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किताबों की दुनिया - 85

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“किताबों की दुनिया” श्रृंखला के लिए शायरी की किताबें ढूंढते वक्त मुझे अहसास हुआ है के आजकल लोगों में किताबें छपवाने का शौक चर्राया हुआ है। दो मिसरों से रचित एक शेर में पूरी बात कह देने वाली ग़ज़ल जैसी विधा से लोग आकर्षित तो होते हैं लेकिन इसके व्याकरण को समझने की ईमानदार कोशिश नहीं करते, नतीजतन हमें जो ग़ज़लें पढने को मिलती हैं उनमें कहीं काफिये रदीफ़ का निर्वाह सही ढंग से नहीं होता और कहीं बहर का। हैरानी तब होती है जब कई जाने माने शायरों ,जिनकी आधा दर्ज़न से अधिक शायरी की किताबें बाज़ार में उपलब्द्ध हैं, की किताबों में इस तरह की कमियां नज़र आती हैं. आज के दौर में जो बिकता है वो पुजता है, गुणवत्ता तो हाशिये पर नज़र आती है .

स्तिथि पूरी तरह नकारात्मक नहीं है, इसीलिए तो हमें 'दरवेश' भारतीजी की किताब " रौशनी का सफ़र "जिसका जिक्र आज हम करेंगे ,अपनी और आकर्षित करती है।




कहते थे पहले कि खिदमतगार होना चाहिए
अब सियासत में फ़क़त ज़रदार होना चाहिए 

ज़िन्दगी जीना कहाँ आसान है इस दौर में 
इसको जीने के लिए फ़नकार होना चाहिए 

बिन परों के क्या उड़ोगे आसमां-दर-आसमां 
कामयाबी के लिए आधार होना चाहिए 

ये भी हो और वो भी हो गोया हर इक शय इसमें हो 
अब तो घर को घर नहीं बाज़ार होना चाहिए 

दरवेश भारती, जिनका असली नाम हरिवंश अनेजा है, का जन्म 23 अक्तूबर 1937 में जिला झंग में हुआ। आपने संस्कृत भाषा में ऍम ए., पी.एच. डी की लेकिन आपका हिंदी और उर्दू भाषा पर भी समान अधिकार रहा। मज़े की बात ये है की दरवेश भारती जी ने पहले 'जमाल काइमी' के नाम से उर्दू में शायरी की और बाद में वो दरवेश के नाम से ग़ज़लें कहने लगे।

आदमी जिंदा रहे किस आस पर 
छा रहा हो जब तमस विशवास पर 

वेदनाएं दस्तकें देने लगें 
इतना मत इतराइये उल्लास पर 

ना-समझ था, देखा सागर की तरफ 
जब न संयम रख सका वो प्यास पर 

सुरेश पंडित जी ने उनके बारे इसी किताब के फ्लैप पर लिखा है " दरवेश भारती जी के लिए ग़ज़ल कहना या इसके बारे में विमर्श करना उनकी अभिरुचि नहीं, जीने की एक शर्त है। हिंदी को इसलिए उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है ताकि उनकी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचे। दरवेश जी मानते हैं की ग़ज़ल पर किसी भाषा का एकाधिकार नहीं हो सकता, ग़ज़ल तो सिर्फ ग़ज़ल होती है और चंद शब्दों में बड़ी बात कह देने की कला इसे सार्थक बनाती है।"

जो छाँव औरों को दे, खुद कड़कती धूप सहे 
किसी,किसी को खुदा ये कमाल देता है 

न पास जा तेरी पहचान खो न जाय कहीं 
दरख़्त धूप को साए में ढाल देता है 

तमीज़ अच्छे-बुरे में न कर सका जो कभी 
वही अब अच्छे -बुरे की मिसाल देता है 

दरवेश भारती जी ने हालाँकि अल्प आयु में ही लेखन कार्य शुरू कर दिया था लेकिन निजी व्यस्तताओं के चलते वो इससे तीस वर्षों के दीर्घ समय के लिए लेखन से दूर रहे हालाँकि इस बीच 1964 में उनका "ज़ज्बात " शीर्षक से देवनागरी में कविता संग्रह और 1979 में 'गुलरंग' शीर्षक से फ़ारसी लिपि में काव्य संग्रह आया लेकिन उनकी काव्य यात्रा जो 2001 में शुरू हुई वो आजतक अबाध गति से चल रही है , 2013 में प्रकाशित 'रौशनी का सफ़र" उनकी इसी लगन प्रमाण है।

इधर हमने गुपचुप बात की 
उधर कान बनने लगीं खिड़कियाँ 

सुनाई खरी-खोटी बेटे ने जब 
भिंची रह गयीं बाप की मुठ्ठियाँ 

फ़लक पर कबूतर दिखे जब कभी 
बहुत याद आयीं तेरी चिठ्ठियाँ 

जून 2008 से भारती जी 'ग़ज़ल के बहाने' त्रै-मासिक पत्रिका का संपादन कर रहे हैं जिसमें किसी भी प्रकार का भाषाई संकीर्णवाद नहीं दिखाई देता। इस पत्रिका के माध्यम से वो ग़ज़ल के व्याकरण को भी बहुत आसान शब्दों में समझाते हैं जिसका लाभ बहुत से उभरते शायरों ने उठाया है।

गीत ग़ज़ल अफसाना लिख 
पर हो कर दीवाना लिख 

नाच उठे मन में बचपन 
लुकछुप, ईचक दाना लिख 

मत कर जिक्र खिज़ाओं का 
मौसम एक सुहाना लिख 

दुःख तो दुःख ही है 'दरवेश' 
अपना क्या, बेगाना लिख 

हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा उनकी 'शांतिपर्व में नैतिक मूल्य' पुस्तक सन 1987 में पुरस्कृत की जा चुकी है। अनेक साहित्यिक एवम सामाजिक संस्थाओं द्वारा समय समय पर उन्हें सम्मानित किया गया है। आपकी काव्य यात्रा पर कुरुक्षेत्र विश्व विद्यालय से शोध कार्य भी संपन्न किया गया है। आकाशवाणी और दूरदर्शन से भी इनकी रचनाओं का प्रसारण होता रहता है। इस पुस्तक में दरवेश साहब की ग़ज़ल यात्रा के दौरान कही गयी विभिन्न ग़ज़लों से 75 ग़ज़लों का संग्रह किया गया है।

किसलिए तुम हताश हो बैठे 
हिम्मत उठने की अपनी खो बैठे 

चढ़ते सूरज से दोस्ती क्या की 
अपने साए से हाथ धो बैठे 

इन विवादों से क्या हुआ हासिल 
क्यूँ फटे दूध को बिलों बैठे 

इस किताब का प्रकाशन दिल्ली के 'कादंबरी प्रकाशन ' ने किया है जिसे आप उनके इ-मेल kadambariprakashan@gmail.com या उनके मोबाइल नंबर 9968405576 / 9268798930पर संपर्क करके मंगवा सकते हैं, मैं खुद इस प्रकाशन तक नहीं गया मुझे ये किताब अयन प्रकाशन के भूपल सूद साहब के यहाँ से मिली। भूपल सूद साहब का मोबाइल नंबर यूँ तो मैंने अपनी इस श्रृंखला में कई बार दिया है लेकिन उसे कौन ढूंढें वाली आपकी सोच को जानते हुए फिर से दे रहा हूँ। क्या करूँ? देना ही पड़ेगा क्यूंकि मेरा मकसद आपको अच्छी किताब तक पहुँचाना जो है।आप सूद साहब से उनके नंबर 9818988613पर बात करें और इस किताब को मंगवाने की जानकारी हासिल करें .

अब हम चलते हैं आपके लिए अगली किताब की तलाश में तब तक आप दरवेश साहब की एक ग़ज़ल के ये शेर पढ़ें और आनंद लें

मौसम बदल गया है तो तू भी बदल के देख 
कुदरत का है उसूल ये साथ इसके चल के देख 

रुस्वाइयाँ मिली हैं, ज़लालत ही पायी है 
अब लडखडाना छोड़,जरा-सा संभल के देख 

चौपाई दोहा कुंडली छाये रहे बहुत 
'दरवेश' अब कलाम में तेवर ग़ज़ल के देख

हर तस्वीर अधूरी है

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 (पेशे खिदमत है ,छोटी बहर में एक निहायत सादा सी ग़ज़ल) 


ये कैसी मजबूरी है 
जो लोगों में दूरी है 

क्यूँ फिरता पगलाया सा 
तुझमें ही कस्तूरी है 

बात सुई से ना सुलझे 
तो तलवार जरूरी है 

तुम बिन मेरे जीवन की 
हर तस्वीर अधूरी है 

जाता है जो मंजिल तक 
वो रस्ता बेनूरी है  

देख किसी को मुस्काना 
अब केवल दस्तूरी है 

देखा 'नीरज'को मुड़ कर 
ये क्या कम मशहूरी है ?

किताबों की दुनिया - 86

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देवियों और सज्जनों क्या आपने जयपुर के "नवरत्न प्रजापति"का नाम सुना है ? अरे ये क्या आपतो बगलें झाकने लगे। शर्मिंदा न हों मैंने कौनसा सुना था , ये तो भला हो गूगल का जिसकी मेहरबानी से ये नाम पता चला। नवरत्न जी वो मिनिएचर आर्टिस्ट हैं जिन्होंने विश्व की सबसे छोटी, काम में आने वाली लालटेन बनाई है। ये लालटेन केरोसिन की सिर्फ तीन बूंदों से बीस सेकण्ड तक जलती है .

आप पूछेंगे की किताबों की दुनिया में प्रजापति जी का किस्सा क्यूँ ? प्रजापति जी का जिक्र मिनिएचर आर्ट के कारण आया। इस कला में कलाकार का दक्ष होना आवश्यक है जरा सी चूक पूरी कृति को बर्बाद कर सकती है। इस कला में सुधारने की गुंजाईश नहीं के बराबर होती है इसलिए कलाकार को अपना हर कदम बहुत सोच समझ के उठाना पड़ता है।

शायरी में ये ही बात छोटी बहर की ग़ज़लों पर लागू होती है। देखने में बहुत सरल सी लगने वाली छोटी बहर को साधना उस्तादों के बस की ही बात होती है। ग़ज़ल की इस विधा में विज्ञानं व्रत जी ने अपना एक खास मुकाम बनाया है। उन्हीं के नक़्शे कदम पर चलने की कोशिश कर रहे हैं अपेक्षा कृत युवा शायर "सलीम खाँ फ़रीद"साहब जिनकी किताब "एक सवाये सुर को साधो"का जिक्र हम आज करेंगे .


छोटे छोटे द्वार हमारे 
ओ'हाथी हैं यार हमारे 

एक अंगूठे ही के कारण 
चुकते नहीं उधार हमारे 

कई हजारों की बस्ती में 
हम ही हैं हर बार हमारे 

डर,शंका,विस्मय लाते हैं 
मिलजुल कर त्योंहार हमारे 

10 जुलाई 1964 को राजस्थान के सीकर जिले के हसामपुर में जन्में फरीद साहब ने हिंदी साहित्य में एम् ऐ किया है . आप पिछले तीस वर्षों से ग़ज़लें कह रहे हैं लेकिन सिमित मात्रा में, तभी तो उनकी अभी पहली ही किताब प्रकाशित हुई है। उन्होंने क्वांटिटी से अधिक क्वालिटी पे जोर दिया है। यही कारण है कि उनकी ग़ज़लों में किसी दूसरे शायर का प्रभाव नज़र नहीं आता बल्कि मौलिकता दिखाई देती है।

खाली थैला ले घर लौटे 
हमने भी बाज़ार किया है 

चिड़ियों ने मिल-जुल कर फिर से 
बाज़ों को सरदार किया है 

उजियारों के राजमहल में 
अंधों ने दरबार किया है 

खुद से आगे सोच न पाए 
सबने यों विस्तार किया है 

डा कुंअर बैचैन साहब इस किताब पर दिए फ्लैप में लिखते हैं "फरीद साहब अपनी शायरी के माध्यम से घटाघोप घिरे बादलों में बिजली की चमक भी प्रदान करते हैं तथा प्यासी धरती और प्यासी रूहों को शीतल जल जैसी शायरी की फुहार भी बन के आते हैं .उनकी शायरी के आलोक में हम अपने देश के हालात को देख पाते हैं और उन पर सोचने को मजबूर भी होते हैं।

जान भले ही भाले पर है 
लेकिन ध्यान निवाले पर है 

अंधियारी अंधी बस्ती में 
सारा दोष उजाले पर है 

मंजिल के सारे काँटों का 
खून हमारे छालों पर है 

नीचे द्वार बजाती जनता 
राजा दसवें माले पर है 

निदा फाजली साहब ने इस किताब की भूमिका में लिखा है की सलीम खाँ फरीद साहब की भाषा व्यंगात्मक है . वो बातों को संकेतों, प्रतीकों तथा बिम्बों के माध्यम से व्यक्त करते हैं, जिसके कारण वे अखबार की खबर की तरह पढ़ते ही बासी नहीं हो जाती उनकी हरारत और शेरियत बहुत दिनों तक पाठकों के साथ जीवित रहती है .
तुझ पर, मुझ पर, पग धर पहुंचे 
फिर वो सिंहासन पर पहुंचे 

कितने लोग सफ़र पर निकले 
कितने लोग मगर घर पहुंचे 

जारी है वह दौड़ की जिसमें 
लंगड़े लोग बराबर पहुंचे 

बचकर रहना देश, सदन में 
फिर तेरे सौदागर पहुंचे 

छोटी बहर के सिद्ध हस्त शायर जनाब विज्ञान व्रत साहब ने लिखा है की फरीद साहब ग़ज़ल कहने की हड़बड़ी या जल्दी में कतई नहीं रहे अगर ऐसा होता तो अब तक तो इस शायर के कई संकलन प्रकाशित हो गए होते। भाई सलीम खाँ साहब की ग़ज़लों में सियासत ,धर्म और विसंगतियां, सामाजिक कटु सत्य और आपसी सम्बन्ध अक्सर आते हैं। सलीम भाई का व्यंग उनकी ग़ज़लों को न केवल मार्मिक बनाता है अपितु व्यंग में निहित दंश पाठक के भीतर ऐसी तिलमिलाहट पैदा करता है जो उसे देर तक छटपटाने पर बाध्य करती है।

तू सचमुच नादान है प्यारे 
जो अब तक इंसान है प्यारे 

जब तक यह मतदान है प्यारे 
तब तक तुझ पर ध्यान है प्यारे 

तेरी ही कुर्बानी देंगे 
तू जिन पर कुर्बान है प्यारे 

सच की खातिर लड़ना मुश्किल 
पर मुश्किल आसान है प्यारे 

ये सच है की फरीद साहब की ये पहली किताब है लेकिन इस से पहले और बाद भी वो देश के प्रतिष्ठित अखबारों और रिसालों में बरसों से लगातार छपते रहे हैं। उनकी चुनिन्दा ग़ज़लों को जयपुर के बोधि प्रकाशनने एक ही किताब में छाप कर हम जैसे उनके अनगिनत पाठकों पर बहुत बड़ा उपकार किया है।

उनकी ग़ज़ल साधना के लिए, रचना सांस्कृतिक संस्थान , नीम का थाना तथा साहित्य संस्थान नगर श्री चुरू द्वारा उनका ,सार्वजानिक सम्मान किया गया है।

इस्तेमाले गए 
फिर निकाले गए 

इक अँधेरा उगा 
सौ उजाले गए 

सत्य है सत्य के 
बोल बाले गए 

सर जो झुक न सके 
वो उछाले गए 

इस किताब की प्राप्ति के लिए आप बोधि प्रकाशन से उनके मोबाइल नुम्बर 98290 18087पर संपर्क करें और फिर अनूठी शायरी के लिए सलीम खाँ फरीद साहब को उनके मोबाईल न 9413070032पर दाद देना न भूलें.

