं 
 अभी तो रास्ते हैं याद अपने घर के मुझे 

 जो लिखता फिरता है दीवार-ओ-दर पे नाम मिरा
 बिखेर दे न कहीं हर्फ़ हर्फ़ कर के मुझे 

 मोहब्बतों की बुलंदी पे है यकीं तो कोई 
 गले लगाए मिरी सतह पर उतर के मुझे 

 चराग़ बन के जला जिसके वास्ते इक उम्र 
 चला गया वो हवा के सुपुर्द कर के मुझे 

 जमाल एहसानी की ज़िन्दगी को समझने के लिए हमें उनकी उस बात को पढ़ना होगा जो उन्होंने अपने लिए कही और जो इस किताब में भी दर्ज़ है ,इतनी साफ़ और दिलकश खुद बयानी बहुत कम पढ़ने को मिलती है "मुझे शायरी ने अच्छे दिनों के ख़्वाब और बुरे दिनों की हक़ीक़तों से रुशनास (परिचित ) कराया। मैंने शायरी ही से सब कुछ जाना और शायरी ही से सब कुछ माना। मेरी तमन्नाएँ , आसूदा और ना आसूदा (पूरी-अधूरी) ख़्वाइशें, जुनूँ , ख़िरद (बुद्धि ), दोस्तियां, दुश्मनियां ,इन्तिहा-पसंदी ,मयाना-रवी (मध्य मार्ग पर चलना ), तलव्वुन-मिज़ाज़ी (स्वभाव की अस्थिरता) कुछ न कुछ करते रहने की धुन या हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने का लुत्फ़ ये सब कुछ मेरी शायरी की अता (देन) है। "

बहुत आराइश-ए-खाना के मन्सूबे बनाता हूँ
 मगर कमरे की छत पर एक जाला अच्छा लगता है
 आराइश-ए-खाना= घर सजाना

 मुझे अच्छा नहीं लगता ज़बाँ को बन्द कर लेना
 मगर बच्चों के हाथों में निवाला अच्छा लगता है

 कभी दिल शाद रहता है किसी के मिलते रहने से 
 कभी कोई बिछुड़ कर जाने वाला अच्छा लगता है 

 वो कोई और है हम में से हरगिज़ हो नहीं सकता 
 जिसे इस घर से बाहर का उजाला अच्छा लगता है

 इंसान की मज़बूरी छटपटाहट और पीड़ा की नुमाइंदगी "मुझे अच्छा नहीं लगता ---"वाले शेर में जिस तरह बयां हुई है वो आपको अंदर तक कचोटती है ,हिला देती है। इतने सादा लफ़्ज़ों में अपनी मज़बूरी का इज़हार करना ये बताता है कि 'जमाल'किस पाए के शायर हैं। आप उस इंसान की पीड़ा का अंदाज़ा लगाइये जब मज़बूरी में उसे अपनी ख़ुद्दारी दबानी पड़ती है। जमाल अपने बारे में आगे लिखते हैं कि "मैंने मिसरा मौजूँ (बनाने ) के सिवा जो भी काम किया उसमें मुंह की खाई ,बल्कि बाज़-औकात (कभी कभी) तो मिसरा मौजूँ करने का भी यही नतीजा सामने आया। ऐसे लम्हात भी गुज़रे कि शायरी से हाथ खींचने का इरादा किया मगर दूसरे सब इरादों की तरह ये भी शर्मिंदा-ए-ताबीर(पूरा ) न हुआ लिहाज़ा आम आदमी की तरह जीने को जी चाहता है न ख़ास आदमी की ख़ूबू (प्रकृति) मिज़ाज का हिस्सा है। बहर हाल ये रास्ता मेरा ख़ुद इख़्तियार-कर्दा (अपनाया हुआ ) है , इसलिए मुझे इसके सुख भी अज़ीज़ हैं और दुःख भी।

 ढांप देते हैं हवस को इश्क की पोशाक में
 लोग सारे शहर में बदनाम हो जाने के बाद 

 याद करने के सिवा अब कर भी क्या सकते हैं हम 
 भूल जाने में तुझे नाकाम हो जाने के बाद 

 खुद जिसे मेहनत-मशक्कत से बनाता हूँ 'जमाल' 
छोड़ देता हूँ वो रस्ता आम हो जाने के बाद 

 ज़माने भर के ग़म को अपने सीने में दफ़्न किये ये मोतबर शायर लीवर की बीमारी के चलते आखिर 10 फरवरी 1998 याने महज़ 47 साल की उम्र में ज़िन्दगी की जंग हार गया। 'जमाल'को इस दुनिया-ए-फ़ानी से रुखसत हुए 20 साल हो चुके हैं लेकिन उनके कलाम की ताज़गी आज भी मोनालिसा की मुस्कान तरह ताज़ी और दिलकश है।उनकी शायरी की दो किताबें "सितारा-ए -सफ़र"और "रात के जागे हुए "उनके जीते जी मंज़र-ए-आम पर आये और तीसरा "तारे को महताब किया "उनके इन्तेकाल के तुरंत बाद।

 बंद कमरों में मकीं सोते हैं और आँगन में 
 मेरे और रात की रानी के सिवा कुछ भी नहीं 

 जो उतरता है वो बहता ही चला जाता है 
 गोया दरिया में रवानी के सिवा कुछ भी नहीं 

 जितने चेहरे हैं वो मिटटी के बनाये हुए हैं 
 जितनी आँखें हैं वो पानी के सिवा कुछ भी नहीं 