आपके लिए एक और किताब की तलाश के लिए निकलें तब तक पढ़िए फरीद साहब की ग़ज़ल के ये शेर :- 

फिरती सासू फूली-फूली 
बहुओं ने हर बात कबूली 

जब तुझको ही याद नहीं तो 
मैं भी तेरा सब कुछ भूली 

कह न सकी कम्पन अधरों की 
बात वही तो दिल को छू ली 

कब तक होगी  'हाँ जी हाँ जी !' 
हाँ ! अब होगी हुक्म उदूली

कोह सा अकड़ा खड़ा रहता था जो

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नीरज शर्मा जो मेरे पडौसी हैं कल सुबह सुबह दांत निकाले मेरे घर आये। वैसे वो हमेशा दांत निकाले ही आते हैं लेकिन इस बार उनके दांत अपेक्षा कृत अधिक निकले हुए थे. ये आने वाले खतरे का सिग्नल था. उनके हाथ में एक कागज़ था जिसे थमाते हुए वो सोफे पे पसर गए और वार्तालाप शुरू हुआ :-
ये क्या है?
ग़ज़ल
ग़ज़ल?
हाँ चौंक क्यूँ गए ?
आप और ग़ज़ल?
क्यूँ ग़ज़ल क्या आप ही लिख सकते हैं ?
नहीं, लेकिन आप भी ...
जी मैं भी , मैं क्यूँ नहीं?
पढूं?
नहीं
तो?
छापें
छापें?
कहाँ ?
अपने ब्लॉग पे
मेरे ब्लॉग पे? आपकी ग़ज़ल ?
हाँ , इसमें बुराई क्या है , और कहीं छप नहीं रही इसलिए सोचा आप को दे दूं ताकि आप ब्लॉग पे छाप दें
......
आप चुप क्यूँ हैं? आप नहीं छापते दूसरों की ग़ज़ल कभी कभी ?
छापी नहीं पोस्ट की है एक आध बार
एक ही बात है , छापो मत चलो पोस्ट ही कर दो। अहसान उतर जाएगा
एहसान?
कैसा एहसान?
जो हमारी मैडम ने आप की काम वाली बाई पे किया है
क्या किया है ?
दही जमाने के लिए जामन दिया था ना। कल आपने कल दही खाया होगा
हाँ खाया तो था
बाई से पूछा नहीं दही जमा कैसे
नहीं?
अब समझ आ गया ना. आप नहीं छापेंगे मतलब पोस्ट करेंगे तो मैं समझूंगा आप एहसान फरामोश हैं। चलता हूँ .
सुनिए
कहिये
आपने मक्ते में मेरा नाम क्यूँ दिया है ?
आपका ? मैंने तो अपना ही दिया है , अब आपका और मेरा एक ही नाम है तो मैं क्या करूँ?
लोग समझेंगे की ये मेरी ग़ज़ल है।
क्या इत्ती ख़राब है ?
......
आप चुप हो गए ?
क्या कहूँ ?
कुछ मत कहें, आप पोस्ट करें .

तो लीजिये पेश है नीरज शर्मा जी की ये ग़ज़ल जो मैंने अपने पर एहसान फरामोश का लेबल न चिपके ये सोच कर पोस्ट की है .



ज़िन्दगी में तब झमेला हो गया 
नीम तुम, जब मैं करेला हो गया 

कोह सा अकड़ा खड़ा रहता था जो 
वक्त जब बदला तो ढेला हो गया  
कोह : पर्वत/पहाड़ 

रक्स करती थीं जहाँ तन्हाईयाँ 
तुम बसे दिल में तो मेला हो गया 

सोचता जो कुछ अलग है भीड़ से 
शख्स वो कितना अकेला हो गया 

हम चले जिस ओर तनहा ही चले 
वो चला जिस और रेला हो गया 

बंद थी जब तक वो गिन्नी सा रहा 
खुल गयी मुठ्ठी तो धेला हो गया 

ख़्वाब में जब वो दिखा 'नीरज'मुझे 
 मैं अकेले से दुकेला हो गया

किताबों की दुनिया - 87

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सुब्हों को शाम, शब को सवेरा नहीं लिखा
हमने ग़ज़ल लिखी है क़सीदा नहीं लिखा

ख़त यूँ तो मैंने लिक्खा है तफ़सील से उन्हें
लेकिन कहीं भी हर्फ़े-तमन्ना नहीं लिखा

जिससे फ़क़त अमीरों के चेहरे दमक उठें
      उस रौशनी को मैंने उजाला नहीं लिखा     

उर्दू शायरी के दीवानों और मुशायरों का लुत्फ़ उठाने वालों के लिए जनाब 'मंसूर उस्मानी' साहब का नाम अनजाना नहीं है . मंसूर भाई अपनी निजामत से किसी भी मुशायरे को बुलंदियों पर पहुँचाने का दम-ख़म रखते हैं। वो उन चंद शायरों में से हैं जिनका   कलाम पाठकों को पढने में उतना ही मज़ा देता है जितना सामयीन को मुशायरे के मंच से उन्हें सुनने में।

आज हम उन्हीं की देवनागरी में छपी किताब " अमानत " का जिक्र अपनी इस श्रृंखला में करेंगे।     

रखिये हज़ार कैद अमानत को इश्क की 
लेकिन ये अश्क बन के छलकती जरूर है

जाने वो दिल के ज़ख्म हैं या चाहतों के फूल
रातों को कोई चीज महकती जरूर है

'मंसूर' ये मिसाल भी है कितनी बेमिसाल
चिलमन हो या नक़ाब सरकती जरूर है

इस किताब में बहुत से शायरों ने मंसूर साहब की शायरी और शख्शियत के बारे में बात की है, इसी क्रम में डा . उर्मिलेश की लिखी बात आप सब को पढवाना चाहता हूँ वो लिखते हैं : मंसूर साहब की ग़ज़लें माचिस की उन तीलियों की तरह हैं,  जिनसे आप कान ख़ुजाने का मज़ा भी ले सकते हैं और वक्त पड़ने पर इनसे आग जलाने का काम भी ले सकते हैं, लेकिन आग लगाने का काम ये नहीं करतीं .   

आवारगी ने दिल की अजब काम कर दिया
ख्वाबों को बोझ, नीदों को इल्ज़ाम कर दिया

कुछ आंसू अपने प्यार की पहचान बन गए
कुछ आंसूंओं ने प्यार को बदनाम कर दिया

जिसको बचाए रखने में अजदाद बिक गए
हमने उसी हवेली को नीलाम कर दिया
अजदाद= पूर्वज

मंसूर साहब की शायरी के बारे में जनाब मुनव्वर राना साहब ने भी क्या खूब कहा है : 'मंसूर साहब की शायरी महबूब के हाथ  पर रखा रेशमी रुमाल नहीं है। मजदूर की हथेलियों के वो छाले हैं, जिनसे मेहनत और ईमानदारी की खुशबू आती है।  उन्होंने ग़ज़ल को महबूब से गुफ्तगू करना नहीं सिखाया बल्कि अपनी ग़ज़ल को हालात से आँख मिलाने का हुनर सिखाया है .    

कांधों पे सब खुदा को उठाए फिरे मगर
बंदों का एहतराम किसी ने नहीं किया

अखबार कह रहे हैं कि लाशें हैं सब गलत
बस्ती में कत्ले-आम किसी ने नहीं किया

'मंसूर' ज़िन्दगी की दुहाई तो सबने दी
   जीने का इंतज़ाम किसी ने नहीं किया   

एक मार्च 1954 को जन्में और मुरादाबाद में बसे मंसूर साहब ने उर्दू में एम ए करने के बाद शायरी से नाता जोड़ लिया। अपनी बाकमाल शायरी का लोहा उन्होंने जेद्दाह , सऊदी अरब, कनाडा, नेपाल, अमेरिका, दुबई, पकिस्तान,मैक्सिको आदि देशों के विभिन्न शहरों में हुए मुशायरों में शिरकत कर मनवाया है। शायरी की लगातार खिदमत करने के लिए उन्हें उ प्र उर्दू अकादमी सम्मान, हिंदी-उर्दू  सम्मान ( लखनऊ ), रोटरी इंटर नेशनल एवार्ड, संस्कार भारती सम्मान आदि अनेको सम्मानों से नवाज़ा गया   है।


चाहना जिसको फ़कत उसकी इबादत करना
वरना बेकार है रिश्तों की तिजारत करना

एक ही लफ्ज़ कहानी को बदल देता है
कोई आसां तो नहीं दिल पे  हुकूमत करना

अपने दुश्मन को भी साये में लिए बैठे हैं
     हमने पाया है विरासत में मुहब्बत करना     

हिंदीभाषीपाठकवाणीप्रकाशन, दरियागंज,दिल्ली (फोन :+91-11-23273167 ) का ,इसऔरइसजैसीअनेकउर्दूशायरोंकीकिताबेंहिंदीमेंप्रकाशितकरनेकेलिए, हमेशाआभारमानेंगे. इसकिताबमेंमंसूरसाहबकीसौसेअधिकग़ज़लोंकेअलावाउनकेबहुतसेफुटकरशेर, कतआतऔरदोहेभीशामिलकियेगएहैं।मंसूरसाहबकोआपउनकेमोबाईल 9897189671 परफोनकरऐसीअनूठीशायरीकेलिएदाददेंऔरकिताबप्राप्तिकारास्ताभीपूछलें .   

जबऐसीकिताबहाथलगतीहैतोउसमेंसेशेरछांटनामेरेलिएबहुतमुश्किलहोजाताहै , जिनग़ज़लोंकेशेरआपतकनहींपहुंचापातावोमेरीकलमरोककेपूछतीहैंहममेंक्याकमीथीयेबताओ ?

इनअमीरोंसेकुछनहींहोगा
हमग़रीबोंकोहुकमरानीदे

क्यातमाशाहैयारदुनियाभी
आगअपनादे , गैरपानीदे

यादआयेंग़मज़मानेके
शामऐसीभीइकसुहानीदे  

चलते चलते आईये अब पढ़ते हैं मंसूर साहब के चंद खूबसूरत शेर  :-

हमारा प्यार महकता है उसकी साँसों में
बदन में उसके कोई ज़ाफ़रान थोड़ी है
***
ज़िद पे आये तो क़दम रोक लिए है तेरे
हम से बेहतर तो तेरी राह के पत्थर निकले
***
दामन बचा के लाख कोई मौत से चले
पाज़ेब ज़िन्दगी की खनकती ज़रूर है
***
इश्क़ इज़हार तक नहीं पहुंचा
शाह दरबार तक नहीं पहुंचा
मेरी क़िस्मत कि मेरा दुश्मन भी
मेरे मेयार तक नहीं पहुंचा
***
बाज़र्फ़ दुश्मनों ने नवाज़ा है इस क़दर
कमज़र्फ़ दोस्तों की ज़रूरत नहीं रही
***
मुहब्बत का मुक़द्दर तो अधूरा था,अधूरा है
कभी आंसू नहीं होते, कभी दामन नहीं होता
***
सच पूछिये तो उनको भी हैं बेशुमार ग़म
जो सब से कह रहे हैं कि हम खैरियत से हैं
***

राह तयकर इक नदी सी

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( एक पुरानी ग़ज़ल नए पाठकों के लिए ) 

 कब किसी के मन मुताबिक़ ही चली है जिन्दगी 
राह तयकर इक नदी सी, ख़ुद बही है जिन्दगी 

ये गुलाबों की तरह नाज़ुक नहीं रहती सदा 
तेज़ काँटों सी भी तो चुभती कभी है जिन्दगी 

मौत से बदतर समझ कर छोड़ देना ठीक है 
ग़ैर के टुकड़ों पे तेरी, गर पली है ज़िन्दगी 

बस जरा सी सोच बदली, तो मुझे ऐसा लगा 
ये नहीं दुश्मन, कोई सच्ची सखी है ज़िन्दगी 

जंग का हिस्सा है यारो, जीतना या हारना 
ख़ुश रहो गर आख़िरी दम तक, लड़ी है जिन्दगी 

मोल ही जाना नहीं इसका, लुटा देने लगे 
क्या तुम्हें ख़ैरात में यारो मिली है जिन्दगी ? 

जब तलक जीना है "नीरज", मुस्कुराते ही रहो 
क्या ख़बर हिस्से में अब कितनी बची है जिन्दगी

किताबों कि दुनिया - 88

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सभी पाठकों को दीपावली कि हार्दिक शुभकामनाएं

रिवायती ग़ज़लों की किसी किताब का जिक्र किये एक लम्बा अरसा बीत गया है . आप गौर करें तो पाएंगे कि पिछले कुछ सालों में ग़ज़ल लेखन के क्षेत्र में क्रांति सी आ गयी है .आज कि ग़ज़लें आम इंसान के सुख दुःख परेशानियों और जद्दोजेहद कि नुमाइंदगी करने लगीं हैं .ऐसे में रिवायती ग़ज़लें अपनी पहचान खोती जा रही हैं क्यूँ कि वो अब आम इंसान से नहीं जुड़ पातीं,  लेकिन साहब रिवायती ग़ज़लें पढ़ने का अपना लुत्फ़ है

सबसे तू रस्मो-राह करता जा
ग़ैर से भी निबाह करता जा

मैं दुआ ही दिया करूँगा तुझे
तू मुझे , गो , तबाह करता जा

मना करता है कौन जाने को
       दिल पै भी इक निगाह करता जा       

मैंने सोचा पाठक दिवाली के मूड में होंगे और उस मूड को रिवायती ग़ज़लें ही देर तक बखूबी कायम रख सकती हैं लिहाज़ा इस खास मौके पर आज किताबों कि दुनिया में जनाब माधो प्रसाद सक्सेना 'आज़ाद' लखनवीसाहब की संकलित ग़ज़लों की  बेमिसाल किताब 'सहराई फूल " आपकी खिदमत में लेकर हाज़िर हुआ हूँ .


न जानो उसको आशिक़ जिस को मिट जाना नहीं आता
नहीं वह शमआ जिसके पास परवाना नहीं आता

इसे ज़िद है न जाएगा तुम्हारे आस्ताने में
तुम्हीं समझाओ दिल को, मुझको समझाना नहीं आता
आस्ताने : ठिकाना

जला कर शमअ तुर्बत पर,कहा ये नाज़ से उसने
अरे उठ मरने वाले तुझको जल जाना नहीं आता
तुर्बत : क़ब्र

भला वह हुस्न ही क्या हुस्न जिस पर दिल न माइल हो
नहीं वह दिल कि जिस दिल को उलझ जाना नहीं आता

'आज़ाद' लखनवी साहब का जन्म सन 1890 में लखनऊ में हुआ . अपने सत्तर वर्ष के जीवन काल में उन्होंने लगभग पांच सौ ग़ज़लें और नज़में कहीं जो उनके जीते जी पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित नहीं हो पायीं . सन 1961 में उनके इंतेकाल के लगभग साठ वर्षों बाद उनके नाती श्री अनिल चौधरी और अलवर के श्री राधे मोहन राय जी के सम्मिलित प्रयासों से उनमें से कुछ ग़ज़लें इस पुस्तक में प्रकाशित की गयीं हैं .   

ख़ुदा जाने मेरे दिल को हुआ क्या
बताओ तो सही तुमने कहा क्या

तेरी फ़ुर्क़त में जो दम तोड़ता हो
दुआ उसके लिए कैसी दवा क्या
फ़ुर्क़त :वियोग

मसल डाला जो चुटकी से मेरा दिल
तुम्हीं बोलो कि तुमको मिल गया क्या   

आज़ाद साहब अपनी रचनाओं को बहुत खूबसूरती से एक रजिस्टर में दर्ज़ किया करते थे और उम्मीद करते थे की किसी दिन उनका ये रजिस्टर एक किताब कि शक्ल में मंज़रे आम पर आएगा , लेकिन उनका सपना उनके सामने साकार नहीं हो पाया। आज़ाद साहब कि शायरी पढ़ते हुए आप किसी और ही दुनिया की सैर पर निकल जाते हैं . उनकी शायरी में विरह प्रेम पीड़ा और एक तरफ़ा मुहब्बत और उसके तमाम पहलुओं का जिक्र मिलता है। इश्के-हक़ीक़ी में सरोबार उनकी चंद ग़ज़लें तो लाजवाब हैं।

कोई बतलाय यह मुझको कि परवाने पै क्या गुज़री
बड़ा अरमान था मरने का मर जाने पै क्या गुज़री

शराबे-हुस्न वो आँखों से तो अपनी पिलाते हैं
कोई पूछे कि साग़र और पैमाने पै क्या गुज़री

चमन में चार तिनकों से नशेमन को बनाया था
फ़लक से बिजलियों के फिर चमक जाने पै क्या गुज़री

अगर आप खालिस उर्दू में रचित शायरी पसंद करते हैं और उर्दू लिपि पढ़ नहीं पाते तो ये ये किताब आपके लिए किसी वरदान से कम नहीं। उनकी हर ग़ज़ल में उर्दू के खूबसूरत लफ़्ज़ों कि भरमार है जो हिंदी पाठकों के लिए समझना थोड़ी मुश्किल जरूर लेकिन उनके आसान मानी भी साथ दिए होने की वजह से पढ़ी और समझी जा सकती है. वैसे भी ये उस ज़माने कि शायरी है जब इंसान सीधे सरल ईमानदार और दूसरों कि मदद को हमेशा तत्पर रहा करते थे। आज़ाद साहब रेलवे में स्टेशन मास्टर थे और अपनी सेवा काल के दौरान बनारस मिर्ज़ापुर फ़ैज़ाबाद आदि स्थानो पर तैनात रहे . वो जहाँ रहे दूसरों कि मदद करते रहे और अपने घर में नियमित रूप से शायरी कि महफिले सजाते रहे।

सख्त-जानी से मेरी तंग आ गया जल्लाद भी
कुंद हो कर रह गया है खंजरे-फ़ौलाद भी 

यह कोई शिकवा नहीं है पूछना है इस क़दर
तुम नहीं आये तो क्यूँ आई तुम्हारी याद भी

शौक़ से ज़ुल्मों -सितम करते रहो आज़ाद पर
लेकिन इतना चाहिए सुनते रहो फ़रियाद भी

इस किताब में श्री राधे मोहन राय साहब का ग़ज़ल और आज़ाद साहब के व्यक्तित्व पर लिखा लेख दिलचस्प और पढ़ने लायक है .ग़ज़ल क्या है कैसे कही जाती है और क्यूँ इतनी लोकप्रिय है जैसे विषयों पर उन्होंने से विस्तार से चर्चा की है। आज़ाद साहब के कलाम के लिए वो लिखते हैं " आज़ाद लखनवी कि ग़ज़ल उपमा-रूपक कि दृष्टि से ही नहीं, विषय वास्तु और शैली कि दृष्टि से भी पूरी तरह रवायती ग़ज़ल कही जा सकती है, उनका कलाम निहायत पाकीज़ा है।

न छुरी है न तो खंज़र है न तलवार है इश्क
आप ही ज़ख्म है और आप ही वार है इश्क

हर जगह एक नये भेस में आता है नज़र
है अजब ढंग,कहीं गुल है कहीं ख़ार है इश्क

इश्क ही इश्क है बस दोनों जहाँ में रौशन
इश्क क्या चीज़ है इक मतलाए -अनवार है इश्क
मतलाए-अनवार: प्रकाश पुंज 

अयन प्रकाशन, महरौली, दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस ग़ज़ल संग्रह में किमाम के पान और तम्बाकू,हुक्के और पतंग बाज़ी के शौकीन जनाब आज़ाद साहब कि चुनिंदा अस्सी ग़ज़लें और ग्यारह नज़में शामिल हैं। किताब प्राप्ति के लिए आप जैसा कि मैं हर बताता हूँ आप अयन प्रकाशन के श्री भूपल सूद साहब जो ग़ज़ब के इंसान हैं से उनके मोबाइल न. 9818988613 पर संपर्क करें. 

चलते चलते लीजिये पढ़िए आज़ाद साहब की एक ग़ज़ल के कुछ और शेर

हमें क़त्ल करके वो पछता रहे हैं
हम उनकी नदामत से शरमा रहे हैं
नदामत::पश्चाताप

तेरी याद में और तसव्वुर में तेरे
बहरहाल दिल अपना बहला रहे हैं

क़फ़स में भी है हमको यादे नशेमन
परेशान तिनके नज़र आ रहे हैं
कफस: कैद , यादे नशेमन : घौंसले की याद  

आप भी तो अब पुराने हो गये

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दूर होंठों से तराने हो गये 
हम भी आखिर को सयाने हो गये 

यूं ही रस्ते में नज़र उनसे मिली 
और हम यूं ही दिवाने हो गये 

दिल हमारा हो गया उनका पता 
हम भले ही बेठिकाने हो गये 

खा गई हमको भी दीमक उम्र की 
आप भी तो अब पुराने हो गये 

फिर से भड़की आग मज़हब की कहीं 
फिर हवाले आशियाने हो गये 

खिलखिला के हंस पड़े वो बेसबब 
बेसबब मौसम सुहाने हो गये 

आइये मिलकर चरागां फिर करें 
आंधियां गुजरे, ज़माने हो गये 

लौटकर वो आ गये हैं शहर में 
आशिकों के दिन सुहाने हो गये 

देखकर "नीरज"को वो मुस्का दिये 
बात इतनी थी, फसाने हो गये

किताबों कि दुनिया -89

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मिरी ज़िन्दगी किसी और की, मेरे नाम का कोई और है
मिरा अक्स है सर-ए-आईना, पसे -ए -आईना कोई और है

न गए दिनों कि ख़बर मिरी, न शरीके हाल नज़र तिरी
तिरे देश में, मिरे भेष में कोई और था कोई और है  

न मकाम का, न पड़ाव का, ये हयात नाम बहाव का
मिरी आरज़ू न पुकार तू, मिरा रास्ता कोई और है

ऐसे दिलकश शेरों से जड़ी ग़ज़ल के शायर "मुज़फ्फ़र वारसी"साहब की ऐसी कई लाज़वाब ग़ज़लों का संपादन किया है जनाब सुरेश कुमार जी ने और जिसे "दर्द चमकता है"शीर्षक से किताब की शक्ल में छापा है "डायमंड बुक्स -दिल्ली ने। आज हम "किताबों कि दुनिया"श्रृंखला की इस कड़ी में इसी किताब का जिक्र करने वाले हैं .


ग़म से छुप कर इज़हार-ए -ग़म करते हैं
पाँव में घुँघरू बाँध के मातम करते हैं

काँटा भी तलवे का निकाल लें कांटे से
दर्द को दर्द कि शिद्दत से कम करते हैं

अपनी प्यास के हाथों हम बदनाम हुए
दरिया पीकर शबनम शबनम करते हैं

एटम बम ईज़ाद मुज़फ्फ़र इंसां की
और कीड़े तख़लीक़-ए-रेशम करते हैं
तख़लीक़-ए-रेशम= रेशम कि रचना

मेरठ के सूफी वारसी नाम से प्रसिद्द जमींदार परिवार में 20 दिसम्बर 1933 को मुज़फ्फर साहब का जन्म हुआ .बचपन से ही उन्हें सूफियाना माहौल मिला . घर में अक्सर जमतीं शायरी की महफिलों में अल्लामा इक़बाल, जोश मलीहाबादी, कुंअर महिंदर सिंह बेदी सहर, हसरत मोहानी जैसे कद्दावर शायरों की संगत में शायरी की बारीकियां सीखीं .

नक्श दिल पर कैसी कैसी सूरतों का रह गया
कितनी लहरें हमसफ़र थीं फिर भी प्यासा रह गया

कैसी कैसी ख्वाइशें मुझसे जुदा होती गयीं
किस क़दर आबाद था और कितना तनहा रह गया

उससे मिलना याद है मिलकर बिछड़ना याद है     
क्या बता सकता हूँ क्या जाता रहा क्या रह गया

मैं ये कहता हूँ कि हर रूख़ से बसर की ज़िन्दगी
ज़िन्दगी कहती है हर पहलू अधूरा रह गया

साधारण बोलचाल की भाषा के लफ़्ज़ों को अपनी ग़ज़लों में ढालने के हुनर से वारसी साहब को उर्दू अदब में बहुत ऊंचा स्थान मिला है . यही वजह है की उनके कलाम को पकिस्तान और हिंदुस्तान के मशहूर ग़ज़ल गायकों ने गा कर लोकप्रिय किया है। पाकिस्तान जो उनका वतन था की बात क्या करनी, उनकी शायरी को हिंदुस्तान से प्रकाशित होने वाली प्रायः सभी उर्दू पत्रिकाओं ने छापा है.      

शोला हूँ भड़कने की गुज़ारिश नहीं करता
सच मुंह से निकल जाता है कोशिश नहीं करता

गिरती हुई दीवार का हमदर्द हूँ लेकिन
चढ़ते हुए सूरज की परस्तिश नहीं करता
परस्तिश =पूजा

लहरों से लड़ा करता हूँ दरिया में उतर के
साहिल पे खड़े हो के मैं साज़िश नहीं करता

हर हाल में खुश रहने का फ़न आता है मुझको
मरने कि दुआ, जीने की ख्वाहिश नहीं करता    

'बर्फ की नाव', 'खुले दरीचे बंद हवा', 'कमंद', 'लहू कि हरियाली', 'लहज़ा', आदि उनकी प्रसिद्द किताबें हैं। उनकी आत्मकथा "गए दिनों का सुराग "उर्दू अदब में क्लासिक का दर्ज़ा रखती है."दर्द चमकता है "देवनागरी में उनकी ग़ज़लों का पहला संग्रह है जिसमें उनकी मशहूर ग़ज़लों में से 90 को शुमार किया गया है।

तमाम उम्र मिरी इस तरह कटी जैसे
कमर पे हाथ बंधे हैं गले में फंदा है

जहाँपनाह भी मुझको पनाह क्या देगा
खुदा जो बनता है वो भी खुदा का बन्दा है

हर एक चीज़ मुज़फ्फ़र है किस क़दर महंगी
बस आदमी की शराफ़त का भाव मंदा है   

वारसी जी ने अपने लेखन कि शुरुआत पाकिस्तानी फिल्मों के गीत लिखने से की और फिर धीरे धीरे नज़्म,हम्द और नात लेखन की और मुड़ गए. नात लेखन और उसे गाने के अंदाज़ से उन्हें बहुत मकबूलियत हासिल हुई .इन्हीं सब के बीच उनका ग़ज़ल लेखन का सिलसिला भी चलता रहा.