 12 अक्टूबर को 'जमाल'साहब की दसवीं बरसी के मौके पर के उनकी तीनो किताबों से तैयार "कुलियात-ए-जमाल"को मंज़र-ए-आम पर लाने का प्रोग्राम रखा गया। जिसमें और लोगों के अलावा उनके अज़ीज़ दोस्त शाहिद रस्सम साहब को बुलाया गया था। शाहिद जमाल की बातें करते करते करते रो पड़े उनके साथ ही वहां बैठे दर्शकों की आँखें भी भर आयीं। अगर आपकी रुखसती के बाद लोग आपको याद कर के रोयें तो मेरी नज़र में आपने जो ज़िन्दगी में कमाया है उसकी तुलना किसी दौलत से नहीं की जा सकती। दुनिया में हज़ारों लोग रोज मरते हैं कौन किसी की याद में रोता है ? ज़िन्दगी भर आपके साथ रहने वाले, साथ चलने वाले भी दो चार रोज में रो-धो कर चुप हो जाते हैं , गैरों की तो बात ही छोड़ दें। काश इस मंज़र को साहिर देखते तो उन्हें 'हमदोनो'फिल्म में अपना लिखा गाने "कौन रोता है किसी और की खातिर ऐ दोस्त , सबको अपनी ही किसी बात पे रोना आया "को दुबारा लिखना पड़ता।

 जरा सी बात पे दिल से बिगाड़ आया हूँ 
 बना-बनाया हुआ घर उजाड़ आया हूँ 

 वो इन्तिक़ाम की आतिश थी मेरे सीने में 
 मिला न कोई तो खुद को पछाड़ आया हूँ 

 मैं इस जहां की किस्मत बदलने निकला था 
 और अपने हाथ का लिख्खा ही फाड़ आया हूँ 

 हम लोगों को, जो उर्दू पढ़ना नहीं जानते लेकिन शायरी से मोहब्बत करते हैं ,रेख़्ता बुक्स का एहसानमंद होना चाहिए जिसकी बदौलत हम उन शायरों का कलाम देवनागरी में पढ़ पा रहे हैं जिनका नाम भी हमने नहीं सुना था (मैं अपनी बात कर रहा हूँ ). ऐसी बहुत कम किताबें होती हैं जिसके हर पेज पर आपको एक आध या कभी ढेर से शेर ऐसे मिल जाएँ जो तालियां बजाने पर मज़बूर करें। ये किताब ऐसी ही है। इसे आप अमेज़न से ऑन लाइन बहुत आसानी से मंगवा सकते हैं। जो अमेजन से नहीं मंगवा सकते वो सीधे रेख़्ता बुक्स को बी-37 सेक्टर -1 नोएडा वाले पते पर लिख सकते हैं या contact@rekhta.org पर मेल कर सकते हैं। रास्ता आप चुनें मैं जमाल साहब की इस किताब से कुछ फुटकर शेर आपको पढ़वा कर नयी किताब की तलाश में निकलता हूँ।

 इस सफर में कोई दो बार नहीं लुट सकता 
 अब दोबारा तिरि चाहत नहीं की जा सकती
 *** 
याद रखना ही मोहब्बत में नहीं है सब कुछ
 भूल जाना भी बड़ी बात हुआ करती है
 *** 
तेरे बगैर जिसमें गुज़ारी थी सारी उम्र 
 तुझसे जब आए मिल के तो वो घर ही और था 
 *** 
 दिल से तेरी याद निकल कर जाए क्यों 
 घर से बाहर क्यों घर का सामान रहे 
 *** 
जो सिर्फ एक ठिकाने से तेरे वाकिफ़ हैं
 तिरी गली में वो नादान जाया करते हैं
 *** 
अजब है तू कि तुझे हिज़्र भी गराँ गुज़रा 
 और एक हम कि तिरा वस्ल भी गवारा किया
 *** 
इश्क करने वालों को सिर्फ ये सहूलत है
 कुछ न करने से भी दिल बहलता रहता है
 *** 
देखने वालों ने यकजान समझ रख्खा था 
 और हम साथ निभाते रहे मजबूरी में 
 *** 
जमाल खेल नहीं है कोई ग़ज़ल कहना 
 की एक बात बतानी है इक छुपानी है

किताबों की दुनिया - 186

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मासूम चिरागों को हवाओं ने बुझाया 
क्यों भड़के हुए शोलों प ताज़ीर नहीं की 
 ताज़ीर = सजा सुनाना 
 *** 
वही शाम है वही रात है मगर अपना अपना नसीब है 
 कहीं काटनी ये मुहाल है कहीं आरज़ू कि सहर न हो 
 *** 
इसको नादानी कहें या सादगी दिल की कहें 
 इक ज़रा चश्मे करम हो खुशगुमाँ हो जाएगा 
 *** 
मेरी बातों की सदाक़त मेरे लहजे का सबात 
 तुमको लगता है बगावत है , चलो यूँ ही सही 
 सदाकत=सच्चाई, सबात : स्थाई भाव 
 *** 
हर्ज क्या है सुनने में मशविरे भी सुन लीजिये 
 फैसला जो दिल का हो बस वही मुनासिब है
 *** 
कुछ हक़ीक़त में ग़म के मारे हैं
 बे सबब भी उदास हैं कुछ लोग
 *** 
बज़्मे तसव्वुरात में माज़ी का रक़्स था 
 यादों के घुँघरू छनन-छनन बोलने लगे
 बज़्मे तसव्वुरात =कल्पना लोक , माज़ी = गुज़रा हुआ समय 