      
मेरा किरदार है मिरी पहचान
लूं न खैरात दास्तानो से

मुझको ऊंचा उछाल दो लहरो
मेरा क़द कम न हो चटानों से

घिर गया दोस्ती के जंगल में
तीर आने लगे मचानों से 

पाकिस्तान सरकार द्वारा "प्राइड आफ परफॉर्मेंस"पुरूस्कार से सम्मानित मुज़फ्फ़र साहब ने 28 जनवरी 2011 को लाहोर में इस दुनिया-ए -फ़ानी को अलविदा कह दिया. वो चाहे अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी लिखी हज़ारों हम्द ,नात,नज़्म और ग़ज़लें हमेशा ज़िंदा रहेंगी.   

वो अपने ज़ेहन में रहते हैं घर नहीं रखते
दिया जला के जो दीवार पर नहीं रखते
****
वो यूँ खामोश रहा, बोलता रहा जैसे
मैं बोलता रहा और कुछ न कह सका जैसे
****
अब तो कुछ यूँ हमें तस्वीर हमारी देखे
हार कर जैसे जुआरी को जुआरी देखे
****
सर से गुज़रा भी चला जाता है पानी की तरह
जानता भी है कि बरदाश्त की हद होती है
****
पहले रग रग से मिरी खून निचोड़ा उसने
अब ये कहता है कि रंगत ही मिरी पीली है

मुश्किल है ये जीवन, इसे आसान करेंगे

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इन दिनों शादियों का सीजन अपने चरम पर है , हर शहर गली मुहल्लों में शादियों कि धूम मची हुई है। जिनकी हो रही है वो बहुत खुश हैं जिनकी नहीं हुई वो होने कि आस लगाए बैठे हैं और जिनकी हो गयी है वो गा रहे हैं "सोचा था क्या क्या हो गया ...." 

इस मौके को ध्यान में रखते हुए मुम्बई निवासी मेरे प्रिय मित्र श्री सतीश शुक्ला "रकीब"जो गलती से शायर भी हैं ने सप्त पदीपर एक ग़ज़ल कह डाली है। ये ऐसा विषय है जिस पर शायद ही किसी शायर ने कलम चलाई हो।     

मेरी मानें और इस ग़ज़ल को रट कर जिस शादी में जाएँ वहीँ सुनाएँ और वाह वाही पाएं।


अंजान हैं, इक दूजे से पहचान करेंगे
मुश्किल है ये जीवन, इसे आसान करेंगे

खाई है क़सम साथ निभाने की हमेशा 
हम आज सरेआम ये ऐलान करेंगे 

इज़्ज़त हो बुज़ुर्गों की तो बच्चों को मिले नेह
इक दूजे के माँ-बाप का सम्मान करेंगे

हम त्याग, सदाचार, भरोसे की मदद से 
हर हाल में परिवार का उत्थान करेंगे 

आपस ही में रक्खेंगे फ़क़त, ख़ास वो रिश्ते 
हरगिज़ न किसी और का हम ध्यान करेंगे

हर धर्म निभाएंगे हम इक साथ है वादा
तन्हा न कोई आज से अभियान करेंगे

सुख-दुख हो, बुरा वक़्त हो, या कोई मुसीबत 
मिल बैठ के हम सबका समाधान करेंगे 

जीना है हक़ीक़त के धरातल पे ये जीवन 
सपनोँ से नहीं ख़ुद को परेशान करेंगे 

जन्नत को उतारेंगे यही मंत्र ज़मीं पर 
सब मिल के 'रक़ीब'इनका जो गुणगान करेंगे

किताबों की दुनिया - 90

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सभी पाठकों को नव वर्ष कि ढेरों शुभकामनाएं

*****

ख़ुशी के गीत लिखेगी हयात फूलों पर
बया ने टांग दिए घौंसले बबूलों पर

सुनहरी राहों पे चलते तू भी थका होगा
जरा सा बैठ लें इन घास के दुकूलों पर

'नज़र जहान में होते हैं लोग कम ऐसे
कि सर कटा दिया करते हैं जो उसूलों पर

जब कभी किताबों कि दुनिया में ऐसे शायर की किताब का जिक्र आता है जो युवा है या जो बहुत छोटी अनजान जगह का रहने वाला है तब मुझे जो ख़ुशी हासिल होती है उसे बयां नहीं कर सकता। इस से ये बात ज़ाहिर होती है कि शायरी उम्र दराज़ और बड़ी जगह के शायर की मोहताज़ नहीं होती . मानवीय रिश्तों के पौधे जितने युवाओं में या दूर दराज़ के इलाकों में फलते हैं उतने उम्र दराज़ या शहरी चकचौंध में रहने वाले शायरों में नहीं. नये साल की शुरुआत हम ऐसे ही एक युवा और दूर दराज़ इलाके के शायर की किताब के साथ कर रहे हैं।

नहीं उनको अभी तक मौसमों के छल का अंदाजा
छतों पर बैठ कर जो धूप में जुल्फें सुखाते हैं

अज़ब फ़नकार हैं ये लोग तेरे शहर वाले भी
बजा कर पत्थरों से आईनों को आज़माते हैं

किसी को जब मिला कीजे सदा हंस कर मिला कीजे
उदास आँखों को अक्सर लोग जल्दी भूल जाते हैं   

राजस्थान के जिले 'सवाई माधोपुर'की 'बामनवास'तहसील के गाँव 'पिपलाई'का नाम आपने शायद ही सुना हो, ईमानदारी से कहूं तो राजस्थान में पचास से ऊपर वर्षों रहने के बावजूद मैंने भी नहीं सुना था . 'सवाई माधोपुर'तो मैं गया हूँ लेकिन उसकी किसी तहसील में नहीं ,इस छोटी सी अनजान जगह के उम्र में छोटे लेकिन शायरी में कद्दावर शायरए.एफ.'नज़र'का नाम भी मेरे अन्जाना ही था.

चूल्हा चौका फ़ाइल बच्चे, दिन भर उलझी रहती है
वो घर में और दफ्तर में अब आधी आधी रहती है

मिलकर बैठें दुःख सुख बांटे इतना हम को वक्त कहाँ
दिन उगने से रात गए तक आपा-धापी रहती है

क्या अब भी घुलती हैं रातें चाँद परी की बातों में
क्या तेरे आँगन में अब भी बूढी दादी रहती है  

दिलचस्प बात ये है कि 30 जून 1979 को जन्में 'नज़र'साहब का मूल नाम 'अशोक कुमार फुलवरिया'है. आप हिंदी साहित्य में एम.ए. हैं साथ ही बी.एड. और बी.एस.टी.सी. के कोर्स भी किये हैं। 'नज़र'साहब की किताब का मेरी नज़र में आना भी कम दिलचस्प नहीं। किताब की खोज में जयपुर के ‘लोकायत प्रकाशन’ गया जहाँ हमेशा की तरह शेखर जी किसी हिसाब किताब में व्यस्त गर्दन झुकाये बैठे थे. मुझे देखा मुस्कुराये और बोले अरे नीरज जी इस बार आपको निराशा ही हाथ लगेगी , आपके मतलब की सारी किताबें उदयपुर में चल रहे पुस्तक मेले में भेजी हुई हैं , आज तो आप चाय पियें और गप्पें मारें .लेकिन साहब हम उन में से नहीं जो यूँ हार मान जाएँ। पूरी दुकान खंगाल डाली कुछ नहीं मिला ऊपर से चाय भी आ गयी। चाय पीने के लिए अचानक मुड़ा तो लड़खड़ा गया और किताबों के ढेर पे ढेर हो गया। ढेर में लगीं किताबें गिरीं और बीच में दबी ये किताब "पहल"नज़र आ गयी. पन्ने पलटे तो बांछे खिल गयीं.

फ़ुर्सतों में जब कभी मिलता हूँ दिन इतवार के
मुस्कुरा देते हैं गुमसुम आईने दीवार के

हादसों की दहशतें हैं गाड़ियों का शोर है
शहर में मौसम कहाँ है फ़ाग और मल्हार के

कीमतें रोटी की क्या हैं मुफ़लिसों से पूछिए
भाव जो देखें हैं तुमने झूठ हैं अखबार के

देश के नामी गरामी प्रकाशकों जैसे वाणी, डायमंड, वाग्देवी, अयन जिन्होंने दूर दराज़ के शायरों की शायरी को हिंदी के आम पाठकों तक पहुँचाया है में अब बोधि प्रकाशन, जयपुर का नाम भी जुड़ गया है. बोधि प्रकाशन से शायरी की कुछ बहुत अच्छी किताबें प्रकाशित हुई हैं जिनमें से कुछ का जिक्र इस श्रृंखला में कर चुका हूँ और कुछ का बाकी है."पहल"भी बोधि प्रकाशन से ही प्रकाशित हुई है .



दीवारो दर तो उसने सजा कर रखे मगर
खुद को संवारने की ही फुर्सत नहीं मिली

मंगल से ले के चाँद के दर तक पहुँच गया
इंसान को कहीं पे भी राहत नहीं मिली

माँ बाप को तो मिल गयी राहत तलाक से
बच्चों को उनके हक़ कि मुहब्बत नहीं मिली 

इस किताब को खरीद कर पढ़ने के लिए आप बोधि प्रकाशन के माया मृग जी से 98290-18087पर संपर्क कर सकते हैं या फिर इस किताब को ऑन लाइन भी मंगवा सकते हैं . आप इस किताब की प्राप्ति के लिए चाहे जो विधि अपनाएँ लेकिन इस के शायर नज़र साहब जो इनदिनों पोकरण थार डिस्ट्रिक्ट राजस्थान में कार्यरत हैं, को उनके फेसबुक पेज पर या उनके मोबाइल न. 96497-18589  पर फोन करके उनकी इस उम्दा शायरी के लिए मुबारकबाद जरूर दें .पाठकों की प्रशंसा शायर का खून किस कदर बढ़ा देती है इसका शायद आपको अंदाज़ा नहीं है। इस प्रशंसा से वो और भी अच्छा लिखने को प्रेरित होता है और जो शायर प्रशंसा से फूल कर कुप्पा हो जाते हैं उनके पतन में समय नहीं लगता .   

आज भी घर अपने शायद देर से पहुंचूंगा मैं
रास्ता रोके खड़ी हैं लाल-पीली बत्तियां

बिछ गयीं गलियों में लाशें और घरौंदे जल चुके
आ गयीं पुरसिश को कितनी लाल-नीली बत्तियां

बंद कर कमरे कि बत्ती आ मेरे पहलू में आ
खोल दे बिस्तेर पे मेरे दो नशीली बत्तियां

शहर का सच झील के दामन पे लिख्खा है 'नज़र'
थरथराती बिल्डिगें और गीली-गीली बत्तियां

हार्ड बाउंड में उपलब्ध इस किताब में 'नज़र'साहब की साठ से अधिक ग़ज़लें और ढेरों फुटकर शेर संग्रहित हैं जो पाठकों को इक्कीसवीं सदी की शायरी में प्रेम ,वियोग ,निराशा, आशा, अवसाद , ख़ुशी,समाज का दर्द और भूख की पीड़ा के अनेक रंग वीरान बदलते तेवरों के साथ दिखाते हैं . उनकी ग़ज़लें नव ग़ज़लकारों में अपनी एक अलग पहचान बनाने में कामयाब हुई हैं. इस युवा ग़ज़लकार से आप उनके af.nazar@rediffmail.com मेल आई डी पे गुफ्तगू करें तब तक हम निकलते हैं आपके लिए शायरी की एक और किताब ढूढ़ने .

अब आँधियों की ज़द में हैं वीरान खिड़कियां
सर मारती हैं यार परेशान खिड़किया

मिलती हैं हर गली कि हवाओं से झूम कर
घर कि रिवायतों से हैं अनजान खिड़कियां

ये चेहरे जैसे झांकती बेताब ग़ज़लें हों
गोया कि शायरों के हैं दीवान खिड़कियां  

बच्चों से घर चहके यूँ

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ग़ज़ल जंगल की कोयल है सर्कस की नहीं जो ट्रेनर के इशारे पे गाये सो जनाब अरसा गुज़र जाने पे भी जब कोई ग़ज़ल नहीं हुई तो मैं परेशान नहीं हुआ फिर अचानक ज़ेहन कि मुंडेर पे ये कोयल बैठी दिखी जिसने मुश्किल से एक तान लगाईं और फुर्र हो गयी. जैसी भी है, उसी तान को आपके साथ बाँट रहा हूँ बस।



अब रिश्तों में गहराई ? 
बहते पानी पर काई ? 