आप यकीनन किसी न किसी गुलशन में सैर के वास्ते जरूर गए होंगे , वहां फूलों को खिलते मुस्कुराते देख के खुश भी हुए होंगे। गुलशन में आपने कितनी तरह के फूल देखें होंगे -वो ही केतकी गुलाब जूही चंपा चमेली कमल हजारा या फिर मौसमी फूल ? आपको ये तो पता ही होगा कि कुछ फूल ऐसे होते हैं जो जंगल में खिलते हैं बनफूल -बन का फूल। इन्हें न किसी माली के देखरेख की जरुरत होती है है न किसी खाद की न किसी गमले की और न ही किसी देखने वाले की। ये बंजर जमीन पर भी खिल उठते हैं क्यूंकि इनके बीज में उगने की जबरदस्त इच्छा शक्ति होती है। इन्हें तो ज़मीन का छोटा सा टुकड़ा हवा की नमी और सूरज की रौशनी चाहिए होती है बस। इन पर भी तितलियाँ रक़्स करती हैं कायनात फक्र करती है हवाएं दुलारती है शबनम भिगोती है। इन फूलों को देख भले कोई तालियां न बजाये अपने घर के गुलदानों में न सजाये ये फूल हर हाल में हाल में झूमते खिलखिलाते अपने आस-पास की फ़ज़ा को अपने रंगों और खुशबू से आबाद किये रखते हैं -कमाल के होते हैं ऐसे फूल।

 जितने फरज़ाने थे सब दस्तो गिरीबां ही रहे 
 दार तक रौशन हुआ है सिर्फ दीवाने का नाम 
 फरज़ाने =समझदार 

 ज़िन्दगी पैहम सफर है ज़ुस्तुजू दर ज़ुस्तज़ू 
 मौत क्या है ज़िंदगानी के ठहर जाने का नाम 

 आसमाँ की मांग में है जो शफ़क़ की ये लकीर 
 झील के पानी में सूरज के उतर जाने का नाम 

 ऐसा ही एक कमाल का फूल है हमारी आज की शायरा "तबस्सुम आज़मी"जो ऐसी ज़मीन पर खिलीं जो शायरी के लिए बिलकुल मुफ़ीद नहीं थी. आज हम उनकी किताब "धनक"की बात करेंगे। आजमगढ़, जहाँ शायरी के एक से बढ़ कर एक उस्ताद पैदा हुए , एक अदद शायरा के लिए तरसता रहा। आज़मगढ़ की मिटटी में ऐसा कुछ जरूर है जिसमें खेलने रचने वाला शख़्स शायरी करने लगता है। शिबली नोमानी याने 1857 से चला ये सिलसिला आजतक बदस्तूर जारी है. लेकिन वहां की मिटटी न जाने क्यों हमेशा शायरों की परवरिश करती रही। तबस्सुम वहां की पहली शायरा होने का फ़क्र हासिल रखती हैं। आज से कोई आधी सदी पहले जब कि लड़कियों की पढाई को लेकर वहां का मुस्लिम समाज एक मत से खिलाफ था तब पास के एक छोटे से गाँव में रहने वाले पिता ने अपनी बेटी को तालीम दिलवाने की सोची। ये एक क्रन्तिकारी क़दम था।



 कभी ऐसा भी होता है ये दिल खुद हार जाता है 
 कभी हारी हुई बाज़ी भी सच मानी नहीं जाती 

 कभी कितना बड़ा हो वाक़ेआ हैरत नहीं होती 
 कभी हो बात छोटी फिर भी हैरानी नहीं जाती 

 कभी इक पल में हो जाता है दिल ये बाग़-बाग़ अपना 
 कभी मुद्दत तलक इस दिल की वीरानी नहीं जाती 

 तबस्सुम का जन्म अपने ननिहाल कलकत्ता में हुआ जहाँ उन्होंने वहां के एक कॉन्वेंट स्कूल में तीसरी जमात तक पढाई की। कुछ हालात ऐसे बने कि उनको अपने गाँव जो आजमगढ़ के बेहद करीब है , आना पड़ा। पढ़ने की शौकीन तबस्सुम को यहाँ पढाई का माहौल ही नहीं मिला। गाँव में स्कूल न होने पर तबस्सुम की पढाई का जिम्मा उनके वालिद जनाब अब्दुल हमीद साहब ने उठाया। काश हर बेटी को तबस्सुम जैसे माँ- मिलें जिन्होंने समाज के ख़िलाफ़ जा कर अपनी बेटी को पढ़ाने का फैसला किया और उसके पीछे ठोस चट्टान की तरह खड़े रहे। उन्होंने महज 5 साल की उम्र में कुरानशरीफ नाज़िर ख़त्म कर लिया साथ ही साथ अहम् सूरा-ए कुरान हिफ्ज़ भी। परिवार से उन्हें पाकीजा सोच की तालीम मिली । प्रारभिक पढाई के बाद उन्होंने अपना मुताला (अध्ययन )जारी रखा और जामिया उर्दू अलीगढ से अदीब कामिल किया। लिखने में ये बात जितनी आसान लगती है हकीकत में है नहीं। जहाँ साहित्य के नाम पर बंज़र और सोच के स्तर पर रूढ़ि वादी समाज में किसी लड़की के लिए अफसाने लिखना-पढ़ना और शायरी में दिलचस्पी रखना गुनाह माने जाते हैं वहीं उसी समाज का हिस्सा बने रह कर उन्होंने अपने परिवार खास तौर पर माँ-बाप के सहयोग से अफ़साने भी लिखे और शायरी भी की। इसके लिए बला की हिम्मत और जूनून चाहिए।

 किसको मालूम पसे पर्दा जो सिसकी है निहाँ 
 चूड़ियों का तो कलाई में खनकना तय था 

 आँखों आँखों में वो जज़्बात हुए हैं ज़ाहिर
 जिनके इज़हार में होटों का झिझकना तय था 

 गुल का अंजामे तबस्सुम था निगाहों में मगर
 फिर भी कलियों के मुकद्दर में चटकना तय था 

 ज़िन्दगी हमें खूबसूरत इसलिए लगती है क्यूंकि ये पता नहीं होता कि ये किस वक्त क्या रंग दिखाएगी।जब कभी आप इसकी रफ़्तार देख सोचते हैं कि ये कभी थमेगी नहीं तभी अचानक थम जाती है और कभी लगने लगता है कि सामने दीवार है तभी अचानक रास्ते नज़र आ जाते हैं। अब तबस्सुम ने कभी सोचा नहीं था कि वो शायरी करेगी। शायरी का बीज उसके जेहन में कब आके गिरा उसे कुछ पता नहीं, अचानक वो कब का गिरा बीज फूटा और उस में से पौधा निकल आया। वो तो खुद कहती हैं कि "मुझे ये तो पता नहीं कि मुझ में शायरी के जरासीम कैसे आये क्यूंकि मेरे घर या खानदान में मुझसे पहले कोई शायर या शायरा नहीं था। जब मुझमें शेर समझने की सलाहियत नहीं थी तब भी हर अच्छा शेर मुझे अपनी और खींचता था ,फिर पता ही नहीं चला कब और कैसे मैं खुद शेर कहने लगी "हालाँकि पहली ग़ज़ल मात्र 13 साल की उम्र में कही लेकिन रुझान उनका कहानियों पर रहा जो देश के मैयारी रिसालों में छपीं।

 बे ग़रज़ हो के अगर डोर ये बाँधी जाए a
 कोई बंधन ही नहीं प्यार के बंधन की तरह 

 दिल में झाँका तो वही मोम का पुतला निकला 
 जो बज़ाहिर नजर आता रहा आहन की तरह 
 आहन=लोहा 

 इक नई सुब्ह की उम्मीद को रक्खा क़ायम 
 ज़िन्दगी रोज़ सँवरती रही दुल्हन की तरह 

 पिता की आकस्मिक मृत्यु के बाद उनके लेखन का सिलसिला अचानक से थम गया। बरसों उन्होंने कुछ लिखा पढ़ा नहीं आखिर उनके बेटे ने उन्हें संभाला, हिम्मत दी और दुबारा लेखन की और प्रेरित किया। इसलिए ये कहना गलत न होगा कि तबस्सुम का शे'री सफर बहुत पुराना नहीं है। ग़ज़ल कहने की विधिवत शुरुआत उन्होंने 2013 से की। जैसा कि आपसब को पता ही है सोशल मिडिया की वजह से आज ग़ज़ल को जो लोकप्रियता मिली है वो बेमिसाल है -इसकी वजह से हालाँकि ग़ज़ल को नुक्सान भी हुआ है क्यूंकि बहुत से लोग बिना इसकी रूह तक पहुंचे सस्ती वाहवाही के चक्कर में इसका बेडा गर्क करने पर तुले हुए हैं। सिर्फ बहर में तुकबंदी याने काफिया पैमाई करना ग़ज़ल नहीं है ये इसके बहुत आगे की विधा है। हम अगर ग़ज़ल को सस्ता मनोरंजन समझने वाले लोगों को नज़रअंदाज़ कर दें तो आज भी बहुत से युवा और बुजुर्ग ग़ज़ल की चाकरी में पूरे मन से लगे हुए हैं और ग़ज़ल को लोकप्रिय बनाने में सहयोग दे रहे हैं।इसी इंटरनेट के चलते तबस्सुम की मुलाकात फेसबुक पर ग़ज़ल के पारखी डा. प्रमोद लाल यक्ता साहब से हुई। इस मुलाकात ने ही तुकबंदी करने वाली "ताहिरा तबस्सुम"को बेहतरीन शायरा "तबस्सुम आज़मी"बनाया।

 इक मोड़ प किरदारों का यूँ रब्त है टूटा 
 लिख पाया मुसन्निफ़ नहीं अंजाम अभी तक 
 मुसन्निफ़ =लेखक 

 वो जुर्म जो सरज़द न हुआ था कभी मुझ पर 
क़ायम है मिरे सर प वो इल्ज़ाम अभी तक 
 सरज़द = सिद्ध 

 और अपनी वफ़ादारी का क्या दूँ मैं सबूत अब
 लिक्खा है सरे दार मिरा नाम अभी तक 
 सरे दार =सूली पर 

 माली का काम सिर्फ इतना होता है कि वो उस बीज की हिफाज़त करे जो उसे मिला है ,उसे जरुरत के मुताबिक पानी खाद दे धूप बारिश से दो चार करवाए उसका ख्याल रखे -बस। अब अगर बीज कमज़ोर है तो उस से खूबसूरत फूल-फल की उम्मीद करना गलत है ,उसमें माली भी कुछ नहीं कर पायेगा। तबस्सुम के भीतर का जो बीज था वो कमज़ोर नहीं था उसमें बेहद खूबसूरत शायरी छुपी हुई थी जिसे उनके उस्ताद ने माली की तरह पालपोस कर एक फूलों से भरे पेड़ बन जाने में मदद की। बीज को हुनर मंद माली मिलना भी किस्मत की बात होती है। प्रमोद जी जैसा उस्ताद सभी को मयस्सर नहीं होता। मजे की बात ये है कि तबस्सुम जी से होने वाली बातचीत के दौरान ही प्रमोद जी उन्हें शायरी के गुर सिखाते जाते थे। तबस्सुम जी ने कभी इस डर से कि वो क्या कहेंगे क्या सोचेंगे उन्हें कभी अपनी कोई ग़ज़ल इस्लाह के लिए नहीं भेजी। ये रिश्ता उस्ताद शागिर्द से ज्यादा पिता-पुत्री का रहा जो प्रमोद जी के दुनिया-ऐ-फ़ानी से रुखसत होते वक़्त तक रहा।

 दुनिया प हमको कोई भरोसा नहीं रहा 
 देखेंगे ज़िन्दगी को अब अपनी नज़र से हम 

 अब तो किसी भी शय में कशिश वो नहीं रही 
 गुज़रे तो बारहा हैं तिरी रहगुज़र से हम 

 चारागरों में जब वो मुरव्वत नहीं रही 
 किस वास्ते उमीद रखें चारागर से हम 
 चारागरों =चिकित्सकों 