तुम कमरों में बंद रहे 
धूप नहीं थी हरज़ाई 

तुमसे मिल कर देर तलक 
अच्छी लगती तन्हाई 

बच्चों से घर चहके यूँ 
ज्यूँ कोयल से अमराई 

लाख बुराई हो जिसमें 
ढूंढो उसमें अच्छाई 

तन्हा काली रातों की 
बढ़ती क्यूँ उफ़ ! लम्बाई 

बीती बात उधेड़ो मत 
'नीरज'सीखो तुरपाई

ठुकरा दो या प्यार करो

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बारिश तो लगभग रुक गयी थी लेकिन कोहरा अभी भी कायम था जब 19 जनवरी 2014 को जयपुर से सिकंदरा बाद जाने वाली गाड़ी सीहोर स्टेशन पर अपने निर्धारित समय सुबह के 7. 30 बजे से दो घंटे देर से पहुंची। ए.सी. कोच से उतरते ही ठंडी हवा के थपेड़े ने जोरदार वाला स्वागत किया। मुंह से गर्म भाप निकालते हुए मैं अभी चंद कदम चला ही था के सामने से कोहरे को चीरते सर पर टोपी पहने, मफलर लपेटे, जैकेट की जेब में हाथ डाले पंकज सुबीर तेज क़दमों से चलते नज़र आ गए।

सिहोर मेरे लिए तीर्थ स्थान है। पहली बार जब आया था तो मुझे इसने श्री रमेश हठीला सम्मान से सम्मानित किया और दूसरी बाद इसने मुझे मेरी पहली (और शायद एकमात्र ) पुस्तक के विमोचन के लिए बुलाया है। ये दोनों घटनाएं ऐसी हैं जो जीवन में कभी घटित होंगी ऐसा सपने में भी नहीं सोचा था।

पंकज जी से मेरी मुलाकात सात साल पहले नेट के माध्यम से हुई उन्हीं से ग़ज़ल का ककहरा सीखने की कोशिश की. उन्होंने बहुत कुछ समझाने की कोशिश की लेकिन मेरी बुद्धि इतनी विकसित नहीं थी के उनकी बताइ सभी बातें समझ में आ जातीं। उनसे , प्राण साहब से द्विजेन्द्र द्विज जी से और मयंक अवस्थी जी से जो थोडा बहुत सीखा उसी के सहारे ग़ज़ल कहने की कोशिश शुरू की। ब्लॉग पर पाठक पढ़ते रहे हौसला अफजाही करते रहे और मैं लिखता रहा. पिछली बार के सीहोर प्रवास के दौरान गौतम राजरिश ने सबसे पहले मुझे ग़ज़लों की एक किताब छपवाने का आग्रह किया , आग्रह क्या एक दम कनपटी पर फौजी कि तरह बन्दूक तान कर हुक्म दिया की नीरज जी आपकी एक किताब सालभर के अंदर अंदर छप कर आनी ही चाहिए और पंकज जी को भी हिदायद दी की इसके लिए आपको ही नीरज जी की मदद करनी है। अब साहब जान किसे प्यारी नहीं होती इसलिए हम दोनों जुट गए इस जबरदस्ती के लादे काम पर क्यूँ की फौजी को कौन समझाता की भाई इस किताब को पढ़ेगा कौन और खरीदेगा कौन ? हमें पता था कि फौजी अफसर कुछ भी बर्दाश्त कर सकता है लेकिन हुक्म उदूली बर्दाश्त नहीं करता इसलिए गौतम को समझाने की बात ठन्डे बस्ते में डाल कर हमने किताब छपवाने की और ध्यान देना शुरू कर दिया।

पत्नी श्री को जब ये बात बतायी तो उसने कहा जीवन में और कुछ तो आपने चर्चा योग्य किया नहीं इसलिए चलो एक किताब ही छपवा लो इस से कम से कम अच्छी या बुरी चर्चा तो होगी आपकी।

रास्ते भर मैं और पंकज जी मौसम और देश की राजनीति कि चर्चा करते रहे क्यूँ कि हम दोनों जानते थे कि किताब और उसका शायर चर्चा योग्य नहीं है। कड़कती ठण्ड की शाम 4.30 बजे समय पर शुरू हुए गरिमा मय में कार्यक्रम में आखिर "डाली मोगरे की"किताब का विमोचन हो ही गया।


कार्यक्रम की विस्तृत जानकारी तो आपको पंकज जी के ब्लॉग http://subeerin.blogspot.in/पर मिल जायेगी यहाँ तो मैं सिर्फ ये कहना चाहता हूँ कि ये किताब आप सब के लिए है इसलिए आपको इसकी प्राप्ति के लिए सिर्फ मुझे अपने पते का SMS भेजना है और कुछ नहीं। मेरा मोबाईल न। 09860211911 है.


अब ये किताब आपकी है "ठुकरा दो या प्यार करो "

किताबों की दुनिया - 91

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"किताबों की दुनिया"श्रृंखला अब अपने शतक की और बढ़ रही है। मुझे लगता है कि जैसे अभी तो शुरुआत ही हुई है। न जाने कितने शायर और उनकी शायरी अभी जिक्र किये जाने योग्य है। मैं कितनी भी कोशिश करूँ पर फिर भी मेरी कोशिश समंदर से उसके सिर्फ एक कतरे को आप तक पहुँचाने से ज्यादा नहीं होगी।

इन दिनों मुनव्वर राना जी के संस्मरण की किताब "जो हम पे गुज़री सो -"का पहला भाग "बगैर नक़्शे का मकान " (उर्दू में इसी नाम से छपी किताब का हिंदी तर्जुमा )पढ़ रहा हूँ , जिसमें उन्होंने बहुत से उर्दू शायरों का जिक्र कुछ इस दिलचस्प अंदाज़ में किया है कि दिल करता है कहीं से उनकी किताबें मिले और मैं पढूं , हम हिंदी वालों ने उन शायरों का नाम या उनका लिखा (कम से कम मैंने ) अभी तक न सुना न पढ़ा था। अलबत्ता अगर आप गद्य में शायरी कैसे की जाती का हुनर देखना चाहते हैं तो वाणी प्रकाशन से प्रकाशित, राना साहब की इस किताब के दोनों भाग जरूर पढ़ें। कहने का मतलब ये कि ये श्रृंखला यदि सालों साल चले तब भी बहुत से बेहतरीन शायरों का जिक्र इसमें होने से रह जाएगा।

चलिए आज की चर्चा शुरू करते हैं और आपको मिलवाते हैं एक ऐसे शायर से जिसने ज़िन्दगी की दुश्वारियों से निपटने का तरीका ग़ज़लगोयी में तलाश किया।

अब कोई मज़लूम न हो हक़ बराबर का मिले
ख्वाब सरकारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
 
चल रहे भाषण महज़ औरत वहीँ की है वहीँ
सिर्फ मक्कारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
 
अमन भी हो प्रेम भी हो ज़िन्दगी खुशहाल हो
राग दरबारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
 
इश्क मिटटी का भुला कर हम शहर में आ गए
ज़िन्दगी प्यारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
 
ऐसे बहुत से खूबसूरत अशआर के शायर हैं 22 नवम्बर 1968 को उत्तर प्रदेश के रायबरेली जनपद के 'कसरावां'गाँव में एक बेहद गरीब किसान के घर में जन्मे जनाब आनंद कुमार द्विवेदीऔर किताब है "फुर्सत में आज".
 
 
बिन पते का ख़त लिखा है ज़िन्दगी ने शौक से
जो कहीं पहुंचा नहीं , मैं बस वही पैगाम हूँ
 
है तेरा एहसास जब तक ज़िन्दगी का गीत हूँ
बिन तेरे तन्हाइयों का अनसुना कोहराम हूँ
 
कुछ दिनों से प्रश्न ये आकर खड़ा है सामने
शख्शियत हूँ सोच हूँ या सिर्फ कोई नाम हूँ
 
दुश्मनों से क्या शिकायत दोस्तों से क्या गिला
दर्द का 'आनंद'हूँ मैं , प्यार का अंजाम हूँ

स्नातक शिक्षा प्राप्त आनंद साहब ने खेड़ा सेल्स कार्पोरेशन -नयी दिल्ली में सर्विस मैनेजर के पद पर कार्य करने से पूर्व जीविका के लिए पापड़ बेलते हुए पहले ओ आर जी - मार्ग नामक मार्किट सर्वे कंपनी में नौकरी की जब वहाँ मन नहीं लगा तो बैंक से लोन लेकर परचून की दुकान सफलता पूर्वक चलाई किन्तु एक सड़क दुर्घटना के हादसे ने उन्हें फाकाकशी की नौबत तक पहुंचा दिया।

दुनिया के ग़लत काम का अड्डा बना रहा
हम चौकसी में बैठे रहे जिस मकान के
 
जो अनसुने हुए हैं उसूलों के नाम पर
मेरे लिए वो स्वर थे सुबह की अज़ान के
 
'आनंद'मज़हबों में सुकूँ मत तलाश कर
झगडे अभी भी चल रहे गीत कुरान के
 
आनंद जी की ग़ज़लें उर्दू या हिंदी में नहीं बल्कि आम हिन्दुस्तानी ज़बान में गुफ्तगू करती हैं और सीधी दिल में उतर जाती हैं. अपनी ज़िन्दगी के खट्टे मीठे अनुभवों को उन्होंने में अपनी शायरी में ढाला है। आनंद जी ने ग़ज़ल गोई की अपनी एक अलग शैली विकसित की है , रवायती और मान्य प्रतीकों को भी उन्होंने अलग अंदाज़ से अपनी ग़ज़लों में पिरोया है . उनका ये अंदाज़ बेहद दिलचस्प और दिलकश है।

इसमें क्या दिल टूटने की बात है
ज़ख्म ही तो प्यार की सौगात है
 
दो घडी था साथ फिर चलता बना
चाँद की भी दोस्तों सी जात है
 
कौन कहता है कि राहें बंद हैं
हर कदम पर इक नयी शुरुआत है
 
मत चलो छाते लगा कर दोस्तो
ज़िन्दगी 'आनंद'की बरसात है
     
किताब की भूमिका में शायर 'सईद अय्यूब 'लिखते हैं कि "आनंद की ग़ज़लों में जो मिठास है , जो नफासत है , जो नज़ाकत है, जो पुरअसर ज़ज़बात हैं,जो ज़िन्दगी के तजुर्बे हैं, जो अपने दौर कि जद्दोजेहद है, जो ज़बान कि शाइस्तगी है ,जो साफगोई है , जो गुफ्तगू का दिलकश सलीका है वो तो उनका ये संग्रह पढ़ कर ही महसूस किया जा सकता है।

थक गया हूँ ज़िन्दगी को शहर सा जीते हुए
गाँव को फिर से मेरी पहचान होने दीजिये
 
रात को हर रहनुमा की असलियत दिख जायेगी
शहर की सड़कें जरा सुनसान होने दीजिये
 
बैठकर दिल्ली में किस्मत मुल्क की जो लिख रहे
पहले उनको कम-अज़-कम इंसान होने दीजिये
 
आनंद जी ने अपनी ग़ज़लों में रदीफ़ काफिये के बहुत दिलचस्प प्रयोग किये हैं जो पाठक को गुदगुदाते भी हैं और सोचने पर मज़बूर भी करते हैं। उन्होंने आज के माहौल पर व्यंग बाण भी चलाये हैं और कहीं वो व्यथित भी हुए हैं । आज की व्यवस्था के प्रति उनका विरोध और गुस्सा भी उनकी ग़ज़लों में झलकता है। एक जागरूक शायर और देश का सच्चा नागरिक होने का पूरा प्रमाण उनके कलाम में दिखाई देता है।

पापा को कोई रंज न हो, बस ये सोच कर
अपनी हयात ग़म में डुबोती हैं लड़किया
 
उनमें ... किसी मशीन में, इतना ही फर्क है
सूने में बड़े जोर से रोती हैं लड़कियां
 
फूलों का हार हो, कभी बाहों का हार हो
धागे कीजगह खुद को पिरोती हैं लड़किया

बोधि प्रकाशन , जयपुर (0141 -2503989 , 098290 18087 ) द्वारा पेपर बैक में प्रकाशित इस किताब में आनन्द जी की 98 ग़ज़लें संग्रहित हैं। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप बोधि प्रकाशन के श्री माया मृग जी से संपर्क करें या सीधे आनंद कुमार द्विवेदी जी से उनके मोबाइल 09910410436 पर संपर्क कर उन्हें इस बेहतरीन शायरी के लिए मुबारकबाद दें और अपनी प्रति भेजने का आग्रह करें।

सख्त असमंजस में हूँ बच्चों को क्या तालीम दूं
साथ लेकर कुछ चला था,काम आया और कुछ
 
इसको भोलापन कहूं या, उसकी होशियारी कहूं
मैंने पूछा और कुछ, उसने बताया और कुछ
 
सब्र का फल हर समय मीठा ही हो, मुमकिन नहीं
मुझको वादे कुछ मिले थे, मैंने पाया और कुछ

आप से गुज़ारिश है कि आप इस किताब को जरूर पढ़े और इस नौजवान शायर की हौसला अफजाही करें , उसे और अच्छा कहने को प्रेरित करें। हम निकलते हैं आपके लिए एक और किताब की तलाश में. अपना ख्याल रखियेगा क्यूँ कि आप हैं तभी तो ये किताबों की दुनिया है.