 तबस्स्सुम जी के बारे में मशहूर शायरा और मेरी छोटी बहन "इस्मत ज़ैदी शिफ़ा "लिखती हैं कि "वो न ये कि एक उम्दा शायरा हैं बल्कि ओरिजिनल शायरा हैं। उनके कलाम में मौसिकी भी है ,सन्नाई(शिल्प कौशल ) भी , मुसव्विरि (चित्रकारी ) भी है पुरकारी भी ,तसव्वुरात की वुसअत (ख्यालों का फैलाव ) और खयालात की पाकीज़गी भी जो पाठक के दिलो-दिमाग को सुकून अता करती है। उनकी ज़बान मुझे बहुत ज्यादा आकर्षित करती है क्यों आज के शायर और शायरा इतनी अलंकृत ज़बान का इस्तेमाल बहुत कम करते हैं। तबस्सुम को पढ़ कर उनकी काबलियत का अंदाज़ा बहुत आसानी से लगाया जा सकता है उनकी ग़ज़लें आबशार की सी ठंडक का एहसास कराती हैं "

हमारा दिल भी दिल ही है ये क्या कभी दुखा नहीं 
 ये और बात है हमें किसी से कुछ गिला नहीं 

 हरेक बार चेहरे पर नई नई परत मिली 
 मिला तो बारहा है वो मगर कभी खुला नहीं 

 ये धूप छाँव ज़ीस्त की ये कुर्बतें जुदाईयाँ 
 ये गर्दिशें हैं वक्त की किसी की कुछ खता नहीं 

 मशहूर शायर प्रोफ़ेसर सुबोध लाल साक़ी ने लिखा है कि "तबस्सुम की 'धनक में मुझे सात दिलकश रंग नज़र आते हैं - सादगी ,सच्चाई ,सहजता , पाकीज़गी ,पुख़्तगी और हिन्दुस्तानियत। ये रंगों का एक जादुई संगम है लेकिन यहाँ आ कर प्यास बुझती नहीं और भड़क जाती है"सुबोध जी ने ही तबस्सुम जी की इस किताब का नाम 'धनक'रखा था। धनक में तबस्सुम जी की 73 ग़ज़लें संगृहीत हैं जो उन्होंने जनवरी 2015 से लेकर नवम्बर 2016 के बीच कही हैं। इस छोटे से वक़्फ़े में इतनी मयारी ग़ज़लें कहना आसान काम नहीं है। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि आने वाले वक्त में हमें उनकी और भी बहुत सी किताबें पढ़ने को मिलेंगी।

 ज़िन्दगी लगती है ज़िन्दान को घर होने तक 
 दम न घुट जाएगा दीवार में दर होने तक 

 रक्से परवाना के शैदाई को क्या इस से गरज़ 
 शम'अ किस दर्द से गुज़री है सहर होने तक 

 बेहिसी ओढ़ के सोते हैं हमारे रहबर 
 आँख खुलती ही नहीं रक्से शरर होने तक 

 आज आलम ये है कि तबस्सुम जी की ग़ज़लें देश की प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में छप रही हैं और उनका नाम उर्दू के कद्रदानों में बड़े आदर से लिया जाने लगा है फिर वो कद्रदान चाहे अपने देश के हों या विदेश के। पड़ौसी देश पाकिस्तान के नामवर शायर अदबी हलकों में एक मुमताज़ हैसियत रखने वाले जनाब अज़ीज़ुद्दीन खिज़री जो जोश मलीहाबादी साहब के नवासे हैं इस किताब की भूमिका में लिखते हैं कि "तबस्सुम की ग़ज़लों में मकसदियत ज़ज़्बात के इज़हार में सलीक़ा। शाइस्तगी और सुथरापन ग़ज़ल की रवायत को मज़रूह किये बगैर नुमायाँ नज़र आता है। तबस्सुम बचपन से ही हस्सास तबियत की मालिक है। भरी भरकम अलफ़ाज़ के बगैर सीधे सादे लफ़्ज़ों में अपनी बात कारी के दिल में उतार देती हैं।

उनके दामन की सबा ले के जो खुशबू आई 
 मुद्दतों बाद निगाहों में चमक उभरी है 

 दर्द के तार से बाँधा गया एक इक घुँघरू 
 सोज़ छलका है तो पायल में छनक उभरी है 

 अश्कबारी में जो फूटी है तबस्सुम की किरन 
 तब कहीं जा के ये रंगीन धनक उभरी है 

 'धनक'को सैंड पाइपर्स पब्लिशर्स 327/89 मीर अनीस लें चौक लख़नऊ ने सं 2017 में प्रकाशित किया है। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप डा मोहम्मद आज़मी को 9984784445 पर संपर्क कर सकते हैं। वैसे धनक अमेजन से भी ऑन लाइन मंगवाई जा सकती है। इस किताब में तबस्सुम जी की ग़ज़लों के अलावा उनके द्वारा की गयी 8 तख़मीस सॉनेट,कत'आत, रुबाइयाँ त्रिवेणियाँ और दोहे भी संकलित हैं जिसे पढ़ कर उनकी बहुमुखी प्रतिभा का अंदाज़ा हो जाता है। आप तबस्सुम जी से उनके इ-मेल tabassumazmi 68 @ gmail.comपर संपर्क कर उन्हें इन बेहतरीन ग़ज़लों के लिए बधाई दे सकते हैं। उनका फेसबुक एकाउंट भी है जहाँ जा कर आप उन्हें मैसेज कर सकते हैं।चलते चलते पेशे खिदमत हैं उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर : 

कुरबतों में बारहा ऐसा लगा 
 दरमियाँ इक फासला मौजूद है 

 दूसरों की आँख में ख़ामी न ढूंढ 
 देख ! उसमें आईना मौजूद है 

 कब भला हर मसअला हल हो सका
 सिलसिला दर सिलसिला मौजूद है 

 मुद्दई खामोश है बोले भी क्या 
 पहले से जब फैसला मौजूद है

किताबों की दुनिया -187

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बाज़ारों में फ़िरते फ़िरते दिन भर बीत गया
 काश हमारा भी घर होता, घर जाते हम भी
 ***
तुम इक मर्तबा क्या दिखाई दिए
 मिरा काम ही देखना हो गया
 ***
सड़क पे सोए हुए आदमी को सोने दो
 वो ख्वाब में तो पहुँच जायेगा बसेरे तक
 ***
 बसर की इस तरह दुनिया में गोया
 गुज़ारी जेल में चक्की चला के
 ***
मैंने ये सोच के रोका नहीं जाने से उसे
 बाद में भी यही होगा तो अभी में क्या है
 ***
और आलूदा मत करो दामन
 आंसुओं रूह में उतर जाओ
 आलूदा =प्रदूषित
 ***
 किया करते थे बातें ज़िन्दगी भर साथ देने की
 मगर ये हौसला हम में जुदा होने से पहले था
 ***
सिर्फ उस के होंठ कागज़ पर बना देता हूँ मैं
 ख़ुद बना लेती हैं होंठो पर हंसी अपनी जगह
 ***
गुज़ारे हैं हज़ारों साल हमने
 इसी दो चार दिन की ज़िन्दगी में
 ***
था वादा शाम का मगर आये वो देर रात
 मैं भी किवाड़ खोलने फ़ौरन नहीं गया
 ***
लोग सदमों से मर नहीं जाते
 सामने की मिसाल है मेरी
***
अच्छा खासा बैठे बैठे गुम हो जाता हूँ 
 अब मैं अक्सर मैं नहीं रहता तुम हो जाता हूँ

 मेरी तो ये बात समझ में आती नहीं , आप ही बताइये कि शराब और शायर के बीच क्या नाता है ?हमने ग़ालिब से लेकर फ़िराक़ ,जिगर ,मज़ाज़ जॉन एलिया आदि बहुत से ऐसे शायरों के बारे में पढ़ा है कि वो शराब के घनघोर प्रेमी थे ,उसी में डूबे रहते थे वगैरह !! शायर और शराब के रिश्ते को बहुत बढ़ा चढ़ा कर लिखा गया है जबकि शराब पीने का चलन आदि काल से चलता आ रहा है। हर तबके और वर्ग के लोग इस की गिरफ्त में रहे, रहते हैं और रहते रहेंगे। दरअसल जिसका नाम होता है वो ही बदनाम भी जल्दी होता है वर्ना आम आदमी अगर शराब में गर्क हुआ पड़ा है तो कौन उसकी परवाह करता है ? शराब दअसल इंसान को उस आभासी दुनिया में ले जाती है जिसकी वो कल्पना करता है -चाहे थोड़ी देर को ही सही। इसके नशे में गिरफ्त इंसान को अपने आप पास फूल खिलते नज़र आते हैं जिन पर रंगीन तितलियाँ रक़्स करती है, खुशबू भरी ठंडी हवाएं चलती हैं दूर बर्फ से ढके पहाड़ नज़र आते हैं ,झरने गीत गाते दिखाई देते हैं परिंदों का समूहगान सुनाई देता है हर इंसान खूबसूरत और खुश दिखाई देता है -इस दुनिया को देख कर शराबी सोचता है कि अगर फिरदौस-ऐ -ज़मीनस्तों , हमीनस्तों हमीनस्त चाहे हकीकत में वो किसी नाली में ही क्यों न गिरा हो।

 कार-ऐ-दुनिया में उलझने से हमें क्या मिलता 
 हम तिरी याद में बेकार बहुत अच्छे हैं 
 कार-ऐ-दुनिया =दुनिया के काम

 सिर्फ नाकारा हैं आवारा नहीं हैं हर्गिज़ 
 तेरी ज़ुल्फ़ों के गिरफ़्तार बहुत अच्छे हैं 

 हद से गुज़रेगा अँधेरा तो सवेरा होगा 
 हाल अब्तर सही आसार बहुत अच्छे हैं 
 अब्तर =ख़राब 

 इस से पहले कि मेरे अज़ीज़ और बेहतरीन शायर जनाब के पी अनमोल साहब हँसते हुए कहें कि नीरज भाई आप भूमिका में क्यों बोर कर रहे हो तो मैं माज़रत के साथ अर्ज़ कर दूँ कि हमारे आज के शायर का शराब के साथ गहरा तअल्लुक है। दोनों शायद एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते। बार बार छोड़ देने के बावजूद इस अंगूर की बेटी का हुस्न उन्हें अपने पास खींच लेता है।इसके चलते मैंने सोचा कि चलो शराब से ही बात शुरू की जाय। हमारे आज के शायर हैं जनाब अनवर हुसैन जो शायरी की दुनिया में अनवर शुऊरके नाम से जाने जाते हैं। अनवर साहब भारत के मध्यप्रदेश राज्य के फर्रुखाबाद जिले के एक छोटे से गाँव सियोनी में अशफ़ाक़ हुसैन साहब के यहाँ 11 अप्रेल 1943 को पैदा हुए। प्रारंभिक शिक्षा वहीँ से ली।देश के विभाजन के बाद उनका परिवार कराची चला गया। वो जब पांचवी जमात में पढ़ते थे तभी उनकी माँ का देहांत हो गया ,पिता के अत्याचारों से तंग आ कर वो स्कूल और घर से भाग गए। पढाई से तौबा करली। आप ये न समझे कि वो पढ़े लिखे नहीं हैं , ये जरूर है की स्कूल से तालीम उन्होंने भले ही हासिल न की हो लेकिन दुनिया से मिली ठोकरों और घुमक्कड़ी से उन्होंने बहुत सीखा और फिर उसके बाद अपने दिलचस्पी के विषयों पर खूब पढ़ा। आज हम उनकी किताब "अब मैं अक्सर मैं नहीं रहता "की बात करेंगे।