सूर्यास्त

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सोचता हूँ आज आपको अपनी दोयम दर्ज़े कि ग़ज़ल पढ़वाने के बजाय एक ऐसी अद्भुत रचना पढ़वाई जाय जिसकी मिसाल हिंदी साहित्य में ढूंढें नहीं मिलती ( कम से कम मुझे ). इस बार दिल्ली के पुस्तक मेले में मुझे बरसों से तलाशी जा रही सूर्य भानु गुप्तसाहब कि किताब "एक हाथ की ताली"मिल गयी। इस किताब में गुप्त जी की ग़ज़लें, दोहे, कवितायेँ, त्रिपदियाँ, हाइकू, चतुष्पदिआं आदि सब कुछ है। वाणी प्रकाशन से इस किताब के सन 1997 से 2002 के अंतराल में चार संस्करण निकल चुके हैं। ये किताब बाज़ार में सहजता से उपलब्ध नहीं है। (कम से कम मेरी जानकारी में )

इस किताब के पृष्ठ 104 पर छपी गुप्त जी की लम्बी कविता "सूर्यास्त"के कुछ अंश आपको पढ़वाता हूँ।


 
 
चेहरे जले -अधजले जंगल
चेहरे बहकी हुई हवाएँ।
चेहरे भटके हुए शिकारे
चेहरे खोई हुई दिशाएँ।
 
चेहरे मरे हुए कोलम्बस
चेहरे चुल्लू बने समंदर।
चेहरे पत्थर की तहज़ीबें
चेहरे जलावतन पैगम्बर।
 
चेहरे लोक गीत फ़ाक़ों के
चेहरे ग़म की रेज़गारियां।
चेहरे सब्ज़बाग़ की शामें
चेहरे रोती मोमबत्तियाँ।
 
चेहरे बेमुद्दत हड़तालें
चेहरे चेहराहट से ख़ाली।
चेहरे चेहरों के दीवाले
चेहरे एक हाथ की ताली।
 
चेहरे दीमक लगी किताबें
चेहरे घुनी हुई तकदीरे।
चेहरे ग़ालिब का उजड़ा घर
चेहरे कुछ ख़त कुछ तस्वीरें।
 
चेहरे खुली जेल के क़ैदी
चेहरे चूर चूर आईने।
चहरे चलती फिरती लाशें
चेहरे अस्पताल के ज़ीने।
 
चेहरे ग़लत लगे अंदाज़े
चेहरे छोटी पड़ी कमीज़ें।
चेहरे आगे बढ़े मुक़दमे
चेहरे पीछे छूटी चीज़ें।
 
चेहरे चेहरों के तबादले
चेहरे लौटी हुई बरातें।
चेहरे जलसाघर की सुबहें
चेहरे मुर्दाघर की रातें।
 
चेहरे घुटनों घुटनों पानी
चेहरे मई जून की नदियां।
चेहरे उतरी हुई शराबें
चेहरे नस्लों कि उदासियाँ।
 
चेहरे ख़त्म हो चुके मेले
चेहरे फटे हुए गुब्बारे।
चेहरे ठन्डे पड़े कहकहे
चेहरे बुझे हुए अंगारे।
 
चेहरे सहरा धूप तिश्नगी
चेहरे कड़ी क़ैद में पानी।
चेहरे हरदिन एक करबला
चेहरे हर पल इक कुर्बानी।
 
चेहरे एक मुल्क के टुकड़े
चेहरे लहूलुहान आज़ादी।
चेहरे सदमों की पोशाकें
चेहरे इक बूढ़ी शहज़ादी।
 
चेहरे पिटी हुई तश्बीहें
चेहरे उड़े हाथ के तोते।
चेहरे बड़े मज़े में रहते
चेहरे अगर न चेहरे होते।
 
चेहरे अटकी हुई पतंगें
चाहों के सूखे पेड़ों पर
चेहरे इक बेनाम कैफियत
ऊन उतरवाई भेड़ों पर।
 
चेहरे एक नदी में फिसली
शकुन्तलाओं की अंगूठियां
उनको निगल गयीं जो, वे तो
मछली घर की हुई मछलियां।
 
चेहरे लादे हुए सलीबें
अपने झुके हुए कन्धों पर.
सहमे सहमे रैंग रहे हैं
जीवन की लम्बी सड़कों पर.
 
चेहरे सड़कें-छाप उँगलियाँ
पकडे पकडे ऊब चुके हैं
फ़िक्रों के टीलों के
पीछे चेहरे सारे डूब चुके हैं।
 
( सम्पूर्ण कविता में 31 छंद हैं )
 


किताबों की दुनिया -92

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नगर में प्लास्टिक की प्लेट में खाते तो हैं लेकिन
मुझे वो ढाक के पत्तल ओ दोने याद आते हैं
 
कभी मक्का की रोटी साग या फिर मिर्च की चटनी
पराठें माँ के हाथों के तिकोने याद आते हैं
 
मेरा बेटा तो दुनिया में सभी से खूबसूरत है
कहा माँ ने लगा के जो डिठौने याद आते हैं
 
यहाँ तो 'वज्र'अब बिस्तर पे बस करवट बदलता है
उसे वो गाँव के सादे बिछौने याद आते हैं

शायरी में देशज शब्दों जैसे ढाक ,पत्तल, डिठौने , बिछौने आदि का प्रयोग बहुत मुश्किल से पढ़ने में आता है। रोजी रोटी या अन्य कारणों से शहर आने के बाद बहुत से शायरों ने अपने गाँव की याद में बेहतरीन शेर कहें हैं। आज हम आपका परिचय एक ऐसे ही शायर और उसकी किताब से करवा रहे हैं जो दिल्ली जैसे महानगर में आने के बाद अपने गाँव को बहुत शिद्दत से याद करता है। अपने शेरों में गवईं शब्दों के माध्यम से उसने गाँव की खुश्बू फैलाई है।

खेल खिलोने लकड़ी का घोडा सब ओछे थे
मुझको तो अम्मा की कोली अच्छी लगती थी
 
कमरख आम करौंदे इमली आडू और बड़हल
झरी नीम से पकी निबोली अच्छी लगती थी
 
रोज बुलाता था मैं जिसको आवाजें दे कर
वो नन्हीं प्यारी हमजोली अच्छी लगती थी

ये शायरी पाठक को एक ऐसे संसार में ले जाती है जिसे समय अपने साथ कहीं ले गया है। इस संसार कि अब सिर्फ दिलकश यादें ही हम सब के जेहन में ज़िंदा हैं. बहुत से युवा पाठक शायद इस शायरी को आत्मसात न कर पाएं क्यूँ कि इसकी गहराई समझने के लिए संवेदनशील होने के अलावा उस वक्त को समझना भी जरूरी है जब ज़िन्दगी में भागदौड़ नहीं थी और रिश्तों में गहराई थी।

कभी मीठा कभी तीखा कभी नमकीन होता था
हमारे गाँव का मौसम बहुत रंगीन होता था
 
सवेरे छाछ के संग रात की बासी बची रोटी
वहाँ हर शख्स रस की खीर का शौक़ीन होता था
 
वहाँ गोबर लिपे चौके कि चौरे पर उगी तुलसी
उबलता दूध चूल्हे पर अजब सा सीन होता था

गाँव को इस अनूठे अंदाज़ में अपनी शायरी में पिरोने वाले शायर का नाम है श्रीपुरुषोतम'वज्र'जिनकी किताब "कागज़ कोरे"का जिक्र हम"किताबों की दुनिया"श्रृंखला में करने जा रहे हैं .


पंडित “सुरेश नीरव” जी ने ‘वज्र’ साहब कि शायरी के बारे में किताब की भूमिका में लिखा है कि "गाँव,बचपन, माँ ,पर्यावरण और मानवीय रिश्ते वज्र जी कि ग़ज़लों के केंद्रीय तत्व हैं. मनुष्यता इन ग़ज़लों के ऋषि प्राण हैं. माँ किसी जिस्म का नाम नहीं है यह वो अहसास है जो हमारी धमनियों में बसता है. मुश्किल में जो सुरक्षा कवच की तरह तरह हमेशा साथ देता है :-

मुश्किल में जब जाँ होती है
तब होठों पर माँ होती है
 
गर हों साथ दुआएं माँ की
हर मुश्किल आसाँ होती है
 
****
 
हवाएं साथ चलती हैं फ़िज़ायें साथ चलती हैं
मुझे रास्ता दिखाने को शमाएँ साथ चलती हैं
डरूँ मैं आँधियों से क्यूँ कि तूफाँ क्या बिगाड़ेगा
कि मेरे सर पे तो माँ कि दुआएं साथ चलती हैं
 
****

पुरुषोतम जी पिछले चार दशकों से पत्रकारिता से सम्बन्ध रहे हैं उन्होंने सांध्य वीर अर्जुन समाचार पत्र के मुख्य संवाददाता के रूप में पत्रकारिता की उल्लेखनीय सेवाएं कीं।वे पत्रकारिता में भारतीय विद्द्या भवन द्वारा "कन्हैया लाल माणिक लाल "पुरूस्कार के अलावा ''मैत्री मंच' ,'मातृ श्री' , 'आराधक श्री', 'संवाद पुरूस्कार ' , 'भारती रत्न ' , 'राजधानी गौरव' , जैसे 40 से अधिक सम्मानों से पुरुस्कृत किये गए हैं। राजनैतिक आन्दोलनों में 32 से अधिक बार जेल यात्रा की और आपातकाल में 16 माह तक जेल में रहना पड़ा। वज्र जी के ग़ज़लों के अलावा हास्य व्यंग और कविता संग्रह भी छप चुके हैं।

अब पहले सी बात कहाँ
तख्ती कलम दवात कहाँ
 
कुआँ बावड़ी रहट नहीं
झड़ी लगी बरसात कहाँ
 
धुआँ भरा है नगरों में
तारों वाली रात कहाँ
 
चना-चबैना , गुड़ -धानी
अब ऐसी सौगात कहाँ

"कागज़ कोरे "वज्र जी का तीसरा ग़ज़ल संग्रह है , इस से पूर्व सन 2001 में "इक अधूरी ग़ज़ल के लिए "और सन 2005 में "हाशिये वक्त के "ग़ज़ल संग्रह आ चुके हैं। इसका प्रकाशन "ज्योति पर्व प्रकाशन " 99 , ज्ञान खंड -3 , इंदिरापुरम , गाज़ियाबाद ने किया है। आप इस पुस्तक की प्राप्ति के लिए प्रकाशक को 9811721147 पर संपर्क कर सकते हैं।

रहज़न भी घूमते हैं अब खाकी लिबास में
कातिल छिपे हुए थे विधायक निवास में
 
औरत के हक़ में उसने जब आवाज़ की बुलंद
अस्मत उसी की लुट गयी थाने के पास में
 
हम तुमको सराहें और तुम हमको सराहो
यूँ ही गुज़ारी उम्र बस वाणी विलास में

हाल ही में दिल्ली में संपन्न हुए विश्व पुस्तक मेले के दौरान खरीदी इस किताब को पढ़ने के बाद मुझसे रुका नहीं गया और बधाई देने के लिए 14 अक्टूबर 1953 को मेरठ में पैदा हुए , पुरुषोतम जी को उनके मोबाइल न 9868035267 पर फोन लगाया। उधर से हेलो कि आवाज सुनते ही मैंने अपना संक्षिप्त परिचय दिया और एक ही सांस में उनकी किताब से शेर पढ़ते हुए ग़ज़लों की धारा-प्रवाह प्रशंशा शुरू कर दी , जब मैंने अपनी बात पूरी कर ली तो उधर से जवाब आया ग़ज़लों और किताब की प्रशंशा के लिए बहुत बहुत धन्यवाद नीरज जी मैं पुरुषोतम जी का बेटा बोल रहा हूँ , पापा का देहावसान 30 दिसंबर 2013 को हो गया था। आज अगर पापा आपकी बातें सुनते तो बहुत खुश होते। मैं बहुत देर तक कुछ बोल ही नहीं पाया . संवेदना के शब्द जबान से चिपक से गए, जेहन में रहे तो उनकी ग़ज़ल के ये शेर :-

लड़ते-लड़ते इन अंधेरों में कहीं खो जायेंगे
पीढ़ियों के वास्ते हम रौशनी बो जायेंगे
 
दुश्मनी कि इन्तहा जब एक दिन हो जायेगी
फिर हमेशा के लिए हम दोस्तों सो जायेंगे
 
याद आएगी हमारी इस सफ़र के बाद भी
उम्र का लम्बा सफ़र है एक दिन तो जायेगें

आईये हम सब ऐसे विलक्षण ग़ज़लकार की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करें।
 

किताबों की दुनिया - 93

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देश इस समय चुनावी दौर से गुज़र रहा है। हर दल अपनी अपनी पुंगी बजा कर मत दाता को लुभाने में लगे हैं। बहुत कम हैं जो देश के विकास की बात कर रहे हैं अधिकाँश को दूसरों के धर्म भाषा सूरत सीरत आदि में कमियां निकालने से फुर्सत नहीं मिल रही। आने वाले कल में कौन देश की कमान को सम्भालता है ये तो वक्त ही बतायेगा हम कुछ नहीं कहेंगे क्यूँ कि ये मंच राजनीति पे टिप्पणी करने का नहीं है सिर्फ शायरी के माध्यम से हकीकत बताने के लिए है :

कोई काम उन को जो आ पड़ा, हमें आसमाँ पे चढ़ा दिया
जो निकल गया मतलब, तभी हमें रास्ता भी दिखा दिया

वही राज है, वही ताज है, ये चुनाव सिर्फ रिवाज है
कहीं दाम दे के मना लिया, कहीं डर दिखा के बिठा दिया

ये जहां फरेब का नाम है, यहाँ झूठ ही को सलाम है
जो हकीकतों पे अड़ा रहा उसे ज़हर दे के मिटा दिया

इन सीधे सादे सच्चाई बयां करते हुए मारक शेरों के शायर हैं जनाब "कुमार साइल"साहब, जिनकी किताब "हवाएं खिलाफ थीं"का जिक्र हम आज अपनी "किताबों की दुनिया"श्रृंखला में करने जा रहे हैं।



दालान में दीवार तो खिंचावा दी है तुमने
ये धूप , ये बरसात, ये तूफ़ान भी बांटों

लाशें तो उठा लोगे कि पहचान हैं चेहरे
धरती पे पड़े खून की पहचान भी बांटों

क्यूँ थाप पे मेरी हो तेरे पाँव में थिरकन
हम तुम जो बंटें हैं तो ये सुर-तान भी बांटों

24 नवम्बर 1954 को हिसार (हरियाणा ) में जन्में साइल साहब ने दिल्ली यूनिवर्सिटी से मौसिकी में एम् ऐ किया। इन दिनों आप राजकीय स्नातकोत्तर महिला महाविद्यालय, भोडिया खेड़ा, फतेहाबाद (हरियाणा) में प्राचार्य के पद पर कार्यरत हैं। अपनी शायरी में आम इंसान कि खुशियां ग़म तकलीफें उत्सव समेटने वाले साइल साहब फरमाते है कि मेरी ग़ज़लों कि इस लहलहाती फ़सल के तबस्सुम के पीछे हज़ारों अफ़साने, सैंकड़ों कहानियां और न जाने कितने दर्दो-अलम पोशीदा हैं।

ऐ यार तेरे शहर का दस्तूर निराला है
इक हाथ में खंज़र है इक हाथ में माला है

मतलब के लिए खुद ही बारूद थमाते हैं
फिर आप ही कहते हैं, बम किसने उछाला है

किस किस को सजा देगी , अदालत ये जरा देखें
शामिल तो मेरे क़त्ल में हर देखने वाला है

इस किताब को पढ़ते वक्त ये बात बखूबी साफ़ हो जाती है कि शायर ने अपने अशआर में अपने दिली एहसास को बड़े सलीके से सजा कर पेश किया है. उनके हर शेर में एक हस्सास शायर का दिल धड़कता हुआ महसूस होता है. उनके ख़यालात अछूते हैं और शेर कहने का अंदाज़ भी निराला है.