 पहले सूली पे चढ़ाते हैं मसीहाओं को 
 बाद में सोग मनाते हैं मनाने वाले 

 मेरी बातों के मआ'नी भी समझते ऐ काश
 मेरी आवाज़ से आवाज़ मिलाने वाले 

 नाम देते हैं मुझे आज खराबाती का 
 इस खराबे की तरफ खींच के लाने वाले 
 खराबाती-शराबी, खराबे - वीराना 

 अनवर मानते हैं कि तालीम हासिल करना बहुत जरुरी चीज है और इस बात का अफ़सोस उन्हें आज तक भी है लेकिन अब जो हो गया सो गया। ज़िन्दगी में भटकते भटकते आखिर उन्होंने उर्दू के सबसे ज्यादा छपने वाले पर्चे "सबरंग डाइजेस्ट "में मुलाज़मत की। उसी दौरान उनकी दोस्ती जॉन एलिया से हो गयी। जॉन साहब अपनी एक किताब का पेश लफ्ज़ या दीबाचा या प्रस्तावना लिखवाने सबरंग डाइजेस्ट के दफ्तर आते जहाँ वो बोलते और अनवर साहब उसे लिखते। उर्दू नस्र का एक बेहतरीन नमूना यूँ लिखा गया था। जॉन से उनकी दोस्ती और कुछ उनकी अपनी तबियत ने अनवर को शायर बना दिया। उनकी शायरी में किसी और शायर की शायरी का अक्स नहीं झलकता। उनका अपना स्टाइल है जो सुनने पढ़ने वालों को बहुत आकर्षित करता है।"सबरंग"ने उन्हें उड़ने के लिए आसमान दिया।

 कहीं दिखाई दिए एक दूसरे को हम 
 तो मुंह बिगाड़ लिए रंजिशें ही ऐसी थीं 

 बहुत इरादा किया कोई काम करने का 
 मगर अमल न हुआ उलझने ही ऐसी थीं

 बुतों के सामने मेरी ज़बान क्या खुलती 
 खुदा मुआफ़ करे ख्वाहिशें ही ऐसी थीं 

 लिखने का शौक उन्हें बचपन से ही था। महज़ 11 साल की उम्र में उन्होंने कवितायेँ लिखनी शुरू की जो कराची से लेकर दिल्ली तक की बच्चों की पत्रिकाओं और अख़बारों में प्रकाशित होने लगीं। "सबरंग"में सब एडिटर बनने से पहले उन्होंने 1964 में अपनी मुलाजमत की शुरुआत अंजुमन तरक्की-ऐ-उर्दू से की। 1970 में उन्होंने जो सबरंग का दामन पकड़ा तो फिर 30 साल बाद सन 2000 में छोड़ा। इन तीस सालों में उनकी पहचान पाकिस्तान के बेहद लोकप्रिय शायरों में की जाने लगीं। अनवर आजकल रोजाना की घटनाओं पर पाकिस्तान के नंबर 1 अखबार 'जंग'में नियमित रूप से कतआ लिखते हैं जिसे लाखों लोग रोज नियम से पढ़ते हैं। कतआत ने उनकी लोकप्रियता में चार चाँद लगा दिए लेकिन वो खुद को मूल रूप से एक ग़ज़ल कार ही समझते हैं।

 तमाम दिन की गुलामी के बाद दफ़्तर से
 किसी बहिश्त में जाता हूँ घर नहीं जाता 

 सता रही है मुझे ज़िन्दगी बहुत लेकिन 
 कोई किसी के सताने से मर नहीं जाता 

 ज़ियादा वक्त टहलते हुए गुज़रता है 
 कफ़स में भी मेरा शौक-ऐ-सफर नहीं जाता 

 अनवर साहब की ज़िन्दगी बहुत उतार चढ़ाव वाली रही। बड़ी मुश्किल से गुज़ारा होता था। एक तिमंज़िला इमारत पे बनी छोटी सी कोठरी में उनका ठिकाना रहा जिसमें बमुश्किल घुस के वो देर रात आने के बाद सोया करते थे। बलानोशी के चलते उन्होंने एक काबुली से पैसा उधार लिया और चुका नहीं पाए लिहाज़ा सूद-दर-सूद के हिसाब से अस्ल रकम में कई गुना इज़ाफ़ा हो गया। सूद-खोर ने जब धमकाना शुरू किया तो उन्होंने 'सबरंग'के एडिटर जनाब मुश्फ़िक ख्वाज़ा साहब से मदद की गुहार की। ख्वाजा साहब जो अनवर साहब की पीने की आदत से वाकिफ थे ने उन्हें इस शर्त पर क़र्ज़ अदाई के लिए पैसा देना मंज़ूर किया कि वो शराब छोड़ देंगे। अनवर मान गए , उनकी हरकतों से लगने लगा कि उन्होंने शराब से तौबा कर ली है लेकिन चंद दिन ही गुज़रे कि जॉन एलिया घबराये हुए सबरंग के दफ्तर आये और ख्वाजा साहब से कहा कि अनवर को बुरी तरह नशे की हालत में पोलिस पकड़ के ले गयी है और छोड़ने के 50 रु मांग रही है। ख्वाजा साहब ने सर पकड़ लिया - और करते भी क्या। अनवर ने शायद अपने बारे में जो ग़ज़ल कही उसके ये शेर देखें :

 मुझसे सरज़द होते रहते हैं गुनाह 
 आदमी हूँ क्यों कहूं अच्छा हूँ मैं 

 बीट कर जाती है चिड़िया टाट पर 
 अज़मत-ए- आदम का आईना हूँ मैं 
 अज़मत-ए- आदम =इंसान की महानता 

 मुझ से पूछो हुर्मत-ए-काबा कोई
 मस्जिदों में चोरियां करता हूँ मैं 

 मैं छुपाता हूँ बरहना ख्वाहिशें 
 वो समझती है कि शर्मीला हूँ मैं 
 बरहना = नग्न 

 ख्वाजा साहब लिखते हैं कि "शुऊर साहब की शायरी को किसी दीबाचे याने तआरुफ़ की ज़रूरत नहीं है। अबतक उर्दू ग़ज़ल के जितने सांचे और जितने रंग मिलते हैं शुऊर की ग़ज़ल उन सब से अलग है। इसकी एक अपनी फ़िज़ा है एक अपना मिज़ाज़ है यहाँ तक कि ज़खीरा-इ-अलफ़ाज़ (शब्द भण्डार )भी आम ग़ज़लों में इस्तेमाल होने वाले अल्फ़ाज़ से अलग है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं की शुऊर की ग़ज़ल हमारी शेरी रिवायती से अलग है। अपनी शेरी रिवायत से जितनी वाक़फ़ियत शुऊर को है उतनी कम शायरों को होगी लेकिन शुऊर ने बने बनाये सांचो पर निर्भर न रहते हुए और अपनी शेरी रिवायतों से तालमेल बिठाते हुए एक अलग राह निकाली है और एक अलग लहज़े को पहचान दी है जिससे नयी ग़ज़ल के फैलाव की सम्भावना का अंदाज़ा होता है। "

 तबाह सोच-समझ कर नहीं हुआ जाता 
 जो दिल लगाते हैं फर्ज़ाने थोड़ी होते हैं 
 फर्ज़ाने =समझदार 

 जो आते हैं मिलने तेरे हवाले से 
 नए तो होते हैं अनजाने थोड़ी होते हैं 

 हमेशा हाथ में रखते हैं फूल उनके लिए 
 किसी को भेज के मंगवाने थोड़ी होते हैं 

 आज शादीशुदा और अपने अपने घरों में खुश 3 बेटियों और एक बेटे के पिता शुऊर साहब कराची के पॉश इलाके में बने गुलशन-ऐ-इक़बाल बिल्डिंग में बने अपने अपार्टमेंट में आराम और सुकून से रहते हैं जहाँ से कराची का सर्कुलर रेलवे स्टेशन और अलादीन अम्यूजमेंट पार्क साफ़ दिखाई देता है। वो अपने अपार्टमेंट की बालकनी में बैठ कर लगातार कुछ न कुछ पढ़ते रहते हैं। उनका मानना है कि लेखक को साहित्य की हर विधा पर पढ़ते रहना चाहिए। उपन्यास हो, कहानियां हों, ग़ज़लें हों, नज़्में हों, यात्रा वृत्तान्त हो , दर्शन हो या जीवनियां हों। वो मुस्कुराते हुए वो कहते हैं कि आजकल कहानीकार सिर्फ कहानियां पढता है उपन्यासकार सिर्फ उपन्यास ग़ज़लकार सिर्फ ग़ज़लें इतना ही नहीं हालात इतने ख़राब हैं कि अब तो शायर सिर्फ अपनी ही शायरी पढता है और फिक्शन लेखक सिर्फ अपना लिखा फिक्शन। वो कहते हैं कि मुझे जो भी थोड़ी बहुत पहचान मिली है वो सिर्फ शायरी की बदौलत मिली है।

 दिल जुर्म-ऐ-मोहब्बत से कभी रह न सका बाज़ 
 हालाँकि बहुत बार सज़ा पाए हुए था 

 हम चाहते थे कोई सुने बात हमारी
 ये शौक हमें घर से निकलवाए हुए था 

 होने न दिया खुद पे मुसल्लत उसे मैंने 
 जिस शख़्स को जी जान से अपनाए हुए था
 मुसल्लत =छा जाना

 "अब मैं अक्सर मैं नहीं रहता"शायद हिंदी में अनवर साहब की शायरी की एक मात्र किताब है जिसे रेख़्ता बुक्स ने प्रकाशित किया है। पाकिस्तान सरकार की और से अल्लामा इक़बाल सम्मान से सम्मानित अनवर शुऊर साहब के चार मजमुए "अनदोख्ता" 1995 में ,मश्क-ऐ-सुखन " 1999 में मी-रक्सम 2008 में और "दिल क्या रंग करूँ " 2009 में प्रकाशित हो चुके हैं। इस किताब को पाने के लिए आप रेख़्ता बुक्स से सम्पर्क करें या फिर अमेजन से ऑन लाइन मंगवा लें। इस किताब में अनवर साहब की 119 ग़ज़लें संग्रहित हैं जो अपने कहन और दिलकश अंदाज़ से आपका मन मोह लेंगी। आप किताब मंगवाने की कवायद करें और मैं नयी किताब की तलाश में निकलने से पहले उनकी एक छोटी बहर की ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाता चलता हूँ :

 हमने जिस रोज़ पी नहीं होती
 ज़िन्दगी ज़िन्दगी नहीं होती

 रात को ख़्वाब देखने के लिए
 आँख में नींद ही नहीं होती

 सुब्ह जिस वक्त शहर आती है
 कोई खिड़की खुली नहीं होती

 बे पिए कोई क्या ग़ज़ल छेड़े 
 कोफ़्त में शाइरी नहीं होती
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