बहुत सोचते थे हमीं से जहाँ है
मगर मर के पाया जहाँ का तहाँ है

इसी इक वहम ने किया हम को रुसवा
लबों पे हो कुछ भी मगर दिल में हाँ है

इबादत के घर में करे है सियासत
ये इन्सां की सूरत में इन्सां कहाँ है

ये माना गले से लगाओगे लेकिन
ये क्या शै है जो आस्तीं में निहाँ है

'हवाएं खिलाफ थीं'के अलावा साइल साहब का एक और शेरी मज़मूआ "रेशमी ज़ंज़ीर "मंज़रे आम पर आने के बाद खासी मकबूलियत हासिल कर चुका है. एक बहुत छोटी सी जगह का ये बड़ा सा शायर भले ही लोकप्रियता के उस मुकाम तक न पहुंचा हो जिस पर उनके समकालीन शायर कायम हैं लेकिन उनकी शायरी अपने समकालीन शायरों के मुकाबले उन्नीस नहीं कही जा सकती। इसीलिए वो जब भी रिसाले या अखबार में छपते हैं तो किसी भी प्रबुद्ध पाठक की निगाह से ओझल नहीं होते।

उस से भागें तो कि तरह भागें
साथ अपने वो कब नहीं होता

कौनसा दे है साथ वो अपना
क्या बिगड़ता जो रब नहीं होता

जैसे उग आये बेसबब सब्ज़ा
प्यार का भी सबब नहीं होता

ये किताब यकीनन मेरे हाथ नहीं आती अगर मैं इस साल के दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में नहीं गया होता। चलते रुकते देखते मुझे आधार प्रकाशन दिखा जहाँ ये किताब मुझे एक शेल्फ में रखी दिखाई दी। शायर का नाम परिचित नहीं था और ये ही इस किताब को शेल्फ से उठा कर देखने का कारण था. मुझे ऐसे शायर जिनके बारे में न अधिक पढ़ा हो और न सुना को पढ़ना बहुत पसंद है. नए शायर के प्रति आप की कोई पूर्व निर्मित धारणा नहीं होती इसीलिए पढ़ने में आनंद आता है। आधार प्रकाशन पर पुस्तकें खरीदने के दौरान हिंदी के प्रसिद्ध लेखक श्री एच आर हरनोट साहब से भी मुलाकात हुई जिनकी सादगी और अपनेपन ने मुझे भाव विभोर कर दिया। ये कहानी फिर सही।

इन फफोलों का गिला कीजे तो किस से कीजे
हम ही बैचैन थे दिल आग में धर देने को

ग़र्क़ होने का खतरा तो उठाना होगा
मौज आती नहीं हाथों में गुहर देने को
गुहर : मोती

पाँव काँटों से हुए जाते हैं छलनी 'साइल'
पेड़ तो खूब लगाए थे समर देने को

बात आधार प्रकाशन की तो हुई लेकिन आधार प्रकाशन है कहाँ इसकी चर्चा नहीं हुई। तो जनाब इस किताब की प्राप्ति के लिए आप आधार प्रकाशन, एस सी एफ 267 सेक्टर -16 पंचकूला -134113 (हरियाणा) को लिखें या aadhar_prkashan@yahoo.com पर ई-मेल करें और अगर आप लिखत पढ़त के झंझट से बचना चाहते हैं तो 0172 - 2566952 पर फोन करें। मेरी राय में तो आपको साइल साहब को 09812595833 पर फोन कर इस लाजवाब किताब के लिए बधाई देते हुए किताब प्राप्ति की फरमाइश कर देनी चाहिए। यकीन कीजिये इस किताब की हर ग़ज़ल आप के दिल पर असर करेगी।

चलते चलते उनकी एक ग़ज़ल के चंद शेर और पढ़िए :

अगर आदमी दिल से काला न होता
ख़ुदा ने अदन से निकाला न होता
अदन : स्वर्गीय उपवन

तुम्हारी ये तस्वीर कुछ और होती
लबों पे हमारे जो ताला न होता

पकाते न गर सब अलग अपनी खिचड़ी
सियासत के मुंह में निवाला न होता

किताबों की दुनिया -94

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सावन को जरा खुल के बरसने की दुआ दो 
हर फूल को गुलशन में महकने की दुआ दो 

मन मार के बैठे हैं जो सहमे हुए डर से 
उन सारे परिंदों को चहकने की दुआ दो 

वो लोग जो उजड़े हैं फसादों से, बला से 
लो साथ उन्हें फिर से पनपने की दुआ दो 

जिन लोगों ने डरते हुए दरपन नहीं देखा 
उनको भी जरा सजने संवारने की दुआ दो 

अपने अशआर के माध्यम से ऐसी दुआ करने वाले शायर को फरिश्ता, फकीर या नेक इंसान ही कहा जायेगा । शायर अवाम का होता है और सच्चा शायर वो है जो अवाम के भले की सोचे , अवाम को सिर्फ आईना ही नहीं दिखाए उनके जख्मों पे मरहम के फाहे भी रखे और उन्हें जीने का सलीका भी समझाए ।

जीना है तो मरने का ये खौफ मिटाना लाज़िम है 
डरे हुए लोगों की समझो मौत तो पल पल होती है 

कफ़न बांध कर निकल पड़े तो मुश्किल या मज़बूरी क्या 
कहीं पे कांटे कहीं पे पत्थर कहीं पे दलदल होती है 

इतना लूटा, इतना छीना, इतने घर बर्बाद किये 
लेकिन मन की ख़ुशी कभी क्या इनसे हासिल होती है 

इन खूबसूरत अशआर के शायर हैं जनाब "अज़ीज़ आज़ाद"जिनकी किताब "चाँद नदी में डूब रहा है"का जिक्र आज हम करने जा रहे हैं। शायरी की ये किताब गागर में सागर की उक्ति को चरितार्थ करती है.


तू जरा ऊंचाइयों को छू गया अच्छा लगा 
हो गया मगरूर तो फिर लापता हो जायेगा 

मैं न कहता था ये पत्थर काबिले-सज़दा नहीं 
एक दिन ये सर उठा कर देवता हो जाएगा 

बस अभी तो आईना ही है तुम्हारे रू-ब-रू 
क्या करोगे जब ये चेहरा आईना हो जायेगा 

अज़ीज़ साहब 21 मार्च 1944 को बीकानेर, राजस्थान में पैदा हुए और थोड़े से दिन बीमार रहने के बाद 20 सितम्बर 2006 को इस दुनिआ-ऐ=फानी को अलविदा कह गए. उन की शायरी चाहे उस्तादाना रंग लिए हुए नहीं थी लेकिन वो अवाम की ज़बान के शायर थे और सीधे दिल में उतर जाने वाले अशआर कहते थे. सच्ची और खरी बात कहने में उनका कोई सांनी नहीं था चाहे वो बात सुनने में कड़वी लगे , अब आप ही देखिये ऐसी तल्ख़ बयानी आपने कहीं पढ़ी है ?

मेरा मज़हब तो मतलब है मस्जिद और मंदिर क्या 
मेरा मतलब निकलते ही ख़ुदा को भूल जाता हूँ 

मेरे जीने का जरिया हैं सभी रिश्ते सभी नाते 
मेरे सब काम आते हैं मैं किसके काम आता हूँ 

मेरी पूजा-इबादत क्या सभी कुछ ढोंग है यारों 
फकत ज़न्नत के लालच में सभी चक्कर चलाता हूँ 

 "उम्र बस नींद सी "और "भरे हुए घर का सन्नाटा "ग़ज़ल संग्रह के अलावा उनका उपन्यास "टूटे हुए लोग " , "हवा और हवा के बीच "काव्य संग्रह और "कोहरे की धूप "के नाम से कहानी संग्रह भी मंज़रे आम पर आ चुके हैं। गायक रफीक सागर की आवाज़ में उनकी ग़ज़लों का अल्बम "आज़ाद परिंदा"भी मकबूलियत हासिल कर चुका है।

इस दौर में किसी को किसी की खबर नहीं 
चलते हैं साथ साथ मगर हमसफ़र नहीं 

अपने ही दायरों में सिमटने लगे हैं लोग 
औरों की ग़म ख़ुशी का किसी पे असर नहीं 

दुनिया मेरी तलाश में रहती है रात दिन 
मैं सामने हूँ मुझ पे किसी की नज़र नहीं 

महामहिम राज्यपाल, जिला प्रशाशन, नगर विकास न्यास बीकानेर सहित कई साहित्यिक, सामाजिक व् सांस्कृतिक संस्थाओं से पुरुस्कृत व सम्मानित अज़ीज़ साहब का "चाँद नदी में डूब रहा है "ग़ज़ल संग्रह "सर्जना" , शिव बाड़ी रोड बीकानेर - 334003 द्वारा प्रकाशित किया गया है जिसे sarjanabooks@gmail.com पर इ-मेल कर मंगवाया जा सकता है। इसके अलावा अज़ीज़ साहब की रचनाओंके लिए आप जनाब मोहम्मद इरशाद , मंत्री ,अज़ीज़ आज़ाद लिटरेरी सोसाइटी मोहल्ला चूनगरान , बीकानेर -334005 पर लिख सकते हैं या 9414264880 पर फोन से संपर्क कर सकते हैं.

सिर्फ मुहब्बत की दुनिया में सारी ज़बानें अपनी हैं 
बाकी बोली अपनी-अपनी खेल-तमाशे लफ़्ज़ों के 

आँखों ने आँखों को पल में जाने क्या क्या कह डाला 
ख़ामोशी ने खोल दिए हैं राज़ छुपे सब बरसों के 

नयी हवा ने दुनिया बदली सुर संगीत बदल डाले 
हम आशिक 'आज़ाद'हैं अब भी उन्हीं पुराने नग्मों के 

साम्प्रदायिक सौहार्द और इंसानी भाईचारे के अव्वल अलमबरदार अज़ीज़ साहब की शायरी के अलम पर शहरे बीकानेर की मुहब्बत और अमन पसंदगी का पैगाम अमिट सियाही में लिखा हुआ है। उनकी एक ग़ज़ल के चंद अशआर आपकी नज़र करते हुए अभी तो आप से रुखसत होते हैं फिर जल्द ही लौटेंगे एक नए शायर की किताब के साथ।

बारहा वो जो घर में रहते हैं 
कितने मुश्किल सफर में रहते हैं 

दूर रहने का ये करिश्मा है 
हम तेरी चश्मे तर में रहते हैं 

वो जो दुनिया से जा चुके कब के 
हम से ज्यादा खबर में रहते हैं 

दूर कितने भी हों मगर 'आज़ाद' 
बच्चे माँ की नज़र में रहते हैं

किताबों की दुनिया - 82

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कहती है ज़िन्दगी कि मुझे अम्न चाहिए 
ओ'वक्त कह रहा है मुझे इन्कलाब दो 

इस युग में दोस्ती की, मुहब्बत की आरज़ू 
जैसे कोई बबूल से मांगे गुलाब दो 

जो मानते हैं आज की ग़ज़लों को बेअसर 
पढने के वास्ते उन्हें मेरी किताब दो 

आज हमारी किताबों की दुनिया श्रृंखला में हम उसी किताब "ख़याल के फूल"की बात करेंगे जिसका जिक्र उसके शायर जनाब "मेयार सनेही"साहब ने अपनी ऊपर दी गयी ग़ज़ल के शेर में किया है. मेयार सनेही साहब 7 मार्च 1936 को बाराबंकी (उ प्र ) में पैदा हुए. साहित्यरत्न तक शिक्षा प्राप्त करने बाद उन्होंने ग़ज़ल लेखन का एक अटूट सिलसिला कायम किया।


कारवाँ से आँधियों की छेड़ भी क्या खूब थी 
होश वाले उड़ गए ओ'बावले चलते रहे 

गुलशनो-सहरा हमारी राह में आये मगर 
हम किसी की याद में खोये हुए चलते रहे 

ऐ 'सनेही'जौहरी को मान कर अपना खुदा 
खोटे सिक्के भी बड़े आराम से चलते रहे 

सनेही साहब की ग़ज़लें रवायती ढाँचे में ढली होने के बावजूद अपने अनोखे अंदाज़ के कारण भीड़ से अलग दिखाई देती हैं। अपने समय और समाज को बेहद सादगी और साफगोई के साथ चित्रित करना सनेही साहब की खासियत है।हिंदी उर्दू के लफ़्ज़ों में वो बहुत ख़ूबसूरती से अपनी ग़ज़लों में ढालते हैं

ऋतुराज के ख्याल में गुम होके वनपरी 
कब से बिछाए बैठी है मखमल पलाश का 

सूरज को भी चराग दिखाने लगा है अब 
बढ़ता ही जा रहा है मनोबल पलाश का 

है ज़िन्दगी का रंग या मौसम का ये लहू 
या फिर किसी ने दिल किया घायल पलाश का 

'मेयार'इन्कलाब का परचम लिए हुए 
उतरा है आसमान से ये दल पलाश का 

पलाश पर इस से खूबसूरत कलाम मैंने तो आजतक नहीं पढ़ा कमाल के बिम्ब प्रस्तुत किये हैं मेयार साहब ने।इस किताब के फ्लैप पर छपे श्री विनय मिश्र जी के कथनानुसार "ग़ज़ल का रिवायती तगज्जुल बरकरार रखते हुए निजी और घर संसार के संवेदनों को अनुभव की सुई में पिरो कर शायरी का सुन्दर हार बना देना कमाल का फन तो है ही, मेयार सनेही की शायराना तबियत का पुख्ता प्रमाण भी है."

माहौल में अनबन का चलन देख रहे हैं 
बिखरे हुए सदभाव-सुमन देख रहे हैं 

जिस डाल पे'बैठे हैं उसे काटने वाले 
आराम से अपना ही पतन देख रहे हैं 

वो लोग जो नफरत के सिवा कुछ नहीं देते 
उनको भी मुहब्बत से अपन देख रहे हैं 

यहाँ काफिये में 'अपन'का प्रयोग अनूठा है, जानलेवा है. सनेही साहब अपनी ग़ज़लों में इस तरह के चमत्कार अक्सर करते दिखाई देते हैं ये ही कारण है की इनकी ग़ज़लें बार बार पढने को जी करता है। विगत पचास वर्षों से ग़ज़लों की अविरल धारा बहाने वाले इस विलक्षण शायर की जितनी तारीफ़ की जाय कम है, मूल रूप से उर्दू के शायर सनेही साहब की ग़ज़लों में हिंदी के लफ़्ज़ों का प्रयोग अद्भुत है।

हलाहल बांटने वालो, इसे तो पी चुका हूँ मैं 
मुझे वो चीज़ दी जाय जिसे पीना असंभव हो 

बताओ क्या इसी को हार्दिक अनुबंध कहते हैं 
इधर आंसू पियें जाएँ उधर मस्ती का अनुभव हो 

'सनेही'ज़िन्दगी के ज़हर को रख दो ठिकाने से 
कि मुमकिन है इसी से एक दिन अमृत का उदभव हो

'ख्याल के फूल"किताब, जिसे 'अयन प्रकाशन'महरौली-दिल्ली द्वारा प्रकाशित किया गया है, की प्राप्ति के लिए श्री भोपाल सूद जी से आपको उनके मोबाइल 09818988613 पर संपर्क करना होगा। आप चाहें तो मेयार साहब से उनके मोबाइल 09935528683 पर बात कर उन्हें इन खूबसूरत ग़ज़लों की किताब के लिए मुबारकबाद देते हुए इस किताब को मंगवाने का तरीका भी पूछ सकते हैं .

तुमने मज़हब को सियासी पैंतरों में रख दिया 
सर पे'रखने वाली शै को ठोकरों में रख दिया 

पत्थरों से खेलने वालों को होश आया कि जब 
वक्त ने उनको भी शीशे के घरों में रख दिया 

लूट कुछ ऐसी मची है आजकल इस देश में 
रोटियों को ज्यूँ किसी ने बंदरों में रख दिया 

आम आदमी को समर्पित इस किताब में सनेही साहब की अस्सी बेहतरीन ग़ज़लें संगृहीत हैं जो अपने कहन के निराले अंदाज़, रदीफ़ और काफियों के अद्भुत चुनाव से आपका दिल मोह लेगीं। इस उम्र दराज़ शायर का ये पहला ग़ज़ल संग्रह है जान कर इस बात की पुष्टि होती है की शायर की पहचान उसकी छपी किताबों की संख्या से नहीं बल्कि उसके द्वारा कहे गए असरदार शेरों की वजह से होती है।

हाथ पीले क्या हुए हाथों में सरसों पक गयी 
चार ही दिन की मुलाकातों में सरसों पक गयी 

भेद तो दो दिन में खुल जाता सुनहरी धूप का 
वो तो ये कहिये यहाँ रातों में सरसों पक गयी 

साव जी पानी के बदले तेल जब पीने लगें 
बस समझ लेना बही खातों में सरसों पक गयी 

खूब हो तुम भी 'सनेही'गुलमुहर के शहर में 
लिख रहे हो गीत देहातों में सरसों पक गयी 

चलते चलते आईये पढ़ते हैं सनेही साहब की एक ग़ज़ल के ये शेर और निकलते हैं एक नयी किताब की तलाश में :-

कोई जुगनू जो चमकता है चमकने दें उसे 
क्यूँ समझते हैं उसे चाँद सितारों के ख़िलाफ़ 

खूब हैं लोग जो शोलों को हवा देते हैं 
और आवाज़ उठाते हैं शरारों के ख़िलाफ़ 
शरारों : चिंगारियों 

मेरी कुटिया को हिकारत की नज़र से देखा 
वर्ना मैं कब था फ़लक बोस मीनारों के ख़िलाफ़ 
फ़लकबोस: गगन चुम्बी

भाई प्रसन्न वदन चतुर्वेदी साहब की बदौलत सुनिए सनेही साहब का कलाम उनकी जुबान से जिसे एक नशिस्त में रिकार्ड किया गया :-

किताबों की दुनिया - 95

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दिन एक सितम, एक सितम रात करो हो  
वो दोस्त हो, दुश्मन को भी तुम मात करो हो 

हम को जो मिला है वो तुम्हीं से तो मिला है 
हम और भुला दें तुम्हें ? क्या बात करो हो 

दामन पे कोई छींट न खंज़र पे कोई दाग़ 
तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो 

आज के दौर में ग़ज़ल लेखन में बढ़ोतरी तो जरूर हुई है पर "तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो"जैसा खूबसूरत मिसरा पढ़ने को नहीं मिलता। ये कमाल ही रिवायती शायरी को आज तक ज़िंदा रखे हुए है। वक्त के साथ साथ इंसान की मसरूफियत भी बढ़ गयी है।  आज रोटी कपडा और मकान के लिए की जाने वाली मशक्कत शायर को मेहबूबा की जुल्फों की तरफ़ देखने तक की इज़ाज़त नहीं देती सुलझाना तो दूर की बात है। शायर अपने वक्त का नुमाइन्दा होता है इसीलिए हमें आज की शायरी में इंसान पर हो रहे जुल्म, उसकी परेशानियां, टूटते रिश्तों और उनके कारण पैदा हुआ अकेलेपन, खुदगर्ज़ी आदि की दास्तान गुंथी मिलती है।  

रखना है कहीं पाँव तो रखो हो कहीं पाँव  
चलना ज़रा आया है तो इतराय चलो हो 

जुल्फों की तो फितरत ही है लेकिन मेरे प्यारे 
जुल्फों से ज़ियादा तुम्हीं बल खाय चलो हो 

मय में कोई खामी है न सागर में कोई खोट 
पीना नहीं आये है तो छलकाए चलो हो 

हम कुछ नहीं कहते हैं कोई कुछ नहीं कहता 
तुम क्या हो तुम्हीं सब से कहलवाए चलो हो

ऐसे दौर में सोचा क्यों न रिवायती शायरी के कामयाब शायर जनाब "कलीम आज़िज़"साहब के कलाम की मरहम आज के पाठकों की जख्मी हुई रूहों पर रखीं जाएँ ताकि उन्हें थोड़ी बहुत राहत महसूस हो। इसीलिए हमने आज" किताबों की दुनिया "श्रृंखला में उनकी किताब "दिल से जो बात निकली ग़ज़ल हो गयी "का चयन किया है । कुछ भी कहें साहब रिवायती शायरी का अपना मज़ा है जो सर चढ़ कर बोलता है। कलीम साहब को तो यकीन जानिये इस फन में महारत हासिल है.   



आज अपने पास से हमें रखते हो दूर दूर 
हम बिन न था क़रार अभी कल की बात है

इतरा रहे हो आज पहन कर नई क़बा 
दामन था तार तार अभी कल की बात है 
क़बा =एक प्रकार का लिबास 

अनजान बन के पूछते हो है ये कब की बात 
कल की है बात यार अभी कल की बात है 
   
11 अक्टूबर 1924 को तेलहाड़ा (जिला पटना )में जन्में कलीम साहब की शायरी को पढ़ते हुए बरबस 'मीर'साहब याद आ जाते हैं क्यों की उनकी ग़ज़लों का तेवर मीरसाहब की बेहतरीन ग़ज़लों के तेवर की याद दिलाता है। मीर साहब की ग़ज़लों के तेवर की नक़ल बहुत से शायरों ने समय समय पर की है लेकिन कोई भी न इन तेवरों को दूर तक निभा पाया और न ही उसमें कुछ इज़ाफ़ा कर पाया । कलीम साहब ने ही मीर की शैली को पूरी कामयाबी साथ अपनाया और उसे अपने रंग और अंदाज़ से ताजगी भी प्रदान की।             
  
बंसी तो इक लकड़ी ठहरी लकड़ी भी क्या बोले है  
बंसी के परदे में प्यारे कृष्ण कन्हैया बोले है       
    
घर की बातें घर के बाहर भेदी घर का बोले है 
दिल तो है खामोश बेचारा लेकिन चेहरा बोले है 

अब तक शे'र -ओ-ग़ज़ल में उनकी गूँज रही हैं आवाज़ें 
सहरा से मजनूं बोले है शहर से लैला बोले है 

कलीम साहब की शायरी में , जिसका दामन उन्होंने छोटी उम्र से ही पकड़ लिया था , 1946 में तेलहाड़ा में हुए ख़ूनी साम्प्रदायिक दंगों बाद जिसमें उनका पूरा परिवार तबाह हो गया था, दर्द छलकने लगा । इसी दर्द ने उनकी शायरी को वो आग प्रदान की जिसकी आंच बहुत तेज थी और जिसकी टीस आजतक सुनाई देती है. उनकी कहानी जमाने की नहीं उनकी अपनी है। 

दिल टूटने का सिलसिला दिन रात है मियां 
इस दौर में ये कौन नयी बात है मियां 

नाराज़गी के साथ लो चाहे ख़ुशी से लो 
दर्दे जिगर ही वक्त की सौगात है मियां 

देने लगेंगे ज़ख्म तो देते ही जाएंगे 
वो हैं बड़े , बड़ों की बड़ी बात है मियां 

फूलों से काम लेते हो पत्थर का ऐ 'कलीम'
ये शायरी नहीं है करामात है मियां   

हिंदी भाषी पाठकों को ध्यान में रखते हुए जनाब 'ज़ाकिर हुसैन'साहब ने 'कलीम'साहब की लगभग चार सौ ग़ज़लों में से जो उनके दो ग़ज़ल संग्रह 'वो जो शायरी का सबब हुआ 'और 'जब फैसले बहाराँ आई थी 'में दर्ज़ हैं, करीब 150 ग़ज़लें इस किताब में सहेजी हैं। अच्छी शायरी के लिए जरूरी तीन कसौटियों - सांकेतिक,सार्थक और संगीतात्मक पर खरी उतरती इन सभी ग़ज़लों को बार बार पढ़ने का दिल करता है.

पूछो हो जो तुम हमसे रोने का सबब प्यारे 
हम काहे नहीं कहते गर हमसे कहा जाता 

गुज़री है जो कुछ हम पर गर तुम पे गुज़र जाती 
तुम हमसे अगर कहते हमसे न सुना जाता 

होती है ग़ज़ल 'आज़िज़'जब दर्द का अफ़साना 
कहते भी नहीं बनता चुप भी न रहा जाता        

भारत सरकार द्वारा 1989 में 'पद्मश्री'से सम्मानित कलीम साहब को दूसरे और ढेरों सम्मान प्राप्त हुए हैं जिनमें इम्तियाजे मीर - कुल हिन्द मीर अकादमी अल्लामा मिशिगन उर्दू सोसायटी अमेरिका ,प्रशंशा पत्र -उर्दू काउन्सिल आफ केनेडा , बिहार उर्दू एकेडेमी पुरूस्कार उल्लेखनीय हैं। कलीम साहब  ने 31 साल तक पटना कालेज में अध्यापन का कार्य किया और 1986 में सेवा निवृत हुए।        
     
मिरी बरबादियों का डाल कर इल्ज़ाम दुनिया पर 
वो ज़ालिम अपने मुंह पर हाथ रख कर मुस्कुरा दे है 

अब इंसानों की बस्ती का ये आलम है कि मत पूछो 
लगे है आग इक घर में तो हमसाया हवा दे है 

कलेजा थाम कर सुनते हैं लेकिन सुन ही लेते हैं 
मिरे यारों को मेरे ग़म की तल्खी भी मज़ा दे है 

वाणी प्रकाशन -दिल्ली ने सन 2014 में इस पुस्तक का प्रकाशन किया है।  आप वाणी प्रकाशन को इस किताब की प्राप्ति के लिए  +91 11 23273167 पर फोन करें या फिर मेल करें।  हज़ारों की भीड़ में अपनी पहचान बनाने वाली इस सलीकेमन्द शायर की ग़ज़लें सीधे दिल को छूती हैं। आप इस किताब को प्राप्त करने की जुगत करें तब तक हम निकलते हैं एक और किताब की तलाश में। 

उसे लूटेंगे सब लेकिन इसे कोई न लूटेगा 
न रखियो जेब में कुछ दिल में लेकिन हौसला रखियो 

मुहब्बत ज़ख्म खाते रहने ही का नाम है प्यारे 
लगाये तीर जो दिल पर उसी से दिल लगा रखियो 

न जाने कौन कितनी प्यास में किस वक्त आ जाए  
हमेशा अपने मयखाने का दरवाज़ा खुला रखियो 

यही शायर का सबसे कीमती सरमाया है प्यारे 
शिकस्ता साज़ रखियो दर्द में  डूबी सदा रखियो 
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